कविताएँ
वादियाँ सतपुड़ा की
Tuesday 26 March 2024
Ramkatha राम कथा - युद्ध और राज्याभिषेक ( Part - 4)
महारानी मंदोदरी की अपनी एक विशेष
सेविका को गुप्तचर नियुक्त कर रखा था कि वह महल के भीतर होने वाली हर छोटी-बड़ी
घटनाऒं की सूचना उसे समय-समय पर देती रहेगी. चुंकि इस समय राम और रावण के बीच
लगातार कटुता बढ़ती जा रही थी. एक बड़े राज्य की महारानी होने के नाते वे चाहती थीं
कि इस संबंध में पल-प्रतिपल घटने वाले प्रसंग उन तक पहुँचती रहे.
गुप्तरुप से उपस्थित सेविका ने
अंगद के आगमन से लेकर उनके प्रस्थान तक के समाचार अपनी महारानी तक पहुँचा दिया .
अब उन्हें इस बात की प्रतीक्षा थी कि रावण कब अपने कक्ष में प्रवेश करता है.
उन्होंने देखा कि विश्वविजेता रावण भारी कदमों से चलता
हुआ महल में प्रवेश कर रहा है. वे तत्काल अपने स्थान से उठकर खड़ी हो गयीं.
उन्होंने देखा कि हताश-परेशान रावण के माथे से पसीना चू-चू करके बह रहा है. उसकी
उखड़ी-उखड़ी चाल को देखकर समझा जा सकता था कि वह आज वह किसी जुआरी के तरह अपना
सर्वस्व लुटा कर लौट रहा है. वे जानती थीं कि ऐसे समय में उन्हें कटु शब्दों को
प्रयोग में नहीं लाना चाहिए. उन्हें कोमल वचनों को प्रयोग में लाना चाहिए.
जब वह अपने आसन पर विराजित हो
गया, तब पास जाकर उन्होंने अपनी साड़ी के पल्लु से उसके माथे पर बह रहे पसीने को
पोंछा. पास ही पंखा पड़ा हुआ था. उसे उन्होंने उठाया और मस्तक पर पंखा झलने लगीं.
देर तक पंखा झलने के बाद उन्होंने मृदु वाणी में कहा-’ हे स्वामी ! हे प्राणनाथ
! मैं नहीं चाहती कि राम और रावण में युद्ध
हो. मैं अपनी इस सुवर्ण नगरी को यूंहि उजड़ते हुए नहीं देखना चाहती".
"हे कंत ! राम के एक अकेले दूत खेल-ही-खेल में
समुद्र लांघकर निर्मयता के साथ लंका में घुस आया.उस एक अकेले ने न सिर्फ़ हमारे
बलवान राक्षसों को मौत के घाट उतार दिया, बल्कि देखते-ही देखते उसने हमारे प्यारे
पुत्र अक्षयकुमार का वध कर दिया. उसने न
केवल अक्षय का वध किया बल्कि सारे नगर को जलाकर राख कर दिया. एक दूसरे वानर अंगद
ने आकर आपको भरी सभा में ललकारा और आपके बड़े बलवान योद्धा उसके पैर तक को हिला नहीं आए. तब आपके बल का गर्व कहाँ रहा
गया?.
" हे स्वामी ! आप मेरा कहा
मानिये. उसे विचारिये. हे स्वामिन ! आप भले ही श्री रघुनाथ को राजा न मानिये, उनको
चराचर का नायक व अतुलित बली समझिये. उनके बाण के प्रताप को मारीच अच्छे से जानता
था, समझता था, किन्तु आपने उसकी बात को सुना-अनसुना कर दिया."
" जानकी के स्वयंवर के समय
महाराज जनक की सभा में अगणित राजा और बड़े-बडे योद्धा उपस्थित थे. उस सभा में तो
स्वयं आप भी उपस्थित थे. रामजी ने धनुष को तोड़कर जानकी से ब्याह कर लिया, तब आपने
उन्हें युद्ध में क्यों नहीं जीत लिया?."
" हे कंत ! इन्द्र का पुत्र
जयन्त उनका थोड़ा बल जानता था. श्रीराम ने उसे पकड़ कर, उसके ऊपर दया करके उसकी एक
आँख फोड़ दी और उसे जीवित ही छोड़ दिया.
सूर्पणखा की गति आपने देख ही ली है, तो भी आपके हृदय में नाम मात्र को लज्जा नहीं
आयी?."
" हे नाथ ! जिन्होंने बिराध
और खरदूषण का वध करके लीला से ही कबन्ध को मार डाला और बाली को एक ही बाण से मार
दिया. हे स्वामी! उन राम के प्रताप को आप समझिए. उन्हें प्रभु मानिये."
" हे स्वामी ! उन्होंने खेल
ही खेल में समुद्र को बंधवा लिया और सेना के सहित सुबेल पर्वत पर आ उतरे.लंका का
सर्वनाश करने से पहले उन सूर्यकेतुकुल, दयाशील रामजी ने आपके हितार्थ दूत भेजा.
जिसने बीच सभा में आपके बल को इस प्रकार मथ दिया जैसे मदमस्त हाथियों के झुण्ड को
सिंह मथ देता है."
" हे लंकेश ! जिनकी सेवा में
अतुलित बल के स्वामी वीर हनुमान और अंगद जैसे सेवक हों, उन्हें आप किस प्रकार से
युद्ध में पराजित कर पाएँगे?.
" मेरे प्राणनाथ ! आप
जिन्हें एक साधारण मनुष्य...एक साधारण-सा बनवासी कहकर उनका उपहास उड़ाते हो, शायद
आप उनके बल से परिचित नहीं हो?. आप व्यर्थ ही मान, मोह और मद में बह रहे हैं. हे
स्वामीन् ! श्रीराम जी से बैर ठानकर कालवश होने के कारण आपके मन में बोध क्यों
नहीं पैदा होता?."
" हे कंत ! आप दुर्बुद्धि का
त्याग कर दीजिए. आप में और रघुनाथ जी में
युद्ध शोभा नहीं देता. रामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने मात्र एक छोटी से रेखा खींची
थी, उसे भी आप लांघ न सके...फ़िर किस बल पर आप युद्ध करने पर उतारु क्यों
हो?."
" हे स्वामी ! आप स्वयं
ज्ञानवान हो...आपको क्या समझाना...आप भली-भांति जानते हैं कि काल किसी को लाठी मार
नहीं मारता. वह बुद्धि, बल,धर्म और विचार को पहले हर लेता है. हे स्वामी ! जिसका
काल समीप आ जाता है, उसे आप ही के समान भ्रम हो जाता है."
" हे कंत ! आपके दो पुत्र
मारे गए और नगर जल कर राख हो गया. अब भी समय है, अपनी भूल को सुधार लीजिए. हे नाथ
! कृपा के सागर श्री रघुनाथ जी को भजकर निर्मल यश लीजिए."
" हे लंकेश ! क्यों कर आप
मुझे विधवा बना देना चाहते हो?. मैं सधवा ही बनी रहना चाहती हूँ. आप मुझे सधवा
देखना चाहते हैं तो रघुनाथ से बैर करना त्याग कर उनकी शरण में क्यों नहीं चले
जाते.?"
महारानी मंदोदरी के एक-एक शब्द
जहर बुझे तीर के मानिंद रावण के हृदय में चुभ रहे थे. वह और देर तक उसके उपदेश
सुनने के पक्ष में नहीं था. बिना कुछ बोले वह तमतमा कर उठ खड़ा हुआ.
" बस महारानी बस......बहुत
हो चुका तुम्हारा उपदेश............इसके आगे एक भी शब्द निकाला
तो........?" वह चीख कर बोला था. लगा
आसमान में बिजलियाँ कड़कड़ा रही हो. उसका हाथ स्वमेव तलवार तक जा पहुँचा था. बोलते
समय उसका पूरा शरीर मारे क्रोध के थरथराने लगा था. आँखों से चिनगारियाँ बरसने लगी
थीं. चेहरे पर तनाव की परछाइयां स्पष्ट दिखाई दे रही थीं.
देर तक चुप रहने के बाद उसने
मंदोदरी से कहा- मंदोदरी...! तुम शायद तुम भूल रही हो कि किससे बात कर रही
हो....लंकापति रावण से.....मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ कि अपना भला-बुरा नहीं
समझता?."
" ( भुजाएं दिखाते हुए.) रावण ने स्वयं अपने बल पर देवताओं, गन्धर्वों, किन्नरों
सहित देवराज इन्द्र को युद्ध में करारी पराजय दी है..मैं स्वर्ग का अधिपति
हूँ....मैंने अपनी इन्हीं भुजाओं से कैलाश को यूंहि नहीं उठा लिया था.?....तुम उसे
उपदेश दे रही हो. मैं एक योद्धा हूँ, योद्धा
केवल युद्ध की भाषा समझता हूँ. एक योद्धा होने के नाते मैं उससे युद्ध अवश्य
करुँगा."
" मंदोदरी ! युद्ध में दो ही परिणाम निकलते हैं..या तो
मेरी जीत होगी अथवा हार..... परिणाम जो भी हो,....चाहे वह मेरे पक्ष में हो या फ़िर
तुम्हारे बनवासी राम के पक्ष में...इसका निर्णय तो युद्धभूमि के मैदान में ही
होगा...रावण ने कभी पराजय स्वीकार नहीं की है......तुम देख लेना.....जीत मेरी ही
होगी..."
"तुम्हारा वह बनवासी राम
मेरे द्वार पर आकर मुझे ही चुनौती दे रहा है....युद्ध के लिए ललकार रहा
है.....क्या मैं चुड़ियाँ पहनकर महल में छिप जाऊँ ?.....क्या तुम यहीं चाहती हो ?
योद्धा युद्धभूमि में एक ही उद्देश्य लेकर उतरता है कि वह अपने शत्रू का बध करेगा
या स्वयं युद्धभूमि में मारा जाएगा."
" महारानी मंदोदरी
!.....तेरा वह बनवासी राम मुझसे भय खाता है, तभी तो वह बार-बार दूत भेजकर मुझे
डराने की चेष्टा कर रहा है...एक शूरवीर....एक
योद्धा युद्ध भूमि में जाने और अपना पराक्रम दिखाने के लिए युद्धभूमि में उतरता
है, न कि भय के चलते घर में छिपा रहता है....मैं युद्ध से नहीं घबराता. भयभीत हुआ
आदमी ही बार-बार उपदेश देने की सोचता है."
"महारानी मन्दोदरी ! तुम
मुझसे बार-बार सीता को लौटा देने का परामर्श दे रही हो...तुम बार-बार मुझे उस राम
के शरण में जाने की बात कर रही हो.....जिसके पिता ने उसे राज्य से निष्कासित कर
दिया था... तुम ऐसे व्यक्ति के सामने मुझे सिर झुकाने को कह रही हो...मैं दशकंद रावण हूँ....रावण ने कभी
किसी के सामने अपना सिर नहीं झुकाया है और न ही भविष्य में किसी के आगे सिर
झुकाएगा. आया समझ में.?"
महारानी मंदोदरी को खरी-खोटी
सुनाकर वह अपने कक्ष से बाहर निकल गया और सारा भय भुलाकर अति गर्व से फूलकर अपने
सिंहासन पर नि:शंक होकर बैठ गया.
०००००
विश्व-विजेता रावण के गर्व को चूर करके अंगद
अपने स्वामी प्रभु श्रीरामजी के पास लौट आए. उन्हें लौट कर आया जानकर रामजी ने उसे
अपने पास बुलाया. अंगद ने प्रभु के श्रीचरणों में सिर झुका कर प्रणाम
किया.तदन्नतर रामजी ने उसे आदर के साथ
अपने पास बिठाकर हँसते हुए बोले-" अंगद ! मुझे बड़ा आश्चर्य है. मैं तुमसे
बहुत कुछ जानना चाहता हूँ . सत्य कहना. जो रावण दैत्यों के कुल का तिलक है और
जिसके अतुल बाहु-बल की सारे संसार में धाक है, उसके चार मुकुट तुमने फेंके थे. हे
तात ! तुम्हें वे किस प्रकार मिले?." रामजी ने जानना चाहा था.
बड़ी ही विनम्र वाणी में बोलते हुए अंगद ने
कहा-" हे सर्वज्ञ ! हे भक्त-सुखदायक !.कृपया सुनिये,,,,ये मुकुट
नहीं हैं, राजा के चार गुण है. वेद कहते हैं कि साम, दाम,दण्ड और भेद...ये चारों
गुण राजा के हृदय में बसते हैं. ये नीति-धर्म के सुन्दर चरण हैं जो चलकर आपके पास
आ गए हैं.."
" हे स्वामी ! रावण धर्म से रहित, प्रभु
के चरणॊं से विमुख और काल के वशीभूत है, अस्तु, ये चारों गुण उसको छोड़कर आपके पास
आ गए हैं". अंगद ने अपने स्वामी प्रभु श्रीराम से कहा.
अंगद की बातों से सहमत होकर उन्होंने अपने
मंत्रियों को पास बुलाया और समझाते हुए कहा-" आप सभी इस बात से अवगत हैं कि
लंका में प्रवेश करने के लिए एक नहीं बल्कि चार-चार विकट द्वार हैं. अब उस पर किस
प्रकार चढ़ाई की जाए, इस पर विचार कर लीजिये."
रामजी के ऐसा कहने के उपरांत सुग्रीव,
जाम्बवान, और विभीषण ने गहनता से विचार कर निश्चय किया कि वानरी सेना के चार दल
बनाए जाने चाहिए. चार दल बनाकर उन्होंने प्रत्येक दल के सेनापतियों को नियुक्त
किया.फ़िर सारे यूथपतियों को बुलाकर समझाया.
लंका को अति दुर्गम
किला जानते हुए सारे वानर निःशंक होकर डंका और रणभेरी बजाते, गरजते हुए लंका के
परकोटॊं पर चढ़ गए. कोई वानर वृक्ष को उखाड़ कर दरवाजा तोड़ने का उपक्रम करता तो कोई
पर्वत शिखर को तोड़कर, तो कोई मुक्कों से दरवाजे तोड़ने लगा. बड़े-बड़े गजराजों के
समान विशालकाय वानर सोने के दरवाजों को धूल में मिलाते, ऊँचे-ऊँचे गोपुरों को
ढहाते, उछलते-कूदते एवं गर्जते हुए लंका पर धावा बोलने लगे. कुछ वानर अपने राजा
सुग्रीव की जय बोलते, तो कोई जय-जय श्रीराम का उद्घोष करते हुए परकोटों पर जा चढ़े.
बलवान कुमुद ने ईशाण कोण के द्वार
को, शतबलि ने आग्नेय कोण के द्वार को, सुषेण नैऋत्यकोण के द्वार को घेर कर खड़े हो
गए. इधर सुमित्राकुमार लक्ष्मण के सहित प्रभु श्रीरामजी,वानरराज सुग्रीव ने उत्तर
द्वार को घेर लिया. ऋक्षराज धूम्र एक करोड़ रीछों को लेकर रामजी के दूसरी ओर खड़े
हुए. कवचादि से सुसज्जित महात्मा विभीषण हाथ में गदा लिए सावधान होकर अपने
मंत्रियों के साथ आकर डट गए, जहाँ रामजी स्वयं विद्यमान थे. गज, गवाक्ष, गवय,और गन्धमादन-सब
ओर से घूम-घूम कर वानर सेना की रक्षा करने लगे.
लंका में चारों ओर भयंकर कोलाहल
मचता देख रावण ने अपनी सारी सेना को तुरंत बाहर निकलने का आदेश दिया. आदेश सुनते
ही राक्षसों ने सहसा बड़ी भयानक गर्जना की.
सूर्य देवता आकाश -पटल पर अवतरित
हो गए थे. रामजी की सारी सेना सुसज्जित होकर युद्धभूमि में पहुँच चुकी थी. सबसे
पहले वीर हनुमान जी से शंखनाथ करते हुए
शत्रु पक्ष को रणभूमि में आने और युद्ध करने का संकेत भेजा. शत्रुपक्ष ने जैसे ही
शंखनाद सुना, उसी समय प्रहस्त ने भी शंख फ़ूंक कर रणभूमि के शीघ्र पहुँचने का संकेत
भेजा. कुछ ही समय के अंतराल में दोनों सेनाएँ आमने-सामने आकर खड़ी हो गयी.
देखते-ही-देखते दोनों ओर
रणभेरियां बजने लगी. बहुत-से धौंसे और वाद्ययंत्र एक साथ बज उठे. वाद्य-यंत्रों की
भीषण ध्वनि से समूचा आकाश सिहर उठा.
शत्रु पक्ष की ओर से आती भयानक
गर्जना को सुनकर वानर सैनिकों ने बड़े जोर से सिंहनाद किया,जिससे छोटे-छोटे पर्वतों
के शिखर और कंदराओं सहित मलयपर्वत गूँज उठा. इतना ही नहीं, हाथियों की चिग्घाड़,
घोड़ों की हिनहिनाने, रथों के पहियों की घर्घराहट एवं राक्षसों के मुख से निकलती
कर्कश आवाज के साथ शंखों और दुन्दुभियों के शब्द और वेगवान वानरों के निनाद से
समूची पुथ्वी सहित सारा अंतरिक्ष थरथरा उठा. राक्षसी सेना और वानरों के सेना के
मध्य युद्ध होने लगा.
इधर राक्षसी सेना की ओर से दमकती
हुईं तलवारें, गदाओं,शक्ति, शूल और फ़रसों से वार पर वार होने लगे. इधर वानर र्सैनिक
बड़े-बड़े पर्वतों की, भारी-भारी शिलाओं को किसी कन्दुक की तरह उछाल-उछाल कर
शत्रुपक्ष को घायल करने लगे. कोई-कोई वानर को विशालकाय पेड़ों को उखाड़कर, उसे
घुमाते हुए शत्रु-दल का दमन करने लगे. शत्रु पक्ष की सेना "महाराज रावण के
नाम का जयकारा लगाते, उधर राम की सेना के सैनिक अपने स्वामी श्री रघुनाथ के नाम को उद्घोष करते हुए शत्रु पक्ष में भय
उत्पन्न करते हुए दावनों को गाजर-मूली की तरह काट-काट कर यमलोक भेजने लगे.
दूसरे बहुत-से राक्षस महल के
परकोटे पर चढ़कर अपने शत्रु सेना पर भिन्दिपाल अस्त्र ( यह लोहे का बना होता है,जिसे
हाथ से फ़ेंका जाता है. इसका निर्माण कुछ इस तरह से किया गया था जिससे बाण भी चलाया
जा सकता था.) और शूलों से विदीर्ण करने लगे. उन्हें ऐसा करता देख अनेक वानर ऊँची
छलांग लगाकर परकोटे पर जा चढ़े और एज-एक सैनिकों को पकड़-पकड़कर परकोटे से नीचे
फ़ेंकने लगे. कुछ को वहीं मार गिराया. विशालकाय वानर अपनी तीखे दाँतो और नाखुनों से
शत्रु पक्ष के सैनिकों को घोर पीड़ा पहुँचाने लगे. दोनों पक्षों के बीच चल रहे इस
भयंकर युद्ध में अनगिनत सैनिक मारे गए, कुछ हताहत हुए. कुछ पृथ्वी पर गिरकर मारे
जाने लगे. राक्षसों और वानरों में बड़ा ही
अद्भुत घमासान युद्ध हुआ, जिससे वहाँ रक्त और मांस की कीच जम गयी.
बालिपुत्र अंगद के साथ इन्द्रजीत,
प्रजंघ नामक राक्षस सम्पाति के साथ, जम्बुमाली वीर हनुमान जी के साथ, महाबली गज,
तपन नामक राक्षस के साथ, वानरराज सुग्रीव, प्रघस नामक राक्षस के साथ, वीर लक्ष्मण,
विरुपाक्ष के साथ युद्ध कर रहे थे. दुर्जय वीर अग्निकेतु, रश्मिकेतु, सुप्तघ्न और
यज्ञकोप-ये चारों राक्षस राघवेन्द्र के साथ युद्धरत थे. मैन्द के साथ वज्रमष्टि,
द्विविद के साथ अशनिप्रभ युद्ध करने लगे. प्रतपन नामक घोर राक्षस नल के साथ,
महाकपि सुषेण विद्युन्माली राक्षस के साथ युद्ध कर रहे थे.
दोनों पक्ष अपनी-अपनी विजय चाहते
थे.
वानरों और राक्षसों के शरीरों से
खून की नदियां बहने लगीं. घमासान होते युद्ध में वेगशाली अंगद ने इन्द्रजित् की
गदा पकड़ ली और उसी गदा से इन्दजित के सुवर्णजड़ित रथ को सारथि और घोड़ों के सहित
चूर-चूर कर डाला. प्रजंघ ने अपने तीन तीखे बाणॊं से बलवान सम्पाति को घायल कर
दिया. घायल सम्पाति ने अत्यन्त क्रोध में
भरते हुए अश्वकर्ण नामक वृक्ष के प्रहार से मार गिराया. अपने रथ में सवार महाबली
जम्बुमालि ने वी हनुमान की छाती पर प्रहार किया. हनुमान सतर्क थे, वे उछलकर रथ पर
जाकर चढ़ गये और थप्पड़-मुक्कों से उसको यमलोक भेज दिया.जम्बुमालि का वध करने केसाथ
ही उन्होंने उसके रथ को चौपट कर दिया. इधर श्रीरामजी से जूझ रहे अग्निकेतु,
रश्मिकेतु, सुप्तघ्न और यज्ञकोप नामक चारों राक्षसों के सिर रामजी ने अपने तीक्ष्ण
बाणों से काटकर फेंके. वीर लक्ष्मण ने विरुपाक्ष को मौत के घाट उतार दिया.
भालों,बाणॊं, गदाओं, शक्तियों,
तोमरों, सायकों, टूटे और फ़ेंके हुए रथों, घोड़ों, मरे हुए हाथियों, वानरों,
राक्षसों, पहियों तथा टूटे हुए जुओं से जो धरती पर बिखरे पड़े थे, वह युद्ध भूमि
बड़ी ही भयानक प्रतीत हो रही थी.
सूरज की पहली किरण की साथ आरंभ
हुआ युद्ध, संध्याकाल तक चलता रहा. संध्याकाल के आते ही वीर हनुमान ने शंख-ध्वनि
करते हुए आज के युद्ध की समाप्ति की सूचना दी. युद्ध थम गया. सभी सेनाएं अपने-अपने
शिवरों में लौट गयी. युद्ध के इस प्रथम
दिवस पर शत्रु पक्ष की बहुत बड़ी पराजय हुई थी. दोनों पक्ष के शिविरों में
वैद्य (चिकित्सक) घायन सैनिकों की
सेवा-सुश्रुषा (उपचार) करने लगे. शवों को हटाकर उनका अंतिम संस्कारादि आदि निपटाये जाने लगे.
प्रचलित नियमों के अनुसार संध्या
के पश्चात वर्जित माना गया है. रामजी को विश्वास था कि शत्रु पक्ष भी इस बात तो
अच्छी तरह जानता/मानता होगा. वे रात्रि में धावा नहीं बोलेंगे, फ़िर भी सतर्क रहना
आवश्यक होगा. ऐसा सोचकर उन्होंने अपने मंत्रियों को यह चेताते हुए कहा-" मुझे
नहीं लगता कि शत्रु पक्ष संध्या के पश्चात युद्ध नहीं करेगा. फ़िर भी इन पर विश्वास
नहीं किया जा सकता, क्योंकि राक्षस प्रजाति नियमों का पालन कभी नहीं करते. युद्ध
में विजयश्री पाने को ललायित शत्रु, पक्ष हम पर आक्रमण भी कर सकता है. अतः आप
लोगों को चौकस बने रहना होगा."
रामजी का अनुमान सच निकला. रात्रि
में अंधकार के गहराते ही शत्रु पक्ष ने धावा बोल दिया. नियमों के विरुद्ध गहन
रात्रि में ही युद्ध होने लगा. गहन अंधकार होने के कारण काले-कलूटे राक्षसों के
शरीर तो दिखाई नहीं देते थे,लेकिन वे अपने सुवर्णमय कवचों के कारण आसानी से
पहिचाने जा सकते थे. अनगिनत राक्षसों ने एक साथ मिलकर अपने शत्रुपक्ष पर धावा बोल
दिया था. उन्हें अपनी ओर आता देख वानरों का क्रोध भयानक हो उठा. वे उछल-उछलकर
राक्षसों को पकड़-पकड़ कर, अपने तीखे दांतो से उन्हें घायल कर देते. दोनों ओर के
सैनिक क्रोध में पागल हुए जा रहे थे. क्रोधित वानरों ने असंख्य राक्षसों के सहित
हाथियों और हाथी सवारों को खींच-खींचकर अपने तीक्ष्ण दांतों से काट-काट कर
क्षत-विक्षत किये दे रहे थे.
कभी बड़े-बड़े राक्षस घोर अंधकार
में प्रकट होकर, तो कभी अदृश्य रहकर युद्ध करते. महारथी श्रीराम जी ने अग्नि-शिखा
के समान प्रज्ज्वलित भयंकर बाणों द्वारा पलक मारते-मारते संपूर्ण दिशाओं ओर उनके
चारों कोणॊं के प्रकाशपूर्ण कर दिया. जहाँ गहन अंधकार में छिपकर राक्षसों की टोली
युद्ध कर रही थीं, उनकी उपस्थिति स्पष्ट दिखाई देने लगे थी. रामजी ने देखा कि
दुर्घर्ष, यज्ञशत्रु, महापार्श्व, महोदर, महाकाय तथा वज्रदंष्ट्र, शुक और सारण
मिलकर मेरे ऊपर आक्रमण करने बढ़े चले आ रहे हैं. उन्होंने अपने तरकाश से एक तीक्ष्ण
बाण निकला, जो संधान किये जाने के बाद असंख्य होकर शत्रु-दल का दलन कर सकने में
समर्थ था, प्रत्यंचा खींचकर उन्होंने धनुष पर बाण चढ़ाया और लक्ष्य लेकर छोड़ दिया.
बाण सनसनाता हुआ आगे बढ़ा और सभी को मार गिराया. इन राक्षसो के साथ अन्य सैनिक भी
चले आ रहे थे परंतु वे श्रीरामजी के आगे
ज्यादा समय तक नहीं टिक सके और अपनी पराजय जानकर, रणभूमि से भाग खड़े हुए.
राक्षसों का दल गिरता-पड़ता भागता
रावण के पास पहुँचा और बताया कि हमारी सेना का भारी संहार हुआ है. हमने भी बन्दरों
के आधे दल का संहार कर दिया है. अब हमें क्या करना चाहिए.
रावण के दरबार में एक बूढ़ा
माल्यवाण राक्षस, जो रावण की माता का पिता और श्रेष्ठ मंत्री था. नीति वचनों से
युक्त होकर उसने रावण को समझाना चाहा.
" हे दशकंध ! मेरी बातों को
ध्यान से सुनो. जब से तुम सीता को चुराकर लाए हो, तब से लंका में भयानक अपशकुन हो
रहे हैं. मैं ही नहीं कहता लेकिन सारे वेद-पुराण इस बात की गवाही देते हैं कि
रामजी से विमुख होने पर किसी को सुख नहीं मिला है."
" राम ने हिरण्याक्ष को उसके
भाई हिरण्यकशिपु सहित और बलवान मघु-कैटभ को मार डाला था, वे ही कृपा के सागर भगवान
अब अवतीर्ण हुए हैं. वे कालरूप होकर दुष्ट-रूपि वन को जलाने वाले, गुणों के सागर
ज्ञानवान हैं, जिनकी सेवा स्वयं ब्रह्मा और शिवजी भी करते हैं, उनसे विरोध करना
उचित नहीं है. अतः बैर त्यागकर सीता को लौटा दो."
अपने नाना के मुख से उपदेश सुन
रहे रावण को भयंकर क्रोध हुआ और उसने कठोर वचनों मे कहा-" नानाश्री! तुम
वृद्ध हो गए हो, नहीं तो मैं तुम्हें मार डालता."
रावण के कठोर वचनों को सुनकर
वृद्ध माल्यवाण को गहरा आघात लगा और वह उठकर सभागार से बाहर निकल गया.
सभागार में बैठा मेघनाथ अपने पिता
और माल्यवान के बीच चल रही वार्ता को सुनकर अंदर-ही-अंदर तिलतिला रहा था.
भीतर-ही-भीतर तिलमलाते हुए वह क्रोध में भरकर उठ खड़ा हुआ और बोला-" पिताश्री
! कल सुबह आप मेरा कौतुक देखना. मैं बहुत
कुछ करुँगा,थोड़ा क्या कहूँ.
रावण ने अत्यन्त गदगद होते हुए
अपने पुत्र से कहा-" बेटा मेघनाथ ! इस संसार में कोई भी ऐसा
प्रतिद्वन्द्वी नहीं है जो तुम्हारा सामना
कर सकता है. तुमने देवराज इन्द्र को पराजित किया है. इन्द्रजीत को आसानी से जीत
लेने वाले मेरे बेटे ! तुम्हारे लिए एक सामान्य मनुष्य (श्रीराम) को परास्त करना
कौन-सी बड़ी बात है. तुम अवश्य ही रघुवंशी राम का वध करोगे."
’पिताश्री ! मुझे आशीर्वाद दीजिए.
मेरी भुजाएँ उस राम और लक्ष्मण का वध करने के लिए मचल रही है. युद्धभूमि में मैं
कैसा पराक्रम बताता हूँ, जिसे देखकर आपकी प्रसान्नता चौगुणी बढ़ जाएगी. सारा विश्व
इस बात को कहते नहीं अघाए का कि इन्द्रजीत ने देखते-ही-देखते दोनों रघुवंशी भाइयों
का वध किया था." इन्द्र्जीत ने अपने पिता दशानन को आश्वस्त करते हुए कहा.
अपने बेटे के उत्साह को देखकर वह
स्वयं भी उत्साही हो रहा था. वह अपने सिंहासन से उठा. आगे बढ़कर उसने अपने बेटे के
माथे पर तिलक लगाया, विजय श्री की माला उसके गले में डाली, मस्तक सूंघा और
आशीर्वचन देते हुए कहा- " विजयी भव" "विजयी भव"....जाओ बेटे
जाओ....रणभूमि तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही
है. विजयी होकर लौटो, मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है."
अपने पिता से आशीर्वाद प्राप्त कर
मेघनाथ रणभूमि में पहुँचा. रणभूमि में पहुँचकर उसने अपने रथ के चारों ओर राक्षसों
को खड़ा कर दिया.
इधर सूर्योदय के साथ ही वानरों ने
किले को घेर लिया था. किले को घेरने के साथ ही,किले के रक्षक राक्षसों और वानओं के
बीच भयंकर युद्ध हुआ. वानर किले के ऊपर से पर्वतों के शिखर तोड़-तोड़कर गिराने लगे.
और राक्षसों को मार गिराने लगे..जब यह समाचार मेघनाथ ने सुना कि बन्दरों ने आकर
पुनः किले को घेर लिया है. किले से सीधे नीचे उतरकर सामने आया और क्रोध में
बोला-" कहाँ है? कहाँ है?वे दोनों भाई कहाँ हैं? कहाँ हैं
नल-नील-द्विविद,सुग्रीव, अंगद तथा हनुमान कहाँ है?. मेरे पिता का द्रोही विभीषण
कहाँ है? आज मैं तुम सभी को हठ करके मारूँगा. सामने आओ." ऐसा कहते हुए उसने
बाणों का संधान करना प्रारंभ कर दिया. उसके धनुष से छूटकर जाने वाले बाण मानो
पंखधारी सर्पों के समान दौड़ते थे.
मेघनाथ के द्वारा अचानक छोड़े गए
बाणॊं से घायल होकर बन्दर-भालु जहाँ-तहाँ भाग निकले. वह लगातार बाणॊं की वर्षा कर
रहा था. देखते-ही-देखते असंख्य वानर मारे गए. मेघनाथ की सिंह-गर्जना सुनकर
हमुमानजी को अत्यन्त ही क्रोध हो आया. उन्होंने शीघ्र ही एक भारी पर्वत को उखाड़
लिया और मेघनाथ की ओर उछाल दिया. पर्वत को अपनी ओर आता देख वह दुष्ट आकाश में उड़
गया. उसके रथ, सारथि व घोड़े सब नष्ट हो गये. हनुमानजी ने उसे बारम्बार ललकारा,
लेकिन वह सामने नहीं आया, क्योंकि वह हनुमानजी के बल और पराक्रम को पहले ही देख
चुका था.
अब वह सीधे रघुनाथजी के पास गया
और अनेक प्रकार के दुर्वचन कहने लगा. फ़िर अस्त्र-शस्त्र चलाकर उन पर छोड़ दिये.
रामजी सतर्क थे. उन्होंने उसके सभी अस्त्र-शस्त्र को कौतुक भाव से काट-काट कर गिरा
दिये. फिर वह आकाश में चढ़कर अंगारे बरसाने लगा. कभी वह विष्टा,पीव,रक्त,बाल तो कभी
हड्डियाँ बरसाता, तो कभी बहुत-से पत्थर रामजी पर उछालकर फ़ेंक देता था.
उसको ऐसा करता देख अंगदादि कपियों
को अच्छा नहीं लगा. रामजी से आज्ञा लेकर वे वीर लक्ष्मण के सहित अपने धनुष-बाण
लेकर चले. लक्ष्मण ने उस पर नाना प्रकार के के बाण चलाकर उसे चोटिल कर दिया.
लक्ष्मण के बाणॊं से आहत होते हुए उसने अनुमान लगाया कि अब मेरे प्राण बच नहीं
सकेंगे. मरता क्या नहीं करता? उसने क्रोधित होते हुए "वीरघातिनी शक्ति"
चला दी. वेगपूर्ण आती वह शक्ति सीधी लक्ष्मणजी की छाती में लगी. शक्ति के लगते ही
लक्ष्मण मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े. उनको पृथ्वी पर गिरता देख, मेघनाथ अत्यन्त ही प्रसन्न हुआ. वह लक्ष्मण के शरीर को
अपने पिता को सौंपना चाहता था.अतः स्वयं होकर आगे आया और मूर्च्छित लक्ष्मण को
पूरी शक्ति लगाकर उठाना चाहा.लेकिन नहीं उठा पाया.फ़िर उसने अपने बलशाली राक्षसों
को आज्ञा दी कि लक्ष्मण को उठाकर लंका ले चले. उसकी आज्ञा पाते ही अनेक वीर राक्षस
दौड़े. सब मिलकर उन्हें उठाने का जतन करने लगे,लेकिन शेषावतार लक्ष्मण उठाये नहीं
उठ रहे थे.
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श्री लक्ष्मण जी शेषावतार थे.
स्पष्ट रूप से न कहते हुए संत तुलसीदास ने रामचरित मानस में इस बात का संकेत दिया
है. वे लिखते हैं- लच्छन धाम राम प्रिय, सकल जगत आधार : गुरु बसिष्ट
तेहिराखा, लछिमन नाम उदार. जगत यानि पृथ्वी. पृथ्वी शेषनाग जी के फ़न पर स्थित है.
स्पष्ट है कि धरती को धारण करने वाले शेषनाग ही लक्ष्मण के नाम से प्रकट हुए थे..
शेषनाग अपने स्वयं के आकार में इतना बड़ा होता है कि उसका भार किसी सामान्य व्यक्ति
के द्वारा उठना असंभव है. जब लक्ष्मण मूर्च्छित होकर गिर पड़े तो उनका सारा भार
धरती पर आ गया था,जिसे उठा पाना मेघनाथ के लिए संभव नहीं था.
मेघनाथ सम कोटि सत्त, जोधा रहे उठाइ "जगदाधार
सेष किमि, उठै चले खिसिआइ.(दोहा 54.लंकाकांड)
तुलसी दास जी इस दोहे के माध्यम
से स्पष्ट कर देते हैं कि लक्ष्मण जी जगत के आधार, श्री अनन्त शेषजी उनसे किसी
प्रकार से नहीं उठते.
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राक्षसों को ऐसा करता देख हनुमान जी सहित अनेक बलवान वानर
उस ओर दौड़े. उन्हें अपनी ओर आता देख, राक्षसों का दल भाग खड़ा हुआ.
०००००
संध्या घिर आयी थी. उस दिन का
युद्ध समाप्त हो चुका था. दोनों ओर की सेनाएं अपने-अपने शिवरों में लौट गयी थी.
प्रभु श्रीरामजी ने जानना चाहा कि भ्राता लक्ष्मण कहाँ हैं?.तब हनुमानजी ने उन्हें
सारा वृत्तांत कह सुनाया और वे उन्हें उठाकर प्रभु राम जी के पास ले आए.
अपने भाई को मुर्च्छित पाकर
उन्हें बड़ा विषाद हुआ. आँखों से आँसू झरने लगे. दारुण विलाप करते हुए वे
कहते-" मेरे लिए जिस भाई ने अयोध्या के ऐश्वर्य को त्याग दिया और स्वेच्छा से
मेरे साथ वन-वन भटकने चला आया.आज वह मरणासन्न अवस्था में पड़ा है.जब मैं अयोध्या
लौटूँगा तो माता सुमित्रा जी मुझसे पूछेगीं कि मेरा बेटा कहाँ है, मेरी पुत्रवधु
कहाँ है, तो मैं क्या उत्तर दूँगा. पहले ही तो मैं अपनी प्राणप्रिया को खो चुका और
अब लक्ष्मण भी साथ छोड़कर जा रहा है/. मैं लक्ष्मण के बिना जीवित नहीं रह सकता.
अंगद !, सुग्रीव !, हनुमान ! तुम जंगल से काष्ट लाकर चिता बनाओं, मैं उसमें
आत्मदाह कर लूँगा. मैं इन दोनों के बिना जीवित नहीं रह सकता.....तुम लोग सुनते क्यों
नहीं हो.....शीघ्रता से जाकर मेरी आज्ञा का पालन करो." यह कहते हुए उनका गला
अवरुद्ध होने लगा.
रामजी को इस तरह विलाप करता देख
सारे महावीरों सहित वानर सेना भी संताप में घिर कर विलाप करने लगे.
तभी वृद्ध जामवन्त जी सामने आए.
उन्होंने रामजी को सांत्वना देते हुए कहा-" हे प्रभु ! जब आप ही धैर्य खो
देंगे तो हम सबका क्या होगा?. थोड़ा धैर्य धारण कीजिए. अगर हम पर विपत्ति आयी है,
तो निश्चित ही उसका समाधान-कारक उपाय भी हमें खोज निकालना होगा. मुझे ज्ञात है कि
रावण का एक कुशल वैद्य सुषेण है, जो हर प्रकार के रोगों की दवा जानता है. हममें से
कोई जाकर उसे लिवा लाए. मुझे पूरा विश्वास है कि सुषेण वैद्य भैया लक्ष्मण को
पूर्ण रुप से निरोग कर देंगे. उनकी मूर्च्छा केवल सुषेण ही कर सकते हैं.
जामवन्त के द्वारा दी गयी सलाह
उचित थी, लेकिन वैद्य को लाने के लिए किसे भेजा जाए? कौन वह उपयुक्त पात्र होगा, जो शत्रु के खेमे
में जाकर उसे ले आएगा?. रावण की लंका में जाकर उसके वैद्य को ले आना, कोई बच्चों
का खेल तो था नहीं और न ही यह कोई आसान काम था. लंका के भीतर प्रवेश करना और सुषेण
को लाना अत्यन्त ही दुरुह काम था, वह भी एक ऐसे समय में जबकि राम और रावण के बीच
घनघोर युद्ध छिड़ा हो. रावण ने ऐसे समय में लंका की सुरक्षा में न जाने कितने ही
राक्षसों को तैनात कर रखा होगा. उन सभी बाधाओं को पार कर, लंका में प्रवेश पाना और
सुषेण वैद्य को लाना जोखिम भरा काम था.. रात गहराती जा रही थी और समय पल प्रति पल बीतता
जा रहा था.
तभी प्रभु श्रीरामजी ने हनुमान को
पास बुलाकर कहा-" पवन पुत्र हनुमान ! सीता की खोज करते हुए तुमने लंका का हर
कोना-कोना छान डाला है. निश्चित ही तुमने वैद्य सुषेण का भवन भी देखा होगा. तुम
शीघ्रता से जाकर उन्हें सादर लिवा लाओ."
"जी...प्रभु ! जैसी आपकी
आज्ञा." कहते हुए वीर हनुमानजी ने रामजी के चरणॊं में अपना प्रणाम निवेदित
किया और प्रसन्नवदन लंका की ओर प्रस्थित हुए..
मार्ग में जाते हुए
उन्होंने सोचा कि रात काफ़ी घिर आयी है. निश्चित ही इस समय वैद्य जी सो रहे होंगे. संभव है गहरी निद्रा
में होंगे. यदि मैंने उन्हें जगाने का प्रयास किया, तो एक अजनवी को सहसा सामने
देखकर वे कहीं शोर न मचाने लगें? यदि उन्होंने शोर मचाया तो राक्षसों का दल मुझ पर
टूट पड़ेगा और अकारण ही मुझे युद्ध में उलझना पड़ेगा. यदि मैं युद्ध में उलझ गया तो
व्यर्थ ही समय की बर्बादी होगी. तभी उनके मन में विचार आया कि क्यों न वैद्यजी को
उनके भवन सहित उठाकर ले जाऊँ?. विचार उत्तम था. अतः उन्होंने बिना विलंब किये
वैद्यजी को भवन सहित उठा लिया और पलक झपकते ही उस स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ
लक्ष्मण जी मुर्च्छित पड़े हुए थे.
वैद्य जी को जगाया गया. अपने
को शत्रु पक्ष में घिरा देखकर वे भौंचक रह गए थे. वे समझ नहीं पा रहे थे ऐसा
कौन-सा वीर होगा,जिसने मुझे अपने भवन सहित उठा लाया?. आखिर वह मुझसे चाहता क्या
हैं?. नाना प्रकार की शंकाएं-कुशंकाएं उनके मन में उठने लगी थी. तभी विभीषण जी
सामने आए. उन्हें देखकर वैद्य जी को परम संतोष हुआ कि शत्रु दल में कोई तो अपना
है.
सुषेण ने विभीषण जी से
जानना चाहा कि कृपया मुझे यह बतलाइयेगा कि
मुझे अपने आवास सहित उठाकर यहाँ किसने लाया? क्यों कर लाया गया?..मैं जानना चाहता
हूँ."
विभीषण ने अत्यन्त ही
विनम्रता के साथ बताया-" सुषेण जी ! लक्ष्मण और मेघनाथ के बीच घनघोर युद्ध
हुआ,अपनी हार को निकट पाकर उसने लक्ष्मण भैया पर "शक्ति " से प्रहार कर
उन्हें घायल कर दिया है. मैं उस शक्ति की मारक शक्ति से परिचित हूँ. यदि समय पर
उनका उपचार नहीं हुआ तो संभव है कि उनके प्राण चले जाएँगे. चुंकि आप एक कुशल वैद्य
हैं और अच्छी तरह जानते हैं कौन-सी दवा के देने से वे स्वस्थ हो सकते हैं, कृपया
शीघ्रता से उनका उपचार कीजिए."
" विभीषण जी ! आप
जानते ही हैं कि मैं महाराज रावण का राजकीय वैद्य हूँ. केवल राज परिवार का उपचार
करना मेरा परम कर्तव्य बनता है, न कि किसी शत्रु दल के किसी सदस्य का. चुंकि आप
मुझसे शत्रु-पक्ष के किसी सदस्य का उपचार करवाना चाहते हैं, तो सबसे पहले मुझे
महाराज रावण से अनुमति लेनी होगी. अनुमति मिलने के बाद ही मैं लक्ष्मण का उपचार कर
सकता हूँ." सुषेण वैद्य ने कहा.
समय भला कभी किसी के रोके,कब
रुका है. उसे भला कौन रोक पाया है?.
पल-प्रति-पल वह आगे निरन्तर बढ़ता ही जा रहा था. लक्ष्मण का समय रहते उपचार हो जाना
चाहिए, अन्यथा कुछ भी हो सकता है.
श्रीराम विभीषण और सुषेण
की वार्ता को सुन रहे थे, समझ रहे थे. उन्होंने बड़ी ही विनम्रता से कहा-"
वैद्य सुषेण जी ! आपने सत्य ही कहा है कि आप राजकीय वैद्य हैं. किसी अन्य के
उपचार के लिए आपको अपने स्वामी रावण से उचित अनुमति प्राप्त करनी होगी. आप शीघ्रता
से जाकर अपने स्वामी से लक्ष्मण के उपचार के लिए अनुमति प्राप्त कर शीघ्र लौट आएँ
और मेरे अनुज लक्ष्मण का उपचार प्रारंभ करें.
रामजी के विचारों को
जानने के बाद सुषेण ने विनम्रतापूर्व कहा-" धन्य हैं प्रभु आप. आपकी जय हो.
चुंकि मैं वैद्य हूँ और वैद्य के क्या कर्तव्य होते हैं, भली-भांति जानता हूँ .
