Ramkatha राम कथा - लंका की ओर ( Part - 3)
पूर्व पीठिका.
गिरि
त्रिकूट ऊपर बस लंका : तहँ रह रावन सहज असंका.
`तहँ असोक उपवन जहँ रहई : सीता बैठि सोच रत अहई.
जटायु ने वीर कपियों से माता सीता
का पता बतलाते हुए कहा-" हे वीर कपियों ! त्रिकूट पर्वत के ऊपर लंका बनी हुई
है. वहाँ स्वभाव से ही निर्भय सीताजी सोच में डूबी बैठी है. मैं देख रहा
हूँ...परन्तु, तुम नहीं देख सकते, क्योंकि गीध की अपार दृष्टि होती है. मैं वृद्ध
हो गया हूँ, नहीं तो मैं तुम्हारी सहायता अवश्य ही करता.
जो नाघै सत जोजन सागर : करइ सो राम काज मति आगर.
जटायु ने सभी वानर यूथपतियों को
समझाते हुए कहा- "हे कपियों ! जो सौ योजन वाले समुद्र को लांघ जाय, वही
बुद्धिमान रामजी के कार्यों को कर सकेगा.
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सोने की
लंका
सुकेश
के तीन पुत्र थे- माली, सुमाली तथा माल्यवान. इन्ही तीनों दैत्यों ने मिलकर
त्रिकूट, सुबेल( सुमेरु) पर्वत पर लंकापुरी बसाई थी. माली को मारकर देवों और
यक्षों ने कुबेर को लंकापति बना दिया था. रावण की माता का नाम कैकसी सुमाली की
पुत्री थी. अपने नाना के उकसाने पर रावण ने अपनी सौतेली माता इलविल्ला के पुत्र
कुबेर से युद्ध कर लंका को अपने आधिपत्य में ले लिया. इस तरह लंका में राक्षसराज
की स्थापना हुई.
रावण
ने सुंबा और बाली को जीतकर अपने शासन का विस्तार करते हुए अंगद्वीप, मलय द्वीप,
वराह द्वीप, शंख द्वीप, कुश द्वीप, यव द्वीप और आंध्रालय पर विजय प्राप्त की. इसके
बाद रावण ने लंका को अपना लक्ष्य बनाया. लंका पर कुबेर का शासन था. परंतु पिता ने
लंका के लिए रावण को दिलासा दी तथा कुबेर को कैलाश पर्वत के आसपास के त्रिविष्टप
(तिब्बत ) क्षेत्र में रहने के लिए कह दिया. इसी तारतम्य में रावण ने कुबेर का
पुष्पक विमान भी छीन लिया.
आज के
युग के अनुसार रावण का राज्य विस्तार इंडोनेशिया, मलेशिया, बर्मा, दक्षिण भारत के
कुछ राज्य और संपूर्ण लंका पर रावण का राज्य था.
एक
अन्य जानकारी के अनुसार.
एक बार
माता पार्वती को महसूस हुआ कि महादेव तो देवों के देव है. सारे देवता सुंदर-सुंदर
महलों मे रहते हैं लेकिन देवाधिदेव श्मशान में, इससे तो देव की प्रतिष्ठा भी
बिगड़ती है. उन्होंने महादेव से हठ किया कि आपको भी महलों में रहना चाहिए. आपका महल
तो इन्द्र के महल से भी उत्तम और भव्य होना चाहिए. उन्होंने जिद पकड़ी कि अब ऐसा
महल चाहिए, जो तीनों लोकों में न हो.
महादेव
ने समझाया कि हम तो ठहरे योगी, महल में तो चैन नहीं पड़ेगा. महल में रहने के
नियम-विधान होते हैं. मस्तमौला औघड़ों के लिए महल उचित नहीं है. परंतु देवी का वह
तर्क अपनी जगह कायम था कि देव यदि महल में रहते हैं, तो महादेव क्यों श्मशान में
और बर्फ़ की चट्टानों पर ?. पत्नी पार्वती के जिद के कारण महादेव को झुकना पड़ा. महल
के निर्माण के लिए उन्होंने कुबेर को बुलाया और ऐसा महल बनाने को कहा जिसकी
सुंदरता की बराबरी का महल त्रिभुवन में कहीं नहीं हो. वह न धरती पर हो और न ही जल
में.
विश्वकर्मा
जी जगह की खोज करने लगे. उन्हें एक ऐसी जगह दिखाई दी जो चारों ओर से पानी से ढंकी
हुई थी और बीच में तीन सुंदर पहाड़ दिख रहे थे. उस पहाड़ पर तरह-तरह के फ़ूल और
वनस्पतियाँ थीं.
विश्वकर्माजी
ने माता पार्वती को उसके बारे में बताया तो वे प्रसन्न हो गईं और एक विशाल नगर के
निर्माण का आदेश दे दिया. विश्वकर्मा ने अपनी कला-कौशल का परिचय देते हुए वहाँ
सोने की अद्भुत नगरी का निर्माण कर दिया.
माता
पार्वती जी ने गृह-प्रवेश का मुहूर्त निकाला. विश्रवा को आचार्य नियुक्त किया गया.
सभी देवताओं और ऋषियों को निमंत्रण मिला. जिसने भी उस महल को देखा, उसकी प्रशंसा
करते नहीं थकता था.
गृहप्रवेश
के बाद महादेव ने आचार्य से दक्षिणा मांगने को कहा. महादेव की माया से विश्रवा का
मन उस नगरी पर ललचा गया था इसलिए उन्होंने महादेव जी से दक्षिणा के रूप में लंका
ही मांग लिया.
महादेव
ने विश्रवा को लंकापुरी दान कर दी. पार्वतीजी को विश्रवा की इस ढृष्टता पर बड़ा
क्रोध आया. उन्होंने क्रोध में आकर शाप दे दिया कि तूने महादेव की सरलता का लाभ
उठाकर मेरे प्रिय महल को हड़प लिया है. मेरे मन में क्रोधाग्नि धधक रही है.
उन्होंने श्राप देते हुए कहा- महादेव का ही एक अंश एक दिन उस महल को जलाकर कोयला
कर देगा और उसके साथ ही तुम्हारे कुल का विनाश प्रारंभ हो जाएगा.
कथा
श्रुति के अनुसार विश्रवा से वाह पुरी कुबेर को मिली लेकिन रावण ने कुबेर को निकाल
कर लंका को हड़प लिया. शाप के ही कारण शिव के अवतार श्री हनुमानजी ने लंका जलाई और
विश्रवा के पुत्र रावण, कुंभकर्ण सहित कुल का विनाश हुआ.
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जटायु की
बातों को सभी वानरों ने गम्भीरता के साथ सुना. सुना कि जो इस समुद्र को लांघ
जाएगा, वही रामजी के कार्यों को संपन्न कर सकेगा. जटायु की बातों को सुनकर प्रायः
सभी वानरों ने समुद्र की ओर देखा. उस समुद्र का कोई ओर-छोर नहीं था. उन्होंने यह
भी देखा कि कहीं-कहीं तो वह तरंगहीन एवं शांत होने के कारण सोया-सा पड़ा हुआ दिखता
था. वहाँ थोड़ी-थोड़ी लहरें उठ रही थीं और दूसरे ओर अनेक स्थलों पर ऊँची-ऊँची तरंगे
उठ रही थीं. इन ऊँची-ऊंची उठती तरंगो से जो शोर उत्पन्न हो रहा था, जिसे सुनकर सभी
वानरों के मन में भय व्याप्त हो गया. सभी अपने बल और पुरुषार्थ को लेकर गंभीरता से
विचार कर रहे थे,लेकिन उन वानरों में से कोई भी ऐसा वानर नहीं था, जो दावे के साथ
यह कह सके कि वह समुद्र को लांघ सकता है. प्रायः सभी जड़वत बने हुए बैठे थे. कोई
कुछ बोल नहीं रहा था.
वानरों की गहरी चुप्पी को तोड़ते
हुए यूथपति अंगद ने पहल करते हुए वानरों को संबोधित करते हुए कहा-" हे वानरों
! तुम सभी बलवान और बुद्धिमान हो तथा महान पराक्रम करने वाले हो. तुम लोगों में
कभी किसी की भी गति कहीं रुकती नहीं है. इसलिए समुद्र को लांघने में जिसकी जितनी
शक्ति हो, वह मुझसे कह सुनाए".
गज, गवाक्ष, गवय, शरभ, गन्धमादन,
मैन्द, द्विविद, सुषेण और जाम्बवान-इन सबने अपनी-अपनी शक्तियों को बारी-बारी से
परिचय देना प्रारंभ किया.
गज ने कहा कि वह दस योजन की छलांग
मार सकता है. गवाक्ष ने कहा कि वह बीस योजन तक जा सकता है. शरभ ने कहा मैं तीस
योजन तक एक ही छलांग लगा सकता हूँ. ऋषभ ने कहा कि वह चालीस योजन तक ही जा पाऊँगा.
गन्दमादन ने पचास योजन, मैन्द ने साठ योजन, द्विविद ने सत्तर योजन, सुषेण ने अस्सी
योजन तक जाने की बात कही. बूढ़े ऋक्षराज जाम्बवान ने कहा-" युवावस्था में मेरे
अंदर दूर तक छलांग लगाने की शक्ति थी. उसने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बतलाया कि
राजा बलि के यज्ञ में सर्वव्यापि भगवान विष्णु ने तीन पग भूमि नापने के लिए अपने
पैर बढ़ाए थे, उस समय मैंने उनके विराट स्वरूप की थोड़े ही समय में परिक्रमा कर ली
थी. चूंकि अब मैं वृद्ध हो चुका हूँ, बावजूद इसके, मैं आज भी नब्बे योजन तक की
छलांग ही लगा पाऊँगा, इसमें कोई संदेह नहीं है.
सबके मंतव्य सुन चुकने के बाद
यूथपति अंगद ने कहा-"मैं इस महासागर की सौ योजन दूरी को लांघ जाऊँगा, लेकिन
लौटते समय मेरी ऐसी ही शक्ति बनी रहेगी, यह मैं निश्चित रूप से नहीं कह
सकता".
यूथपति अंगद की बातों को सुनकर
चतुर जाम्बवान ने उससे कहा-" तुम्हारा कहना उचित प्रतीत होता है. हम तुम्हारी
गमनशक्ति से भली-भांति परिचित हैं. तुम एक लाख योजन तक भी जा सकते हो, लेकिन मेरे
मतानुसार तुम्हें यह पहल नहीं करनी चाहिए क्योंकि तुम हम सब के स्वामी हो. तुम
किषिकन्धा के भावी सम्राट भी हो, अतः तुम्हारा जाना उचित प्रतीत नहीं होगा. तुम
इन्हीं में से किसी एक को भेजने के बारे में सोचो".
" हे बुद्धिमान जाम्बवान जी
! चूंकि मैं आप सभी का नेतृत्व कर रहा हूँ.
यदि मैं ही स्वयं होकर पहल नहीं करुँगा तो दूसरा कोई भी श्रेष्ठ वानर जाने को
तैयार नहीं होगा. सीता माता की खोज किए बगैर हम वापिस भी लौट नहीं सकते. यदि हम
सुग्रीव जी के आदेश का पालन किए किष्किन्धा लौटेंगे तो निश्चित ही हमें अपने
प्राणों को खोना पडेगा. ऐसी विकट स्थिति में हमें इसी सागर के तट पर रहकर मरणांतक
उपवास करना होगा".
" हे तात ! राजाज्ञा का
उल्लंघन करके जाने पर हमारा विनाश अवश्यम्भावी है. अतः जिस भी किसी उपाय से सीता
माता की खोज में कोई रुकावट न पड़े, उस पर आप गंभीरता से विचार कर्रें, क्योंकि
आपको सब बातों का अनुभव है".
एष संचोदयाम्येनं यः कार्य
साधयिष्यति. (34.कि.कांड)
" हे युवराज ! अब मैं ऐसे
परम वीर को प्रेरित कर रहा हूँ, जो इस महान कार्य को सिद्ध कर सकेगा" ऐसा
कहकर यूथपति जाम्बवान ने वानरश्रेष्ठ वीर हनुमान जी को प्रेरित किया, जो एकान्त
में जाकर बैठे हुए थे और गंभीरता से कुछ सोच रहे थे.
जाम्बवान ने हनुमानजी से
कहा-" हे वानरजगत के वीर !
शास्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ हनुमान ! तुम एकान्त में चुपचाप क्यों बैठे
हो?. हम सभी घोर संकट में पड़े हुए हैं. यह सब देखते हुए भी तुम कुछ बोलते क्यों
नहीं? तुम तो वानरराज सुग्रीव के समान पराक्रमी तथा तेज और बल में श्रीराम और
लक्ष्मण के तुल्य हो".
"कश्यपजी के महाबली पुत्र और
समस्त पक्षियों में श्रेष्ठ जो निनतानन्दन गरुड़ हैं, उन्हीं के समान तुम भी
विख्यात शक्तिशाली एवं तीव्रगामी हो. उनके पंखों में जो बक्ल है, वही बल और
पराक्रम तुम्हारी दोनों भुजाओं में हैं. तुम्हारा वेग और विक्रम भी उनसे कम नहीं
है".
"हे कपिश्रेष्ठ ! तुम बल,
बुद्धि, तेज और धैर्य में समस्त प्राणियों में सबसे बढ़कर हो. फ़िर तुम अपने-आपको
समुद्र लांघने में तैयार क्यों नहीं हो
रहे हो?".
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गरुड़
गरुड-माता
पिता-कश्यप और विनता.
गरुड़ को
पक्षियों का राजा और पतंग जैसी आकॄति के रूप में वर्णित किया गया है. गरूड़ आमतौर
पर एक रक्षक है जो तेजी से कहीं भी जाने की शक्ति रखता है. वह हमेशा सतर्क और
सर्पों का दुश्मन है.
गरुड़ भारत,
थाईलैण्ड और इण्डोनेशिया के राज्य के प्रतीक चिन्ह का एक हिस्सा है. इन्डॊनेशियाई
हथियारों की आधिकारिक कोट गरुड़ पर केन्द्रित है. इसे इण्डोनेशिया का
राष्ट्रीय प्रतीक कहा जाता है.(pancasila). भारतीय वायु सेना भी
हथियारों के अपने कोट में गरुड़ का उपयोग करता है. गरुड़ कमांडॊ फ़ोर्स अपने विशेष
अभियान की इकाई के रूप में जाना जाता है. हिन्दू धर्म में गरुड़ एक दिव्य ईगल की
तरह सूरज पक्षी और पक्षियों का राजा है. ऋग्वेद में एक गरुड़यान का उल्लेख मिलता
है. शतपथ ब्राह्मण में गरुड़ साहस का प्रतीक माना गया है. महाकाव्यों मे एक
शक्तिशाली प्राणी है, जिसके पंख फ़ड़फ़ड़ाने से स्वर्ग, पृथ्वी और नरक का घूमना बंद हो
सकता है. उन्हें हिन्दू भगवान विष्णु के वाहन के रुप में वर्णित किया गया है.
गरुड़ पक्षी एक प्रकार का पक्षी
है जो चील से बड़ा होता है किंतु इसकी चोंच चील से छोटी और सीधी होती है. यह पक्षी दिखने में बाज या चील की तरह ही दिखता है.
गरुड़ पक्षी का प्रिय भोजन नाग है. यह पक्षी भगवान विष्णु का वाहन
और सूर्यनारायण का सारथी भी है. गरुड़ पक्षियों की अधिक
प्रजातियां उत्तरप्रदेश,झारखंड,
छत्तीसगढ़ में है. पक्षियों का राजा गरुड़ पक्षी को ही माना
जाता है.
गरुड़ को विनायक, मरुत्मत, तार्क्ष्य,वैनतेय,
नागान्तक, विष्णुरथ, खगेश्वर, सुपर्ण और पान्नगाशन नाम से जाना जाता है. गरुड़
हिन्दू धर्म के साथ ही बौद्ध धर्म में भी महत्वपूर्ण पक्षी माना जाता है.
माना जाता है कि गरुड़ की एक ऐसी प्रजाति थी, जो बुद्धिमान मानी
जाती थी और उसका काम संदेश और व्यक्तियों को इधर से उधर ले जाना होता था. कहते हैं
कि यह इतना विशालकाय पक्षी होता था जो कि अपनी चोंच से हाथी तक को उड़ाकर ले जाता
था.
गरुड़ जैसे दो पक्षी रामायण काल में थे जिन्हें जटायु और सम्पाती
कहा जाता है. ये दोनों दण्डकारण्य क्षेत्र में विचरण करते थे. इनके लिए दूरियों का
कोई महत्व नहीं था. जटायु और रावण के बीच घोर युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग
दण्डकारण्य़ में गिरे थे. उस स्थान पर एक मन्दिर बना हुआ है.
पक्षियों में गरुड़ को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है. यह समझदार और
बुद्धिमान होने के साथ-साथ तेज गति से उड़ने की क्षमता रखता है. गिद्ध और गरुड़ में
फ़र्क होता है. गरुड़ को भगवान विष्णु का वाहन होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.
गरुड़ इंडोनेशिया
एयरलाइन्स इंडोनेशिया की राष्ट्रीय विमान सेवा है. इसका नामकरण इंडोनेशिया के
राष्ट्रीय प्रतीक में शामिल पवित्र पक्षी गरुड़ के नाम पर है और इसका मुख्य
कार्यालय जकार्ता के निकट टाँगेरंग उपनगर में सोएकर्नो–हटता
इंटरनॅशनल एयरपोर्ट पर है.
इंडोनेशिया का प्रतीक
चिन्ह गरुड़ पंचशिला है जिसका मुख्य भाग गरुड़ है और उसकी छाती पर
हेरलडीक ढाल के साथ पैरों में एक स्क्रॉल है. ढाल के पांच प्रतीक पंचशील का
प्रतिनिधित्व करते हैं जो इंडोनेशिया की राष्ट्रीय विचार धारा के पांच
सिद्धांत हैं. इसके नीचे गरुड़ के पंजे एक स्क्रॉल पकड़े हैं जिसमें “भिन्नेका तुंगगल इका” लिखा है जिसका अर्थ विविधता में एकता के रूप में लिया जाता है.
गरुड़ भारत का
धार्मिक और अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी है.। भारत के इतिहास में स्वर्ण युग के रूप
में जाना जाने वाले गुप्त शासकों का प्रतीक चिन्ह गरुड़ ही था. कर्नाटक के होयसल
शासकों का भी प्रतीक गरुड़ था. गरुड़ इंडोनेशिया,के अलावा थाईलैंड और
मंगोलिया आदि में भी सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में लोकप्रिय है.
गरुड़ कमांडो
फोर्स वायुसेना के सभी बेसों के अलावा वायुसेना के दूसरे महत्वपूर्ण ऑफिसों की भी
सुरक्षा करती है. वायुसेना के उच्चाधिकारियों की सुरक्षा का दायित्व भी गरुड़
कमांडो फोर्स पर ही है. इसके अलावा गरुड़ कमांडोज को कश्मीर में आतंकवाद विरोधी
अभियानों में भी तैनात किया गया है.
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"
हे वीर ! मैं तुम्हें तुम्हारे प्रादुर्भाव की कथा सुनाता हूँ. वानरराज केशरी से
विवाह के उपरान्त तुम्हारी माता अन्जना एक पर्वत शिखर पर विचर रही थी. वायुदेव ने
उन्हें देखा और वे कामभाव से आवेशित हो उठे. उन्होंने उसे अपनी दोनों भुजाओं में
भरकर अपने हृदय से लगा लिया. अन्जना घबरा उठीं और बोली-" कौन है, जो मेरे
पातिव्रत्य का नाश करना चाहता है". तब वायुदेव उनके सामने प्रकट होकर
बोले-" मैं तुम्हारे पातिव्रत्य धर्म का नाश नहीं कर रहा हूँ. मैंने तो
अव्यक्तरुप से तुम्हारा आलिंगन करके मानसिक संकल्प के द्वारा तुम्हारे साथ समागम
किया है. इससे तुम्हें बल और पराक्रम से सम्पन्न एवं बुद्धिमान पुत्र उत्पन्न
होगा. वह महान धैर्यवान, महातेजस्वी, महाबली, महापराक्रमी तथा लाँघने और छलाँग
मारने में मेरे ही समान होगा".
"वायुदेव
के ऐसा कहने पर माता अन्जनी प्रसन्न हो गयीं. हे वानरश्रेष्ठ ! उन्होंने तुम्हें
एक गुफ़ा में जन्म दिया. बाल्यावस्था में तुमने उदित सूर्य को देखकर फ़ल समझ लिया और
उसे पाने के लिए तुम सहसा आकाश में उछल पड़े. तीन सौ योजन ऊँचे जाने के बाद भी
सूर्य के तेज से आक्रान्त होने पर भी तुम्हारे मन में खेद या चिन्ता नहीं हुई.
अन्तरिक्ष में उड़ते हुए तुम सूर्य के निकट पहुँच गए और उसे निगल गए. संसार में
अन्धेरा छा गया. तब इन्द्र ने कुपित होकर तुम्हारे
ऊपर वज्र का प्रहार कर दिया. वज्र के प्रहार से तुम्हारा ठोडी का अग्रभाग खण्डित
हो गया. ठोडी को हनु भी कहते हैं. अतः तुम्हारा नाम हनुमान पड़ गया".
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"जुग सहस्त्र जोजन पर भानु।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू
"
अर्थात- हनुमानजी ने एक
युग सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित भानु यानी सूर्य को मीठा फल समझकर खा लिया था. एक युग= 12000 वर्ष,
एक सहस्त्र= 1000, एक योजन= 8 मील युग x सहस्त्र x योजन = पर भानु 12000 x 1000 x 8 मील = 96000000 मील. एक
मील = 1.6
किमी 96000000 x 1.6 =
153600000 किमी इस गणित के आधार
गोस्वामी तुलसीदास ने प्राचीन समय में ही बता दिया था कि सूर्य और पृथ्वी के बीच
की दूरी लगभग 15
करोड़ किलोमीटर है.
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"तुम
पर प्रहार किया गया है, यह देखकर वायुदेव को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने लोकों में
प्रवाहित होना छोड़ दिया. वायु के अवरुद्ध हो जाने से तीनों लोकों में खलबली मच
गयी. सारे देवता घबरा गये. उस समय समस्त देवता कुपित वायुदेव को मनाने पहुँचें. तब
जाकर तुम्हारे पिता का क्रोध शांत हुआ. और उन्होंने अपने प्रवाह को गतिशील बना
दिया".
"ब्रह्मा
जी ने तुम्हें वरदान दिया कि तुम समरांगण में किसी भी अस्त्र-शत्र से मारे नहीं जा
सकोगे. त्रिनेत्रधारी इन्द्र ने वर दिया कि मृत्यु तुम्हारे अधीन रहेगी. तुम जब
चाहोगे, तभी मर सकोगे, अन्यथा नहीं. चूंकि तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज
की दृष्टि भी उन्हीं के समान हो. वत्स ! तुम पवन के पुत्र हो, अतः छलांग मारने में
भी उन्हीं के तुल्य हो. तुम वानरराज की भांति ही चातुर्य और पौरुष से भी सम्पन्न
हो. हे हनुमंत ! तुम रुद्र के ग्यारहवें अवतार हो. तुम्हें अपने बारे में कुछ पता
नहीं है कि तुम क्या हो? तुम कैसे अपने पराक्रम को भूल बैठे हो?, उसे सुनो. तुम
बचपन में बहुत ज्यादा शरारती थे और तपस्वियों को परेशान किया करते थे. तुम्हारी
हरकतों से परेशान होकर अंगिरा और भॄगुवंश के मुनियों ने श्राप दिया था कि तुम अपनी
शक्तियों को भूल जाओगे. तुम्हें अपनी शक्तियां तभी याद आएंगी, जब कोई तुम्हें याद
दिलाएगा".
"
हे पवनपुत्र हनुमान ! संसार का कोई भी ऐसा कार्य नहीं हैं, जिसे तुम नहीं कर
सकते?. हे हनुमान ! समस्त वावर चिन्ता में पड़े हैं. तुम क्यों इनकी उपेक्षा कर रहे
हो?. महानवेगशाली वीर ! जैसे भगवान विष्णु जी ने त्रिलोकी को नापने के लिए तीन पग
बढ़ाये थे, उसी प्रकार तुम भी अपने पैर बढ़ाओ".
कवन सो काज कठिन जग माहीं * जो नहिं होइ
तात तुम्ह पाहीं.
"
हे कपिश्रेष्ठ ! हे महावीर ! तुम्हारा
जन्म तो रामकाज के लिए ही हुआ है. अतः हे वीर ! उठो और एक छलांग में समुद्र से उस
पार जाकर माता सीता को खोज निकालो".
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ततः कपीनामृषभेण चोदितः :
प्रतीतवेगः पवनात्मजः कपिः
प्रहर्षयंस्तां हरिवीर्वानिनीं
: चकार रुपं महदात्मनस्तदा. (38/ षट्षष्टितमः सर्ग)
वानरों से घिरे
हुए भालुओं में श्रेष्ठ जाम्बवान ने पवनपुत्र हनुमानजी को उनकी खोई हुई शक्तियों
के बारे में बताया. सुनते ही उन्हें स्मरण हो आया कि बचपन में की गई शरारतों के
कारण, क्रुद्ध मुनि ने उन्हें श्राप दे दिया था कि वे अपनी शक्तियों को भूल
जाएंगे.
राम काज लगि तव अवतारा * सुनतहिं भयौ
पर्वताकारा.
इस प्रकार वानरों और भालुओं में
श्रेष्ठ जाम्बवान की प्रेरणा पाकर कविवर हनुमानजी को अपने महाव वेग पर विश्वास हो
आया. उन्होंने वानर वीरों की उस सेना का हर्ष बढ़ाते हुए अपना विराट स्वरूप प्रकट
किया.
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लंका की ओर.
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सुन्दर काण्ड.
महर्षि वालमीकि के द्वारा लिखी
गई रामायण को आधार बनकार रामभक्त संत कवि तुलसीदासजी ने सुन्दर काण्ड को अपनी
क्षेत्रीय भाषा अवधि में लिखा. सुन्दर काण्ड, रामचरित मानस का पंचम सोपान है.
सुन्दरकाण्ड में पवनसुत श्री हनुमानजी के यश का गुणगान किया गया है. इस सोपान के
नायक रामभक्त श्री हनुमानजी ही हैं.
श्री हनुमानजी सीताजी की खोज
में लंका गए थे. लंका त्रिकूटांचल पर्वत पर बसी हुई थी. त्रिकूटांचल पर्वत माने
तीन पर्वत श्रेणियाँ. पहले पर्वत का नाम था सुबैल पर्वत, जहाँ के मैदान पर राम और
रावण के बीच युद्ध हुआ था. दूसरे पर्वत का नाम था नील पर्वत, जहाँ राक्षसों में
महल बने हुए थे. और तीसरे पर्वत का नाम था सुन्दर. इसी सुन्दर पर्वत पर रावण ने
अशोक वाटिका का निर्माण किया था. इसी अशोक वाटिका में माता सीता जी को रखा गया था.
इसी वाटिका में हनुमानजी की भेंट सीताजी से हुई थी. सुन्दर कांड में इसी घटना का
प्रमुखता के साथ वर्णन किया गया है. यही वह सबसे प्रमुख घटना घटित हुई थी. यही वह
कारण था कि जिसके कारण इस काण्ड का नाम सुन्दर कांड रखा गया.
श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड की कथा सबसे अलग है. सारे
रामचरितमानस में श्रीराम के गुणों और पुरूषार्थ को बताया गया है, लेकिन यह कांड एक
ऐसा है जिसमें राम भक्त हनुमान के विजय का वर्णन किया गया है.
सुंदरकाण्ड
में हनुमान का लंका प्रस्थान, लंका दहन से लंका से वापसी तक के घटनाक्रम आते हैं. इस
सोपान के मुख्य घटनाक्रम है – हनुमानजी का लंका की ओर
प्रस्थान, विभीषण से भेंट, सीता से
भेंट करके उन्हें श्री राम की मुद्रिका देना, अक्षय कुमार का
वध, लंका दहन और लंका से वापसी का बखान किया गया है.
श्री हनुमानजी
प्रसन्नता देने वाले देवता है. वे स्वयं प्रसन्न रहते हैं और औरों की पीड़ाओं को
दूर कर उन्हें प्रसन्न रखते है. वे अथक परिश्रम करते हैं और अपने पुरुषार्थ को
बनाए रखते हैं. श्री हनुमानजी में
आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता
कूट-कूट कर भरी हुई है. वे स्वभाव से ही जिज्ञासु है. उनमें निष्ठा का भाव सदा
प्रबल बना रहता है. त्याग और बलिदान की वे अप्रतिम मूर्ति हैं. अपनों से स्नेह
रखना और अपनों के प्रति सहानुभूति बनाये रखना उनका सहज सरल स्वभाव है. वे अपने
लक्ष्य को प्राप्त करने में अपने अदम्य साहस का परिचय देते चलते है. वे स्वभाव से
ही निडर हैं. अतः उन्हें कभी भय नहीं सताता. किसी भी विषम परिस्थिति में उनका मानसिक
संतुलन हमेशा बना रहता है. वे सदैव प्रसन्न रहने वाले देवता हैं. अद्भुत पराक्रमी
श्री हनुमानजी को पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, अग्नि इस पांच तत्वों पर पूर्ण अधिकार
है. गरजते-उफ़नते सागर को वही पार कर सकता है, जिसमे ज्ञान व गुण का असीम भंडार हो.
वे ज्ञान और गुण के सागर है. अतुल बल के आगर ही सागर को लांघ सकता है. इन्ही सात
दिव्य गुणों का बखान सुन्दर कांड में किया गया है. इन्हीं सात गुणधर्मिता के कारण
इस कांड का नाम सुन्दर कांड पड़ा.
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राम काज लगि
तब अवतारा : सुनतहिं भयउ पर्वताकारा.
जाम्बवान की
प्रेरणा पाकर कपिवर पवनकुमार को अपने महान वेग पर विश्वास हो गया. अन्य वानरों की
तरह ही वे भी सामान्य कद-काठी के ही थे, प्रेरणा पाकार वे अपने स्थान से उठ खड़े
हुए और देखते-ही-देखते उनका शरीर पर्वताकार हो गया. सभी वानर आश्चर्य चकित होकर आकाश-सी ऊँचाइयों को लिए हुए पवनपुत्र
को पहली बार देख रहे थे. उनका इस तरह अचम्भित हो जाना स्वभाविक ही था.
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पवनपुत्र
हनुमानजी को योग की अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त थीं. इस आठ सिद्धियों के नाम इस
प्रकार से हैं-
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अणिमा, महिमा चैव
लघिमा गरिमा तथा : प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः.
अर्थ- अणिमा, महिमा,
लघिमा, गरिमा तथा प्राप्ति, प्राकाम्य,
इशित्व और वशित्व ये सिद्धियां " अष्टसिद्धि" कहलाती है.
"सिद्धि"
शब्द का तात्पर्य सामान्यतः ऐसी पारलौकिक और आत्मिक शक्तियों से है जो तप और साधना
के द्वारा प्राप्त होती हैं. (ii) सिद्धि शब्द का सामान्य अर्थ है सफ़लता. (iii) सिद्धि
अर्थात किसी कार्य विशेष में पारंगत होना. (iv) सिद्धि का
अर्थ चमत्कार या रहस्य समझा जाता है लेकिन योगानुसार सिद्धि का अर्थ (v) इन्द्रियों की पुष्टता और व्यापकता होती है. अर्थात देखने, सुनने और
समझने की क्षमता का विकास.
हिन्दू धर्म शास्त्रों
में अनेक प्रकार की सिद्धियां वर्णित हैं जिनमें आठ सिद्धियां अधिक प्रसिद्ध हैं,
जिन्हें अष्टसिद्धि" कहा जाता है.
"अणिमा"-
अपने शरीर को एक अणु के सामान छोटा कर लेने की क्षमता.
"महिमा"-
शरीर का आकार अत्यन्त बड़ा कर लेने की क्षमता.
"गरिमा"-
शरीर को अत्यन्त भारी बना लेने की क्षमता.
"लघिमा"-
शरीर को भार रहित करने की क्षमता.
"प्राप्ति"-
बिना रोकटोक के किसी भी स्थान को जाने की क्षमता.
"प्राकाम्य"-
अपनी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करने की क्षमता.
"ईशित्व"-
प्रत्येक वस्तु और प्राणी पर पूर्ण अधिकार की क्षमता.
"वशित्व"-
प्रत्येक प्राणी को वश में करने की क्षमता.
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सिद्धियां
सिद्धियां वे होती
हैं, जिन्हें प्राप्त कर व्यक्ति किसी भी रूप में और देह में वास करने में सक्षम
हो सकता है. वह सूक्ष्मता की सीमा पार कर सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा जितना चाहे
विशालकाय हो सकता है.
(१) अणिमा- अष्ट
सिद्धियों में सबसे पहली सिद्धि "अणिमा" है, जिसका अर्थ अपने देह को एक
अणु के समान सूक्ष्म करने की शक्ति से है. जिस प्रकार हम अपनी नग्न आंखों से एक
अणु को नहीं देख सकते, उसी तरह अणिमा सिद्धि प्राप्त करने के पश्चात दूसरा व्यक्ति
सिद्धि प्राप्त करने वाले को नहीं देख सकता है. साधक जब चाहे एक अणु के बराबर का
सूक्ष्म देह धारण करने में सक्षम होता है.
(२).महिमा- अणिमा के
ठीक विपरीत प्रकार की सिद्धि है महिमा. साधक जब चाहे अपने शरीर को असीमित विशाल
बनाने में सक्षम होता है. वह अपने शरीर को
किसी भी सीमा तक फ़ैला सकता है.
(३) गरिमा- इस
सिद्धि को प्राप्त करने के पश्चात साधक अपने शरीर के भार को असीमित तरीके से बढ़ा
सकता है. साधक का आकार तो सीमित ही रहता है, परन्तु उसके शरीर का भार इतना बढ़ जाता
है कि उसे कोई शक्ति हिला नहीं सकती.
(४) लघिमा- साधक का
शरीर इतना हल्का हो सकता है कि वह पवन से भी तेज गति से उड़ सकता है. उसके शरीर का
भार ना के बराबर हो जाता है.
(५) प्राप्ति-
साधक बिना किसी रोक-टोक के किसी भी स्थान पर, कहीं भी आ-जा सकता है. अपनी
इच्छानुसार अन्य मनुष्यों के सन्मुख अदृष्य होकर प्रकट हो सकता है, साधक जहाँ जाना
चाहे वहां जा सकता है तथा उसे कोई देख नहीं सकता.
(६) प्रकाम्य-
साधक किसी के मन की बातो को सरलता से समझ सकता है, फ़िर सामने वाला व्यक्ति अपने मन
की बात की अभिव्यक्ति करे या नहीं करे..
(७) ईशत्व- यह
भगवान की उपाधि है. यह सिद्धि प्राप्त करने के पश्चात साधक स्वयं ईश्वर स्वरूप हो
जाता है. वह दुनिया पर अपना आधिपत्य स्थापित कर सकता है.
(८) वशित्व- वशित्व
प्राप्त करने के पश्चात साधक किसी भी व्यक्ति को अपना दास बनाकर रख सकता है. वह
जिसे चाहे अपने वश में कर सकता है या किसी के भी पराजय का कारण बन सकता है.
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पर्वताकार श्री
हनुमानजी ने सर्व प्रथम अपने आराध्य श्रीरामजी की स्तुति की और फ़िर जोरों से
गर्जना करते हुए " जय श्रीराम..जै श्री राम" रामनाम का उद्घोष करने लगे.
एक सौ योजन के
समुद्र को लांघने के लिए वानरश्रेष्ठ श्री हनुमानजी जैसे-जैसे अपना स्वरूप बढ़ाते
जा रहे थे. इसे देखकर सभी को पूर्ण विश्वास हो चला था कि वे शीघ्र ही लंका की ओर प्रस्थान
करेंगे और सीतामाता की खोज करने के पश्चात ही वापिस लौटेंगे. सुग्रीव के भय से
मुक्त होते ही, सभी वानर
तुरंत शोक छॊड़कर अत्यन्त ही हर्षोल्लास के
साथ उछल-कूद करने लगे. उनके मन से भय जाता रहा कि अब उन्हें अपने राजा सुग्रीव के
क्रोध का सामना नहीं करना पड़ेगा.
जिस प्रकार कोई
सिंह अंगड़ाइयां लेता है, ठीक उसी प्रकार से वे अपने शरीर को बारम्बार अंगड़ाइयाँ
लेते हुए अपने आकार को बढ़ाते जा रहे थे. उनका विशाल और दीप्तिमान रूप
देखकर सभी सम्मिलित रूप से उनका और प्रभु श्रीरामजी के नामों का उद्घोष
करने लगे.
अपनी ऊँचाई
बढ़ाने के बाद उन्होंने अपने से बड़े बड़े-बूढ़े वानरों से कहा-" जिस प्रकार से
आकाश में विचरने वाले वायुदेव बड़े बलवान हैं. उनकी शक्ति की कोई सीमा नहीं है. वे
अग्निदेव के सखा हैं और अपने वेग से बड़े-बड़े पर्वत शिखरों को पल में ही तोड़ सकते
हैं. मैं उन्हीं वायुदेव का औरस पुत्र हूँ और छलांग लगाने में उन्हीं के समान हूँ
".
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औरस पुत्र-
विवाहिता
स्वर्णा स्त्री के गर्भ से जिसकी उत्पत्ति हुई हो, वह "औरस" कहलाता है.
औरस ही सबसे श्रेष्ठ और मुख्य पुत्र है. मृत, नपुंसक आदि की स्त्री देवर आदि से
नियोग द्वारा जो पुत्र उत्पन्न करे वह " क्षेत्रज" है. गोद लिया हुआ
पुत्र "दत्तक" कहलाता है.
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" हे
जाम्बवन्त जी ! मैं आकाश के समस्त ग्रह-नक्षत्रों आदि को लांघकर आगे जाने का
उत्साह रखता हूँ. यदि मैं चाहूँ तो इस समुद्र को अभी सोख सकता हूँ. कूद-कूद कर
पर्वतों को विदीर्ण कर सकता हूँ. मैं एक ही छलांग में इस महासागर को फ़ांदता हुआ
लंका पहुँच जाऊँगा".
" हे तात !
सनुद्र को लांघते हुए मेरा स्वरूप उन वामनरूपधारी भगवान विष्णु के जैसा होगा. मैं
निश्चित ही विदेहकुमारी माता सीता जी के दर्शन करूँगा. आप सब लोग खुशियाँ
मनाओ".
"मैं अपनी
भुजाओं से इस उफ़नते-गरजते समुद्र को विक्षुब्ध कर सकता हूँ. जिस प्रकार से
विनतानन्दन गरुड़ आकाश में उड़ते हैं, मैं भी वेग के साथ उड़ान भर सकता हूँ".
" हे तात !
जिस तरह प्रभु श्रीराम जी के द्वारा छोड़ा गया
बाण वायुवेग से चलता है, उसी प्रकार मैं उस दुष्ट रावण की सोने की लंका में
पहुँच जाऊँगा. यदि मुझे उनके दर्शन नहीं हुए तो मैं राक्षसराज रावण के हाथ-पैर
बांधकर ले आऊँगा और उसकी लंका पुरी को उजाड़ डालूँगा.आप निश्चिंत रहें. मैं अपने
अभियान में सफ़ल होऊँगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है. दुर्योग से यदि मैं अपने अभियान में असफ़ल होता हूँ तो मैं
इसी वेग से स्वर्गारोहण कर जाऊँगा.
पर्वताकार
पवनपुत्र श्री हनुमानजी जब इस प्रकार से गर्जना कर रहे थे, उस समय सम्पूर्ण वानर
हर्ष मनाते हुए उन्हें चकित भाव से उनकी ओर देख
रहे थे.
श्री हनुमानजी
की बातें अपने स्वजाजीय बंधुओं के शोक को नष्ट करने वाली थीं. वानर-यूथपति जाम्बवान
को बड़ी प्रसन्नता हुई. उन्होंने हनुमानजी से कहा-" हे केशरीनंदन ! हे वेगशाली
पवनकुमार ! तुमने आज हम सभी का शोक नष्ट कर दिया है. हम सभी तुम्हारे कल्याण की
कामना करते हैं. हम सभी कार्य की सिद्धि के उद्देश्य से एकाग्रचित्त होकर तुम्हारे
मंगलकृत्य-स्वस्तिवाचन आदि का अनुष्ठान करेंगे".
" हे
वानरश्रेष्ठ ! ऋषियों के प्रसाद, हम वृद्ध वानरों की अनुमति तथा गुरुजनों की कृपा
से तुम निश्चित ही इस महासागर के पार हो जाओगे. जब तक तुम लौटकर नहीं आ जाओगे, तब
तक हम इसी सागर के तट पर रहकर तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगे".
तदनन्तर कपिश्रेष्ठ
हनुमानजी ने यूथपति जाम्बवान जी से कहा-" हे तात ! जब मैं छलांग मारूँगा, उस
समय संसार में कोई भी मेरे वेग को धारण नहीं कर सकेगा. छलांग मारते समय महेन्द्र
पर्वत के महान शिखर ही मेरे वेग को धारण कर सकता है. अतः मैं उस पर्वत की ओर
प्रस्थान कर रहा हूँ.
ततस्तु
मारुतप्रख्यः स हरिर्मातुतात्मजः :: आरुरोह नगश्रेष्ठं महेन्द्रमरिमर्दनः (39 /सप्तषष्टितमः सर्ग.)
यों कहकर वायु
के समान पराक्रमी पवनपुत्र श्री हनुमानजी लंबे-लंबे डग भरते हुए पर्वतों में
श्रेष्ठ महेन्द्र पर्वत की तलहटी में जा पहुँचे. उन्होंने सूर्य, इन्द्र, वायु और
परमपिता ब्रह्माजी का स्मरण करते हुए
प्रणाम किया. तत्पश्चात वे उस पर्वत की चोटी पर चढ़ गए. छ्लांग लगाने से
पूर्व उन्होंने अपने मन को शांत किया. उनकी विशाल देह के भार से समूचा पर्वत
कांपने लगा.
हनुमानजी की गर्जना के स्वर, स्वर्ग में बैठे
देवी-देवताओं ने भी सुनी. सभी अपनी जागती आँखों से देखना चाहते थे कि आखिर हनुमान ( 1 योजन 8 मील
के बराबर होता है. हनुमानजी को 100 योजन माने 800 मील ( 1287.475 कि.मी. लंबी छलांग ) लंबे-चौड़े
सागर को कैसे पार कर पाएंगे?. इसी सोच के चलते उनके मन में शंकाए घर कर गईं थीं.
वे सभी अपने-अपने भवनों से निकलकर इस अभूतपूर्व छलांग को देखने के लिए आकाश में
आकर उपस्थित हो गए .
उन्होंने देखा.
देखा कि हनुमानजी ने अपनी समस्त शक्तियों को संचित करते हुए थोड़ा नीचे झुके. उनके
झुकते ही पर्वत की चोटियाँ खण्ड-खण्ड होकर बिखरने लगीं. अतिशय दवाब के कारण जल की
अनेक धाराएँ वेग से फ़ूट कर बहने लगीं. उस क्षेत्र में क्रीड़ा करने वाली गंधर्वों की जोड़ियाँ, जो
आमोद-प्रमोद में व्यस्त थीं, अचानक आए इस परिवर्तन को देखकर शीघ्र ही उस स्थान से
पलायन करने लगीं. पर्वत शिखरों के दरकने से जो शोर उत्पन्न हो रहा था और जो
चट्टाने तेज गति से लुढ़कर आती देखकर अनेक ऋषि-मुनि उस स्थान को छोड़कर अन्यत्र
जाने लगे.
फ़िर
उन्होंने दीर्घ श्वास लीं और अपनी
मांस-पेशियों को कसा. अपने शरीर को कसते हुए उन्होंने जोरदार गर्जना करते हुए
"जय श्रीराम...जय श्रीराम" राम नाम का उद्घोष किया और आकाश में ऊँची
छलांग मारी. हनुमानजी की इस उछाल के दबाव के कारण महेन्द्र पर्वत की चोटियों पर
स्थित सभी वृक्ष उखड़कर आकाश में उछल गए.
दशयोजनविस्तीर्णा
त्रिंशद्योजनमायता :: छाया वानरसिंहस्त्य चारुतराभवत (76 / सुन्दरकांड प्रथम सर्ग)
हनुमानजी की
उड़ान के फ़लस्वरूप वायु के दबाव से उत्पन्न तूफ़ान के कारण सागर में उथल-पुथल होने
लगी. उँची-ऊँची लहरें उठने लगीं,जो उनकी छाती से आकर टकराने लगी . जिस समय वीर
हनुमान वायु में उड़ान भर रहे थे, तब समुद्र के खारे पानी के सतह पर पड़ने वाली छाया
दस योजन चौड़ी ( 80 कि.मी.) और तीस योजन लम्बी ( 240 कि.मी.) अत्यन्त ही
रमणीय जान पड़ती थी.
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योजन- सूर्य सिद्धांत के अनुसार एक योजन में आठ कि.मी.
होता है. वहीं, 14 वीं शताब्दी में एक खगोलविद ने एक योजन को लगभग 12 कि.मी.
के आसपास बतलाया था.
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हनुमानजी के लंका जाने के बारे
में लोगों का भिन्न-भिन्न मान्यताएं है. कुछ लोगों का तर्क है कि वे समुद्र में
तैर कर गए थे, कुछ के अनुसार वे उड़कर गए थे और कुछ के अनुसार वे छलांग लगाते हुए
या एक टापू से दूसरे टापू पर कूदते हुए गए थे. ये केवल मान्यताएं ही हैं.
हनुमानजी, नारदमुनि और
सनतकुमार ही ऐसे देवता थे, जो अपनी दिव्य शक्ति से आकाशमार्ग में विचरण करते थे.
जबकि अन्य देवी-देवताओं के अपने-अपने वाहन होते थे. हालांकि ऐसे भी ऋषि और मुनि थे
जो अपनी ही शक्ति से आकाशमार्ग में आया-जाया करते थे.
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आकाश मे उपस्थित
समस्त देवतागण श्री हनुमानजी को आकाश में उड़ान भरते हुए देखकर अत्यन्त ही प्रसन्न हो रहे थे. वे उन
पर सुगंधित पुष्पों की वर्षा करने लगे.
पवनवेग से उड़ने
वाले हनुमान को देखकर सागर की इच्छा
सहायता करने की हुई, क्योंकि श्रीरामजी इक्ष्वाकु वंश में अवतरित हुए थे.
उनके पूर्वज राजा सगर ने, सागर की सीमाओं का विस्तार किया था. अतः वे श्रीरामजी के
प्रति सम्मानवश सहायता करके कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहते थे.
बहुत समय पहले,
इन्द्र ने विशाल मैनाक पर्वत को सागर के मध्य में स्थापित किया था ताकि अधोलोक से
असुर पृथ्वी पर न आ सकें. वायु के झोंकों पर सवार होकर पवन पुत्र को देखकर सागर ने
सोचा कि संभवतः वे थोड़ा विश्राम करना चाहेंगे. अतः उसने मैनाक को ऊपर उठने की आज्ञा दी. किन्तु उस
विशाल पर्वत को ऊँचा उठता हुआ देखकर पवनपुत्र ने उसे अवरोध माना और अपनी छाती से
प्रहार करके उसे नीचे धकेल दिया.
स त्वां
रामहिते युक्तं विश्रम्य गम्यताम.
हनुमानजी की
बुद्धिमानी और पराक्रम को देखकर मैनाक ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और मनुष्य देह
धारण कर अपने ही शिखर पर खड़ा हुआ और अत्यन्त ही विनम्रता से कहा- " हे
पवनपुत्र ! सत्य-युग में सभी पर्वतों के
पंख हुआ करते थे और हम भी गरुड़ों की भाँति आकाश में उड़ा करते थे. किन्तु हमारे
भूमि पर गिरकर सब कुछ नष्ट हो जाने की सम्भावना से देवताओं और ऋषियों में भय
व्यापत हो गया. उन्होंने इन्द्र से इस शिकायत की. अन्ततः क्रोध के आवेग में इन्द्र
ने सहत्रों पर्वतों के पंख काटने का मानस
बनाया.उन्होंने मुझ पर भी आक्रमण किया, किन्तु मेरी रक्षा हेतु वायुदेव आए और
उन्होंने मुझे बलपूर्वक समुद्र में गिरा दिया".
" हे
पवनपुत्र ! आपके पिताश्री पवनदेव ने मुझ पर असीम कॄपा बरसाते हुए मुझे सहायता
प्रदान की और मुझे समुद्र में स्थापित कर दिया. इस तरह मेरे प्राण बच पाए. आज वह
अवसर उपस्थित हुआ है कि मैं आपकी सहायता करके, उनके ऋण से ऊऋण हो जाऊँगा. निकट
भविष्य में मुझे शायद ही ऐसा अनुपम सुअवसर मिल पाएगा?. अतः हे पवनसुत ! आप यहाँ कुछ क्षण रुककर विश्राम कर मेरे आतिथ्य को
स्वीकार करने की कृपा करें".
मैनाक का
अभिवादन स्वीकार करते हुए हनुमान जी ने कहा:- "कृपया मुझे क्षमा करें. मैं एक
क्षण को भी कहीं रुकना चाहता, क्योंकि मेरे पास अल्प समय है. फ़िर मैंने अन्य
वानरों से यात्रा के दौरान विश्राम न करने का वचन दिया है. मैं अपने दिए गए वचन पर
अडिग हूँ".
चुंकि मैनाक ने
भक्तिभाव से ओतप्रोत होते हुए हनुमानजी से
विनती की थी.अपने भक्त के विनय को भला वे कैसे अस्वीकार कर सकते थे. अपने भक्त की
इच्छा का सम्मान करने के लिए उन्होंने पर्वत की चोटी का स्पर्श किया और फ़िर ऊँची
उड़ान भरते हुए अपनी यात्रा पर निकल गए.
आकाश में
उपस्थित इन्द्र सब देख-सुन रहे थे. वे मैनाम के समक्ष उपस्थित हुए और उन्होंने
उससे कहा:- हे मैनाक ! अब तुम्हें मेरे वज्र से भयभीत होने की तनिक भी आवश्यकता
नहीं है. अब तुम अपने पंखों से अपनी इच्छा के अनुसार कहीं भी आ-जा सकते हो".
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मैनाक पर्वत-
मैनाक मेना
के गर्भ से उत्पन्न हिमालय का पुत्र कहा जाता है. और क्रोंच पर्वत इसका पुत्र है.
श्राद्ध आदि कर्म के लिए मैनाम पर्वत अति पवित्र माना गया है. देवराज इन्द्र ने
पर्वतों के पर (पंख) काट डाले थे., इससे डरकर मैनाक समुद्र के भीतर जाकर छिप गया
था. सीताजी की खोज में जा रहे हनुमानजी को आकाश में बिना विश्राम लिए लगातार उड़ते
देख मैनाक ने सोचा कि यह प्रभु श्रीराम जी का कार्य पूरा करने के लिए जा रहे हैं.
किसी प्रकार थोड़ी देर के विश्राम दिलाकर
उनकी थकान दूर करना चाहिए. अतः समुद्र ने
अपने भीतर रहने वाले मैनाक पर्वत से कहा-"मैनाक ! तुम थोड़ी देर के लिए
ऊपर उठकर अपनी चोटी पर हनुमानजी को बिठाकर उनकी थकान दूर करो".
मौना- की- आ (
मैनाक) मांउंटेन हवाई (संयुक्त राज्य अमेरिका) के नजदीक प्रशांत महासागर का एक
हिस्सा है. वास्तव में यह माउंटेन एक विशाल द्वीप है, जिसका आधार समुद्र के तल से
बहुत नीचे तथा समुद्र तल से मौना की (मैनाक) ऊंचाई 4,205 मीटर है, जिससे यह माउंटेन
एवरेस्ट से छोटा है, लेकिन यह मौना की पूरी ऊंचाई नहीं है. संयुक्त राज्य अमेरिका
के अनुसार मौना की आ माउंटेन समुद्र तल से 6,000 मीटर नीचे
तक फ़ैला हुआ है और बेस से ऊपर चोटी तक ऊंचाई नापने पर इसकी कुल ऊंचाई 10,210 मीटर होती है. इतनी गहराई में होने पर भी मौना की आ ज्वालामुखी माउंटेन
है.
मैनाक को
सुनाभ और हिरण्य़नाभ के नाम से भी जाना जाता है. इसका उल्लेख पुराण में दर्ज है.
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*
ऐश्वर्यतिमिरो चक्षुः पश्यन्नपि न पश्यति.
*
ईर्ष्या घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्याशंकितः
*
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिता.
जिस तरह ऐश्वर्य से अंधी बनी हुई आँख, देखने
के बावजूद कुछ नहीं देखती. जिस तरह ईर्ष्या करने वाला, घृणा करने वाला, असंतोषी,
क्रोधी सदा शंकित रहते हैं. ठीक उसी प्रकार अन्य देवों, गन्धर्वों, सिद्ध और
महर्षियों ने सूर्यतुल्य तेजस्विनी सुरसा के पास गए और निवेदन किया और कहा-
अयं वातात्मजः श्रीमान प्लवते सागरोपरि : हनुमान
नाम अस्य त्वं मुहूर्तं विघ्नमचर. (१४५/ सु.प्र.खं)
" हे देवी ! पवननन्दन
हनुमानजी समुद्र के ऊपर से जा रहे हैं. तुम दो घड़ी के लिए इनके मार्ग में
विघ्न डाल दो. तुम पर्वत के समान अत्यन्त भयंकर राक्षसी का रूप धारण करो. उसमें विकराल
दाढ़ें, पीले नेत्र और आकाश को स्पर्श करने वाला विकट मुँह बनाओ. हम लोग पुनः
हनुमानजी के बल और पराक्रम की परीक्षा लेना चाहते हैं. या तो किसी उपाय से तुम्हें
जीत लेंगे अथवा विषाद में पड़ जाएंगे.
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(*) सुरसा - समुद्र में रहने वाली नागमाता थी. वह दक्ष की
पुत्री, ऋषि कश्यप की पत्नी व नागों की माता थी. देवताओं, गन्धर्वों और सिद्धों के
अनुरोध पर वह हनुमान जी का रास्ता रोकने के लिए तैयार हो गई.
(*) एक अन्य आलेख के अनुसार सुरसा, जिसे
देवताओं ने हनुमानजी के शक्ति की परीक्षा के लिए भेजा था. इसके पिता का नाम
जमद्ग्नि तथा माता का नाम रेणुका था. सुरसा ने ब्रह्माजी से वारदान मांगा था कि
उसकी आज्ञा के बिना कोई भी यहाँ से आगे नहीं जा सकता. इसलिए उसे उसके मुख में आना
ही होगा.
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जग की यह रीत मुझे कभी समझ में नहीं आयी कि जो
बुद्धिमान है, कर्मठ है, उद्यमी है, साहसी है, धैर्यवान है, शक्ति संपन्न हैं और
पराक्रमी भी है, अक्सर उसकी ही परीक्षा क्यों ली जाती है?. ऋषि, मुनि-सिद्ध और तो
और स्वर्ग में बैठे अनेक देवता जानते थे कि श्री हनुमानजी उद्यम, साहस, धैर्य,
बुद्धि, शक्ति और पराक्रम में अग्रगणनीय हैं. वे रामकाज को संपूर्णता के साथ संपन्न
कर सकेंगे. उन्हें तो अपनी ओर से अतिरिक्त शक्ति प्रदान करना चाहिए था. लेकिन उनकी
सहायता करने की अपेक्षा वे उनकी राह में रोड़े अटकाने की सोचते हैं और सुरसा को
विघ्नबाधा खड़े करने के लिए प्रार्थना करते हैं.
एक पर्वतकाय विशाल विकृत राक्षसिनी का रूप धारण
करके सुरसा अकस्मात सागर से प्रकट हुई और हनुमानजी के मार्ग को रोक कर खड़ी हो गई
और अपने आप से कहने लगी-" अहो मेरे भाग्य...भगवान ब्रह्मा के वरदान के अनुसार
मुझे आज भोजन सहज रूप में प्राप्त होने जा रहा है. मैं कई दिनों से भूखी थी, आज
विधाता ने मेरे लिए इस वानर को उपहार के रूप में इस ओर भिजवाया है".
वायु के झोंकों पर सवार हनुमानजी ने उसे दूर से
ही देख लिया था कि समुद्र के अन्दर से प्रकट होकर कोई विशालकाय प्राणी अपना मुँह
फ़ैलाकर प्रकट हो रहा है. समझ गए. समझने में तनिक भी विलम्ब नहीं हुआ. वे समझ चुके
थे कि विशालकाय प्राणी मुझे निगल जाने के लिए मुँह खोले बैठा है. बिना विचलित हुए
वे अपनी तीव्र गति से आगे बढ़ रहे थे. पास आकर उन्होंने देखा कि एक राक्षसी अपना
विशाल मुँह खोले मुझे खा जाने के लिए तैयार बैठी है.
पास आकर उन्होंने सुरसा से परिचय जानना चाहा.
सुरसा ने अपना परिचय देते हुए बतलाया कि भगवान
ब्रह्माजी के वरदान के अनुसार अपने समक्ष उपस्थित किसी भी प्रकार के भोजन को मैं
ग्रहण कर सकती हूँ. हे वानर ! विधाता ने तुम्हें मेरे भोजन के लिए ही इस ओर भेजा
है, ताकि मैं तुम्हें खाकर अपनी क्षुधा शांत कर सकूँ. अब मैं तुम्हें अपने इस विस्तृत
मुख के अन्दर प्रविष्ट हो जाने के लिए आमंत्रित करती हूँ".
" हे नागमाता ! शायद तुम्हें इस बात की
जानकारी नहीं है कि भगवान राम जी की पत्नी सीताजी का अपहरण हो गया है. मैं उन्हीं
की खोज में लंका की ओर जा रहा हूँ. अतः तुम इस समय मुझे खाकर तृप्त होने की बात को
कुछ समय के लिए भूल जाओ"
" हे नागमाता ! मुझ पर विश्वास करें. मैं
अपने स्वामी श्रीराम जी की शपथ लेकर विनयपूर्वक कह रहा हूँ कि सीता माता का पता
लगाने के तथा रामजी को सूचना देने के पश्चात, मैं स्वयं होकर आपकी सेवा में
उपस्थित हो जाऊँगा, तब आप मुझे अपना आहार बना लेना. तुम्हें तो इस विकट परिस्थिति
में मेरी मदद करनी चाहिए थी, लेकिन तुम तो मुझे खा जाने का निश्चय करके मेरे समक्ष
खड़ी हो गई हो?".
सुरसा ने कहा-" हे वानर ! मुझे जोरों से
भूख लगी है. मुझे तो तत्काल आहार चाहिए और तुम मुझे रुक जाने की सलाह दे रहे हो ?.
शायद तुम्हें नहीं मालूम कि स्वयं ब्रह्माजी ने मुझे वरदान दिया है कि कोई भी
प्राणी मेरे मुख में प्रविष्ट हुए बिना आगे नहीं जा सकता. तुम्हें शीघ्रता से मेरे
मुँह में प्रविष्ट होना ही होगा".
" अच्छा तो तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारे मुख में आ जाऊँ, तब तो तुम्हें अपने
मुख का और अधिक विस्तार करना होगा".ऐसा कहते हुए पवनपुत्र ने अपने शरीर का
विस्तार दस योजन तक बढ़ा लिया.
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा : तासु दून कपि रूप देखावा.
हनुमानजी का दस योजन का
आकार देखकर सुरसा ने अपना मुख बीस योजन चौड़ा कर लिया. उसकी धृष्टता को देखकर उन्हें गुस्सा हो आया. अब
उन्होंने अपना विस्तार तीस योजन कर लिया. प्रत्युत्तर में सुरसा ने अपना मुख चालीस
योजन कर लिया. उसके मुख को विस्तारित होता देख उन्होंने अपना आकार पचास योजन कर
लिया. गुस्साई सुरसा ने अपना मुख साठ योजन कर लिया. उसके उत्तर में हनुमानजी ने
अपना आकार सत्तर योजन का कर लिया. जब सुरसा ने अपना मुख अस्सी योजन का कर लिया.तब
उन्होंने अपने शरीर का विस्तार नब्बे योजन कर लिया. सुरसा ने अपने मुख का विस्तार
बढ़ाते हुए सौ योजन कर लिया.
कहा गया है कि-
"कृते प्रतिकृत् कुर्यात्ताडिते प्रतिताडितम्-"- हर कार्यवाही के
लिए एक जवाबी कार्यवाही होनी चाहिए. ऐसा सोचकर श्री हनुमानजी ने अष्ठ सिद्धियों में एक "लघिमा"
सिद्धि का प्रयोग करते हुए अपने शरीर का आकार एक अंगूठे के बराबर संकुचित कर लिया
और अति वेग से उसके मुख के भीतर जाकर अतिशीघ्र
निकलकर बाहर आ गए और बोले-" हे नागमाता ! हे दक्षसुता ! मैंने
तुम्हारे वरदान की शर्त के अनुसार उसे शत प्रतिशत पूरा कर दिया है. अब मैं अपनी
अगली यात्रा पर निकलता हूँ". जै श्रीराम का उद्घोष करते हुए पवनपुत्र
द्रुतगति से आगे बढ़ गए.
हनुमान जी की चतुराईपूर्ण विजय को देखकर अत्यंत
ही प्रसन्न होकर उसने कहा-" वाह वानर श्रेष्ठ ! तुम्हारी चतुराई देखकर मुझे
बड़ी प्रसन्नता हुई है.अब तुम जाओ और अपना कार्य यथाशीघ्र पूरा करो. निश्चित ही तुम
सीता और राम का मिलन करवाओगे".
श्री हनुमानजी आकाश में उड़ते हुए आगे निकल चले.
कुछ ही दूर जा पाए थे कि उन्हें फ़िर से एक
अवरोध का सामना करना पड़ा. समुद्र के अन्दर सिम्हिका नामक राक्षसिनी रहती थी. उसकी
विशेषता यह थी कि वह आकाश में उड़ते पक्षियों की परछाई देखकर अपना हाथ बढ़ाती और
उन्हें पकड़कर खा जाया करती थी. समुद्र की अतल गहराइयों में रह रही सिम्हिका ने
हनुमान जी की परछाई को देखा और तत्काल अपना हाथ बढ़ाकर उन्हें पकड़ लिया.
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सिम्हिका-
सिम्हिका कश्यप ऋषि की
पत्नी तथा प्रजापति दक्ष की पुत्री दिति के गर्भ से उत्पन्न तीन संतानों में से एक
थी. यह राहु की माता थी. सिम्हिका अथवा सिंहिका का विवाह दानव श्रेष्ठ विप्रचित्ति
नामक दानव से हुआ था. राहू के सहित उसके 101 पुत्र हुए थे. वह लंका के समीप समुद्र में रहती थी. वह उड़ते हुए जीवों को
खींच लेती थी और उन्हें अपना ग्रास बनाती थी. इसे छाया पकड़ने वाली राक्षसिनी के नाम से भी जाना जाता था.
......................................................................................................................................................
सिंम्हिका ने उन्हें पकड़ लिया है, वे इस घटना
से अनभिज्ञ थे. सहसा उन्हें लगा कि मेरी शक्ति घट रही है. किन्तु चारों ओर देखने
पर पाया कि सागर से एक विशाल भयंकर राक्षसिनी निकलकर बाहर आ रही है.
हनुमानजी ने उसे अपनी ओर द्रुत गति से आते
देखा. समझ गए पवनपुत्र कि निश्चित ही वह उन्हें खाने की इच्छा से प्रेरित होकर आ
रही है. उन्होंने तुरन्त "गरिमा " का प्रयोग करते हुए अपने काया का
विस्तार कर लिया. लेकिन उन्हें शीघ्र ही इस बात का आभास हुआ कि राक्षसिनी का मुँह
अभी भी उन्हें निगल पाने के लिए पर्याप्त चौड़ा है, तो उन्होंने अपना पैंतरा बदलते
हुए "अणिमा" सिद्धि को प्रयोग में लाते हुए अपनी काया को अति लघु रुप दे
दिया और उसके मुख में प्रविष्ठ हो गए. अन्दर प्रविष्ठ होते ही उन्होंने अपने
नुकिले पंजों से उसके हृदय को चीर कर विदीर्ण कर डाला. हृदय के विदीर्ण होते ही
सिम्हिका के प्राण पखेरू उड़ गए. सिम्हिका को जल में मर कर गिरता देख पवनपुत्र श्री हनुमानजी द्रुतगति से उड़ान भरते
हुए आगे बढने लगे. आकाश में उपस्थित
सिद्ध, चारण आदि पवनपुत्र को उड़ता हुआ देखकर आश्चर्यचकित हो रहे थे, उनकी
बुद्धिमानी को देखकर न केवल प्रसन्न हो रहे थे, बल्कि उनका गुणगान भी करने लगे थे.
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टिप्पणी.
यदि एक यान 50 किमी प्रति घंटे की गति से उड़ान भरता है तो उसे 800 किमी की दूरी तय करने में 16 घंटे लगेंगे
भारतीय वायु सेना का एक लड़ाकू विमान
जिसकी रफ्तार लगभग 2,400 किलोमीटर प्रति घंटा है. और अगर हम इन
विमानों की तुलना हनुमान जी की रफ्तार से करें तो यहां पर भी हनुमान जी की रफ्तार
ज्यादा ही निकलती है. यानी हम यह कह सकते हैं कि हनुमान जी के उड़ने की रफ्तार या
गति आधुनिक भारत के पास मौजूद सबसे तेज लड़ाकू विमानों से भी तेज रही होगी.
जैसा कि हनुमान जी के
लिए " अष्ट सिद्धि नौ निधि के
दाता " का संबोधन किया जाता है. उसके अनुसार हनुमानजी को
योग की आठ सिद्धियां प्राप्त थीं. और ये आठों सिद्धियां एक प्रकार से शक्तियों के
समान मानी जाती हैं. इन्हीं शक्तियों में से महिमा और लघिमा नाम की शक्तियों के
माध्यम से मन के वेग या गति से उड़ा जा सकता है.
माना जाता है कि " लघिमा " नामक सिद्धि का उपयोग करके हनुमान जी अपने शरीर
का वजन ना के बराबर कर लेते थे, जिसके बाद वे प्रकाश की गति से भी तेज उड़ सकते थे. इसे अगर
हम वैज्ञानिक आधार पर देखें तो वहां भी प्रकाश की गति से तेज उड़ने के लिए किसी भी
चीज का वजन ना के बराबर होना चाहिए. और अगर शरीर में वजन ही नहीं होगा तो उस पर ना
तो गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव हो सकता है और ना ही किसी भी प्रकार की कोई केंद्रीय
ऊर्जा ही उन्हें अपनी ओर खींच सकती थी. तो संभव है कि इसी कारण से हनुमान जी भी
प्रकाश की गति से या उससे भी तेज उड़ सकते थे. शास्त्रों के ज्ञाताओं का भी यही
मानना है कि हनुमान जी ने संभवतः "लघिमा" नाम की सिद्धि का ही प्रयोग करके
लक्ष्मण की जान बचाई थी.
(2) यह बताने की जरूरत नहीं कि यदि किसी भी चीज को
पृथ्वी से किसी दूसरे ग्रह (चंद्रमा को छोड़कर) तक जाना है तो उसे पृथ्वी के
गुरुत्वाकर्षण से मुक्त होना होगा. पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण
(gravitational
force) से मुक्त होने के लिए पलायन
वेग (escape
velocity) होना जरूरी है. यदि स्पीड नहीं हुई तो वह चीज
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण में बनी रहेगी और गोल गोल पृथ्वी के चक्कर लगाती रहेगी. अंतरिक्ष विज्ञान के अनुसार पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकलने के
लिए किसी भी चीज को कम से कम 11 किलोमीटर मीटर प्रति सेकेंड की स्पीड से उड़ना
होगा,
क्योंकि उपरोक्त दोहे में बताया गया है कि हनुमान जी ने पृथ्वी से सूर्य तक की
यात्रा की है. अतः उनके उड़ने या छलांग लगाने की हाई स्पीड 11 किलोमीटर प्रति सेकंड से ज्यादा होगी.
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ग्यारह किमी.प्रति
सेकेन्ड की गति से उड़ान भरते हुए पवनपुत्र श्री हनुमानजी को लंका के वन और समुद्री
तट दिखाई देने लगे. लंका पहुँचकर उन्होंने अपना आकार सामान्य बना लिया और लंका
द्वीप के मुख्य पर्वत त्रिकूट के एक विषम दर्रे में जाकर बैठ गए.
त्रिकूट पर्वत-
ऐसी मान्यता है कि जब
रावण आकाश मार्ग से कैलाश से शिवलिंग ले जा रहा था, तब वह इस यात्रा के बीच
में त्रिकूट पहाड़ी की चोटी पर उतरा. इस स्थान पर रावण का हैलीपेड
था.
एक पौराणिक
द्वीप है जिसका उल्लेख रामायण और महाभारत आदि हिन्दू ग्रन्थों में मिलता है.
इसका राजा रावण था. यह 'त्रिकुट' नामक तीन पर्वतों से घिरी थी.
इसकी लंबाई 100 योजन व चौड़ाई 10 योजन थी. इसे बनाने में
रामायण काल में श्री राम नाम के साथ, उच्च तकनीक का प्रयोग
किया गया था.
महर्षि
वाल्मीकि रचित की रामायण में भी रावण के ज्ञान और सुंदरता का वर्णन मिलता है इसके
अनुसार जब हनुमान जी माँ सीता की खोज में लंका पहुंचे थे तो वो भी रावण की कई
खूबियों से आकर्षित हुए थे. रामायण में लिखा है हनुमानजी ने रावण के वैभव को देखते
हुए कहा -
अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति: : अहो
राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता
अर्थ- रावण को देखते ही हनुमान मुग्ध हो जाते हैं और
कहते हैं कि रूप,
सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षणयुक्त होने पर भी यदि इस
रावण में अधर्म न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता.
भगवान शिव ने बनवाया था सोने का महल
शिव पुराण के अनुसार एक बार माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु कैलाश
पर्वत भगवान शिव और मां पार्वती से मिलने के लिए गए. कैलाश पर्वत पर इतनी ठंड थी
कि माता लक्ष्मी ठिठुरने लगीं. बहुत ढूंढने के बाद भी कैलाश पर्वत पर कोई ऐसा महल
नहीं मिला जहां माता लक्ष्मी को थोड़ी राहत मिल सके. तब माता लक्ष्मी ने तंज कसते
हुए पार्वती जी से कहा कि आप खुद एक राजकुमारी हैं. कैलाश पर्वत पर आप इस तरह का जीवन कैसे जी सकती
हैं. इसके बाद एक दिन जब माता पार्वती
अपने पति के साथ वैकुंठ धाम गयीं तो वहां की सुंदरता और वैभव देखकर मंत्रमुग्ध हो
गई. कैलाश पर्वत वापस आने के बाद उन्होंने भगवान शिव से महल बनवाने की जिद की. तब
भगवान शिव ने विश्वकर्मा और कुबेर को बुलवाकर सोने का महल बनवाया.
रावण ने शिव से मांग ली सोने की लंका
भगवान विश्वकर्मा और कुबेर ने मिलकर समुद्र के बीचों बीच
सोने की लंका का निर्माण किया. एक बार जब रावण उधर से गुजर रहा था तब वह सोने का
महल देखकर मोहित हो गया. महल पाने के लिए उसने एक ब्राह्मण का रुप धारण किया और
भगवान शिव के पास पहुंचा. उसने शंकर भगवान से भिक्षा में सोने की लंका मांगी.
भगवान शंकर पहले ही समझ गये थे कि यह ब्राह्मण के रुप में रावण है, लेकिन वह उसे खाली
हाथ नहीं लौटाना चाहते थे. इसलिए उन्होंने सोने की लंका रावण को दान कर दी. जब
माता पार्वती को यह बात पता चली तो वह बहुत नाराज हुईं और उन्होंने क्रोधित होकर
कहा कि सोने की लंका एक दिन जलकर भस्म हो जाएगी. इस श्राप के कारण हनुमान जी ने
लंका में आग लगाकर उसे राख कर दिया.
इस तरह से जिस सोने की
लंका को रावण ने लालच में आकर छलपूर्वक भगवान शिव से मांगा था, माता पार्वती के श्राप के कारण एक दिन वह सोने की लंका जलकर
भस्म हो गयी.
आज के युग के
अनुसार रावण का राज्य विस्तार, इंडोनेशिया, मलेशिया, बर्मा, दक्षिण भारत
के कुछ राज्य और संपूर्ण श्रीलंका पर रावण का राज था। श्रीलंका की श्रीरामायण रिसर्च कमेटी के अनुसार रामायण काल से
जुड़ी लंका वास्तव में
श्रीलंका ही है.
श्री लंका का पिछले 5००० वर्ष का लिखित इतिहास उपलब्ध है. 125,000 वर्ष पूर्व यहाँ मानव बस्तियाँ होने के
प्रमाण मिले हैं. यहाँ से 29 ईसापूर्व में चतुर्थ बौद्ध
संगीति के समय रचित बौद्ध ग्रन्थ प्राप्त
हुए हैं.
प्राचीन काल से ही
श्रीलंका पर शाही सिंहल वंश का शासन रहा है. समय-समय पर दक्षिण भारतीय राजवंशों का भी आक्रमण भी इस पर होता रहा है.
तीसरी सदी ईसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र के यहां आने पर बौद्ध धर्म का आगमन हुआ.
प्राचीन काल से ही श्रीलंका पर शाही सिंहल
वंश का शासन रहा है। समय-समय पर दक्षिण भारतीय राजवंशों का भी आक्रमण भी इस पर
होता रहा है। तीसरी सदी ईसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र के यहां आने पर बौद्ध धर्म का आगमन हुआ.
प्राचीन धर्म ग्रंथों
में लंका को "स्वर्ण आकार संवीता" और " हेम तोरण संवृता" कहा
गया है.
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.तोर्वे रामायण के
अनुसार रावण की लंका जाते समय हनुमानजी लंका से सात सौ योजन दूर महर्षि तृणबिन्दु
के आश्रम जा पहुँचे. संबवतः उन्हें दिशा
को लेकर कोई भ्रम हो गया था. उन्होंने ऋषि से मिलकर सीताजी के अपहरण के बारे में
बताया. और जानना चाहा कि सीता माता को किस दिशा में खोजा जाना चाहिए..ऋषि शायद
हनुमानजी से और न ही उनकी शक्ति से परिचित नहीं थे. हनुमानजी को क्रोध हो आया. तब
उन्होंने पद्मासन में बैठे ऋषि को हवा में उठा दिया. घबरा कर ऋषि ने बतलाया कि
लंका उत्तर में स्थित है. घबराहट में आदमी को ध्यान नहीं रहता कि वह सही उत्तर दे
रहा है अथवा गलत. घबराहट नेण ऋषि ने दक्षिण की जगह उत्तर दिशा कह दिया.
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हनुमानजी ने
पर्वत की चोटी पर बने दर्रे से लंका को चारों ओर देखा. लंका का वैभव देखकर उन्हें
भारी आश्चर्य हो रहा था. चूंकि पवनपुत्र का पहली बार लंका आना हुआ था. अतः
उन्होंने तत्काल लंका में प्रवेश न करने का मानस बनाया. लंका के बाहर और भीतर की
सारी जानकारियाँ जुटाने के लिए त्रिकूट पर्वत के शिखर पर बने छिद्र में बैठकर छिपे
रहना उन्हें ज्यादा श्रेयसकर लगा.
स नगाग्रे स्थिथां
लंका ददर्श पवनात्मजः (8
द्वीतिय सर्ग)
प्रातःकाल हनुमानजी ने लंका की ओर देखा, जो
सूर्य की किरणों को परावर्तित करती हुई चमचमा रही थी, जिसे देखकर आँखे चुंधियाने
लगी थीं. हनुमान जी ने यह भी देखा कि संपूर्ण लंका के चारों ओर गहरी-गहरी खाईय़ां
खोदी गईं हैं, जिनमें अनेक मगरमच्छ और घड़ियाल तैरते दिखलाई दिए. इन्हीं खाइयों से सटकर ऊँची-ऊँची चहारदीवारें बनाई गई
थीं, ताकि कोई भी दुश्मन आसानी से लंका में प्रवेश न कर सके.
दीवार से उस पार चौड़ी-चौड़ी सड़के बनी हुई थीं.
सड़क के दोनों ओर चीड़, कनेर, खजूर, चिरौंजी, कदम्ब, अशोक आदि के सघन वृक्ष लगे हुए
थे, जिन पर अनेकानेक पक्षियों ने घोंसले बना लिए थे. अनेक प्रकार की बेले इन
वृक्षों से लिपटकर, वायु में झूल रही थीं, जिनमे रंग-बिरंगे फूल मुस्कुरा रहे थे.
जगह-जगह बड़े-बड़े जलाशय भी बने हुए थे, जिनमें नीले, गुलाबी तथा सफ़ेद रंग के कमल
खिले हुए थे तथा अनेक हंस और कारण्डव पक्षी किल्लोल कर रहे थे. बहुत से रमणीय
उद्यान भी बने हुए थे, जिसमें सभी ऋतुओं में फ़ल-फ़ूल देने वाले अनेक प्रकार के
वृक्ष फ़ैले हुए थे. दूर से देखने पर बादलों से घिरे आकाश में लंकापुरी
चित्र-लिखित-सी दिखाई देती थी.
त्रिकूट पर्वत के शिखर पर से हनुमानजी ने बहुत
से वन-उपवन देखे जिसमें चीड़, कनेर,खजूर, चिरौंजी, कुटज, केतक, पिप्पली, कदम्ब के
पेड़ों के सहित फ़ूलों के भार से लदे हुए बहुत से वृक्षों को देखा. बावड़ियां हंसों
और कारण्डवों से व्याप्त थी. जलाशय के चारों ओर सभी ऋतुओं में फ़ल-फ़ूल देने वाले
अनेक प्रकार के वृक्ष फ़ैले हुए थे. महल के फ़ाटक सोने के बने हुए थे.
हनुमानजी की पारखी नजरों से यह भी देखा कि महल
के चारों ओर भयंकर आकृति वाले राक्षस, जिनके हाथों में त्रिशूल, परस, करवाल, माला, तोमर, मूसल,
यमतुल्य-बाण, भुशुंडि, दंड, वक्रदंड, चक्र, कुलिश, छुरिका, कुंत, भिडिंपाल
आदि अस्त्र-शत्रों को धारण किए हुए चहुंओर
घूम-घूम कर उसकी अभिरक्षा में तैनात हैं. यदि मैं लंका में प्रवेश करता हूँ, तो
सबसे पहले इन राक्षसों से भिड़ना होगा मैं
जिस महान उद्देश्य को लेकर चला हूँ शायद
वह खटाई में पड़ जाएगा.
बुद्धिमान हनुमानजी हर छोटी-बड़ी बातों पर अपनी
बुद्धि की कसौटी पर कसते हुए, हर एक पहलुओं पर गहनता से विचार कर रहे थे. मन ही मन
में अपने आपसे तर्क-वितर्क भी करते जा रहे थे कि चारों ओर से राक्षसों से घिरे इस
महल में किस तरह प्रवेश किया जा सकता है?. मुझे कौन-सा ऐसा उपाय करना होगा कि मैं
इन राक्षसों की दृष्टि से ओझल रहकर माता सीता के दर्शन कर सकूँ. यदि राक्षसों ने
मुझे देख लिया तो अनर्थ हो जाएगा. संभव है मुझे बंदी बना लिया जाएगा?. आगे क्या
कुछ होगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती?. यदि ऐसा कुछ हुआ तो रामकाज अधूरा रह
जाएगा?".
उन्होंने इस बात पर भी गंभीरता से सोचा-"
क्यों न मैं राक्षस का रूप धारण कर लंका में प्रवेश करुँ?. यदि मैं ऐसा करता भी
हूँ तो भी राक्षसों से अज्ञात रहकर कहीं ठहर पाना सम्भव नहीं है. स्वयं वायुदेव भी
इस पुरी में सहजता से प्रवेश नहीं कर सकते, ऐसी दशा में मेरा प्रवेश करना असंभव
है. यदि मैं अपने इस रूप से छिपकर भी
रहूँगा तो निश्चित ही पकड़ा जाऊँगा और बंदी बना लिया जाऊँगा. अतः मुझे रात्रि के
आगमन तक गहन अंधकार घिरने तक इसी पर्वत शिखर पर रहना होगा".
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बुद्धि के आठ अंग बताए
गए हैं.
शुश्रूषा श्रवणं चैव
ग्रहणं धारणं तथा ।
उहापोहोर्थ विज्ञानं तत्वज्ञानं च धीगुणा: ॥
श्रवण करने की इच्छा, प्रत्यक्ष में श्रवण करना, ग्रहण करना, स्मरण में रखना, तर्क-वितर्क करना, सिद्धान्त निश्चय,अर्थज्ञान तथा तत्वज्ञान ये बुद्धी के आठ अंग है.
यस्तु स्चरते देशान्
सेवते यस्तु पण्डितान्. तस्य् विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि---ऐसे
व्यक्ति जो विभिन्न देशों में यात्रा करते है और विद्वान लोगों की सेवा करते है,
उनकी बौद्धिक् क्षमता का विस्तार ठीक उसी तरह होता है, जिस प्रकार तेल् का एक बूंद
पानी में गिरने के बाद फ़ैल जाता है.
सहसा विदधीत् न् क्रियामविवेकः
परमापदां पदम : वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः- किसी भी कार्य
को आवेश में आकर या बिना सोचे समझ नहीं करना चाहिए, क्योंकि विवेक का शून्य होना
विपत्तियों को बुलावा देना है. जबकि जो व्यक्ति सोच-समझकर कार्य करता है, ऐसे
व्यक्तियों को मां लक्ष्मी ( सफ़लता ) ही
स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है.
कहा भी गया है कि-
बुद्धिर्यस्य बलं तस्य- बुद्धि तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है. बुद्धिः कर्मानुसारिणी- बुद्धि कर्म का
अनुसरण करती है.
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अन्ततः उन्होंने निर्णय लिया की रात्रि के घिर
जाने के बाद ही वे अपने शरीर का आकार अत्यन्त ही छोटा करके लंका में प्रवेश
करेंगे. ऐसा करने से प्रहरी राक्षसों की दृष्टि मुझ पर शायद ही पड़ेगी. ऐसा उत्तम
विचार के मन में आते ही उनका शरीर पुलकायमान हो उठा. अंगों में शुभ संकेत प्रकट
होने लगे थे. प्रसन्नबदन पवनपुत्र अब गुफ़ा के मुहाने पर बैठकर, सूर्यास्त होने की
प्रतीक्षा करने लगे.
जब व्यक्ति नितांत अकेला होता है, तब उसकी सोच
और भी गहरी होती जाती है. सहसा उनके मन में एक विचार उत्पन्न हुआ और वे राम और
रावण के बीच के विराट अन्तर के बारे में सोचने लगे थे.
" अहो !. मेरे प्रभु श्रीरामजी का नाम
" रा" अक्षर से प्रारंभ होता है, वहीं दुष्ट रावण का नाम भी "
रा" से ही प्रारंभ होता है. नाम के प्रथम अक्षर के अनुसार रामजी और रावण की
जन्म राशि भी एक ही होनी चाहिए. यदि जन्म राशि एक है, संभव है इन दोनों की कुण्डली
भी एक-सी ही होनी चाहिए?. कोई न कोई तो ऐसी बात अवश्य है जो राम को श्रीराम और
रावण को दुष्टात्मा राक्षस की श्रेणी में खड़ा करती है. हालांकि रामजी में और रावण
के बीच जहाँ एक रोचक समानता है, वहीं दूसरी ओर दोनों के बीच पृथ्वी और आकाश-सा
अंतर भी है".
"मेरे प्रभु श्रीराम की माताश्री का नाम
कौसल्या है. वहीं रावण की माता का नाम कैकशी है. दोनों की माताओं के नाम का प्रथम
अक्षर "क" से प्रारंभ होते है. कैकशी जहाँ एक ओर रावण को अपने सौतेले भाई
कुबेर से लंका छीन लेने को उकसाती है, दूसरों के माल को जबरन हथियाने की सीख देती
है. वहीं रामजी की माता अपने राम को उत्तम संस्कारों से युक्त करती हैं".
" मेरे राम जहाँ उद्यम, साहस, धैर्य,
बुद्धि, शक्ति और पराक्रम जैसे दिव्य गुणों की खान हैं, वही रावण उद्यम करके धन
नहीं कमाता, बल्कि दूसरों के माल पर डाका डालता है. मेरे राम में जहाँ शालीनता है,
उदारता है. उनके मन के केन्द्र में सदा एक मौन गूंजता रहता है, एक ऐसा मौन जहाँ
कोई भी विकार, कोई भी गंदगी प्रवेश नहीं कर सकती, जबकि रावण ठीक इसके विपरीत है.
उसके अपने केन्द्र में लम्पटता सहित अनेक दुर्गुणों की गंदगी ही समायी हुयी
है".
"मेरे राम बड़े ही कुशाग्र और बुद्धिमान
है. वे अपने पराक्रम से संपन्न होने वाले किसी भी कार्य को लेकर घमण्ड नहीं करते,
वहीं रावण भी कुशाग्र और बुद्धिमान अवश्य है, लेकिन वह सदैव घमण्ड में चूर रहता
है. मेरे राम जहाँ वृद्ध पुरुषों का सम्मान करते हैं, वहीं रावण इनको अपमानित करने
से बाज नहीं आता है".
"मेरे राम परम दयालु, क्रोध को जीतने वाले
और विशेषकर ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों तथा ब्राह्मणॊं को सम्मान की दृष्टि से
देखते हैं, उनका यथोचित आदर करते है. दीन-दुःखियों के प्रति उनके मन में सदा दया
का भाव प्रबल बना रहता है, जबकि रावण क्रोधी है, लम्पट है, ऋषि-मुनियों, तपस्वियों
तथा ब्राह्मणॊं को निर्ममता के साथ मार डालता है, उनकी तपःस्थली को उजाड़ डालता है.
जब वे यज्ञादि करते हैं, तो उसके अनुयायी, उनके हवन-कुण्ड में अपवित्र वस्तुएँ
डालकर उनका अनुष्ठान्न भंग कर देता है".
"मेरे राम की इन्द्रियाँ सदैव उनके वश में
रहती है. वे अपने कुलोचित आचार, विचार, दया, उदारता और शरणागत की रक्षा करने में
उनका मन लगा रहता है. मेरे राम के मन में कभी भी अमंगलकारी, निषिद्ध कर्म करने में
प्रवृत्ति कभी नहीं रहती. वे शास्त्रों के विरुद्ध बातों को सुनना कभी पसंद नहीं
करते, जबकि रावण का आचरण ठीक इसके विपरीत
है. वह सदैव अमंगलकारी कर्म करते रहने का आदी हो गया है".
"मेरे राम जहाँ श्रेष्ठ गुणों से युक्त
हैं, धर्माचरण में कुशल है, प्रतिभाशाली है, लोक-व्यवहार के संपादन को कैसे
प्रतिपादित किया जाना चाहिए, उन्हें अच्छी तरह से जानते हैं. अपनी जन्मभूमि के
प्रति उनका अनुराग किसी से छिपा नहीं है. रावण, यद्यपि धर्म के मर्म को जानता है,
समझता है, बावजूद इसके वह सदा धर्म के विरुद्ध कार्य करने में लगा रहता है".
"मेरे राम दर्प और ईर्ष्या आदि से कोसों
दूर रहते हैं, क्षमाशीलता उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है, जबकि रावण दर्प और ईर्ष्या
से सदैव भरा रहता है. यदि यह कहा जाए कि रावण दुर्गुणों की खान है, तो कोई
अतिश्योक्ति नहीं होगी".
"मेरे राम, जहाँ अपने उत्तम गुणों के कारण
सर्वमान्य है, पूज्यनीय हैं. वहीं रावण अपने दुर्गुणों के कारण सभी की दृष्टि में
घृणा का पात्र बना हुआ है. ऐसे एक नहीं, अनेक कारक हैं जो राम को ईश्वरत्व प्रदान
करते है, वहीं रावण अपने दुर्गुणों के कारण शैतान कहलाता है. दानव कहलाता
है.राक्षस कहलाता है".
वे
अपने प्रभु रामजी के गुनानुवाद करने में इतने मगन हो गए थे,कि कब सूर्यनारायण
अस्ताचल में जा पहुँचे हैं, उन्हें इसका
भान ही नहीं रहा. देर तक अपने प्रभु का स्मरण करने के बाद जैसे ही उन्होंने अपने
नयन खोले. चारों ओर गहरा अन्धकार छा चुका था. उन्हें तो बस, इसी अवसर की प्रतीक्षा
थी.
वे अपनी जगह से उठ खड़े हुए और उन्होंने अपने
शरीर का आकार मच्छर जितना छोटा बना लिया. उनका अपना अनुमान था कि मेरे इस लघु रूप
पर शायद ही किसी राक्षसिनी अथवा राक्षस की दृष्टि पड़ेगी और मैं निश्चिंतता के साथ
रावण में महल में प्रवेश कर सकूँगा..
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तुलसीकृत रामायण के
अनुसार श्री हनुमानजी ने मसक (मच्छर) जितना छोटा आकार धारण कर लिया था.(मसक समान
रूप कपि धरी. लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरि) वहीं वाल्मीकि रामायण में उल्लेखित है कि
श्री हनुमानजी ने अपना आकार बिल्ली के बराबर बना लिया था. ( सूर्ये चास्तं गते
रात्रौ देहं संक्षिप्त मारुति वृषदंशकमात्रोSथ बभूवाद्भुतदर्शनः) विश्राम सागर में प्राप्त कथा के अनुसार हनुमानजी
लंका के मसक रूप से नहीं बल्कि सन्यासी के रूप में प्रवेश किए थे. अध्यात्म रामायण
में मात्र यही उल्लेख मिलता है कि हनुमानजी ने सूक्ष्म रूप रखकर रात्रि में प्रवेश
करने का निश्चय किया और रात्रि में सूर्यास्त के बाद अर्थात रात्रि में प्रवेश
किया. मानस के अनुसार " अति लघु रूप धरौ" और " निसि नगर करौ पइसार" यही सोचकर
हनुमानजी ने अपना अत्यन्त छोटा रूप रखा. ऐसा उल्लेख मिलता है कि हनुमानजी अपना रूप
" अणु" के बराबर बना सकते थे. इसीलिए उनका एक नाम " अणुमान"
भी पड़ा. सिद्धियां आठ प्रकार की होती हैं. हनुमानजी ने "अणिमा" सिद्धि
का प्रयोग करते हुए अन्यन्त छोटा ( अणु ) बना लिया था.
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प्रबिसि नगर कीजै सब
काजा *
हृदय राखि कौसलपुर राजा
लंका में प्रवेश करने के पूर्व उन्होंने अपने
आराध्य प्रभु श्रीरामजी का स्मरण किया. उन्होंने अपने आकार को मच्छर के आकार का
जितना छोटा बना लिया. उन्होंने प्रभु श्रीरामजी की दिव्य छवि को मन में धारण किया.
उन्हें प्रणाम किया. राम जी के स्मरण मात्र से उनके शरीर में रोमांच हो आया था. मन
प्रसन्नता से खिल उठा था.
प्रसन्न बदन श्री हनुमानजी ने एक ऊँची छलांग
लगायी और पलक झपकते ही वे लंका की प्राचीर पर जाकर चढ़ गए . कुछ क्षणों तक बैठे
रहने के पश्चात उन्होंने एक अत्यन्त ही
ऊँची दीवार से कूदकर लंका में प्रवेश किया..
रात के घिरते ही समूची लंकापुरी अंधेरी की चादर
ओढ़कर सुस्ताने लगी थी. गहन-घुप्प अंधकार छाए रहे के पश्चात भी वे देख सकते थे. वे
अत्यन्त ही सावधानी और सतर्कता के साथ उस स्वर्णमयी लंका में, एक-एक पग सावधानी के
साथ इस तरह बढ़ा रहे थे, ताकि उनके पदचाप से उत्पन्न होने वाली ध्वनि किसी के कान
तक नहीं पहुँचे. यह तो ठीक उसी तरह चलना हुआ जैसे कोई बिल्ली दबे पाँव चलती है और
आवाज तक नहीं होती.
उन्होंने लंका नगरी को अपनी कल्पना से परे
पाया. वह सात मंजिलों से युक्त थी, जिसकी दीवारें सोने की बनी हुई थी जिस पर
जगह-जगह हीरे-जवाहरात जड़े हुए थे. समूची नगरी ही ऐसे भव्य भवनों से भरी हुई थी,
जिनकी खिड़कियाँ और दरवाजों पर हीरे जड़े जालियाँ लगी हुई थीं. जगह-जगह घी के दिये
जलाकर कक्षों में रोशनी की गई थी. इसके बावजूद भी अंधकार पूरी तरह से मिट नहीं
पाया था.
आहिस्ता-आहिस्ता से एक-एक पग बढ़ाते और महल का
सूक्ष्मता से अवलोकन करते हुए वे थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि उनके कानों में असंख्य
स्त्रियों की मादक हँसी-ठिठौली के स्वर और मधुर संगीत की ध्वनि सुनाई दी. थोड़ा और
आगे बढ़े ही थे कि जगह-जगह राक्षस, ब्राह्मण आदि रावण की रक्षा के लिए सामुहिक
प्रार्थना के साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण भी कर रहे थे.
पवनपुत्र श्री हनुमान जी ने अपनी दिव्य
शक्तियों- अणिमा ( छोटे-से छोटा रूप धारण करना ) और प्राप्ति ( बिना किसी रोकटोक
के किसी भी स्थान में जाने की क्षमता.) का प्रयोग करते हुए लंकापुरी में
प्रवेश किया. उन्हें अपनी शक्तियों पर पूरा विश्वास था कि शायद ही उन्हें कोई देख
पाएगा और वे बिना रोकटोक के संपूर्ण लंका में भ्रमण करते हुए माता सीता को खोज
निकालेंगे.
करत्वं केन कार्येन इह
प्राप्तो वनालय.
दो-चार कदम ही चल पाए होंगे कि सिंह की गर्जना
के समान एक कर्कश आवाज गूँजी-" हे वनचारी वानर ! रुक जाओ ....एक पग भी आगे मत बढ़ाना..तुम कौन हो
? यह तो मैं नहीं जानती, लेकिन बिना मेरी अनुमति के तुमने लंका के भीतर प्रवेश
करने का दुस्साहस कैसे किया ?.
" हे मर्कट ! तू किस प्रयोजन से भीतर चला आया है, यह तो मैं नहीं जानती?. लेकिन तूझे ठीक-ठीक
बताना होगा कि तू किस कार्य के निमित्त यहाँ आया है ? अगर तूने एक पग भी आगे
बढ़ाया, तो निश्चित ही तू अपने प्राणॊं से हाथ धो बैठेगा".
" हे वानर ! रावण की विशाल सेना सब ओर से
इस पुरी की रक्षा करती है. सबकी आँखों में धूल झोंक कर तू किस तरह अन्दर चला आया.
सच-सच बता, अन्यथा इसका परिणाम बहुत घातक हो सकता है".
आवाज सुनते ही पवनपुत्र वहीं रुक गए थे.
उन्होंने पलटकर देखा. एक भयंकर राक्षसिनी ठीक उनके पीछे खड़ी होकर उन्हें ललकार रही
थी.
अपने सामने उपस्थित भयंकर शरीर वाली राक्षसिनी
को देखकर पवनपुत्र श्री हनुमानजी ने उससे पूछा-" हे क्रूर स्वभाववाली नारी !
तू मुझसे जो कुछ भी पूछ रही है, सब बतला दूँगा. सबसे पहले तो तू ये बता कि तू यह
सब पूछने वाली कौन होती हो?. मुझे इस तरह डांटने का अधिकार तूझे किसने दिया? मैं
भी तो जानूं? ".
" अच्छा, तो तू बिना मेरा परिचय जाने बगैर,
कुछ बतलाने वाला नहीं है? ले सुन ले...मैं महामना राक्षसराज रावण की प्रधान सेविका
हूँ. लंकापुरी की रक्षा करना मेरा प्रथम कर्तव्य है. मेरी अवहेलना करके इस पुरी
में प्रवेश करना किसी के लिए भी अत्यन्त ही कठिन है. इतनी कड़ी सुरक्षा के घेरे को
तोड़कर तू भीतर कैसे चला आया?. साफ़-साफ़ बतला या फ़िर मरने के लिए तैयार हो जा".
बुद्धिमान वानर श्रेष्ठ हनुमान जी ने
मुस्कुराते हुए उससे कहा-" इस स्वर्णमयी लंका की भव्य अट्टालिकाओं, परकोटों,
उद्यानों, वन, उपवन, कानन और मुख्य-मुख्य भवन बने हुए हैं. उन्हें देखने के लिए
मेरे मन में बड़ा कौतुहल उत्पन्न हुआ. उसे देखने की इच्छा लिए मैं भीतर चला
आया".
"हे खोटी बुद्धि के वानर ! बिना मेरी
अनुमति के तुम किसी भी स्थान को नहीं देख सकते. यदि तुम लंका पुरी देखना ही चाहते
हो, तो सबसे पहले तूझे मेरे साथ युद्ध करके मुझे परास्त करना होगा".
" हे देवी ! तुम एक नारी हो और मैं नारी
जाति का बड़ा सम्मान करता हूँ. अतः मैं किसी भी प्रकार से एक नारी पर प्रहार नहीं
कर सकता. तुम मेरी बातों पर विश्वास करो. मैं इस भव्य पुरी को देखने के पश्चात,
जैसे आया था, उसी प्रकार से वापिस भी लौट
जाऊँगा".
"
हे मंदबुद्धि के वानर ! क्या तूझे इतनी छोटी-सी बात भी, एक बार में समझ में
नहीं आती?. मेरे मना करने के बाद भी तू मुझसे अनर्गल प्रलाप करता चला जा रहा है?.
मैं फ़िर कहती हूँ -"अपनी जिद छोड़ दे
और यहां से भाग जा या फ़िर मेरे साथ युद्ध करके मुझे परास्त कर. तभी तू लंका
पुरी को देख पाएगा".
पपात सहसा भूमौ
विकृताननदर्शना.
समझ गए पवनपुत्र कि सीधी बात करने से कुछ भला
होने वाला नहीं है. वे नारी पर प्रहार करने की मानसिकता में बिलकुल भी नहीं थे.
फ़िर भी उन्होंने संयम धारण करते हुए लंकिनी से कहा-" हे लंकिनी ! मैं स्त्री
जाति का अत्यधिक सम्मान करता हूँ. मैं तुम पर भूलकर भी बल का प्रयोग नहीं करना
चाहता. लंका के भीतर प्रवेश करते हुए मुझे केवल माता सीता का पता-ठिकाना ज्ञात
करना है. पता-ठिकाना पाते ही मैं जैसा आया था, वैसा ही वापिस भी लूँगा. अतः मेरा
निवेदन है कि मुझे अकारण द्वार पर मत रोको. मुझे अन्दर जाने दो".
लंकिनी गरजी-" हे मंदबुद्धि के वानर !
किसी भी कीमत पर मैं तुझे अन्दर प्रवेश करने नहीं दूँगी. मैं फ़िर कहती हूँ कि उलटे
पैर लौट जा. इसी में तेरे भलाई है....समझा ".
लंकिनी उन्हें अन्दर प्रवेश करने से रोक रही
थी. मेरे द्वारा "साम" नीति अपनाने के बाद भी
लंकिनी मानने को तैयार नहीं हो रही थी. उन्होंने समय की नाजुकता को देखते हुए सोचा
कि परिस्थितियां लगातार प्रतिकूल होती जा रही हैं. उन्हें तो हर हाल में लंका में
प्रवेश कर, सीताजी की खोज-खबर लेनी है. वे बातों के उलझाव में ज्यादा समय तक उलझना
नहीं चाहते थे.
मुठिका एक महा कपि हनी
* रुधिर बमन धरनीं ढनमनी.
अतः उन्होंने इस विकट होती जा रही परिस्थिति को
बारिकी से समझा और बिना विलम्ब किए, अपनी गरिमा शक्ति का प्रयोग करते हुए अपना
स्वरूप बढ़ाया और अत्यन्त ही कुपित होकर लंकिनी के मुँह पर एक मुक्का जड़ दिया.
हालांकि उन्होंने मुक्के का प्रयोग हलके से ही किया था, बावजूद उसका जबड़ा टूट गया.
रक्त की धारा बह निकली. रक्त का बमन करती हुई वह अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी.
कुछ समय तक मूर्च्छित पड़ी रहने के बाद उसे चेत
हो आया. वह उठ खड़ी हुई और अभिमानशून्य होकर मधुर वाणी में हाथ जोड़कर कहने
लगी-" हे कपिश्रेष्ठ ! मेरे अपराध क्षमा कीजिए.....मेरी रक्षा कीजिए. हे
महाबली ! मैं स्वयं लंकापुरी हूँ. आपने अपने पराक्रम से मुझे पराजित कर दिया
है".
"हे वानरेश्वर ! मैं आपसे एक सच्ची बात कह
रही हूँ. मुझे परमपिता ब्रह्माजी ने वरदान देते हुए कहा था कि जब कोई वानर तुझे
अपने पराक्रम से वश में कर लेगा, तब तू समझ लेना कि राक्षसों का अन्त निकट आ
पहुँचा है. " हे कपिश्रेष्ठ ! परमपिता ब्रह्माजी ने मुझसे कहा था कि माता
सीता के कारण दुरात्मा रावण के सहित समस्त राक्षसों का विनाश होना निश्चित है.
ब्रह्माजी का वह कथन असत्य नहीं हो सकता.
" हे पवनपुत्र ! मैं आपको लंकापुरी में
प्रवेश करने की अनुमति देती हूँ. आप निश्चिन्तता के साथ लंकापुरी में प्रवेश कीजिए
और माता सीता जी की खोज करने के अतिरिक्त और जो-जो भी कार्य आप करना चाहते हैं, उन
सबको पूर्ण कर लीजिए".
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लंकिनी-
लंकिनी लंका राज्य की
सुरक्षा प्रभारी थी जो लंका नगर के प्रवेश द्वार पर पहरा देती थी. उसकी आज्ञा के
बिना कोई भी नागरिक लंका के अंदर प्रवेश नहीं कर सकता था. वह अत्यन्त ही शक्तिशाली
व बलवान स्त्री थी जिसे रावण ने मुख्यतया लंका की सुरक्षा का उत्तरदायित्व दिया
था.
जब भगवान ब्रह्माजी के
वरदान से रावण को सोने की भव्य नगरी लंका प्राप्त हुई तो वह अत्यन्त प्रसन्न था.
उस समय ब्रह्माजी ने लंकिनी को लंका का मुख्य प्रहरी बनाया व उसे लंका की सुरक्षा
का प्रभार सौंपा था. तब लंकिनी ने ब्रह्माजी से जानना चाहा कि मुझे कब तक लंका की
सुरक्षा में तैनात रहना होगा.
तब ब्रह्माजी ने कहा
कि जब एक दिन वानर रूप में स्वयं भगवान यहाँ आएंगे, जिससे तुम परास्त हो जाओगी. उस
दिन के बाद से तुम्हारा लंका की सुरक्षा करने का कर्तव्य पूर्ण हो जाएगा व तुम्हें
मुक्ति मिलेगी.
एक वानर के द्वारा
शक्तिशाली लंकिनी पर इतने जोरदार प्रहार से लंकिनी को ब्रह्माजी के द्वारा कही गयी
बात याद हो आयी थी.
(2) एक अन्य मान्यता के अनुसार लंकिनी पहले एक
सुंदर स्त्री थी जिसके पास पहले ब्रह्मा के ब्रह्मलोक की सुरक्षा का भार था. किंतु
स्वयं को मिले इस उत्तरदायित्व के कारण उसमें अहंकार आ गया था. इसी अहंकार के कारण
ब्रह्माजी ने उसे राक्षस नगरी का प्रहरी बना दिया था. जब उसे अपनी गलती का अनुभव
हुआ तब उसने ब्रह्माजी से क्षमा मांगी और पूछा कि मुझे इस प्रहरी की जवाबदारी से
कब मुक्ति मिलेगी?. तब ब्रह्माजी ने बतलाया-" जब एक दिन वानर रूप में स्वयं
भगवान यहाँ आएंगे तब वे तुम पर एक ही प्रहार करेंगे, जिससे तुम परास्त हो जाओगी.
उस समय तुम्हारा लंका की सुरक्षा करने का कर्तव्य पूर्ण हो जाएगा और तुम्हें
मुक्ति मिल जाएगी".
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हनुमानजी एक छत से दूसरी छत पर छलांग लगाते हुए
शीघ्र ही समूची नगरी का भ्रमण करने लगे. उन्होंने विचित्र वेष धारण किए हुए अनेक
गुप्तचरों को देखा. रावण के महल की सुरक्षा हेतु, जो पूर्णरूपेण स्वर्ण चारदीवारी
से घिरा हुआ था, लगभग एक लाख राक्षसों की सेना को देखा, जिनके हाथ में नाना प्रकार
अस्त्र-शस्त्र थे.वे घूम-घूम कर अपनी पुरी की सुरक्षा में सावधानी के साथ पहरा दे
रहे थे.
एक लाख राक्षसी सेना की उपस्थिति को देखकर
हनुमानजी को सहज ही में रावण की सैन्य शक्ति का आभास हो गया. वे गंभीरता से इस
दिशा में सोचने के लिए विवश हो गए कि महज एक लाख सैनिक पुरी के बाहर सुरक्षा में तैनात किए गए हैं,
पता नहीं महल के अन्दर कितनी बड़ी संख्या में सैनिक तैनात किए गए होंगे?. भयानक
आकृति के राक्षसों को देखकर उन्हें तनिक भी भय नहीं हुआ और वे अपनी पूरी क्षमता के
साथ लंका में घूम-घूम कर सीताजी की खोज करते रहे.
नगर भ्रमण करते हुए हनुमानजी ने अब रावण के सात
मंजिला भवन में प्रवेश किया. हर कक्ष के किवाड़ों पर जवाहरात जड़े हुए थे. अंदर की
दीवारें धूल रहित एवं स्फटिक के समान साफ़ और स्वच्छ थी. फ़र्श पर चित्ताकर्षक
नक्काशियाँ की गईं थीं. बरामदे की ओर जाने वाली सोपानों पर भी स्वर्ण और रजत की,
महीन तारों से नक्काशी की गई थी और उनके ऊपर भव्य गुम्बद तथा भीतरी छतें निर्मित
थीं. उन्होंने लंका पुरी को भव्यता को अच्छी तरह देखा और मन ही मन रावण की कलात्मक
सूझबूझ और उसकी पसंदगी को देखकर प्रसन्नता का अनुभव किया.
उन्होंने एक घर से दूसरे घर पर जाते हुए
विभिन्न प्रकार के भवन देखे तथा हृदय, कण्ठ
और मूर्धा - इन तीनों स्थानों से निकलने वाले मन्द, मध्यम, और उच्च स्वर से
विभूषित मनोहर गीत सुनें. इतना ही नहीं उन्होंने स्वर्गीय अप्सराओं के समान
सुन्दरी तथा काम-वेदना से पीड़ित कमनियों की करघनी और पायजेबों से निकलने वाली
झनकार को भी सुना. जब कामातुर राक्षस स्त्रियाँ अपने रसिक की बाहों को झूला बनाकर
झूलतीं. उनके झूलते ही अनेक प्रकार के
वाद्ययंत्र स्वतःबज उठते थे.
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मूर्धा- तालू और
अलिजिह्वा के बीच का भाग (२) शरीर का वह भाग जिसके अन्दर मस्तिष्क होता है.(३)
मुँह के अन्दर का तालू और ऊपर के दांतों के पीछे सिर की तरफ़ का भाग जिस जीभ का
अगला भाग त् ,ठ् ,ड्, ढ् और ण वर्ण का
उच्चारण करते समय उलटकर छूता है.
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उन्होंने देखा. कई राक्षस एक आँख वाले थे, किसी
के मस्तक पर एक के बजाय तीन-तीन आँखें थीं. कुछ तो अधिक मोटे थे, कुछ दुर्बल थे,
कुछ काजल की तरह काला रंग लिये हुए थे, तो कुछ एकदम गौरांग थे. किसी के पास धनुष,
तो किसी के पास परिध और मूसल आदि थे.
हनुमानजी ने राजमहल के भीतरी कक्षों को
झांक-झांक कर, हर कोण से सूक्ष्मता से जांचा-परखा, लेकिन उन्हें कहीं भी वैदेही के
दर्शन नहीं हुए. उनकी दृष्टि में कुछ ऐसी स्त्रियाँ भी देखने में आयीं, जो अपने
रूप-सौंदर्य से प्रकाशित हो रही थीं. कुछ लजीली थीं और कुछ अर्ध रात्रि के समय
अपने प्रियतम की बाहों में ऐसी बंधी हुई थीं जैसे कोई पक्षिणी पक्षी के द्वारा
आलिंगत होता है. कुछ तो निर्वसन होकर अपने प्रियतम के साथ रतिक्रिया में निमग्न
थीं.
दूसरी बहुत-सी स्त्रियाँ अपने महलों के छत पर
बैठी अपने पति की सेवा में तत्पर थीं, तो कुछ विवाहिता कामवासना से ग्रसित होकर
अपने प्रियतम के अंक में निर्लज्जतापूर्वक बैठी हुई परिरंभन में निमग्न थीं. कितनी
ही कामिनियाँ सुवर्ण-रेखा के समान कान्तिमती दिखाई दे रही थीं, वहीं कुछ स्त्रियों
ने अपनी चोलियाँ और ओढ़नी उतार फ़ेंकी थी, जिनकी अंगकांति तपाये हुए सोने के समान दिपदिपा रही थीं. कुछ
रुपसी नायिकाएँ अपने कोमल अंगों में चन्दन आदि का अनुलेपन कर रही थीं. कुछ गहरी
निद्रा में खुर्राटें भर कर सो रही थीं. कुछ फ़ूलों के हार से सुशोभित होने के कारण
उनकी रमणीयता और भी बढ़ गयी थी और वे हर्ष में प्रफ़ुल्लित दिखाई दे रही थीं.
पवनपुत्र चूंकि ब्रह्मचारी थे, वे यह सब नहीं
देखना चाहते थे, लेकिन उनकी अपनी विवशताएँ
थी, कि उन्हें यह सब देखना पड़ रहा था.
लंका के सतमहले मकानों में विचरण करते हुए
उन्होंने भ्रमण करते हुए अनेक क्रीड़ा-भवन देखे,जिनके फ़र्श सुरा और मदिरा से तर थे.
कई कक्षों में नाना प्रकार के हथियार तथा अनेक खजानों से भरे हुए थे. सभी
बहुमंजिला विशाल भवन अनेक प्रकार के रत्नों से सुशोभित थे. दीवारों पर चांदी से
मढ़े हुए चित्रों, सोने से मढ़े दरवाजे और बड़ी अद्भुत ड्योढ़ियों तथा सुन्दर द्वारों
से युक्त था. जगह-जगह हाथी के दांतों से बनी सुन्दर-सुन्दर आकृतियां बनी हुई थीं.
फ़िर उन्होंने अत्यन्त उत्तम और अनुपम भवन पुष्पक विमान देखा. इस रथ का निर्माण
मूलतः ब्रह्मा जी के लिए विश्वकर्मा ने किया था. यह रथ सतह से ऊपर वायु में घूम
रहा था., जिस पर जवाहरातॊं से निर्मित पक्षी बने हुए थे, जिसके पंख यांत्रिक रूप
से फ़ड़फ़ड़ा रहे थे तथा स्वर्ण व रजत के सर्प भी बने हुए थे.
हनुमानजी उस दिव्य रथ पर सवार हो गए. उन्होंने
भीतर की ओर देखा जिसमें कृत्रिम हाथी थे जो अपनी सुन्दर आकृति वाली सूंडों से
भाग्य की देवी-लक्ष्मीजी की मूर्ति के ऊपर सुगंधित जल की वर्षा कर रहे थे.
लक्ष्मीजी की मूर्ति एक जल-कुण्ड में विद्यमान थी, जिसके चारों सुन्दर हाथों में
एक-एक कमल का पुष्प था. पुष्पक विमान जो स्वर्ण सोपानों, श्वेत स्फ़टिक के फ़र्श एवं
नीलमणि से निर्मित था. वह इस भूतल पर बिखरे हुए स्वर्ण के समान, अनेक रत्नों से
व्याप्त, भांति-भांति के वृक्षों से
आच्छादित तथा पुष्पों के पराग से भरे हुए पर्वत शिखर के समान शोभा दे रहा था
आश्चर्यचकित होकर हनुमानजी यह सोचने में विवश
हो गए थे कि वे भूलवश ब्रह्माजी के ब्रह्मलोक में तो नहीं आ गए हैं?.
एक-एक कक्ष का निरीक्षण करते हुए वे बिना किसी
भय के राक्षसों के बगीचों आदि को देखते हुए कुम्भकरण, विभीषण, विरुपाक्ष, विद्युज्जिव्ह,
शुक, सारण, इन्द्रजीत, जाम्बुमालि तथा सुमालि आदि के घरों से होते हुए अनेक
राक्षसों के महलों में पहुँच कर माता सीता जी की खोज करते रहे, लेकिन उन्हे सफ़लता
नहीं मिल पायी.
बल और वैभव से युक्त हनुमानजी अर्ध-रात्रि में
अनेकों आवासों का अवलोकन करते हुए महल की सातवीं मंजिल पर एक ऐसे सुन्दर गृह में जा पहुँचे, जो राक्षसराज
रावण का निजी निवास-स्थान था, जिसकी लम्बाई एक योजन और चौड़ाई आधे योजन की थी.
आंतरिक कक्षों में जाने पर हनुमानजी ने देखा कि
वहाँ पर सहत्रों नवयुवतियाँ रंगीन वस्त्र धारण कर बहूमूल्य गलीचों पर लेटी हुई
थीं. संभवतः उन्होंने मध्य रात्रि तक नृत्य, गान किया होगा, छककर मदिरापान किया
होगा और अब वे सभी थक कर घोर निद्रा में सोयी पड़ी थीं. कुछ के केश खुलकर बिखर गए
थे, कुछ की पुष्पमालाएँ छिन्न-भिन्न हो गई थीं. कुछ के आभूषण इधर-उधर खिसक गए थे..
किसी की मस्तक की सिंदूर पुछ गयी थी.
किन्ही के नूपुर पैरों से निकलकर दूर जा पड़े थे. किसी के कान के कुण्डल गिर गए थे.
किन्हीं के वस्त्र बिखर गए थे. वस्त्रों के खिसक जाने से उनके स्तनमण्डल ऐसे दिखाई
पड़ रहे थे, मानो वहाँ दो हंस सो रहे हों. कुछ युवतियों की साड़ियाँ ऊपर तक उठ जाने
के कारण उनकी जाँघे कदली के वृक्ष के तने-सी दिखाई दे रही थीं. कोई दूसरी की छाती
पर सिर रखकर सो रही थी, तो किसी ने अपनी कोमल बाहों का तकिया बनाकर सो गयी थी. इसी
तरह एक युवती दूसरी की गोद में सिर रखकर सो रही थी. वे सभी सुन्दर कटि वाली समस्त
युवतियाँ एक-दूसरों के अंगस्पर्श को अपने प्रियतम का स्पर्श मानकर उससे मन-ही-मन
आनन्द का अनुभव करती हुईं परस्पर बाँह-से-बाँह मिलाकर सो रही थीं.
संयमशील हनुमानजी के जीवन में यह पहला अवसर
उपस्थित हुआ था, जब वे अपनी खुली आँखों से निर्वसना-अर्धवसना युवतियों, स्त्रियों को,
जिन्होंने वस्त्र संस्कृति का लगभग परित्याग कर दिया था, छककर मदिरापान किया था और
अब बेसुध होकर यहाँ-वहाँ पड़ी हुईं थीं. उन्हें न तो अपने शरीर का ध्यान था और न
कोई लाज-शर्म ही बची थी. न चाहने के बावजूद भी उन्हें यह सब देखना पड़ रहा था.
उन्होंने मन-ही-मन अपने आराध्य प्रभु श्रीरामजी का स्मरण करते हुए कहा- " हे
प्रभु ! पता नहीं, मुझे आगे और क्या-क्या देखना पड़ेगा?. मैं जो नहीं देखना सकता,
वही मुझे देखना पड़ रहा है. खैर, आप जो-जो दिखाएंगे, मुझे वह सब तो देखना ही पड़ेगा,
लेकिन इन सब अश्लील दृष्यों को देखते रहने के बाद भी मेरी खोज अनवरत जारी रहेगी,
जब तक मैं माता सीता का पता नहीं लगा लूँगा".
वे उस स्थान पर ज्यादा समय तक ठहर नहीं सके थे.
सावधानी एक-एक पग आगे बढ़ाते हुए उन्होंने एक ऐसे कक्ष में प्रवेश किया, जो
राक्षराज रावण का अन्तःपुर था.
अन्तःपुर में एक बहुत ऊँची वेदी बनी हुई थी. उस
ऊँची वेदी पर करीब बीस फ़िट लंबा और पन्द्रह फ़िट चौड़ा एक सुवर्ण पलंग बिछा हुआ था
।. पलंग में नीलम आदि बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे. पलंग की पाटियों में हाथी दाँत से
सुन्दर-सुन्दर नक्काशियाँ उकेरी गई थीं और उस पर बहुमूल्य बिछौना बिछा हुआ था ।
स्वर्ण निर्मित होने के कारण वह पलंग प्रज्जवलित अग्नि की भाँति चमचमा रहा था.।
उस ज्वाजल्यमान पलंग पर राक्षसराज रावण सो रहा
था. उसके शरीर की लंबाई करीब सतरह फ़िट थी. शरीर का रंग इतना काला था कि कोयल ही
क्या, कालिख भी सरमा जाए. उसका मुख डरावना था, बड़ी-बड़ी गोल-गोल आँखे, चौड़ी-भद्दी
सी नाक. नाक के नथुने ऐसे जान पड़ते थे,मानो कोई लंबी-सी सुरंग हो. भद्दे से होंठ
थे, जिसके ऊपर घनी लंबी-चौड़ी मूँछें लहरा रही थीं. मोटे-मोटे लंबे हाथ और पैर थे.
उसकी देह सुगठित एवं पुष्ट थीं. गोलाकार लिए हुए उसके भुजदंड हाथी के शूंड की
भांति उतार-चढ़ाव वाली एवं लंबी थी. जब वह नाक से साँस भीतर खींचता और मुँह से
छोड़ता तो ऐसा प्रतीत होता, मानो कोई विषधर फ़ुंफ़कार रहा हो. तेजगति से चलती साँस से
अन्तःपुर में लटकी पुष्पमालाएँ और परदे हिलने-डुलने लगते थे.
पलंग के चारों ओर खड़ी हुई बहुत-सी स्त्रियाँ
हाथों में चँवर लिए उस पर हवा कर रही थीं. कक्ष को सब ओर से सुगन्धित फ़ूल मालाओं
से सजाया गया था. अनेक प्रकार की गन्धों से वह कक्ष सुवासित हो रहा था.
पीत्वाप्युपरतं चापि ददर्श स महाकपिः * भास्वारे शयने वीरं सुसुप्तं
राक्षसाधिपम् (11/दशमं सर्ग)
उसने सुन्दर आभूषण और जनेऊ धारण कर रखा था.
उसके अंगों में सुगन्धित लाल चन्दन का अनुलेप लगा हुआ था.. कानों में उज्ज्वल
कुण्डल चमचमा रहे थे. देर रात तक सुन्दर
युवतियों के संग हास-परिहास करते हुए उसने छककर मदिरा पान किया था और अब आराम से
खुर्राटें भर कर सो रहा था.
अनेक सुन्दर युवतियाँ अपने कोमल-कोमल हथेलियों
से उसकी बाँहो और पैरों को दबा रही थीं. कुछ तो बेसुध होकर उसके चरणॊं के आसपास ही
सो रही थीं. जो नाचने गाने और बाजे बजाने में निपुण थीं, उन्होंने सुन्दर-सुन्दर
वस्त्र और आभूषण धारण किया था, देर रात्रि तक नॄत्य कर राक्षसराज रावण को रिझाती
रही थीं और अब थक कर वहीं फ़र्श पर गहरी निद्रा में सो रही थीं. कोई वीणा की छाती
से लगाए सोती पड़ी थी, तो कोई मतवाली नयनो वाली दूसरी सुन्दरियाँ, अपने मनोहर अंगो
में मृदंग को दबाकर प्रगाढ़ निद्रा में सो रही थीं.
ऋषि पुलत्स्य का पोता तथा विश्रवा का पुत्र राक्षसराज रावण,जो हिंसा का प्रबल पक्षधर
था, उसे छककर मदिरापान करने, मांसाहार करने और सुन्दर-सुन्दर युवतियों के संग भोग
करने में विशेष रुचि थी. जब कभी वह अचानक सोते हुए उठ बैठता, तो उसके सामने
आमिष-निरामिष व्यंजनों की थालियाँ परोस दी जाती थी. वह भोजन में कब और किस चीज की
मांग कर बैठे, कहा नहीं जा सकता था, अतःउसके सिरहाने सोने के बड़े-बड़े पात्रों में
मोर, मुर्गे,सूअर, गेंडा, साही, हिरण,मयूर, खरगोश, बकरे, भैंसे, तीतर, बटेर आदि के
मांस को अच्छी तरह से पकाकर सजाकर रख दिया जाता था. उसी तरह स्वर्ण पात्रों में
नाना प्रकार के पेय और अनेक प्रकार की मदिराओं को भरकर रख दिया जाता था.
शाकाहारी हनुमानजी को मदिरा से भरे पात्रों तथा
आमिष व्यंजनों से उठती गंध (दुर्गंध) ने बेचैन कर दिया था. वे एक क्षण को भी रावण
के अन्तःपुर में ठहरना नहीं चाहते थे, लेकिन उनकी अपनी विवशताएँ थी. उन्हें तो हर
हाल में, सब कुछ सहते हुए भी माता सीता की खोज-खबर लेनी थी. तभी उन्होंने देखा.
राक्षराज रावण जिस शैया पर सो रहा था, उस शैया से दूर हटकर पृथक एकान्त में, एक
शैया अलग से बिछी हुई थी, जिस पर एक रूपवती युवती, जिसकी अंगकांति सुवर्ण की भांति
दमक रही थी. जिसने मोती-माणिक्य से जड़े आभूषण पहन रखे थे. वह गौरांग युवती, आँखों
में गहरी निद्रा आँजे बेखबर सो रही थी. गहरी निद्रा में डूबी होने के बावजूद भी
उसके कोमल होंठों पर एक दिव्य मुस्कान थिरक रही थी.
हनुमान जी नारी सुलभ भाव-भंगिमा से परिचित नहीं
थे, बावजूद इसके उन्होंने सहज ही अंदाजा लगा लिया था कि ये माता सीता तो कदापि
नहीं हो सकतीं. जिस साध्वी सीता को, उसके पति की अनुपस्थिति में, धोके से अपहरण कर
लिया गया हो, उनके होंठों पर मंद हास्य कैसे थिरक सकता है?. वे तो अपने पति के
वियोग में दोहरे आँसू बहा रही होगीं?.
वियोग की अग्नि में तिल-तिल कर जल रही होंगी तथा अपने दुर्दिन को कोस रही होंगी?.
रत्नों से जड़ित स्वर्ण सेज पर वे भला आँखों में गहरी निद्रा आँजे कैसे सो सकती
हैं?".
चुंकि उन्होंने अब तक सीताजी को देखा ही नहीं
था, बावजूद इसके, उन्होंने सहज ही अनुमान लगा लिया था कि निश्चित ही सीता माता, इस
स्त्री से सौ गुणा अधिक सुन्दर होंगी, तभी तो रावण ने प्रभु रामजी की अनुपस्थिति
में कपट से उनका अपहरण कर लिया था. उन्हें इस बात पर पक्का विश्वास हो गया था कि
सुख से शयन करने वाली यह स्त्री, रावण
की प्राणप्रिया और उस अन्तःपुर की
स्वामिनी मन्दोदरी होना चाहिए.
"रात्रि द्रुतगति के साथ बीतती जा रही है
और अभी तक मैंने लंकापुरी का मात्र एक चौथाई हिस्सा ही देख पाया हूँ. तीन चौथाई
हिस्सा तो अभी देखना बाकी रह गया है. यदि मैं शीघ्रता से संपूर्ण लंका नहीं देख
पाया तो सीता माता का पता शायद ही लगा पाऊँगा?. रात्रि के बीत जाने के बाद,दिन के
समय में उनका पता लगा पाना और भी कठिन हो जाएगा?" यह सोचकर वे एक जगह पर रुके
रहना नहीं चाहते थे. अतः अन्तःपुर से बाहर निकलते हुए उन्होंने लता-मण्डपों,
चित्रशालाओं को छान डाला,लेकिन उन्हें माता सीता के दर्शन नहीं हो पाए.
उनके मन के आंगन में आशंका और कुशंका की बेल
तेजी से फ़ैलती जा रही थी. वे सोचने लगे थे कि भयंकर राक्षस-राक्षसिनों के
अत्याचारों से भयभीत होकर, कहीं साध्वी सीताजी ने अपने प्राण न त्याग दिए हों?.
क्षण मात्र को आए इस कुविचार से, वे हताशा में घिरने लगे थे. धैर्य जवाब देने लगा
था. ऐसे कठिन और दुरुह समय में घिरते हुए उन्होंने अपने प्रभु श्रीराम का स्मरण
किया. स्मरण करने से उनका खोया हुआ उत्साह पुनः संचरित होने लगा.
उन्हें इस बात पर प्रसन्नता हो रही थी कि
उन्होंने अब तक लंका में प्रवेश करने के बाद से, रावण के अन्तःपुर तक का सूक्ष्मता
से निरीक्षण करते हुए, रावण का सैन्य-शक्ति कितनी विशाल और शक्तिशाली है, इसका पता
तो लगा लिया है. उन्हें यह भी ज्ञात हो चुका कि रावण कितना कामी, धूर्त, नीच,
पापाचारी, पाखण्डी, विधर्मी, आतंकवादी और क्र्र है..
"रात्रि पल-प्रतिपल बीतती जा रही है और
मुझे लंका में प्रवेश करते हुए बहुत ज्यादा समय बीत चुका है. अब तक मैं केवल
लंकापुरी का एक चौथाई हिस्सा और रावण का अन्तःपुर ही देख पाया हूँ.. तीन चौथाई
लंका तो अभी देखना ही बाकी रह गया है. अतः यहाँ रुककर विलम्ब करने से कोई लाभ होने
वाला नहीं है". ऐसा सोचते हुए वे शीघ्रता से रावण के अन्तःपुर से बाहर निकल
आए.
वे सोचने लगे -" मैं भी कितना बड़ा मूर्ख
हूँ कि माता सीता की खोज तो कर रहा हूँ लेकिन मैंने अब तक उन्हें अपने अंतःकरण से
एक बार भी नहीं पुकारा और पग-पग पर अपने आराध्य रामजी का स्मरण करता रहा, जबकि
रामजी को याद करने के साथ ही मुझे उन्हें भी पुकारना चाहिए था. मैं जानता हूँ कि
लंकिनी अविद्या का प्रतीक है, सुरसा तृष्णा की प्रतीक है. वहीं रावण अहंकार का
प्रतीक है और मेरे प्रभु श्रीराम, पुरुषार्थ के प्रतीक हैं. भैया लक्ष्मण त्याग और
आदर्श के प्रतीक है, वहीं सीता माता एक आदर्श बेटी, एक आदर्श पत्नी होने के साथ ही
भक्ति की भी प्रतीक हैं. भक्ति को तलाशना हो तो उन्हें याद करना होता है, उन्हें
अन्तःकरण से पुकारना होता है, तब जाकर भक्ति प्राप्त होती है". तत्काल ही
उन्हें अपनी भूल का अहसास हो गया था. भूल का अहसास होते ही उन्होंने भक्ति की
प्रतीक माता सीताजी का सुमिरण किया और सातवीं मंजिल से छलांग लगाते हुए नीचे कूद
गए. कूदते समय उन्होंने इस बात का विशेष ध्यान रखा था कि कहीं से भी पग-ध्वनि
उत्पन्न नहीं होनी चाहिए.
लंका निसिचर निकर
निवासा * इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा.
उन्होंने अपने आपको एक ऐसे भवन के पास पाया, जो
न केवल देखने में सुहावना था, बल्कि एक मंदिर जैसा दिखाई देता था. उस भवन की
दीवारों पर आयुध धनुष और बाण उकेरे गए थे और आँगन में एक तुलसी चौरा भी बना हुआ
था. यह सब देखकर उन्हें आश्चर्य होने लगा कि निशाचरों के इस नगर में क्या सज्जन
पुरुष भी निवास करते है?.उनका इस तरह सोचना उचित ही था.
गृह-स्वामी के भवन की दीवारों पर आयुध, तथा
धनुष-बाण के निशान देखकर वे समझ तो चुके थे कि इस भवन में निश्चित ही कोई रामजी का
अनन्य भक्त रहता होगा. जब तक सही-सही जानकारी नहीं मिल जाती, तब तक तो मुझे अपनी
निज पहचान को छिपा कर रखना होगा. बात की गम्भीरता को समझते हुए पवनपुत्र श्री
हनुमानजी ने क्रमशः प्राप्ति, प्राकाम्य और वशिता सिद्धियों को प्रयोग में लाते
हुए अपना वेश बदल लिया. अब वे एक ब्राह्मण के वेश में थे. सिर पर जटा-जूट, ललाट पर
तिलक, कांधे पर जनेऊ, एक हाथ में रुद्राक्ष की माला और दूसरे हाथ में कमण्डल और
गले में राम नाम अंकित गमछा धारण कर लिया.
अत्यन्त ही सावधानी के साथ छलांग लगाने के
पश्चात भी गृह-स्वामी को शायद उनकी पग-ध्वनि सुनाई दे गई थी. कौन अन्दर घुस आया
है?, इस बात का पता लगाने के लिए उसने द्वार खोले और बाहर निकल आया.
दोनों का आमना-सामना हुआ. दोनों एक दूसरे को
आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे. गृह-स्वामी ने रामनामी गमछा ओढ़ रखा था. उसके गले में
रुद्राक्ष की माला शोभा बढ़ा रही थी और उसने अपने ललाट पर तिलक धारण किया हुआ था.
ठीक उसी प्रकार की वेश-भूषा हनुमान जी की भी थी. एक रामभक्त दूसरे रामभक्त को
देखकर मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे. न तो हनुमानजी कुछ कह पाने की स्थिति में थे और
न ही गृह-स्वामी कुछ कह पाने की स्थिति में थे. आँखों ही आँखों में दोनों बात कर
रहे थे. एक ऐसी बात, जिसे दो दिमाक और दो दिल, आपस में संकेतिक भाषा को कह और सुन
रहे थे.
देर तक चुप्पी साधे रहने के बाद गृह-स्वामी ने
अपना परिचय देते हुए पवनपुत्र को बतलाया कि मेरा नाम विभीषण है और मैं राक्षसराज
रावण का छोटा भाई हूँ. अपना परिचय देने के बाद उन्होंने हनुमानजी से साग्रह जानना
चाहा कि अब आप अपना परिचय दीजिए. हनुमानजी ने अपना परिचय देते हुए बतलाया कि
राक्षसराज रावण ने धोखे से प्रभु श्री रामजी की पत्नी माता सीता का अपहरण कर लंका
ले आया है. मैं रामजी का दूत बनकर, माता सीता का पता लगाने के लिए लंका आया हुआ
हूँ.. उन्होंने यह भी बतलाया कि रावण की संपूर्ण लंका का अन्वेषण करने के पश्चात
भी माता सीता का पता नहीं लगा पाया.
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विभीषण-
विभीषण श्रीरामजी के
अनन्य भक्त थे. राक्षसराज रावण की पापपूर्ण लंका में रहते हुए भी राम भक्ति की,
जहाँ रामजी का शत्रु रावण का राज्य था. वे रावण के छोटे भाई थे. ऋषि पुलस्त्य के
पुत्र विश्रवा और कैकसी के सबसे छोटे पुत्र थे. हालाँकि विभीषण राक्षस जाति के
थे,लेकिन मन से पवित्र और राम भक्त थे. उसने अपने बड़े भाई रावण के साथ ही
ब्रह्माजी की तपस्या की थी एवं वरदान में अपने लिए मांगा कि मेरा मन सदा धर्म-पथ
में लगा रहे. वे सदैव अहिंसा और जीव हत्या से दूर रहे.
एक अन्य जानकारी के
अनुसार विभीषण पूर्व जन्म में कैकेय देश के राजा सत्यकेतु के मंत्री थे. उनका
पूर्व जन्म का नाम धर्मरुचि था.
नोट- तुलसीकृत रामायण
में लंकिनी को परास्त करने के पश्चात, पवनपुत्र श्री हनुमानजी की भेंट विभीषण से
होती है, -("हरि मन्दिर तहँ भिन्न बनावा") ऐसा उल्लेखित मिलता है, जबकि वाल्मीकि जी की
रामायण के अनुसार उनकी भेंट रावण के दरबार में होती है, इससे पहले नहीं.)
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हनुमानजी की बातों को सुनकर समझ गए विभीषण कि
इतने कम समय में रामदूत हनुमान जी ने संपूर्ण लंका का भ्रमण कर लिया है और
उन्होंने राक्षसराज रावण की सैन्यशक्ति और नगर की भौगोलिक स्थिति आदि को भी जान
लिया है. रावण आसानी से प्रभु रामजी को सीतामाता को लौटाएगा नहीं, निश्चित ही
युद्ध की स्थिति बनेगी और शीघ्र ही पापों की नगरी का विनाश हो जाएगा. विभीषण ने
रामजी को मन ही मन प्रणाम किया और उनकी नरलीला में सहयोगी बनने का मानस बना लिया.
दो रामभक्त आमने-सामने खड़े थे. दोनों के शरीरों
में रामनाम की एक-सी ऊर्जा प्रवाहित हो रही थी. जैसे ही विभीषण ने सुना कि श्री
हनुमान रामदूत बनकर लंका आए हैं, उनकी प्रसन्नता का पारावार बढ़ने लगा था. उन्होंने
बिना देरी किए उन्हें अपने गले से लगा लिया. ऐसा करते हुए दोनों रामभक्तों को
अपूर्व आनन्द की प्रतीति हो रही थी. देर तक आलिंगन करने के पश्चात विभीषण ने
बतलाया कि सीतामाता को रावण अपनी विशेष वाटिका जो "अशोकवाटिका" के नाम
से प्रख्यात है, जिसमें पूरे वर्ष भर वसंत ऋतु का-सा वातावरण बना रहता है. उस
वाटिका में सीताजी की अभिरक्षा के लिए उसने भयंकर राक्षसियों के कड़े पहरे में रखा
हुआ है.
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वेद, पुराण आदि धर्म
शास्त्रों में प्राचीनकाल की कई मानव जातियों का उल्लेख मिलता है. देवता, असुर,
दानव, राक्षस, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, नाग आदि. देवताओं की उत्पत्ति अदिति से,
असुरों की दिति से, दानवों की दनु, कद्रु से नाग, (कद्रु नागों की माता मानी गई
है.)
ये तीनों ही कश्यप ऋषि
की पत्नियाँ थीं. जहाँ तक राक्षस जाति का सवाल है तो प्रारंभिक काल में यक्ष और
रक्ष दो ही तरह के मानव जातियाँ थीं.
राक्षस लोग पहले रक्षा
करने के लिए नियुक्त हुए थे, लेकिन बाद में इनकी प्रवृत्तियाँ बदलने के कारण ये
अपने कर्मों के कारण बदनाम होते गए. और आज
के संदर्भ में इन्हें असुर और दानवों जैसा ही माना जाता है.
पुराणॊं के अनुसार
कश्यप की "सुरसा" नामक रानी से यातुधान (राक्षस) उत्पन्न हुए, लेकिन एक
कथा के अनुसार प्रजापति ब्रह्मा ने समुद्रगत जल और प्राणियों की रक्षा के लिए अनेक
प्रकार के प्राणियों को उत्पन्न किया. उसमें से कुछ प्राणियों ने रक्षा की
जिम्मेदारी संभाली तो वे "राक्षस" कहलाए और उन्होंने यक्षण (पूजन) करना
स्वीकार किया. वे "यक्ष" कहलाए.
जल की रक्षा करने के महत्वपूर्ण कार्य को संभालने के लिए ये जातियाँ पवित्र मानी
जाती थी.
राक्षसों का
प्रतिनिधित्व दोनों लोगों को सौंपा गया-" हेति और प्रहेति". ये दोनों
भाई थे. ये दोनों भी दैत्यों के प्रतिनिधि मधु और कैटभ के समान बलशाली और पराक्रमी
थे. प्रहेति धर्मात्मा था, तो हेति की राजपाट और राजनीति में ज्यादा रुचि थी.
हेति ने अपने
साम्राज्य विस्तार हेतु "काल" की पुत्री "मया" से विवाह किया.
मया से उसके विद्युत्केश नामक एक पुत्र का जन्म हुआ. उसका विवाह संध्या की पुत्री
" सालंकटकटा" से हुआ. माना जाता है
कि सालकटंअकटा व्यभिचारिणी थी. इस कारण जब उसका पुत्र जन्मा तो उसे लावारिस
छोड़ दिया गया. विद्युत्केश ने भी उस पुत्र की यह जानकर कोई परवाह नहीं की कि यह न
मालुम किसका पुत्र है. बस यहीं से राक्षस जाति में बदलाव आया.
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विभीषण से बिदा लेते हुए पवनपुत्र शीघ्रता से
अशोकवाटिका की चहारदीवारी पर चढ़ गए.
चहारदीवारी पर बैठे हुए पवनपुत्र हनुमानजी ने
अति सुंदर और मनभावन वाटिका को देखा. देखते ही उनके शरीर में रोमांच हो आया.
उन्होंने देखा. वाटिका में साल, अशोक, निम्ब, शीशम, चम्पा, उद्दालक, नांग (
नागकेसर) . बहुवार ( हिंदी में गोंदी अथवा निसोरा या लसोड़ा तथा संस्कृत में
"श्लेषमातक. इसके फ़ल सुपारी के आकार के होते हैं. कच्चा लसोड़ा का साग और अचार
भी बनाया जाता है. पके हुए लसोड़ा के अंदर गोंद की तरह चिकना और मीठा रस होता है )
मौलसिरी, चंदन, चम्पा, तथा आम आदि के वृक्षों में खूब फ़ल फ़ूल खिले हुए थे. नागकेसर
के अलावा नारंगी रंग के आम भी प्रचूर
मात्रा में लदे हुए थे. यह विचित्र वाटिका
सोने और चांदी के समान वर्ण वाले वृक्षों से घिरी हुई थी. पेड़ों पर नाना प्रकार के
पक्षी कलरव कर रहे थे, जिससे संपूर्ण वाटिका गूँज रही थी. मतवाली कोकिला अपने मधुर
कंठ से कुहुक-कुहुक कर इस डाली से उस डाली पर डोल रही थी. हिरणॊं के समुह के सहित
मयूरों के झुंड यत्र-तत्र विचर रहे थे.
अशोक वाटिका में बहुत खुले हुए मैदान, पहाड़ी
झरनों और तालाबों को भी देखा, जिसमें गुलाबी, लाल रंग के कमलदल मुस्कुरा रहे थे.
अनेक पेड़ों में कई वृक्ष तो ऐसे भी थे जो अग्नि के समानन दीप्तिमान हो रहे थे. जब
इन वृक्षों के समूहों के बीच से वायु के झोंके प्रवहमान होते तो वायु के झोंकें
खाकर हिलने लगते. वृक्षों के हिलने मात्र से घुंघुरुओं के बजने की-सी मधुर ध्वनि
सुनाई देने लगती. इस मधुर ध्वनि को सुनकर हनुमानजी को बड़ा विस्मय हुआ.
नयनाभिराम वाटिका को देखकर वीर हनुमानजी ने एक
विशाल अशोक वृक्ष का चुनाव किया, जहाँ से बैठकर वे विदेहनान्दिनी माता सीता की खोज
कर सकते थे.
अशोक वृक्ष की ऊँची शाखा में बैठे हुए हनुमानजी
ने कुछ दूरी पर गोलाकार बने हुए एक मन्दिर को देखा, जिसके भीतर एक हजार खंबे लगे
हुए थे. देखने में यह मन्दिर कैलाश पर्वत के समान श्वेत रंग का दिखाई दे रहा था.
मन्दिर की सीढ़ियाँ मूंगे से बनी हुई थीं.
घने अशोक वृक्ष में छिपकर बैठते
हुए उन्होंने एक आश्चर्यजनक परिवर्तन देखा. जिसे देखकर वे हर्षजनित रोमांच से भर
उठे. मन प्रसन्नता से नृत्य करने लगा था.
उन्होंने ने देखा. उस वाटिका में वसन्त ऋतु,
अपनी पूरी गरिमा के साथ उपस्थित थी. नाना प्रकार के वृक्ष फ़लों के भार से नीचे तक
झुक आए थे. लतिकाएँ फ़ूलों से लदी हुईं, वायु के झोंको पर लहर-लहर कर लहरा रही थीं.
नाना प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे थे. उनके कलरव से समूची वाटिका गूँजारित हो रही
थी. भाँति-भाँति के विहंगमों और मृगसमूहों से शोभायमान थी.
एक डाल से दूसरी पर फ़लांगते हुए उन्होंने
यहाँ-वहाँ पृथक-पृथक ऐसी मनोरम भूमियों के दर्शन किए, जिनमें चादीं-सोने और मणियों
से जड़े गए थे. उन्होंने जहाँ-तहाँ बावड़ियाँ भी देखी, जो जल से भरी हुई थीं और उसने
रंग-बिरंगे कमलदल मुस्कुरा रहे थे. बावड़ियो के आसपास पपीहा, हंस और सारसों के
झुण्ड कलनाद कर रहे थे. नाना प्रकार के मृगों का समूह यत्र-तत्र विचर रहे थे. कॊई
भी वृक्ष ऐसा नहीं था, जिन पर प्रचूर मात्रा में फ़ल न लदे हों. अशोक, चन्दन,
चम्पा,मौलसिरी, आम, जामुन आदि अनेक वृक्षों से घिरी हुई थी. चारों ओर बहुत से खुले
मैदान, बड़े-बड़े तालाब तथा नयनाभिराम पर्वत श्रेणियाँ दिखाई दीं.
कभी इस डाल पर, तो कभी अन्य किसी वृक्ष पर
छलांग लगाते कपिश्वर को एक रमणी दिखाई दी. उनकी सादगी और तेज से प्रदीप्त होता हुआ
मुख-मंडल देखकर उन्होंने सहज ही अनुमान लगाया कि आप ही सती-साधवी वैदेही जी होना चाहिए. उन्हें बचपन
से ही वन में भ्रमण करने का विशेष लगाव रहा होगा. उन्हें हिरणॊं से विशेष प्रेम
रहा होगा. निश्चित ही हिरणों के झुण्ड उनके आसपास मंडराते रहे होंगे. यही सब सोचते
हुए वे पुनः उस घने पत्तों वाले विशाल अशोक वृक्ष में छिप कर रहते हुए
गृहों-मंदिरों सहित संपूर्ण वन का सूक्ष्मता के साथ निरीक्षण करने लगे
घने वृक्ष में छिपकर बैठे पवनपुत्र, मन ही मन
स्वयं से बातें कर रहे थे. "प्रभु श्रीरामजी ने मुझे अपना विशेष जासूस /
अन्वेषक बनाकर लंका भिजवाया है. उन्हें मुझ पर पूरा विश्वास है कि मैं माता सीताजी
को अवश्य खोज निकालूँगा. इसी विश्वास के साथ ही उन्होंने मुझे अपने नाम की एक
अंगूठी दी थी".
एक कुशल जासूस /अन्वेषक के क्या कर्तव्य होते
हैं, बुद्धिमान हनुमानजी जी अच्छे से जानते थे. समझते थे. वे यह भी जानते थे कि जब
तक उद्देश्य पूर्ण नहीं हो जाता, उसे गुप्त रूप से उस नगर या शहर में छिप कर रहते
हुए, हर छोटी-बड़ी बातों की गहराई में जाकर पता लगाना होता है. उसे हर स्थिति में
चौकस एवं सतर्क रहकर उस देश की सैन्य-शक्ति, अस्त्र-शस्त्रों का भण्डार,वहाँ का
वातावरण, नगर की भौगोलिक स्थिति, राजा या शासक का अपने नागरिकों के प्रति कैसा
व्यवहार है, नगरवासियों की आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था कैसी है. उस नगर में जल की
व्यवस्था कैसी है. किले की सुरक्षा तथा रख-रखाव कैसे किया जा रहा है, नगर में
कितने मुख्य मार्ग हैं और कितनी गलियाँ हैं. इन सबका पता लगाकर अपने मुखिया को
जानकारी देनी होती है. वे गुप्त रूप से लंका में रहकर हर छोटी-बड़ी बातों का
सूक्ष्मता से निरीक्षण कर रहे थे. उनका मुख्य उद्देश्य तो केवल माता सीताजी को
खोज-खबर लेनी थी. इन सबके बावजूद उन्होंने अनेक जानकारियाँ प्राप्त कर ली थीं.
वे यह भी जानते थे कि दुष्ट रावण ने माता
सीताजी का धोखे से अपहरण कर लंका ले आया है. वह किसी भी कीमत पर इतनी आसानी से
उन्हें लौटाएगा नहीं. ऐसी विकट परिस्थिति में केवल और केवल एक ही उपाय शेष रह जाता
है और वह केवल युद्ध ही हो सकता है. रामजी को रावण के साथ युद्ध कर माता सीता को
पुनः प्राप्त करना होगा.
युद्ध निश्चित ही होगा है. इसे टाला नहीं जा
सकता. अतःउन्होंने माता सीताजी के खोज के साथ रावण की स्वयं की ताकत, उसकी सैन्य
शक्ति, उसका खजाना, उसके अस्त्र-शस्त्रों का भण्डार आदि लेकर गली-मोहल्लों आदि तक
की जानकारियाँ जुटा ली थी. बावजूद इसके, उन्हें और भी अन्य महत्वपूर्ण जानकारियाँ
जुटाना बाकी था. अतः प्रत्यक्ष रूप से प्रकट न होकर उन्होंने अशोक की घनी शाखाओं
में बीच छिपकर रहना उचित लगा..
वे यह भी जानते थे कि कभी ऐसा अवसर बना, तो
उन्हें बल का प्रयोग भी करना पड़ेगा. एक ऐसा भय उत्पन्न करना होगा, जिसका प्रभाव
स्थायी रूप से, उसके शासक और जनता के बीच लम्बे समय तक बना रहे. हालांकि अब तक तो
ऐसा कोई अवसर उपस्थित नही हुआ था, फ़िर भी उन्हें तो इसकी मानसिकता बना कर चलना
होगा.
कुछ समय पश्चात
चन्द्रदेव आकाश-पटल में उदित हुए. चादीं -सी शीतलता लिए हुए प्रकाश चहुँओर फ़ैल
चुका था. अब वे सुक्ष्मता से चारों दिशाओ का निरीक्षण करने लगे. उनकी दृष्टि में कहीं भी, कुछ भी छिपा
नहीं रह सका था. अब उन्होंने नीचे की ओर झांक कर देखा.
ततो मलिनसंवीतां
राक्षसीभिः समावृताम् * उपवासकृशां दीनां निःश्वसन्ती पुनः पुनः (18/पंचदशः सर्ग)
देखा. एक अनिंद्य
सुन्दर स्त्री वृक्ष के नीचे बैठी हुईं थीं, जिनका मुख-मण्डल उपवास के कारण
कुम्हला (मुर्झा) गया था. शरीर दुर्बल दिखाई दे रहा था. उन्होंने मैले-कुचैले वस्त्र पहन रखे थे. हाथों में नाना
प्रकार अस्त्र-शस्त्र लिए सैकड़ों राक्षसियाँ, उनके चारों ओर घूम-घूम कर पहरा दे
रही थीं. उन्हें देखकर बुद्धिमान हनुमानजी को पूरा विश्वास हो गया कि हो न हो, आप
ही माता सीता हैं. उन्होंने मन ही मन माता सीताजी को प्रणाम किया.
सीताजी को देखते ही
पवनपुत्र के शरीर में शुभ-शकुन होने लगे थे. शरीर में रोमांच हो आया था. मन
प्रसन्नता से नृत्य करने लगा था. वाणी अवरुद्ध हो गई थी. नेत्रों में जल भर आया
था. वे उन्हें ससम्मान देखते. बार-बार देखते. कहीं मैं भ्रम में तो नहीं पड़ गया
हूँ?, यह सोचकर उन्होंने अपनी आँखों को दो-तीन बार मला. फ़िर उन्होंने चन्द्रमा के
समान सुन्दर मुख वालीं, सुन्दर भौहों वालीं, दैदिप्यमान लाल अधरों वाली, कमल-नयनी,
सुकोमल तथा दिव्य-अंगकांति वाली माता सीता जी पर पुनः अपनी दृष्टि डाली और अन्ततः
इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यह स्त्री सीता ही हैं.
माता सीता इस समय
तपस्या करती हुईं किसी तपस्विनी की भाँति भूमि पर बैठी हुईं थीं. वे अत्यन्त
तेजस्विनी प्रतीत हो रही थीं, किन्तु अतिशय शोक में ग्रस्त थीं.
उन्होंने विचार
किया -" यही वह स्त्री है जिसे राम अत्यधिक प्रेम करते हैं, जिनके लिए वे
व्यथित होते हैं, कभी दया का प्रदर्शन करते हैं तो कभी गहरा शोक व्यक्त करते हैं,
उनके लिए द्रवित होते हैं, जिनकी सुरक्षा वे नहीं कर पाए, जिनके लिए उनके हृदय में
कोमल-कोमल भाव उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वह पूर्णतः उन्हीं पर निर्भर है और अपनी
प्रियतमा पत्नी के अकस्मात वियोग के कारण शोक करते हैं. माता सीता जी का आकर्षण और
सौंदर्य प्रभु रामजी के ही समान है. यदि माता सीता को एक तराजू के एक पड़ले पर रखा
जाए और संपूर्ण तीनों लोकों के वैभव को दूसरे पड़ले पर रखा जाए, तब भी दूसरा पड़ला
माता सीता की योग्यता के एक अंश की भी बराबरी नहीं कर पाएगा. ऐसी सती-साधवी
सीताजी, दुष्ट रावण के द्वारा दी जा रही यातनाओं को सहते हुए भी निरन्तर अपने
स्वामी श्री रामजी का निरन्तर स्मरण कर रही हैं, ताकि उन्हें कष्ट की अनुभूति न
हो. माता सीता को दुःख से संतप्त होते हुए देखकर उनकी भी आँखें भर आयीं.
माता सीता को अपलक
देखते रहने के बाद उन्होंने देखा कि उनके समीप भयानक दिखाई देने वाली अनेक
राक्षसियाँ बैठी हुई थीं. उनमें बहुत-सी ऐसी भी थीं जिनके एक आँख थी तो दूसरी के
एक कान. तो किसी के इतने बड़े कान थे कि उसने उन्हें छिपाने के लिए चादर ओढ़ रखा था.
किसी का शरीर विशालकाय था, तो कॊई अत्यन्त ही ठिगनी थी. किसी के ललाट बहुत बड़े-बड़े
थे तो किसी का पेट. किसी के स्तन बहुत लम्बे थे, तो किसी के होंठ बड़े होने के कारण
लटके हुए थे.कोई कुबड़ी थी,कोई तेढ़ी-मेढ़ी, कोई विकराल, कोई तेढ़े मुँह वाली, तो कोई
विकट मुँह वाली थी. कितनी ही राक्षसियों के मुख सूअर,मृग,सिंह,भैंस, बकरी ,सियारनी
के समान थे. किसी का एक हाथ था, तो किसी का एक पैर. अनेकों प्रकार की आकृतियों में
उन्हें देखा जा सकता था, जो अपने हाथों में भयंकर अस्त्र-शत्र लिए सीताजी को घेर कर बैठी हुईं थीं.
तेहीं अवसर रावन तहँ आवा * संग नारि बहुत किएँ बनावा.
तभी उन्होंने देखा.
देखा कि राक्षसराज रावण अशोक वाटिका में प्रवेश कर रहा है. उसे देखते हुए उन्होंने
तत्काल ही उसे पहचान लिया था. पहचान में देर नहीं लगी थी. रात के नीम-अंधेरे में
उन्होंने इस सतरह (17) फ़ुट ऊँचे रावण को मदिरा में
धुत्त होकर सोते हुए देखा था. इसी तरह मन्दोदरी को भी पहचाने में उन्हें कोई
कठिनाई नहीं हुई.
रावण के साथ उसकी
पत्नियाँ मन्दोदरी, धन्यमालिनी तथा कई देवताओं और गन्धर्वों की पत्नियों के सहित
सैकड़ों सेविकाएँ चली आ रही थीं. सेविकाओं ने अपने कोमल हाथों में बड़े-बड़े सुवर्ण
पात्र उठा रखे थे, जिनमे नाना प्रकार के रेशमी परिधान, मणि-माणिक्य से जड़े
सुन्दर-सुन्दर स्वर्णाभूषण, बहुमूल्य पेय, शय्या, आसन, पुष्प मालाएँ, अगरु,चन्दन
आदि ढंक कर रखे हुए थे.
माता सीता के
अत्यन्त ही समीप रहने के पश्चात भी उनकी भेंट अब तक सीताजी से नहीं हो पायी थी.
रावण को पास आता देख उन्होंने अपने आपको इस तरह उस सघन वृक्ष में छिपा लिया था, कि
दुष्ट रावण की दृष्टि उन पर न पड़ सके. वे
प्रच्छन्न रहते हुए रावण की हर
छोटी-बड़ी गतिविधियों को देखना-परखना चाहते थे.
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मंदोदरी-
मंदोदरी हेमा नामक अप्सरा की बेटी थी. देवराज इन्द्र की सभा
में एक बार कश्यप ऋषि के पुत्र मायासुर की
नजर हेमा पर गयी और वह मोहित हो गया. माया ने हेमा के सामने विवाह करने का
प्रस्ताव रखा. विवाह के पश्चात हेमा ने मायासुर की पुत्री को जन्म दिया, जो
मंदोदरी कहलायी. अप्सरा की बेटी होने के कारण मंदोदरी बहुत ही सुन्दर और आकर्षक
थी.
मंदोदरी और रावण की प्रेम कहानी-जब मंदोदरी विवाह योग्य हुई
तो उनके पिता मायासुर ने योग्य वर की तलाश शुरु की लेकिन उन्हें अपनी रूपवती कन्या
के योग्य कोई वर नहीं मिला. इस दौरान मायासुर ने त्रिलोक विजेता रावण से अपनी
पुत्री का विवाह करने की बात सोची और रावण के सामने मंदोदरी से विवाह करने का
प्रस्ताव रखा.
मायासुर ने मंदोदरी को रावण से मिलवाया और बताया कि यह उनकी
दिव्य कन्या है. हेमा अप्सरा इनकी माता है. रावण की नजर जैसे ही मंदोदरी पर गई वह
मोहित हो गया और झट से विवाह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. रावण ने मंदोदरी को वचन
दिया कि केवल मंदोदरी ही उनकी प्रमुख पत्नी और लंका की महारानी होंगी. मंदोदरी से
विवाह के उपरांत, उपहार स्वरुप देने के लिए मायासुर ने रावण के लिए सोने की लंका
का निर्माण किया.
एक अन्य कथा के अनुसार देवी सीता इन्हीं की पुत्री बतायी
जाती हैं. ज्योतिषियों ने सीता को देखने के बाद कहा था कि इन्हें महल से निकाल दो,
यह लंका में रहेगी तो लंका का विनाश कर देगी. इसलिए रावण ने सीता को कलश में
छिपाकर भूमि में दबा दिया. लेकिन विधाता का ऐसा खेल हुआ कि सीता का हरण कर रावण
स्वयं उन्हें स्वयं लंका ले गया और
मंदोदरी के लाख समझाने पर कि सीता को राम को लौटा दे. रावण ने बात नहीं मानी और
लंका का विनाश हो गया.
एक अन्य कहा के अनुसार रावण की मृत्यु एक खास बाण से हो
सकती थी. इस बात की जानकारी मंदोदरी को थी. हनुमानजी ने मंदोदरी से इस बाण का पता
लगाकर चुरा लिया जिसमें राम को रावण को मारने में सफ़लता मिली.
अद्भुत रामायण के अनुसार रावण के वध के बाद जब विभीषण लंका
के राजा बने तब राम की सलाह से विभिषण ने अपनी भाभी मंदोदरी से विवाह कर लिया.
लेकिन मंदोदरी के बारे में यह बात अटपटी-सी लगती है क्योंकि मंदोदरी एक सती स्त्री
थी, जो अपने पति के प्रति समर्पण का भाव रखती थी. ऐसे में मंदोदरी का विभीषण से
विवाह करना अपने आप में हैरान करने वाली घटना है.
एक अन्य
कथा-
पुलस्त्य ऋषि के पुत्र और महर्षि अगस्त्य के भाई महर्षि
विश्रवा ने राक्षसराज सुमाली और ताड़का की पुत्री राजकुमारी कैकसी से विवाह किया
था. कैकसी के तीन पुत्र और एक पुत्री थी- रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण और सूर्पणखा.
विश्रवा की दूसरी पत्नी ऋषि भारद्वाज की पुत्री इलाविड़ा थी, जिससे कुबेर का जन्म
हुआ.
इलाविड़ा को वरवर्णिनी भी कहते थे. कुछ मान्यताओं के अनुसार
इलाविडा वैवस्वतवंशी चक्रवर्ती सम्राट तृणबिन्दु की अलामबुशा नामक अप्सरा से
उत्पन्न पुत्री थीं. इस तरह रावण के सौतेले भाई थे कुबेर. रावण को त्रैलोक्य
विजयी, कुम्भकर्ण को छः माह की नींद और विभीषण को भगवद्भक्ति का वरदान प्राप्त था.
तीनों भाई कुबेर से छीन ली गई लंका में रहते थे.
रावण ने दिति के पुत्र मय की कन्या मंदोदरी से विवाह किया,
जो हेमा नामक अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी. विरोचन पुत्र बलि की पुत्री
वज्रज्वला से कुम्भकर्ण का और गन्धर्वराज महात्मा शैलूष की कन्या सरमा से विभीषण
का विवाह हुआ.
मंदोदरी
की जन्म कथा-
पौराणिक कथा के अनुसार एक बार मधुरा नामक एक अप्सरा कैलाश
पर पहुंची. देवी पार्वती को वहां न पाकर वह भगवान शिव को आकर्षित करने का प्रयत्न
करने लगी. जब देवी पार्वती वहाँ पहुँची तो भगवान शिव की देह की भस्म को मधुरा के
शरीर पर देखकर वे क्रोधित हो गयीं और क्रोध में आकर उन्होंने मधुरा को मेढ़क बनने
का शाप दे दिया. उन्होंने मधुरा से कहा कि आने वाले बारह सालों तक वह मेढक के रूप
में इस कुएँ मे ही रहेगी.
भगवान शिव के बार-बार कहने पर माता पार्वती ने मधुरा से कहा
कि कठोर तप के बाद ही वह अपने असल स्वरूप में आ सकती है और वह भी एक साल बाद.
मधुरा ने कठोर तप किया. जब बारह वर्ष पूर्ण होने वाले थे तब
मयासुर और उसकी पत्नी हेमा पुत्री की कामना से वहाँ ताप शुरू करने पहुँचे जहाँ
मधुरा तप कर रही थी. जैसे ही मधुरा के बारह वर्ष पूर्ण हुए वह अपने असली स्वरूप में
आ गई और कुएं से बाहर निकलने के लिए मदद के लिए पुकारने लगी.
हेमा और मयासुर वहीं कुएं के पास तप में लीन थे. मधुरा की
आवाज सुनकर दोनों कुएं के पास गए और उसे बचा लिया. बाद में उन दोनों ने मधुरा को
गोद ले लिया और उसका नाम मंदोदरी रखा.
कुछ अन्य विशेष
बातें मंदोदरी के बारे में.
(*) मंदोदरी, दिति के पुत्र असुर राजा मयासुर और हेमा नामक
अप्सरा की पुत्री थी.
(*) पंच कन्याओं में से एक मंदोदरी को चिरकुमारी के नाम से
भी जाना जाता है.
(*) अपने पति रावण के मनोरंजनार्थ मंदोदरी ने ही शतरंज के
खेल का प्रारंभ किया था.
(*) मंदोदरी से रावण को पुत्र मिले- अक्षय कुमार, मेघनाथ और
अतिकाय. महोदर, प्रहस्त, विरुपाक्ष और भीमक वीर को भी उनका पुत्र माना जाता है.
(*) सिंघलद्वीप की राजकन्या और एक मातृका का भी नाम मंदोदरी
था. हालांकि जनश्रुतियों के अनुसार मंदोदरी मध्यप्रदेश के मंदसौर राज्य की
राजकुमारी थीं. यह भी माना जाता है कि मंदोदरी राजस्थान के जोधपुर के निकट मन्डोर
की थीं.
मंदोदरी का रावण से विवाह.
यह भी कहा जाता है कि भगवान शिव के वरदान के कारण ही
मंदोदरी का विवाह रावण के साथ हुआ था. मंदोदरी ने भगवान शंकर से वरदान मांगा था कि
उनका पति धरती पर सबसे विद्वान और शक्तिशाली हो, मंदोदरी श्री बिल्वेश्वर नाथ
मंदिर में भगवान शिव की आराधना की थी, यह मंदिर मेरठ के सदर इलाके में है, जहाँ
रावण और मंदोदरी की मुलाकात हुई थी. रावण की कई रानियां थी,लेकिन लंका की रानी
सिर्फ़ मंदोदरी को ही माना जाता था.
धन्यमालिनी- रावण
की दूसरी पत्नी का नाम धन्यमालिनी था. धन्यमालिनी से अतिक्या और र्त्रिशिरार नामक
दो पुत्रों को जन्म दिया था.
रावण की तीसरी पत्नी का नाम कोई नहीं जानता लेकिन उसने तीन
पुत्रों को जन्म दिया था- प्रहस्त- नरांतक और देवताका.नामक पुत्र थे.
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समुद्री तूफ़ान में
फ़ंसी नाव किस तरह डावांडोल होती है, ठीक यही स्थिति सीताजी की भी हो रही थी. उनके
चेहरे का तेज, उसी तरह धूमिल हो गया था, जैसे पूर्णिमा के चन्द्रमा पर ग्रहण लग
जाने के बाद, वह निस्तेज दिखाई देने लगता है. पिंजरे में कैद होने के बाद कोई पंछी
जिस तरह फड़फड़ाता है, ठीक उस पंछी की तरह सीताजी भी भयभीत होकर कांप रही थीं.उपवास
और शोक के कारण सीताजी का तन क्षीण और मन उदास हो गया था.
तृन धरि ओट कहति वैदेही.
जब भी कोई महिला
विपत्ति में घिरने की आशंका से भयभीत होने लगती हैं, तब अपने बचाव के लिए उसे सहज
में ही अपने स्वजनो- माता-पिता, भाई, बहन, सखी-सहेली अथवा किसी परिचत व्यक्ति को
याद करती है कि काश यदि वह उसके पास होता/होती तो उसे विपत्ति से बचा ले
जाता/जाती. इस समय जानकी जी के पास न तो उसके पिता थे, न ही मां और न ही कोई
सखी-सहेली. चुंकि उनका जन्म धरती के गर्भ से हुआ था. धरती उनकी माँ थीं. धरती की
कोख से पैदा होने वाले वृक्ष, नदी, पहाड़-पर्वत सहित अनेकानेक उनके अपने सगे संबंधी
थे, भाई थे. बहने थीं. अशोक वृक्ष के संरक्षण में तो वे बैठी ही हुईं थीं, लेकिन
अशोक, जिसे शोक को दूर करने वाला माना जाता है, वह भी चुप था. चुप था इसीलिए कि
उनके दुःखों को दूर करने के लिए रामभक्त हनुमानजी लंका आ चुके हैं और उसकी शाखों
के बीच छिपकर बैठे हुए है. अपने नाम के अनुरुप वह उनके दुःख दूर करना भी चाहता, तो
शायद नहीं कर पाता. कारण स्पष्ट है. वह केवल सांत्वाना दे सकता था.वह भली-भांति
जानता था कि कोरी सांत्वना देने मात्र से माता सीता का दुःख दूर नहीं होगा. उनका
दुःख दूर करने के लिए रामजी ने अपने विशेष दूत को यहाँ भेज दिया है.
स्वयं रामदूत श्री
हनुमानजी भी माता सीता का दुःख तत्काल दूर नहीं कर सकते थे. वे केवल, माता सीताजी
को रामजी की दी हुई अंगूठी देकर विश्वास दिला सकते थे कि रामजी शीघ्र ही लंका पर
चढ़ाई करके रावण को मार कर उन्हें ससम्मान अपने साथ लिवा ले जाएंगे. वे बड़ी बेसब्री
से उस पल की प्रतीक्षा कर रहे थे, जो अभी तक आया नहीं था.
रावण को दूर से आता
देख माता सीता अपने बचाव के लिए उपाय सोच रही थीं.उन्होंने अपने बचाव में घास के
एक तिनके को तोड़ा और उसकी ओट लेकर बैठ गईं. तिनका और कोई नहीं, बल्कि उनका अपना
सहोदर (भाई) था. जिस धरती की कोख से उन्होंने जन्म पाया था, उसी कोख से उस घास के
टुकड़े ने भी जन्म पाया था. कोई तो सगा पास
है, बस, इसी एक विश्वास/ एक विचार ने उन्हें ढाढस बंधाया. भाई का साथ पाते ही
उनमें साहस का संचरण होने लगा था. अब उन्हें पक्का भरोसा हो गया था कि भाई के रहते
मैं रावण का डटकर सामना कर सकूँगी.
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तृण-( घास- तिनका )
बात उस समय की है, जब श्रीराम जी का विवाह माता सीताजी से
हुआ. वे दुल्हन बनकर अपने ससुराल अयोध्या आयीं, तब उनका हर्षोल्लास और आदर-सत्कार
के साथ उनका गृहप्रवेश उत्सव मनाया गया.
दुल्हन जब ससुराल पहुँचती है, तब ससुराल में नववधु के हाथों
पहली बार मीठा पकवान बनवाया जाता है, ताकि जीवन भर घर में मीठास बनी रहे. प्रथा के
अनुसार सीताजी ने अपने हाथों से खीर बनाई. राजा दशरथ सहित पूरे परिवार और ऋषि-संत
भी भोजन के लिए आमंत्रित थे. उन्होंने सभी को खीर परोसना शुरु किया. अभी सब लोग
भोजन शुरु करने ही वाले थे कि जोर से हवा का एक झोंका आया. वायु के तेज प्रवाह में
खीर भरा पात्र उड़ न जाए, इसी सोच में सभी ने अपने-अपने पात्र सम्भाल लिए थे. ठीक
उसी समय राजा दशरथ जी के खीर में एक घास का तिनका आ गिरा. उस गिरे हुए तिनके को
देखकर वे सोचने लगी थीं कि खीर के पात्र में हाथ डालकर उसे कैसे निकालूँ?. अतः दूर
से ही उन्होंने उस तिनके को घूर कर देखा. देखते ही वह तिनका जलकर राख हो गया.
सीताजी मन ही मन सोच रही थीं -"चलो अच्छा हुआ, किसी ने नहीं देखा".
लेकिन राजा दशरथ जी ने सीताजी के इस चमत्कार को देख लिया था. चमत्कार देखकर भी वे
चुप रहे.
बाद में उन्होंने अपनी कुलवधु सीता जी को अपने कक्ष में
बुलवाया. सीताजी ने महाराज दशरथ के चरणों में प्रणाम किया और घूंघट काढ़े एक ओर खड़ी
हो गयीं. महाराज दशरथजी ने सीताजी को सम्बोधित करते हुए कहा-" सीते ! यद्यपि
तुम मेरी बहू जरुर हो,लेकिन तुम साक्षात जगत जननी स्वरूपा भी हो. मैंने भोजन के समय
तुम्हारा चमत्कार देख लिया था. पर बेटी ! मेरी एक बात जरुर याद रखना-" आपने
जिस नजर से तिनके को देखा था उस नजर से कभी भी अपने शत्रु को भी नहीं देखना".
तिनके की ओट लेकर देखने का अभिप्रायः यह है कि माता सीता के
बचाव में उनके पास और कोई नहीं बल्कि अपना एक भाई (तृण) सामने खड़ा था. जरुरत पड़ने
पर वे उस तिनके को अभिमंत्रित करके रावण को जिंदा जला सकती थीं. लेकिन ऐसा न करते
हुए उन्होंने मर्यादा को सर्वोच्च स्थान दिया. कोई भी पतिव्रता स्त्री पर-पुरुष की
ओर नहीं देखना चाहती. अतः तिनके की आड़ लेकर माता सीता ने अपनी प्रतिक्रिया रावण तक
जरुर पहुँचा दी थी.
उनकी सोच में एक बात और थी. यदि वे रावण को उसी समय जलाकर
भस्म कर देतीं तो, समूचा विश्व राम के पराक्रम से अपरिचित रह जाता. जिस रावण के वध
के लिए वे नर-लीला कर रहे थे, अधूरी रह जाती. अतः सीताजी ने अपने शत्रु रावण से
बात करते समय,मर्यादा को सर्वोच्य स्थान देते हुए, उस तिनके की आड़ लेकर रावण से
बात की थी.
(*) तिनका-
तिनका और कुछ नहीं, मात्र एक घास का छोटा-सा टुकड़ा है,
जिसका कोई कोई मूल्य नहीं होता. कोई भार (वजन) नहीं होता. वह हवा के एक हलके से
झोंके उड़ जाता है. लेकिन यही तिनका जब किसी खास उद्देश्य से पकड़ा जाए, एक विश्वास
के साथ पकड़ा जाए, तो निराशा में डुबे हुए मन को, हताशा में डुबे हुए मन को, बड़ा
सहारा देने वाला बन जाता है. सहायक बन जाता है.
न त्वां कुर्मि दशग्रीव भस्म भस्मार्हतेजसा.(२०/द्वादशः
सर्गः)
तिनके को भस्म करने वाली बात को भूली नहीं थी जनकतनया. वे
चाहती तो रावण को तत्काल ही भस्म कर सकती थीं, लेकिन उन्हें अपने ससुर महाराज दशरथ
जी ने मनाही की थी. फ़िर रामाज्ञा नहीं होने से वे वैसा नहीं कर पा रही थीं.
मात्र इस छोटे से तिनके ने उनके भय को मन से निकाल दिया था.
शायद इसलिए कहावत बनी कि डूबटे को तिनके का सहारा.
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प्रलोभयामास बधाय रावणः
पास आते ही उसने
अत्यन्त ही विनम्रता से कहा-" हे विशाललोचने ! मैं तुम्हें चाहता हूँ. तुमसे
प्रेम करता हूँ. अतः तुम मुझे विशेष आदर दो और मुझसे बातें करो और मेरा प्रेम
निवेदन स्वीकार करो. यह स्थान सर्वाधिकार सुरक्षित है. मेरे अतिरिक्त यहाँ कोई
नहीं आ सकता. अतः तुम यहाँ निर्भय होकर रहो"
"तुमने अपना
ये कैसा वेश बना रखा है? मुझे यह देखकर अच्छा नहीं लगा कि तुम धूल-धूसरित पृथ्वी
पर सोती हो और तुमने मैले-कुचैले वस्त्र
पहन रखे हैं, जबकि तुम्हें तो पुष्प-माला, चन्दन, अगरु का लेपन कर सज-धज कर, नाना
प्रकार के दिव्य वस्त्र और स्वर्णाभूषण धारण करना चाहिए".
ऐसा कहते हुए रावण
ने ताली बजाकर संकेत दिया. उसका संकेत पाते ही सेविकाओं ने सुवर्ण निर्मित थालों
को लाकर सीताजी के सामने रख दिया. थालों के रखे जाने के बाद रावण ने सेविकाओं को
आज्ञा दी-" तुम सब मिलकर सीता का खूब सिंगार करो. चंदन,अगरु से उसके
दिव्यागों पर लेपन करो और उसके अंगों को चमकीले आभूषण पहनाओ. पुष्प मालाएं और
दिव्य वस्त्र पहनाओ".
"हे सीते !
तुम स्त्रियों में बहुमूल्य रत्न हो. इस तरह के मैले वस्त्र पहनना तुम्हें शोभा
नहीं देता. विधाता ने तुम्हें संसार की
सर्वोत्तम कृति बनाने के बाद, फ़िर किसी अन्य रुपसी को नहीं बनाया. कौन ऐसा पुरुष
होगा जो तुम्हें पाना नहीं चाहेगा?. अतः तुम शोक का त्याग करते हुए उत्तम वस्त्रों
को धारण करो. अगरु-चन्दन का लेपन करो और आभूषणों को धारण कर मुझे प्रसन्न
करो".
"हे सुमुखी !
यौवन की अवस्था सदा नहीं बनी रहती. यौवन ढल जाने के बाद स्त्रियाँ अनाकर्षक हो
जाती हैं. शरीर में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं. इस अवस्था में आकर उसे प्यार नहीं मिलता. तुम विश्व की सबसे सर्वांग
सुदरी हो, अतः उस सुन्दरता को व्यर्थ मत जाने दो. खूब साज-सिंगार करो और मेरी
प्रसन्नता को बढ़ाओ".
" हे
शुभदर्शने ! मैं फ़िर कहता हूँ, उसे ध्यान से सुनो. तुम्हारे रूप की रचना करने वाले
विधाता ने तुम्हें बनाने के बाद अन्य किसी स्त्री को इतना सुन्दर और आकर्षक नहीं
बनाया, अतः तुम्हारी समानता करने वाली कोई स्त्री त्रिलोकी में कहीं नहीं
है".
" हे सुमुखी !
यदि तुमने अपने मन में यह धारणा बना ली होगी कि वह वनवासी राम तुम्हें ढूँढते हुए
लंका पहुँच जाएगा और तुम्हें मुझसे छुड़ाकर ले जाएगा, इस भ्रम को अपने मन से निकाल
दो. एक राम ही क्या, अनेक राम मिलकर भी सौ
योजन दहाड़ते-उफ़नते समुद्र को लांघकर लंका नहीं आ सकते. जंगल-दर-जंगल, पहाड़-दर-पहाड़
में भटकने वाला बनवासी राम ,कभी नहीं जान पाएगा कि मैं तुम्हारा बलात अपहरण कर
लंका ले आया हूँ."
" हे
मिथिलेशकुमारी ! मेरी इस स्वर्णमयी लंका में देव-दानव-यक्ष-गन्धर्व आदि प्रवेश
करने का साहस नहीं जुटा पाते तो फ़िर तुम्हारा वह बनवासी राम यहाँ कैसे प्रवेश कर
सकेगा?."
" वह न तो बल
से, न तो पराक्रम से, नहीं तप से, न ही तेज से और न ही यश से तुम्हारा राम मेरी
समानता नहीं कर सकता. अतः तुम उसके आने की प्रतीक्षा में क्यों अपना बहूमूल्य समय
व्यर्थ में गंवा रही हो."
" हे देवी !
संसार में कोई ऐसा वीर नहीं है, जो राक्षसराज रावण के सामने आने का साहस रखता हो?.
मैंने अकेले ही अपने बल पर त्रिलोकी में विजय प्राप्त की है. फ़िर मेरे पास
अक्षौहिणी सेना है. तुम्हारा तीर-कमान वाला बनवासी राम मेरा मुकाबला कैसे कर
पाएगा?."
" हे सुमुखी
!. दहाड़ते-उफ़नते सौ योजन समुद्र को लांघ पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है. अतः तुम्हारा
राम लंका आ पहुँचेगा, इस दिवास्वपन को त्याग कर दो. वह कभी लंका नहीं पहुँच पाएगा.
तुम्हारा राम तुम्हें खोजता हुआ वन-वन भटकेगा और जब तुम्हें नहीं पा सकेगा तो वह
किसी पहाड़ की चोटी से कूदकर आत्महत्या कर लेगा या फ़िर किसी नदी में डूबकर अपने
प्राण त्याग देगा. यदि वह ऐसा नहीं भी कर पाया तो दण्डकवन में रहने वाले मेरे
अनुचर उसे मार कर खा जाएंगे. मैं
तुमसे फ़िर कह रहा हूँ कि तुम उसके आने की
प्रतीक्षा में अपनी इस कमनीय काया को यूंहि मत सुखाओ. शरीर कष्ट भोगने के लिए
नहीं, वरन सुख भोगने के लिए होता है. अतःअकारण ही अपने शरीर को कष्ट मत
पहुँचाओ".
" हे सीते !
तुम्हें देखकर मैं इस प्रकार का आसक्त हो गया हूँ कि मुझे अपनी किसी भी पत्नी के
साथ आनन्द का अनुभव नहीं होता. मन्दोदरी के साथ भी नहीं. तुम क्यों उस राम की
विश्वास-पात्र बनने का हठ क्यों कर रही हो?, जो एक तुच्छ मानव के अतिरिक्त और कुछ
नहीं है. मेरी तुलना में वह एक तिनके के समान है".
" हे सर्वांग
सुंदरी ! मुझे राम के जीवित होने में भी संदेह है. यदि वह जीवित भी होगा, तब भी
तुम उससे कभी नहीं मिल पाओगी".
" हे सीते !
मैंने तुम्हारा हरण कर तुम्हें लंका ले आया. इसे यह मत समझो कि मैंने कोई पाप किया
है. अरे, पराई स्त्रियों को बलात उठा लाना, हम राक्षसों का अपना परम धर्म है.
तुम्हारी बुद्धि के अनुसार यह पापाचार हो सकता है, हमारी नहीं".
" हे विशाल
नेत्रों वाली ! मैं तुम्हें चाहता हूँ. तुमसे प्रेम करता हूँ. समस्त संसार का मन
मोहने वाली सर्वांग-सुंदरी-मुझसे प्रेम करो, मुझे आदर दो और मेरी प्रार्थना को
स्वीकार कर लो, इसी में तुम्हारी भलाई भी है".
तृणमन्तरतः कृत्वा प्रत्युवाच
शुचिस्मिता * निवर्तय मनो मत्तः स्वजने प्रीयतां मनः (3.)
राक्षसराज रावण की
बातों को सुनकर सीता जी को अपार पीड़ा का अनुभव हुआ. विछोह की मर्मान्तक पीड़ा को
सहते हुए सर्व प्रथम अपने स्वामी श्रीराम का स्मरण किया.अपने डर को मिटाने और साहस
को जुटाने के लिए उन्होंने धरती पर ऊगे हुए घास से एक तिनका तोड़ा और उसकी ओट लेकर
रावण को जमकर फ़टकार लगाते हुए उसे अपनी सीमा में रहने की चेतावनी देते हुए
कहा-" हे दुष्टात्मा रावण ! तुम मेरी ओर से अपना मन हटा लो और अपने पारिवारिक
जनों पर, अपने आत्मीय जनों पर अपना प्रेम उंडोलो. तुम जैसे पापाचारी-मिथ्याचारी के
लिए मेरे मन में कभी भी कोई स्थान नहीं बन सकता."
"क्योंकि मेरा
जन्म एक महान कुल में हुआ है और विवाहोपरांत मैं एक आदर्शवान और महान कुल में आयी
हूँ. हे दुष्टात्मा ! तू अपने आपको बड़ा
धर्मवान और नीति-कुशल बतलाता है, एक सती-साधवी स्त्री को बलात उठा कर हर कर ले
जाना, क्या यही तेरा धर्म है?. धर्म से च्युत रहने के कारण ही तेरी बुद्धि भ्रष्ट
और सदाचार शून्य हो गयी है."
" हे रावण !
जिसका मन अपवित्र हो, जो सदुपदेशों को ग्रहण नहीं करता है, ऐसे अन्यायी राजा के
हाथ में पड़कर बड़े-बड़े समृद्धिशाली राज्य और नगर नष्ट हो जाते हैं. तुम्हारी
लंकापुरी भी तुम्हारे अपराधों के कारण शीघ्र ही नष्ट हो जाएगी.... जलकर भस्म हो
जाएगी."
अन्तःपुरे विभूषार्थो मृग एष भविष्याति (17.अरण्यकांड)
हे नीच निशाचर !
तूने मायावी मारीच को सोने का मृग बनाकर हमारे आश्रम में पहुँचाया. मेरे मन में
लालच पैदा की. उस क्षुद्र लालसा के चलते मैंने अपने पति को उस मृग के पीछे जाने पर
विवश किया. मायावी मारीच तो मारा गया, लेकिन मरते-मरते उसने हा लक्ष्मण ! हा सीते
! कहते हुए कुछ इस तरह का प्रपंच रच दिया,जिसके चलते मुझे अपने देवर लक्ष्मण को
भला-बुरा कहते हुए उनकी सहायता के लिए जबरदस्ती भेजना पड़ा. मुझे कुटिया में नितांत
अकेली को पाकर तूने मेरा छल-बल और चोरी से
हरण करके जो नीच कर्म किया है, उसका फ़ल तुझे शीघ्र ही मिलने वाला है. जिस तरह
भगवान विष्णु ने अपने तीन पगों में असुरों से राजलक्ष्मी छीन ली थी, उसी प्रकार
मेरे स्वामी शत्रुसूदन श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ आकर अपने बाणॊं के द्वारा
शीघ्र ही तेरे प्राण हर लेंगे और मुझे शीघ्र ही यहाँ से निकालकर ले जाएंगे."
पवनपुत्र सघन अशोक
वृक्ष की घनी झाड़ियों के बीच बैठे, माता सीता जी और रावण के मध्य चल रही वार्ता को
ध्यान से सुन रहे थे. सुन रहे थे राक्षसराज रावण ने अपने मामा मारीच को सुवर्ण मृग
बनकर, रामजी की कुटिया में भिजवाया ताकि माता सीताजी के मन में लोभ पैदा कर सके और
वे अपने स्वामी रामजी को उसे जीवित अथवा मॄत लेकर आने के लिए विवश करे. रावण इस
योजना में सफ़ल रहा और दोनों भाइयों की अनुपस्तिथि में उनका हरण कर लिया.
मैं समझ नहीं पा
रहा हूँ कि जिन महाराज जनक के यहाँ आपने
जन्म लिया, वहाँ तो सोने के भंडार भरे पड़े है. इतना ही नहीं, उनकी ससुराल में भी
सोना-चांदी-हीरे-जवाहरातों के अक्षय भंडार भरे पड़े है. फ़िर उनके मन में सोने का
मृग पाने का लोभ भला क्यों कर उत्पन्न हुआ होगा?.
तरह-तरह के नुकिलें
प्रश्न हनुमानजी के मन में उठ रहे थे. इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिये
उन्होंने "प्राकाम्या" सिद्धि का प्रयोग करते हुए जाना कि राक्षसरावण का
वध करने के लिए और सनातन धर्म की पुनर्स्थापना करने के लिए स्वयं लक्ष्मीपति
विष्णु राम के रूप में, और माता लक्ष्मी जी, सीता के रूप में अवतरित हुई हैं. और
इस समय वे इस पावन धरा पर नर-लीला कर रहे हैं.
उन्होंने मन ही मन
अपने आराध्य प्रभु श्रीरामजी का स्मरण किया और कहा कि आपने अपनी नर-लीला में मुझे
दायित्व सौंप कर बड़ा उपकार किया है, आपको बारम्बार प्रणाम.
सीता तैं मम कॄत अपमाना * कटिहउँ तब सिर कठिन कृपाना.
उस दुष्ट दानव रावण
ने सीता जी को बहुत प्रकार से समझाया. उसके साम, दाम, दान का भेद दिखाया लेकिन वह
सीताजी पर किसी भी प्रभाव को स्थापित कर पाने में असफल हुआ , अब उसने दंड की नीति
को अपनाते हुए तथा क्रोध में भरते हुए कहा"
सीते ! इस त्रिलोकी में कोई ऐसा शूरवीर, न तो हुआ है और न ही भविष्य में होगा, जो मेरा अपमान
कर सके. लेकिन तुमने मेरा घोर अपमान किया है. मैं तेरा सिर अभी और इसी समय काट
डालूँगा". ऐसा कहते हुए अपनी खड़ग निकाला और सीताजी को मारने के लिए दौड़ा.
मन्दोदरी सचेत थीं.
धन्यमाल्लिनी भी सचेत थीं. वे हर घटनाक्रम को गंभीरता से देख-सुन रही थीं और कोई
उपाय भी सोच भी रही थीं कि काम के वश में पड़े रावण को किस तरह समझाया-बुझाया जाय
और उसे महल लौट जाने को कहें. जैसे ही मन्दोदरी ने रावण को क्रोध के आवेश में आकर
खड़ग निकाल कर सीताजी की ओर बढ़ते देखा. वे शीघ्रता से एक चट्टान की तरह आकर उसके
सन्मुख खड़ी हो गयीं और रावण के भुजदण्ड को बलपूर्वक रोकते हुए कहा- " स्वामी
! इतना क्रोधित होने का कोई कारण नहीं बनता. यदि कोई स्त्री स्वेच्छापूर्वक अपने
आपको भोग के लिए समर्पित नहीं करती है, तो भोगी को वह आनन्द नहीं मिलता, जो उसे
मिलना चाहिए. बिना इच्छा के किसी स्त्री को भोगना बलात्कार कहा जाता है. तुम एक
महाव विश्व विजेता हो, तुम्हें ऐसा करना दूर-दूर तक शोभा नहीं देता."
" सुन्दरता
में मुझसे बढ़कर लंका में कोई भी ऐसी स्त्री नहीं है, जो मेरी बराबरी कर सके. फ़िर
धन्यमालिनी भी सुन्दरता में सर्वश्रेष्ठ है. आप कृपया अपना क्रोध त्याग दीजिए और
महल चलें. वहाँ चलकर आप हमारा भोग करें. इसी में भलाई है".
मन्दरोदरी की
स्नेहसिक्त बातों को सुनकर उसे पुरानी घटनाओं का स्मरण हो आया.
किसी समय वह आकाश मार्ग से विचरण कर रहा था तभी उसने रंभा अप्सरा को आते हुए देखा. सर्वांग सुन्दरी रंभा को आता
देख वह कामासक्त हो उठा था. इस समय रंभा अपने प्रियतम नलकुबेर से मिलने जा रही थी.
रावण ने उसे बलपूर्वक पकड़ लिया और उसके इच्छा के विरुद्ध अनैतिक व्यवहार करने लगा.
रंभा चीखती-चिल्लती रही और कहती रही कि वह उसके बड़े भाई कुबेरे के पुत्र नलकुबेर
से अत्यधिक प्रेम करती है. वह केवल उसके लिए ही आरक्षित है, एक तरह से वह मैं
तुम्हारी बहू लगती हूँ. लेकिन काम के आवेश में, उसने न तो उसकी चीख सुनी और न ही
उसका निवेदन. जब यह बात नलकुबेर को पता चली तो उसने रावण को श्राप दिया कि भविष्य
में तुम किसी औरत की इच्छा के विरुद्ध स्पर्श भी करेगा, तो तुम्हारे सिर के सौ टुकड़े हो जाएंगे. नलकुबेर से मिले
श्राप की याद आते ही उसके माथे पर पसीने की बूँदे छ्लछला आयीं. मन में एक भय बुरी
तरह से व्याप्त हो गया. शरीर में कंपकंपी होने लगी.
उसे यह
भी याद हो आया कि जब वह अपने विजय अभियान से वापिस लंका लौट रहा था. उसके पुष्पक
विमान पर अनेक अपहृत सुन्दर युवतियाँ सवार थी,वे सभी विलाप कर रही थीं. उनका विलाप
सुनकर वह प्रसन्न हो रहा था. एक परम साध्वी ऋषि पत्नी ने उसे शाप देते हुए
कहा-" हे पापी ! तू दूराचार के पथ पर चलकर स्वयं को नहीं धिक्कारता?.
स्त्रियों के हरण का पराक्रम तुम्हारी वीरता के सर्वथा प्रतिकूल है. पर-स्त्रियों
का अपहरण ही तुम्हारे वध का कारण बनेगा.
उसकी
शक्ति उसी समय से क्षीण होने लगी थी. वह
निस्तेज होने लगा था. ऐसी स्थिति में उसने लंका में प्रवेश किया. उसका दुर्भाग्य
लगातार उसका पीछा कर रहा था. शापग्रस्त होने के बाद भी उसने सीता जी का हरण किया,
जो आगे जाकर उसके विनाश का कारण बना.
एक कारण
तो यह भी बना कि उसकी बहन शूर्पनखा ने उसे सीता के हरण के लिए उकसाया. दरअसल वह
रावण से अपने पति विद्युतजिव्ह के वध का बदला उससे लेना चाहती थी. कामुक रावण उसकी
चाल को समझ नहीं पाया और सीता हरण के लिए योजना बनाता रहा और मामा मारीच को सोने
का हिरण बनाकर सीताजी के मन में लालच पैदा किया और रामजी को उनसे दूर कर उनका हरण
कर लिया. दूसरा कारण विभीषण द्वारा रावण की निंदा करते हुए यह कहना कि वह पुलस्त्य
ऋषि की संतान होने के कारण, तुम्हें पर-स्त्री का हरण नहीं करना चाहिए. तीसरा-इस
बीच कुम्भिनी का हरण हो गया, जो रावण के मामा सुमाली के ज्येष्ठ भ्राता माल्यवान
की पुत्री अमला की पुत्री थी और वह उस समय लंका में ही निवास कर रही थी.
अल्प समय में उसे
एक नहीं, बल्कि अनेक प्रकार के मिले श्रापों की याद आने लगी थी.
काफ़ी समय पूर्व की
बात है जब रावण विश्वविजय करने का निश्चय कर लंका से निकला, तब उसका सामना रघुंवंश
के प्रतापी राजा अनरण्य (भगवान राम के वंशज ) से हुआ. दोनों के बीच भीषण युद्ध
हुआ, जिसमें राजा अनरण्य की मृत्यु हो गयी. मरते समय उन्होंने रावण को श्राप दिया कि मेरे ही वंश में उत्पन्न जन्मा
व्यक्ति तेरी मौत का कारण बनेगा. इस मिले हुए श्राप की याद आते ही बुद्धिमान रावण
समझ गया. जान गया कि मैंने सीता का अपहरण किया है, जो रघुवंश में जन्में श्री
रामजी की भार्या हैं. वह जान गया कि मेरी मृत्यु अब निकट आ गयी है. मृत्यु की
कल्पना मात्र से वह बुरी तरह डर-सा गया था.
इसी कड़ी में उसे एक
अन्य श्राप की याद हो आयी.
एक बार वह अपने
आराध्य भगवान शंकर जी के दर्शनों के लिए कैलाश गया था. वहाँ उसने शंकरजी के वाहन
नंदी को देखा और उसे बंदर के समान मुख वाला कहकर उसका उपहास किया था. तब क्रोधित
होकर नंदी ने श्राम दिया था कि बंदर ही तेरा सर्वनाश का कारण बनेंगे. नंदी से मिले
श्राप की याद आते ही वह समझ गया कि हो न हो मेरी लंका में किसी वानर का प्रवेश हो
चुका है.
एक बार वह शंभर के
निवास पर गया. मंदोदरी की बड़ी बहन अनिंद्य सुन्दरी माया को देखते ही वह कामवासना
से पीढ़ित हो गया. उसने उसे अपनी मीठी-मीठी बातों में फ़ंसा कर उसके साथ रमण किया.
इसी समय महाराज दशरथ ने शंभर पर आक्रमण कर दिया, जिसमें वह मारा गया. पति की
मृत्यु के बाद जब माया सती होने लगी, तब रावण ने उसे समझाते हुए अपने साथ लंका चली
चलने का प्रस्ताव दिया, जिसे उसने यह कहकर अमान्य कर दिया कि तुमने अपनी कामवासना
के लिए मेरा सतित्व भंग करने का प्रयास किया इसलिए मेरे पति की मृत्यु हो गयी.
उसने उसे श्राप देते हुए कहा कि स्त्री की वासना ही तुम्हारी मौत का कारण बनेगी.
तभी उसे माया से
मिले श्राप की भी याद हो आयी. एक बार वह पुष्पक विमान पर सवार होकर कहीं जा रहा
था. तभी उसे एक अत्यन्त ही सुन्दर स्त्री दिखाई दी, जो भगवान विष्णु को पति रूप
में पाने के लिए कठोर तप कर रही थी. उसने उसे अपने साथ चलने के लिए जबरदस्ती की तो
उसने अपनी देह त्यागते हुए श्राप दिया कि स्त्री ही तेरी मौत का कारण बनेगी.
उसकी यादों में
श्रापों की श्रृँखला में एक कड़ी और जुड़ गयी. उसकी अपनी लाड़ली बहन सुर्पणखा का
विवाह विद्युतजिव्ह से हुआ था, जो उस समय राजा कालकेय का सेनापति था. जब वह विश्व
विजय की कामना लिए निकला, तब उसका सामना विद्युतजिव्ह से हुआ. रावण ने उसे बड़ी
निर्दयता के साथ मार डाला, जबकि वह जानता था कि विद्युतजिव्ह उसका बहनोई है.
एक नहीं
बल्कि अनेक श्रापों के भय के चलते वह माता सीता के साथ बलपूर्वक व्यवहार नहीं कर
सका. अतःउसने उन्हें लंका में न रखकर,अशोक वाटिका में रखा. उसी वृक्ष के नीचे रहकर
वे सुरक्षित रहीं. अशोक वाटिका का एक आम "प्रमदावन"भी था.
अशोक का
शाब्दिक अर्थ भी यही होता है कि जो शोक के रहित हो. यह वृक्ष शोक का विनाश करता
है, अतः इसका नाम "अशोक"पड़ा. एक अन्य स्थान में यह भी उल्लेख मिलता है
कि लंकापति रावण जब शोकग्रस्त होता था, तो एक वृक्ष के नीचे आकर बैठता था. वृक्ष
के नीचे बैठते ही उसके शोक का निवारण तत्काल हो जाता था. शायद इसलिए भी इस वृक्ष
का नाम "अशोक " पड़ा होगा.
एक नहीं बल्कि
अनेकों श्रापों के स्मरण मात्र से वह अन्दर ही अन्दर कांप उठा. वह अभी मरना नहीं
चाहता था. उसकी अपनी तीन अभिलाषाएँ थीं. पहली यह कि वह सीढ़ी बनाकर लंका को सीधे
स्वर्ग से जोड़ना चाहता था. दूसरी यह कि वह समुद्र के खारे जल को मीठा बनाना चाहता
था. और तीसरी अभिलाषा यह थी कि वह सोने में सुगंध पैदा करना चाहता था. इन्हें
तीनों अभिलाषाओं को पूरा करने के तरह-तरह के उपाय खोज निकालना चाहता था, जिसमें वह
सफल नहीं हो पाया था.
श्रापों की श्रृँखला याद हो आने के बाद वह अन्दर ही अन्दर
भयभीत हो गया था.उसके चेहरे का तेज निस्तेज हो गया था. पैरों में कंपन होने लगा
था. गला सूख गया था. हाथ-पाँव शिथिल होने लगे थे. वह नहीं चाहता कि उसकी दुर्बलता
का पता उसके अधिनस्थ सेवकों को लगे. उसने मन ही मन निश्चय कर लिया था कि सीता से
दूरी बनाकर चलने में ही उसकी भलाई है.
अतः बनावटी क्रोध
को बनाए रखते हुए सभी राक्षसियों को बुलाकर कहा-" सीता इतनी आसानी ने मेरा
प्रणय निवेदन स्वीकार नहीं करेगी. अतः तुम उसे बहुत प्रकार से डराओ..धमकाओ,
फ़ुसलाओ."
" तुम उसके
समक्ष बहूमूल्य रत्नजड़ित आभूषण, बेशकीमती वस्त्रादि और अनेक प्रकार के अंगराग आदि
लाकर दो. उसे मेरी बाहूबल का स्मरण कराओ. उसे बतलाओ कि रावण कोई साधारण दानव नहीं
है, बल्कि वह त्रैलोक विजयी रावण है. तुम उसकी जितनी सेवा-सुश्रुषा कर सकती हो,
करो और उसे मेरे अंक में आने के लिए मनाओ."
" यदि वह दो
माह के भीतर उसने मेरा कहना नहीं माना तो मैं उसे इसी खड़ग से उसका सिर धड़ से अलग
कर डालूँगा." अनेक प्रकार की आज्ञा देकर वह अपने महल की ओर लौट गया.
सघन वृक्ष के बीच छिपकर बैठे पवनपुत्र हनुमानजी, रावण की हर-एक धमकियों को
ध्यान से सुन रहे थे. सुन रहे थे कि जनकनन्दिनी माता सीता को दुष्ट रावण, मेरी
उपस्थिति में रहते हुए, तरह-तरह की धमकियों पर धमकियाँ दिए जा रहा है. जिन्हें
सुनते ही उन्हें क्रोध हो आया था. क्रोधाग्नि से आँखें लाल-लाल अंगारों की तरह
दहकने लगी थीं. जबड़े में कसाव आ गया था. मुठ्ठियाँ कसने लगी थीं. वे रावण की हर
दुष्टता को सह सकते थे, लेकिन अपनी आराध्या के प्रति इतना नीच व्यवहार होता हुआ
देखकर उनका धैर्य चुकने लगा था. मन में आया कि अभी और इसी समय रावण का जबड़ा तोड़
डालूँ.
उन्होंने तो वृक्ष से उतरकर रावण की सारी हेकड़ी निकालने के लिए और उससे
दो-दो हाथ आजमाने का मानस भी बना लिया था. तभी उन्हें ऋक्षराज जामवन्त का स्मरण हो
आया हो आया कि उन्होंने मुझे केवल सीताजी का पता लगाने की आज्ञा दी थी. यदि मैं
रावण को मारने के लिए उद्यत होता हूँ, तो वह जामवन्त की आज्ञा का उल्लंघन होगा.
इस बात का स्मरण होते ही उन्होंने रावण के सामने तत्काल प्रकट होने का
विचार त्याग दिया. वे गंभीरता से सोच रहे थे कि अभी उनकी मुलाकात माता सीता जी से
तो नहीं हुई है और न ही ऋक्षराज जामवन्त जी ने मुझे ऐसा कोई आदेश ही दिया है. उनका
एकमात्र आदेश था कि मुझे लंका पहुँचकर माता सीता का पता लगाना होगा. उन्हें
श्रीराम जी की अंगूठी देना होगा और उनका धीरज बंधाए रखना होगा. उन्हें यह समझाना
होगा कि प्रभु श्रीराम जी शीघ्र ही लंका आएंगे और रावण को मारकर, उन्हें सादर लिवा
ले जाएंगे. इसके अतिरिक्त मुझे और कुछ भी नहीं करने का आदेश दिया गया है. अतः मुझे
चुप्पी साधकर, रावण की हर गतिविधियों पर नजर बनाए रखना होगा. यहि सब सोचकर
उन्होंने अपने क्रोध को किसी तरह शांत किया. अब उन्होंने मानस बना लिया कि मुझे
इसी वृक्ष में छिप कर बैठे रहना चाहिए. जब तक की मेरी भेंट माता सीताजी से नहीं हो
जाती. इस समय उन्हें इसी अशोक वृक्ष की घनी टहनियों के बीच छिपे रहकर उचित अवसर की
प्रतीक्षा करनी चाहिए. यही विचार उन्हें ज्यादा श्रेयस्कर लगा था.
उन्हें अत्यधिक क्रोध तो तब भी आया था, जब रावण अपनी कृपाण निकालकर सीताजी
को मारने के लिए उद्धत हुआ. ठीक उसी समय उन्होंने अपने पूर्व में लिए गए सभी निर्णयों को निरस्त कर दिया और
वृक्ष की ओट से बाहर निकलकर रावण को सीधे यमपुरी भेजकर, माता सीताजी को अपनी पीठ
पर बिठाकर, अपने आराध्य प्रभु श्रीराम जी के पास पहुँचा देने का मन बना लिया था.
हालांकि वे अच्छी तरह से जानते थे कि सीता जी के प्रति आसक्त हुआ रावण,
किसी भी कीमत पर सीताजी के प्राण लेना नहीं चाहेगा. वह केवल सीता माता को भयभीत
करने के लिए बनावटी क्रोध दिखा रहा है. यदि मैंने क्रोधित होते हुए रावण को मार
डाला, तो मेरे प्रभु श्रीराम की अपकीर्ति होगी. उनके पराक्रम पर पश्न-चिन्ह लगाए
जाएंगे.उन्हें रावण सहित समूची राक्षसी सेना को मार कर जिस यश की प्राप्ति होगी,
उससे वे वंचित रह जाएँगे, फ़िर मुझे किसी भी प्रकार का बड़ा निर्णय लेने से मना भी
तो किया गया है. यही सोचकर उन्होंने अपने क्रोध को किसी तरह शांत किया और आगे की
रणनीति बनाने में जुट गए.
रावण ने समस्त राक्षसियों को अपनी सेवा में उपस्थित होने की आज्ञा दी थी.
आज्ञा पाते अनेक राक्षसियाँ जिनमें कईयों की एक आँख थी, कोई तीन आँखों वाली थीं,
कई बड़े-बड़े कानों वाली थी. कुछ के पैर हाथी के पैरों की तरह मोटे-मोटे थे. कोई एक
पैर वाली थी, किसी की जीभ बहुत लंबी थी, तो किसी के बड़े-बड़े नुकिलें दांत थे. जब
वे भयंकर रूप धारण कर चीखतीं-चिल्लातीं, तब ऐसा प्रतीत होता, मानों आकाश में बादल
गड़गड़ा रहे हों...कोई भूचाल आ गया हो, कोई बिजली कड़क रही हो.
सभी राक्षसियों को पुनः आदेश देते हुए उसने कहा था-" जिस भी किसी
प्रकार से तुम सीता के मन में भय पैदा कर सकती हो, करो. उसे खूब डराओ, धमकाओ और
तरह- तरह का प्रलोभन देकर उसे मनाओं कि वह अपनी हठ त्याग कर मेरी दासी बन जाए.
मेरी अंकशायिनी बन जाए". जैसे आदेश देकर वह उलटे पैर लौट गया था.
रावण के लौट जाने के बाद अनेक राक्षसियों ने सीताजी को आकर घेर लिया. एक
ने कहा -"सीते ! हमारे महाराज दशानन पुलस्त्य जी के उच्च कुल में पैदा हुए
हैं. तुम्हें उनकी भार्या बन जाना चाहिए." तभी दूसरी कह उठी-"समस्त
प्रजापतियों में पुलस्त्य चौथे और ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं. उन्हीं महान
पुलस्त्य जी के मानस पुत्र तेजस्वी विश्रवा है. इन्हीं तेजस्वी विश्रवा के पुत्र
महा पराक्रमी राक्षसराज रावण हैं. तुम्हें इनकी बात का अनुमोदन करना चाहिए."
हरिजटा नामक एक राक्षसी ने कहा-" अरी सीते ! जिसने तैतीस कोटि
देवताओं के सहित देवराज इन्द्र को अपने पराक्रम से परास्त कर दिया. ऐसे वीर और
पराक्रमी राक्षसराज रावण की पत्नी बनना तो बड़े सौभाग्य की बात है. तुम्हें उनकी
रानी बन जाना चाहिए."
एक ने कहा-" सीते ! तुम रावण के बल और पराक्रम से परिचित नहीं हो.
उन्होंने तैतीसों देवताओ सहित देवराज इन्द्र को भी परास्त कर दिया है. अतः ऐसी
बलशाली और पराक्रमी राक्षसराज रावण की तुम्हें रानी बन जाना चाहिए."
दूसरी ने कहा-" कितने बड़े सौभाग्य की बात होगी महाबली रावण अपनी
अत्यधिक प्रिय और सम्मानित भार्या मन्दोदरी को छोड़कर तुम्हारे पास आना चाहते हैं.
वे सहस्त्रों रमणियों से भरे हुए और अनेक प्रकार के रत्नों से सुसज्जित अपने
अन्तःपुर को छोड़कर तुम्हें अपना बनाना चाहते हैं. अतः मेरा कहा मानो. शोक का त्याग
करो और रावण का प्रणय निवेदन स्वीकार कर लो."
तीसरी ने कहा-" कितनी ही अप्सराओं और रूपवान गर्विता स्त्रियों ने
स्वयं होकर लंकापति रावण की सेवा-सुश्रुषा में आना स्वीकार किया है. यहाँ आकर वे
उन स्वर्गीय सुखों का उपभोग कर रही हैं, जो स्वर्ग में भी उन्हें प्राप्त नहीं हुआ
था. अतः अपनी हठ छॊड़ दो और लंकापति के प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे दो."
विकटा नामक राक्षसी ने सीताजी को समझाते हुए कहा-" जिन प्रतापी
राक्षसराज रावण ने नागों, गन्धर्वों और दानवों कि रणभूमि में परास्त किया हो,
ऐसे बलशाली और पराक्रमी रावण की भार्या
बनना तो बड़े सौभाग्य की बात है."
एक चित्र-विचित्र और भयंकर मुख की आकृति वाली राक्षसी दुर्मुखी ने
कहा-"हे विशाललोचने ! जिस राक्षसराज रावण के भय के कारण सूर्य ने तपना छोड़
दिया है. जिसके संकेत मात्र से वायु की गति रुक जाती है. उनके भय से वृक्ष फूल
बरसाने लगते हैं, पर्वत तथा मेघ जल का स्त्रोत बहाने लगते हैं. ऐसी महाराधिराज की
तुम भार्या क्यों नहीं बन जातीं?."
एक ने अपनी तलवार चमकाते हुए कहा-" सीते ! प्रायः हम सभी ने तुझे खूब
समझाया-बुझाया, लेकिन तुम अकारण ही अपनी जिद पर अड़ी हुई हो. हम जितना समझा सकते
थे, उससे कहीं ज्यादा समझा चुकी हैं हम .अगर तुमने हमारा कहा नहीं माना तो निश्चित
ही तुम्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा."
जितने मुँह उतनी बातें होती रहीं. किसी राक्षसी ने सीताजी को कभी रावण के
पराक्रम की, तो कभी कैलाश पर्वत उठा लेने की, तो कभी अपना मस्तक काट कर शिव को
अर्पण करने आदि विषयों पर जानकारियाँ देते हुए उन्हें मनाने की पुरजोर कोशिशें
करती रहीं, लेकिन सीताजी ने उनकी किसी की भी बात को सुना-अनसुना कर दिया.
अवनि न आवत एकउ तारा.
अब वे अब फ़ूट-फ़ूट कर विलाप करते हुए कहने लगीं- " हर पल, हर क्षण
दारूण दुःख उठाने से अच्छा होगा कि मैं अपने प्राण ही त्याग दूँ. प्राणहीन शरीर को
कोई दुःख नहीं होता. ऐसा कहते हुए उन्होंने आशा भरी नजरों से आकाश की ओर देखा.
आकाश में इस समय अनगिनित तारे चमचमा रहे थे. उन्होंने आकाश में चककते तारॊं से
अनुरोध करते हुए कहा-" देखने में तुम शांत और शीतल तो दिखाई देते हो, लेकिन
तुम सभी में अग्नि भरी हुई है. तुममें से कोई एक तारा टूटकर मुझ पर आकर गिर जाओ,
ताकि मैं यहीं पर जलकर भस्म हो जाऊँ. यदि तुम मुझ पर एक छोटा-सा उपकार कर दोगे, तो
मुझे अकारण मिलने वाले सभी दैहिक, भौतिक और मानसिक क्लेषों से मुक्ति मिल
जाएगी". ऐसा कहते हुए वे टकटकी लगाए हुए आकाश की ओर आशा भरी नजरों से देखने
लगी थीं.
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तारे का टूटना..
प्रायः हम सभी ने तारे को टूटते हुए देखा है. देखने पर यह
जरुर आभासित होता है कि तारा टूटा, जबकि तारा अपने आप में एक विशालकाय सूर्य होता
है. इस सूर्य का टूटना तो भयावह होता ही है. लेकिन हमें जो कभी-कभी तारे टूटते हुए
दिखाई देते हैं, वे तारे नहीं बल्कि गैसीय पिंड या उल्कापिंड होते हैं. लाखों
उल्कापिंड या गैस के गोले, हमारे सौर मंडल में भ्रमण करते हुए अचानक पृथ्वी के
वायुमंडल में प्रवेश करते हैं तो,पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षन के कारण जलकर बिखर जाते
हैं.
इस घटना तो तारा टूटना कहा जाता है. ऐसी मान्यताएं हैं कि
टूटते तारों से यदि कुछ मांगा जाय या सोचा जाए तो वह पूर्ण हो जाता है. कुछ लोग
इसे अशुभता से जोड़कर देखते हैं. कुछ के अनुसार तारे का टूटना स्वास्थ्य के खराब
होने की सूचना होती है. तो किसी के लिए नौकरी जाने का खतरा या फ़िर आर्थिक तंगी आने
का संकेत मानते है.
जब कोई क्षुद्रग्रह पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करता है
तो उन्हें उलका (meteors) कहा जाता है. लेकिन अगर कोई
क्षुद्रग्रह पृथ्वि के वायुमंडल में प्रवेश कर जीन से टकराता है, ति उसे उलकापिंड
(metteorite)
कहते हैं.
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वे स्वयं जानती थीं कि तारा टूटकर, अनेक छोटे-छोटे कणॊं में बिखर जाता हैं
और बिखरने के साथ ही उनकी अग्नि एकदम शांत (बुझ जाती है) हो जाती है. वह किसी को
कोई नुकसान नहीं पहुँचाती. यदि समूचा उलकापिंड, पृथ्वी पर बिना गुरुत्वाकर्षण के
संसर्ग में आकर गिरे तो वह किसी को भी जलाकर भस्म कर सकता है. यही तो वे चाहती भी
थीं, लेकिन पृथ्वी अपने पृथ्वीवासियों को अपनी दिव्य शक्ति
"गुरुत्वाकर्षण" के बल पर बचा ले जाती है.
इस समय सीताजी यही चाहती थीं कि समूचा उल्कापिंड, बिना रुके, सीधे आकर उन
पर गिर जाए और उन्हें जलाकर भस्म कर दें ताकि उन्हें अकथनीय पीड़ा से मुक्ति मिल
सके.
धरती तो उनकी अपनी माँ हैं. उन्हीं के गर्भ से तो उनका जन्म हुआ था. वे
भला उन्हें कैसे भस्म होता हुआ देख सकतीं थीं?.
आकाश की ओर टकटकी लगाकर देखते रहने और मन ही मन प्रार्थना करने के पश्चात
भी कोई उलकापिण्ड टूटकर नहीं गिरा. अब वे निराशा में घिरने लगी थीं और गर्म-गर्म
आँसू लुढकर गालों पर बहने लगे.
अश्रुपूरित नेत्रों से उन्होंने उन राक्षसियों से कहा-" तुम सब मिलकर
मेरे सन्मुख जो लोक-विरुद्ध प्रस्ताव रख रही हो, उसे मैं कदापि स्वीकार नहीं कर
सकती. तुम्हीं बताओ, एक मानव कन्या किसी राक्षस की भार्या कैसे हो सकती है?. तुम
सब मिलकर मुझे काट डालो, मार डालो, मारकर खा जाओ, किंतु मैं तुम्हारी बात नहीं मान
सकती."
"मेरे पति दीन हों अथवा
राज्यहीन हों, वे मेरे स्वामी हैं. मेरे गुरू हैं. मैं उन्हीं में अनुरुक्त
हूँ और रहूँगी. जैसे सूर्यर्चला सूर्य में अनुरुक्त रहती है."
"जैसे महाभागा शची इन्द्र की सेवा में, देवी अरुन्धती महर्षि वसिष्ठ
में, रोहिणी चन्द्रमा में, लोपमुद्र अगस्त्य में, सुकन्या च्यवन में, सावित्री
सत्यवान में, दमयन्ती सौदास में, केशिनी सगर में, भीमकुमारी दमयन्ती अपने पति
निषधनरेश नल में अनुराग रखतीं है, उसी प्रकार मैं भी अपने पति इक्ष्वाकुवंश
शिरोमणि श्रीराम में अनुरुक्त हूँ."
सीताजी के इनकार करते ही अनेक राक्षसियाँ उन्हें मारने-काटने की धमकियाँ
देने लगीं. उन्होंने अपने सिर पर समूचा आसमान उठा लिया. कभी जोर-जोर से चीखते हुए,
तो कभी नुकीले बड़े-बड़े दांत दिखाकर, तो कभी अस्त्र-शस्त्र दिखाकर भय उत्पन्न करने
का प्रयास करने लगीं.
वे क्रूर राक्षसियाँ अनेक प्रकार के कठोर एवं क्रूरतापूर्ण बातें चीख-चीख
कह रही थीं. उनके चीखने-चिल्लाने से इतना शोर उत्पन्न हुआ कि सीताजी ने अपनी दोनों
हथेलियों से अपने दोनों कानों को कसकर दबा लिया था ताकि राक्षसियों के तीखे स्वर
सुनाई न पड़े.
त्रिजटा नामक राक्षसी जो अन्य राक्षसियों की मुखिया थी, अपनी वृद्धावस्था
के चलते थक गयी थी और एक वृक्ष के नीचे सो रही थी. इस समय उसने एक साथ कई स्वपन
दिखाई दिए. स्वपन में उसने देखा कि आकाश में हाथी के दातों से बनी एक विशाल पालकी,
जिसमें एक हजार घोड़े जुते हुए हैं, लंका की ओर आ रही है. उस दिव्य पालकी में श्री
रघुनाथजी एवं उनके लघु भ्राता श्री लक्ष्मण जी विराजमान हैं. रामजी ने सीताजी को
उस दिव्य पालकी में बिठा लिया और वे उत्तर दिशा की ओर जा रहे थे. एक स्वपन पूरा भी
नहीं हुआ था कि उसने दूसरे स्वपन में एक चार दाँत वाला विशालकाय हाथी दिखा.
विशालकाय गजराज अपनी लंबी सूंड में सुगन्धित पुष्पों की माला लिये हुए था. उसने
अपनी सूंड उठाकर पहले सीताजी को प्रणाम किया और उनके गले में फ़ूलों की माला डाल
दी. तदन्तर हाथी थोड़ा नीचे की ओर झुका और
सीताजी उस गजराज पर सवार हो गयीं. इसके बाद वह गजराज वायु में उड़ता हुआ सूर्य और
चन्द्रमा के पास पहुँचा गया था. सूर्य और चन्द्रमा की परिधि से होते हुए वह महान
गजराज लंका के ऊपर आकर खड़ा हो गया.
सपनों की यह श्रृँखला टूट नहीं रही थी, बल्कि एक के बाद दूसरा स्वपन किसी
चलचित्र की तरह चलायमान हो रहे थे. उसने देखा कि आठ बैलों से जुते हुए एक दिव्य रथ
में श्रीराम, अपनी पत्नी सीता जी और अनुज लक्ष्मण के साथ पधार रहे हैं. तीनों के
गले में कभी न कुम्हलाने वाली मालाएँ पड़ी हुईं थीं. उस दिव्या रथ से उतर कर वे
तीनों पुष्पक विमान पर सवार हो गए और उत्तर दिशा की ओर निकल गए.
स्वपन में पधारे श्रीरामजी, सीताजी और लक्ष्मण के दिव्य दर्शन पाकर उसका
रोम-रोम खिलने लगा था. वह अपने आप से कह उठी कि रामजी और लक्ष्मणजी शीघ्र ही लंका
आएंगे और दुष्ट रावण को मार कर सीताजी को लिवा ले जाएँगे. वे आएंगे, जरुर आएंगे,
लेकिन कब तक आएंगे?, यह तो वह नहीं जानती थी,लेकिन मुझे पक्का विश्वास है कि वे
शीघ्र ही लंका आएंगे. जब वे आएंगे, तब उनके दिव्य दर्शन मुझे अवश्य होंगे. मेरे
अहोभाग्य कि दयालु प्रभु रामजी ने स्वपन में आकर मुझे दर्शन दिए. उनके दिव्य दर्शन
पाकर मेरा जीवन कृतार्थ हो गया है. वह चाहती थी कि उनकी दिव्य छवि को वह देर तक
निहारती रहे. लेकिन सोचने मात्र से क्या होता है? स्वपन बदला. दृष्य बदला और एक
फ़िर एक अन्य सपना उसकी आँखों में तैरने लगा.
उसने देखा. दुष्ट लंकापति रावण मदिरा के नशे में धुत्त होकर पुष्पक
विमान पर सवार होकर उस आ रहा है. उसके सिर में एक भी बाल नहीं था. उसका सिर मूंडा
हुआ था. शरीर तेल में भींगा हुआ था और उसने चटक लाल रंग के कपड़े पहन रखे थे. अचानक
न जाने क्या हुआ. पुष्पक पर सवार रावण विमान से उछलकर तेजी से धरती पर आकर गिर
पड़ा.
किसी चलचित्र की तरह चलायमान यह सपना पूरा भी नहीं हो पाया था कि उसने
देखा, एक स्त्री उस मुण्डित-मस्तक रावण को खींचकर कहीं लिए जा रही है. इस समय रावण
ने काले रंग के कपड़े पहना हुआ था. जिस रथ पर वह सवार होकर जा रहा था, उस रथ में
गधे जुते हुए थे. वह पागलों की तरह अट्टहास कर रहा था, रथ पर बैठा उछल-कूद कर रहा
था. अचानक न जाने उसे क्या हुआ, रथ को रोकते हुए
वह एक गधे पर सवार हो गया और द्रुतगति से दक्षिण दिशा की ओर जाने लगा.
दक्षिण दिशा की ओर भागते-भागते वह कीचड़ से भरे एक तालाब में गिर गया. उस
कीचड़ से भरे तालाब में, एक स्त्री जिसने लाल रंग के कपड़े पहन रखे थे, शीघ्रता से
दौड़कर आयी और उसने उसे एक रस्सी से रावण का गला बांध दिया और अब वह तेजी से उसे
खींचते हुए दक्षिण दिशा की ओर जाने लगी.
अभी यह सपना पूरा भी नहीं हो पाया था कि उसने दूसरा सपना देखा, जो इस सपने
से भी ज्यादा भयंकर और डरावना था. देखती क्या है कि रावण के सभी पुत्र सिर
मुंडाये, अपनी गर्दने लटकाये खड़े हैं. सबसे पहले अहंकारी और बलशाली रावण सूअर पर, पुत्र इन्द्रजीत सूँस (डाल्फ़िन
मछली) पर और कुम्भकरण उँट पर सवार होकर क्रमशः दक्षिण दिशा की ओर जाने लगे.उनके
जाते ही लंका के प्रवेशद्वार सहित सभी दरवाजे टूट-टूट कर बिखरने लगे. बहुतेरे
राक्षस, घोड़े, रथ और हाथी हवा में उछलकर गहरे समुद्र में जाकर समा गए. बहुत सारी
राक्षस रमणियाँ तेल पीकर मतवाली होकर जोर-जोर से ठहाका मार-मार कर हँस रही हैं.
कुम्भकर्ण आदि स्मस्त राक्षस शीरोमणि वीर लाल कपड़े पहनकर गोबर के कुण्ड में समा गए
हैं.
सपने का क्रम फ़िर बदला. एक नया सपना फ़िर उसकी आँखों मे आकर सजने लगा था.
उसने देखा. देखा कि महात्मा विभीषण, अपने
चार मंत्रियों के साथ, चार दाँत वाले विशालकाय गजराज पर सवार होकर चले आ रहे हैं.
विभीषण जी ने श्वेत वस्त्र धारण धारण किया हुआ था. उनके गलें में बहूमूल्य
आभूषण, सुगन्धित श्वेत पुष्पों की माला, ललाट पर श्वेत चन्दन का टीका और दिव्य
अंगराज लगा रखा था. हाथी के आगे-आगे बहुत से सैनिक शंखध्वनि निकाल रहे थे. कई
ढोल-मंजीरे, नगाड़े बजाते हुए मस्ती के साथ नाचते-गाते.कूदते-उछलते चले आ रहे हैं.
रावण के दरबार में भले ही वे राज्योचित वस्त्र आदि पहनकर जाते रहे हैं,
लेकिन शेष समय में वे किसी साधु-सन्यासी की तरह भगवा वस्त्र पहिने ,गले में
रुद्राक्ष की माला डाले, ललाट पर चन्दन का तिलक लगाये, और पावों में खड़ाऊ पहिने
रहते हैं,लेकिन इस समय वे दिव्य रथ पर सवार होकर आते दिखाई दे रहे हैं. संकेत
स्पष्ट है कि शीघ्र ही रावण के राज्य का पतन होने जा रहा है और विभीषण लंका के
राजसिंहासन पर आरुढ़ होने वाले है.
सपने में फ़िर एक नया मोड़ आया. देखती क्या है कि रावण द्वारा सुरक्षित
लंकापुरी, जिसमे पवनदेव भी आने से सकुचाते है, डरते है, एक वेगशाली वानर,
श्रीरामचन्द्रजी का दूत बनकर आया और उसने समूची सोने की लंका को पलभर में जलाकर
भस्म कर दिया है.
लंकापुरी का सर्वनाश होता हुआ वह देख रही थी. समझ रही थी कि अब ज्यादा समय
तक अहंकारी लंकापति रावण जीवित नहीं रहेगा. वह शीघ्र ही रामजी के हाथों मारा
जाएगा. राक्षसराज सदा के लिए समाप्त हो जाएगा और राम राज्य की स्थापना होगी. प्रभु
श्रीराम जी के शुभागमन के शुभ संकेत पाकर उनका मन प्रफ़ुल्लित होकर नृत्य करने लगा
था.
अब धीरे-धीरे वह स्वपन-नगरी से बाहर निकलने लगी थी. स्वपन का तिलिस्म
टूटते ही उसने आँखें खोली और देखा कि अनेक राक्षसियाँ, चीख-चीख कर, चिल्ला-चिल्ला
कर, सीताजी के चारों ओर घूम-घूमकर, भयानक अस्त्र-शस्त्र लेकर उन्हें धमका रही हैं.
वह उठ खड़ी हुई और उसने सभी राक्षसियों को आदेश देते हुए अपने पास बुलाया
और शांत भाव से एक जगह बैठ जाने को कहा.