रोग से ग्रसित कोई भी व्यक्ति यदि मेरे पास
अपना उपचार करवाने आता है, तो मेरा प्रथम कर्तव्य बनता है कि मैं उसका उपचार करुँ.
" सच बात तो यह है
प्रभु .. कि उपचार करने से पूर्व मैं आपकी परीक्षा लेना चाह रहा था कि विपत्ति से
घिर जाने के बाद भी आप धर्म और नीति का निर्वहन किस तरह कर्रेंगे?. मुझे अतिव
प्रसन्नता हुई है कि आपको अपने भाई से ज्यादा "नीति " प्रिय है."
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सुषेण वैद्य ने लक्ष्मण के लिए दवा बताने और उपचार करने से पहले मना कर
दिया था. यद्यपि सुषेण रामजी का बड़ा भक्त था, परन्तु उसने यह देखना और जानना चाहा
कि वास्तव में औषधि न बताये जाने पर राम की क्या प्रतिक्रिया होती है. इसीलिए
वैद्य ने राम से कहा कि मै बिना रावण की आज्ञा से दवा नहीं बता सकता.
राम ने अपने भाई के प्राणॊं की परवाह किए बगैर सुषेण से कहा कि ठीक है,
रावण तुम्हारा राजा है, अतः तुम्हें उसकी आज्ञा अवश्य लेनी चाहिए. पहले आप रावण से
आज्ञा ले लें बाद में दवा बता देना.
राम के इस प्रकार के वचन को सुनकर
वैद्य को यथार्थ जानकारी हो गयी और उसके नेत्र खुल गए. दरअसल वह देखना चाहता था कि
राम नीति के प्रतिपालक हैं या स्वार्थरत. यदि राम स्वार्थरत रहकर रावण से आज्ञा न
प्राप्त करने की सलाह वैद्य को देते तो नीतिविरुद्ध होता. किंतु राम नीतिविरुद्ध
कार्य करते ही नहीं.अतः उन्होंने वैद्यराज से रावण की आज्ञा प्राप्त करके
तदनुसार ही दवा बताने को कहा. इस पर
वैद्यराज को अपार प्रसन्नता हुई कि उन्हें तो अपने भाई के प्राणॊं से ज्यादा नीति
प्रिय है. अतः उन्होंने बिना हिचक राम को औषधि बता दी.
राम ने जब इसका कारण जानना चाहा तो सुषेण ने उत्तर दिया-" हे प्रभो
! मैं तो यही जानना चाहता था कि विपत्ति
में भी कहाँ तक लोग धर्म और नीति तथा कर्तव्य का निर्वाह कर पाते हैं?. इस प्रकार
वैद्यराज ने लक्ष्मण के लिए दवा बताई और लक्ष्मण के प्राण बचे.
राम यदि चाहते तो वैद्य से जबरन दवा जानने का प्रयास करते, परन्तु इसमें
तो भय यह भी था कि दबाव में वह गलत औषधि बता सकता था.-
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वैद्यराज ने रामजी से
कहा-" हे प्रभु ! मुझे लक्ष्मण जी के उपचार के लिए "संजीवनी बूटी"
की आवश्यकता होगी. केवल और केवल उसी औषधि से लक्ष्मण के प्राण बचाए जा सकते हैं.
यह बूटी हिमालय पर्वत की शिखरों पर पायी जाती है. क्या आपके पास कोई ऐसा वीर है जो
प्रातःकाल होने से पूर्व उस औषधि को ला सकता है?.
रामजी जी जानते थे इस
कार्य को केवल और केवल हनुमान कर सकते हैं, उन्होंने उन्हें अपने पास बुलाया और
कहा-" हे पवनपुत्र ! हे महाबली! तुम शीघ्र ही हिमालय जाकर संजीवनी नामक औषधि
को प्रातःकाल होने से पूर्व लेकर आओ. हालांकि मैं जानता हूँ कि यह कार्य अत्यत ही
कठिन है, लेकिन मुझे तुम पर पूरा विश्वास है कि तुम इस कार्य को सफ़लतापूर्वक
संपन्न कर सकते हो."
फ़िर उन्होंने वैद्यराज से
कहा-" हे महात्मन् ! कृपया कर आप हनुमान को उस औषधि के बारे में विस्तार से
जानकारी दे दीजिए."
वैद्यराज ने हनुमान जी से
कहा-" हे हनुमन् ! समुद्र से ऊपर-ऊपर उड़कर बहुत दूर का रास्ता तै करके
तुम्हें पर्वतश्रेष्ठ हिमालय पर जाना है. वहाँ पहुँचने पर तुम्हें बहुत ही ऊँचे
सुवर्णमय उत्तम पर्वत ऋषभ का तथा कैलाश-शिखर का दर्शन होगा. उन दोनों शिखरों के
बीच एक औषधियों का पर्वत दिखायी देगा, जो अत्यन्त ही दीप्तिमान है. उसमें इतनी चमक
है, जिसकी तुलना नहीं की जा सकती. वह पर्वत सब प्रकार की औषधियों से सम्पन्न है.
उसके शिखर पर चार औषधियाँ तुम्हें दिखाई देंगी, जो अपनी प्रभा से दसो दिशाओं को
प्रकाशित किये रहती है. उनके नाम इस प्रकार हैं- मृतसंजीवनी, विशल्यकरणी,
सुवर्णकरणी और संघानी. हे पवनपुत्र ! तुम उन सब औषधियों को लेकर शीघ्र लौट
आओ".
वीर हनुमानजी ने अपने
प्रभु श्रीरामजी के चरणॊं में शीश नवाया. वैद्यराज को सादर प्रणाम किया और बिदा
मांगी.
प्रभु श्रीराम जी का
आशीर्वाद पाकर वे अपने स्थान से उठ खड़े हुए और एक पर्वत के शिखर पर खड़े हो गए और
विशालकाय रूप धारण कर उस पर्वतको पैरों से दबाते हुए, ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो
कोई अन्य दूसरा पर्वत हो. हनुमानजी के चरणॊं
के भार से पीढ़ित हो वह पर्वत धरती में धँस गया. अधिक दबाव पड़ने के कारण पर्वत
हिलने लगा. उसके वृक्ष और शिलाएँ टूट-फ़ूटकर गिरने लगीं. लंका का ऊँचा विशाल द्वार
भी हिल गया.. पर्वताकार हनुमानजी ने उस पर्वत को दबाकर पृथ्वी और समुद्र में भी
हलचल पैदा कर दी.
तदन्न्तर वहाँ से आगे
बढ़कर वे मेरु और मन्दराचल के समान ऊँचे मलयपर्वत पर चढ़ गये. अपनी सर्पाकार पूँछ को
ऊपर उठाकर पीठ को झुका कर दोनो कान सिकोड़कर और वड्वामुख अग्नि के समान अपना मुख
फ़ैलाकर " जय जय श्रीराम" नाम का उद्घोष करते हुए प्रचंडवेग से आकाश में
उड़ गये.
उनके तीव्र वेग के कारण
कितने ही वृक्षों, पर्वत-शिखरों, शिलाओं और वहाँ रहने वाले साधारण को भी साथ-साथ
उड़ाते गये. अपनी दोनों भुजाओं को फ़ैलाकर गरूड के समान पराकमी पवनपुत्र हनुमानजी
संपूर्ण दिशाओं को खींचते हुए-से श्रेष्ठ हिमालय की ओर चले.
००००००
रावण का एक विशेष गुप्तचर
जो आकाश-मार्ग में स्थित रहकर अपने शत्रु-दल की हर गतिविधियों को देख रहा था. उसने
अपने कानों से वैद्यराज की बातों को भी सुना था. वैद्यराज हनुमान को जड़ी-बुटियों
के संबंध में विस्तार से समझा रहे थे. वैद्यराज को और राम को प्रणाम करने के
पश्चात हनुमान तीव्रगति से उत्तर की ओर जा रहे हैं. हनुमान का पराक्रम वह पहले ही
देख चुका था कि इस असाधारण वानर ने किस तरह गुप्तरूप से रहते हुए सीताजी को खोज
निकाला था और किस तरह उसने लंका को जलाकर भस्मीभूत कर दिया था. यदि यह वानर हिमालय
पहुँचा गया तो निश्चित ही वह संजीवनी-बूटी लेकर ही लौटेगा. यदि वह संजीवनी लेकर ले
आया, तो यह मेरे स्वामी के लिए अनर्थकारी सिद्ध होगा. मुझे तत्काल ही जाकर अपने
स्वामी को सूचित करना होगा. यह सोचकर वह रावण के पास पहुँचा और सारी घटनाओं से
अवगत कराते हुए कोई कारगर उपाय करने को कहा.
रावण ने जब अपने गुप्तचर
से यह समाचार सुना कि संजीवनी बूटी लेने के लिए पवनपुत्र हनुमान आकाश मार्ग से
हिमालय की ओर जा रहे हैं. समाचार सुनते ही रावण के माथे पर बल पड़ने लगे. अंदर ही
अंदर वह भयभीत होने लगा था. जानता था कि यदि लक्ष्मण जीवित बच गया तो युद्ध की
दिशा ही बदल देगा. वह गंभीरता से सोचने
लगा कि मेरी सेना में ऐसा कौन-सा वीर है, जो हनुमान को बीच रास्ते में रोककर उसका
वध कर सकता है. यदि हनुमान मारा गया, तो संजीवनी बूटी आने से रही. संजीवनी के अभाव
में लक्ष्मण जीवित नहीं बचेगा. यदि लक्ष्मण की मृत्यु हो जाती है, तो अकेला राम
मेरा मुकाबला करने से रहा. वह किस बल पर मुझसे युद्ध लड़ेगा?.
उहाँ दूत एक मरमु जनावा
: रावनु कालनेमि गृह आवा.
सोच तो उसकी सही थी लेकिन
वह समझ नहीं पा रहा था कि आखिर किसे भेजा जाए. आखिरकार उसने अपने मंत्री कालनेमि
का चुनाव किया कि वह अपनी मायावी शक्तियों से हनुमान का वध कर सकता है. यह सोचकर
वह शीघ्रता से कालनेमि के आवास पर पहुँचा.
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कालनेमि
कालनेमि एक मायावी दैत्य था. वह मारीच का पुत्र था तथा रावण के दरबार में
मुख्य मंत्रियों में से एक था.कालनेमी ने देवताओं को पराजित करके स्वयं पर अधिकार
कर लिया था और अपने शरीर को चार भागों में बांटकर सब कार्य किया करता था.
रावण ने हनुमान को रोकने हेतु इसी मायावी कालनेमि राक्षस को आज्ञा
दी. कालनेमि ने माया की रचना की तथा हनुमान को मार्ग में रोक लिया। हनुमान को
मायावी कालनेमि का कुटिल उद्देश्य ज्ञात हुआ तो उन्होने उसका वध कर दिया.
हनुमान जी ने कालनेमि दैत्य का वध जिस जगह पर किया आज वह स्थान सुल्तानपुर जिले के कादीपुर तहसील में विजेथुवा महावीरन नाम से सुविख्यात है एवं इस
स्थान पर "भगवान हनुमान" को समर्पित एक सुप्रसिद्ध पौराणिक मंदिर भी
स्थापित है. यहां पर भगवान श्री हनुमान जी की स्वयंभू मूर्ति है . खुदाई में
मूर्ति के एक पैर का आजतक पता नही चला,,यही कालनेमि दानव
द्वापर युग मे कंस के रूप में जन्मा. जिसका वध द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने
किया था.
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000000
" कालनेमि ! कालनेमि ! कहाँ हो तुम? शीघ्र बाहर आओ " कहता हुआ वह कालनेमि के
भवन में प्रविष्ट हुआ. कालनेमि ने सुना-" अरे, यह तो राक्षसराज रावण की आवाज
है. वह शीघ्रता से बाहर निकला. देखता क्या है कि रावण तीव्रगति से चलता हुआ आ रहा
है.
"लंकापति ! आपका स्वागत
है...स्वागत है...आज अचानक, इस तरह मेरे आवास पर आने का क्या कारण है? लंका में सब
ठीक तो है न !..आइए...विराजिए." कालनेमि ने कहा.
" यह मिल-बैठने का वक्त नहीं है. कालनेमि
! तुम तत्काल वायु-मार्ग से जाकर हनुमान का रास्ता रोको. हनुमान संजीवनी लेने
हिमालय कीओर तीव्रगति से आगे बढ़ रहा है. यदि उसने संजीवनी खोज निकाली तो अनर्थ हो
जाएगा. पुत्र इन्द्रजीत ने अमोघ शक्ति
चलाकर राम के अनुज लक्ष्मण पर शक्ति का भीषण प्रहार किया है. इस समय वह मूर्च्छित
अवस्था में है. प्रातःकाल होते ही वह जीवित नहीं बचेगा. मैं नहीं चाहता कि लक्ष्मण जीवित रहे.
उसकी मृत्य हो जाने के बाद, राम या तो पागल हो जाएगा, या फ़िर आत्महत्या कर लेगा.
यदि ऐसा होता है तो युद्ध सदा-सदा के लिए रुक जाएगा और हमारी लंका विध्वंश होने से
बच जाएगी."
"कालनेमि ! उस धोखेबाज वैद्य
सुषेण ने मेरे शत्रु राम को संजीवनी का
भेद खोल दिया है. "रावण ने कहा.
"हे लंकेश ! मैं समझ नहीं पा
रहा हूँ कि आखिर वैद्यराज शत्रु के शिविर में कैसे पहुँच गए.? कालनेमि ने जानना
चाहा.
" कैसे पहुँचा गया...अरे उसे
उस वानर ने मध्यरात्रि में उसके भवन सहित उठाकर ले गया. राम ने उस पर दवाब बनाया
होगा और उस धूर्त ने संजीवनी का राज राम पर उजागर कर दिया. उसने हनुमान को हिमालय
की ओर संजीवनी लाने भेज दिया है. लगता है,वह शीघ्र ही हिमालय पहुँच जाएगा. तुम
शीघ्राताशीघ्र जाकर उसे किसी भी प्रकार से रोको. यदि वह तुम्हारे रुके न रुके तो
उसका वध कर दो." रावण ने कहा.
कालनेमि देख रहा था. रावण इस समय
बुरी तरह से घबराया हुआ था. बोलते समय वह हाँफ़ भी रहा था. उसने अपना धैर्य खो दिया
था. ऐसे समय में वह सही निर्णय नहीं ले पा रहा था.
कालनेमि ने उसे धीरज बंधाते हुए
कहा-" लंकेश ! मैं आपकी मनःस्थिति को समझ रहा हूँ. जैसा कि आप कल्पना किए
बैठे हो कि राम, लक्ष्मण के जीवित न रहने पर आत्महत्या कर लेगा, ऐसा कुछ भी होने
वाला नहीं है. आपके सिर पर काल मंडरा रहा है, अतः उसने आपकी बुद्धि को भ्रमित कर दिया
है. राम ने तुम्हारे सहित संपूर्ण राक्षसजाति का समूल नाश करने की प्रतिज्ञा जो की
है. "
" हे दशानन ! अभी भी कुछ
नहीं बिगड़ा है. तुम राम की शरण में चले जाओ....बस इसी में तुम्हारा और राक्षस
प्रजाति का भला हो सकता है." कालनेमि ने रावण को समझाते हुए कहा.
"कालनेमि ! तुम आवश्यकता से
अधिक बोल रहे हो....होश में तो हो, तुम किससे बात कर रहे हो....लंकापति रावण
से....जैसा मैं कहता हूँ वैसा करो अथवा मरने के लिए तैयार हो जाओ." रावण
क्रोध में आवेष्टित होकर बोल रहा था. वह चीख कर बोला था. बोलने के साथ ही उसने
म्यान में से अपनी तलवार भी खींचकर बाहर निकाल लिया था.
सुनि दशकंठ रिसान अति,तेहिं मन
कीन्ह विचार* राम दूत कर मरौं बरु,यह खल रत मल भार.
कालनेमि ने मन में विचार किया कि
रावण को लाख समझाया जाए,फ़िर भी वह मानने वाला नहीं है, आज्ञा का पालन नहीं करने पर
वह निश्चित ही मेरा वध कर देगा, इससे
अच्छा होगा कि मैं रामदूत हनुमान जी के हाथों मारा जाऊँ.
उसने रावण से कहा-" हे
दशकंधर ! जैसी आपकी आज्ञा. मैं अभी जाकर हनुमान को रोकता हूँ." यह कहकर वह
अंतर्धान हो गया और अपनी माया के बल पर वह हिमालय जा पहुँचा.
उसने अपनी मायावी शक्तियों से एक
सुंदर सरोवर का निर्माण किया, सरोवर से लग कर एक विशाल मन्दिर, जिसके शिखर पर
रामनाम अंकित किया हुआ ध्वज फ़हरा रहा था और मन्दिर की दीवारों पर रामायुध बने हुए
थे. सरोवर के तट पर फ़लदार वृक्ष लहलहा रहे थे,जिन पर सुस्वादु मधुर फ़ल लदे हुए थे.
इतना करने के बाद उसने स्वरूप में बदलाव किया, उसने भगवा वस्त्र धारण कर लिया.
कांधे पर रामनामी दुपट्टा ओढ़ लिया. माथे पर चन्दन का टिका लगा लिया. गले में
रुद्राक्ष की मालाएँ डाल लीं और हाथ में कंठीमाला लेकर एक वृक्ष के नीचे बैठ कर
जाप करने लगा.
उसने अपनी मायावी शक्तियों के बल
पर जान लिया कि कुछ ही समय में हनुमान आकाशमार्ग से होकर इधर से जाने वाले हैं.
उसने अपनी शक्तियों को विस्तार देते हुए कुछ इस तरह फ़ैलाव किया कि हनुमान को भूख
और प्यास लग आयी.
हनुमान जी ने नीचे की ओर झांक कर
देखा. एक भव्य मन्दिर , जिसके शिखर पर रामनाम का ध्वज फ़हरा रहा है. दीवारों पर
मेरे स्वामी का आयुध अंकित किया हुआ है और सरोवर के पास सुस्वादु फल लगे हैं,
क्यों न मुनि से पूछ कर जलपान करुँ जिससे श्रम दूर हो. ऐसा सोचते हुए वे नीचे उतर
आए,
एक मुनि को ध्यानावस्था में देखकर
उन्होंने प्रणाम किया. और याचना कि मुझे प्यास लगी है, क्या आपके पास जल उपलब्ध
है?.
प्रणाम करता देख कपटी मुनि ने
कहा-"आयुष्मान भव". फ़िर कहा-" अरे तुम कौन हो?. इस निर्जन वन में
तुम्हारा कैसे आगमन हुआ?. तुम्हें देखकर लगता है कि तुम इस प्रदेश के नहीं हो?..
खैर, तुमने मुझसे जल मांगा है, लो यह कमण्डल लो, इसमें थोड़ा-सा ही जल है, इससे
तुम्हारी प्यास शांत हो जाएगी.. जल पीकर फ़िर अपने बारे में बतलाना." इतना
कहकर मुनि ने कमण्डल आगे बढ़ाया.
" हे मुनिवर ! इसमें इतना
पर्याप्त जल नहीं है कि मेरी प्यास शांत हो सके. मैं देख रहा हूँ कि पास में ही एक
सरोवर है. सरोवर के पास एक भव्य एवं सुंदर मन्दिर भी है, जिसमें मेरे स्वामी का
आयुध अंकित है. बड़ी लम्बी दूरी तै करके आ रहा हूँ. कुछ थकान-सी भी लग रही है. सबसे
पहले तो मैं स्नान करना चाहूँगा. फिर मन्दिर में जाकर वहाँ स्थापित भगवान के दर्शन
करुँगा. तत्पश्चात अपनी क्षुधा और प्यास दोनों शांत करूँगा. हे मुनिवर-कृपया मुझे
अनुमति प्रदान करें."
हनुमान जी सरोवर में स्नान के लिए
जैसे ही पानी में उतरे, एक विशालकाय मकरी ने अकुलाकर उनके पैर पकड़ लिये. बिना विलम्ब किये उन्होंने उसे
मार डाला. मकरी के स्थान पर एक दिव्य नारी प्रकट हुई. उसने विनम्रता से हनुमान जी
को प्रणाम किया और बोली- " हे कपिश्वर ! आपके दर्शन से मैं निष्पाप हो गयी.
पूर्व जन्म में मैं एक अप्सरा थी. मुझे अपने, रूप-रंग और यौवन पर बड़ा घमंड था.
मैंने एक ऋषि को अपनी ओर आकर्षित करना चाहा, उन्होंने मुझे भयानक मकड़ी होने का
श्राप दे दिया. मैंने उनसे बहुत क्षमा मांगी,लेकिन ऋषि का क्रोध कम नहीं हुआ. अंत
में खूब अनुनय-विनय के बाद के बाद वे प्रसन्न हुए . मैंने जानना चाहा कि मुझे इस
श्राप से मुक्ति कब मिलेगी?. तब उन्होंने बतलाया था कि जिस सरोवर में तुम्हारा
निवास होगा, उसमें एक दिन रामभक्त हनुमान स्नान करने के लिए उतरेंगे, तुम उनके पैर
पकड़ लेना. तुम्हारा उद्धार हो जाएगा."
" हे पवनपुत्र हनुमानजी !
आपको मेरा कोटि-कोटि प्रणाम. आपके दिव्य दर्शन पाकर मैं धन्य हुई. मुझे अपना दिव्य
रूप पुनः प्राप्त हुआ है. अब मैं अपने लोक को जाऊँगी. हाँ. अपने लोक को जाने से पूर्व
मैं आपको सचेत भी करते जा रही हूँ कि उस वृक्ष के नीचे जो मुनि बैठा है दरअसल वह
मुनि नहीं है,.बल्कि लंका के राजा रावण का भेजा हुआ राक्षस कालनेमि है. मुनि का
कपट रूप धारण कर वह आपका वध करना चाहता है. वह नहीं चाहता कि आप संजीवनी औषधि लेकर
वापिस लौटें." इतना कहकर वह अपने दिव्य विमान में आरूढ़ होकर अपने लोक को चली
गयी.
कपिश्रेष्ठ हनुमान जी उस कपटी मुनि के पास
पहुँचे और पुनःप्रणाम करते हुए कहा-" हे मुनिवर ! आपने मेरी बड़ी सहायता की
है. कृपा कर अब आप अपनी गुरू दक्षिणा ले लीजिए. बाद में मुझे मंत्रादि भी
सिखाना."
प्रणाम की मुद्रा में सिर झुकाए
हनुमान को देखते ही उसने हनुमानजी को अपनी विशाल भुजाओं में जकड़ लिया. उसकी पकड़
इतनी मजबूत थी, कि किसी के भी प्राण ले सकता था. हनुमानजी ने शीघ्रता से अपने को
मुक्त करते हुए उसे अपनी पूँछ में लपेट कर पछाड़ दिया. उसके पृथ्वी पर गिरते ही
हनुमान उसकी छाती पर चढ़ गये और तब तक घूंसे मारते रहे, जब तक उसका प्राणांत नहीं
हो गया. कालनेमि का वध करने के पश्चात, उन्होंने उसके दोनों पैरों को पकड़कर चारों
ओर तेजी से घुमाया और लंका की ओर उछाल दिया. कालनेमी का शव रावण के प्रांगण में
आकर गिरा. रावण इस समय अपने सिंहासन पर बैठा रणनीति बनाने में लगा हुआ था. जैसे ही
उसने कालनेमी के शव को देखा और समझ गया कि उसका एक दुर्दांत सेनापति भी हनुमान के
हाथों मारा गया.
००००००
कपटी मुनि का वध करने के पश्चात
पवनपुत्र ने उस दिव्य पर्वत को देखा. देखते ही प्रणाम किया. देखते क्या हैं कि
समूचा पर्वत ही दिव्य संजीवनी के कारण चमचमा रहा है. वे असमंजन से पड़ गए कि इन
बूटियों में संजीवनी बूटी कौन-सी है?. अनिर्णयात्मक स्थिति से उबरते हुये उन्होंने निर्णय लिया कि इस तरह सोच-विचार के फेर
में पड़ने की अपेक्षा, क्यों न मैं समूचा पर्वत ही उठाकर ले चलुँ. वहाँ जाकर कुशल
वैद्यराज स्वयं उस बुटी को पहचान लेंगे." क्षणमात्र को आए इस विचार को
कार्यरुप में परिणत करते हुए उन्होने, अपने स्वामी के नाम का उद्घोष किया और पर्वत
को जड़ से उखाड़कर आकाश में लेकर उड़ चले.
आकाशमार्ग से उड़ते हुए श्री आनंदमग्न
श्री हनुमानजी अपने स्वामी रघुनाथ जी का नाम का सुमिरन करते हुए अनंत ऊँचाइयों से
अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थित हो रहे थे. उन्होंने अपनी गति को और बढ़ा दिया था. तभी अकस्मात एक बाण उनकी छाती में आ
लगा. तत्क्षण वे मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े. मूर्च्छा के चलते हुए भी उनके
श्रीमुख से "हे राम.....हे.राम" उच्चारित हो रहा था.
एक वानर के मुख से राम का नाम
सुनते ही भरत को घोर पछतावा हुआ कि उन्होंने एक निर्दोष राम-भक्त पर बिना
सोचे-विचारे बाण मार दिया. उनके नयन छलछला आए. वे सरपट भागे. दौड़े और व्याकुल होकर
कपि को अपनी छाती से लगा लिया और उन्हें कई प्रकार से जगाने का प्रयास करने लगे,
लेकिन हनुमान जी की मूर्च्छा नहीं टूटी. घबरा गए भरत. उन्हें आशंका होने लगी कि
कहीं इस कपि के प्राण न चले जाएं?. यह सोचकर उनके नेत्रों में जल भर आया और अब वे
विलाप करने लगे.
उन्हें कोई अन्य उपाय सुझाई
नहीं दे रहे थे कि जिसे प्रयोग में लाने
से कपि की मूर्च्छा दूर हो?.अब एक ही उपाय उन्हें समझ में आया. उन्होंने तत्काल
अपने दोनों हाथ जोड़कर मन-ही-मन प्रार्थना करते हुए कहा-" जिस विधाता ने मुझे
अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामजी से विमुख किया, उसी ने फ़िर यह दारून दुःख दिया है,
जो मेरे मन,वचन और शरीर से रामजी के पद-कमलों में निष्कपट प्रीति हो और यदि
रघुनाथजी मुझ पर प्रसन्न हों तो, यह वानर श्रम और पीड़ा रहित हो जाए." भरतजी
ने सच्चे मन से प्रभु श्रीराम का स्मरण किया था. स्मरण करते ही बड़ा चमत्कार हुआ. अपने
प्रभु श्रीरामजी का नाम सुनते ही हनुमानजी की मूर्च्छा दूर हो गयी और वे "कौशलेन्द्र प्रभु की जय हो....जय
हो" कहते हुए उठ बैठे.
भरत जी ने उन्हें अपने हृदय से
लगा लिया. दो राम भक्तो का यह पावन मिलन था. दोनों के हृदय में राम बसते थे. दो
राम एकाकी होकर मिल रहे थे. भरत को अपार सुख की प्रतीति होने लगी थी. हृदय
पुलकायमान हो उठा था. नेत्रों में जल भर आया था. वे बारम्बार कपि के मुख को
निहारते, फ़िर उन्हें अपने हृदय ले लगा लेते. प्रभु श्रीरामजी का सुमिरन करते हुए
उनके हृदय में प्रीति समाती न थी.
रामभक्त शिरोमणि श्री हनुमान जी
को देर तक हृदय से लगाते रहने के बाद, उन्होंने अत्यन्त ही दीन वाणी में
कहा-" हे तात ! मेरे स्वामी प्रभु श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण भैया कैसे
हैं? क्या उन्हें मेरी सुधि आती है? . हे कपि श्रेष्ठ ! मुझे संक्षेप में उनका
चरित्र कह सुनाओ.?"
हनुमान जी कुछ बोले, इससे पूर्व
उनके नेत्रों से आँसू झरझर कर बहने लगे. कंठ अवरुद्ध हो गया. मुख से वाणी निसृत
नहीं हो रही थी. किसी तरह अपने को नियंत्रित करते हुए उन्होंने अब तक का सारा
समाचार कह सुनाया.
भरत ने सुना. सुना कि लक्ष्मण
भैया को दुष्ट मेघनाथ ने वीरघातिनी शक्ति चलाकर उन्हें मूर्च्छित कर दिया है, उनके
प्राण संकट में हैं. भैया राम का रो-रोकर बुरा हाल हुआ जा रहा है." यह सुनते
ही लक्ष्मण फ़फ़क कर रो पड़े. विलाप करते हुए कहने लगे-" हे प्रभु ! मैंने इस
संसार में जन्म ही क्यों लिया?. मैं संकट की इस घड़ी में उनके एक भी काम नहीं आ
सका?. धिक्कार है मुझको....धिक्कार है....ऐसा कहते हुए उनकी वाणी अवरुद्ध होने
लगी. शब्द गले में ही आकर अटक गए . देर तक अवसन्न अवस्था में रहने के बाद उन्हें
चेत आया कि इस तरह विलाप करने से कुछ होने वाला नहीं है. वीर हनुमान भैया लक्ष्मण
के प्राणों के रक्षार्थ जो औषधि लेकर आए हैं, उन्हें मेरे कारण देरी हो रही है.
यदि उन्हें अपने गन्तय में जाने में विलम्ब हुआ तो घोर संकट आ जाएगा. अतः हनुमान
को शीघ्रताशीघ्र यहाँ से जाना होगा."
किसी तरह अपने पर नियंत्रण रखते
हुए उन्होंने हनुमानजी से कहा-"हे तात ! आपको जाने में देरी हो गयी और
सबेरा हो गया, तो काम बिगड़ जाएगा. अतः
आपसे मेरी विनती है कि कृपया आप मेरे बाण पर चढ़ जाइये, यह आपको सूर्योदय से पूर्व
ही आपको वहाँ पहुँचा देगा." ऐसा कहते हुए उन्होंने एक बाण उठाया. उसे
अभिमंत्रित किया. धनुष पर चढ़ाया और लक्ष्य लेकर छोड़ दिया. "जय जय
श्रीराम" कहते हुए हनुमान जी उस वाण पर चढ़ गये.
वे बाण पर चढ़ तो गए, लेकिन तभी एक
कुशंका ने उन्हें घेर लिया.वे सोचने लगे कि-"
एक तो मेरे शरीर का बोझ, ऊपर से इस विशाल पर्वत
का बोझ, एक छोटा-सा बाण, इतना भार कैसे उठा पाएगा?." विचार तो विचार ही
था,लेकिन इस छोटे-से विचार ने उन्हें उद्वेलित कर दिया. वे परेशान हो उठे. मन में
उठी इस शंका का निवारण करने के लिए उन्होंने अपने स्वामी श्रीरामकी का स्मरण कर
चरण-वन्दना की और बोले- " हे नाथ ! मैं आपके प्रताप को हृदय में रखकर शीघ्र
ही चला आऊँगा. बस इतना कहते ही बाण द्रुतगति से चलने लगा. मन -ही-मन हनुमानजी
बारम्बार भरत जी के शील, गुण और उनकी प्रभु के चरणों में अपार प्रीति की सराहना
करते हुए आकाश-मार्ग से चले जा रहे हैं.
अर्ध राति गइ कपि नहि आयउ * राम
उठाइ अनुज उर लायउ.
इधर लक्ष्मण जी का सिर अपनी गोद
में लिए श्रीराम बैठे हुए हैं. उन्हें चारों ओर से महात्मा विभीषण, सुग्रीव, अंगद
, ऋक्षराज जाम्बन्त आदि महावीरों ने सुरक्षा-चक्र बना कर घेर रखा है.
रामजी टकटकी लगाए लक्ष्मण के
चेहरे को निहारते हुए कहते है-"भैया लक्ष्मण ! तुम मुझे दुःखी नही देख सकते
थे. हे भ्राता ! तुम्हारा स्वभाव सदा कोमल था. मेरे हितार्थ माता-पिता को त्याग
दिया और वन में शीत,घाम तथा वर्षा को सह लिया. हे मेरे भाई ! वह प्रेम अब कहाँ है?
मेरे वचनों की विकलता सुनकर तुम उठते क्यों नहीं हो? यदि मैं जानता कि वन में
बन्धु से वियोग होगा, तो पिताजी के यह वचन भी नहीं मानता. पुत्र, धन,स्त्री, भवन
और परिवार संसार में बार-बार होते और जाते हैं, किन्तु संसार में सहोदर बन्धु नहीं
मिलता?. हे तात ! जैसे बिना पंख के पक्षी, मणि बिना सर्प, शूँड बिना हाथी, अति
दुःखी होता है, हे भ्राता ! यदि देव मुझे जीवित रखे, तो मेरा जीवन भी तुम्हारे
बिना ऐसा ही होगा."
" हे लक्ष्मण ! स्त्री के
लिए प्यारे भाई को खोकर,मैं अयोध्या कौन-सा मुँह लेकर जाऊँगा?. चाहे स्त्री खोने
का अपयश सह लेता, क्योंकि इस हानि से समक्ष स्त्री-हानि विशेष हानि नहीं है. हे
वत्स ! अब तो स्त्री हरण का अपयश, और तुम्हारा शोक दोनों ही मेरा निष्ठुर और कठोर
हृदय सहन करेगा. हे भ्राता ! तुम अपनी माता के एक ही पुत्र होने के नाते उसके
प्राणों के आधार हो. उन्होंने मुझे सब प्रकार सुखदायक व बड़ा हितैषी जानकर तुम्हें
हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था. अब जाकर मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा. हे भाई ! तुम उठकर
मुझे क्यों नहीं समझाते?"
सभी बारी-बारी से रामजी को
समझाते.धीरज रखने को कहते, लेकिन रामजी का विलाप नहीं रुकता. वे बार-बार लक्ष्मण
जी के चेहरे पर, तो कभी आसमान पर टकटकी लगाए देखने का प्रयास करते हुए सोचने लगते
कि रात्रि का दूसरा प्रहर समाप्त हो चला है, तीसरा प्रारंभ हो चुका है,लेकिन अभी
तक पवनपुत्र संजीवनी लेकर नहीं आए. पल-प्रतिपल बीतता समय उन्हें ऐसा प्रतीत होता,
मानों पूरा वर्ष बीतने जा रहा हो.
देखते-ही-देखते रात्रि का तीसरा
प्रहर भी समाप्त हो गया, लेकिन अभी तक हनुमान नहीं लौटे. उनको लौटता हुआ न पाकर
रामजी का मन, एक अज्ञात भय से भरने लगा. वे आकाश की ओर देखते हुए मन-ही-मन
कहते-" कुछ ही समय पश्चात सूर्योदय हो जाएगा और वे अपने भाई को सदा-सदा के
लिए खो देंगे...हनुमान तुम जहाँ भी हो, शीघ्रता से चले आओ..... देखो....समय बहुत
कम बचा है....." न जाने कितने ही विचार मन में उठते, जो उन्हें बेचैन किए दे
रहे थे.
अश्रुपुरित नेत्रों से रामजी अपने
अनुज के चेहरे पर दृष्टि टिकाए हुए थे, उनका सिर झुका हुआ था. तभी महात्मा विभीषण
ऊँचे स्वर में चिल्ला उठे----" लो आ गए...आ गए हमारे पवनपुत्र.... संजीवनी
लेकर आ गये." सभी ने आकाश की ओर देखा. झिलमिल-झिलमिल जगमगाते पर्वत की रोशनी
में किसी चमकीले हीरे की तरह स्वयं भी जगमगाते हुए वीर हनुमान धीरे-धीरे आकाश की
ऊँचाइयों से नीचे की ओर आ रहे है. उन्हें
देखकर सभी हर्षोल्लास के साथ अपनी जगह से उछल-कूद मचाने लगे, तालियाँ पीटने लगे और
नृत्य करने लगे. जैसे-जैसे पवनपुत्र नीचे की ओर आते जा रहे थे, उनका विशालकाय
शरीर, बाएं हाथ की हथेली में समूच पर्वत दिखाई देने लगा.
आइ गयउ हनुमान, जिमि कारुना महँ
बीर रस.
कुछ ही पल में वे पृथ्वी पर उतर
आए. उनका आगमन कुछ ऐसा था मानों करुणा-रस के बीच बहते हुए वीर रस का आगमन होना.
चहुँ ओर उत्साह का माहौल बन गया.उन्होंने उस पर्वत को पृथ्वी पर रखा.
हरषि राम भेटेउ हनुमाना*अति
कृतग्य प्रभु परम सुजाना
तुरत बैद तब कीन्हि उपाई*उठि
बैठे लछिमन हरषाई.
प्रभु श्रीरामजी अपने स्थान से उठ
खड़े हुए और उन्हें अपने हृदय लगा लिया. फ़िर शीघ्रता से चलकर हनुमान वैद्य सुषेण जी के पास पहुँचे और
विनम्रता से हाथ जोड़कर विनती करते हुए कहा-" महात्मन् ! मैं नहीं जानता इन
औषधियों में कौन-सी संजीवनी है?. कृपया कर आप शीघ्रता से उसकी पहिचान करिये और
भैया लक्ष्मण का उपचार प्रारंभ कीजिए."
वैद्यराज जी ने वनस्पति-शास्र्त्र
का गहन अध्ययन था. औषधि स्वयं होकर उनसे संवाद भी करती थीं. वे उनका प्रयोग करना
जानते थे. वे जानते थे कि औषधि को प्रयोग में लाने से पूर्व उनका पूजन करना होता
है और उन्हें अभिमंत्रित भी करना होता है, तब जाकर वे अपना संपूर्ण प्रभाव रोगी
व्यक्ति को पहुँचाती हैं. वैद्य जी चुंकि अपने आवास सहित ले आए गए थे. अतः उन्हें
पूजा-पाठ की सामग्रियों के लिए अन्यत्र नहीं भटकना पड़ा. वे शीघ्रता से अपने घर के
भीतर गए और सभी पूजा की आवश्यक सामग्री ले आए. औषधियों के पौधों की विधिवत
पूजा-अर्चना करने के पश्चात मृत संजीवनी, ( व्यक्ति को जिलाने वाली), विशाल्यकरणी
( तीर से लगे घावों को तत्काल सुखा देने वाली), संघानकरणी औषधि ( त्वचा को स्वस्थ
कर देने वाली,) तथा सवर्ण्यकरणी( त्वचा का रंग बहाल करने वाली) औषधियों के पौधो की
पूजा -अर्चना की. उनके कुछ पत्तों को तोड़ा. खल में डालकर उनकी कूटाई की फ़िर उनका
रस निकालकर मूर्च्छित लक्ष्मण जी के मुँह में डाला, कुछ बूंदे नाक में डाली. बस
कुछ ही समय पश्चात लक्ष्मण जी उठ बैठे.
मूच्छित होने से पूर्व वे रणभूमि
में थे और मेघनाथ से युद्धरत थे.तभी मेघनाथ ने उन पर शक्ति से प्रहार कर दिया और
वे मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े थे. स्वस्थ होकर उठते ही उन्होंने मेघनाथ को
ललकार लगाते हुए कहा-" दुष्ट निशाचर ! अदृश्य रहकर युद्ध क्यों करता है?
हिम्मत हो तो सामने आकर मुझसे युद्ध कर." तब रामजी ने उन्हें समझाते हुए सारा
दृष्टांत कह सुनाया और अपने भाई को हृदय से लगाते हुए कहा-" भैया लक्ष्मण !
तुम्हें स्वस्थ देखकर तुम्हारा भाई जीवित हो उठा है. अब संसार का कोई भी योद्धा
हमारा सामना नहीं कर पाएगा." बे बारम्बार उन्हें हृदय से लगाते अघाते नहीं
थे.
०००००००
चारों ओर से निराशा से घिरते हुए रावण मन-हीए-मन सोच रहा था -" अब उसे क्या करना
चाहिए?. देखते-ही-देखते उसके अनगिनत राक्षसों सहित उसके विश्वस्थ साथी,
एक-के-बाद-एक मारे जा रहे हैं. वे सारे-की-सारे इतने बलवान और घोर पराक्रमी थे,
जिनका नाम लेने मात्र से देवता,किन्नर,यक्ष तक भय से कांपने
लगते थे, मारे गये. युद्ध किस निर्णायक मोड़ पर जाकर समाप्त होगा कहा नहीं जा
सकता?. वह स्वयं होकर युद्ध करने रणभूमि में नहीं उतरा था. राम स्वयं होकर उससे
युद्ध करने के लिए आया है. अपने नगर की सीमा में प्रवेश कर चुके शत्रु को जवाब तो
देना ही होगा...उससे दो-दो हाथ को करना ही होगा,चाहे लंका का सर्वनाश हो जाए. चूहा
जिस प्रकार खतरे को भांप कर बिल में घुस जाता है, लंकेश...त्रैलोक- विजेता लंकेश
ऐसा नहीं करेगा, वह कायरों की भांति महल
में छिप कर नहीं रहेगा. वह शत्रु से डटकर मुकाबला करेगा. वह किसी भी कीमत पर एक शत्रु
के समक्ष न तो स्वयं झुकेगा और न ही अपना शीश झुकने देगा. जिस तरह मैं आन-बान-शान
से जीता आया हूँ, उसी आन-बान और शान से रणभूमि में मरूँगा."
" समरांगन में राम उतरा भी
तो बन्दर-भालुओं को लेकर?. वह अपने साथ
पारियात पर्वत के गव गवाक्ष की 80 शंख वानर, रेवत
और कदली वन दुर्द्धर और गज नामक वानर की 7 पद्म 80 करोड़, बलवीर वानर के 56 कारोड़,धुंधमाल से 56 करोड, अर्जुन गिरि पद्म वानर के 87 लाख बन्दर,बद्री
पर्वत से गन्धमादन के 11 लाख वानर, अर्जुन गिरि से 87
करोड़ 90लाख,सुमेरे पर्वत केशरी नामक वानर के 11-12करोड़,विन्ध्याचल से वाण और वसंत वानर के 11करोड़,
विजय गिरि रतिमुख नामक वानर के 8 पद्म,जाम्बवंत गिरि से
जामवन्त और धूमकेतु के 9 शंख बन्दर, धौला गिरि से 1करोड़ 25 लाख,उदयाचल
से पनस और सुषेण वानर के 7 पद्म80 करोड़,कज्ज्ल गिरि,अस्ताचल, कैलाश, हिमालय,और विन्ध्याचल से कई पद्म बन्दरो
और भालुओं की फ़ौक इकठ्ठी कर लाया है. निश्चित ही मेरे पुत्र इन्द्रजित मेघनाथ ने
रामकी सेना के एक चौथाई से ज्यादा बन्दर-भालुओं को यमपुरी भेज दिया होगा."
विचारों की श्रृँखला थमने का नाम
नहीं ले रही थी. उसे सूझ नहीं पड़ रहा था कि कल होने वाले युद्ध में किसे सेनापति
बनाकर भेजा जाये.? " एक मन हुआ. मेघनाथ को भेजा जाए. जब मेघनाथ इन्द्र पर
विजय प्राप्त कर सकता है, तो फ़िर उसके सामने भला राम की क्या बिसात?. निश्चित
ही मेघनाथ ने कल तक राम की एक चौथाई सेना
का सफ़ाया तो कर ही दिया होगा. लाखों-करोड़ो सैनिकों का वध करना कोई सामान्य काम
नहीं होता?. निश्चित ही उसे थकान भी हो आयी होगी. उसके शरीर चोटिल भी हुआ है.
अतःउसे एक दिन का विश्राम देना भी जरुरी है."
"कहने को तो हम तीन भाई हैं.
एक कायर विभीषण, अपने प्राण बचाने के लिए शत्रु से जा मिला. दूसरा गहरी नींद में
रहकर खुर्राटें भर रहा है. बेचारे कुम्भकर्ण का इसमें भला क्या दोष? इन्द्रासन की
जगह निद्रासन मांग बैठा. इसमें कही से कहीं तक उसकी गलती नहीं थी और न ही उसे
तपश्चर्या में कोई कमी नहीं रहने दी थी. जब वरदान मांगने का समय आया, तो चालाक-
चालबाज विष्णु ने उसकी जीभ पर सरस्वती को
बिठा दिया और निर्दोष भाई ने इन्द्रासन की जगह निद्रासन मांग लिया. खैर...अब जो हो
चुका है, उसे बदला तो नहीं जा सकता. काफ़ी सोच-विचार करने के बाद उसने अंतिम निर्णय
ले लिया कि कल मेघनाथ को अभी युद्धभूमि में भेजना उचित नहीं होगा."
"क्यों न मैं कुम्भकरण को नींद
से जगाया जाये. उसमें दस हजार हाथियों का बल है. फ़िर उसकी ऊँचाई छः धनुष है ( एक
धनुष की लंबाई एक मीटर से देढ़ मीटर होती है.) और चौड़ाई सौ धनुष है. बिना
अस्त्र-शस्त्र को प्रयोग में लाए, वह केवल भूमि पर विचरण ही करेगा, तो उसके पैरों
तले सैकड़ों वानर यूँहि दबकर मर जाएंगे. अपने बड़े-बड़े नथुनों से केवल वह केवल
स्वांस ही लेगा, तो सैकड़ों की संख्या में वानर उसके पेट में चले आएंगे. और जब मुँह
से स्वांस फ़ेंकेगा तो लाखों की संख्या में वानर सैकड़ों मील दूर जा गिरेंगे. और जब
स्वांस लेगा, तब भी हजारों वानर उसके पेट में समा जाएंगे. उसके नेत्र गाड़ी के
पहिये जितने बड़े हैं, अतः कोई शत्रु उसकी आँखों से ओझल नहीं रह पाएगा और सब मारे
जाएंगे. इनना ही नही कुंभकरण अस्त्र-शस्त्र का ज्ञाता होने के साथ ही मायावी
विद्याओं को जानता है. इतने शक्तिशाली योद्धा के युद्ध में जाने मात्र से राम की
शक्ति आधी रह जाएगी. अब राम के पास एक चौथाई सेना बच रहेगी, तब इन्द्रजीत को युद्ध
जीतने में ज्यादा आसानी होगी. वह युद्ध की बाजी ही पलटकर रख देगा."
गंभीरता से सोचने-विचारने के बाद
उसने अपने सेनापति को बुलाया और आज्ञा दी- " तुम अपने साथ हजारों सैनिकों को
लेकर जाओ और कुम्भकरण को नींद से जगाओ. नींद से जागने के पश्चात उसे वारूणी चाहिए.
अतः सैकड़ों बैलगाड़ियों पर वारूणी मटकों में भरके लेकर जाना. झककर वारूणी पीने के
बाद उसे गरमा-गरम निरामिष भोजन भी चाहिए. अतः तुम कृकल नामक पक्षी (स्वर्णचूड़
मुर्गा.), भांति-भांति के बकरे, खरगोश, आधे खाए हुए भैसे, एकशल्य नामक मत्स्य,
मोर, अन्य मुर्गे, सूअर, गेंडा, साही हिरण, और मयुरो का मांस जो दही और नमक मिलाकर
बनाए गए हों. इनके साथ तरह-तरह की चटनियाँ,, भांति-भांति के पेय, जीभ की शिथिलता
दूर करने के लिए खटाई और नमक के साथ भांति-भांति के राग ( अंगूर और अनार के रस में
मिश्री और मघु आदि मिलाने से जो मधुर रस तैयार होता है. वह पतला हो तो उसे
"राग" कहते हैं और गाढ़ा हो जाये तो उसे "खाण्डव कहते हैं.) साथ
लेते जाओ."
"
अच्छी छौंक के साथ तैयार किये गये नाना प्रकार के विविध मांस चतुर रसोइयों
से बनवाओ. इसके साथ स्वच्छ दिव्य सुराएँ जो कदम्ब आदि वृक्षों से स्वतः उत्पन्न
हुई हों,, कृत्रिम सुराएँ (जिसे शराब बनाने वाले लोग तैयार करते हैं) तथा शर्करासव
(शक्कर से बनी) ,माध्वीक (मघु से बनी) , पुष्पासव (महुआ के फ़ूलों से बनी ) और
फ़लासव (द्राक्ष आदि फ़लों से बनी) स्फ़टिकमणियों के पात्रों में, भांति-भांति के
मणियों से तथा सुवर्ण से बने पात्रों में लेकर जाओ."
"कुम्भकर्ण इतनी आसानी से
उठाये नहीं उठेगा अतः तुम अनगिनत वाद्ययंत्र बजानेवालों को साथ लेकर जाओ. सोते हुए
कुम्भकर्ण की ऊँचाई एक मंजिल मकान जितनी ऊँची है.उसके कान सूपे के आकार के हैं.अतः
तुम एक बड़ी सीढ़ी भी साथ लेकर जाना. भयंकर शोर मचाने वाले बाजे उसके कान के पास
बजाना, तब जाकर वह जाग पाएगा. जाओ....जितनी जल्दी जा सकते हो जाओ...उसे उठाओ और
कहो कि तुम्हारे भाई लंकापति रावण ने याद किया है. वह जितनी शीघ्रता से यहाँ आ
सकता है, उसे लेकर आओ."
सैकड़ों की संख्या में बैलगाड़ियों
में नाना प्रकार की वारुणी छोटे-बड़े घड़ों में भरकर और इतनी ही अन्य बैलगाड़ियों में
विभिन्न प्रकार के सामिष-निरामिष खाद्य सामग्रियों के सहित, हजारों की संख्या में
सैनिक और वाद्ययंत्र बजाने वालों को लेकर उसका सेनापति चला.
सेनापति ने देखा कि कुम्भकर्ण
गहरी निद्रा के आगोश में सोया हुआ है और जोर-जोर से खुर्राटें भर रहा है. उसने
सैनिकों को आज्ञा की सीढ़ियों को लगाकर वे कुम्भकर्ण के कानों के पास पहुँचे और
जितनी तेज-गति से वाद्ययंत्र बजाए जा सकते हैं, बजायें., तब जाकर वह जाग पाएगा.
कड़ी मेहनत करने के पश्चात कुम्भकर्ण ने आँखें खोली और उठ बैठा.
सबसे पहले उसने सेनापति से यह
जानना चाहा- " सेनापति ! क्या तुम्हें नहीं मालुम कि अभी हम कुछ ही समय ही तो
सो पाए थे, तुमने मुझे बीच नींद से क्यों उठाया? मुझे उठाने की तुमने हिम्मत कैसे
की? बोलो...कारण बताओ अन्यथा मरने के लिए तैयार हो जाओ." वह चीख कर बोला था.
उसकी गर्जना से वन-प्रांत कांप उठा था.
" हे महाबली कुम्भकर्ण जी !
मुझे अभयदान दीजिए....इसमें मेरा कहीं-से-कहीं तक कोई दोष नहीं है और न ही मुझमें
इतनी हिम्मत है कि मैं आपको बीच नींद में से सोता हुआ उठा सकूँ. आपको बलपूर्वक
जगाने का आदेश लंकापति रावण ने दिया है. उनका आदेश है कि जितनी शीघ्रता से हो
सके,मैं आपको साथ ले कर आऊँ.इस आदेश के पीछे उनका क्या उद्देश्य है, यह मै नहीं
जानता लेकिन उन्होंने आपको शीघ्रताशीघ्र बुलाया है." दोनों हाथ जोड़ते हुए
सेनापति ने लंकेश की आज्ञा को कह सुनाया.
" अच्छा...तो समझा.....लंका
पर निश्चित ही भयानक विपत्ति आयी होगी, अभी उन्होंने मुझे नींद से जगाना उचित
समझा.होगा"
" सेनापति ! भाई जानते हैं
कि मुझे सोकर उठने के बाद भयानक भूख और प्यास लगती है. क्या उन्होंने मेरे लिए
आमिष-निरामिष भोज्य सामग्रियाँ और वारुणी भेजी हैं?. यदि साथ लाए तो शीघ्रता से
मेरे समक्ष रखो. भरपेट भोजन करने के पश्चात चलते हैं."
" जी महाबली ! मैं सारी
सामग्रियाँ साथ लेता आया हूँ" यह कहकर सेनापति ने सैनिको को आज्ञा दी वह
वारुणी से भरे पात्र और भोज्य सामग्रियाँ महाराज कुम्भकरण के समक्ष प्रस्तुत करें.
कुम्भकर्ण वारूणी के बड़े-बड़े
मटकों को उठाता और एक घूँट में हलक के नीचे उतारकर खाली पात्रों को हवा में उछाल
देता था. फ़िर अपने दोनों हाथों से ठूँस-ठूँस कर भोजन खाने लगा. गले तक भोजन ठूँस लेने
के बाद उसने जोरदार डकार ली. डकार लेने मात्र से पेड़-पौधे हिलने लगे थे.
अब वह अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ.
भारी-भरकम गदा ( मुद्गर ) को कांधे पर रखा
और लंका की ओर प्रस्थित होने लगा. ठोल-तासे-नगाड़ों की ध्वनि सुनते ही लंकापति अपने
महल के पाँचवी मंजिल पर जाकर खड़ा हुआ. यहीं पर खड़ा होकर वह अपने अनुज कुम्भकर्ण से
बातें कर सकता था.
" आओ...महाबली कुम्भकरण
आओ...लंकापति रावण तुम्हारा भावभीना स्वागत करता है." कहते हुए फ़ूलों की माला
उसके गले में पहना दिया.
भला न कीन्ह तैं निसिचर नाहा *
अब मोहिं आइ जगाएहि काहा
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना.*भजहु
राम कोहहि कल्याणा. ( मा,62/1 लं.कां)
"लंकेश ! स्वागत तो आपने कर
लिया भैया,. अब यह बताओं कि लंका पर कौन-सी विपत्ति आयी है, जिसके कारण आपने मुझे
आधी नींद से ही जगा दिया?. ऐसा करते हुए क्या आपको याद नहीं आया कि कोई
मुझे नींद से जगायेगा, वह मेरे जीवन का अंतिम दिन होगा." यह सब जानते हुए भी
आपने मुझे जगा दिया?. अब मेरे पास समय ही कहाँ बचा है कि मैं आपके काम आ सकूँ. फ़िर
भी जाने से पहले मुझसे जो भी हो सकेगा,
मैं करने के लिये, तैयार हूँ. बोलो....मेरे योग्य क्या काम है.?
" मैं जानता था कि तुम मुझसे
ऐसा ही प्रश्न करोगे...लेकिन मैं विवश था मेरे भाई कि तुम्हें जगाना पड़ा. लंका की
आन-बान शान... सब मिट्टी में मिलने जा रहा है, उसे बचाने के लिए तुमसे बढ़कर मेरा
और कोई सहारा भी तो नहीं था."
" भैया.! पहेलियां मत
बुझाइये.....मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं अपने जीवन के अन्तिम क्षणॊं में आपके लिए
क्या कर सकता हूँ." कुम्भकरण ने जानना चाहा.
" महाबली कुम्भकरण !
तुम्हारे भतीजे मेघनाथ ने अकेले ही राम की
सेना के एक चौथाई वानरों सहित बन्दरों को सदा-सदा के लिए मृत्यु की गोद में सुला
दिया है. अब तुम रणभूमि में उतरकर ऐसा पराक्रम दिखाओ कि उसकी बची-खुची सेना समाप्त
हो जाए. यदि तुम ऐसा कर सके तो मेरी विजय आसान हो जायेगी."
" ठीक है भैया, जैसी आपकी
आज्ञा. मैं आज ही रणभूमि में जाकर कुछ ऐसा पराक्रम कर दिखाऊँगा कि राम देखता रह
जाएगा. वह भी याद रखेगा कि किस महाबली से उसका सामना हुआ था?. लेकिन जाने से पहले
मैं एक बात अवश्य कहना चाहूँगा. यदि आपने मेरी बात मान ली होती और सीता को लौटा
दिया होता तो आपको ये दुर्दिन नहीं देखने पड़ते."
" भैया लंकेश ! मेरी यह आपसे
अन्तिम मुलाकात है. मैं नहीं जानता कि फ़िर
हमारी मुलाकात कहाँ और कब होगी.? मुझे आशीर्वाद दीजिए." कहते हुए कुम्भकर्ण
ने अपना माथा झुकाते हुए रावण से आशीर्वाद पाना चाहा."
" विजयी भव" आयुष्मान
भव" कहते हुए रावण ने उसको आशीर्वाद दिया. ’आयुष्मान भव" सुनते ही
कुम्भकर्ण ने पलट कर कहा- भैया ! आयुष्मान कहकर पितामह ब्रह्मा का उपहास तो मत
उड़ाइये. उन्होंने वरदान देते हुए कहा था कि जिस दिन तुम्हें कोई सोती हुई अवस्था
से जगा देगा, वह तुम्हारा अन्तिम दिन होगा. उनका वचन अटल है और हो कर रहेगा,"
" भैया लंकेश ! मेरा जीवन बहुत थोड़ा-सा बचा है. इस बचे हुए
जीवन में मैं तुम्हारे काम आ सका...इसे मैं अपना अहोभाग्य समझता हूँ. इस अवधि मैं
प्रभु राम की सेना की आधी शक्ति क्षीण कर दूँगा जैसा कि तुम चाहते हो. मैं जानता
हूँ कि प्रभु श्रीराम मात्र एक मनुष्य मात्र नहीं हैं, वे विष्णु के अवतारी है. एक
भाई होने के नाते मैं अधर्म की बुनियाद पर खड़ा होकर, धर्म के विरुद्ध युद्ध करने जा रहा हूँ. इसका क्या परिणाम होगा यह भी जानता हूँ. मैं रणभूमि से जीवित
बचकर नहीं आऊँगा, यह भी निश्चित है. संभव है कि श्रीराम के हाथों मेरी मृत्यु होगी
अथवा लक्ष्मण के हाथों, नहीं जानता.लेकिन इस नश्वर काया का अन्त इनके हाथों होगा,
यह भी बड़े सौभाग्य की बात होगी मेरे लिये."
" हाँ ...जाते-जाते मैं इतना
अवश्य कहता चलूँ कि अपनी जिद छोड़ दो. सीता जी को ससम्मान श्रीरामजी को सौंप दो और
लंका को होने जा रहे महा-विनाश से बचा लो. इससे अच्छा स्वर्णिक अवसर फ़िर नहीं
मिलेगा."
"अच्छा तो अब मैं चलता हूँ.
युद्धभूमि मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी." कहते हुए महाकाय कुम्भकरण ने नेत्र
भर आए. माया-मोह-ममता कहीं उसके पैर्रों की बेड़ी न बन जाये, यह सोचकर उसने लंकेश
को प्रणाम किया और तेजी से पीछे मुड़ा और जोरदार गर्जना करते हुए युद्धभूमि की ओर
चल पड़ा.
कुम्भकर्ण जब युद्ध-स्थल की ओर
चला, उस समय वह रोष से भरे हुए प्रलयकाल के विनाशकारी यमराज के समान जान पड़ता था.
कुम्भकर्ण अपने पैरों की धमक से सारी पृथ्वी को कम्पित करता हुआ जा रहा था. चलते
समय शत्रुघाती कुम्भकर्ण पर्वतशिखर के समान जान पड़ता था. युद्धभूमि में खड़े हुए वानर
सहसा उस विशालकाय राक्षस को देखकर सहम गए. उनमें से कुछ वानरों ने भागकर रामजी की
शरण ली. कुछ व्यथित होकर गिर पड़े. कोई पीड़ित हो सम्पूर्ण दिशाओं में भाग खड़े हुए
और जहाँ-तहाँ धाराशायी हो गये और कितने ही वानर भय से पीड़ित होकर धरती पर लेट गए.
वह पर्वतशिखर के समान ऊँचा था.
उसके मस्तक पर सुवर्ण मुकुट शोभा दे रहा था हाथ में मुग्दर लिए वह अपने तेज से
सूर्य का स्पर्श करता-सा जान पड़ता था.उस बढ़े हुए विशालकाय एवं अद्भुत राक्षस को
देखकर सभी वनवासी वानर भय से पीड़ित हो इधर-उधर भागने लगे.
अपनी सेना को भागते और कुम्भकर्ण
को बढ़ते हुए देखकर रामजी को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने विभीषण से जानना चाहा-
विद्रुतां वाहिनीं दृष्ट्वा
वर्धमानं च राक्षसम् *सविस्मितमिदं रामो विभीषणमुवाच ह (4.एकषष्टिम्तमः सर्गः)
" विभीषण ! यह लंकापुरी में
पर्वत के समान विशालकाय वीर कौन है., जिसके मस्तक पर किरीट शोभा पाता है और नेत्र
भूरे हैं? यह ऐसा दिखाई देता है मानो बिजली सहित मेघ हो. इस भूतल पर एकमात्र महान
ध्वज-सा दृष्टिगोचर होता है. इसे देखकर सारे वानर इधर-उधर भाग रहे हैं. इतन बड़े
डील-डौल का यह कौन पुरुष है?. यह कोई राक्षस है या असुर?. मैंने स्वयं ने ऐसा
अद्भुत प्राणी कभी नहीं देखा है."
रघुनाथ जी की बातों को सुनकर
विभीषण ने बताया-" हे भगवन ! जिससे
युद्ध में वैवस्वत यम और देवराज इन्द्र को
भी परास्त किया था, वही यह विश्रवा
का प्रतापी पुत्र कुम्भकर्ण है. इसके बराबर लंबा दूसरा कोई राक्षस नहीं है."
"हे प्रभु ! इसके नेत्र बड़े
भयंकर हैं. यह महाबली कुम्भकर्ण जब हाथ में शूल लेकर युद्ध में खड़ा हुआ था, उस समय
देवता भी इसे मारने में समर्थ नहीं हो सके. यह कालरूप है."
" हे राम ! ये स्वभाव से ही
तेजस्वी और महाबलवान है. अन्य राक्षसपतियों के पास जो बल है, वे सब वरदान से
प्राप्त हुये हैं.. इस महाकाय राक्षस ने जन्म लेते ही बाल्यावस्था में कई सहस्त्र
प्रजाजनों को खा डाला था."
" जब सहस्त्रों प्रजाजन इसका आहार बनने लगे, अब भय
से पीड़ित हो वे सब-के-सब देवराज इन्द्र की शरण में गये औ सब प्रकार से अपना कष्ट
कह सुनाया. लोगों के दारूण दुःख से उन्हें क्रोध हो आया और उन्होंने अपने तीखे
चक्र से उसे घायल कर दिया. तदनन्तर कुपित हुए कुम्भकर्ण ने इन्द्र के हाथी ऐरावत
का दांत तोड़ दिया और देवेन्द्र की छाती पर प्रहार किया. कुम्भकर्ण के प्रहार से
इन्द्र व्याकुल हो गये और उनके हृदय में जलन होने लगी. यह देखकर सब देवता, महर्षि
आदि विषाद में डूब गये. तत्पश्चात इन्द्र ने ब्रम्हाजी के धाम में पहुँचकर अपनी
व्यथा-कथा सुनाते हुए कहा-" हे भगवन ! यदि यह नित्यप्रति इसी प्रकार
प्रजाजनों का भक्षण करता रहे तो थोड़े समय में सारा संसार सूना हो जाएगा."
ब्रह्माजी ने कुम्भकर्ण से भेंट
की और कहा-" कुम्भकरण निश्चय ही विश्रवा ने तुझे जगत का विनाश करने के लिए
उत्पन्न किया है. अतः मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि आज से मूर्दे के समान सोता
रहेगा." ब्रह्माजी के शाप से भयभीत होकर रावण के चरणॊं में गिर पड़ा.
कुम्भकर्ण का पक्ष लेते हुए रावण ने ब्रह्माजी से विनय पूर्वक कहा-" हे
प्रजापते ! आपके द्वारा लगाया और बढ़ाया गया सुवर्ण फल देने वाला वृक्ष फल देने के
समय काटा नहीं जाता . यह आपका नाती है, अतः इसे इस प्रकार का शाप देना उचित नहीं
होगा."
"हे देव ! आपका श्राप झुठा
नहीं होगा. निश्चित ही यह अब सोता ही रहेगा, इसमें कोई संशय नहीं है, परंतु आप
इसके सोने और जागने का कोई समय तो निर्धारित कर दें."
रावण की विनती सुनकर स्वयंभू
ब्रह्मा जी ने कहा-" तुम्हारा कथन सही है. अब यह छः मास तक सोता रहेगा और एक
दिन जगेगा. उस एक दिन से ही यह वीर भूखा होकर पृथ्वी पर विचरेगा और प्रज्ज्वलित
अग्नि के समान मुँह फ़ैलाकर बहुत-से लोगों को खा जाएगा."
परमपिता ब्रह्माजी ने रावण को
स्मझाते हुए यह भी बता दिया था कि आयुः कर्म च विद्या च वित्तं निधनमेव च ।।
पञ्चैतानि
विलिख्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ।। आयु, कर्म, विद्या, वित्त, और मृत्यु, ये पाँच चीजें व्यक्ति के गर्भ में ही
निश्चित हो जाती है.
" हे राघवेन्द्र ! इस समय
आपत्ति में पड़कर और आपके पराक्रम से भयभीत होकर रावण ने इसे जगाया है. ये अत्यन्त
ही कुपित होकर वानरों को खा जाने के लिए सब ओर दौड़ रहा है.
इस समय महाबली कुम्भकर्ण छः सौ
धनुष के बराबर विस्तृत और सौ धनुष के बराबर ऊँचा किसी विशालकाय पर्वत के समान जान
पड़ता था, अपना विकराल मुँह फ़ैलाकर अनगिनत वानरों को एक साथ उदरस्थ करता चल रहा था.
कितने ही वानर उसके पैरों तले रौंदे जा रहे थे. महाबली वानरों की सेनाओं को उसी
प्रकार से रौंदने लगा जैसे बढ़ा हुआ दावानल बड़े-बड़े जंगलों को जलाकर भस्म कर देता
है. उसने खेल ही खेल में वानर सेना के अनेक वीरों को मार गिराया.
उसके भयानक पराक्रम को देख मेघ के समान विशाल
शरीर वाले वानरशिरोमणि द्विविद ने, एक पर्वत उखाड़कर कुम्भकरण पर
फ़ेंका, किंतु वह उस पर न गिरते हुए उन्हीं की सेना पर आ गिरा. जिससे अनेक वानर मारे गये. अत्यन्त
क्रोधित होते हुए कुम्भकर्ण ने गर्जते हुए, शत्रुसेना के वानर यूथपतियों के मस्तकों को काट डाला. तत्पश्चात उसने
तीक्ष्ण शूल हाथ में लेकर,
वानरों की उस भयकर सेना पर आक्रमण कर दिया. उसे रोकने के लिए हनुमानजी एक
पर्वत-शिखर हाथ में लेकर ,उस आक्रमणकारी राक्षस का सामना
करने के लिए खड़े हो गए.
उन्होंने कुपित होकर भयानक
कुम्भकर्ण पर बड़े वेग से प्रहार कर दिया.उसकी मार से व्याकुल कुम्भकर्ण ने, बिजली के समान चमकते हुए शूल से हनुमानजी की छाती पर दे मारा,जिससे
हनुमान व्याकुल हो उठे और उनके मुँह से रक्त बह निकला. हनुमान को आघात से
पीड़ित देखकर, राक्षस
सेना में हर्षोल्लास करने लगी. विपरीत होती परिस्थिति को देखकर नील ने, एक पर्वत की चोटी को उखाड़कर कुम्भकरण पर उछाल दिया .उस पर्वतशिखर को अपनी
ओर आता देख उस महावीर ने उस पर मुक्के से प्रजार किया,जिससे शिलाखण्ड चूर-चूर होकर
बिखर गया, लेकिन पर्वत-शिखर के प्रहार से वह पृथ्वी पर गिरने से अपने आपको नहीं
बचा पाया.
उसके पृथ्वी पर गिरते ही ऋषभ,
शरभ, नील, गवाक्ष और गन्दमादन-इन पाँच वानर प्रमुखों ने उस पर धावा कर दिया और
लातों, थप्पड़ों और मुक्कों से मारने लगे. महाबली कुम्भकर्ण ने ऋषभ को अपनी दोनों
भुजाओं में जकड़ लिया. वह खून का वमन करते हुए पृथ्वी पर गिर पड़ा. उसने शरभ को
मुक्के से, नील को घुटने से रगड़कर दिया और गवाक्ष को थप्पड़ मार कर घायल कर दिया. और
गन्दमादन को वेग से लात मारकर हवा में उछाल दिया. अपने प्रमुख वानरों को धराशायी
होता देख हजारों की संख्या में वानर एक साथ टूट पड़े और उस पर प्रहार करने लगे,
लेकिन क्रुधित राक्षसाराज ने समस्त वानरों
को दोनों हाथों से पकड़कर भक्षण करने लगा. रणभूमि रक्त और मांस की कीच मच गयी.
अपने साथियों की दुर्दशा देखकर
वानर-सेना में भगदड़ मचा गयी. वे चारों दिशाओं में भागने लगे. उन्हें भागता देख
बालिकुमार अंगद पूरे वेग से कुम्भकर्ण की ओर दौड़े. उन्होंने एक पर्वत शिखर को
उखाड़कर उसके मस्त्क पर दे मारा. मस्तक पर पर्वत-शिखर की चोट खाकर इन्द्रद्रोही
कुम्भकर्ण क्रोध से जल उठा और अंगद की ओर दौड़ा और अपने भयानक शूल से प्रहार किया.
अंगद ने फ़ूर्ती से एक ओर हटकर अपना बचाव कर लिया और वेग से उछलकर कुम्भकरण को
क्रोधपूर्वक थप्पड़ मारकर मूर्च्छित कर दिया. कुछ क्षणॊं तक मूर्च्छित रहने के बाद
उसे होश हो आया और उसने तत्क्षण अंगद को मुक्का मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया और
भयानक शूल लेकर सुग्रीव की ओर दौड़ा.
अपनी ओर कुम्भकरण को आता देख
सुग्रीव ऊपर की ओर उछले और एक पर्वत-शिखर को उठाकर उस पर वेगपूर्वक धावा कर दिया.
उस पर्वत-शिखर से चोट खाकर
कुम्भकर्ण को बड़ा क्रोध आया और उसने बिजली के समान चमकने वाले शूल को घुमाकर
सुग्रीव के वध के लिए चलाया. वीर हनुमानजी की पैनी निगाहों ने उस शक्तिशाली शूल को
महाराज सुग्रीवजी की ओर आता देखा, वे शीघ्रता से अपने स्थान से उछले और शूल को पकड़
लिया और उसे घुटनों में लगाकर उसके दो टुकड़े कर दिये.
अपनी फेंकी हुई शक्ति को व्यर्थ
जाता देख, कुम्भकर्ण ने गुर्राते हुए सुग्रीव से कहा-" सुग्रीव.! तू बड़ा
सौभाग्यशाली है कि हनुमान ने बीच-बचाव करते हुए तुझे बचा लिया लेकिन अब नहीं बच
पाएगा....ले संभाल अपने आपको.? कहते हुए उसने मलय-पर्वत के शिखर को उखाड़कर सुग्रीव
पर उछाल दिया. सतर्क थे सुग्रीव, लेकिन अपने को बचा नहीं पाए और अपनी सुध-बुध खोकर
युद्धभूमि में गिर पड़े. सुग्रीव को पृथ्वी पर गिरता देख राक्षससेना हर्षोल्लास
करने लगी. पलझ झपकते ही कुम्भकरण ने महाराज सुग्रीव को उठा लिया और जैसा कि
प्रचण्ड वायु बादलों कौ उड़ा ले जाती है, उन्हें हर कर लंका की ओर चल दिया. उसका
अपना अनुमान था कि सुग्रीव के मारे जाने के बाद राम सहित सारी वानर सेना स्वतः
नष्ट हो जायेगी.
बुद्धिमान हनुमानजी ने
सोचा-" यह दुष्ट राक्षस मेरे महाराज सुग्रीव का हरण कर लंका लिए जा रहा है. उन्हें
बचाने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?. उन्होंने यह भी देखा कि महाराह सुग्रीव अभी
होश में नहीं है. जैसे ही उन्हें चेत आएगा, वे उस दुष्ट को उसकी करनी का फ़ल अवश्य
चटाएंगे. होश में आते ही उन्होंने कुम्भकरण के दोनों कान नोंच लिए और नाक काट डाली
तथा पैरों के नखों से उसकी दोनो पसलियाँ फ़ाड़ डाली.
नाक-कान तथा पार्श्व भाग के
विदीर्ण हो जाने पर उसका सारा शरीर लहुलुहान हो उठा. कुम्भकर्ण ने उन्हें दोनों
पैर पकड़कर गेंद की भांति हवा में उछाल दिया. वीर सुग्रीव पुनः श्रीरामजी के पास आ
पहुँचे.
युद्धभूमि में अपना घोर पराक्रम
दिखा चुके कुम्भकर्ण को भूख सताने लगी. लंका की ओर न जाकर वह सहसा पलटा और
युद्धभूमि की ओर लौटने लगा. लौटते ही उसने बड़ी उतावली के साथ दोनों हाथों से
वानरों को पकड़कर खाने लगा. उसके मुँह से वानरों की चर्बी और रक्त गिराता हुआ वह उस
सबका भक्षण करता रहा. वह एक बार में सात,आठ दस,बीस तथा सौ-सौ नावरों को अपनी दोनों
भुजाओं में भर लेता और उन्हें खाता हुआ रणभूमि में दौड़ता-फ़िरता था. उसके इस तरह
दौड़ लगाने से अनेक वानर उसके विशाल पाँवों
के नीचे दबकर अपने प्राण त्याग दिये..
वानरों को चबाने के कारण उसके
शरीर में मेद, चर्बी और रक्त जहाँ-तहाँ लिपट गयी थीं. यहाँ तक उसके कानों में
आँतों की मालाएँ उलझ गयी थीं. वह महाप्रलय के सदृश प्राणियों का संहार करता हुआ
अपने तीखे शूल से प्रहार भी करता चल रहा था.
अपनी सेना का विनाश होता देख
सुमित्रानंदन लक्ष्मण सामने आए और उस राक्षस से युद्ध करने लगे. उन्होंने अपने
धनुष से एक साथ सात बाणों का संधान कर उस पर छोड़ दिये. कुम्भकर्ण का शरीर बज्र का
बना था. द्रुतगति से आते तीर उसके शरीर से टकराते और बिना कोई चोट पहुँचाए पृथ्वी
पर गिर पड़ते.लक्ष्मण की ओर देखते हुए उसने
लक्ष्मण से कहा-" लक्ष्मण ! तुमने मुझ पर तीर चलाकर अपनी वीरता का
परिचय दिया है. मुझे प्रसन्नता मिली कि तुमने मुझसे युद्ध करने का मानस बना लिया
है. तुम हो या फ़िर और कोई योद्धा जो मुझसे युद्ध करने का साहस रखता हो, वह निश्चित
ही प्रशंसा का पात्र है. लेकिन लक्ष्मण ! सावधान -मै युद्ध में यमराज को भी बिना
कष्ट उठाये ही जीत लेने की शक्ति रखता हूँ. अपने ऐरावत पर सवार होकर इन्द्र भी
मेरे सामने खड़ा नहीं रह पाया था."
" हे सुमित्रानंदन ! यद्यपि
अभी तुम बालक हो. बालकों से युद्ध करना मुझ जैसे पराक्रमी को शोभा नहीं देता. हाँ, एक बालक होकर भी तुमने मुझसे युद्ध किया. मैं तुम्हारे साहस की प्रशंसा कारता हूँ
.तुमने मुझसे युद्ध करके मुझे संतुष्ट कर दिया है. अतः मैं तुम्हारी अनुमति लेकर
तुम्हारे बड़े भाई राम से युद्ध करने की अभिलाषा
रखता हूँ."
"कुम्भकर्ण की गर्वोक्ति को
सुनकर लक्ष्मण ने कहा-" तुमने ठीक ही सोचा है कि राम से युद्ध करने की मेरी
अभिलाषा है. तुम्हारा यह कथन बिलकुल ठीक है. मैंने स्वयं अपनी आँखों से आज
तुम्हारा पराक्रम देख लिया है." अपने भ्राता श्रीरामजी की ओर अपनी तर्जनी
ऊँगली उठाकर संकेत देते हुए लक्ष्मण ने कहा-"ये रहे दशरथनंदन भगवान श्रीराम
जो पर्वत के समान अविचल भाव में खड़े है."
लक्ष्मण की बातों का आदर न करते
हुए वह वह राम की ओर चला. उसने देखा. राम के साथ उसका अपना छोटा भाई विभीषण भी
हाथों में धनुष-बाण लिए, साथ ही खड़ा हुआ है. अपने अनुज को देखकर उसका क्रोध कुछ कम
हुआ. सहसा भ्रातृ-प्रेम उमड़ पड़ा. आँखों से अश्रु बह निकले. अपने क्रोध को परे
हटाते हुए उसने कहा-" विभीषण ! विभीषण मेरे भाई.!. कई वर्षों बाद मैं तुम्हें
देख पा रहा हूँ. तुम्हें देखते ही मेरे हृदय में भ्रातृ-प्रेम का सागर लहलहाने लगा
है. आ....आ मैं तुम्हें गले लगा लूँ....फ़िर ऐसा सुअवसर मुझे प्राप्त होने वाला
नहीं है".
" मै अपने अग्रज लंकापति
रावण की आज्ञा का पालन करते हुए श्रीराम से युद्ध करने के लिए रणभूमि में आया हूँ.
मैं जानता हूँ कि श्रीराम धर्म की स्थापना के लिए ही अवतरित हुए हैं. और मैं
अधर्मी, धर्मात्मा राम के विरुद्ध युद्ध करने चला आया. यह तो निश्चित ही है कि
मेरी मृत्यु श्रीराम के हाथों होगी अथवा लक्ष्मण के हाथों, नहीं जानता?. लेकिन
अपनी मृत्यु को गले लगाने से पूर्व, मैं तुम्हारा आलिंगन करना चाहता हूँ. क्या तुम
मेरी इस अन्तिम अभिलाषा को पूर्ण करोगे?." कहते हुए उसने अपनी दोनों बाहें
फ़ैला दी थीं.
असमंजस में थे विभीषण. असमंजस इस
बात को लेकर कि यह रणभूमि है. रणभूमि में उतरने का एक ही उद्देश्य होता है, अपने
शत्रु पर घात लगाकर हमला बोलना और उसका वध कर देना. कुम्भकर्ण शत्रुपक्ष की ओर से
युद्ध लड़ रहा है और मैं रामजी के पक्ष में खड़ा होकर युद्धरत हूँ. संभव है वह मुझसे
आत्मीय प्रेम प्रदर्शन के बहाने मुझे बंदी बना ले और फ़िर कोई ऐसी कठिन शर्त जोड़
दे, जिसे रामजी पूरा न कर पाएँ . यदि ऐसी स्थिति की निर्मिति हो गयी तो अनर्थ हो
जाएगा. युद्ध को किसी निर्णायक मोड़ पर छोड़ आने का आश्वासन वह रावण को देकर जरुर
आया होगा. नहीं..नहीं...मैं ऐसा नहीं कर सकता....मुझे करना भी नहीं चाहिए.. मन की
अतल गहराई में उतरकर विभीषण सोच रहे थे कि मुझे इस विषम परिस्थिति में क्या करना
चाहिए
अंतरमन को जानने वाले अंतर्यामी
श्रीराम, मित्र विभीषण की दुविधा को जान रहे थे. समझ रहे थे. वे इस बात को लेकर भी
निश्चिंत थे कि कुम्भकर्ण छल-बल का सहारा लेकर युद्ध नहीं करेगा. यदि दो सहोदर आपस
में मिलकर भातृ-प्रेम बांटना चाहते हैं, तो इसमें कोई बुराई नही . उदारमना रामजी
ने पहल करते हुए विभीषण से कहा- " दुविधा में क्यों हो मित्र....तुम्हारा सहोदर
तुमसे आलिंगन चाहता है, तो उसकी अभिलाषा तुम्हें अवश्य पूरी करनी चाहिए. जैसा कि
तुम सोच रहे हो, ऐसा कुछ भी होने वाला नहीं है. जाओ...आगे बढ़ो मित्र ! कहते हुए
रामजी ने विभीषण से कहा.
" जी प्रभु ! जैसी आपकी
आज्ञा" कहते हुए विभीषण ने उन्हें प्रणाम किया और हर्षातिरेक होते हुए आगे
बढ़े.चुंकि कुम्भकर्ण की ऊँचाई छः सौ धनुष थी.उसकी ऊँचाई के सामने विभीषण उसके पैर
के अँगूठे से कुछ ज्यादा ऊँचे थे. इतने विशालकाय कुम्भकर्ण से वह आलिंगन कैसे ले
सकते थे, इस बात को लेकर वे दुविधा में थे. विभीषण को दुविधाग्रस्त देखकर कुम्भकर्ण
ने थोड़ा नीचे झुकते हुए, अपनी विशाल हथेली को पृथ्वी पर फ़ैला दिया. वे उसकी हथेली
पर जाकर खड़े हो गए. कुम्भकर्ण ने अपनी हथेली को अपने गाल की टुड्डी तक ले आया. अब
वह आसानी से अपने भाई को देख और सुन सकता था.
" विभीषण ! विभीषण मेरे भाई ! तुमसे मिलने की बड़ी इच्छा थी, सो आज पूरी हुई.
जीवन की इस चला-चली की बेला में मैं तुमसे नहीं मिल पाता, तो मुझे अपार पीड़ा होती.
लंकेश ने मुझे अवगत कराते हुए बतलाया कि तुम श्रीराम की शरण में चले गए हो. तुम तो
धर्म की धूरी हो, भली-भांति जानते हो कि भाई से बढ़कर और कोई रिश्ता बड़ा नहीं होता.
फ़िर भी तुमने उसका परित्याग कर दिया.? क्यों? क्यों तुमने साथ छोड़ दिया अपने सहोदर
का?. मुझे तुमसे यह उम्मीद नहीं थी?."
बार-बार पद लागयँ, विनय करउँ दससीस * परिहरि मान मोह मद,भजहु कोसलाधीस
( दो.39.सुंकां)
‘मम पुर
बसि तपसिन्ह पर प्रीती *सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती.
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा *
अनुज गहे पद बारहिं बारा.(चौ.3.दो.40)
" भैया कुम्भकर्ण ! आपका मुझ
पर यह दोषारोपण लगाना सर्वथा अनुचित है. मैंने एक बार नहीं, अनेकों बार उन्हें
समझाया कि माता सीता का अपहरण करके तुमने बहुत जघन्य अपराध किया है. अतः उचित होगा
कि लंका का सर्वनाश हो जाए इससे पूर्व तुम उन्हें स-सम्मान रघुनाथ जी को लौटा दो.
लेकिन लंकेश के सिर पर तो काल मंडरा रहा था. मैंने उनके चरणॊं में बारम्बार प्रणाम
निवेदित करते हुए प्रार्थनाएँ की कि आप अपना मान, मोह और मद को त्यागकर कोशलाधीश
श्रीरामचन्द्रजी की शरण में चलें जाएं, इसी में कल्याण है. लेकिन उन्होने मेरी एक
भी विनती को नहीं सुनी. कहा भी गया है-" दुर्जन:परिहर्तव्यो विद्यालंकृतो सन । मणिना
भूषितो सर्प:किमसौ न भयंकर:।। कि दुष्ट व्यक्ति यदि विद्या से सुशोभित भी हो
अर्थात वह विद्यावान भी हो तो भी उसका परित्याग कर देना चाहिए. जैसे मणि से
सुशोभित सर्प क्या भयंकर नहीं होता?."
" हे भ्राता कुम्भकर्ण !
लंकेश शास्त्रों के ज्ञाता हैं. महा-पंडित हैं. धर्म का ज्ञाता होने के
उपरान्त भी वह विवेक का प्रयोग नहीं कर
रहे है. कहा भी कहा गया है- "
यस्य नास्ति स्वयं
प्रज्ञा,
शास्त्रं तस्य करोति
किंलोचनाभ्याम विहीनस्य, दर्पण:किं करिष्यति "जिस मनुष्य के पास स्वयं का(प्रज्ञा) विवेक नहीं
है, उसके शास्त्र किस काम के?. जैसे नेत्रविहीन व्यक्ति के लिए दर्पण व्यर्थ है."
" हे भ्राता ! मैंने जितना हो सका मैंने उन्हें उचित सलाह ही दी
थी, लेकिन उनका उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. कहा गया है -" स्वभावो
नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा !सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् !!
किसी व्यक्ति को आप चाहे कितनी ही सलाह दे दो, किन्तु उसका मूल स्वभाव नहीं बदलता.
ठीक उसी तरह जैसे ठंडॆ पानी को उबालने पर तो वह गर्म हो जाता है, लेकिन बाद में वह
पुनः ठंडा हो जाता है."
" अपने कर्तव्यों से विमुख
लंकेश यद्यपि बलवान है, देवों के देव महादेव जी से वरदान प्राप्त है, कुबेर से
प्रचुर मात्रा में धन-संपदा छीन लेने के बाद भी उसे संतुष्टि नहीं है. कहा भी गया
है-कि " बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः ! श्रुतवानपि मूर्खो सौ
यो धर्मविमुखो जनः !!"जो व्यक्ति अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है, वह
व्यक्ति बलवान होने पर भी असमर्थ, धनवान होने पर भी निर्धन व
ज्ञानी होने पर भी मुर्ख होता है."
"अहंकार
में भरे हुए लंकेश ने ,न केवल मेरा उपहास उड़ाया, बल्कि मुझे भरी सभा में लज्जित
करते हुए कहा-" मेरे राज्य में रहते हुए तू तपस्वियों से प्रीति रखता है.
दुष्ट ! जा तू उन्हीं से मिल और नीति बता." कहते हुए उन्होंने मुझे लात मार
कर राज्य से निष्कासित कर दिया.
" भैया कुम्भकर्ण ! मैं कहाँ
जाता?. किसकी शरण में जाता? लंकेश के भय के चलते, मुझ जैसे राज्य से निष्कासित
व्यक्ति को, भला कौन अपनी शरण देता?.प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की शरण में जाने के सिवाय और कोई सुलभ मार्ग भी
तो नहीं था मेरे पास. वे अपनी शरण में आये हुये व्यक्ति को, बिना उसके अतीत को
जाने, शरण देते हैं. वे शरणागत-भक्तवत्सल है. दीनबंधु दीनानाथ हैं. उन्होंने बिना
झिझक मुझे अपनी शरण में ले लिया और अभय वरदान भी
दिया." विभीषण ने कहा.
" लंकेश चाहे जैसा भी हो,
अपना भाई है. उसके और हमारी रगो में एक ही खून बहता है. विपत्तिकाल में तुम्हें
उसकी सहायता करनी चाहिए. बजाय सहायक होने के तुम खलनायक बन गये. यह ठीक नहीं
है." कुम्भकर्ण ने कहा.
"भैया कुम्भकर्ण ! तुम्हारी
सोच तर्क-संगत है, लेकिन यथार्थ से बहुत दूर है. मुझे यह बतलाइये कि यदि कोई
व्यक्ति कुसंग के मार्ग में चलने लगे, अत्याचार करने लगे, अधर्मी हो जाए, अहंकार
जिसके सिर पर चढ़कर बोलने लगे, क्या ऐसे व्यक्ति के साथ रहना उचित है?. नहीं
न.!..मैंने उन्हें बहुत समझाया-बुझाया, लेकिन वे सन्मार्ग पर आने की बजाय, अपने को
सही ठहराते रहे...क्या उनके साथ बने रहना उचित है?.", विभीषण ने कुम्भकर्ण से
जानना चाहा.
" अरे पगले ! तूने ठीक ही किया है. मैं भी तेरी जगह होता, तो
यही करता. मैं तो बस ...यूंहि तेरी परीक्षा ले रहा था. तू तो सदा से ही धर्म के
मार्ग पर चलता रहा है. धर्म का पक्ष लेकर तूने ठीक ही किया है.कहा भी गया है-
" विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु
च।रुग्णस्य चौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च " प्रवास की मित्र विद्या, घर की मित्र पत्नी, मरीजों की मित्र औषधि और मृत्योपरांत मित्र धर्म ही होता है. मैंने भी उसे समझाने का भरकस प्रयास किया,
लेकिन वह उसे उचित ही बतलाता रहा. ठीक है, उसने जो कुछ भी किया है, वह अनुचित है.
इसका दण्ड तो उसे अवश्य मिलेगा."
इधर कुम्भकर्ण अपने अनुज विभीषण
से वार्ता में निमग्न था.उधर लक्ष्मण जी के मन में संदेह हो रहा था कि वह क्रूर
राक्षस, कहीं हमारी शरण में आये हुए विभीषण जी की हत्या न कर दे?. उसकी ऊँचाई इतनी
अधिक है कि यहाँ से खड़े रहकर नहीं देखा जा सकता." उन्होंने पवनसुत हनुमान से
कहा- " महावीर ! आप आकाश में स्थित रहते हुए देखें कि हमारे मित्र विभीषण जी
सुरक्षित तो हैं कि नहीं.?" लक्ष्मण की बातों को रामजी ने सुना. उन्होंने
हनुमान को रोकते हुए कहा-" नहीं पवनपुत्र नहीं...इसकी कोई आवश्यकता नहीं है.
हमारे मित्र सुरक्षित हैं. यद्यपि कुम्भकर्ण राक्षस अवश्य है लेकिन वह ऐसा कदापि
नहीं करेगा."
अश्रुपुरित नेत्रों से अपने अनुज
विभीषण को देर तक निहारने के बाद उसने
कहा-" विभीषण ! " मैं जानता हूँ कि लंकेश विधर्मी है...आततायी
है....धूर्त है..... यह सब जानते-बूझते हुए भी मैंने अधर्मी लंकेश का साथ देना
स्वीकार किया. विपत्ति के समय में एक भाई होने के नाते, भाई का साथ देना चाहिए. संसार
मेरे बारे में चाहे जो कुछ भी कहे, लेकिन इतना तो अवश्य ही कहेगी कि कुम्भकर्ण ने
अपने भाई का साथ दिया. इस पर मुझे गर्व तो है ही, साथ ही मेरे लिए परम संतोष का भी
विषय भी है. पर......पर मेरे भाई....संसार तूझे जब भी बुलाएगा, गद्दार कह कर ही
बुलाएगा....घर का भेदी ही कहकर बुलाएगा. मेरी राक्षसी प्रवृत्ति कहीं जाग न
जाए, इससे पहले विभीषण .....तुझे यहाँ से चले जाना चाहिए.....ऐसा कहते हुए उसने
अपनी हथेली को पृथ्वी पर रख दिया.