स्वप्नो ह्यद्य मया दृश्टो दारुणॊ रोमहर्षयः
जब सारी राक्षसियाँ एक जगह बैठ गयीं, तब उसने अपने
देखे गए सपने के बारे में विस्तार से बतलाते हुए कहा-" अभी-अभी मैंने बड़ा
भयंकर और रोमाञ्चकारी सपना देखा है, जो
राक्षसों के विनाश और सीता के अभ्युदय की सूचना देने वाला है. यह सपना निकट भविष्य
में निश्चित ही घटित होने वाला है. प्रभु श्रीरामचन्द्रजी शीघ्र ही लंकापुरी पर
चढ़ाई कर राक्षसराज रावण के सहित समस्त राक्षसजाति का विनाश कर, भगवती सीताजी को
रावण के बंधन से मुक्त कराके अयोध्या ले जाएंगे".
त्रिजटा के ऐसा कहने पर सब राक्षसियाँ जो पहले सीता
जी पर क्रोधित हो रही थीं, भयभीत हो उठीं और उत्सुकता से उस सपने के बारे में
विस्तार से बतलाने के लिए त्रिजटा से निवेदन करने लगीं कि तुमने जो कुछ भी सपने
में देखा था, उसे विस्तार से हमें कह सुनाएं.
सीताजी से विनम्रता से बोलते हुए त्रिजटा ने
कहा-" हे देवी सीता ! अब तुम्हारे दुःख भरे दिन शीघ्र ही समाप्त होने वाले
हैं. मैंने सपने में प्रभु रामजी, अनुज लक्ष्मण के साथ वानरों की एक बड़ी सेना को
लेकर लंका की ओर आते हुए देखा है. वे राक्षसराज रावण के सहित सारे राक्षसों को
मारकर तुम्हें अपने साथ लिवा ले जाएंगे. अतः तुम अपने मन में धीरज धारण करो".
जिस समय त्रिजटा सपना देख रही थी, उस समय सीताजी के
अंगों में शुभ शकुन होने लगे थे. उनकी दाहिनी भुजा और बांया नेत्र फ़ड़कने लगी थी.
यह शुभ संकेत पाकर उनका सारा शोक जाता रहा. सारी थकावट दूर हो गयी, मन का ताप
शान्त हो गया और हृदय हर्ष से खिल उठा.
................................................................................................................................................
त्रिजटा-
त्रिजटा रामभक्त विभीषण की पुत्री है. इनकी माता का नम शरमा
है. वह रावण की भ्रातृजा है. राक्षसी उसका वंशगुण है और रामभक्ति उसका पैतृक गुण.
त्रिजटा में तीन विशेष गुण थे- वह ज्ञानी थी, भक्तिभाव में रमण करने वाली थी और
वैराग्य की साक्षात प्रतिमूर्ति थी. इसलिए इसका नाम त्रिजटा रखा गया था.
राक्षसी होते हुए भे उसमें मानव-मनोविज्ञान का सूक्ष्म
ज्ञान था. वह सीताजी के स्वभाव और मनोभावों को अच्छी तरह से समझती थी. वह यह भी
जानती थी कि शोक-संतप्त सीताजी को सांत्वना के लिए और उनके दुःख दूर करने के लिए
रामकथा से बढ़कर दूसरा कोई अन्य उपाय नहीं है.
जब सीताजी का विरह असह्य हो चला तब मरणातुर सीताजी
आत्मत्याग के लिए त्रिजटा से अग्नि की याचना करती है, तब रामभक्त त्रिजटा यह कहकर
टाल देती है कि रात्रि के समय अग्नि नहीं मिलेगी और सीताजी के प्रबोध के लिए वह
राम यश का गुणगान का सहारा लेती है. इस तरह रावणत्रसित सीताजी को राम सुयश सुनने
से ही सांत्वना मिली थी.
अशोक वाटिका में अशोक वृक्ष में छिपकर बैठे पवनपुत्र
हनुमानजी यह सब देख और सुन रहे थे.
स्वप्न वार्ता से एक ओर जहाँ त्रिजटा का भविष्य दर्शिनी
होना सिद्ध होता है तो वही दूसरी ओर उसका व्यवहार-निपुणा और विवेकिनी होना भी
उद्घाटित होता है. भय दिखाकर दूसरे को वशीभूत करने वाली राक्षसियों को उसने भावी
भय की सूचना देकर मनोकूल बना लिया था. प्रत्यक्ष वर्जन में तो राजकोप का डर था,
अनिष्ट की सम्भावना थी, लेकिन उसने समस्त राअक्षसियों को भक्तिस्वरूपा सीता जी के
चरणों में डाल दिया था. यही संत स्वभाव का लक्षण होता है.
मन्दोदरी ने स्वयं होकर उसे सीताजी की देख-रेख के लिए उसे
विशेष रूप से नियुक्त किया था. राक्षसी होते हुए भी वह सीताजी की हितचिंतक है. यह
बात मन्दोदरी जानती थीं.
इस प्रकार त्रिजटा चरित्र भक्ति, विवेक और व्यवहार कुशलता
का एक मणिकांचन योग है.
(२) " हिंदी शब्द सागर " में त्रिजटा तो विभिषण की बहन बताया गया है.वहाँ मात्रा यही
उल्लेख है कि वह अशोक वाटिका में सीताजी के पास रहती थी. मानस में त्रिजटा के
संबंध में विशेष उल्लेख प्राप्त नहीं होता.
महाभारत के वनपर्व में अध्याय 281 में त्रिजटा का उल्लेख उन सखियों के साथ में मिलता है जो
सीताजी के पास उनकी देखभाल के लिए नियुक्त थीं. जिनमें त्रिजटा, त्र्यक्षी,,
दृव्यक्षी, दीर्घजिह्वा, अजिह्विका, ललाटाक्षी, एकपादा, त्रिस्तनी, एकलोचना आदि
मुख्य थीं.
एक अन्य कथा के अनुसार त्रिजटा की उत्पत्ति के संबंध में
प्राप्त होती है कि माली नामक राक्षस के कंचुकेशी नामक एक पुत्री थी. एक बात
कंचुकेशी विश्रवा (रावण के पिता) के निकट गयी, उसने वहाँ हरिकीर्तन के माध्यम से ऋषि
को प्रसन्न किया. उनके रतिदान से कंचुकेशी गर्भवती हुई. कंचुकेशी के सेवा से
प्रसन्न होकर ऋषि ने उसे वरदान दिया कि तुझसे उत्पन्न पुत्र साधु और भगवान का
भक्त होगा. तुझसे जो पुत्री होगी वह ईश्वर की दासी होगी.
इस आशीर्वाद के फ़्लस्वरूप कंचुकेशी से पहले विभिषण फ़िर
त्रिजटा हुई.त्रिजटा और विभीषण ने भगवान की अक्षुण्य भक्ति मांगी.
(२)
त्रिजटा-
त्रिजटा रामभक्त विभीषण की पुत्री थी. इनकी माता का नाम
सरमा था.वह रावण की भ्रातृजा है. राक्षसी उनका वंशगुण है और रामभक्ति उसका पैतृक
गुण.
थाई रामायण "रामाकीएन" में कहा गया है कि हनुमान
ने विभीषण की बेटी त्रिजटा से शादी की थी. थाईलैण्ड में विभीषण को
"फ़िपेक" और त्रिजटा को "बेंचाकेई" कहा जाता है. थाई रामायण
कहती है कि हनुमान के साथ शादी से त्रिजटा को एक बेटा "असुरपद" हुआ था.
यद्यपि वो राक्षस था लेकिन उसका सिर बंदर के जैसा था. कुछ अन्य रामायण में त्रिजटा
को रावण व विभीषण की बहन के रूप में दर्शाया गया है.
त्रिजटा यद्यपि रावण की सेविका थी, लेकिन वह भगवान श्रीराम
की विजय में विश्वास रखती थी. उसने अपने व माता सीता के बीच के संबंधों को जगजाहिर
नहीं किया, किंतु हर पल वह माता सीता को हर महत्वपूर्ण जानकारी देती थी. समय-समय
पर प्राप्त जानकारी प्राप्त होने से उनकी हिम्मत बंधी रहती थी.
कुछ मान्यताओं के अनुसार त्रिजटा भगवान राम व सीता के साथ
पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या गई थी और कुछ दिनों तक रही थी. कुछ रामायण में
लंका विजय के बाद यह बताया गया है कि विभीषण ने हनुमान से अनुरोध किया कि वे उनकी
बेटी त्रिजटा से विवाह कर ले. इसके बाद हनुमान जी ने त्रिजटा से विवाह किया,
जिन्हें उन्हें एक पुत्र "तेगनग्गा" प्राप्त हुआ. कुछ समय तक वहां रहने
के पश्चात हनुमान वहाँ से चले गए.
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रामभक्त हनुमानजी कुछ समय पहले तक सीताजी का विलाप, त्रिजटा की
स्वप्नचर्या तथा राक्षसियों की डाँट-डपट को ध्यान से सुन रहे थे. वे मन ही मन
हर्षित हो रहे थे कि प्रभु राम शीघ्र ही लंका आएंगे और माता सीता को सम्मान अपने
साथ लेते जाएंगे. उन्हें इस बात पर भी अत्यधिक प्रसन्नता हो रही थी माता सीता को
आज मैंने खोज निकाला है, जबकि हजारों-लाखों वानर समस्त दिशाओं में उन्हें ढूँढते
फ़िर रहे हैं. उन्हें यह सोचकर भी परम संतोष मिल रहा था कि उन्हें माता सीता के
दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है.
त्रिजटा ने अपने देखे गए सपने के बारे में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात बतलाई थी
कि मैंने सम्पूर्ण लंका को जलाकर खाक कर दिया है. मैंने तो कभी कल्पना भी नहीं की
थी कि मैं लंका को जला डालूँगा. इस विषय पर वे गम्भीरता से सोचने पर विवश हो गए थे
कि आखिर जिस काम के लिए मुझे दायित्व सौंपा गया था कि मुझे केवल और केवल माता सीता
का पता लगाकर लौट आना है. मैंने वह काम सफ़लता के साथ पूरा कर लिया है. किसी ने
मुझसे यह नहीं कहा कि मुझे लंका भी जलाकर आना है. समझ गया. न समझ में आने वाली बात
भी नहीं थी. प्रभु रामजी जो बात मुझसे कहने वाले थे, वे शायद तब नहीं कह पाए होंगे
कि कहीं मेरा ध्यान सीताजी की खोज से इधर-उधर न भटक जाए. जब यह काम सम्पन्न हो गया
तब उन्होंने त्रिजटा के सपने में आकर मुझे स्पष्ट संकेत दे दिया है. अब निश्चित ही
मैं कोई ऐसा प्रपंच करुँगा कि लंका दहन हो जाए. लेकिन यह कार्य कैसे संपन्न होगा,
मैं नहीं जानता. केवल इतना ही जान पाया हूँ कि जिस काम को प्रभु करवाना चाहते हैं,
वह उन्हीं की इच्छा-शक्ति से ही होगा. मेरे चाहने अथवा नहीं चाहने से कुछ
होने-जाने वाला नहीं है. प्रभु रामजी जो मुझसे करवाना चाहते हैं, उपाय का प्रबंध
भी वे स्वयं करेंगे.
" मैं अकारण ही प्रहरी राक्षसियों पर और रावण पर क्रोध जता रहा था.
कई बार मन में आया भी कि मुझे दुष्ट रावण सहित समस्त राक्षसियों को मार डालूँ और
माता सीताजी को अपनी पीठ पर बैठाकर प्रभु रामजी को सादर सौंप दूँ. लेकिन मुझे ऐसी
कोई आज्ञा नहीं दी गयी थी. मुझे आगे क्या करना है, इसका संकेत प्रभु रामजी ने
त्रिजटा के माध्यम से मुझे सूचित कर दिया है."
"मैंने लंका मे गुप्तरूप से रहते हुए शत्रु की शक्तियों का पता लगा
लिया है और समस्त लंकापुरी का तथा राक्षसराज रावण के प्रभाव का भी निरीक्षण कर
लिया है. उन्हें इस बात पर भी अत्यन्त प्रसन्नता हो रही थी कि माता सीता अपने
पतिदेव का दर्शन पाने की तीव्र अभिलाषा रखती हैं. अतः मुझे उन्हें सान्त्वना देना
बहुत जरुरी है. लेकिन समझ नहीं पा रहा हूँ कि किस प्रकार मैं उन्हें आश्वासन
दूँगा. वे पल-प्रतिपल शोक से अचेत-सी हो रहीं थीं. सम्भवतः उन्होंने इससे पहले ऐसा
दुःख नहीं देखा था. यदि मैं सान्त्वना दिये बिना ही चला जाऊँगा तो मेरा यह जाना
दोषयुक्त होगा. सम्भव है मेरे चले जाने पर अपनी रक्षा का कोई उपाय न देख, वे अपने
जीवन का अन्त कर लेंगी. अतः मुझे शीघ्रता से रामजी का संदेश सुनाकर उन्हें आश्वासन
देना होगा."
सोच का घनत्व और गहरा होता जा रहा था. मन की अतल गहराइयों में उतरकर सोचने
लगे- "एक तो मेरा शरीर अत्यन्त ही सूक्ष्म है, दूसरे मैं वानर हूँ. सीतामाता
से बात करते समय मैं निश्चित ही मानवोचित संस्कृत भाषा में बोलूँगा. यदि मैं द्विज
की भाँति संस्कृत-वाणी का प्रयोग करुँगा तो सम्भव है कि माता सीता कहीं मुझे रावण
समझकर भयभीत न हो जाएँ. ऐसी दशा में मुझे उस सार्थक भाषा का प्रयोग करना चाहिए,
जिसे अयोध्या के आस-पास की साधारण जनता बोलती है, अन्यथा मैं साध्वी सीता जी को
उचित आश्वासन नहीं दे पाऊँगा".
" यदि मैं उनके समक्ष वानर रूप में जाऊँ और मेरे मुख से मानवोचित
भाषा सुनकर डर न जाएं. पहले से ही तो उन्हें राक्षसियों ने भयभीत कर रखा है.. यह
भी सम्भव है कि मुझे सामने पाकर वे ये न समझ बैठें कि इच्छाधारी रावण अपना असली
रूप छिपाकर वानर का रूप धरकर आया है?. यदि वे मुझे रावण समझकर जोर-जोर से
चिल्लाने-चीखने लगेंगी तो यमराज के समान भयंकर राक्षसियाँ तरह-तरह के हथियार लेकर
सहसा आ धमकेंगी. यदि ऐसा हुआ तो वे मुझे घेरकर मारने या पकड़ लेने का प्रयत्न
करेंगी".
" यदि मैं वृक्षों की शाखाओं-प्रशाखाओं और मोटी-मोटी डालियों पर दौड़
लगाता हूँ तो निश्चित ही सारी राक्षसियाँ मुझे देखकर भयभीत होकर चीखने-चिल्लाने
लगेंगी और शोर मचाते हुए अन्य राक्षसों को बुला लेंगी. वे सभी तत्काल
शूल,बाण,तलवार और तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र लेकर आ धमकेंगे. राक्षसों से घिर जाने
पर मैं उनका संहार तो कर सकता हूँ , परंतु समुद्र के उस पार नहीं पहुँच पाऊँगा. यह
भी संभव है कि वे मुझे घेर कर पकड़ लेंगे, तो फ़िर सीता माता का मनोरथ पूर्ण न हो
सकेगा. हिंसा में रुचि रखने वाले राक्षस कहीं जनकदुलारी को मार कर उनकी हत्या भी
कर सकते हैं. यदि ऐसा हुआ तो अनर्थ हो जाएगा".
"फ़िर यह स्थान जिसमें जानकी जी रह रही हैं, संपूर्ण रूप से राक्षसों
से घिरा हुआ है. मैंने आने का मार्ग तो देख लिया है, लेकिन बाहर निकलने का कोई
मार्ग नहीं जानता. फ़िर इस प्रदेश को समुद्र ने चारों ओर से घेर रखा है".
"यह भी संभव है कि यदि मैं पकड़ लिया जाऊँ अथवा मार दिया जाऊँ, ऐसी
परिस्थिति में रामजी के कार्य को पूरा करने के लिए कोई दूसरा सहायक भी नहीं है, जो
मेरे मारे जाने के बाद इस विस्तृत महासागर को लांघकर लंका आ सके".
"मैं सहस्त्रों राक्षसों को मार डालने में समर्थ तो हूँ. परंतु युद्ध
में फ़ँस जाने पर महासागर के उस पार नहीं जा सकूँगा. मुझे मालुम है कि युद्ध हमेशा
अनिश्चयात्मक होता है. किस पक्ष की विजय होगी, यह कभी निश्चित नहीं होता.
संशययुक्त कार्य करना मुझे कभी भी प्रिय नहीं रहा है".
" यदि मैं प्रभु रामजी का संदेश माता सीताजी को सुना नहीं पाया तो
निःसंदेह वे अपने प्राण त्याग देंगी. यदि ऐसा हुआ तो अनर्थ हो जाएगा."
" मुझसे कोई कार्य न बिगड़े, कोई असावधानी न हो जाए, यदि कहीं धोखे से
ऐसा हो गया तो फ़िर मेरा विशाल समुद्र को लांघकर लंका तक आना व्यर्थ हो जाएगा. मैं
चाहता हूँ कि बिना घबराहट के माता सीता मेरी बातें सुन लें, ऐसा कोई उपक्रम मुझे
करना होगा."
अंत में उन्होंने निर्णय लिया कि-"मुझे अशोक की घनी झाड़ियों के बीच
बैठे रहकर ही मैं प्रभु श्रीरामचन्द्र जी का गुणानुवाद करता हुआ माता सीताजी को
मीठी वाणी में सुनाऊँगा, जिसे सुनकर उनका उद्विग्न मन प्रसन्नता से भर उठेगा.
उन्हें विश्वास हो जाएगा. मन का संदेह दूर हो जाएगा. मैं वैसी ही समाधानकारक बातें
करुँगा, जिसे सुनकर उन्हें इस बात की आश्वस्ति हो जाएगी कि मैं रामजी का दूत बनकर
यहाँ आया हुआ हूँ. ऐसा उत्तम विचार आते ही पवनपुत्र श्री हनुमानजी ने अपने आराध्य
प्रभु श्रीरामजी के उत्तम गुणों से युक्त सुमघुर वाणी में गुणगान सुनाना प्रारंभ किया.
वे अपनी सुमधुर वाणी में कहने लगे -" इक्ष्वाकुवंश में परमप्रतापी
दशरथ जी के यहाँ मेरे प्रभु श्रीराम जी ने ज्येष्ठ पुत्र के रुप में जन्म लिया है.
वे चन्द्रमा के समान मनोहर मुख वाले, संपूर्ण धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और शस्त्र
विद्या में विशेषज्ञ हैं. वे धर्म के रक्षक है. अपने पिता की आज्ञा को शोरोधार्य
करके वे अपने अनुज वीर लक्षमण और पत्नी सीताजी के साथ वन में चले आए .उन्होंने
अपनी वनयात्रा में अनेक दानवों का संहार किया. राक्षराज रावण ने अपने मामा मारिच
को सोने का मृग बनाकर रामजी के आश्रम में भिजवाया और धोखे से माता सीता जी का हरण
कर लिया. वे उन्हें खोजते हुए ऋष्यमूक पर्वत पर आए, जहाँ उनकी भेंट महाराज सुग्रीव
से हुई. महाराज सुग्रीव ने करोड़ों वानरों को माता सीताजी की खोज के लिए चारों
दिशाओं में भेजा है. मैं उन्हीं में से एक हूँ. माता सीताजी की खोज में मैं सौ
योजन समुद्र को लांघकर लंका आया हूँ". इतना कहकर हनुमानजी चुप हो गए. मौन
धारण करते हुए उन्होंने इस बात पर गौर करना आरंभ किया कि रामजी के गुणानुवाद को
सुनकर माता सीताजी की क्या प्रतिक्रिया होती है.
वे इस गुणानुवाद को बार-बार सुनना चाहती थीं, लेकिन सुनाने वाले व्यक्ति
ने मौन धारण कर लिया था.
सुमधुर वाणी में अपने स्वामी का गुणानुवाद सुनकर माता सीता को इस बात पर
आश्वस्ति हुई कि मेरे स्वामी रघुनाथजी ने अपने किसी विशेष दूत को मेरी खोज में
लंका भिजवाया है और वह दूत इसी अशोक वृक्ष की घनी झाड़ियों के बीच कहीं गुप्तरुप से
विद्यमान है. उन्होंने आशान्वित होकर अशोक वृक्ष की ओर देखा. देखा कि कोई वानर
बैठा हुआ है.
भ्रमित होने का कोई कारण भी नहीं था. देखने में वह वानर वास्तविक प्रतीत
हो रहा था. उन्होंने मन ही मन में भगवान ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य और वायु से प्रार्थना करते हुए कहा- हे प्रभु ! यह वानर
जो मुझे दिखाई दे रहा है, वह वास्तविक हो.
यदि ऐसा है तो निश्चित ही वह मेरे लिए सौभाग्य लेकर आया है. "
बुद्धिमान हनुमानजी ने माता सीता की देवों से की गई प्रार्थना को सुना था.
अब वह समय आ चुका है जब मुझे इस वृक्ष से उतरकर माता सीताजी के सामने प्रकट हो
जाना चाहिए.
ऐसा उत्तम विचार आते ही वे पलक झपकते ही माता सीताजी के सन्मुख खड़े हो गए.
प्रकट होते ही उन्होंने अपने दोनों हाथों को जोड़ते हुए कहा-" हे देवी ! आप
कौन हैं? आपसे मेरी यह प्रथम भेंट हैं. मेरे प्रभु रामजी ने सीता माता की पहचान को
लेकर जो-जो संकेत मुझे दिए थे, उसको देखते हुए मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि
आप मेरे प्रभु श्रीरामजी की भार्या हैं."
हनुमानजी की बातों को सुनकर उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि वानर प्रभु
रामजी का भेजा हुआ विशेष दूत है. अविश्वास होने का कोई प्रश्न ही नहीं था. अब
हनुमानजी उनके लिए अनजान नहीं थे. अब उन्होंने बिना किसी संकोच के अपनी जीवन गाथा
हनुमान जी को कह सुनायीं और अंत में कहा-" हे नानर श्रेष्ठ ! दुष्ट रावण ने
मुझे जीवित रहने के लिए केवल दो मास का समय दिया है. दो माह का समय व्यतीत होते ही
वह दुष्ट रावण मेरे प्राण हर लेगा. यदि उसके पहले रामजी यहाँ नहीं आते हैं, तो मैं
स्वतः होकर अपने प्राण त्याग दूँगी."
सीता का विश्वास प्राप्त करके उन्होंने कहा-" मैं रामजी का दूत हूँ
और आपके लिए उनका संदेश लेकर आया हूँ. हे देवी!
मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि वे कुशल है और उन्होंने आपका कुशल-समाचार
पूछा है. आपके पति के अनुचर और महातेजस्वी लक्ष्मण जी भी शोक से संतप्त हो, आपके
चरणॊं में मस्तक झुका कर प्रणाम कहलाया है." ऐसा कहते हुए वे सीतजी के कुछ
ज्यादा ही निकट आ गए थे. वे ज्यों-ज्यों निकट आते गए, त्यों-त्यों सीताजी के मन
में शंका होने लगी थी कि कहीं रावण वानर का रूप धारण कर तो नहीं आ गया है?.
भय से ग्रसित सीताजी ने कहा-"वहीं रुक जाओ वानर ...मेरे समीप आने की
चेष्टा भी मत करना. मुझे लगता है कि तुम मायावी रावण हो. मैंने जिस जनस्थान में
तुमने अपना यथार्थ रूप छॊड़कर सन्यासी का रूप धारण किया था, तुम वही रावण हो."
" हे वानर ! यदि तुम सचमुच ही श्रीरामजी के दूत हो तो तुम्हारा
कल्याण हो. मैं तुमसे उनकी बातें पूछती हूँ, क्योंकि मुझे उनकी चर्चा अति प्रिय
लगती है. तुम मेरे प्रियतम का कुछ इस तरह गुणगान करो जो मेरे चित्त को चुरा ले
जाए?."
सीताजी के इस निश्चय को सुनकर पवनपुत्र हनुमानजी ने रामजी का गुणानुवाद
करते हुए कहा-" हे देवी ! भगवान रामजी सूर्य के समान तेजस्वी, चन्द्रमा के
समान कमनीय तथा देव कुबेर की भाँति सम्पूर्ण जगत के राजा हैं. वे भगवान विष्णु के
समान पराक्रमी तथा बृहस्पति की भाँति सत्यवादी एवं मधुरभाषी हैं."
"वे रुपवान, सौभाग्यशाली और कान्तिमान् तो इतने हैं मानों मूर्तिमान्
कामदेव हों. वे संसार के श्रेष्ठ महारथी हैं. पराक्रमी रामजी क्रोधपूर्वक छोड़े गये
प्रज्जवलित अग्नि के समान तेजस्वी बाणॊं द्वारा रणक्षेत्र मे शीघ्र ही रावण का वध
करेंगे. मैं उन्हीं का दूत होकर यहाँ आया हूँ. रामजी वियोग-जनित दुःख से पीढ़ित
हैं. उन्होंने आपके पास अपनी कुशल कहलायी है और आपकी भी कुशल पूछी है. लक्ष्मण जी
ने भी आपको प्रणाम करके आपकी कुशल पूछी है."
"हे देवी ! रामजी के सखा सुग्रीव, जो हमारे राजा हैं, उन्होंने भी
आपसे कुशल पूछी है. सुग्रीव और लक्ष्मण सहित श्रीरामजी प्रति क्षण आपका स्मरण करते
हैं. हे देवी ! मैं महाराज सुग्रीव का मंत्री हनुमान नामक वानर हूँ. मैंने ही
प्रभु रामजी की कृपा से महासागर को लांघकर और दुरात्मा रावण के सिर पर पैर रखकर
लंकापुरी में प्रवेश किया है. मैं अपने पराक्रम का भरोसा करने आपका दर्शन करने के
लिए यहाँ उपस्थित हूँ."
" हे देवी ! यह सौभाग्य की बात है कि आप राक्षसियों के चंगुल में
फ़ंसकर भी अभी तक जीवित हैं, यह बड़े सौभाग्य की बात है. अब आप शीघ्र ही महारथी
श्रीराम और लक्ष्मण का दर्शन करेंगी. इतना ही नहीं आप करोड़ों वानरों से घिरे हुए
महातेजस्वी सुग्रीव को भी आप देखेंगी."
" हे देवी ! आप मुझे जैसा समझ रही हैं, मैं वैसा नहीं हूँ. आप
बात-बात में शंका-कुशंका में घिर जाती हैं. उन सभी तो मन से निकाल दीजिए और मेरी
बातों पर विश्वास कीजिए."
नर बानरहि संग कहु कैसे * कही
कथा भइ संगति जैसे.
हनुमानजी की बातों को सुनकर विदेहकुमारी सीता जी ने कहा-" हे
कविश्रेष्ठ ! मैं जानना चाहती हूँ कि
तुम्हारा श्रीराम और लक्ष्मण के साथ सम्बन्ध कैसे स्थापित हुआ?.मुझे तो आश्चर्य इस
बात पर भी हो रहा है कि एक वानर का मनुष्यों से यह मेल किस प्रकार सम्भव
हुआ?."
" मैं जानना चाहती हूँ कि तुम मुझे श्रीराम और उनके अनुज लक्ष्मण के
कुछ शुभ चिन्हों का वर्णन करो, जिससे मेरे मन का संदेह जाता रहे. उन दोनों भाइयों
की आकृति कैसी है?. उनका रूप लावण्य कैसा है?. उनकी जाँघें और भुजाएँ कैसी
हैं?."
हनुमानजी जानते थे कि जनककुमारी सीता जी ने जो प्रश्न मुझसे पूछे हैं, वे
उचित ही हैं. राक्षसराज रावण की लंका में, अनेक विकृत चेहरों और अंगों वाली राक्षसियाँ,
जो न केवल मायावी हैं बल्कि भयानक अस्त्र-शत्र लेकर उनकी अभिरक्षा में घिरी हुई
हैं, सहसा मुझ पर विश्वास कैसे कर सकेंगी?."
" यह मेरे लिए तो अत्यन्त ही सौभाग्य की बात है कि मुझे इसी बहाने एक
बार फ़िर प्रभु रामचन्द्र जी और लक्ष्मण के गुणानुवाद करने का सुअवसर अनायास ही
मिलने जा रहा है.". प्रसन्नबदन पवनपुत्र ने रामजी और लक्ष्मण का स्मरण किया
और उनके दिव्य चिन्हों के बारे में बतलाने लगे.
" हे जनकनन्दिनी ! मेरे स्वामी ! मेरे आराध्य प्रभु श्रीरामजी के
नेत्र प्रफ़ुल्ल-कमलदल के समान विशाल एवं
सुन्दर हैं. उनका मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मनोहर है. वे अपने जन्मकाल से
ही रूप और उदारता आदि गुणों से सम्पन्न हैं."
"तेज में वे सूर्य के समान, क्षमा में पृथ्वी के तुल्य, बुद्धि में
बृहस्पति के सदृश, और यश में शचिपति इन्द्र के समान हैं. वे सम्पूर्ण जीव-जगत तथा
स्वजनों के भी रक्षक हैं. शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीराम अपने सदाचार और धर्म
के रक्षक हैं."
" हे देवी ! वे जगत के चारों वर्णों की रक्षा करते हैं. लोक में धर्म की मर्यादाओं में स्वयं बंधकर
उसका पालन करने और कराने वाले भी हैं. वे राजनीति में पूर्ण शिक्षित, ब्राह्मणॊं
के उपासक, ज्ञानवान, शीलवान, विनम्र और शत्रुओं को संताप देने वाले हैं."
" उन्हें यजुर्वेद की भी अच्छी शिक्षा मिली है. वेदवेत्ता विद्वानों
में उनका बड़ा सम्मान है. वे चारों वेद, धनुर्वेद, और छहो वेदांगों के भी परिनिष्ठित विद्वान है."
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परिनिष्ठित-
भाषा के स्थिर तथा सुनिश्चित रूप को मानक या परिनिष्ठित
भाषा कहते हैं. भाषा विज्ञान कोश के अनुसार किसी भाषा की उस विभाषा को
"परिनिष्ठित" भाषा कहते हैं जो अन्य भाषाओं पर अपनी साहित्यिक एवं
सांस्कृतिक श्रेष्ठता स्थापित कर लेती है तथा इन विभाषाऒं को बोलने वाले भी उसे
सर्वाधिक उपयुक्त समझने लगते हैं.
भाषा- भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों
को व्यक्त कर सकते हैं और उसके लिए हम वाचिक ध्वनियों का प्रयोग करते हैं.
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" उनके
कंधे मोटे, बड़ी-बड़ी भुजाएँ, गला शंख के समान और सुन्दर मुख है. नेत्रों में कुछ
लालिमा है. उनका स्वर दुन्दुभि के समान गम्भीर और शरीर का रंग सुन्दर और चिकना है.
उनके सभी अंग सुडौल और बराबर है. उनकी कान्ति श्याम है. उनके तीनों अंग (
वक्षःस्थल, कलाई और मुठ्ठी) सुदृढ़ हैं. वक्षःस्थल, नाभि के किनारे का भाग और
उदर-ये तीनों उभरे हुए हैं. नेत्रों के कोने, नख और हाथ-पैर के तलवे- ये तीनो लाल
हैं. उनका स्वर, चाल और नाभि- गम्भीर हैं. उनके उदर तथा गले में तीन रेखाएँ हैं.
तलवों के मध्यभाग, पैरों की रेखाएँ, और स्तनों के अग्रभाग-धंसे हुए हैं. गला, पीठ
तथा दोनों पिण्डलियाँ- ये चार अंग छोटे हैं. मस्तक में तीन भँवरें है. वे चार हाथ
ऊँचे हैं. उनके कपोल,भुजाएँ, जांघे, और घुटने-ये चार अंग बराबर हैं. वे सिंह,
व्याघ्र,हाथी तथा वृषभ- इन चार प्रकार की चाल से चलते हैं. उनके शरीर के दस अंग-
मुख, नेत्र,जिह्वा, अधर, तालु, छाती, नख, हाथ, पैर और वर्ण- कमल के समान सुन्दर
है. उनके शरीर में रोम, त्वचा, अंगुलियों के मध्य के जोड़ और उनका बोध- ये चारों
उत्कृष्ट हैं.ये सभी तथा अन्य अनेक रचनाएँ भी उनके शरीर में उपस्थित है."
" हे
देवी ! राम जी के अनुज और आपके देवर लक्ष्मण का सौंदर्य भी असीम है. उनका रंग
सुनहरा है, जबकि रामजी का श्याम वर्ण है. मैं इन दोनों से ऋष्यमूक पर्वत पर मिला
था. रावण के द्वारा हरण करके ले जाते समय जो आभूषण आपने वानरों के मध्य गिराए थे,
उन्हें देखते ही रामजी हर्ष से प्रफ़ुल्लित हो उठे और उनके नेत्रों से अश्रु धारा
बहने लगी. रामजी ने बालि को मारकर हमारे राजा सुग्रीव से मैत्री स्थापित की. इसके
बदले सुग्रीव ने वृहद स्तर पर आपकी खोज करने के लिए लाखों वानरों को संपूर्ण विश्व
में भेजा है. यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने इस दूरस्थ स्थान में आपका पता लगा
लिया."
"मैं
शक्तिशाली वानर, केसरी का पुत्र हूँ. मेरे पिताश्री मूलतः मलय पर्वत के निवासी थे,
तत्पश्चात वे गोकर्ण पर्वत पर आए. तब एक सम्बसन्द नामक एक राक्षस ऋषियों को सताने
लगा. तब उनके आग्रह पर केशरी ने उसका वध कर दिया. उसके पश्चात वायु के देवता पवन
देव के द्वारा मैं केशरी की पत्नी अंजनी के गर्भ में आया." अपने आराध्य
श्रीराम और लक्ष्मण जी के दिव्य स्वरुपों
का वर्णन करते हुए उनके शरीर में रोमांच हो आया था. शरीर पुलकायमान हो उठा था और
नेत्रों से अश्रु बहकर गालों पर लुढ़कने लगे थे.
रामजी के
विषय में हनुमानजी द्वारा दिया गया विवरण सुनकर उन्हें विश्वास हो गया कि इस दूत
को स्वामी रामजी ने ही भेजा है. विस्तार से अपने स्वामी का विवरण सुनकर वे भी
भावविह्वल होते हुए अश्रु बहाने लगीं.
इसी समय
हनुमानजी ने सीताजी को रामजी की अंगूठी दी. उसे पहचानकर और भीतर की ओर अपने
प्रियतम का नाम अंकित देखकर सीताजी हर्ष से विभोर हो कर खिल उठीं .अंगूठी के
स्पर्श मात्र से उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों वे स्वयं रामजी के आगमन का
अनुभव कर रही हों. प्रसन्नवदन सीता जी ने कहा-" हे हनुमान ! इस अनुपम भेंट के लिए मैं सदैव तुम्हारी ऋणी
रहूँगी. तुम कितने महिमामयी हो कि यहाँ मेरी सुरक्षा के लिए आए हो. अब तुम कृपा
करके मुझे मेरे स्वामी रामजी के विषय में कुछ और बताओ."
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रामनाम
मुद्रिका का रहस्य
एक कथा के
अनुसार
रामनाम की मुद्रिका
सुनयना जी की तपस्या से प्रसन्न होकर नर्मदा मैया ने उनको प्रदान करते हुए यह
वरदान दिया था कि यह अंगूठी जिसके पास रहेगी उसका कभी अनिष्ट नहीं होगा . सीता जी के
विवाह के समय वह अंगूठी यह सोंचते हुए सुनयना जी ने सीता जी को दे दी थी कि बिटिया
के जीवन में कभी कोई अनिष्ट न उपस्थित हो . सीता जी यह रहस्य जानती थीं .
सीता
जी ने विचार किया कि यह अंगूठी मेरे पास रहेगी तो रावण मेरा हरण नहीं कर पायेगा. यही सोंचकर
गंगातट पर श्री राम जी को दे दी . हनुमान जी जब लंका यात्रा पर जाने लगे तब
भगवान श्रीराम ने विचार किया कि निशाचरों की नगरी में सीता का कोई अनिष्ट ना होने
पाए . यही विचार करके हनुमान जी को मुद्रिका दे दी . लंका विजय के
बाद जब अयोध्या में भगवान श्री राम का राज्याभिषेक हुआ तब सीता जी ने विचार किया
कि हमारे पतिदेव अब राजा है इनके राज्य में कोई अनिष्ट ना हो , इनका कोई अनिष्ट ना हो ,
यही विचार करके पुनः
मुद्रिका भगवान श्री राम को दे दी . वह मुद्रिका सीता जी की उंगली से
हटने के बाद ही उनका वनवास हुआ .
(२)
रामचरित मानस
अयोध्याकाण्ड की एक चौपाई.
चौपाई-पिय हिय की सिय जान निहारी
मनि
मुदरी मन मुदित उतारी
सीताजी
ने मणिजड़ित मुद्रिका उतारकर केवट को देने के लिये श्रीराम जी को दी थी, लेकिन केवट
के द्वारा उस मुद्रिका को उतराई में लेने से मना कर दिया गया था. अतः वह
अंगुठी रामजी के पास रखी रह गई. सीता जी के हरण के बाद जब पवनपुत्र सीताजी का पता
लगाने के लिए लंका जाते हैं, तब रामजी ने वही अंगूठी उतारकर उन्हें दी थी कि ताकि
उन्हें विश्वास हो जाए कि अंगूठी लाने वाला और कोई नहीं बल्कि राम जी का दूत है.
नोट- तुलसीकृत रामायण में उल्लेखित है कि श्री
हनुमानजी ने अशोक वृक्ष से रामजी की दी हुई अंगूठी को जानकी जी के सामने ट्पका दी
थी,-, " दीन्हिं मुद्रिका डारि तब". जबकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार उन्होंने
उस दिव्य अंगूठी को सीताजी से भेंट होते समय दी थी- " रामनामांकित चेदं पश्य
देव्यगुंलीयकम ( त्रेसठ्वां सर्ग-२)
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अत्यन्त ही
विनीत होकर हनुमान जी ने अपने दोनों हाथों को जोड़ते हुए कहा." हे देवी !
रामजी के पास आपका पता न होने के कारण वे आपकी सुरक्षा के लिए यहाँ नहीं आए. आपके
बिना वे भी पूर्णतः अशांत हैं. जैसे ही मैं लौटकर अपने प्रभु के पास जाऊँगा, आपके
यहाँ उपस्थित होने के सूचना उन्हें अवश्य दूँगा. वे शीघ्र ही रावण का वध करने के
लिए निकल पड़ेंगे."
" हे कपिश्रेष्ठ ! तुम मेरे स्वामी को
परिस्तिथियों की गंभीरता के विषय में सूचित करना, क्योंकि दो मास पश्चात रावण मेरा
वध कर देगा. रावण के अनुज विभीषण ने उसे बार-बार आग्रह किया कि वह मुझे श्रीराम को
लौटा दे. उसी प्रकार विभीषण की ज्येष्ठ पुत्री कला को उसकी माता ने स्वयं उसे मेरे
पास भेजा था.उसी ने ये सारी बातें मुझसे कही थी. रावण का सम्मानपात्र अविंध्य नामक
राक्षस ने भी रावण को समझाया था कि मुझे ससम्मान रामजी को लौटा दे, अन्यथा उनके
हाथॊं राक्षसों का विनाश निश्चित है."
सीताजी कि
विषाद भरी बातों को सुनकर हनुमानजी ने कहा-" हे देवी ! आप धैर्य धारण करें.
मेरा वचन सुनते ही रघुनाथ जी वानर और भालुओं की विशाल सेना लेकर शीघ्र ही यहाँ के
लिए प्रस्थान करेंगे. मैं अभी आपको इस राक्षजनित दुःख से छुटकारा दिला
दूँगा."
त्वां
तु पृष्ठगतां कृत्वा संतरिष्यामि सागरम्
" हे देवी ! यदि आप सहमत हों तो मैं आपको अपनी
पीठ पर बैठाकर समुद्र को लांघ जाऊँगा. मुझसे रावण सहित सारी लंका को भी ढो ले जाने
की शक्ति है. इस समय प्रभुअ श्रीराम प्रस्त्रवणगिरि पर रहते हैं. मैं आज ही आपको
उनके पास पहुँचा दूँगा. मैं आपको लेकर जब यहाँ से चलूँगा, उस समय समूचे लंका
निवासी भी मेरा पीछा नहीं कर सकते. हे देवी ! जिस प्रकार से मैं यहाँ आया हूँ, उसी
तरह आपको लेकर आकाशमार्ग से चला जाऊँगा, इसमें संदेह नहीं है. आप कृपया मेरा
पराक्रम देखिए."
पवनपुत्र की
साहस और पराक्रम की बातों को बड़े ध्यान से सुन रही थीं सीताजी. वे इस बात को सुनकर
गौरव का अनुभव कर रही थीं कि रामजी के इस विशेष दूत में कितना सामर्थ्य है. इस
प्रस्ताव को सुनकर वे हर्षित हुईं थीं. उन्होंने हनुमान जी से कहा-" हे
कपिश्रेष्ठ ! तुम्हारा यह प्रस्ताव ठीक जान पड़ता है, लेकिन तुम इतने लघु शरीर वाले
हो, मुझे लेकर सागर पार करने की बात कैसे सोच सकते हो?."
सीताजी की
बातों को सुनकर वे खिन्न हो उठे. उन्होंने ने सोचा कि माता सीता मुझे कितना तुच्छ
समझ रही हैं. तब अपने पराक्रम का प्रदर्शन करने के लिए हनुमानजी ने अपना विशालकाय
रूप धारण करते हुए कहा-" हे माते ! यदि आप चाहें तो मैं अभी पूरी लंका को
उजाड़ सकता हूँ. आप मुझ पर विश्वास किजिए और मेरे विषय में अपना संदेह त्याग
दें."
अपने समक्ष
विशालकाय हनुमानजी को देखकर उन्हें प्रसन्नता का अनुभव तो हो रहा था, लेकिन वे इस
प्रस्ताव से सहमत नहीं हो पा रही थीं. उन्होंने हनुमान जी से कहा-" मान लिया
कि तुम निश्चित ही इतने बलवान हो कि मुझे सागर पार करा दोगे. यदि मैं आकाश में
उड़ते समय अचेत हो गई और मगरमच्छों से भरे सागर में गिर गई तो? इसके अतिरिक्त यदि
सारे राक्षस एकत्रित होकर तुम पर आक्रमण कर दें, तो तुम्हारा सारा ध्यान तो उनके
साथ युद्ध करने में लगा रहेगा. तब मेरा क्या होगा?. यदि तुम सभी राक्षसों का वध कर
भी देते हो तो ऐसा करने से मेरे स्वामी के यश का ह्रास ही होगा."
"हे
वीर हनुमान ! चूंकि मैं प्रतिव्रता स्त्री हूँ, अतः मैं राम के सिवाय किसी अन्य के
शरीर का स्पर्श नहीं करना चाहती. जब दुष्ट रावण ने मेरा अपहरण किया, उस समय मैं
असहाय और विवश थी. अब राम को स्वयं यहाँ आकर, उस दुष्ट रावण का वध करके मुझे मुक्त
कराना चाहिए. इनके इसी कार्य से उनका यशोगान होगा."
" सत्य
वचन. आपने सत्य ही कहा है. मैं आपके वचनों की सराहना करता हूँ. आपका कहना बिलकुल
न्यायोचित और युक्तिसंगत है. आपकी यह बात नारी-स्वभाव के तथा पतिव्रताओं की
विनयशीलता के अनुरूप है".
"इसमें
तनिक भी संदेह नहीं है कि आप अबला होने के कारण मेरी पीठ पर बैठकर सौ योजन विस्तृत
समुद्र के पार जाने में समर्थ नहीं हैं. आपने जो दूसरा कारण बताते हुए कहा कि मेरे
लिए श्रीरामचन्द्रजी के सिवा दूसरे किसी पुरुष का स्वेच्छापूर्वक स्पर्श करना उचित
नहीं है, यह आपके योग्य है."
" हे
देवी ! आपने मुझसे जो कुछ भी कहा है, मैं उसे अपने स्वामी रघुनाथजी को कह
सुनाऊँगा,जिसे सुनकर वे अत्यन्त ही प्रसन्न होंगे."
सीता
मन भरोस तब भयऊ* पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ
ऐसा कहते
हुए उन्होंने अपना विशाल स्वरूप को त्याग कर छोटा रूप धारण कर लिया.
सीताजी के मन में
पवनपुत्र श्री हनुमानजी के प्रति विश्वास हुआ. अपने ऊपर विश्वास हुआ जानकर उन्होंने
अपना विशाल स्वरूप त्याग कर छोटा रूप धारण कर लिया. छोटा रूप धारण करने के पश्चात
उन्होंने अत्यन्त ही दीन वाणी में कहा- "हे माता ! हम वानरों में बहुत
बल-बुद्धि नहीं होती. परन्तु प्रभु श्रीरामजी के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड़
को खा सकता है.
मन संतोष सुनत कपि बानी*भगति
प्रताप तेज बल सानी आसिष
दीन्ही रामप्रिय जाना*होहु तात बल सील निधाना अजर
अमर गुननिधि सुत होहू* करहुँ बहुत रघुनायक छॊहू करहुँ
कृपा प्रभु अस सुनि काना* निर्भर प्रेम मगन हनुमाना.
भक्ति, प्रताप, तेज औ बल
से सनी हुई हनुमानजी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में सन्तोष हुआ. उन्होंने
श्रीरामजी के प्रिय जानकर हनुमानजी को आशीर्वाद देते हुए कहा-" हे तात ! तुम
बल और शील के निधान होओ. हे पुत्र ! तुम अजर, अमर और गुणॊं के खजाने होओ. श्री
रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें. प्रभु कृपा करें". बस ऐसा अपने कानों से
सुनते ही हनुमानजी पूर्ण प्रेम में मगन हो गये.
लघुरूप धारण
करते हुए वीर हनुमानजी से माता सीताजी से कहा-" हे देवि ! मैंने जो आपको अपने
साथ ले जाने का आग्रह किया था, उसके बहुत से कारण हैं. एक तो मैं शीघ्र ही रामजी
का प्रिय करना चाहता था. अतः स्नेहपूर्ण हृदय से ही मैंने ऐसी बात कही है. दूसरा
कारण यह कि लंका में प्रवेश करना सबके लिए कठिन है. तीसरा कारण यह कि महासागर को
पार करना अत्यन्त ही कठिन है. आपको ले जाने की शक्ति मुझमें होने से मैंने ऐसा
प्रस्ताव दिया था. मैं आज ही आपको प्रभु श्रीरामजी से मिला देना चाहता था. रामजी
के प्रति अत्यधिक स्नेह और भक्ति के कारण ही मैंने ऐसी बात कही थी, किसी अन्य
उद्देश्य से नहीं".
"
किंतु सती-साध्वी देवी जी ! यदि आपके मन में मेरे साथ चलने का उत्साह नहीं है तो
आप कृपा कर अपनी कोई पहचान ही दे दीजिए, जिससे रामजी जान लें कि मैंने आपका दर्शन
किया है."
मणिं
दत्त्वा ततः सीता हनुमन्तमथाब्रवीत्
"हे
पवनपुत्र ! मुझे हर पल...हर घड़ी एक दुःख ही सालता रहता है और उसे सोच-सोच कर बड़ा
पछतावा भी होता है कि सोना पाने की (सुवर्णिम मॄग पाने की चाह) लालसा के चलते
मैंने अपने स्वामी...अपने भगवान श्रीरामचन्द्र जी को अपने से दूर किया और अब, जब
मैं सुवर्ण नगरी लंका में हूँ, तो मुझे मेरे स्वामी की रह-रह कर याद आती है. पता
नहीं वह कौन-सा दुर्योग था,जब मेरे मन में सोना पाने की लालसा जागी. इस लालसा ने
मुझे कितना भटकाया है, तुम इसका अंदाजा लगा सकते हो.. पता नहीं.....वह शुभ दिन कब
आएगा, जब मेरे स्वामी लंका पर चढ़ाई कर, दुष्ट रावण को मारकर मुझे अपने साथ लिवा ले
जाएंगे."
" हे
वीर हनुमान ! तुम मेरे स्वामी को मेरी व्यथा-कथा बतलाते हुए अवश्य कहना कि आपकी
सीता की वही दशा हो रही है, जैसे कि बिन पानी के मछली की होती है. आज यदि मैं
जीवित हूँ तो केवल इसलिए कि मैं आपके पुनः दर्शन कर सकूँ. बस अब आपके नाम का ही
सहारा है. यदि वे एक निश्चित अवधि में नहीं आएंगे, तो मुझे जीवित नहीं पाएंगे. अतः
मेरी ओर से इतना जरुर-जरुर कहना कि वे शीघ्रता से लंका पर चढ़ाई कर और उस दुष्ट रावण
का वध कर मुझे अपने साथ ले जाएं." कहते हुए वे विलाप करने लगी थीं.
बहुत समय तक
विलाप करने के पश्चात उन्होंने अपने हाथ से *चूड़ामणि* निकालकर देते हुए,
प्रसन्नवदन सीताजी ने अति उत्साहित होते हुए पवनपुत्र श्री हनुमानजी से कहा-"
हे पवनपुत्र ! मेरे इस चिन्ह को मेरे स्वामी श्रीरामचन्द्रजी भली-भांति पहचानते
हैं. इस चूड़ामणि को देखकर वीर श्रीराम
निश्चय ही तीन व्यक्तियों का- मेरी माता का, मेरा और महाराज दशरथ जी का एक साथ ही
स्मरण करेंगे.
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*चूड़ामणि*
सागर
मंथन से चौदह रत्न निकले, उसी समय सागर से दो देवियों का जन्म हुआ – (1)– रत्नाकर नन्दिनी और (2)– महालक्ष्मी.
रत्नाकर नन्दिनी ने अपना तन मन श्री हरि को देखते ही समर्पित कर दिया. जब
वे उनसे मिलने के लिए आगे बढ़ीं तब रत्नाकर ने अपनी पुत्री को विश्वकर्मा द्वारा
निर्मित दिव्य रत्न जटित "चूडामणि" प्रदान की ( जो सुर पूजित मणि से
बनी) थी. इतने में महालक्षमी का प्रादुर्भाव हो गया और लक्षमी जी ने विष्णु जी को
देखा और मन-ही- मन वरण कर लिया. यह देखकर
रत्नाकर नन्दिनी, मन ही मन अकुलाकर रह गईं. सब के मन की बात जानने वाले श्रीहरि रत्नाकर
नन्दिनी के पास पहुँचे और धीरे से बोले-", मैं तुम्हारा भाव जानता हूँ, पृथ्वी को भार- निवृत करने के लिए जब-जब मैं
अवतार ग्रहण करूँगा,
तब-तब तुम मेरी
संहारिणी शक्ति के रूप मे धरती पर अवतार लोगी. सम्पूर्ण रूप से तुम्हे कलियुग मे "श्री
कल्कि" रूप में अंगीकार करूँगा. अभी सतयुग है. तुम त्रेता, द्वापर में, त्रिकूट शिखर पर, वैष्णवी नाम से अपने अर्चकों की मनोकामना की
पूर्ति करती हुई तपस्या करो. तपस्या के लिए बिदा होते हुए रत्नाकर नन्दिनी ने
अपने केश पास से चूड़ामणि निकाल कर निशानी के तौर पर श्री विष्णु जी को दे दिया. वहीं पर साथ में इन्द्र देव खडे थे. इन्द्र चूड़ामणि पाने के लिए लालायित हो गये. विष्णु जी ने वो चूडामणि इन्द्र देव को दे दिया. इन्द्र देव ने उसे इन्द्राणी के जूड़े में
स्थापित कर दिया.
शम्बरासुर
नाम के एक असुर ने स्वर्ग पर चढाई कर दी. इन्द्र और सारे देवता युद्ध में उससे हार
के छुप गये. कुछ दिन बाद इन्द्र देव अयोध्या राजा दशरथ के पास पहुँचे. सहायता पाने
के लिए इन्द्र की ओर से राजा दशरथ कैकेई के साथ शम्बरासुर से युद्ध करने के लिए
स्वर्ग आये और युद्ध में शम्बरासुर दशरथ के हाथों मारा गया. युद्ध जीतने की खुशी
में इन्द्र देव तथा इन्द्राणी ने दशरथ तथा कैकेई का भव्य स्वागत किया और उपहार
भेंट किये. इन्द्र देव ने दशरथ जी को ” "स्वर्ग गंगा मन्दाकिनी के दिव्य हंसों के
चार पंख" प्रदान किये. इन्द्राणी ने कैकेई को वही दिव्य चूड़ामणि भेंट की और
वरदान दिया कि जिस नारी के केशपास में ये चूड़ामणि रहेगी, उसका सौभाग्य अक्षत–अक्षय तथा अखन्ड रहेगा और जिस राज्य में वो नारी रहेगी, उस राज्य को
कोई भी शत्रु पराजित नहीं कर पायेगा.
उपहार
प्राप्त कर राजा दशरथ और कैकेई अयोध्या वापस आ गये. रानी सुमित्रा के अदभुत प्रेम
को देख कर कैकेई ने वह चूड़ामणि सुमित्रा को भेंट कर दिया. इस चूड़ामणि की समानता
विश्वभर के किसी भी आभूषण से नहीं हो सकती थी. जब श्री राम जी का व्याह माता सीता
के साथ सम्पन्न हुआ. सीता जी को व्याह कर श्री राम जी अयोध्या धाम आये सारे रीति-
रिवाज सम्पन्न हुए. तीनों माताओं ने मुँह दिखाई की प्रथा निभाई. सर्वप्रथम रानी
सुमित्रा ने मुँह दिखाई में सीता जी को वही चूड़ामणि प्रदान कर दी. कैकेई ने सीता
जी को मुँह दिखाई में कनक भवन प्रदान किया. अंत में कौशिल्या जी ने सीता जी को
मुँह दिखाई में प्रभु श्री राम जी का हाथ सीता जी के हाथ में सौंप दिया. संसार में
इससे बडी मुँह दिखाई और क्या हो सकती थी. जनकजी ने सीता जी का हाथ राम को सौंपा और
कौशिल्या जी ने राम का हाथ सीता जी को सौंप दिया.
सीताहरण
के पश्चात माता सीता का पता लगाने के लिए जब हनुमान जी लंका पहुँचते हैं. उनकी
भेंट अशोक वाटिका में सीता जी से होती है. हनुमान जी ने प्रभु की दी हुई मुद्रिका
सीतामाता को देते हैं और कहते हैं –" मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा जैसे रघुनायक मोहि
दीन्हा". " चूडामणि उतारि तब दयऊ हरष समेत पवन सुत लयऊ" सीता जी ने वही चूड़ामणि उतार कर हनुमान जी को
दे दिया,
यह सोच कर कि यदि मेरे
साथ ये चूड़ामणि रहेगी, तो रावण का बिनाश होना सम्भव नहीं होगा. हनुमान जी लंका से
वापस आकर वो चूड़ामणि भगवान श्री राम को दे कर सीताजी के वियोग का हाल कह सुनाया.
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बुद्धिमान
हनुमान जी ने मन ही मन विचार किया कि रामजी ने मुझे अपना विशेष दूत बनाकर जिस
कार्य की सिद्धि के लिए लंका भेजा था, वह निर्विघ्न पूरा हो चुका है. यहाँ से जाने
के पूर्व मुझे कोई ऐसा कार्य अवश्य ही
करना चाहिए, जिससे लंकावासियों को भी यह ज्ञात हो सके कि राम का कोई दूत लंका आया
था. तभी उन्हें त्रिजटा की कहीं हुईं बाते याद आने लगी थीं. त्रिजटा ने ही बतलाया
था कि राम के भेजे हुए दूत ने संपूर्ण लंका को जला कर भस्मीभूत कर दिया है. जो
आदेश मुझे रामजी तब नहीं दे पाए थे, उन्होंने मुझे अपना आदेश त्रिजटा के मुख से
बोलकर दे दिया है. अब अगले क्रम में मुझे लंका जलाने के विषय पर सोचना चाहिए. वे
जान चुके थे कि राक्षसराज रावण को अशोक वाटिका अत्यधिक प्रिय है. इस वाटिका को
मुझे सबसे पहले उजाड़ना होगा. रावण तक पहुँचने का सुलभ मार्ग यहीं से होकर जाता है.
सुनहु
मातु मोहि अतिसय भूखा : लागि देखि सुंदर फल रूखा.
माता सीता
जी को दुरावस्था में देखकर उन्हें भूख-प्यास कैसे लग सकती थी?. फ़िर भी उन्होंने
अतिशय भूखा हूँ कहकर माता सीताजी से कहा- " हे माते ! इस वाटिका के वृक्षों में सूखे और मधुर फ़लों को
देखकर मुझे बड़ी भूख लग आयी है. यदि आप
आज्ञा दें तो मैं कुछ फ़ल खाकर अपनी क्षुधा शांत कर लूँ"
सीताजी ने
कहा-" हे पुत्र ! सुनो, इस वाटिका की रक्षा बड़े भारी योद्धा रखवाली करते हैं.
यदि उन्होंने तुम्हें देख लिया तो तुम्हारे साथ कुछ भी हो सकता है?. सम्भव है, वे
तुम्हें बंदी बना लेंगे अथवा जान से भी मार सकते हैं?."
हनुमानजी ने
कहा-" माते ! आप निश्चित रहें. मुझे इस राक्षसों से तनिक भी भय नहीं
लगता".
बल और
बुद्धि में हनुमान को निपुण जानकर उन्होंने कहा-" जाओ सुत ! हृदय में श्री
रघुनाथजी के चरणॊं को धरकर मधुर फ़ल खाऒ और आनन्द मनाओ."
फ़ल
खाएसि तरु तौरें लागा.
सीताजी की
आज्ञा पाकर वे बाग में घुस गए. कभी इस वृक्ष पर, तो कभी दूसरे वृक्ष पर चढ़कर वे फ़ल
तो कम खा रहे थे, उससे कहीं अधिक वृक्षों को उजाड़ रहे थे. वाटिका की अभिरक्षा में
तैनात कुछ राक्षसों ने देखा कि एक भारी बन्दर वाटिका में घुस आया है. वह फ़ल कम खा
रहा है लेकिन वृक्षो को अधिक नुकसान पहुँचा रहा है. वे अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर
उसे भगाने के लिए दौड़े.
राक्षसों को
अपनी ओर आता देख वे द्रुतगति से वृक्षों को उखाड़ने लगे. जब सैनिकों ने उन्हें ऐसा
करने से मना किया. कुछ उन्हें मारने दौड़े, तब वीर हनुमानजी ने क्रोधित होते हुए
कईयों को मार डाला. कुछ जान बचाकर भाग निकले. जो अपनी जान बचाकर भागे थे, उन्होंने
लंकापति रावण को जाकर इस समाचार से अवगत करवाना चाहा. वे सभी जानते थे कि लंकापति
रावण को अशोक वाटिका सबसे प्रिय है. उसी की रखवाली के लिए ही तो उसने, अनेक दावनों
को उस की सुरक्षा के लिए नियुक्त किया है. वे यह भी जानते थे कि लंकापति को जब यह
समाचार मिलेगा, तो अत्यन्त ही क्रोधित
होगा. निश्चित ही वह जानना चाहेगा कि हजारों में संख्या में तुम लोगों के
होते हुए, एक तुच्छ वानर ने बगिया को कैसे उजाड़ डाला?. जब वह पेड-पोधों को उखाड़
रहा था, तब तुम लोग क्या कर रहे थे? यह भी हो सकता है कि अत्यधिक क्रोध में आकर वह
हम सबको मौत के घाट भी उतार सकता है.
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हनुमान जी
ने अशोक वाटिका में इतना उत्पात क्यों मचाया.
अशोकवाटिका
मोहमयी वाटिका है. और इसमें लगा हुआ अशोक का वृक्ष संशय का प्रतीक है.रावण कुयोगी
है. एक ऐसा योगि जिसने शक्ति स्वरूपा सीताजी का हरण कर ले आया है. विचारने योग्य
बात है कि रावण शक्ति (सीता) को प्राप्त करना तो चाहता है, परन्तु भक्ति के नाथ,
शक्तिमान और ब्रह्म (राम) की वह उपेक्षा करता है. जो कभी संभव नहीं है. रावण एक
ऐसा योगी है जो शक्ति और शक्तिनाथ में भेद करता है. व्यक्ति को ब्रह्म को पाने के
लिए भक्ति की आवश्यकता होती है, किन्तु भक्ति अपहरण करने की वस्तु नहीं है. रावण
सीता का, भक्ति का अपहरण कर ब्रह्मराम को पाना चाहता है, जो कदापि संभव नहीं है
अर्थात व्यक्ति बिना भक्ति के ब्रह्म की प्राप्ति नहीं कर सकता, किंतु भक्ति के
होते हुए भी यदि व्यक्ति ब्रह्म की उपेक्षा करना चाहे तो उस पर भक्ति प्रसन्न नहीं
होती, और यह भक्ति ब्रह्म से मिलकर सुख की जगह विनाश को आमंत्रण देती है, जैसा कि
रावण के साथ हुआ.
अ+शोक=
अशोक वृक्ष संशय का प्रतीक है जिसके नीचे माता सीताजी बैठी हैं. इस मोह की वाटिका
में संशयरूपी अशोक वृक्ष पर जब हनुमानजी, जो विश्वास के मूर्तिमान हैं, बैठते हैं
तब जाकर सीताजी का दुःख दूर होता है. इससे पहले सीताजी के मन में घोर संशय था. तभी
तो उन्होंने हनुमानजी पर, उनकी शक्ति पर, राम पर, राम के प्रभाव पर और बंदरों पर
संदेह किया था. फ़ल खाने की आज्ञा मांगने पर भी वे संदेह करती हैं. यहां तक रामजी
की भेजी हुई अंगूठी पर भी संदेह करती हैं.
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वीर
हनुमानजी ने कुछ राक्षसों की बाँह उखाड़ डाली थी. किसी का एक पैर तोड़ डाला था. चोट
खाकर किसी का माथा फ़ट गया था. हर किसी का उन्होंने अंग-भंग कर दिया था. हर कोई
रक्त में सना हुआ था. किसी तरह लड़खड़ा कर चलते हुए वे राक्षराज रावण के दरबार में
पहुँचे.
इस समय
राक्षसराज रावण का दरबार सजा हुआ था. लंकापति अपने सिंहासन पर आरूढ़ होकर बैठा हुआ
था. कई नवयुवतियाँ उसके माथे पर चँवर डुला रही थी. अनेकों नव-यौवनाएं अपने
कोमल-कोमल हाथों में मदिरा के कलात्मक पात्र लिए खड़ी थीं, जिनमें नाना प्रकार की
मदिरा भरी हुईं थी. वे बारी-बारी से लंकापति के खाली होते पात्र में मदिरा डालती
जाती थीं.
नीचे विशाल
दरबार में सभी मंत्रीगण तथा सभासद अपने-अपने सिंहासनों पर बैठे हुए थे. दरबार को
खूब रौशन किया गया था. सभाकक्ष में अगर-तगर की भीनी-भीनी सुगंध चहुंओर फ़ैल रही थी.
अनेक सुन्दर नर्तकियाँ और अप्सराएँ अपनी काम-कलाओं की भंगिमाओं का प्रदर्शन करते
हुए, भाव-विभोर होकर नृत्य कर रही थीं. साहिन्दे (वाद्य-यंत्र बजाने वाले)
ढोलकिया, सारंगीवादक, तबला-वादक, शहनाई वादक मघुर संगीत से समूचे दरबार को
गूंजारित कर रहे थे.
इस्र
रास-रंग को भंग करते हुए सहसा सभी राक्षसगणॊं ने दरबार में प्रवेश किया.
दरबार में
प्रवेश करते हुए सभी ने सम्मिलित स्वर में कहा- "महाराजाधिराज लंकापति रावण
की जय हो..जय हो".ऐसा कहते हुए वे सभी उसके सन्मुख जाकर खड़े हो गए.
राक्षसों के
अचानक आ-धमकने से रंग में भंग पड़ गया था. साजिंदों के साज रुक गए थे. ढोलकिया का
हाथ उठा कि उठा रह गया था. झूम-झूम कर नृत्य कर रहीं अप्सरा में पाँव थम गए थे.
गवैये गाना छोड़कर अचानक धमक पड़े राक्षससमूह को देखकर विस्मित हो रहे थे कि ऐसा
क्या हो गया है कि बड़ी संख्या में राक्षसों का दल गुहार लगाता हुआ क्यों कर आ धमका
है? सभी के मन में तरह-तरह के प्रश्न अकुला रहे थे. कोई समझ नहीं पा रहा था कि आखिर
हुआ क्या है?.
राक्षसराज
रावण में जमकर मदिरा-पान किया था. अपनी सुध-बुध खोकर वह अप्सराओं के नृत्य देखने
में तल्लीन था. सहसा राक्षसों के दल ने दरबार में प्रवेश करते हुए उसके आनंद को
भंग कर दिया था. उसके माथे पर बल पड़ने लगे थे. भृकुटि तिरछी होने लगी थी. क्रोध जा
पारावार बढ़ने लगा था. चन्द्रहास तलवार की मूठ पर उसकी हथिलियां कसने लगी थी.
अत्यन्त ही
क्रोधित होते हुए उसने पूछा-" क्या तुम लोगों ने देखा नहीं कि इस समय हम
आमोद-प्रमोद में व्यस्त हैं? तुम सब अचानक
बिना मेरी अनुमति के दरबार में कैसे घुस आए?, अन्दर प्रवेश करते हुए तुम्हें
जरा-सा भी भय नहीं लगा?. बताओ...कैसे आना हुआ? सब कुशल-मंगल तो है न ?." रावण
जब क्रोधित होते हुए बोल रहा था, तब ऐसा प्रतीत हुआ मानो आकाश में बिजली कड़की हो.
उसकी इस गर्जना को सुनकर सभी राक्षसों के मन में भय व्याप्त हो गया था कि अब निश्चित
ही सभी मार दिए जाएंगे.
सिंहासन पर
आरूढ़ रावण देख रहा था. देख रहा था कि कुछ रक्त में सने हुए थे, कोई लंगड़ा कर चल कर
आया था. किसी का एक पैर नहीं था. किसी का एक हाथ टूटा हुआ था. उन्हें इस अवस्था
में देखकर वह समझ गया कि मामला काफ़ी गंभीर है.
"यह
मैं क्या देख रहा हूँ.....तुम लोगों की इस तरह दुर्दशा कैसे और किसने की? बताओ...
कौन है, वह दुस्साहसी, जिसने लंकापति रावण के सेवकों के अंग भंग कर दिए ? मुझे
सच-सच बताओ". रावण गरजा..
रावण की
गर्जना सुनकर सभी के मन में भय समा गया था.भय के चलते सभी के शरीर के अंग कांपने
लगे थे. जीभ तालु से जा चिपकी थी. शब्द ढूँढे नही मिल रहे थे.
रावण फ़िर
गर्जा-"तुम लोग चुप क्यों हो?. कुछ बोलते क्यों नहीं? "
"
महाराज.!..एक विशालकाय वानर अशोक वाटिका में घुस आया है. उसने समूची वाटिका को
तहस-नहस कर डाला है. जब हम उसे भगाने के
किए आगे बढ़े तो उसने हमारे सारे सभी वीर राक्षस-सैनिकों का देखते ही देखते
वध कर दिया है."
"
महाराज !. वह पेड़ों पर लगे फ़ल कम खा रहा है, लेकिन उससे कहीं ज्यादा पेड़ों को
उखाड़-उखाड़ कर फ़ेंक रहा है. हमने पूरा यत्न किया उसे मार भगाने का, लेकिन उसने
हमारे कई वीर सैनिकों को मार डाला है. हम किसी तरह अपनी जान बचाकर भाग निकले हैं.
रावण ने जब
अपने कानों से सुना कि वानर बड़ा ही बलवान है और उसने अशोक वाटिका को उजाड़ डाला.
इतना ही नहीं उसने मेरे अनेक रखवाले योद्धाओं को मार डाला है. पहले तो उसे विश्वास
ही नहीं हुआ. उसे लगा कि पहली बात तो यह कि मेरी सुरक्षा इतनी चाक-चौबन्ध है कि
देव हो या दानव अथवा कोई गन्धर्व ही क्यों न हो मेरी नगर में प्रवेश करने की कोई
सोच भी नहीं सकता. लेकिन आश्चर्य की बात है कि उसने मेरे अनेक बलवान सैनिकों को
कैसे मार डाला?. मनुष्य और वानर तो हम राक्षसों के स्वाभाविक आहार है. तो फ़िर अभी
तक मेरे राक्षस रखवाले, उस दुष्ट वानर को क्यों नही पकड़ पाए?. चलो, कोई बात नहीं, मैं अभी कुछ श्रेष्ठ योद्धाओं को भेजता
हूँ. वे उसका वध कर डालेंगे या उसे पकड़कर मेरे समक्ष प्रस्तुत करेंगे. लेकिन उस
रावण को क्या पता था कि वह कीट-पतंगों से कह रहा था कि जाओ गरुड़ को पकड़ कर लाओ.
भला यह कैसे संभव हो सकता था?.
रावण अपने
सैनिकों को "प्रमदावन" भेजता इसके पूर्व पवनपुत्र हनुमानजी ने अपना
भयानक पुरुषार्थ प्रकट करते हुए बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़-उखाड़ कर इधर-उधर फ़ेंकने
लगे. लतामण्डप और चित्रशालाएँ भी उन्होंने उजाड़ डालीं . वाटिका में पाले हुए हिंसक
जन्तु, मृग तथा तरह-तरह के पक्षी आर्तानाद करते हुए आकाश में मंडराने लगे. उनके
चिंचियाने का शोर समूची लंका में फ़ैल गया.
वीर
हनुमानजी जानते थे कि अशोक वाटिका राक्षसराज रावण को अतिप्रिय है. जब उसे इसके
उजाड़ दिए जाने का समाचार मिलेगा, तो अत्यधिक क्रोधित होकर वह अपने श्रेष्ठ
योद्धाओं को मुझसे लड़ने-भिड़ने और मुझे वाटिका से भगा देने का उपक्रम अवश्य करेगा.
अतः समस्त महाबलियों के साथ अकेले ही युद्ध करने का निर्णाय लेकर वे प्रमदावन के
फ़ाटक पर आ खड़े हुए. उन्होंने अपने शरीर को विशाल बना लिया था.
पक्षियों का
कोलाहल और वृक्षों के टूटने की आवाज सुनकर प्रमदावन में सोयी हुई विकराल मुखवाली
राक्षसियों की निद्रा टूटी. उठने पर उन्होंने देखा कि एक विशालकाय वानर, प्रमदावन
के फ़ाटक पर खड़ा हुआ है. वे समझ गयीं कि इस वाटिका को इसी वानर ने उजाड़ा होगा. भयभीत
राक्षसियों ने सीताजी को जाकर घेर लिया और पूछने लगीं-" हे देवी ! यह
विशालकाय वानर कौन है?. कहाँ से आया है और किस लिए आया है?. क्या तुम इसे पहचानती
हो?. निश्चित ही तुम इसे जानती होंगी, तभी तो इसने तुम्हारे साथ बातचीत की
है?."
राक्षसियों
की बातों को सुनकर साध्वी सीताजी ने कहा -" तुम सभी इच्छानुसार रूप धारण करने
वाली राक्षसियां हो. मै कैसे बतला सकती हूँ कि कौन-सी राक्षसी वानर का भेष बना कर
खड़ी है?. यह कौन है, मैं नहीं जानती और न ही इसे पहचान सकने का कोई उपाय मेरे पास
है. मैं स्वयं ही इस विशालकाय वानर को देखकर डरी हुई हूँ. मैं नहीं जानती, यह कौन
है?. मैं तो इसे इच्छानुसार रूप धारण करके आया हुआ कोई राक्षस ही समझती
हूँ.".
विशालकाय
वानर को देखकर राक्षसियों का डर जाना स्वाभाविक ही था. कुछ तो सीताजी को घेर कर
खड़ी रहीं, कुछ भागकर रावण को इसकी सूचना देने के लिए चली गयीं. रावण के समीप जाकर
उन्होने सूचना देते हुए बतलाया कि प्रमदावन में एक विशालकाय वानर घुस आया है. उसने
आपकी अतिप्रिय वाटिका को तहस-नहस कर डाला है. उन्होंने यह भी बतलाया कि उस चालाक
वानर ने उस स्थान में कोई तोड़-फ़ोड़ नहीं की, जहाँ जानकी रहती हैं. उसने उस अशोक
वृक्ष को छुआ तक नहीं, जिसके नीचे सीता बैठी रहती है. इस तरह से उसने सीता की
रक्षा ही की है. और तो और उस चालाक वानर ने उनसे बातचीत भी की थी. निश्चित ही वह
सीता का जान-पहचान वाला होगा."
ऐसा कहकर
राक्षसियाँ चुप हो गईं थीं. चुप रहकर वे देख रही थीं कि इतना भयानक समाचार सुनाने
के बाद रावण क्या सोचता है और कैसा आदेश देता है?. आदेश की प्रतीक्षा में वे अपना
सिर झुकाए मौन खड़ी थीं.
राक्षसियों
की बात सुनकर राक्षसराज रावण के नेत्रों से चिनगारियाँ फ़ूटने लगी थी. क्रोध में
उसके जबड़ों में कसाव आने लगा था. शरीर में कंपन होने लगा था. वह बार-बार अपनी
हथेलियों को जोर-जोर से सिंहासन के हत्थे पर पटक रहा था.
लगभग चीखते
हुए उसने किंकर नामक दैत्य को, जो उसी के समान वीर था, अपने पास बुलाया और आज्ञा
दी कि उस दुष्ट वानर को पकड़कर मेरे समक्ष उपस्थित करे.
अपने स्वामी
की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए वह अस्सी हजार वेगवान योद्धाओं को लेकर महल से
बाहर निकला. सभी योद्धाओं के पास नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र थे. वे सभी
प्रमदावन के फ़ाटक पर खड़े वीर हनुमानजी की ओर तेजी से दौड़े और उन्हें चारों ओर से
घेर लिया और उन पर टूट पड़े.
हनुमानजी के
घोर गर्जना करते हुए अपनी पूँछ फ़टकारने लगे. पूँछ फ़टकारने का गम्भीर घोष दूर-दूर
तक गूंज उठा. फ़िर उन्होंने उच्च स्वर में अपने प्रभु श्रीरामचन्द्र और महाबली
लक्ष्मण जी और अपने राजा महाराज सुग्रीव का नाम लेकर जयघोष किया और कहा-"
दुष्टों ! ठहरो...मैं कोशलनरेश श्रीरामचन्द्र जी का दास हूँ. मैं वायु का पुत्र
तथा शत्रुसेना का संहार करने वाला हनुमान हूँ. मैं अभी तुम सब लोगों का संहार कर
तथा संपूर्ण लंका को तहस-नहस कर माता सीताजी को अपना प्रणाम निवेदित कर लौट
जाऊँगा.
ऐसा कहते
हुए उन्होंने लोहे के फ़ाटक को उखाड़ डाला और उसे तेजी से घुमाते हुए समस्त राक्षसों
का वध कर दिया और पुनः उसी स्थान पर आकर खड़े हो गए. जो थोड़े-बहुत राक्षस बच रहे
थे, वे तेजी से भागते हुए राक्षसराज रावण के दरबार में जा पहुँचे और उसे समाचार कह
सुनाया कि महाबली किंकर के सहित उस वीर वानर ने समस्त राक्षसों का पल भर में मौत
की नींद सुला दिया है.
समाचार
सुनकर रावण का क्रोध सांतवे आसमान तक जा पहुँचा. उसने अपने पुत्र प्रहस्त को आज्ञा
दी कि वह तत्काल हजारो की संख्या में वीर
सैनिकों को लेकर जाए और उस वानर को पकड़ कर अथवा उसे मार डालने का आदेश दिया.
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प्रहस्त-
एक
शक्तिशाली योद्धा और रावण की सेना का मुख्य सेनापति था. वह सुमाली और केतुमति का
पुत्र था. अपने अगले जन्म में, प्रहस्त का पुनर्जन्म होता है और वह महाभारत में
पुरोचन के रूप में दुर्योधन का भरोसेमंद सहयोगी के रूप में था.
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प्रहस्त
अपनी सेना लेकर पहुँचे इससे पूर्व महाबली हनुमानजी ने राक्षसों के कुलदेवता का
चैत्यप्रासाद (मंदिर) पर जा चढ़े और तोडफ़ोड़ करने लगे. तभी उन्होंने राक्षसों की एक
बड़ी सेना को अपनी ओर आते देखा. देखते ही उन्होंने घोर गर्जना की और घोषणा करते हुए
कहा-" आओ...आओ... तुम सभी तत्काल ही काल के गाल में समा जाओगे. ऐसा कहते हुए
उन्होंने एक सुवर्णजड़ित खंबे को उखाड़ लिया और उसे घुमाना आरम्भ किया. देखते ही
देखते उन्होंने उस खंबे से सारे असुरों का
संहार कर दिया.
राक्षसराज
रावण की आज्ञा पाकर प्रहस्त का बलवान पुत्र जम्बुमाली अपनी विशाल सेना को लेकर महल
के बाहर निकला. वीर हनुमानजी ने अपना पराक्रम दिखाते हुए उस विशाल सेना सहित जम्बुमाली
तथा किंकर का वध कर दिया.
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जम्बुमाली-
जंबुमाली दानव प्रहस्त
का पुत्र था और शराब की झील में रहता था. रावण ने उसके लिए शराब की एक झील बनायी, क्योंकि वह बेचैन था और थोड़ी- सी बहस पर लड़ाई किया करता
था. अन्य राक्षस शक्तिशाली
राक्षस के क्रोध का सामना करने में असमर्थ थे.
जंबुमाली को रावण के
सैनिकों द्वारा जगाया गया और उसे लंका की गंभीर स्थिति से अवगत कराते हुए बतलाया
कि किस तरह से हनुमान ने महान बलवान राक्षसों का संहार कर दिया है.
जंबुमाली शीघ्र ही
रावण के दरबार में पहुँचा. राक्षसराज रावण
ने हनुमान को मारने के लिए कहा. जंबुमाली अशोक वाटिका पहुँचा, जहाँ हनुमान को आखिरी बार देखा गया था.
जम्बुमाली राक्षस ने
हनुमान पर तीरों की बरसात की लेकिन उनका हनुमानजी
पर कोई असर नहीं पड़ा. क्रोधित होते
हुए उसने पेड़ों और चट्टानों से हनुमान जी
पर आक्रमण किया, लेकिन हनुमान पर इन सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ा.
जंबुमाली ने अपने आकार
में वृद्धि की. हनुमानजी अब केवल उसके
घुटनों तक थे. जंबुमाली ने हनुमान को कुचलने के बारे में सोचा. तभी हनुमानजी ने अपना आकार जंबुमाली से भी बड़ा कर दिया .
अब जंबुमाली हनुमान के
पैर की ऊँगली जितना ही रह गया, जंबुमाली ने अपना प्राकृतिक रूप लिया और हनुमान को चुनौती
दी. हनुमान ने भी अपना
सामान्य रूप ले लिया.और दोनों एक दूसरे पर चट्टानों और पेड़ों से हमला करने लगे. जम्बुमाली को अनेक प्रकार के पराक्रम दिखाने के बाद हनुमानजी
ने एक लोहे की गदा उठाई और जंबुमाली को मार गिराया.
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रावण ने जब प्रहस्त के पुत्र जम्बुमाली के मारे जाने का दुःखद समाचार
को सुना, तो वह क्रोध में आगबबुला हो उठा. उसे अब लगने लगा था कि वानर वाकई में
भारी बलवान है, तो वह क्रोध में तिलमिलाने लगा था. उसने अपने मंत्री के सात
पुत्रों को, जो बड़े पराक्रमी और बलवान थे,युद्ध के लिए जाने की आज्ञा दी.
राक्षसों के राजा रावण की आज्ञा पाकर मंत्री के सात बेटे, जो अग्नि
के समान तेजस्वी थे,महल से बाहर निकले और हनुमानजी पर टूट पड़े. हनुमानजी ने कुछ ही
समय में मंत्री के सातों पुत्र को मार डाला. जब यह समाचार रावण ने सुना तो उसका
क्रोध सातवें आसमान पर जा पहुँचा. उसने तत्काल अपने पांच सेनापतियों- विरुपाक्ष,
यूपाक्षा, दुर्घर, प्रघस, और भासकर्ण को बुलाया और आज्ञा दी वे शीघ्रता से उस
बलवान वानर का वध कर दें अथवा उसे घेर कर पकड़ लें.
वानरशिरोमणि पवनकुमार ने सैनिकों के टिड्डी-दल को देखते हुए अपना आकार
विशाल कर लिया. फ़िर उन्होंने अनेक प्रकार के युद्ध-कौशल को दिखाते हुए सभी का
सफ़ाया कर दिया. मरे हुए हाथियों, तीव्रगामी
घोड़ों से, विशाल रथों से तथा मारे गए राक्षसों की लाशों से वहाँ की सारी भूमि चारों ओर से इस तरह पट गयी
थी कि आने-जाने का रास्ता बंद हो गया था.
इस प्रकार सेना और वाहनों के सहित उन पाँचों वीर सेनापतियों को
रणभूमि में मौत के घाट उतारकर वीर हनुमान पुनः उस फ़ाटक के पास आकर खड़े हो गये. उस
समय वे काल के समान जान पड़ते थे.
हनुमानजी के द्वारा पाँचों सेनापतियों के सहित सेवकों को मारा
गया सुनकर राक्षसराज रावण ने अपने सबसे
छोटे बेटे अक्षयकुमार की ओर देखा. देखा कि वह युद्ध के लिए उद्धत और उत्कंठित जान
पड़ता था. रावण उससे कुछ कहे इससे पूर्व अक्षयकुमार अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और
अपने पिता से कहने लगा कि मुझे रणभूमि में जाने की आज्ञा दें. मैं उस वानर को मार
कर अथवा बंदी बनाकर आपके समक्ष ला खड़ा कर दूँगा.
अपने पुत्र की वीरता को रावण भली-भाँति जानता था. उसने उसका उत्साह
बढ़ते हुए कहा-" पुत्र अक्षय ! मैं तुम्हारी वीरता और पराक्रम से भली-भाँति
परिचित हूँ. मुझे तुम पर पूरा विश्वास है कि तुम उस दुष्ट वानर को रणभूमि में मार
गिराओगे या फ़िर उसे पकड़ कर मेरे समक्ष लाकर प्रस्तुत करोगे."
" जाओ वीर अक्षयकुमार.!...हम तुम्हें आशीर्वाद देते हैं और
कामना करते हैं कि तुम अपने बल और पराक्रम से उस वानर पर विजय प्राप्त करोगे. जाओ
पुत्र जाओ, हम तुम्हारी जीत के लिए कामनाएं करते है."
अक्षयकुमार को भारी तपस्या करने के पश्चात एक दिव्य रथ प्राप्त हुआ
था, जो सोने का बना हुआ था. उस रथ में आठ घोड़े जुते हुए थे. देवता और असुर कोई भी
उस रथ को नष्ट नहीं कर सकते थे. उस रथ की गति को कोई रोक नहीं सकता था. वह रथ
बिजली के समान प्रकाशित होता था. वह रथ धरती पर चलने के अलावा आकाश में भी चलता
था. रथ में नाना प्रकार के आयुधों सहित शक्ति, तोमर ,तरकश, तलवार आदि क्रम से रखे
हुए थे. अपने दिव्य रथ पर सवार होने के पश्चात वह सूर्य के समान तेजस्वी और
देवताओं के तुल्य जान पड़ता था.
कड़ी तपश्चर्या से प्राप्त हुए उस दिव्य रथ पर, रावण का सबसे
लाड़ला-दुलारा पुत्र अक्षयकुमार सवार हुआ. उसके रथ के आगे सैकड़ों राक्षस रणभेरी,
दुदुंभि, बांकिया और नगाड़े बजाते हुए चल रहे थे, जिससे भयंकर शोर उत्पन्न हो रहा
था.
रथ के पीछे अनगिनत राक्षसों की सेना चल रही थी. सभी ने अपने-अपने
हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण कर रखे थे. रावण पुत्र अक्षयकुमार ने
वीर हनुमान जी को मात्र एक साधारण वानर समझ रखा था. उसका अपना अनुमान था कि रणभेरी, दुदुंभि, बांदिया और नगाड़ों की ध्वनि
सुनकर वह वानर भयभीत होकर भाग जाएगा. यदि नहीं भाग पाया तो उस पर बलप्रयोग करना
होगा. यदि बलप्रयोग से भी वह मारा नहीं गया तो फ़िर उसे पकड़ने के अनेक सैनिकों ने
बड़े-बड़े जाल भी साथ में रख लिए थे.
रणभेरी, दुदुंभि, बांकिया और नगाड़ों के भयंकर शोर से समूची अशोक
वाटिका कांप-सी उठी थी. वीर हनुमानजी ने अपने शरीर को अत्यन्त ही छोटा बना लिया था
और एक वृक्ष पर आराम से बैठते हुए सुस्वादु फ़लों का स्वाद चख रहे थे.
अशोक वाटिका में पहुँचकर वीर अक्षय कुमार ने अपने पिता की सबसे प्रिय
वाटिका की दुर्दशा को देखा. देखा कि कई बड़े-बड़े वृक्षों को उस छोटे-से वानर ने
उखाड़ फ़ेंका है. विध्वंश हुई वाटिका को देख कर उसके क्रोध का पारावार बढ़ने लगा था.
मुठ्ठियां कसने लगी थी. जबड़ों में कसाव हो आया था. आँखों से अंगारे बरसने लगे थे.
अत्यन्त क्रोधित होते हुए उसने चारों
दिशाओं का सुक्ष्मता से निरीक्षण किया, लेकिन उसे कहीं भी वह वानर दिखलाई
नहीं पड़ा, जिसे पकड़ने अथवा मार डालने के उद्देश्य से वह भारी सेना को लेकर आया था.
उसने अपने सैनिकों को पास बुलाया और कहा- " मुझे तो वह वानर
कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा है. क्या वह तुम्हें कहीं दिखाई दिया?."
"नहीं....कुमार ! हमें तो वह कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा है.
संभव है रणभेरी की भयानक आवाज सुनकर भाग गया हो."
" बालक ! तुम किसे खोज रहे हो?. मैं तो तुम्हारे ही सामने ही
खड़ा हुआ हूँ." कहते हुए हनुमानजी वृक्ष से उछल कर कूद पड़े और अक्षय के समक्ष
जा खड़े हुए.
" अच्छा तो तुम वही वानर हो, जिसने हमारी वाटिका को उजाड़ डाला
है?. मुझे तो आश्चर्य इस बात पर हो रहा है कि इतना छोटा प्राणी, विशाल वृक्षों को
कैसे उखाड़ सकता है?. बड़ी-बड़ी शिलाओं को उठाकर कैसे फ़ेंक सकता है?. सच-सच बताओ?
हमारी लंका चारों से इतनी सुरक्षित है कि पवनदेव भी बिना हमारी आज्ञा के अन्दर प्रवेश करने से पहले
दस बार सोचते हैं. तुम इस पुरी में कैसे घुस आए?. तुम इस क्षेत्र के प्रतीत नहीं
होते?.कहीं तुम मायावी वानर तो नहीं हो?.आखिर तुम हो कौन? मुझे अपना परिचय
दो." अक्षय कुमार ने हनुमानजी से कहा.
" अच्छा तो तुम मेरा परिचय जानना चाहते हो?. सुनो, मैं रामदूत
हनुमान हूँ.माता सीता की खोज में मैं यहाँ आया हुआ था. मैंने उन्हें खोज निकाला
है.अब तुम अपना परिचय दो." हनुमानजी ने जानना चाहा.
" हे वानर ! मैं लंकापति रावण का सबसे छोटा पुत्र अक्षयकुमार
हूँ. तुम जैसे उपद्रवी वानर को जीवित पकड़ने के लिए मैं यहाँ आया हुआ हूँ."
" अच्छा...तो तुम मुझे पकड़ने के लिए आए हो...तुम्हारी जैसी
इच्छा." हनुमानजी ने कहा.
अक्षयकुमार ने अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि वे जाल फ़ेंक कर इस दुष्ट
वानर को पकड़ लें. आज्ञा पाते ही सैनिकों ने जाल को उछालकर हनुमानजी की ओर फ़ेंका.
जाल उन तक पहुँचे, इससे पहले ही वे उछलकर दूर जाकर खड़े हो गए. सैनिक भारी-भरकम जाल
को उठाकर उस ओर जाते, तब तक वे दूसरी ओर जाकर खड़े हो जाते.
उपद्रवी वानर की इन हरकतों को देखकर अक्षयकुमार का क्रोध बढ़ने लगा .
क्रोधित होते हुए उसने अपना धनुष उठाया. बाण चढ़ाया और लक्ष्य लेकर छोड़ दिया. बाण
उन तक पहुँचे इससे पूर्व हनुमानजी अन्यत्र चले जाते. उसने अनेकों बार लक्ष्य लेकर
बाण चलाए, लेकिन वीर हनुमान अपने को बचा ले जाते. उन्हें इस तरह विनोद करते हुए
अत्यन्त ही आनंद हो रहा था.
हनुमानजी ने
एक विशाल पेड़ को उखाड़ा और भयंकर ध्वनि निकालते हुए अक्षयकुमार को ललकारा.
अक्षयकुमार ने हनुमानजी की ओर देखा और अपने सैनिकों से कहा-" अरे यह वही वानर
है, जिससे तुम लोग भय खा रहे हो. भला जो वानर युद्ध ही पेड़-पौधों को आधार बना करके
युद्ध कर रहा हो, वह भला कहाँ का योद्धा?. यह तो जंगली है और यह जंगली जीव, मुझे
एक ही गुण में निपुण दिखाई प्रतीत हो रहा है. यह उछलकूद में हमसे आगे हो सकता है,
लेकिन बल व सामर्थ में नहीं. देखो तो, मंद बुद्धि वानर मुझे देखकर गर्जना कर रहा
है, लेकिन इसे क्या पता कि मैं भी अक्षय कुमार हूँ. मुझे भला ये चंचल वानर क्या
मारेगा? इसे तो मैं अभी पल भर में ही मसल देता हूँ. लेकिन इसे मारने का क्या लाभ,
उलटे अपयश ही होगा कि अक्षय कुमार ने मारा भी तो एक वानर?. यदि इसके स्थान पर कोई
देव, दानव अथवा कोई बलवान राक्षस होता तो कुछ और ही आनंद आता. अब इस अभद्र वानर को
मारने से मेरे नाम को बट्टा ही लगेगा. लेकिन पिताश्री की आज्ञा से मुझे कड़वा घूँट
भी पीना पड़ेगा.
अक्षय कुमार
मन ही मन प्रसन्न हो रहा था, लेकिन उसे क्या पता थी कि जिन हनुमानजी को वह एक
साधारण-सा तुच्छ वानर समझ रहा था, वास्तव में वह उसके बाप का भी बाप है. बाप इसलिए
कि श्री हनुमानजी तो भगवान शंकरजी के अवतार हैं और भगवान शंकर रावण के गुरु जो
ठहरे. सिद्धांत के अनुसार हनुमानजी रावण के पिता तुल्य हुए.
अक्षय कुमार
को लगा कि मैं अभी इस वानर का वध कर देता
हूँ. लेकिन उसे क्या पता था कि हनुमानजी ने अभी-अभी जो विशाल वृक्ष उखाड़ा था, वह
बगिया उजाड़ने के लिए नहीं था. बल्कि वह राक्षसों के जीवन की ही बगिया उजाड़ने के लिए
था.
उस विशाल
वृक्ष को वीर हनुमानजी जी उसे जोर-जोर से घुमाने लगे, जैसे वे अपनी गदा को घुमाया
करते थे. उस वृक्ष से उन्होंने अनेक दानवों को मार गिराया. अपने शूरवीर और बलवान
राक्षसों को वध होता हुआ देखकर अक्षयकुमार ने क्रोधित होते हुए हनुमानजी के ललाट
पर लक्ष्य साध कर तीन बाण मारे. उस समय वीर हनुमान अपनी काया का विस्तार करने में
लगे थे.
अक्षयकुमार
के बाण लगने के पश्चात वे भयानक आकृति धारण कर वायु में उछल गए, लेकिन अक्षयकुमार
अपने तीखे बाणॊं से लगातार वर्षा करता हुआ उनके पीछे-पीछे गया, किन्तु हनुमानजी ने
कुशलतापूर्वक आकाश में उसे भ्रमित कर दिया. तभी अकस्मात एक बाण हनुमानजी की छाती
में आ लगा.
हनुमान जी
ने अन्य राक्षसों को शायद सँभलने का भी अवसर दिया था. लेकिन अक्षय कुमार को तो
उन्होंने अवसर ही नहीं दिया. पलक झपकते ही उन्होंने उस वृक्ष के प्रहार से उसे
बुरी तरह से घायल कर दिया. घायल हो जाने के बाद भी उसने हनुमान जी पर कई बाण
छोड़े,लेकिन हनुमानजी पर कोई असर नहीं हुआ. वह लगातार बाण चलाता रहा. उसके इस
प्रयास को देखकर हनुमानजी उसकी मन ही मन प्रशंसा करने लगे.
अपने शत्रु
के बाणॊं से स्वयं को बचाते हुए हनुमानजी मन ही मन स्वयं से सवाल पूछ रहे थे कि
बालक अक्षयकुमार एक कुशल योद्धा होने के साथ ही शक्तिशाली भी है. क्या ऐसे योद्धा
को उसे मारना क्या सच में सही होगा?. किन्तु अंत में उन्होंने निर्णय लिया कि धर्म
के मार्ग में कुछ भी सही-गलत नहीं होता.जो धर्म है वही सही धर्म है. पवनपुत्र
हनुमानजी अपने विचार को दृढ़ कर ही रहे थे कि अक्षय कुमार का बल बढ़ता ही जा रहा था.
अतः
हनुमानजी ने अक्षय कुमार को मारने का निर्णय कर ही लिया. वह वायु की तेज गति से
उसके रथ पर कूदे और उसे पूरी तरह से नष्ट कर दिया. रथ में जुते हुए घोड़ों सहित
सारथी भी मारे गए और अक्षयकुमार दूर जा गिरा.
इसके बाद
दोनों के बीच द्वंद्व युद्ध हुआ. तत्पश्चात वीर हनुमानजी ने अक्षय कुमार को पैरों
की ओर से पकड़ लिया तथा सहस्त्रों बार घुमाते हुए उसे प्रचण्ड गति से धरती पर पटक
दिया, जिससे उसके सभी अंग नष्ट हो गये और छाती कुचली गयी, रक्त वमन करता हुआ वीर
अक्षय कुमार ने अपने प्राण त्याग दिये.
अपने प्यारे
पुत्र की मृत्यु का संदेश जैसे ही रावण के पास पहुँचा तो वह हताश हो गया. यह उसके
लिए अपमानजनक बात भी थी, क्योंकि कोई वानर उसी के क्षेत्र में प्रवेश कर, उसी की संपत्ति को हानि पहुँचा रहा था.
लेकिन रावण ने फ़िर से हार न मानने का फ़ैसला किया.
तदनन्तर वीर
हनुमानजी के द्वारा अक्षयकुमार के मारे जाने पर रावण ने देवताओं के तुल्य पराक्रमी
कुमार इन्द्रजीत (मेघनाथ) को बुला भेजा.
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मेघनाथ
मेघनाद' अथवा इन्द्रजीत रावण के पुत्र का नाम है. अपने पिता की तरह यह भी स्वर्ग विजयी था. इंद्र को परास्त करने के कारण ही ब्रह्मा जी ने इसका नाम इन्द्रजीत रखा था . इसका नाम उन योद्धाओं में लिया
जाता है जो की ब्रह्माण्ड अस्त्र, वैष्णव अस्त्र तथा पाशुपात अस्त्र के धारक कहे
जाते हैं. इसने
अपने गुरु शुक्राचार्य के सान्निध्य में रहकर तथा त्रिदेवों द्वारा कई
अस्त्र- शस्त्र एकत्र किए.
स्वर्ग में देवताओं को हरा कर उनके अस्त्र-शस्त्र पर भी अधिकार कर
लिया था.
मेघनाद पितृ-भक्त पुत्र था. उसे यह पता चलने पर
की राम स्वयं भगवान है, फिर भी उसने पिता का साथ नही छोड़ा. मेघनाद की भी
पितृभक्ति प्रभु राम के समान अतुलनीय है. जब उसकी माँ मन्दोदरी ने उसे यह कहा कि मनुष्य मुक्ति की ओर अकेले
जाता है. तब उसने कहा कि पिता को ठुकरा कर अगर मुझे स्वर्ग भी मिले तो मैं ठुकरा
दूँगा.
मेघनाद रावण और मन्दोदरी का सबसे ज्येष्ठ पुत्र
था. क्योंकि रावण एक बहुत बड़ा ज्योतिषी भी था जिसे एक ऐसा पुत्र चाहिए था जो कि अजर, अमर और अजेय हो, इसलिए उसने सभी ग्रहों को अपने पुत्र कि
जन्म-कुण्डली के 11 वें (लाभ स्थान) स्थान पर रख दिया, परन्तु रावण कि प्रवृत्ति से परिचित शनिदेव 11 वें स्थान से 12 वें स्थान (व्यय/हानी स्थान) पर आ गए, जिससे
रावण को मनवांछित पुत्र प्राप्त नहीं हो सका. इस बात से क्रोधित रावण ने शनिदेव पर
पैर से प्रहार किया था.
मेघनाद के गुरु असुर-गुरु शुक्राचार्य थे. किशोरावस्था (12 वर्ष) कि आयु होते-होते इसने अपनी कुलदेवी निकुम्भला के मन्दिर में अपने गुरु से दीक्षा लेकर कई सिद्धियाँ
प्राप्त कर लीं . एक दिन जब रावण को इस बात का पता चला तब वह असुर-गुरु
शुक्राचार्य के आश्रम में पहुँचा. उसने देखा कि असुर-गुरु शुक्राचार्य मेघनाद से
एक अनुष्ठान करवा रहे हैं. जब रावण ने
पूछा कि यह क्या अनुष्ठान हो रहा है, तब आचार्य शुक्र ने बताया कि मेघनाद ने मौन व्रत लिया है.
जब तक वह सिद्धियों को अर्जित नहीं कर लेगा, मौन धारण किए रहेगा. अन्ततः मेघनाद अपनी कठोर तपस्या में
सफल हुआ और भगवान शिव ने उसे दर्शन दिए. भगवान शिव ने उसे कई सारे अस्त्र-शस्त्र, शक्तियाँ और सिद्धियाँ प्रदान की. परन्तु उन्होंने मेघनाद
को सावधान भी कर दिया कि कभी भूल कर भी किसी ऐसे ब्रह्मचारी का दर्शन ना करे जो 12 वर्षों से कठोर ब्रह्मचर्य और तपश्चार्य का पालन कर रहा हो
. इसीलिए भगवान श्रीराम जी ने लक्ष्मण जी से 12 वर्ष तक कठोर तपस्या करवाई थी.
वरदान पाने के बाद
मेघनाद एक बार फिर से असुर गुरु शुक्राचार्य की शरण में गया और उनसे पूछा उसे आगे
क्या करना चाहिए . तब असुर-गुरु शुक्राचार्य ने उसे सात महायज्ञों की दीक्षा दी
जिनमें से एक महायज्ञ भी करना बहुत कठिन है. यह भी कहा जाता है कि मेघनाद का नाम
उन योद्धाओं में लिया जाता है जो कि आदिकाल से इन महायज्ञ को करने में सफल हो पाए
हैं.
ऐसा भी कहा जाता है कि
भगवान श्रीविष्णु जी, रावण पुत्र मेघनाद और सूर्यपुत्र कर्ण के अतिरिक्त आदिकाल
से ऐसा कोई नहीं है जो वैष्णव यज्ञ कर पाया हो .
देवासुर
संग्राम के समय जब रावण ने सभी देवताओं को इन्द्र समेत बन्दी बना लिया था और
कारागार में डाल दिया था, उसके कुछ समय बाद एक समय सभी देवताओं ने मिलकर कारागार से भागने का निश्चय
किया और साथ ही साथ रावण को भी सुप्त अवस्था में अपने साथ बन्दी बनाकर ले गए.
परन्तु मेघनाद ने पीछे से अदृश्य रूप में अपने दिव्य रथ पर आरूढ़ होकर देवताओं पर
आक्रमण किया देव सेनापति भगवान कार्तिकेय ठीक उसी समय देवताओं की रक्षा के
लिए आ गए परन्तु मेघनाद को नहीं रोक पाए. मेघनाद ने, न केवल देवताओं को पराजित किया, अपितु अपने
पिता के बन्धन खोलकर और इन्द्र को अपना बन्दी बनाकर वापस लंका ले आया.
जब रावण जागा
और उसे सारी कथा का ज्ञान हुआ तब रावण और मेघनाद ने यह निश्चय किया इन्द्र का अन्त
कर दिया जाये, परन्तु ठीक उसी समय भगवान ब्रह्मा जी लंका में प्रकट हुए और उन्होंने
मेघनाद को आदेश दिया कि वह इन्द्र को मुक्त कर दे. मेघनाद ने यह कहा कि वह कार्य केवल तभी करेगा
जब ब्रह्मदेव उसे अमरत्व का वरदान दे, परन्तु
ब्रह्मदेव ने यह कहा यह वरदान प्रकृति के नियम के विरुद्ध है परन्तु वह
उसे यह वरदान देते हैं कि जब आपातकाल में कुलदेवी निकुम्भला का तान्त्रिक यज्ञ
करेगा तो उस एक दिव्य रथ प्राप्त होगा और जब तक वह उस रथ पर रहेगा तब तक कोई भी ना
से परास्त कर पाएगा और ना ही उसका वध कर पाएगा.
परन्तु उसे एक बात का ध्यान रखना होगा कि जो उस यज्ञ का बीच में ही विध्वंस
कर देगा वही उसकी मृत्यु का कारण भी बनेगा. इसके साथ ही साथ ब्रह्मदेव ने यह वरदान
भी दिया कि आज से मेघनाद को इन्द्रजीत कहा जाएगा, जिससे इन्द्र की ख्याति सदा- सदा
के लिए कलंकित हो जाएगी .
लंकापति रावण का पुत्र मेघनाथ
जिसे देव अस्त्रों का ज्ञान था, जिससे वह बलशाली हो गया था. वह एक अकेला ऐसा वीर
था जिसके पास ब्रह्मास्त्र समेत पशुपत्रास्त्र और वैश्णववास्त्र थे. यही कारण था
कि वह अकेला रामजी की पूरी सेना पर भारी था. दानव और देवों के बीच हुए एक युद्ध
में उसने अकेले ही इन्द्र जैसे देवों के शक्तिशाली इन्द्र को पराजित किया था.
मेघनाथ का विवाह वासुकी नाग की
पुत्री सुलोचना से हुआ था. सुलोचना सर्प कन्या थीं. इस प्रकार मेघनाथ शेषावातार
लक्ष्मण के दामाद थे.
जब मेघनाथ बड़ा हुआ तो उसने
शुक्राचार्य की मदद से अपनी कुलदेवी निकुंभला के समक्ष सात यज्ञ पूरे किए. इससे
उसे कई शस्त्र वरदान में मिले, जिसमें एक दिव्य रथ था, जो किसी भी दिशा में मेघनाथ
के दिमाक की शक्ति से उड़ सकता था. उसी के साथ उसे एक अक्षय तरकश और एक दिव्य धनुष
मिला था, जिसमें तीर कभी खत्म नहीं होते थे
भगवान ब्रह्माजी से उसे सबसे
बड़ा ब्रह्मास्त्र, भगवान विष्णु का सर्वोत्तम नारायण अस्त्र और भगवान शिवजी से शिव
का सर्वोच्च पशुपति अस्त्र मिला था. इन तीनों अस्त्रों को प्राप्त कर वह अपने पिता
रावण से भी अधिक शक्तिशाली बन गया था.
मेघनाथ धनुर्विद्या, मायावी
शक्तियाँ प्राप्त थीं. इन्द्र पर विजय, हनुमानजी को बंदी बनाना,( राम-लक्ष्मण को
दो बार युद्ध में पराजित किया था- इसका वर्णन आगे पढ़ने को मिलेगा.) कहते है
कि मेघनाथ का जन्म हुआ था तब वह मेघ गर्जना के समान रोया था. इसी कारण से
उसका नाम मेघनाथ रखा गया था. इन्द्र को परास्त करने के कारण वह इन्द्रजीत कहलाया.
दरअसल में मेघनाथ का मूल नाम घननाद था. इन्द्र को पर्राजित करने के बाद उसे
इन्द्रजीत के अलावा वासवजीत,शक्रजीत-इंद्र कहा गया.
मेघनाथ अपने पिता की तरह ही
स्वर्ग विजेता था.यही एकमात्र ऐसा योद्धा था जिसे अतिमहारथी की उपाधि दी गई थी.
वरदान से प्राप्त रथ पर अत्यधिक निर्मरता, अगस्त्य द्वारा बनाए गए कुछ नए
दिव्यास्त्रों जैसे सूर्यास्त्र, एन्द्रास्त्र आदि से अनिभिज्ञता ही उसकी पराजय और
मृत्यु का कारण बनी. इन्द्राजीत का वध करना देवताओं के लिए भी संभव नहीं था. उसे
तो केवल लक्ष्मण जैसा महायोगी ही मार सकता था.
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गर्वीले मेघनाथ ने रावण के दरबार
में पहुँच कर अपने पिता को प्रणाम किया और सविनय जानना चाहा कि उसे किस निमित्त
बुलाया गया है?.
तब राक्षसराज रावण ने उसे इस
प्रकार आज्ञा देते हुए कहा-" बेटा ! तुमने परमपिता ब्रह्माजी की आराधना करते
हुए अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है. तुम अस्त्रवेत्ता,
शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ तथा देवताओं और असुरों को पीड़ा देने में सक्षम हो. इन्द्रसहित
सम्पूर्ण देवताओं के समुदाय में तुम्हारा पराक्रम देखा गया है."
" इन्द्र सहित समस्त देवता
और मरुद्गगण भी समरभूमि में तुम्हारे अस्त्र-शस्त्रों का सामना नहीं कर सकते.तीनों
लोकों में तुम्हीं एकमात्र योद्धा हो, जो लगातार युद्ध करने के बाद भी थकता नहीं है."
" हे पुत्र ! हमारी सबसे
प्रिय अशोक वाटिका में एक विशाल वानर घुस आया है. उस एक अकेले वानर ने अतिपराक्रमी
किंकर,जम्बुमाली,, मंत्रियों के सातों पुत्र, मेरे विशेष पाँच सेनापति, मेरा
प्यारे पुत्र अक्षयकुमार के सहित बहुत से हाथियों, घोड़ों,रथों और बल-वीर्य से
संपन्न सेनाओं का संहार कर दिया है."
" हे शत्रुदमन इन्द्रजीत !
उस हनुमान की गति अथवा शक्ति की कोई सीमा
नहीं है. वह वानर इतनी आसानी से न तो पकड़ा जा सकता है और न ही मारा जा सकता है.
मेरे मतानुसार तो तुम्हें सेना लेकर भी नहीं जाना चाहिए, क्योंकि वे सेनाएं या तो
भाग जाती है अथवा मारी जाती है. तुम अपने उस विशेष धनुष को साथ लेते जाओ और कुछ
ऐसा पराक्रम कर दिखाओ, जो खाली न जाय.मेरा यह विचार राजनीति और क्षत्रिय-धर्म के
अनुकूल है."
" हे मेरे बलशाली पुत्र !
तुमने इन्द्रादि देवताओं पर विजय पायी है. संकट की इस घड़ी में मुझे तुम्हारे सिवाय
कोई और नहीं देखाई देता. वर्तमान में कोई ऐसा शूर-वीर नहीं है जिसे मैं उस वानर को
मारने अथवा पकड़ने के लिए भेज सकूँ."
" युद्ध में तुम्हारे
वीरोचित कर्मों के द्वारा कुछ भी असाध्य नहीं है. तुम बाहूबल से सुरक्षित तो हो
ही, साथ ही तप के बल पर तुमने अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की हैं. देशकाल का ज्ञान
रखने वाले, बुद्धि के दृष्टि में भी तुम सर्वश्रेष्ठ हो."
" हे पुत्र ! तुम्हारा कोई
भी विचार ऐसा नहीं होता, जो कार्य का साधक न हो. त्रिलोकी में कोई भी ऐसा वीर नहीं
है,जो तुम्हारी शारीरिक शक्ति और अस्त्र-शस्त्र के बल को न जानता हो."
"तुम मेरे ही समान तपोबल,
युद्धविषयक पराक्रम और अस्त्रबल में निपुण हो. मुझे तुम पर पूरा भरोसा है कि विजय
तुम्हारे ही पक्ष में रहेगी . उस एक अकेले वानर ने हमें कितनी अधिक क्षति पहुँचाई
है इसका अनुमान तुम सहज ही लगा सकते हो. अतः तुम उसके बल पर भी विचार कर लो,
तद्पश्चात अपनी शक्तियों का प्रयोग
करना."
अपने पिता की आज्ञा को शिरोधार्य
करते हुए महान शक्तिशाली इन्द्रजीत ने कहा-" हे पिताश्री ! मैं वही पराक्रम करुँगा, जिसमें आपका गौरव बढ़े.
जैसा आपने मुझ पर अपना विश्वास किया है, उसी के अनुरूप मैं रणभूमि में अपना
रण-कौशल का प्रदर्शन कर, उस वानर को पकड़कर
आपके समक्ष ला खड़ा करुँगा. ऐसा कहते हुए उसने पिता राक्षसराज रावण की परिक्रमा की
और युद्ध के लिए मन में उत्साह भरकर संग्रामभूमि की ओर जाने को उद्धत हुआ.
पक्षिराज गरुड़ के समान तीव्र गति
तथा तीखे दाढ़ों वाले चार सिंह से जुते हुए रथ पर सवार होकर वह उस ओर प्रस्थित हुआ,
जहाँ वीर हनुमान उसकी प्रतीक्षा में बैठे हुए थे.
अपने शत्रुओं का संहार करने वाले
इन्द्रजीत ने बड़ी और तीखी नोक वाले बाण,जो सोने के विचित्र पंखों से सुशोभित था,
लक्ष्य लेकर हनुमानजी पर लगातार छोड़ना आरम्भ किया. बाण को अपनी ओर आता देख
पवनपुत्र कभी ऊपर तो कभी नीचे की ओर उछलकर उसके बाणों को विफ़ल किये दे रहे थे.
पवनपुत्र हनुमानजी तथा इन्द्रजीत
दोनों ही अपने महान वेग और युद्ध करने की कला में चतुर थे. इन्द्रजीत लक्ष्य लेकर
तीखे तीर हनुमानजी पर चलाता. तीर उन तक पहुँचे, इससे पूर्व वे उस स्थान से उछलकर
अन्यत्र जा पहुँचते. फ़िर द्रुत गति से आते और अपनी गदा का भरपूर वार इन्द्रजीत पर
कर देते.
वह राक्षसराज हनुमानजी पर प्रहार
करने का अवसर नहीं पाता था और पवनकुमार हनुमानजी भी उस वीर को धर दबोचने का मौका
नहीं पाते थे. वे दोनों परस्पर भिड़ते हुए एक-दूसरे के लिए दुःसह हो उठे थे.
इन्द्रजीत ने देखा कि किसी भी
प्रकार के युद्ध-कौशल से, वह वीर हनुमान को कोई
क्षति नहीं पहुँचा पा रहा है. तब उसने विचार किया कि क्यों न इस वानर को
कैद कर लिया जाना चाहिए. यह विचार आते ही उसने अपने धनुष पर ब्रह्मास्त्र चढ़ाया और
लक्ष्य लेकर उसका अनुसंधान कर दिया.
जौ न ब्रह्मसर मानउँ, महिमा
मिटइ अपार.
यह कोई साधारण तीर नहीं था, बल्कि
स्वयं ब्रह्माजी के द्वारा दिया गया तीर था. ब्रह्मास्त्र को अपनी ओर आता देख
बुद्धिमान हनुमानजी ने विचार किया कि इन्द्रजीत ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया
है, यदि मैं इसको व्यर्थ जाने दूँगा तो परमपिता ब्रहमा जी का अपमान होगा. वे
निडरता के साथ अपने स्थान पर खड़े रहे और आते हुए तीर को उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर
प्रणाम किया.
इन्द्रजीत द्वारा उस अस्त्र से
बांध लिये जाने पर वानरवीर हनुमानजी निश्चेट होकर पृथ्वी पर गिर पड़े. अपने को
ब्रह्मास्त्र से बंधा हुआ पाकर उन्हें किसी भी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं हो
रहा था.
वीर हनुमानजी समझ गए कि वे भगवान
ब्रह्माजी की शक्ति द्वारा बांध दिए गए हैं. उसी समय उन्हें ब्रह्माजी के द्वारा
दिए गए उस वरदान की याद हो आयी, उन्होंने वरदान देते समय कहा था कि यह अस्त्र कुछ
समय पश्चात अपने आप प्रभावहीन हो जाएगा.
वीर हनुमानजी ने मन ही मन सोचा कि
इस अस्त्र के बांधे जाने से मुझे राक्षसराज रावण से मिलने का एक सुलभ अवसर प्रदान
कर दिया है. अतः मुझे इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए. बन्दी बना लिए जाने के बाद वे
इस बात से निश्चिंत थे कि कुछ समय पश्चात मैं इस ब्रह्मास्त्र से शीघ्र ही मुक्त
हो जाऊँगा.
वे बिना हिले-डुले धरती पर पड़े
रहे, जिससे राक्षसों मे यह भ्रम बना रहे कि वे अचेत हो गए है.. तब कुछ राक्षसों से
उन्हें एक मजबूत रस्से से बाँध दिया. उन्हें बाँधते हुए वे उनको कटु वचनों से
सम्बोधित भी करते जा रहे थे. किन्तु जैसे ही हनुमानजी से रस्से में बंधे,
ब्रह्मास्त्र प्रभावहीन हो गया, क्योंकि उस अस्त्र की शक्ति का उपयोग बंधन के
दूसरे साधन के साथ नहीं किया जा सकता था. हनुमानजी ने स्वयं को पीढ़ित होने का
दिखावा करते हुए स्वयं को राक्षसों द्वारा पराजित किए जाने दिया ताकि उन्हें रावण
से मिलने का सुअवसर प्राप्त हो सके.
इन्द्रजीत समझ गया. समझ गया कि
ब्रह्मास्त्र प्रभावहीन हो चुका है. यह वानर तो केवल बंधन में बंध जाने का स्वांग
कर रहा है. इन नासमझ और दुर्बुद्धि के राक्षसों के कारण हनुमान को पकड़ना व्यर्थ हो
गया. इस्के अतिरिक्त ब्रह्मास्त्र भी प्रभावहीन हो गया, क्योंकि उसका एक ही शत्रु
के ऊपर पुनः प्रयोग नहीं किया जा सकता.
इन्द्रजीत मन ही मन में इस बात पर
पश्चाताप करने में लगा था, इसी बीच राक्षसों के दल ने हनुमानजी को खींचकर लंकापति
रावण के दरबार में ले आए.
अति सुक्ष्मता से दरबार का
निरीक्षण करते हुए उन्होंने देखा कि एक बहुत ऊँची वेदी बनी हुई है. उस वेदी पर
सुवर्ण निर्मित राजसिंहान, जिसमें बहुमूल्य रत्नादि जड़े हुए थे, विराजमान है. कुछ
नव युवतियाँ उसके मस्तक पर चँवर डुला रही थीं. राक्षसराज रावण ने अपने सिर पर
रत्नों-मणि-माणिक्य से जड़ित कुमुट पहन रखा था, तथा गले में बहुमूल्य हार पहने हुए
था. उसने अपने माथे पर त्रिपुण्ड काढ़ रखा था था कपिश्रेष्ठ ने यह भी देखा कि रावण
सूर्य के समान तेज और बल में संपन्न है. उसे देखते ही हनुमानजी ने सोचा कि काश,
रावण धर्म के विरुद्ध नहीं चलता तो अपने सौंदर्य, तीक्ष्ण बुद्धि, साहस, तेज,तथा
मंगल शारीरिक लक्ष्णों से देवों के देव इन्द्र के यश को भी परास्त कर देता, लेकिन
दुर्भाग्य कि वह सब कुछ होते हुए भी पाप कर्म में संलग्न रहता आया है. दरबार के उस
विशाल कक्ष में बहुत-से बड़े-बूढ़े सेवक भी कतार से बैठे हुए थे.
राक्षसों के दल ने उन्हें
बलपूर्वक खींचते हुए लंकापति रावण के सन्मुख ले जाकर खड़ा कर दिया. टकटकी लगाए
रावण, हनुमानजी को देर तक देखता रहा. हनुमानजी का तेज देखकर उसे सहसा नंदी के
द्वारा मिले श्राप की याद हो आयी. याद आते ही पल भर में वह भयभीत हो उठा था, लेकिन
अपनी दुर्बुद्धि के चलते उसने उस याद को लगभग नकारते हुए अपने मंत्रियों में
श्रेष्ठ प्रहस्त की ओर संकेत दिया.
अपने महाराज का संकेत पाते ही वह
अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ और हनुमानजी को इस बात का आश्वासन देते हुए कहा-"
हे वानर ! तुम यदि आपने आने का वास्तविक कारण बतला दोगे तो हम तुम्हें छोड़
देंगे."
"अच्छा...तो तुम मुझे छोड़
दोगे?. तब मैं सच कहता हूँ कि मैंने राक्षसराज रावण के बल, बुद्धि, वीरता आदि
गुणों के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था. अतः वानर-सुलभ जिज्ञासा के कारण, मैं उसे
देखना और मिलना चाहता था. मैं यह भी जानता था कि मुझे दरबार में आसानी से प्रवेश
करने नहीं दिया जाएगा. अतः अपनी अल्प-बुद्धि के चलते मैंने एक उपाय सोचा कि यदि
मैं रावण की अति प्रिय वाटिका को तहस-नहस कर उजाड़ डालूँ, तो निश्चित ही मैं पकड़ा
जाऊँगा और मुझे पकड़कर राजसभा में प्रस्तुत
किया जाएगा. मैं सच कह रहा हूँ मेरा प्रयोजन किसी को कष्ट पहुँचाने का नहीं था,
किन्तु जब राक्षस योद्धाओं ने मुझ पर आक्रमण कर दिया, तब मुझे अपनी सुरक्षा के लिए
उनका वध करना पड़ा." हनुमानजी ने कहा.
हनुमानजी की बातों को सुनकर
प्रहस्त गरजा-" मूर्ख वानर ! तुम सरासर झूठ बोलकर मुझे गुमराह कर रहे हो.
विश्वास नहीं होता कि तुम केवल हमारे महाराज रावण को देखना और मिलना चाहते थे.
निश्चित ही तुम किसी विशेष प्रयोजन को लेकर हमारी लंका में घुस आए हो. सच-सच
बताओ...वरना मरने के लिए तैयार हो जाओ."( तलवार निकालते हुए.)
प्रहस्त की ललकार को सुनकर वीर
हनुमानजी ने अत्यन्त ही शांत भाव से कहा-" हे राक्षसराज ! मैं सुग्रीव का
संदेश लेकर तुम्हारे यहाँ आया हूँ. वानरराज सुग्रीव तुम्हारे भाई हैं. इसी नाते
उन्होंने तुम्हारा कुशल-समाचार पूछा है."
"अपने महाराज सुग्रीव का
संदेश सुनाने के बाद उन्होंने कहा- "अच्छा...तो तुम सच जानना चाहते हो?. जानते हो...सच बहुत कड़ुआ होता है. कड़ुआ सच सुन
लेने के बाद तुम लोग चैन की नींद नहीं ले पाओगे. लो.... मैं सच बोलने जा रहा हूँ.
उसे जरा कान खोलकर सुनना. मैं यहाँ आने का वास्तविक कारण बताता हूँ. मेरा नाम
हनुमान है, और मैं महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम जी के दूत के रूप में यहाँ आया
हूँ. मैं दीर्घ काल से अपने स्वामी श्रीरामजी की पत्नी सीताजी को, जिनका अपहरण कर
लिया गया है, खोजने के लिए आया हूँ. यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने माता सीताजी मुझे
मिल गईं हैं. हे राक्षेंद्र रावण ! तुम इतना जान लो कि तुम रामजी और लक्ष्मणजी के
बाणॊं का सामना करने में कोई भी सक्षम नहीं है. स्वयं ब्रह्मा, देवों के देव
महादेव और इन्द्र भी उनका सामना करने का साहस नहीं कर सकते."
" हे रावण ! तुम तो धार्मिक
सिद्धांतों के ज्ञाता हो. जो वास्तव में बुद्धिमान है, वह कभी भी धर्म के मार्ग से
च्युत होकर कभी भी दुर्भाग्य को आमंत्रण नहीं देता. कृपया मेरा सुझाव मानो और इसके
पहले कि बहुत देर हो जाए, माता सीता को रामजी के पास भेज दो. मैं जानता हूँ कि
तुमने कठिन तपश्चर्या के बल पर इतनी शक्ति अर्जित कर ली है कि देवता ही क्या कोई
भी शक्ति तुम्हारा वध नहीं कर सकता. लेकिन तुमने सीताजी का हरण करके एक घृणित
कृत्य किया है, जो तुम्हारे लिए घोर
विपत्ति का कारण बन सकती है. मुझ जैसे रामजी के एक छोटा-से सेवक में इतना
बल है कि मैं तुम्हारी संपूर्ण का विनाश कर सकता हूँ, फ़िर प्रभु रामजी का क्या
कहना, वे तो संपूर्ण ब्रहमाण्ड का संहार और सृजन कर सकते है."
"अतः हे लंकेश ! मैं तुम्हें
समझा ही नहीं रहा हूँ, बल्कि चेतावनी भी दे रहा हूँ कि रामजी से कृपया बैर मत पालो
और माता सीता को रामजी के पास पहुँचा दो."
हनुमानजी की बातों को सुनकर रावण
के क्रोध का पारावार बढ़ने लगा था. आँखों में क्रोधाग्नि भड़कने लगी थी. जबड़ों में
कसाव होने लगा था. क्रोध में तमतमाते हुए उसने अपनी दोनों हथेलियों से अपनी जंघाओं
में पूरी ताकत के साथ पटकते हुए उठ खड़ा हुआ और अपने सेवकों से कहा-" हम इस
निर्बुद्धि वानर का निरर्थक प्रलाप बहुत देर से सुन रहे हैं. इसमें इतनी हिम्मत कि
यह तुच्छ वानर हमारे ही सामने और हमारे दरबार में खड़ा रहकार त्रिलोक विजेता रावण
को सीख दे रहा है?. तुरन्त ही इस वानर का वध कर दो."
रावण की आज्ञा पाते ही प्रहस्त ने
अपनी म्यान से तलवार निकाला और हनुमानजी को मारने के लिए आगे बढ़ा. उसे आगे बढ़ता
देख सभा-कक्ष में बैठे विभीषण ने प्रहस्त को रोकते हुए कहा-" रुक जाओ प्रहस्त
रुक जाओ". फ़िर अपने ज्येष्ठ भ्राता रावण से हाथ जोड़ते हुए मृदु वाणी में कहा-"
भैया ! आप यह क्या करवाने जा रहे हैं?. आप एक महान विद्वान है और धर्म के ज्ञाता
हैं,यदि आप ही क्रोध में अनियंत्रित होकर संज्ञाशून्य हो जाएँगे और अधर्म के मार्ग
पर चल पड़ेगे, तो लोग क्या कहेंगे?. आप जानते हैं कि किसी दूत को मारना धर्मसंगत
नहीं है. यह नियम विरुद्ध है. क्यों आप पाप के भागीदारी बनने जा रहे है."
" विभीषण ! तुम मुझे धर्म
सिखाओगे?. मैं किसी धर्म को नहीं मानता.दुष्कर्मियों को मारना में कोई पाप नहीं
लगता. तुम अपना ज्ञान अपने पास रखो..मुझे समझाने की जरुरत नहीं." रावण गरजा.
" हे तात ! धर्मशास्त्रों में
कहीं भी दूत के वध का निर्देश नहीं है. और नहीं ऐसा होते हुए कहीं देखा गया है.
हाँ...आप उसका अंग-भंग करने, कशाघात करने (चाबुक से मारने), गंजा करने अथवा तपे
हुए लोहे से दागने का दण्ड दिया जा सकता है."
" हे प्रिय भ्राता ! आप जैसे
महान बुद्धिमान को क्रोध में अनियंत्रित नहीं होना चाहैए. आपसे मेरा विनम्र निवेदन
है कि आप कृपया उस शत्रु को समाप्त करने का प्रयास करें, जिसने हनुमान को भेजा है,
न कि हनुमान को. अतः उचित होगा कि आप अपनी सेना को राम और लक्ष्मण से युद्ध करने
के लिए क्यों नहीं भेजते क्योंकि वे आपसे प्रतिशोध लेना चाहते हैं."
अपने धर्मपरायण भाई की बातों का
रावण पर गहरा प्रभाव पड़ा. फ़िर कुछ सोचते हुए उसने विभीषण से कहा-" तुमने ठीक
कहा". फ़िर अपने सेवकों को आज्ञा देते हुए उसने कहा-" वानरों को अपनी
पूँछ से बहुत प्रेम होता है. अतः तुम इसकी पूँछ में आग लगाकर इसे लंका के मार्गों
पर जुलुस निकालो. हमारी प्रजा भी तो देखेगी कि यह कैसा वीर है. इसके पश्चात इसे
उसके सम्बन्धियों के पास जाने और अपमान से पीड़ित होने के लिए छोड़ देना."
जैसे ही वीर हनुमानजी ने सुना कि
उनकी पूँछ को जला देने की आज्ञा रावण ने दे दी है. यह सुनते ही उन्हें त्रिजटा का
कथन याद आ गया. उन बातों का स्मरण करके वे मन ही मन में प्रसन्न हो रहे थे,
कि पूँछ में लपेटने के लिए कपड़ा रावण का
लगेगा. उसे जलाने के लिए तेल भी रावण का लगेगा. अग्नि भी रावण की ही होगी और लंका
जलेगी तो वह भी रावण की ही जलेगी. अतः वे उस घड़ी की प्रतीक्षा करने लगे, जब उनकी
पूँछ में आग लगा दी जाएगी.
आज्ञा पाने भर की देरी थी कि उनकी
पूँछ में सूती वस्त्र लपेट दिए. बुद्धिमान हनुमानजी अपना शरीर और पूँछ की लम्बाई
बढ़ाते जाते थे. पूँछ पर कपड़ा लपेटने वाले राक्षसों को पता ही नहीं चल पाता था कि
पूँछ के लंबाई क्रमशः बढ़ती ही जा रही है. जब अच्छे से कपड़ा लपेट दिया गया, तब उन
वस्त्रों को अच्छी तरह तेल से भिंगो दिया गया. फ़िर एक राक्षस ने उनकी पूँछ में आग
लगा दी. बस इसी क्षण की वे आतुरता के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे.
"शंखभेरीनिनादेश्च घोषयन्तः स्वकर्मभिः
: राक्षसाः क्रूरकर्माणश्चारयन्ति स्म तां पुरीम् " (सु.का.त्रिपंचाशः
सर्गः)
राक्षस अपमानपूर्वक हनुमानजी को
खींचकर नगर के मार्गों पर यह घोषणा करते हुए ले जाने लगे कि उन्होंने एक गुप्तचर
को बन्दी बना लिया है. सभी स्त्रियाँ, बच्चे, वयोवृद्ध उत्सुकतापूर्वक बन्दी बनाए
गए हनुमानजी को देखने निकल आए. तब सीताजी के निकट पहरा देने वाली राक्षसिनियों ने
उन्हें हनुमानजी की इस दशा के विषय में सूचित किया, जिसे सुनकर वे अत्यन्त दुःखी
हो गईं.
यद्यस्ति पतिशुश्रुषा यद्यस्ति चरितं तपः ::
यदि वा त्वेकपत्नीत्वं शीतोहनूमतः(सुका.त्रिपंचाशः सर्ग)
उन्होंने अग्निदेव का ध्यान करते
हुए प्रार्थना की-" हे अग्निदेव ! यदि मैंने पति की सेवा की है और यदि मुझमें
कुछ भी तपस्या तथा पातिव्रत्य का बल है और मैंने इनसे कुछ पुण्य अर्जित किया है तो
तुम हनुमान के लिए शीतल हो जाओ."
माता सीता की प्रार्थना अग्निदेव
ने सुनी. अग्निदेव ने सुना कि सीताजी आर्तवाणी में मुझसे प्रार्थना कर रही हैं कि
हनुमान के लिए शीतल हो जाओ. सीताजी की प्रार्थना में बल था. कोई कारण नहीं था कि
अग्निदेव उनकी प्रार्थना को न सुनते. अग्निदेव ने तत्काल अपनी ज्वलनशीलता को मंद
कर दिया. तत्पश्चात पूँछ में जलने वाली अग्नि अब शीतलता प्रदान करने लगी. ऐसे कठिन
समय में वायुदेव भी आगे आए और उन्होंने उसी समय हिम-वायु चला दी.
हनुमानजी को आश्चर्यचकित थे कि
अग्नि की प्रचण्ड ज्वाला उठने पर भी मुझे जलन का आभास क्यों नहीं हो रहा है?.
वास्तव, ऐसा लगता है मानों राक्षसों ने मेरी पूँछ के चारों ओर हिम लगा दिया हो.
निश्चित ही यह मेरे प्रभु रामजी की या माता सीताजी की कृपा से हुआ है.
वीर हनुमानजी मन ही मन विचार करने
लगे कि राम के एक सेवक और योद्धा के लिये इस प्रकार से हास्यास्पद होना उपयुक्त
नहीं है. हे लोग मेरा बहुत अपमान कर
चुके, मैं और अपने आपको अपमानित होता हुआ
सहन नहीं कर सकता. बस ऐसा विचार आते ही
हनुमानजी ने पलक झपकते ही अपनी लघिमा शक्ति को प्रयोग में लाते हुए अपना
आकार संकुचित कर लिया और बंधन से मुक्त हो गए.
बंधन से मुक्त होते ही वे गर्जना
करते हुए वायु में उछल पड़े और गरिमा शक्ति का प्रयोग करते हुए अपना विशालकाय रूप
धारण किया और नगर के द्वार पर पड़ी लोहे की एक छड़ को उठा लिया.क्षण भर में उन्होंने
उन सभी राक्षसों का वध कर दिया, जो उन्हें बंदी बनाकर नगर के मार्गों में उन्हें घुमाते
हुए ठहाका लगा-लगा कर उनका उपहास कर रहे थे.
वीर हनुमानजी ने सोचा-"
चूंकि अभी मेरी पूंछ जल रही है, क्यों न इस जलती हुई पूँछ का इस प्रकार से उपयोग
करुँ कि सम्पूर्ण लंका इस प्रचण्ड अग्नि में डूब जाए?."
उलटि पलटि लंका सब जारी :: कूदि
परा पुनि सिंधु मझारी.
मन में यह विचार आते ही उन्होंने
पूरे वेग के साथ आकाश में उड़ चले. आकाश में उड़ते हुए वे कभी प्रहस्त के महल की छत
पर कूद कर उसे अग्नि को समर्पित कर देते, तो कभी महापार्श्व के महल को. इस तरह
उन्होंने वज्रदंष्ट्र, शुक, सारण,
इन्द्रविजयी मेघनाथ, जम्बुमाली, सुमाली, रश्मिकेतु, सूर्यशत्रु, दंष्ट्र, राक्षस
सोमश, रणोन्मत्त, ध्वजग्रीव, विद्युज्जिव्ह, हस्तिमुख, कराल, विशाल, शोणिताक्ष,
कुम्भकर्ण,, मकराक्ष, नरान्तक, कुम्भ, निकुम्भ,, यज्ञशत्रु, और ब्रह्मशत्रु आदि के
घरों में जा-जाकर उन्होंने आग लगायी. कपिश्रेष्ठ हनुमानजी ने केवल विभिषण का घर
छोड़कर अन्य सब घरों में क्रमशः पहुँचकर उन सबमें आग लगा दी.
वीर हनुमान जब महलों और घरों में
आग लगा रहे थे, तब उन्चास प्रकार के (पवन) मरुत
प्रवहमान हो रहे थे, जो लंका को भस्मीभूत करने में सहायता कर रहे थे.
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हरि प्रेरित तेहि अवसर, चले मरुत उन्चास : अट्टहास करि गर्जा कपि
बढ़ि लाग अकास ।।25।।
उनचास मरुत का अर्थ है
ऋषि कश्यप के दो पत्नियां दिति और अदिति थीं . अदिति से उन्होंने देवताओं को जन्म दिया और दिति
से असुरों का जन्म हुआ . देवासुर संग्राम में देवताओं की पराजय के बाद
समुद्र मंथन हुआ और उसमे प्राप्त अमृत से देवता अमर हो गए. देवताओं ने फिर असुरों को पराजित करके उन्हें
समाप्त कर दिया. दिति को अपने पुत्रों की मृत्यु से बहुत दुःख और क्रोध हुआ.
उन्होंने अपने पति के पास जा कर कहा कि आपके पुत्रों ने मेरे पुत्रों का वध किया
है ,
इस लिए तपस्या करके ऐसे
पुत्र को प्राप्त करना चाहती हूँ जो इंद्र का वध कर सके. कश्यप ने कहा कि तुम्हे पहले 1000 वर्षों तक पवित्रता पूर्वक रहना होगा तब तुम मुझसे
इंद्र का वध करने में समर्थ पुत्र प्राप्त कर लोगी. यह कह कर कश्यप ने दिति का
स्पर्श किया और दिति भी प्रसन्न हो कर अपने पति के कहे अनुसार तप करने चली गयी. दिति को तप करता देख इंद्र भी उनकी सेवा करने लगे. जब तप समाप्ति में 1 वर्ष बाक़ी रहा तप दिति ने इंद्र से कहा कि एक
वर्ष बाद जब तुम्हारे भाई का जन्म होगा तब वो तुम्हे मारने मे समर्थ होगा, पर
तुमने मेरी तप मे इतनी सेवा की है कि मैं उसे तुमको मारने के लिए न कहूंगी.
तुम दोनों मिलकर राज्य करना. इसके बाद दिति को दिन में झपकी आ गयी
और उनका सर पैरों मे जा लगा जिससे उनका शरीर अपवित्र हो गया और तप भी भंग हो गया.
इधर इंद्र को भी दिति के होने वाले पुत्र से पराजय की चिंता हो गयी थी और उन्होंने
इस गर्भ को समाप्त करने का निश्चय किया. इंद्र ने इस गर्भ के 7 टुकड़े कर दिए. दिति के जगने पर जब उन्हें गर्भ के सात टुकड़े
होने की बात पता चली तब उन्होंने इंद्र से कहा कि मेरे तप भंग होने के कारण ही
मेरे गर्भ के टुकड़े हो गए हैं, इसमे तुम्हारा दोष नही है. दिति ने तब कहा कि
टुकड़े होने के बाद भी मेरे गर्भ के ये टुकड़े हमेशा आकाश मे विचरण करेंगे और मरुत
नाम से विख्यात होंगे. ये सातों मरुत के सात सात गण होंगे जो सात जगह विचरण कर
सकते हैं और इस तरह कुल ४९ मरुत बन जाते हैं.
इन सात मरुतों के नाम हैं -आवह, प्रवह,संवह ,उद्वह, विवह, परिवह, परावह
इनके सात सात गण निम्न जगह विचरण करते हैं -ब्रह्मलोक , इन्द्रलोक ,अंतरिक्ष , भूलोक की पूर्व दिशा , भूलोक की पश्चिम दिशा , भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा
इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं जो देव रूप में विचरण करते हैं
.
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उलटि पलटि लंका सब जारी
एक कथा प्राप्त होती है कि एक
बार शनि देव की दृष्टि से सोने की लंका, काली हो गयी थी. ऐसा भी कहा जाता है कि
शनि देवता ने एक बार देवताओं की रक्षा के लिए लंका को अपनी क्रोध की दृष्टि से
जलाने का प्रयास किया था. जब यह बात रावण को पता चली तो उसने शनि देवता को पकड़कर
बंदी बना लिया और उन्हें उलटा करके अपने तहखाने में टांग दिया. ऐसा इसलिए किया कि
जब ये उलटे टंगे रहेंगे तो उनकी दुष्टि लंका पर पड़ेगी ही नहीं और लंका जलने से बची
रहेगी. यदि वे एक बार भी क्रोध-दृष्टि से लंका को देख लेते तो लंका पहले ही जलकर
राख हो जाती. परन्तु उलटा टंगे रहने के कारण वे लंका को देख नहीं पा रहे थे.
जब हनुमानजी ने लंका में आग लगा
दिया तो वह तप कर काली पड़ गयी थी. लंका के अन्य जर्जर तथा घास-फ़ूस के भवन तो जलकर
राख हो गए किन्तु स्वर्ण-भवनों पर प्रभाव नहीं पड़ रहा था. यह देखकर लंका जलाते-जलाते
जब हनुमानजी उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पर शनि देव उलटे टंगे थे, तो उन्होंने शनि
देव को उलटा से पलट कर सीधा कर दिया. सीधा होने पर शनि देव ने लंका की तरफ़
दृष्टिपात किया तो अब तक जल कर काली हुई लंका शनिदेव के देखते ही पिघलने लगी और
थोड़ी ही देर में लंका का सर्वनाश हो गया.
उलटि पलटि- ( इसे इस अर्थ में देखा जाना चाहिए.)श्री हनुमान जी यदि शनिदेव को
उलट कर सीधा नहीं करते और शनिदेव लंका को देखते नहीं, तो जल चुकी लंका राख न
होती.यह शनिदेव के क्रोध का प्रभाव था.
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सबके
घरों में आग लगाते हुए पराक्रमी हनुमानजी राक्षसराज रावण के महल पर जा पहुँचे. महल
में पहुँचकर उन्होंने उसे भी आग लगा दी. इस समय पवनदेव भी उनका साथ दे रहे थे, हवा
का सहारा पाकर वह प्रबल आग के वेग के बढ़ने लगी और कालाग्नि के समान प्रज्जवलित हो
उठी. नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित प्रासाद एवं सतमहले भवन फ़ट-फ़टकर पृथ्वी पर
गिरने लगे. राक्षस अपने-अपने घरों को बचाने
के लिए इधर-उधर दौड़ने लगे. वे आपस में कहते-" हाय ! इस वानर के रूप में
साक्षात अग्नि देवता ही आ पहुँचे हैं, कितनी ही स्त्रियाँ गोद में बच्चे लिए
क्रन्दन करते हुए नीचे गिर पड़ीं. कुछ राक्षसियों के सारे अंग आग की लपेट में आ गए.
इस प्रकार समस्त हाथी, घोड़े, रथ,पशु, पक्षी तथा कितने ही राक्षसों के सहित
लंकापुरी दग्ध हो गयी. वहाँ के निवासी दीनभाव में तुमुल नाद करते हुए फ़ूट-फ़ूट कर
रोने लगे. दोहरे आँसू बहाते हुए परस्पर कहने लगे-" यह देवराज इन्द्र अथवा
साक्षात यमराज तो नहीं है?. यह वानर नहीं, साक्षात काल है. यह भी संभावना है कि
ब्रह्माजी के प्रचण्ड कोप ही वानर का रूप धारण करके राक्षसों का संहार करने के लिए
यहाँ आया हुआ है?. कहीं ऐसा तो नहीं कि इस वानर ने विष्णु की अद्भुत माया से
आविष्ठित होकर वानर का शरीर धारण कर हम राक्षसों का विनाश करने के लिए यहाँ आया
है?.
लंकेश्वर
रावण अपने सतमहले की छत पर खड़ा होकर अपनी सुवर्णमयी लंका को धू-धू कर जलते हुए देख
रहा था. देख रहा था कि लंका के निवासी अपने प्राण बचाने के लिए यहाँ-वहाँ भाग रहे
हैं. जिस वानर को उसने एक सामान्य वानर समझ रखा था, भरी सभा में अपमानजनक शब्दों
में उसका तिरस्कार कर रहा था, वह एक सामान्य वानर न हो कर मायावी वानर रहा होगा.
उसको पहचान करने में हुई भूल की कीतनी बड़ी कीमत उसे आज चुकानी पड़ रही है.
राक्षसराज
रावण चिंता में घिरा हुआ था. उसे समझ नहीं पड़ रहा था कि इस भीषण विनाश को किस तरह
से रोका जा सकता है?. वह कुछ सोच पाता कि उसने देखा वही वानर आकाश मार्ग से उड़ता
हुआ अन्यत्र जा रहा था. निश्चित ही वह किसी अन्य महल को अग्नि में समर्पित करने के
लिए ही जा रहा है.
हनुमानजी
को आकाश मार्ग से जाता हुआ देखकर सहसा उसे माता पार्वती जी के द्वारा मिले श्राप
की याद हो आयी. उसे यह भी याद हो आया कि एक बार जब वह आकाश मार्ग से गुजर रहा था
तब उसे कैलाश पर्वत पर सोने से निर्मित महल दिखाई दिया. उस सुवर्ण निर्मित महल को
देखकर जहां उसे आश्चर्य हो रहा था, वहीं वह उस महल को पाने के लिए ललायित हो उठा
था. उसने एक ब्राह्मण का रुप धारण किया और भगवान शिव के पास पहुँच गया. उसने शंकर
भगवान से भिक्षा में सोने की लंका मांगी. भगवान शंकर पहले ही समझ गये थे कि यह
ब्राह्मण के रुप में रावण है, लेकिन वह उसे खाली हाथ नहीं लौटाना चाहते थे. इसलिए
उन्होंने सोने की लंका रावण को दान कर दी. जब माता पार्वती को यह बात पता चली तो
वह बहुत क्रोधित हुईं और उन्होंने क्रोधित होते हुए रावण को श्राप दे दिया-"
हे रावण ! तुमने भोलेनाथ की दानवीरता का लाभ उठाते हुए मेरे सोने के राजमहल दान
में मांग कर ले गया. यह तूने अच्छा नहीं किया. भगवान शंकर का कोई अंश तेरे सोने की लंका को जलाकर राख कर
देगा." आज वह अपनी खुली आँखों से अपनी प्रिय लंका को धू-धू करके जलते हुए देख
रहा था.
भस्मीभूत
होती सुवर्ण लंका को देखकर उसे माता पार्वती से मिले श्राप की याद हो आयी. जिस समय
माता पार्वती श्राप दे रहीं थीं, तब रावण मन ही मन उनका उपहास उड़ा रहा था वह अपने
आप से मन ही मन कहने लगा था कि माता, चाहे तुम मुझे जितना श्राप दो, कभी फ़लीभूत
नहीं होगा. मैं कोई ऐसा कृत्य करुँगा ही नहीं कि लंका दहन हो जाए. वर्तमान में
मिली उपलब्धि पर वह गर्व कर रहा था, लेकिन भविष्य में क्या कुछ हो सकता है, इस पर
उसने कभी विचार ही नहीं किया था.
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एक
विचार.
जलती हुई लंका को रावण ने बुझाने का प्रयास नहीं किया होगा, ऐसा हो
नहीं सकता. विश्राम सागर के अनुसार उसने जलती हुई लंका को बुझाने के लिए मेघों का
सहारा लिया था. किन्तु असफ़ल रहा. यहीं गोस्वामी तुलसीदास जी ने कवितावली में
स्पष्ट शब्दों में रावण द्वारा लंका बुझाने के प्रयत्नों के संबंध में लिहा है कि
जलती हुई लंका को बुझाने के लिए रावण ने प्रलय काल के मेघों को बुलाया और लंका
बुझाने को कहा. रावण ने कहा-" अरे मेघों ! जलती हुई लंका को शीघ्र बुझाओ और
बन्दर को बहाकर गम्भीर जल में डुबोकर मार डालो." तब मेघो के स्वामी ने कहा,
महाराज बहुत अच्छा. ऐसा कहते हुए उसने रावण को प्रणाम किया और चल दिया और गरज-गरज
कर मूसलाधार अति वृष्टि प्रलयतुल्य करने लगा. परंतु पानी से आग और बढ़ गई, उसकी
चंचलता चौगुनी हो गयी.
गोस्वामी जी ने उक्त का उल्लेख कवितावली में निम्नानुसार करते हैं-
सभी मेघ डरकर मुख मोड़कर भाग खड़े हुए और शुष्क होकर सकुचाकर पुकारने लगे. हम लोगों
ने बारह सूर्य देखे, प्रलय की अग्नि देखी, कई बात शेष जी के मुख की ज्वाला भी
देखी, लेकिन कभी जल को घी के समान जलते हुए नहीं देखा और न ही सुना. यह बहुत बड़ा
आश्चर्य श्री हनुमानजी ने कर दिखाया.
मेघों की बात सुनकर रावण के सभी मंत्री रावण से कहने लगे कि यह सब
ईश्वर की प्रतिकूलता का परिणाम और संकेत है. परन्तु रावण ने माल्यवान की बातों को
अनसुना कर दिया और अभिमान से कहा-" अरे माल्यवान ! अग्नि, वायु, जल, सूर्य,
हिमाचल, यम, काल और लोकपाल सभी मेरे वश में हैं. मेरे प्रतिकूल कौन जाएगा?. शिव और
विष्णु भी हमसे डरते हैं. ब्रह्मा तपस्या
से मेरे वश में हैं. माल्यवान ! तू पागलों-सी बात करता है, कौन है जो मेरे विरुद्ध
जाएगा?."
माल्यवान ने कहा-" सच है महाराज ! पृथ्वी में जितने राजा हैं,
पाताल में जितने सर्प हैं, जो भी स्वर्ग के स्वामी और लोकपाल हैं तथा जो-जो भी
वीरों का समाज है, हे राक्षसेश्वर ! उनमें से ऐसा कौन है जो मन से भी आपका अपकार
करने की सोचे?. परन्तु यह अग्नि तो रामचन्द्रजी का क्रोध है, वायु सीताजी की
स्वाँस है, तथा वानर के रूप में यह ईश्वर
की प्रतिकूलता ही है,यह वानर तो एक बहाना मात्र है. इसी कारण विश्व प्रसिद्ध तुम
जैसे वीर के होते हुए भी यह निःसंक मन से जला रहा है."
इस तरह से रावण ने लंका को बुझाने का बहुत प्रयास किया किन्तु वह
असफ़ल रहा. लोगों ने बहुत समझाया भी परन्तु उसने किसी की एक नहीं सुनी और मनमानी
करता रहा और लंका जलकर राख हो गयी.
रामाज्ञा न होने पर भी हनुमानजी ने लंका क्यों जलाई?
रामजी ने हनुमान जी से मात्र यही कहा था-" बहु प्रकार सीताहि समुझाएहु : कहि बल बिरह वेगि तुम्ह
आएहु". जामवन्त ने भी हनुमानजी से मात्र यही कहा था-" एतना करहु
तात तुम्ह जाई : सीतहि देखि कहहु सुधि आई." इतने पर भी आखिर हनुमानजी ने
लंका में इतना उत्पात क्यों मचाया?. इस भ्रम का निवारण मिलता है त्रिजटा का स्वपन में जो कुछ भी देखा
और सीताजी को सुना दिया. उस समय हनुमानजी वृक्ष में बैठे हुए त्रिजटा की बातें सुन
रहे थे. इस तरह से हनुमानजी ने लंका को चौपट करने का निश्चय कर लिया था. हनुमानजी
ने इस बात को गंभीरता से सोचा और इस निर्णय पर पहुँचे कि भले ही रामजी ने
प्रत्यक्ष आदेश मुझे नहीं दिया है, किन्तु यह राम की भक्त त्रिजटा जो राम के
प्रताप की व्याख्यान माला में यह सुना रही है कि राम के दूत ने लंका जला डाली है.,
उसका स्वपन झूठा कैसे हो?. अतः हनुमानजी ने राम के प्रताप और यश को उजागर करने के
लिए त्रिजटा, जो राम की भक्त है, के स्वपन को साकार करने के लिए रामाज्ञा न होने
पर भी लंका जलाने का निश्चय किया था. उल्लेखनीय है कि स्वयं रावण ने भे स्वपन में
यह देखा था कि राम का भेजा हुआ कोई वानर लंका आया है.
लंका दहन से पहले अन्य उत्पात मचाने का कारण यही था कि ऐसा करके वे
निशाचरों एवं रावण को उत्तेजित करना चाहते थे., क्योंकि अकारण तो लड़ाई हो नहीं
सकती थी, इसलिए पहले उत्पात मचाया और जब मना करने पर युद्ध की स्थिति हो गयी तो
उन्होंने अपने बल और पराक्रम को दिखाया.
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निर्वापयामास तदा समुद्रे हरिपुंगव. ( 49.सुका.41)
पवनपुत्र
हनुमानजी ने बहुसंख्य वृक्षों से भरे हुए प्रमदावन का विध्वंस करके, युद्ध में
बड़े-बड़े राक्षसों को मारकर तथा सुन्दर महलों से सुशोभित लंकापुरी को जलाकर शान्त
हो गए. लंका को भस्मीभूत कर देने के पश्चात महाकपि हनुमानजी वेग से उछले और अपनी
पूँछ में लगी आग को शांत करने के लिए गर्जना करते हुए समुद्र की ओर बढ़ चले.
समस्त
लंका पुरी को भुलाई न जाने वाली पीड़ा देकर महाकपि श्री हनुमानजी आकाश मार्ग से
उड़ते हुए उफ़नते-गरजते महासागर में कूद
पड़े. जल का स्पर्श पाते ही उनकी जलती हुई
पूँछ बुझ गयी. पूँछ के बुझ जाने के बाद उन्होंने पुनः जोरों से गर्जना करते हुए
अपने प्रभु श्रीरामजी के नाम का उद्घोष किया और अपने आराध्य प्रभु रामजी के पास
लौटने का विचार करने लगे.
सहसा
उनके मन में विचार आया कि मैंने लंका को जलाकर भस्मीभूत तो कर दिया है, लौटकर उसे
एक बार देख तो लिया जाए?, ऐसा विचार आते ही वे पुनः लंका की ओर मुड़े. आकाश-मार्ग
में उड़ते हुए उन्होंने मरते हुए राक्षसों की चीख-पुकार सुनी. सुनते ही उनके मन में
अकस्मात एक भारी भय उत्पन्न हुआ. वे गंभीरता के साथ सोचने लगे -" अरे ...मैं
भी कितना मूर्ख हूँ कि मैंने लंका में आग तो लगा दी, यदि उस विकराल अग्नि में कहीं
माता सीता न जल गईं हों?. यदि मेरे कारण सीताजी की मृत्यु हो गई हो, तो मैं अपने
स्वामी की मृत्यु का कारण बन जाऊँगा और प्रायश्चित के रूप में मुझे भी अपने प्राण
त्यागने पड़ेंगे. मात्र इस छोटे-से विचार के मन में आते ही, उन्हें अपने आप पर
ग्लानि-सी होने लगी थी. वे अपराध-बोध से ग्रसित होने लगे थे और शोक के सागर में
डूबने-उतराने लगे थे. अपनी शंका के समाधान हेतु उन्होंने अपने निर्मल मन से अपने
आराध्य रामजी का स्मरण किया और मन-ही-मन कहने लगे-" हे प्रभु ! काश मैं
त्रिजटा के मुख से यह नहीं सुनता कि कोई वानर लंका में बलात घुस आया है और उसने
लंका में आग लगा दी है. उसे सुनकर मैंने अप्रत्यक्ष रूप से आपका आदेश माना. यह सच
है कि न तो आपने मुझे लंका में आग लगाने की आज्ञा दी थी और न ही ज्येष्ट ऋक्षराज
जाम्बवंत जी ने. आदेश एकदम स्पस्ट था कि मुझे केवल सीताजी का पता लगाकर लौट जाना
चाहिए था.
रामजी का
स्मरण करने मात्र से उन्हें अकस्मात अमेल मंगल शकुन देखने को मिले और उन्होंने
निष्कर्ष निकाला कि-"धर्म-परायण सीता जी को किसी भी प्रकार की क्षति नही
पहुँची होगी. वस्तुतः रामजी की कृपा से जब अग्नि ने मुझे हानि नहीं पहुँचाई तब
उनकी प्रियतमा पत्नी के विषय में कहना ही क्या? उनके चरित्र की पवित्रता ही उनकी
सुरक्षा के लिए पर्याप्त है. सत्य के प्रति उनकी भक्ति, उनके तप की शक्ति एवं रामजी
के प्रति उनकी निष्ठा, अग्नि से कहीं अधिक शक्तिशाली है."
जब वे
आकाश में उड़ान भर रहे थे, तभी अनेक सिद्ध,चारण तथा स्वर्ग के जीव हनुमानजी की
वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे. उन्होंने ही वीर हनुमानजी को ढाढस बंधाते
हुए सूचना दी कि सीताजी सुरक्षित हैं. यह सुनते ही उन्हें अत्यन्त ही प्रसन्नता का
अनुभव होने लगा था. ग्लानि और अपराध-बोध का भाव तिरोहित होने लगा. सीता जी को कुशल
देखकर हनुमानजी की आँखों से प्रसन्नता के आँसू छ्लक आए..अब वे निश्चिंत होकर आकाश
मार्ग से उड़ान भरते हुए माता सीताजी के दर्शनों के लिए अशोक वाटिका में जा पहुँचे.
ततस्तु शिंशपामूले जानकीं पर्यवस्थिताम् ::
अभिवाद्याब्रवीद्दिष्ट्या पश्यामि त्वामिहाक्षताम् (1.सुका षट्पश्चासः सर्गः)
उन्होंने
देखा कि अशोक वृक्ष के नीचे बैठीं हुईं माता सीता इस समय अपने पति श्रीरामचन्द्रजी
का स्मरण कर रही थीं. वे हनुमानजी को अपने पास आता हुआ देख नहीं पायीं थीं.
पवनपुत्र
श्री हनुमानजी ने विनीत भाव से प्रणाम करते हुए कहा-" माता !. उन्होंने
दो-तीन बार उन्हें पुकारा, लेकिन वे पति के ध्यान में इतनी निमग्न थीं कि वे कुछ
भी सुन नहीं पायीं थीं.
बार-बार
की पुकार सुनकर उन्होंने अपना ध्यान परे हटाते हुए हनुमानजी की ओर देखा. देखा कि हनुमानजी अपने
दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम की मुद्रा में उनके समक्ष बैठे हुए हैं..
हनुमानजी
ने कहा-" माते ! आपको सकुशल देखकर मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है."
"
हे देवी ! मैंने प्रभु श्रीरामजी के आशीर्वाद से लंका के बड़े-बड़े राक्षसों को
मारकर और संपूर्ण लंका को जलाकर अपने बल का परिचय दिया है. अब मैं अपने आराध्य
प्रभु श्रीरामजी की सेवा में लौट जाना चाहता हूँ."
सीताजी
सुन रही थीं. सुन रही थीं कि हनुमान अब वापिस जाना चाहते हैं. इस समाचार को सुनकर
वे विचलित-सी होने लगी थीं. जबसे हनुमान लंका में आए हैं, उन्हें यह आभास होता रहा
कि कोई तो है उनका अपना इस अनचिन्ही/ अपरिचित लंका में. लौट जाने की बात सुनकर वे
गहरी उदासी में घिरने लगी थीं. उन्होंने हनुमान से कहा- " हे निष्पाप वानरवीर
! यदि तुम उचित समझो तो एक दिन और यहाँ किसी गुप्त स्थान में ठहर जाओ. तुम्हारे
सान्निध्य के कारण मुझे अपनी पीड़ा से राहत मिली है. हे वानरप्रवर ! तुम्हारे निकट
रहने से मुझ मंदभागिनी का अपार शोक कम हो जाएगा. तुम जब चले जाओगे, तब फ़िर
तुम्हारे आने तक मेरे प्राण बचे रहेंगे या
नहीं, इसका कोई विश्वास नहीं है.
"
हे पवनपुत्र ! संसार में केवल तीन ही ऐसे प्राणी हैं जो इस गरजते-उफ़नते समुद्र को
लांघने की शक्ति रखते हैं. एक तो तुम स्वयं ही हो, दूसरे गरुड़ और तीसरे वायुदेवता.
इनके अलावा शायद ही कोई इस समुद्र को लांघ सकने की शक्ति रखता हो. मैं यह समझ नहीं
पा रही हूँ कि उस गरजते-उफ़नते महासागर को पार करके मेरे स्वामी अपने दल-बल के साथ
कैसे आ आएंगे?." कहते हुए उनका रुंध-सा गया था. शब्द गले में आकर अटक गए थे.
अन्दर सब क्षत-विक्षत था. कहीं से कोई राह सूझ नहीं पड़ रही थी. वे हनुमानजी से आग्रहपूर्वक कहती कि तुम कम-से-कम
एक दिन के लिए यहाँ रुक जाओ. तुम्हारे जाने के बाद मैं सर्वथा अकेली पड़ जाऊँगी. यह भी संभव है कि स्वामी के आने से
पूर्व कहीं मेरे प्राण न निकल जायें. वे हनुमानजी से यही सब कुछ कहना चाह रही थी,
लेकिन उन्हें शब्द ढूँढे नहीं मिल रहे थे.
हनुमानजी
सीताजी की मर्मांतक पीड़ा को समझ रहे थे. समझ रहे थे उनकी भाव दशा को. समझ रहे थे
कि एक अनजानी-अपरिचित-अनचिन्ही जगह में, जहाँ दूर-दूर तक उनका अपना कहलाने वाला
कोई नहीं है, वह भी एक ऐसे स्थान में, जहाँ असंख्य राक्षसियां उन पर चौबिसों प्रहर निगरानी रख रही हों. भला
एक नितांत अकेली नारी कैसे रह सकती है?. यही सोचकर तो उन्होंने राक्षसों के मन में
इतना भय बैठा दिया है कि वे भूलकर भी जानकी जी की ओर देखना तो दूर, उन्हें भयभीत
करने का साहस भी नहीं जुटा पाएंगी. हालांकि उन्होंने सभी बाधाओं को दूर कर दिया
थे, फ़िर भी न जाने क्यों उनके मन में एक अज्ञात अब भी समाया हुआ है?. वीर हनुमानजी
सोच रहे थे.
बुद्धिमान
हनुमान जी जानते थे कि उनके भय को किस तरह दूर किया जा सकता है. वे यह भी जानते थे
कि ऐसी विकट परिस्थिति में फ़ंसा कोई भी व्यक्ति, जब तक आत्मविश्वास को धारण नहीं
करेगा, अपने आत्मबल को बनाए नहीं रखेगा,धैर्य धारण नहीं करेगा, विपत्ति में घिरा
ही रहेगा.
अतः
उन्होंने अत्यन्त ही विनम्रता से कहा-" माता ! आप मुझसे एक दिन रुक जाने को
कह रही है. सच कहता हूँ, मेरा मन भी यही कहता है कि चौबिसों प्रहर यहाँ उपस्थित
रहकर आपकी सेवा करुँ. लेकिन. माता ! मुझे क्षमा करें. मैं चाहकर भी ऐसा नहीं कर
पाऊँगा. यदि मैं यहाँ रुका रहा तो फ़िर प्रभु रामजी को कैसे ज्ञात हो पाएगा कि आप
लंका में अशोक वाटिका में रह रही हैं?.
अतःमाते ! मेरा लौट जाना ही उचित होगा. मुझे हर हाल में अपने स्वामी को जाकर इस
स्थान का पता बतलाना होगा. आपका पता पाते ही वे अपने अनुचर भालुओं और वानरों की
विशाल सेना को लेकर आएँगे और दुष्ट रावन को मारकर आपको लिवा ले जाएँगे. अतः आप
धीरज धारण करें."
हे देवी
! मैं नहीं समझता कि मेरे चले जाने के बाद आप अकेली रह जाएँगी?. आपके पास राम नाम
का संबल होगा...आप हर पल उनके नाम का स्मरण करती रहेंगी...आपका मन सदा उनके
श्रीचरणॊं में रमा रहेगा, आपकी हर आती-जाती स्वांस में राम रम रहे होंगे....फ़िर आप
कैसे कह सकती हैं कि अकेली रह जाएंगीं?. आप अकेली कहाँ.हैं? आपके साथ तो प्रभु श्रीराम जी अप्रत्यक्ष रूप से आपके मन
में, आपके आसपास ही उपस्थित हैं, फ़िर यह कहना कि अकेली रह जाऊँगी, मुझे उचित नहीं
जान पड़ता. मैं तो आपको अपनी पीठ पर बिठाकर प्रभु के पास पहुँचा सकता हूँ, लेकिन
इसमें मेरे आराध्य प्रभु श्रीरामजी के बल
और पराक्रम का क्या औचित्य रह जाएगा?. मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि प्रभु राम आपका पता पाते ही शीघ्रता से लंका
की ओर कूच करेंगे और दानवों सहित उस दुष्ट
रावण को यमलोक पहुँचाकर वे आपको ससम्मान वापिस ले जाएँगे. अतः माता आप कुछ दिनों
तक धैर्य धारण करें".
"
हे माता ! मैं तो प्रभु श्रीरामजी का मात्र एक तुच्छ सेवक हूँ. मैंने केवल उनके
नाम और आशीर्वाद का सहारा पाकर महासागर को
लांघ डाला है. उन्हीं के नाम के प्रताप से मैंने सहस्त्रों दावनों का संहार
कर दिया है और लंका को जलाकर भस्मीभूत कर दिया है. जिसके नाम में इतनी शक्ति हो,
तो आप स्वयं राम में कितनी शक्ति होगी, इसका अनुमान लगा सकती हैं?."
"
हे देवी ! आप प्रभु श्रीरामजी की अर्धांगिनी हैं. आप प्रभु श्री रामजी की
प्राणप्रिया हो, फ़िर आपको तनिक भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं हैं."
"
मैंने अपने प्रभु रामजी की कृपा से संपूर्ण लंका में इतना भय व्याप्त कर दिया है
कि अब आपको कोई भी राक्षसी नहीं सता पाएगी.. अतः अब आप एकाग्रचित्त होकर अपने
स्वामी का ध्यान आसानी से कर सकेंगी. सागर के इस पार से आप अपने स्वामी रामजी को
याद करेंगी और सागर के उस पार से प्रभु रामजी आपकी याद करेंगे. इस तरह एक-दूसरे को
याद करते करने से एक ऐसे अद्भुत सेतु का निर्माण होगा, जो एक दूसरे को संबल प्रदान
करेगा. अतः आप अपने मन से इस कुविचार को निकाल दीजिए कि आप यहाँ अकेली रह
जाएंगी."
"
हे माते ! आप धैर्य धारण करें और समय की प्रतीक्षा करें. रावण शीघ्र ही रणभूमि में
मारा जाएगा, यह आप स्वयं अपनी आँखों से देखेंगी. अपने पुत्रों, भाई-बन्धुओं के
सहित रावण के मारे जाने पर आप श्रीरामचन्द्रजी के साथ उसी प्रकार मिलेंगी, जैसे
रोहिणी चन्द्रमा से मिलती है.वानरों और भालुओं के प्रमुख वीरों के साथ रामजी यहाँ
शीघ्र ही पधारेंगे और युद्ध में शत्रुओं को जीतकर आपका सारा शोक दूर कर
देंगे."
विदेहनन्दिनी
सीताजी को इस प्रकार से आश्वासन देकर
उन्होंने माता सीताजी को प्रणाम किया और बिदा मांगी.
"
जाओ वत्स ! तुम्हारा कल्याण हो. मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा. जाओ...अब
तानिक भी विलम्ब मत करो..और शीघ्रता से जाकर प्रभु श्रीराम को मेरे लंका में होने
का समाचार कह सुनाओ, ताकि वे शीघ्रताशीघ्र आकर मुझे अपने साथ लिवा ले जाएं."
हनुमानजी
स्वयं भी अपने स्वामी श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन के लिए उत्सुक थे. अब उन्होंने
अपने अंदर समायी हुई "महिमा" शक्ति का आव्हान किया और देखते ही देखते वे
पर्वाताकार हो गए. पर्वताकार होने के साथ ही उनके शरीर का भार भी बढ़ गया. उन्होंने
भीषण गर्जना करते हुए अपने प्रभु श्रीराम के नाम का उद्घोष किया और अरिष्ट नामक
पर्वत के शिखर पर जा चढ़े और अपने संपूर्ण वेग के साथ उत्तर दिशा की ओर उड़ान भरते
हुए आकाश मार्ग से प्रस्थित हुए.
अरिष्ट
नाम के उस पर्वत की ऊँचाई तीस योजन और चौड़ाई दस योजन की थी, हनुमानजी के पैरों के
दबाव से धरती में धंसने लगा. उस धंसते हुए पर्वत से बड़ा ही भयंकर शोर उत्पन्न हुआ
और वह वृक्षों और भांति-भांति के प्राणियों के सहित रसातल में चला गया और पैरों से
दबकर भूमि के बराबर हो गया..
आकाश में
उड़ान भरते हुए पवनपुत्र श्री हनुमानजी बादलों के समूह को परे धकेलते हुए आगे बढ़
रहे थे. आकाश रूपी समुद्र में उन्हें उड़ान
भरता देख हंसों के समूह भी अति प्रसन्न होकर उनके साथ-साथ उड़ने लगे.हाकांकि हंस
जानते थे कि उड़ान में वे किसी भी तरह से उनका मुकाबला नहीं कर सकते. वे तो उनके
साथ कुछ दूरी तक उड़ते हुए उन्हें देखते रहना चाहते थे. उनके जीवन में ऐसा दुर्लभ
अवसर भला कब आने वाला था?. वे तो वीर हनुमान जी के दिव्य दर्शनों का पुण्य़ लाभ
उठाते हुए आनन्द-मगन होकर साथ-साथ उड़ान भर रहे थे.
पवनपुत्र कभी काले-कजरारे मेघों के समूहों में
प्रवेश करते, कभी बाहर निकल आते. बारम्बार ऐसा करते हुए वे चन्द्रमा के समान
दुष्टिगोचर हो रहे थे, जो कभी बादलों से घिर जाता था और अल्पावधि में बाहर निकल
आता था. बारम्बार मेघ-समूहों को विदीर्ण करने, उसमें प्रवेश करने, फ़िर बाहर निकल
आता हुआ देखकर ऐसा प्रतीत होता मानो विशालकाय गरुड़जी उड़े चले जा रहे हों. विशाल
सागर के ऊपर से उड़ान भरते हुए उन्हें अनेक विशाल मत्स्य, बड़े भारी ग्राह,जो ऐरावती
हाथी के सदृश थे, किसी द्वीप -सा प्रतीत हो रहे थे, दिखाई दिए.
आकाश में
ऊँचा उड़ते हुए हनुमानजी को मैनाक पर्वत दिखाई दिया. उन्होंने आदरपूर्वक उसका
स्पर्श किया और फ़िर उसी गति से आगे बढ़ते हुए वे महेन्द्र पर्वत के निकट पहुँचे.
महेन्द्र पर्वत के निकट पहुँचते ही उन्होंने उच्च-स्वर में गर्जना करते हुए अपने
स्वामी श्रीराम के नाम का उद्घोष किया.
सागर के
तट पर प्रतीक्षा कर रहे वानरयूथों के सहित जाम्बवान ने भी उस गर्जना को सुना.
गर्जना सुनते ही अनेक वानर अपने प्रिय साथी हनुमानजी के दर्शन करने को उत्सुक हो
उठे. प्रसन्नवदन हनुमानजी को देखकर जाम्बवान समझ गए और उन्होंने अन्य वानरों से
कहा-" हनुमान की प्रसन्नता देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि अपने लक्ष्य में सफ़ल
होकर लौट रहे हैं."
उत्तेजना
में आकर वानरों का दल नृत्य करने लगे. कभी वे हाथ हिलाकर, तो कभी अपने वस्त्रों को
हिलाते हुए, एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष तथा एक पर्वत की चोटी से दूसरी चोटी पर छलांग
लगाने लगे.
नीचे
पृथ्वी पर उतरने से पहले हनुमानजी ने अपनी गति को अत्यन्त ही धीमा कर लिया था और
अब वे आहिस्ता-आहिस्ता नीचे उतरते हुए महेन्द्र पर्वत की चोटी पर उतर गए. सभी
वानरों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया और प्रसन्नता से उद्घोष करते हुए उन्हें फ़ल
और मूल भेंट करने लगे.
हनुमानजी
ने सर्वप्रथम यूथपति अंगद सहित सभी ज्येष्ठों को प्रणाम किया. फ़िर उन्होंने सूचित
किया कि माता सीता का पता चल गया है. यह सुनकर सभी अत्यधिक प्रसन्न हुए कि माता
सीता अशोकवाटिका में सुरक्षित है.
तत्पश्चात
अंगद आदि ने उनकी वीरता और प्रभु राम के प्रति सच्ची भक्ति के लिए भूरि-भूरि प्रशंसा
करते हुए उनकी सराहना की. तभी जाम्बवान जी उनके पास आए और उन्होंने हनुमान से
आग्रह किया कि वे अपने लंका जाने एवं वहाँ जाकर सीताजी का पता लगाने तक की पूरी
घटना कह सुनाएँ. आश्चर्यचकित कर देनी वाली घटना को सुनने के लिए सभी वानर उन्हें
घेर कर बैठ गए. अब वे बेसब्री से वह सब कुछ सुनना चाहते थे, जिसकी की उन्होंने कभी
कल्पना तक नहीं की थी.
तभी
बुद्धिमान जाम्बवान ने हनुमानजी से कहा-" हे वानरवीर ! हम जानना चाहते हैं कि
तुमने सीताजी को कैसे देखा? वे वहाँ किस प्रकार रहती हैं? तुमने उन्हें किस प्रकार
ढूँढ निकाला?. जब तुम्हारी भेंट उनसे हुई तब उन्होंने तुमसे क्या कहा?. उस क्र्र
दशानन उनके प्रति कैसा वर्ताव करता है? इन सब बातों को हम सुनना चाहेंगे और जब सब
कुछ सुन लेंगे, उसके बाद ही हम आगे का कार्यक्रम निश्चित करेंगे. हमें यह भी ध्यान
रखना होगा कि कौन-सी बात हमें गुप्त रखनी चाहिए और कौन-सी बात कहनी चाहिए, इस पर
गंभीरता से पहले ही विचार कर लिया जाना चाहिए."
"
हे वीर ! तुम तो स्वयं बुद्धिमान हो. अतः तुम्हें कुछ समझाने की आवश्यकता पड़ेगी,
ऐसा मैं नहीं समझता.अब तुम विस्तार से हमें वह सब कह सुनाओ, जो तुम्हारे साथ घटित
हुआ था."
माता
सीता के बारे में विस्तार से जानने को उत्सुक वृद्ध जामवन्त जी ने, अपने अभियान
में सफ़ल होकर लौटे वीर हनुमानजी से जानना चाहा था. प्रश्न जामवन्त जी की ओर से आया
था, उसका समाधानकारक उत्तर हनुमानजी को देना था. वे अपनी ओर से कुछ कहें इससे
पूर्व उन्होंने सर्वप्रथम अपने आराध्य श्रीरामचन्द्रजी का तथा माता सीताजी का
स्मरण किया. स्मरण करते ही उनके शरीर में रोमांच आ गया. उन्होंने आनंद-मगन होकर इस
प्रकार कहा-" आपने सभी ने देखा कि मैं आकाश में छलांग लगाने से पूर्व अपने
शरीर का विस्तार कर लिया था और महेन्द्र पर्वत के शिखर पर जा चढ़ा था. वहाँ पहुँचकर
मैंने भीषण गर्जना करते हुए अपने आराध्य प्रभु श्रीरामचन्द्रजी का जयकारा लगाया और
पलक झपकते ही आकास मार्ग से उड़ चला."
"कुछ
दूर ही जा पाया था कि मैंने देखा कि एक परम मनोहर दिव्य सुवर्णमय पर्वत शिखर तेजी
के साथ ऊपर उठता हुआ दिखाई दिया. मैंने अनुमान लगाया कि यह मेरी राह में रोड़ा
अटकाना चाहता है. मैंने मन ही मन में विचार किया कि इस पर्वत को विदीर्ण कर डालूँ.
यह सोचकर मैंने अपनी पूँछ से उस पर प्रहार किया. पूँछ के टकराने मात्र से वह विशाल
पर्वत सहस्त्रों टुकड़ों में खण्डित होकर बिखर गया. उसके टुकड़े-तुकड़े होकर बिखरने
के साथ ही मुझे सुनाई दिया. उस दिव्य पर्वत ने मुझे "पुत्र" कहकर पुकारा
और कहा कि तुम मुझे अपना चाचा समझो. मैं तुम्हारे पिता वायुदेवता का मित्र हूँ.
मेरा नाम मैनाक है और मै इस महासागर में निवास करता हूँ."
"
हे पुत्र ! पूर्वकाल में हम पर्वतों के पंख हुआ करते थे. पंखों के होने से हम
स्वछन्द रूप से कहीं भी विचर सकते थे. हमारे इस तरह विचरण करने से प्रजा को अनेक कष्टों
का सामना करना पड़ता था. अतः उन्होंने अपनी पीड़ा को उजागर करते हुए देवराज इन्द्र
से अनुरोध किया कि इन उड़ते हुए पर्वतों से हमें बचाइए. प्रजा की प्रार्थना सुनकर
देवराज इन्द्र ने क्रोधित होते हुए अपने दिव्यास्त्र "वज्र" से हमारे
पंख काटना प्रारंभ किया.उन्होंने सहस्त्रों पर्वतों के पंख काट डाले., परंतु
तुम्हारे महात्मा पिता ने मुझे इन्द्र के हाथ से बचा लिया और समुद्र में डाल दिया.
इस तरह मेरे पंख बच गए."
"
हे शत्रुदमन वीर ! आपको आकाश में बिना विश्राम लिए उड़ता देख समुद्रदेव ने मुझसे
कहा- मैनाक ! तुम थोड़ी देर के लिए ऊपर उठ कर हनुमान को अपनी चोटी पर बिठाकर उनकी
थकान को दूर करो. उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए मैंने सोचा श्रीरघुनाथजी की
सहायता के कार्य में मुझे भी तत्पर होना चाहिए, यही सोचकर मैं ऊपर उठा था. हे वीर
हनुमान ! मेरा आपसे निवेदन है कि आप कुछ
देर मेरी चोटी पर बैठकर विश्राम कर लो, तत्पश्चात आगे प्रस्थान करना." मैंनाक
की बातों को सुनकर मैंने उन्हें समझाया कि मैं अपने प्रभु श्रीरामचन्द्र जी का
कार्य पूरा किए बिना मेरे लिए विश्राम करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता. अतः आप
मुझे आगे जाने की आज्ञा दीजिए. मैंने उनको हाथ से छू कर प्रणाम किया और अपने
अभियान पर निकल पड़ा".
"
फ़िर मैं अपने उसी वेग से आगे बढ़ ही रहा था कि अचानक से एक भयानक मुँह वाली राक्षसी
जिसका शरीर पर्वताकार था, मेरे सामने प्रकट हो गयी. उसका मुख अत्यंत विशाल व भयानक
था. मुझे देखकर वह अपना भोजन समझ रही थी. उसने मुझसे कहा-" मैं कई दिनों से
भूखी हूँ. आज विधाता ने तुम्हें मेरे भोजन के लिए भेजा है.मुझे भगवान ब्रह्माजी से
वरदान मिला है कि कोई भी प्राणी मेरी आज्ञा के बिना यहाँ से आगे नहीं जा सकता,
इसलिए तुम्हें मेरे मुख में आना ही होगा"
"
मैंने विनयपूर्वक अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं प्रभु श्रीरामजी की आज्ञा से
माता सीताजी का पता लगाने लंका जा रहा हूँ .राक्षसराज रावण ने उनका अपहरण कर लंका
ले गया है. मैं उनका पता लगाकर अपने स्वामी को समाचार देकर मैं पुनः आपके समक्ष
उपस्थित हो जाऊँगा. मेरे अनुरोध को अस्वीकार करते हुए वह अपनी जिद पर अड़ी रहीं.
विलम्ब होता देख मैंने अपने शरीर का विस्तार करना प्रारंभ किया. वह भी उसी के
अनुरूप अपना शरीर और मुँह बढ़ाती रहीं.जब उनका पूरा जबड़ा खुल गया तब मैंने
"अणिमा सिद्धि" को प्रयोग में लाकर अपने विशाल शरीर को सूक्ष्म बनाकर
उसके मुँख में प्रवेश किया और फ़िर उसी गति से बाहर निकल आया."
"
मेरी चतुराई देखकर वह अत्यन्त ही प्रसन्न होती हुई मुझसे बोली-"मैं दक्ष की
पुत्री, ऋषि कश्यप की पत्नी व नागों की माता सुरसा हूँ. मुझे स्वयं देवताओं ने
तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए भेजा था. वे देखना चाहते थे कि जो व्यक्ति माता
सीताजी की खोज में जा रहा है उसमें कितना धीरज, बुद्धि व बल है. इसलिए मैं राक्षसी
का रूप धारण कर तुम्हारी परीक्षा लेने आयी थी. जिसमें तुम भली-भांति सफ़ल हुए
हो."
"
हे कपिश्रेष्ठ ! अब तुम कार्य सिद्धि के लिए सुखपूर्वक यात्रा करो और विदेहनन्दिनी
सीताजी को महात्मा रघुनाथजी से मिलाओ. हे महाबाहु वानर ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न
हूँ. यह कहकर उन्होंने मेरी भूरि-भूरि प्रशंसा की, मुझे आशीर्वाद दिया और अंतर्धान
हो गयीं."
"मैं
महात्मा गरुड़ की भाँति द्रुतगति से आकाश मार्ग उड़ान भरने लगा. उस समय अचानक किसी
ने मेरी परछाई पकड़ ली. मेरी छाया पकड़ी जाने के बाद मेरी गति अवरुद्ध हो गयी. लाख
कोशिश के बाद भी मैं उसकी पकड़ से बाहर नहीं निकल पा रहा था और न ही उसे देख ही पा
रहा था. मुझे घोर आश्चर्य हो रहा था कि आखिर मुझे इस तरह पकड़ने वाला कौन हो सकता
है?. आश्चर्य तो मुझे इस बात पर भी हो रहा था कि मैं उसे देख नहीं पा रहा
था."
"
चारों दिशाओं में सुक्ष्मता से निरीक्षण करने के बाद, सहसा मैंने नीचे की ओर दृष्टि डाली, तब मुझे एक भयानक राक्षसी
दिखाई दी, जो जल में निवास करती थी. उस राक्षसी ने भयंकर हट्टहास लगाते हुए मुझसे
कहा-" विशालकाय वानर ! मेरी पकड़ से
बचकर कहाँ भागे जा रहे हो ?. मैं चिरकाल से भूखी हूँ. तुमसे बढ़कर मनोवांछित भोजन
और भला कौन हो सकता है?. अतः मैं तुम्हारा भक्षण करके अपनी क्षुधा को शांत
करुँगी". ऐसा कहते हुए उसने मुख का विस्तार बढ़ा लिया."
"
जैसा तुम्हें उचित लगे " ऐसा कहते हुए मैंने उसकी बात मान ली और अपने शरीर का
विस्तार उसके मुख के प्रमाण से बहुत अधिक बढ़ा लिया. परंतु उसका मुख मेरा भक्षण
करने के लिए बढ़ता ही जा रहा था. तभी मैंने विचार किया कि इस तरह के खेल खेलने में
समय के बरबादी ही होगी.अतः मैंने पुनः अपनी अणिमा सिद्धि का प्रयोग करते हुए, अपना
स्वरूप अति सूक्ष्म बना लिया और सीधे उसके मुख में प्रवेश कर उस राक्षसी का कलेजा
फ़ाड़कर आकाश मार्ग में उड़ गया. मेरे द्वारा कलेजा काट दिए जाने के बाद उस राक्षसी
की बाहें शिथिल होने लगी और समुद्र में गिर पड़ी. उसी समय आकाशचारी सिद्ध महात्माओं
की सौम्य वाणी मुझे सुनाई पड़ी. वे आपस में वार्ता करते हुए कह रहे थे कि मैंने
सिहिंका नामवाली भयंकर राक्षसी को मार डाला है."
"
इस तरह उस राक्षसी का वध करने ने पश्चात मैंने अपने उस आवश्यक कार्य पर ध्यान
दिया.वैसे ही मुझे उन दोनों राक्षसियों से उलझाव के कारण अधिक विलम्ब हो चुका था.
उस विशाल मार्ग को समाप्त करके मैंने पर्वतमालाओं से मंडित समुद्र का दक्षिणी
किनारा देखा, जहाँ सुवर्ण लंका बसी हुई थी. आकाशमार्ग से उड़ते हुए मैंने देखा.
लंकापुरी चारों से भयानय राक्षसों से घिरी हुई थी. मैं नहीं चाहता था कि किसी को
भी मेरे आगमन की भनक नहीं लगनी चाहिए. अतः सूर्यदेव के अस्ताचल में चले जाने के
बाद मैंने अन्धकार का फ़ायदा उठाकर लंकापुरी में प्रवेश किया."
"मैं
इस बात से निश्चिंत था कि अंधकार के कारण मुझे कोई नहीं देख पाएगा. लेकिन यह मेरा
कोरा भ्रम निकला. मेरे लंका में प्रवेश करते ही प्रलयकाल के मेघ की भाँति काली
कान्तिवाली एक स्त्री अट्टहास करती हुई सहसा मेरे सामने खड़ी हो गयी. देखते ही वह
मुझे मार डालना चाहती थी. अपने बचाव के लिए मैंने उसे बायें हाथ के मुक्के से
प्रहार करते हुए उस निशाचरी को परास्त कर दिया और फ़िर निश्चिंत होकर लंका में
प्रवेश करने लगा.मुझे लंका में प्रवेश करता देख उस राक्षसी ने मुझसे इस प्रकार
कहा-" हे वीर वानर ! मैं ही साक्षात लंकापुरी हूँ. तुमने अपने पराक्रम से
मुझे परास्त कर मुझे जीत लिया है. इसलिए अब तुम समस्त राक्षसों पर विजय प्राप्त कर
लोगे."
"
वहाँ सारी रात नगर के घर-घर घूमने के बाद मैं राक्षसराज रावण के अन्तःपुर में जा
पहुँचा, लेकिन मुझे कहीं भी माता जानकी नहीं दीख पड़ी. सारा महल छान लेने के बाद
मुझे एक बहुत ही उत्तम उद्यान दिखाई दिया, जो चारों ओर से सुवर्णमय कदलीवन से
आच्छादित था. इसी कदलीवन के बीच में मुझे एक विशाल और घना अशोक वृक्ष दिखाई दिया.
मैं उस वृक्ष पर जा चढ़ा. उस अशोक वृक्ष के नीचे मुझे जनकनन्दिनी सीता जी के दर्शन
हुए."
इतना
कहकर उन्होंने अचानक चुप्पी ओढ़ ली और मानसिक तौर पर वे लंका में स्थित उस अशोक
वाटिका में जा पहुँचे, जहाँ माता सीता दीन-हीन अवस्था में बैठी हुई थी. उनके समक्ष
बैठकर वे उन्हें अपलक नेत्रों से देख रहे थे. देख रहे थे कि सीताजी के नेत्र
प्रफ़ुल्ल कमलदल के समान सुन्दर हैं. लेकिन कई दिनों से भोजन नहीं लेने के कारण वे
अत्यन्त ही दुर्बल दिखाई दे रही थीं. उनकी यह दुर्बलता उनका मुख देखते ही स्पष्ट
हो जाती है कि उन्होने कई दिनों से कड़ा उपवास कर रखा था. उन्होंने एक ही वस्त्र
पहन रखा था,जो धूल से धूसरित हो चुका था. उनके केश भी धूल से धूसर हो गए थे. वे
नितांत अकेली, अपने पति और स्वजनों से दूर उस लंका में निर्वासितों-सा जीवन जीने
के लिए अभिशप्त थीं.
इतना ही
नहीं उन्हें रक्त-मांस का भक्षण करने वाली अनेक क्रूर एवं कुरुप राक्षसियों ने
चारों ओर से घेर रखा था. वे ठीक उसी तरह घिरी हुई थीं जैसे बहुत-सी बाघिनों ने
किसी हिरणी को घेर लिया हो.. राक्षसियों ने उन्हें केवल घेर कर ही नहीं रखा था,
बल्कि बीच-बीच में वे उन्हें बार-बार धमकाती
भी जा रही थीं. उस हृदय विदारक दृष्य की कल्पना मात्र से धीर-वीर हनुमानजी
का हृदय भर आया . शरीर में कंपन होने लगा. गला रुंध आया था. उन्हें ढूँढे शब्द
नहीं मिल रहे थे. शब्द तालु से आकर चिपक
गए थे. नेत्रों में जल भर आया था और अब आंसू गालों पर लुढ़कलर बहने लगे थे.
उनकी
मानसिक दशा को देख वानर दल के सहित ऋक्षराज जाम्बवन्त की भी आँखें भर आयी. चुंकि
जाम्बवन्त जी को जीवन का लंबा अनुभव था. वे हनुमान की स्थिति देखकर समझ चुके थे कि
माता सीता जी निपट अकेली, लंका जैसी अपरिचित जगह पर रहकर कितने दारुण दुःखों को
झेल रही होंगी, जिसका वर्णन करते-करते धीर-वीर हनुमान चुप ही नहीं हो गए थे,बल्कि
उनके दुःखों से दुःखित होकर स्वयं विलाप करने लगे थे. स्थिति की गंभीरता को देखते
हुए जाम्बवंत जी अपने स्थान से उठ खड़े हुए और आगे बढ़कर उन्होंने शोक-संतप्त
हनुमानजी के पीठ पर अपनी हथेली का हलका-सा स्पर्श करते हुए उन्हें ढाढस बंधाने
लगे. हथेली का हल्का-सा स्पर्श पाकर हनुमानजी सामान्य स्थिति में आने लगे थे. किसी
तरह धीरज धारण कर वे पुनः आगे का समाचार सुनाने लगे.
"
बार-बार धमकाने से तंग आकर वे राक्षसियों से कहतीं- " तुम सब मिलकर मुझे मार
डालो. हाँ, हाँ मुझे मार डालो. मैं अपने स्वामी प्रभु राम जी के बिना एक पल भी
जीना नहीं चाहती" कहते हुए वे विलाप करने लगी थीं. उनका यह दारून क्रंदन
सुनकर मुझे बहुत ही क्रोध हो आया कि इन सब राक्षसियों को मार डालूँ. मैं उन्हें
मारने के लिए उद्यत हुआ ही था कि मुझे गम्भीर कोलाहल सुनायी पड़ा. स्थिति को भांप
कर मैंने अपने स्वरूप को समेट कर छोटा बना लिया और पक्षी की भांति अशोक वृक्ष में
छिपकर बैठा गया.
ततो रावणदाराश्च रावणश्च महाबलः : तं देशमनुसम्प्राप्तो यत्र
सीताभवत् स्थिता. (65)
मैंने
देखा. राक्षसराज रावण अपनी बहुत-सी स्त्रियों के साथ उस स्थान पर किसी मदमस्त
हाथी-की-सी चाल चलता हुआ, धीरे-धीरे उस स्थान की ओर बढ़ रहा था, जहाँ सीतादेवी
विराजमान थीं. उसने अपने सिर पर बहुमूल्य
हीरे-मोती-माणिक्यों से जड़ा हुआ मुकुट धारण किया हुआ था. उसने गले में बहुत सारे
सुवर्णाभूषण पहन रखा था. उसके आगे-आगे बहुतेरे वाद्ययंत्र बजाने वाले भयंकर शोर
उत्पन्न करते हुए चल रहे थे. रावण के ठीक पीछे उसकी दोनो पत्नियाँ मंदोदरी,
धन्यमालती सहित अनेक सुन्दर-सुन्दर स्त्रियाँ चल रही थीं. सभी के हाथों में सोने
से बने थाल थे, जिसमें रंग-बिरंगे मनभावन वस्त्र, बहुमूल्य स्वर्णनिर्मित आभूषण
आदि रखे हुए थे, अपनी महारानी के पीछे-पीछे चल रही थीं.
अवाक्शराः प्रपतितो बहुमन्यस्व मामिति (श्लोक 68-अष्टपंचाशः सर्गह)
लंकापति
रावण को पास आता देख माता सीता जी भयभीत होकर इधरे-उधर देखने लगीं. इस समय उनके
आसपास कोई भी रक्षक नहीं था. उन्होंने अपना सिर नीचे झुका कर आंचल से ढंक लिया.
तभी राक्षसराज रावण गिड़गिड़ाता हुआ सिर नीचे किए हुए माता सीताजी के चरणॊं में गिर
पड़ा और बोलने लगा-" हे विदेहकुमारी ! मैं तुम्हारा सेवक हूँ. तुम मुझे अधिक
आदर दो". लेकिन माता सीता ने न तो उसकी तरफ़ आँख उठाकर देखा और न ही उसके
प्रणय निवेदन का कोई उत्तर ही दिया. वे चुपचाप खामोशी ओढ़कर बैठी रहीं.
द्विमासानन्तरं सीते पास्यामि रुधिरं तव (69)
माता
सीता जी की ओर से कोई प्रत्युत्तर न पाकर
रावण अत्यन्त ही कुपित होकर, उन्हें धमकाते हुए कहने लगा-" हे गर्विली सीते !
यदि तू घमंड में आकर मेरा अभिनंदन नहीं करेगी तो आज से दो महिने बाद मैं तेरा खून
पी जाऊँगा".
रावण की
गीदड़ धमकियों को सुनकर जगतजननी सीता जी ने कठोर वचन बोलेते हुए कामांध रावण को लगभग फ़टकारते हुए
कहा-" हे नीच रावण ! महान तजस्वी प्रभु श्रीराम जी की पत्नी और इक्ष्वाकुकुल
के स्वामी महाराज दशरथ जी की पुत्रबधु से यह न कहने योग्य बात कहते हुए तेरी जीभ
क्यों नहीं गिर गयी? हे दुष्ट पापी ! तू अपने आपको बड़ा पराक्रमी कहते नहीं थकता.
जब मेरे पतिदेव निकट नहीं थे, तब तूने उनकी दृष्टि से छिपकर चोरी-चोरी मुझे हर
लाया. तू कभी भी मेरे स्वामी की बराबरी नहीं कर सकता तू तो उनका दास होने के भी
योग्य नहीं है. मेरे स्वामी सत्यभाषी, शूरवीर, सदैव अजेय हैं."
सीता जी
के द्वारा अपनी भर्तसना को सुनकर दशमुख रावण चिता में जली हुई आग की भांति सहसा
क्रोध में जल उठा. उसने दाहिना मुक्का उठाकर मिथिलेशकुमारी को मारना चाहा. उसे ऐसा
करता हुआ देखकर वहाँ उपस्थित सारी स्त्रियाँ हाहाकार करने लगीं.
रावण के
इस दुस्साहसी वर्ताव को देखकर मुझे अत्यन्त ही क्रोध हो आया था. मेरी सहनशक्ति
चुकने लगी थी. मैं अविलम्ब वृक्ष से कूदकर उस दुष्ट रावण को उसके इस नीच व्यवहार
पर दण्डित करने का मानस बना चुका था, लेकिन तभी स्त्रियों के बीच से उस दुरात्मा की
सुन्दर भार्या मन्दोदरी झपटकर आगे आयीं और
उसने रावण का हाथ पकड़ लिया और उसे ऐसा नीच कर्म करने से बलपूर्वक रोका.
महारानी
मन्दोदरी को तरह बीच-बचाव करता हुआ देखकर मेरा क्रोध कुछ कम हुआ. मैं समझ गया कि
मेरे प्रभु श्रीरामजी की ओर से और न ही वयोवृद्ध ऋजराज जाम्बवंत जी ने मुझे रावण पर आक्रमण कर उसे दण्डित करने का आदेश
नहीं दिया है.
रावण को
बलपूर्वक रोकते हुए मन्दोदारी ने अपने पति रावण को अकारण क्रोध न करने की सलाह
देते हुए कहा-" हे प्राणेश्वर ! सीता से तुम्हें क्या काम है? मैं विश्व की
सर्वश्रेष्ठ सुन्दर स्त्री हूँ और आपकी भार्या हूँ, आप महल चला चलिए और मुझसे रमण
करिए. जनकनन्दिनी सीता मुझसे अधिक सुन्दर नहीं है. यदि आप मुझसे रमण करना नहीं
चाहते तो आपके स्वर्णिम महल में एक से बढ़कर एक देवताओ, गन्धर्वों और यक्षों की
कन्याएँ हैं, उनके साथ रमण करो, सीता को लेकर क्या करोगे?. ऐसा कहते हुए उन्होंने
और अन्य स्त्रियों ने मिलकर कामांध रावण को अपने महल में ले गयी.
रावण के
चले जानेके पर विकराल मुखवाली राक्षसियाँ अत्यन्त ही क्रूरतापूर्ण वचनों से माता
सीता को कच्चा चबा जाने की धमकियां देते हुए धमकाने लगीं थीं. माता सीताजी को राक्षसियों
द्वारा इस तरह धमकाता हुआ देख कर मैं पुनः क्रोध में भर उठा था. मैंने मानस बना
लिया था कि सारी राक्षसियों को अभी और इसी समय यमपुरी भिजवाए देता हूँ. मैं वृक्ष
से छलांग लगाने ही वाला था कि उन राक्षसियों के बीच से त्रिजटा नाम वाली राक्षसी,
माता सीताजी का बीच-बचाव करने के लिए आगे आयीं और कहने लगीं-" अरी दुष्टाओं !
इतनी ही भूख लगी है तो तुम अपने-आपको कच्चा चबा जाओ. इन कजरारी नेत्रों वाली सीता
को, जो महाराज जनक की लाड़ली पुत्री हैं, इस योग्य नहीं हैं".
"
सुनो....तुम सब ध्यान से सुनो...आज और अभी मैंने एक बड़ा ही भयंकर और रोंगटे खड़ा कर
देने वाला सपना देखा है. इक्ष्वाकु-कुल में जन्मे प्रभु श्रीरामजी ने अपना विशेष
दूत, जिसका नाम हनुमान है, माता सीताजी की खोज में यहाँ भेजा है. उस वानर ने न
केवल सीता जी का पता लगा लिया है, बल्कि अनेक राक्षसों का वध करते हुए संपूर्ण
लंका को जलाकर भस्मीभूत कर दिया है. यदि तुम जीवित रहना चाहती हो, तो अच्छा यह
होगा कि अपने कुकर्मों के लिए सीताजी से अपने अपराधों के लिए क्षमा-याचना करो.
केवल प्रणाम करने और क्षमा मांगने से वे प्रसन्न हो जाएंगी और महान भय से तुम
लोगों की रक्षा भी करेंगी."
"त्रिजटा
की बातों को सभी राक्षसियां ध्यानपूर्वक सुन रही थीं. सुन रही थीं कि केवल
प्रार्थना करने मात्र से जानकी जी प्रसन्न हो जाएंगी. वे सभी उनके चरणों में विनित
भाव से प्रणाम करते हुए क्षमा याचना करने लगी. माता सीता ने उन सभी को आश्वस्त
करते हुए कहा कि वे तुम सब लोगों की रक्षा अवश्य करेंगी.
जब सारी
राक्षसियां वहाँ से हट गयीं, तब मैंने माता जानकी से वार्तालाप करने के लिए एक
उपाय सोचा. मैंने अशोक वृक्ष में छिपकर बैठे रहकर ही इक्ष्वाकुवंश की प्रशंसा करना
प्रारंभ किया जिसे सुनकर देवी सीताजी के नेत्रों में आँसू भर आए और वे मुझसे
बोलीं-" हे कपिश्रेष्ठ ! तुम कौन हो? किसने तुम्हें भेजा है? तुमने इस
महासागर को कैसे पार किया? मेरे स्वामी के साथ तुम्हारा कैसा प्रेम है.? मुझे सब
बताओ."
"मैने
विनम्रतापूर्वक बतलाया कि मैं प्रभु श्रीरामजी का सेवक हूँ. मेरा नाम हनुमान है. उन्होंने
मुझे आपको खोज निकालने के लिए भेजा है. प्रभु श्रीरामजी ने मुझे पहचान के लिए यह
अंगूठी दी है. यह कहते हुए मैंने वह अंगूठी माता सीताजी को दे दी, जिसे पाकर उनका
असह्य दुःख दूर हुआ. उनकी प्रसन्नता को देखते हुए मैंने कहा कि यदि आप मुझे आज्ञा
दें तो मैं अभी और इसी समय आपको अपनी पीठकर बिठाकर रघुनाथ जी के पास पहुँचा सकता
है. इस विषय में आपका क्या अभिमत है?."
मेरी बात
को सुनकर उन्होंने सोच-समझ कर मुझसे कहा-" मेरी इच्छा है कि श्री रघुनाथजी
स्वयं लंका आएं और दुष्ट रावण का संहार करके मुझे यहाँ से ले चलें. मैंने उन्हें
अपनी ओर से आश्वस्त करते हुए कहा-’ माता ! प्रभु श्रीराम शीघ्र ही लंका पर आक्रमण
कर दुष्ट रावण का संहार करेंगे और आपको सम्मानपूर्वक अपने साथ लिवा ले
जाएंगे".
"
हे ऋषराज जी ! त्रिजटा के मुख से मैंने सुना कि मैंने संपूर्ण लंका को जलाकर
भस्मीभूत कर दिया है. मैं समझ गया कि प्रभु श्रीरामजी ने मुझे विशेषरूप से यह
दायित्व सौंपा है. अतः उन्होंने संकेत के माध्यम से त्रिजटा के मुख से कह सुनाया
है. अब मैं शीघ्रता से उस ओर सोचने लगा था कि मुझे अब क्या करना चाहिए?. मैं जान
चुका था कि रावण को अशोक वाटिका से विशेष लगाव है, इसलिए उसने अनेक राक्षसों को
उसकी अभिरक्षा के लिए लगा रखा है, अशोक वाटिका से होकर ही रावण तक पहुँचा जा सकता
था. अतः मैंने उसे उजाड़ने के लिए अपना मानस बना लिया. अशोक वाटिका में नाना प्रकार
से सुस्वादु फ़ल लगे हुए थे. मैंने माता सीताजी से विनयपूर्वक आज्ञा मांगी कि मुझे
जोरों की भूख लगी है, मैं कुछ फ़ल खाकर अपनी क्षुधा को शांत करना चाहता हूँ."
"
हे ऋक्षराज जी ! भूख तो मात्र एक बहाना था, दरअसल मैं रावण की अतिप्रिय वाटिका को
उजाड़कर उसके दरबार में जाने का और रावण से मिलने का अवसर तलाश कर रहा था और यह
अवसर मुझे अशोक वाटिका को उजाड़ने के बाद ही मिलने वाला था. अतः मैंने उसे उजाड़ना
शुरु कर दिया.
अशोकवाटिका
की अभिरक्षा में लगे राक्षसों से मुझे ऐसा करने से रोकते हुए मुझ पर आक्रमण कर
दिया. मैंने सभी को मार गिराया. जो कुछ थोड़े-बहुत बच रहे थे, उन्होंने जाकर रावण
को सूचित किया कि एक वानर ने समूची वाटिका उजाड़ डाली है.
अपनी
प्रिय वाटिका के उजड़ने का समाचार पाकर निश्चित ही रावण को क्रोध हो आया होगा, उसने
एक के बाद एक अपने सेनापतियों- किंकर, जम्बुमाली, मंत्रियों के सात पुत्रों को
भेजा कि वे मुझे पकड़कर ले आएं. मैंने सभी को मार गिराया. इसके बाद मुझे पकड़ने के
लिए उसने अपना प्रिय पुत्र अक्षयकुमार को भेजा, जिसका मैंने वध कर दिया. उसके बाद
रावण ने इन्द्र पर विजय प्राप्त पुत्र इन्द्रजित को भेजा. उसने ब्रह्मास्त्र के
द्वारा मुझे बांध कर राक्षसराज रावण के दरबार में ले गया. यही तो मैं भी चाहता भी
था.
"मैंने
रावण को बहुतेरा समझाया कि वह प्रभु रामजी से क्षमा मांगते हुए माता सीताजी को
लौटा दे,लेकिन उसने ऐसा करने से साफ़ मना करते हुए कहा कि रावण त्रिलोक विजेता है
और वह बनवासी राम से कभी भी क्षमा नहीं मांगेगा. यदि उस तुच्छ बनवासी राम में इतना
पराक्रम है तो वह आकर मुझसे युद्ध करे. उसे मैंने ही नहीं बल्कि महात्मा विभिषण जी
ने भी बहुतेरी समझाईश दी कि वह माता सीता को सम्मान वापिस प्रभु श्रीराम के पास
लौटा दे, लेकिन उसे साफ़ मना कर दिया."
अशोक
वाटिका के उजड़ जाने से वह बहुत क्रोध में था और वह मुझे दण्डित करना चाहता
था. पहले तो उसने मेरा अंग-भंग कर देना
चाहा फ़िर अपने अनेक सेवकों के कहने पर उसने मेरी पूंछ में आग लगाने का आदेश दिया.
उसका आदेश सुनकर मैं मन ही मन प्रसन्न हो रहा था कि रामजी का संकेत पाकर मुझे
लंका-दहन करने का सुअवसर प्राप्त होने जा रहा है. प्रभु श्रीराम यह भी चाहते रहे
होंगे कि उनका दूत माता सीताजी का पता तो लगाए ही, साथ ही कुछ ऐसा विचित्र काम भी
कर आए जो लंकावासियों सहित दुष्ट रावण के मन में गहराई से भय व्याप्त हो जाए और वह
सोचने पर विवश हो जाए कि जब रामजी का एक दूत इतना शक्तिशाली है कि उसने सोने की
लंका को न सिर्फ़ भस्मीभूत कर डाला है बल्कि अनेक राक्षसों को यमपुरी पहुँचा दिया
है. जब स्वयं प्रभु रामजी लंका पर आक्रमण करेंगे, तब शायद ही कोई जीवित रह
पाएगा."
"अब
इसे रावण की मुर्खता ही कहना चाहिए कि उसने अपने सभासदों का सुझाव तो मान लिया
लेकिन उसके कितने भीषण परिणाम होने वाले थे, वह नहीं जान पाया. मेरी पूंछ में
लपेटा जाने वाला कपड़ा भी रावण का था. पूंछ में जो तेल डाला गया, वह भी रावण का था.
यहां तक आग भी रावण की ही थी और धू-धू करके जलने वाली लंका भी रावण की ही थी.और
मारे गए राक्षसों का समूह भी रावण के थे. अपनी एक मूर्खता से उसने अपनी सोने की
लंका जलवा डाली."
"संपूर्ण
लंका को भस्मीभूत कर देने और समस्त राक्षसों के सहित लंकापति रावण के मन में भय
उत्पन्न करने के पश्चात मैंने समुद्र में कूद कर अपनी पूंछ में लगी अग्नि को
बुझाया और माता सीताजी से बिदा मांगने के
लिए पुनः अशोकवाटिका जा पहुँचा. मैंने उनसे प्रार्थना की कि कृपया कर आप मुझे
पहचान के रूप में कोई ऐसी चीज दीजिए, जो मेरे प्रभु के मन को आनन्द प्रदान करने
वाली हो."
"
मेरे मांगने पर माता सीताजी ने प्रसन्नतापूर्वक अपने हाथ का चूड़ामणि उतारकर दिया.
मैंने उन्हें प्रणाम किया और दक्षिणावर्त परिक्रमा की. माता सीताजी ने मुझे जाने
को उद्धत जानकर पुनः मुझसे कहा-" हे वीर हनुमान ! तुम रघुनाथजी से मेरा सारा
वृत्तान्त सुनाना और ऐसा प्रयत्न करना, जिससे सुग्रीव सहित वे दोनों वीरबंधु
श्रीराम और लक्ष्मण मेरा हाल सुनते ही अविलम्ब यहाँ आ जाएं. यदि इसके विपरीत हुआ
तो दो महीने तक मेरा जीवन और शेष है. उसके बाद श्री रघुनाथजी मुझे नहीं देख
सकेंगे. मैं अनाथ की भांति मर जाऊँगी".
जानकी जी
के वचनों को सुनाते हुए वीर हनुमानजी अचानक चुप हो गए थे और उनके नेत्रों से आँसू
झर-झर कर बहने लगे. देर तक मौन काढ़े रहने के बाद उन्होंने पुनः कहना प्रारंभ
किया-" हे जामवन्त जी ! भयंकर राक्षसिनियों द्वारा लगातार सताए जाने के कारण
माता सीताजी ने अनेक असहनीय दुःखों को झेला है. यद्यपि रावण उन्हें अपना सर्वस्व
प्रदान करना चाहता है, किन्तु माता उसका तिरस्कार करती रही हैं, क्योंकि वे अपने स्वामी के रूप में रामजी के अतिरिक्त
और किसी को नहीं जानती हैं. रामजी के सतत चिंतन के कारण वे अभी तक जीवित है, यदि
उन्हें शीघ्र जाकर मुक्त न किया गया तो निश्चित ही अपने प्राण त्याग देंगी."
"
अतः मैं चाहता हूँ कि क्यों न हम शीघ्रताशीघ्र लंका पर आक्रमण करके माता सीता को
ले आएं और किष्किंधा में रामजी के पास पहुँचा दें. मैं जानता हूँ कि स्वयं मैं या
अंगद अकेले ही सभी राक्षसों को परास्त कर सकते हैं. यदि सीताजी का पता लगाने के
अतिरिक्त हम उन्हें छुड़वाकर ले आएं तो सोचो रामजी कितने प्रसन्न होंगे? वस्तुतः
मैं सरलता से उन्हें अपने साथ ला सकता था किन्तु मुझे ऐसा करने की अनुमति आपने
प्रदान नहीं की थी, इसीलिए मैंने ऐसा नहीं किया." इतना कहकर हनुमानजी चुप हो
गए और इस बात की प्रतीक्षा करने लगे कि उनके द्वारा दी गयी सलाह पर कैसी प्रतिक्रिया
सुनने को मिलती है.
मेरी
बातों को सुनकर राजकुमार अंगद ने कहा-" एक बार अश्विनी-कुमारों को सम्मान
देने के लिए भगवान ब्रह्मा ने उनके पुत्रों मैन्द और द्विविद को वरदान दिया था कि
युद्ध में उन्हें कोई न तो पराजित कर सकेगा और न ही उनका वध ही कर सकेगा. इस कारण
वे अभिमानी वानर देवताओं की पूरी सेना को पराजित कर सके और बलपूर्वम अमृत पी गए.
मेरे विचार से वे सरलता से रावण को परास्त कर सकते हैं. वास्तव में वे यहाँ हमारे
साथ ही है, अतः मैं समझता हूँ कि हमें लंका पर आक्रमण कर देना चाहिए और माता
सीताजी को छुड़ाकर ही प्रभु रामजी के पास जाना चाहिए."
अनुभवी
वृद्ध जाम्बवान जी युवराज अंगद की बातों को ध्यान से सुन रहे थे. अंगद के इस
प्रस्ताव से वे सहमत नहीं थे. उन्होने
अंगद को फ़टकार लगाते हुए कहा-" हे राजकुमार ! तुम्हारी योजना में
गंभीरता का अभाव है. हमें केवल माता सीताजी का पता लगाने की आज्ञा दी गई थी और
उन्हें मुक्त करने के लिए युद्ध करने की आज्ञा नहीं दी गई है. यदि हम इसमें सफ़ल भी
हो जाएँ तो मेरे विचार से इस कार्य से रामजी को अप्रसन्नता होगी, क्योंकि सभी
वानरों के समक्ष उन्होंने प्रतिज्ञा की है कि वे स्वयं रावण का वध करके माता सीताजी
को लेकर आएँगे."
वृद्ध
जाम्बवान के परामर्श को प्रायः सभी ने ध्वनिमत से स्वीकार किया और अविलम्ब ही
किष्किन्धा की ओर प्रस्थान किया. मार्ग में जाते हुए वानर आकाश में छलांग मारते
हुए वृक्षों से घिरे एक सुन्दर वन में जा
पहुँचे, जो नन्दनवन के समान मनोहर था. उस वन का नाम मधुवन था. सुग्रीव का यह मधुवन
सर्वथा सुरक्षित था. महात्मा सुग्रीव के मामा महावीर दधिमुख नामक वानर उस वन की
रक्षा करते थे.
वन में
पहुँचकर सभी वानर वहाँ का मधु पीने और स्वादिष्ट फ़ल खाने के लिए अत्यन्त ही
उत्कण्ठित हो उठे. उस समय कुमार अंगद ने जाम्बवान आदि बूढ़े वानरों की अनुमति लेकर
सबको मधु पीने की आज्ञा दे दी. आज्ञा पाते ही वानर वृक्षों पर जा चढ़े. वहाँ के
सुगन्धित फ़ल-मूलों का सेवन करते हुए सबको बड़ी प्रसन्नता हुई. क्षुधा शांत होने के
पश्चात अब वे मद से उन्मत्त होकर आनन्दमगन होकर वृक्षों पर चढ़कर नाचने-कूदने और
उसका विध्वंश करने लगे.
दधिमुख
ने देखा कि वानर-सेना वृक्षों के पत्तों एवं फ़ूलों को नष्ट कर रहे हैं. यह देखकर
उन्हें क्रोध हो आया और उन्होंने वानरों को ऐसा करने से रोकने का प्रयास करने लगे.
चुंकि मधु पीने से वानरों को अत्यधिक नशा चढ़ चुका था. अतः उन्होंने दधिमुख की किसी
भी बात पर ध्यान नहीं दिया और उपद्रव करते रहे. अपनी आज्ञा की अवहेलना होता देख
दधिमुख को क्रोध हो आया और वे बलपूर्वक उन्हें रोकने का प्रयास करने लगे. चुंकि
सभी वानर मद के प्रभाव में थे, अतः वे उन्हीं पर टूट पड़े. किसी ने उन्हें अपने
नखों से बकोटने का प्रयास किया तो किसी ने दांतों से काटने और किन्ही ने तो उन्हें
थप्पड़ों और लातों से मार-मारकर अधमरा कर दिया.
दधिमुख
किसी तरह अपने प्राणों को बचाने का प्रयास करता रहा, लेकिन उसे सफ़लता नहीं मिली.
अतः उसने सुग्रीव की सहायता लेना उचित समझा. वह आकाशमार्ग से उड़ते हुए महाराज
सुग्रीव के पास जा पहुँचा और सुग्रीवजी से कहा-" महात्मा सुग्रीवजी ! यह मधुवन आपको बहुत ही
प्रिय है. यह आपके बाप-दादाओं का दिव्य वन है. उसमें प्रवेश करना देवताओं के लिए
भी कठिन है, ऐसे वन को वानरों से तहस-नहस करते हुए उजाड़ डाला है. मैंने तो पहले
अनुनय-विनय कर उन्हें समझाने का प्रयास किया और जब वे नहीं माने तो मैंने बलपूर्वक
उन्हें रोकने का प्रयास किया, लेकिन सभी ने मिलकर मेरी कैसी दुर्गति बना दी है, इसे आप देख सकते हैं.
मुझमें अब इतना साहस नहीं बचा है कि मैं उन्हें ऐसा करने से रोक पाऊँगा. अतः अब आप
ही उन्हें रोकने का कोई उपाय करें."
उस समय
वहाँ राम और लक्ष्मण भी यह देखने के लिए आए कि आखिर हुआ क्या है?. तब सुग्रीव ने
बताया-" प्रभु ! अंगद स्वयं अपने दल के साथ इसी मधुवन में हैं. उनके रुक्ष
व्यवहार के वर्णन से मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपने अभियान में सफ़ल होकर लौटे
हैं. मुझे यह भी विश्वास हो चला है कि हनुमान ने सीता जी का पता लगा लिया है,
अन्यथा वानर ऐसा स्वच्छन्द व्यवहार करने का साहस नहीं करते."
यह सुनकर
राम और लक्ष्मण प्रसन्न हो उठे. स्वयं
महाराज सुग्रीव भी यह जानकर प्रसन्नता का अनुभव करने लगे थे. प्रसन्नवदन महाराज
सुग्रीव ने दधिमुख से कहा-" दधिमुख ! तुम्हारा यह असंतोष मेरे लिए अप्रत्यक्ष
रूप से शुभ संदेश लेकर आया है. अतः वानरों का यह उपद्रव आपको सहन करना चाहिए. अब
आप मधुवन जाकर अंगद और अन्य वानरों से कहो कि मैं उनसे तुरन्त मिलना चाहता
हूँ."
"
जी ! जैसी आपकी आज्ञा". कहते हुए दधिमुख वहाँ से चल पड़ा. राजकुमार अंगद के
पास जाकर उसने मधुर वचनों में बोला- " हे युवराज अंगद ! तुम्हें और तुम्हारे
दल को उद्यान में आनन्द मनाने से रोकने के लिए मुझे क्षमा करें. हे राजकुमार !
तुम्हारे पिता, तुम्हारे आगमन का समाचार
सुनकर अत्यन्त ही प्रसन्न हैं. वे आपसे शीघ्र ही मिलना चाहते हैं. अतः अपने
पिताश्री की आज्ञा का पालन करते हुए आपको तुरन्त ही किष्किन्धा लौट जाना
चाहिए."
पिता की
आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए राजकुमार अंगद अपने दल के साथ किष्किन्धा लौट आए. दूर
से आते हुए वानरों को देखकर सुग्रीव शोक संतप्त रामजी के निकट जाकर कहने
लगे-" हे प्रभु ! देखिए तो
सही....अंगद अपने दल-बल के साथ आ रहा है. मुझे ज्ञात है कि वह बिना लक्ष्य को पूरा
बिना प्राप्त किए लौटकर आने का साहस नहीं करेगा. अपने लक्ष्य प्राप्त करने में
असफ़ल होकर और सीताजी का पता लगाए बिना वह पितामह ब्रह्मा द्वारा मेरे पिता ऋक्षराज
को दिए गए मधुवन उद्यान को उजाड़ने का साहस नहीं करेगा."
अपने
आराध्य प्रभु श्रीराम के नाम का उद्घोष करते हुए वीर हनुमान ने सर्वप्रथम उन्हें
प्रणाम किया और विनीतभाव से उत्साहपूर्वक घोषणा करते हुए कहा-" प्रभु ! माता
सीता सुरक्षित हैं. वे पवित्रता की प्रतिज्ञा पर अटल हैं, उन्होंने एक बार भी रावण
के आग्रह को स्वीकार नहीं किया."
प्रभु
राम जी ने सुना. सुना कि सीता सुरक्षित हैं. यह सुनते ही वे अत्यधिक प्रसन्न हुए
और हनुमान से बोले- " हे वीर हनुमान ! अब तुम मुझे रावण के निवास के विषय
में विस्तार से बतलाओ और सीता के विषय में
कुछ और सुनाओ. मैं जानना चाहता हूँ कि मेरे विषय में उनके मन में क्या भावना
है?."
तब सभी
वानरों ने हनुमान को आगे कर दिया ताकि वे उचित उत्तर दे सकें. हनुमानजी ने सीताजी की खोज में जाने से पूर्व की तथा बाद की
सारे घटनाओं को अक्षरशः कह सुनाया और सीताजी के द्वारा दिया गया रत्नजड़ित चूडामणि
रामजी को दिया. चूड़ामणि दे देने के बाद कहा-" हे प्रभु ! माता सीता की भक्ति
पूर्णरूपेण आप पर केन्द्रीत है. आपके वियोग में वे किसी तरह जीवित मात्र हैं. आपको
स्मरण दिलाने के लिए उन्होंने पूर्व में घटित घटनाओं का उल्लेख करते हुए बतलाया था
कि किस तरह आपने इन्द्र के पुत्र को कौवे के रूप में मुझ पर आक्रमण करने के लिए
दण्डित किया था. किस तरह आपने उनके मुखमंडल को लाल रंग से अलंकृत किया था. उन्होंने
मुझसे यह भी कहा था कि यदि मेरे प्रभु एक मास के भीतर मुझे मुक्त करवाने नहीं आए,
तो निश्चित ही वे अपने प्राण त्याग देंगी."
रामजी
हनुमान की बातों को सुनते हुए चूड़ामणि को अपने हृदय से लगाए रखा. हनुमान को सुनते
हुए उनके और लक्ष्मण के नेत्रों से अविरल अश्रुपात होने लगा. देर बाद रामजी ने
बतलाया कि यह आभूषण देवराज इन्द्र ने महाराज जनक के उनके यज्ञ के संपादन के कार्य
से प्रसन्न होकर दिया था. महाराज जनक जी ने विवाह के अवसर पर यह चूड़ामणि अपनी
पुत्री सीता को दिया था."
"
हे सौम्य ! इस मणिरत्न का दर्शन करके आज मुझे मानो अपने पूज्य पिता का और विदेहराज
महाराज जनक का भी दर्शन मिल गया हो, ऐसा अनुभव हो रहा है. यह मणि सदा मेरी प्रिया
सीता के सीमन्त पर शोभा पाती थी. आज इसे देखकर ऐसा जान पड़ता है मानो सीता मुझे मिल
गयी.
किमाह
सीता वैदेही ब्रूहि सौम्य पुनः पुनः : परासुमिव तोयेन सिञ्चन्ती वाक्यवारिणा ..(श्लोक 7)
"
हे हनुमान ! मैं शोक से अचेत-सा होने लगा हूँ. जिस प्रकार से बेहोश हुए मनुष्य को
होश में लाने के लिए शीतल जल के छीटें दिए जाते हैं, उसी प्रकार तुम सीता द्वारा
दिए गए संदेश को दोहराओ क्योंकि उसको सुनकर मुझे लगता है मानो मेरे मस्तक पर कोई
शीतल जल के छींटों की वर्षा कर रहा हो."
"
हे प्रभु ! माता सीताजी ने इन्द्र के पुत्र को दण्डित किए जाने की घटना सुनाने के
पश्चात बताया-" यद्यपि राम की शक्ति असीम और अजेय है, तथापि वे मुझे मुक्त
कराने यहाँ नहीं आते हैं. मुझे ऐसा ही लगता है कि यह मेरे पूर्व जन्म में मेरे
द्वारा किए गए किसी विभत्स पाप का फ़ल है."
"
हे प्रभु ! मैंने स्वयं होकर माता सीताजी
को अपनी पीठ पर बैठाकर लाने का प्रस्ताव रखा था, किन्तु वे सहमत नहीं हुईं,
क्योंकि वे किसी परपुरुष का स्पर्श नहीं करना चाहती थीं.वे बार-बार यही दुहराती
रहीं कि -" तुम मेरे स्वामी रामजी से जाकर कहो कि व शीघ्र ही मुझे यहाँ लेने
आएं. मेरा दुःख असहनीय है और मैं कह नहीं सकती कि इस प्रकार मैं और कितने दिन
जीवित रह पाऊँगी?. हे हनुमान ! क्या राम, लक्ष्मण और वानर कभी सागर पार करके लंका
आ सकेंगे?. मैं जानती हूँ कि तुम रावण का वध करके मुझे अपने स्वामी के पास पहुँचा सकते हो. किन्तु मेरी इच्छा है
कि राम स्वयं आकर मुझे मुक्त करवाएँ ताकि उनकी कीर्ति में वर्धन हो. मैं राम के
पास उस प्रकार नहीं जाना चाहती जैसे कि मैं लंका लायी गयी थी-किसी परपुरुष
द्वारा." माता सीताजी की व्यथा-कथा सुनाते-सुनाते वीर हनुमान के नेत्रों से
अश्रु बहने लगे.
अंत में
उन्होंने हाथ जोड़कर विनम्रता से कहा-" हे प्रभु ! मैंने माता सीता जी को
आश्वस्त किया है कि अन्य वानर मुझसे भी अधिक शक्तिशाली हैं और सरलता से सागर
लांघकर लंका आ सकते हैं, मैंने तो उन्हें यह भी बतलाया कि आवश्यकता हो तो मैं आपको
एवं भैया लक्ष्मण को अपनी पीठ पर बिठाकर ला सकता हूँ. तथापि मैं संदिग्ध स्थिति पर
विचार करते हुए मैं आपसे निनम्रतापूर्वक निवेदन करता हूँ कि आप शीघ्रता से कोई
उपाय कीजिए, ताकि हम सब अविलंब लंका पर आक्रमण कर सकें". इतना कहकर वे चुप हो
गए और टकटकी लगाए प्रभु रामजी के मुखार्विंद की ओर देखने लगे कि प्रभु रामजी मेरे
निवेदन पर अपनी कैसी प्रतिकिया व्यक्त करेंगे.
हनुमाजी
के प्रश्नों को सुनकर रामजी के मुखारविंद पर प्रसन्नता के भाव परिलक्षित हो रहे
थे. वे बहुत प्रसन्न दिखाई दे रहे थे. उन्होंने मुस्कुराते हुए वीर हनुमान की
प्रशंसा करते हुए कहा- हे हनुमान ! मैं
तुम पर अत्यन्त ही प्रसन्न हूँ कि जो काम गरुड़ के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता, वह
काम तुमने कर दिखाया है. हे हनुमान- सेवक भी तीन प्रकार के होते हैं. सेवकों में
सबसे उत्तम सेवक वह है जो अपने स्वामी द्वारा सौंपे गए कार्य से अधिक करके आता है.
मध्यम सेवक वह है जो अधिक कार्य कर पाने की योग्यता होने पर भी उतना ही करता है
जितना कार्य उसे अपने स्वामी द्वारा करने को कहा जाता है. और निम्न कोटि का सेवक
निराधम है, वह योग्यता होने पर भी स्वामी की आज्ञा का पालन नहीं करता है."\
"प्रिय
हनुमान ! तुमने न केवल सीता की खोज की है, बल्कि उसे अपने वचनों द्वारा सान्तवना
भी दी है. तुमने समूची लंका का निरीक्षण भी किया है और महान राक्षसों योद्धाओं की
शक्ति का भी प्राकलन किया है और रावण के मन में भय का संचार भी किया है. ऐसा करते
हुए तुमने मेरे प्राणॊं की रक्षा की है. मुझे दुःख इस बात पर हो रहा है कि मैंने
तुम्हें उचित पुरस्कृत नहीं कर पा रहा हूँ कि मैं साधनविहीन निर्वासित जीवन व्यतीत
कर रहा हूँ. तुम्हारी इन सेवाओं के बदले मैं मात्र तुम्हारा आलिंगन कर सकता
हूँ." यह कहते हुए उन्होंने अपनी विशाल बाहों को फ़ैलाते हुए अपने परम सेवक
वीर हनुमान को अपने सीने से लगा लिया था. वीर हनुमान को आलिंगनबद्ध करते हुए
उन्हें अपार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा था. यही हाल हनुमानजी का था. वे अपने
स्वामी का अपार स्नेह पाकर अभिभूत थे. उनके नेत्र भर आए थे, जो रामजी के वक्ष को
भिंगो रहे थे.