अपनी हथेली को पृथ्वी पर रखते हुए उसने अपने अनुज विभीषण से
कहा-" विभीषण ! मैं तुम्हें इन विषम
परिस्थितियों के चलते अन्तिम बार देख रहा हूँ. इसके बाद न तुम मुझे देख आओगे और न
ही मैं तुम्हें देख पाऊँगा. यह तो निश्चित है कि मैं इस युद्ध में श्रीराम जी के
हाथों मारा जाऊँगा, लेकिन तुम किसी तरह का कोई शोक मेरे लिए मत मनाना. कहा भी गया
है- " आयुः कर्म च विद्या च वित्तं निधनमेव च ।। पञ्चैतानि विलिख्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः" आयु, कर्म, विद्या, वित्त, और मृत्यु,
ये पाँच चीजें व्यक्ति के गर्भ में ही निश्चित हो जाती है."
रणभेरियाँ तुमुल घोष के साथ बजायी
जा रही थीं. इसके साथ ही ढोल,नगाड़े पीटे जा रहे थे. चारों ओर मार-काट मची हुई थी.
यह सब देखकर कुम्भकर्ण के भीतर का राक्षस जाग चुका था. अत्यन्त क्रोधित होते हुए
उसने लक्ष्मण से कहा-" लक्ष्मण ! युद्धभूमि में खड़ा होकर मैं अब तुम्हारे भाई
राम से युद्ध करना चाहता हूँ. उसे मेरे समक्ष खड़ा करो."
उसे सुनते हुए लक्ष्मण ने कहा-
" जैसा कि तुमने मुझे बताया था कि तुमने अपने पौरुष के बल पर इन्द्र आदि
देवताओं को क्षति पहुँचाई थी, तुम्हारा यह कथन सही हो सकता है. फ़िर मैंने तुमसे
युद्ध करके तुम्हारे पराक्रम को देख लिया है. दशरथनंदन श्रीराम, पर्वत के सदृश्य
अविचल भाव से तुम्हारे सामने खड़े हैं."
लक्ष्मण की बातों को सुना-अनसुना
करते हुए सुमित्रानंदन को लांघते हुए श्रीरामजी पर आक्रमण कर दिया. उस समय वह अपने
पैरों की धमक से पृथ्वी को कंपित किए दे रहा था.
उसे आता देख श्रीराम जी ने उस पर
रौद्रास्त्र का प्रयोग करके कुम्भकर्ण के हृदय में अनेक तीखे बाण मारे. श्रीराम के
बाणॊं से घायल हो कर वह सहसा उन पर टूट पड़ा. क्रोध में आवेष्ठित कुम्भकर्ण के
नेत्रों से इस समय आग की लपटें निकल रही थीं.
श्रीराम जी के अस्त्रों से पीड़ित
हो वह घोर गर्जना करता और रणभूमि में वानरों को खदेड़ता हुआ रामजी की ओर दौड़ा.मोर
पंख लगे हुए बाणॊं से रामजी ने उस पर संधान किया,जो उसकी छाती में जा धंसे. बाण के
आघात से व्याकुल होकर उसका गदा छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ी.
गदा के गिर जाने के बाद उसने
अनेकानेक प्रकार के अस्त्र रामजी पर चलाए,लेकिन वे सब भूमि पर बिखर गये. जब उसने
यह समझ लिया कि अब मेरे पास कोई हथियार नहीं बचा है, तो उस महाबली ने मुक्कों और
हाथों से प्रहार करने की ठानी.
बाणों से उसके सारे अंग अत्यन्त
ही घायल हो चुके थे. वह खून से नहा उठा था. क्रोध से व्याकुल होकर वह अब वानरों,
भालुओं तथा राक्षसों को खाता हुआ चारों ओर दौड़ लगाने लगा. दौड़ते हुए उस निशाचर ने
एक पर्वत का शिखर उखाड़ लिया और लक्ष्य लेकर रामजी पर चला दिया. परंतु रामजी ने
पुनः धनुष का संधान करते हुए सात बाण मारकर उस पर्वत-शिखर को बीच मे ही टूक-टूक कर
डाला.
महातेजस्वी कुम्भकर्ण समस्त
दिशाओं को कंपित करता हुआ, विकृत स्वर में जोर-जोर से हँसते हुए, मेघ-सी गर्जना
करता हुआ रघुनाथाजी के सामने पुनः उपस्थित होकर बोला-" राम ! क्या तुमने मुझे विराध, कबन्ध और खर समझ
रखा है, जिनका तुमने खेल-ही-खेल में वध कर दिया था, मैं उनमें से नहीं हूँ. मैं
महाबली कुम्भकर्ण तुमसे युद्ध लड़ने आया हूँ."
" हे राम ! ( अपनी विशाल
भुजाएँ और मुद्गर बतलाते हुए ) राम ! देख रहे हो मेरी विशाल भुजाओं को ? मेरे
मुद्गर को भी देखो....इसी मुद्गर से मैंने पूर्वकाल में समस्त देवताओं और दावनों
को परास्त किया है."
" तुमसे युद्ध करते हुए मेरी
नाक-कान और होंठ जरुर कट गये हैं, ऐसा समझकर तुम्हें मेरी अवहेलना नहीं करना
चाहिए. इन अंगो के नष्ट हो जाने के पश्चात भी मुझे कोई पीड़ा नहीं हो रही है. फ़िर
भी यदि तुम चाहों तो मुझ पर और अन्य अस्त्रों-शस्त्रों से प्रहार करो, लेकिन याद
रहे, उनका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. चाहो तो अस्त्र चला कर देखो." रामजी
को ललकारते हुए उस दुष्ट ने कहा.
कुम्भकर्ण की इन बातों को सुनकर रामजी
ने सुन्दर पंखवाले बाण मारे,लेकिन वे उसके फ़ौलादी शरीर से टकराते, गहरी चोट
पहुँचाते और नीचे गिर पड़ते. चोट लगने के
बाद भी वह न तो क्षुब्ध हुआ और न ही व्यथित हुआ. उलटे दांत पीसकर अपनी वेगशाली
मुद्गर को घुमा-घुमा कर वानरों को खदेड़ने लगा.
तदनन्तर श्रीरामजी ने एक दिव्य
बाण "वायव्य" को अपनी धनुष की
प्रत्यंचा पर चढ़ाया और लक्ष्य साधकर कुम्भकर्ण की ओर चला दिया. उस बाण से उस
निशाचर की मुद्गरसहित दाहिनी बाँह काट डाली. बाँह कट जाने पर वह राक्षस भयानक आवाज
में चीत्कार करने लगा. किसी पर्वत शिखर के समान उसकी बाँह, मुद्गर के साथ
वानर-सैनिकों के ऊपर जा गिरी., जिससे अनेकों वानर-सैनिकों को अपने प्राणॊं से हाथ
धो बैठे.
बाँह कट जाने के उपरान्त वह किसी
शिखरहीन पर्वत के समान प्रतीत हो रहा था. उसने अपनी दूसरी बाँह से एक वृक्ष उखाड़ा
और लक्ष्य लेकर श्रीरामजी पर उछाल दिया. सतर्क थे राम. उन्होंने बिना समय गवाएं एक
सुवर्णभूषित बाण " ऐन्द्रास्त्र" निकालकर अभिमंत्रित किया और लक्ष्य
लेकर छोड़ दिया. तीर सनसनाता हुआ अपने लक्ष्य की ओर तीव्रगति से बढ़ रहा था. उस
दिव्य बाण के लगते ही उस राक्षस की दूसरी बाँह को भी वृक्ष सहित काट डाला.
कुम्भकर्ण की वह कटी हुई बाँह
पर्वतशिखर के समान पृथ्वी पर गिरी और छटपटाने लगी. उस विशाल बाँह के नीचे अनेक
वानर-राक्षस कुचल गये.
दोनों भुजाओं के कट जाने के पर वह
आर्तनाद करता हुआ श्रीरामजी पर टूट पड़ा. उसे आक्रमण करता देख श्रीराम ने दो तीखे
अर्धचन्द्राकार बाण लेकर धनुष पर चढ़ाया और
लक्ष्य लेकर छोड़ दिया. उन दो तीरों ने उसके दोनों पैर भी उड़ा दिये.
दोनों बाँह और पैरों के कट जाने
पर वह वड़वानल के समान अपने विकराल मुख को फ़ैलाकर श्रीरामजी को ग्रसने के लिए दौड़ा.
वह उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों राहु विकराल मुख को फ़ैलाकर चन्द्रमा को ग्रस
लेता है.
श्रीरामजी ने सुवर्णजड़ित पंख वाले
अपने तीखे बाणॊं से उसका मुँह भर दिया. मुँह भर जाने पर वह बोल पाने में असमर्थ हो
चुका था. भीषण आर्तनाद करता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा.
पूर्वकाल में जिस प्रकार
वृत्रासुर का मस्तक काट डाला था, ठीक उसी प्रकार श्रीरामजी ने तीखे बाण चलाकर उसके
मस्तक को धड़ से अलग कर दिया. रामजी ने उस बाण को इतनी तीव्रता के साथ छोड़ा था कि
उसने न केवल उस दानव का मस्तक काटा अपितु उसके मस्तक को लंका में जाकर गिरा दिया.
मस्तक के लंका में गिरने के साथ ही अनेक महल, ऊँचे-ऊँचे परकोटे धराशायी हो गये.
सो सिर परेउ दसानन आगें * बिकल
भयउ जिमिं फ़नि मनि त्यागे.
धरनि धसइ धर घाव प्रचंडा* तब
प्रभि काटि कीन्ह दुइ खंडा.( मानस,70/3.लं.कां)
कटा हुआ कुम्भकर्ण का सिर रावण के
आगे गिरा. उसे देखते ही वह व्याकुल हो उठा, जैसे मणि खोने पर सर्प व्याकुल होता
है. उसका प्रचंड धड़ दौड़ने लगा, जिससे पृथ्वी धसकी जाती थी. मार-काट मचाता वह धड़
रणक्षेत्र में दौड़ता रहा. तब प्रभु श्रीराम जी ने एक बाण का संधान किया,जिससे वह
धड़ दो खंडॊं में बंट गया. महाबली कुम्भकर्ण के गिरने मात्र से पृथ्वी डोलने लगी.
पर्वत हिलने लगे.
उस दानव के मारे जाने का समाचार
प्राप्त होते ही आकाश में खड़े देवर्षि, महर्षि,देवता, तथा गन्धर्वों के सहित
लक्ष्मण.महाराज सुग्रीव, महाबली हनुमान जी सहित वानर-यूथपति सहित ऋषराज जाम्बन्त
और आदि श्रीरामजी का पराक्रम देखकर बहुत प्रसन्न हुए.
०००००
रावण जब शोक में पीड़ित हो विलाप
करने लगा, तब त्रिशिरा सामने आया और उसने कहा-" हे राजन ! इसमें तनिक भी
संदेह नहीं है कि हमारे मंझले चाचा युद्ध में मारे गये हैं, परन्तु आप रोते-कलपते
हैं. श्रेष्ठ पुरुष कभी किसी के लिए इस तरह विलाप नहीं करते."
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त्रिशिरा-
त्रिशिरा अथवा त्रिशिख
लंकापति रावण के एक पुत्र का नाम
है. सूत्रद्रष्टा त्रिशिरा के तीन सिर थे. वह एक मुँह से
सुरापान, दूसरे से सोमपान और तीसरे से अन्न ग्रहण करता था. वह
त्वष्ट्र का पुत्र होने के कारण त्वांष्ट्र भी कहलाया. उसकी माँ असुरों की बहन थी,
अत: त्रिशिरा देवपुरोहित होते हुए भी असुरों से अधिक प्रेम करता था.
एक बार इन्द्र ने सोचा कि त्रिशिरा
को असुर-पुरोहित बनाना असुरों की चाल है, अत: उन्होंने उसके
तीनों सिरों को काट डाला. सोमपान करने वाला मुख गिरते ही 'कपिंजल'
पक्षी बन गया. सुरापान वाला मुंह 'कलविड्क'
( चिड़िया ) बन गया और अन्न ग्रहण
करने वाला 'तित्तिर' पक्षी बन गया. इन्द्र पर ब्रह्महत्या
का दोष लग गया. इन्द्र ने अपना पाप तीन भागों में विभक्त कर पृथ्वी,
वृक्ष तथा स्त्रियों में स्थापित कर दिया, अत: पृथ्वी में सड़ने का,
वृक्षों में गिरने का और स्त्रियों में रजस्वला का दोष उत्पन्न हो गया.
इन्द्र के पातक को दूर करने के लिए सिंधु द्वीप के बांबरीष ऋषि ने जल अभिसिंचित
किया. अभिषिक्त जल इन्द्र की मूर्धा पर डालकर इन्द्र की मलिनता को शुद्ध किया गया.
महाभारत के
अनुसार-
त्वष्टा नामक
प्रसिद्ध देवता की इन्द्र के प्रति द्रोह बुद्धि हो गयी. अत: त्वष्टा ने एक तीन
सिरवाले (त्रिशिरा) विश्वरूप नामक बालक को जन्म दिया. वह तेजस्वी था, इन्द्र का स्थान
प्राप्त करने की प्रार्थना करता था. आरंभ में वह यज्ञ का होता बनकर देवताओं को
प्रत्यक्ष तथा असुरों का भांजा था. अत: हिरण्यकशिपु को आगे करके समस्त असुर उसकी माँ के पास पहुंचे और
उसे अपने पुत्र को समझाने के लिए कहने लगे क्योंकि देवताओं की वृद्धि और असुरों का क्षय होता जा रहा था. माँ की
आज्ञा अलंघनीय मानकर विश्वरूप ने राजा हिरण्यकशिपु के पुरोहित का स्थान ग्रहण
किया. राजा के पूर्व पुरोहित, वसिष्ठ ने क्रोधवश शाप दिया कि वह (राजा) यज्ञपूर्ति से
पूर्व ही किसी अभूतपूर्व प्राणी के हाथों मारा जायेगा. ऐसा ही होने पर विश्वरूप
देवताओं का चिर विरोधी बन गया. वह एक मुख से वेदों का स्वाध्याय, दूसरे से सुरापान करता था तथा तीसरे से समस्त
दिशाओं को ऐसे देखता था जैसे उन्हें पी जायेगा. साथ ही अन्न भक्षण भी करता था.
इन्द्र ने भयभीत होकर अप्सराओं को उसकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा. त्रिशिरा में
इससे कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ, तो इन्द्र ने अपने वज्र से उसकी हत्या कर दी, फिर भी उसे संतोष
नहीं हुआ. एक बढ़ई से इन्द्र ने उसके तीनों सिरों को खंडित करवाया. तीनों सिर कटने
पर जिस मुंह से वह वेदपाठ करता था, उससे 'कपिंजल' पक्षी; जिससे सुरापान करता था, उससे 'गौरैये' तथा जिससे दिशाओं को देखता था, उससे 'तीतर' पक्षी प्रकट हुए.
इन्द्र ने इस ब्रह्महत्या को एक वर्ष तक छिपाकर रखा, फिर समुद्र, पृथ्वी, वृक्ष तथा स्त्री समुदाय में ब्रह्महत्या के पाप
को बांटकर स्वयं शुद्ध हो गया.
भागवत के अनुसार
इन्द्र को अपनी
शक्ति का मद हो गया था. एक बार उनकी सभा में बृहस्पति पहुंचे तो उन्हें उचित
सम्मान नहीं मिला. बृहस्पति देवताओं का साथ
छोड़कर अंतर्धान हो गयें फलस्वरूप शुक्राचार्य से आदिष्ट असुर
बलवान होकर युद्ध विजयी होने लगे. देवता ब्रह्मा की सलाह से त्वष्टा
के पुत्र विश्वरूप की शरण में गये. उनकी नीति का पालन करके देवताओं ने पुन: विजय
प्राप्त की. विश्वरूप के तीन सिर थे. उनके पिता देवता तथा माँ असुरों से संबद्ध
थीं अत: वे लुक-छिपकर असुरों को भी आहुति दिया करते थे. इन्द्र को पता चला तो उसने
उनके तीनों सिर काट डाले. विश्वरूप का सोमरस पान करने वाला मुंह 'पपीहा',
सुरापान करने वाला 'गौरैया' तथा अन्न खानेवाला 'तीतर'
हो गया. इन्द्र को ब्रह्महत्या का दोष लगा,
जिसे स्त्री, पृथ्वी, जल और वृक्षों ने परस्पर बांटकर इन्द्र
को दोष-मुक्त कर दिया.
विश्वकर्मा देवताओं का प्रिय
शिल्पी था. उसने इन्द्र के प्रति विद्वेष के
कारण परम् रूपवान त्रिशिरा (विश्वरूप) नामक पुत्र को उत्पन्न किया. उसके तीन मुख
थे. एक से वह वेद पढ़ता था, दूसरे से सुरापान करता था तथा तीसरे से
समस्त दिशाएं देखता था. वह घोर तपस्या करने लगा. ग्रीष्म में वह पेड़ से उलटा
लटककर तथा शीत में पानी में निवास करते हुए तपस्या करता था. इन्द्र को भय हुआ कि
कहीं वह इन्द्रासन न प्राप्त कर ले, अत: उसने उर्वशी आदि अप्सराओं को
उसकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा. वे असफल होकर लौट आयीं. इन्द्र ने क्रुद्ध होकर
अपने वज्र से त्रिशिरा का सिर काट डाला. मुनि भूमि पर गिरकर भी तेजस्वी जीवित-सा
जान पड़ रहा था, अत: इन्द्र ने तक्ष
(बढ़ई) को यज्ञ में, सदा पशु का सिर देने
का, लालच देकर उसके
कुठार से त्रिशिरा के तीनों मस्तकों का छेदन करवाया. तत्काल तीनों मुखों से-
(1) कलविंक (सुरापान करने वाले मुख से),
(2) तीतर (समस्त दिशादर्शी मुख से) तथा
(3) कपिंजल (वेदाभ्यासी मुख से) आविर्भूत
हुए.
इन्द्र प्रसन्न होकर चला गया. विश्वकर्मा ने दुर्घटना के विषय में जाना तो
पुत्रोत्पत्ति के निमित्त यज्ञ करने लगा। यज्ञ से तपस्वी पुत्र पाकर विश्वकर्मा ने
उसे अपना समस्त बल और तेज़ प्रदान किया. पर्वतवत विशाल उस पुत्र का नाम वृत्र रखा
क्योंकि वह दु:ख से रक्षा करने के लिए निमित्त उत्पन्न किया गया था.
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" हे राजन ! निश्चित ही आप
अकेले तीनों लोकों से भी लोहा लेने का सामर्थ्य रखते हैं, फ़िर इस तरह सामान्य
मनुष्य की तरह क्यों विलाप कर रहे हैं.? त्रैलोक विजयी
लंकेश को इस तरह विलाप नहीं करना
चाहिए. फ़िर आपके पास तो ब्रह्माजी के द्वारा दी गयी शक्ति, कवच, धनुष तथा बाण हैं,
इसके साथ ही आपके पास मेघ-सी गर्जना करने वाला रथ भी है,जिसमें एक हजार गदहे जुते
हुए हैं."
" आपने एक ही शस्त्र से
देवताओ और दानवों को अनेक बार पछाड़ा है. अतः सब प्रकार के अस्त्रा-शस्त्रों से
सुज्जजित होने पर आप राम को दण्ड दे सकते हैं."
" हे पिताश्री ! मेरे रहते हुए आपको रणभूमि में जाने की कतई आवश्यकता
नहीं है. मैं स्वयं युद्धभूमि में जाऊँगा और शत्रुओं को उखाड़ फ़ेकूँगा, जिस तरह
गरूड़ सपों का संहार करता है."
"हे पिताश्री ! जैसे इन्द्र
ने शम्बरासुर को और विष्णु ने नरकासुर को मार गिराया था, उसी तरह मैं भी उस बनवासी
राम को मार गिराऊँगा. आप निश्चिंत रहें." त्रिशिरा ने अपने पिता को आश्वासन
देते हुए कहा.
इसे सुनकर उसे ऐसा प्रतीत होने
लगा कि जैसे वह स्वयं रणक्षेत्र में जा रहा हो. उसने आश्ववस्त होते हुए अपने पुत्र
को गले से लगाया और आशीर्वाद देते हुए कहा-" पुत्र त्रिशिरा ! मुझे तुम पर
गर्व है. तुमने मुझे भारी चिंता से बाहर निकाला. जाओ......विजयश्री प्राप्त करके
लौटो, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा इसी द्वार पर उपस्थित रहते हुए करुँगा."
अपने पिता से आशीर्वाद लेकर युद्ध
को उन्मत्त त्रिशिरा, अतिकाय, देवान्तक, नरान्तक, महोदर और महापार्श्व को लेकर
रत्नजड़ित रथ पर आरूढ़ होकर,ध्वजा-पताका लहराते हुए युद्धभूमि की ओर प्रस्थित हुआ.
रावण ने अपनी ओर से अपने दोनों भाइयों महापार्श्व और मत्त (महोदर.) को साथ जाने की
आज्ञा दी. वे दोनों अपने हाथों में गदा तथा अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर
चले.
महान पराक्रमी पाँचों युद्धवीरों
ने वानरों को चारों ओर से घेर लिया और उन पर पर अस्त्र-शस्त्रों से घायल करने लगे.
वानरों और यूथपतियों ने पर्वत शिखरों को और वृक्षों को उखाड़ कर उन पर घातक हमला
करते हुए असंख्य राक्षसों को मार गिराया. इससे वहाँ की भूमि लाशों से पट गयी.
घोर गर्जना करता हुआ नरान्तक अपने
अस्त्र-शस्त्रों से वानरों का संहार करता जा रहा था. यह सब देखकर महाराज सुग्रीव
ने अंगद से कहा- " पुत्र अंगद ! यह जो घोड़े की पीठ पर बैठा नरान्तक हमारी
वानर-सेना में घोर हलाचल मचा रहा है, इसके प्राणों का अन्त कर दो." आज्ञा
पाते ही अंगद ने अत्यन्त ही क्रोधित होते हुए उसके घोड़े के मस्तक पर जोर से थप्पड़
मारा,जिससे उसका सिर फट गया, पैर नीचे को धँस गये, आँखे फूट गयीं और जीभ बाहर निकल
आयी. पर्वताकार नरान्तक पृथ्वी पर गिर पड़ा.
फ़िर अंगद ने उसकी छाती पर प्रहार किया. मुक्कों के आधातों से नरान्तक का
हृदय विदीर्ण हो गया और उसका प्राणांत हो गया.
नरान्तक को मारा गया देखकर
देवान्तक, त्रिशिरा और और महोदर सामने आये.
महोदर ने मेघ के समान गजराज पर
बैठकर महापराक्रमी अंगद के ऊपर बड़े वेग से धावा किया. अंगद ने एक विशाल वृक्ष को
उखाड़कर दे मारा. फ़िर देवान्तक बीच-बचाव को आया. उसने अपने परिध से अंगद पर आक्रमण
किया. बाली कुमार ने पुनः एक वृक्ष को उखाड़कर देवान्तक पर प्रहार किया. परंतु
त्रिशिरा ने भयंकर बाण मारकर उस वृक्ष के टुकड़े-टुकड़े कर दिये. वृक्ष को खण्डित
होता देख अंगद तत्काल आकाश में उछले और त्रिशिरा पर वृक्षों और शिलाओं की वर्षा करने लगे. लेकिन त्रिशिरा ने उन्हें
काट गिराया. महोदर सामने आया और उसने परिध चलाकर अंगद पर धावा किया और तुरंत वहाँ
से हट गया. फ़िर तीनों निशाचरों ने एक साथ मिलकर अंगद पर धावा बोल दिया.. अंगद ने
विलंब न करते हुए कहोदर के गजराज पर आक्रमण करते हुए उसके मस्तक पर जोरदार थप्पड़
मारा. गजराज की दोनों आँखे निकल आयीं और वह तत्काल मर गया. अंगद ने उसी हाथी का एक
दांत तोड़कर देवान्तक को चोट पहुँचायी.
अंगद को तीन-तीन निशाचरों द्वारा
घिरा देखकर हनुमान और नील उसनी सहायता के लिए आगे आए, नील ने उस पर एक पर्वत शिखर
तोड़कर फ़ेंका,जिसे तीखे बाण मारकर त्रिशिरा ने टुकड़े-तुकड़े कर दिए. अपने भाई का
पराक्रम देखकर देवान्तक को बड़ा हर्ष हुआ और उसने परिध लेकर हनुमान पर धावा किया.
बलवान हनुमानजी ने उसके मस्तक पर प्रहार किया, जिससे देवान्तक का मस्तक फट गया और
वह प्राण-शून्य होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा.
देवान्तक के मारे जाने से
त्रिशिराको बड़ा क्रोध आया और उसने नील की छाती पर बाणों की वर्षा कर घायल कर दिया.
नील ने एक विशाल वृक्ष से त्रिशिरा के मस्तक पर वार किया, जिससे वह मूर्च्छित होकर
पृथ्वी पर गिरा. गिरते ही उसका प्राणांत हो गया.
पिता के भाई को मारा गया देखकर
त्रिशिरा ने हनुमान जी को बाणॊं से बींधना आरम्भ किया. वीर हनुमान ने पर्वत शिखर
चलाकर उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले. फ़िर उछलकर वे त्रिशिरा के पास पहुँचे और उसके
घोड़ों को मार गिराया. त्रिशिरा ने एक शक्ति हाथ में लेकर हनुमान पर चलायी. शक्ति
उन तक पहुँचती, उन्होने उसे बीच में ही पकड़ लिया और उसे तोड़ डला. फ़िर उसने तलवार
से हमला किया. क्रोधित हनुमानजी से उसकी छाती में एक तमाचा मारा,जिसके कारण वह
चेतना-शून्य होकर गिर पड़ा. चेत आते ही उसने हनुमान को एक मुक्का मारा. हनुमान जी
ने उसका मस्तक पकड़ लिया और तीखी तलवार से उसके तीनों मस्तकों को काट डाला.
त्रिशिरा, महोदर, देवान्तक और
नरान्तक को काल के गाल में समाया जान महापार्श्व को बहुत क्रोध आया और वह गदा लेकर
दौड़ा. बलवान ऋषभ उछलकर महापार्श्व के सामने जाकर खड़े होगये. कोधित महापार्श्व ने
गदा चलाकर उनका हृदय क्षत-विक्षत कर दिया और वे बेहोश हो गये. होश में आते ही
उन्होंने महापार्श्व की छाती पर गदा से प्रहार करके उसकी जीवन-लीला समाप्त कर दी.
महापार्श्व का वध हो जाने के बाद
राक्षसों की वह समुद्र के समान विशाल सेना, हथियार फ़ेंक कर केवल अपनी जान बचाने के
लिए भागने लगी. विशाल सेना को भागता हुआ देख कर ऐसा प्रतीत होने लगा था मानो
महासागर फूटकर बह निकला हो.
ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त
अतिकाय, पर्वत के समान विशाल था.
देव-दानवों के दर्प को दलन करने वाले अतिकाय शत्रु-पक्ष के सारे शूरवीर सेनानियों
के मारे जाने पर अतिकाय को बहुत दुःख हुआ. शत्रुओं से इसका बदला लेने के इच्छा से
वह अपने रथ पर आरुढ़ होकर चला.
उसे आता देखकर श्रीरामजी ने विभीषण
से जानना चाहा- " हे विभीषण ! हजारों घोड़ों से जुड़े हुए विशाल रथ पर बैठा
हुआ यह पर्वताकार निशाचर कौन है?. उसके हाथ में धनुष है और उसकी आँखें सिंह के समान तेजस्वी दिखाई देती है. यह भूतों
से घिरे भूतनाथ महादेव के समान, तीखे शूल तथा अन्य तेजधार वाले प्रासों और तोमरों
से घिरकर अद्भुत शोभा पा रहा है. इसकी पताका पर राहू का चिन्ह अंकित है. इसके रथ
में अनेकानेक अस्त्र-शस्त्र दिखाई दे रहे
हैं. हे महाबाहो ! तुम मुझे इस श्रेष्ठ राक्षस का परिचय दो?." रामजी ने
जानना चाहा.
’हे भगवन ! राक्षसों के स्वामी
दशमुख रावण के इस पराक्रमी पुत्र का नाम अतिकाय है. बल और पराक्रम में यह अपने
पिता के समान ही है. यह वेद-शास्त्रों का ज्ञाता
तथा संपूर्ण अस्त्रवेत्ताओं में
श्रेष्ठ है. हाथी,घोड़ों पर सवारी करने, तलवार चलाने, धनुष पर बाणॊं का संधान करने,
प्रत्यंचा खींचने,लक्ष्य बेधन करने, साम तथा दंड की नीतियों का प्रयोग करने तथा
न्याययुक्त बर्ताव करने एवं मंत्रणा देने में वह सबके द्वारा सम्मानित है."
" हे महाबाहु ! इसी अतिकाय
का आश्रय लेकर लंकापुरी सदैव निर्भय रहती आयी है. वहीं यह वीर निशाचर रावण की
दूसरी पत्नी धन्यमालिनी का पुत्र है. इसे लोग अतिकाय के नाम से जानते हैं. इसने
दीर्घकाल तक ब्रह्माजी की आराधना की थी और उनसे अनेकानेक दिव्यास्त्र प्राप्त किये
हैं. इसने बहुत-से शत्रुओं को पराजित किया है. इसने भगवान शिव जी से धानुर्विद्या
एवं अन्य शस्त्रों के सारे राज जान लिये थे. इतना ही नहीं ,इसने अन्य देवताओं से
भे अतिकाय को अस्त्र प्राप्त हुए
हैं."
" हे शत्रुदमन ! ब्रह्मा जी
ने इसे देवताओं और असुरों से न मारे जाने का वरदान दिया है. इतना ही नहीं उसे
दिव्य कवच और सूर्य के समान तेजस्वी रथ भी दिया है. यह उसी दिव्य रथ पर आरुढ़ होकर
हमसे युद्ध करने समरांगण में आ रहा है."
" हे राम ! इसने देवताओं और
दानवों को सैकड़ों बार युद्ध में पराजित किया है और राक्षसों की रक्षा की है और
यक्षों को मार भगाया है. इस बुद्धिमान राक्षस ने अपने तीखे बाणों के द्वारा इन्द्र
के वज्र को भी कुण्ठित कर दिया था तथा जल के स्वामी वरुण के पाश को भी सफ़ल नहीं
होने दिया था. यह राक्षसों में श्रेष्ठ, यह बुद्धिमान रावणकुमार अतिकाय बड़ा ही
बलवान और देवताओं के और दानवों के दर्प को दलन करने वाला है."
" हे पुरुषोत्तम ! आप अपने
सायकों से यह सारी वानर-सेना का संहार कर डाले, इससे पहले आप इस राक्षस को पराजित
करने का शीघ्र प्रयत्न कीजिए."
विभीषण और श्रीराम जी के बीच
वार्ता अभी पूरी भी नहीं हो पायी थी कि अतिकाय बारम्बार घोर गर्जना करते और धनुष
की टंकार देता हुआ कुमुद,द्विविद,मैन्द,नील और शरभ आदि जो महामनस्वी वानर थे, पर
घातक अस्त्र-शस्त्र लेकर टूट पड़ा. उसने अपने बाणॊं से समस्त वानर सेना को लोहे के
बाणॊं से बींध डाला. अत्यन्त जोश में भरे हुए अतिकाय वानरवीरों को भयभीत करता हुआ
त्रास देने लगा.
वानरों के झुण्ड में विचरते हुए
उसने किसी भी योद्धा को नहीं मारा, जो उसके साथ युद्ध नहीं कर रहा हो. वह धनुष की
टंकार निकालता बड़े गर्व के साथ श्रीराम जी के समक्ष आकर बड़े गर्व के साथ
बोला-" मैं धनुष-बाण लेकर रथ में बैठा हूँ. मैं इन वानरों को कीड़े-मकोड़ों से
ज्यादा कुछ नहीं समझता. और न ही मेरा इनसे युद्ध करने का विचार है. जिसके अंदर
शक्ति हो, साहस हो, उत्साह हो, वह शीघ्र मेरे सामने आए और मुझसे युद्ध करे."
अतिकाय जो बोल रहा था, वह सहन
करने लायक बिलकुल भी नहीं था. अतिकाय की गर्वोक्ति को सुनकर वीर लक्ष्मण का धैर्य
डोल गया. उन्होंने अपना धनुष-बाण उठाया और . तरकस से बाण खींचकर अतिकाय के सामने
आकर, अपने विशाल धनुष को खींचने लगे. उनकी धनुष की प्रत्यंचा का वह शब्द बड़ा भयंकर
था. वह सारी पृथ्वी,आकाश, समुद्र तथा संपूर्ण दिशाओं में गूँज उठा. इसे देखकर
अतिकाय को बड़ा विस्मय हुआ. रोष में भरकर उसने लक्ष्मण से कहा- वीर योद्धा ! अभी
तुम बालक हो और बालक को इतना जोश दिखाना उचित नहीं है.तुम मुझसे मुकाबला करने के
लायक नहीं हो. अतः अच्छा होगा कि तुम लौट जाओ. मुझसे जूझने का विचार त्याग
दो."
" हे बालक ! मेरे हाथ से
छूटे बाणॊं का वेग गिरिराज हिमालय भी सह नहीं सकता. पृथ्वी और आकाश भी उसे सहन
नहीं कर सकते.. तुम सुख से सोयी हुई प्रल्याग्नि को क्यों जगाना चाहते हो? अतः
उचित होगा कि धनुष को वहीं फ़ेंक कर लौट जाओ. क्यों तुम अपने प्राणों का परित्याग
करना चाहते हो.?"
" हे अबोध बालक ! शत्रुओं का
दर्प दलन करने वाले मेरे तीखे बाणोंको,जो तपे हुए सुवर्ण से सुभूषित है. ये शंकर
जी के त्रिशूल की समानता रखते हैं अब मेरा यह बाण तुम्हारे रक्त का पान
करेगा." ऐसा कहते हुए उसने भयंकर बाण का संधान कर दिया.
अतिकाय की गर्वोक्ति को सुनकर
लक्ष्मण को बड़ा क्रोध हुआ. उन्होंने उसको उसी की भाषा में प्रत्युत्तर देते हुए
कहा-" निराधम,नीच अतिकाय ! बड़ी-बड़ी बातें बनाने से कोई बड़ा नहीं हो जाता.
सिर्फ़ डींग हाँकने से कोई श्रेष्ठ पुरुष नहीं हो जाता. अगर तू इतना ही पराक्रमी और
बलशाली है तो मुझे अपना सारा कौशल दिखा. अपनी वीरता का परिचय दे. शूर तो वही है
जिसमें पुरुषार्थ हो.इसके बाद तुम मेरा पराक्रम देखना. मुझे नहीं लगता कि तू इसे
देख पाएगा. मेरे बाण तेरे मस्तक इस तरह काट के फ़ेंक देंगे,जैसे ताड़ का फ़ल कट कर
गिर जाता है."
" मुझे बालक कहकर तू मेरी
अवहेलना न कर....अरे...वामनरुपी भगवान भी तो बालक थे, लेकिन उन्होंने तीन पग में
ही समूची त्रिलोकी नाप ली थी. बातों का पतंगड़ न बनाते हुए मुझ पर पहले तू अपनी ओर
से बाण चला. उसके बाद, उसका कितना घातक परिणाम होगा, तू देख लेना."
क्रुद्ध अतिकाय ने विषधर सर्प के
समान भयंकर बाण चलाया, जो सीधे आकर लक्ष्मण के मर्मस्थान में लगी,जिससे वे अचेत हो
गये. दो-चार घड़ी पश्चात जब उन्हें चेत आया, तब शत्रुदमन लख्मण ने अपने तरकश से एक
बाण खींचा. उससे धनुष पर चढ़ाकर संधान कर दिया. उस एक अकेले बाण ने अतिकाय के रथ की ध्वजा को नष्ट कर दिया और
सारथी सहित घोड़ों को यमलोक पहुँचा दिया.
तत्पश्चात उन्होंने अनेक बाण
लक्ष्य लेकर संधान किये लेकिन वे उसके शरीर को बेध नही सके. लक्ष्मण हैरान-परेशान
हो रहे थे कि बाणॊं का इस शत्रु पर कोई प्रभाव क्यो नहीं पड़ रहा है?.तभी वायुदेवता
उनके पास आये और बतलाया कि इसे ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त है. अतः इसका शरीर कवच
से ढँका हुआ है. आप ब्रह्मास्त्र से उसे विदीर्ण कर डालें, अन्यथा यह मारा नहीं जा
सकेगा. कवचधारी अतिकाय अन्य अस्त्रों से अवध्य है."
वायुदेवता के वचनों को सुनकार
सुमित्रानंदन लक्ष्मण ने ब्रह्मास्त्र से अभिमंत्रित बाण का संधान किया और अतिकाय
का लक्ष्य लेकर चला दिया. यह देखकर अतिकाय ने बहुत से बाण लक्ष्मण पर चलाये. परंतु
अग्नि के समान उस अद्भुत अस्त्रों को व्यर्थ करते हुए अतिकाय का मस्तक धड़ से अलग
कर दिया. बाण से कटा हुआ उसका मस्तक पृथ्वी पर गिर पड़ा. उसके वस्त्र और आभूषण बिखर
गये. उसे देखकर शत्रुपक्ष में हाहाकार मच गया और सैनिक अपनी जान बचाकर लंका की ओर
भागने लगे.
०००००
" महाराज...महाराज अतिकाय
रणभूमि में मारे गये....हमारी शूरवीर पराक्रमी अतिकाय लक्ष्मण के हाथों मारे
गये...." चिखते-चिल्लाते हुए सेनापति ने यह अशुभ समाचार रावण को कह सुनाया,
जिसे सुनते ही वह उद्विग्न हो उठा. गुस्से में उसके होंठ फ़ड़फ़ड़ाने लगे. नेत्रों से
प्रतिशोध की ज्वाला भड़कने लगी. मुठ्ठियाँ कसने लगीं और वह तमतमाकर अपने सिंहासन से
उठ खड़ा होकर बोला-" क्या कहा तुमने......अतिकाय मारा गया..... उसे परमपिता
ब्रह्माजी ने अवध्य होने का वरदान दिया था, वह ऐसे कैसे मारा जा सकता है?...
अतिकाय....मैं तुम्हारी मृत्यु का प्रतिशोध जरुर लूँगा....जरुर लूँगा...."
कहते हुए वह अपने कक्ष में चला गया.
अपने सिंहासन पर बैठकर वह
चिंतन-मनन करने लगा.-"अमर्षशील ध्रुमाक्ष जो सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में सर्व
श्रेष्ठ था, अकम्पन तथा कुम्भकर्ण- ये दोनों महाबली वीर राक्षस सदा युद्ध की
अभिलाषा रखते थे, ये सब-के-सब शत्रुओं पर विजय पाते रहे हैं, कभी विपक्षियों से
पराजित नहीं हुए, ऐसे कैसे काल कवलित हो गये?. मेरी समझ में बिलकुल भी नहीं आ रहा
है कि मेरे बेटे शत्रुदमन इन्द्रजित ने ,राम के छोटे भाई लक्ष्मण पर शक्ति से आघात
किया था, जिसे बचाया नहीं जा सकता था, जीवित कैसे बच गया?...निश्चित ही घर के भेदी
विभीषण ने ही इसका निदान राम को बताया होगा?."
" मेरे असंख्य शूरवीर
योद्धाओं को महाबली वानरों ने मार डाला. मैं अपनी सेना में कोई ऐसा वीर नहीं
देखता, जो राम और लक्ष्मण सहित सुग्रीव और विभीषण को नष्ट कर दे ?. मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि निश्चित ही राम, विष्णु का
अवतारी पुरुष होना चाहिए, अन्यथा कोई कारण नहीं है कि मेरे सेना के बड़े-बड़े महारथी
देखते ही देखते मार डाले गये.?. अपने अंदर गहराई में उतर कर रावण सोच रहा था.
उद्विग्न होते हुए अपने अनेक
सेनापतियों सहित बलवाल राक्षसों को बुलाया और आज्ञा दी कि वे हर समय सावधान रहकर
पुरी तथा अशोक वाटिका में जहाँ सीता को रखा गया है, विशेष रूप से रक्षा करो. उसने
यह भी अनुज्ञा दी कि अशोक वाटिका में कब कौन प्रवेश करता है, कब कोई वहाँ से बाहर
निकलता है, इसकी संपूर्ण जानकारी जुटा कर मुझे सूचित करें. और...जहाँ-जहाँ सैनिकों
के शिविर हैं, उनकी समुचित देखभाल करना और अपने-अपने सैनिकों के साथ पहरे पर
रहना."
" हाँ....सुबह-दोपहर-शाम,
चौबिसों प्रहर वानरों पर भी दृष्टि रखना. संभव हो सके तो उनसे ज्ञात करना कि शत्रु
पक्ष कब और किस ओर से आक्रमण करने वाला है?." रावण ने सभी को आज्ञा देते हुए
कहा.
०००००
सांझ घिर आयी थी. सैनिक अपने-अपने
शिवरों में पहुँच गए थे. राजकीय वैद्य घायल सैनिकों का उपचार करने में लगे थे. इस
दिन लंका में प्रकाश की व्यवस्था नहीं की गई थी. चारों ओर अंधकार छाया हुआ था. महल
में भी किसी ने दीप प्रज्जवलित नहीं किया था और तो और मुख्य-मुख्य मार्ग भी अंधकार
में डुबे हुए थे.
रावण अपने कक्ष में बैठा हुआ था.
केवल एक दीप उसके कक्ष में टिमटिमा रहा था. नीम-अंधेरे कक्ष में सिर पर हाथ रखकर,
वह आने वाली सुबह के बारे में गहनता से सोच रहा था कि युद्धभूमि में अब किसे उतारा
जाये?.प्रश्न काफ़ी गम्भीर था और वह निर्णय नहीं ले पा रहा था.
वह गम्भीरता के साथ सोच-विचार कर
ही रहा था, तभी सहसा महारानी मन्दोदरी ने उसके कक्ष में प्रवेश किया. नीम-अंधेरे
कक्ष में वह उसे देख नहीं पाया. उन्होंने रावण के कंधे पर आहिस्ता से अपनी हथेली
से स्पर्श किया. हथेली के तनिक दवाब से उसकी चेतना लौटी.
"महारानी मन्दोदरी
तुम....तुम कब आयीं.?...बैठो.. " कहते हुए उसने सिंहासन पर विराजित होने का संकेत दिया.
" महाराज......एक अर्धांगिनी
होने के नाते मैं आपका दुःख समझती हूँ. समरांगण
में मारे जाने वाले मेरे पुत्रों का दुःख
मुझे उतना ही हो रहा है, जितना कि आपको हो रहा है. आपकी एक जरा-सी जिद के कारण
संपूर्ण लंका में हाहाकार मचा हुआ है. कहीं से भी कोई शुभ समाचार नहीं मिल रहे..जब
भी कोई समाचार मिलता है, जिसे न चाहने के बाद भी सुनना पड़ता है. क्या यह उचित
है?."
" हे प्राणेश्वर ! अब भी कुछ
नहीं बिगड़ा है.....अभी भी समय है....जितनी क्षति अब तक हो चुकी, वह तो पुनः
प्राप्त होने से रही.?....जो कुछ बच रहा है, कृपया उसे बचाने का उपक्रम
करें......मैंने अपने पुत्रों को अपनी कोख में नौ माह तक रखा, उन्हें जन्म दिया और
लाड़-दुलार दिया...उनकी अभिरक्षा में अपने को तिल-तिल जलाया , जब-जब उनके मारे जाने
का हृदय-द्रावक समाचार मिलता है, तब इस कठोर हृदय को फट जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा
नहीं हुआ....हे प्राणनाथ ! हृदय को आधात पहुँचाने वाले ऐसे अशुभ-समाचार मुझे कब तक
सुनने को मिलते रहेंगे?. हे नाथ.!...अपनी जिद का परित्याग कर दीजिए...इसमें हमारा
ही हित होगा."
" अतिकाय के मारे जाने का
समाचार पाकर धन्यमालिनी का चीत्कार और विलाप सुना नहीं जाता....रो-रोकर उसका बुरा
हाल हुआ जा रहा है. वह मुझसे विनती करते हुए कहती है _"दीदी....मुझमें इतना
साहस नहीं है कि मैं महाराज के समक्ष जा पाऊँ.....आप महारानी हैं....मुझसे ज्यादा
अधिकार आपको प्राप्त है... कृपया जाकर उन्हें समझाइये कि इस युद्ध को
रोकें.....सीता जब से लंका आयी है...चहुँओर से विनाश ही विनाश के समाचार सुनने को
मिल रहे हैं....मेरी ओर से आप विनती कीजिए कि सीता को वे लौटा दें, जिससे लंका को
महाविनाश से बचाया जा सके..."