देर तक
आलिंगनाबद्ध रहने के बाद वे सुग्रीव की ओर मुड़े और कहा-" महाराज सुग्रीव ! हम
सीता की स्थिति से अवगत हैं किन्तु ये वानर किस प्रकार सागर पार कर पाएँगे?. मुझे
अकस्मात ऐसा लग रहा है कि हमारी आशाएँ धूमिल तथा कठिन श्रम व्यर्थ हो गया."
इतना कहकर उन्होंने मौन धारण कर लिया और इस बात की प्रतीक्षा करने लगे कि सुग्रीव
इसका कौन-सा समाधानकारण हल खोज निकालते हैं.
तं तु शोकपरिद्युनं रामं दशरथात्मजम् उवाच वचन श्रीमान सुग्रीव शोकनाशनम् (1.युद्धकांड द्वितीय: सर्गः)
"हे
रघुनाथ ! आप दूसरे साधारण मनुष्यों की भांति क्यों संताप कर रहे हैं?. हे प्रभु !
अब आपको अपना दुःख त्याग देना चाहिए. जिनका मन दुःख से व्याकुल होता है, उनके सभी
प्रयास विफ़ल हो जाते हैं. राक्षसों से युद्ध करने का विचार मन में आते ही मुझे
प्रसन्नता का अनुभव होने लगता है. मुझे अपने वानरों पर पूरा विश्वास है कि वे इस
कार्य को पूरी योग्यता के साथ कर सकते हैं. क्यों न हम इस महासागर पर एक पुल का
निर्माण करें और लंका जा पहुँचे. मुझे पूरा विश्वास है कि हम निश्चित ही विजयी
होंगे." सुग्रीव ने अपनी ओर से सुझाव देते हुए कहा.
सुग्रीव
के एक-एक शब्द को रामजी ने ध्यान से सुना. सुना कि वे समुद्र पर पुल का निर्माण
करने का सुझाव दे रहे हैं. उनसे कुछ न बोलते हुए उन्होंने हनुमान जी की ओर देखते
हुए कहा-" हनुमान ! यदि मैं चाहूँ तो अपनी दिव्य शक्तियों के उपयोग से,
सहजतापूर्वक इस सागर को पार कर सकता हूँ .यदि मैं चाहूँ तो इसे सुखा भी सकता हूँ.
चुंकि तुमने लंकापुरी का सूक्ष्मता से निरीक्षण किया है, अतः किस तरह लंका की
किलाबंदी की जा सकती है, या फ़िर तुम्हारे पास अन्य कोई जानकारी हो तो विस्तार से
मुझे बताओ."
प्रश्न
रामजी ने पूछा था. उत्तर हनुमानजी को देना था. वे परिस्थितियों का सूक्ष्मता
विश्लेषण कर रहे थे. वे देख और सुन भी रहे थे कि महाराज सुग्रीव को कोई प्रत्युत्तर न देते हुए, प्रभु रामजी ने मुझसे
परामर्श लेना उचित समझा होगा कि मैं कोई समाधानकारक उपाय सुझा सकता हूँ.
"
हे प्रभु ! आप जगत के नियंता हैं. भला आपसे क्या छिपा है?. आप सब कुछ जानते-समझते
हैं. आप सर्वज्ञ हैं. सारा ब्रह्मांड आपके संकेत पर चलायमान होता है. तिस पर भी
आपने मुझ जैसे अल्पज्ञ सेवक को प्राथमिकता दी है. आपकी कृपा पाकर मैंने लंका में
जो कुछ भी देखा है, जो कुछ भी समझा है, उसे कृपया कर सुनिएगा".
"लंका
में चार प्रकार की सुरक्षा व्यवस्था है. उसकी सुरक्षा व्यवस्था तो प्राकृतिक है.
स्वयं प्रकृति ने ही उसे अजेय बना दिया है, जिसमें प्रवेश पाना देवताओं के लिए भी
दुर्लभ है. लंका नगरी एक महान पर्वत "त्रिकूटाचल"के शिखर पर देवों के
देव महादेवजी के कहने पर शिल्पकार विश्वकर्मा और कुबेर ने मिलकर समुद्र के मध्य
में इसका निर्माण किया था. इस नगर के चारों ओर घने वन अच्छादित हैं. इसी सघन
वृक्षों से यह नगरी घिरी हुई है."
"
लंका चारों ओर से ऊँची स्वर्ण दीवारों से घिरी हुई है और उसमें चारों दिशाओं की ओर
चार विशाल द्वार बने हुए है जो विशालकाय प्रक्षेपास्त्रों से युक्त हैं. उन
दीवारों के चारों ओर विस्तृत घाटियाँ है, जिसमें भयावह विशालकाय घड़ियाल देखे जा
सकते हैं. घाटियों पर उठाये जाने योग्य चार विस्तृत पुल हैं, जो द्वारों से लगे
हैं."
"
हे प्रभु ! जब मैंने लंका में आग लगायी, तब इन पुलों को जानबूझकर नष्ट कर दिया था
और उसके अनेक भागों को तोड़कर नीचे गिरा दिया."
"
हे स्वामी ! मेरी धृष्ठता को क्षमा करें.
यदि आप हमें आज्ञा दें तो मैं स्वयं, अंगद, द्विविद, मैन्द,जाम्बवान, पनस, नील, ये
सभी योद्धा छलांग लगाकर लंका जाकर. हम अकेले ही उस दुष्ट राक्षसराज रावण को पराजित
कर सकते हैं. अतः हे स्वामी ! हमें वानरों
की पूरी सेना को सागर के पार करवाने की चिन्ता आपको नहीं करना चाहिए."
पवनपुत्र हनुमान जी ने विनम्रता से सुझाव देते हुए रामजी से कहा.
राघवेन्द्र
हनुमान की बातों को ध्यान से सुन रहे थे और गुन भी रहे थे. उपाय सरल और उत्तम भी
था, लेकिन उन्हें यह प्रस्ताव उचित नहीं लगा. उन्होंने वीर हनुमान जी से कहा-" हनुमान ! मेरी प्रतिज्ञा है कि
मैं स्वयं लंका को विध्वंश करुँगा."
उत्तरफ़ालगुने ह्याद्य श्चस्तु हस्तेन योक्ष्यते * अभिप्रयाम
सुग्रीव सर्वानीकसमावृताः
फ़िर
सुग्रीव की ओर मुड़ते हुए उन्होंने कहा-" महाराज सुग्रीव ! आज उत्तराफ़ालगुनी
नामक नक्षत्र है. कल चंद्रमा का हस्त नक्षत्र से योग होगा. इस समय सूर्य देशान्तर
रेखा पर है और अभिजीत कहलाने वाला शुभ मुहूर्त आ गया है. एक सैन्य दल के युद्ध
हेतु प्रस्थान करने के लिए यह श्रेष्ठतम समय है. अतः वानरों को एकत्र करिए ताकि हम
शीघ्र लंका के लिए प्रस्थान करें. मैं रावण का वध करके जनकनन्दिनी सीता को ले
आऊँगा."
"
इसके अलावा मेरी मेरी दाहिनी आँख का ऊपरी
भाग फ़ड़क रहा है, वह भी मानो मेरी विजय-प्राप्ति और मनोरथसिद्धि को सूचित कर रहा
है."
रामजी के
द्वारा की गई पहल की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए वीर लक्ष्मण और सुग्रीव ने
प्रसन्नता व्यक्त की. क्षण भर में ही वानरों के झुण्ड, कन्दराओं तथा वन
प्रदेशों से निकल-निकलकर आने लगे.
जब सारे
वानर एक स्थान पर एकत्रित हो गए, तब रामजी ने नील को बुलाकर आदेश दिया-" नील
! मैं चाहता हूँ कि तुम्हें इस वानर-सेना का नेतृत्व करना चाहिए. तुम आगे-आगे चलो
और कुछ वानरों को सभी दिशाओं में भेज दो. शत्रु पक्ष के योद्धा हम पर गुप्त रूप से
आक्रमण करने की प्रतीक्षा में हो सकते हैं. तुम्हें इस बात पर विशेष ध्यान देना
होगा कि कमजोर और दुर्बल वानरों को अंतिम पंक्ति में रहें, क्योंकि भीषण संघर्ष
होने वाला है."
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-नल और
नील का जीवन परिचय-
नल विश्वकर्मा के पुत्र थे और उनके भाई नील वानर प्रजाति से
संबन्धित थे. नल और नील बचपन
मे बहुत ही शरारती और चंचल थे. वे अक्सर अपनी चंचल आदत के
कारण ऋषियों की वस्तुए उठाकर नदी मे फेक देते थे . अतः एक
दिन क्रोधित होकर ऋषियों ने नल और नील को श्राप दे दिया की “तुम्हारे
द्वारा फेंकी गई वस्तुए जल मे कभी नहीं डूबेंगी”. बाद मे यह
दोनों सुग्रीव की सेना मे वास्तुकार बन गए.
हम भारतीय अक्सर हमारे ग्रंथ और उनमे घटी
घटनाओ को केवल धार्मिक महत्ता ही देते हैं, शायद ही हम उन घटनाओ के कारण, परिणाम और प्रभावों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण
से देखते हैं . रामायण मे सेतु का निर्माण कोई सामान्य कार्य नहीं था. तत्कालीन समय मे इस सेतु का निर्माण एक अकल्पनीय बात थी. आज के विदेशी वैज्ञानिक भी राम सेतु पर गहन शोध कर रहे हैं. उनका कहना हैं की राम सेतु की इंजीनीर्यिंग
(वास्तुकला) देखकर लगता हैं की हजारो वर्ष पूर्व भी भारत और वहाँ के कारीगर कितना
समृद्ध और योग्य थे. इस सेतु का निर्माण श्री राम की आज्ञा से नल और नील
अभियंताओ के निर्देशन मे किया गया था. रामायण से हम सभी परिचित हैं पर हमारा ध्यान नल और नील पर
बहुत ही कम गया है.
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असंख्य वानरों का नेतृत्व करते हुए नील आगे-आगे
चल रहे थे, उनके ठीक पीछे राघवेन्द्र श्री राम लक्ष्मण, सुग्रीव और वीर हनुमान जी
चल रहे थे. सारी सेना ने सर्वप्रथम महेन्द्र पर्वत को, फ़िर सह्य तथा मलय पर्वत को
लांघकर समीपवर्ती समुद्र के तट पर जा पहुँचे.
वहाँ पहुँचकर रामजी ने सुग्रीव जी से
कहा-" हे वानर श्रेष्ठ ! हमारे समक्ष अभी सागर पार करने की बड़ी चुनौती
है. हम इसे कैसे पार कर सकते हैं? आप सभी वानरों से कहें कि वे अपने-अपने शिविर
लगा लें, तब तक हम लंका पहुँचने का कोई उपाय सोचते हैं."
वानरों के झुण्ड जब अपने शिविर लगा रहे थे, तब
उन्होंने देखा कि सागर में उग्र और विशाल लहरें उठा रही हैं और उससे भयंकर शोर
उत्पन्न हो रहा था. समुद्र की गर्जना को सुनकर वे भयभीत होने लगे. वानरों के
प्रमुख ने उस अगाध सागर में एक सौ योजन लम्बी मछली ""तिमिंगिल" को देखा जो एक ही ग्रास में
"तिमि" मछली को खा जाती थी. तिमिंगिल ही क्यों और भी भयानक जलचर जो
इधर-धर घूम रहे थे, उनको एक ही ग्रास में खा उदरस्थ कर जाती थी. कोई समझ नहीं पा
रहा था कि इस गरजते, उफ़नते सागर को हम कैसे पार कर पाएँगे?.
अशांत मन लिए प्रभु श्रीराम भी तट पर बैठे उस
सौ योजन लम्बे सागर को देखकर विचार मग्न थे कि इस सागर के पार कैसे उतरा जा सकता
है?. मन में अनेकानेक प्रश्न उमड़ने-घुमड़ने लगे थे, लेकिन उनका कोई सामाधानकारक हल
वे खोज नहीं पाए थे. चिंता से ग्रसित रामजी ने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा-"
सौमित्र ! ऐसा कहा जाता है कि एक समय बाद शोक अपने आप कम हो जाता है, लेकिन मेरे
शोक में निरन्तर वृद्धि हो रही है."
" हे लक्ष्मण ! मुझे सर्वाधिक वेदना तो यह
सोच-सोच कर हो रही है कि सीता को दिया गया समय सतत व्यतीत होता जा रहा है. अगर इसी
तरह समय व्यतीत होता रहा, तो कब हम इस सागर को पार कर लंका पहुँचेगे और दुष्ट रावण
का वध करने उसे मुक्त करा पाएंगे?." वे लक्ष्मण से अपनी वेदना प्रकट कर रहे
थे, उधर सूर्यनारायण शनैः शनैः अस्ताचल की ओर बढ़ रहे थे. अन्धकार धीरे-धीरे गाढ़ा
होने लगा था. देखते ही देखते सारा वातायण अन्धकार में डूब गया और अब रह-रहकर
समुद्र की गर्जना सुनाई दे रही थी.
समुद्र के इस तट पर बैठे केवल राम ही परेशान नहीं हो रहे थे बल्कि
समुद्र के दूसरे छोर पर राक्षसराज रावण उनसे कहीं ज्यादा हलाकान और परेशान हो रहा
था. रात्रि गहराती जा रही थी, और वह यह सोच-सोच कर उद्विग्न हो रहा था कि राम के
एकमात्र दूत ने उसकी अभेद्य लंका में घुसकर कितनी तबाही मचाई थी. उसने न केवल मेरी
प्रिय वाटिका को उजाड़ कर तहस-नहस कर डाला और मेरे महलों का विध्वंस कर डाला. इतना ही
नहीं, उस एक अकेले ने मेरे वीर योद्धाओं को मार डाला. वह यह समझ नहीं पा रहा था कि
क्रुद्ध राम के प्रभाव से वह कैसे बच पाएगा.?. बार-बार उसी विषय में गहनता से
सोचते हुए भी वह कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था. अन्ततः उसने बेचैन होते हुए अपने
सेवक को बुलाया और आज्ञा दी कि वह तत्काल वारूणी और भुंजा हुआ मांस लेकर आए.
मानसिक तनाव को कम करने के लिए उसे इस समय वारूणी पीना ज्यादा श्रेयस्कर लगा था.
धर्षिता च प्रविष्टा लंका दुष्प्रसहा पुरी **
तेन वानरमात्रेण दृष्टा सीता च जानकी. (2.युद्धकाण्ड सप्तमः सर्गः).
सुबह होते ही उसने अपने मंत्रियों और सभासदों
को मंत्रणा के लिए बुला भेजा. बुद्धिमान रावण जानता था कि किसी भी काम को हाथ में
लेने से पहले मंत्रणा ली जानी चाहिए. वह यह भी भली-भांति जानता था कि मनुष्य
मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं. पहला- इस श्रेणी में उत्तम कोटि के बुद्धिमान
व्यक्ति होते हैं, जो कार्य संपादित करने से पहले समान सुचि वाले, अपने से अधिक
अनुभवी व्यक्तियों और मित्रों से परामर्श लेते हैं. तब उनके परामर्श के अनुसार
अपनी पूरी क्षमता लगाकर और अन्ततः विधाता
पर निर्भर रहते हुए कार्य करते हैं. मध्यम कोटि के व्यक्ति किसी भी विषय पर स्वयं
विचार करते हैं. वे अपनी समझ के अनुसार कार्य संपादित करते हैं. निम्न कोटि के
व्यक्ति भगवान में पूर्णरुपेण आस्था छोड़कर मनमाने ढंग से कर्त्तव्य बोध किए बिना
कार्य करते हैं, अपने लाभ तथा हानि का निर्धारण कर पाने में अयोग्य ऐसे व्यक्ति बिना
कुछ सोचे-समझे कार्य करते जाते हैं और कहते हैं, "जो भी हो, मैं इसे करूँगा
ही".
उसी प्रकार से, परामर्श भी तीन प्रकार होते
हैं. कठिनाई को भली-भाँति परखने के पश्चात धर्मिक सिद्धांतो के अनुसार किया गया
परामर्श उचित परामर्श है. मध्यम कोटि का परामर्श तर्क-वितर्क के आधार पर दिया जाता
है, और उसमें धार्मिक सिद्धांतो की अपेक्षा स्वयं की रुचि पर अधिक ध्यान दिया जाता
है. निम्न कोटि का परामर्श मिथ्या प्रशंसा अथवा चापलूसी के लिए दिया जाता है और
उससे होने वाले प्रभावों पर समुचित विचार नहीं किया जाता है."
" मंत्र भी तीन प्रकार के होते हैं.
जिसे शास्त्रोक्त दृष्टि से सब मन्त्री एकमत होकर प्रवृत्त होते हैं, उसे उत्तम
मंत्र कहते हैं. जहाँ प्रारम्भ में ही कई प्रकार के मतभेद होने पर भी अन्त में सब
मंत्रियों का कर्तव्यविषयक निर्णय एक हो जाता है, वह मंत्र मध्यम माना गया है."
"जहाँ भिन्न-भिन्न बुद्धि का आश्रय ले सब
ओर से स्पर्धापूर्वक भाषण दिया जाए और एकमत होने पर भी जिससे कल्याण की सम्भावना न
हो, उस मंत्र या निश्चय को अधम माना गया है."
"विश्वस्त सूत्रों से मुझे ज्ञात हुआ है
कि राम अपने छोटे भाई और सहस्त्रों धीर-वीर वानरों के साथ लेकर हमारी लंका पर चढ़ाई
करने के लिए आ रहे हैं. मुझे तो यह भी भली-भांति जानकारी मिल चुकी है कि वह शीघ्र
ही समुद्र को सुखाकर या फ़िर अपने पराक्रम से कोई दूसरा उपाय करेंगे और सुखपूर्वक
समुद्र को पार कर लेंगे."
" हे सभासदों ! आप सब लोग परम बुद्धिमान
हैं. अतः तुम सब मिलकर, आपस में सलाह करके कोई ऐसा कार्य निश्चित करें, जिससे
हमारी लंका का और अधिक नुकसान न होने पाए."
रावण की सभा में कोई भी राक्षस ऐसा नहीं था,
जिसे नीति का समुचित ज्ञान था और न ही वे अपने शत्रु पक्ष के बल से परिचित थे. वे
स्वयं में बलवान तो बहुत थे,किन्तु नीति की दृष्टि से महामूर्ख थे. इसलिए जब लंकेश
रावण ने उनसे उपरोक्त बातें कही, अब वे सब-के-सब हाथ जोड़कर अपने स्वामी रावण से
कहने लगे-" हे राजन ! हमारे पास परिध ( एक तरह का अस्त्र जिसमें लोहे की मूठ
होती है. दूसरे रूप में यह लोहे की छड़ी भी होती है और तीसरे रूप में इसके एक सिरे
पर वजनदार मुँह बना होता है.) , शक्ति-( यह अस्त्र लंबाई में गज भर होते है, उसका
हैंडल बड़ा होता है और उसमें बड़ी तेज जीभ और पंजे होते है इसका रंग नीला होता है और उसमें छोटी-छोटी
घंटियां लगी होती है. यह बड़ी भारी होती है और दोनों हाथों से फ़ेंकी जाती हैं. ये
वे शस्त्र हैं जो यांत्रिकी उपाय से फ़ेंके जाते हैं. ऋष्टि शस्त्र ( कोई-कोई उसे तलवार का भी रूप बताते
हैं। ये वे शस्त्र हैं, जो यान्त्रिक उपाय से फेंके जाते थे; ये अस्त्रनलिका
आदि हैं नाना प्रकार के अस्त्र इसके अन्तर्गत आते हैं. अग्नि,
गैस, विद्युत से भी ये अस्त्र छोडे जाते हैं. हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार प्राचीन आर्य गोला-बारूद और भारी तोपें, टैंक बनाने में भी कुशल थे. इन अस्त्रों के लिये
देवी और देवताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती. ये भयकंर अस्त्र
हैं और स्वयं ही अग्नि, गैस या विद्युत आदि से चलते हैं.), शूल - एक
तरह अस्त्र जिसका एक सिरा नुकीला, तेज़ होता. शरीर में भेद करते ही प्राण उड़ जाते हैं),
पट्टिश (इस्पात के
महीन तारों को बटकर ये बनाये जाते हैं. एक सिर त्रिकोणवत होता है. नीचे जस्ते की गोलियाँ लगी होती हैं. कहीं-कहीं इसका दूसरा वर्णन भी है. वहाँ लिखा है कि
वह पाँच गज का होता है और सन, रूई, घास
या चमड़े के तार से बनता है. इन तारों को बटकर इसे बनाते हैं. ये वे शस्त्र हैं, जो यान्त्रिक उपाय से फेंके जाते थे; ये अस्त्रनलिका
आदि हैं नाना प्रकार के अस्त्र इसके अन्तर्गत आते हैं. अग्नि, गैस, विद्युत से भी ये अस्त्र छोड़े
जाते हैं. प्रमाणों की ज़रूरत नहीं है कि प्राचीन आर्य गोला-बारूद और भारी तोपें, टैंक बनाने में भी कुशल थे. इन अस्त्रों के लिये देवी और देवताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती. ये भयकंर अस्त्र
हैं और स्वयं ही अग्नि, गैस या विद्युत आदि से चलते हैं) और भालों से लैस बहुत बड़ी सेना मौजूद है. इतनी शक्तिशाली सेना
के रहते हुए आपको तनिक भी विषाद नहीं करना चाहिए."
" हे लंकेश ! आपने भगवती पुरी में जाकर
नागों को युद्ध में हराया, कुबेर जैसे बलवान को आपने हरा कर बंदी बना लिया था,आपने
रसातल में चढ़ाई करके वासुकि, तक्षक, शंख और जटी आदि नागों से युद्ध कर विजय पायी,
वरूण के शूरवीर पुत्रों को युद्ध में परास्त किया, ऐसे महाबली को व्यर्थ में ही
चिंता करने की क्या आवश्यकता है?."
" हे स्वामी ! आपका शूरवीर पुत्र
इन्द्रजित अकेले ही सब वानरोंका संहार कर सकते हैं. उन्होंने माहेश्वर यज्ञ का
अनुष्ठान करके वह वरदान प्राप्त किया है, जो संसार में दूसरे के लिए अत्यन्त ही
दुर्लभ है."
"हे असुरराज ! देवताओं की सेना समुद्र के
जैसी विशाल थी. उन्हें अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त थी, फ़िर भी आपके बलवान
पुत्र इन्द्रजित ने समुद्र में घुसकर देवराज इन्द्र को परास्त कर कैद कर लिया था
और लंका में लाकर बंद कर लिया था."
" हे राजन ! ब्रह्माजी के कहने से
इन्होंने शम्बर और वत्रासुर को मारने वाले इन्द्र को मुक्त कर दिया था. तब जाकर वे
स्वर्ग जा पाए थे."
यावद् वानर सेनां सरामां नयति क्षयम् (24-युद्धकांड अष्टमः सर्गः)
" अतः महाराज ! इस छोटे-से काम के लिए
हमारे युवराज इन्द्रजित ही अपने-आप में समर्थ हैं. वे अकेले ही राम के सहित समस्त
वानर-सेना का संहार कर डालेंगे." अतः हे राजन ! आप चुपचाप यहीं बैठे
रहिए..आपको परिश्रम की क्या आवश्यकता है. इन्द्रजित के रहते हुए, एक साधारण से
वनवासी राम और उसकी वानर सेना से हम पर कोई आपत्ति आएगी, ऐसा हम नहीं समझते. अतः
आपको इस विषय में तनिक भी चिंता नहीं करनी चाहिए."
सभा में उपस्थित सेनापति प्रहस्त ने कहा-"
हे महाराज ! हम लोग देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, पक्षी और सर्प को पराजित कर सकते
हैं, फ़िर उन दो साधारण से मानव को रणभूमि में हराना कौन-सी बड़ी बात है?."
उसने आगे बोलते हुए कहा-" हे राजन ! पहले
हम असावधान थे. हमारे मन में शत्रु की ओर से कोई खटका नहीं था. इसीलिए हम निश्चिंत
बैठे थे. यही कारण था कि एक मामुली-सा वानर हमें धोखा दे गया. नहीं तो मेरे
जीते-जी वह वानर यहाँ से बचकर कदापि नहीं जा सकता था. यदि आप मुझे आज्ञा दें तो
मैं अभी और इसी समय पर्वतों, वनों और काननों से सभी वानरों को मार गिराऊँगा."
" हे राक्षसराज ! मैं वानर मात्र से आपकी
रक्षा करूँगा, अतः अपने द्वारा किये गए सीता-हरण रूपी अपराध के कारण कोई दुःख आप
पर नहीं आने पाएगा."
किंकर्तव्यविमूढ़ राक्षसराज रावण को धीरज बंधाते
हुए प्रहस्त उसे निश्चिंत रहने के लिए परामर्श दे रहा था. अंहकार में चूर लंकेश
भला कभी किसी के परामर्श को मानने वाला कब था?, वह तो केवल अपने सेनानायकों के बल
और बुद्धि की परीक्षा ले रहा था. उसे अपने आप पर, स्वयं पर जितना विश्वास था,
अन्यों पर नहीं.
प्रहस्त अभी पूरी बात भी नहीं कह पाया था कि
दंभी वज्रदंष्ट्र अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ और हाथ में परिध लेकर उसे लहराता हुआ
अत्यन्त ही क्रोध में भरकर बोला-" हे दशानन ! आप व्यर्थ की चिंता को त्याग दीजिए. आपका यह
सेवक अकेला ही वानर-सेना में तहलका मचा देगा. आप मुझे आज्ञा दें, मैं अपने इसी
परिध से राम, लक्ष्मण के सहित उस हनुमान का काम तमाम कर लौट आऊँगा."
" हे लंकेश ! आप तो स्वयं बुद्धिमान हैं,
आपको सलाह देना मैं उचित नहीं समझता. फ़िर भी मैं केवल आपको दो राय देना चाहूँगा.
पहली तो यह कि उपायकुशल पुरुष ही यदि आलस्य छोड़कर प्रयत्न करे तो वह शत्रुओं पर
विजय पा सकता है. और दूसरा यह कि हम सभी राक्षस अपना वेष बदलकर मनुष्य का रूप धारण
कर राम के पास जाएं और उससे कहें कि हम आपके ही सैनिक हैं. हमें आपके छोटे भाई भरत
ने भेजा है. बस इतना सुनते ही राम अपनी वानर सेना लेकर लंका पर आक्रमण करने के लिए
चल देगा."
"राम को लंका की ओर भेजकर हम तत्काल ही
अपने वीर सैनिकों के साथ शूल, शक्ति, गदा, धनुष बाण आदि लेकर शीघ्र ही वायुमार्ग
से उनके सामने डट जाएंगे और उन पर भारी शिलाओं तथा अस्त्र-शस्त्र की वर्षा करते
हुए वानर-सेना को यमलोक पहुँचा देंगे."
" हमारी बातों को सुनकर दोनों भाई सेना को
कूच करने की आज्ञा देकर वहाँ से चल देंगे तो उन्हें हमारी अनीति का शिकार होना
पड़ेगा,उन्हें हमारे छलपूर्ण प्रहार से पीड़ित होकर अपने प्राणॊं से हाथ धोना
पड़ेगा."
श्रीराम, लक्ष्मण और हनुमान सहित सारी सेना को
चुटकी बजाकर मार देने की कल्पना कर रहे अपने सेनापतियों की बातों को सुनकर, रावण अन्दर ही अन्दर क्रोध में उबल रहा था.
अकेले राम कितने शक्तिशाली, पराक्रमी हैं, यह केवल वहीं जानता था. वह यह भी जानता
कि खोखली बातें करने से राम और लक्ष्मण के सहित हनुमान और उनकी सेना को मार गिराना
इतना आसान नहीं है, जितना कि उसके मूर्ख सेनापति समझ रहे थे.
" बंद करो तुम दोनों अपनी मुर्खता भरी
बातों को.....तुम लोगों ने क्या श्रीराम को इतना कमतर आंका है कि उसे बातों में
उलझाकर हम विजय श्री प्राप्त कर लेंगे?. तुम लोग बातें बनाना बंद करो और
चुपचाप बैठे रहो. मैं दशकंधर रावण उन सबके
लिए अकेला ही पर्याप्त है. मैं राम. लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान तथा सारी वानर-सेना
को मौत के घाट उतार दूँगा."
रावण और कुछ बोल पाता कि पर्वत के समान
विशालकाय वज्रहनु नामक राक्षस कुपित होकर अपने आसन से उठ खड़ा हुआ और दांत पीसते
हुए कहने लगा-" तुम लोग निश्चिंत होकर बैठे रहो, मैं अकेला ही सारी वानर-सेना
के सहित राम., लक्ष्मण सुग्रीव और हनुमान को मार डालूँगा."
कुछ सभासदों को अपनी-अपनी वीरता का बखान करता
देख निकुम्भ, रभस, सूर्यशत्रु, सुप्तन्घ, यज्ञकोप, महापार्श्व, महोदर, दुर्जय,
अग्निकेतु, रश्मिकेतु, इन्द्र्जित, विरुपाक्ष, बरदंष्ट्र, अतिकाय, घूम्राक्ष,
दुर्मुख आदि ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्रों को लेकर रावण के सामने आकर खड़े हो गे.
सभी ने स्वर में स्वर मिलाते हुए कहा-"हे लंकेश ! आप निश्चिंत रहें. हम आज ही
राम, लक्ष्मण, सुग्रीव, और उस कायर हनुमान को मार डालेंगे, जिसने हमें धोके में
रखकर हमारी सुवर्ण लंका जला डाली."
रावण की सभा में खलबली मची हुई थी. हर कोई अपनी ओर से बढ़चढ़
कर बोल रहा था. हर किसी के बोलने से भयंकर शोर मचा हुआ था. सहसा महात्मा विभीषण
अपने स्थान से उठ खड़े हुए और उन्होंने सभी को शांति बनाए रखने को कहा. जब सारे
राक्षसगण अपने-अपने स्थानों पर बैठ गए, तब उन्होंने अपने ज्येष्ठ भ्राता लंकाधिपति
रावण से हाथ जोड़कर कहा-" हे तात ! जब साम, दान, और भेद से लक्ष्य की प्राप्ति
न हो सके तो मनोरथ की प्राप्ति के लिए
विद्वान मनीषियों ने पराक्रम करने
योग्य कुछ अवसरों की ओर संकेत किया है."
" हे तात ! जब शत्रु असावधान हों, जिन पर
दूसरे-दूसरे शत्रुओं ने आक्रमण कर दिया हो तथा जो महारोग आदि से ग्रसित होने के
कारण मारे गए हों, उन्हीं पर भली-भाँति परीक्षा करके विधिपूर्वक किए गए पराक्रम
सफ़ल होते हैं."
" हे ज्येष्ठ भ्राता ! आपको यह नहीं भूलना
चाहिए कि श्रीराम बेखबर हैं? यह भूल कदापि नहीं करनी चाहिए. विजयश्री प्राप्त करने
के लिए उनकी अपनी बलसेना साथ है. वे जितेन्द्रीय हैं. उन्होंने अपने क्रोध को जीत
लिया है. अतः वे सर्वथा दुर्जय हैं. क्या आप ऐसे धीर-वीर को आसानी से परास्त कर
पाएंगे?.
" हे लंकेश! जरा तनिक सोचिए. नदों और
नदियों के स्वामी भयंकर महासागर को एक ही छलांग में यहाँ तक आ पहुँचे, उन वीर
हनुमानजी की गति को इस संसार में कौन जान सकता है, कौन उसका अनुमान लगा सकता
है?."
परान्नं च परद्रव्यं तथैव च प्रतिग्रहम्।
परस्त्रीं
परनिन्दां च मनसा अपि विवर्जयेत।।
" हे भ्राता !
पराया अन्न,
पराया धन, दान, पराई स्त्री और दूसरे की निंदा, इनकी इच्छा
मनुष्य को कभी नहीं करनी चाहिए
विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्तिः
परेषां परिपीडनाय।
खलस्य
साधोर् विपरीतमेतद्
ज्ञानाय
दानाय च रक्षणाय॥
" हे भाई ! दुर्जन
की विद्या विवाद के लिये, धन उन्माद के लिये,
और शक्ति दूसरों का दमन करने के लिये होती है। सज्जन इसी को ज्ञान,
दान,
और दूसरों के रक्षण के लिये उपयोग करते हैं।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः
प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्
" हे लंकेश ! -धर्म
का सार तत्व यह है कि जो आप को बुरा लगता है वह काम आप दूसरों के लिए भी न करें ।
"धर्म है क्या?
धर्म है दूसरों की भलाई। यही पुण्य है। और अधर्म क्या है? यह है दूसरों को पीड़ा पहुंचाना। यही पाप है।
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं
जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।
भैया ! कहते हैं कि कुल की भलाई के लिए की किसी एक को छोड़ना पड़े तो उसे छोड़ देना चाहिए। गाँव की भलाई के लिए यदि किसी एक परिवार का नुकसान हो रहा हो तो उसे सह लेना चाहिए~. जनपद के ऊपर आफत आ जाए और वह किसी एक गांव के नुकसान से टल सकती हो तो उसे भी झेल लेना चाहिए. पर अगर खतरा अपने ऊपर आ पड़े तो सारी दुनिया छोड़ देनी चाहिये.
स्वमर्थं यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति।
मिथ्या
चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते ॥
" हे भ्राता "
जो व्यक्ति अपना काम छोड़कर दूसरों के काम में हाथ
डालता है तथा मित्र के कहने पर उसके गलत कार्यो में उसका साथ देता है,
वह मूर्ख कहलाता है .
अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत्।
बलवन्तं
च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम् ॥
" जो व्यक्ति अपने
हितैषियों को
त्याग देता है तथा अपने शत्रुओं को गले लगाता है और जो अपने
से शक्तिशाली
लोगों से शत्रुता रखता है, उसे महामूर्ख कहते हैं.
अस्थिरं जीवितं लोके ह्यस्थिरे
धनयौवने।
अस्थिराः पुत्रदाराश्च धर्मः कीर्तिर्द्वयं स्थिरम्।।
"इस परिवर्तनशील दुनिया में धन, पुत्र, पत्नी और जवानी यह सब एक ही समय में बदल जाता
है, लेकिन केवल धर्म और प्रसिद्धि दो ऐसी चीजें हैं ,जो कभी नहीं बदलती, हमेशा स्थिर रहती हैं।
अविज्ञाय नरो धर्मं दुःखमायाति
याति च।
मनुष्य जन्म साफल्यं केवलं धर्मसाधनम्।।
"
कहते हैं कि जो अज्ञानी है, वही व्यक्ति धर्म को नहीं
जानता, उसका जीवन व्यर्थ है और वह सदैव दुखी रहता है और जो
धर्म के नियम का पालन करता है, वही व्यक्ति अपने जीवन को सफल
बना सकता है। अपने जीवन को सुख और संपूर्णता के साथ जीता है। तुम तो ज्ञानवान
हो...विद्वान हो...फ़िर इतनी बड़ी भूल कैसे कर गये."
अपने अनुज विभीषण की बातों को दम्भी रावण ध्यान
से सुन रहा था. सुन रहा था कि एक अकेले हनुमान ने लंका में आकर जो विध्वंस मचाया
था, उसे वह कैसे भूल सकता था. उस भूल को भी कैसे भूल सकता था, जब उसने अपने सेवकों
के परामर्श पर, उस वानर की पूँछ में आग लगाने का आदेश दे दिया था. उसके इस
मूर्खतापूर्ण भरे आदेश से वह अपनी ही सुवर्णमयी लंका जलवा डाला. केवल लंका ही नहीं
जली, बल्कि उसके वीर सेनापतियों के
सहित अनेक दावन भी मारे गए. वह केवल अपनी छत पर खड़ा रहकर, अपनी खुली आँखों से उसे
धू-धूकर जलता देखता रहा था. हालांकि उसने वरूण देवता को जल बरसाने की आज्ञा भी दी
थी, लेकिन अग्नि बुझने के बजाय और ज्यादा विकराल रूप लेकर भड़कने लगी थी. वह यह भी
देख रहा था कि जलती हुई पूँछ से हनुमान को कोई क्षति नहीं पहुँची, उलटे उसे ही
हानि उठाना पड़ा था. कपड़ा उसका लगा, तेल भी उसी का लगा और अग्नि भी. वानर की पूँछ
तो नहीं जली,उसकी लंका घू-धूकर जल गयी.
वह गंभीरता से हर एक पहलु पर ध्यान से सोच रहा
था. सोच रहा था कि एक अकेले वानर ने इतना भारी उत्पात मचाया, जिसे देखकर वह स्वयं
अन्दर ही अन्दर दहल उठा था. इतना भयभीत हो
गया था वह कि उसने रामजी के समक्ष जाकर क्षमा मांगने पर भी विचार करने लगा था. वह
यह भी जानता था कि राम दयालु हैं. वे क्षमा कर देंगे. विचार उत्तम तो था, लेकिन वह
यह सोचकर पीछे हट गया कि यदि त्रिलोक विजेता रावण, एक तुच्छ वनवासी से क्षमा
मांगने जाएगा, तो वह स्वयं का मानमर्दन करवा बैठेगा. उसकी कीर्ति धूल में मिल
जाएगी. नहीं.....नहीं...नहीं वह कदापि ऐसा नहीं कर पाएगा. उसे ऐसा नहीं करना
चाहिए.....वह भूलकर भी ऐसा नहीं करेगा. विचारों की श्रृंखला इतनी सघन थी, कि एक के
बाद दूसरा विचार उठ खड़ा होता. मन में उठ रहे भय के विचारों को दूर हटाते हुए वह
अपने अनुज के परामर्श को सुनने लगा.
विभीषण ने कहा- " हे भ्राता ! श्रीरामजी
के पास असंख्य सेनाएं हैं, उनमें असीम बल और पराक्रम है,इस बात को तो आप स्वंय भी
जानते हैं."
फ़िर उन्होंने सभासदों से कहा-" तुम लोग भी
अच्छे से सुन लो. श्रीराम अजेय हैं. अतः तुम्हें उनकी शक्ति को भुलाकर, किसी तरह
भी अवहेलना नहीं करनी चाहिए."
" हे राक्षसराज ! प्रभु श्रीराम जी ने
आपका ऐसा कौन-सा अपराध किया था, जिससे उन यशस्वी महात्मा की पत्नी को आप हरण कर ले
आए?. आप तो जानते थे कि खर अत्याचारी था. उसने श्रीरामजी को मार डालने के लिए उन
पर आक्रमण किया था. इसलिए श्रीरामजी ने उसका वध कर दिया. अपने प्राणों की रक्षा के
लिए प्रत्येक प्राणी को यथाशक्ति प्रयत्न करना चाहिए.
उन्होंने भी वही किया, जो उन्हें करना चाहिए. भला इसमें अनुचित क्या है?."
" खर की मृत्यु का बहाना बनाकर आपने सीताजी का हरण
किया. यह सर्वथा अनुचित है. अतः मेरी आपने विनती है कि आप शीघ्रता से उन्हें लौटा
दीजिए. अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो निश्चय ही हम पर महान संकट आ सकता है. हे
भ्राता ! जिस कर्म का फ़ल केवल कलह है, उसे करने से क्या लाभ?."
" हे भ्राता ! जबसे सीता यहाँ आयी है,
तभी से हमलोगों को अनेक प्रकार के अमंगलसूचक अपशकुन दिखायी दे रहे हैं. मंत्रों के
द्वारा आग प्रज्जवलित करने पर भी आग धधकती नहीं है. चिनगारियाँ निकलने लगती है और
काला गहरा धुँआ उठने लगता है. इतना ही नहीं, जहरीले सर्प अग्निशाला, रसोई-घर में
यत्र-तत्र विचरण करते देखे जाते हैं. हवन सामग्री में चिंटियाँ पड़ी दिखायी देती
हैं."
" हे लंकेश ! गायों ने दूध देना लगभग बंद
कर दिया है. बड़े-बड़े गजराज, घोड़े आदि दीनतापूर्ण स्वर में हिनहिनाने लगे है. महलों
की छत पर कौवे के झुण्ड एकत्रित होकर
कर्कश स्वर में काँव-काँव करते देखे गए हैं. गीध के झुण्ड हमारी नगरी के ऊपर
मंडराते रहते हैं. रात्रि के घिर जाने पर, सियारिनें नगर के समीप आकर अमंगलसूचक
शब्द करती हैं. कुत्तों के झुण्ड गली-गली में बड़े ऊँचे स्वर में रुदन करते
हैं."
"सीता का अपहरण तथा इससे होने वाले
अपशकुनी रूपी दोष यहाँ की सारी जनता, राक्षस-राक्षसी त्तथा नगर और अन्तःपुर सभी के
लिए उपलक्षित होता है."
" रामजी से बैर लेने के कितने घातक परिणाम
होंगे, इसकी कल्पना तो आपने भी की होगी?. आपके सभासद भी होने वाले दुष्परिणामों के
बारे में जानते हैं, लेकिन आपसे कहते भय खाते हैं. परंतु जो बात मैंने देखी और
सुनी है वह मुझे निःसंकोच आपसे कह देनी चाहिए."
" हे वीर ! ऐसी परिस्थिति में मुझे तो
प्रायश्चित करना ज्यादा उचित लगता है कि विदेहकुमारी सीता रामचद्र जी को लौटा दी
जाए."
"भैया ....मैं आपसे विनयपूर्वक प्रार्थना
करता हूँ कि लंका का सर्वनाश हो, इससे पहले आपको सीताजी को ससम्मान लौटा देना चाहिए.. इसी में आपकी और हमारी भलाई
है."
" भैया ! एक अनुज होने के नाते मैंने हमेशा
ही आपके ही हित की बातें कहीं हैं. मैं आज भी आपके हित की बातें ही कहने के लिए
आया हूँ. आप स्वयं ज्ञानी-ध्यानी हैं. अच्छा-बुरा की आपको पहचान है. अतः मेरा आपसे
निवेदन है कि कृपया कुमार्ग पर चलने से अच्छा होगा कि आप मेरी सलाह पर गंभीरता से
एकबार पुनः विचार करें."
" हे भ्राता ! मैं आपसे हाथ जोड़कर पुनः
निवेदन कर रहा हूँ कि मेरी नेक सलाह पर कृपया कर ठंडॆ दिमाक से सोचिए और तदानुसार
कोई निर्णय लीजिए."
" हे भ्राता ! श्रीरामजी बड़े धर्मात्मा और
पराक्रमी हैं. उनके साथ व्यर्थ बैर बढ़ाना उचित नहीं है. अतः आपको स्वयं होकर
सीताजी को उनके पास लौटा देना चाहिए."
" वे अपने तीखे बाणॊं से लंका का विध्वंस
कर डालें, इससे पूर्व आपको चाहिए कि सीताजी को वापस कर दिया जाना चाहिए. आपको यह
भी स्मरण में रखना चाहिए कि यदि हम लोग स्वयं ही उनकी प्राणवल्लभा को नहीं लौटा
देते हैं तो यह लंका पूरी तरह से नष्ट हो जाएगी. इसके साथ ही संपूर्ण राक्षस वंश
भी समाप्त हो जाएगा."
" हे भ्राता ! आप मेरे बड़े भाई हैं. अतः
मैं आपसे विनम्रतापूर्वक प्रार्थना करता हूँ कि कृपया मेरी बात मान लीजिए. मैंने
सदा ही आपके हित की बात कही है. मैं आपसे पुनः निवेदन करता हूँ कि अपना हठ त्याग
दीजिए और माता सीता को वापिस कर दीजिए."
" हे भ्राता ! प्रभु श्रीराम क्रोधित होकर
आपके वध के लिए सूर्य की प्रचण्ड किरणॊं के समान तेजस्वी बाणॊं की वर्षा करें,
उसके पहले ही आप दशरथनन्दन श्रीरामजी की सेवा में मिथलेशकुमारी सीता को सौंप
दें."
" भैया ! आप क्रोध का त्याग कर दीजिए,
क्योंकि वह सुख और धर्म का नाश करने वाला है. अतः आप हम पर प्रसन्न होइये, जिससे
हम पुत्र और बन्धु-बान्धवों सहित जीवित रह सकें.इसी दृष्टि से मेरी प्रार्थना है
कि आप जनकदुलारी को लौटा दें."
धर्मात्मा विभीषण लगातार प्रार्थना करते रहे
थे, जिसे रावण ने सुना-अनसुना कर दिया था. अपने अनुज का परामर्श सुन-सुनकर उसके
कान थकने लगे थे. वह कोध में जलते हुए वह अन्दर ही अन्दर, जलती हुई अगरबत्ती की
तरह सुलग रहा था.
अपने अनुज विभीषण की बातों को सुनकर अब उसे
उबकाई-सी होने लगी थी. वह अब एक शब्द भी सुनने के पक्ष में नहीं था. बीच बचाव करते
हुए उसने उसे रोकते हुए कहा-" बस विभीषण बस.......तुम जरुरत से ज्यादा बोल
चुके...अब चुप हो जाओ. बहुत समझा चुके तुम मुझे...रावण इतना मूर्ख नहीं है, कि
अपना भला-बुरा नहीं समझता. रावण जो भी करता है, वह अपने बल पर करता है, किसी से
परामर्श नहीं लेता. तुम भली-भांति जानते हो कि रावण जब एक बात कदम आगे बढ़ा लेता
है, तो फ़िर उसे किसी भी कीमत पर पीछे नहीं खींचता, परिणाम चाहे कितना ही भयानक
क्यों न हो."
" विभीषण तुम रह तो रहे हो मेरी लंका में.
तुम मेरा दिया हुआ अन्न खाते हो. मेरे दिए कपड़े पहिनते हो. मेरी गुणगान करने के
बजाय तुम उस वनवासी के गुणगान गाते हो, तुम्हें लज्जा नहीं आती?. इतना सब कुछ
जानते हुए भी तुम अब तक जीवित बचे हो तो केवल इसलिए कि तुम मेरे छोटे भाई हो.
तुम्हारी जगह कोई और दूसरा होता तो राम के गुणगान बखानते ही मैं उसकी गर्दन मरोड़
देता."
" विभीषण ! तुम डरे हुए गीदड़ों की भांति
मेरे सामने बैठकर प्रलाप मत करो. त्रिलोक विजयी रावण अपना हित-अहित भांति-भांति
जानता है, समझता है.. रावण शान के साथ जीना जानता है, उसी प्रकार मरना भी जानता
है.
" जाओ...मेरे भाई....जाओ....मुझे क्रोध आ जाए, इससे पहले तुम मेरी नजरों से दूर
चले जाओ. मैं एक कापुरुष को मार कर अपने हाथ गंदे नहीं करना चाहता.".
विभीषण के हितकर, महान अर्थकी साधक, कोमल,
युक्तिसंगत तथा भूत-भविष्य और वर्तमान काल में भी कार्यसाधन में समर्थ बातें सुनकर
रावण को बुखार चढ़ आया था. उसे तो श्रीरामजी से बैर बढ़ाने में आसक्ति हो गयी थी.
अपने क्रोध पर किसी तरह नियंत्रण कर लेने के बाद उसने अपने अनुज विभीषण को उत्तर
देते हुए कहा-" विभीषण.! तुम तो जानते ही हो कि विश्वविजयी रावण एक बार जो
निर्णय ले लेता है, उससे कभी पीछे नहीं हटता, चाहे उसका परिणाम कुछ भी हो. मैं तो
कहीं से कहीं तक भय नहीं देखता फ़िर तुम्हें मेरे रहते तनिक भी भयभीत नहीं होना
चाहिए. तुम्हारा वह वनवासी राम, किसी भी सूरत में सीता को नहीं पा सकता. वह चाहे
तो देवेन्द्र से सहायता प्राप्त कर ले, लेकिन रणभूमि में मेरे सामने कैसे टिक
पाएगा?."
उसने अपने अनुज विभीषण से कहा-" एक अनुज
होने के नाते तुमने जो मेरी भलाई की बात कहीं है, उसके लिए मैं तुम्हें धन्यवाद
देता हूँ. अब तुम जा सकते हो." ऐसा कहकर देवसेना के नाशक और समरांगण में प्रचण्ड पराक्रम प्रकट करने वाले महाबली दशानन
ने अपने अनुज विभीषण को तत्काल बिदा कर दिया और अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ और पैर
पटकते हुए अपने महल की ओर चला गया.
महल में प्रवेश करने के बाद वह अपने एक विशेष
कक्ष में जा पहुँचा. उसने प्रहरी को आज्ञा दी कि किसी को भी भीतर आने की अनुमति
नहीं है. ऐसा कहते हुए उसने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.
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दशमुख रावण
रावण को 'दस मुख' या यानी 10 सिर वाला भी कहा जाता है और यही कारण है कि उसको 'दशानन' कहा जाता है. रावण, मुनि विश्वेश्रवा और कैकसी के चार बच्चों में सबसे बड़ा
पुत्र था. उसे छह
शास्त्रों और चारों वेदों का भी ज्ञान था. इसलिए ऐसा माना जाता है कि वह अपने समय का सबसे अत्यंत
बलशाली, राजनीतिज्ञ, महापराक्रमी तथा. विद्वान् था.
.रावण ने ब्रह्मा के
लिए कई वर्षों तक गहन तपस्या की थी. अपनी तपस्या के दौरान, रावण ने ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए 10 बार अपने सिर को काट दिया. हर बार जब वह अपने
सिर को काटता था तो एक नया सिर प्रकट हो जाता था. इस प्रकार वह अपनी तपस्या जारी रखने में सक्षम हो गया.
अंत में, ब्रह्मा, रावण की तपस्या से प्रसन्न हुए और 10 वें सिर कटने के बाद प्रकट हुए और उन्हें वरदान मांगने को कहा. इस पर
रावण ने अमरता का वरदान माँगा पर ब्रह्मा ने निश्चित रूप से मना कर दिया, लेकिन उन्हें अमरता का आकाशीय अमृत प्रदान किया, जिसे हम सभी जानते हैं कि उनके नाभि के तहत संग्रहीत किया गया था.
रावण के दस सिर को दस
नकारात्मक प्रवृत्तियों के प्रतीक के रूप में भी माना गया है.
. रावण के दस सिर 6 शास्त्रों और 4 वेदों के प्रतीक हैं, जो उन्हें एक महान विद्वान और अपने समय का सबसे बुद्धिमान
व्यक्ति बनाते हैं. वह 65 प्रकार के ज्ञान और हथियारों की सभी कलाओं का स्वामी था.
इतना विद्वान होने के बाद भी रावण क्रोध,
काम, लोभ, मोह, द्वेष, घृणा, पक्षपात, अहंकार, व्यभिचार, और धोखा उसके दुर्गुण थे. इन्हीं दुर्गुणों के चलते उसने माता सीता जी का हरण किया और
अंत में श्रीरामजी के हाथों मारा गया.
रावण के दस सिर किस बात का प्रतीक हैं?
रावण को 'दस मुख' या यानी 10 सिर वाला भी कहा जाता है और यही कारण है कि उसको 'दशानन' कहा जाता है. साहित्यिक किताबों और रामायण में उनको 10 सिर और 20 भुजाओं के रूप में दर्शाया गया है.
उनकों छह शास्त्रों और चारों वेदों का भी
ज्ञान था. इसलिए ऐसा
माना जाता है कि वह अपने समय का सबसे विद्वान् था. आइये इस लेख के माध्यम से अध्ययन करते हैं कि रावण के दस
सिर आखिर किस बात का प्रतीक हैं.
रावण लंका का रजा था
जिसे दशानन यानी दस सिरों वाले के नाम से भी जाना जाता था. रावण रामायण का एक
केंद्रीय पात्र है. उसमें
अनेक गुण भी थे जैसे अनेकों शास्त्रों का ज्ञान होना, अत्यंत बलशाली, राजनीतिज्ञ, महापराक्रमी इत्यादि|
रावण को राक्षस के राजा के रूप में दर्शाया गया है जिसके 10 सिर और 20 भुजाएँ थी और इसी कारण उनको "दशमुखा" (दस मुख वाला ), दशग्रीव (दस सिर वाला ) नाम दिया गया था.
रावण के दस सिर 6 शास्त्रों और 4 वेदों के प्रतिक हैं, जो उन्हें एक महान विद्वान और अपने समय का सबसे बुद्धिमान
व्यक्ति बनाते हैं. वह 65 प्रकार के ज्ञान और हथियारों की सभी कलाओं का मालिक था (
रावण को लेकर अलग-अलग कथाएँ प्रचलित हैं )
वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण दस मस्तक, बड़ी दाढ़, ताम्बे जैसे होंठ और बीस भुजाओं के साथ जन्मा था. वह कोयले
के समान काला था और उसकी दस ग्रिह्वा कि वजह से उसके पिता ने उसका नाम दशग्रीव रखा
था. इसी कारण से रावण दशानन, दश्कंधन आदि नामों से प्रसिद्ध हुआ.
आइए जानते हैं रावण के दस सिर किस बात का प्रतीक
हैं?
क्या आप जानते हैं कि रावण ने ब्रह्मा के लिए कई वर्षों तक गहन तपस्या की थी. अपनी तपस्या के दौरान, रावण ने ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए 10 बार अपने सिर को काट दिया. हर बार जब वह अपने सिर को काटता था तो एक
नया सिर प्रकट हो जाता था . इस प्रकार वह अपनी तपस्या जारी रखने में सक्षम हो गया.
क्या आप जानते हैं कि रावण ने ब्रह्मा
के लिए कई वर्षों तक गहन तपस्या की थी. अपनी तपस्या के दौरान,
रावण ने ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए 10 बार
अपने सिर को काट दिया. हर बार जब वह अपने सिर को काटता था तो
एक नया सिर प्रकट हो जाता था. इस प्रकार वह अपनी तपस्या जारी
रखने में सक्षम हो गया.
अंत में, ब्रह्मा, रावण की तपस्या से प्रसन्न हुए और 10 वें सिर कटने के बाद प्रकट हुए और उन्हें वरदान मांगने को
कहा. इस पर रावण ने अमरता का वरदान माँगा पर ब्रह्मा ने निश्चित
रूप से मना कर दिया, लेकिन
उन्हें अमरता का आकाशीय अमृत प्रदान किया, जिसे हम सभी जानते हैं कि उनके नाभि के तहत संग्रहीत किया
गया था.
भारतीय पौराणिक कथाओं को समझना काफी मुश्किल
है, ये कथाएँ
एक और कहानी को दर्शाती है और दूसरी तरफ उन कहानियों के पीछे गहरा अर्थ छिपा होता
है. रावण के दस सिर को दस नकारात्मक प्रवृत्तियों के प्रतीक के
रूप में भी माना गया है.
रावण
के बारे में 10 आश्चर्यजनक तथ्य
ये प्रवृत्तियां हैं -
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष एवं भय
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जीवन में अक्सर ऐसा भी समय आता है, जब व्यक्ति
अनिर्णयात्मक द्वंद्व में फ़ंस जाता है. जब दिल और दिमाक कोई निर्णय नहीं ले पाते
हैं, तो ऐसे समय में उसे स्वयं से स्वयं की मुलाकात करनी पड़ती है. एकांत क्षणों
में बैठकर लिया निर्णय एकदम सही होता है. रावण की यही स्थिति थी, कि वह अपने
सेनानायकों की सुनें या फ़िर अपने भाई विभीषण के द्वारा सुझाए गए मार्ग पर चले?.
गहन चिंतन-मनन के बाद उसने निर्णय लिया "
मैं त्रैलोक विजयी रावण, जिसका नाम लेते ही देव,दानव, गन्धर्व, यक्ष, आदि भय से
कांपने लगते हैं. बल और पराक्रम में तीनों लोकों में कोई ऐसा नहीं है, जो मेरे
सामने पल भर को भी ठहर सके. ऐसे प्रतापी रावण को एक तुच्छ वनवासी राम से भयभीत
होने की कतई आवश्यकता नहीं है. यदि वह अपने अनुज विभीषण की सलाह को मानते हुए सीता
को लौटा देगा तो जग में वह हंसाई का पात्र बन जाएगा. लोग उसके मुँह पर कहने से
नहीं चुकेगे कि जब इतनी हिम्मत ही नहीं थी, तो
सीता का अपहरण करने की जरुरत ही क्या थी?. सारे संसार में यह समाचार तेजी
के साथ फ़ैल जाएगा कि त्रिलोक विजयी रावण ने राम से भयभीत होकर सीता को लौटा दिया.
उसने पूरे ब्रह्माण्ड में जो भय का वातावरण बनाया है, उसका प्रभाव जाता रहेगा.
उसके सेवकों, सेनानायकों और समस्त दावनों के सहित समस्त देवता उसकी खिल्ली उड़ायेंगे.
उसके बारे में तरह-तरह की बातें कही जाएंगी. लोग उसे डरपोंक कहेंगे. नहीं...नहीं,
वह डरपोंक और कायर नहीं कहलाना चाहेगा."
" मेरी थोड़ी-सी भी भृकुटि तेढ़ी हो जाए,
तो देव-दानव गन्धर्व आदि भय से कांपने लगते है. मेरे चलने मात्र से पृथ्वी डगमगाने
लगती है. समुद्र की लहरें उठने लगती है. ज्वालामुखी फ़टने लगते हैं. चारों ओर
त्राहि-त्राहि मचने लगती है. बल-बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान में मैं किसी से कम नहीं
पड़ता. फ़िर मुझे किसी से भयभीत होने की क्या आवश्यकता?."
"जिस बलशाली रावण ने एक बार नहीं, बल्कि
कैलाश जैसे पर्वत को पलक झपकते ही उठा लिया हो ऐसे बलशाली रावण से भला कौन मुकाबला
कर सकता है".
"हाँ, मैने भयंकर भूले की हैं,
जानते-बूझते की हैं, किसी से डर कर नहीं की है. जहाँ तक मरने की बात है, मरना तो
सभी को है एक न एक दिन. एक दिन वह भी मर जाएगा जाएगा. यदि मरना ही है तो वह
शूर-वीरों की तरह राम से युद्ध करेगा. उन्हें रणभूमि में अपनी शक्तिओं से परिचय
करवाऊँगा, और अंत में उनके हाथों मारा जाऊँगा. एक शूरवीर के लिए रणभूमि में अपने
प्राण त्यागना गौरव की बात होगी. उसने तो ब्रह्माजी से अजर-अमर होने का वरदान
मांगा भी था,लेकिन उन्होंने मुझे अमरता का वरदान न देकर, अमृत-कुण्ड मेरी नाभि में
भर दिया था. भले ही अमृत का कुण्ड मेरी नाभि में छिपा हो, इससे यह तो सिद्ध नहीं
हो जाता कि मेरी मृत्यु होगी ही नहीं?. अवश्य होगी.....परमपिता ब्रह्माजी से
सृष्टि की रचना, कुछ इस तरह की है, कि उसे एक न एक दिन नष्ट होना ही होना है. मैं
स्वयं भी तो उनकी सृष्टि में एक कण के बराबर नहीं हूँ."
विश्व-विजेता रावण ने अन्तिम निर्णय ले लिया था
कि वह किसी भी कीमत पर सीता को नहीं लौटाएगा, भले ही उसे कितनी ही हानि क्यों न
उठानी पड़े. जीवित रहने मात्र के लिए वह किसी के सामने, न तो गिड़गिड़ाएगा और न ही
माफ़ी मांगेगा और न ही हाथ जोड़ेगा. उसने जो भी अपराध किए हैं, सोच-समझ कर किए हैं,
उसके लिए उसे कोई पछतावा नहीं है. अपने अपराधों के लिए वह किसी से क्षमा नहीं
मांगेगा. उसने अपना सारा जीवन जिस गौरव व शान से जिया है, उसी आन-बान और शान से
मृत्यु का वरण करेगा."
०००००
रावण ने अंतिम निर्णय ले लिया था कि वह उसी
आन-बान और शान के साथ जीवित रहेगा.जैसा कि अब तक रहता आया है. वह अपने कुकृत्यों
के लिए किसी के आगे दया की भीख नहीं मांगेगा और न ही गिड़गिड़ाएगा.
ऐसा
निर्णय लेते हुए वह अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ और एक विशालकाय दर्पण के सामने जा
खड़ा हुआ. उसने बिखरे हुए बालों की लटॊं को ठीक किया. गले में अस्त-व्यस्त पड़ी
उत्तरीय को ठीक किया. मुकुट को सीधा किया और अपनी दिग्विजय खड़ग (तलवार) "चन्द्रहास" जिसे शिवशंकर ने प्रसन्न होकर उस समय दिया था, जब
उसने अपने आराध्य के समक्ष, शिव तांडव स्त्रोत की रचना कर, उनकी स्तुति करते हुए
,उन्हें प्रसन्न किया था, म्यान में रखा और अपने सभा भवन की ओर प्रस्थित हुआ.
०००००
अपने स्वामी को आगे बढ़ता देख, अनेक राक्षस उसके
आगे-आगे ढाल-तलवार एवं अनेक प्रकार के आयुध धारण लेकर चलने लगे. इतना ही नहीं
अगणित निशाचर, उसे दाएं-बाएं और पीछे की ओर से घेर कर चल रहे थे.
उसके प्रस्थान करते ही बहुत-से अतिरथी वीर
रथों, मतवाले गजराजों और घुड़सवार तुरंत उसके पीछे हो लिए. उसकी इस यात्रा के समय
तुमुल शंख-ध्वनि होने लगी. उसका सुवर्ण निर्मित रथ अपने पहियों की घर्घराहट से
संपूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करता हुआ राजमार्ग पर जा पहुँचा.
मार्ग में दोनों ओर खड़े राक्षसगण उसकी स्तुति,
जय-जयकारा करने लगे. राक्षसों द्वारा जयकार सुनते हुए वह अपनी राजसभा में जा
पहुँचा.
सभाभवन में नीलम से बना हुआ एक विशाल और उत्तम
सिंहासन बना हुआ था, जिस पर मुलायम चमड़े का चर्म बिछा हुआ था, उस पर बैठ गया.
बैठते ही उसने शीघ्रगामी दूतों को आज्ञा देते हुए कहा-" तुम लोग शीघ्र ही
यहाँ बैठने वाले सुविख्यात राक्षसों को मेरे पास बुला लाओ, क्योंकि मुझे
शीघ्रताशीघ्र अपने शत्रु राम से युद्धभूमि में मुकाबला करना है. सुना है, वह
समुद्र पर सेतु बनाकर लंका पर आक्रमण करना चाहता है. मैं चाहता हूँ कि उसके लंका
प्रवेश से पहले वहीं रोक दिया जाना चाहिए.
रावण की आज्ञा का यथोचित आदेश पाकर सारे वीर
राक्षस एक के बाद एक सभा कक्ष में आकर अपने स्थान पर उपस्थित होने लगे. जब सारे
सैनिकादि आ गए तब उसने सभागार में उपस्थित अपने सेनापति प्रहस्त को आज्ञा देते हुए
कहा-" सेनापति ! तुम अपने सैनिकों को ऐसी आज्ञा दो, जिससे तुम्हारे
अस्त्रविद्या में परंगत रथी, घुड़सवार, हाथीसवार, और पैदल योद्धा नगर की रक्षा में
तत्पर रहें."
लंकेश के आदेश पर प्रहस्त ने शीघ्र ही सारी
सेना को नगर के भीतर और बाहर नियुक्त कर दिया. सारी सेना को यथोचित स्थान पर
नियुक्त करने के बाद वह अपने स्वामी लंकेश के समक्ष आ बैठा और इस प्रकार
बोला-" हे राक्षसराज ! महाबली महाराज की आज्ञा से मैंने सेना को नगर के भीतर
और बाहर नियुक्त कर दिया है."
रामजी से युद्ध करने को आतुर हुए लंकेश ने सभा
को संबोधित करते हुए कहा-" मेरे अनुज, महाबली कुम्भकरण अभी-अभी छः माह की
नींद लेकर जाग गए हैं. युद्धभूमि से जाने से पूर्व हमें बाहूबली कुम्भकरण का
मन्तव्य भी जान लेना जरुरी है.वह इस संबंध में अपने क्या विचार रखता है, मेरे लिए
उसे जानना बहुत जरुरी है.
फ़िर उसने प्रहस्त को आज्ञा देते हुए कहा-
प्रहस्त ! मेरा अनुज कुम्भकरण जाग गया है. जागकर उठने के बाद उसे जमकर भूख लगती
है. अतः तुम मृगों, भैसों, सुअरों,मोर, मुर्गे,गेंडा, साही, हिरण, मयुर,
भांति-भांति के बकरे,खरगोश,मत्स्य तथा भेड़ आदि के मांस से बनी भोज्य सामग्री तथा
सैकड़ों पात्रों में शराब भर कर ले जाना. छककर मदिरापान करने बाद वह भोजन करेगा.
वारुणी / मदिरा पीकर और सुस्वादु भोजन करने के पश्चात जब वह तृप्त हो जाए, तब तुम
उससे मेरा मन्तव्य कह सुनाना और कहना कि त्रैलोक-विजयी रावण तुम्हारी याद कर रहे
हैं. हाँ...तुम अपने साथ वाद्य-यंत्र
बजाने वाले अनेक कलाकारों को भी साथ लेते जाना. उसे सुमधुर संगीत सुनाकर उसका
मनोरंजन भी करना."
" जी महाराज ! जैसी आपके आज्ञा" कहता
हुआ प्रहस्त अपने आसन से उठ खड़ा हुआ. वहाँ से प्रस्थान करने से पूर्व उसने झुकते
हुए अपने आका को प्रणाम दिया और फ़ुर्ती के साथ सभाग्रह से बाहर निकल गया.
००००
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कुम्भकर्ण
कुम्भकरण ऋषि व्रिश्रवा और राक्षसी कैकसी का
पुत्र तथा लंका के राजा रावण का छोटा भाई था. कुम्भ अर्थात घड़ा और कर्ण अर्थात कान, बचपन से
ही बड़े कान होने के कारण इसका नाम कुम्भकर्ण रखा गया था.
यह विभीषण और शूर्पनखा का बड़ा भाई था. बचपन से
ही इसके अंदर बहुत बल था, इतना
कि एक बार में यह जितना भोजन करता था,उतना कई नगरों के प्राणी मिलकर भी नहीं कर
सकते थे. जब इनके पिता ने तीनों भाइयों को तपस्या करने के लिए कहा और भगवान
ब्रह्मा जी ने इन्हें दर्शन दिए तो देवताओं ने माता सरस्वती से प्रार्थना की जब
कुम्भकर्ण वरदान माँगे तो वे उसकी जिव्हा पर बैठ जाएँ. परिणाम स्वरूप जब कुम्भकर्ण
इंद्रासन माँगने लगा तो उसके मुख से इंद्रासन की जगह निंद्रासन (सोते रहने का
वरदान) निकला, जिसे ब्रह्मा जी ने पूरा कर दिया परंतु बाद में जब कुम्भकर्ण को
इसका पश्चाताप हुआ, तो ब्रह्मा जी ने इसकी अवधि घटा कर एक दिन कर दिया जिसके कारण
यह छः महीने तक सोता रहता फिर एक दिन के लिए उठता और फिर छः महीने के लिए सो जाता,परंतु ब्रह्मा जी ने इसे सचेत किया कि यदि कोई इसे बलपूर्वक उठाएगा तो वही
दिन कुम्भकर्ण का अंतिम दिन होगा।
कुम्भकर्ण दिखने में बहुत ही ज्यादा बलशाली और भीमकाय था और
आम लोगो से कई गुना ज्यादा भोजन करता था.पुराणों के अनुसार कुम्भकर्ण अपने पूर्व
जन्म में असुरराज हिरण्यकशिपु (रावण का पूर्व जन्म) का छोटा भाई हिरण्याक्ष था उस जन्म में उसका वध
भगवान विष्णु के वाराह अवतार द्वारा हुआ था.
कहा जाता है कुम्भकरण के पुत्र भीमा का जन्म अपने पिता की मृत्यु के बाद
हुआ था. बचपन में उसे इस बात का
आभास नहीं था कि भगवान राम
ने उसके पिता का वध किया है.
कुम्भकरण का विवाह वेरोचन की बेटी 'व्रज्रज्वाला' से हुआ था.
इसके अलावा करकटी भी उसकी पत्नी थी. इन दोनों से उसे तीन बच्चे थे. इसमें सबसे
ज्यादा चर्चित भीमासुर था, जिसका जन्म करकटी से हुआ था.
करकटी राक्षसी और सैयाद्री की राजकुमारी थी, जिस पर मुग्ध होकर कुंभकर्ण से उससे शादी कर ली
थी, जिससे भीमासुर का जन्म हुआ था. कुंभकर्ण का एक तीसरा
विवाह भी हुआ था. ये विवाह कुंभपुर के महोदर नामक राजा की कन्या तड़ित्माला से हुआ
था.
पहली पत्नी और बेटे कुंभ व निकुंभ---
पौराणिक ग्रंथों और अन्य किताबों के अनुसार कुंभकर्ण को
वज्रज्वाला से दो बेटे थे. उनके नाम कुंभ और निकुंभ थे. दोनों राक्षस थे. उनका
जिक्र भी कई बार पुराणों, किताबों और रामायण से जुड़ी
किताबों में होता है. निकुंभ के बारे में कहा जाता है कि वो भी काफी शक्तिशाली था.
उसे कुबेर ने निगरानी का खास दायित्व सौंप रखा था.
भीमासुर भी बहुत शक्तिशाली था
करकेटी से पैदा हुए बेटे भीमासुर के बारे में कहा
जाता है कि कुंभकर्ण के मरने के बाद करकेटी उसे लेकर चली गई ताकि उसे देवताओं से
दूर रखा जा सके. बाद में बड़ा होने पर जब उसे अपने पिता के मौत के बारे में मालूम
हुआ तो उसने देवताओं से बदला लेने का फैसला किया. हालांकि बाद में भगवान शिव से
उसका मुकाबला हुआ और शिव ने उसे भस्म कर दिया. वह जहाँ भस्म हुआ, वहीं शंकर भगवान का प्रसिद्ध मंदिर भीमाशंकर
है.
कुंभकर्ण के पिता ऋषि विश्रवा विद्वान थे. उन्होंने कुंभकर्ण को
शिक्षा दी थी. इसलिए उसे तमाम वेदों और धर्म-अधर्म की जानकारी थी. वह भूत और
भविष्य का ज्ञाता था. उसके बारे में ये भी कहा जाता है कि वो अच्छे चरित्र और
स्वभाव का राक्षस था, जिसके बारे में ये भी माना जाता
था कि वो महान लड़ाका था, उसे कोई नहीं हरा पाता था
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सबसे पहले उसने पाकशाला में जाकर सैकड़ों
पात्रों को, जिनमें नाना प्रकार के जीव-जंतुओं तथा जानवरों का पका हुआ मांस भरकर
रखा गया था, छोटे-बड़े अनेक पात्रों को, जिनमें नाना प्रकार की मदिरा भरी हुई थी,
गाड़ियों में लादे जाने की आज्ञा दी..
सैकड़ों की संख्या में वाद्य-यंत्र बजाने वाले
सैनिक आगे-आगे चल रहे थे. ठीक उनके पीछे अनेक सुन्दर स्त्रियाँ नृत्य-गान करती हुई
, थिरक-थिरक कर चल रही थी. इसके ठीक बाद में असंख्य बैलगाड़ियाँ चल रही थीं, जिनमे
सुस्वादु भोजन, नाना प्रकार के जीव-जंतुओ और जानवरॊं के मांस से बनी अनेक प्रकार
के व्यंजन-सामग्री तथा मदिरा से भरे मटकों से लदी हुई थी, चल रही थी. भोज्य सामग्री
की सुरक्षा में अनेक सैनिक अपने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर
सावधानी पूर्वक चल रहे थे. घोड़े की पीठ पर सवार प्रहस्त की निगरानी में यह सब
सुचारु रुप से संचालित हो रहा था.
महाबली कुम्भकरण, जिसकी ऊँचाई छः सौ धनुष ( एक धनुष की लम्बाई एक मीटर से देढ़ मीटर होती
है, लगहग 5 फ़िट के करीब होती है. इस तरह
उसकी कुल लम्बाई 600 x 5 = 3000 फ़िट हुई ) और मोटाई सौ धनुष
थी ( 100 x 5 = 500 फ़िट) थी. उसके विशाल नेत्र गाड़ी के पहिये
के बराबर थे. उसकी भुजाएं उसके शरीर के नाप के अनुसार एक हजार से बारह सौ फ़िट लंबे
और मोटे थे. उसके कान सूपे के आकार से कुछ बड़े थे. उसके नाक के नथुने बहुत बड़े
आकार के थे. देखने पर ऐसा प्रतीत होता, मानो दो विशाल सुरंगे हों. जब वह स्वांस
खीचता, तो छोटे-बड़े आकार के खरगोश, हिरण और जीव-जंतु खींचे चले आते थे. उसका वजन
करीब तीस हजार किग्रा. था, एक विशाल पर्वत की लंबी-चौड़ी गुफ़ा में रहता था.
छः माह की गहरी नींद लेने के पश्चात वह जाग
जरुर गया था, लेकिन अनमना-सा धरती पर लेटा रहा. वाद्य-यंत्रों की कर्कष ध्वनि
सुनकर सहसा उसका ध्यान उस ओर गया. वह तत्काल समझ गया कि लंकेश ने उसके खाने-पीने
की व्यवस्था कर दी है. सैनिकों के दल गाजे-बाजे के साथ गाड़ियां में विभिन्न प्रकार
के मांसाहार और शराब से भरे घड़े उसके लिए लेकर आ रहे हैं. यह जानकर वह अति प्रसन्न
हो रहा था. प्रसन्नता केअतिरेक के चलते, यंत्रों से निकलने वाली कर्कष ध्वनि उसे
अति प्रिय लग रही थी.
वह
अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ. गुफ़ा से बाहर निकला और एक विशाल शिला पर बैठ गया.
हालांकि सैनिकों का दल अभी काफ़ी दूरी पर था, लेकिन शिला पर बैठे हुए कुम्भकरण उसे
बड़े आराम से देख सकता था.
" आओ.. आओ ...प्रहस्त आओ....तुम्हारा
स्वागत है. मुझे जोरों की भूख लग आयी है. अतः तुम लोग शीघ्रता से अपने पग
बढ़ाओ." उसने वहीं से बैठे-बैठे उच्च-स्वर में प्रहस्त को आवाज देते हुए कहा.
कुछ ही समय पश्चात प्रहस्त अपने दल-बल के साथ
कुम्भकरण के नजदीक पहुँच गया. अनेक प्रकार के जीव-जन्तुओं और जानवरों के पके हुए
मांस और उनमे मिलाए गए अनेक प्रकार के सुगंधित मसालों की उठती गंध उसके नाक से
जाकर टकराने लगी. मोहक मसालों की गंध से उसकी भूख द्विगुणित हो उठी. अपनी
लंबी-लंबी भुजाओं को आगे बढ़ाते हुए उसने सबसे पहले मदिरा से भरी मटकियों और घड़ों
को उठाया और एक ही घूँट में हलक के नीचे उतार लिया. खाली होते मटकों और घड़ों को वह
हवा में उछालकर दूर फ़ेंक देता था. मदिरा गटकते समय उसके गले से भयंकर शोर उत्पन्न
होता था.
छककर मदिरा पी लेने के बाद उसने भोज्य पदार्थों
की ओर अपने हाथ बढ़ाया. तरह-तरह के जानवरों का भुंजा हुआ मांस खाना उसे अति प्रिय
था. उसे भूख इतने जोरों से लगी थी, कि वह अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख पा रहा था.
वह अब दोनों हाथों से ठूंस-ठूंस कर खाने
लगा. देखते ही देखते उसने कुछ ही समय में सारा भोजन खाकर समाप्त कर दिया. जब उसका
पेट भर गया, तब उसने एक जोरदार डकार ली. डकार की आवाज इतनी भयंकर थी,मानो कोई
ज्वालामुखी फट पड़ा हो.
भोजन आदि से तृप्त होने के बाद उसने जानना चाहा
- " प्रहस्त ! लंका में सब
ठीक तो चल रहा है अथवा नहीं?. यदि लंका पर कोई आसन्न संकट आन पड़ा हो, तो मुझे
बताओ?."
प्रश्न कुम्भकरण ने किया था और अब उसका उत्तर
प्रहस्त को देना था. चुंकि प्रहस्त रावण का विशेष प्रिय पात्र तो था ही, साथ ही वह
विद्वान भी था. वह जानता कि किस बात को कब कहना है और कैसे कहना है. बात कहने से
पहले समय की विडंबना को भी जानना-समझना बहुत जरुरी होता है. प्रहस्त समझ रहा था कि
यदि मैंने भूलवश लंका पर आने वाले आसन्न संकट की ओर इशारा किया तो मामला गड़बड़ हो
जाएगा. वह यह भी जानता कि कुम्भकरण राक्षस जरुर है, लेकिन इतना क्रूर नहीं है,
अत्याचारी नहीं है, जैसा कि राक्षसराज रावण है. शरीर उसने जरुर लंबा-चौड़ा पाया है,
लेकिन उसने कभी किसी का अहित नहीं किया. स्वभाव से वह नरम है....शांत स्वभाव का
है. खाना और सोना यहि तो उसके भाग्य में लिखा-बदा है. अतः दुनियादारी की बातें कम
जानता है.
प्रहस्त ने विनम्रता से अपने दोनों हाथ जोड़कर
उसका अभिवादन करते हुए कहा-" कुम्भकरण जी ! लंकापति ने आपको याद किया है. वे
आपसे तत्काल मिलना चाहते हैं. जितनी जल्दी हो सके आप स्वयं चलकर उनसे बात कर लें,
तो ज्यादा उत्तम होगा".
कुम्भकरण गरजा- "प्रहस्त ! तुम मुझसे कुछ
छिपा रहे हो.....साफ़-साफ़ क्यों नहीं बतलाते कि इस समय लंका पर कोई भीषण संकट आन
पड़ा है?. जरुर कोई न कोई ऐसा बात जरुर है, जिसका समाधानकारक हल निकालने के लिए
मेरी याद की जा रही है.?"
" कुम्भकरण जी...मुझे क्षमा करें...मैं एक
तुच्छ सेवक हूँ ..फ़िर मेरा इतना सामर्थ्य भी नहीं है कि मैं अपने स्वामी की आज्ञा
का उल्लंघन कर स्कूँ. एक सेवक होने के
नाते मेरा केवल इतना ही कर्तव्य बनता है कि मैं अपने स्वामी की आज्ञा का
अक्षरशःपालन करूँ. मेरे स्वामी लंकापति रावण ने आपके लिए संदेशा भेजा है कि किसी
अत्यावश्यक विषय पर वे आपसे विचार-परामर्श करना चाहते हैं.कृपया कर आप मेरे साथ
चलने की कृपा करें." इतना कहकर प्रहस्त चुप हो गया.
"चलो..ठीक है...चलकर देखते हैं कि बात
क्या है." इतना कहते हुए कुम्भकरण अपने स्थान से उठकर लंका की ओर अग्रसर होने
लगा.
कुम्भकर्ण की ऊँचाई इतनी थी कि साथ में चलने
वाले सैनिक उसके घुटने के बराबर तक भी नहीं आ पा रहे थे. अधीरता के साथ वह
लंबे-लंबे डग भरता हुआ, वह अपने भ्राता रावण से मिलने
जा रहा था. रास्ता चलते वह बड़े-बड़े ऊँचे पेड़ों-पत्थरों और मिट्टी के टीलों को एक
ही डग में लांघ जाता था. ढोल, नगाड़े, तुरही, मंजिरा, डमरू,
डफ़ली, ढोलक आदि बजाने वाले और राक्षसगण दौड़ लगाकर उसके पीछे तेज गति से भागते.
कोई-कोई तो मार्ग में गिर भी पड़ते थे. वह पीछे पलटकर देखता. बहुत पीछे छूट
राक्षस-दलों साथ आ जाएं यह सोचकर वह कुछ देर तक ठहरता. जब राक्षसों की पूरी टोली
पास आ जाती तो वह अपने गन्तव्य की ओर बढ़ने लगता.ऐसा करते हुए बहुत आनन्द आ रहा था.
प्रहस्त ने अपने घोड़े को तेज गति से दौड़ाते हुए
लंका की ओर प्रस्थान किया. वह चाहता कि कुम्भकरण लंका पहुँचे,इससे पहले वह अपने
स्वामी लंकेश को सूचित कर सके कि कुम्भकरण पास आ चुके हैं. रावण ने जब सुना कि
उसका अनुज लंका आ पहुँचा है, तो वह खुश होकर अपने आसन से उछल पड़ा. रावण अपने भाई
कुम्भकरण के बारे में जानता था कि वह छः धनुष ऊँचा है, अतः उससे बात करने के लिए
कठिनाई आ सकती है. वह अपने सत-मंजिले महल की पाँचवी मंजिल की बालकनी पर जा पहुँचा.
यहाँ से वह अपने अनुज से आसानी से बात कर सकता था.
लंबे-लंबे डग भर कर चलता हुआ कुम्भकरण मन ही मन
सोच रहा था कि निश्चित ही कोई ऐसी बात अवश्य है, जिसके कारण त्रिलोक विजयी रावण
किसी संकट से ग्रसित हो गए है.. दरअसल मामला क्या है, यह तो ज्येष्ठ भ्राता से
मिलकर ही ज्ञात हो सकेगा.
कुम्भकरण ने दूर से ही देख लिया था कि लंकेश
अपने राजमहल की पांचवी मंजिल के छज्जे पर खड़े होकर उसके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे
हैं. पास आकर उसने अपनी लंबी भुजाओं को
प्रणाम की मुद्रा में जोड़ते हुए कहा-" लंकेश आपकी जय हो...जय हो. देखिए आपका
अनुज आपको प्रणाम निवेदित कर रहा है."
"आयुष्मान भव" कहते हुए लंकेश ने उसे
अपना आशीर्वाद प्रदान किया. तदन्तर उसने उससे कहा-" अनुज कुम्भकरण.!..लंकेश
तुम्हारा भाव-भीना स्वागत करता है. अपने प्रिय अनुज को देखकर मेरा हृदय-कमल प्रसन्नता से खिल उठा
है". यह कहते हुए उसने बड़ी-सी सुवर्ण थाल में रखे सुगन्धित फ़ूलों की वर्षा
करते हुए उसका पुरजोर स्वागत किया और कहा- " अनुज ! तुम्हें यहाँ आने में कोई
कष्ट तो नहीं हुआ? मैंने तुम्हारी रुचि के अनुसार भोज्य-सामग्री भेजी थी, तुम्हें
पसंद तो आयी होगी? और तुमने पर्याप्त मात्रा में भोजन तो कर लिया है न ? "
" हाँ भैया हाँ...मैंने भरपेट सुस्वादु
भोजन का आनंद उठाया है. बहुत दिनों बाद मुझे इतना स्वादिष्ट भोजन खाने को मिला
है."
"हे ज्येष्ठ भ्राता ! आपने मुझे साग्रह
बुला भेजा है. मैं जानना चाहता हूँ कि आप पर ऐसी कौन-सी विपत्ति आन पड़ी है कि मुझे
बुलाने और परामर्श लेने के लिए आपको विवश होना पड़ा है?. कृपया करके मुझे बतलाइए कि मैं आपके किस काम आ सकता हूँ?. मुझे
प्रसन्नता होगी कि मैं आपके कोई काम आ सका."
सा तु संवत्सरं कालं मामयाचत भामिनी :
प्रतीक्षामाणा भर्तारं राममायतलोचना : तन्मया चारुनेत्रायाः प्रतिज्ञातं वचः शुभम्
( वाल्मीकि रामा.18-19 द्वादशः सर्ग.)
" हे कुम्भकरण मेरे भ्राता ! रक्ष
संस्कृति के अनुसार पराई स्त्रियों का हरण करना और उनके साथ रमण करना, हम राक्षसों
का स्वभाव रहा है. मैंने वहीं किया है. दण्डकारण्य़, जो हम राक्षसों के विचरने का
स्थान है, राम की प्यारी रानी जनकदुलारी सीता का अपहरण कर ले आया हूँ. किंतु वह
मंदगामिनी सीता मेरी शय्या पर आरुढ़ होना नहीं चाहती. मेरी दृष्टि में तीन लोकों
में सीता के समान सुन्दरी दूसरी स्त्री नहीं है."
" हे भ्राता ! सूर्य की प्रभा के समान
तेजस्वीनी सीता को सौंदर्य को देखकर मेरा मन मेरे वश में नहीं रह गया है. काम ने
मुझे अपने अधीन कर लिया है. सुन्दर स्त्रियों का हरण कर लाना और उनके साथ संभोग
करना, हम राक्षसों का शौक रहा है. इसमें मैं कहीं दूर-दूर तक बुराई नहीं
देखता."
" हे कुम्भकरण ! विशालनेत्रों वाली सीता
ने मुझसे एक वर्ष का समय मांगा है. इस बीच में वह अपने पति श्रीराम की प्रतीक्षा
करेगी. मैंने उसके वचनों को पूरा करने की प्रतिज्ञा कर ली है."
" हे महाबली कुम्भकरण ! मुझे मेरे शत्रु
श्रीराम की ओर से कोई भय नहीं है. क्योंकि वे दोनों दशरथकुमार श्रीराम और लक्ष्मण
असंख्य जल-जंतुओं और मतस्यों से भरे हुए अलंघ्य महासागर को कैसे पार कर
सकेंगे?."
" कुम्भकरण ! कोई एक विशालकाय वानर जिसने
अपना नाम हनुमान बताया था, रामदूत बनकर सीता की खोज करता हुआ लंका तक चला आया था.
उस अकेले वानर ने लंका में महान संहार मचा दिया. जब एक अकेला वानर इतना पराक्रमी
हो सकता है, तो फ़िर राम कितने पराक्रमी होंगे, इसका अंदाजा लगा पाना कठिन है. राम
से अपना बचाव किस तरह किया जा सकता है?, इस पर गहनता से विचार-विनिमय करना होगा.
यद्यपि हमें मनुष्यों से कोई भय नहीं है, फ़िर भी हमें विजय के उपाय पर विचार तो
करना पड़ेगा."
" हे मेरे भाई ! उन दिनों जब देवताओं और असुरों के बीच युद्ध चल
रहा था, उसमें आप सभी की सहायता से विजय-श्री प्राप्त की थी. हे भ्राता ! आप भी
मेरे उसी प्रकार से सहायक रहे हैं. वे दोनों राजकुमार सीता का पता आकर सुग्रीव आदि
के वानरों के साथ समुद्र के उस तट तक आ पहुँचे हैं."
उसने आहिरावण और अपने सभासदों से कहा- "
हे कुम्भकरण और सभासदों ! अब आप लोग आपस में सलाह कीजिए और कोई ऐसी सुन्दर नीति
बनाइए, जिससे सीता को लौटाना न पड़े तथा दोनों दशरथकुमार मारे जायें."
" हे सभासदों ! मैं आश्वस्थ हूँ कि वानरों
के साथ समुद्र को पार करके, यहाँ तक आने
की शक्ति जगत में राम के सिवा और किसी में नहीं है. खैर, वे यहाँ आकर मेरा कुछ भी
बिगाड़ नहीं कर पाएंगे. अतः निश्चित ही जीत मेरी होगी."
"निश्चित ही भयंकर युद्ध की स्थिति बनेगी.
मैं युद्ध करने से नहीं डरता और न ही उस राम से तो बिल्कुल भी नहीं डराता. युद्ध
होगा, अवश्य होगा, लेकिन अंततः जीत मेरी ही होगी."
बुद्धिमान कुम्भकरण रावण के मन में समाए डर को
समझ रहा था. समझ रहा था कि असंख्य पापाचार करने के पश्चात अब उसके दुष्प्परिणाम
सामने आने लगे हैं. वह मुझसे सहायता पाने की लालसा से, मुझे अपने पक्ष में रखने की
कोशिश कर रहा है. पापकर्म करने से पहले उसने कभी मुझसे परामर्श नहीं लिया कि मैं
इस घृणित कर्म को करुँ या नहीं?.
कामातुर रावण का खेदपूर्ण प्रलाप सुनकर
कुम्भकर्ण को क्रोध आ गया और उसने अपने भ्राता रावण को लगभग फटकारते हुए
कहा-" हे भ्राता ! जब आपने श्रीरामजी
के आश्रम में छल से घुसकर सीताजी का अपहरण बलपूर्वक किया, तब आपने किसी से परामर्श
नहीं लिया कि मुझे ऐसा दुष्कर्म करना चाहिए अथवा नहीं.?. अब जबकि सारा काम बिगड़
गया है, तब तुम मुझसे विचार करने आगे आए?."
" हे दशानन ! तुम तो सर्व-ज्ञानी
हो.वेद-वेदांत और शास्त्रों के ज्ञाता हो. राजकाज में सबसे बढ़कर हो फ़िर भी तुमने
अन्यायपूर्ण कृत्य किया है. जो राजा सब राजकार्य न्यायपूर्वक करता है, उसकी बुद्धि
निश्चयपूर्वक होने के कारण उसे पीछे पछतावा नहीं होता."
"शास्त्रों के ज्ञाता होने के बाद भी आपने
शास्त्रों के विपरीत आचरण किया है. जो करने योग्य कार्यों को पीछे करना चाहता है
और पीछे करने योग्य काम पहले कर डालता है, वह नीति-अनीति नहीं जानता."
" हे भ्राता! आपने भावी परिणाम का विचार
किये बिना ही यह बहुत बड़ा दुष्कर्म कर डाला है. जिस प्रकार से विष-मिश्रित भोजन
खाने वाले के प्राण हर लेता है, उसी प्रकार श्रीरामचन्द्रजी निश्चित ही तुम्हारा
वध कर डालेंगे. यह सौभाग्य के बात है कि तुम इतना बड़ा अपराध करने के बाद भी जीवित
हो."
" मेरे भाई ! आप तो शात्रों के रचियता
हो. वेदादि के मर्मज्ञ विद्वान हो, मैं भला आपको क्या सीख दे सकता हूँ. आप भली-भांति जानते ही हैं कि अनीति के पक्ष खड़ा
मनुष्य यूंहि पिस जाता है, जैसे गेहूँ में पड़ा घुन पिस जाता है. पापपूर्ण कृत्य से
अर्जित अन्न खाना भी पाप ही की श्रेणी में आता है. कुकृत्य से मिलने वाले पापों का
कोई भी भागीदारी नहीं बनना चाहता चाहे वह भाई हो, बहन हो, बेटा हो, यहाँ की उसकी
अर्धागिणी भी पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता."
" हे
लंकेश ! मैं धर्म का ज्ञाता नहीं हूँ और न ही बहुत बड़ा विद्वान हूँ. एक दिन के लिए
जागना और फ़िर सो जाना, इतना ही मैंने किया है. तथापि कुछ अल्प ज्ञान तो रखता ही
हूँ. आपने अपने जितने भी पापाचार किया है,
सब कुछ जानते-बूझते हुए भी मैं आपका साथ दूँगा. वह भाई किस काम का जो अपने भाई के
काम न आ सके?. ऐसे भाई को भाई कहलाने का कोई हक नहीं बनता.? भाई विभीषण से तुमने इस विषय में संवाद तो किया होगा? वह क्या कहता है?.
" हे लंकेश ! यद्यपि आपने शत्रुओं के साथ
अनुचित कर्म करना आरम्भ किया है, तथापि मैं आपके पक्ष में रहकर, आपके शत्रुओं का
संहार करके सबको ठीक कर दूँगा, आप निश्चिंत रहें."
" हे दशानन ! जब मैं अपने इस विशालकाय
शरीर से घोर गर्जना करूँगा तो स्वयं देवराज इन्द्र भी भयभीत हो जाएंगे."
" हे लंकेश ! आपने जीवन में पहली बार
मुझसे कुछ मांगा है. मुझ अकिंचन के पास है ही क्या ? केवल एक दिन जीवन ही है मेरे
पास. मैं उसे हंसते-हंसते आपको समर्पित कर रहा हूँ. मुझसे एक दिन में जो कुछ भी
संभव हो सकेगा, मैं उसे पूरे प्राणपन से पूरा करुँगा. अतः आप निश्चिंत रहें."
" हे भ्राता ! राम मुझे एक बाण से मारकर
दूसरे बाण से मारने लगेंगे, उसी बीच मैं उनका खून पी लूँगा. इसलिए आप पूर्णतः
निश्चिंत हो जाओ. इतना ही नहीं मैं लक्ष्मण सहित सभी वानरयूथों को मारकर खा
जाऊँगा. इसलिए आप पूर्णतः निश्चिंत हो जाइए और छककर वारुणी का सेवन करो. और वे
सारे कार्यों को करो,जिसे तुम अपने लिए हितकर मानते हो. मेरे द्वारा राम के यमलोक
भेज दिए जाने पर सीता चिरकाल के लिए तुम्हारे अधीन हो जाएगी."
" हे दशानन ! पूरे वर्ष में छः महिने
सोना, केवल एक दिन के लिए जागना, फ़िर उस दिन खूब जमकर खाना-पीना और फ़िर छः माह के
लिए सो जाना....यह भी भला कोई जीवन हुआ?. ऐसा जीवन जीने से क्या लाभ?. इससे अच्छा
होगा कि मैं सदा-सदा के लिए सोता ही रहूँ."
" हे भाई ! प्रारब्ध में लिखे-बदे को कौन
मिटा सकता है?. एक छॊटी- सी चूक के कितने घातक परिणाम होंगे, मुझसे बढ़कर भला और
कौन जान सकता है?. इन्द्रासन की जगह मेरे मुँह से "निद्रासन" क्या निकल
गया. बिना समय गवाएं परमपिता ब्रह्माजी ने मुझे छः मास पश्चात एक दिन तक जागते
रहने, फ़िर छः मास पर सोते रहने का वरदान दे दिया."
" हे
मेरे भाई ! मैं अब ऐसा जीवन नहीं जीना चाहता. मैं उस एक दिन के जीवन को, आप
पर न्योछावर कर दूँगा. मुझे लोग किस रुप में याद रखेंगे, यह तो मैं नहीं जानता,
लेकिन इतना तो जान ही गया हूँ कि लोग इस बात को लेकर चर्चा अवश्य करेंगे कि एक
अधर्मी भाई के लिए, कुम्भकर्ण ने अपने प्राण न्योछावर कर दिया."
रावण के वचनों और कुम्भकर्ण की गर्जनाओं को
सुनकर विभीषण ने ये सार्थक और हितकारी वचन
कहे" हे राजन ! सीता नामधारी
विशालकाय सर्प को आपने अपने गले में बांध लिया है. पर्वत-शिखरों के समान ऊँचे वानर
जिनके दांत ही आयुध है, लंका पर चढ़ाई नहीं करते तभी तक आप दशरथनन्दन श्रीराम के
हाथ में मिथिलेशकुमारी सीता जी को सौंप दीजिए."
" हे राजन ! कुम्भकरण, इन्द्रजीत,
महापार्श्व, महोदर, निकुम्भ, कुम्भ, और अतिकाय-कोई भी समरांगण में राम के आगे नहीं
ठहर सकते...... यदि सूर्य या वायु आपकी रक्षा करें, इन्द्र या यम आपको गोद में
छिपा लें, अथवा आप आकाश या पाताल में भी घुस जाएं, तब भी आप राम के हाथ से जीवित
नहीं बच सकेंगे."
प्रहस्त को महात्मा विभीषण का परामर्श उचित
प्रतीत नहीं हो रहा था. वह उसे कायरता का लक्षण समझ रहा था. देर तक वह क्रोध में
अन्दर ही अन्दर उबल रहा था. वह अब और परामार्श सुनने के पक्ष में नहीं था. क्रोध
में उबलते हुए उसने विभीषण को बीच में ही रोकते हुए कहा-" कृपया अब आप अपना
परामर्श देना बंद कीजिए. आप जो कह रहे हैं वह भाषा कायरों की भाषा है. हम देवताओं
और दानवों से नहीं डरते. भय क्या वस्तु होती है, हम नहीं जानते."
उसने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा-"
हमें युद्ध में गन्धर्वों, बड़े-बड़े नागों, पक्षियों और सर्पों से भय नहीं होता है.
फ़िर समरांगण में राम से हमें भय कैसे होगा?.
निशाचरेन्द्रस्य
निशम्य वाक्यं स कुम्भकर्णस्य च गर्जितानी
विभीषणॊ
राक्षसराजमुख्य मुवाच वाक्यं हितमर्थयुक्तम.( 1.चतुर्दशःसर्गः वाल.रामा)
प्रहस्त की गर्वीली बातों को सुनकर विभीषण से रहा नहीं जा
रहा था. वह उसका यथेष्ट उत्तर देना चाहता था. वह अपने भाई रावण का सच्चा हितैषी जो
था. उसने प्रहस्त से कहा-" प्रहस्त !. महाराज रावण, महोदर, तुम और कुम्भकर्ण-
श्रीराम के प्रति जो कुछ भी सोच रहे हो अथवा जो कुछ भी कह रहे हो, वह सब तुम्हारे
बस की बात नहीं है."
" प्रहस्त ! शायद तुम राम की अपरिमेय शक्तियों से
परिचित नहीं हो. तभी ऐसा बोल रहे हो. समरांगण में चाहे भ्राता रावण हो,महाबली
त्रिशिरा, कुम्भकर्ण, निकुम्भ, इन्द्रविजयी मेघनाथ हो, चाहे देवान्तक, नरान्तक, अतिकाय, महाकाय, अतिरथ
अथवा पर्वतों के समान शक्तिशाली अकम्पन भी तेजस्वी राम के वेग को सहन करने में
समर्थ नहीं हो."
"प्रहस्त ! हमारे भ्राता दशानन रावण तो
व्यसनों के वशीभूत हैं. इसलिए वे सोच-समझकर कोई काम नहीं करते. ऐसे समय में
तुम्हें उन्हें उचित सलाह देनी चाहिए, ऐसा
न करते हुए तुम उन्हें उलटी-पट्टी पढ़ा रहे हो, जिसमें मैं कहीं से कहीं तक भला
होते नहीं देखता."
" हे प्रहस्त ! वास्तव में सच्चा मंत्री
वही है जो अपने और शत्रु-पक्ष के बल-पराक्रम को समझकर तथा दोनों पक्षों की स्थिति,
हानि और वृद्धि का अपने बुद्धि के द्वारा विचार करके जो स्वामी के लिए हितकर और
उचित है, वही बात कहनी चाहिए.
कुम्भकर्ण ने अपना अंतिम निर्णय ले लिया था कि
चाहे जो कुछ भी हो वह अपने ज्येष्ट भ्राता के पक्ष में समरांगण में उतरेगा. उसने
आदर के साथ रावण को हाथ जोड़ते हुए कहा- "हे लंकेश....हे मेरे भाई .......बीच
मझधार में आपको छोड़कर जाने का मेरा मन तो नहीं हो रहा है, लेकिन " जाने से
पहले मैं आपको पुनः आश्वस्थ करता चलूँ कि मैं आपके साथ हूँ...प्राणांत होने तक मैं
आपके साथ बना रहूँगा. आप निश्चित होकर शान से जिएं और जमकर मौज-मस्ती कीजिए."
"हे ज्येष्ठ भ्राता ! कृपया तनिक मुड़कर
पश्चिम दिशा की ओर देखिए. सूर्यनारायण अस्ताचलगामि होने जा रहे हैं. आज का दिन
लगभग समाप्त होने को है. मेरी आँखें भारी हो चली है. निद्रा देवी मुझे यहीं न आ
घेरे, इससे पहले मुझे प्रस्थान कर लेना चाहिए."
कुम्भकरण को बिदाई देते समय रावण की आँखें भर
आयी थीं. उसने भरे कण्ठ से कहा-" कुम्भकरण...! कुम्भकरण मेरे भाई ! मेरा कलेजा फ़टा जा रहा है.....मैं किस मुँह से
तुम्हें बिदाई दूँ....तुम फ़िर से छः माह बाद जागोगे, तब तक तो काफ़ी विलंब हो चुका
होगा. संभव है इस बीच राम लंका पर चढ़ाई कर देगा.. संभवतः तब हमारी मुलाकत रणभूमि
में ही होगी, ऐसा मुझे लगता है."लंकेश ने कहा.
" हे लंकेश.! यह तो मैं भी नहीं जानता कि
कब हमारी भेंट होगी?. लेकिन मैं आपको आश्वस्त करता चलूं कि जब भी आपको मेरी सहायता
की आवश्यकता होगी, मुझे आवाज दीजिए,मैं तत्काल चला आऊँगा." कुम्भकरण ने अपने
ज्येष्ठ भ्राता से कहा.
"हे महाबली कुम्भकरण ! मुझे तुमसे यही आशा
थी कि तुम आसन्न संकट में तुम मेरा साथ दोगे. तुमने सच ही कहा है कि संकट के समय
भाई ,भाई के काम न आ सका, तो फ़िर भाई कहलाने का क्या मतलब? तुम्हारे ये वाक्य उन
भाईयों के लिए प्रेरणास्पद सिद्ध होंगे, जो संकट के समय अपने भाई का साथ छोड़ देते
हैं. तुम्हारे ये वाक्य सुवर्णाक्षरों में लिखे जाने चाहिए."
" जाओ...महाबली कुम्भकर्ण जाओ....तुम्हारा
कल्याण हो." दोनों हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हुए रावण ने कहा.
"अच्छा भैया.... अब मैं चलता हूँ."
ऐसा कहते हुए महाबली विशालकाय कुम्भकरण, अपने गुफ़ा-महल की ओर, लंबे-लंबे डग भरता
हुआ जाने लगा. रावण उसे तब तक जाता हुआ देख रहा था, जब तक कि वह उसकी आँखों से ओझल
नहीं हो गया था.
०००००
रावणं
क्रुद्धमाज्ञाय महापार्श्वो महाबल: , मुहूर्तमनुसंचिन्त्य
‘प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत. (श्लोक.१.चतुर्दश सर्गः)
महाबली
कुम्भकरण तो रावण को आश्वस्त करके चला गया था, लेकिन उसके मन के आंगन में धधकती क्रोधाग्नि उसे
बेचैन किए दे रही थी. क्रोधाग्नि को और हवा देने के लिए महापार्श्व आगे आया. उसने
लंकेश से हाथ जोड़ते हुए कहा-" हे लंकेश ! जो हिंसक पशुओं और सर्पों से भरे
हुए दुर्गम वन में जाकर वहाँ पीने योग्य मधु पाकर भी उसे नहीं पीता, उस पुरुष को
मूर्ख ही कहना चाहिए."
" हे शत्रुदमन
लंकेश ! आप तो स्वयं विधाता हैं...ईश्वर हैं...आप शत्रुओं के सिर पर पैर रखकर
विदेहकुमारी सीता के साथ रमण कीजिए. जब आपका मनोरथ सफ़ल हो जाएगा, तब फ़िर आप पर
कौन-सा भय आएगा?. यदि वर्तमान में अथवा भविष्यकाल में कोई भय आता भी है, तो उस
समस्त भय का यथोचित प्रतीकार किया जाएगा."
" आपके साथ
महाबली कुम्भकरण और इन्द्रजीत् खड़े हों जाएं तो दोनों व्रजधारी इन्द्र को भी आगे
बढ़ने से रोक सकते हैं."
" हे महाबली !
साम, दाम और भेद को छोड़कर, मैं केवल और केवल दण्ड द्वारा काम बना लेना ज्यादा
अच्छा समझता हूँ."
" हे लंकेश !
आपके विरुद्ध जो भी शत्रु युद्ध की कामना लेकर सामने आएगा, हम लोग अपने शस्त्रों
के प्रताप से उसे अपने वश में कर लेंगे, इसमें तनिक भी संशय नहीं है."
गर्वीले महापार्श्व ने कहा.
अद्यप्रभृति
यामन्यां बलान्नारीं गमिष्यसि : तदा ते शतधा मूर्धा फ़लिष्यति न संशयः (14 वाल,रा.चतुर्दशः सर्गः)
रावण ने
महापार्श्व से कहा- " महापार्श्व ! मैं किसी से नहीं डरता. डर क्या होता है,
यह मैं नहीं जानता, लेकिन इतना अवश्य जानता हूँ कि पूरी त्रिलोकी में मेरा ही भय
व्याप्त है. मेरा नाम लेने मात्र से लोग भय से थरथर कांपते लगते हैं. अतः शत्रु की
ओर से कोई भय व्याप्त होगा, ऐसा मैं नहीं समझता. मेरी चिंता इस बात को लेकर नहीं
है. मेरी चिंता इस बातको लेकर है, जिसे मेरे अलावा और कोई नहीं जानता. मुझे श्राप
प्राप्त हुआ है."
"
अपने जीवन के उस गुप्त रहस्य को मैं तुम पर उजागर कर रहा हूँ. ध्यान से सुनो. -" पूर्वकाल की बात है. एक
दिन स्वपन-सुंदरी अप्सरा पुञ्जिकस्थला आकाश-मार्ग से अग्नि-शिखा के समान प्रकाशित
होती हुई, ब्रह्माजी के भवन की ओर जा रही थी. उसकी सुंदरता को देखकर मेरा मन मोहित
हो उठा. लाख जतन करने के बाद भी मैं अपने आपको रोक नहीं पाया और मैंने उसका रास्ता रोकते हुए बलपूर्वक उसके वस्त्र
उतार दिये और हठात उसका उपभोग किया. मसलकर फ़ेंकी हुई कमलिनी के समान उसकी दशा को
देखकर पितामह ब्रह्मा जी जान गए कि यह सब मेरा ही किया धरा है. अत्यन्त क्रोधित
होते हुए पितामह ने मुझे शाप देते हुए कहा-"आज से यदि तू किसी दूसरी नारी के
साथ बलपूर्वक समागम करेगा, तो तेरे मस्तक के सौ टुकड़े हो जाएँगे, इसमें कोई संशय
नहीं है."
"
इस तरह मैं परमपिता ब्रह्माजी के शाप से भयभीत हूँ. विदेहकुमारी सीता की ओर पग
बढ़ाते ही मुझे पितामह के दिए हुए श्राप की
याद हो आती है. मुझ पर सहसा भय व्याप्त हो जाता है और मैं भयभीत होकर मैं अपने कदम
पीछे खींच लेता हूँ.
"महापार्श्व
! मेरा वेग समुद्र के समान है. मेरी गति वायु के तुल्य है. मेरे धनुष से छूटे हुए
बाण दो जीभ वाले सर्पों के समान है. इस बात से वनवासी राम अनजान हैं. वे मेरी
शक्ति से परिचित नहीं हैं. समरांगण में राम की विशाल सेना को उसी प्रकार से जला कर
भस्म कर दूँगा जैसे लोग उल्काओं द्वारा हाथी को उसे भगाने के लिए जलाते हैं. युद्ध
में मुझसे हजार नेत्रवाले इन्द्र और वरूण भी मेरा सामना नहीं कर सकते फ़िर राम की
क्या बिसात ?." वह मेरे सामने एक पल को भी ठहर नहीं सकेगा." महापार्श्व
को अपने बल का बखान करते हुए रावण ने कहा.
०००००
अति
बलशाली रावण की बेचैनी लगातार बढ़ती ही जा रही थी. उसने फ़िर दूसरे दिन सभी सभासदों
अंतिम निर्णय लेने के लिए बुला भेजा अपनी पिछली बातों को दोहराते हुए उसने सभासदों
की राय जानना चाहा. प्रायः सभी ने रावण के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट करते हुए राम
से युद्ध करने के पक्ष में अपने विचार रखे. लेकिन महात्मा विभीषण का मत इन सबके मत
से भिन्न था. वे बिलकुल भी नहीं चाह्ते थे कि राम के विरुद्ध युद्ध लड़ा जाए. वे
युद्ध के भीषण परिणामों को जानते थे. जानते थे कि लंका से रक्ष-संस्कृति सदा-सदा
के लिए नष्ट हो जाएगी.
विभीषण
चुंकि भगवान के अनन्य भक्त थे. उनकी प्रीति सदा हरिचरणों में बनी रहती थी.
राक्षसकुल में जन्म लेने के बाद भी वे साधु प्रवृत्ति के थे. वे नहीं चाहते थे
छोटी-सी बात के लिए खून-खराबा हो. खून-खराबे से बचने का एकमात्र छोटा-सा उपाय था
कि सीता को सादर रामजी को लौटा दिया जाए. लेकिन सीता के प्रति आसक्त हुआ रावण,
उन्हें किसी भी सूरत वापिस करने के पक्ष में नहीं था. सभासदों की गर्विली भाषा
सुन-सुनकर उनके कान पकने लगे थे.
अधीर होते हुए ब्रहस्पति के
समान बुद्धिमान विभीषण अपने सिंहासन से उठ खड़े हुए और अत्यन्त ही विनम्रता के साथ
कहा- हे लंकेश ! सर्वशक्तिशाली राम से युद्ध करने से कोई फ़ायदा तो हमें होगा नहीं,
उलटे सारे राक्षस मारे जाएंगे. रक्ष-संस्कृति सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाएगी. अतः
मेरे निवेदन पर कृपया विशेष ध्यान दीजिए
और माता सीता को सादर रामजी को लौटा दीजिए. सीताजी के प्राप्त होते ही राम अयोध्या
लौट जाएंगे. युद्ध की स्थिति बनेगी ही नहीं.
रामजी के लौट जाने के बाद आप अपने परिवार, सुहृदियों और कुटुम्बियों के साथ
निष्कंटक होकर सदा-सदा के लिए राज्य करते रहें
किं नाम ते तात कनिष्ठ
वाक्य-मनर्थकं वै बहुभीतवश्च : अस्मिन् कुले योSपि भवेन जात: सोSमीदृशं नैय
बदेन्न कुर्यात्
सभागार में उपस्थित
राक्षसयूथपतियों में प्रधान महाकाय इन्द्रजित ने अपने काका की बातों को ध्यान से
सुन रहा था. सुन रहा था कि वे बिना किसी युद्ध के परिणाम की चिंता किए बगैर सीताजी
को लौटा लेने की बात कह रहे हैं. यह सुनते ही उसकी क्रोधाग्नि भड़कने लगी. वह अपने
आपे में नहीं रह सका और अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और रोष में भरते हुए उसने
कहा-" काका विभीषण ! बहुत सुन चुके
हम आपको.....आप अपना ज्ञान-ध्यान अपने तक सीमित रखिए. अरे ! हम कोई बच्चे हैं
जिन्हें आप राम का नाम लेकर डराने का प्रयास कर रहे हैं?. किस राम की बात कर रहें
हैं आप? वही राम न ! जो स्त्रियों की भांति विलाप करता हुआ वन-वन घूम रहा है?.
अस्त्र के नाम पर उसके पास है ही क्या? एक धनुष-एक बाण लेकर वन यहाँ-वहाँ भटक रहा
है, क्या वह हम जैसे महाबलियों के मुकाबले खड़ा हो पाएगा? कदापि नहीं."
" आपने तो राक्षस-कुल
में जन्म दिया है. आप जानते ही हैं कि राक्षस जाति कभी किसी से नहीं डरती. डर क्या
होता है हम नहीं जानते. एक राक्षस होते हुए भी आप हमें उस राम का नाम लेकर व्यर्थ
ही डरा रहे हैं. ऐसे एक नहीं, सौ राम भी आ जाएं, तो हम उनसे लोहा लेने के लिए
तैयार हैं. कृपया कर आप उसका नाम लेना छोड़ दें."
फ़िर अपने
पिता को सम्बोधित करते हुए उसने कहा-" पिताश्री ! राक्षसकुल में जन्मे हमारे
छोटे चाचा विभीषण बल, वीर्य, पराक्रम, धैर्य, शोर्य और तेज से रहित हैं. ये दोनों
राजकुमार आखिर हैं क्या? हमारा एक साधारण-सा राक्षस भी
उन्हें मार सकता है. फ़िर डरपोक चाचा ! हमें व्यर्थ ही डराने का प्रयास कर रहे हैं.
"
पिताश्री ! मैंने तीनों लोकों के स्वामी देवराज इन्द्र को भी स्वर्ग से हटाकर इस
भूतल पर ला बिठाया था. उस समय सारे देवताओं ने भयभीत होकर संपूर्ण दिशाओं में शरण
ली थी."
"
मैने गुस्से में भरते हुए ऐरावत हाथी के दांतों को उखाड़ कर उसे पृथ्वी पर गिरा
दिया था. मेरे इस पराक्रम को देखकर सारे देवताओं को आतंक में डाल दिया था."
"हे मेरे छोटे चाचा
विभीषण जी ! आपके इस भतीजे ने समस्त देवताओं का दर्प दलन कर उन्हें शोकमग्न कर
दिया था.आपका यह भतीजा, अकेले ही उन साधारण-से दिखने वाले राजकुमारों का सामना कर
उन्हें परास्त कर देगा. आपको तो मुझ पर गर्व होना चाहिए, कि इसके रहते राक्षसकुल
पर कोई आँच नहीं आएगी. आप व्यर्थ ही परेशान हो रहे हैं. आप डरना चाहें तो डरिये,
लेकिन हमें डराने की व्यर्थ चेष्टा न कीजिए.."
इन्द्रतुल्य तेजस्वी
,महापराक्रमी,दुर्जय, वीर इन्द्रजित की गर्वीली बातों को सुनकर विभीषण ने कहा-
" इन्द्रजित ! तुम अभी बालक हो. तुम्हारी बुद्धि भी अभी कच्ची है. तुम्हारे
मन में कर्तव्य-अकर्तव्य का यथार्थ निश्चय नहीं हुआ है. इसलिए तुम भी अपने ही
विनाश के लिए निरर्थक बाते कर रहे हो."
"
हे इन्द्रजित ! निश्चित ही तुम शूर-वीर हो, पराक्रमी हो. त्रैलोक विजयी रावण के
पुत्र हो, फ़िर भी मुझे तो ऐसा लगता है कि तुम अपने पिता के गुप्त रूप से शत्रु हो.
तुम राक्षसराज के विनाश की बातों को सुनकर भी मोहवश उन्हीं की हाँ में हाँ मिला
रहे हो.तुम्हे यह शोभा नहीं देता."
"
हे पुत्र ! तुम्हारी बुद्धि अभी बहुत छोटी है. तुम स्वयं तो मारे जाओगे और
तुम्हारा वह परम हितैषी, जिसने तुम्हें यहाँ बुला लाया है, वह भी मारा जाएगा. उस
दुर्बुद्धि ने तुम जैसे दुःसाहसी बालक को
भ्रम में डालकर अपराध ही किया है."
"तुम
केवल अविवेकी ही नहीं हो, बल्कि विनम्रता जैसे दिव्य गुणों से भी वंचित हो. यही
कारण है कि तुम बालकों की तरह बिना सिर-पैर की बातें कर रहे हो."
इन्द्रजित
को यथाशक्ति समझाने के बाद पुनः रावण को सम्बोधित करते हुए विभीषण ने युक्ति-युक्त
बातें करते हुए परामर्श दिया-" हे लंकेश! हम लोग धन,रत्न,सुन्दर आभूषण, दिव्य
वस्त्र आदि के साथ सीता को श्रीराम की सेवा में समर्पित करके ही, शोकरहित होकर इस
लंका में निवास कर सकते हैं."
महात्मा
विभीषण की बातों को सुनकर रावण के क्रोध का पारावार बढ़ने लगा. वह किसी भी कीमत पर राम के आगे समर्पण करने के
पक्ष में नहीं था. अपने अनुज की अर्थयुक्त और हितकार बातें सुनने के बाद भी उसके
विचारों में कोई परिवर्तन नहीं हो रहा था. क्रोध में उबलते हुए उसकी भृगुटि टेढ़ी होने लगी थी. माथे पर बल पड़ने
लगे.
उसने
कुपित होकर महात्मा विभीषण से कहा-" विभीषण ! मुझे यदि अपने घोर शत्रुओं के
बीच अथवा विषधर सर्प के साथ रहना पड़े, तो मैं रह लूँगा, लेकिन जो मित्र कहलाकर और
सगा होकर भी शत्रु के पक्ष बना रहे, उसके साथ मैं कदापि नहीं रह सकता."
"
हे विभीषण ! मुझे अग्नि,दूसरे-दूसरे शस्त्र तथा पाश भी उतना भय नहीं दे सकते जितना
कि तुम्हारे जैसे स्वार्थी लोग मुझे भयानक पीड़ा पहुँचा सकते हैं. अपने नीजि
स्वार्थ के किए तुम जैसे लोग हमारे गुप्त स्थानों का पता सहज में ही शत्रु पक्ष को
देने में विलम्ब नहीं करेंगे. और तो और हमारे पकड़े जाने का उपाय भी बता
देंगे."
"आज
सारा संसार मेरा सम्मान करता है. मैं सदा
से ही ऐश्वर्यवान, कुलीन और शत्रुओं का सिरमौर्य
रहा हूँ, शायद यह तुम्हें नहीं सुहाता. जिस प्रकार से कमल के पत्ते पर पानी
की बूंदे उस पर ठहरती नहीं है, उसी प्रकार से अनार्यो के हृदय में सौहार्द नहीं
टिकता. जैसे शरद् ऋतु में गरजते और बरसते हुए मेघों के जल से धरती गीली नहीं होती,
ठीक उसी प्रकार अनार्यों के हृदय में स्नेहजनित आद्रता नहीं होती. जैसे फ़ूलों का
रस पीकर भौंरा एक जगह नहीं ठहरता, उसी प्रकार अनार्यो में रससिक्त स्नेह नहीं टिक
पाता. तुम भी ऐसे ही अनार्य हो. जैसे कोई भौंरा रस की इच्छा से काश के फ़ूलों का
रसपान करने का प्रयास करे, लेकिन रस नहीं प्राप्त कर सकता. इसी प्रकार अनार्यों
में जो स्नेह होता है, वह किसी के लिए लाभदायक नहीं होता."
"
हे अनार्य ! जैसे हाथी पहले स्नान करता है फ़िर अपनी सूंड से धूल उछालकर अपने शरीर
को गंदला कर देता है, उसी प्रकार दुर्जनों की मैत्री दुषित होती है."
"
हे कुलकलंक निशाचर ! धिक्कार है तुझे.....धिक्कार है....यदि तेरे सिवा दूसरा कोई
ऐसी बातें कहता, तो मैं उसी समय अपनी
तलवार चंद्रहास से उसका सिर धड़ से अलग कर देता." अपने अनुज की परामर्श भरी बातों को सुनकर, रावण
क्रोधित सिंह की तरह दहाड़ रहा था. क्रोध के चलते उसकी आँखों से अंगारे बरसने लगे
थे. उसकी भयंकर दहाड़ को सुनकर सभी सभासद
सहम से गए थे. उन्हें लगने लगा था कि क्रोधी रावण अपने अनुज का अंग भंग न कर दे.
अनेक सभासदों के रहते हुए भी सभागार में सन्नाटा पसरा पड़ा था. सभी के आँखें, अपने
आका रावण को भौंचक होकर निहार रही थी. किसी में इतनी हिम्मत भी नहीं बची थी कि वे
रावण के क्रोध को शांत कर सकें.
"बार
बार पद लागउँ, बिनय करउँ दससीस : परिहरि मान मोह मद, भजहु कोसलाधीस.
स्वभाव
से शांत, धीर और गंभीर महात्मा विभीषण अपने स्थान से उठे और आगे बढ़ते हुए उन्होंने
रावण के चरणॊं को पकड़ते हुए कहा-"
भैया लंकेश ! यदि मैंने कोई कठोर वचन बोले हों, तो कृपया बड़े होने के नाते
मुझे क्षमा कर दें. मैंने तो सदा से ही आपकी भलाई की बात कही है. अभी भी कुछ नहीं
बिगड़ा है. अपने अभिमान,मान,मोह और मद को कृपया त्याग दीजिए और कौसकाधीस श्रीराम के
शरण में चले जाइए."
रावण का
मामा माल्यवान इस समय सभागार में उपस्थित था. वह चुपचाप अपने आसन पर बैठे-बैठे
दोनों भाइयों के बीच चल रही वार्ता को ध्यान से सुन रहा था. वह सुन भी रहा था और
मन ही मन गुन भी रहा था कि विभीषण की बातें सत्यता से बहुत करीब है. वह जिस आसन्न
संकट की ओर संकेत कर रहा था, यदि समय रहते उसे टाला नहीं गया तो लंका का विनाश
होना निश्चित है. वह युद्ध में जाने से घबरा नहीं रहा था बल्कि वह चाह रहा था कि
अहंकारी रावण उसके सुझाव को मान लेगा, तो लंका के विनाश को टाला जा सकता है..उसने
साधु का वेष बदलकर छल से सीता का हरण कर ले आया, यह तो कोई बहादुरी का काम नहीं
हुआ? .बहादुरी का काम तो तब होगा, यदि वह आदर के साथ सीता जी को रामजी के पास पहुँचा दे. लेकिन उसे
न तो अपने किए पर पछतावा हो रहा है और न ही आसन्न संकट को देखकर, अपने निर्णय से
पीछे हट रहा है. उसे लगा कि यदि अहंकारी रावण उसके परामर्श को मान लेता है तो हम
सब की भलाई है.
उसने
अपने आसन से उठते हुए रावण से कहा-" भांजे ! तुम्हारा कल्याण हो. तुम्हारा छोटा भाई नीति के दूषण हैं. वे जो
कहते हैं.. तुम अपने अनुज का कहा क्यों नहीं मान जाते? वह जो परामर्श दे रहा है, उसमें हमारा-तुम्हारा
सभी का भला ही होगा. तुम ज्ञान में विज्ञान में निष्नात हो. तुम प्रखर बुद्धि के
हो. तुमने वेदों का अध्ययन किया है. तुम केवल पंडित नहीं हो, बल्कि महापंडित हो.
तुम त्रैलोक विजयी हो. तुम्हारे प्रचंड कोप के कारण दूसरे लोग तुमसे उचित बात कहने
से भय खाते है. विभीषण ने हिम्मत के साथ तुम्हें समझाने की पूरी कोशिश की है.
क्या, इतनी छोटी-सी बात तुम्हारे समझ में नहीं आ रही है?, इसका मुझे खेद है. कितना
अच्छा होगा कि तुम शांत मन से विभीषण की बातों पर गंभीरता से विचार करो और तुम्हें
जो उचित दिखाई देता है, उसे करो."
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माल्यवान-
माल्यवान के पिता का नाम सुकेश था जो राक्षस जाति से थे.
उनके भाई का नाम सुमाली था जिसकी
पुत्री कैकसी थी. कैकसी का पुत्र ही रावण हुआ था.
इस प्रकार माल्यवान रावण के नाना का बड़ा भाई लेकिन अपनी बुद्धिमता के
कारण वह रावण का प्रमुख
मंत्री था.
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वृद्ध माल्यवान की बातों का रावण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. उसने
क्रोधित होते हुए कहा-" मामा....!
क्या उचित है और क्या अनुचित है, मुझे समझाने की आवश्यकता नहीं. यदि तुम
मेरा साथ नहीं दे सकते, तो मत दो. रावण में इतनी शक्ति है कि वह अकेले ही रणभुमि
में जाएगा और विजयश्री की पट-कथा लिखेगा. तुम्हारे जैसे डरपोक लोगों की मुझे
आवश्यकता भी नहीं है."
रावण की अहंकारी बातों को वृद्ध माल्यवान ने अपना अपमान समझा और
बिना कुछ कहे सभाकक्ष से उठकर अपने घर चला गया.
बार-बार पद लागउँ, विनय करउँ दसशीस * परिहरि मान मोह मद, भजहु
कोसलाधीश
संत स्वभाव वाले विभीषण ने अपना प्रयास जारी रखते हुए पुनः
लंकेश से कहा- " हे भ्राता ! सुमति और कुमति सभी के हृदय में रहती है,
वेद-पुराण भी यही कहते हैं. जहाँ सुमति है, वहाँ नाना प्रकार की सम्पत्ति है और
जहाँ कुमति है, वहाँ अंत में विपत्ति है. आपके हृदय में विपरीत बुद्धि बस गई है,
इसी से हित और अनहित और शत्रु को मित्र मानते हो. मैं फ़िर निवेदन कर रहा हूँ कि
सीता राक्षसकुल के लिए कालरात्रि के समान है, उस सीता पर आपकी घनी प्रीति
है."
"हे तात ! मैं आपके चरणॊं को पकड़कर मांगता हूँ कि आप
सीताजी को श्रीरामचंद्र जी को दे दीजिए ताकि आपका अहित न हो और हमारा राक्षसकुल बच
जाए."
विभीषण की बातों को सुनकर रावण की क्रोधाग्नि भड़क उठी.उसने घोर
गर्जना करते हुए कहा-" विभीषण ! तेरे मृत्यु निकट आ गई है. मेरे दिए गए
टुकड़ों पर पलने वाले विभीषण- तुझे मैं नहीं, बल्कि शत्रु पक्ष अधिक सुहाता है. अरे
दुष्ट ! संसार में ऐसा कौन है जिसे मैंने अपने बाहुबल से जीत न लिया हो."
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा * अनुज गहे पद बारहिं बारा.
" हे दुष्ट ! मेरे नगर में बसकर तपस्वियों से प्रीति करता
है. तू उन्हीं से जाकर मिल और नीति बता." ऐसा कहते हुए उसने चरणॊं में पड़े
अपने अनुज को लात मारी. रावण की दुत्कार भरी लात खाकर विभिषण ऊँचे मंच से लुढ़कते
हुए फ़र्श पर आ गिरे. गिर कर उठने के बाद उन्होंने
पुनः विनम्रता से अपने ज्येष्ठ भ्राता से कहा-" भैया ! मुझे इस बात पर
तनिक भी दुःख नहीं हुआ कि आपने मुझे भरी सभा में लात मारी. आप मेरे भाई ही नहीं,
बल्कि पिता के तुल्य हो. भले ही आपने मुझे लात मारी किन्तु हे भाई-आपका कल्याण
केवल और केवल श्रीरामजी के गुनानुवाद ही में है."
स्वस्ति तेSस्तु गमिष्यामि सुखी भव मया विना.( 26. सप्तद्द्दश:
सर्ग:)
" हे निशाचरराज ! मैं तुम्हारा हितैषी हूँ. इसीलिए मैंने
तुम्हें बार-बार अनुचित मार्ग पर चलने से रोका है, किंतु तुम्हें मेरी बात अच्छी
नहीं लगती है. वास्तव में जिनकी आयु समाप्त हो जाती है, वे जीवन के अन्तकाल में
अपने सुहृदों की कही हुई हितकर बात भी नहीं मानते."
" हे राजन ! यद्यपि आप मुझसे श्रेष्ठ हैं, किन्तु अब मैं
आपके वचनों को सहन नहीं कर सकता हूँ क्योंकि आपने अधर्म का रास्ता अपना लिया है.
केवल रुचिकर वचन बोलकर मिथ्या प्रशंसा करने वाले व्यक्ति सुलभ हैं. किन्तु ऐसे व्यक्ति जो वास्तव में किसी के
कल्याण के लिए अरुचिकर किन्तु सत्य वचन बोलते हैं, विश्व में दुर्लभ है."
"हे रावण! मैंने
आपको राम के हाथों मारे जाने से बचाने की आशा से परामर्श दिया है किन्तु आपने मेरे
परामर्श को अस्वीकार कर दिया है. मैं आपको शुभकामनाएं देता हूँ, किन्तु मेरे
भ्राता , मैं अब यहाँ आपके साथ नहीं रह सकता हूँ."
" हे लंकेश ! बहुत ही भारी मन से मैं आपके राज्य को
सदा-सदा के लिए छोड़कर जा रहा हूँ क्योंकि यहाँ कोई भी ऐसा नहीं है, जो धर्म के
मार्ग पर चल रहा हो."
"हे दशानन ! आपको तो उस समय चेत आएगा, जब लंका का सर्वनाश
हो चुका होगा, आप अपनी आँखों के सामने इसका विध्वंश होते हुए देखोगे, तब आपको मेरी
बातें याद आएगी."
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अनन्यसार्थे स्वाधिष्ठे महाविश्वासपूर्वकं, तदेको उपायताकांक्ष प्रपत्ति शरणागति।
जब व्यक्ति यह समझता है कि वह स्वय़ं अपनी रक्षा करने में असमर्थ
है और भगवान के अलावा कोई और उसकी रक्षा करने में समर्थ नहीं है, तो वह भगवान को
असहाय भाव में रक्षा के लिए पुकारता है और उनकी शरण में जाने का मन बना लेता है.
शरणागति का दूसरा नाम
"प्रपत्ति" तथा " न्यासविद्या " भी है. यह उपनिषदों में वर्णित महाविद्याविशेष है और
निश्चयात्मक ज्ञानस्वरूपा है.
शरणागति के 6 अंग होते हैं. पहला-भगवान के अनुरूप संकल्प. (२)
भगवान के प्रातिकूल्य का त्याग. ( ३) भगवान सदा हमारी रक्षा करेंगे -ऐसा दृढ़
विश्वास.(४) भगवान को रक्षक्त्वेन वरण करना, (५)आत्मनिक्षेप- पूर्णतया अपने आपको
प्रभु को समर्पित कर देना (६)
कार्पण्य-दैन्यभाव
.चुंकि श्रुति और स्मृति प्रभु
की आज्ञास्वरूप हैं. इसलिए विहित कर्मों
का श्रीहरि की प्रसन्नता के लिए निष्कामभाव से आचरण और निषिद्ध कर्मों का
त्याग शरणागत के लिए अनिवार्य है. यही
आनुकूल्य तथा प्रातिकूल्य शब्द से विवक्षित है.
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महात्मा विभीषण की स्थिति
कुछ ऐसी ही थी. अपने स्व की रक्षा के लिए उन्हें प्रभु श्रीरामजी के शरण में जाने
के अलावा और कोई सुलभ मार्ग सुझाई नहीं दे रहा था. "अब मुझे प्रभु श्रीरामजी
के शरण में चला जाना चाहिए" ऐसा शुभ
विचार मन में आते ही उन्होंने अपने अहंकारी भ्राता से विनयपूर्वक कहा- " हे ज्येष्ठ भ्राता ! आपको मेरा प्रणाम...मैं अब
अपने आराध्य प्रभु श्रीरामजी की शरण में जा रहा हूँ. वे शरणागत-वत्सल हैं. निश्चय
ही वे मुझे अपनी शरण में ले लेंगे." इतना कहकर विभीषण अपने विश्वस्त चार
अनुचरों (अनल, संपाति,पनस और प्रगति) के सहित सभागार से उठ खड़ा हुआ और आकाश-मार्ग
से उड़ चले.
आकाश-मार्ग से उड़ते हुए वे मन-ही-मन प्रार्थना रहे
थे-" हे प्रभु ! मैंने कुमार्गियों
का साथ छोड़ दिया है. अब मैं आपके श्रीचरणॊं की सेवा के लिए, अपने आपको प्रस्तुत
करने आ रहा हूँ..आपके श्रीचरणॊं के प्रताप से ही अहिल्या का उद्धार हुआ और आपने
दण्डकवन को पवित्र किया है. हे शरणागत-वत्सल !
हे दीनानाथ ! मैं शीघ्र ही आपके श्रीचरणों के दर्शन कर अपने जीवन को धन्य
मानूँगा."
00000
कुछ ही समय पश्चात, वे किसी पक्षी को तरह, आकाश मार्ग से उड़ान
भरते हुए, रामजी के शिविर की ओर क्रमशः आगे बढ़ते रहे.वानरों का एक दल समुद्र के
पावन तट पर बैठा आपस में वार्तालाप कर रहा था. उसमें से एक वानर ने आकाश की ओर
निहारते हुए देखा कि पाँच विशालकाय राक्षस रामजी के शिविर की ओर आगे बढ़ रहे हैं.
यह देखते हुए उसने अपने अन्य साथियों को सचेत करना चाहा. देखते ही देखते यह समाचार
चारों ओर फ़ैल गया. यह समाचार वानरों के दल के मुखिया सुग्रीवजी तक भी जा पहुँचा.
मामला काफ़ी गंभीर था. सुग्रीव ने हनुमान से कहा-" सावधान हनुमान...सावधान !
राक्षसों का एक दल हमारी ओर आ रहा है. निश्चित ही वे हमारा वध करने आ रहे हैं.
हमें अपने बचाव के लिए सतर्क हो जाना चाहिए." इतना सुनते ही अनेक वानरों ने
पत्थर और वृक्षों को उखाड़कर सुग्रीव के आदेश की प्रतीक्षा करने लगे.
सागर तट पर उतरने से पहले महात्मा विभीषण ने सोचा कि इस तरह
हमारे आगमन से वानर सेना में हडकंप मच जाएगा और वे हम पर आक्रमण कर देंगे. क्रुद्ध वानरों के हमलों से बचने का केवल एक
उपाय है कि हमें विनम्रता से हाथ जोड़कर क्रमशः आगे बढ़ते रहना चाहिए. जब हमें वे
प्रणाम की मुद्रा में देखेंगे तो निश्चित ही हमारे ऊपर आक्रमण नहीं करेंगे.मन में
यह विचार रखकर वे समुद्र के तट पर उतरे और दोनों हाथ जोड़ते हुए क्रमशः आगे बढ़ने
लगे.
धर्मात्मा विभीषण ने सबसे पहले महाराज सुग्रीव से विनित होकर
कहा- हे वानरराज सुग्रीव ! मैं लंकापति रावण का अनुज हूँ. मैंने रावण का भूतपूर्व
मंत्री होने के नाते भी उसे बार-बार समझाया कि श्रीरामचन्द्रजी से बैर न लेते हुए,
आप माता सीताजी को सौंप दीजिए. मेरा सुझाव सुनते ही वह क्रोध में आगबबुला हो उठा
और उसने न केवल मेरी कटु निंदा की, बल्कि मेरा उपहास उड़ाते हुए मुझे लंका से
निष्कासित कर दिया. मेरा अब दुनिया में कोई ठौर-ठिकाना नहीं रहा. अतः मैंने न केवल
लंका का परित्याग कर दिया है बल्कि अपनी पत्नी और बच्चों को भी त्यागकर, प्रभु
श्रीरामजी के चरणकमलों की शरण लेने आया हूँ. कृपा कर आप प्रभु श्रीरामजी से मेरे
यहाँ आने के उद्देश्य से अवगत करवाएँ."´इतना कहकर वे चुप हो गए और अगले क्षण
की प्रतीक्षा करने लगे थे कि मेरे निवेदन पर वानरयूथ सुग्रीव जी कैसा निर्णय लेते
हैं.
सुग्रीव जी ने हनुमान से कहा कि वे यहीं रुके रहें, मैं प्रभु
श्रीरामजी से परामर्श ले कर वापिस आता हूँ. यह कहते हुए हुए सुग्रीव रामजी के निकट
जाकर बोले-"हे प्रभु ! शत्रु पक्ष का एक राक्षस अपने चार सेवकों के साथ आया
है. वह कहता है कि रावण की नीतियों से तंग
आकर उसने लंका का त्याग कर दिया है, परन्तु मुझे सहसा उसके इस कथन पर विश्वास नहीं
हो रहा है. वास्तव में, राक्षसों पर किसी को विश्वास नहीं हो सकता. संभव है कि वह
गुप्तचर होगा और एक खूबसूरत सा बहाना बनाकर हमारे सैन्य-बल की जानकारी प्राप्त
करना चाहता हो."
" हे प्रभु ! यदि हम उसके कथन पर विश्वास करके थोड़ी भी
प्रतीक्षा करें, तो संभव है कि हम पर घोर
विपत्ति का पहाड़ टूट सकता है. अतः मेरा सुझाव है कि उसका तुरन्त ही वध कर देना
चाहिए."
रामजी ने एक-एक शब्द को ध्यान से सुना था. सुना था कि राक्षस का
एक दल यहाँ आकर हमसे शरण मांग रहा है. उन्होंने वानर-दल से उनके विचार जानना चाहे.
वानरों ने कहा-" हे प्रभु ! हम जानते हैं कि आप त्रिकालदर्शी और सर्वज्ञ हैं.
ऐसा पूछकर आपने हमें सम्मानित किया है."
तब अंगद ने कहा-"यदि हमें इन राक्षसों की उपस्थिति से हमें
कुछ लाभ मिले, तो उसे सावधानीपूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिए. किन्तु यदि उनका
व्यवहार भय उत्पन्न करे, तब हमें उन्हें भगा देना चाहिए."
अंगद की बातों को सुनकर सरब ने कहा-" हे युवराज ! हमें
किसी को उन पर दृष्टि रखने का कार्य सौंप देना चाहिए. भली-भांति निरीक्षण करने के
पश्चात यदि वह हमारा मित्र प्रमाणित होता है, तो हमें उसका स्वागत करना
चाहिए."
वृद्ध जामवन्त जी सबकी बातों को ध्यान से सुन रहे थे. उन्होंने
सभी को सावधान करते हुए कहा-"हमें अत्यन्त ही सावधानीपूर्वक तथा संशययुक्त
होकर उनका ध्यान रखना होगा."
मयंद ने परामर्श देते हुए कहा-" हे ऋक्षराज ! आपने सही कहा
है. फिर भी हमें उनकी भली-भांति जाँच करके ही कोई निर्णय लेना चाहिए."
कुशाग्र बुद्धिवाले महाबली हनुमानजी ने अपनी वाकपटुता का परिचय
देते हुए कहा-" हमारे पास विभीषण को परखने के लिए समय नहीं है. मेरे विचार
में वहा यहाँ पर श्रीरामजी की शरण की आशा में अपनी पूर्ण निष्ठा के सहित आया है.
उसे यह बोध हो चुका है कि रावण विधर्मी है तथा हमारे रामजी धर्मपरायणता एवं
पवित्रता के प्रतीक हैं. उनका शांतिपूर्ण आचरण तथा उसकी विचारयुक्त वाणी, उसके
उद्देश्य की सत्यता प्रमाणित करते हैं, क्योंकि एक कपटी व्यक्ति इतना शांत चित्त
कभी नहीं हो सकता. अपना आंतरिक प्रयोजन पूर्ण रूप से छुपा लेना, किसी के लिए भी
संभव नहीं है. मुख के भाव सदैव हृदय के विचारों को प्रकट कर देते हैं. मेरे विचार
से विभीषण को बिना किसी संकोच के, अपने मित्र के रूप में स्वीकार कर लेना
चाहिए."
सभी का मत जान लेने के बाद, रामजी ने उपस्थित वानर-समुदाय को
सम्बोधित करते हुए कहा-"मित्रों मैं भी विभीषण के बारे में कुछ कहना चाहता
हूँ. आप सब लोग मेरे हित साधन में संलग्न रहने वाले हैं. अतः मेरी इच्छा है कि आप
भी उसे सुने."
" जो मित्र भाव से मेरे पास आ गया हो, उसे मैं किसी तरह से
त्याग नहीं सकता. संभव है उसमें कुछ दोष भी हो, परन्तु दोषी को आश्रय देना भी
सत्पुरुषों के लिए निन्दित नहीं है."
अपने स्वामी श्रीराम की बातों को सुनने के पश्चात वानरराज
सुग्रीव ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा-"प्रभु ! यह दुष्ट है या अदुष्ट, इससे क्या?.है तो वह
निशाचर ही. फ़िर जो पुरुष ऐसे संकट में पड़े हुए अपने भाई को छोड़ सकता है,उसका दूसरा
ऐसा कौन सम्बन्धी होगा, जिसे वह त्याग न सके?."
सुग्रीव के परामर्श को सुनकर राम मुस्कुरा दिए. फ़िर उन्होंने
अपने अनुज लक्ष्मण से कहा-" सुमित्रानन्दन ! इस समय वानराराज सुग्रीव ने जैसी
बात कही है, वैसी कोई भी पुरुष शास्त्रों का अध्ययन और गुरुजनों की सेवा किये बिना
नहीं कह सकता."
फ़िर उन्होंने सुग्रीव को सम्बोधित करते हुए कहा-" सुग्रीव
! तुमने विभीषण में जो भाई के परित्याग रुपी दोष की उद्भावना की है, इसे सुनकर, इस
विषय में यह बतलाना चाहता हूँ कि राजाओं में दो प्रकार से दोष (छिद्र) बताए गए
हैं. एक तो यह कि उसी कुल में उत्पन्न हुए जाति-भाई और दूसरे पड़ौसी देशों के
निवासी. ये संकट पड़ने पर अपने विरोधी राजा या राजपुत्र पर प्रहार कर बैठते हैं.
इसी भय से विभीषण यहाँ आया है.
" मित्र सुग्रीव ! जिसके मन में पाप नहीं है, ऐसे कुल में
उत्पन्न हुए भाई बन्धु अपने कुटुम्बीजनों को हितैषी मानते हैं, परन्तु यही सजातीय
बन्धु अच्छा होने पर भी प्रायः राजाओं के लिए शंकनीय होता है. रावण भी विभिषण को
शंका की दृष्टि से देखने लगा है, इसलिए इसका अपनी रक्षा के लिए यहाँ आना अनुचित
नहीं है. अतः तुम्हें इसके ऊपर भाई के त्याग का दोष नहीं लगाना चाहिए."
" तुमने शत्रुपक्षीय सैनिक को अपनाने में जो दोष बताया है
कि वह अवसर देखकर प्रहार कर बैठता है, उसके विषय में तुम्हें नीतिशास्त्र के
अनुकूल उत्तर दे रहा हूँ."
" हे सुग्रीव ! हम लोग इसके कुटुम्बी तो हैं नहीं और यह राक्षस राज्य पाने का अभिलाषी
है ( इसलिए भी यह हमारा त्याग नहीं कर सकता). इन राक्षसों में बहुत-से लोग बड़े
विद्वान भी होते हैं ( अतः वे मित्र होने पर बड़े काम के सिद्ध होंगे). इसलिए
विभीषण को अपने पक्ष में मिला लेना चाहिए."
" हमसे मिल जाने पर विभीषण निश्चित ही प्रसन्न हो जाएंगे.
इनकी जो शरणागति के लिए जो प्रबल पुकार है, इससे मालुम होता है, राक्षसों में
एक-दूसरे से भय बना हुआ है. इसी कारण से इनमें परस्पर फ़ूट होगी और ये नष्ट हो
जाएंगे. इसलिए विभीषण से मित्रता स्थापित कर ली जानी चाहिए."
रामजी के मत को सुनने के बाद भी सुग्रीव को सहसा विभिषण पर
विश्वास नहीं हो रहा था. अपना तर्क प्रकट करते हुए उन्होंने कहा-" प्रभु ! आप
माने या नहीं माने, परन्तु मेरा विश्वास है कि इसे रावण का ही भेजा हुआ माने. मैं
तो उसे कैद कर लेना ही ठीक समझता हूँ."
" हे प्रभु ! जब हम लोग इस पर विश्वास करके निश्चिंत हो
जाएंगे, उस समय यह आप पर, मुझ पर अथवा लक्ष्मण पर भी प्रहार कर सकता है. इसलिए
महाबाहो! मेरे मतानुसार उस क्रूर रावण के
भाई विभिषण का उसके मंत्रियॊं सहित वध कर देना ही उचित होगा." ऐसा कह कर
सुग्रीव मौन हो गए.
तर्क को तर्क से काटा जा सकता है, लेकिन शंका का निवारण नहीं
किया जा सकता. सुग्रीव का शंकालु मन उसे साधू पुरुष मानने से स्वीकार नहीं कर पा
रहा था, जबकि रामजी विभीषण को लेकर कुछ और ही सोच रहे थे. चुंकि सुग्रीव उनके
पुराने मित्र थे, अतः उनकी शंका का समाधान करना रामजी के लिए बहुत जरुरी था. वे
भली-भांति जानते और समझते भी थे कि यदि एक बार "शंका" नामक फ़ांस यदि मन
में चुभ जाए, तो वह आदमी को बेचैन कर देती
है. ऐसी स्थिति में शंका से ग्रसित मन कभी भी सही निर्णय नहीं ले पाता. वे जब भी
महात्मा विभीषण की ओर देखेंगे, उनसे मिलेंगे अथवा किसी बात पर निर्णय लेना होगा,
तब भी उन्हें शंका घेरी रहेगी. शंका के चलते उनके बीच कभी मित्र-भाव भी नहीं पनप
पाएगा. साथ-साथ रहकर भी साथ नहीं रह पाएंगे. ऐसी स्थिति पैदा हो, वे नहीं चाहते
थे. उन्हें तो हर स्थिति में सुग्रीव के मन से शंका को निकाल बाहर करना होगा.
यही सोचकर उन्होंने सुग्रीव से जानना चाहा-" मित्र सुग्रीव
! विभीषण दुष्ट हो या फ़िर साधु. क्या वह निशाचर हमारा किसी भी तरह से अहित कर सकता
है?. यदि मैं चाहूँ तो पृथ्वी पर जितने भी पिशाच, दानव, यक्ष और राक्षस हैं, उन
सबको एक अंगुलि के अग्र भाग से मार सकता हूँ.
" महाराज सुग्रीव ! शरण में आए हुए व्यक्ति को संरक्षण
देना हमारा दायित्व बनता है. जब एक निरीह
कबूतर अपनी शरण में आए बहेलिये को, जो उसका जन्मजात शत्रु है, जानते-बूझते हुए भी
अपने शरीर का मांस खिला कर उसका यथोचित सत्कार कर सकता है, तो फ़िर हम एक मनुष्य
होकर भी शरण में आए अतिथि को संरक्षण नहीं दे सकते, तो हमारा मनुष्य होने का कोई
अर्थ नहीं रह जाता."
" मैं आपको एक कहानी सुनाता हूँ . कृपया आप सभी उसे ध्यान
से सुने.
" प्राचीन काल में एक क्रूर और पापात्मा बहेलिया रहता था. वह सदा
पक्षियों को मारने के नीच कर्म में प्रवृत्त रहता था. एक
दिन की बात है, वह पक्षियों की खोज में वन में फिर रहा था. फिरते-फिरते उसे शाम हो गयी थी, उसी समय जोर की आँधी उठी. आँधी के साथ ही आकाश में
मेघों का भयानक गर्जन होने लगा. वह घबराकर इधर-उधर कोई आश्रय ढूँढ़ने लगा, लेकिन उसे कहीं भी कोई सहारा
नहीं दिखाई दिया. वह कहीं छिपने का विचार करके आगे भागा. थोड़ी ही
दूर जाने पर उसे एक कबूतरी
पेड़ की जड़ पर बैठी दिखाई दी. वह शीत के कारण काँप रही थी. बहेलिये ने तुरन्त ही उस कबूतरी को पकड़ लिया और पिंजड़े
में बन्द कर लिया. कबूतरी अपने पति और बच्चों को छोड़कर भोजन की तलाश में बाहर
निकली थी, लेकिन इस क्रूर व्याध के चंगुल में फँसने के
कारण वह बहुत दुःखी होने लगी.
पति और बच्चों की याद करके वह विलाप करती हुई बोली, ‘‘हे क्रूर बहेलिये!
मुझे छोड़ दे. देख मेरी याद में मेरे पति और बच्चे दुखी होकर रोएँगे. मुझ निस्सहाय पर दया कर.’’
जब काफी रात बीत जाने पर
भी कबूतरी नहीं आयी और बच्चे भूख के कारण बिलबिलाने लगे तो कबूतर ने दुखी होकर कहा, ‘‘हाय! कैसी भयावनी रात है और अभी तक मेरी प्रिया घर नहीं आयी. न जाने वह इस समय
कहाँ भटक रही होगी? ‘‘हाय विधाता! कहीं उसके ऊपर कोई विपत्ति तो नहीं आ
गयी?. प्रिया के बिना आज मेरा
यह घर सूना दीख रहा है. यह
कहते हुए वह कबूतर रोने लगा.
उसकी सभी बातों को कबूतरी
पिंजड़े में बैठी हुई सुन रही थी. वह भी अपने पति को इस तरह अपने वियोग में दुखी देखकर रो पड़ी
और कहने लगी - ‘‘हे नाथ, जिस प्रिया की याद करके आप विलाप कर रहे हैं वह मैं यहाँ इस बहेलिये
के चंगुल में फँसी हुई हूँ. इसने मुझे अपने पिंजड़े
में बन्द कर रखा है, इसी कारण मैं आपके पास नहीं आ सकती."
‘‘हे नाथ! इस समय यह बहेलिया भूख से व्याकुल और
जाड़े से दु:खी होकर तुम्हारी शरण में आया है. इस शरणागत
की रक्षा करना तुम्हारा परम
धर्म है. ‘‘हे नाथ! मैं जानती हूँ कि इस क्रूर कर्म करने वाले
दुराचारी बहेलिये के प्रति आपके हृदय में रोष उठ रहा होगा,
लेकिन शरणागत का अनिष्ट करना
किसी प्रकार उचित नहीं है. हे नाथ! यद्यपि हम इतने साधन-सम्पन्न नहीं हैं, जो इस बहेलिये की अधिक
सहायता कर सकें लेकिन फिर भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार हमें इसकी सहायता करनी चाहिए."
कबूतरी की बातों को सुनकर
कबूतर ने निश्चय किया कि मैं अपने जीवन की चिन्ता छोड़कर अवश्य इस शरणागत बहेलिये का सत्कार करूँगा. यह कहकर कबूतर वृक्ष पर से नीचे उतर आया और बहेलिये के सामने खड़े होकर कहने लगा, ‘‘हे महानुभाव! आप किसी प्रकार दुःखी न होइए. आप मेरे अतिथि हैं और अतिथि का सत्कार करना
गृहस्थ का परम धर्म है, इसलिए कहिए मैं आपकी क्या सेवा करूँ? आज मैं आपके लिए अपने जीवन को भी उत्सर्ग करके अपने धर्म का पालन करना चाहता
हूँ."
उसने काँपती आवाज में कहा, ‘‘हे दयालु कबूतर! मैं इस समय जाड़े के मारे ठिठुर रहा हूँ. तुम कोई ऐसा
उपाय करो जिससे मैं इस ठण्ड से बच सकूँ.’’ बहेलिये की बात सुनकर कबूतर तुरन्त ही इधर-उधर से सूखी पत्तियाँ बीन लाया और उन्हें एक
स्थान पर इकट्ठा कर दिया. उन्हें जलाने के लिए आग माँगने के लिए वह लुहार के पास गया और वहाँ
से आग लाकर उसने उस पत्तों के ढेर को सुलगा दिया. इस आग
से बहेलिये ने अपना जाड़ा मिटाया. उसका काँपना बन्द हो गया और वह स्थिर होकर बैठ गया. उसके बाद
फिर कबूतर ने पूछा, ‘‘हे अतिथि! बोलिए, अब मैं आपकी क्या सेवा करूँ?.’’
बहेलिये ने स्वस्थ होकर
कहा,
‘‘हे पक्षी! मैं इस समय
बहुत भूखा हूँ. यदि कर सको तो मेरे लिए कुछ खाने का प्रबन्ध करो.’’ यह सुनकर कबूतर ने दुखी होकर कहा, ‘‘हे अतिथि देवता! मेरे पास इस समय ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे आपको देकर आपकी भूख मिटाऊँ. मैं वन में रहकर
प्रतिदिन भोजन की सामग्री लाकर निर्वाह करता हूँ. मेरे पास संचित पदार्थ तो इस समय कोई नहीं है.
क्या करूँ?’’ यह कहकर कबूतर चिन्ता में पड़ गया और अपने को असहाय समझकर अपने आपको धिक्कारने लगा. बार-बार उसके हृदय में यही
स्वर गूँजता, ‘हाय! मैं अतिथि की इच्छा कैसे पूर्ण करूँ जिससे मैं पूरी तरह गृहस्थ धर्म का
पालन कर सकूँ.’ वह कितना भी सोचता लेकिन उसे कोई भी वस्तु ऐसी नहीं दिखाई देती जिसे देकर वह बहेलिये की भूख मिटा सके. अन्त में
उसने अपने ही मांस से अतिथि
की भूख मिटाने का निश्चय कर लिया.
कबूतर ने फ़िर से सूखे
पत्ते इकट्ठे किये और बुझती हुई आग को और भी अधिक सुलगा दिया. अग्नि को पूरी तरह प्रज्वलित देखकर वह
बहेलिये से कहने लगा,
‘‘हे अतिथि देवता! ऋषियों
और पण्डितों ने अतिथि की सेवा को ही परम धर्म बताया है, इसलिए मैं अपने शरीर को बलिदान करके भी आपकी इच्छा पूर्ण करूँगा. आप मेरे मांस को खाकर अपनी भूख मिटाइए.’’ यह कहकर उसने तीन बार अग्नि की प्रदक्षिणा की और फिर वह अग्नि में कूद पड़ा.
कहानी यहीं खत्म नहीं
होती. एक अन्य कहानी सुनाते हुए रामजी ने एक अन्य कहानी का उद्धरण देते हुए
बतलाया कि पूर्वकाल में कण्व नाम के मुनि
थे, जिनके सत्यवादी पुत्र महर्षि कण्डु ने एक धर्मविषयक गाथा का गान करते हुए
बतलाया है कि शरण में आया हुआ शत्रु भी
यदि दया याचना करे, तो उस पर प्रहार नहीं करना चाहिए. यदि वह भय, मोह आदि के कारण
उसकी रक्षा नहीं करता है तो उसके इस आचरण से लोकनिंदा होती है. यदि शरण में आए हुआ
पुरुष संरक्षण न पाकर, उस रक्षक के देखते-देखते नष्ट हो जाता है, तो वह उसके (
रक्षक.) सारे पुण्य अपने साथ ले जाता है."
" हे सुग्रीव ! मैं
उन महर्षि कण्डु के उस यथार्थ और उत्तम वचन का पालन करुँगा. जो एक बार भी शरण में
आकर " मैं तुम्हारा हूँ" ऐसा कहकर मुझसे रक्षा की प्रार्थना करता है,
मैं उसे समस्त प्राणियों से अभय कर देता हूँ. यह मेरा सदा के लिए व्रत है."
" हे सुग्रीव- मेरे
शरण में आए महात्मा विभीषण मेरी शरण में आए हैं,अतः मैं उनकी रक्षा अवश्य
करुँगा."
" निर्मल मन जन सो मोहि पावा : मोहि कपट छल छिद्र न
भावा" "
भेद लेन पठवा दससीसा : तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा"
" हे सुग्रीव !
जिसका मन निर्मल है, वही मनुष्य मुझे पाता है. मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते.
यदि रावण ने हमारा भेद लेने भी भेजा है,
तो भी मैं इसमें कुछ भय या हानि नहीं देखता.
जग महुँ सखा निसाचर जेते : लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते जौं सभीत आवा सरनाई : रखिहउँ ताहि प्रान की नाई..
हे सखा ! संसार में जितने
भी राक्षस हैं, उन्हें अनुज लक्ष्मण क्षण मात्र में मार सकते हैं. यदि वह भयभीत
होकर शरण में आया है, तो मैं उसे अपने प्राणॊं की तरह ही रखूँगा".
सकृदेव प्रपन्नाय
तवास्मीति च याचते : अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम (33 वा.रा)
" हे
सुग्रीव ! जो एक बार भी मेरी शरण में आकर " मैं तुम्हारा हूँ" ऐसा कहकर
मुझसे रक्षा की प्रार्थना करता है, उसे
मैं समस्त प्राणियों से अभय कर देता हूँ. यह मेरा सदा से व्रत है."
आनयैनं हरिश्रेष्ठ
दत्तमस्याभयं मया : विभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावणः स्वयम्.( श्लोक् 34.वा.रा.)
रामजी ने मुस्कुराते
हुए महात्मा सुग्रीव को आदेश देते हुए
कहा-" महाराज सुग्रीव ! मेरी शरण पाने के लिए विभीषण हो या फ़िर स्वयं लंकेश,
तुम उसे ले आओ. मैंने उसे अभयदान दे दिया है."
अपने प्रभु श्रीरामजी की
उद्घोषणा को सुनकर महाराज सुग्रीव ने विनम्रता से अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा-
"हे शरणागत-वत्सल ! आपने जो यह श्रेष्ठ धर्म की बात कही है, इसमें
क्या आश्चर्य है?. क्योंकि आप महान,शक्तिशाली और सन्मार्ग पर स्थित हैं."
" हे प्रभु ! आप अत्यन्त
वीर्यवान, तेजस्वी, विद्वान, धैर्यशील, जितेन्द्रिय, बुद्धिमान, सुंदर, पराक्रमी,
दुष्टों का दमन करने वाले, युद्ध एवं नीतिकुशल धर्मात्मा, मर्यादापुरुषोत्तम,
प्रजावत्सल, शरणागत को शरण देने वाले, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता एवं प्रतिभा
सम्पन्न हैं. आपको मेरा प्रणाम.बार-बार प्रणाम." इतना कहकर वे अपने सेवकों
सहित वीर हनुमान, ऋक्षराज जाम्बवन्त जी को साथ लेकर महात्मा विभीषण को लिवा लाने
के लिए शिविर से बाहर निकले.
शिविर के एक विशाल कक्ष
में प्रभु श्रीराम महात्मा विभीषण को अपनी शरण में लेने की घोषणा कर रहे थे. वहीं
दूसरी ओर विशाल प्रांगण में अनेक वानरों ने, महात्मा विभीषण और उनके चार मंत्रियों
को चारों ओर से घेरा बनाकर रोक रखा था. वे बार-बार विनयपूर्वक विभीषण जी से
कहते-" हमारे महाराज सुग्रीव जी, ऋक्षराज जामवन्त जी, तथा हनुमानजी, प्रभु
श्रीराम जी के साथ बैठकर आपस में परामर्श कर रहे हैं. निश्चित ही वे कोई न कोई
निर्णय शीघ्र ही ले लेंगे. अतः तब तक आप इसी स्थान पर रहकर प्रतीक्षा करें. उन
तीनों में से कोई न कोई आकर हमें जानकारी देंगे कि किस प्रकार निर्णय निर्णय लिया
गया है."
तभी अवनद्ध वाद्य ( ताल वाद्य) ,
घन वाद्य ( ठोस वाद्य), सुषिर वाद्य (वायु वाद्य) और तत वाद्य (तार वाले वाद्य )
एक साथ बज उठे. वाद्य यंत्रों से निकलती सुमधुर ध्वनि वायु की पीठ पर सवार होकर
चारों दिशाओं में भ्रमण करने लगी. वानरों के दल ने वाद्य-यंत्रों से छनकर निकलती
हुई मंगल ध्वनि को सुना. सुनते ही वे सभी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि महात्मा विभीषण
को प्रभु श्री रामजी के दल में शामिल करने की स्वीकृति मिल गयी है. वे कुछ और सोच
पाते कि उन्होंने द्रुतगति से आगे हुए अपने स्वामी सुग्रीव जी के सहित, वीर हनुमान
जी, युवराज अंगद जी सहित ऋक्षराज जाम्बवन्त जी को देखा, जो उसी ओर चले आ रहे है.
उनके पास आते ही वानरों के दल ने
अपना घेरा तोड़कर और पंक्तिबद्ध होकर सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए. विभीषण के
पास पहुँचकर सुग्रीव जी ने विनयपूर्वक कहा-" महात्मा विभीषण ! आपकी जय
हो...आओ यशस्वी हों....हमारे स्वामी प्रभु श्रीरामचन्द्र जी ने आपको आदर सहित लिवा
लाने की आज्ञा दी है. कृपा कर आप हमारे साथ चलने का कष्ट करें. वे बड़ी व्यग्रता
से आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं." फ़िर उन्होंने विभीषण जी से जानना
चाहा कि इन नटखट वानरों ने आपको परेशान तो नहीं किया? यह सुनते हुए उन्होंने किसी
से कुछ कहा नहीं, लेकिन मुस्कुराते हुए वानरों की ओर देखने लगे.
शुभ समाचार सुनते ही विभीषण का
हृदय-कमल खिल उठा. शरीर में रोमांच हो आया और नेत्रों में जल भर आया. गदगद होते
हुए उन्होने सभी का अभिवादन स्वीकार करते हुए अत्यन्त ही विन्रमता से अपने दोनों
हाथ जोड़कर ,आकाश की ओर निहारा और अपने आराध्य की स्मृतियों को प्रणाम किया और चलने
को उद्यत हुए. प्रयत्न करने के बाद भी उनके पग उठ नहीं पा रहे थे. इस समय वे प्रभु
श्रीराम जी के निश्छल प्रेम का अनुभव करते हुए गहरी प्रसन्नता का अनुभव कर रहे थे.
मन में खुशियों का सागर लहलहाने लगा था. तरंगे इतनी ऊँची-ऊँची उठ रही थी, जिसमें वे आप्लावित हो रहे थे.
उनकी इस दशा को देखकर चकित थे
सुग्रीव जी. चकित थे हनुमानजी और वृद्ध जाम्बवंत जी. महाराज सुग्रीव को लगा कि
शायद विभीषण जी ने मेरी बातों को सुन नहीं पाए होंगे. उन्होंने पुनः अत्यन्त ही
मधुर स्वर में पुनः निवेदित करते हुए कहा-" विभीषण जी ! हमारे दल में आपका
स्वागत है. प्रभु श्रीराम जी बड़ी ही व्यग्रता से आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे
हैं. कृपा कर आप हमारे साथ चलने का कष्ट करें."
महात्मा विभीषण ने मन-ही-मन
प्रभु श्रीराम का सुमिरण किया और वानर यूथपतियों के साथ अग्रसर होने लगे.
वाद्य-यंत्रों की तुमुल ध्वनि होने लगी.
सादर तेहिं आगें कै वानर : चले जहाँ
रघुपति करुनाकर
सभी आदरपूर्वक उन्हें आगे करके
वहाँ चले, जहाँ करुणा के धाम श्री रघुनाथजी थे. विभीषण ने नेत्रों को आनंद देने
वाले दोनों भाइयों को दूर से ही देखा.
बहुरि राम छबिधाम विलोकी *
रहेउ ठटुकि एकटक रोकी. भुज
प्रलंब कंजारुन लोचन * स्यामल गात प्रनत भय मोचन..
शोभा के धाम श्रीरामजी को देखकर
पलक की गति को रोककर ठिठक कर वे टकटकी लगाए ही रह गए. प्रभु की लम्बी भुजाएँ हैं,
लाल कमल जैसे नेत्र हैं और शरणागतों का भय-भंजन करने वाला श्याम शरीर है, जो अपनी
शोभा से करोड़ों कामदेव के समान हैं.
नयन नीर पुलकित अति गाता * मन धरि धीर कही मृदु बाता.
उन्होंने विनम्रता से अपने दोनों
हाथ जोड़ते हुए कहा-" हे नाथ ! मैं रावण का भाई हूँ. हे देवरक्षक ! राक्षस-कुल में मेरा जन्म हुआ है. मेरी तामसी देह है, मुझे स्वभाव से ही
पाप प्रिय है, जैसे उल्लू को अँधेरे से प्रेम होता है."
श्रवण सुजसु सुनि आयउँ , प्रभु भंजन भव भीर त्राहि
त्राहि आरति हरन, सरन सुखद रघुबीर.
"हे रघुनंदन ! हे करुणा के
सागर ! मैं अपने कानों से आपका सुंदर यश सुनकर आया हूँ कि प्रभु आप संसार के
भयनाशक हैं. हे दीव दुःखहारी ! शरणागगतों के सुखदाता, मेरी रक्षा कीजिए...रक्षा
कीजिए."
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा * अनुज सहित मिलि ढिंग बैठारी.
ऐसा कहते हुए महात्मा विभीषण
प्रभु श्रीरामजी के चरणॊं दण्डवत करने लगे. उसके दीन वचन सुनकर प्रभु श्री रामजी
ने अपनी विशाल भुजाओं को फ़ैलाते हुए उन्हें गले से लगा दिया. फ़िर छोटे भाई सहित
मिलकर उनको अपने पास बैठा लिया और फ़िर मुस्कुराते हुए जानना चाहा-" हे लंकेश
! अपनी और अपने परिवार की कुशलता कहो. तुम रात-दिन दुष्टों की मंडली में रहते हो.
हे सखे ! वहाँ धर्म किस प्रकार निभता है?. तुम बड़े नीति-निपुण हो, तुम्हें अनीति
अच्छी नहीं लगती. कहा गया है कि मनुष्य को भले ही नरक में रहना पड़ जाए, लेकिन दुष्ट
के साथ नहीं रहना चाहिए.
अब मैं कुसल मिटे भय भारे* देखी राम पद कमल तुम्हारे तुम्ह
कृपाल जा पर अनुकूला*ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला..
" हे प्रभु ! हे भय भंजन !
आपके चरण-कमलों को देखकर, अब मैं कुशल से हूँ और मेरे भारी भय भी मिट गए हैं. हे
कृपालु ! जिस पर आप प्रसन्न होते हैं, उसे तीनों प्रकार के सांसारिक ताप (
दैहिक-दैविक और भौतिक ) नहीं व्यापते."
" हे दीनानाथ ! अपने सभी
मित्र,धन, और लंकापुरी को मैं छोड़ आया हूँ. अब मेरा राज्य. जीवन, और सुख सब आपके
अधीन है."
प्रभु श्रीरामजी ने प्रेमपूर्वक
उनकी ओर देखते हुए कहा-" विभीषण ! तुम मुझे ठीक-ठीक राक्षसों का बलाबल बताओ.
" हे स्वामी ! परम पिता
ब्रह्माजी के वरदान के प्रभाव से रावण ( केवल मनुष्यों को छोड़कर.) गन्धर्व, नाग,
पक्षी आदि प्राणियों के लिए अवध्य है. रावण से छोटा और मुझसे बड़ा भाई कुम्भकरण है.
वह महातेजस्वी और पराक्रमी है. युद्ध में वह इन्द्र के समान ही बलशाली है."
"रावण के सेनापति का नाम
प्रहस्त है. रावण का पुत्र इन्द्रजित् है. वह गोह के चमड़े से बने हुए दास्ताने
पहनकर, अवध्य कवच धारण करके हाथ में धनुष लेकर जब युद्ध में खड़ा होता है, उस समय
अदृश्य हो जाता है. पुत्र इन्द्रजित् ने अग्निदेव को तृप्त करके ऐसी शक्ति प्राप्त
कर ली है कि वह विशाल व्यूह से युक्त संग्राम में अदृश्य होकर शत्रुओं पर प्रहार
करता है."
" हे राम ! महोदर,
महापार्श्व और अकम्पन- ये तीनों राक्षस
रावण के सेनापति हैं. और ये तीनों युद्ध में लोकपालों के समान पराक्रम
प्रकट करते हैं."
" लंका में रक्त और मांस का
भोजन करने वाले और इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ दस कोटि सहस्त्र ( एक खरब- 1,00000000000 ) राक्षस निवास करते हैं. इनको साथ लेकर रावण ने सभी लोकपालों और देवताओं के विरुद्ध युद्ध किया,
वे सभी भाग खड़े हुए." विभीषण ने बतलाया.
विभीषण की बातों को रामजी न केवल
ध्यान से सुन रहे थे बल्कि मन-ही-मन में उस सब पर गंभीरता से विचार भी करते जा रहे
थे. बार-बार विचार करने के बाद उन्होंने विभीषण से कहा-" विभीषण ! तुमने रावण
के युद्धविषय्क जिन-जिन पराक्रमों का वर्णन किया है, उन्हें मैं अच्छी तरह से
जानता हूँ. मैं यह भी जानता हूँ कि रावण में जितने गुण तुम मुझे बतला रहे हो, वही
सारे की सारे गुण तुम्हारे अपने भीतर भी है. इसी कारण तुम मुझे अत्यन्त ही प्रिय
हो."
" विभीषण ! इसमें तनिक भी
संदेह नहीं है कि मैं प्रहस्त और पुत्रों के सहित रावण का वध करके तुम्हें लंका का
राजा बनवाऊँगा. रावण रसातल में या फ़िर पाताल में भी चला जाए या फ़िर वह पितामह
ब्रह्माजी के पास चला जाए तो भी वह मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकेगा."
" महात्मा विभीषण ! मैं अपने
तीनों भाइयोंकी सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि युद्ध में रावण के पुत्र, भृत्यजन और
बन्धु-बांधवों के सहित निशाचर रावण का वध किये बिना अयोध्यापुरी में प्रवेश नहीं
करूँगा."
रामजी के इन वचनों को सुनकर
विभीषण ने विनम्रता से अपना मस्तक झुकाते हुए उन्हें प्रणाम किया और कहा-" हे
प्रभो ! राक्षसों के संहार में और लंकापुरी
पर आक्रमण करके उसे जीतने में मैं आपकी यथाशक्ति सहायता करूँगा तथा अपने
प्राणॊं की बाजी लगाकर युद्ध के लिए रावण की सेना में प्रवेश करूँगा."
विभीषण की प्रतिज्ञा को सुनकर
रामजी को अत्यन्त ही प्रसन्नता हुई. उन्होंने पास ही में उपस्थित अपने अनुज
लक्ष्मण से कहा-लक्ष्मण ! तुम शीघ्रता से जाकर समुद्र का पानी ले आओ. मैं अभी और
इसी समय विभीषण को लंका का संपूर्ण राज्य देना चाहूँगा. विभीषण ने मुझसे जो सहयोग
करने की बातें की हैं उन्हे सुनकर मुझे अत्यन्त ही प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है.
मेरी इस प्रसन्नता का लाभ इन्हें अवश्य मिलना चाहिए."
इति ब्रुवाणं रामस्तु परिष्वज्य
विभीषणम्
आज्ञा पाते ही लक्ष्मण ने समुद्र
का पानी भर कर ले आए. पूरे वैदिक रिति से मंत्रोचारण के बाद समुद्र का जल विभीषण
के मस्तक पर छिड़का गया. स्वयं रामजी ने अपने अंजुलि में जल भरकर विभीषण को तिलक
लगाकर राज्याभिषेक किया. इतना करने के बाद
वे अपने स्थान से उठ खड़े हुए और लंकापुरी के भावी राजा को गले लगाकर अनेकानेक
बधाइयाँ और शुभ कामनाएं दीं.
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भगवान शिव ने बनवाई थी लंका
रावण ने लंका नहीं बनाई थी, बल्कि लंका का निर्माण भगवान शिव के कहने पर
देवताओं के शिल्पकार विश्वकर्मा और कुबेर ने मिलकर समुद्र के मध्य त्रिकुटाचल
पर्वत पर इसका निर्माण किया था. त्रिकुटाचल के बारे में कहा जाता है कि त्रि यानि
तीन और अकुटाचल यानि पर्वत. यानि लंका का निर्माण तीन पर्वत श्रंखलाओ से मिलकर
किया गया था. जिसके पहले पर्वत का नाम सुबेल. सुबह वही स्थान है जहां पर भगवान राम
और रावण के मध्य भयंकर युद्ध हुआ था. इस पर्वत के दूसरे भाग को नील कहा जाता है,
इसी स्थान पर लंका का महल था. इस पर्वत का सबसे सुंदर भाग सुन्दर
पर्वत था जहां पर अशोक वाटिका थी. इस स्थान पर माता सीता को रावण ने रखा था.
पार्वती
जी की इच्छा भगवान शिव ने की पूरी
पौराणिक
कथाओं के अनुसार लंका का निर्माण भगवान शिव ने माता पार्वती के लिए कराया था. शिव
पुराण में इस कथा का वर्णन मिलता है. कहते हैं कि एक बार भगवान विष्णु और लक्ष्मी
जी भगवान शिव और माता पार्वती से मिलने कैलाश पर्वत पर आए. ठंड के कारण लक्ष्मी जी
ठिठुरने लगीं. सर्दी से बचने के लिए उन्हें पूरे पर्वत कोई स्थान नहीं मिला. तब
मजाक में लक्ष्मी जी ने माता पार्वती से कह दिया कि आप इस पर्वत पर कैसे जीवन
व्यतीत करती हैं? इसके बाद
माता पार्वती ने वैकुंठ धाम की यात्रा की, वहां के वैभव को देखकर पार्वती जी ने ठान लिया कि वे भी
अपने लिए ऐसा ही महल निर्मित कराएंगी. अपनी इच्छा को उन्होने भगवान शिव के सम्मुख
रखा. इसके बाद भगवान शिव ने विश्वकर्मा और कुबेर को बुलवाकर लंका के निर्माण का
आदेश दिया.
रावण ने
छल से प्राप्त की सोने की लंका
रावण छल
करने में प्रवीण था. एक बार जब वह लंका के ऊपर से गुजर रहा था तो उसे लंका को
देखकर लालच आ गया. लंका को प्राप्त करने के लिए उसने ब्राह्मण का रुप लिया और
भगवान शिव के पास पहुंच गया. भिक्षा के तौर पर उसने सोने की लंका की मांग रखी.
भगवान शिव ने रावण को पहचान लिया, लेकिन फिर भी भगवान शिव ने उसे निराश नहीं किया और दान में सोने की लंका
रावण को दे दी.
पार्वती
जी ने क्रोध में दिया ऐसा श्राप, जलकर राख हो गई लंका
रावण को
दान में लंका देने की बात जब माता पार्वती को हुई तो उन्हें बहुत क्रोध आया और
क्रोध में ही उन्होंने कहा कि सोने की लंका एक दिन जलकर राख हो जाएगी. वही हुआ भी.
हनुमान जी ने सोने की लंका को जलाकर भस्म कर दिया.
जो संपदा सिव रावनहि, दीन्ही
दिएँ दस माथ : सोइ संपदा बिभीषनहि, सकुचि दीन्हि रघुनाथ
राम जानते थे कि लंका पर अभी
रावण का आधिपत्य है. रावण के मारे जाने के पश्चात आज नहीं तो कल, इसे इसके
उत्तराधिकारी को सौंप देनी होगी. आज नहीं तो कल विभीषण ,इसके उत्तराधिकारी होंगे,
यह निश्चित था. हम लंका के स्वामी के रूप में रावण को जानते है, लेकिन लंका का
वास्तविक स्वामी तो कौई और था. जिस लंकापुरी को रावण ने शिवजी से छल करके प्राप्त
किया था. उसे वापिस तो लेना ही था. शायद यही कारण रहा होगा कि श्रीराम ने लंका का
साम्राज्य विभीषण को सकुचाते हुए दिया था.
जिस वस्तु पर राम का अधिकार
नहीं था, वह उसे किसी और को कैसे दे सकते थे?.रामजी जानते थे कि युद्ध में उनकी
विजय निश्चित ही होगी. विजय प्राप्ति के पश्चात लंका पर उनका आधिपत्य हो जाएगा.तब
उन्हें यह अधिकार स्वामेव प्राप्त हो जाएगा कि वह अपनी संपत्ति चाहे जिसे दे सकते
थे. इसके साथ ही संभवतः श्रीराम जी की राजनैतिक सोच भी रही होगी कि लंकापति बन जाने के बाद विभीषण के मन में
कभी बैर का भाव नहीं पनपेगा और न ही वह कोई ऐसी चाल ही चल पाएगा, जिसमें उन्हें
भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है. विभीषण सदैव उनके ऋणि रहेंगे कि यदि उसे राम का साथ
नहीं मिलता, तो शायद ही लंका के राज सिहासन पर बैठ पाता.
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रामजी का यह तात्कालिक प्रसाद ( अनुग्रह ) देखकर सब वानर हर्षध्वनि
करने और अपने प्रभु श्रीरामजी को साधुवाद देने लगे.
तत्पश्चात हनुमान और सुग्रीव ने महात्मा विभीषण से जानना चाहा-"
हे महात्मन ! हम इस अछोर समुद्र को पार कर लंका की ओर प्रस्थान करना चाहते हैं.
अतः कृपा कर कोई ऐसा उपाय बतलाइए कि हम आसानी से लंका में प्रवेश कर सकें."
सुग्रीव और हनुमानजी के निवेदन को सुनते हुए विभीषण ने कहा-"
संभवतः आपको यह रहस्य मालुम है अथवा नहीं, मैं नहीं जानता. फ़िर भी आपको जानकारी
देते हुए मैं बतलाना चाहता हूँ कि इस महासागर को रामजी के पितामह सगर ने खुदवाया
था.समुद्र को भी यह बात अवश्य ही ज्ञात होगी. अतः मैं नहीं समझता कि प्रभु श्रीराम
जी को रास्ता देने में उन्हें कोई आपत्ति होनी चाहिए. फ़िर यह पारिवारिक विरासत का
मामला है, इसलिए समुद्र को रामजी का यह कार्य तो करना ही चाहिए.अतः रघुवंशी श्री
श्रीरामजी को महासागर की शरण लेनी चाहिए".
" हे प्रभु ! समुद्र आपका कुलगुरु है, वह विचार कर पार होने का
उपाय बता देगा. इस भयंकर समुद्र में पुल बांधे बिना इन्द्र सहित देवता और असुर
भी इधर से लंकापुरी में प्रवेश नहीं कर
सकते. पुल के निर्माण होने के बाद ही
सम्पूर्ण बन्दर-भालुओं की विशाल सेना, बिना किसी अतिरिक्त परिश्रम के ही पार हो
जाएगी." इस भयंकर समुद्र"
विभीषण जब परामर्श दे रहे थे, उस समय प्रभु श्रीराम जी के अलावा अन्य लोगों के
लक्ष्मण भी वहीं उपस्थित थे.
चुंकि श्रीराम स्वभाव से ही धर्मशील थे. अतः उन्हें यह बात श्रेयस्कर
लगी. उन्होंने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा-"
लक्ष्मण ! विभीषण की यह सम्मति मुझे अच्छी लगती है. चुंकि सुग्रीवजी
राजनीति के बड़े पण्डित हैं और तुम भी समयोचित सलाह देने में सदा से ही कुशल हो.
इसलिए तुम दोनों इस प्रस्तर कार्य पर अच्छी तरह से विचार कर लो और फ़िर तुम्हें जो
उचित लगे, मुझे बताओ."
"मित्रों ! अब अधिक विलम्ब करना ठीक नहीं है. अतः आप शूरवीर
विभीषण के वचनों के अनुसार ही कार्य करें. अब हमें इस समुद्र से अनुरोध करना चाहिए
कि वह हमारी सहायता करे, जिससे हम विशाल सेना के लंका में प्रवेश पा सकें."
ऐसा कहते हुए रामचन्द्रजी समुद्र के तट पर कुश बिछाकर उसके ऊपर कुछ इस तरह बैठे
जैसे अग्निदेव प्रतिष्ठित होते हैं.
०००००
रावण ने सपने में भी नहीं सोचा था कि विभीषण लंका का परित्याग कर राम
की शरण में चला जाएगा.उसके चले जाने के बाद से वह अशांत रहने लगा था. उठते-बैठते
उसे चैन नहीं मिल पा रहा था. व्याकुल होकर, वह कभी तेजी से चलता हुआ, अपने कक्ष
में उधर से उधर चक्कर लगाता, फ़िर आकर अपने आसन पर विराजमान हो जाता. दरअसल वह किसी
भी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहा था कि इस विषम परिस्थिति में उसे कौन-सा कदम उठाना
चाहिए?.
यह तो निश्चित है कि विभीषण राम की शरण में ही गया होगा. उसने अपनी
दीनता और हीनता का प्रदर्शन कर राम पर प्रभाव डालकर, शरण में लेने की गुहार लगाया
होगा और चालाक राम ने उसे शरण भी दे दी होगी और उस देशद्रोही विभीषण ने लंका की
सैन्य-शक्ति आदि के बारे में बतला दिया होगा. राम भी साधारण मानव नहीं हैं. उसने
उसे बहला-फुसला कर, नकली दया दिखाकर उसको अपनी शरण में ले लिया होगा और घर के भेदी
विभीषण ने मेरा काला चिठ्ठा भी खोलकर रख दिया होगा. चालाक राम इसका फायदा उठाकर
निश्चित ही कोई कारगर और बड़ी रणनीति बनाने में जुट गया होगा.
तरह-तरह के विचार मन में आते, जो उसे उद्वेलित कर जाते. अत्यन्त ही
व्यग्र होते हुए उसने अपने सेवक को आज्ञा की कि वह शीघ्रता से जाकर हमारे विशेष
गुप्तकर शार्दुल को बुला लाए.
०००००
" लंकेश की जय हो......आपका सेवक शार्दुल, आपको विनम्रतापूर्वक
प्रणाम निवेदित करता है. हे लंकेश ! आपके इस तुच्छ दास के लिए क्या आज्ञा है?.
रावण के नीजि कक्ष में प्रवेश करते हुए शार्दुल ने कहा.
"आओ शार्दुल आओ...हम तुम्हारे आगमन की ही प्रतीक्षा कर रहे
थे."
" जी कहिए....आपने मुझे किस निमित्त याद किया है?. इस सेवक को
आज्ञा दीजिएगा. वह तत्काल उस कार्य को पूरा कर लौट आएगा." शार्दुल ने जानना
चाहा.
"शार्दुल ! तुम हमारे केवल विशेष गुप्तचर ही नहीं हो, बल्कि वीर
और पराक्रमी भी हो. तुम अपना वेश बदलकर आकाश-मार्ग से, सागर के उस पार जाओ, जहाँ
राम ने डेरा डाल रखा है. तुम सावधानी से उसके सैन्य-बल और उसके द्वारा बनाये गए
चक्रव्यूह का अध्ययन कर मुझे आकर बतलाओ."
आकाश-मार्ग से उड़ते हुए
वह सागर के तट के ऊपर आकर ठहर गया. उसने वहाँ से देखा. अनगिनत शिविर बने हुए है,
जिनकी संख्या की गिनती करना आसान नहीं है.. करोड़ों की संख्या में वानर और भालुओं
के सैनिक यत्र-तत्र विचर रहे हैं, जिन्होंने अपने हाथों में नाना प्रकार के आयुध
धारण किया है. अनेक सैनिक शिवरों के चारों ओर घेरा बनाकर सुरक्षा प्रदान कर रहे
है. अनेक वानर और भालू युद्ध में काम आने
वाले अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण करने में तत्परता के साथ जुटे हुए हैं.
आकाश में उड़ान भरते हुए
उसने यह भी देखा कि एक विशाल वृक्ष के नीचे बने चबुतरे पर राम, लक्ष्मण और विभीषण
बैठे हुए हैं और हनुमान, जाम्बवान आदि योद्धा पंक्तिबद्ध होकर उनके समक्ष बैठे हुए
हैं और राम युद्ध संबंधी रीति-नीति पर व्याख्यान दे रहे हैं. वे क्या कुछ कह रहे
हैं, इतनी ऊँचाई पर सुनाई तो नहीं दे रहा है, लेकिन निश्चित तौर पर कहा जा सकता है
कि वे युद्ध की रीति-नीति से संबंधित बातों से उन्हें समझाइश दे रहे हैं.
वह मन ही मन सोच रहा था
कि लंकापति ने उससे केवल, सागर तट पर जाकर, राम की युद्ध संबंधी तैयारियों को
देखकर आने की आज्ञा दी है. उसने सूक्षमता से इसका अध्ययन कर लिया है, और लौटकर
मुझे लंकापति को सुनाना होगा. यह सोचकर वह वापिस लौट आया.
लौटकर उसने लंकेश को
जानकारी देते हुए अवगत कराया. " हे लंकेश ! लंका की ओर वानरों और भालुओं का
विशाल प्रवाह बढ़ा चला आ रहा है. देखने में वह दूसरे समुद्र के समान अगाथ और असीम
दिखाई दे रहा है."
"राजा दशरथ के
दोनों पुत्र श्रीराम और लक्ष्मण बड़े ही रूपवान और श्रेष्ठ वीर हैं. वे सीता का
उद्धार करने के लिए आ रहे हैं."
"हे महातेजस्वी
महाराज ! ये दोनों रघुवंशी बन्धु इस समय समुद्र के तट पर आकर ठहरे हुए हैं. वानरों
की सेना सब ओर से, दस योजन तक की खाली स्थान को घेरकर वहाँ ठहरी हुई है."
" हे राक्षेन्द्र !
आपके सारे दूत शीघ्र सारी बातों का पता लगाने के लिए योग्य हैं, अतः आप उन्हें भिजवाएं. तत्पश्चात फ़िर आप जैसा उचित
समझें वैसा करें- चाहे तो आप सीता को लौटा दें,चाहें तो सुग्रीव से मीठी-मीठी
बातें करके उन्हें अपने पक्ष में मिला लें अथवा सुग्रीव और राम के बीच किसी तरह
फूट डलवा दें."
"शार्दुल ने जो कुछ
अपने खुले नेत्रों से देखा है कि इतनी विशाल सेना का सागर तट पर आकर ठहरना, उसके
स्वयं के लिए और लंकापुरी के हित में तो कदापि नहीं हो सकता. शार्दुल ने मुझे तीन
सुझाव दिए है. पहले सुझाव के अनुसार मुझे सीता को लौटा देना चाहिए दूसरे सुझाव के
अनुसार मुझे सुग्रीव को किसी तरह अपने पक्ष में मिला लेना चाहिए. और तीसरा सुझाव
कि मुझे किसी भी तरह राम और सुग्रीव के बीच फूट डलवाना देना चाहिए." रावण मन
ही मन में इन तीनों सुझावों के बारे में गंभीरता से सोच रहा था. पहले सुझाव पर कि मुझे सीता को लौटा देना
चाहिए, यह उसके लिए संभव नहीं है. बाकी के दो सुझावों पर वह मन की अतल गहराइयों
में उतरकर सोच रहा था, लेकिन किसी अन्तिम निर्णय तक नहीं पहुँच पाया था.
अन्दर ही अन्दर क्रोध
में उबलते हुए उसने अपने सेवक को बुलाया और आज्ञा दी कि वह अर्थवेत्ताओं में
श्रेष्ठ शुक को बुला लाए.
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शुक-
लंका के राजा रावण का दरबारी मंत्री था. श्रीराम की वानर सेना द्वारा समुद्र पर सेतु बाँधकर उसे पार कर लेने के बाद रावण ने 'शुक'
और 'सारण' नामक अपने
मंत्रियों को राम की सेना में भेद लेने के लिए गुप्तचर बनाकर भेजा, किंतु ये दोनों गुप्तचर विभीषण की दृष्टि से बच नहीं पाये और पहचाने जाने पर पकड़ लिये गए.
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जब श्रीराम समुद्र पर सेतु बाँधकर लंका
पहुँच गये,
तब रावण ने 'शुक' और 'सारण' नामक मन्त्रियों को बुलाकर उनसे कहा,
"हे चतुर मन्त्रियों! अब राम ने वानरों की सहायता से अगाध समुद्र पर सेतु बाँधकर उसे पार कर लिया है और वह लंका के द्वार पर आ पहुँचा है. अतः तुम दोनों वानरों का वेश बनाकर राम की सेना
में प्रवेश करो और यह पता लगाओ कि शत्रु सेना में कुल कितने वानर हैं, उनके पास अस्त्र-शस्त्र कितने और किस प्रकार के
हैं तथा मुख्य-मुख्य वानर नायकों के नाम क्या हैं."
रावण की आज्ञा पाकर दोनों कूटनीतिज्ञ मायावी राक्षस वानरों का वेश बनाकर वानर सेना में घुस गये, परन्तु
वे विभीषण की तीक्ष्ण दृष्टि से बच न सके. विभीषण ने उन दोनों को पकड़कर राम के सम्मुख करते हुये कहा, "हे राघव! ये दोनों
गुप्तचर रावण के मन्त्री 'शुक' और 'सारण' हैं, जो हमारी गुप्तचरी
करते पकड़े गये हैं."
राम के सामने जाकर दोनों राक्षस थर-थर
काँपते हुये बोले,
"हे राजन्! हम राक्षसराज रावण के सेवक हैं. उन्हीं की आज्ञा से आपके बल का पता लगाने के लिये आये
थे. हम उनकी आज्ञा के दास हैं, इसलिये उनका आदेश पालन करने
के लिये विवश हैं. राजभक्ति के कारण हमें ऐसा करना पड़ा है. इसमें हमारा कोई दोष
नहीं है."
दोनों गुप्तचरों के ये निश्चल वचन सुन कर
रामचन्द्र बोले,
"हे मन्त्रियों! हम तुम्हारे सत्य भाषण से बहुत प्रसन्न हैं.
तुमने यदि हमारी शक्ति देख ली है, तो जाओ. यदि अभी कुछ और
देखना शेष हो तो भली-भाँति देख लो. हम तुम्हें कोई दण्ड नहीं देंगे. आर्य लोग शस्त्रहीन व्यक्ति पर वार नहीं करते. अत: तुम अपना कार्य पूरा करके निर्भय हो लंका को लौट जाओ. तुम साधारण गुप्तचर नहीं, रावण के मन्त्री हो. इसलिये उससे कहना, जिस बल के भरोसे
पर तुमने मेरी सीता का हरण किया है, उस बल का परिचय अपने भाइयों,
पुत्रों तथा सेना के साथ हमें रणभूमि में देना. कल सूर्योदय होते ही
अन्धकार की भाँति तुम्हारी सेना का विनाश भी आरम्भ हो जायेगा.
००००००
आज्ञा लेकर सेवक जा चुका
था. लेकिन लंकेश चैन से बैठ नहीं पा रहा था. वह बार-बार अपने आसन से उठता, कभी वह
अपने कक्ष में, दोनों हाथ पीछे बांधे हुए
इधर से उधर डोलता-फ़िरता. फ़िर अंत में थककर अपने आसन पर बैठ जाता. वह व्यग्रता के
साथ शुक के आने की राह देख रहा था.
" लंकेश की जय
हो". लंकेश की जय हो" कहता हुए शुक ने रावण के कक्ष में प्रवेश करते हुए
कहा. कक्ष में प्रवेश करने के पश्चात उसने निवेदन पूर्वक जानना चाहा." ले
लंकेश ! शुक का प्रणाम स्वीकार करें और मेरे लिए आपकी क्या आज्ञा है, कृपया कह सुनाइए.
शुक अपने प्राणों की बाजी लगाकर आपके आदेश का पालन तत्परता से करेगा." दोनों
हाथ बांधे शुक सिर झुका कर रावण के सन्मुख खड़ा हो गया. उसे अब अपने स्वामी की
आज्ञा की प्रतीक्षा थी.
" आप शुक आओ...हम
व्यग्रता से तुम्हारे ही आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे. तुम शीघ्रता से सागर-तट पर
जाओ. वहाँ किष्किन्धा के महाराज सुग्रीव जी से मिलकर मेरी ओर से कहना-" हे
वानरराज सुग्रीव ! आप वानरों के महाराज के कुल में उत्पन्न हुए हैं. आप ऋक्षरजा के
पुत्र हैं और स्वयं भी बड़े बलवान हैं. मैं आपको अपने भाई के समान समझता हूँ. आपको
मेरी ओर से कभी कोई हानि हुई होगी?, ऐसा मैं नहीं समझता."
फ़िर उनसे कहना- "हे
सुग्रीव ! यदि मैंने राम की पत्नी का अपहरण कर लंका ले आया हूँ, तो इसमें आपकी
व्यक्तिगत प्रतिष्ठा, ख्याति अथवा यश में क्या हानि हुई है?.अतः आप किष्किन्धा लौट
जाइये."
" आपको यह भी ज्ञात
ही है कि मेरी लंका में वानरलोग किसी भी तरह से नहीं पहुँच सकते. मेरी इस लंका में
देवता, गन्धर्व आदि का भी प्रवेश पाना असम्भव है. फ़िर इन मनुष्यों और वानरों की
बात ही क्या है?." रावण ने शुक को समझाते हुए कहा.
लंकेश से आज्ञा प्राप्त
होते ही शुक ने सिर झुकाकर कहा-" हे लंकेश ! मुझे बिदा दीजिए. मैं शीघ्र ही
सागर के तट पर जाकर महाराज सुग्रीव से अवश्य भेंट करूँगा और आपका संदेशा उन तक
पहुँचा दूँगा"
"जाओ शुक...शीघ्रता
से जाओ और शुभ समाचार लेकर लौटो. मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है".
अपने स्वामी की आज्ञा को
शिरोधार्य कर वह रावण के मंत्रणा-कक्ष से बाहर निकल आया. बाहर एक ओर खड़े होकर वह
इस बात पर गम्भीरता से सोच रहा था कि उसे कौन-सा रूप धारण करके जाना चाहिए. यदि वह
इसी वेश में जाएगा, तो निश्चित ही महाराज विभीषण की नजरों से छिपा नहीं रह सकूँगा
और पकड़ा जाऊँगा. अंत में उसने निर्णय लिया कि उसे अपने नाम (शुक) के ही अनुरूप
तोते का रूप धारण करके जाना चाहिए. राम के शिविर के पास अनेक पक्षी उड़ते- फ़िरते
रहते हैं अतः पक्षी के बीच में रहकर मुझे कोई पहचान नहीं पाएगा.
आकाश-मार्ग से अपने
पंखों को वायु में फ़ड़फ़ड़ाता हुआ वह उस ओर उड़ चला था, जहाँ प्रभु श्रीरामजी ने शिविर
डाल रखा था.
आकाश-मार्ग में उड़ते हुए
उसने देखा कि एक विशाल वृक्ष के नीचे बने एक चबुतरे पर राम. लक्ष्मण, हनुमान, ऋक्षराज जाम्बवान आदि
बैठ कर गुप्त मंत्रणा कर रहे हैं. अत्यधिक ऊँचाई पर रहने के कारण वह किसी की भी
बात सुन नहीं पा रहा था. उसकी खोजी नजरें सुग्रीव को तलाश कर रही थीं. उसने आकाश
मार्ग से उड़ान भरते हुए चारों तरफ़ उन्हें तलाशा, लेकिन उन्हें ढूँढ नहीं पाया.
फ़िर एक बार ऊँची उड़ान
भरते हुए समुद्र के तट की ओर निहारा. महात्मा सुग्रीव अपने सेनापतियों और वानरों
के साथ बैठे हुए दिखाई दिए.
सुग्रीव के सेनापतियों
और वानरों को तुच्छ समझते हुए वह सीधे सुग्रीव जी के पास आया और बोला-" हे
महाराज सुग्रीव ! लंकेश रावण का विशेष गुप्तचर शुक आपको प्रणाम करता है. कृपया
मेरा प्रणाम स्वीकार करें"
फ़िर उसने अत्यन्त ही
विनीत होकर कहा-" महात्मा सुग्रीव जी ! लंकापति रावण ने, विशेषकर आपके लिए
संदेशा भिजवाया है. कृपया उसे ध्यानपूर्वक सुनने की कृपा करें.
"मेरे स्वामी रावण
ने कहला भेजा है कि आप वानरों के महाराज के कुल में उत्पन्न हुए हैं. हे आदरणीय !
आप ऋक्षरजा के पुत्र हैं और स्वयं भी बलवान हैं. मैं आपको अपने भाई के समान समझता
हूँ. जाने-अनजाने में मुझसे आपके प्रति कोई लाभ नहीं हुआ है, और न तो मेरे द्वारा
आपकी कोई हानि ही हुई है."
" हे पराक्रमी
सुग्रीव जी ! यदि मैंने बनवासी राम की पत्नी सीता को हर लाया हूँ तो इसमें आपकी
क्या हानि है?. अतः मेरा अनुरोध है कि आप कृपाकर किष्किन्धा लौट जाइये."
" हमारी लंका में
वानरलोग किसी तरह लंका में प्रवेश नहीं कर सकते.देवताओं और गन्धर्वों का भी प्रवेश
होना असम्भव है, फ़िर मनुष्यों और वानरों की बात ही क्या है?. उसने रावण का संदेशा
अक्षरशः कह सुनाया.
जिस समय शुक महाराज
सुग्रीव को रावण का संदेश सुना रहा था, कुछ वानर आकाश की ओर उछले और उसे पकड़कर
भूतल पर ले आए और उसकी जमकर पिटाई करने लगे. पिटाई करते हुए और उसे घसीटते हुए
वानरों के दल उसे रामजी के समक्ष लाने का उपक्रम करने लगे. पिटता हुआ शुक
चिल्ला-चिल्ला कर रघुनाथ जी से कहने लगा- " हे राम ! दूत का वध निषिद्ध है. फ़िर भी आपके वानर मुझे
मार-मार कर अधमरा किए दे रहे हैं. हे राम ....हे प्रभु ! मुझे बचाइए.
शुक का विलाप सुनक दयालु
श्रीरामजी ने पीटने वाले वानरों को पुकार कर कहा-" इसे मत मारो".
वानरों के चुंगुल से
छूटकर वह आकाश में खड़ा हो गया और पुनः महाराज सुग्रीव से कहने लगा-" हे महान
बल और पराक्रम से युक्त शक्तिशाली सुग्रीव जी! समस्त लोकों को रुलाने वाले रावण को
मुझे आपकी ओर से क्या उत्तर देना चाहिए?."
शुक के इस प्रकार पूछने
पर कपिशिरोमणि महाबली सुग्रीव ने स्पष्ट और निश्छल बात कही-" दूत ! तुम रावण
से इस प्रकार कहना-" दशानन ! तुम न तो मेरे मित्र हो और न ही दया के पात्र
हो, तुम न तो मेरे उपकारी हो और न ही मेरे प्रिय व्यक्तियों में से ही कोई हो. तुम
केवल और केवल श्रीराम जी के शत्रु हो. इस कारण तुम अपने सगे-सम्बन्धियों के सहित
तुम बालि के ही भांति मेरे लिए वध्य हो."
" हे शुक ! तुम
तुम्हारे स्वामी से कहना कि मैं पुत्र,बन्धु और कुटुम्बीजनों सहित तुम्हारा संहार
करूँगा और भारी सेना के साथ आकर समस्त लंका को जलाकर भस्म कर डालूँगा."
" उससे यह भी कहना
कि मूर्ख रावण ! यदि इन्द्र आदि समस्त देवता भी तुम्हारी रक्षा करने आगे आएंगे तो
भी तुम प्रभु श्रीराम जी के हाथों जीवित नहीं बचेंगे."
" दुष्ट रावण ! यदि
तुम दानवी शक्तियों के बल पर अन्तर्धान हो जाओ, आकाश में चले जाओ, पाताल में घुस
जाओ, चाहे महादेव जी के चरणों का आश्रय ले लो, तब भी अपने भाइयों के सहित प्रभु
श्रीरामचन्द्रजी के हाथों मारे जाओगे. तीनों लोकों में मुझे कोई भी पिशाच, राक्षस,
गन्धर्व या असुर ऐसा दिखाई नहीं देता, जो तुम्हारी रक्षा कर सके."
" तुम अपने स्वामी
लंकेश से यह भी कहना कि तुमने वृद्ध गृध्रराज जटायु को तुमने क्यों मारा?. यदि तुम
में बड़ा बल था तो तुमने प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण की अनुपस्तिथि में सीता का अपहरण
क्यों किया." तुम सीताजी को न ले जाकर स्वयं अपनी मृत्यु को संग ले गए. तुम
इसे क्यों नहीं समझ पा रहे हो."
" पराक्रमी और
महात्मा,महाबली प्रभु श्रीराम देवताओं के लिए भी दुर्जय हैं, किन्तु तुम इसे समझ
नहीं पा रहे हो. वे शीघ्र ही तुम्हारे प्राणों का अपहरण करेंगे."\
महात्मा सुग्रीव के
वचनों को सुनकर बालि कुमार अंगद ने कहा-" महाराज ! मुझे यह कोई दूत दिखाई
नहीं देता. ये तो कोई गुप्तचर प्रतीत होता है. इसने यहाँ खड़े-खड़े हमारी
सैन्य-शक्ति को तौल लिया है. अतः इसे पकड़कर बन्दी बना लेना चाहिए, ताकि ये लंका
वापिस नहीं जाने पाए. मुझे यही ठीक जान पड़ता है."
शुक समझ रहा था कि अब
उसका लंका लौट जाना संभव नहीं है.यह जानकर वह जोर से विलाप करते हुए श्रीरामजी को बड़े जोरों से पुकारते हुए कहने
लगा-" हे प्रभो ! आपके वानरों ने न
केवल मुझे मारा बल्कि मेरी आँखे फ़ोड़ने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. यदि आज मैंने
अपने प्राणों का त्याग किया तो जिस रात में मेरा जन्म हुआ था और जिस रात को मैं
मरूँगा, जन्म और मरण के इस मध्यवर्ती काल में, मैंने जो भी पाप किए हैं, वह सब
आपको ही लगेगा."
उसको अत्यन्त विलाप करता
देख श्रीरामजी ने उसका वध नहीं होने दिया और वानरों से कहा-" इसे छोड़ दो. यह
दूत होकर ही आया था."
अपने स्वामी प्रभु
श्रीरामजी की आज्ञा पाकर वानरों ने उसे छोड़ दिया. किसी तरह अपने प्राण बचाकर वह
वहाँ से भाग निकला.
भागते हुए शुक को रोकते
हुए लक्ष्मण ने पुकार कर कहा-" रुक जाओ शुक ..रुक जाओ..तुम और भी जानकारियाँ
प्राप्त करना चाहते तो तो कर लो, हम तुम्हें रोकेंगे नही." उड़ते हुए शुक ने
अब एक क्षण को भी वहाँ रुकना उचित नहीं समझा और भाग खड़ा हुआ.
एक तो वानरों के हाथों
जमकर पिटने और पंख नोंच देने के कारण, वह सुगमता से उड़ान नहीं भर पा रहा था. किसी
तरह-चीखते-चिल्लाते-कराहते वह बड़ी कठिनाइयों के साथ लंका की ओर उड़ा चला जा रहा था.
उसने रामजी के शिविर की ओर आते हुए, इस बात की कल्पना तक नहीं की थी,कि उसकी इस
तरह दुर्दशा बना दी जाएगी.
किसी तरह आकाश में उड़ान
भरते हुए वह लंका जा पहुँचा और सीधे रावण के चरणॊं में जाकर गिर पड़ा. रावण एक
बारगी उसकी दुर्दशा देखकर कांप-सा गया था.उसके मन में एक अज्ञात भय, मन की
गहराइयों तक जाकर समा गया था. किसी तरह शुक को सान्तवना देते हुए, उसने रामजी की
समस्त शक्तियों और युद्ध की व्यूहरचना संबंधी जानकारी देने को कहा. फूट-फूट कर
विलाप करते हुए शुक ने, राम की शक्तियों के बारे में विस्तार से जानकारियाँ दीं.
तत्पश्चात उसने सुग्रीव
के वचनों को दुहराते हुए कहा-" हे लंकेश ! आपने मुझसे सुग्रीव के लिए संदेशा
भिजवाया था. आपका संदेश पाकर उन्होंने मुझसे कहा-" दूत ! ( तुम रावण से इस
प्रकार कहना) वध के योग्य दशासन ! तुम न तो मेरे मित्र हो, न दया के पात्र हो, न
मेरे उपकारी हो और न मेरे प्रिय व्यक्तियों में से कोई हो. तुम श्रीराम के शत्रु
हो, इस कारण अपने सगे-सम्बन्धियों सहित तुम बालि की भांति ही मेरे लिए वध्य हो. हे
निशाचरराज ! मैं पुत्र,बन्धु और कुटुम्बियों सहित तुम्हारा संहार करुँगा और बड़ी
भारी सेना के साथ आकर समस्त लंकापुरी को भस्म कर डालूँगा."
सुग्रीव ने यह भी कहला
भेजा है-" हे मूर्ख रावण ! यदि समस्त देवता भी तुम्हारी रक्षा के लिए आ जाएं
तो भी तुम रामजी के हाथों जीवित नहीं बचोगे. तुम चाहे आकाशा में चले जाओ, पाताल
में जाकर छिप जाओ, चाहे महादेव की शरण में चले जाओ, तब भी श्रीराम के हाथों मारे
जाओगे."
००००० \
सिंधु
समीप गए रघुराई.
श्रीरघुनाथजी समुद्र के
तट पर कुशा बिछा महासागर के समक्ष हाथ जोड़कर पूर्वाभिमुख होकर बैठे गए.
तस्य रामास्य सुप्तम्य कुशास्तीर्णे महीतले :
नियमादप्रमत्त
निशास्तिस्त्रोSभिजग्म्तुः(10वा.रा.एकविशं सर्गः)
कुश बिछी हुई भूमि पर
सोकर नियमपूर्वक, असावधान न होते हुए श्रीराम की वहाँ तीन रातें व्यतीत हो गयीं.
इन तीन दिनों की अवधि में महासागर अपने आधिदैविक रूप का दर्शन नहीं कराया. तब
उन्होंने पास खड़े हुए लक्ष्मण से कहा-लक्ष्मण ! समुद्र को अपने ऊपर बड़ा अहंकार है,
जिससे वह मेरे सामने स्वयं प्रकट नहीं हो रहा है. शान्ति, क्षमा, सरलता और मधुर
भाषण-ये जो सत्पुरुषों के गुण हैं, इनका गुणीहीनों के प्रति प्रयोग करने पर यही
परिणाम होता है कि गुणवान पुरुष को भी असमर्थ समझ लेते हैं. जो अपनी प्रशंसा करने
वाला दुष्ट,भ्रष्ट, सर्वत्र धावा करने वाला और अच्छे-बुरे सभी लोगों पर कठोर दण्ड
का प्रयोग करने वाला होता है, उस मनुष्य का सब लोग सत्कार करते हैं".
" हे लक्ष्मण !
यद्यपि समुद्र को अक्षोभ्य ( शांत स्वभाव का ) कहा गया है, फ़िर भी आज कुपित होकर
मैं इसे विक्षुब्ध कर दूँगा.
फ़िर उन्होंने समुद्र से
कठोर वचनों में कहा- हे सागर ! मेरे बाणॊं से तुम्हारी सारी जलराशि दग्ध हो जाएगी.
तू सूख जाएगा और तेरे भीतर रहने वाले सब जीव नष्ट हो जाएंगे. उस दशा में तेरे यहाँ
जल के स्थान में विशाल बालुका पैदा हो जाएगी."
"समुद्र ! मेरे बाण
द्वारा की गयी वाण-वर्षा से जब तेरी ऐसी दशा हो जाएगी, तब वानरलोग पैदल ही चलकर
तेरे उस पार पहुँच जाएँगे.
विनय न
मानत जलनिधि जड़, गए तीनि दिन बीती : बोले राम सकोप तब भय बिनु होई न प्रीति.
" हे लक्ष्मण !
धनुष-बाण लाओ, मैं अभी अग्नि बाण से समुद सुखा डालूँगा. मूर्ख से प्रार्थना, कुटिल
से प्रीति, स्वभाविक कृपण से सुंदर नीति का उपदेश, अज्ञानी से ज्ञान की कथा, अति
लोभी से वैराग्य वर्णन, क्रोधी से शान्ति और कामी से हरि-कथा कहने का वैसा ही फ़ल
होता है, जैसे ऊसर के बीज बोने से होता है.
अस कहि
रघुपति चाप चढ़ावा- यह मत लछिमन के मन भावा.
ऐसा कहकर रामजी ने धनुष
चढ़ाया. अपने भ्राता रामजी को क्रोध में देखकर लक्ष्मन को अच्छा लगा.
जैसे ही राम जी ने अपना
धनुष खींचा, स्वर्ग और धरती कांपने लगे और आकाश अंधकारमय हो गया. वायु उग्र रूप
धारण करके विशाल वृक्षों को उखाड़ने लगी तथा पर्वत की चोटियों को तोड़ने लगी. आकाश में
बिजली चमकने लगी, उल्कापात होने लगा और चारों दिशाओं में गर्जना होने लगी. सागर
अपनी सीमा पारकर अस्सी मील ऊपर बहने लगा और सभी प्राणी भय के मारे कांपने लगे. अब
भी श्रीराम अपने निर्णय पर अटल रहे
.
कनक थार
भरि मनि मन माना : विप्र रूप आयउ तजि माना.
अकस्मात जल में से
सागर-देव अनेक प्रज्ज्वलित सर्पों से घिरे हुए राम के सन्मुख प्रकट हुए और हाथ
जोड़कर बोले-" हे सर्वव्यापी परम पुरुष, हम मंदबुद्धि हैं और समझ नहीं पाए कि
आप कौन हैं? किन्तु अब हमें झात हो गया कि आप सर्वश्रेष्ठ पुरुष और संपूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं, जो अपरिवर्तित और
आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं. देवी-देवता सत्वगुण वाले प्रजापति रजोगुण वाले और
भूतों के देवता तमोगुण वाले होते हैं, किन्तु आप तो सभी गुणॊं के स्वामी
हैं."
" हे रघुवंश के
प्रतिष्ठित वंशज, पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु तथा आकाश और तेज-ये सर्वदा अपने स्वभाव में
स्थिर रहते हैं. अर्थात मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते... अपने सनातन धर्म को कभी
नहीं छोड़ते-...सदा उसी में आश्रित रहते हैं.
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मर्यादा की परिभाषा से तात्पर्य है कि हर
स्थिति में नैतिकतापूर्ण व्यवहार करना और उपयुक्त निर्णय करना.
मर्यादा की परिभाषा से तात्पर्य है कि हर
स्थिति में नैतिकतापूर्ण व्यवहार करना और उपयुक्त निर्णय करना. आज के जमाने में इस बात को इस प्रकार भी
कहा जा सकता है कि शासक वर्ग और कानून व्यवस्था लागू करने वाले लोगों को
नियम-कानून लागू करने में ऊँच-नीच या भेदभाव न करते हुए सबके साथ समान
नैतिकतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए. इसके विपरीत सच्चाई यह है
कि नियम-कानून केवल कमजोरों के लिए लागू होते नजर आते हैं.
भगवान राम समुद्र पार करके लंका जाना चाहते थे, परंतु उनके पास पार करने के साधन नहीं थे. उन्होंने समुद्र से विनय की और विनय पर
मार्ग न देने के कारण क्रोध भी जताया, परंतु समुद्र ने स्वयं उपस्थित होकर भगवान से कहा था कि
प्रभु के प्रताप या बल से मैं सूख जाऊँगा और सेना पार भी उतर जाएगी. इससे मेरा नियम यानी जल के ऊपर केवल साधन
या पुल के द्वारा ही उतरने की मेरी मर्यादा जो आपने निर्धारित की है, वह नहीं रहेगी. इसमें मेरी हानि नहीं है, बल्कि आपके द्वारा निर्धारित मर्यादा ही भंग होती है. इस प्रकार के व्यवहार से संसार में
अव्यवस्था फैलने का डर है. भगवान ने फौरन समुद्र को गले लगा
लिया और उससे साधन पूछा.. भगवान ने समुद्र की मर्यादा का
सम्मान करते हुए समुद्र के ऊपर पुल बनाकर उसे पार किया.
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" हे रघुनाथ ! मुझे
पार कर पाना सम्भव नहीं है. किन्तु आपके लिए मैं विशेष सुविधा प्रदान करूँगा,
जिससे आप मुझे पार कर सकें. हे प्रभु! आप जैसे चाहे वैसे मेरे जल का उपयोग कर सकते
हैं. वस्तुतः आप इसे पार करके उस रावण के निवास तक जा सकते हैं,जो तीनों लोकों में
त्रास और आतंक का मुख्य कारण बना हुआ है."
" हे वीर योद्धा !
यद्यपि मेरा जल आपको लंका जाने के मार्ग में किसी भी प्रकार का विघ्न उत्पन्न नहीं
करेगा, तथापि आप उस पर सेतु का निर्माण करें ताकि आपकी अलौकिक कीर्ति का प्रसार
हो. आपके प्रभुत्व का यह आश्चर्यजनक, असाधारण कृत्य देखकर भविष्य में महान वीर और
राजा आपका गुणगान करेंगे."
" हे मर्यादा
पुरुषोत्तम ! यदि आप सेतु का निर्माण करेंगे तो मैं अपनी पूरी शक्ति लगाकर उसका
सारा भार अपने ऊपर वहन करूँगा, जिससे सेतु मेरे जल पर स्थिर रहे. इस प्रकार वानरों
की आपकी विशाल सेना लंका पर आक्रमण कर सकेगी और आप अपनी प्रिय पत्नी सीता को पुनः
प्राप्त कर सकेंगे." समुद्रदेव ने
श्रीरामजी से कहा.
"अमोघोSयं महाबाणः कस्मिन देशे विपात्यताम्."
" हे वरुणालय ! मेरी बात सुनिए. मेरा यह विशाल बाण
अमोघ है. कृपया बताइये, इसे किस स्थान पर छोड़ा जाए." रामजी ने समुद्र से
जानना चाहा.
श्रीरामचन्द जी का वचन
सुनकर और उस महान बाण को देखकर महातेजस्वी महासागर ने कहा-" हे प्रभो ! आप
सर्वज्ञ हैं एवं पुण्यात्मा हैं. आप सब जानते हैं फ़िर भी आप मुझसे जानना चाहते
हैं?."
" हे सर्वेश्वर !
हे दयानिधि! आप अपने भक्तों पर किस प्रकार अपनी कृपा की वर्षा कर, उनका मान बढ़ाते
हैं, यह सर्वविदित ही है. इस अकिंचन का आपने मान बढ़ाकर मुझे अनुग्रहित किया है, आप
धन्य है....आप धन्य हैं."
"आपने मुझसे जानना
चाहा है तो हे प्रभु ! इस बाण को मेरे उत्तर की ओर "द्रुमकुल्य" नाम से
विख्यात एक बड़ा ही पवित्र देश है. वहाँ आभीर जातियों के बहुत-से मनुष्य निवास करते
हैं, जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं. ये सब-के-सब पापी और लुटेरे हैं, वे लोग
मेरा जल पीते हैं. उन पापाचारियों का स्पर्श
मुझे प्राप्त होता है. इस पाप को मैं सह नहीं सकता. हे प्रभु ! आप अपने इस
उत्तम बाण को वहीं सफ़ल कीजिए."
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द्रुमकुल्य-
आज का
कजाकिस्तान है. कजाकिस्तान में ऐसी ढेरों सारी विचित्रताएं हैं, जो इशारा करती है
कि उसका संबंध रामायणकाल से ही हो सकता है.
समुद्र का
कहना था कि द्रुमकुल्य पर भयंकर दस्यु रहते हैं जो जल को दूषित करते रहते हैं. इस
पर रामजी ने बाण चला दिया. ब्रहमास्त्र की गर्मी से डाकू मारे गए. लेकिन गर्मी
इतनी बढ़ी कि पेड़-पौधे सूख गए. और धरती जल उठी और यह स्थान रेगिस्तान में बदल गयी
और वहाँ का सागर भी सूख गया.
कजाकिस्तान
मे जिस भूमि पर रामबाण गिरा था वो जगह " किजिलकुम मरुभूमि " ( Kyzylkum Desert ) के नाम से जाना जाता है. यह दुनिया का 15 वां सबसे बड़ा रेगिस्तान है. स्थानीय भाषा में " किजिलकुम" का मतलब लाल रेत होता है. माना जाता है कि
ब्रह्मास्त्र की ऊर्जा के असर से यहाँ की रेत लाल हो गयी है.कहते हैं कि यहाँ की
धरती में आज भी रेडियोएक्टिव गुण मिलते हैं, जो ब्रह्मास्त्र यानि परमाणु विस्फ़ोट
की गवाही देते हैं.
किजिकुलम
में कई दुर्लभ पेड़-पौधे पाए जाते हैं. पास में अराल सागर है, जो दुनिया का एकलौता
समुद है जो समय के साथ-साथ सूख रहा है. आज वह अपने मूल आकार का 10 फ़ीसदी बचा है. किजिकुलम का कुछ हिस्सा
तुर्कमेनिस्तान और उज्ज्बेकिस्तान में भी है.
रामेश्वर
तट से इस जगह की दूरी करीब साढ़े चार हजार किलोमीटर है.
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श्रीरामजी ने उस बाण को
उत्तर की ओर लक्ष्य निर्धारित करने के पश्चात संधान कर दिया. वायु को चीरता हुआ वह
बाण चार हजार किमी की दूरी तय करता हुआ, द्रमकुल्य स्थान पर जाकर धरती में समा
गया. दरअसल हम जिसे तीर समझ रहे है,वह तीर न होकर एक प्रकार से "ब्रह्मास्त्र"
ही था. उसकी ऊर्जा के असर से वहाँ की हरी-भरी भूमि जलकर रेत में परिवर्तित हो गयी.
पेड़-पौधे सूख गए. जिस स्थान पर यह ब्रह्मास्त्र गिरा, कालान्तर में उसका नाम तीनों
लोकों में " मरुकान्तार"के नाम से ही विख्यात हो गया.जो पहले
समुद्र का कुक्षिप्रदेश था.
प्रभु श्रीरामजी ने उस
भूमि न केवल सुखा दिया, बल्कि यह वरदान भी दिया - " यह मरुभूमि पशुओं के लिए
हितकारी होगी. फल,मूल और रसों से सम्पन्न होगी. यहाँ घी आदि चिकने पदार्थ अधिक
सुलभ होंगे. दूध की भी बहुतायत होगी तथा यहाँ सुगन्ध छायी रहेगी और अनेक प्रकार की
ओषधियाँ उत्पन्न होगीं."
अयं सौम्य
नलो नाम तनयो विश्वकर्मण: *
पित्रा
दत्तवरः श्रीमान् प्रीतिमन् विश्वकमण: (45.वा.रा. द्वाविशं सर्गः)
उस स्थान के दग्ध हो
जाने पर सरिताओं के स्वामी समुद्र ने श्री रघुनाथ जी से कहा- "हे प्रभो !
आपकी सेना में जो नल नामक एक कान्तिमान वानर है. वह साक्षात विश्वकर्मा का पुत्र
है. उसके पिता ने प्रसन्न होकर उसे यह वर दिया है कि-" तुम मेरे ही समान
समस्त शिल्पकला में निपुण होओगे. हेप्रभु ! आप स्वयं भी तो समस्त विश्व के
स्त्रष्टा विश्वकर्मा हैं. यह उत्साही वानर मेरे ऊपर पुल का निर्माण करे, मैं उसे
धारण करुँगा." यह कहकर समुद्र अदृश्य
हो गया.
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नल का जन्म
विश्वकर्मा के अंश से नल
का जन्म वानर योनि में हुआ. कहा जाता है कि अग्निदेव के अंश से जन्मे नील
भी उसी दिन पैदा हुए और दोनों बहुत घनिष्ठ मित्र थे. बचपन में नल बहुत चंचल
थे.
हम भारतीय अक्सर हमारे ग्रंथ और उनमे घटी
घटनाओ को केवल धार्मिक महत्ता ही देते हैं, शायद ही हम उन घटनाओ के कारण , परिणाम और प्रभावों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हैं . रामायण मे सेतु का निर्माण कोई सामान्य कार्य नहीं था , तत्कालीन समय मे इस सेतु का निर्माण एक अकल्पनीय बात थी .आज के विदेशी वैज्ञानिक भी राम सेतु पर गहन शोध कर रहे हैं
उनका कहना हैं की राम सेतु की इंजीनीर्यिंग (वास्तुकला) देखकर लगता हैं की हजारो
वर्ष पूर्व भी भारत और वहाँ के कारीगर कितना समृद्ध और योग्य थे . इस सेतु का निर्माण श्री राम की आज्ञा से नल और नील
अभियंताओ के निर्देशन मे किया गया था. रामायण से हम सभी परिचित हैं पर हमारा ध्यान नल और नील पर
बहुत ही कम गया हैं .
नल विश्वकर्मा के पुत्र थे और उनके भाई नील
वानर प्रजाति से संबन्धित थे. नल और नील बचपन मे बहुत ही शरारती और चंचल थे , वे अक्सर अपनी चंचल आदत के कारण ऋषियों की वस्तुए उठाकर नदी
मे फेक देते थे. अतः एक दिन क्रोधित होकर ऋषियों ने नल और नील को श्राप दे
दिया की “तुम्हारे द्वारा फेंकी
गई वस्तुए जल मे कभी नहीं डूबेंगी” बाद मे यह दोनों सुग्रीव की सेना मे वास्तुकार बन गए थे.
सेतु निर्माण
प्रभु श्री राम
माता सीता को वापस लाने के लिए लंका ओर चढ़ाई
की योजना बना चुके थे. वानरो
की सेना प्रभु श्री राम का सहयोग कर रही थी और नल नील भी उस सेना मे शामिल थे.
पर लंका से पहले विशाल समुद्र उनका रास्ता रोक रहा था. श्री राम की सेना लंका जाने को आतुर थी, पर
बीच मे समुद्र आ जाने से सब असमंजस की स्थिति मे पड़ गए थे. तब
समुद्र देव ने प्रकट होकर श्री राम से सेतु बनाने का निवेदन किया और नल नील के
श्राप के बारे मे श्री राम को बताकर उनकी समस्या का निवारण किया.
श्री राम का आदेश पाते ही नल और नील सेतु के
निर्माण कार्य मे जुट गए , सर्वप्रथम नल नील ने रामेश्वरम मे ऐसा स्थान खोज निकाला
जहाँ से लंका जल्दी पहुँचा जा सकता था. श्री राम ने उस स्थान पर धनुष मारा था जिसे आज हम धनुषकोटी
कहते हैं . नल नील के
निर्देशन मे सभी वानर सेतु के निर्माण मे लग गए थे . सेतु की सरंचना का निर्णय भी नल और नील द्वारा लिया गया था . वाल्मीकि रामायण के अनुसार इस सेतु की लंबाई 100 योजन और चौड़ाई 5 योजन थी. इसे
इतना मजबूत बनाया गया था की विशाल सेना इस पर चलकर उस ओर लंका पहुँच सके. हम सभी जानते हैं श्री राम अपनी सेना के साथ इसी सेतु से
लंका पहुंचे और अहंकारी रावण का वध किया .
प्रमाणित तथ्य-
• वैज्ञानिको
का मानना हैं की 15 वी
शताब्दी तक यह सेतु पानी के बाहर था और इस पर चलकर वर्तमान श्री लंका तक पहुँचा जा
सकता था. पर तेज समुद्री तूफान के कारण यह समय के साथ खंडित हो गया.
• धनुष
मारने का उल्लेख वाल्मीकि रामायण मे भी आया हैं अगर आप मेप मे देखेंगे तो पाएंगे
की धनुषकोटी एक ऐसा अंतिम छोर हैं जहां से लंका के द्वीपो की शृंखला एकदम समीप हैं. सेटेलाइट तस्वीरों से यह भी प्रमाणित हो चुका हैं की
धनुषकोटी से लंका तक एक सेतु अवश्य हैं, जो अब पानी से ढँक चुका हैं.
|• वाल्मीकि
रामायण के बाद महाभारत , महाकवि कालिदास के “रघुवंश”, स्कन्द पुराण, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, और
ब्रह्म पुराण मे भी राम सेतु का उल्लेख आया हैं .