" हे स्वामी ! विश्व विजेता रावण को पराजय पर पराजय मिल रही
है....इससे कोई शिक्षा आप क्यों नहीं लेते?. मेरी मानो....आप सीता को स-सम्मान
रामजीको लौटा दो. वे भक्तवत्सल है...दया के सागर हैं....साक्षात विष्णु के अवतार
हैं...आपको अपने कृत्य के लिए क्षमा कर देंगे और अयोध्या लौट जाएँगे....उनके लौट
जाने से हमारी लंका सर्वनाश से बच जाएगी...हे प्राणनाथ...कुछ कीजिए....."
कहती हुए मन्दोदरी महारानी लंकेश के चरणॊं में गिर पड़ी.
" बस ...मन्दोदरी बस....आप
हमें बहुत समझा चुकीं...अब अपनी समझाईश अपने पास रखो....त्रिलोक विजयी रावण जो एक
बार सोच लेता है, उसे पूरा करके ही रहता है. हम क्षत्रिय हैं...युद्ध करना...युद्ध
में आघात सहना...मरना...मारना हमारा धर्म है. एक क्षत्रिय.जब एक बार कदम बढ़ा लेता
है तो उसे वापिस नही लेता....युद्ध में दो ही परिणाम होते हैं...या तो जीत होगी या
फ़िर पराजय....एक योद्धा विजय श्री पाने के लिए ही तो युद्ध करता है. हम अपना
क्षत्रिय धर्म का निर्वहन भली-भांति कर रहे हैं...तुम उसे रोकने वाली कौन होती
हो?....क्या तुम चाहती हो कि मैं चुड़ियाँ पहन कर महल में कायरों की भांति छिप
जाऊँ?. क्या तुम यह चाहती हो कि मृत्यु से
डरकर मैं उस बनवासी के चरणॊं में गिर जाऊँ?. जिस रावण का नाम सुनते ही देव-दानवों
में खलबली मच जाती है, वह रावण डर कर अपने शत्रु के सामने हाथ जोड़कर दया की भीख माँगे...............नहीं
....नहीं....महाबली रावण से ये सब नहीं हो सकेगा... "
" युद्ध में मारे जाने वाले
पुत्र क्या केवल तुम्हारे और धन्यमालिनी के ही पुत्र थे ? तुम भूल रही
हो.महारानी.....वे मेरे भी तो पुत्र थे....हमारे बेटों ने अपने देश की आन-बान-शान
के लिए बलिवेदी पर अपने प्राण न्योछावर
कर, तथा एक पिता के गौरव की रक्षा के लिए उन्होंने अपने प्राणों को न्योछावर कर
दिये...क्या यह हमारे लिए गौरव का विषय नहीं हैं? मुझे अपने बेटॊं पर गर्व
है...गर्व है...अभिमान है..."
"महारानी मन्दोदरी ! अब
भविष्य में तुम रोनी-सूरत लेकर तुम मेरे
पास नहीं आओगी..... अब तुम जा सकती हो... हमें कल के विषय में सोचने-विचारने
दो....." ऐसा कहते हुए क्रोध में तमतमाया रावण अपने सिंहासन से उठकर खड़ा हो
गया. महारानी मन्दोदरी के पास अब कोई चारा भी शेष नहीं बचा था. वे विलाप करती हुई
रावण के कक्ष से बाहर निकल गयीं.
आँखों ही आँखों में रात्रि कैसे
बीत गयी रावण को पता ही नहीं चल पाया.
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रावण के माता पिता :
ऋषि विश्वश्रवा ने ऋषि भारद्वाज की
पुत्री इलाविदा से विवाह किया था, जिनसे कुबेर का जन्म हुआ. विश्वश्रवा की
दूसरी पत्नी कैकसी से रावण, कुंभकरण, विभीषण और सूर्पणखा
पैदा हुई थी.
रावण के भाई : कहते हैं कि रावण के छह भाई थे जिनके नाम
ये हैं- कुबेर, विभीषण, कुम्भकरण, अहिरावण, खर और दूषण. खर,
दूषण, कुम्भिनी, अहिरावण और कुबेर रावण के सगे भाई बहन नहीं थे.
रावण की बहनें : रावण की दो बहने थीं. एक सूर्पनखा और दूसरी कुम्भिनी थी जो कि
मथुरा के राजा मधु राक्षस की पत्नी थी और राक्षस
लवणासुर की मां थीं. कुबेर को सत्ता से हटा कर रावण के लंका में जम जाने के बाद
उसने अपनी बहन शूर्पणखा का विवाह कालका के पुत्र दानवराज
विद्युविह्वा के साथ कर दिया.
रावण की पत्नियां :
रावण की यूं तो दो पत्नियां थीं, लेकिन कहीं-कहीं तीसरी पत्नी का जिक्र भी होता है लेकिन उसका नाम
अज्ञात है.
रावण की पहली पत्नी का नाम मंदोदरी था जोकि राक्षसराज मयासुर की पुत्री
थीं. दूसरी का नाम धन्यमालिनी था और तीसरी का नाम अज्ञात है. ऐसा
भी कहा जाता है कि रावण ने उसकी हत्या कर दी थी. दिति
के पुत्र मय की कन्या मंदोदरी उसकी मुख्य रानी थी जो हेमा नामक अप्सरा के गर्भ से
उत्पन्न हुई थीं.
रावण के पुत्र और पुत्रियां :
मंदोदरी से रावण को जो
पुत्र मिले उनके नाम हैं- अक्षयकुमार,
मेघनाद, महोदर, प्रहस्त, विरुपाक्ष
भीकम वीर. कहते हैं कि धन्यमालिनी से अतिक्या और त्रिशिरार नामक दो
पुत्र जन्में जबकि तीसरी पत्नी के प्रहस्था,
नरांतका और देवान्तक नामक पुत्र थे. कहते हैं
कि रावण की एक बेटी भी था जिसका नाम सुवर्णमछा या सुवर्णमत्स्य था, जो
देखने में बहुत ही सुंदर थी. उसे सोने की जलपरी कहा गया है.
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इन्द्रजित् के विश्वस्त सेनापति ने उसे जाकर बतलाया कि
महाबली अतिकाय के मारे जाने का समाचार पाकर राक्षेन्द्र रावण रात्रि भर जागते रहे
हैं. उन्होंने एक क्षण को भी विश्राम नहीं किया है. यह जानकर इन्द्रजित को बहुत
दुःख हुआ. वह अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ और वह भारी कदमों से चलता हुआ अपने पित्राश्री
के कक्ष में पहुँचा. देखता क्या है कि रावण मस्तक झुकाए हुए बैठे हैं. अपने पिता
के समीप पहुँचकर उसने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा- " पिताश्री ! आपको इस तरह
चिंताग्रस्त देखकर मेरा हृदय फटा जा रहा है.....जब तक इन्द्रजित जीवित है तब तक
आपको चिंता और मोह में नहीं पड़ना चाहिए. आपके इस पुत्र इन्द्रजित के बाणॊंसे घायल
होकर कोई भी समरांगण में अपने प्राणॊं की रक्षा नहीं कर सकता."
"हे पिताश्री !
समरांगण में आप मेरा पराक्रम देखेंगे. आज मैं राम और उसके अनुज लक्ष्मण को बाणॊं
से छिन्न-भिन्न करके उसने सारे अंगों को तीखे सायकों से भर दूँगा..और वे दोनों भाई
गतायु होकर सदा के लिए धरती पर सो जाएंगे."
" हे लंकापति ! मैं आज आपके समक्ष प्रतिज्ञा करता हूँ कि आप
मेरे अपने पुरुषार्थ और ब्रह्माजी से प्राप्त वरदानों से लक्ष्मण और राम को अपने
अमोघ बाणॊं से तृप्त करते हुए उनकी युद्धविषयक पिपासा को बुझा दूँगा. मेरे आज के
इस पराक्रम को इन्द्र,यम, विष्णु, रुद्र, साध्य, अग्नि, सूर्य, और चन्द्रमा, बलि
के यज्ञमण्डप में भगवान विष्णु के भयंकर विक्रम की भांति मेरे अपार पराक्रम को आप
देखेंगे."
" हे पिता श्री !
मुझे आशीर्वाद प्रदान कीजिए..."
महाबली रावण ने उसका
मस्तक सूँघा और आशीर्वाद देते हुए कहा-" बेटा ! शत्रु पक्ष में कोई भी ऐसा
रथी नहीं है, जो तुम्हारा सामना कर सके.."
" हे इन्द्रदमन !
तुमने देवराज इन्द्र को भी पराजित किया है. फ़िर आसानी से जीत लेने योग्य एक
मानुष्य को परास्त करना तुम्हारे लिये कौन बड़ी बात है? तुम अवश्य ही रघुवंशी राम
का वध करोगे."
इन्द्रजित अपने पिता से आज्ञा और आशीर्वाद प्राप्त कर,
गदहों से जुते हुए, तथा युद्ध सामग्रियों से सम्पन्न एवं वायु के समान वेगशाली रथ
पर सवार होकर युद्धस्थल पर पहुँचा. उसे प्रस्थान करता हुआ देखकर बहुत से महाबली
राक्षस हाथों में श्रेष्ठ धनुष लिए हर्ष और उत्साह के साथ पीछे-पीछे चले.
उन्हें जाता हुआ देखकर
अनेकानेक दानव और राक्षस अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर युद्ध की अभिलाषा लेकर
युद्ध-स्थल की ओर बढ़ चले. सभी ने प्रास,
पट्टिश, खंग,फ़रसे, गदा, भुशुंण्डि, मुद्गर, डंड़े, शतघ्नी, और परिध आदि आयुध धारण
किए हुए थे.
इन्हें अपनी ओर आता देख
वीर हनुमान जी ने शंख फ़ूँककर युद्ध के आरंभ होने का संकेत दिया. इध शत्रु पक्ष से
भी शंखों की ध्वनि के साथ भेरियों की भयानक आवाज निकाली,जिसकी आवाज सब ओर गूँज
उठी.
पराक्रमी इन्द्रजीत ने
सबसे पहले अपने चारों ओर राक्षसों को खड़ा कर दिया. फ़िर रथ से नीचे उतरकर पृथ्वी पर
अग्नि की स्थापना की.चंदन,फ़ूल तथा लावा से अग्निदेव का विधिवत पूजन किया. फ़िर
विधिवत श्रेष्ठ मंत्रों का जाप किया और अग्नि में आहुतियाँ डालीं.
एक ही बार में दी हुई
आहुति से धूम रहित अग्नि प्रज्ज्वलित हो उठी.
आग की बड़ी-बड़ी लपटे उठने लगी थीं. उस समय अग्नि से वे सभी चिन्ह प्रकट हुए
जो पूर्वकाल में उसे अपनी विजय दिखा चुके थे. तदनन्तर उसने अस्र-विद्याविशारद
इन्द्रजित ने ब्रह्मास्त्र का आव्हान किया और अपने धनुष तथा रथ आदि सब वस्तुओं को
वहाँ सिद्ध बह्मास्त्र से अभिमंत्रित
किया. जब अग्नि में आहुति देकर उसने ब्रह्मास्त्र का आव्हान किया,तब सूर्य,
चन्द्रमा, ग्रह तथा नक्षत्रों के साथ अन्तरिक्ष सभी भयभीत हो गये.
दिव्य अस्त्रों के प्रभाव
से युक्त इन्द्रजित धनुष बाण, रथ,घोड़े और सारथी के सहित अपने आपको आकाश में अदृश्य
कर लिया. इस के बाद वह घोड़ों,रथों से व्याप्त तथा ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित
राक्षसी सेना के मध्य पहुँचा और गर्जना करते हुए अस्त्र-शस्त्रों से वानरों पर
प्रहार करने लगा.उसने निशाचरों को आज्ञा दी कि वे वानरों को मार डालने की इच्छा से
हर्ष और उल्हासपूर्वक युद्ध करो. आज्ञा पाते ही राक्षसों ने जोर-जोर से गर्जना
करते हुए बाणॊं की भयंकर वर्षा करने लगे.
राक्षसों से घिरे रहकर
इन्द्रजित ने नाराच, गदा,मूसल आदि अस्त्र-शस्त्र चलाकर वानरों का संहार करना आरम्भ
किया. उधर वानरों ने भी रोष के साथ धावा किया,परन्तु उसके बाणॊं से शरीर के
क्षत-विक्षत हो जाने से सब वानर अचेत-से हो गये और खून से लथपथ हो, इधर-उधर भागने
लगे.
तत्पश्चात उस वीर ने
अग्नितुल्य तेजस्वी बाणॊं द्वारा वानर-सैनिकों को विदीर्ण करना आरम्भ किया. उसने
अठारह तीखे बाणो से गन्दमादन को घायल कर दिया. फ़िर तरकस से नौ बाण निकालकर नल पर
प्रहार किया.इसके बाद सात मर्मभेदी बाणॊं से मैन्द और पाँच बाणॊं से गज को बींध
डाला. दस बाणॊं से जाम्बवान को,तीस सायकों से नील को गंभीर रूप से घायल कर दिया.
क्रोध में भरते हुए उसने वरदान में प्राप्त हुए बहुसंख्यक तीखे बाणॊं का प्रहार कर
सुग्रीव,ऋषभ,अंगद और द्विविद को निष्पाण कर दिया.
तत्पश्चात वह अपनी सेना
के ऊपरी भाग को छोड़कर उस महासमर में वानर-सेना के ऊपर जा पहुँचा और अदृश्य रहकर
बाणॊं की वर्षा करने लगा. फ़िर दिव्य मन्त्रों से अभिमन्त्रित प्रासो, शूलों
और पैने बाणॊं के द्वारा हनुमान, सुग्रीव,
अंगद,गन्धमादन,जाम्बवान, सुषेण, मैन्द, द्विविद,नील, गवाक्ष, गवय, केसरी,नल-नील
आदि बलवान वानरों को गंभीर रूप से घायल कर दिया.
आकाश से बरसते बाणॊं की
कोई परवाह न करते हुए श्रीराम ने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा-" लक्ष्मण ! वरदान
से प्राप्त ब्रह्मास्त्र का सहारा लेकर इन्द्रजित, वानर-सेना को धराशायी करके तीखे
बाणॊं से हम दोनों को पीड़ित कर रहा है. ब्रह्माजी से वरदान पाकर उसने अपने शरीर को
अदृश्य कर लिया है.वह दिखाई तो नहीं दे रहा है, फ़िर भी अस्त्रों का प्रयोग करता जा
रहा है. ऐसी विचित्र दशा में हम उसे किस प्रकार मार सकते हैं?."
" हे अनुज ! क्यों न
हम दोनों अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़ें. हमें पृथ्वी पर पड़ा हुआ देखकर वह अपने को
विजयी मानकर लंका लौट जाएगा."
इस प्रकार संग्राम में
वानरों की विशाल सेना सहित श्रीराम तथा लक्ष्मण को मूर्च्छित करके इन्द्रजित बहुत
प्रसन्न हुआ और प्रसन्नतापूर्वक अपनी विजय
का समाचार देने लंका लौट गया.
00000
" लंकेश
की जय हो...लंकेश की जय हो" अपने पिता के नाम का जयघोष करता हुए इन्दजित ने
रावण के कक्ष में प्रवेश किया. उसे आता हुआ देखकर रावण समझ गया कि मेरा बेटा राम
पर विजय प्राप्त कर लौटा होगा, अन्यथा वह इतने आवेश में न होता. उसकी चाल-ढाल
देखकर कोई भी साधारण व्यक्ति समझ जाएगा कि वह विजयश्री प्राप्त करके लौट रहा है.
शीघ्रता से चलता हुआ वह आया और अपने पिता को प्रणाम करते हुए उसने कहा-"
पिताश्री ! आज आपके बेटे ने वह कर दिखाया है, जिसके लिए आप आशान्वित थे. मैंने
अपने तीखे बाणॊं के द्वारा दोनों भाईयों को समरांगण में मूर्च्छित कर दिया है.
संभव है, दोनों का प्राणांत हो जाएगा, यह निश्चित है."
’ हे पिताश्री !
जिन्होनें खर,दूषण.कुम्भकर्ण आदि का वध किया था, आज वे दोनों भाई राम और लक्ष्मण
मेरे तीक्ष्ण बाणॊं से मारे गये. यदि सारे मुनिसमूहों सहित समस्त देवता भी आ जायें
तो भी वे उन्हें जीवित नहीं कर सकते."
समाचार सुनते ही रावण ने
गदगद हो उसे आलिंगनबद्ध करते हुए कहा -" बेटा इन्द्रजित ! मुझे तुमसे यही आशा
थी....तुमने आज अपने पिता को खुशियों की इतनी बड़ी सौगात दी है, जिसकी कि हम एक
लंबे समय से प्रतीक्षा कर रहे थे."
उधर हर्ष से भरे हुए रावण
ने अपने पुत्र को बिदा करके उस समय सीताजी की रक्षा करने वाली राक्षसियों को बुलवाया. आज्ञा पाते ही त्रिजटा
तथा अन्य राक्षसियां उसके पास आयीं. तब हर्ष में भरे हुए राक्षसराज रावण ने उनसे
कहा-" मेरे मेटे इन्द्रजित ने राम और लक्ष्मण को मार डाला है. तुम अशोक
वाटिका से सीता को पुष्पक विमान पर चढ़ाकर रणभूमि में ले जाओ और उन मारे गाये दोनों
भाइयों को उसे दिखा दो. जिसके आश्रय से गर्व में भरकर वह मेरे पास नहीं आती थी वह
इसका पति अपने भाई के साथ युद्ध के मुहाने पर मारा गया. अब उसे उसकी अपेक्षा नहीं रहेगी. वह समस्त आभूषणॊं से विभूषित हो भय
और शंका को त्यागकर मेरी सेवा में उपस्थित रहेगी."
" आज वह रणभूमि में
काल के अधीन हुए राम और लक्ष्मण को देखकर वह उनकी ओर से अपना मन हटा लेगी तथा अपने
लिए कोई दूसरा आश्रय न देखकर, उधर से निराश होकर विशाल लोचना सीता, स्वय होकर मेरे
पास चली आएगी."
रावण की आज्ञा से उन
राक्षसियों ने सीता को पुष्पक विमान पर बिठाकर राम-लक्ष्मण के दर्शन कराने के लिए
चलीं.
त्रिजटा के साथ उस विमान
द्वारा वहाँ जाकर सीताजी ने रणभूमि में वानरों की मारी गयी थीं उन सबको देखा
तदनन्तर उन्होंने दोनों भाइयों को देखा जो बाणॊं से पीड़ित होकर संज्ञाशून्य होकर
पड़े थे. यह सब देखकर जनकनन्दिनी विलाप करने लगीं. घोर विलाप करती हुई सीता को
सांत्वना देती हुई त्रिजटा ने कहा-" देवी ! विलाप न करो. तुम्हारे पतिदेव और
देवर लक्ष्मण जीवित हैं."
" त्रिजटा ! तुम किस
विश्वास से कह रही हो कि मेरे पतिदेव और भैया लक्ष्मण जीवित हैं. मारे नहीं गये
हैं?." सीता ने विलाप करती हुए त्रिजटा से जानना चाहा.
" सीते ! तुम बहुत
भोली हो. यह सब माया का खेल है. देखो...उस
ओर देखो... दोनों भाइयों को घेर कर सारे वानरों के सहित महात्मा विभीषण, सुग्रीव
जी आदि, श्रीरामजी की सुरक्षा में संलग्न है. उनमें किसी भी प्रकार की घबराहट या
उद्वेग नहीं है. अतः तुम निश्चिंत होकर यहाँ से चलकर विश्राम करो.. मैं तुम्हारे
शील-स्वभाव और निर्मल चरित्र के कारण तुम मेरे मन में घर कर गयी हो. अतएव मैंने
तुमसे न तो पहले कभी झूठ कहा है और न ही आगे कहूँगी."
सीताजी को त्रिजटा की
बातों को सुनकर पूर्ण विश्वास हो गया कि उनके पतिदेव और देवर जीवित हैं. याह जानकर
वे प्रसन्नतापूर्वक अशोक वाटिका लौट आयीं.
०००००
]
समूची लंका में यह समाचार
तेजी से फ़ैल गया कि श्रीराम और लक्ष्मण अभी जीवित हैं, यह सुनकर लंकेश और
इन्द्रजित को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये दोनों स्वस्थ कैसे हो गये? जबकि इनकी मृत्यु
हो जानी चाहिये थी.
अपने पिता को धीरज बंधाते
हुए इन्द्रजित ने उसे आश्वासन देते हुए कहा-
देखेहु कालि मोरि मनुसाई * अबहिं बहुत का करौं बड़ाई
इष्ट देव सैं बल रथ पायउँ * सो
बल तात न तोहि देखायउँ (मा.71/4 लं.कां)
हे पिताश्री ! आप कल मेरा पराक्रम
देखियेगा. मैं स्वयं होकर अपनी बड़ाई क्या करुँ? मैंने अपने इष्टदेव से जो बल और रथ
पाया है, हे तात ! वह बल मैंने अभी आपको दिखाया नहीं है.
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मेघनाद
( संस्कृत : मेघानंद , शाब्दिक रूप से 'बादलों की गड़गड़ाहट'), जिसे उनके विशेषण इंद्रजीत द्वारा भी संदर्भित
किया जाता है . ' इंद्र का विजेता ' [1] , हिंदू ग्रंथों के अनुसार , लंका का युवराज था , जिसने इंद्रलोक ( स्वर्ग ) पर विजय प्राप्त की थी. उन्हें हिंदू ग्रंथों में सबसे महान योद्धाओं में से एक माना जाता है. वह भारतीय महाकाव्य रामायण में वर्णित एक प्रमुख पात्र हैं . मेघनाद बंगाली गाथागीत में केंद्रीय पात्र है. मेघनाद बध काव्या . उन्होंने राम और रावण के बीच महान युद्ध में सक्रिय भूमिका निभाई. उन्होंने अपने गुरु
शुक्र से कई प्रकार के दिव्य हथियार प्राप्त किए, उनका सबसे प्रमुख पराक्रम स्वर्ग में देवों को पराजित करना है[2] ब्रह्मास्त्र का उपयोग करके, इंद्रजीत नेएक ही दिन में 670
मिलियन वानर [3] को मार डाला; लगभग पूरी वानर जाति का सफाया कर दिया. रामायण में इससे पहले किसी भी योद्धा ने इस सांख्यिकीय
उपलब्धि को हासिल नहीं किया था [2] [3] [4]
इंद्रजीत में बादलों के पीछे छुपकर आकाश से युद्ध करने की विशेष
क्षमता थी. यही कारण है कि युद्ध के दौरान राम और लक्ष्मण
दोनों हार गए थे और सांप द्वारा बंधे हुए थे [ उद्धरण
वांछित ] । संस्कृत में, "इंद्रजीत" (इंद्रजित) नाम का
शाब्दिक अनुवाद " इंद्र का विजेता " और "मेघनाद" ( संस्कृत : मेघनाद ) के रूप में "आकाश के भगवान" के रूप
में उल्लेख किया गया है. तमिल में , "मेघनाथन" नाम का शाब्दिक अनुवाद [5] ( तमिल : மேகநாதன் ) को "बादलों के भगवान" के रूप में
वर्णित किया गया है,
जो "मेघम"
(बादल) और "नाथन" (भगवान) शब्दों को जोड़ता है. देवों के राजा , जिसके बाद उन्हें "इंद्रजीत" (इंद्र
का विजेता) के रूप में जाना जाने लगा। [6] उन्हें शकरजीत, रवानी, वासवजीत, वरिदानंद और घनानदा के नाम से भी जाना जाता है.
इंद्रजीत रावण और उसकी पत्नी मंदोदरी का सबसे बड़ा पुत्र था. उसके जन्म के बाद उसका नाम मेघनाद रखा गया
क्योंकि उसकी जन्मनाल वज्र के समान सुनाई देती थी. जब मेघनाद का जन्म होने वाला था, रावण ने अपने पुत्र के सर्वोच्च होने की कामना
की ताकि दुनिया में कोई भी उसे हरा न सके. रावण चाहता था कि उसका पुत्र परम योद्धा और
अत्यंत ज्ञानी हो. रावण एक महान ज्योतिषी था.उन्होंने अपने पुत्र
को अमर बनाने के लिए सभी ग्रहों और नक्षत्रों को ऐसी स्थिति में लाने की आज्ञा दी, जिससे वह अपने पुत्र को अपनी इच्छा के अनुसार
जन्म दे सके. रावण के क्रोध और शक्ति के कारण सभी ग्रह और
नक्षत्र उससे डरते थे. अपने पुत्र मेघनाद के जन्म के समय सभी ग्रह रावण द्वारा वांछित
स्थिति में थे. सभी ग्रह इस प्रकार संरेखित हुए कि वे मेघनाद की
कुंडली के 11वें भाव में आ गए. [7] हालांकि, शनि(शनि) ने रावण की आज्ञा का पालन नहीं किया था और
मेघनाद की कुंडली के 12वें भाव में जा बसा था. इस पर रावण आगबबूला हो गया और उसने शनि को दोष
दिया. शनि की स्थिति के कारण
राजकुमार राम और रावण के युद्ध में मेघनाद को लक्ष्मण के हाथों मरना
पड़ा.
मेघनाद जादुई युद्ध, जादू-टोना और तंत्र-मंत्र में भी माहिर था. मूल महाकाव्य में उनकी पत्नी का उल्लेख नहीं है; हालाँकि, महाकाव्य के बाद के संस्करणों में, सुलोचना - नागों के राजा शेषनाग की बेटी - का उनकी पत्नी के रूप में उल्लेख किया
गया है. [8]
ब्रह्मा का वरदान
देवों और रावण के बीच युद्ध के दौरान, स्वर्ग के राजा भगवान इंद्र ने अन्य सभी देवताओं
के साथ रावण को पकड़ लिया . अपने पिता को बचाने के
लिए, मेघनाद ने इंद्र और उसके हाथी ऐरावत पर हमला किया , और सभी देवों, यहां तक कि इंद्र को भी हरा दिया. मेघनाद ने इंद्र को अपने आकाशीय रथ पर बांधा और
चढ़ाया और उन्हें लंका में रावण के पास लाया . रावण और मेघनाद ने इंद्र को मारने का फैसला
किया. इस मौके पर, भगवान ब्रह्मा ने हस्तक्षेप किया और मेघनाद को इंद्र को मुक्त
करने के लिए कहा. मेघनाद ने बाध्य किया और उसे ब्रह्मा से वरदान
मांगने का मौका दिया गया. मेघनाद ने अमरता के लिए कहा, लेकिन ब्रह्मा ने टिप्पणी की कि पूर्ण अमरता
प्रकृति के नियम के खिलाफ है. इसके बजाय, उन्हें तब एक और वरदान दिया गया था कि पूरा होने
के बाद उनकी मूल देवी प्रत्यंगिरा का यज्ञ (अग्नि-पूजा) या "निकुंभिला यज्ञ" पूरा
हो जाएगा,
उन्हें एक दिव्य रथ
प्राप्त होगा,
जिस पर चढ़कर कोई भी
शत्रु उन्हें युद्ध में नहीं मार सकता और अजेय हो सकता है. लेकिन ब्रह्मा ने उन्हें चेतावनी भी दी कि जो
कोई इस यज्ञ को नष्ट करेगा, वह उसे भी मार डालेगा. इस युद्ध में मेघनाद की वीरता से ब्रह्मा बहुत
प्रभावित हुए और यह ब्रह्मा ही थे, जिन्होंने उन्हें इंद्रजीत ("इंद्र का
विजेता") नाम दिया. यह भी माना जाता है कि मेघनाद को ब्रह्मा द्वारा एक और वरदान दिया
गया था जिसमें उसे यह वादा किया गया था कि वह केवल एक आम आदमी द्वारा मारा जाएगा
जो लगातार 12
वर्षों तक सोया नहीं था [9]रावण की ओर से मेघनाद सबसे महान योद्धा था । वह एक महान धनुर्धर और भ्रम युद्ध तकनीक में उन्हें
महारथ हासिल था.
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सूर्योदय होने के साथ ही दोनों ओर की सेनाएँ आमने-सामने खड़ी होकर
युद्ध प्रारंभ करने की प्रतीक्षा कर रहे थे. शत्रुदल की ओर से स्वयं मेघनाथ ने शंख
फ़ूंक कर अपनी सेना को धावा करने का संकेत दिया. उधर रामजी के पक्ष से वीर हनुमानजी
से शखं फ़ूँकते हुए युद्ध प्रारम्भ करने का संकेत
दिया. देखते-ही-देखते दोनों सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध होने लगा.
उधर इन्द्रजित अपने
सुवर्णिम रथ पर आरुढ़ होकर आकाश में अदृश्य रूप से स्थित रहते हुए, शत्रु-दल पर
अस्त्र-शस्त्र की वर्षा करने लगा. वह शक्ति,शूल,तलवार, कृपाण आदि अस्त्र-शस्त्रा
चलाने लगा. तथा फ़रसा, परिध,पत्थर आदि डालने और बहुत से बाणॊं की वर्षा करने लगा.
मुख्य प्रवेश द्वार से न आकर
मेघनाथ ने अपने दिव्य रथ का आव्हान किया और उस पर बैठकर आकाश में चला गया और
अट्टहास करके गरजा.उसके अट्टहास को सुनकर वानरी सेना में भय उत्पन्न हो गया.
आकाश में विद्यमान होते हुए उसने
शक्ति, शूल, तलवार, कृपाण आदि अस्त्र-शस्त्र और वज्र आदि अनेकों हथियार चलाए. इतना
ही नहीं उसने फ़रसा, परिध और शिला-खंडॊ की बरसात कर दी,जिससे अनेक शूरवीर वानर और
योद्धा मारे गये.
अदृश्य रहते हुए वह कभी आकाश के
एक छोर पर खड़ा होकर अस्त्र-शस्त्र चलाता, तो कभी दूसरे छोर पर जाकर. उसने दानवी
माया के बल से अवघट घाटियों, मार्गों और पहाड़ों को बाणॊं का पींजरा बना दिया. आकाश
तथा दसों दिशाओं मे बाण छा गए, मानो मघा नक्षत्र में मेघों ने झड़ी लगा दी हो.
पकड़ो...मारो,,,की ध्वनि कानों में सुनाई पड़ती है,जो मारता है, उसे कोई नहीं जानता.
अब कहाँ जायं, क्या करें, यह समझ नहीं आने के कारण वानर व्याकुल होने लगे. उसने
अदृश्य रहते हुए हनुमान, अंगद,नल और नील आदि समस्त वानरों को व्याकुल कर दिया. फ़िर
उसने लक्ष्मण, नल,नील सुग्रीव और विभीषण को को बाणॊं से मारकर जर्जर बना दिया,
बंदर पर्वत और वृक्ष लेकर आकाश में दौड़ते पर उसे न देखकर दुःखी हो जाते और लौट
आते. रामजी के सेना में भगदड़ मच गयी. जिसे जिस ओर मार्ग मिलता, उस ओर दौड़ कर अपने
प्राण बचाने का उपक्रम करने लगे. उस पराक्रमी वीर ने हनुमान, अंगद,नल और नील आदि
समस्त वानरों को व्याकुल कर दिया.
क्रुद्द्धेनेन्द्रजिता वीरो
पन्नगैः शरतां गतैः (8 वा.रामा)
रण सोभा लगे प्रभुहिं बँधायो *
नागपाश देवन्ह भय पायो.( मानस.)
वह रामजी और लक्ष्मण से युद्ध
करने लगा. तीखे बाण चलाकर उसने श्रीराम और लक्ष्मण को बाणरुपधारी सापों द्वारा
बांध दिया. उनके शरीर में कोई भी ऐसा स्थान शेष नहीं रह गया था, जहाँ बाण न लगे
हों.
दोनों भाइयों को नागपाश में
बांधने के बाद वह दोनों भाइयों से बोला-" हे राम ! हे लक्ष्मण ! इन्द्रजित मेघनाथ से युद्ध करना बच्चों का काम
नहीं है. देख लिया तुम दोनों ने उसका क्या परिणाम होता है?. ऐसा कहते हुए उसने
शीघ्रगामी नाराच, अर्धनाराज, भल्ल, अंजलिक, वत्सदन्त, सिंहदंष्ट्र और क्षुर नाम के
नागपाश चला कर उसने दोनों रघुवंशियों को नागपाश में बांध दिया. फ़िर घोर गर्जना
करते हुए कहने लगा....राम.!..लक्ष्मण ! अब मैं तुम दोनों भाइयों को यमपुरी भेजे
देता हूँ." ऐसा कहते हुए इन्द्रजित बाणॊं दोनों पर बाणों की वर्षा करने लगा.
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नागपाश-
'
नागपाश'
प्राचीनकाल में उपयोग किये जाने वाला अस्त्र का नाम है. इसका उपयोग शत्रु को बंधक बनाने के लिए किया जाता था.
नागपाश का वर्णन रामायण में ( महर्षि वाल्मीकि जी
द्वारा ) , और अन्य वेद पुराणों में किया गया हैं.
इस अस्त्र को पहली और आखिर बार उपयोग मेघनाद द्वारा राम और लक्ष्मण पर किया गया था.
नागपाश से जब किसी लक्ष्य पर भेदा गया तब उसमें से हजारों लाखों की
संख्या में साँप निकालकर लक्ष्य को पुरी तरह
जकड़ लेते है, जिससे वह मूर्च्छित हो जाता है और इसकी मृत्यु हो जाती हैं.
इन्द्रजीत की पत्नी सुलोचना सांपो के राजा दक्ष
की बेटी थी. और इसी कारण इन्द्रजीत की पहुँच दुनिया के महाभयानक सांपो तक थी.
इन्ही विशिष्ट महाभयानक सांपोकी सहायता से उसने नागपाश का निर्माण किया था. नागपाश
का उपयोग इन्द्रजीत के सिवा कभी किसीने नहीं किया, और शायद इन्द्रजीत की मृत्यु के
साथ इस अस्त्र की जानकारी भी समाप्त हो जाती हे. लंका की और से अगर किसी एक का नाम
सर्वश्रेष्ठ योद्धा कहकर लिया जा सकता था, तो वो था
इन्द्रजीत. इन्द्रजीत को ब्रह्मदंड, पाशुपतास्त्र के साथ
सैकड़ो दैवीय अस्त्र पता थे. युद्धभूमि पर वो अपने पिता रावण से कई गुना ज्यादा
खतरनाक था.
रामायण युद्ध में जब इन्द्रजीत जब
युद्धभूमि पर आता हे तो वो हजारों वानरों का संहार करने लगता हे, तब प्रभु राम और लक्ष्मण उसके
सामने युद्ध करने हेतु उतर जाते हे. दोनों और से घमासान युद्ध शुरू होता हे.
इन्द्रजीत के हर बाण का जवाब प्रभु राम और लक्ष्मण के पास होता है तो प्रभु राम और
लक्ष्मण के हर बाण का तोड़ इन्द्रजीत के पास होता था. शायद इन्द्रजीत उस दिन अपने
पराक्रम के चरम पर था, दोनों महाप्रतापी योद्धा प्रभु राम और
लक्ष्मण मिलकर भी उसके हरा नहीं पा रहे थे.
हर अस्त्र का जवाब किसी दूसरे अस्त्र से दिया जा
रहा था, कोई भी
हारने को या पीछे हटने को तैयार नहीं था. तब उस हालत में इन्द्रजीत नागपाश का
उपयोग करता है. ऊपर से साधारण दिखने वाले इस बाण को प्रभु राम भांप नहीं पाते और
मेघनाद का ये अस्त्र प्रभु राम और लक्ष्मण को जकड़ लेता है.
जब कोई भी इस अस्त्र का तोड़ नहीं निकाल पाता,
तब भगवान् श्रीराम की मुक्ति के लिए खुद भगवान् गरुड़ को अपने परिजनों को भेजना
पड़ा.
इंद्रजीत के नागपाश से बंधे राम और लक्ष्मण
राम की सेना के साथ अपने युद्ध के पहले दिन , इंद्रजीत अपने हथियारों के साथ तेज थे. अंगद ने इंद्रजीत को पराजित किया और उसे पीछे
हटने के लिए मजबूर कर दिया [10] हालांकि, उसने सुग्रीव की सेनाओं का तेजी से सफाया कर दिया , राम और लक्ष्मण को जादू-टोना की अपनी भ्रम की
रणनीति से सीधे युद्ध में आने का आह्वान किया, ताकि वह अपने मामा और अपने भाइयों की मौत का
बदला ले सके. जब लक्ष्मण उनके सामने प्रकट हुए, तो उन्होंने जमकर युद्ध किया और अपने सबसे नापाक
हथियार नागपाश (एक लाख सांपों से बना एक जाल) का इस्तेमाल किया. राम और लक्ष्मण बेदम होकर जमीन पर गिर पड़े. हनुमान के कहने पर उन्हें गरुड़ ने बचाया था. गरुड़ जटायु और संपाती के मामा थे और नागों के शत्रु और विष्णु के उड़ने वाले वाहन भी , जिनमें से राम सातवें अवतार थे.
जब इंद्रजीत को पता चला कि राम और लक्ष्मण दोनों को गरुड़ ने बचा
लिया था और वे अभी भी जीवित थे, तो वह क्रोधित हो गया और उस दिन कम से कम एक भाई
को मारने की कसम खाई. जब युद्ध शुरू हुआ, तो उसने सुग्रीव की सेनाओं पर कहर ढाने के लिए
अपनी पूरी ताकत झोंक दी. इस पर लक्ष्मण उनके सामने प्रकट हुए और उनका जमकर मुकाबला किया. इंद्रजीत ने अपनी सर्वोच्च जादुई शक्तियों का
उपयोग किया,
बादलों और आकाश में
बिजली की तरह दौड़ते हुए. उन्होंने अपने टोने-टोटके और भ्रम युद्ध के कौशल को जोड़ा, बार-बार गायब हो गए और लक्ष्मण की पीठ के पीछे
फिर से दिखाई दिए. वह अदृश्य था लेकिन उसके तीरों ने लक्ष्मण को
घायल कर दिया. इंद्रजीत ने लक्ष्मण के खिलाफ वासवी शक्ति का इस्तेमाल किया और सूली पर चढ़ाए जाने पर लक्ष्मण बेहोश हो गए, ठीक अगले सूर्योदय पर मरने के लिए तैयार थे. उनकी जान हनुमान ने बचाई थी, जो इंद्रजीत द्वारा इस्तेमाल किए गए हथियार के लिए उपाय (जादुई जड़ी - संजीवनी ) खोजने के लिए हिमालय से द्रोणागिरी के पूरे पहाड़ को रातोंरात लंका
ले आए और उसे ठीक कर दिया. हालांकि ऐसी झूठी अटकलें हैं कि राम ने भी युद्ध
किया था. धर्म कई योद्धाओं को एक के विरुद्ध लड़ने की
अनुमति नहीं देता है और केवल लक्ष्मण ही घायल हुए थे, क्योंकि एक अदृश्य योद्धा के
विरुद्ध लड़ना नैतिक कर्तव्य नहीं है.
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युद्धभूमि में दोनों भाई रक्त से
नहा उठे थे. उनके सारे अंगों में सर्प लिपटे हुए थे. तथा वे अत्यन्त पीड़ित एवम
व्यथित हो रहे थे. उनके शरीर में एक अंगुल मात्र भी ऐसी जगह नहीं थी जो बाणॊं से
बिंधी न हो.
नागपाश में बंधकर दोनो भाइयों को
चारों ओर से घेरकर सब वानर खड़े हो गये. हनुमान आदि मुख्य-मुख्य वानर व्यथित हो बड़े
विषाद में पड़ गये. इस समय दोनों भाई खून से लथपथ होकर सर्पों में बंधन से बंधे हुए
पृथ्वी पर पड़े हुए थे. वे धीरे-धीरे साँस ले रहे थे. उनकी सारी चेष्टाएँ बंद हो
गयी थीं. किसी को कोई कारगर उपाय नहीं सूझ रहा था कि कि नागपाश के बंधन से इन्हें
किस प्रकार से मुक्त कराया जा सकता है.
आकाश में स्थित रहते हुए
इन्द्रजित ने दोनों भाइयों को पृथ्वी पर निश्चेष्ट अवस्था में पड़ा देखा, यह देखकर
उसे बड़ा हर्ष हुआ. दोनो को मरा जानकर वह लंका लौट गया.
श्रीराम और लक्ष्मण के
शरीरों तथा अंग-उपांगों को नागों से बंधा
देख सुग्रीव के मन में भय गहराई से समा गया. उन्हें ऐसा भी लगने लगा था कि अब शायद ही इन दोनों भाइयों को बचाया जा सकता है?,
ऐसा कुविचार मन में आते ही उनकी आँखों से अश्रुपात होने लगा और अब वे फ़फ़क कर रो ही
पड़े....आसुओं की धारा बह निकली. गंभीर परिस्थिति को देखकर विभीषण सामने आये और
उन्होंने सुग्रीव से कहा- " हे महात्मन ! यह समय विलाप करने का नहीं
है....फ़िर इस तरह विलाप करने से समस्या हल नहीं होगी?. आप बुद्धिमान हैं....अतः आप
अपने आपको अधीर होने से बचायें. धैर्य धारण करें.
महान प्रराक्रमी राम तथा लक्ष्मण
जी नागपाश में बंधे मूर्च्छित अवस्था में धीमी-धीमी साँस ले रहे थे. सभी के मन में
शंका-कुशंका के जहरीले नाग फ़न उठाये विचर रहे थे. कोई नहीं जानता था कि कब क्या
घटित हो सकता है?. भय, मन की इतनी अधिक गहराई तक समा गया था ,जिसने यह सोचने पर
विवश कर दिया था कि कुछ ही समय पश्चात दोनों भाइयों का प्राणांत हो जाएगा.इस अपार
दुःख को वे आपस में नहीं कहते. दोनों हाथ बांधे वानरयूथपति निराशा के गर्त में
डूबे हुए थे.
पवनपुत्र हनुमान जी भी एक ओर खड़े होकर कोई कारगर
उपाय के बारे में गम्भीरता से विचार कर ही रहे थे. तभी जाम्बवन्त जी सामने आए.
उन्होंने हनुमान जी से कहा- हे पवनपुत्र ! क्या सोच रहे हो?. तुम रामजी के परम
भक्त हो और गरुड़ जी उनके वाहन. तुम्हारे और गरुड की पुरानी मित्रता है. संकट की इस
घड़ी में, एक मित्र ही दूसरे मित्र की सहायता कर सकता है. क्या तुम उन्हें भूल
गये?."
इस समय वे विष्णु जी के सेवा में
संलग्न होंगे. तुम तत्काल जाकर गरुड़ जी को ले आओ. इस भीषण संकट से वे ही प्रभु
श्रीराम और भैया लक्ष्मण को नागपाश से मुक्त करा सकते हैं."
जाम्बवंतजी के याद दिलाने पर
उन्हें सब कुछ याद आ गया. उन्होंने जाम्बवंतजी को प्रणाम किया और कहा- " जी महात्मन...! जैसी आपकी आज्ञा."
कहते हुए पवनपुत्र तीव्रगति से आसमान की ओर उछ्ले और अपने गंतव्य की ओर उड़ चले.
शीघ्र ही वे गरुड़ के पास जा
पहुँचे और सारा वृत्तांत कह सुनाया. तनिक भी विलम्ब न करते हुए गरुड़ वीर हनुमान जी
के साथ आकाशमार्ग से होते हुए उस स्थान पर आए,जहाँ प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण
नागपाश में बंधे हुए थे.
आकाश में उड़ान भरते हुए गरुड़ के
मन में एक संदेह उत्पन्न हुआ कि क्या श्रीराम भगवान विष्णु के अवतार है?. विष्णु
जी तो स्वयं शेषनाग की शैय्या पर विराजमान रहते हैं. शेषनाग तो चौबिसों प्रहर उन
पर छाया करते रहते हैं. यह कैसे संभव है कि वह उनके अवतारी राम को अपनी जकड़ में
कैसे बांध सकते हैं?. उनका सोचना तर्क संगत था. उन्होंने मन ही मन में निश्चय किया
कि वे स्वयं अपनी आँखों से श्रीरामजी को देखंगे, तब असलियत का पता चल जाएगा.
मन में गहरी शंका लिए गरुड़
हनुमानजी के साथ बिना कुछ बोले आकाशमार्ग से उस ओर बढ़े चल रहे, जिस स्थान पर राम
और लक्ष्मण नागफ़ांस में जकड़े हुए थे. वे चाहते तो अपनी शंका का समाधान पवनपुत्र
श्री हनुमान जी से प्रश्न पूछकर अपनी शंका निवारण कर सकते ते,लेकिन उन्होंने तब
ऐसा नहीं किया.
केवल गरुड़जी को ही शंका नही हो
रही थी, बल्कि शिव-पत्नी उमाजी के मन में भी यही शंका उपजी थी.