• रामायण मे
उल्लेख हैं की सेतु निर्माण के समय पत्थर नहीं डूबे थे और आज भी रामेश्वरम के
आसपास ऐसे पत्थर हैं जो पानी पर तैरते हैं .
• वाल्मीक
रामायण में कई प्रमाण हैं कि सेतु बनाने में उच्च तकनीक का प्रयोग किया गया था.
कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े हुए थे, अर्थात पुल का निर्माण सूत के माध्यम में हो रहा था.-
(वाल्मीक रामायण- 6/22/62) |
• अमेरिका
के साइंस टीवी ने भी यह कहा हैं की यह मानव निर्मित कोई प्राचीन सेतु हैं .
अब इतने सारे प्रमाण केवल संयोग नहीं हो सकते
हैं. पर समय- समय पर भारतीय संस्कृति के शत्रु इसके अस्तित्व पर संदेह उठाते रहे
हैं और हमेशा गलत साबित हुए हैं . नल और नील जानते थे की उनको मिले श्राप के कारण
यह पत्थर तैर रहे हैं, पर उन्होने सेतु निर्माण मे काम आए सभी पत्थरो पर “राम” लिखवाया और तैरते पत्थरो को प्रभु श्री राम की महिमा बताया
. पर विशाल हृदय के धनी प्रभु श्री राम ने उदारता पूर्वक इस सेतु का नाम “नल सेतु ” रखा पर वर्तमान मे सब इसे राम सेतु
के नाम से पुकारते हैं
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एक ओर चुपचाप बैठे नल को श्रीरामजी ने अपने पास
बुलाते हुए कहा- " नल ! सरिताओं के
स्वामी नीरनिधि से मैं यह जानकर अनुगृहीत हुआ कि तुम विश्व स्त्रष्टा विश्वकर्मा
के पुत्र हो. सेतु निर्माण के लिए मैं तुम्हें नियुक्त करता हूँ. तुम अन्य वानरों
के साथ मिलकर ऐसा अद्भुत और मजबूत सेतु का निर्माण करो, ताकि हमारी सेना समुद्र से
उस पार जा सके.".
अहं सेतुं करिष्यामि विस्तीर्णे मकरालये.
नल ने विनम्रतापूर्वक प्रणाम करते हुए
श्रीरामजी से कहा- हे प्रभो ! मैं पिता की दी हुई शक्ति को पाकर इस विस्तृत समुद्र
पर सेतु का निर्माण करुँगा. महासागर ने आपसे सत्य ही कहा है. इस भयानक समुद को
राजासगर के पुत्रों ने ही बढ़ाया है."
" हे प्रभो ! मन्दराचल पर विश्वकर्माजी ने
मेरी माता को यह वर दिया था कि -"देवी! तुम्हारे गर्भ से मेरे ही समान पुत्र
होगा.. इस प्रकार से मैं विश्वकर्माजी का औरस पुत्र हूँ और शिल्पकर्म में उन्हीं
के समान हूँ. महासागर ने जो कुछ कहा है, सत्य ही कहा है. मैं बिना पूछे स्वयं होकर
आप लोगों से अपने गुणॊं को नहीं बता सकता था, इसीलिए चुप रहा."
" हे प्रभु ! मैं महासागर पर पुल बाँधने में
समर्थ हूँ. अतः सब वानर आज ही से पुल बाँधने का कार्य आरम्भ कर देंगे."
श्रीरामजी के निर्देशन में लाखों वानर निर्माण
के कार्य में अन्य सामग्रियों की खोज में ,उत्साह में भरकर सब ओर उछलते-कूदते
जंगलों में घुस गए और विशालकाय पर्वतों के शिखरों को तोड़कर समुद्र तक खींच कर लाने
लगे.
कुछ वानर साल,अश्वकर्ण, धव,बाँस,कुटज, अर्जुन,
ताल,तिलक,तिनिश,बेल, छितवन, आम और अशोक के पेड़ों को तोड़कर समुद्र को पाटने लगे.
महाकाय महाबली वानर हाथी के समान बड़ी-बड़ी शिलाओं और पर्वतों को उखाड़कर यंत्रों
द्वारा (विभिन्न साधनों) द्वारा समुद्र तट पर लाने लगे.
विशाल पत्थरों के सागर में फ़ेंके जाने से जल की
बूँदे आकाश तक उछल जातीं थी. कठिन श्रम से वानरों की देह गर्माने लगती, लेकिन
ज्योंहि पानी की बड़ी-बड़ी बूंदें उनके शरीर पर पड़ती, उनका आनंद द्विगुणित हो उठता
और वे अतिउत्साहित बड़ी-बड़ी शालाओं को उछाल-उछाल कर फ़ेंकने लगे. लेकिन पत्थर पानी
की सतह पर तैरते हुए इधर-उधर बिखरने लगते. तब पानी पर तैरते पत्थरों को को
सुनिश्चित स्थान पर स्थिर रखने के लिए वे रस्सों और लताओं से बांध दिया करते थे.
जिस समय यह निर्माण-कार्य प्रगति पर था, उस समय विभीषण और उनके मंत्री तट पर पहरा
दे रहे थे.
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विशाल पत्थरों का पानी पर तैरना.
पुराणों में ऐसी कथाओं का उल्लेख मिलता है कि
नल और नील बाल्यकाल में बड़े ही नटखट थे. जहाँ पर वे रहते थे, वहीं पर एक तपोनिष्ठ
ऋषि रहते थे. एक दिन नल और नील ने ऋषिवर की पूजा वेला में उनकी शालिकराम की मूर्ति
और अन्य सामग्रियों को उठाकर पास ही के सरोवर में फ़ेंक दिया. ऋषि को जब इस बात की
सूचना मिली तो उन्होंने क्रोध में आकर नल-नील को श्राप दे दिया कि आज से तुम्हारे
हाथ से स्पर्श हुए पत्थर जल में नहीं डुबेंगे. महासागर ने यही बात रामजी को बतलाया
था.
परंतु ध्यान देने योग यह बात है है कि समुद्र पर पत्थर भले ही ऋषि के श्राप या
आशीर्वाद से तैरने लगे हों, परन्तु पुल के निर्माण में भगवान राम का प्रताप ही
मुख्य था. क्योंकि जब नील और नल समुद्र में बड़े-बड़े पत्थरों के शिलाखण्ड डालना
प्रारंभ किया तो सभी पर्वतखण्ड जल में तैर तो रहे थे, किन्तु वे स्थिर नहीं हो पा
रहे थे. बिना शिलाऒं के स्थिर हुए पुल का निर्माण संभव ही नहीं था. क्योंकि वे सभी
शिलाखण्ड इधर-उधर तैर रहे थे.
उल्लेखनीय है कि इस दृष्य को जब रामजी ने
स्वयं अवलोकित किया तो नर लीला करते हुए उन्होंने दोनों की कार्यकुशलता पर आश्चर्य
व्यक्त किया. यह देखकर जामबवन्त ने कहा-" हे प्रभो ! यह सब आपके प्रताप से
तैर रहे हैं. यह सुनकर रामजी ने एक पत्थर का टुकड़ा उठाया और सबके सामने उसे फ़ेंक दिया.
वह टुकड़ा डूब गया. यह देखकर रामजी ने कहा-" देखो जाम्बवन्त ! मेरे द्वारा
छोटा-सा टुकड़ा भी समुद्र में छोड़े जाने से डूब गया और तुम कह रहे हो कि यह सभी
शिलाखण्ड मेरे प्रताप से तैर रहे हैं. तब जाम्बवन्त ने कहा-"प्रभु ! जिसे आप छोड़ देंगे वह डूबने से कैसे बचेगा? उसे
तो डुबना ही है." इस विनोद को सुनकर राम बिना मुस्कुराए कैसे रह सकते थे.
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नोट-
शिलाखण्ड के तैरने और डूबने के अर्थ को यहाँ
समझने की आवश्यकता है. जीव ईश्वर के बनाए हुए भवसागर में तैरते ही रहता है. एक
योनि से दूसरी योनि में,लेकिन उसकी मुक्ति नही होती. लेकिन जो भक्त ईश्वर का
गुणानुवाद करता है...उसे सच्चे मन से उसकी भक्ति करता है, वह उस पत्थर की तरह
भवसागर में डूब जाता है, फ़िर ऊपर नहीं आता. स्पष्ट है कि उस जीव को मुक्ति मिल गयी
है और उसका भवसागर में तैरना-उतराना
समाप्त हो जाता है.
इधर-उधर छिटक कर तैर रहे शिलाखण्डॊं को देखकर
जाम्बवन्त ने उपाय बताया कि ये पत्थर के शिलाखण्ड जब तक स्थिर नहीं होंगे, तब तक
वे आपस में कैसे जुड़ेंगे?. उन्होंने बतलाया कि जब तक कि इन्हें राम नाम से
नहीं जोड़ा जाएगा, ये तैरते ही रहेंगे. इन शिलाखण्डों को परस्पर जोड़कर स्थिरता
प्रदान करने के लिए राम नाम के मसाले का प्रयोग करना होगा. उन्होंने एक शिला पर
राम लिखा और उसे उछाल दिया. वह तत्काल डूब गया. जब उन्होंने एक शिला पर " रा
"और दूसरे पर "म" लिखा और समुद्र में फ़ेंक दिया. आश्चर्य, दोनों
शिलाएँ एक दूसरे से मिलकर स्थिर होने लगे. और इस तरह सेतु रचना की प्रक्रिया
प्रारम्भ हो पायी.
आपको विदित होगा कि "रा" और
"म" ब्रह्म जीव सम सहज संघाती हैं. नल-नील जाम्बवन्त के आदेशानुसार ही
एक पत्थर पर "रा" और दूसरे पर "म" लिखकर समुद्र में डालते गए.
इस तरह सेतु की रचना हो सकी.
इस तरह भले हे पत्थरों को तैराने में ऋषि का
श्राप अथवा आशीर्वाद एक साधन रहा हो, परन्तु बिना जुड़े सेतु की अटलता पूर्णततया
सुनिश्चित नहीं होती. यह कार्य रामजी के प्रताप से ही संभव हुआ. मानस में तुलसीदास
ने राम के प्रताप को ही प्रधानता देते हुए लिखा है कि
बाँधा
सेतु नील नल नागर...राम कृपा जसु भयउ उजागर बूड़हिं
आनहिं बोरहि जेई...भए उपल बोहित सम तेई महिमा
यह न जलधि कइ बरनी...पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी
श्री रघुबीर प्रताप ते, सिंधु तरे पाषान ते मतिमंद जे राम तजि, भजहिं जाइ प्रभु आन (मानस.6/2/7-9 दोहा -3)
इस प्रकार से समुद्र ने सेना के उतरने योग्य
अटल एवं सुदृढ़ सेतु का निर्माण राम के प्रताप से ही सम्भव हुआ. नल और नील को तो
प्रभु राम ने इसकी रचना के माध्यम और सहायक बनाया.
इसे इस अर्थ में भी लिया जा सकता है. "
रा" का यहाँ अर्थ ईश्वर से है और "म" का अर्थ जीव से है. जीव जब
ईश्वर से नहीं जुड़ेगा, तब तक उसे मुक्ति मिलना असंभव है.
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एक अन्य अर्थ में-
व्यक्ति एक
दूसरे को अभिवादन करने के लिए राम-राम कहते हैं. लेकिन जरा सोचिए भगवान राम का
नाम अभिवादन करते समय एक बार भी तो ले सकते हैं, लेकिन ऐसा
नहीं है. हम किसी को अभिवादन करते समय भगवान राम के नाम का
उपयोग 2 बार किया जाता है. आइये जानते
हैं कि आखिर इसके पीछे का रहस्य क्या है?
राम शब्द की व्युत्पत्ति
राम शब्द
संस्कृत के दो धातुओं, रम् और घम से बना है. रम् का अर्थ है रमना या निहित होना और घम का अर्थ है
ब्रह्मांड का खाली स्थान. इस प्रकार राम का अर्थ सकल ब्रह्मांड में निहित या रमा
हुआ तत्व यानी चराचर में विराजमान स्वयं ब्रह्म। शास्त्रों में लिखा है, “ रमन्ते योगिनः अस्मिन सा रामं
उच्यते” अर्थात, योगी ध्यान में जिस शून्य में रमते हैं उसे राम कहते हैं.
अभिवादन के समय राम नाम 2 बार क्यों
बोलते हैं ?
'राम-राम' शब्द जब भी अभिवादन करते समय बोल जाता है
तो हमेशा 2 बार बोला जाता है. इसके पीछे एक वैदिक दृष्टिकोण
माना जाता है. वैदिक दृष्टिकोण के अनुसार पूर्ण ब्रह्म का मात्रिक गुणांक 108
है. वह राम-राम शब्द दो बार कहने से पूरा हो जाता है,क्योंकि हिंदी वर्णमाला में ''र" 27 वां अक्षर है. 'आ' की मात्रा
दूसरा अक्षर और 'म' 25वां अक्षर,
इसलिए सब मिलाकर जो योग बनता है वो है 27 + 2 + 25 = 54, अर्थात एक “राम” का योग 54
हुआ. और दो बार राम राम कहने से 108 हो जाता
है जो पूर्ण ब्रह्म का द्योतक है. जब भी हम कोई जाप करते हैं तो हमे 108 बार जाप करने के लिए कहा जाता है. लेकिन सिर्फ "राम-राम" कह
देने से ही पूरी माला का जाप हो जाता है.
क्या है 108 का महत्व
शास्त्रों के
अनुसार माला के 108 मनको का संबंध व्यक्ति की सांसो से माना गया है. एक स्वस्थ व्यक्ति दिन और
रात के 24 घंटो में लगभग 21600 बार
श्वास लेता है. माना जाता है कि 24 घंटों में से 12 घंटे मनुष्य अपने दैनिक कार्यों में व्यतीत कर देता है और शेष 12 घंटों में व्यक्ति लगभग 10800 बार सांस लेता
है. शास्त्रों के अनुसार एक मनुष्य को दिन
में 10800 ईश्वर का स्मरण करना चाहिए. लेकिन एक सामान्य
मनुष्य के लिए इतना कर पाना संभव नहीं हो पाता है. इसलिए दो शून्य हटाकर जप के लिए
108 की संख्या शुभ मानी गई है. जिसके कारण जाप की माला में
मनको की संख्या भी 108 होती है.
108 का वैज्ञानिक महत्व
यहाँ हम अगर
वैज्ञानिक तथ्य की बात करें तो 108 मनके की माला और सूर्य की कलाओं का एक दूसरे से संबंध माना गया है. वैज्ञानिक तथ्य के अनुसार एक वर्ष में सूर्य 216000
कलाएं बदलता हैं. इसमें वह छह माह उत्तरायण रहता है और छह माह
दक्षिणायन रहता है. इस तरह से छः माह में सूर्य की कलाएं 108000 बार बदलती हैं. इसी तरह से अंत के तीन शून्य को अगर हटा दिया जाए तो 108
की संख्या बचती है. 108 मनको को सूर्य की
कलाओं का प्रतीक माना जाता है.
'राम'
शब्द के संदर्भ में स्वयं गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा:
करऊँ कहा लगि नाम बड़ाई : राम न सकहि नाम गुण गाई
स्वयं राम भी 'राम' शब्द
की व्याख्या नहीं कर सकते,ऐसा राम नाम है. 'राम' विश्व संस्कृति के अप्रतिम नायक है. वे सभी
सद्गुणों से युक्त है. वे मानवीय मर्यादाओं के पालक और संवाहक है. अगर सामाजिक
जीवन में देखें तो- राम आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श पति, आदर्श
शिष्य के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं. अर्थात् समस्त आदर्शों के एक मात्र
न्यायादर्श 'राम' ही है.
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एक अन्य रोचक कथा.
हनुमानजी भी विशाल चट्टानों को
उठाकर समुद्र में फ़ेंक रहे थे. तभी उनकी नजरें एक गिलहरी पड़ी. उस नाजुक-सी गिलहरी
के करतब देखकर उन्हें भारी आश्चर्य हुआ. वे देर तक उस गिलहरी के काम को एकटक होकर
निहारते रहे. गिलहरी अपने नाजुक पंजो में पत्थर के छोटे -से टुकड़े को उठाती और उसे
समुद्र में उछाल देती. पत्थर फ़ेंकने के बाद वह पानी में उतरकर अपने शरीर को
भिंगोती. दौड़ लगाकर बाहर आती, भूमि में लोटती ताकि रेत-कण उसके भींगे शरीर से चिपक
जाएं. फ़िर छोटा पत्थर उठाती. दौड़ लगाती. पत्थर को पानी में उछाल देती, फ़िर समुद्र
में उतरकर अपने शरीर से चिपकी बालु के कणॊं पानी में छोड़कर बाहर निकलती. उसे
बार-बार ऐसा करता देख हनुमानजी ने आश्चर्यचकित होकर उस गिलहरी से कहा-" देखने
में तो तुम बहुत छोटी-सी पिद्दी-सी गिलहरी हो, कहीं धोके से किसी वानर के पैरों के
नीचे आ गयी, तो तुम्हारे प्राण निकल जाएंगे?. तुम्हारे रेत के कुछ कणॊं से और
पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ों से पुल का निर्माण नहीं हो सकता. अतः तुम एक स्थान पर
रूककर हमारा कार्य देखती रहो."
हनुमानजी की बातों को सुनकर गिलहरी का उत्साह
जरा-सा भी कम नहीं हुआ. अब वह और तेजी से अपना काम करने लगी.
गिलहरी को वानरों के पैरों के बीच से होकर
गुजरना होता था. वानर भी इन गिरहरियों से तंग आ चुके थे, क्योंकि उन्हें भी गिलहरी
को बचाने हुए निकलना होता था, लेकिन वानरों को यह नहीं मालूम था कि ये गिलहरी
यहाँ- वहाँ क्यों दौड़ रही है?. तभी एक वानर ने उस पर चिल्लाते हुए कहा " हे
गिलहरी ! तुम इधर-उधर क्यों भाग रही हो. तुम हमें काम नहीं करने दे रही?."
तभी
उनमें से एक वानर ने गुस्से में आकर गिलहरी को उठाया और उसे हवा में उछाल कर फेंक
दिया. हवा में उड़ती हुई गिलहरी भगवान का नाम लेती हुई सीधी श्रीराम के हाथों में
ही जाकर गिरी.. वह जैसे ही उनके हाथों में जाकर गिरी, उसने आँखें खोलकर देखा, तो प्रभु श्रीराम को देखते ही वह खुश हो गई.
उसने श्रीराम से कहा- "प्रभु ! मेरा जीवन सफल हो गया.".
तब
श्रीराम उठे और वानरों से कहा-" तुमने इस गिलहरी को इस तरह से क्यों लज्जित
किया?. क्या तुम जानते हो गिलहरी द्वारा समुद्र में डाले गए छोटे पत्थर और रेत के
कण, तुम्हारे द्वारा फेंके जा रहे बड़े पत्थरों के बीच के फासले को भर रहे हैं? इस वजह से यह पुल मजबूत बनेगा." यह सुन
वानर सेना काफी शर्मिंदा हो गई. उन्होंने प्रभु राम और गिलहरी से क्षमा मांगी.
उसके
कार्य को सराहना देते हुए उन्होंने उसकी पीठ पर अपनी अंगुलियों से स्पर्श किया.
श्रीराम के इस स्पर्श के कारण गिलहरी की पीठ पर तीन रेखाएं बन गई, जो आज भी हर एक गिलहरी के ऊपर श्रीराम के निशानी
के रूप में मौजूद है. यह तीन रेखाएं राम, लक्षमण और सीता की प्रतीक है.
एक अन्य
किंवदंती अनुसार पहली कथा यह है कि जब श्रीराम अपनी पत्नी सीता व अनुज लक्ष्मण के
साथ वनवास पर थे, तो रास्ते चलते हर तरह के धरातल
पर पैर पड़ते रहे. कहीं नर्म घास भी होती, कहीं कठोर धरती भी,
कहीं कांटे भी. ऐसे ही चलते हुए श्रीराम का पैर एक नन्ही-सी गिलहरी
पर पड़ा. उन्हें दुःख हुआ और उन्होंने उस नन्ही गिलहरी को उठाकर प्यार किया और
बोले- "अरे मेरा पांव तुझ पर पड़ा, तुझे कितना दर्द हुआ
होगा न?."
गिलहरी ने कहा- "प्रभु! आपके चरण कमलों के
दर्शन कितने दुर्लभ हैं. संत-महात्मा इन चरणों की पूजा करते नहीं थकते. मेरा
सौभाग्य है कि मुझे इन चरणों की सेवा का एक पल मिला. इन्हें इस कठोर राह से एक पल
का आराम मैं दे सकी."
प्रभु श्रीराम ने कहा-" फिर भी दर्द तो हुआ होगा ना? तू चिल्लाई क्यों नहीं?". इस पर गिलहरी ने कहा- "प्रभु, कोई और मुझ पर पांव रखता, तो मैं चीखती- 'हे
राम!! राम-राम!!! ',
किंतु, जब आपका ही पैर मुझ पर पड़ा- तो मैं किसे
पुकारती?."
कहते हैं कि श्रीराम ने गिलहरी की पीठ पर बड़े प्यार से अंगुलियां
फेरीं, जिससे कि उसे दर्द में आराम मिले. अब वह इतनी नन्ही है कि तीन ही अंगुलियां
फिर सकीं. माना जाता है कि गिलहरियों के शरीर पर श्रीराम की अंगुलियों के निशान आज
भी देखने को मिलते हैं..
०००००
सभी ने मिलकर एक ही दिन में चौदह योजन लंबा
पुल बांध डाला. दूसरे दिन तेजी से काम करते हुए बीस योजन लंबा और तीसरे दिन इक्कीस
योजन और चौथे दिन बाईस योजन और पांचवे दिन
सुबेल पर्वत के निकट तक तेईस योजन पुल का निर्माण कर दिया. नल ने सौ योजन
लंबा पुल तैयार कर लिया.
जिस द्रुत गति से पुल के निर्माण का कार्य
जोर-शोर से चल रहा था, अति उत्साहित होते हुए अनेकानेक देवताओं और गन्धर्वों ने सौ
योजन पुल के निर्माण को देखने के लिये आकाश में आकर खड़े हो गये थे.पुल का निर्माण
होने के बाद महाराज सुग्रीव ने प्रभु श्रीरामजी से कहा-" हे रघुनन्दन ! आप
हनुमानजी के कंधे पर चढ़ जाइये और लक्ष्मण अंगद के पीठ पर सवार हो लें, क्योंकि पुल
बहुत लंबा-चौड़ा है. ये दोनों वानर आकाश-मार्ग से चलने वाले हैं.अतः ये दोनों, आप
दोनों भाइयों का भार धारण कर सकते हैं.
इस प्रकार धनुर्धर श्रीराम, लक्ष्मण और
सुग्रीव के साथ-साथ उस सेना के आगे-आगे चले. दूसरे वानर सेना के बीच में और
अगल-बगल में होकर चलने लगे. कितने ही नटखट वानर जल में कूद पड़ते और तैरते हुए चलते
थे और कितने ही आकाश-मार्ग से गरुड़ के समान उड़ते हुए जाने लगे.
धीरे-धीरे वानरों की सारी सेना बनाए हुए पुल
से समुद्र के उस पार पहुँच गयी. यूथपति सुग्रीव ने फ़ल,मूल और जल की अधिकता देख
सागर के तट पर सेना का पड़ाव डाला.
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राम
सेतु के 10 रोचक तथ्य
1.
भारत के दक्षिण में
धनुषकोटि तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिम में पम्बन के मध्य समुद्र में 48 किमी चौड़ी पट्टी के रूप में उभरे एक भू-भाग के
उपग्रह से खींचे गए चित्रों को अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (नासा) ने जब 1993 में दुनिया भर में जारी किया तो भारत में इसे
लेकर राजनीतिक वाद-विवाद का जन्म हो गया था. इस पुल जैसे भू-भाग को राम का पुल या रामसेतु कहा
जाने लगा. रामसेतु का चित्र नासा ने 14 दिसम्बर 1966 को जेमिनी-11 से अंतरिक्ष से प्राप्त किया था. इसके 22 साल बाद आई.एस.एस 1 ए ने तमिलनाडु तट पर स्थित रामेश्वरम और जाफना
द्वीपों के बीच समुद्र के भीतर भूमि-भाग का पता लगाया और उसका चित्र लिया. इससे अमेरिकी उपग्रह के चित्र की पुष्टि हुई.
2.
दिसंबर 1917 में साइंस चैनल पर एक अमेरिकी टीवी शो "एनशिएंट
लैंड ब्रिज" में अमेरिकी पुरात्वविदों ने वैज्ञानिक जांच के आधार पर यह
कहा था कि भगवान राम के श्रीलंका तक सेतु बनाने की हिंदू पौराणिक कथा सच हो सकती
है. भारत
और श्रीलंका के बीच 50 किलोमीटर लंबी एक रेखा चट्टानों से बनी है और ये
चट्टानें सात हजार साल पुरानी हैं, जबकि जिस बालू पर ये चट्टानें टिकी हैं, वह चार हजार साल पुराना है. नासा की सेटेलाइट तस्वीरों और
अन्य प्रमाणों के साथ विशेषज्ञ कहते हैं कि चट्टानों और बालू की उम्र में यह
विसंगति बताती है कि इस पुल को इंसानों ने बनाया होगा.
3.
इस पुल जैसे भू-भाग को
राम का पुल या रामसेतु कहा जाने लगा. सबसे पहले श्रीलंका के मुसलमानों ने इसे आदम
पुल कहना शुरू किया था. फिर ईसाई या पश्चिमी लोग इसे एडम
ब्रिज कहने लगे. वे मानते हैं कि आदम इस पुल से होकर
गुजरे थे.
4.
रामसेतु पर कई शोध हुए
हैं कहा जाता है कि 15 वीं शताब्दी तक इस पुल पर चलकर रामेश्वरम से मन्नार द्वीप तक जाया
जा सकता था,
लेकिन तूफानों ने यहाँ
समुद्र को कुछ गहरा कर दिया. 1480 ईस्वी सन् में यह चक्रवात के कारण टूट गया और
समुद्र का जल स्तर बढ़ने के कारण यह डूब गया.
5.
वाल्मीकि रामायण के
अनुसार जब श्रीराम ने सीता को लंकापति रावण से छुड़ाने के लिए लंका द्वीप पर चढ़ाई
की,
तो उस वक्त उन्होंने
विश्वकर्मा के पुत्र नल और नील से एक सेतु बनवाया था, जिसे बनाने में वानर सेना से
सहायता की थी. इस सेतु में पानी में तैरने वाले पत्थरों का उपयोग किया गया था, जो
कि किसी अन्य जगह से लाए गए थे. कहते हैं कि ज्वालामुखी से उत्पन्न पत्थर पानी
में नहीं डूबते हैं. संभवत: इन्हीं पत्थरों का उपयोग किया गया होगा.
6.
भगवान राम ने जहाँ धनुष
मारा था उस स्थान को 'धनुषकोटि' कहते हैं. राम ने अपनी सेना के साथ लंका पर चढ़ाई करने के लिए उक्त
स्थान से समुद्र में एक ब्रिज बनाया था, इसका उल्लेख 'वाल्मिकी रामायण' में मिलता है. श्रीराम ने इसे सेतु का नाम नल
सेतु रखा था. वाल्मीक रामायण में वर्णन मिलता है कि पुल लगभग पाँच दिनों में बन
गया, जिसकी लम्बाई सौ योजन और चौड़ाई दस योजन थी. रामायण में इस पुल को ‘नल सेतु’ की संज्ञा दी गई है. नल के निरीक्षण में वानरों
ने बहुत प्रयत्न पूर्वक इस सेतु का निर्माण किया था.- (वाल्मीक रामायण-6/22/76). गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में वर्णन है कि राम ने सेतु के नामकरण के
अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा. इसका कारण था कि लंका तक पहुँचने के लिए
निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा बताई गई तकनीक से संपन्न
हुआ था. महाभारत में भी राम के नल सेतु का जिक्र आया है.
7.
वाल्मीक रामायण में कई
प्रमाण हैं कि सेतु बनाने में उच्च तकनीक प्रयोग किया गया था. कुछ वानर बड़े-बड़े
पर्वतों को यन्त्रों के द्वारा समुद्रतट पर ले आए ते. कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत
पकड़े हुए थे,
अर्थात पुल का निर्माण
सूत से सीध में हो रहा था- (वाल्मीक रामायण- 6/22/62)
8.
वाल्मीकि रामायण के
अलावा कालिदास ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में राम के आकाश मार्ग से लौटने
का वर्णन किया है. इस सर्ग में राम द्वारा सीता को रामसेतु के बारे में बताने का
वर्णन है. यह सेतु कालांतर में समुद्री तूफानों आदि की चोटें खाकर टूट गया था.
अंन्य ग्रंथों में कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है. स्कंद पुराण (तृतीय, 1.2.1-114), विष्णु पुराण (चतुर्थ, 4.40-49), अग्नि पुराण (पंचम-एकादश) और ब्रह्म पुराण (138.1-40) में भी श्रीराम के सेतु का जिक्र किया गया है.
9.
वाल्मीकि के अनुसार तीन
दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूँढ़
निकाला,
जहाँ से आसानी से
श्रीलंका पहुँचा जा सकता हो. उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक
का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया. धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्य के पूर्वी
तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गाँव है. धनुषकोडी पंबन के
दक्षिण-पूर्व में स्थित है. धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्नार से करीब 18 मील पश्चिम में है.
10.
इसका नाम धनुषकोडी
इसलिए है कि यहाँ से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल
(रामसेतु) बनाया था, उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है. इन पूरे इलाकों को
मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है. धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के
बीच एकमात्र स्थलीय सीमा है, जहाँ समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें
कहीं-कहीं भूमि नजर आती है.
श्रीवाल्मीकि
ने रामायण की संरचना श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद वर्ष 5075 ईपू के आसपास की होगी (1/4/1 -2)। श्रुति स्मृति की प्रथा के माध्यम से
पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिचलित रहने के बाद वर्ष 1000 ईपू के आसपास इसको लिखित रूप दिया गया होगा. इस
निष्कर्ष के बहुत से प्रमाण मिलते हैं। रामायण की कहानी के संदर्भ निम्नलिखित रूप
में उपलब्ध हैं-
*
कौटिल्य का अर्थशास्त्र
(चौथी शताब्दी ईपू)
*
बौद्ध साहित्य में
दशरथ जातक (तीसरी शताब्दी ईपू)
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पश्चिमी जगत ने पहली
बार 9वीं शताब्दी में इब्न
खोरादेबे द्वारा अपनी पुस्तक " रोड्स एंड स्टेट्स ( 850 ई ) में ऐतिहासिक कार्यों में इसका सामना किया, इसका उल्लेख सेट बन्धई या" ब्रिज ऑफ़ द सी
"है। [५] कुछ प्रारंभिक इस्लामिक स्रोत, एडम के पीक के रूप में श्रीलंका के एक पहाड़ का उल्लेख करते हैं, (जहाँ एडम माना जाता है कि पृथ्वी पर गिर गया) और
पुल के माध्यम से एडम को श्रीलंका से भारत के पार
जाने के रूप में वर्णित किया; एडम ब्रिज के नाम से जाना जाता है। [६] अल्बेरुनी
( सी। 1030 )
शायद इस तरह से इसका वर्णन करने वाला पहला व्यक्ति था. [५] इस क्षेत्र को आदम के पुल के नाम से पुकारने वाला सबसे पहला नक्शा १ ]
०४ में एक ब्रिटिश मानचित्रकार द्वारा तैयार किया गया था. [३]
रामसेतु की आयु विवाद का विषय रहा है. भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के "प्रोजेक्ट रामेश्वरम" के अनुसार इस इलाके के मूँगा (कोरल) के आयु के आंकड़े बताते हैं कि रामेश्वरम द्वीप 125,000 साल पहले विकसित हुआ है. बदलते समुद्र स्तर के कारण
ये भी बताया गया है कि रामेश्वरम और तलैमन्नार,
श्रीलंका के बीच के जमीन 7,000 से 18,000 वर्ष पहले शायद खुली थी. धनुषकोडी
और रामसेतु के बीच के रेत की टीलों की आयु 500-600 साल पुरानी बताई जाती है. तिरुचिरापल्ली स्थित भारतिदासन विश्वविद्यालय के २००३ के सर्वेक्षण के अनुसार रामसेतु की आयु सिर्फ 3,500 साल है [8]
राम के बनाए इस पुल का वर्णन रामायण में तो
है ही, महाभारत
में भी श्री राम के नल सेतु का उल्लेख आया है. कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है. अनेक पुराणों में भी श्रीरामसेतु का विवरण आता है. एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका मे राम सेतु कहा
गया है. नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में
धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है. यह सेतु तब पाँच दिनों में ही बन गया था. इसकी लंबाई 100 योजन व चौड़ाई 10 योजन थी. इसे बनाने में रामायण काल में श्री राम नाम के साथ, उच्च तकनीक का प्रयोग किया गया था।
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सेतु बन्धन के लिए रावण को
पुरोहित बनाकर बुलवाना
तमिल भाषा में लिखी
महर्षि कम्बन की रामायण 'इरामावतारम्' में एक कथा का उल्लेख मिलता है. यह कथा हमें वाल्मिकी
रामायण और तुलसीदासकृत रामचरित मानस में नहीं मिलती है. वाल्मिकी रामायण के इतर
भी रामायण काल की कई घटनाओं का जिक्र हमें इरामावतारम्, अद्भुत रामायण और आनंद रामायण में मिलता है.
'इरामावतारम्' रामायण की कथा अनुसार भगवान श्रीराम ने तमिलनाडु
के एक विशेष स्थान पहुँचकर युद्ध की तैयारी की और रावण
से युद्ध करने के पूर्व वहाँ पर भगवान शिव के 'शिवलिंग' की स्थापना करने का विचार किया. आज उस स्थान को "रामेवश्वरम" नाम से जाना
जाता है. रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना करने हेतु किसी योग्य आचार्य या पुरोहित
की आवश्यकता थी. ऐसे में विद्वानों ने श्रीराम को रावण को बुलाने के लिए
कहा,
क्योंकि रावण विद्वान पंडित और पुरोहित था और वह शिवभक्त भी था.
अंत में श्रीराम ने जामवंतजी को रावण को
आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा. जामवंतजी भी कुंभकर्ण की तरह
आकार में बहुत बड़े थे. वे जब लंका पँहुंचे तो लंका के प्रहरी भी हाथ जोड़कर
उनको रावण के महल की ओर जाने वाला मार्ग दिखा रहे थे. महल के द्वार पर स्वंय
रावण उनके अभिनंदन के लिए पहुँचा.
तब जामवंत जी ने
मुस्कुराते हुए कहा कि मैं इस अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ. मैं वनवासी श्री राम का दूत बनकर आया हूँ.
उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है. यह सुनकर रावण ने कहा, 'आप हमारे पितामह के भाई हैं. इस नाते आप हमारे पूज्य हैं. आप कृपया आसन ग्रहण करें. यदि
आप मेरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे, तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन
सकूँगा.'
जामवन्त ने आसन ग्रहण करने के बाद पुनः कहा, " हे रावण! वनवासी प्रभु श्री राम ने सागर सेतु निर्माण के उपरांत अब यथाशीघ्र
महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने का विचार प्रकट किया है". इस
अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचार्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है. मैं उनकी ओर से आपको
आमंत्रित करने आया हूँ."'
रावण ने जामवंत की यह
बात सुनकर हँसते हुए पूछा, 'क्या राम द्वारा शिवलिंग स्थापना लंका विजय की कामना से किया जा
रहा है?."
जामवंत ने कहा, " आपका अनुमान सही है. श्रीराम की महेश्वर
के चरणों में पूर्ण भक्ति है. जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को आचार्य बनने
योग्य जाना है. क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना
चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि
वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद
अस्वीकार कर दे?..कुछ देर रुकने के बाद जामवंत जी ने कहा " लेकिन हाँ... यह जाँच तो नितांत आवश्यक है ही कि
जब वनवासी श्री राम ने इतना बड़े आचार्य पद पर
पदस्थ होने हेतु आमंत्रित किया है, तब वह भी यजमान पद हेतु उचित अधिकारी हैं भी
अथवा नहीं".
जामवंतजी के इस तरह बात पर रावण थोड़ा क्रुद्ध
हो गया और उसने कहा,
'जामवंत जी। आप जानते ही
हैं कि त्रिभुवन विजयी अपने इस शत्रु की लंकापुरी में आप पधारे हैं. यदि हम आपको यहां बंदी बना
लें और आपको यहाँ से लौटने न दें तो आप क्या करेंगे?"
रावण के ये वचन सुनकर
जामवंत खुलकर हंसे और कहा, 'मुझे निरुद्ध करने की शक्ति समस्त लंका के दानवों के संयुक्त प्रयास
में नहीं है,
किन्तु मुझे किसी भी प्रकार की कोई विद्वत्ता प्रकट करने की
न तो अनुमति है और न ही आवश्यकता. "
कुछ देर रुकने के बाद
जामवंत जी बोले- " हे रावण! ध्यान रहे, मैं अभी एक ऐसे उपकरण के साथ यहाँ उपस्थित हूँ, जिसके माध्यम से धनुर्धारी लक्ष्मण यह हम दोनों की यह वार्ता देख और सुन रहे हैं. जब मैं
वहाँ से चलने लगा था ,तभी से धनुर्वीर लक्ष्मण वीरासन में बैठे हुए हैं,
उन्होंने आचमन करके अपने त्रोण से पाशुपतास्त्र निकाल कर संधान कर लिया
है और मुझसे कहा है कि जामवन्तजी! रावण से कह देना कि यदि आप में से किसी ने भी
मेरा विरोध प्रकट करने की चेष्टा की तो यह पाशुपतास्त्र समस्त दानव कुल के
संहार का संकल्प लेकर तुरन्त छूट जाएगा. इस कारण भलाई इसी में है कि
आप मुझे अविलम्ब वांछित प्रत्युत्तर के साथ सकुशल और आदर सहित धनुर्धर
लक्ष्मण के दृष्टिपथ तक वापस पहुँचने की व्यवस्था करें."
जामवंत के ये वचन सुनकर उपस्थित सभी दानवगण
भयभीत हो गए. रावण भी सोच में पड़ गया. वह भयभीत होकर सोचने लगा, पाशुपतास्त्र! महेश्वर का यह अमोघ अस्त्र तो सृष्टि में एक साथ दो धनुर्धर प्रयोग
ही नहीं कर सकते. अब भले ही वह रावण पुत्र मेघनाथ के त्रोण में भी हो. जब
लक्ष्मण ने उसे संधान स्थिति में ला ही दिया है, तब स्वयं भगवान शिव भी अब उसे रोक नहीं सकते.
उसका तो कोई प्रतिकार है ही नहीं "'
यह सोचते हुए रावण ने अपने क्रोध को संभालते हुए
जामवंत से सविनय कहा, 'आप पधारें. यजमान उचित अधिकारी है. उसे अपने दूत को
संरक्षण देना आता है. प्रभु श्री राम से कहिएगा कि मैंने उसका
आचार्यत्व स्वीकार कर लिया है. मैं समय पर पहुँच जाऊँगा."
रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा - आप पधारें । यजमान
उचित अधिकारी है। उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है. राम से कहिएगा कि मैंने उसका
आचार्यत्व स्वीकार किया.
जामवन्त को विदा करने
के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और
स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम
कर्त्तव्य होता है. रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और
क्या होना चाहिए?.
अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम
लंका विजय की कामना समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना
करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है . यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह
दायित्व आचार्य का भी होता है . तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ
के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं. विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना.
ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी. अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना. स्वामी का आचार्य अर्थात् स्वयं
का आचार्य। यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर
मस्तक झुका दिया . स्वस्थ कण्ठ से "सौभाग्यवती भव"
कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया.
सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से
समुद्र तट पर उतरा. आदेश मिलने पर आना कहकर सीता को उसने विमान में ही
छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचा. जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे.
सम्मुख होते ही वनवासी
राम आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया . "दीर्घायु भव" ! "लंका विजयी भव" ! दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया
.
सुग्रीव ही नहीं विभीषण को भी उसने उपेक्षा कर दी. जैसे वे वहाँ हों ही नहीं.
भूमि शोधन के उपरान्त
रावणाचार्य ने कहा कि यजमान ! अर्द्धांगिनी कहाँ है..?? उन्हें यथास्थान आसन दें
श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र
स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य
सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर
सकते हैं?
"अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं . यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था/ इन सबके अतिरिक्त तुम सन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन
वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है. इन परिस्थितियों में पत्नी रहित
अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो..?"
"कोई
उपाय आचार्य..??"
"आचार्य
आवश्यक साधन,
उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं.स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान
हैं ."
श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस
सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया. श्री रामादेश के परिपालन में विभीषण मंत्रियों
सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे.
"अर्द्ध
यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान. आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया. गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा
- लिंग विग्रह..???"
"यजमान
ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए
हैं . अभी तक लौटे नहीं हैं, आते ही होंगे."
आचार्य ने आदेश दे दिया- "विलम्ब नहीं किया जा सकता . उत्तम मुहूर्त उपस्थित है. इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालुका-लिंग-विग्रह
स्वयं बना लें."
जनक नंदिनी ने स्वयं के
कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट
लिंग-विग्रह निर्मित की.
यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया. श्री
सीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया. आचार्य ने परिपूर्ण
विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया.
अब आती है बारी आचार्य
की दक्षिणा की...!
श्रीराम ने पूछा -
"आपकी दक्षिणा.??"
पुनः एक बार सभी को
चौंकाया. आचार्य के शब्दों ने. " घबराओ नहीं यजमान. स्वर्णपुरी के स्वामी की
दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती.?"
"आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है, लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य कि जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की
प्रतिज्ञा करता है."
"आचार्य जब मृत्यु
शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे". आचार्य ने अपनी दक्षिणा
मांगी.
"ऐसा ही होगा
आचार्य" यजमान ने वचन दिया और समय
आने पर निभाया भी ।
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रामेश्वर से जुडी कथायें.
रामेश्वरम :
चार दिशाओं में स्थित
चार धाम हिंदुओं की आस्था के केंद्र ही नहीं बल्कि पौराणिक इतिहास
का आख्यान भी हैं. इन्हीं चार धामों में से एक है दक्षिण भारत का काशी
माना जाने वाला रामेश्वरम। यह सिर्फ चार धामों में एक प्रमुख धाम ही नहीं है,
बल्कि यहां स्थापित शिवलिंग को 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है. इस
शिवलिंग की स्थापना भगवान श्रीराम ने की थी इसलिए इसे रामेश्वरम कहा जाता
है.
रामेश्वर की अन्य कथा :
1.
पहली कथा : पौराणिक ग्रंथों के अनुसार जब भगवान श्री राम ने लंका पर चढ़ाई की तो विजय प्राप्त करने
के लिए उन्होंने समुद्र के किनारे शिवलिंग बनाकर भगवान शिव की पूजा की थी.
इससे प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ ने श्री राम को विजयश्री का आशीर्वाद
दिया था. आशीर्वाद मिलने के साथ ही श्री राम ने अनुरोध किया कि वे जनकल्याण
के लिए सदैव इस ज्योतिर्लिंग रूप में यहां निवास करें. उनकी इस प्रार्थना को भगवान
शंकर ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था.
2.दूसरी कथा : इस कथा अनुसार जब भगवान श्री राम लंका पर विजय प्राप्त कर लौट रहे थे तो उन्होंने गंधमादन
पर्वत पर विश्राम किया वहाँ पर ऋषि मुनियों ने श्री राम को बताया कि उन
पर ब्रह्महत्या का दोष है जो शिवलिंग की पूजा करने से ही दूर हो सकता है.
इसके लिए भगवान श्री राम ने हनुमान से शिवलिंग लेकर आने को कहा। हनुमान
तुरंत कैलाश पर पहुंचें. लेकिन वहां उन्हें भगवान शिव नजर नहीं आए अब हनुमान
भगवान शिव के लिए तप करने लगे उधर मुहूर्त का समय बीता जा रहा था. अंतत: भगवान
शिवशंकर ने हनुमान की पुकार को सुना और हनुमान ने भगवान शिव से
आशीर्वाद सहित शिवलिंग प्राप्त किया, लेकिन तब तक देर हो चुकी मुहूर्त निकल
जाने के भय से माता सीता ने बालु से ही विधिवत रूप से शिवलिंग का निर्माण कर
श्री राम को सौंप दिया, जिसे उन्होंने मुहूर्त के समय स्थापित किया.
जब हनुमान वहाँ पहुँचे
तो देखा कि शिवलिंग तो पहले ही स्थापित हो चुका है. इससे उन्हें बहुत बुरा लगा. श्री राम हनुमान की
भावनाओं को समझ रहे थे. उन्होंने हनुमान को समझाया भी लेकिन वे संतुष्ट
नहीं हुए. तब श्री राम ने कहा कि स्थापित शिवलिंग को उखाड़ दो तो मैं इस
शिवलिंग की स्थापना कर देता हूँ. लेकिन लाख प्रयासों के बाद भी हनुमान ऐसा न
कर सके और अंतत: मूर्छित होकर गंधमादन पर्वत पर जा गिरे. होश में आने पर
उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ तो श्री राम ने हनुमान द्वारा लाए शिवलिंग
को भी नजदीक ही स्थापित किया और उसका नाम हनुमदीश्वर रखा.
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देवाधिदेव महादेव शिव का प्रमुख व प्रिय
अस्त्र पाशुपतास्त्र
देवाधिदेव
महादेव शिव के अस्त्रों में महाविनाशक अस्त्र पाशुपतास्त्र
और त्रिशूल प्रमुख है। भारतीय पुरातन ग्रन्थों के अनुसार पाशुपतास्त्र एक अस्त्र
का नाम है जो अत्यन्त विध्वंसक है और जिसके प्रहार से बचना अत्यन्त कठिन है। यह
अस्त्र शिव,
काली और आदि परा शक्ति
का हथियार है,
जिसे मन, आँख, शब्द से या धनुष से छोड़ा जा सकता है। इस अस्त्र
को अपने से कम बली या कम योद्धा पर नहीं छोड़ा जाना चाहिये। पाशुपातास्त्र
सम्पूर्ण सृष्टि का विनाश कर सकता है। यह पशुपतिनाथ का अस्त्र है, जिसे उन्होंने ब्रह्माण्ड की सृष्टि से पहले ही
घोर तप करके आदि परा शक्ति से प्राप्त किया था। यह ब्रह्मास्त्र द्वारा रोका जा
सकता है किन्तु यह विष्णु के किसी अस्त्र को नहीं रोक सकता। पुरातन ग्रन्थों के
अध्ययन से इस सत्य का भी सत्यापन होता है कि पाशुपतास्त्र भगवान शिव का अस्त्र है, जिसे शिव से प्राप्त कर अश्वमेध यज्ञ के समय
श्रीराम ने शिव पर ही छोड़ दिया था, और अर्जुन ने महाभारत युद्ध से पहले शिव से
प्राप्त किया था।
त्रिशूल के बाद यह सबसे
शक्तिशाली शस्त्र है जिसके प्रहार से सारी सृष्टि नष्ट हो सकती है। अर्जुन ने यह
अस्त्र का उपयोग इसी कारण नहीं किया था। केवल शिव के अस्त्र या विष्णु का सुदर्शन
चक्र ही इसे निष्प्रभाव कर सकते हैं।
पुराणों के अनुसार त्रिशूल के अतिरिक्त, शिव के पास चार शूल वाला एक और परम शक्तिशाली
अस्त्र हैं,
जिसे पाशुपतास्त्र कहा
गया है। मान्यता हैं कि शिव पाशुपतास्त्र से दैत्यों का संहार करते हैं तथा युग के
अंत में इससे सृष्टि का विनाश करेंगे । पाशुपतास्त्र एक प्रकार का ब्रह्मशिर
अस्त्र हैं ।वस्तुतः ब्रह्मशिर अस्त्र एक प्रकार का ब्रह्मास्त्र है। सभी
ब्रह्मास्त्र ब्रह्मा द्वारा निर्मित अति शक्तिशाली और संहारक अस्त्र हैं।
ब्रह्मशिर अस्त्र साधारण ब्रह्मास्त्र से चार गुना शक्तिशाली हैं। साधारण
ब्रह्मास्त्र की तुलना आधुनिक परमाणु बम तथा ब्रह्मशिर अस्त्र की तुलना हाइड्रोजन
बम से की जा सकती हैं। ब्रह्मशिर अस्त्र के सिरे पर ब्रह्मा के चार मुख दिखाई पड़ते
हैं,
अतः दिखने में यह एक
चतुर्शूल भाला अथवा एक तीर हैं। इसे चार प्रकार से चलाया जा सकता हैं- संकल्प से , दृष्टि से , वाणी से और कमान से। शिव के पाशुपतास्त्र
(ब्रह्मशिर) में चार शूल हैं।
इतिहासकारों के अनुसार चतुर्शूल शिव की सवारी नंदी बैल के पैर के
निशान और शिव के हथियार त्रिशूल का मिश्रण है। पाशुपतास्त्र का मेघनाद ने रामायण कालीन राम-
रावण युद्ध में इस्तेमाल किया था। मेघनाद अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने
ब्रह्मदंड अस्त्र,
नारायणास्त्र और
पाशुपतास्त्र पर विजय प्राप्त की थी। पुरातन भारतीय शास्त्रों के अध्ययन से स्पष्ट
होता है कि पाशुपतास्त्र जब इस्तेमाल किया जाता था तो अपने आस-पास की सभी चीजों को
मिटा देता था। जब इसे चलाया जाता था तो कई दैत्य, शैतान, आत्माएं आ जाती थीं और इसे और शक्तिशाली कर देती
थीं। इसकी तुलना आज के समय के बायोलॉजिकल बम से की जा सकती है, जिसे एक बार चलाया जाए तो कई वायरस फैल जाते हैं
और टारगेट एरिया में मौजूद सभी चीजों को तबाह कर देते हैं। प्लेग, इबोला जैसी वायरस जनित अनेक तरह की बीमारियां
फैल जाती हैं।
पाशुपतास्त्र को भगवान शिव,
माता शक्ति और काली ये
तीनों देवतायें मन,
आंखे, शब्द, या फिर तीर से आवाहित कर सकते हैं । भगवान शिव
इसका उपयोग दुनिया के अंत में सब कुछ नष्ट करने के लिए करते हैं। शिव का यह अस्र
ब्रम्हास्त्र और ब्रम्हाशिर अस्त्र से भी ज्यादा विध्वंसकारी हैं । शिव स्वयं
महाकाल हैं,
उनमें इतनी शक्ति
व्याप्त है कि कोई उन्हें हरा नहीं सकता। विश्व का सबसे शक्तिशाली अस्त्र
पाशुपतास्त्र भी उन्ही के पास है। पशुपति शब्द का अर्थ होता है शिव या वह जो सभी
जीवितों का भगवान है। पाशुपतास्त्र के सामने कोई भी जीवित या मृत चीज टिक नहीं सकती, यहाँ तक ये ब्रह्मा के बनाये अस्त्र ब्रम्हास्र
और ब्रम्हाशिर को निगल सकता है। पुराणों के अनुसार आवाहित अथवा चलाये गये पाशुपतास्र का वर्णन एक
पैर,
बड़े दात 1000 सिर, 1000 धड़ और 1000 हाथ, 1000 आंखे और 1000 जिह्वाओं के साथ अग्नि की वर्षा करता है। यह
अस्त्र तीनों लोकों को एक साथ नष्ट कर सकता था।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार अश्वमेध यज्ञ के समय राजा वीरमनी की
रक्षा के लिए आये शिव को श्रीराम द्वारा चलाये गये पाशुपतास्त्र को अपने हृदय में
सहना पड़ा था। पाशुपतास्त्र सीधा शिव के हृदय स्थल में समा गया था। महाभारत युद्ध
से पहले अर्जुन ने भगवान शिव से इस प्राप्त किया था, शिव ने किरात अवतार लेकर पहले अर्जुन की परीक्षा
ली थी,
और इसके बाद ही
पशुपतास्र अर्जुन को दिया था। पाशुपतास्र देते समय शिव ने अर्जुन से कहा था यह अस्त्र किसी भी मनुष्य, देवता, देवताओ के राजा, यम, यक्षों के राजा, वरुण किसी के भी पास नहीं है। महाभारत युद्ध के
समय कर्ण के साथ भी पाशुपतास्त्र का उल्लेख है । इस अस्त्र को योद्धा किसी कम
ताकतवर दुश्मन पर चलाये तो यह तीनों लोकों की चल-अचल सभी चीजो को नष्ट कर देगा।
महाभारत काल में अर्जुन अकेला मनुष्य था जिसे पाशुपतास्त्र मालूम था। महाभारत में
एक और अस्त्र पाशुपत का उल्लेख आता है, जो भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण को पता था, जो भगवान् शिव से सम्बंधित था। शिव पाशुपतास्त्र
को आँखों,
दिल या शब्दों से भी
आवाहित कर सकते थे,
परन्तु उन्होंने जो
पाशुपतास्त्र अर्जुन को दिया था, वह पाशुपतास्त्र दिव्य तीर और धनुष के रूप में
दिया था। कुछ विद्वानों के अनुसार अर्जुन ने इस अस्त्र से जयद्रथ का वध किया था।
परन्तु इसके बारे मे विद्वानो मे मतभेद है। कुछ विद्वान मानते हे कि उस समय सिर्फ इसका
उल्लेख किया गया था।
उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने यह अवश्य कहा था कि अगर तुम्हें पाशुपतास्त्र
स्मरण है तो तुम जयद्रथ का निश्चित ही वध करोगे। पर इसका उपयोग करने का स्पष्ट
उल्लेख महाभारत में नहीं मिलता, और कई विद्वानों के अनुसार जिस अस्त्र का उपयोग
अर्जुन ने किया था,
वो पाशुपतास्र से
बिलकुल मेल नहीं खाता। ऐसा भी कहा जाता है कि रामायण युद्ध के समय रावणपुत्र
मेघनाद ने इस अस्त्र का उपयोग लक्ष्मण पर किया था, पर वाल्मीकि रामायण के सांगोपांग अध्ययन से किये
हुये अस्त्र का वर्णन रुद्रास्त्र और महेश्वरास्त्र के वर्णन से मेल खाता है। इसके साथ ही श्रीराम के पास भी पाशुपतास्त्र था।
जब ऋषि वशिष्ट और शुक्राचार्य के मध्य युद्ध हुआ था तब शुक्राचार्य द्वारा चलाये
पाशुपतास्त्र ने रूशी वशिष्ट के ब्रम्हास्त्र और ब्रम्हाशिर अस्त्र सहित सभी
अस्त्रों को नष्ट कर दिया था, और आखिर में वशिष्ट को ब्रम्ह्दंड का उपयोग करना
पड़ा था। महाभारत तथा भारवि की काव्यग्रंथ कीरातार्जुनीयम् की कथा में पाण्डु पुत्र
अर्जुन और किरात वेशधारी शिव के मध्य लड़ाई की कथा अंकित है, जिसमे किरात वेशधारी शिव को लड़ाई के पश्चात
पाशुपतास्त्र देने की बात आई है । भारवि ने तो महाभारत वनपर्व के पाँच अध्यायों से
पांडवों के वनवास के समय अमोघ अस्त्र के लिए अर्जुन द्वारा की गई शिव की घोर
तपस्या के फलस्वरूप पाशुपतास्त्र प्राप्त करने के प्रसंग को उठाकर उसे अठारह
सर्गों के इस महाकाव्य का रूप दे दिया है ।
कथा के अनुसार वनवास के समय भविष्य के युद्ध के लिए पांडवों को
शक्ति-संवर्धन करने की व्यास की सलाह पर उनके बताए गए उपाय के अनुसार अर्जुन
शस्त्रास्त्र के लिए अपने औरस पिता इंद्र को तप से प्रसन्न करने के लिए एक यक्ष के
मार्गदर्शन में हिमालय-स्थित इन्द्रकील पर्वत की ओर चल पड़ते हैं। तपस्या के
फलस्वरूप इंद्र अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर अर्जुन को मनोरथ-पूर्ति के लिए शिव
की तपस्या करने की सलाह देते हैं। अर्जुन फिर से घोर, निराहार तपस्या में लीन हो जाते हैं। अर्जुन
इंद्रकील के लिए एक अजनबी तपस्वी है, और उसके वेश को देख उसे मुनिधर्म-विरोधी समझकर
वहाँ के अन्य तपस्वी आतंकितहो शंकर के पास निवेदन के लिये पहुँच जाते हैं।उसी क्रम
में शिव किरातों की स्थानीय जनजाति के सेनापति का वेश धारणकर किरातवेशधारी अपने
गणों की सेना लेकर अर्जुन के पास पहुँच जाते हैं। तभी मूक नामक एक दानव अर्जुन की
तपस्या को देवताओं का कार्य समझकर, विशाल शूकर का शरीर धारणकर, उसको मारने के लिए झपटता है। शिव और अर्जुन
दोनों द्वारा एक साथ चलाए गए एक-जैसे बाण से उस सूअर की इहलीला समाप्त हो जाती है।
शिव का बाण तो उसके शरीर को बेधता हुआ धरती में धँस जाता है और अर्जुन जब अपना बाण
उसके शरीर से निकालने जाते हैं तो शिव अपने एक गण को भेजकर विवाद खड़ा करा देते
हैं। परिणामतः दोनों के बीच युद्ध आरम्भ हो जाता है। अर्जुन गणों की सेना को तो
बाण-वर्षा से भागने को मजबूर कर देते हैं पर शिव के साथ हुए युद्ध में परास्त हो
जाते हैं। पराजय से हताश अर्जुन किरात-सेनापति के वेश में शिव को पहचानकर समर्पण
कर देते हैं,
जिससे प्रसन्न होकर शिव
प्रकट होते हैं और पाशुपतास्त्र प्रदान कर उसका प्रशिक्षण देते हैं।
पाशुपतास्त्र के नाम से एक स्तोत्र भी उपलब्ध है। यह स्तोत्र अग्नि
पुराण के 322
वें अध्याय में अंकित
है। ऐसी मान्यता है कि यह पाशुपतास्त्र स्तोत्र जीवन के हर क्षेत्र में विजय
दिलवाता है । इस पाशुपतास्त्र स्तोत्र का मात्र एक बार जप करने पर ही मनुष्य समस्त
विघ्नों का नाश कर सकता है। सौ बार जप करने पर समस्त उत्पातों को नष्ट कर सकता है
तथा युद्ध आदि में विजय प्राप्त कर सकता है। इस मंत्र का घी और गुग्गल से हवन करने
से मनुष्य असाध्य कार्यों को पूर्ण कर सकता है । यह अत्यन्त प्रभावशाली व शीघ्र
फलदायी प्रयोग है। यदि मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करता है तो अवश्य लाभ मिलता है ।
शनिदेव शिव भक्त भी हैं और शिव के शिष्य भी हैं। शनि के गुरु शिव होने के कारण इस
अमोघ प्रयोग का प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है। यदि किसी साधारण व्यक्ति के भी गुरु की
कोई आवभगत करें तो वह कितना प्रसन्न होता है। फिर शनिदेव अपने गुरु की उपासना से
क्यों नहीं प्रसन्न होंगे? इस स्तोत्र के पाठ से भगवान शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं और शिव की
प्रसन्नता से शनिदेव खुश होकर संबंधित व्यक्ति को अनुकूल फल प्रदान करते हैं।
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वानराणां हि सा तीर्णा वाहिनी नलसेतुना * तीरे निविवेशे राज्ञो
बहुमूलफ़लोदके (87.वा.रा.द्वाविंश सर्गः)
महासागर पर बने सेतु को पार करते
हुए विशाल सेना, अपने प्रभु श्रीराम जी के
नाम का जयघोष करते हुए लंका की सीमा में
प्रवेश किया और पड़ाव डाला. तत्पश्चात शिविर निर्माण के कार्य में जुट गयी. चुंकि
पुल निर्माण के समय, वानर सेना के किसी भी सदस्य ने, न तो जल का सेवन किया था और न
ही भोजन पाया था. अच्छा खासा श्रम करने के बाद अब लग आयी थी करारी भूख. सो अपने
राजा सुग्रीव जी की अनुमति प्राप्त कर, सारे वानर वनों में घुस गए और जी भर के
नाना प्रकार के सुस्वादु फ़लों को खाकर अपनी क्षुधा बुझाने लगे.
निमित्तानि निमित्तज्ञो
दृष्टवा लक्ष्मणपूर्वजः :: सोमित्रिं
सम्परिश्वज्य इदंवचनमब्रवीत (1,त्र्योविशः सर्गः)
लंका के प्रवेश करने के
पश्चात प्रभु श्रीराम एक शिला पर विराजमान होकर आनन्द मनाते अपने सैनिकों को निहार
रहे थे. वे स्वयं तो प्रसन्न हो ही रहे थे, साथ ही अपने विश्वस्त साथियों की
प्रसन्नता को देखकर उनकी प्रसन्नता द्विगुणित हो उठी .
उन्हें
अपनी प्राणप्रिया जनकनन्दिनी की भी याद हो आयी. याद हो आए वे सुनहरे पल, जो
उन्होंने सीताजी के साथ रहते हुए व्यतीत किए थे. हर एक घटना का दृष्य उनके नेत्रों
के समक्ष, किसी चलचित्र की तरह चलायमान होने लगे . उन्होंने मन-ही-मन सीताजी को
संदेशा भेजते हुए कहा- " सीते ! मैं आ चुका हूँ...बस अब कुछ ही दिनों में
हमारा मिलन होगा. तुम अपनी प्राणों की ऊर्जा को बनाए रखना. मैंने लंका में प्रवेश
कर लिया है......रावण के सहित समूची दानव सेना को मार कर, मैं तुम्हें शीघ्र ही
लिवा लाने के लिए अपने विश्वस्त दूतों को भिजवाऊँगा." मन ही मन में कहते हुए उनके नेत्रों से अश्रु
बह निकले.
यादों की
श्रृँखला अभी टूटी भी नहीं थी कि अकस्मात धूल- भरी प्रचण्ड वायु चलने लगी. धरती
कांपने लगी. पर्वतों के शिखर हिलने लगे और पेड़ पृथ्वी से उखड़-उखड़ कर गिरने लगे.
आकाश काले बादलों से ढंक गया. ये काले बादल किसी मांस-भक्षी राक्षसों के समान
दिखाई दे रहे थे. देखने में मेघ क्रूर तो थे ही, इनकी गर्जना भी बड़ी कठोर थी.
क्रूर पशु-पक्षी दीनता से सूर्य की ओर मुँह करके दीनतापूर्ण स्वर में चीत्कार करते
हुए, भय का वातावरण निर्मित कर रहे थे.
श्रीराम
ने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा-" भ्राता लक्ष्मण ! ये सारा दृष्य देखकर मुझे
लगता है, मानों जगत के संहार की सूचना दे रहे हैं. कौवे, बाज, और गीद चारों दिशाओं
में उड़ते हुए भयंकर बोली बोल रहे हैं. मुझे तो ऐसा भी लगता है कि युद्ध की
विभीषिका में यहाँ की सारी भूमि रक्त और मांस से पट जाएगी."
"
हे भ्राता ! क्यों न हम आज ही, जितनी जल्दी हो सके, इस दुर्जय लंका पर समस्त
वानरों के साथ वेगपूर्वक धावा बोल दें." रामजी ने अपने अनुल लक्ष्मण से
परामर्श करते हुए अपने विचार प्रकट किए.
"
आपका कथन उचित है भैया ! हम शीघ्र ही लंका पर धावा बोल देते हैं." लक्ष्मण ने
अपनी सहमति जताते हुए कहा.
रामजी ने
अपना धनुष हाथ में लिया और सबसे आगे चलते हुए लंका की ओर प्रस्थित हुए.. उनके ठीक
पीछे विभीषण, सुग्रीव और वीर हनुमान गर्जना करते हुए आगे बढ़े.
ये
सब-के-सब अपने आराध्य रामजी का प्रिय करना चाहते थे. इन बलशाली वानरों की सहमति
प्राप्त कर उन्हे बड़ा संतोष हुआ.
०००००
दृष्ट्वा दाशरर्थिर्लंका
चित्रध्वजपताकिनीम् * जगाम मनसा सीतां दुयमानेन चेतसा.(6.चतुर्विशः सर्ग्)
अपने वीर
योद्धाओं के साथ लंका में प्रवेश करते हुए दशरथनंदन रघुनाथ जी ने विभिन्न
ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित लंकापुरी को देखा. देखते ही उनका मन व्यथित होने लगा. पल
भर को एक स्थान पर रुकते हुए उन्हें जनकनन्दिनी सीताजी का स्मरण करते हुए मन-ही-मन
में कहने लगे-" हाय ! यही वह स्थान है जहाँ मेरी प्राणप्रिया सीता, रावण के
कैद में पड़ी है. उसकी दशा मंगलग्रह से आक्रान्त हुई रोहिणी के समान हो रही
होगी." क्षणमात्र को आये इस विचार ने उन्हें उद्वेलित कर दिया. स्वांस तेजगति
से चलने लगी और दिल जोरों से धड़कने लगा था. किसी तरह अपने आप पर नियंत्रण करते हुए
उन्होंने लंबी गहरी साँस लेते हुए उन्होंने अपने अनुज लक्ष्मन से कहा-"
लक्ष्मण ! जरा लंका की ओर देखो तो सही. मुझे यह आकाश में चित्र-लिखित-सी दिखाई दे
रही है. पूर्वकाल में विश्वकर्मा ने पर्वत शिखर पर सतमंजिला पुरी का निर्माण बड़े
ही मनोयोग से किया है..चैत्ररथ वन के सदृश यह लंकापुरी कितनी शुशोभित हो रही है.
यहाँ नाना प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे हैं.फ़ूलों और फ़लों से भरपूर यह नगर सुंदर
जान पड़ता है. शीतल,सुगन्धित वायु के झकोरे पवहमान हो रहे हैं, मतवाले पक्षी चहचहा
रहे हैं. कोकिला के समूह की कुहूक से समूचा वनाप्रांत गुंजायमान हो रहा है.
लंकापुरी की जितनी भी प्रसंशा की जाए, कम ही पड़ेगी."
लंकापुरी
के वैभव को जी भर के निहारने के बाद युद्धकला में निष्नात रामजी ने लक्ष्मण को आदेशित करते हुए
कहा-" अनुज लक्ष्मन ! अब हमें अपनी सेना
को युद्ध के शास्त्रीय नियमानुसार सुसज्जित कर देना चाहिए. तुम पराक्रमी
अंगद को नील के साथ वानरसेना के पुरुषव्यूह में हृदयस्थान में नियुक्त करो. इसी
तरह ऋषभ नामक वानर कपियों के समूदाय से घिरे इस वानर-वाहिनी के दाहिने पार्श्व में
खड़ा करें. गंधहस्ती के समान दुर्जय एवं वेगशाली कपिश्रेष्ठ गन्दमादन को सेना के पार्श्व में खड़ा करें. मैं
तुम्हारे साथ रहकर इस व्यूह के मस्तक के स्थान में खड़ा हौऊँगा. जाम्बवान, सुषेण और
वेगदर्शी- ये तीनों वीर रीछों की सेना के प्रधान हैं, वे कुक्षीभाग में रहकर उसकी
रक्षा करेंगे. वानरराज सुग्रीव वानरवाहिनी के पिछले भाग में उपस्थित रहकर पश्चिम
दिशा का संरक्षण करेंगे."
इस
प्रकार व्यूहरचना करने के बाद उन्होंने आज्ञा दी कि वानरलोग लंका के पर्वत शिखरों
पर चढ़ जाएं और बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़कर चढ़ाई करें. विरोध में उतरे लंकावासियों
को मुक्के मार-मार कर यमलोक पहुँचा दें. फ़िर लक्ष्मण को आदेश दिया कि हमारे बंधन
में बंधे हुए शुक को बंधनमुक्त कर दें"
०००००
रामजी की
आज्ञा से बंधनमुक्त होते ही शुक ने आकाश में छलांग लगायी और अपने पंख फड़फड़ाते हुए
राक्षसराज रावण के पास जा पहुँचा. रावण ने उसकी दुर्दशा पर दुःख जताने की बजाय
उसका उपहास उड़ाते हुए पूछा- "शुक ! तुमने अपना ये क्या हाल बना रखा है?.
तुम्हारे दोनों पंख क्यों बांध दिए गए
हैं? लगता है किसी ने तुम्हारे पंखों को नोच डाला है?. ऐसा तो नहीं कि तुम चंचल
वानरों के चंगुल में तो नहीं फंस गये थे?.
भय से
घबराये हुए शुक ने राक्षसराज रावण से कहा-" हे महाराज ! समुद्र-तट पर पहुँचकर
मैंने आपका संदेशा देना चाहा, लेकिन मुझ पर दृष्टि पड़ते ही
वानरों ने मुझे पकड़ लिया और लात-घूसों से मारना और पंख नोचना आरम्भ कर दिया."
"
हे महाराज ! वे वानर स्वभाव से ही क्रोधी और तीखें हैं. फ़िर पूछने का अवसर ही नहीं
मिल पाया कि वे लोग मुझे मार क्यों रहे हैं?.
"
हे लंकेश ! दशरथनंदन श्रीराम अपनी विशाल वानर सेना को साथ लेकर, लवणसागर के तट पर
खड़े हैं. उनके साथ आए हुए सैनिकों की संख्या अनगिनत है. उस विशाल समूह को देखकर
लगता है कि सारी पृथ्वी केवल रीछ और भालुओं के पटी पड़ी है."
"
हे असुरराज ! जिस प्रकार से देव और दानवों में मेल होना असंभव है, उसी प्रकार से
महाराज सुग्रीव और राक्षसों के बीच संधि कदापि नहीं हो सकती."
"
हे लंकेश ! मेरा आपसे उचित और न्यायसंगत परामर्श है कि आप सीताजी को तत्काल लौटा
दें या फ़िर रणभुमि में जाएं और सामने खड़े रहकर इनसे युद्ध करें."
रावण सब
कुछ सुन सकता है, लेकिन उसे कोई ज्ञान बताए, यह वह कभी स्वीकार नहीं कर सकता. रावण
के टुकड़ों पर पलने वाले शुक की तो कभी
नहीं?. शुक का परामर्श उसे पसंद नहीं आया. सुनते ही उसके कान गरम होने लगे और
आँखें रोष से लाल-लाल, अंगारे के समान
दहकने लगी.
रावण ने
उसे गर्जते हुए कहा-" मूर्ख शुक ! बंद कर अपना निरर्थक प्रलाप. देव हो या
दानव,या फ़िर कोई गन्धर्व, मुझसे युद्ध करने की बात सपने में भी नहीं सोच सकता और
तू है मुझे ज्ञान सिखानेवाला कि सीता को यूंहि लौटा दूँ. यह किसी भी कीमत पर संभव
नहीं है. समझा तू?."
"
मेरे तीखे बाणॊं की मार वह वनवासी राम सहन नहीं कर पाएगा. अभी उसने समरभूमि में
मेरे बल का अनुभव नहीं किया है, इसलिए वह मेरे साथ युद्ध करना चाहता है. मेरे तरकश
में सोये हुए बाण विषधर सर्पों के समान हैं, राम ने उन्हें देखा नहीं है और मुझसे
युद्ध करने निकल पड़ा है. उसे कभी युद्ध में मेरे बल और पराक्रम से पाला नहीं पड़ा
है, इसीलिए वह मेरे साथ लड़ने का हौसला रखता है."
"शुक
! मेरा धनुष किसी वीणा से कम नहीं है. जब उसकी प्रत्यंजा से जो टंकार- ध्वनि उठती
है, उसकी स्वर-लहरी बड़ी भयंकर है. आंतो की चीत्कार और पुकार ही उस पर उच्च-स्वर से
गाया जाने वाला गीत है. नराचों को छोड़ते समय जो चट-चट शब्द होता है, वही मानों
हथेली पर दिया जाने वाला ताल है. बहती हुई नदी के समान जो शत्रुओं की वाहिनी है.
समरांगण में उस रंगभूमि के भीतर प्रवेश करके मैं अपनी भयंकर वीणा बजाऊँगा."
"
यदि समरभूमि में सहस्त्रधारी इन्द्र अथवा साक्षात वरूण या स्वयं यमराज अथवा मेरे
बड़े भाई कुबेर भी आ जाएं तो भी वे बाणाग्नि से मुझे पराजित नहीं कर सकते."
०००००
शुक ने
सारा समाचार लंकेश को सुना दिया, तिस पर भी रावण को संतोष नहीं हो रहा था. वह
चाहता था कि युद्ध प्रारम्भ हो, उससे पहले शत्रु-पक्ष की ताकत और कमजोरी का पता
लगाया जाना चाहिए. तदानुसार वह अपनी सेना
की व्यूह रचना कर पाएगा.
उसने शुक
के साथ सारण को बुला भेजा और कहा-" सारण ! समुद्र को पार करना अत्यन्त ही
कठिन था तो फ़िर राम की सेना इसे लांघकर इस पार कैसे चली आयी?. उफ़नते-गरजते सागर पर
सेतु का बांधा जाना अभूतपूर्व कार्य है. तुम लोगों के मुँह से सुनकर भी विश्वास
नहीं हो रहा है कि पुल बांधा गया होगा. जैसा कि शुक ने बतलाया कि राम के पास
अनगिनत योद्धा हैं. आखिर वे हैं कितने?.
इसे ज्ञात करना मेरे लिए बहुत आवश्यक है."
"तुम
दोनों मायावी हो. तुम किसी तरह वानर-सेना में प्रवेश करो, पर इतना ध्यान रहे कि
तुम्हें अबकी बार कोई पहचान नहीं पाये. वहाँ जाकर पता लगाओं कि वानरों की संख्या
कितनी है? उनकी शक्ति कैसी है?. श्रीराम और सुग्रीव के कौन-कौन-से मंत्री हैं?.
कौन-कौन शूरवीर सेना के आगे रहंगे?. इस अगाध जलराशि से भरे हुए समुद्र में पुल
कैसे बांधा गया? और वानरों की छावनी कैसी बनी है?."
"
राम और लक्ष्मण युद्ध को लेकर क्या सोच रहे हैं.? वे किस तरह की नीति बना रहे
हैं?. उनके बल-पराक्रम कैसे हैं?. उन दोनों के पास कौन-कौन-से उत्तम अस्त्र-शस्त्र
हैं. वानरों का सेनापति कौन है?. इन सब बातों की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त करो और सबका
यथार्थ ज्ञान हो जाने पर शीघ्र ही लौट आओ."
अपने
स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए दोनों ने वानर का रूप धारण किया और वानर-सेना
में प्रविष्ट हो गए. वानर के रूप में दोनों सेना में घुस तो गए लेकिन वानरों की
कितनी संख्या है, गिनना तो दूर रहा, उसका अंदाजा लगाना भी असम्भव था. उस अपार सेना
को देखकर दोनों के रोंगटे खड़े हो गए.
वानरों
की सेना पर्वत के शिखरों पर, झरनों के आसपास, गुफ़ाओं में, समुद्र के किनारे, तथा
वन और उपवनों में फ़ैली हुई थी. सेना का कुछ भाग समुद्र लांघकर इस पार आ गए था और
कुछ समुद्र पार करने की तैयारी में लगे था. विशाल सेना कुछ् जगहों पर शिविर डाल
चुकी थी और कुछ स्थानों में शिविर बनाए जा रहे थे.
चारों तरफ़ भयंकर कोलाहल
मचा हुआ था. इसका फ़ायदा उठाकर दोनों किसी तरह छिपते-छिपाते सेना का निरीक्षण कर
रहे थे. तभी महामना विभीषण ने उन दोनों को देखते ही पहचान लिया. विभीषण ने कुछ
सैनिकों को भेजा कि इन दो वानरों पकड़ कर ले आओ. दोनों पकड़ लिए गए और उन्हें रामजी
के सन्मुख उपस्थित किया गया.
विभीषण ने रामजी को अवगत
कराते हुए कहा-" हे नरेश्वर ! ये दोनों लंका से आए हुए वानर शुक और सारण हैं.
अपनी मायावी शक्ति से इन दोनों का वानर रुप धारण किया है और हमारे सैन्य-बल के
विषय में जानकारियाँ प्राप्त कर रहे हैं.
रामजी ने कहा- " हे
महात्मा विभीषण ! कृपया इन दोनों वानरों को छोड़ दीजिए. इन बेचारों का क्या दोष है,
ये तो अपने स्वामी की आज्ञा पालन करने के लिए ही तो आए हैं." फ़िर हँसते हुए
उन दोनों से कहा-" तुम दोनों ने हमारी सारी सेना देख ही ली है और हमारे
सैनिकों की शक्तियों को भी परख लिया है.
बावजूद इसके, अभी तुम और कुछ देखना चाहते हो तो फ़िर से एक बार देख लो."
"यदि तुम्हें लगता है
कि और भी जानकारी जुटानी शेष रह गयी होगी, तो महात्मा विभीषण तुम्हें सब कुछ पुनः
पूर्वरुप से दिखा देंगे. सन्तुष्ट हो जाने के बाद ही तुम यहाँ से प्रसन्नतापूर्वक
लौटना".
" चुंकि तुम दोनों इस
समय पकड़ लिए गए हो, इससे तुम्हें अपने जीवन के विषय में कोई भय नहीं होना चाहिए,
क्योंकि तुम दोनों बिना किसी शस्त्र के पकड़े गए हो. फ़िर तुम दोनों दूत हो, अतः वध
करने योग्य नहीं हो".
रामजी का आश्वासन पाकर, भय
थोड़ा कम जरुर हुआ था. बावजूद इसके दोनों कांप रहे थे, और रघुनाथ जी के समक्ष हाथ
जोड़े, प्रणाम की मुद्रा में खड़े थे.
रामजी ने विभीषण को
सम्बोधित करते हुए कहा-" विभीषण ! ये दोनो गुप्तचर रावण की आज्ञा से हमारा
भेद लेने आए थे. ये दोनों वानर-सेना में फूट डालने का प्रयास कर रहे थे. अब तो
इनका भंडा फूट चुका है, अतः इन्हें छोड़ दो".
राम की आज्ञा पाकर विभीषण
ने तत्काल उन दोनों को बंधनमुक्त कर दिया. बंधनमुक्त होते ही दोनों आकाश मार्ग से
उड़ान भरने लगे, इससे पहले रामजी ने उन्हें रोकते हुए कहा-" शुक और सारण ! तुम
दोनों मेरी ओर से अपने स्वामी लंकेश को यह संदेश जरुर सुनाना- " रावण ! जिस मायावी शक्तियों का प्रयोग कर मेरी
प्राणप्रिया सीता का अपहरण किया है, उसे अब सेना और बंधुओं सहित आकर इच्छानुसार मुझे दिखाओ. कल प्रातःकाल ही तुम, परकोटे और दरवाजों
सहित लंकापुरी तथा राक्षसी सेना का मेरे बाणॊं से विध्वंश होता हुआ देखोगे".
"रावण ! जैसे
वज्रधारी इन्द्र दानवों पर अपना वज्र छोड़ते हैं, उसी प्रकार से मैं कल सबेरे ही
सेनासहित तुम पर अपना क्रोध छोडूँगा".
रामजी का
संदेश पाकार दोनों ने प्रभु श्रीराम का गुणानुवाद करते हुए कहा- " प्रभु आपकी
जय हो...आपकी जय हो". ऐसा कहते हुए
वे आकाश मार्ग से लंका की ओर
प्रस्थित हुए.
०००००
तद्वचः
सत्यमक्लीबं सारणेनाभिभाषितम् **निशम्य रावणॊं राजा प्रत्यभाषत सारणम् (1.वा.रा.षड़विशः सर्ग)
"
लंकापति रावण की जय हो....लंकेश की जय हो". जय का उद्घोष करते हुए शुक और
सारण ने रावण के दरबार में उपस्थित होकर प्रणाम किया
"अच्छा...तो
तुम दोनों शीघ्र ही लौट आए?. तुम दोनों सकुशल दीख रहे हो. क्या इस बार चंचल और
उधमी वानरों ने तुम दोनों को परेशान तो नहीं किया?. पिछली बार शुक राम की
सैन्य-शक्ति को परखने के लिए गया था, तो उसे मार-मार कर अधमरा कर दिया था और उसके
पंख भी नोच डाले थे. लगता है, इस बार वानरों ने तुम दोनों के साथ दुर्व्यवहार नहीं
किया.?" रावण ने जानना चाहा.
अस मैं
सुना श्रवन दशकंधर * पदुम अठारह जूथप बंदर.(तुलसी (54/2 सुंदरकाण्ड)
सारण ने
दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा-" हे लंकेश ! हम दोनों ने अपनी मायावी शक्ति से वानर
का रूप धारण करके किसी तरह वानर सेना में प्रवेश तो पा लिया था,लेकिन हम उनकी
वास्तविक गिनती लगाने में सर्वथा असमर्थ ही रहे हैं. हम जिस ओर भी जाते, भारी
संख्या में वानर ही वानर दिखलाई दे रहे थे. अंख्य वानर शिविर बना चुके थे. कुछ
वानर शिविर तैयार करने में लगे थे. समुद्र के तट पर और समुद्र से उस पार तक अनगिनत
वानर हमें दिखाई दिए."
"
हमने पूरा-पूरा प्रयास किया,लेकिन आपके भ्राता विभीषण जी की पैनी नजरों से हम छिपे
नहीं रह सके और पकड़ लिए गए और रामजी के सन्मुख लाकर खड़े कर दिये गए."
"
हे लंकेश ! प्रभु श्रीराम सचमुच में दयालु हैं. यह जानते-बूझते भी उन्होंने हमें
बंधन-मुक्त कर दिया और कहा कि दूत होने के कारण, हम तुम्हें अभयदान देते हैं और
पुनः इतनी स्वतंत्रता भी देते हैं कि यदि तुम मेरी सेना की सही-सही गिनती करना
चाहो, तो फ़िर एक बार और कर लो और लौट जाओ. महात्मा विभीषण इसमें तुम्हारी सहायता
करेंगे."
"
हे लंकेश ! जैसा कि मैंने सुना है कि रामजी के सेना में 18 पद्म सेनापति ही हैं.
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वानरों
की संख्या.
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पारियात
पर्वत के गव गवाक्ष की 80 शंख सात सौ वानर. (२) रेवत
पर्वत और कदली वन के दुर्द्धुर और गज वानर की सात पद्म, अस्सी करोड़, (३) बलवीर
वानर की 23 लाख साठ हजार एक सौ वानर (४) धुंदमाल पर्वत के
सिखण्डी नामक वानर की 56 करोड़. (५) अर्जुन गिरि के कुमुद
वानर की चार पद्म,87 लाख (६) तावगिरि के नील नामक वानरों की
सोलह लाख (७) बद्री पर्वत के गन्द मादन वानरों की संख्या ग्यारह अरब.(८) अर्जुन
गिरि के तारा बखत की 87 करोड़ 90 लाख (९) सुमेरे गिरि के केशरी नामक -दस
करोड़ नौ लाख छब्बीस हजार.(१०) कैलाश पर्वत के पुलिन्द और जय विजय और अण्ड नामक
वानर -सत्रह शंख बीस करोड़,(११) विन्ध्यांचल पर्वत की बाण और वसंत नामक वानरों की संख्या- ग्यारह
करोड़ एक लाख.(१२) विजयगिरि से रतिमुख नामक वानर- आठ पद्म, नौ सौ इक्कियासी.(१३)
कासगिरि के मुद्मायन्द की- एक पद्म एक करोड़.(१४) जाम्बवंत गिरि पर जाम्बवंत और
उसके भाई धूमकेतु की आठ शंख, पांच सौ करोड़. तत्काल विद्यमान वानरी सेना तथा शेष
छप्पन करोड़ अन्य पर्वतों पर बिखरित वानरी सेना (१५) धौलागिरि से द्विविध वानर की
एक करोड़ पच्चीस लाख, (१६)उद्याचल पर पनस से मिले सुशेण वानर की सात पद्म, अस्सी
करोड़ (१७) कज्ज्लगिरि से तीन करोड़,(१८) अस्ताचल से दस करोड़ (१९) कैलाश पर्वत से दस
करोड़ (२०) हिमालय से एक नील (२१) विन्ध्यांचल से दस अरब वानर.
नोट-
प्रमाण- विश्रामसागर, रामायण खण्ड किषिकन्धा कांड अध्याय उन्नीस के अनुसार.)
वाल्मीकि
रामायण- सर्ग छब्बीस
(26 ) में सारण का रावण को पृथक-पृथक नर- वानर
यूथपतियों का परिचय दिया गया है. सताईस वें (27)सर्ग
में वानरसेना के प्रधान यूथपरियों का परिचय. विस्तार से दिया गया
है.अठ्ठाईस वें सर्ग में शुक के द्वारा सुग्रीव के मंत्रिओं, मैन्द, द्विविद,
हनुमान, श्रीराम, लक्ष्मण, विभीषण और सुग्रीव का परिचय देकर वानरसेना की संख्या का
निरुपण विस्तार से दिया गया है.
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एक सहज
प्रश्न-
सामान्य
के मन में एक प्रश्न का उठना स्वभाविक है कि जब आकाशवाणी सुनकर ब्रह्माजी ने सभी
देवताओं को वानर रूप रखकर भगवान राम के आने की प्रतीक्षा करने हेतु पृथ्वी पर
भेजा, तो उन वानरों की संख्या तो मात्र तैतीस करोड़ होनी चाहिए क्योंकि देवताओं की
संख्या तैतीस करोड़ ही बताई गई है. जब तैतीस करोड़ देवताओं ने वानर स्वरूप रखा तो
फ़िर वानरों की इतनी बड़ी सेना कहां से आयी?.
वानर
तनु धरि धरि महि * हरि पद सेवहु जाई.( तुलसी रामायण दोहा -187)
इस
संबंध मे यथामति मात्र इतना उल्लेख करना कदाचित आप सबके लिए पर्याप्त होगा कि
तैतीस करोड़ देवताओं ने भगवान की सेवा करते हुए स्वयं अपने असंख्य रूप धारण किए की
उन्हें प्रभु रामकी सेवा करने का लाभ अधिक से अधिक मिले. इस निमित्तदेवताओं ने
करोड़ो-करोड़ों वानर स्वरूप रखकर राम की सेवा का पुण्य लाभ लिया. उक्त के अतिरिक्त
इन वानरों ने ही पृथ्वी के अन्य सामान्य एवं असमान्य छोटे-बड़े अन्य वानरों को भी
राम के काज के लिए सहयोग में लगाने हेतु एकत्रित किया. अतः सेना की इस विशालता पर
संदेह नहीं करना चाहिए. यह प्रमाण अतिश्योक्ति नहीं है. ईश्वर की कथा एवं चरित्र
की विराटता में कहीं भी संदेह को स्थान नहीं है. जैसे राम और रावण के युद्ध में
भगवान शिव को कई रूप रखना पड़ा. उदाहरणार्थ- हनुमान के रूप में शिव, पार्वती के साथ
में शिव और रामेश्वरम में शिव तथा रावण एवं मेघनाथ भक्त के लिए आराध्य भगवान शिव.
इसी प्रकार अयोध्या में भगवान राम को भी एक साथ ग्रामवासियों से मिलने के लिए भी
अमित रूप रखने पड़े थे. ( अमित रूप प्रगटे तेहि काला....जथा जोग मिले सबहिं
कृपाला.) इस प्रकार से देवताओं ने भी अपने असंख्य रूप रखकर, राम की वानर स्वरूप से
सेवा किया.
अब
रही वाल्मीकि रामायण एवम विश्राम सागर के मतों में विभिन्नता की बात तो इसका उत्तर
यह है कि दोनों प्रमाण अलग-अलग कल्पों की कथाओं के हैं, अतः इसे कल्पभेद से समझना
चाहिए.
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वानरों की संख्या का निरुपण कैसे
किया गया? क्या उस काल में शून्य और शून्य से आगे की संख्या का निर्धारण कर लिया
गया ?.
शून्य का आविष्कार
शून्य का आविष्कार आर्यभट्ट जी ने 5वीं शताब्दी में
किया था, फिर
हजारों साल पहले कैसे रावण के 10 सिर बिना शून्य के गिने जाते थे, बिना शून्य के कैसे जानें कि कौरव १०० थे, ये कुछ अलग
चीजें हैं, लेकिन यह अभी भी कहा जाता है कि शून्य की खोज
आर्यभट्ट ने ही की थी, जो भारतीय ही थे.
आर्यभट्ट
ने अंकों की नई पद्धति को जन्म दिया था.उन्होंने अपने ग्रंथ आर्यभटीय में भी उसी
पद्धति में कार्य किया है. आर्यभट्ट को लोग शून्य का जनक इसलिए मानते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने ग्रंथ आर्यभटीय के गणितपाद
2 में एक से अरब तक की संख्याएं बताकर लिखा है.
भारतीय दर्शन में शून्य और
शून्यवाद का बहुत महत्व है. शून्य के
आविष्कार को लेकर पश्चिमी जगत के विद्वान, यह मानने को तैयार नहीं थे कि शून्य के
बारे में पूरब के लोगों को जानकारी थी. लेकिन सच ये है कि न
केवल अंकों के मामले में विश्व, भारत
का ऋणी है, बल्कि भारत ने अंकों के अलावा शून्य की खोज की. शून्य का अपने आप में महत्व शून्य है. लेकिन ये शून्य का चमत्कार
है कि यह एक से दस, दस से हजार, हजार
से लाख, करोड़ कुछ भी बना सकता है. शून्य की विशेषता है कि
इसे किसी संख्या से गुणा करें अथवा भाग दें, परिणाम शून्य ही
रहता है. भारत का 'शून्य' अरब जगत में 'सिफर' (अर्थ-
खाली) नाम से प्रचलित हुआ फिर लैटिन, इटैलियन, फ्रेंच आदि से होते हुए इसे अंग्रेजी में 'जीरो'
(zero) कहा गया.
बख्शाली
पांडुलिपि और शून्य का इतिहास
बोडेलियन पुस्तकालय (आक्सफोर्ड
विश्वविद्यालय) ने बख्शाली पांडुलिपि की कार्बन डेटिंग के जरिए शून्य के प्रयोग की
तिथि को निर्धारित किया है. पहले ये माना जाता रहा है कि आठवीं शताब्दी (800
AD) से शून्य का इस्तेमाल किया जा रहा था. लेकिन
बख्शाली पांडुलिपि की कार्बन डेटिंग से पता चलता है कि शून्य का प्रयोग चार सौ साल
पहले यानि की 400 AD से ही
किया जा रहा था. बोडेलियन पुस्तकालय में ये पांडुलिपि 1902 में रखी गई है.
शून्य के प्रयोग के बारे में पहली पुख्ता
जानकारी ग्वालियर में एक मंदिर की दीवार से पता चलता है. मंदिर की दीवार पर लिखे
गए लेखों (900 AD) में शून्य
के बारे में जानकारी दी गई थी. शून्य के बारे में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के
प्रोफेसर मार्कस डी सुटॉय कहते हैं कि आज हम भले ही शून्य को हल्के में लेते हैं, लेकिन सच ये है कि शून्य की वजह से फंडामेंटल गणित को
एक आयाम मिला. बख्शाली पांडुलिपि की तिथि निर्धारण से एक बात तो साफ है कि भारतीय
गणितज्ञ तीसरी-चौथी शताब्दी से शून्य का इस्तेमाल कर रहे थे. इसे आप ऐसे भी कह
सकते हैं कि भारतीय गणितज्ञों ने गणित को एक नई दिशा दी.
------------------------------------------------------------------------------------------अरब,
खरब, नील,
पद्म, शंख में कितने शून्य होते है. जाने भारतीय अंक प्रणाली.
ज्यादातर लोग एक ही संख्या के लिए अलग-अलग
शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय इकाइयां बेहद अलग हैं.
भारतीय संख्याओं के अनुसार 100 को सौ बोलते हैं. लेकिन 1,000 को 'हजार' के रूप में जाना जाता है , न कि 'दस सौ' के रूप में. अंतरराष्ट्रीय इकाइयों के मामले में
यह समान नहीं है. भारतीय इकाई और अंतरराष्ट्रीय इकाई एक दूसरे से अलग-अलग हैं. 10,000 यानी दस हजार तक तो दोनों ये समान हैं. लेकिन
इसके बाद संख्या वही रहती है, पर दोनों के नाम बदल जाते हैं.
भारतीय अंक प्रणाली के अनुसार अरब,
खरब, नील,
पद्म ,शंख आदि में कितने
शून्य होते हैं? अंतरराष्ट्रीय इकाइयों
के अनुसार इनके नाम इस प्रकार से है.
अंको में जितने शून्य बढ़ते हैं उतना ही उसका
मान बढ़ता जाता है। सबसे पहले बात करते हैं उस समय की जब शून का
अविष्कार नहीं हुआ था. ये वो समय है जब गणित बिना शून्य के चलती थी.
शून्य
भारत में संख्या पद्धति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है. यहां तक कि पहले
गणितीय समीकरणों को कविता के रूप में गाया जाता था. आकाश और अंतरिक्ष जैसे शब्द “कुछ भी नहीं” अर्थात शून्य का प्रतिनिधित्व करते हैं. एक भारतीय विद्वान
पिंगला ने द्विआधारी संख्या का इस्तेमाल किया और वह पहले थे जिन्होंने जीरो के लिए
संस्कृत शब्द 'शून्य' का इस्तेमाल किया था.
628 ईस्वी में ब्रह्मगुप्त नामक विद्वान और
गणितज्ञ ने पहली बार शून्य और उसके सिद्धांतों को परिभाषित किया और इसके लिए एक
प्रतीक विकसित किया जो कि संख्याओं के नीचे दिए गए एक डॉट के रूप में था. उन्होंने
गणितीय संक्रियाओं अर्थात जोड़ (addition) और घटाव (subtraction) के लिए शून्य के प्रयोग से संबंधित नियम भी लिखे हैं. इसके
बाद महान गणितज्ञ और खगोलविद आर्यभट्ट ने दशमलव प्रणाली में शून्य का इस्तेमाल
किया था.
उपरोक्त लेख से यह स्पष्ट है कि शून्य भारत
का एक महत्वपूर्ण आविष्कार है, जिसने गणित को एक नई दिशा दी और इसे अधिक सरल बना दिया.
आर्यभट्ट को लोग शून्य का जनक इसलिए मानते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने ग्रंथ
आर्यभटीय के गणितपाद 2 में एक से अरब तक की संख्याएं बताकर लिखा है.
देवनागरी, अंतरराष्ट्रीय, संस्कृत भाषा में अंक -
·
देवनागरी संख्या |
अन्तरराष्ट्रीय संख्या |
संस्कृत में संख्या |
० |
0 |
शून्य |
१ |
1 |
एक |
२ |
2 |
द्वि |
३ |
3 |
त्रि |
४ |
4 |
चतुर् |
५ |
5 |
पंच |
६ |
6 |
षट् |
७ |
7 |
सप्त |
८ |
8 |
अष्ट |
९ |
9 |
नव |
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------
भारतीय अंक प्रणाली |
संख्या |
अंतरराष्ट्रीय अंक प्रणाली |
इकाई |
1 |
यूनिट(unit) |
दहाई |
10 |
दस(ten) |
सैकड़ा |
100 |
सौ(hundred) |
हजार |
1,000 |
हजार(thousand) |
दस
हजार |
10,000 |
दस
हजार (ten thousand) |
लाख |
1,00,000 |
एक
लाख (one lakh) |
दस
लाख |
10,00,000 |
मिलियन(million) |
करोड़ |
1,00,00,000 |
दस
मिलियन (ten million) |
दस
करोड़ |
10,00,00,000 |
सौ
मिलियन (hundred million) |
अरब |
1,00,00,00,000 |
बिलियन
(billion) |
दस
अरब |
10,000,000,000 |
दस
बिलियन (ten billion) |
खरब |
1,00,00,00,00,000 |
सौ
बिलियन (hundred billion) |
दस
खरब |
1,000,000,000,000 |
ट्रिलियन
(trillion) |
नील |
1,00,00,00,00,00,000 |
दस
ट्रिलियन(ten trillion) |
दस
नील |
100,000,000,000,000 |
सौ
ट्रिलियन (hundred trillion) |
पद्म |
1,00,00,00,00,00,00,000 |
क्वॉड्रिलियन
(quadrillion) |
दस
पद्म |
10,000,000,000,000,000 |
दस
क्वॉड्रिलियन (ten quadrillion) |
शंख |
1,00,00,00,00,00,00,00,000 |
सौ
क्वॉड्रिलयन (hundred quadrillion) |
इसके
अलावा महाशंख या अल्द या उपाध, अंक या महाउपाध, जल्द, माध, परार्ध, अंत, महाअंत,
शिष्ट, सिघर, महासिंघर आदि भी भारतीय अंक प्रणाली का हिस्सा है.
------------------------------------------------------------------------------------------
00000
अपध्वंसत
नश्यध्वं संनिकर्षादितो मम * नहि वां हन्तुमिच्छामि स्मराम्युपकृतानी * हतावेव
कृतघ्नौ द्वौ स्नेहपरागंमुखौ (वा.रा.श्लोक
14 उनतीसवां सर्ग.)
रावण
अपने स्वर्णिम सिंहासन पर बैठा शुक और सारण की बातों को गम्भीरता से सुन रहा था.
सुन रहा था कि रामजी की सेना और उनकी सैन्यशक्ति के बारे में. एक-एक शब्द उसके
भीतर उतरकर उसकी क्रोधाग्नि को भड़का रहे थे. विस्तार से सुनते-सुनते उसके कानों
में पीड़ा होने लगी थी. सहनशक्ति चुकती जा रही थी.
उसने शुक
और सारण को फ़टकारते हुए कहा-"अब तुम दोनों मेरी सभा में प्रवेश के अधिकार से
वंचित हो गए हो. तुम दोनों मेरे पास से चले जाओ, फ़िर कभी अपना मुँह मत दिखाना. मैं
तुम दोनों का वध करना नहीं चाहता, क्योंकि तुम दोनों के किये हुए उपकारों को मैं
सदा स्मरण में रखता हूँ. तुम दोनों मेरे स्नेह विमुख और कृतघ्न हो,अतः मरे हुए के
समान हो." वह चीख कर बोल रहा था. क्रोध के आवेश में आकर उसके नेत्रों से
चिनगारियाँ फूट रही थी.
गरजते
हुए उसने फ़िर से बोला-" जाओ....निकल
जाओ तुम दोनों मेरी सभा से....फ़िर अपना मनहूस चेहरा मुझे कभी मत दिखाना."
अपने
स्वामी के द्वारा ऐसा कहने पर शुक और सारण बहुत लज्जित हुए और जय-जयकारा के द्वारा
रावण का अभिनन्दन करके सभा से बाहर निकल गए.
शुक और
सारण के चले जाने के पश्चात लंकेश ने अपने बेटे महोदर से कहा- " मेरे सामने
गुप्तचरों को उपस्थित होने की आज्ञा दो."
यह आदेश
पाकर निशाचर महोदर ने शीघ्र ही गुप्तचरों को हाजिर होने की आज्ञा दी. राजा की
आज्ञा पाकर उसी समय गुप्तचर दोनों हाथ जोड़े रावण की सेवा में उपस्थित हुए. वे सभी
गुप्तचर विश्वासपात्र, शूरवीर, धीर एवं निर्भय थे.
रावण ने
उनसे कहा- " तुम लोग अभी वानरसेना में राम का क्या निश्चय है, यह जानने के
लिए तथा गुप्तमंत्रणा में भाग लेने वाले जो उनके अंतरंग मंत्री हैं और जो लोग
प्रेमपूर्वक आ मिले हैं-उनके मित्र हो गए हैं, उन सबके भी निश्चित विचार क्या है,
इसकी जाँच करने के लिए जाओ."
उसने
अपने अगले आदेश में यह भी कहा-" तुम लोग इस बात का भी पता लगाओं कि वे कैसे
सोते हैं?. किस तरह जागते है और आज क्या करेंगे?. इन बातों का पूर्णरूप से अच्छी
तरह पता लगा कर लौट आओ..यदि हमें शत्रु की गति-विधि का पता चल जाए तो हम उसे थोड़े-से ही प्रयत्न के द्वारा युद्ध में
उन्हें धर दनोच कर मार भगाते हैं."
रावण की
आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए गुप्तचरों ने शार्दुल को आगे करके राक्षराज रावण की
परिक्रमा की और उस स्थान पर गए, जहाँ राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ विराजमान थे.
सुबेल
पर्वत के निकट जाकर गुप्तरुप से छिपे रहकर उन्होंने श्रीराम ,लक्ष्मण, और विभीषण
को देखा. तथा रामजी की अनगिनत सेना को देखकर, वे भय से व्याकुल हो उठे.
खुले
नेत्रों से दिखाई नहीं देने वाले इन सभी गुप्तचरों को महात्मा विभीषण ने पहचान
लिया और वानरों को भेजकर उन्हें पकड़वा लिया. वानरों ने उन्हें केवल बंदी ही नहीं
बनाया, बल्कि उन्हें पीटने भी लगे थे. रामजी ने यह सब देखा और वानरों को आज्ञा दी
कि इन्हें छोड़ दें.
पराक्रमी
वानरों से पीड़ित होकर राक्षसों के होश उड़ गए और वे रुदन करते हुए वहाँ से भाग
निकले. किसी तरह गिरत्ते-पड़ते सभी राक्षस लंका लौट आए और रावण के समक्ष उपस्थित
होकर सूचना दी कि श्रीरामचन्द्र जी की सेना सुबेल पर्वत के निकट डेरा डाले पड़ी है.
गुप्तचरों
के मुँह से रावण ने जब यह सुना कि श्रीराम ने सुबेल पर्वत पर, अपनी सेना के सहित
डेरा डाल दिया है. यह सुनते ही उसके मन में भय समाने लगा और उसके शरीर की कांति
पहले जैसी नहीं रही. भय से घबराये हुए शार्दुल ने मंद स्वर में रावण को अवगत कराते
हुए बताया-" हे लंकापति ! उन श्रेष्ठ वानरों की गति-विधियों का पता हमारे
गुप्तचर नहीं लगा पाये. वे सभी अपने आप में बड़े पराक्रमी,साहसी और बलवान तो हैं
ही, साथ ही वे सभी श्रीराम के द्वारा सुरक्षित भी हैं."
"हे
राक्षेन्द्र ! आप कौन हैं, आपका क्या विचार है इत्यादि प्रश्नों के लिए यहाँ अवकाश
ही नहीं मिलता. पर्वतों के समान विशालकाय वानर सब ओर से मार्ग की रक्षा करते हैं.
अतः वहाँ प्रवेश होना भी अत्यन्त ही कठिन है. फिर भी हमने किसी तरह सेना में
प्रवेश तो कर लिया था, लेकिन विभीषण जी ने हमें पहचान लिया और बलपूर्वक पकड़कर हमें
इधर-उधर खूब घुमाया. इस बीच गुस्साये वानरों ने हम पर घुटनों, मुक्कों और थप्पड़ों
से बहुत मारा और हमें सर्वत्र घुमाकर रामजी के समक्ष उपस्थित कर दिया. दयालु राम
ने "मत मारो" कहकर हमारे प्राणॊं की रक्षा की."
"
हे राजन ! रघुनाथ जी स्वयं गरुड़व्यूह का आश्रय ले वानरों के बीच में विराजमान हैं.
जब तक वे लंका के परकोटे तक पहुँचे उससे पहले ही आप दो काम अवश्य कर डालिये. पहला
तो यह कि सीताजी को लौटा दें .दूसरा यह कि आप अपने सैन्यबल के साथ युद्ध-स्थल में
खड़े होकर उनका सामना कीजिए."
शार्दुल
के परामर्श को सुनकर रावण उस पर मन-ही-मन विचार करने लगा. फ़िर उसने
पूछा-"शार्दुल ! तुम तो शत्रु की सेना में विचरण कर चुके हो. मुझे यह बतलाओं
कि राम की सेना में कौन-कौन-से वानर अधिक शूरवीर है. मुझे इस बात की भी जानकारी दो
कि वे वानर किसके पुत्र और पौत्र हैं? ठीक-ठीक कह सुनाओ."
रावण के
इस तरह पूछने पर शार्दुल ने बतलाया. हे राजन ! वानर सेना में जाम्बवान नाम से
प्रसिद्ध एक वीर है, जिसे युद्ध में पराजित करना बहुत कठिन है. वह ऋक्षरजा तथा
गद्रद का पुत्र है.
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जामवंत असल में परम्
पिता ब्रह्मा जी के ही पुत्र है! सप्तऋषि, सनत्कुमार,
प्रजापति और नारद भी
ब्रह्मा जी के पुत्र है लेकिन वो सभी उनके मानस पुत्र है (कल्पना से बनाये गए)!
लेकिन जामवंत के जन्म का स्त्रोत अलग है जाने वो भी.
एक दिन ध्यान में बैठे
बैठे ब्रह्मा जी के आँखों से अश्रुपात (आँसू गिरने लगे) हो गया, उन्ही आंसुओ से प्रकट हुए थे उनके पुत्र जामवंत
जो की फिर हिमालय पर रहने लगे. जामवंत ने सागर मंथन में भी वासुकि को देवताओ की
तरफ से खिंचा था और वामन अवतार की परिक्रमा भी की थी.
हिमालय
पर एक दिन अपने को पानी में देख कर वो बंदर को देख कर चौंक गए और उस सरोवर में कूद
गए,
जब बाहर आये तो वो एक
रूपवती किशोरी में परिवर्तित हो गए. उनने तप इंद्र की दृष्टि पड़ी जो की उनपे मोहित
हो गए और उनका तेज (वीर्य) स्त्री रूपी जामवंत के सर के बालो पर गिरा जिससे की
बाली (बालो से पैदा इसलिए बाली) का जन्म हुआ.
उसी समय सूर्य देवता भी
वंहा से गुजरे वो भी मोहित हो गए, उनका तेज तब उस स्त्री के गर्दन पर गिरा जिससे की सुग्रीव पैदा हुए
(सूर्य पुत्र ग्रीवा से पैदा हुए इसलिए सुग्रीव कहलाये). ऐसे दोनों भाई जन्मे तब
जामवंत का स्त्रीत्व भी ख़त्म हो गया और वो फिर जामवंत हो गए.
तब ब्रह्मा जी के आदेश
पर किष्किन्दा नगरी बसाई गई जिसका राजा बाली बना था, है न अढ़्भुत और विचित्र कथा?
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" गद्रद का दूसरा पुत्र है जिसका नाम धूम्र है. इंद्र के गुरु
बृहस्पति का पुत्र केसरी है, जिनके पुत्र हनुमान ने अकेले ही यहाँ आकर बहुत-से
राक्षसों का वध कर डाला था. सुषेण धर्म का पुत्र है. दधिमुख नामक वानर चंद्रमा का
पुत्र है. सुमुख, दुर्मुख और वेगदर्शी नामक वानर-ये मृत्यु के पुत्र हैं. स्वयं
सेनापति नील अग्नि का पुत्र है. बलवान एवं दुर्जय वीर अंगद इन्द्र का नाती है. यह
अभी नौजवान है. बलवान वानर मैंन्द और द्विविद-ये दोनों अश्वनीकुमार के पुत्र हैं.
गज, गवाक्ष, गवय, शरभ और गन्धमादन-ये पांचों धर्मराज के पुत्र हैं और काल और अन्तक
के समान पराक्रमी हैं."
" हे राक्षेन्द्र ! इस प्रकार देवताओं से उत्पन्न हुए तेजस्वी
शूरवीर वानरों की संख्या दस करोड़ है. इनके अतिरिक्त जो शेष वानर हैं, उनके विषय
में मैं ज्यादा नहीं जानता. और इनकी गणना करना असम्भव है."
" हे राजन ! दशरथनंदन राम के समान पराक्रमी वीर इस भूमण्डल में
दूसरा कोई नहीं है. इन्होंने ही विराध का और काल के समान विकराल कबन्ध का भी वध
किया था."
"इस भूतल पर कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है, जो श्रीरामजी के गुणॊं
का पूर्णरूप से वर्णन कर सके. उनके अनुज लक्ष्मण भी श्रेष्ठ गजराज के समान
पराक्रमी हैं. उनके बाण का निशाना बन जाने पर देवराज इन्द्र भी जीवित नहीं रह
सकते."
" इनके सिवा उस सेना में श्वेत और ज्योतिर्मुख-ये दो वानर भगवान
सूर्य के औरस पुत्र हैं. हेमकूट नाम का वानर वरुण का पुत्र बताया जाता है.
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औरस-
विवाहिता सवर्णा स्त्री के गर्भ से जिसकी उत्पत्ति हुई हो वह
" औरस" कहलाता है. औरस जी सबसे श्रेष्ठ और मुख्य पुत्र है. मृत, नपुंसक
आदि की स्त्री देवर आदि से नियोग द्वारा जो पुत्र उत्पन्न करे वह
"क्षेत्रज" है. गोद लिया हुआ पुत्र "दत्तक" कहलाता है.
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शार्दुल का बखान सुनकर रावण का शरीर निस्तेज हो गया. माथे पर पसीने
की बूंदे चूने लगी थी, अंग-प्रत्यंग ढिले पड़ने लगे थे. कंठ सूखने लगा
था.सोचने-समझने की बुद्धि को लकवा मार गया था. मृत्यु का भय उसके भीतर गहराने लगा
था. वह समझ गया था कि अब अंत पास आ गया है. लेकिन वह अभी मरना नहीं चाहता था. वह
यह भी जानता था कि राम के हाथॊं उसकी मृत्यु होना है. मरने से पहले वह कोई और नयी
चाल चलने की सोच रहा था, जिससे वह राम को शय और मात दे सके. तभी उसके दिमाक में एक
षड़यंत्र कौंधा. उसने क्रुरकर्मा नामक एक राक्षस को बुलाया,जो मुखौटे बनाने की कला
में इतना निपुण था कि उसके निर्माण में मौलिक और डुप्लिकेट में तिल मात्र का भी
अन्तर नहीं होता था. उसने आदेश दिया कि वह
तत्काल राम का मस्तक बनाकर ले आये और उसे सीता के निकट रखकर अदृष्य हो जाये.
चुंकि उसने रामजी के बारे में सुना अवश्य था, लेकिन इससे पूर्व उसने
रामजी को देखा तक नहीं था. उसने अपनी मायावी शक्तियों को प्रयोग में लाया और
अदृश्य होते हुए रामजी के निकट जाकर उपस्थित हुआ. रामजी को ध्यानपूर्वक निहारा और
फ़िर उसी गति से अपनी प्रयोगशाला में आया और रामजी के मस्तक से मिलता-जुलता मस्तक
बनाया और सीताजी के निकट रखकर लौट आया.
गुड़ी-मुड़ी-सी बैठीं सीताजी ने अपने दोनों नेत्रों को बंद
कर,ध्यानावस्था में लीन होकर अपने स्वामी प्रभु श्रीराम के नाम का निरन्तर जाप कर
रही थी. वे अपनी साधना में लीन थी, तभी तेज गति से चलता हुआ अहंकारी रावण अशोक
वाटिका में प्रवेश करते हुए सीताजी के समक्ष आ खड़ा हुआ
" सीते.! "
रावण की कर्कश आवाज को उन्होंने सुना. वह चीखकर बोल रहा था. उसने
सीताजी से कहा-" सीते ! रावण का प्रस्ताव अस्वीकार करके तुमने बड़ी भूल कर दी.
तुमने विश्वविजयी रावण को खूब लज्जित किया है. लेकिन तुम भूल गयीं कि रावण नीचता
की सीमाओं को भी लांघ सकता है. मैने तुम्हारे स्वामी राम का वध कर दिया है. प्रमाण
के रूप में उसका कटा हुआ मस्तक और उसका धनुष, जिससे वह मुझे मारने आया था,
तुम्हारे समक्ष पड़ा हुआ है". हे सीते ! राम अब इस संसार में नहीं है. अतः तुम
मेरा कहा मानो और मेरे वश में हो जाओ."
सीताजी ने देखा. देखते ही नेत्रों की दोनों पलकों ने झपकना बंद कर
दिया था. देखते ही कलेजा धक-धक करने लगा. उन्होंने कभी स्वपन में भी इस बात की
कल्पना नहीं की थी कि कोई ऐसा मनहूस दिन भी आ सकता है, जब उन्हें अपने पतिदेव,
अपने प्राणनाथ श्रीरामजी का कटा हुआ मस्तक देखने का दुःखद अवसर आएगा. उन्होंने
सूक्ष्मता से उस कटे हुए मस्तक को देखा, देखा. अपने पति के जैसे ही नेत्र,मुख का
वर्ण, मुखाकृति, केश, ललाट को देखा. अपने स्वामी के चिन्हों को पहचानकर वे बहुत
दूःखी हुईं और चीत्कार के साथ रुदन करने लगीं.
रुदन करते हुए उन्होंने अपनी सास कैकेई को धिक्कारते हुए कहा-"
हे देवी! रघुकुल को आनन्दित करने वाले मेरे पतिदेव मारे गए. तुम स्वभाव से ही
कलहकारिणी हो. तुमने समस्त रघुकुल का संहार कर डाला."
मस्तक की ओर देखते हुए कहा- " हे आर्य ! आपने कैकेई का कौन-सा
अपराध किया था?, जिसके चलते उसने आपको चीरवस्त्र देकर वन में भेज दिया." ऐसा
कहकर दुःख की मारी तपस्विनी वैदेही थर-थर कांपती हुए कटी कदली के समान पृथ्वी पर
गिर पड़ीं.
देर तक अचेत रहने के बाद उन्हें चेत हो आया. चेत आने के बाद उन्होंने
कटे हुए मस्तक को धीरे से उठाया और अपनी गोद में रख लिया और लिपटकर भीषण रुदन करने
लगीं. उनकें कारुणिक रुदन को सुनकर वृक्षादि सहम गए. वायु का प्रवाह रुक गया.
चहकते पक्षियों का चिंचियाना बंद हो गया. वे सहम कर, डरे-डरे-से आकर वृक्ष की
डालियों पर बैठकर इस हृदय-विदारक दृश्य को टुकुर-टुकर निहारने लगे थे. विलाप करते
हुए वे कहने लगीं-" हाय ! महाबाहो ! मैं मारी गयी. आप वीरव्रत का पालन करनेवाले
थे. आपकी इस अन्तिम अवस्था को मुझे अपनी आँखों से देखना पड़ रहा है. मैं विधवा हो
गयी हूँ."
" हे स्वामी ! स्त्री से पहले पति का देहांत होना उसके लिए महान
अनर्थकारी दोष बतलाया गया है. मुझ सती-साध्वी के रहते हुए मेरे सामने आप-जैसे पति
का निधन हुआ, यह मेरे लिए महान दुःख की बात है."
" हे स्वामी ! मैं इस समय महान संकट में पड़ी हूँ. शोक के समुद्र
में पड़ी हूँ. आप मेरा उद्धार करने के लिए उद्यत हुए थे, आप जैसे धीर-वीर को इस
दुष्ट दानव ने मार गिराया."
"हे रघुनन्दन ! जैसे
बछड़े के स्नेह से भरी हुई गाय को, उस बछड़े से विलग कर दे, ठीक ऐसी ही दशा माता
कौसल्या की हुई है. वे दयामयी जननी आप-जैसे पुत्र से बिछड़ गयी हैं."
" हे स्वामी ! ज्योतिषियों ने तो आपकी आयु बहुत बड़ी बतायी थी,
किंतु वह बात झूठी सिद्ध हुई. हे स्वामी आप अल्पायु निकले.".
" हे स्वामी ! आप बुद्धिमान होकर भी आपकी सारी बुद्धि मारी गयी,
तभी तो आप सोते हुए ही शत्रु के वश में पड़ गए. आप तो नीतिशास्र के विद्वान थे.
संकट से उबरने के उपायों को जानते थे और व्यसनों के निवारण में कुशल थे, तो भी आपको ऐसी मृत्यु प्राप्त हुई."
धनुष की ओर निहारते हुए- " हे कमलनयन ! मैं आपके स्वर्णभूषित
धनुष की पुष्पमाला से प्रतिदिन पूजन करती थी. यह धनुष अपने शत्रु का विनाश नहीं कर
सका."
" हे स्वामी ! अब मैं जीवित रहकर क्या करुँगी. मैं भी अपने
प्राण त्याग दूँगी. हम तीन व्यक्ति एक साथ वन में आए थे,परन्तु अब माता कौसल्या
केवल एक व्यक्ति लक्ष्मण को लौटा हुआ देखेंगी."
रुदन करते हुए उन्होंने रावण से कहा-" हे दुष्ट ! हे दानव !
मुझे भी श्रीराम के शव के ऊपर रखकर मेरा वध कर दो. इस प्रकार पति को पत्नी से मिला
दो. इतना उपकार मुझ पर करो. हे रावण ! मेरे सिर से मेरे पति का सिर और मेरे शरीर
से मेरे पति का शरीर का संयोग करा दो. इस प्रकार मैं अपने पति का अनुसरण
करुँगी."
इस प्रकार दुःख से संतप्त होकर विशाललोचना जनकनन्दिनी अपने पति का
मस्तक और धनुष को देखकर विलाप करने लगीं.
ठीक इसी समय रावण का एक सेवक रावण के सन्मुख आ खड़ा हुआ और झुककर
अभिवादन करते हुए कहने लगा-" लंकेश की जय हो".आपके पराक्रमी सेनापति
प्रहस्त, कोई अत्यन्त ही महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए आपकी सेवा में उपस्थित
हुए हैं. अतः आप शीघ्रता से सभागृह में आकर दर्शन देने का कष्ट करें." अपने
सेवक की बातों को सुनकर रावण अशोकवाटिका छोड़कर अपने मंत्रियों से मिलने चला गया.
रावण के वहाँ से निकलते ही रामजी का सिर और धनुष दोनों अदृश्य हो
गये. यह देखकर सीताजी को घोर आश्चर्य हुआ कि मेरे स्वामी का सिर मेरी गोद में रखा
हुआ था और उत्तम धनुष वहीं पास में पड़ा हुआ था. अचानक अदृश्य कैसे हो गया?.
सीतां तू मोहितां दृष्ट्वा सरमा नाम राक्षसी : आससादाथ वैदेहीं
प्रियां प्रणविनी सखीम.
सिर और धनुष के अचानक अदृश्य हो जाने पर आश्चर्यचकित सीताजी कुछ और
सोच पातीं कि उसी समय सरमा नामक राक्षसी उनके निकट प्रकट होकर खड़ी हो गयी
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सरमा
का परिचय.
हिंदू महाकाव्य रामायण में , सरमा ( संस्कृत : सरमा , सरमा ) लंका के राक्षस (राक्षस) राजा रावण के भाई विभीषण की पत्नी है . [1] कभी-कभी, उसे एक राक्षसी (राक्षसी) के रूप में वर्णित
किया जाता है , [ 2] अन्य समय में, उसे गंधर्व (दिव्य नर्तकियों) वंश का कहा जाता है. सभी ग्रंथ इस बात से सहमत हैं कि सरमा सीता , राम की पत्नी ( अयोध्या के राजकुमार और भगवान विष्णु के )जिसे रावण ने अगवा कर लंका में बंदी बना लिया
था, अपने पति की तरह जो रावण के खिलाफ युद्ध में राम
का पक्ष लेते हैं,
सरमा सीता के प्रति
दयालु हैं और राम की सहायता करती हैं. सरमा और विभीषण की एक बेटी थी जिसका नाम त्रिजटा था.
केमिली बुल्के (राम-केन्द्रित साहित्य के विशेषज्ञ) के अनुसार , सरमा मूल रामायण में प्रकट नहीं होती हैं . हालाँकि, बाद के प्रक्षेप - सभी पुनरावर्तनों में मौजूद - वाल्मीकि के पाठ में जोड़े गए उनका उल्लेख करते हैं. वह पहली बार माया-शिरसा , राम के मायावी सिर की कड़ी में दिखाई देती हैं. रावण ने अयोध्या के राजकुमार राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया हैऔर बार-बार उससे शादी करने
का आग्रह करता है,
लेकिन सीता हर बार साफ
मना कर देती है. राम के अपनी वानर सेना के साथ लंका पर उतरने के बाद, रावण ने अपने जादूगर विद्युजिह्वा से राम के कटे
हुए सिर और राम की मृत्यु के बारे में सीता को समझाने के लिए धनुष बनाने के लिए
कहा. जादूगर अनुपालन करता
है और अशोक वाटिका में सीता को सिर और धनुष प्रस्तुत करता है, जहां वह कैद है. सीता अपने "मृत" पति का सिर देखकर
रावण की उपस्थिति में विलाप करती हैं. जल्द ही, रावण अपने मंत्रियों के साथ बैठक के लिए निकल
जाता है और उसके जाने के बाद सिर और धनुष गायब हो जाता है. सरमा सीता के करीब आती है और रावण की चालाकी को
सीता के सामने उजागर करती है. वह कहती है कि उसने चुपके से रावण की चाल देखी
और सिर सिर्फ जादू का उत्पाद था. वह सीता को यह भी बताती हैं कि राम सुग्रीव के नेतृत्व में
अपनी सेना के साथ लंका पहुंचे हैं और उसने राम को अपनी आँखों से देखा है. वह सीता से पूछती है कि क्या वह सीता की ओर से
राम को कोई संदेश दे सकती है. इसके बजाय सीता सरमा से अनुरोध करती है कि वह
रावण की योजनाओं की जांच करे. सरमा को पता चलता है और सीता को सूचित करता है
कि उसकी माँ और बुद्धिमान वृद्ध मंत्रियों की सलाह के बावजूद, रावण ने सीता को राम को सौंपने से इनकार कर
दिया. सरमा को "प्यारी साथी" और सीता की
मित्र के रूप में वर्णित किया गया है। [3]
उत्तरी पाठ सारमा के बारे में एक और प्रकरण जोड़ता है. सरमा-वाक्यम ("सरमा के साथ बातचीत") नामक एक सर्ग बताता है कि कैसे सरमा ने हनुमान द्वारा लंका को जलाने के बारे में सीता को सूचित
किया. यह प्रसंग राम के लंका आने से पहले का है, जब उन्होंने हनुमान को अपहृत सीता का पता लगाने
के लिए भेजा था [4]
विभीषण
के साथ संबंधसंपादन करना
न तो भ्रमपूर्ण शीर्ष दृश्य में और न ही सरमा-वाक्यम में सरमा और विभीषण के बीच किसी संबंध का संकेत
मिलता है. अनाम विभीषण की पत्नी का एकमात्र उल्लेख तब होता
है जब सीता ने हनुमान से उसके बारे में उल्लेख किया, जहां वह उसे लंका में खोज करता है और उससे मिलता
है. सीता उसे बताती है कि विभीषण की पत्नी - जो
युद्ध में राम के साथ थी - ने अपनी बेटी कला ( रामायण के अन्य पाठों में , नंद या अनला कहा जाता है) को सलाह के बावजूद, रावण को सीता को आत्मसमर्पण न करने के बारे में
जानकारी देने के लिए भेजा
रामायण में सीता के चार उपकार सामने आते हैं - अनाम विभीषण की पत्नी, कला, त्रिजटा और सरमा. बाद के राम-केंद्रित साहित्य में समय के साथ, सरमा को विभीषण की पत्नी के रूप में पहचाना गया, जबकि त्रिजटा को उनकी बेटी माना गया
विभीषण की पत्नी के साथ सरमा की पहचान काफी पहले, रामायण की अंतिम पुस्तक, उत्तरकांड में प्रस्तुत की गई है, जिसे मूल पाठ के बाद के अतिरिक्त के रूप में
माना जाता है। [5] इसमें उल्लेख है कि रावण ने गंधर्व सैलुसा की बेटी सरमा को अपने भाई विभीषण की
पत्नी के रूप में प्राप्त किया. [2] [1] सरमा का जन्म मानस झील के किनारे हुआ था. सरोवर का जल बढ़ता देख शिशु रोने लगा. उसकी माँ ने झील, सरोमा वर्धाता ("झील, उठो मत") की आज्ञा दी, इसलिए बच्ची का नाम सरमा रखा गया. [2] [6]
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सरमा, रावण की आज्ञा से सीता जी की रक्षा करती थी. उसने अपनी
रक्षणीया सीता से मैत्री स्थापित कर ली थी. वह बहुत दयालु और दृढ़-संकल्प थी.
सरमा ने प्रकट होकर देखा. देखा कि उसकी सखी सीता, पृथ्वी की धूल में
लोट-पोट होकर विलाप करती हुई धूल-धूसरित हो रही है. उनका विलाप देखकर सरमा भी कुछ
क्षण के लिए सिहर गयीं. उसने उत्तम वचन बोलते हुए सीता जी से कहा- "हे
विदेहनन्दिनी ! धैर्य धारण करो. तुम्हारे मन में व्यथा नहीं होनी चाहिए. हे भीरु !
रावण ने तुमसे जो कुछ भी कहा है, और तुमने जो भी प्रतिउत्तर दिया है, उसे मैंने
तुम्हारे प्रति स्नेह होने के कारण सुन लिया है".
’\
" हे विशाललोचने ! तुम्हारे लिये मैंने रावण का भय छोड़कर
अशोकवाटिका के एक सूने स्थान पर छिपकर सारी बातें सुनी है. मुझे दुष्ट रावण से
तनिक भी डर नहीं लगता."
" हे सखी ! राक्षसराज
रावण जिस कारण यहाँ से घबराकर निकल भागा है, उसका पूर्णरूप से पता लगाने के लिए
मैं तत्काल उसके पीछे हो ली थी."
"श्रीराम की युद्ध की तैयारियों को लेकर. रावण की सभा में उपस्थित होकर प्रहस्त ने
गोपनीय जानकारियाँ देते हुए यह भी बतलाया कि तुम्हारे स्वामी सागर से इस पार आ
चुके हैं. मैंने उनके बीच चल रही वार्ता को सुना. राम समुद्रसे इस पार आ गए हैं,
यह सुनते ही मेरे मन में सहसा एक विचार उत्पन्न हुआ कि क्यों न मैं भी जाकर प्रभु श्रीराम के दर्शन
करुँ. मन में इस शुभ विचार के आते ही मैं अदृश्य रूप से वहाँ जा पहुँची."
" हे सखी ! तुम्हारे स्वामी रघुनाथ जी विशाल समुद्र को लाँघकर
इस पार आ गए हैं और उन्होंने सागर के दक्षिण तट पर पड़ाव डाल दिया है."
" हे सखी ! श्रीराम गोलाकार बड़ी-बड़ी भुजाओं से सुशोभित, चौड़ी
छाती वाले, प्रतापी धनुर्धर, सुगठित शरीर से युक्त और भूमण्डल में सुविख्यात
धर्मात्मा हैं. वे अपने दुश्मनों से स्वयं की तथा अपने सेवकों की भी रक्षा करने
में समर्थ हैं."
" हे सखी ! चुंकि मैंने स्वयं अपने इन नेत्रों से तुम्हारे
प्राणेश्वर को देखा है. वे स्वस्थ और प्रसन्न दिखाई दे रहे थे. अतः इस भ्रम को
त्याग दें कि रावण ने उनका मस्तक काट लिया है. चुंकि रावण स्वभाव से, बुद्धि से और
कर्म से बुरा है. वह समस्त प्राणियों का विरोधी, क्रूर और मायावी है. उसने
तुम्हारे ऊपर माया का प्रयोग किया था."
" हे
देवी ! अब तुम्हारे शोक के दिन बीत गए हैं.अब शीघ्र ही तुम्हारा प्रिय होनेवाला
है. अतः मन में तनिक भी संताप नहीं पालें."
जब राक्षसी सरमा सीताजी से ये बातें कह रही थी, ठीक उसी समय उसने
युद्ध के लिए पूर्णतःउद्योगशील सैनिकों का भैरव नाद सुना.. डंड़े की चोट से बजने
वाले नगाड़ों (धौंसा) का गम्भीर नाद सुनकर
उसने सीता जी को बतलाया-" सीते ! जो तुम नगाड़ों से उठने वाली भयानक ध्वनि को
सुन रही हो न ! ये भयानक भेरीनाद युद्ध के
लिए तैयारी की सूचना दे रहा है. मेघ-गर्जना के सदृश्य इस गर्जना का घोष तुम भी
अपने कानों से सुन लो".
" मैं अपने दिव्य चक्षुओं से दूर-दूर तक देख सकने का सामर्थ्य
रखती हूँ. सीते ! मैं देख पा रही हूँ कि मतवाले हाथियों को सजाया जा रहा है.
हजारों घुड़सवार हाथों में भाला लिए हुए, इधर से उधर दौड़ लगा रहे हैं. सहत्रों
सैनिक दौड़-भाग करते हुए एक स्थान पर एकत्रित हो रहे हैं. रथों को तैयार किया जा
रहा है. सेनापति अस्त्रों-शस्त्रों, ढालों और कवचों का निरीक्षण कर रहे हैं. यह
देखकर मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि इस समय लंकापुरी में चारों ओर रोमांचकारी भय
व्यापत हो गया है."
" हे देवी ! मैंने तुम्हारे
पतिदेव प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण जी के सहित अन्य पराक्रमी योद्धाओं को देखा है.
वे शीघ्र ही राक्षसों पर अपने विक्रम बल
का प्रदर्शन करेंगे."
"हे मिथिलेशकुमारी ! प्रभु श्रीराम समरांगण में शीघ्र ही
रावण का वध करके तुम्हें अपने साथ ले जाएँगे. अपने स्वामी से मिलकर आप उसी प्रकार
आनन्दमग्न हो जाओगी जैसे कि पृथ्वी उत्तम वर्षा से अभिषिक्त होने पर हरी-भरी खेती
से लहलहा उठती है."
"हे सखी ! हे सीते ! आप शोक का त्याग कर दीजिए और धीरज
धारण कर लीजिए. मैं निराधार आकाश में, गरुड़ आदि की भांति तीव्रगति से उड़ान भरते
हुए ,तुम्हारे स्वामी श्रीरामजी के पास जाकर तुम्हारा संदेश कह सुनाऊँगी"
सरमा ने सीता को समझाते हुए कहा. इस समय वे मर्मांतक पीड़ा का अनुभव कर रही थीं.
उन्होंने सरमा से कहा -" हे
सरमे ! तुम आकाश, पाताल सहित सभी जगहों में अदृष्य रहकर जाने में समर्थ हो. मेरे
लिए जो भी कर्तव्य तुम कर सकती हो, वे सब तो तुम्हें करना ही करना है. फ़िर भी मैं अपनी ओर से कुछ बतला रही
हूँ, उसे सुनो और समझ भी लो."
" सबसे पहले तो मैं तुमसे यह
जानना चाहती हूँ कि दुष्ट रावण, अपने मंत्रियों के बीच उपस्थित रहकर मंत्रणा कर
रहा है. वह किस तरह की रणनीति बना रहा है, जाकर उसे ज्ञात करो."
" जी.....मैं अभी जाकर पता
लगाती हूँ कि इस समय लंकापति के दरबार में क्या कुछ चल रहा है. मैं अभी गयी और अभी
आयी." सरमा ने सीताजी से कहा और अंतर्ध्यान हो गयी.
कुछ समय पश्चात वह सारी
जानकारियाँ लेकर लौट आयी और सीताजी के समक्ष उपस्थित होकर बतलाने लगी.
" सीते ! माता कैकसी और एक
बूढ़े मंत्री ने रावण को उचित सलाह देते हुए कहा कि अनावश्यक युद्ध को आमंत्रित
करने से उत्तम होगा कि तुम सीता को आदरपूर्वक लौटा दो. उन्होंने उसे चेताते हुए यह
भी कहा कि जनस्थान में जो अद्भुत घटनाएँ घटित हुईं है, उससे श्रीराम के पराक्रम को
समझने के लिए पर्याप्त है".
" रामजी का एक सेवक महाबली
हनुमान ने अलंघ्य समुद्र को एक छलांग में लाघ डाला. उसने केवल लंका में प्रवेश ही
नहीं किया,बल्कि हमारे बहुत-से राक्षसों का वध कर डाला.यह भी तुम्हें नहीं भूलना
चाहिए."
" हे सीते ! अपनी माँ और
बड़े-बूढ़ों की सीख की उपेक्षा करते हुए उस अहंकारी रावण ने अपना अंतिम निर्णय कह
सुनाया कि वह अपने जीवित रहते हुए सीता को राम को कभी नहीं लौटाएगा,. चाहे इसके
लिए मुझे कुछ भी करना पड़े."
"हे सीते ! उसके सिर पर काल
नाच रहा है इसलिए उसके मन में मृत्यु के
प्रति लोभ पैदा हो गया है. यही कारण है कि वह तुम्हें नहीं लौटा देने का निश्चय कर
चुका है."
"हे कजरारे नेत्रों वाली
सीते ! युद्ध में जब तक राक्षसों का पूर्णतया संहार नहीं हो जाता और वह स्वयं के
नष्ट हो जाने अथवा मारे जाने तक तुम्हें इतनी आसानी से छोडने वाला नहीं है."
"सीते ! अब केवल और केवल एक
ही रास्ता बचता है कि तुम्हारे स्वामी श्रीरामचन्द्र जी, युद्धस्थल में अपने
तीक्ष्ण बाणों से रावण का वध करें और तुम्हें अयोध्या ले जाएँ".
" सीते ! जब सारे लोग उस
अहंकारी रावण को समझाते-समझाते हार गए, तब रावण के नाना माल्यवान सामने आए.
उन्होंने अत्यन्त प्रेमपूर्वक रावण को सीख
देते हुए कहा-" हे लंकेश.!...तुम त्रिलोक विजयी हो. देव,दानव, गंधर्व,
किन्नर, नाग आदि तुम्हारे नाम का उच्चारण करने मात्र से भयभीत हो जाते हैं. तुम
अतिशय बलशाली और पराक्रमी हो, इसमें रत्ती भर भी शक नहीं है."
" अन्य लोगों के तो केवल एक शीश होते हैं, पर तुम
सौभाग्यशाली हो कि तुम्हारे दस-दस शीश है. तभी तो तुम दशानन कहलाए. दस सिरों का
होना, माने तुम दस प्रकार की बुद्धियों के स्वामी हो. जिस राजा के दस शीश हों और
जो स्वयं चौदह विद्याओं,और चौसठ कलाओं में निपुण हो और जो नीति का अनुसरण करने
वाला हो, ऐसा राजा तो दीर्घकाल तक राज्य का शासन करता है. तुम तो शत्रुओं को अपने
वश में करने तुम विशेषज्ञ हो ही. इतना सब होते हुए भी तुम अपने अहंकार की पुष्टि
करते हुए राम से शत्रुता मोल ले रहे हो."
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चौदह विद्याओं के नाम-
शिक्षा, कल्प, व्याकरण,
निरुक्त, छंद, नक्षत्र, वास्तु, आयुर्वेद, वेद, कर्मकांड, ज्योतिष, सामुद्रिक
शास्त्र, हस्तरेखा तथा धनुर्विद्या.
उपरोक्त सभी विद्यायें परा
विद्याएं कहलाती है. लेकिन प्राण विद्या, त्राटक,सम्मोहन, जादू-टोना, स्तंभन,,
इन्द्रजाल, तंत्र, मंत्र, चौकी बांधना, मार गिराना., सुक्ष्म शरीर से बाहर
निकलना,पूर्वजन्म का ज्ञान होना, अंतर्ध्यान होना, त्रिकालदर्शी बनना, मृत संजीवनी
विद्या, पानी बताना, अष्टसिद्धियाँ, नवनिधियों का होना "अपरा विद्याएं"
हैं.लेकिन मुख्यतः चौदह विद्याओं की प्रमुख हैं.
कलाएँ-
कलाएँ दो प्रकार की होती हैं. सांसारिक और
आध्यात्मिक. सांसारिक कलाओं में-कलारीपट्टू (मार्शल आर्ट), भाषा, लेखन,नाट्य,
संगीत, नौटंकी, तमाशा, वास्त्रु शास्त्र, स्थापत्यकला, चित्रकला, मूर्तिकला, पाक
कला, साहित्य, बेल-बूटे बनाना, सुगंधित वस्तुएं-इत्र, तेल बनाना, नगर निर्माण, सुई
का काम, बढ़ई की कारीगरी, पीने और खाने के पदार्थ बनाना, पाक कला, सोने-चांदी,
हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा करना, तोता-मैना की बोलियों में बोलना आदि चौंसठ
कलाएं कहलाती हैं.
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"हे दौहित्र! जो राजा समय
रहते शत्रुओं के साथ संधि और विग्रह कर लेता है, वह महान ऐश्वर्य का भागी होता है."
" हे राजन ! जिस राजा की
शक्ति क्षीण हो रही हो अथवा जो शत्रु के समान ही शक्ति रखता हो, उसे संधि कर लेनी
चाहिए. अपने से अधिक या समान शक्ति वाले शत्रु का उसे कभी अपमान नहीं करना चाहिए.
हाँ...यदि वह स्वयं ही शक्ति में बड़ा-चढ़ा हो, तभी शत्रु के साथ युद्ध करना चाहिए."
" हे राजन ! तुम दस मस्तिस्क
के स्वामी हो अतः तुम किसी भी विषय पर, दस प्रकार से,सोच सकते हो, तथानुसार निर्णय
भी ले सकते हो. हम जैसों के पास तो सोचने-विचारने को एक ही मस्तिस्क है. मैं स्वयं
किसी भी प्रकार से तुम्हारी तरह सक्षम तो नहीं हूँ, फ़िर भी अपनी अल्प-बुद्धि के
अनुसार तुम्हें समझा रहा हूँ कि श्रीराम के साथ संधि करने में, मैं
कोई बुराई नहीं देख रहा हूँ. वे तुम्हारे ऊपर आक्रमण करें, इससे पूर्व तुम सीता को
लौटा दो."
" हे लंकेश ! सारे देवता,
ऋषि-मुनि, सहित गन्धर्व भी श्रीराम की विजय चाहते हैं. अतः तुम उनसे विरोध न करो.
और यथाशीघ्र संधि कर लेने की इच्छा करो."
" हे लंकेश ! तुम भली-भांति
जानते ही हो कि परमपिता ब्रह्माजी ने सुर और असुर दो ही पक्षों की सृष्टि की है,
धर्म और अधर्म ही इनके आश्रय हैं. तुम यह भी भली-भांति जानते हो कि देवताओं का
पक्ष सदा से ही "धर्म" के प्रति रहा है और राक्षस-कुल सदा से ही
’अधर्म" के पक्षधर रहे हैं."
" हे लंकेश ! जब सत्ययुग
होता है, तब धर्म बलवान होकर अधर्म को ग्रस लेता है, लेकिन जब कलियुग आता है, तब
अधर्म ही धर्म को दबा लेता है. तुमने अपनी दिग्विजय के लिए सब लोकों में भ्रमण
करते हुए धर्म का ही नाश किया है. यही मुख्य कारण है कि तुम सबके शत्रु बने हुए
हो. तुम्हारे प्रमाद के कारण बढ़ा हुआ अधर्म-रुपी अजगर, अब हमें ही निगल जाना चाहता
है. देवताओं ने सदा से ही धर्म का रास्ता अपनाया है. उनके द्वारा पालित यह धर्म
उनके पक्ष की वृद्धि कर रहा है."
" हे राजन ! तुमने देवताओं,
दानवों और यक्षो से ही अवध्य होने का वर प्राप्त कर लिया है, मनुष्य आदि से नहीं, परन्तु यहाँ तो ममुष्य, रीछ, वानर और लंगूर आकर गरज रहे हैं. वे सब-के-सब
बड़े बलवान, सैन्यशक्ति से संपन्न तथा सुदृढ़ पराक्रमी हैं."
'" हे दशानन ! जिस तरह लंका में नित नए भयंकर
उत्पाद हो रहे हैं, उन्हें देखते हुए मुझे लंका के सहित समस्त राक्षसों के विनाश
का अवसर उपस्थित दिखाई दे रहा है. घोर एवं भयंकर मेघ गर्जना के साथ लंका पर सब ओर
से गर्म खून की वर्षा हो रही है. घोड़े ,हाथी आदि वाहन रो रहे हैं..मांस भक्षी
हिंसक पशु, गीदड़, और गीध भयंकर बोली बोल रहे हैं."
" हे लंकेश ! मुझे सपने में
काली-कलूटी स्त्रियाँ अपने पीले-पीले दाँत दिखाती हुई दिखाई देती हैं. कभी वे घर में घुस आती हैं और
सामान चुराती हुई जोर-जोर से हँसती हैं. घरों में कुत्ते घुस आते हैं और
बलि-सामग्री को खा जाते हैं. मुझे यह देखकर घोर आश्चर्य होता है कि गायों से गधे और नेवलों से चूहे
पैदा हो रहे हैं. इतना ही नहीं, बाघों के साथ बिलाव, कुत्तों के साथ सुअर तथा
राक्षसों और मनुष्य के साथ किन्नर समागम करते दिखाई देते हैं."
" हे राजन ! पक्षी और मृग
सूर्य की ओर मुँह करके रोते हैं. विकराल, विकट, काले और भूरे रंग के मूँड मुंडाये
पुरुष का रूप धारण करके काल समय-समय पर हमारे घरों की ओर देखकर अट्टहास करते हुए
देखता हूँ."
" हे दशानन ! मैं तुम्हें
अंतिम चेतावनी देते हुए सावधान कर रहा हूँ कि इस बूढ़े मामा की बातों पर गहनता से
विचार करें और जो उचित जान पड़े, वैसा निर्णय करें." इतना कहकर महाबली
माल्यवान चुप हो गया.
०००००
दुरात्मा रावण तो काल के अधीन हो
रहा था. उसने अपने नाना को सम्बोधित करते हुए कहा-" हे नानाश्री ! आप शत्रु
का पक्ष लेकर र्मेरे अहित की बात कर रहे हो. वह बनवासी राम, केवल एक साधारण-सा
मनुष्य है. त्रैलोक्य विजयी रावण जब देवताओं, गन्धर्वों,यक्षों, राक्षसों से नहीं
डरता, तुम उसे एक मामुली-से मनुष्य से डराने की चेष्टा कर रहे हो?."
" तुम्हारी बातों को सुनकर
मुझे तो ऐसा भी प्रतीत होता है कि तुम मुझसे द्वेष रखते हो या फ़िर तुम गुप्तरूप से
शत्रुओं से मिले हुए हो अथवा शत्रुओं ने ऐसा कहने या करने के लिए तुम्हें
प्रोत्साहन दिया है. मैं उस तुच्छ बनवासी राम के भय से मैं कमलनयनी सीता को कैसे
लौटा दूँ?."
गर्जते हुए उसने अपने नाना
माल्यवान को अपने बल और पराक्रम का परिचय देते हुए कहा-" नानाश्री.! करोड़ों
वानरों से घिरे हुए सुग्रीव और लक्ष्मण के सहित राम को मैं कुछ ही दिन में मार
डालूँगा, यह तुम अपनी आँखों से देख लेना."
अपनी जँघा पर ताल ठोंकते हुए उसने
कहा-" जिसके सामने द्वंद्वयुद्ध में देवता भी नहीं ठहर पाते, उस महाबली रावण
को तुम राम का डर बतला रहे हो?. यदि दैववश समुद्र पर उसने सेतु बांध लिया है तो
इसमें विस्मय की कौन बात है,जिससे तुम्हें भय हो गया है.? नाना माल्यवान ! तुम देख
लेना, वानर सहित आया हुआ राम यहाँ से जीवित अयोध्या नहीं लौट पाएगा." घोर गर्जना
करते हुए रावण ने कहा.
जिस नाना की गोद में उसका बचपन
बीता हो, जिस नाना की ऊँगली पकड़ कर जिसने चलना सीखा हो, जो हर उसकी आज्ञा को
शिरोधार्य करता रहा हो, आज वही उसकी बातों का माखौल उड़ा रहा है, उसे ज्ञान दे रहा
है. इससे बढ़कर लज्जा की और कौन-सी बात हो सकती थी?. रावण की अहंकारी बातों को
सुनकर वृद्ध माल्यवाण का चेहरा निस्तेज होने लगा. मन हताशा और निराशा से घिरने
लगा. हलक सूख आया और नेत्रों में जल भर आया था. सर्वथा विपरीत परिस्थितियों को
देखते हुए उसने, उस सभागृह में ज्यादा समय तक बैठे रहना उचित नहीं समझा और.बिना कुछ
कहे वह उठकर बाहर निकल आया .
वह अपने नाना को सभागृह से उठकर
जाता देखता रहा था. नाना का इस तरह उठकर चले जाने का अभिप्राय वह समझ रहा था. समझ
रहा था कि उसने अपनी कटुवाणी से नाना का, न केवल उपहास ही उड़ाया है, बल्कि उनकी दी
गयी किसी भी सीख से वह सहमत नहीं हो पाया था. वह चाहता तो उनकी बढ़ी हुई उम्र का
आदर करते हुए उन्हें रोकने का प्रयास करता. उन्हें किसी तरह मनाता. लेकिन उसने ऐसा
कुछ भी नहीं किया. वह यह भी जानता था कि भले ही नाना रुष्ट होकर चले गए हैं,
बावजूद इसके, युद्धभूमि में वे उसी के पक्ष में रहकर राम से युद्ध करेंगे.
नाना माल्यवान के रुष्ट होकर चले
जाने के बाद उसने अन्य सेनापतियों से परस्पर विचार-विमर्श करके तत्काल लंका की
रक्षा का प्रबंध किया. लंका के पूर्व द्वार पर उसने महाबली प्रहस्त को,दक्षिण
द्वार पर महापार्श्व और महोदर को, पश्चिम द्वार पर अपने मायावी पुत्र इन्द्रजित्
को नियुक्त किया. तदनन्तर नगर के उत्तर द्वार पर शुक और सारण को रक्षा के लिए जाने
की आज्ञा दी. इन सभी महाबलियों के प्रस्थान से पूर्व उसने घोषणा की कि वह स्वयं भी
उत्तरी दिशा में बने द्वार पर उपस्थित रहेगा.
०००००
एक अकेला रावण ही नहीं अपितु
श्रीरामजी भी युद्ध की तैयारी में जुटे थे. रणभूमि में चक्रव्यूह की रचना करने से
पूर्व उन्होंने अपने विश्वस्थ साथियों- सुमित्राकुमार लक्ष्मण, वानरराज सुग्रीव,
ऋक्षराज जाम्बवान, विभीषण, बालिपुत्र अंगद,शरभ, बंधु-बांधवों के सहित सुषेण,
मैन्द,द्विविद, गज, गवाक्ष, नल, पनस और नील को बुलाया और गंभीरता से विचार-विनियम
करने लगे.
गहन विचार चल ही रहा था कि विभीषण
ने श्रीरामजी से निवेदन-पूर्वक कहा-" हे राम ! मैंने अपने विश्वसनीय मंत्रियों-अनल, पनस,
सम्पाति और प्रमति को आज्ञा दी थी कि वे पक्षी का रूप धारण कर रावण की युद्ध
संबंधी व्यवस्था को देखकर शीघ्र ही वापिस चले आएं. संभवतः वह आता ही होगा."
ऐसा कहकर महात्मा विभीषण आकाश में टकटकी लगाये देखने लगे.
तभी उन्होंनें देखा. पक्षी बने
अनल, पनस,सम्पाति और प्रमति चारों आकाश मार्ग से उड़ते हुए उसी ओर आ रहे हैं. यह
देखते हुए उन्हें संतुष्टि होने लगी थी कि चारों ने शीघ्रता से लंका की सेना का
बनाया हुये चक्रव्यूह का महीनता से अवलोकन करते हुए वापिस लौट रहे हैं.
भूमि पर उतरते हुए उन्होंने
बारी-बारी से लंका की सेना की वास्तविक स्थिति से अवगत कराना आरंभ किया.
अनल ने बतलाया- " हे शत्रुदमन ! रावण की आज्ञानुसार प्रहस्त पूर्व दिशा में
अपनी सेना के साथ मोर्चा संभाले हुए है. बहु-संख्यक राक्षसों को लेकर रावण-पुत्र
इन्द्रजित नगर के पश्चिम द्वार पर खड़ा है. स्वयं लंकापति रावण शुक,सारण आदि कई
सहस्त्र शस्त्रधारी राक्षसों के साथ नगर के उत्तर द्वार पर सावधानी के साथ खड़ा
है..विरुपाक्ष, शूल, खड़ग, और धनुष धारण करने वाली विशाल राक्षसों के साथ नगर के
बीच की छावनी पर खड़ा है."
पनस ने बताया " हे प्रभु ! रावण की सेना में दस
हजार हाथी, दस हजार रथ, बीस हजार घोड़े, और एक करोड़ से ऊपर पैदल राक्षस हैं. ये सभी
बड़े वीर, बल और पराक्रम से संपन्न और युद्ध में आततायी हैं. ये सभी निशाचर रावण को
सदा से ही प्रिय रहे हैं. इनमें से एक-एक राक्षस के पास युद्ध के लिए दस-दस लाख का
परिवार उपस्थित है."
सम्पाति ने बताया-" हे
दीनबंधु ! मुझे क्षमा करें. मैंने रावण की शक्ति का अनुमान लगाया है, उसे लेकर आप
यह न सोचें कि मुझे आपसे ज्यादा रावण पर घनी प्रीति है. ऐसा बतलाकर मैं आपको डरा
नहीं रहा हूँ, बल्कि आपके क्रोध को शत्रुओं के लिए उभाड़ रहा हूँ, क्योंकि आप अपने
बल और पराक्रम के द्वारा देवताओं का भी दमन करने में समर्थ हैं. अतः आप इस
वानरसेना का व्यूह बनाकर ही विशाल चतुरंगिणी सेना से घिरे हुए रावण का विनाश कर
सकेंगे." इतना कहकर सम्पाति चुप हो
गया.
प्रमति ने कहा -हे रघुकुलश्रेष्ठ
! रावण की सेना में अनेक बलवान राक्षसों को युद्ध के लिये तैनात कर रखा है. रथि,
घुड़सवार और पैदल सेना की गिनती लगाना आसान नहीं है. जिधर भी दृष्टि जाती है,
राक्षस ही राक्षस दिखाई देते हैं."
चारों गुप्तचरों से जानकारी
प्राप्त करने के पश्चात रामजी ने विभीषण जी से कहा-" हे महात्मा विभीषण ! आप
पर मेरा संपूर्ण विश्वास है. इतनी गहरी जानकारी उपलब्ध कराने के लिए आपको धन्यवाद.
मेरे लिए यह जानना आवश्यक था कि शत्रु-पक्ष किस तरह की व्यूह-रचना कर रहा है.
जानकारी जुटाने का यह काम करते हुए आपने मेरे लिए मार्ग सुगम बना दिया है. मैं
आपकी प्रत्युन्नमति की जितनी भी प्रसंशा करुँ, कम ही प्रतीत होगी. आपको
साधुवाद."
ऐसा कहते हुए उन्होंने कपिश्रेष्ठ नील को आज्ञा
देते हुए कहा- "नील ! तुम पूर्व द्वार पर स्थित होकर प्रहस्त का सामना
करोगे."
फ़िर बालिकुमार अंगद को आज्ञा दी-" अंगद ! तुम दक्षिण द्वार पर उपस्थित रहकर
महापार्श्व और महोदर का सामना करोगे".
फ़िर अपने सन्मुख उपस्थित पवनपुत्र
हनुमान को आज्ञा दी-" हे हनुमान ! तुम अप्रमेय आत्मबल से सम्पन्न हो. तुम अपने बहुत-से वानरों को साथ
लेकर लंका के पश्चिमी फ़ाटक से प्रवेश करोगे".
इस तरह व्यूह-रचना करते हुए
उन्होंने अपने सभी साथियो को सम्बोधित करते हुए कहा- " मैं स्वयं
सुमित्रानंदन लक्ष्मण के साथ नगर के उत्तर फ़ाटक पर आक्रमण करके उसके भीतर प्रवेश
करुँगा, जहाँ सेना सहित रावण विद्यमान है."
फ़िर उन्होंने बलवान वानरराज
सुग्रीव, रीछों के पराक्रमी राजा जाम्बवान तथा रावण के अनुज विभीषण से कहा-"
आप सभी नगर के बीच के मोर्चे पर आक्रमण करेंगे."
सारी सेना और सेनापतियों की
नियुक्त कर देने के पश्चात उन्होंने सभी को अनुदेश देते हुए कहा-" प्रिय
साथियों.! वानरों को युद्ध में मनुष्य का रूप धारण नहीं करना है. इस युद्ध में
वानरों की सेना का हमारे लिए यही संकेत या चिन्ह
होगा. इस स्वजनवर्ग में वानर ही हमारे चिन्ह होंगे. केवल मैं, अनुज
लक्ष्मण, महात्मा विभीषण तथा उनके चार मंत्री- अनल,पनस,सम्पाति और प्रमति ही
मनुष्य रूप में रहकर युद्ध करेंगे."
अपने स्वामी की आज्ञा पाते हुई
वानरसेना रामजी का जयघोष करते हुए तीव्र गति से उस ओर बढ़ने लगी, जहाँ राक्षकराज
रावण अपनी विशाल राक्षस सेना को साथ लेकर मोर्चे पर डटा हुआ था. अति उत्साही वानर
शंख बजाकर, कुछ घड़ियाल आदि बजा-बजा कर रणबांकुरों में जोश भरने लगे थे.
अपने विजयरूपी प्रयोजन की सिद्धि
के लिए बुद्धिमान श्रीराम सुबेल पर्वत पर चढ़ने का विचार किया और वे अपनी विशाल
सेना का नेतृत्व करते हुए लंका की ओर प्रस्थित हुए.
त्रिकूट पर्वत के शिखर बहुत ऊँचा
था. उसकी ऊँचाइयों को देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो वह स्वर्गलोक को छू रहा हो.
समूचे पर्वत पर पीले फ़ूल मुस्क्कुरा रहे थे. उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था कि उसे
सोने के वर्क चढ़ा दिया गया हो. उसका शिखर सौ योजन था. देखने में वह बहुत सुन्दर, विशाल और कान्तिवान दिखाई देता था.
अत्यधिक ऊँचाई होने से पक्षियों के लिए उसकी चोटी तक पहुँच पाना कठिन होता था.
सिखर पर पहुँचकर उन्होंने एक शिला
का चुनाव किया और उस पर बैठते हुए लंका की सुंदरता को निहारने लगे. राक्षस राज
रावण की लंका इसी त्रिकूट पर्वत के शिखर पर बसी हुई थी. पुरी दस योजन चौड़ी और बीस
योजन लंबी थी. उसके चारों ऊँचे-ऊँचे गोपुर सुवर्ण निर्मित थे और परकोटे चाँदी के
बने हुए थे. इस पुरी में सहस्त्र खम्बों से अलंकृत एक चैत्यप्रसाद (पूजाघर) था जो
कैलास पर्वत के सदृश्य देखाई देता था. कमल-पुष्प के समान खिला यह चैत्यप्रसाद
लंकापुरी का जगमगाता आभूषण था.
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प्रासाद-
अमरकोश के अनुसार देवताओं के
मन्दिरों तथा राजा-महाराजों के महलों को " प्रासाद " कहा जाता है. प्राचीन वास्तुविद्या के अनुसार
बहुत लंबा,ऊँचा,चौड़ा और दूर-दूर तक फ़ैला हुआ होता है, जिसके निर्माण में पत्थरों
का बना होता है, जिसमें अनेक भवन जिसमें अनेक श्रृंग, श्रृँखला और अण्डक आदि ही
"प्रासाद" कहा गया है. उसमें बहुत से गवाक्षों (झरोखा-खिड़की) से युक्त
त्रिकोण, चतुष्कोण, आयत और वृत्तशालाएँ बनी होती है.
आकृति के भेद से पुराणों में
प्रासाद के पांच प्रकार या भेद किये गए हैं- चतुरस्त्र, चतुरायन,वृत्त,वृत्त्यत और
अष्टास्त्र. इनका नाम क्रमशः
वैराज,पुष्पक, कैलास, मालक और त्रिविष्टप है. भूमि, अण्डक, और शिखर आदि के
न्यूनता- अधिकता के कारण इन पाँचों के नौ-नौ भेद अथवा प्रकार माने गये हैं. जैसे
वैराज के मेरु,मन्दर,विमान,भद्रक, सर्वतोभद्र, रुचक, नन्दन, नन्दिवर्धन और
श्रीवत्स, पुष्पक के वलभी,हृहराज, शालागृह, मन्दिर, विमान, ब्रह्ममन्दिर, भवन,
उत्तम्भ, और शिविकावेश्म, कैलाश के वलय, दुन्धुभि, पद्म, महापद्म, भद्रक,
सव्रतोभद्र, रुचक, नन्दन,गवाक्ष और गवावृत्म मालक के गह, वृषभ, हंस,गरुड़,
सिंह,भुमूख, श्रीजय, और पृथ्वीधर, तथा त्रिविष्टप के वज्र, चक्र,मुष्टिक या वभ्रु,
स्वस्तिक, शंख, गदा, श्रीवृक्ष और विजय.
२. आकाशमार्ग से गमन करने वाले
तथ, जो देवतादि के पास होता है-विमान- कहलाता है. सात मंजिल के मकान को भी विमान
कहते हैं. प्राचीन वास्तुविद्या के अनुसार उस देवमन्दिर को विमान की संज्ञा दी गयी
है, जो ऊपर की ओर पतला होता चला गया हो. मानसार नामक प्राचीन ग्रंथ के अनुसार
विमान गोल,चौपहला, और अठपहला होता है. गोल को बेसर, चौपहले को नागर और अठपहले को
द्रावि कहते हैं.( हिदी शब्दसागर से.)
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नाना प्रकार के पक्षी अपनी मधुर
वाणी में बोलते हुए उस पर्वत-शिखर को गूंजार रहे थे. अनेक प्रकार के मृग वहाँ
विचरते दिखाई दे रहे थे.
इस प्रकार अपनी विशाल सेना के साथ
श्री रघुनाथजी ने अनेक प्रकार के रत्नों से पूर्ण, तरह-तरह की रचनाओं से सुसज्जित,
ऊँचे-ऊँचे महलों की पंक्ति से अलंकृत और बड़े-बड़े यंत्रों से युक्त मजबूत किवाड़ों
वाली अद्भुत पुरी "लंका" को देखा.
०००००
वानरयूथो और सुग्रीव से घिरे हुए श्रीराम,
सुबेल पर्वत को चारों दिशाओं में ध्यानपूर्वक निहार रहे थे. तभी उनकी दृष्टि. राक्षसराज रावण पर पड़ी, जो इस समय एक
रत्नजड़ित सिंहासन पर विराजमान है. अनेक
सुंदर युवतियाँ उस पर श्वेत चँवर डुला रही हैं. उसके सिर पर सोने का छत्र शोभा दे
रहा था. उसका सारा शरीर रक्तचंदन से सना हुआ था.उसके अंग लाल रंग के आभूषणों से
विभूषित थे.
केवल उसे श्रीरामजी ने ही नहीं
देखा, बल्कि वानरराज सुग्रीव ने भी देखा. उसे देखते ही सुग्रीव जी को रावण से जुड़ी
कुछ पिछली बातें याद हो आयीं-." भूमंडल के अधिकांश राज्यों पर विजय प्राप्त
करने के पश्चात राक्षसराज रावण एक दिन युद्ध के लिए किष्किंधा जा पहुँचा. जिस समय
रावण किष्किंधा पहुँचा तब मेरे बड़े भ्राता बाली पूजा में व्यस्त थे. रावण के
बार-बार ललकारने से उनकी पूजा में विघ्न उत्पन्न हो रहा था. भैया के पहरेदारों ने
रावण को रोकने का बहुत प्रयास किया, लेकिन वह अहंकारी उनके पूजा कक्ष तक पहुँच
गया. इससे क्रोधित होकर उन्होंने रावण को अपनी बगल में दबा लिया. भाई को यह वरदान
प्राप्त था कि जो भी उसके सामने युद्ध के लिए आएगा, उसका आधा बल उन्हें मिल जाएगा.
वे अत्यंत शक्तिशाली और पवन के वेग से चलने में भी सक्षम थे. प्रतिदिन पूजन के बाद
वे चारों महासमुद्र की परिक्रमा करके, सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया करते थे.
उन्होंने रावण को बगल में दबाकर ही समुंदरों की परिक्रमा पूरी की. बगल में दबे
रहने से रावण का दम घुटने लगा था. अपने प्राण बचाने के लिए उसने क्षमा याचना की और
अपनी पराजय स्वीकार की.रावण की प्रार्थना सुनने के बाद बाली ने उसे बंधनमुक्त
मुक्त कर दिया.
तभी सुग्रीव को एक और
पुरानी घटना याद हो आयी. एक समय रावण को महिष्मती के अपराजेय राजा सहस्त्रबाहु से युद्ध करने की
उत्कंठा हुई. वह अपनी सेना समेत महिष्मती जा पहुँचा, लेकिन उसे पता चला कि सहस्त्रबाहु महल में न होते हुए, अपनी पत्नियों के साथ नर्मदा में जलक्रीडा कर रहा
है. तब रावण नर्मदा के किनारे
बैठकर शिवजी का पूजन करने लगा. उधर नर्मदा में कुछ ही दूरी पर जलक्रीड़ा कर रहे सहस्त्रबाहु ने खेल-खेल में अपनी
एक हजार भुजाओं से नर्मदा का जल रोक दिया. इससे किनारों पर तेजी से जलस्तर बढ़ने लगा. रावण ने सैनिकों को इसका कारण जानने भेजा तो पता चला कि यह
सहस्त्रबाहु ने किया है. रावण
ने उसी समय सहस्त्रबाहु पर हमला कर दिया. लेकिन सहस्त्रबाहु के एक हजार हाथों के आगे रावण परास्त हो गया और
सहस्त्रबाहु ने उसे बंदी बना लिया. बाद में रावण के पितामह पुलत्स्यमुनि के कहने पर सहस्त्रबाहु
ने रावण को मुक्त कर दिया था.
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सहस्त्रबाहु
सहस्त्रबाहु
कौन थे?
क्या है पौराणिक तथ्य? किस काल में हुए थे वे और क्या है उनकी कहानी? आओ जानते हैं कि राजा सहस्रबाहु के बारे में 10 खास बातें
1.
कई नाम
: इनके सहस्रबाहु, कार्तवीर्य अर्जुन के हैहयाधिपति, दषग्रीविजयी, सुदशेन, चक्रावतार, सप्तद्रवीपाधि, कृतवीर्यनंदन, राजेश्वर आदि कई नाम होने का वर्णन मिलता है।
2.
युद्ध : सहस्रबाहु अर्जुन ने अपने जीवन में यूं तो
बहुतों से युद्ध लड़े लेकिन उनमें दो लोगों से लड़े गए युद्ध की चर्चा बहुत होती
है। पहला लंकाधिपति रावण से युद्ध और दूसरा भगवान परशुराम से युद्ध। रावण से युद्ध
में जीत गए और श्री परशुरामजी से हार गए थे। नर्मदा नदी के तट पर महिष्मती
(महेश्वर) नरेश हजार बाहों वाले सहस्रबाहु अर्जुन और दस सिर वाले लंकापति रावण के
बीच एक बार भयानक युद्ध हुआ। इस युद्ध में रावण हार गया था और उसे बंदी बना लिया
गया था। बाद में रावण के पितामह महर्षि पुलत्स्य के आग्रह पर उसे छोड़ा गया। अंत
में रावण ने उसे अपना मित्र बना लिया था।
3.
संपूर्ण धरती पर राज : कहते हैं की इस चंद्रवंशी राजा का धरती के
संपूर्ण द्वीपों पर राज था। मत्स्य पुराण में इसका उल्लेख भी मिलता है। भागवत
पुराण में सहस्रबाहु महाराज की उत्पत्ति की जन्मकथा का वर्णन मिलता है। उन्होंने
भगवान विष्णु की कठोर तपस्या करके 10 वरदान प्राप्त किए और चक्रवर्ती सम्राट की उपाधि
धारण की थी।
4.
सहस्रबाहु का जन्म : सहस्रबाहु का जन्म महाराज हैहय की 10वीं पीढ़ी में माता पद्मिनी के गर्भ से हुआ था।
उनका जन्म नाम एकवीर था। चन्द्रवंश के महाराजा कृतवीर्य के पुत्र होने के कारण
उन्हें कार्तवीर्य-अर्जुन कहा जाता है। कृतवीर्य के पुत्र अर्जुन थे। कृतवीर्य के
पुत्र होने के कारण उन्हें कार्त्तवीर्यार्जुन भी कहा गया।
5.
दत्तात्रेय के शिष्य : कार्त्तवीर्यार्जुन ने अपनी अराधना से भगवान
दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय
कार्त्तवीर्याजुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन कहा जाने लगा।
इन्हें ही सहस्रबाहु अर्जुन कहा गया।
6.
महेश्वर थी राज्य की
राजधानी : इन्ही के पूर्वज थे महिष्मन्त, जिन्होंने नर्मदा के किनारे महिष्मति (आधुनिक
महेश्वर) नामक नगर बसाया। इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरांत कनक के
चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को संभाला।
7.
भार्गवों से शत्रुता : भार्गववंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे।
भार्गव प्रमुख जमदग्नि ॠषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर संबंध थे।
परशुराम का जिन क्षत्रिय राजाओं से युद्ध हुआ उनमें से हैहयवंशी राजा
सहस्त्रार्जुन इनके सगे मौसा थे। जिनके साथ इनके पिता जमदग्नि ॠषि का इनकी माता
रेणुका और कपिला कामधेनु गाय को लेकर विवाद हो गया था। इसी के चलते भगवान पराशुराम
ने सहस्त्रार्जुन का वध कर दिया था। पराशुरामजी का हैहयवंशी राजाओं से लगभग 36 बार युद्ध हुआ था। क्रोधवश उन्होंने हैहयवंशीय
क्षत्रियों की वंश-बेल का विनाश करने की कसम खाई। इसी कसम के तहत उन्होंने इस वंश
के लोगों से 36
बार युद्ध कर उनका समूल
नाश कर दिया था। तभी से यह भ्रम फैल गया कि परशुराम ने धरती पर से 36 बार क्षत्रियों का नाश कर दिया था।
8. मंदिर : मध्यप्रदेश में इंदौर के पास महेश्वर नामक स्थान पर सहस्त्रबाहु का
प्राचीन मंदिर है,
जो कि नर्मदा तट पर बसा
है। इस मंदिर के ठीक विपरीत नर्मदा के तट के दूसरे छोर पर नावदा टीला स्थान है जो
कि प्राचीन अवशेष के रूप में विख्यात है।
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महाराज सुग्रीव को एक
तीसरी घटना का भी स्मरण हो आया. एक बार रावण दैत्यराज बलि से युद्ध करने पाताल लोक
जा पहुँचा. रावण बलि की शक्तियों से भलीभांति परिचित
था, इसलिए वह वहाँ भेष बदलकर
पहुँचा, लेकिन जब रावण वहाँ पहुँचा, तो उसकी विचित्र
वेशभूषा देखकर वहाँ खेल रहे बच्चों ने उसे घोड़ों के अस्तबल में
बांध दिया. तमाम कोशिशों के
बाद भी रावण उन बंधनों से मुक्त नहीं हो पाया था. इस बात की जानकारी मिलते ही राजा बलि वहाँ पहुँचे और रावण की क्षमायाचना
करने पर उसे मुक्त करवाया.
महाराज सुग्रीव भी
बल-पराक्रम में किसी से कम नहीं पड़ते थे. वे रावण की कमजोरियों को भली-भांति जानते
थे. ऐसे दुष्ट राक्षसराज रावण को वे सबक सिखाना चाहते थे. उसे देखते ही वे अपने
क्रोध पर नियंत्रण नहीं रख पाए और सहसा उठ खड़े हुए और क्रोध के आवेग
में आकर, सुबेल के शिखर से एक ऊँची छलाग लगाकर रावण के महल की छत पर कूद पड़े.
महल की छत से उसे देर तक निहारने
के बाद उन्होंने रावण को कठोर वाणी में बोला-" हे राक्षसराज रावण ! मैं
लोकनाथ भगवान श्रीरामजी का सखा और दास हूँ. मैं तुझे युद्ध के लिए ललकार रहा हूँ.
तू आज मेरे हाथों मारा जाएगा." ऐसा कहते हुए वे अकस्मात उछलकर रावण के ऊपर जा
कूदे और उसे पृथ्वी पर गिरा दिया.
दोनों एक दूसरे पर मुठ्ठियों से
प्रहार पर प्रहार कर रहे थे. तभी रावण फ़ुर्ती से उछला और सुग्रीव पर आक्रमण करते
हुए कहने लगा-" सुग्रीव ! जब तक तू मेरे सामने नहीं आया था, तभी तक तू
सुग्रीव बना रहा. अब तू अपनी इस सुन्दर ग्रीवा से रहित हो जाएगा." ऐसी गर्जना
करते हुए उसने सुग्रीव को अपनी विशाल भुजाओं द्वारा ऊँचा उठा लिया और उस छत की
फ़र्श पर दे मारा. फ़िर वानरराज सुग्रीव ने रावण को गेंद की तरह उछालकर फ़र्श पर पटक
दिया.
दोनों ही अतीव बलवान थे. वे
परस्पर घूँसें, थप्पड़, कोहनी और पंजो की मार से एक दूसरे पर प्रहार करने लगे. कुछ
देर तक हाथापायी करने के पश्चात वे मल्ल-युद्ध करने लगे. कभी रावण सुग्रीव को
पटखनी देता, तो कभी सुग्रीव रावण को. वे एक दूसरे को मार डालने
का प्रयत्न कर रहे थे.
अपने को शक्तिक्षीण होता देख रावण ने अब अपनी मायावी शक्तिओं का प्रयोग करना
चाहा. महाराज सुग्रीव इस बात को ताड़ गये. सहसा उन्होंने आकाश में छलांग लगायी और
बहुत ऊँचाइयों पर पहुँच कर खड़े हो गए. रावण हाथ मलता, देखता रह गया.
युद्ध में रावण को बहुत थकाकर वे
पुनः आकाशमार्ग से वानरों के सेना के बीच श्रीरामचन्द्रजी के पास आ पहुँचे.
सुग्रीव इस वीरतापूर्ण कार्य को
संपन्न करने के कारण अत्यन्त ही हर्षित थे और उसके अनुचर हर्ष के कारण उछल-उछल कर
उनकी प्रशंसा कर रहे थे. सुग्रीव का आलिंगन करते हुए श्रीरामजी ने कहा- "
महाराज सुग्रीव ! तुमने मेरे आदेश के बिना यह सब करके साहस का काम किया है, लेकिन
तुम्हारा अपना यह निर्णय मूर्खतापूर्ण था. एक राजा होने के तुम्हें अकेले जोखिम
नहीं लेना चाहिए थी. शासक की मृत्यु हो जाने पर राष्ट्र के ऊपर घोर विपत्ति आ जाती
है. यदि रावण तुम्हारा वध कर देता, तब प्रतिशोध में मैं उसका वध कर देता. विभीषण
को लंका और भरत को अयोध्या के राजसिंहासन पर बैठाने के पश्चात मैं भी अपने प्राण
त्याग देता."
अपने स्वामी की बातों को सुनकर
सुग्रीव ने विनम्रता से उत्तर देते हुए कहा’" प्रभु ! जिस दुष्ट रावण ने कपट
से सीताजी का अपरहरण करने का दुःसाहस किया है, उसे देखते ही मैं अपने आप पर
नियंत्रण नहीं रख पाया और उसे कड़ा दण्ड देने के लिए उस पर आक्रमण कर दिया."
मुस्कुराते हुए-" हे वीर
सुग्रीव ! तुमने ऐसा करते हुए अपने पराक्रम का प्रदर्शन ही किया है. तुम्हारे इस
निर्भीक प्रदर्शन से हमारे अन्य वानर सैनिकों को प्रेरणा मिली है."
वे आगे कुछ और बोल पाते, तभी
उन्होंने देखा. सूर्यमंडल में छोटा, रूखा, अमंगलकारी और अत्यन्त लाल घेरा दिखाई
देने लगा. उन्होंने यह भी देखा कि अन्य नक्षत्र भी अच्छी तरह से प्रकाशित नहीं हो
रहे थे. यह सब देखकर उन्होंने लक्ष्मण की ओर देखते हुए कहा-" सुमित्रानन्दन
! विभिन्न अपशकुनों को देखकर मुझे ऐसा
लगता है कि भारी विनाश होने वाला है, जिसमें मुख्य वानरों, रीछों और राक्षसों का
वध होगा. चलो हम लंका पर शीघ्रता से चढ़ाई करें."
तत्पश्चात उन्होंने अपनी सेना का
पुनर्निरीक्षण किया और सुवेल पर्वत से नीचे उतर आए और हाथ में धनुष लिए लंका की ओर
बढ़ने लगे. अपने स्वामी को लंका की ओर जाता देख, उनके पीछे-पीछे वानर पर्वतों को
तोड़कर और वृक्षों को उखाड़कर चल पड़े.
शीघ्र ही वे नगर की
सुरक्षा-दिवारों तक पहुँच गए. रामजी ने वहीं उत्तरी द्वार के बाहर अपनी सेना का
शिविर स्थापित कर दिया.पूर्वी द्वार के बाहर नील, दक्षिण द्वार पर अंगद,एवं
पश्चिमी द्वार पर हनुमानजी तैनात हो गए. सुग्रीव ने अपनी सेना को उत्तरी और
पश्चिमी द्वार के मध्य स्थित कर लिया. इस प्रकार से वानरों के नगर की दिवारों को
पूरी तरह से घेर लिया और युद्ध की प्रतीक्षा करने लगे.
नगर रक्षक राक्षस योद्धाओं ने ,
जब अपनी नगरी लंका को चारों ओर से असंख्य वानरों से घिरा हुआ देखा. उन्होंने
तत्काल जाकर रावण को सूचना देना अति आवश्यक समझा. सेनापतियों ने रावण के समक्ष
उपस्थित होकर सूचना देते हुए कहा-" हे लंकेश ! असंख्य वानरों ने नगर को चारों ओर से घेर लिया
है. हमें अब क्या करना चाहिए?, कृपया आदेश देने की कृपा करें."
सहसा रावण को विश्वास नहीं हुआ कि
इतनी शीघ्रता से राम लंका पर आक्रमण कर देगा. समाचार सुनते ही वह अपने आसन से उठ
खड़ा हुआ और बरामदे में आकर स्वयं परिस्थिति का अवलोकन करने लगा. उसने देखा. देखा
कि लंका को चारों ओर से वानरों ने घेर रखा है. ऐसे आसन्न संकट की घड़ी में क्या
किया जाना चाहिए, वह गंभीरता से इस पर विचार करने लगा.
राम और रावण के बीच होने वाला यह
युद्ध, कोई साधारण युद्ध नहीं था. यह युद्ध, धर्म और अधर्म के
बीच जो हो रहा था. राम धर्म की धुरी थे. जानते थे धर्म और अधर्म की महीन रेखा
को.वे चाहते तो बिना कोई सूचना दिए लंका पर आक्रमण कर सकते थे. आक्रमण करने में वे
समर्थ भी थे. फ़िर भी उन्होंने धर्म नीति का पालन करते हुए अंगद को अपने पास बुलाया
और कहा-"
गत्वा
सौम्य दशग्रीवं ब्रूहि मद्वचनात कपे लंघयित्वा
पुरीं लंका भयं त्यक्त्वा गतव्यथः भ्रष्ट्श्रीकं
गतैश्चर्यं मुमूर्षानष्टचेतनम्..................( एकचत्वारिशं सर्ग-60-61)
" हे सौम्य ! दशमुख रावण
राज्यलक्ष्मी से भ्रष्ट हो गया है.उसका सारा ऐश्वर्य समाप्त हो चला है. वह मरना ही
चाहता है, इसलिए उसकी चेतना नष्ट हो गयी है. तुम परकोटा लांघकर लंकापुरी मे भय
छोड़कर जाओ और मेरी ओर से उससे यह कहना-"
यस्य
दण्डधरस्तेSहं दाराहरण्कर्षित: * दण्ड धारयमाणस्तु लंकाद्वारे
व्यवस्थित: (64)
" निशाचर ! राक्षसराज ! तुमने मोहवश घमंड में आकर
ऋषि, देवता, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष और राजाओं का बड़ा अपराध किया है.
ब्रह्माजी का वरदान पाकर तुम्हें जो अभिमान हो गया था, निश्चित ही उसके नष्ट होने
का समय आ चुका है. तुम्हारे उस पाप का दुःसह्य फ़ल आज उपस्थित है."
"मैं अपराधियों को दंड देने
वाला शासक हूँ. तुमने जो मेरी भार्या का अपहरण किया है, इससे मुझे बड़ा कष्ट पहुँचा
है, अतः तुम्हें उसका दंड देने के लिए मैं लंका के द्वार पर आकर खड़ा हूँ."
" नीच निशाचर ! जिस बल के
भरोसे तुमने मुझे धोका देकर माया से सीता का हरण किया है, उसे आज युद्ध के मैदान
में दिखाओ."
" यदि तुम मिथिलेशकुमारी
सीता को लेकर मेरी शरण में नहीं आए तो मैं अपने तीखे बाणॊं द्वारा इस संसार को
मुक्त कर दूँगा."
"राक्षसों में श्रेष्ठ
धर्मात्मा विभीषण भी मेरे साथ यहाँ आए हैं, निश्चय ही लंका का निष्कंटक राज्य
इन्हें ही प्राप्त होगा."
" हे राक्षसराज ! तुम शूरता
का आश्रय ले मेरे साथ युद्ध करो.मेरी दृष्टिपथ में आने के पश्चात यदि तुम पक्षी
होकर तीनों लोकों में उड़ते और छिपते फ़िरो तो भी तुम अपने घर को जीवित नहीं लौट
सकोगे."
"भलाई इसी में है कि तुम अपना
स्वयं का श्राद्ध कर डालो, परलोक में सुख देने वाले दान-पुण्य कर लो और लंका को जी
भरके देख लो, क्योंकि तुम्हारा जीवन अब मेरे अधीन हो चुका है."
वीर अंगद ने अपने स्वामी के एक-एक
शब्द को ध्यान से सुना था. सुना था कि लंका में प्रवेश करने के पश्चात लंकेश को अपने
स्वामी की ओर से समाचार कह सुनाना है. उन्होंने निनम्रतापूर्वक रामजी के श्रीचरणों
को अपना प्रणाम निवेदित करते हुए कहा-" प्रभु ! जैसी आपकी आज्ञा." ऐसा
कहते हुए वे उठ खड़े हुए. खड़े होने के साथ ही उन्होंने अपने शरीर के आकार को बड़ा
किया और "जय जय श्रीराम" जय -जय
श्रीराम" का उद्घोष किया और एक ही छलांग में लंका के भीतर प्रवेश कर गए.
अकस्मात एक विशाल वानर को लंका
में प्रवेश करता हुआ देखकर, रावण का एक पुत्र जो अपने समकक्ष बालको के साथ खेल, खेल रहा था, रोकते हुए कहा-" तुम वही वानर तो नहीं हो, जिसने हमारी
स्वर्ण नगरी को जला डाला था. इतना बड़ा अपराध करने के पश्चात भी तुम जीवित कैसे बच
गए?.अब की तुम जीवित बचकर नहीं जा सकते." ऐसा कहते हुए उसने अंगद को मारने के
लिए लात उठाया.
अंगद नहीं चाहते थे कि उस नन्हें
बालक से अनावश्यक बहस करे. लेकिन वह इतना बढ़-चढ़ कर बोल रहा था और लात भी बतला रहा
था, यह उनसे सहन नहीं हुआ और उन्होंने उसकी दोनों टांगों को पकड़कर घुमाकर पृथ्वी
पर पटक दिया. बाकी के सारे बच्चे भाग खड़े हुए.
बस, कुछ ही अन्तराल के बाद
संपूर्ण लंका में कोलाहल मच गया कि वही वानर लंका में पुनः आ धमका है, जिसने लंका
जलाई थी. यह समाचार लंकेश तक भी पहुँचा. उसने तत्काल कुछ राक्षस वीरों को आज्ञा दी
कि वह उस वानर को पकड़ कर ले आए. हालांकि वे नीडर थे, बलवान थे, युद्ध कौशल में
निष्नात थे, चाहते तो उन राक्षसों को पल भर में यमलोक भेज सकते थे. लेकिन वे जिस
उद्देश्य को लेकर लंका आए थे, वह कार्य अभी होना शेष था. दरअसल वे राक्षस राज रावण
से मिलना चाहते थे और अपने स्वामी श्री रघुनाथ जी का संदेशा सुनाना चाहते थे. अतः
कुछ न कहते हुए वे अपने स्थान पर खड़े रहे. उन्होंने अपने स्वयं को बंदी बना लेने
के लिए प्रस्तुत कर दिया. राक्षसों ने उन्हें रस्सी में बांधा और रावण के सन्मुख
लेकर जाने लगे.
अति बलवान व बांकुरा बालिकुमार
अंगद, बिना किसी भय के सभा में पहुँचे. उन्हें आता देखकर सारे सभासद, भय के चलते
अपने-अपने स्थान से उठकर खड़े हो गए.
उन्हें देखते ही रावण गरजा. उसकी
गर्जना ठीक उसी प्रकार से थी,जैसे कोई बादल फ़ट पड़ा हो. जिसने भी उसकी गर्जना सुनी,
उन सभी ने अपने दोनों हाथों से कानों को ढंक लिया-
" रे दुष्ट वानर ! तू कौन है? और किस
प्रयोजन से लंका में घुस आया है?. तुझे लंका में घुसते तनिक भी भय नहीं लगा कि पकड़
लिए जाने के बाद जीवित नहीं बच पाओगे?."
बालिपुत्रोSगंदो नाम यदि ते श्रोत्रमागतः (77)
रावण की धमकियों को सुना-अनसुना
करते हुए अंगद ने कहा-" " हे दशानन !
मैं अनायास ही बड़े-बड़े उत्तम कर्म करने वाले कोशलनरेश श्रीराम जी का दूत
अंगद हूँ. संभव है तुमने मेरा नाम तो सुना ही होगा, जिन्होंने तुम्हें अपनी कांख
में छः मास तक दबाए रखा था. अंत में अपनी पराजय स्वीकार्य करते हुए तुमने मेरे पिता से मित्रता स्थापित कर ली थी,
मैं उन्हीं का पुत्र हूँ."
मेरे स्वामी रघुकुलतिलक श्रीरामजी
ने तुम्हारे लिए यह संदेशा भेजा है-" उसे ध्यान से सुन लें.-" हे नृशंस
रावण ! जरा मर्द बनो और घर से बाहर निकलकर
युद्ध में मेरा सामना करो. मैं मंत्री, पुत्र, और बन्धु-बांधवों सहित तुम्हारा वध
करूँगा, क्योंकि तुम्हारे मारे जाने से तीनों लोकों के प्राणी निर्भय हो जाएँगे.
तुम देवताओं, दानव, यक्ष,गन्धर्व, नाग और राक्षस-सभी के शत्रु हो. ऋषियों के लिए
तो तुम कंटक स्वरूप हो,अतः आज मैं तुम्हें उखाड़ फ़ेकूँगा."
" अतः तुम मेरे चरणॊ में
गिरकर आदरपूर्वक सीता को नहीं लौटाओगे तो मेरे हाथों मारे जाओगे.. . तुम्हारे मारे
जाने के पश्चात लंका का सारा ऐश्वर्य विभीषण को प्राप्त हो जायगा."
" हे लंकेश ! तुमने श्रेष्ठ
वंश में जन्म लिया है. तुम पुलस्त्य ऋषि के नाती हो. तुमने देवों के देव महादेव जी
एवं परमपिता ब्रह्माजी को बहुत प्रकार से पूजा है और उनसे वर प्राप्त कर तुमने
लोकपालों सहित सभी राजाओं को जीत लिया है, लेकिन तुम मेरे हाथों जीवित नहीं बचोगे.
अभी भी समय है, अतः तुम बिना विलम्ब किये मेरे चरणों में गिरकर, अपने किए गए पापों
के लिए क्षमा याचना करते हुए सीताजी को लौटा दो. मैं तुम्हें क्षमा कर
दूँगा."
अंगद की बातों को सुनकर रावण का धैर्य चुकने लगा था. वह
अन्दर ही अन्दर क्रोध में उबलने लगा था. अत्यन्त ही रुष्ट होते हुए उसने अंगद से
कहा-" रे बन्दर के बच्चे."......देखता नहीं तू किससे बात कर रहा है?....मैं लंकापति रावण....त्रिलोक विजयी रावण .... जरा सम्हाल कर बोल...अब
एक भी असम्मानजनक शब्द मुँह से निकाला, तो मैं तेरी जीभ काटकर फ़ेंक
दूँगा....समझे,"
" रे नादान बंदर ! तूने अपने स्वामी राम का
संदेश तो मुझे सुना दिया, लेकिन अपने स्वयं का परिचय नहीं दिया कि तू किसका पुत्र
है?.तेरा कुलगोत्र क्या है और तू किस तरह राम का दूत बन बैठा." रावण ने जानना
चाहा. रावण अब कुछ नर्म पड़ा था, वह अब अंगद के बारे में जानना चाह रहा था.
" हे दुराचारी रावण ! मैं
तुम्हारे मित्र का पुत्र हूँ, मैं समझता हूँ कि तुम्हारे लिए बस इतना ही जानना
पर्याप्त होगा."
"रे नादान बच्चे ! मैं किसी मित्र-वित्र को नहीं जानता. सबसे पहले
तो तू अपने पिता का नाम बता?...किस नाते तेरा पिता मेरा मित्र था."
" हे दशानन ! किष्किन्धा
नरेश बाली का नाम तो तुमने अवश्य ही सुना होगा?. मैं उन्हीं प्रतापी बाली का पुत्र
हूँ. कभी उनसे तुम्हारी भेंट हुई थी."
अंगद का नाम सुनते ही रावण चौका.
फ़िर बोला-"अरे अंगद ! तू ही बालि का पुत्र है, अपने कुल का नाश करने वाला,
बांस की अग्नि जैसा पैदा हुआ. तू व्यर्थ ही जन्मा जो अपने मुँह से उस बनवासी का
दूत कहलाते थकता नहीं..... खैर.... अब तुम अपने पिता बालि के बारे में बताओ. कहाँ
है वह इस समय और क्या कर रहा है?."
" लंकेश ! कुलद्रोही ! तू
मेरे पिता से मिलना चाहता है न ! बस दस दिन और प्रतीक्षा कर ले....मेरे प्रभु
श्रीराम के तीक्ष्ण बाण तुम्हें मेरे पिता के पास पहुँचा देंगे. वहीं जाकर तू अपने
मित्र को गले लगाना और कुशल पूछ लेना. प्रभु श्रीराम जी से द्रोह करने का क्या
परिणाम होता है, वे सब तुम्हें सुना देंगे."
" लंकेश ! तुमने मुझे
कुलनाशक कहा. सत्य है कि मैं कुलनाशक हूँ और तुम कुलपालक हो. अंधे-बहरे भी ऐसा
नहीं कह सकते, फ़िर तो तुम्हारे बीस नेत्र और बीस कान हैं. शिव, ब्रह्मा, देवता और
मुनियों का समाज जिनके चरणॊं की सेवा चाहते हैं, उनका दूत होकर मैंने कुल डुबा
दिया? ऐसा कहते हुए तेरा हृदय क्यों नहीं फ़ट गया?."
रावण सुन रहा था. सुन रहा था कि
अंगद उस पर व्यंग्य करते हुए उसे कुलद्रोही कह रहा है. यह सुनते ही उसे अत्यन्त ही
क्रोध हो आया. क्रोध के आवेश में आकर उसने अंगद से कहा-" रे दुष्ट वानर ! मैं बहुत समय से तेरी कठोर वाणी
को सुनता और सहता आ रहा हूँ."
" हे दुर्बुद्धि वानर ! तू नहीं जानता कि रावण
धर्म के मर्म को गहराइयों से जानता-समझता है. वह भली-भांति जानता है कि धर्म क्या
होता है और अधर्म क्या होता है? शायद तुझे यह भी नहीं मालुम कि रावण नीति-विशारद
में कितना महान है?."
" हा .... हा.....हा...(
ठहाका लगा कर हंशते हुये. )-"
नीतिविशारद रावण-...मैंने तुम्हारी धर्मशीलता के बारे में सुन रखा है कि तू पराई
स्त्रियों का अपहरण करता रहा है. इतना ही नहीं मैंने तुम्हारी नीति-विशारद को भी
जान लिया कि तू एक दूत के साथ किस तरह का व्यवहार कर रहा है?. ऐसे धर्म-व्रत को
धारण करने वाले रावण, तुझे पानी में डूनकर मर जाना चाहिए."
" अपनी बहन को नाकहीन देखकर
तुमने किस धर्म का आश्रय लिया था ?, तुम्हारी इसी धर्मशीलता को सारा संसार जानता
है. हे दुष्ट रावण ! मैं बड़ा ही भाग्यशाली
हूँ, जो तुम्हारा दर्शन कर पाया."
रावण अंगद के व्यंग्य-बाणों से
बुरी तरह से आहत हो रहा था. अत्यंत ही आहत होते हुए उसने अंगद से कहा-" हे
जड़बुद्धि वानर ! तू व्यर्थ ही बकबक मत कर. शायद तुझे नहीं मालुम रावण ने इन्हीं
भुजाओं से कैलाश को सहज में ही उठा लिया था." अपनी भुजाओं को बतलाते हुए रावण
ने अंगद से कहा.
" अरे अंगद ! सच बताना.
तुम्हारी सेना में कौन-सा ऐसा योद्धा है, जो मुझसे भिड़ेगा?. तेरा बनवासी स्वामी
स्त्री-वियोग में बलहीन हो गया होगा और उसका छोटा भाई उसी के दुःख में दुःखी और
उदास रहता है. मैं नहीं समझता कि तुम्हारा बलहीन स्वामी और उदासी में डुबा उसका
भाई मेरा मुकाबला कर पाएगा?."
" रही बात तुम्हारी और
सुग्रीव की, तो तुम दोनों किसी नदी के किनारे के वृक्ष हो. मेरे क्रोध से उत्पन्न
बाढ़ में तुम यूंहि बह जाओगे. राम के एक मंत्री का नाम है-जाम्बवंत....वह तो बहुत
ही वृद्ध हो चुका है, उसमें इतनी शक्ति बची ही कहाँ है कि वह मेरा मुकाबला कर
सके?.रहा मेरा छोटा भाई विभीषण, तो वह बड़ा ही डरपोक है.वह किसी भी कीमत पर मेरा
सामना नहीं कर सकता?."
" तुम्हारी सेना में दो और
वानर हैं, नल और नील. वे केवल शिल्प-कर्म ही जानते हैं. हाँ.....एक बन्दर और है जो
बड़ा ही बलशाली है, जो लंका में बलात घुस आया था और लंका जलाकर भाग निकला था."
रावण की दंभभरी बातों को सुनकर
युवराज अंगद ने रावण से कहा-" हे दशकंधर ! तुमने अभी-अभी जिस वीर योद्धा की
सराहना की, वह तो महाराज सुग्रीव का एक छोटा-सा हरकारा है. हमने ही उसे खबर लेने
के लिए भेजा था. सचमुच उस बन्दर ने प्रभु की आज्ञा पाए बिना ही तुम्हारे नगर को
जला डाला उसने अशोक वाटिका को तहस-नहस कर उजाड़ डाला और तेरे पुत्र को मार डाला,
तिस पर भी तुम उसका कोई अहित तक नहीं कर पाए. ?."
"हे नीच निशाचर ! महाराज
बालि के निर्मल यश का पात्र जानकर मैंने तुम्हें नहीं मारा. हे रावण ! मैं जानना
चाहता हूँ कि इस संसार में और कितने रावण हैं?. मैंने अपने कानों से एक और रावण का
नाम सुना है जो पाताल के राजा बलि को जीतने गया था. वहाँ नन्हें-नन्हें बालकों ने
उसे घुड़साल में बाँध दिया था. बालक जा-जाकर खेलते और उसे मारते जाते थे. कई दिनों
तक बंदी रहने के बाद राजा बलि ने उसे तरस-खाकर छुड़वा दिया. कहीं वह रावण तुम तो
नहीं हो."
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रावण को अपनी शक्ति पर एक
बार फिर घमंड हुआ. रावण ने तय किया वह पाताल लोक पर भी राज करेगा. इस इच्छा को
लेकर उसने दैत्यराज बलि को ललकारा. बलि पाताल लोक के राजा थे. बलि ने जब उसकी बात
को गंभीरता से नहीं लिया तो रावण राजा बलि से युद्ध करने के लिए पाताल लोक में जा
पहुँचा. बलि के पास पहुँचने से पहले रावण का सामना महल में खेल रहे बच्चों से हो
गया. रावण ने बच्चों को डराने की कोशिश की तो बच्चों ने रावण को पकड़कर घोड़ों के
साथ अस्तबल में बांध दिया.कई दिनों तक बंदी बने रहे रावण पर तरस खाकर महाराज बलि
ने उसे बंधन-मुक्त करवाया था.
हे रावण !’ मैने एक और रावण के
बारे में सुन रखा है कि उस रावण को सहस्त्राबाहु ने दौडकर विशेष जन्तु समझकर पकड़
लिया और उसे अपने घर ले आया था. उसे पुल्स्त्य मुनि ने जाकर छुड़ाया.
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सहस्त्रबाहु ने रावण
को बंदी बना लिया.
एक कथा के अनुसार लंकापति रावण को जब सहस्त्रबाहु अर्जुन की
वीरता के बारे में पता चला तो वह सहस्त्रबाहु अर्जुन को हराने के लिए उनके नगर आ
पहुँचा. यहां पहुँचकर रावण ने नर्मदा नदी के किनारे भगवान शिव को प्रसन्न करने और
वरदान मांगने के लिए तपस्या आरंभ कर दी. थोड़ी दूर पर सहस्त्रबाहु अर्जुन अपने
पत्नियों के साथ नर्मदा नदी में स्नान करने के लिए आ गए, वे वहां जलक्रीड़ा करने लगे और अपनी हजार भुजाओं से नर्मदा
का प्रवाह रोक दिया. प्रवाह रोक देने से नदी का जल किनारों से बहने लगा. जिस कारण
रावण की तपस्या में विघ्न पड़ गया. इससे रावण को क्रोध आ गया और उसने सहस्त्रबाहु
अर्जुन युद्ध आरंभ कर दिया. सहस्त्रबाहु अर्जुन ने रावण को युद्ध में बुरी तरह से
परास्त कर दिया और बंदी बना लिया.
रावण के दादा के कहने पर मुक्त किया
बंदी बनाने की सूचना जैसे ही रावण के पिता हुई तो वे घबरा गए
और सहस्त्रबाहु अर्जुन के पास पहुंचे और रावण को मुक्त करने का आग्रह किया. रावण
के दादा का नाम ऋषि पुलस्त्य था. दादा के कहने पर सहस्त्रबाहु ने रावण को मुक्त कर
दिया.
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हे दशानन रावण! तुम वही रावण तो
नही हो, जिसे महाबली बालि ने अपने बगल में दबाकर चारों समुद्र की परिक्रमा की थी.
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बालि भी बलशाली था. उसे
वरादान प्राप्त था कि सामने वाले व्यक्ति की शक्ति उसमे समाहित हो जाती थी. जिस
कारण सामने से उसे कोई पराजित नहीं कर सकता था. एक बार लंकापति रावण बालि से युद्ध
करने के लिए पहुँच गया था. बालि रावण से युद्ध नहीं करना चाहता था. लेकिन बार बार
ललकराने के कारण बालि को क्रोध आ गया और उसने रावण को बगल में कसके दबा लिया और
चार समुद्रों की परिक्रमा कर डाली. माना जाता है कि बालि की गति इतनी तेज थी कि
रोज सुबह-सुबह ही चारों समुद्रों की परिक्रमा कर लेता था. बालि परिक्रमा के बाद
सूर्य को अर्ध्य अर्पित करता था. जब तक बालि ने परिक्रमा की और सूर्य को अर्ध्य
अर्पित किया तब तक रावण को बगल में दबाकर ही रखे रहा और पूजा करता रहा. रावण
परेशान हो गया और बचने के अनंत प्रयास किए लेकिन बालि की पकड़ से वह मुक्त न हो
सकता. अंत में बालि ने रावण को छोड़ दिया. इसके बाद रावण ने बालि से कभी युद्ध नहीं
किया.
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रावण हैरान-परेशान था कि
इतनी गोपनीय जानकारी अंगद को कहाँ से प्राप्त हुई होगी?..उसने अपनी शक्तियों का
परिचय देते हुए अंगद से कहा-" अरे शठ ! मैं वही रावण हूँ जिसकी बाहुलीला
कैलाश पर्वत जानता है. जिसकी शूरता को स्वयं महादेव शंकर जानते हैं, जिनको मैंने
मस्तक रूपी फूल चढ़ाकर पूजा कर चुका हूँ. सिर कमलों को उतार कर अपने हाथों से मैंने
शंकर जी की पूजा की है. मेरे बाहु-विक्रम को दिग्पाल जानते हैं. जब-जब भी मैं उनसे
भिड़ा, तब-तब उनके शीषण दांत मेरी छातीमें नहीं घुसे. वे मेरे हृदय से लगते ही मूली
की तरह टूट गये.."
"रे मूर्ख ! जिसके चलने
मात्र से पृथ्वी डगमगाने लगती है,जैसे मत्त हाथियों के चलते छोटी नाव. मैं वही
विश्वविख्यात प्रतापी रावण हूँ. क्या तूने कभी अपने कानों से नहीं सुना?. तू उस
रावण को छॊटा कहता है और मेरे सामने एक तुच्छ बनवासी राम की प्रशंसा करता है?. अरे
दुष्ट ! मैंने तेरा सारा ज्ञान समझ लिया है". हुंकार भरते हुए रावण ने अंगद
से कहा.
अहंकारी रावण को अपने मुँह
से स्वयं अपनी बड़ाई करता देख अंगद ने कहा-" हे नीच निशाचर ! जरा संभल कर बोल.
जिनका कुठार सहस्त्राबाहु की भुजाओं रूपी गहन अपार बल को जलाने में अग्नि समान था,
जिसके फ़रसा रूपी सागर की तीव्र धारा में असंख्य राजा अनेको बार डूब गये, उन
परशुराम का गर्व जिनको देखते ही भाग गया. रे रावण ! वे मनुष्य कैसे हो सकते
हैं?."
" हे मूर्ख उद्दण्डी !
क्या श्रीराम मात्र एक मनुष्य हैं?. जिस महावीर ने तेरी लंका को जलाकर भस्मीभूत कर
दिया, क्या वह साधारण बन्दर है?.
" हे रावण ! सुन,
चतुरता छोड़ कर कृपासिंधु रघुनाथजी को क्यो नहीं भजता?. रे दुष्ट ! यदि तू रामजी का द्रोही हुआ तो ब्रह्माजी और
शिवजी भी तेरी रक्षा नहीं कर सकते. रे मूढ़ ! तू व्यर्थ ही अपने गाल न बजा. अगर तू
अपनी जिद पर अड़ा रहा तो निश्चित ही तेरे मस्तक कट-कटकर बन्दरों के आगे पृथ्वी पर
गिरेंगे. तेरे गिरे हुए सिरों को बन्दर-भालु चौगान खेलेंगे."
अंगद के बार-बार समझाने के बाद भी रावण
के सिर पर चढ़ा अहंकार और गहराने लगा. उसने क्रोधित होते हुए अंगद से
कहा-" रे निर्बुद्धि वानर ! तू नहीं
जानता, कुम्भकरण जैसा मेरा भाई है और विश्व विख्यात इन्द्रद्रोही मेघनाथ मेरा
पुत्र है. मेरे पराक्रम को तूने सही-सही नहीं सुना. मैंने अकेले ने ही चराचर विश्व
को जीत लिया है."
"बन्दरों की सहायता
लेकर समुद्र बांध लेने से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि राम परम प्रतापी है?. अरे
बन्दर ! अनेकों पक्षी सागर को देखते-देखते लांघ जाते हैं, पर हे बन्दर ! वे सब वीर
नहीं होते. मेरे बाहु-समुद्र बल रूपी जल से भरे हैं जिसमें बहुत से वीर, देवता और
मनुष्य डूब गये. ऐसा कौन वीर है जो मेरे अथाह और अपार बीस समुद्रों को पार कर
पाएगा?."
" रे नादान बन्दर ! तू
नहीं जानता कि मैंने दिग्पालों से पानी भरवाया है. तू मुझे बार-बार एक सामान्य से
मनुष्य का यश सुनाता है. यदि वह अच्छा योद्धा है, जिनकी गुण कथा तू बार-बार मुझे
कह सुनाता है, वह दूत क्यों भेजता है? स्वयं आकर मुझसे युद्ध क्यों नहीं करता?.
देख....देख..मेरी विशाल भुजाओं को देख, फ़िर अपने स्वामी की बड़ाई करना?.
रावण की अहंकारी बातों को
सुनकर अंगद से रहा नहीं जा रहा था. वे सहन नहीं कर पा रहे थे कि अहंकारी रावन मुझे
बार-बार बन्दर-बन्दर कहकर उपहास कर रहा है,. प्रत्त्युत्तर देते हुए उन्होंने रावण
से कहा-" हे रावण ! संसार में तेरे समान लज्जावान कोई है ही नहीं....
लज्जावान तो तेरा सहज स्वभाव है...... नहीं तो अपने मुँह से तू अपने गुण कभी बखान
नहीं कहता..... अब बड़ी-बड़ी बातें मत बना और मेरा वचन सुन. अपना अभिमान त्याग दे.
मैं केवल दूत बनकर ही नहीं आया हूँ बल्कि.
श्रीरघुनाथजी के विचारों से तुझको अवगत कराने ही आया हूँ."
मैं रघुपति सेवक कर दूता
" हे बीस कानों वाले
निशाचर! जरा ध्यान से सुन.मैं रामजी के सेवक का दूत हूँ.
तोहि पटकि महि सेन हति,
चौपट करि तब गाउँ : तव जुबतिन्ह समेत सठ, जनकसुतहिं लै जाउँ.(लंका कांड दोहा 30)
" रे दुष्ट ! तुझे पृथ्वी पर पटक कर फ़िर तेरी सेना का संहार
कर और तेरी लंका को चौपट करके मैं जनकनन्दिनी माता सीता को अपने साथ लिवा ले जा
सकता हूँ. तुझे क्या मारना. तू तो वैसे ही मरा-मराया है. कहा गया है कि चौदह
प्रकार के मरे हुए लोगों का वध करना कोई वीरता का काम नहीं है.
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चौदह प्रकार के लोगों को मरा ही समझना
चाहिए-
सदा का रोगी, निरन्तर
क्रोधी, विष्णु-विमुख, वेद और संतों का विरोधी, अपने ही शरीर का पोषक, परनिन्दक,
वाममार्गी, कामी, कृपण, महामूर्ख, अत्यन्त और महापापी.
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अंगद की बातों को सुनकर रावण
अन्दर ही अन्दर तिलमिला रहा था. चेहरे पर क्रोध की परछाई गहराती जा रही थी. आँखों
लाल-लाल अंगारे-सी दहकने लगे थीं. उसकी मुठ्ठियाँ कसने लगी थीं.
साँसे तेज चलने लगी थीं. अब वह अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख पा रहा था. उसने भयंकर
क्रोधित होते हुए राजकुमार अंगद से कहा- " रे नीच वानर ! तेरे सिर पर काल
मंडरा रहा है. निश्चित ही तू अब मेरे हाथों से मरना ही चाहता है, इसी से छोटे मुँह
बड़ी-बड़ी बातें कर रहा है.जिसके बल पर तू कटु वचन बोल रहा है, उसमें बल,प्रताप,
बुद्धि और तेज कुछ भी नहीं है.
अगुन अमान जानि तेहि, दीन्ह
पिता बनवास : सो दुःख अरु जुवती बिरह, पुनि निसि दिन मम त्रास.
जिन्ह के बल कर गर्व तोहि, अइसे
मनुज अनेक : खाहिं निसाचर दिवस निसि, मूढ़ समझु तजि टेक (तुलसी.रामा
लंका कांड दोहा 31-)
" अरे दुर्बुद्धि वानर ! उसे
गुणहीन और मनहीन जानकर ही तो उसके बाप ने उसे वनवास दे दिया. उसे एक तो यही दुःख
है उस पर स्त्री-वियोग और फ़िर दिन-रात मेरा भय बना रहता है. जिसके बल पर तुझे
अभिमान है,ऐसे अनेक मनुष्यों को मेरे निशाचर रात-दिन भक्षण किया करते हैं. अरे मूढ़
वानर ! अपनी शेखी बघारना छोड़ और मैं जो कहता हूँ उसे सही समझ."
क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा.
अपने आराध्य स्वामी की निंदा
सुनते ही अंगद अत्यन्त ही क्रोधित हो उठे. उनकी भुजाएँ फ़ड़कने लगी. मुठ्ठियाँ कसने
लगीं. शरीर तमतमाने लगा. अब वे किसी भी तरह से अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं रख पा
रहे थे. उन्होंने तमककर दोनों भुजदण्डों को पृथ्वी पर दे मारा. भुजदण्ड के प्रहार
से धरती हिलने उठी. सभाग्रह में बैठे सभी सभापति अपने-अपने आसन से धड़ाम से नीचे गिर पड़े. कुछ भय से ग्रसित होकर इधर-उधर भाग
खड़े हुए. चारों ओर बदहवासी-सी मच गयी थी.
बलशाली दशानन रावण भी पृथ्वी पर
गिरते-गिरते बचा. किसी तरह उसने अपनी दोनों भुजाओं को पृथ्वी पर टिकाते हुए अपने
आप को गिरने से बचा तो लिया था, लेकिन संभलकर उठते समय उसके दसों सिर से मुकुट
छटककर पृथ्वी पर गिर पड़े. कुछ तो अंगद ने उठाकर अपने सिर पर रख लिए और कुछ अंगद ने
अपने स्वामी रघुनाथजी के पास फ़ेंक दिए.
हालांकि अंगद बिल्कुल भी नहीं
जानते थे कि इन दस मुकुटों में वह "
शिरोमणि मुकुट" कौन-सा है, जो रघुकुल गौरव की शान है?. लेकिन वे यह जानकर
मन-ही-मन में प्रसन्न हो रहे थे कि श्रीरघुनंदन की विमाता कैकेई जी ने जिस मुकुट
को लाने का आदेश प्रभु श्रीरामजी को दिया था, संभवतः वह मुकुट अनायास ही प्रभु के
पास पहुँच गया है. वे इस बात को समझकर भी अतीव प्रसन्न हो रहे थे, कि जो काम मेरे
स्वर्गीय पिताश्री को करना था, वह काम मैंने कर दिखाया है.
अंगद ने मुकुटों को भरपूर शक्ति
के साथ हवा में उछाल दिया और वे मुकुट आकाश-मार्ग से चलकर उन स्थानों पर जाकर गिर
रहे थे, जहाँ प्रभु श्रीराम छावनी डाले हुए थे. आकाश-मार्ग से आकर गिरते मुकुटों
को देखकर वानर के दल यत्र-तत्र भागते हुए कहते-" हे विधाता ! क्या दिन में भी
उल्कापात होने लगा?. अथवा रावण के क्रोध करके चार बज्र चलाए है जो बड़ी वेग के साथ
चले आ रहे हैं.?’
इस सुंदर दृष्य को देखकर प्रभु
श्रीराम को हँसी आ गई. उन्होंने हँसते हुए कहा-" वानरों डरो मत....डरो मत. ये
न उल्का है, न बज्र है, न राहु अथवा केतु है, ये तो रावण के मुकुट हैं, जो बलवीर
अंगद के भेजे हुए आ रहे हैं.
आकाशमार्ग से आते हुए उन चार
मुकुटों में एक मुकुट रघुकुल-गौरव रहा है, जिसे उछलकर पवनपुत्र हनुमानजी ने पकड़
लिया और अपने स्वामी को ले जाकर दिया.
सूर्य के समान प्रकाशवान उस मुकुट को बन्दर-भालु कौतुक से देखने लगे..
००००
किसी तरह लड़खड़ाते कदमों से रावण
उठ खड़ा हुआ और अपने सैनिकों को आज्ञा दी-" इस बन्दर को पकड़ लो और मार डालो.
इसी प्रकार शीघ्र सब योद्धा दौड़ो और जहाँ-जहाँ रीछ-बन्दर को पाओ, उन्हें वहीं पर
खा जाओ.जाओ....जाकर पृथ्वी को बन्दर-भालुओं से हीन कर दो और उन तपस्वी भाइयों को
जीते-जी पकड़ लो."
रावण की बातों को सुनकर अंगद अपनी
हँसी नहीं रोक पाए. हँसते हुए उन्होंने रावण से कहा-" रे निर्ल्लज रावण !
तुझे गाल बजाते तनिक भी लाज नहीं आती?. रे निर्लज्ज कुलघाती ! अपने हाथ से अपना
गला काट कर तू मर क्यों नहीं जाता?. मेरे बल और पराक्रम देखकर तेरी छाती नहीं
फ़टती?."
"रे स्त्री-चोर,
कुमार्गगामी, दुष्ट, पाप की राशि, मन्दबुद्धि, और कामी, तू सन्निपात के रोगी की
तरह कैसे-कैसे दुर्वचन बक रहा है?. रे दुष्ट दानव ! तू काल के वश हो गया है. इसका
फ़ल तू आगे पाएगा, जब बन्दरो-भालुओं के चपेटे लगेंगे. श्रीराम केवल एक साधारण
मनुष्य हैं, ऐसा कहते हुए तेरी जीभ गिर नहीं पड़ी?. ठहर जा, युद्ध भूमि में सिरों
सहित तेरी जीभें गिरेंगी, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है."
" मेरे प्रभु श्रीरामजी के
बाण-समूह तेरे रुधिर के प्यासे हैं. हे नीच रावण ! मैं तुझको इसी भय से कि वे बाण
प्यासे ही रह जायेंगे, छोड़े देता हूँ. मुझको प्रभु श्रीराम जी ने आज्ञा नहीं दी
है, ऐसा होता तो मैं मुक्कों से दसों मुखों को तोड़ डालता और लंका को अपनी पूँछ में
लपेट कर समुद्र में दुबा देता."
"तू अपनी इस लंका को
सुवर्णमयी लंका कहते नहीं थकता. यद्यपि तेरी लंका गूलर के फ़ल के तुल्य ही है,
जिसमें असंख्य कीड़े बिलबिला रहे हैं. बन्दर होने के नाते उसे खाते देर नहीं लगेगी,
किंतु उदार श्रीरामजी ने मुझे ऐसी आज्ञा नहीं दी है."
परमवीर अंगद की बातों को सुनकर
रावण बिना मुस्कुराए नहीं रह सका. उसने
मुस्कुराते हुए कहा-" अरे मूढ़ बंदर.....तूने इतना अच्छा लच्छेदार
असत्य भाषण कहाँ से सीखा?. तेरा बाप वाली भी ऐसे गाल नहीं बजाता था. लगता है तू भी
उस बनवासी के संग रहकर मिथ्याभाषी (लबार) हो गया है.
सभा माझ पन करि पद रोपा.
खिसियाया रावण अब बाप-दादा की
निंदा करने पर उतर आया था. वह निर्लज्जता की सारी सीमाओं को लांघ कर श्रीरामजी पर
छींटा-कशी करते हुए उन्हें लबार तक कहने पर उतर आया था?. उसकी अहंकार भरी बातों को
सुनकर अंगद क्रोध में आग-बबूला हो उठे.
उन्होंने पलट कर जवाब देते हुए
कहा-" हे अंहकारी रावण ! क्या श्रीराम एक सामान्य मनुष्य हैं.?..वनवासी
है,?,,,लबार है ? , ऐसा कहते हुए तेरी जिभ कट कर गिर क्यों नहीं गयी. रे
अभिमानी ! वे राम मनुष्य क्यों कर हैं,
जिन्होंने एक ही बाण से बाली का वध कर दिया था ?. रे कुजाति! रे जड़मति ! तेरे बीसों नेत्र हैं, इसके बाद भी
तू मेरे प्रभु श्रीराम जी के दिव्यता के दर्शन नहीं कर पा रहा हैं ? अरे पापात्मा
! तेरी एक नहीं बल्कि बीसों जिव्हा हैं, इसके बाद भी तू मेरे स्वामी के गुणगान न
कर, उनका अनादर कर रहा है?. मेरे स्वामी प्रभु श्रीरामजी ने मुझे आज्ञा नहीं दी है,
नहीं तो मैं तेरे दसों मुखों के दांत तोड़
देता और लंका को समुद्र में डुबा देता."
जौं मम चरन सकसि सठ टारी.
" हे दुष्ट ! तू महान पुलस्त्य ऋषि का वंशज होकर भी महान नहीं
बन पाया? मानव न होकर तूने दानव बनना उचित समझा? मैं बाली का पुत्र हूँ. हाँ, मैं
उन्हीं बाली का पुत्र हूँ, जिन्होंने तुझे अपनी काख में छः मास तक दबाये रखा था.
मैं उन्हीं बलशाली पिता का पुत्र हूँ. तू
मेरा बल जानना चाहता है....तो ले .देख....ऐसा कहते हुए अंगद ने अपना दायां पैर आगे
बढ़ाकर पृथ्वी पर रखते हुए कहा-" रे
शठ ! यदि तू पृथ्वी से मेरे पैर को टाल सके तो मेरे स्वामी वापस लौट जाएंगे. मैं
माता सीता को हार जाऊँगा."
वीर अंगद को श्रीरामजी ने केवल
इतना ही कहा था-"काजु हमार तासु हित कोई*रिपु सन करेहु बतकही सोई" जिस भी तरह
हमारा काम हो और उस रावण का भी हित हो, वही काम करना. लेकिन उन्होंने तो यहाँ माता
सीताजी को ही दांव पर लगा दिया. वे जानते थे कि रावण सीताजी को अपने हृदय में ऊँचा
स्थान दे चुका है., परंतु वहीं वह रामजी
से द्वेष रखता है. अतःजहाँ ब्रह्म नहीं है, वहाँ भक्ति कैसे रह सकती है?. माता
सीता भक्ति स्वरूपा है, जिसे पाने के लिए उसे ब्रह्म की उपासना करनी होती है. जो
ब्रह्म को घृणा की दृष्टि से देखता हो, वह भक्ति नहीं पा सकता. रावण के घमंड को
तोड़ने के लिए ही अंगद ने इतना बड़ा दांव चल दिया था.
वीर अंगद में बुद्धि के आठ गुण
समाहित थे- सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर ग्रहण करना, ग्रहण करके धारण करना, ऊहापोह
करना, अर्थ या तात्पर्य को भली-भाँति समझना और तत्त्वज्ञान से सम्पन्न होना. इसके
अलावा वे साम, दाम, दण्ड और भेद आदि बल से भी सम्पन्न थे.बुद्धि के आठ गुण,
नीति-शास्त्र के चार गुणों के साथ ही उनमें चौदह दिव्य गुण और भी थे- देश-काल का
ज्ञान. दृढ़ता,, सब प्रकार के क्लेशों को सहन करने की क्षमता, सभी विषयों का ज्ञान,
चतुरता, उत्साह, मंत्रणा को गुप्त रखना, परस्पर विरोधी बात न करना, सूरता,, अपनी
और शत्रु की शक्ति का ज्ञान, कृतज्ञता, शरणागतवत्सलता, अमर्षशीलता. उन्हें अपने से
अधिक अपने प्रभु पर विश्वास था. यही कारण
भी था कि उन्होंने इतना बड़ा दांव चला.
वीर अंगद को अहंकारी रावण अब तक
एक सामान्य वानर समझ रहा था. जैसे ही उसने सुना कि यदि इस सामान्य से वानर अंगद के
पैर टाल देने से राम वापिस लौट जाएगा. राम के लौटने के बाद युद्ध की संभावना भी
अपने आप सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाएगी. वह अपने सिंहासन से उठने ही वाला था कि
उसका प्रमुख मंत्री- सेनापति प्रहस्त उठ खड़ा हुआ और उसने रावण से कहा- " हे महाबली ! हमारे रहते हुए आपको ऐसा करना उचित
प्रतीत नहीं होता. मै अकेला ही पर्याप्त हूँ. मैं अभी इस अहंकारी बन्दर को उठाकर
आकाश में उछालकर फ़ेंक दूँगा . आप कृपया मुझे आदेश दें". ऐसा कहते हुए वह रावण
के आदेश की प्रतीक्षा करने लगा.
रावण का संकेत पाकर प्रहस्त आगे
बढ़ा. उसने अपनी संपूर्ण ऊर्जा अंगद के पैर को टालने में लगा दी, लेकिन वह पैर तो
टस-से-मस नहीं कर पाया. उसके माथे पर पसीने की बूंदे छलछला आयीं. धौकनी के जैसी
सांसे चलने लगी. आँखों के सामने अन्धियारा तांडव करने लगा. अन्तोगत्वा वह वहीं एक
ओर पृथ्वी पर बेहोश होकर गिर पड़ा था.
उसे बेहोश होकर गिरता देख रावण के
अन्य मंत्री एक के बाद एक आते गए लेकिन वे शक्ति-संपन्न अंगद के पैर को उठाना तो दूर,
हिला तक नहीं पाये.
सभा में उपस्थित इन्द्रद्रोही
मेघनाथ अपनी खुली आँखों से यह सब देख रहा था. देख रहा था कि उसके अति शक्तिशाली
दानव एक-के-बाद एक धराशायी होते चले गए, लेकिन एक साधारण से बन्दर के पैर तक नहीं
हिला पाए. तमतमाकर वह अपने आसन से उठ कर खड़ा हुआ. उसे उठता हुआ देखकर सभी सभासद हर्षित होने लगे. सभी के मन
में ऐसा विश्वास था कि मेघनाथ अद्भुत पराक्रम कर दिखाएंगे.
बड़े-बड़े डग भरता हुआ इन्द्रद्रोही
मेघनाथ अंगद के पास पहुँचा. पास पहुँचकर ठीक अंगद के सामने खड़ा हो गया और भृकुटि
तान कर अंगद को घूर-घूर कर देखने लगा. उसे अनुमान था कि कभी अंगद ने उसके बारे में
सुन रखा होगा कि सामने खड़ा व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि इन्द्र को जीत लेने वाला
मेघनाथ है. इन्द्रजीत मेघनाथ. संभव है, बन्दर यह जानकर डर कर भाग जाएगा.
देर तक घूरकर देखते रहने के बाद
भी महावीर अंगद पर इन्द्रजीत का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वे उसी तरह तनकर खड़े रहे.
अहंकारी मेघनाथ ने अब झुककर अंगद के पैर को पकड़कर उठाने का उपक्रम किया. देखता
क्या है, कि पैर अपनी जगह से रत्ती भर भी हिल नहीं पा रहा है, ऊपर उठाने की बात ओ
अलग थी. फ़िर भी घमंड में चूर इन्द्रजीत ने अपनी सारी शक्ति झोंक दी,लेकिन वे अंगद
के पैर को हिला तक नहीं पाया.
कोटिन्ह मेघनाथ सम सुभट हरषाइ :
झपटहिं टरै न कपि चरन,पुनि बैठहिं सिर नाइ
भरी सभा में अपनी पराजय को होता
हुआ देखकर इन्द्रजीत शर्म से दोहरा हुआ जा रहा था. माथे पर पसीने की बूंदे छलछला
आयी थीं.. सांसे अनियंत्रित गति से चलने लगी थी. आँखों के सामने अंधकार तांडव करने
लगा था. किसी तरह उसने अपने आप को पृथ्वी पर गिरने से बचाते हुए, अपने आपको
नियंत्रित किया. उठकर खड़ा हुआ और अपने माथे पर चू आए पसीने को उत्तरीय से पोंछता
हुआ अपने आसन पर आकर बैठ गया. निराश और हताश बलशाली इन्द्रजीत नीची गर्दन किए बैठा
रहा.
वानर का बल देखकर सभी ने मन-ही-मन
अपनी पराजय स्वीकार कर लिया. अंगद ने फ़िर से ललकार लगाते हुए रावण से कहा-"
रावण ! तू अपने आपको बड़ा बलशाली और पराक्रमी बताते नहीं थकता?. मुझे विश्वास नहीं
होता कि तूने खेल ही खेल में कैलाश पर्वत को यूंहि उठा लिया होगा?.
अंगद की ललकार सुनकर रावण के
क्रोध का पारावार बढ़ता गया. वह तमक कर अपने सिंहासन से उठा और अंगद का पैर पकड़ने
के लिए जैसे ही झुका, अंगद ने अपने पैर पीछे खींचते हुए रावण से कहा-" लंकेश
! मेरे पैर पकड़ने से तेरा उद्धार होने वाला नहीं है. रे दुष्ट- तू श्रीरामजी के
पैर क्यों नहीं पकड़ता?". अंगद के तीखे वचनों को सुनकर उसकी सारी कांति जाती
रही. वह ऐसा निस्तेज हो गया जैसे दिन में चन्द्रमा दिखाई देता है.
अंगद को वचनों को सुनकर उसका सिर
मारे शर्म के नीचे झुक गया और खिसियाते हुए वह अपने सिंहासन पर आकर बैठ गया. उसकी
हालत ऐसी दिखाई दे रही थी, मानों उसकी सारी संपत्ति खो दी हो. अंगद उसे बार-बार
नाना प्रकार की नीतियों का वर्णन कर उसे सुनाते रहे,पर अहंकारी रावण ने अंगद की
नीतियों को सुना-अनसुना कर दिया., क्योंकि उसके सिर पर काल खड़ा होकर तांडव जो कर
रहा था.
शत्रु का मान-मर्दन कर, अपने
प्रभु का यश सुनाकर अंगद यह कहकर चल दिए-" हे अहंकारी रावण ! यहाँ आने से
पहले मैने तेरे पुत्र का वध कर दिया था. हे रावण ! मैं अपनी स्वयं की क्या बड़ाई
करुँ. तुझे तो मैं रणभूमि में खिला-खिला कर न मारूँ तो मेरा नाम अंगद नहीं?"
नि:सहाय रावण अंगद की धमकियों को
सुनता रहा था. अपने पराभव को घटता देख उसे अपने संभावित विनाश का पूर्वाभास होने
लगा था.
शत्रु-बल का मंथन कर,बल के पुंज
अंगद ने हर्षित होकर अपने प्रभु श्रीराम जी के नाम का उद्घोष किया और रावण के
राजमहल से, पवन वेग से उड़ते हुए, अपनी छावनी की ओर प्रस्थित हुए. उधर रावण
बिलखता-आसूँ बहाता हुआ अपने महल की ओर चल दिया.
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