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श्री राम के साथ शेषनाग
ने लक्ष्मण के रूप में सुदर्शन ने भरत ओर गरुड़ ने शत्रुघ्न के रूप में अवतार लिया, क्योंकि प्रभु श्री राम का वो
अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम का था. इसीलिए उनकी लीला में सहायक
के रूप में इनको भी अवतार लेना पड़ा था. और श्री कृष्ण अवतार तो पूर्णावतार था,
इसलिए गरुड़ ओर सुदर्शन को अवतार की जरूरत नही थी. वो तो श्री कृष्ण के बुलाने पर
स्वयं ही उपस्थित हो सकते थे. ओर कृष्ण लीला में तो एक प्रसंग भी है जहाँ गरुड़ ,सुदर्शन का अभिमान तोड़ने के लिए हनुमान जी को भी
बुलाया था.
एक अन्य प्रसंग-
गरुड़ का आगमन.
इसका केवल एक ही उपचार था वह था स्वयं गरुड़ देवता के द्वारा नागपाश को काटना. इसका ज्ञान भगवान हनुमान को था और वे तुरंत गरुड़ देवता के पास पहुँच गये. गरुड़ देवता ने पहले इसे भगवान की माया समझकर जाने से मना किया. लेकिन हनुमान व नारद मुनि के समझाने से वे जाने को तैयार हो गए. उन्होंने गरुड़ देवता को सारी बात बताई व अपने साथ लंका ले आये.
नागपाश को काटना
गरुड़ देवता जैसे ही भगवान श्रीराम व लक्ष्मण के पास पहुंचे तो वे उन्हें देखते ही रह गये. उन्होंने अपनी चोंच से कद्रू के पुत्र नागों को काट डाला, व भगवान श्रीराम व लक्ष्मण को इससे मुक्ति दिलाई. नागपाश से मुक्ति पाते ही उनका प्रभाव कम हो गया व कुछ ही समय में दोनों को चेतना आ गयी.
चेतना में आने के पश्चात प्रभु ने गरुड़ देवता का धन्यवाद किया. इसके पश्चात गरुड़ देवता फिर से अपने लोक में चले गए व प्रभु पर आई विपत्ति टल गयी.-
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आकाश मार्ग से नीचे उतर कर वे दोनों उस स्थल पर पहुँचे, जहाँ दोनों भाई नागफांस में जकड़े हुए निश्चेष्ट पृथ्वी पर पड़े हुए थे. उन दोनों को आता देख, विभीषण जी ने वानरयूथपतियों और समस्त वानरों से
कहा कि वे कृपया उन्हें आने के मार्ग प्रशस्त करें. चारों
ओर से घेर कर खड़े वानर पीछे हट गये.
गरुड़जी ने देखा. देखा कि
अनेक विषधारी सर्पों ने दो भाइयों को अपनी
लपेट में ले लिया है और वे धीमी-धीमी साँस ले रहे है. गरुड़ जी ने सर्वप्रथम रामजी
के चेहरे की ओर दृष्टिपात किया. कुछ क्षण तक निहारने के बाद उन्हें अपने स्वामी
श्री हरि का मुखड़ा दिखाई दिया. फ़िर उन्होंने लक्ष्मण पर दृष्टिपात किया. देखा कि
स्वयं शेष वहाँ दिखाई दिये. यह सब देखकर उन्हें विस्मय हुआ कि -
ब्याल पास बस भए खरारी* स्वबस
अनंत एक अबिकारी
नट इव कपट चरित कर नाना* सदा
स्वतंत्र एक भगवाना.
रन सोभा लगि प्रभुहिं बंधायो,
नागपास देवन्ह भय पायो ( 72.तु.6-7 लंकाकांड)
गिरजा जासु नाम जपि, मुनि
काटहिं भव पास * सो कि बंध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास.(तु.73 लंका)
नागपाश में बंधे दोनों भाइयोंको
देखकर स्वयं शिवजी अपनी धर्मपत्नी उमा से कहते हैं -"जिनका नाम जप कर मुनि
संसार-पाश को काट देते हैं. वे सर्वेश्वर सर्वव्यापी विश्व-निवास प्रभु क्या कभी
बंधन में आ सकते हैं. नही, उन्हें संसार का कोई भी बंधन नहीं बांध सकता.
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आमतौर पर यह प्रश्न सदियों से उठता आ रहा है
कि नागों की उत्पत्ति कैसे हुई ? नाग और गरुड़ के बीच मतभेद
सदियों से चला आ रहा है. दरअसल नागों के बारे में भागवत्
पुराण में विस्तृत लेख मिलता है. कहते हैं कि कश्यप ऋर्षि की
दो पत्नियां थीं। एक का नाम बनिता और दूसरी पत्नी का नाम कद्रू था. एक बार कश्यप ने प्रसन्न होकर दोनों पत्नियों से वर मांगने को कहा. कद्रू
ने एक हजार वीर नागों की माता होनें का वर मांगा और बनिता ने एक वर से दो पुत्र
मांगे जो बाद में अरूण और गरुण के नाम से प्रसिद्ध हुए.
नागों की मां कद्रू को धरती का प्रतीक माना
जाता है. गरुड़ और अरुण की मां बनिता को स्वर्ग की
देवी माना जाता है.
एक दिन कश्यप दोनों पत्नियों में इस बात पर
विवाद खड़ा हो गया कि सूर्य के अश्व श्यामवर्ण के हैं या श्वेत। बनिता ने उनका रंग
श्वेत बताया, पर कद्रू नहीं मानीं. वह एक ही रट लगाए हुए थी कि अश्व श्याम वर्ण के हैं. बनिता ने आखिरी शर्त लगा दी कि अगर अश्वों का रंग श्वेत हुआ तो तुम और
तुम्हारे पुत्र हमारे दास रहेगें. कद्रू ने स्वीकार कर लिया।
शाम हुई. जब कद्रू ने अपने पुत्रों से इसकी चर्चा की तब शेषनाग को छोड़कर शेष सभी
पुत्रों ने कहा कि मां तुम चिंता मत करो, हम लोग जाकर अश्वों
से लिपट जाएंगे जिससे वे दूर से श्यामवर्ण के दिखाई देने लगेंगे. यह बात सुनकर कद्रू प्रसन्न हो गई.
परंतु बाद में बनिता को यह भेद पता चल गया और
तभी से गरुण और नागों की दुश्मनी चली आ रही है.
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खगपति सब धरि खाए., माया नाग
बरूथ * माया बिगत भए सब,हरषे बानर जूथ. (74तु.रामा)
गरुड़ और सर्पों के बीच पुरानी
दुश्मनी है. सर्पों को देखते ही गरुड़ को बड़ा क्रोध हो आया. वे उन पर झपट्टा मारे,
इससे पूर्व जब नागों ने गरुड़ को अपने पास आता देखा, तो वे भाग निकलने के लिए
छटापटाने लगे. लेकिन गरुड़ से बचकर जाते भी तो कहाँ? गरुड़ जी ने अपनी नुकिली चोंच
से उनके शरीर को जगह-जगह गोद डाला और उनका भक्षण करना प्रारंभ कर दिया. इस तरह
उन्होंने समस्त सर्पों को उदरस्थ कर लिया.
सर्पबंधन से मुक्त होते होने के
कुछ समय पश्चात श्रीरामजी और लक्ष्मण की मूर्च्छा दूर हुई और वे फुर्ती से उठ बैठे
जैसे कुछ हुआ ही न हो.
चैतन्य होने के पश्चात भी लक्ष्मण
जी अपनी पुरानी स्मृतियों मे ही थे.. मूर्च्छित होने से पूर्व वे इन्द्रजित से
युद्ध कर रह थे. उसी स्मृति में रहते हुए उन्होंने विभीषण जी से जानना चाहा कि
-"कहाँ है वह कायर इन्द्रजित......कहाँ जाकर छिप गया वह ? महात्मन ! वह मुझे
दिखाई क्यों नहीं दे रहा है.?.
रामजी की भी लगभग यही स्थिति थी.
उन्होंने भी जानना चाहा..." आप सब मुझे घेर कर क्यों खड़े हैं.? क्या युद्ध
समाप्त हो गया?. तुम लोग युद्ध करने के बजाए, यहाँ इकठ्ठा होकर क्या कर रहे
हैं.?" फ़िर गरुड़ की ओर निहारते हुए उन्हें
विस्मय हुआ और पूछा-" हे गरुड़ जी ! इस युद्ध में भला आपका क्या काम.?
आपका आगमन कब हुआ? तुम्हारे यहाँ आने का भला क्या प्रयोजन था.?".
गरुड़ जी भला क्या प्रत्युत्तर
देते..वे मौन धारण करते हुए विनीत भाव से हाथ जोड़े खड़े थे. राम और लक्ष्मण की
बातों को सुनकर वृद्ध गिद्दराज जामवन्त जी सामने आये और उन्होंने सारा समाचार कह
सुनाया.
०००००
" अनर्थ हो गया
पिताश्री......अनर्थ हो गया...अभी-अभी मेरे गुप्तचर ने आकर मुझे यह अशुभ समाचार
सुनाया कि राम और उसका अनुज लक्ष्मण नागपाश से मुक्त हो गए हैं. उन्हें बंधन से
मुक्त कराने में हनुमान की प्रमुख भूमिका थी. उस चालक वानर ने गरुड़ को बुलाकर
उन्हें नागपाश से मुक्त करा लिया. अब निश्चित ही वे हमारी लंका पर भीषण आक्रमण
करेंगे."
" हे पिताश्री ! युद्ध को
अंतिम मुहाने पर लाकर मैंने छोड़ दिया था, लेकिन इस हनुमान ने सब चौपट कर दिया.
मेरे पास सबसे बड़ी शक्ति के रुप में वहीं आखिरी ब्रह्मास्त्र था. मुझे अब अतिरिक्त
शक्ति प्राप्त करने के लिए माँ निकुम्भिला की शरण में जाना होगा. उनकी कृपा से ही
हम कल के युद्ध के लिए रणभूमि में उतर सकते हैं."
" पिताश्री ! मुझे अपना
आशीर्वाद दीजिए कि मैं माँ निकुम्भिला को प्रसन्न कर इच्छित शक्तियाँ प्राप्त कर लौटूँगा."
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जब इंद्रजीत को पता चला कि लक्ष्मण फिर से जीवित हो गया है, तो वह यज्ञ करने के लिए अपने मूल देवता के गुप्त
मंदिर में गया,
जो उसे एक योद्धा बना देगा
जिसे किसी के द्वारा नहीं मारा जा सकता. n , इंद्रजीत के चाचा, जिन्होंने रावण को राम में शामिल होने के लिए
छोड़ दिया था,
ने अपने भतीजे इंद्रजीत
की योजनाओं को अपने जासूसों के माध्यम से सीखा और राम को सचेत किया. लक्ष्मण और विभीषण ने "यज्ञनगर" में
इंद्रजीत का सामना करने का अवसर लिया, जहाँ इंद्रजीत किसी भी हथियार को नहीं छूएगा. जैसा कि वाल्मीकि रामायण उनके यज्ञ पर उद्धृत करता है लक्ष्मण की सेनाओं द्वारा
नष्ट किए जाने पर,
इंद्रजीत क्रोधित हो गए
और मंदिर की गुफा से बाहर निकल गए. लक्ष्मण के पास अपने मामा विभीषण को देखकर
इंद्रजीत का क्रोध कई गुना बढ़ गया. उन्होंने लक्ष्मण के साथ अपने चाचा विभीषण को एक
बार और हमेशा के लिए मारने की कसम खाई, यम-अस्त्र को ढीला कर दिया जिसे वह विभीषण के
कथित राजद्रोह को दंडित करने के लिए संरक्षित कर रहे थे. इस मोड़ पर, लक्ष्मण ने कुबेर की पूर्व चेतावनी के कारण यम-अस्त्र का मुकाबला
करते हुए विभीषण की रक्षा की. इंद्रजीत को एहसास हुआ कि लक्ष्मण कोई साधारण
इंसान नहीं थे और उन्होंने इंद्रजीत को हराने के लिए मानदंडों को पूरा किया था, यानी यज्ञ को विफल कर दिया और 12 साल से अधिक समय तक नहीं सोए. इंद्रजीत युद्ध के मैदान से कुछ समय के लिए गायब
हो गया,
शाही महल में रावण के
पास लौट आया,
और घटनाक्रम की सूचना
दी,
यह प्रस्ताव करते हुए
कि उसके पिता राम के साथ शांति स्थापित करें. रावण, गर्व से अंधा, अविश्वसनीय और नाराज था, यह दावा करते हुए कि इंद्रजीत युद्ध के मैदान से
भाग जाने के लिए कायर था. इस आरोप ने इंद्रजीत को उत्तेजित कर दिया, जिसने कुछ समय के लिए अपना आपा खो दिया, पराक्रमी रावण के दिल में भी डर पैदा हो गया और
उसने अपने पिता से माफी मांगने और स्पष्ट करने से पहले कहा कि एक पुत्र के रूप में
उसका प्राथमिक कर्तव्य अपने पिता के सर्वोत्तम हितों की सेवा करना है और मृत्यु के
सामने भी,
वह रावण को कभी मत
छोड़ना युद्ध में लौटने की तैयारी करते हुए और यह जानते
हुए कि उसे वास्तव में एक स्वर्गीय अवतार के हाथों मृत्यु का सामना करना पड़ा, इंद्रजीत ने अपने माता-पिता और अपनी पत्नी को
अंतिम अलविदा कहा। वह युद्ध के मैदान में लौट आया और भ्रम युद्ध और
जादू-टोना दोनों में अपने सभी कौशल के साथ लक्ष्मण का मुकाबला किया. इंद्रजीत के तीरों ने लक्ष्मण को नुकसान
पहुंचाने से इनकार कर दिया क्योंकि लक्ष्मण शेषावतार थे . लक्ष्मण ने अंजलिकास्त्र से इंद्रजीत का सिर काटकर उसका वध कर दिया. यह केवल इंद्रजीत को
शेषा द्वारा उसकी अनुमति के बिना अपनी बेटी से शादी
करने के लिए दिए गए. श्राप के कारण ही संभव हुआ था. इंद्रजीत को मारने के
लिए शेषा ने राम के भाई लक्ष्मण के रूप में अवतार लिया, उन्हें अपने वनवास के दौरान बारह साल से अधिक
समय तक नींद नहीं आई, ताकि वे राम और सीता की कुशलता से सेवा कर सकें और इंद्रजीत को
मारने के मानदंडों को पूरा कर सकें। [6]
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लंकेश ने उसका माथा सूंघा और हृदय
से लगाते हुए उसकी कलाई में रक्षा-सूत्र बांधते हुए कहा-"
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः,
तेन त्वाम अभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल"
उसके हाथ में रक्षासूत्र बांधते हुए ,आशीर्वाद देते हुए कहा-" हे पुत्र ! मैं
तुम्हारी रक्षा के इस धागे को वैसे ही बांधता हूँ जैसे राक्षसों के महान पराक्रमी
राजा बलि को बांधा गया था.
न ही कश्चित् विजानाति किं
कस्य् श्वो भविष्यति * अत्ः श्र्व्ः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्,-
हे पुत्र ! कल क्या होगा कोई नहीं जानता, इसलिए
जो कल का काम आज कर सकता है, वही बुद्धिमान् है."
"नाभिषेको न संस्कारः
सिंहस्य क्रियते वने * विक्र्मार्जितसात्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता.-
हे पुत्र ! तुम स्वयं गुणवान
हो...पराक्रमी हो.जैसे जंगल में शेर को राजा नियुक्त करने के लिए कोई संस्कार नहीं
किया जाता. इसी प्रकार तुम्हें अलग से संस्कारित करने की आवश्यकता नहीं है. पुत्र
! तुम लंका के भावी राजा हो, तुम्हें माँ को प्रसन्न करने में सफ़लता प्राप्त होगी.
इसमें तनिक भी संदेह नहीं है. "
" जाओ ...मेरे पुत्र
जाओ.....माँ निकुम्भिला तुम्हें अपना आशीर्वाद प्रदान करें....मेरा आशीर्वाद सदा
तुम्हारे साथा है." रावण ने आशीर्वाद देते हुए इन्द्रजित से कहा.
"सुसूक्ष्मेणापि रंध्रेण
प्राविश्याभ्यंतरं रिपुः नाशयेत् च शनैः पश्चत् प्लवं सलिलपूर्त्".
" पिताश्री ! आपका आशार्वाद प्राप्त कर मैं
धन्य हुआ. निश्चित ही मैं माता को प्रसन्न कर इच्छित वरदान प्राप्त करके लौटूँगा.
लेकिन इस बात को विशेष रूप से गोपनीय रखा जाना बहुत जरुरी है. इसका पता किसी को
भी नहीं लगना चाहिए कि मैं माता निकुम्भिला जी को प्रसन्न करने जा रहा हूँ. यदि
हमारे दुश्मन को इसका रहस्य मिल जाएगा तो वह बेखेड़ा कर देगा, जैसे एक पतला-सा छेद
भी नाव को डूबो देता है." मेघनाथ ने अपने मन की व्यथा अपने पिता पर उजागर
करते हुए कहा.
" ऐसा ही होगा पुत्र...ऐसा
ही होगा..." तुम निश्चिंत हो कर जाओ और सफ़लता प्राप्त करके लौटो." लंकेश
ने पुनः आशीर्वाद देते हुए कहा.
अपने पिता से आशीर्वाद प्राप्त
करने के पश्चात इन्द्रजित ने अपनी दोनों आँखों को बंद करते हुए किसी मंत्र का जाप
किया और अंतर्धान हो गया.
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प्रत्यंगिरा देवी.अथवा निकुम्भिला
देवी.
एक हिन्दू देवी हैं. इनका सिर सिंह का है और शेष शरीर नारी का है. प्रत्यंगिरा शक्ति स्वरूपा हैं. वे विष्णु, रुद्र तथा दुर्गा देवी के एकीकृत रूप हैं. आदि पराशक्ति महादेवी का यह तीव्र रूप महादेव के शरभ अवतार की शक्ति है. प्रभु नरसिंह और प्रभु शरभ में हो रहे भीषण युद्ध पर इन्होंने ही रोक लगाई थी. दोनों के शक्तियों
को स्वयं में समा कर देवी ने ही दोनों के क्रोध को शांत किया. उन्हें अपराजिता तथा निकुम्बला के नाम से भी जाना जाता हैं. रावण के कुल की आराध्या देवी प्रत्यंगिरा ही थी।
देवी प्रत्यंगिरा
हरि और हर अर्थात विष्णु और शिव, दोनों की शक्ति के निष्पादक होने के लिए शास्त्रों ने उन्हें देवी की उत्पत्ति का श्रेय दिया है. शास्त्रों में, जब भगवान नारायण ने भगवान नरसिंह का तमस अवतार लिया, तो वे अपने हाथों से हिरणकश्यप का वध करने के बाद भी शांत नहीं हुए. आंतरिक आवेग और क्रोध ने
नरसिंह को उस युग के हर नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति का अंत करने के अपने आग्रह को
नियंत्रित नहीं करने दिया. वे अजेय भी थे. देवताओं ने नरसिंह अवतरण को शांत करने के लिए भगवान शिव से दया की प्रार्थना की. अनाथों के स्वामी, महादेव ने तब शरभ का रूप धारण किया, जो आधा सिंह और आधा पक्षी था. वे दोनों बड़े
पैमाने पर और लंबे समय तक बिना किसी परिणाम के साथ लड़ते रहे. हरि और हर के बीच के युद्ध को रोकना असंभव प्रतीत हो रहा था, इसलिए देवताओं ने देवी महाशक्ति महा योगमाया दुर्गा का आह्वान किया, जो अपने मूल रूप में भगवान शिव की पत्नी हैं तथा उनके पास नारायण को योगनिद्रा में विलीन करने की व्यापक क्षमता भी थी, क्योंकि वे स्वयं योगनिद्रा हैं. देवी महामाया ने फिर आधे सिंह और आधे मानव का देह धारण किया. देवी उनके सामने इस तीव्र स्वरूप में प्रकट हुई और अपने प्रचण्ड हुंकार से उन दोनों को स्तब्ध कर दिया,
जिससे उन दोनों के बीच
का भीषण युद्ध समाप्त हो गया और सृष्टि से प्रलय का संकट टल गया.
देवी प्रत्यंगिरा नारायण तथा शिव की संयुक्त विनाशकारी शक्ति रखती है और शेर और मानव रूपों का यह
संयोजन अच्छाई और बुराई के संतुलन का प्रतिनिधित्व करता है. देवी को अघोर
लक्ष्मी, सिद्ध
लक्ष्मी, पूर्ण
चन्डी, अथर्वन भद्रकाली, आदि नामों से भी भक्तों द्वारा संबोधित किया जाता है.
मान्यताओं के आधार पर रावण की कुलदेवी
निकुम्भिला देवी का मन्दिर जिसमें मेघनाथ ने पूजा की थी. वह श्रीलंका में मौजूद
था.
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नागपाश से विमुक्त होने के बाद राम का
चंचल मन स्थिर नहीं हो पा रहा था. तरह-तरह के विचारों की तरंगे उनके मन में उठतीं.
वे एक को सुलझाते तो दूसरी में उलझ जाते थे. अपने अन्तरमन में खोये हुए थे राम.
इसी बीच महात्मा विभीषण ने श्रीरामजी से कुछ कहा, लेकिन वे न तो उस बात को पूरी
तरह से सुन सके और न ही समझ सके थे.
धैर्य धारण करते हुए उन्होंने विभीषण से
कहा- " आप शायद मुझसे कुछ कह रहे थे, जिसे मैं सुन नहीं सका और न ही समझ सका.
हे सखे ! आप भला मुझसे क्या कहने वाले थे?. रामजी ने जानना चाहा.
’ हे महाबाहो ! आपने मुझसे सेनाओं
को यथास्थान स्थापित करने की आज्ञा दी थी,
वह काम मैंने आज्ञा होते ही पूरा कर दिया. सेना को विभक्त करते हुए मैंने लंकापुरी
के दरवाजों पर स्थापित करते हुए यूथपतियों को भी नियुक्त कर दिया है."
" हे प्रभु ! बिना किसी कारण के
आपके संतप्त होने से, हम लोगों के हृदय में भी बड़ा संताप हो रहा है. अतः हे प्रभु
! किसी भी तरह की चिंता को मन में धारण न
करें...उसे त्याग दें...शत्रु पक्ष यदि इसे जान लेगा, तो हर्ष ही मनाएगा कि हमने
ऐसा कर दिखाया. यदि आप माता सीता को पाना और निशाचरों का वध करना चाहते हैं, तो
उद्योग कीजिए, हर्ष और उत्साह का सहारा लीजिए."
" हे रघुनन्दन ! मैं आपको एक अति आवश्यक बात बता रहा हूँ. कृपया आप उसे गंभीरता से सुनने की कृपा करें.
मुझे विश्वसनीय सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि इन्द्रजित अभी-अभी निकुम्भिला देवी के
मन्दिर गया है. वहाँ जाकर वह एक अनुष्ठान करेगा और माता को प्रसन्न कर अभय होने
का वरदान मांगेगा और अस्त्र-शस्त्र भी प्राप्त कर लेगा."
" उस वीर ने तपस्या करके ब्रह्माजी
से वरदान में ब्रह्मशिर नामक अस्त्र और मनचाही गति से चलने वाले घोड़े प्राप्त किये
हैं. निश्चय ही इस समय सेना के साथ वह निकुम्भिला देवी के मन्दिर में गया है. वहाँ
से हवन-कर्म समाप्त करके यदि वह उठेगा, तो हम सब लोगों को उसके हाथ से मरा ही समझिये."
" हे प्रभो ! संपूर्ण लोकों के स्वामी ब्रह्माजी ने उसे
वरदान देते हुए कहा था-" हे इन्द्रजित ! निकुम्भिला नामक वट-वृक्ष के पास
पहुँचने तथा हवन-सम्बन्धि कार्य पूर्ण करने से पहले ही जो शत्रु तुझे मारने के लिए
आक्रमण करेगा, उसी के हाथ से तुम्हारा वध होगा."
" इसलिये हे श्रीराम ! आप इन्द्रजित
का वध करने के लिए महाबली लक्ष्मण को
तुरंत आज्ञा दीजिये. उसके मारे जाने पर रावण को मरा हुआ ही समझिये."
" हे प्रभु ! मैं पराक्रमी
इन्द्रजित के पराक्रम को और उसकी माया को जानता हूँ. वह ब्रह्मास्त्र का ज्ञाता,
बुद्धिमान, बहुत बड़ा मायावी और महान बलवान है. वरुण सहित वह सम्पूर्ण देवताओं को
युद्ध में अचेत कर सकता है."
" हे महाबाहो ! जब वह रथ पर आरुढ़
होकर आकाश में विचरने लगता है, उस समय बादलों में छिपे हुए सूर्य की भांति उसकी
गति का पता नहीं चलता. हे प्रभु! जितनी शीघ्रता से आप भैया लक्ष्मण को भेज सकें
उतना ही अच्छा होगा." यह कहकर विभीषण जी श्रीरामजी के उत्तर की प्रतीक्षा
करने लगे.
कुछ ही क्षणॊं के पश्चात रामजी ने
कहा-" हे सत्यवादी विभीषण जी ! मैं उस राक्षस की माया को जानता हूँ. वह
ब्रह्मास्त्र का ज्ञाता, शूरवीर, बुद्धिमान और देवताओं को भी परास्त करने में
समर्थ है." विभीषण जी को आश्वस्त करते हुए उन्होंने लक्ष्मण से कहा- "
अनुज लक्ष्मण ! महात्मा विभीषण की कही गयीं बातें सत्य हैं. तुम सुग्रीवजी की सेना
के सहित वीर हनुमान, ऋक्षराज जाम्बवान और अन्य सैनिकों को लेकर मायाबल से सम्पन्न
इन्द्रजित का वध करो."
" चुंकि तुम्हें उस गुप्त स्थान की
जानकारी नहीं है कि वह मन्दिर किस दिशा में अवस्थित है. वहाँ पहुँचने का सुगम
मार्ग कौन-सा है. अतः तुम विभीषण जी तथा अपने अन्य मंत्री लेकर प्रस्थान करेंगे.
महात्मा विभीषण तुम्हारे पीछे-पीछे चलकर उस स्थान तक लेकर जायेंगे."
" जी भैया..! जैसी आपकी
आज्ञा." कहते हुए वीर लक्ष्मण ने अपने तरकस में विशेष बाणॊं को रखा. अपना
धनुष उठाया. और अपने भ्राता के चरणॊं में प्रणाम निवेदित कर जाने की आज्ञा मांगी.
" विजयी भव " कहते हुए
उन्होंने लक्ष्मण को अपना आशीर्वाद देते कहा-" सुमित्रानंदन ! तुम निश्चित ही
उस भयंकर राक्षस पर विजय प्राप्त कर लौटोगे. अब शीघ्रता से जाओ."
दूर तक का रास्ता तै करके के पश्चात
लक्ष्मण ने दूर से ही देखा, राक्षसों की सेना पहले से ही मोर्चा बाँधे खड़ी है.
विभीषण जी ने लक्ष्मण को परामर्श देते हुए
कहा-" भैया लक्ष्मण ! विलम्ब मत कीजिए. आप अपने वानर सैनिकों को तत्काल
आक्रमण करने की आज्ञा दीजिए और आप इस विशाल वाहिनी के व्यूह का भेदन करने का
प्रयत्न कीजिए. इनका मोर्चा टूटने के पश्चात ही इन्द्रजित दिखाई देगा. इन्द्रजित
की हवन-कर्म की समाप्ति से पहले, आप अपने तीखे बाणों की वर्षा करते हुए शत्रुओं पर
शीघ्र धावा कीजिए."
विभीषण के परामर्श को उचित मानते हुए वीर
लक्ष्मण ने बाणॊं की वर्षा करते हुए धावा कर दिया. देखते-ही-देखते दोनों सेनाओं के
मध्य भीषण युद्ध आरंभ हो गया. वानर-सेना बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़ कर राक्षसों पर
टूट पड़े. उधर राक्षसे सेना भी तीखे बाण, तलवार, तोमर सहित अनेक अस्त्र-शस्त्र का
प्रहार करने लगे. वानर-सैनिकों ने अनेकानेक राक्षसों का वध कर दिया.
हवन करने में संलग्न इन्द्रजित अपने आसन
पर विराजमान होकर माँ निकुम्भिला के मंत्रों का जाप करता हुआ हवन-सामग्रियाँ
यज्ञवेदी में डाल रहा था. उसका सारा ध्यान पूजा-पाठ में लगा हुआ था, तभी उसने
भयंकर शोर सुना और पीछे मुड़कर देखा कि लक्ष्मण अपने सैनिकों के साथ उस गुप्त
मन्दिर के भीतर प्रवेश कर चुका है. उसने न
सिर्फ़ मेरी राक्षसी-सेना का चक्रव्यूह बुरी तरह से तोड़ दिया है बल्कि मेरे अनेक
वीर सैनिकों का वध कर दिया है.और संभव है कि वह मुझ पर भी आक्रमण कर देगा.
ऐसा विचार उत्पन्न होते ही वह अपने स्थान
से उठ खड़ा हुआ और एक सुसज्जित रथ पर आरुढ़ हो गया, जो पहले से ही तैयार करके रखा गया
था. उसके हाथ में भयंकर धनुष और बाण थे. अपने यज्ञ का विध्वंश हुआ जानकर उसे बहुत
क्रोध हो आया था. उसके नेत्रों से लाल-लाल दहकते हुए अंगारे की तरह प्रकाश निकल
रहा था. वह भयंकर राक्षस विनाशकारी मृत्यु के समान प्रतीत हो रहा था.
उसे रोकने के लिए पवनपुत्र हनुमान ने एक
विशाल वृक्ष को उखाड़कर उसे चारों दिशाओं में घुमाया और लक्ष्य लेकर इन्द्राजित पर
उछाल दिया. फ़िर अन्य वृक्ष को उखाड़ कर शत्रु-सेना को ध्वस्त करने लगे. शत्रु-सेना
भी बहुत से परिधों, भालों,मुद्गरों, फ़रसों आदि से वीर हनुमान जी को घेर कर प्रहार
करने लगे. वे अविचल भाव से अपने शत्रुओं का संहार करने लगे.
रथ पर आरुढ़ इन्द्रजित ने देखा कि वीर
हनुमान उसकी सेना का बुरी तरह से संहार कर रहे हैं, तो उसने अपने सारथी से कहा कि
वह उसका रथ उस ओर ले चले. उसे पक्का विश्वास हो चला था कि यदि इस वानर को नहीं
रोका गया तो यह मेरी समूची सेना का अकेले ही विध्वंश कर देगा.
वहाँ पहुँचते ही इन्द्रजित ने हनुमान के
मस्तक पर बाणों,तलवारों, पट्टिशों और फ़रसों की वर्षा आरम्भ कर दी. अचानक अपने पर
प्रहार करता देख हनुमानजी को बहुत क्रोध हो आया और उन्होंने उस दुष्ट राक्षसकुमार
इन्द्रजित को ललकारते हुए कहा-" हे निर्लज्ज इन्द्रजित ! दूर रथ में बैठकर
मुझ अकेले पर आक्रमण कर तू कौन बड़ी वीरता का परिचय दे रहा है?. यदि तुझमें साहस है
तो आ...मुझ से मल्लयुद्ध कर. तुम मुझसे भिड़कर जीवित नहीं बचोगे. यदि तुम बाहुयुद्ध
में मेरा वेग सह लोगे तो मैं तुम्हें राक्षसों में श्रेष्ठ वीर समझे जाओगे."
एक अकेला वानर उसे मल्लयुद्ध करने के लिए
ललकार रहा था. यह बात उसे असह्य होने लगी थी. वह यह सोचने पर विवश हुआ कि-जिस वीर
ने अकेले ही इन्द्र को खेल-खेल में पराजित कर दिया था, यह वानर मुझ जैसे महावीर को
ललकार रहा है. अत्यन्त क्रोध में भरते हुए उसने हनुमान जी पर भीषण आघात किया.
विभीषण इस विकट परिस्थिति को समझ चुके
थे. समझ चुके थे कि यह दुष्ट अब हनुमान का संहार करके ही दम लेगा. उचित अवसर पाकर
उन्होंने लक्ष्मण से कहा-" हे
सुमित्रानंदन ! रावण का यह पुत्र इन्द्रजित हनुमान का वध करना चाह रहा है. अतः
विलम्ब न करते हुए आप अपने प्राणान्तकारी बाणों से इसे मार डालिये."
विभीषण कुछ और कह पाते कि उन्होंने देखा
राक्षसराज इन्द्रजित, जो अब तक बादलों की ओट में छिपकर वीर हनुमान पर भयंकर प्रहार
कर रहा था, दिखाई दिया. वे वीर लक्ष्मण को लेकर उस वन प्रांत में पहुँचे. फ़िर एक
स्थान पर रूकते हुए उन्होंने लक्ष्मण को बताया-" भैया लक्ष्मण ! इस भयंकर
दिखाई देने वाले श्याममेघ वटवृक्ष को
देखिए. इसी स्थान पर इन्द्रजित प्रतिदिन यहाँ आकर पहले भूतों की बलि देता है और
उसके बाद युद्ध में प्रस्तुत होता है. वह यहाँ तक आ पहुँचे उससे पूर्व आप इसके रथ
को नष्ट कर दीजिए और सारथी और घोड़ों को मार गिराइये.
अपने काका विभीषण को साथ में उपस्थित
पाकर उसने कठोर शब्दों में कहा-" काका ! यहीं तुम्हारा जन्म हुआ और यहीं रहते
हुए तुम बड़े हुए हो. तुम मेरे पिता के सगे भाई और मेरे चाचा हो. फ़िर भी तुम अपने
पुत्र से क्यों द्रोह करते हो ?. न तो आपको अपने पारिवारिक जनों से स्नेह है और न
ही कभी आपने अपनापन बताया है?. इतना ही नहीं,
कभी अपनी जाति पर अभिमान ही जताया है?. तुममें कर्तव्य-अकर्तव्य की
मर्यादा, भातृप्रेम और धर्म कुछ भी नहीं है. तुम राक्षस-कुल के कलंक
हो...कलंक.."
" चाचा ! छीं.. अपने स्वजनों का त्याग करके, बनवासी राम
की गुलामी स्वीकार करते हुए तुम्हें तनिक भी लज्जा नहीं आयी?. चुल्लु भर पानी में
डूब क्यों नही मरे? अपने ही स्वजनों को मार कर तुम्हें क्या स्वर्ग मिलने वाला
है?. अपने ही परिवार के सदस्यों को मरवाने के बाद वो बनवासी राम तुम्हें कौन-सा
पुरस्कार देने वाला है, हम भी तो सुनें.?
"हे परिवार के द्रोही चाचा ! अपने स्वजन चाहे जितने गुणी हों, चाहे
जितने निर्गुणी, प्राणों से ज्यादा प्रिय
होते हैं. फ़िर अपने पक्ष को छोड़कर दूसरों की सेवा करना क्या उचित है.? जब तुम
अपनों के नहीं हो सके, तो तुम दूसरों के भी क्या हो सकते हो?."
"राम राजनीति में कुशल तो है, लेकिन
इतना धूर्त भी है कि अपना काम निकल जाने के बाद वह तुम्हें भी मार डालेगा. राजनीति
भी यही कहती है कि जो तुम्हारा नहीं हो सका और किसी और का नहीं हो सकता."
"मेरे पिता के छोटे भाई ! तुम मेरे अपने शत्रु को साथ लेकर उस स्थान तक
ले आए, जहाँ से मैं ऊर्जावान होकर उसका वध कर सकूँ. लेकिन तुमने निर्दयता की सारी
सीमाओं को लांघकर, अपने ही सगे भतीजे का वध करवाने का षड़यंत्र रच
दिया....तुम्हारे सिवा दूसरे किसी स्वजन के लिए ऐसा करना सम्भव नहीं है...धिक्कार
है तुम्हें धिक्कार है." इन्द्रजित ने अपने चाचा विभीषण से अप्रिय वचन बोलते
हुए कहा.
अपने भतिजे के दुर्वचनों को सुनकर
महात्मा विभीषण ने कहा- "हे अधम
राक्षसराजकुमार ! बड़ों के बड़प्पन का खयाल न करते हुए तुम असम्मानजनक बातें कर रहे
हो. तुम किसी और से नहीं अपने चाचा से बात कर रहे हो, इसका तो तुम्हें ध्यान रखना
था."
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि
तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं।।
"बड़ों का अभिवादन
करने वाले मनुष्य की और नित्य वृद्धों की सेवा करने वाले
मनुष्य की आयु,
विद्या, यश और बल ये हमेशा बढ़ती रहती है. यदि तुम
सच्चरित होते तो मैं तुम्हें आशीर्वाद देता. लेकिन तुम मेरा सरासर अपमान करने में
लगे हुए हो.
कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु: अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा॥
" हे राक्षसराज ! न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और
शत्रु बनते हैं.
"तुम्हारा कथन एकदम सत्य है कि
मैंने राक्षसकुल में जन्म लिया है, यद्यपि मेरा शील-स्वभाव राक्षसों-सा नहीं है.
जो सत्पुरुषों में उत्तम गुण होते हैं, मैने उसी का आश्रय ले रखा है. मैं चाहकर भी
क्रूरता नहीं कर सकता. इसमें मुझे तनिक भी रुचि नहीं है. अधर्म के प्रति तो बिलकुल
भी नहीं. यदि अपने भाई का शील स्वभाव अपने से न मिलता, तो भी बड़ा भाई छोटे भाई को
घर से कैसे निकाल सकता है.? जब बड़े भाई ने लात का प्रहार कर मुझे लंका से
निष्कासित कर दिया, ऐसी परिस्थिति में मुझे किसी दूसरे सत्पुरुष का आश्रय लेना
पड़ा."
" हे मेघनाथ ! जिसका शील-स्वभाव
धर्म से भ्रष्ट हो गया हो,जिसने केवल और केवल पापकर्म करने का दृढ़ निश्चय कर लिया
हो, ऐसे पुरुष का त्याग करके, प्रत्येक प्राणी उसी प्रकार से सुखी होता है, जैसे
हाथ पर बैठे हुए जहरीले सर्प को त्याग देने से मनुष्य निर्भय हो जाता है..जो
व्यक्ति दूसरों का धन लूटता हो, पराई स्त्रियों का अपहरण करता हो, उस दुरात्मा को
जलते हुए घर की भांति त्याग देने योग्य बताया गया है.
त्रिविधम् नरकस्येदं द्वारं नाशनाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं
त्यजेत्।।
काम, क्रोध और लोभ ये ऐसे
त्रिविध दुर्गुण है, जो मनुष्य को अधोगति में ले जाते हैं. काम में पड़कर मनुष्य
सही एवं गलत का भेद भूल जाता है और अनुचित मार्ग पर चलने लगता है. फ़िर क्रोध में
आकर अपनी बुद्धि का नाश कर बैठता है. इसी प्रकार लोभ के प्रभाव में आकर संतोष जैसे
गुण को भूल जाता है और अशिष्ट आचरण करने लगता है.ऐसे त्रिदोषॊं से लिप्त व्यक्ति
का त्याग कर देना ही उचित है..
दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालंकृतोsपि सन्। मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकरः।।
कहा गया है-
"विद्यावान होने पर भी दुर्जन का त्याग कर देना उचित है. क्या मणि धारण करने
वाला सांप भय उत्पन्न नहीं करता? कहा जाता है सांप के पास मणि होती है जिसकी वजह से वह सुंदर दिखता है, लेकिन फिर भी वह जहरीला तो होता ही है. लोग उसके पास जाने से डरते हैं और डरना भी चाहिए. इसी तरह पढ़ा-लिखा विद्वान परन्तु बुरा आदमी भी उसी मणिवाले सांप की भांति है. उसकी संगत छोड़ देना ही उचित है. तुम्हारा पिता वेद-पुराणॊं का
ज्ञाता है... प्रकाण्ड पंडित होने के पश्चात भी दुर्जन है. इसी कारण मुझे उसका
त्याग कर श्रीरामजी का आश्रय लेना उचित लगा."
"दुर्जनेषु च सर्पेषु वरं
सर्पो न दुर्जनः। सर्पो दंशति कालेन
दुर्जनस्तु पदे-पदे।।"
"दुष्ट
और साँप, इन दोनों में साँप अच्छा है, न कि दुष्ट . साँप तो एक ही बार डसता है, किन्तु
दुष्ट तो पग-पग पर डसता रहता है. तुम्हारे पिता ने मुझ पर अत्याचार ही किया है.
यही कारण है कि मैं रामजी के शरण में आया."
मनस्वी म्रियते कामं
कार्पण्यं न तु गच्छति।
अपि
निर्वाणमायाति नानलो याति शीतताम्।।
" हे मेघनाथ ! स्वाभिमानी लोग अपमानजनक जीवन की
अपेक्षा मृत्यु को प्राथमिकता देते हैं. आग बुझती तो है लेकिन ठंडी नहीं होती. तुम
जैसे दुष्टॊं का त्याग करना, मुझ जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए आवश्यक था.
" हे अभिमानी बालक ! तू अत्यन्त ही घमण्डी, अभिमानी,
उद्दण्ड और मूर्ख है. तू काल के वश हो चुका है. इसलिए तुझे जो कहना है, वह कहता
रहे."
" नीच राक्षस !
तूने मुझसे जो कठोर बातें कही है, उसी का फल तूझे आज शीघ्र ही मिलने जा रहा
है. इतना जान ले कि तू इस बरगद के पेड़ के नीचे नहीं जा सकता."
" लक्ष्मण का
तिरस्कार करके तू जीवित नहीं रह सकता. अब तू अपना बड़ा बल दिखा, अपने समस्त आयुधों
का व्यय कर ले, परंतु तू लक्ष्मण के बाणॊं का निशाना बनकर आज तू आज अपनी सेना सहित
जीवित नहीं लौट सकेगा." महात्मा विभीषण ने इन्द्रजित से कहा.
अत्यन्त रोष में भरते हुए उसने विभीषण, सुमित्राकुमार
लक्षमण और सेनानायको से कहा-"शत्रुओं ! सुनो...आज तुम मेरा पराक्रम देखना.
तुम सब मेरे धनुष से छूटे हुए बाणों की दुःसह वर्षा से जीवित नहीं बचोगे. मेरे बाण
तुम्हें इस तरह जलाकर भस्मी-भूत कर देंगे, जैसे आग रूई के ढेर को जला देती है. जिस
समय मैं बाणॊं की वर्षा आरम्भ करूँगा. देखता हूँ, उस समय कौन मेरे सामने ठहर
सकेगा.?"
फ़िर ललकारते हुए लक्ष्मण से कहा-" लक्ष्मण ! मेरे
संघाती बाण से तू मूर्च्छित होकर पड़ा रहा, क्या तुम्हें उस बात का स्मरण नहीं हो
रहा है?. मुझे जान पड़ता है कि तुम यमलोक जाने में उद्यत हो."
इन्द्रजित की गर्वीली बातों को सुनकर लक्ष्मण जी का धैर्य
डोल गया. उन्होंने उसको प्रत्युत्तर देते हुए कहा-" तुम्हारा यह घोषणा
निर्मूल है कि तुम हम सबका वध कर दोगे. स्मरण में रहे कि गरजने वाले बादल बरसते
नहीं है".
"दुर्मते ! तुम अपने अभीष्ट कार्य को पूरा नहीं कर पाओगे. इस समय मैं
तुम्हारे मार्ग में आकर खड़ा हूँ. तुम अपना तेज दिखाऒ...बातें बनाना बंद करो."
" लक्ष्मण ! सावधान. लो संभाओ मेरे घातक बाणॊं के
प्रहारों को." कहते हुए उसने लक्ष्मण की ओर लक्ष्य लेकर प्रहार कर दिया. सर्प
की तरह फुंफकारते हुए तीर लक्ष्मण के शरीर पर पड़ने लगे, जिसके आघात से लक्ष्मण को
घायल कर दिया. शरीर क्षत-विक्षत हो गया.
"लक्ष्मण ! मेरे धनुष से छूटे हुए ये पंखधारी बाण आज
तुम्हारे प्राण लेकर ही रहेंगे. इतना ही नहीं तुम्हारे भाई राम को भी तुम मरता हुआ
देखोगे. मेरे एक बाण से तुम्हारा कवच पृथ्वी पर गिर पड़ेगा. दूसरे बाण से तुम्हारा
धनुष खण्ड-खण्ड हो जाएगा और तीसरा बाण तुम्हारा मस्तक भी धड़ से काटकर अलग कर देगा.
इसी अवस्था में आज तुम्हारा भाई राम भी मेरे हाथों मारा जाएगा."
कुछ भी न कहते हुए लक्ष्मण ने अपने धनुष पर एक घातक तीर को
रखा और कान तक खींचकर छोड़ दिया. उस बाण से इन्द्रजित बुरी तरह से घायल कर दिया,
दोनों ओर से बाणॊं की वर्षा होने लगी. दोनों ही एक-दूसरे पर विजय पाना चाहते थे.
लक्ष्मण ने विषधर सपों के समान एक साथ कई भयंकर बाणॊं को धनुष पर चढ़ाया और लक्ष्य
लेकर संधान कर दिया. बाणॊं से घायल होकर इद्रजित मूर्च्छित हो गया. मूर्च्छा हटने
पर उसने अनेक घातक अस्त्र-शस्त्र लक्ष्मण पर चलाए, जो निष्फ़ल होकर पृथ्वी पर गिर
पड़े.
दोनों के बीच युद्ध चरम पर था. दोनों के शरीर बाणॊं से ढंक
गए थे. इस तरह युद्ध करते-करते बहुत समय व्यतीत हो गया, परन्तु वे दोनों न तो
युद्ध से विमुख हुए और न ही उन्हें कोई थकावट ही हो रही थी.
लक्ष्मण और इन्द्रजित दो मदमत्त हाथियों की भांति परस्पर
विजय पाने की इच्छा से युक्त होकर,जूझते इन दोनों वीरों के मध्य चल रहे युद्ध को
देखने के लिए उत्सुक विभीषण युद्ध के मुहाने पर आकर खड़े हो गये.
देर तक दोनों के मध्य हो रहे भीषण युद्ध को देखते रहने के
बाद उन्होंने वानरों से कहा- हे वीरों ! तुम लोग खड़े-खड़े क्या देख रहे हो?. रावण
का एकमात्र सहारा इन्द्रजित तुम्हारे सामने खड़ा है. रावण की सेना का इतना ही भाग
शेष बचा है. इन्द्रजित के मारे जाने पर रावण को छोड़कर उसकी सारी सेना को मरा ही
समझो."
" वीर प्रहस्त,महाबली निकुम्भ,
कुम्भकर्ण,धूम्राक्ष,जम्बुमाली, महामाली,अशनिप्रभ, बज्रदंत, संह्याद्री, विकट,
अरिघ्न, तपन, मन्द,प्रघास, दुर्जय, रश्मिकेतु, विद्युतज्जिव्ह, द्विजिव्ह,
सूर्यशत्रु, अकम्पन, सुपाश्व, चक्रमाली, कम्पन आदि मारे जा चुके हैं. वानरों! इतनी
ही सेना अब शेष रह गयी है, जिसे तुम्हें जीतना है."
" वानरों !
इन्द्रजित रावण का पुत्र होने के नाते मेरा भी पुत्र ही है. जब मैं क्रुद्ध
होकर इसे मारने के लिए उद्धत होता हूँ तो, मेरा हृदय चीत्कार करने लगता है. आँखों
में आँसू आ जाते हैं. सब धुंधला-सा दिखने लगता है. अतः मैं इसे मारने में
अपने-आपको असमर्थ पाता हूँ. अतः भैया
लक्ष्मण ही इसका विनाश करेंगे."
"तुम लोग झुण्ड बनाकर इन्द्रजित की सेना को चारों ओर
से घेर लो....इन पर टूट पड़ों और इन्हें मार डालो," विभीषण जी की आज्ञा को
शिरोधार्य करते हुए सभी वानरों ने शत्रु सेना को चारों ओर से घेरते हुए
पत्थरों,नखों और दाँतों से राक्षसों को पीटने लगे.
लक्ष्मण और इन्द्रजित दोनों वीर इस समय रणभूमि में वेग से
जूझते हुए बाणों से एक-दूसरे पर प्रहार पर प्रहार कर रहे थे. युद्ध में उन दोनों
वीरों के हाथों में इतनी फ़ुर्ती थी कि वे कब बाण को तरकस से निकालते, कब धनुष पर
रखते, कब धनुष की प्रत्यंचा खींच कर बाण रखते, दृढ़तापूर्वक पकड़ते,कानों तक
खींचते, उन्हें लक्ष्य लेकर छोड़ते कुछ भी दिखाई नहीं देता था. धनुष के वेग से
छोड़े गये बाणॊं से समूचा आकाश चारों ओर से ढंक गया.
तदनन्तर लक्ष्मण ने चार दिव्य बाण धनुष पर चढ़ाये और लक्ष्य लेकर संभान कर दिया, जिससे इन्द्रजित के
चारों घोड़ों को मार गिराया. फिर एक बाण चलाकर उसके सारथि के मस्तक को धड़ से अलग कर दिया. सारथि के मारे जाने के
पश्चात इन्द्रजित विचलित हो उठा. अब उसे सारथि का काम भी सँभालना पड़ रहा था. कभी
घोड़ों को काबू में रखता,फ़िर धनुष चलाता. दो काम एक साथ करना उसे भारी पड़ रहा
था. यदि वह घोड़ों को रोकने के लिए हाथ
बढ़ाता, तब लक्ष्मण उसे तीखे बाणॊं से बेधने लगते और जब वह धनुष उठाता, तब वे
घोड़ों पर प्रहार करने लगते.
उलझन में उलझे हुए इन्द्रजित को देखकर लक्ष्मण ने अनेक बाण
चलाते हुए उसे अत्यन्त पीड़ित कर दिया. समरभूमि में अपने सारथि को मरा देख इन्द्रजित अनुत्साही होने लगा. उसे
विषाद में घिरा देखकर वानर-यूथपति बड़े प्रसन्न हुए और लक्ष्मण की प्रशंसा करने
लगे.तभी चार वानर-यूथपति-प्रमाथी,शरभ, पनस और गन्दमादन वेग के साथ उछलकर उसके शेष
बचे घोड़ों पर कूद पड़े. पर्वताकार वानरों के भार से दब जाने कारण घोड़ों के मुँह से
खून निकलने लगा और उनका प्राणांत हो गया. फ़िर चारों फ़ुर्ती से उछले और इन्द्रजित
के विशाल रथ को तोड़-फ़ोड़ करते हुए पुनः वेग से उछल कर लक्ष्मण के पास आकर खड़े हो
गये. विषम परिस्थिति में फंसे इन्द्रजित के पास अब कोई उपाय शेष नहीं था. वह
उछलकर रथ से कूद पड़ा.
चारों दिशाओं में
अन्धकार छा गया था,जिसके कारण अपने और पराये की पहचान नहीं हो पा रही थी. उपायुक्त
अवसर पाकर उसने अपने सैनिकों से कहा-" हे राक्षसवीरों ! बिना रथ के युद्ध
लड़ना संभव नहीं है. मैं जाकर दूसरे रथ पर बैठकर शीघ्र ही युद्ध के लिए आऊँगा. तबतक
तुम वानरों को मोह में डालकर निर्भय होकर युद्ध करो, जिससे से वानर योद्धा मेरे
नगर में प्रवेश करते समय मेरा सामना करने के लिये आगे न आवें." कहता हुआ
राक्षसराज इन्द्रजित वानरों को चकमा देकर रथ लाने के लिए लंकापुरी में चला गया.
लंकापुरी में पहुँचकर उस रावणकुमार ने सुवर्णभूषित सुन्दर
रथ को सजाकर उसके ऊपर प्रास,तलवारें, बाण आदि सहित आवश्यक सामग्रियों को रखा.
उत्तम घोड़ों को जुतवाया और रथ हाँकने की विद्या को जानने वाले सारथि को लेकर स्वयं
भी रथ पर आरुढ़ होकर, अनेक राक्षसों को साथ लेकर नगर से बाहर निकला.
रणभूमि में आने के साथ ही उसने विभीषण सहित लक्ष्मण पर
बलपूर्वक धावा करते हुए उसने हजारों वानर-यूथपतियों को गिराना आरम्भ किया. लक्ष्मण
ने एक बाण का संधान करते हुए उसके धनुष को काट दिया. धनुष के कटते ही उसने दूसरा
धनुष उठाया. प्रत्यंचा चढ़ाई, परन्तु लक्ष्मण ने उसके धनुष को काट दिया. फ़िर
फ़ुर्ती से उसकी छाती पर गहरी चोट पहुँचाते हुए उसके सारथि को मार गिराया. सारथि के
मारे जाने पर घोड़े व्याकुल होकर इधर-उधर भागने लगे. लक्ष्मण उस पर लगातार घातक बाण
चलाते रहे. इससे वह लहुलुहान हो गया. अब वे आपस में भिड़कर एक-दूसरे पर भयंकर बाणॊं
से निशाना बनाने लगे. वे आपस में उलझे हुए थे, ऐसा उत्तम अवसर पाकर विभीषण ने
उसके घोड़ों को मार डाला. सारथि तो पहले ही मारा जा चुका था.और अब घोड़े भी मार दिये
गए थे, जिससे रथ अनियंत्रित होने लगा. वह फुर्ति के साथ रथ से कूद पड़ा और अपने
चाचा पर शक्ति का प्रहार कर दिया. अत्यन्त कुपित होकर विभीषण ने उसकी छाती में
पाँच बाण मारे. लक्ष्मण के द्वारा छोड़े गये बाणॊं ने भी उसे घायल कर दिया.
अपने चाचा विभीषण के प्रति उसे बड़ा क्रोध हो आया. उसने
यमराज के द्वारा दिया गया बाण हाथ में लिया. उस बाण को चढ़ाता देख लक्ष्मण ने एक
बाण धनुष पर चढ़ाया, जिसे महात्मा कुबेर ने उन्हें दिया था, लक्ष्य लेकर छोड़ दिया.
दोनों के बाण एक साथ ही धनुष से छूटे और वेग के साथ आपस में टकराकर टूटकर
संग्रामभूमि में गिर पड़े.
अपने मित्र विभीषण पर आक्रमण होता देख रामजी सामने आए.
उन्होंने कुपित होकर एक भयंकर बाण का संधान करते हुए इन्द्रजित पर चला दिया. वह
निष्फल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा. फ़िर उन्होंने एक-के-बाद अनेक अस्त्र चलाये, लेकिन
वे सभी निष्फल हो गये.यह देखकर विभीषण ने श्रीराम जी से कहा-" प्रभु ! क्षमा
करें...रावणपुत्र मेघनाथ आपके हाथों नहीं मारा जा सकेगा.उसे केवल और केवल लक्ष्मण
भैया ही मार सकते है."
" हे विभीषण ! क्या आपको मेरे पराक्रम पर विश्वास नहीं
है?."रामजी ने जानना चाहा.
" नहीं प्रभु ! कदापि नहीं....आपके पराक्रम को इस
संसार में भला कौन नहीं जानता?. आप जगत के आधार, नियन्ता हैं.....सर्वेश्वर है....
आदि हैं...अनन्त है. आप पलक झपकते ही संसार को नष्ट कर सकते हैं और कृपा मात्र से
नयी सृष्टि का निर्माण कर सकते हैं." विभीषण ने कहा.
"इतना सब जानने के बाद भी आपने मन में मेरे पराक्रम को
लेकर शंकाएँ क्यों है?". रामजी ने जानना चाहा.
"प्रभु ! शंका तो नाम मात्र को भी नहीं
है. लेकिन आप परमपिता ब्रह्माजी के दिये हुए वरदान को कैसे मेट सकेंगे. उनका दिया
गया वरदान फलीभूत होकर ही रहेगा. यदि आप इसके विपरित कार्य करेंगे तो इसमें
ब्रह्मदेव की प्रतिष्ठा धूमिल हो जायेगी.. आप अपने ही विधान को कैसे तोड़ पायेंगे?.
करबद्ध प्रार्थना करते हुए विभीषण ने कहा.
" परम पिता का वरदान.?......मुझे पहेलियों में मत उलझाऒ?. हे महात्मन ! मुझे कृपया विस्तार से
बतलाने की कृपा करें." आश्चर्य चकित होकर रामजी ने जानना चाहा.
" हे सर्वेश्वर ! आपसे भला क्या छिपा रह
सकता है. आप जानते हैं फ़िर भी मुझसे जानना चाहते हैं यही तो आपकी महानता है. हे
राम ! राक्षसराज रावण के पुत्र मेघनाथ ने परमपिता परमेश्वर ब्रह्मा जी को घोर
तपस्या की. उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्होंने उससे वर मांगने को कहा. मेघनाथ
ने प्रार्थना की कि उसे अमरता का वरदान दें."
" ब्रह्माजी ने उससे कहा कि यह वरदान तो
मैं किसी को भी नहीं दे सकता. अमरता का वरदान देकर मैं अपनी ही बनाई गयी सृष्टि के
नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकता. इसके बदले तुम कोई और दूसरा वरदान मांग लो. लेकिन
मेघनाथ अपनी जिद पर अड़ा रहा. तब ब्रह्माजी वे उसे वरदान देते हुए कहा-"
तुम्हारी मृत्यु एक ऐसे व्यक्ति से होगी, जिसने चौदह वर्षों में किसी स्त्री का
मुख न देखा हो, जिसने चौदह वर्षों तक भोजन न किया हो और इसी अवधि में एक पल को भी नहीं सोया हो. ऐसा व्यक्ति ही
तुम्हारा वध करेगा."
मेघनाथ बुद्धिमान था. वरदान प्राप्त कर चुकने
के आद उसने आकलन लगाया कि संसार में ऐसा कोई व्यक्ति जनमेगा ही नहीं, जिसने किसी
स्त्री का मुख न देखा हो... बिना निद्रा लिए और बिना आहार किया हो, शायद ही कोई
ऐसा व्यक्ति पैदा होगा. पैदा हो भी जाये तो बिना निद्रा लिये और बिना आहार के
जीवित ही नहीं रह पाएगा. इतना अद्भुत वरदान पाने के लिए उसने ब्रह्मपिता से यह
वरदान प्राप्त कर लिया. वरदान पाकर वह प्रसन्नता से फूला नहीं समा रहा था. इसी
वरदान को पाकर उसने इन्द्र को पराजित किया और इन्द्रजित कहलाया.
" हे सखा ! हममें से ऐसा कौन पराक्रमी है,
जिसने न तो चौदह वर्षों तक आहार न किया हो और सोया न हो.? और न ही किसी स्त्री को
देखा हो." आश्चर्य प्रकट करते हुए रामजी ने कहा और जानना चाहा.
"हे श्रीराम ! हमारे लक्ष्मण भैया ही उस
राक्षसराज इन्द्रजित का वध करने में समर्थ हैं. वे विगत चौदह वर्षों में, न तो
निद्रादेवी के आगोश में गये और न ही उन्होंने भोजन किया है और न ही किसी स्त्री का
मुख देखा है. अतः परमपिता के वरदान के अनुसार लक्ष्मण ही इस दुष्ट को मार सकते
हैं."
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इन्द्रजित को कौन मार सकता था?-
कथा मिलती है कि एक बार अगस्त्य मुनि अयोध्या आए और लंका युद्ध का प्रसंग छिड़ गया. तभी रामजी ने बताया कि किस तरह से उन्होंने रावण और कुंभकर्ण जैसे वीरों का वध किया और अनुज लक्ष्मण ने भी इंद्रजीत और अतिकाय जैसे शक्तिशाली असुरों को मारा. तभी अगस्त्य मुनि बोले कि इसमें कोई संशय नहीं है कि रावण और कुंभकर्ण प्रचंड वीर थे, लेकिन सबसे बड़ा वीर इंद्रजीत ही था. उसने इंद्र से अंतरिक्ष में युद्ध किया और बांधकर उन्हें लंका लेकर गया. ब्रह्माजी ने जब इंद्रजीत से दान के रूप में इंद्र को मांगा, तब वह मुक्त हुए। लक्ष्मण ने उसका वध किया और केवल वही उसका संहार भी कर सकते थे.
अगस्त्य मुनि के मुंह से लक्ष्मण की वीरता की प्रशंसा सुनकर राम प्रसन्न तो बहुत हुए,
लेकिन अचंभित भी हुए कि, ऐसा क्या था कि केवल लक्ष्मण ही उन्हें मार सकते थे? यह
जिज्ञासा उन्होंने अगस्त्य मुनि के सामने जाहिर की. तब अगस्त्य मुनि ने कहा कि प्रभु
इंद्रजीत को वरदान था कि उसका वध वही कर सकता था जो चौदह वर्षों तक न सोया हो. जिसने
चौदह साल तक किसी स्त्री का मुख न देखा हो. जिसने चौदह साल तक भोजन न किया हो.
श्रीराम बोले मैं बनवास काल में
चौदह वर्षों तक नियमित रूप से लक्ष्मण के हिस्से का फल-फूल देता रहा. उन्होंने कहा कि मैं सीता के साथ एक कुटी
में रहता था, बगल की कुटी में लक्ष्मण थे, फिर सीता का मुख भी न देखा हो और चौदह वर्षों तक सोए न हों, ऐसा कैसे संभव है? अगस्त्य मुनि सारी बात समझकर मुस्कुराए.
प्रभु से कुछ छिपा है भला? दरअसल, सभी लोग सिर्फ श्रीराम का गुणगान
करते थे, लेकिन भगवान चाहते थे कि लक्ष्मण के तप और वीरता की
चर्चा भी अयोध्या के घर-घर में हो.
जिस प्रकार अगस्त्य मुनि कहा कि लक्ष्मण के अलावा कोई और
इंद्रजीत को नहीं मार सकता था. ठीक उसी प्रकार उसके मारे जाने पर महाराज विभीषण ने
भी श्रीराम से कहा था. उन्होंने कहा कि रावण के पुत्र इंद्रजीत का वध देवताओं के
लिए भी संभव नहीं था. उसे तो केवल लक्ष्मणजी जैसा कोई महायोगी ही मार सकता था.
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बात काफ़ी गंभीर थी. गंभीर इसलिए कि रामजी को इस
रहस्य के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं था और न ही वे यह जान पाए थे कि लक्ष्मण ने
चौदह वर्षों तक भोजन ग्रहण नही किया है और इस अवधि में वे सोये भी नहीं है और न ही
उन्होंने किसी स्त्री का मुख ही देखा है?. आश्चर्य...घोर आश्चर्य....ऐसा कैसे संभव
है? हमारे साथ ही रहते हुए उसने आहार किया है, सीता साथ में है.यह कैसे संभव है कि
उसने अपनी भाभी सीता का मुखमण्डल नहीं देखा होगा? हमारी कुटिया से कुछ ही दूरी पर
तो उसकी कुटिया थी, क्या वह वहाँ न सोते हुए जागता रहा है?. अनेकानेक शंकाओं के
बेल तेजी से साथ उनके मन-मस्तिस्क में फैलती जा रही थी. संभव है कि विभीषण सच बोल
रहे होंगे. इस आश्चर्यचकित कर देने वाले रहस्य को फिर कभी बाद में जाना जा सकता
है. अतः उन्होंने इस प्रसंग पर मौन रह जाना ही उचित समझा.
उन्होंने लक्ष्मण को आज्ञा देते हुए कहा-"
अनुज लक्ष्मण ! भयानक पराक्रम करने वाले, इन्द्रादि देवताओं को तथा असुरों के लिए
भी असह्य इस दुर्जन और महातेजस्वी इन्द्रजित का वध करो."
" जी भैया ! जैसी आपकी आज्ञा" कहते
हुए उन्होंने प्रणाम करते हुए आशीर्वाद प्राप्त किया और धनुष-बाण लेकर उस ओर बढ़े,
जहाँ वह वानर-सेनायुथों से संघर्ष कर रहा था.
सुमित्रानन्दन लक्ष्मण ने कुपित होकर "
वारुणास्त्र" उठाया और उसे छोड़ दिया. इस रौद्रास्त्र से आहत होकर वरुणास्त्र
शांत हो गया. तदनन्तर इन्द्रजित ने कुपित होकर दीप्तिमान "आग्नेयास्त्र"
का संधान किया, मानो वह अपने अस्त्र से समस्त लोकों का प्रलय कर देना चाहता हो.
परंतु वीर लक्ष्मण ने " सूर्यास्त्र" के प्रयोग से उसे शांत कर दिया,
अपने अस्त्र को प्रतिहत हुआ देख इन्द्रजित अचेत-सा हो गया. चेत आने पर उसने
"आसुर" नामक शत्रुनाशक तीखे बाण का प्रयोग किया, फ़िर उसने एक के बाद एक
कूट,शूल, मुद्गर, शूल, भुशुण्डि, गदा, खड़ग, और फरसे से लक्ष्मण पर प्रहार किया.
रणभूमि में भयंकर आसुरास्त्र को प्रकट हुआ देख,
तेजस्वी लक्ष्मण ने संपूर्ण अस्त्र-शस्त्रों को विदीर्ण कर देने वाले "
माहेश्वरास्त्र" का प्रयोग किया, जिसका निवारण कोई नहीं कर सकता था. उस
माहेश्वरास्र ने आसुरास्त्र को नष्ट कर दिया.
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(रुद्रास्त्र
और माहेश्वरास्त्र – शिवजी के
महाघातक अस्त्र
.
रामायण के युद्ध मे भगवान शिव के दो अन्य अस्त्रोके बारेमे
जानकारी मिलती है.
रूद्र शब्द का अर्थ होता है’"
महाभयंकर" और इसे भगवान शिव के संहारक रूप के लिए उपयोग किया जाता है. माना गया है कि रुद्रास्त्र, वो अस्त्र था जो भगवान शिव के अंश, जिसे रूद्र भी कहा जाता हे, उससे संलग्न था. पुराणों के अनुसार रुद्रास्त्र अपने-आप में
१ पूरे रूद्र की ताकत समाये हुये था. जब कभी रुद्रास्त्र को आवाहित किया जाता, तो ११ वे रूद्र की ताकद उसमे समा जाती. फिर एक महाभयंकर आँधी आती और एक तूफान के साथ रुद्रास्त्र अपने लक्ष का विनाश कर
देता था. रुद्रास्त्र एकसाथ हजारो दुश्मनों को मारने की क्षमता रखता था. रुदास्त्र
का मुकाबला करना यानि रूद्र का मुकाबला करना होता था.
माहेश्वर शब्द
का अर्थ है, वो जिसकी
इच्छा के अनुसार संपूर्ण ब्रम्हांड चलता है. माहेश्वरास्त्र वह अस्त्र था जिसमे भगवान शिव की तीसरी आँख की शक्ति समायी
थी. जब भी महेश्वरास्त्र को आवाहित किया जाता तब भगवन शिव की तीसरी आँख से निकलने
वाली आग की तरह, एक तेज आग की लहर लक्ष पर पड़ उसे नष्ट कर देती थी, ये ज्वालायें इतनी तीव्र और ताकतवर होती थी, कि ये सृष्टि की महानतम शक्ति को भी ये नष्ट कर सकती
थी. जिस तरह क्रोधित भगवान् महादेव को सिर्फ भगवान विष्णु ही शांत कर सकते
हैं या किसी और शब्दों में कहें तो भगवान
शिव और भगवान् विष्णु एकदूसरे को संतुलित करते हैं. उसी तरह महेश्वरास्त्र को शांत
करने का एक ही उपाय था, कि जिसके विरुद्ध भगवान विष्णु के बनाये किसी अस्त्र का उपयोग करना. माहेश्वरास्त्र को अगर उसकी पूर्ण क्षमता से चलाया जाय तो वो शिवजी की
तीसरी आँख की तरह पूरी दुनिया को जलाने की शक्ति रखता था
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तत्पश्चात उन्होनें दूसरा उत्तम बाण अपने धनुष
पर रखा, जिसका स्पर्श आग के समान जलाने वाला था. उसमें रावणकुमार को विदीर्ण कर
देने की अपार शक्ति थी. तदनन्तर लक्ष्मण ने एक दिव्य बाण "
ऐन्द्रास्त्र" को धनुष पर चढ़ाया और उसे मंत्रों से अभिषिक्त करते हुए उसे
अपने कान तक खींचा और मन-ही-मन में कहा-" यदि दशरथनन्दन श्रीराम धर्मात्मा और
सत्य प्रतिज्ञ हैं तथा पुरुषार्थ में उनकी समानता करने वाला और कोई वीर नहीं है
तो हे अस्त्र ! तुम उस रावणकुमार का वध कर डालो."
रामानुज कहँ रामु कहँ, अस कहि छाड़ेसि प्रान*
धन्य धन्य तब जननी, कह अंगद हनुमान(76.मा.लंका)
समरांगण में ऐसा कहते हुए शत्रुवीरों का संहार
करने वाले वीर लक्ष्मण ने शिरस्त्राणसहित दीप्तिमान मस्तक को काट दिया. सिर धरती
पर गिर पड़े, इससे पूर्व ही हनुमानजी ने उस शीश को पकड़ लिया और प्रभु
श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में आदरपूर्वक रख दिया. "येन्द्रास्त्र " ने
केवल रावणपुत्र इन्द्रजित का सिर ही नहीं काटा बल्कि उसकी एक भुजा भी काट डाली जो.
ऐन्द्रास्त्र की भयानक गति से प्रभावित होकर वायु में उड़ती हुई सुलोचना के आँगन
में जा गिरी.
धरती पर गिरता हुआ उसका कटा हुआ शीश यह कहता
रहा..." कहाँ है लक्ष्मण ? ! कहाँ है श्रीराम ?".उसके मुख से श्रीराम और
लक्ष्मण जी के नाम को उच्चारित करता हुआ वीर हनुमानजी से सुना और कहा-"तेरी
माता को धन्य है...धन्य है." शीश के धरती पर गिरने के साथ ही उसका कवच और
शिरस्त्राण के सहित इन्द्रजित धराशायी हो गया. उसका धनुष दूर जा गिरा.
(एक अन्य
कथा के अनुसार इन्दजित का सिर श्रीरामजी के चरणॊं में आ गिरा.मानस के
अनुसार वीर हनुमान जी उसके पार्थिव शरीर को लंका के द्वार पर रख आते हैं.)
बिनु प्रयास हनुमान उठायो * लंका द्वार राखि
पुनि आयो*
हनुमानजी ने बिना किसी परिश्रम के रावणकुमार
इन्द्रजित के शव को उठाया और लंका के द्वार पर रख आए.
इधर महासती सुलोचना ने उस भुजा को देखकर कहा-" देखने
में यह भुजा तो मुझे अपने पतिदेव (इन्द्रजित) की-सी लगती है. लेकिन निश्चित तौर पर
नहीं कहा जा सकता कि यह भुजा उन्हीं की है?. वह जानती थी कि उसका पति एक साधारण
नहीं, बल्कि एक ऐसा योद्धा है, जिसने इन्द्र पर विजय प्राप्त की थी. उनके हाथों
में इतना बल है कि वे अपनी हथेली में पर्वत-शिखर को मलकर चूर-चूर कर सकते हैं.
सैकड़ों हाथियों को पकड़कर आकाश में उछाल सकते हैं. ऐसे वीर की भुजा इतनी आसानी से
नहीं काटी जा सकती.
लखि रुख तासु सखी उठि धाई *तुरतहि खोज खरी लै आई* दीन्ह
हाथ मनिमय अँगड़ाई* लिखत लपन कीरति रुचिराई, (
दोहा 80/1 तुलसी कृत मानस लंका काण्ड)
अपने संदेह को मिटाने के लिए उन्होंने अपनी सखी
से कहा-" जरा जाकर ख़ड़िया तो उठा ला." खड़िया प्राप्त करनेके पश्चात वह
उस कटी हुई भुजा के समक्ष पहुँचकर प्रार्थना करते हुए कहा-" हे भुजा ! यदि
तुम मेरे स्वामी की भुजा हो तो प्रमाण के रूप में मुझे लिखकर बतलाऒ, तभी मुझे
विश्वास होगा कि यह भुजा मेरे प्राणेश्वर की ही है." बस इतना कहना ही था कि
वह भुजा मणिमय आँगन में लक्ष्मण जी की सुन्दर कीर्ति लिखने लगी. उसे लिखता देख
सुलोचना चीतकार कर उठी और और उस भुजा को अपने वक्ष से लगाकर
दारुण विलाप करने लगी.
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मेघनाथ को लेकर तुलसी दासजी लिखते हैं
-"मेघनाथ सम कोटि सत, जोधा रहे उठाइ * नगदाधार शेष
किमि. उठै चले खिसियाइ.-
अर्थात-सौ करोड़ मेघनाथ के समान बलवान योद्धा भी लक्ष्मण को
नहीं उठा पाये थे. अब यहाँ पर जब मेघनाथ को लक्ष्मण जी ने मार दिया तो अकेले
हनुमानजी ने कैसे उठा लिया.? चुंकि लक्ष्मण शेषावतारी हैं. अतः सौ करोड़ तो क्या
हजारों योद्धा और बलवान भी लक्ष्मण को नहीं उठा सकते.., लक्ष्मण जी नहीं उठे और
मेघनाथ जो अपने को बहुत शक्तिशाली समझता था, उसे रुद्रावतार साक्षात काल श्री
हनुमानजी " बिनु प्रयास" बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के उठाते हैं और
लंका के द्वार पर निर्भीक हो कर रख आते हैं, मानो रावण को चुनौती दे रहे हों कि अपनी करनी का परिणाम तू अपनी आँखें
खोलकर देख ले और संभल जा. मानस में मेघनाथ दूसरे ऐसे पात्र हैं जिन्होंने मरते समय
पहले लक्ष्मण का और फ़िर बाद में राम का नाम लिया. पहला पात्र मारीच थे जिन्होंने
मरते समय पहले लक्ष्मण का फ़िर राम का नाम लिया था.
यहाँ पर लक्ष्मण जी का नाम पहले लेने का कारण यह था कि
मेघनाथ ने लक्ष्मण को इसीलिए याद किया कि लक्ष्मण ! तूने अपनी पुत्री सुलोचना को
ही विधवा कर दिया. यथार्थ में मेघनाथ की पत्नी सुलोचना लक्ष्मण ( शेषनाग) की ही
पुत्री थी. अतः परोक्ष रूप में अपने श्वसुर को प्रथम स्मरण करते हुए उनका ध्यान
अपनी पत्नी की ओर दिलाते हुए मेघनाथ ने मुक्ति प्राप्त करने हेतु लक्ष्मण का नाम
लिया और बाद में राम का नाम लेकर मुक्ति को प्राप्त किया.
सुलोचना लक्ष्मण की पुत्री कैसे हुई?.
इस संबंध में ऐसी कथाएँ संत-श्री-मुखों से प्राप्त होती है
कि एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव जी के अंग-प्रत्यगों को विभूति लगाने के बाद
सपों को सजाया. हर अंग में इतने सांप लपेट दिये कि अन्त में एक सर्प भगवान शिव के
हाथ का कंगन बना कर पहनाने के लिए कम पड़ गया. पार्वती जी ने शेषनाग को बुलाकर उन्हें
शिव जी के हाथ में कस कर लपेट दिया. पार्वती जी ने इतनी कस के लपेटा कि शेष
(लक्ष्मण) उस दर्द को सहन न कर सके और उनके नेत्रों से दो बूँद अश्रु गिर पड़े, उन
अश्रु बूँदों से दो कन्याएँ उत्पन्न हुईं. ( शेष के दाहिनी आँख से गिरे अश्रु से सुलोचना और बायें आँख के अश्रु से सुनयना (
राजा जनक की पत्नी.) की उत्पत्ति हुई.
सुनयना का विवाह जनक जी से हुआ और सुनयना का मेघनाथ ने हरण करके विवाह किया.. इस्स
तरह शेषजी के नेत्रों से उत्पन्न सुलोचना
लक्ष्मण की पुत्री कहलाई. सुलोचना और सुनयना सगी बहने थीं. कहा जाता है कि रामदल ने
मेघनाथ का सिर जब हँसा था, तो यही सुनकर कि सुलोचना ने कहा था कि यदि आप ने पहले
बताया होता तो मैं अपने पिता शेषजी को बुला लेती और वे युद्ध में आपकी सहायता करते
और तुम्हारा कुछ न बिगड़ता.मेघनाथ का सिर यही सुनकर यह कहते हुए हँस पड़ा था कि
सुलोचना तू यही तो नहीं समझती कि तेरे पिता ने ही तो मुझे मारा है. तू बुलाती
किसको?. ये लक्ष्मण ही शेष है. सुलोचना इन्हीं ने हमें मारकर तुझे विधवा किया है.
सुलोचना लक्ष्मण को देखकर स्तब्ध रह जाती है कि पिता ने ही पुत्री का सिंदूर पोंछ
दिया. लक्ष्मण करते भी क्या मेघनाथ की मृत्यु भी तो लक्ष्मण के सिवा किसी अन्य से
नहीं होनी थी. अन्त में लक्ष्मण के आँखों में सुलोचना की स्थिति देखकर आँसू भर आते
हैं परन्तु जो होना था, वह तो हो चुका था. सुलोचना अपने पति का सिर लेकर सती हो
जाती है.
2.विश्राम सागर रामायण के अनुसार
ब्रह्मा जी से शक्ति पाकर मेघनाथ ने नागलोक पर आक्रमण करके
नागराज वासुकी को जीत लिया और इन्हें अपने भवन में लाकर अपनी शैय्या में बांध
दिया. नागराज द्वारा जीवित छोड़े जाने हेतु प्रार्थना करने पर मेघनाथ ने दण्ड में
वासुकी की कन्या सुलोचना ( जिसके नेत्र सुन्दर हों) लिया और नागराज को बंधन-मुक्त कर दिया.. चुंकि
वासुकी नाग को ही शेषनाग भी कहा जाता है. अतः वासुकी नाग की कन्या होने के
नाते सुलोचना को शेषावतारी लक्ष्मण की
कन्या माना जाता है.
कृत्तिवास रामायण में रावण द्वारा वासुकी नाग पर विजय प्राप्त करने का वर्णन
मिलता है.
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इन्द्रजित को धराशायी हुआ जानकर राक्षसों की
विशाल सेना भागने लगी. वानरों के द्वारा मारे जाते हुए राक्षस अपनी सुध-बुध खोकर
तेजी से भागते हुए लंका की ओर दौड़ पड़े. समरांगण में अप्रतिम बलशाली निशाचर शिरोमणि
इन्द्रजित को मरा देखकर वानर-यूथपति सहित समस्त वानर लक्ष्मण का अभिनन्दन करते हुए
भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे. और उन्हें घेर कर खड़े हो गये.
शत्रुविजय इन्द्रजित का वध करके रक्त से सने वीर
लक्ष्मण बहुत प्रसन्न हुए. जाम्बवान,और हनुमान जी दौड़कर उनसे मिले और समस्त वानरों
को लेकर शीघ्रतापूर्वक उस स्थान पर आये, जहाँ वानरराज सुग्रीव और प्रभु श्रीरामजी
विद्यमान थे. लक्ष्मण इस समय लंगड़ाते हुए विभीषण और हनुमानजी का
सहारा लेकर चल रहे थे. विभीषण ने हर्ष के साथ श्रीरामजी से कहा-" प्रभु ! वीर
लक्ष्मण ने रावणकुमार इन्द्रजित का मस्तक काटकर उसका वध कर दिया है." लक्ष्मण
के द्वारा इन्द्रजित का वध हुआ है"
यह सुनते ही श्रीरामजी को अत्यन्त ही प्रसन्नता
हुई और उन्होंने लक्ष्मण का आलिंगन लेते हुए कहा-" शाबाश ! लक्ष्मण! शाबाश..
आज तुमने बड़ा दुष्कर कार्य किया है. मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ. इन्द्रजित के
मारे जाने से तुम यह निश्चित जान लो कि अब हम लोग युद्ध में जीत गये. वीर लक्ष्मण
! तुमने अपने पराक्रम से यह परमकल्याणी कार्य को सम्पन्न किया है.अब अपने बेटे के मारे
जाने पर मैं रावण को भी मारा गया ही मानता हूँ.
तुमने उस निशाचर की दाहिनी बाँह काट डाली है, क्योंकि वही उसका सबसे बड़ा सहारा था.
" हे भ्राता ! तुम सब लोगों ने मिलकर तीन
दिन और तीन रात में किसी तरह उस वीर राक्षस को मार गिराया तथा मुझे शत्रुहीन बना
दिया. अपने पुत्र इन्द्रजित को मारा गया सुनकर रावण अब विशाल सेना के साथ युद्ध के
लिए आएगा."
उन्होंने वैद्य सुषेण को आज्ञा देते हुए कहा कि
तुम शीघ्रता से लक्ष्मण के शरीर से बाण निकालकर उपचार करें ताकि घाव भरने के साथ ही सारी पीड़ा दूर हो जाए. इसी तरह तुम शूरवीर रीछ, वानरों और दूसरे-दूसरे लोग जो बाणॊं से बिंधे हुए
और घायल होकर युद्ध कर रहे हैं, उन सभी का उपचार करते हुए उन्हें स्वस्थ कर
दो."
रामजी के ऐसा कहने पर वानर-यूथपति सुषेण ने
लक्ष्मण की नाक में एक बहुत ही उत्तम औषधी लगा दी. उसकी गन्ध सूँघते ही लक्ष्मण के
बाण निकल गये और उनकी सारी पीड़ा दूर हो गयी. उनके शरीर में जितने भी घाव थे, सब भर
गये.तत्पश्चात उन्होंने विभीषण सहित समस्त वानरशिरोमणियों की तत्काल चिकित्सा करते
हुए उन्हें स्वस्थ कर दिया. सभी को निरोग जानकर रामजी को अत्यन्त ही प्रसन्नता
हुई.
संध्या घिर आने के साथ ही उस दिन के युद्ध की
समाप्ति की घोषणा हो जाने के बाद सभी वानरयूथ और अन्य सैनिक अपने-अपने शिवरों में
विश्राम आदि करने लगे थे. रामजी के शिविर में लक्ष्मण और महात्मा विभीषण जी कल
होने वाले युद्ध की व्यूहरचना करने के लिए आपस में मंत्रणा कर रहे थे. लेकिन रामजी
का मन अब भी उस बात को लेकर दुविधाग्रस्त था कि ऐसे कैसे सम्भव है कि लक्ष्मण ने
चौदह वर्षों तक निद्रा का त्याग कर दिया और इसी अवधि में उन्होंने आहार नहीं लिया
और न ही किसी स्त्री का मुख ही देखा ?. बात हैरान और परेशान करने वाली ही थी. वे
उसकी तह तक जाकर ज्ञात करने के सुअवसर की प्रतीक्षा में थे. यही वह अवसर था जब वे
अपने मन की बात लक्ष्मण से खुलकर कह सकते थे और अपनी दुविधा का समाधान कर सकते थे.
उन्होंने लक्ष्मण जी से पूछ ही लिया-" - हम तीनों चौदह वर्षों तक
साथ रहे फिर तुमने सीता का मुख कैसे नहीं देखा? फल दिए गए फिर भी
अनाहारी कैसे रहे? और 14 साल तक
सोए नहीं? यह कैसे सम्भव हुआ?
तब लक्ष्मणजी ने बताया- भैया जब हम भाभी को
तलाशते ऋष्यमूक पर्वत पर
गए थे तब, सुग्रीव ने
हमें उनके आभूषण दिखाकर पहचानने को कहा था.आपको स्मरण होगा मैं उनके पैरों के
आभूषण के अलावा कोई अन्य आभूषण नहीं पहचान पाया था
क्योंकि मैंने कभी भी
उनके चरणों के ऊपर देखा ही नही है."
"
चौदह वर्ष नहीं सोने के बारे में लक्ष्मण ने कहा कि आप और माता सीता एक कुटिया में
सोते थे. मैं रात भर बाहर धनुष पर बाण चढ़ाए पहरेदारी में खड़ा रहता था. निद्रा देवी
ने मेरी आँखों पर पहरा करने की कोशिश की, तो मैंने निद्रा को अपने बाणों से बेध दिया
था. निद्रा ने हारकर स्वीकार किया कि वह चौदह साल तक मुझे स्पर्श नहीं करेगी."
( एक अन्यत्र जानकारी के अनुसार लक्ष्मण जी की पत्नी उर्मिला ने अपने
पति लक्ष्मण के हिस्से की नींद लेना स्वीकार कर लिया था.)
लक्ष्मण जी
ने आगे बताया कि " जब मैं जो फल-फूल लाता था आप उसके
तीन भाग करते थे. एक भाग देकर आप मुझसे कहते थे लक्ष्मण फल रख लो.आपने कभी फल खाने
को नहीं कहा- फिर बिना आपकी आज्ञा के मैं उसे खाता कैसे?
मैंने उन्हें संभाल कर रख दिया. सभी फल उसी कुटिया में अभी भी रखे होंगे."
लक्ष्मण
ने भगवान राम से कहा- मैंने गुरु विश्वामित्र
से एक अतिरिक्त विद्या का ज्ञान लिया था. इससे बिना अन्न ग्रहण किये भी व्यक्ति जीवित
रह सकता है. उसी विद्या से मैंने भी अपनी भूख नियंत्रित की और इंद्रजीत मारा गया. यह
सुनते ही प्रभु फिर से भाव-विभोर हो उठे और लक्ष्मणजी को गले से लगा लिया.
०००००
रावण के
मंत्रियों ने इन्द्रजित के वध का सारा हाल कह सुनाते हुए कहा- " हे लंकेश !
युद्ध में विभीषण जी की सहायता पाकर आपने तेजस्वी पुत्र इन्द्रजित का वध कर दिया
है. एक ऐसा वीर जिसने देवताओं के राजा इन्द्र को परास्त कर दिया था और इससे पहले
के किसी भी युद्धों में उसकी कभी पराजय नहीं हुई थी, वही आपका शूरवीर पुत्र
इन्द्रजित लक्ष्मण से भिड़कर मारा गया. इतना सुनते ही रावण मूर्च्छित हो गया. फ़िर
दीर्घकाल तक मूर्च्छित रहने के बाद जब उसे होश आया तो वह पुत्रशोक से व्याकुल हो
उठा. उसकी सारी इन्द्रियाँ अकुला उठीं और वह दीनतापूर्वक विलाप करते हुए कहने
लगा." हे पुत्र! हे इन्द्रजित ! तुम कुपित होने पर अपने बाणॊं से काल और
अन्तक को भी विदीर्ण कर सकते थे, मन्दराचल के शिखरों को भी तोड़-फ़ोड़ सकते थे, फ़िर
युद्ध में लक्ष्मण को मार गिराना तुम्हारे लिए कौन बड़ी बात थी.?
"
आज तीनों लोक और काननों सहित यह सारी पृथ्वी भी अकेले इन्द्रजित के न होने पर मुझे
सूनी-सूनी-सी दिखायी देती है. जैसे गजराज के मारे जाने पर हथिनियों का आर्तनाद
सुनायी पड़ता है, उसी प्रकार आज अन्तःपुर में मुझे राक्षस-कन्याओं का करुण-क्रन्दन
सुनना पड़ेगा."
"
शत्रुओं को संताप देने वाले मेरे पुत्र ! आज तुम मुझे और अपनी माँ और अपनी
पत्नियों को- छोड़कर कहाँ चले गये?. वीर ! होना तो यह चाहिए था कि मैं पहले यमलोक
जाता और तुम मेरा प्रेतकर्म करते, परन्तु तुम विपरीत अवस्था में स्थित हो
गये."
"
हाय ! राम, लक्ष्मण और सुग्रीव अभी जीवित हैं ऐसी अवस्था में मेरे हृदय का काँटा
निकाले बिना ही तुम हमें छोड़कर कहाँ चले गये."
इन्द्रजित
की स्मृतियों को याद करते हुए रावण अपने कक्ष में रावण विलाप कर रहा था.उधर रनिवास
में भी करूण क्रंदन मचा हुआ था. महारानी मंदोदरी का रो-रोकर बुरा हाल हुआ जा रहा
था. वह बारम्बार कहती कि मेरे पति की कामान्धता के चलते मेरा वीर पुत्र मारा गया.
सुलोचना
को भी अत्यन्त दुःख हो रहा था, लेकिन उसे इस बात पर अत्यधिक गर्व की अनुभूति हो
रही थी कि मेरे पतिदेव का वध श्रीरामजी के अनुज लक्ष्मण जी के हाथों हुआ है. अतः
विलाप करते हुए वह उस कटी हुई भुजा को अपने वक्ष से लगाये हुए सीधी अपने श्वसुर
रावण के कक्ष में पहुँची.
लंकेश के
कक्ष में प्रवेश करते हुए उसने देखा. कक्ष में अन्धकार का साम्राज्य था. हल्के
नीम-रौशनी में हतभागा रावण, अपना शीश झुकाए शोकमग्न बैठा हुआ है.
तभी उसने
दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा-" पिताश्री ! आप और इस तरह उदास होकर बैठे हैं? एक
त्रिलोक विजयी लंकेश को इस तरह शोक मनाना उचित नहीं है. आपको तो लंका में उत्सव
मनाना चाहिए. मेरे पराक्रमी पति जिन्होंने इन्द्र को परास्त किया है, ऐसे शूरवीर
बेटे को पाकर आप धन्य हुए. आपको तो उन पर गर्व होना चाहिए. आपको तो खुशियाँ मनानी
चाहिए कि आपके होनवार बेटे ने आपके आन-बान-और शान के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों
का उत्सर्ग कर दिया. अपने पुत्र के पराक्रम को सुनकर आपको तो प्रसन्न होना चाहिए?". अपनी पुत्रवधु
के उपालंभ को सुनकर रावण को लज्जा का
अनुभव हो रहा था. एक-एक शब्द किसी बाण की तरह उसके हृदय में चुभ रहे थे.वह चाहकर
भी अपना क्रोध नहीं जता पा रहा था.
"हे
पिताश्री ! अब मेरे पति जीवित नहीं हैं. उनके न रहने पर सारा संसार अब मेरे लिए
अंधकारमय है. अब मैं जीवित रहकर क्या करुँगी?. मैं अपने पति के
साथ सती हो जाना चाहती हूँ. वीर हनुमानजी ने बिना सिर के उनका मृत शरीर लंका के
प्रवेश-द्वार पर लाकर रख दिया है. उनकी एक कटी हुई भुजा मेरे हाथों में है. मैं
आपसे जानना चाहती हूँ कि मेरे पति का सिर कहाँ है? मैं अपने पति के शव के साथ
सतीधर्म का पालन करना चाहती हूँ. कृपया उनका शीश मुझे लाकर दीजिए." सुलोचना
ने विनती करते हुए अपने श्वसुर से कहा.
लंकेश ने
सुलोचना को अवगत कराते हुए बतलाया- " बेटी ! इन्द्रजित का शीश रामचन्द्रजी के
चरणॊ में रखा हुआ है. तुम जाकर उनसे मांग लो. दयानिधि राम तुम्हें निराश नहीं
करेंगे." इतना कहकर वह शोकाग्नि में जलने लगा.
पैठत
कटक अतिहि सकुचाई, अन चिन्हारि जनु परघर जाई* आगेहि
जाइ देखी रघुबीरा* छवि श्यामल मय गौर सरीरा.
सुलोचना
ने अत्यन्त ही सकुचाते हुए श्रीरामजी के शिविर में इस तरह प्रवेश किया. जैसे
अपरिचित वधू पराये घर जाकर सकुचाती है. उसने दूर से ही श्यामल रंग वाले श्रीरामजी
को और गौर वर्ण के लक्ष्मण जी को देखा. उनके चारों ओर अंगद, हनुमान, द्विविद,
मयन्द, बलवान कुमुद, बलशाली जाम्बवान, सुग्रीव, ऋषभ, और सुषेण के सहित नल और नील
हाथ जोड़े हैं.
सुलोचना
को अपनी ओर आता देख विभीषण जी ने कहा-" प्रभो!
यह
रावण की पुत्रवधू और परम पराक्रमी इन्दजित की पत्नी सुलोचना है."
"
आओ सुलोचना आओ...तुम्हारा इस शिविर में स्वागत है. मुझे बताओ तुम किस प्रयोजन से
मेरे पास आयी हो?. मांगो क्या मांगना चाहती हो, मैं तुम्हारी हर इच्छा को पूर्ण
करुँगा. यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हारे पति को जीवित कर सकता हूँ. उसके संग तुमसौ
कल्पों तक लंका का राज्य भोगो" रामजी ने कहा.
सारे वानर सहित सुग्रीव सहित इस
सोच में पड़ गये कि यदि रामजी ने इन्द्रजित को पुनः जीवित कर दिया तो निश्चित ही वह
हमारे प्राण लेने के लिये तत्काल उद्यत हो जायेगा?.
रामजी ने अत्यन्त ही प्रसन्नता के साथ कहा "हे देवि! आपसे मैं
प्रसन्न हूँ, आप बड़ी ही पतिव्रता हैं, जिसके कारण ही आपका पति पराक्रमवान् था. आप कृपया अपना उपलक्ष्य
कहें."
"हे अन्तर्यामी ! हे भगवन ! आपका आदि, मध्य और अन्त
नहीं है. आप चराचर विश्व के स्वामी हैं...भला आपसे क्या छिपा है.?.
"
हे प्रभु ! आप उदार और सब कुछ देने योग्य हैं. हे प्रभु ! मैंने यह भी देख लिया है
कि आप करूणा के सागर हैं. मैंने निश्चित कर लिया है कि ऐसे जीने से तो मरना ही
सराहनीय है."
"
मेरे स्वामी ने अपने बाहुबल से सब लोकों को जीत कर अपने वश में कर लिया और चौदह
लोकों का भोग किया अब भी बड़े याचक लक्ष्मण जी को पहचान कर युद्ध-तीर्थ में प्राणधन
उन्हें दान कर दिया. अब उचित नहीं है कि स्वामी का दिया उपहार लौटा दूँ. इस पर
अधिकता यह कि मैंने आपके दर्शन किये. मैं अब अपने पति के साथ सती होकर अपने प्राण
त्याग दूँगी.
हे राघवेंद्र !, आप तो हर बात से अवगत हैं. मैं अपने पति के साथ सती होना चाहती हूँ और आपसे
उनका शीश देने का आग्रह कर रही हूँ."
श्रीरामजी ने सुग्रीव से कहा-" महाराज सुग्रीव ! कृपया
इन्द्रजित के सिर को सादर लेकर आयें."
" जी प्रभु ! जैसी आपकी आज्ञा.". कहकर सुग्रीव ने उस शिविर
में प्रवेश किया,जहाँ इन्द्रजित का कटा हुआ सिर रखा हुआ था. उनके मन में एक सन्देह
घर कर गया कि बिना जीभ और कण्ठ के भुजा कैसे लिख सकती है? यदि सिर हँस जाय तो सत्य
है, नहीं तो राक्षसी माया समझिये. मरी भुजा ने ऐसा ज्ञान कहाँ से पाया, जो मुनियों
को भी साधन से नहीं मिलता?." उन्होंने रामजी से जानना चाहा-" हे प्रभु !
एक मरी हुई भुजा कैसे लिख सकती है?. निश्चित ही मुझे यह राक्षसी माया जान पड़ती
है." कहत्ते हुए सुग्रीवजी के इन्द्रजित के सिर को उठाया और रामजी के सन्मुख
रख दिया.
" महाराज सुग्रीव! कुतर्क करना उचित नहीं है. यह सिर भी हँस
सकता है."
सुलोचना पति के सिर से कहने लगी-" हे स्वामी ! हँसिये, नहीं तो
आपके हाथ ने जो लिखा है उसको ये लोग सत्य नहीं मानेंगे." थोड़ी देर तक वह सिर
नहीं हँसा. मृतक का मुँह नहीं खुला. तब नागकन्या ने पुनः सिर से कहा-" क्या
आप युद्ध में मार-काट करके श्रमित हो गये हैं? या फ़िर लक्ष्मण के बाणॊं के लगने से
क्षुभित हो रहे हो, प्रभु के सामने क्यों लजा रहे हो? यदि इस देह के मन, वचन और
कर्म से आप ही पति देवता हैं और कोई स्नेही नहीं है. तो हे स्वामिन् ! यदि मै
जानती कि आपकी यह गति होगी, तो सहायता हेतु पिता को बुला भेजती." यह सुनते ही
वह सिर जोर से हँसा. उसे हँसता हुआ देखकर बन्दर,भालु सहित सभी वानरयूथ चौंक उठे.
जिसने उसे हँसते देखा उन सबको भारी आश्चर्य हुआ.
सुग्रीव का मन अब भी शंकित था. उन्होंने रामजी से जानना चाहा-"
हे स्वामी ! सिर के हँसने का क्या कारण है?.
रामजी ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा-" सुनो...मैं तुम्हें सिर के
हँसने का कारण सुनाता हूँ. मन, कम और वचन से स्वामी के सेवा करने के समान स्त्री
के हितार्थ दूसरा कोई उपाय नहीं है. जी में ऐसा जानकर जो पति-सेवा करती है, उस पर
मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं. यह नाग-कन्या सतवन्ती है. इसी के सत्य से मेघनाथ
का सिर हँसा है. ऐसा कहते हुए रामजी ने मेघनाद का शीश उन्हें सौप दिया.
जाने से पूर्व वसुलोचना ने
लक्ष्मण को कहा "भ्राता, आप यह मत समझना कि आपने मेरे पति को मारा है. उनका वध करने का पराक्रम किसी में
नहीं था. यह तो आपकी पत्नी के सतीत्व की शक्ति है. अंतर मात्र यह है कि मेरे स्वामी ने असत्य का साथ दिया."
अपने पति का शीश लाकर सुलोचना ने चिता सजाई और अपने पति के शव को
लेकर आत्मदाह कर लिया. असंख्य राक्षसियाँ इस दृष्य को देखकर चीत्कार करती हुई
विलाप करने लगीं.
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सुलोचना-
सुलोचना = सु+लोचना अर्थात् सुंदर नेत्रों वाली नागराज अनन्त की पुत्री तथा रावण पुत्र इंद्रजीत (मेघनाद) की पत्नी थी. जब मेघनाद का वध हुआ तो उसका
सिर भगवान श्रीरामचंद्र के पास रह गया. सुलोचना ने रावण को शीश माँगने
को कहा तो रावण नें उसे समझाया था कि राम पुरुषोत्तम हैं, उनसे सुलोचना को डरने की बात नहीं.
इसी दौरान लक्ष्मण द्वारा रावण पुत्र मेघनाद का वध हो गया। वध के
पश्चात मेघनाद का हाथ सुलोचना के समक्ष आकर गिरा. सुलोचना ने सोचा कि पता नहीं यह
उसके पति की भुजा है भी या नहीं अतः उसने कहा - "अगर तुम मेरे पति का भुजा हो
तो लेखनी से युद्ध का सारा वृत्तांत लिखो." हाथ ले लिखा "प्रिये! हाँ यह मेरा ही
हाथ है. मेरी परम् गति प्रभु राम के अनुज महा तेजस्वी तथा दैवीय शक्तियों के धनी
श्री लक्ष्मण के हाथों हो गई है, मेरा शीश श्रीराम के पास सुरक्षित है. मेरा शीश पवनपुत्र हनुमान जी ने रामचंद्र के चरणों पर रखकर मुझे सद्गति
प्रदान कर दिया है.
रावण की बातें सुनकर वह राम के पास गई और उनकी प्रार्थना करने लगी. श्रीराम जी उन्हें देखकर उनके
समक्ष गए और कहा - "हे देवि! आपसे मैं प्रसन्न हूँ, आप बड़ी ही पतिव्रता हैं, जिसके कारण ही आपका पति पराक्रमवान् था. आप कृपया अपना उपलक्ष्य
कहें."
सुलोचना ने कहा - "राघवेंद्र, आप तो हर बात से अवगत हैं. मैं अपने पति के साथ सती होना
चाहती हूँ और आपने उनका शीश देने का आग्रह कर रही हूँ."
रामचंद्र जी ने मेघनाद का शीश उन्हें सौप दिया. सुलोचना ने लक्ष्मण को कहा-
"भ्राता, आप यह मत समझना कि आपने मेरे पति को मारा है. उनका वध करने का पराक्रम किसी
में नहीं. यह तो आपकी पत्नी के सतित्व की शक्ति है. अंतर मात्र यह है कि मेरे स्वामी ने असत्य का साथ दिया."
वानरगणों ने पूछा कि आपको
यह किसने बताया कि मेघनाद का शीश हमारे पास है?.
सुलोचना ने कहा - "मुझे स्वामी के हाथ ने बताया?."
इस बात पर वानर हँसने लगे और कहा कि ऐसे में तो यह कटा सर भी बात करेगा?.
सुलोचना ने प्रार्थना की
कि अगर उसका पतिव्रत धर्म बना हुआ हो तो वह सिर हँसने लगे और मेघनाद का सिर हँसने
लगा. ऐसे दृश्य को देख सबने सुलोचना के पतिव्रत का सम्मान किया.
सुलोचना ने चंदन की शैया
पर अपने पति के शीश को गोद में रखकर अपनी आहुति दे दी.
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आर्तभाव
से विलाप करते हुए राक्षसराज रावण के हृदय
में अपने पुत्र के वध का स्मरण करके उसे बहुत क्रोध हो आया. अत्यन्त क्रोधित होते
हुए उसने विदेहकुमारी सीताजी का वध करने का निश्चय किया. अत्यन्त ही क्रोधित होते
हुए उसने शीघ्र ही तलवार हाथ में ले लिया और उस स्थान पर जा पहुँचा जहाँ
मिथिलेशकुमारी सीता थीं.
सीताजी
राक्षसियों से घिरी हुई बैठी हुईं थीं, तभी उन्होंने हाथ में तलवार लिए तेजी से
अपनी ओर बढ़ते हुए देखकर सोचने लगीं , कि यह दुष्ट मेरा वध करने के लिए ही इस ओर
बढ़ा चला आ रहा है. यह सोचते हुए उन्हें पिछली अनेक बातों का स्मरण हो आया. वे
सोचने लगीं थीं कि काश, मैं हनुमानजी की पीठ पर सवार होकर अपने स्वामी श्री
रघुनन्दन श्रीराम जी के पास पहुँच जाती तो मुझे इस तरह के बारम्बार शोक नहीं करना
पड़ता.
सीताजी
का दारूण विलाप सुनकर रावण के सुशील एवं शुद्ध आचार-विचार वाले सुपार्श्व नामक
बुद्धिमान ने रावण को ऐसा करने से मना करते हुए कहा-" हे महाराज दशग्रीव !
तुम तो साक्षात कुबेर के भाई हो, फ़िर क्रोध के कारण धर्म को तिलांजलि देकर
विदेहकुमारी सीता के वध की इच्छा कैसे कर रहे हो?."
"
हे पृथ्वीनाथ ! तुम सीता को प्राप्त करना
चाहते हो न? जरा सोचो...उसका वध करने के पश्चात तुम्हें सीता मिल
जाएगी क्या ? नहीं न ! फ़िर उस अबला सीता पर क्रोध उतारने की अपेक्षा तुम युद्ध में हम लोगों के साथ चलकर अपना क्रोध
राम पर उतारो. आज कृष्णपक्ष की चतुर्दशी है. अतः आज ही युद्ध की तैयारी करके कल
अमावस्या के दिन सेना के साथ विजय के लिए प्रस्थान करो. तुम शूरवीर हो...बुद्धिमान
हो...रथीवीर हो....एक श्रेष्ठ रथ पर आरुढ़ हो, तलवार हाथ में लेकर युद्ध करो. युद्ध
में राम का वध करके तुम मिथिलेशकुमारी सीता को आसानी से प्राप्त कर सकोगे."
मित्र के
द्वारा दिये गए प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए दशानन महल में लौट गया.
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आँखों-ही-आँखों
में सारी रात्रि बीत गयी,लंकेश को पता ही नहीं चल पाया.बहुत प्रकार से विचार करने
के बाद सहसा उसे याद आया कि अहिरावण किस दिन काम आयेगा?. उससे जाकर मिलना होगा.
विजयश्री की एक टिमटिमाती आशा पुनःजाग्रत हुई.
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अहिरावण-
अहिरावण एक असुर था. अहिरावण पाताल में स्थित रावण
का मित्र था जिसने युद्ध के दौरान रावण के कहने से आकाश मार्ग से राम के शिविर में
उतरकर राम-लक्ष्मण का अपहरण कर लिया था.
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अहिरावण
का स्मरण करते हुए दशानन वहाँ आया, जहाँ वह निवास करता था. रावण आया हुआ है
यह जानकर उसने कामदा देवी का ध्यान किया और शिव-मंडप में आया, जहाँ रावण उसके आने
की प्रतीक्षा कर रहा था. उसने रावण को शीश नवाया और प्रीतिपूर्वक कुशलता पूछ कर आने का कारण जानना चाहा.
असह्य दुःख में दुःखी रावण ने सारा वृतांत सुनाने
के बाद कहा- " हे तात ! अब तो सारी कुशलता जाती रही, क्योंकि सम्पूर्ण
राक्षस-सेना नष्ट हो चुकी है. बनवासी राम और उसने अनुज लक्ष्मण ने कुम्भकर्ण और
मेघनाथ को भी मार डाला है. मैं तुम्हारे पास इसलिए आया हूँ कि तुम कोई ऐसा उपाय
करो जिससे शत्रु का नाश हो जाये."रावण ने कहा.
अहिरावण- " हे भ्राता ! तुम्हारी अपनी
सोच तुम्हारे लिए उचित हो सकती है. ऐसा सोचना ही नीति नियम के विरुद्ध है. तुम
जिसे सामान्य मनुष्य समझ रहे हो, वह कोई साधारण मनुष्य नहीं है. भगवान विष्णु ने
राम के रूप में मनुज अवतार धारण किया है. उन्हें मात्र एक मनुष्य मानकर तुमने उनके
प्रभाव और प्रताप को नहीं जाना."
महिरावण की बातों को सुनकर रावण समझ गया. नहीं
समझने वाली जैसी बात नहीं थी. वह समझ गया कि महिरावण उसका साथ देने के लिए सहर्ष
राजी नहीं हैं. उसने अब तक साम नीति का प्रयोग करते हुए महिरावण से विनती की थी,
कि वह किसी तरह उसके राहों से कांटे निकाल फेंके.लेकिन वह इसके लिये तैयार न होकर
उसे उपदेश दे रहा है. रावण कभी भी उपदेश सुनने के पक्ष में कभी नहीं रहा है.
उसे अत्यन्त ही क्रोध हो आया. उसने अहिरावण को
चेतावनी देते हुए कहा-" अहिरावण ! शायद तुम भूल रहे हो कि किससे बात कर रहे
हो ? रावण उपदेश देना जानता है, उपदेश सुनना नहीं. यदि तुम मेरे सहायक नहीं बनना
चाहते तो मरने के लिए तैयार हो जाओ, अन्यथा जैसा मैं चाहता हूँ उसके अनुरूप काम
करो." रावण ने उसे धमकाते हुए कहा.
कुछ देर तक सोचने-विचारने के बाद वह इस
निष्कर्ष पर पहुँचा कि इस दुष्ट के हाथों अपने प्राण गंवाने से उचित होगा कि वह
राम अथवा उनके किसी सहायक के हाथों मरना उचित होगा.
उसने रावण से कहा- " हे भ्राता ! आप
मुझसे बड़े हैं. छोटे भाई का कर्तव्य बनता है कि वह अपने अग्रज का कहा माने. आप
निश्चिंत होकर लंका लौट जाइये. आज की रात्रि राम-लक्ष्मण के लिए अन्तिम रात्रि
होगी. आज अमावस्या है, अतः रात्रि भयानक अंधकार वाली होगी. इस अन्धकार का फायदा उठाते हुए मैं उन दोनों भाइयों पाताललोक
लेकर चला जाऊँगा, वहाँ से लौटना इनके लिए संभव नहीं हैं, तब तक आप इनकी बची-खुची
सेना के सहित सभी सहायकों का वध कर दीजिए." अहिरावण ने सांत्वना देते हुए
कहा.
" महिरावण ! महिरावण मेरे भाई ! तुमसे
मुझे यही उम्मीद थी. तुम्हारी बातों और योजना को सुनकर हम अति प्रसन्न हुए."
यह कहते हुए उसने अहिरावण का आलिंगन लिया और लंका लौट आया.
रात्रि में गहन अंधकार छा जाने के उपरान्त
महिरावण ने अपनी मायावी शक्तियों का प्रयोग करते हुए महात्मा विभीषण का रूप धारण
किया और रामजी-लक्ष्मण जी के शिविर में जा पहुँचा. इस समय वे दोनों भाई गहन निद्रा
में सोये हुए थे. वीर द्विविद, सुग्रीव, जाम्बवान, नल, नील आदि रणधीर योद्धा भी सो
रहे थे. उसने सर्व प्रथम दोनों भाइयों को
प्रणाम किया. सभी सोते हुए वीरों को
"मोहित मंत्र" से मोहित कर दोनों भाइयों को उठाया. पलक झपकते ही वह
अदृश्य हो गया और अपने लोक में चला आया
प्रातःकाल प्रायः सभी ने देखा कि रामजी तथा
लक्ष्मण अपने शिविर में नहीं है. यह जानकर चारों दिशाओं में उनकी खोज की गई, लेकिन
वे उन्हें नहीं खोज पाये. तब हनुमानजी ने बताया कि उन्होंने अर्ध रात्रि में,
विभीषणजी को स्वामी रामजी और लक्ष्मण के शिविर की ओर जाता देखा है. उन्हें जाता
देख मेरे मन में कोई शंका पैदा नहीं हुई. उन्होंने महात्मा विभीषण जी से जानना
चाहा-" हे महात्मन ! क्या यह सच है कि आप अर्धरात्रि में स्वामी जी के शिविर
की ओर गये थे.? शंका की सूई महात्मा विभीषण पर जाकर टिक गयी थी.. वे स्वयं भी
चिंतित थे कि रामजी अपने अनुज लक्ष्मण के साथ अचानक कहाँ जाकर लोप हो गये?."
शंका
के घेरे में थे विभीषण. उन्हें कोई उत्तर सूझ नहीं रहा था. यह सच है कि उस रात्रि
में वे आँखों में गहरी निद्रा आँजे सो रहे थे. अर्ध-रात्रि में क्या हुआ उन्हें
कुछ भी ज्ञात नहीं. वीर हनुमान ने उनसे प्रश्न किया है और प्रतिउत्तर उन्हें देना
है. यदि वे चुप रहते हैं तो सारा दोष उनके सिर पर मढ़ दिया जायेगा. मन की अतल गहराई
में जाकर वे उसका हल तलाश रहे थे.
इस आसन्न संकट को देखते हुए उन्होंने ध्यान
लगाया. इस गहन-गंभीर प्रश्न का उत्तर उन्होंने खोज निकाला.
उन्होंने हनुमानजी को सम्बोधित करते हुए
बतलाया-" हे पवनपुत्र ! आपका मुझ पर अपना संदेह प्रकट उचित है. ये सारी करतूत
पाताललोक में रहने वाले अहिरावण की है. उस मायावी दानव नें अपनी मंत्र-शक्तियों से
मेरा रूप धारण किया और निःशंक होकर शिविर में घुस आया. यदि वह अपने मूल-स्वरूप में
आता, तो द्वारपाल उसे वहीं रोक देता और
हमें तत्काल सूचित करता. वह पापी जानता था कि मेरा (विभीषण) रुप धारण करने से उसे
कोई रोक नहीं पायेगा."
महात्मा विभीषण जी ने हनुमानजी से कहा- "
हे वीर ! . स्वामी राम जी और भैया लक्ष्मण को रात्रि के गहन अन्धकार का फ़ायदा
उठाकर अहिरावण अपने लोक, पाताल ले गया है. वहाँ वह उनकी बलि देना चाहता है. हमारे
स्वामी सहित भैया लक्ष्मण पर प्राणॊं का संकट उपस्थित हो गया है. तुम शीघ्रता से
पाताललोक जाकर दोनों भाइयों को छुड़ा कर ले आओ. जितनी शीघ्रता से तुम पाताल जा सकते
हैं, जाओ."
"हे हनुमान ! जैसे तुमने माता सीताजी की
खोज की. लक्ष्मण भैया के लिए संजीवनी ले आये. हे सामर्थ्यवान वीर ! तुममें इतनी
शक्ति है, कि तुम आकाश-पाताल सहित अनेकों लोकों में जाने का सामर्थ्य रखते हो." विभीषण जी ने हनुमानजी से कहा.
" जैसी आपकी आज्ञा" कहकर वीर हनुमानजी ने अपने
स्वामी के नाम का जयघोष किया और उछलकर आकाश में उड़ चले. वे निडरता के साथ पाताललोक
में जा घुसे.
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(अहिरावण का दूसरा नाम महिरावण -पाताललोक में
रहने के कारण.) भी था.
जब
अहिरावण श्रीराम और लक्ष्मण को देवी के समक्ष बलि चढ़ाने के लिए विभीषण के भेष में
राम के शिविर में घुसकर अपनी माया के बल पर पाताल ले आया था, तब श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराने के लिए
हनुमानजी पाताल लोक पहुंचे और वहां उनकी भेंट उनके ही पुत्र मकरध्वज से हुई। उनको
मकरध्वज के साथ लड़ाई लड़ना पड़ी, क्योंकि मकरध्वज अहिरावण का द्वारपाल था.
मकरध्वज
ने कहा- " अहिरावण का अंत करना है तो इन 5 दीपकों को एकसाथ एक ही समय में बुझाना
होगा." यह रहस्य ज्ञात होते ही
हनुमानजी ने पंचमुखी हनुमान का रूप धारण किया. उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरूड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में
हनुमान मुख. इन 5
मुखों को धारण कर
उन्होंने एकसाथ सारे दीपकों को बुझाकर अहिरावण का अंत किया और श्रीराम-लक्ष्मण को
मुक्त किया.
हनुमानजी
ने अहिरावण का वध कर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराया और मकरध्वज को पाताल
लोक का राजा नियुक्त करते हुए उसे धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी.
कहां था पाताल
लोक : ?
इस
भू-भाग को प्राचीनकाल में प्रमुख रूप से 3 भागों में बांटा गया था- इंद्रलोक, पृथ्वी लोक और पाताल लोक. इंद्रलोक हिमालय और
उसके आसपास का क्षेत्र तथा आसमान तक, पृथ्वी लोक अर्थात जहाँ भी जल, जंगल और समतल भूमि रहने लायक है और पाताल लोक
अर्थात रेगिस्तान और समुद्र के किनारे के अलावा समुद्र के अंदर के लोक.
आज
जिसे हम खाड़ी कहते हैं कभी वहां पाताल हुआ करता था. इसी तरह के समुद्र से घिरे
इलाके को पाताल कहा जाता था. पाताल के कई प्रकार के विभाजन थे. धरती पर ही सात
पातालों का वर्णन पुराणों में मिलता है.
ये सात पाताल है- अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल। इनमें से प्रत्येक की लंबाई
चौड़ाई दस-दस हजार योजन की बताई गई है. ये भूमि के बिल भी एक प्रकार के पाताल के
स्वर्ग ही हैं.
इनमें
स्वर्ग से भी अधिक विषयभोग, ऐश्वर्य, आनंद, सन्तान सुख और धन संपत्ति है। यहां वैभवपूर्ण
भवन,
उद्यान और क्रीड़ा
स्थलों में दैत्य,
दानव और नाग तरह-तरह की
मायामयी क्रीड़ाएं करते हुए निवास करते हैं. वे सब गृहस्थधर्म का पालन करने वाले
हैं. उनके स्त्री,
पुत्र, बंधु और बांधव सेववकलोक उनसे बड़ा प्रेम रखते
हैं और सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं. उनके भोगों में बाधा डालने की इंद्रादि में भी
सामर्थ्य नहीं है. वहां बुढ़ापा नहीं होता। वे सदा जवान और सुंदर बने रहते हैं.
पाताल
लोक में नाग,
दैत्य, दानव और यक्ष रहते हैं. राजा बालि को भगवान
विष्णु ने पाताल के सुतल लोक का राजा बनाया है और वह तब तक राज करेगा, जब तक कि कलियुग का अंत नहीं हो जाता. राज करने
के लिए किसी स्थूल शरीर की जरूरत नहीं होती, सूक्ष्म शरीर से भी काम किया जा सकता है.
पुराणों के अनुसार राजा बलि अभी भी जीवित हैं और साल में एक बार पृथ्वी पर आते
हैं. प्रारंभिक काल में केरल के महाबलीपुरम में उनका निवास स्थान था.
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इस समय मकरध्वज नामक वानर पाताललोक का
द्वारपाल होने के नाते प्रवेश-द्वार में बैठा हुआ था. हनुमान जी को बलपूर्वक अन्दर
प्रवेश करता देख उसने उन्हें रोकते हुए कहा-" हे वीर ! मेरा अनादर कर तुम अन्दर प्रवेश नहीं
कर सकते. तुम शायद मुझे नहीं जानते?. मैं महाबली पवनपुत्र हनुमान जी का पुत्र
हूँ. मैं अहिरावण की सेवा करता हूँ व
पाताललोक का द्वारपाल होने के कारण मैं इसकी रक्षा में रहता हूँ. पहले युद्ध करके
मुझे पराजित करने के पश्चात ही अन्दर जा पाएंगे" . मकरध्वज ने कहा.
कहत
वचन सठ संजुत खोरी * काम बिबस कब भइ मति मोरी. मम
सुत बनत मूढ़ केहि काजा * इतना कहत तोहि नहिं लाजा.
हनुमानजी को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि
मकरध्वज मेरा बेटा कैसे हुआ? मैं ठहरा बाल ब्रह्मचारी. जब मेरा विवाह हुआ ही नहीं
तो यह कैसे उत्पन्न हो गया?. विस्मित होते हुए उन्होंने मकरध्वज से जानना चाहा कि
तुम मेरे पुत्र कैसे हुए?.
मकरध्वज ने कहा- " हे महावीर ! रावण की
सोने की लंका को जलाने के पश्चात, जब आप अपनी पूँछ बुझाने के लिए समुद्र में छलांग
लगाने के कूदे, उस समय आपका शरीर पसीना-पसीना हुआ जा रहा था. आपके पसीने की एक
बूँद टपक कर गिरी, जिसे एक मछली ने पी लिया. उसी मछली की कोख से मेरा जन्म हुआ.
मकरी का पुत्र होने के कारण मेरा नाम मकरध्वज रखा गया. निश्चित ही मैं आपका पुत्र
हुआ."
" तुम्हारी बात सच हो सकती है. लेकिन
मुझे यह बतलाओ कि अहिरावण ने मेरे स्वामी श्री रघुनाथजी और भैया लक्ष्मण को लेकर कहाँ
गया है और वह क्या करना चाहता है."
" हे महावीर ! अहिरावण इस समय होम कर रहा
है. उसके पश्चात वह दोनों भाइयों की बलि लेकर देवी को भेंट में चढ़ायेगा."
बस इतना सुनते ही हनुमानजी को बड़ा क्रोध हुआ
और वे गुफ़ा-मन्दिर के ओर तेजी से दौड़े. तभी मकरध्वज उनकी राह में रोढ़ा बनकर ठीक
सामने खड़ा होकर कहने लगा- " बस....यहीं रुक जाइये. मैं अहिरावण का विश्वस्थ
द्वारपाल हूँ. बिना मेरे स्वामी की अनुमति के किसी को भी अन्दर जाने की मनाही है.
उन्होंने मुझे आज्ञा देते हुए कहा है कि मैं किसी को भी भीतर आने से बलपूर्वक रोक
दूँ. अतः आप भीतर प्रवेश करने का प्रयास नहीं करें.तो अच्छा होगा " उसने
गर्जते हुए कहा.
एक पल को सोचते हुए हनुमान ने उससे कहा-"
मकरध्वज ! एक ओर तो तुम मुझे अपना पिता बतला रहे हो और मुझे ही रोक रहे हो?. मेरे
मार्ग से हट जाओ और मुझे शीघ्रता से भीतर जाने दो."
"यदि आप हठपूर्वक भीतर जाना ही चाहते हैं
तो सबसे पहले आपको मुझसे युद्ध करना होगा. मुझे पराजित करने के पश्चात ही आप भीतर
प्रवेश कर सकेंगे." उसने कहा.
" अच्छा.......तो.चलो . तुम्हारी भी
इच्छा पूरी किये देता हूँ." ऐसा कहते हुए उन्होंने अपनी गदा का भरपूर आघात
किया, जिसे बचाते हुए उसने हनुमानजी पर अपनी गदा का प्रहार कर दिया. वे आपस में
एक-दूसरे को मारने लगे..देर तक गदा-युद्ध होता रहा. कोई किसी से कम नहीं था. दोनों
ही पिता-पुत्र भारी योद्धा थे. दोनों में समान बल था. निर्णय होना कठिन था कि कौन
हारेगा और कौन जीतेगा?.
युद्ध में संलग्न रहते हुए भी मकरध्वज का
दिमाक तेजी से काम कर रहा था.उसने मन-ही-मन अपने आपसे कहा- " एक दुष्टात्मा के लिए मुझे अपने
पिता से युद्ध नहीं करना चाहिए. इस द्वंद्व-युद्ध में किस की पराजय होगी, किसकी
जीत होगी, कहा नहीं जा सकता. युद्ध कोई भी जीते, लेकिन हर हाल में मेरी ही पराजय
होगी. यह सोचकर उसने बड़ी ही विनम्रता से कहा-" हे तात ! मैं अपनी पराजय स्वीकार करता हूँ "कहते
हुए उसने अपनी गदा अपने पिताश्री के चरणॊं में रख दिया.फ़िर अत्यन्त ही विनम्रता से
बोलते हुए उसने कहा- " हे पिताश्री ! आप अहिरावण को मार सकेंगे, इसमें मुझे
थोड़ा संशय है ?."
" कैसा संशय पुत्र ?. मुझे खुलकर
बतलाओ."
" हे तात ! अहिरावण को वरदान प्राप्त है
कि जो भी व्यक्ति इन पाँच प्रज्जवलित दीपों को, एक ही फ़ूँक में बुझा देगा, वही परम
प्रतापी इस दुष्ट का वध कर सकता है."
मकरध्वज से इस गोपनीय वरदान की जानकारी
प्राप्त होते ही हनुमानजी ने पंचमुखी का रूप धारण किया.उत्तर दिशा में वराह का
मुख, दक्षिण में नरसिंह का मुख, पश्चिम में गरूड़ मुख और आकाश की ओर हयग्रीव मुख
एवं पूर्व दिशा में अपना स्वयं का मुख रखते हुए उन्होंने एक ही फ़ूँक में पाँचों
प्रज्जवलित दीपों को बुझा दिया.
यह देखकर मकरध्वज को बड़ी प्रसन्नता हुई और
पूर्ण विश्वास हो गया कि उसके पिता वीर हनुमान अहिरावण का वध कर देने में समर्थ
हैं.
बुद्धिमान हनुमानजी ने मकरध्वज को अपनी पूँछ
में लपेट कर बाँध दिया और बिना देर किये अपना लघु रूप धारण कर हवन-गृह में प्रवेश
किया. उन्होंने देखा. वहाँ अनगिनत जीवित जीव पड़े हुए थे. वहीं देवी का मण्डप था.
वहाँ बहुत से घड़ों में रक्त भरा पड़ा था. इसके अलावा अनेकों प्रकार के मेवे,पकवान,
उस स्थान पर रखे हुए थे.
तभी एक मालिन फूलों का हार लेकर उस ओर आती
दिखाई दी. बुद्धिमान हनुमान जी उन फूलों में प्रविष्ट हो गये. मालिन ने उस हार को
एक थाल में रख दिया और वापिस लौट गयी.
सारा अनुष्ठान कर चुकने के बाद अहिरावण ने फूल
माला को उठाकर देवी के गले में डालना चाहा, वीर हनुमान अपना विशाल और भीषण रूप
धारण कर देवी के स्थान पर जाकर खड़े हो गये.उनका स्पर्श पाते ही देवी तुरन्त ही
पृथ्वी में समा गयी. अपने समक्ष देवी को प्रकट हुई समझकर मूर्ख अहिरावण बड़ा
प्रसन्न हुआ. साक्षात देवी को समक्ष पाकर उसने पूजा की. फूल चढ़ाये और हव्य-सामग्री
देवी के मुँह में डालने लगा. ज्योंहि उसने हवन को सिद्ध जाना, त्योहिं राम और
लक्ष्मण को लाकर देवी के समक्ष खड़ा कर दिया और अपनी तीखी तलवार उठाकर उन दोनों की
बलि देना चाहा. बिना विलम्ब किये हनुमान जी अपने मूल स्वरूप में प्रकट हो गये और
गम्भीर अट्टहास करने लगे. उनकी अट्टहास सुनकर उस गुफ़ा-मन्दिर में जितने भी क्रूर राक्षस थे,
कुछ खड़े रहे और कुछ भाग खड़े हुए.
वीर
हनुमान जी ने चारों ओर से अपनी पूँछ का घेरा बनाकर घेर लिया था कि कहीं दुष्ट
छल-कपट से भाग खड़ा न होने पाये. अपने को चारों ओर से घिरा पाकर उसने हनुमानजी से
कहा-
"
रे कपि ढीट त्रास नहिं तोही * अहिरावन तेहि जानि न मोही जाम्बुमाल
कहँ जिमि तैं मारा * अरु रावण सुत हनेउ बिचारा."
" रे ढीठ बन्दर ! तुझे भय नहीं है. तूने मुझ अहिरावण को नहीं जाना, जैसे तूने
जम्बुमाली को मार दिया और बेचारे रावण के पुत्र का वध कर डाला. मैं उन सब और
कालनेमि के समान नहीं हूँ."
" रे बन्दर ! तू मेरे वचनों को सत्य मान
ले. ऐसा कहकर उसने हनुमानजी के वज्र तुल्य शरीर में तलवार का प्रहार किया. उसके
आघात से हनुमान जी तिलमिला उठे. उन्होंने क्रोधित होते हुए तेग उठाया और उसे
मार-मार कर अधमरा कर दिया और तत्काल बाद में उसका शीश काट कर अग्नि डाल दिया,
मानों वे उस यज्ञ में पूर्ण आहुति दे रहे हों.
अहिरावण का वध करने के पश्चात मकरध्वज ने
हनुमानजी से प्रार्थना करते हुए कहा-" हे पिताश्री ! पाताललोक का स्वामी
अहिरावण मारा जा चुका है. मेरी आपस करबद्ध प्रार्थना है कि कृपया अब आप मुझे बन्धन
से मुक्त कर यहाँ का संपूर्ण राज्य मुझे दे दीजिए. हनुमानजी ने उसकी प्रार्थना को
सुनते हुए उसे बन्धन मुक्त कर दिया और कहा-"तात ! मैं तुम्हें इस साम्राज्य
का अधिपति नियुक्त करता हूँ. अब तुम यहाँ के राज्य का सुखपूर्वक भोग करो और सदा
मेरे स्वामी श्री रघुनाथ जी एवं लक्ष्मण को भजते रहो." इसके बाद उन्होंने
अपने आराध्य प्रभु श्रीरामजी के चरणों में प्रणाम किया और विनीत भाव से कहा कि आप
दोनों मेरे कंधों पर विराजित हो जायें. रामजी बाएं कंधे पर और लक्ष्मण दायें कंधे
पर बैठ गये. वीर हनुमान ने अट्टाहास करते हुए हनुमानजी जे अपने स्वामी रामजी के नाम का जयघोष किया और वायु की लहरों
पर सवार होकर, उस ओर उड़ चले, जिस ओर शिविर बनाये गये थे.
००००००
रावण का एक विशेष दूत, आकाश-पटल पर उपस्थित
होकर अहिरावण और हनुमानजी के बीच चल रहे युद्ध को देख रहा था. उसने न केवल दोनों
के बीच चल रहे भयंकर युद्ध को ही नहीं देखा, बल्कि यह भी देखा कि किस तरह वीर
हनुमान ने अहिरावण के सहित सभी राक्षसों का वध कर दिया और दोनों भाइयों को लेकर
कुशलतापूर्वक यहाँ से निकल गया है..
अत्यन्त कुपित होकर राक्षसराज
रावण युद्ध में राक्षसों की स्थापित करने की इच्छा से उनके बीच जा खड़ा हुआ और
बोला-" निशाचरों ! मैंने सहत्रों वर्षों तक कठोर तपस्या करके विभिन्न
तपस्याओं की समाप्ति पर, स्वयंभू ब्रह्माजी को संतुष्ट कर, उनसे दिव्य कवच प्राप्त
किया है, जो सूर्य के समान दमकता रहता है. संग्राम में वह वज्र के प्रहार से भी
टूट नहीं सकता. इसलिए यदि मैं युद्ध के तैयार होकर रथ पर आरुढ़ होकर रणभूमि में खड़ा
हो जाऊँ, तो कौन मेरा सामना कर सकता है?. साक्षात इन्द्र ही क्यों न हो, वह भी
मुझसे युद्ध करने का साहस नहीं कर सकता."
"साथियों ! देवासुर संग्राम
में प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने मुझे जो बाण सहित विशाल धनुष दिया है. क्यों न आज
मेरे उसी भयानक धनुष को राम और लक्ष्मण का वध करने के लिए उठाया जाये.?."
"वीरों ! तुम सब लोग समस्त
हाथी, घोड़े,रथों और पैदल सैनिकों को लेकर नगर के बाहर निकलो और समरभूमि में
एकमात्र राम को चारों ओर से घेर कर मार डालो."
रावण की आज्ञा को शिरोधार्य करके
वे निशाचर शीघ्रगामी रथों में नाना प्रकार के परिध, पट्टिश, बाण,तलवार, फरसे आदि
अस्त्र-शस्त्र लेकर नानरों पर प्रहार करने लगे. इधर वानर भी अपने तीख दाँतों और
नखों से निशाचरों के केश,कान, ललाट और नाक कुतरते जाते. राक्षस भी कभी किसी शिला
को उठाकर दे मारते, तो कोई वृक्ष उखाड़कर प्रहार करते. जैसे आकाश में बादल तपते हुए
सूर्य पर आक्रमण नहीं कर सकते,उसी प्रकार सेना में प्रवेश करते हुए अपनी बाण-रुपी
अग्नि से राक्षस-सेना को दग्ध करते हुए श्रीराम पर वे महाक्रूर निशाचर धावा न कर
सके.
रामजी ने कौतुहल करते हुए अनेक
राक्षसों को अपना स्वरूप प्रदान कर दिया. अत्यन्त क्रोध में भरे हुए निशाचर अपने
समक्ष राम को पाकर उस पर भीषण प्रहार कर उसे मार डालता. इस तरह अनेक राक्षस-दानव
आपस में लड़कर मृत्यु को प्राप्त हो गये.
"ते तु रामसह्स्त्राणि रणे
पश्यन्ति राक्षसाः * पुनः पश्यन्ति काकुत्स्थमेकमेव महाहवे."
राक्षस रणभूमि में जिधर भी
दृष्टिपात करते उधर राम को दिखाई देते थे और कभी एक ही राम का दर्शन होता था.
अकेले श्रीराम ने देढ़ घंट में असंख्य राक्षसों को उनके रथ, घोड़े, रथॊं सहित दो लाख
पैदल निशाचारों को मार गिराया. तब बचे हुए निशाचर लंकापुरी की ओर भाग निकले.
संध्या घिर आयी थी. युद्ध विराम
की घोषणा हो चुकी थी. दोनों ओर की सेनाएँ अपने-अपने शिवरों में जाकर विश्राम करने
लगे. जो युद्ध में घायल हो गये थे, वैद्य उनकी सेवा-श्रुश्रुषा करने लगे.
०००००
रावण ने न केवल अपने राजमहल में
अपितु लंका के घर-घर में शोकमग्न
राक्षसियों का करुणाजनक विलाप सुना. उसने अपने पास खड़े हुए राक्षसों से कहा="
निशाचरों महोदर, महापार्श्व तथा विरुपाक्ष से शीघ्र जाकर कहो-" तुम लोग मेरी
आज्ञा से शीघ्र ही सेना को कूच करने का आदेश दें." इतना कहकर उसने भयानाक दिखने वाले राक्षसों का स्वतिवाचन
करवाते हुए पुनः कहा-" शूरवीरों आज मेरे घनुष से छूटे हुए तीखे बाणों द्वारा
राम और लक्ष्मण को यमलोक पहुँचाकर ही रहूँगा. आज शत्रु का वध करके खर, कुम्भकर्ण,
प्रहस्त तथा इन्द्रजित के मारे जाने का
भरपूर बदला चुकाऊँगा. तुम देखोगे कि मेरे बाण मेघों की घटा के समान सब ओर
छा जाएंगे. इससे अन्तरिक्ष, दिशायें, आकाश और समुद्र कुछ भी दिखाई नहीं देगा.. आज
मैं अपने धनुष से पंखवाले बाणॊं का जाल-सा बिछाकर, वानरों के मुख्य-मुख्य
वानरयूथों का वध कर दूँगा. आज वायु के समान वेगशाली रथ पर आरुढ़ होकर ,मैं वानर
सेनाओं का बध कर डालूँगा. आज मैं शत्रुओं का वध करके उन सभी निशाचरों के आँसू
पूछूँगा, जिनके भाई और पुत्र मारे गये हैं."
अपने आका का वचन सुनकर महापार्श्व
ने वहाँ खड़े हुए सेनापतियों से कहा-" महारथियों ! सेना को शीघ्र ही कूच करने
का आज्ञा दो."
रावण की आज्ञा से चार सेनापति एक
लाख से अधिक रथ, तीन लाख हाथी, साठ करोड़
घोड़े, उतने ही गधे, तथा ऊँठ और असंख्य पैदल योद्धा जिनके पास तलवार, पट्टिश, शूल, गदा, मूसल, हल,
डंडे, तीखी धारवाली शक्तियाँ, भांति-भांति के चक्र, फरसे, तथा अन्य प्रकार के
उत्तम अस्त्र-शस्त्र से संपन्न थे.रणभूमि की ओर भयानक ध्वनि निकालते हुए प्रस्थित
हुये.चारों ओर वाद्यों का महानाद गूँज उठा. मृदंग, पटह, शंखों के ध्वनि के साथ
इनके कलह की ध्वनि भी मिली हुई थी.
कहल ध्वनि को सुनकर श्रीरामजी ने
सहज ही अनुमान लगाया कि आज रावण युद्धभूमि में अपना पराक्रम दिखाने निकल पड़ा है.
वह युद्ध में विजयश्री की प्राप्ति का उद्देश्य लेकर आ रहा है.
राक्षसराज रावण ज्यों ही युद्ध के
लिए निकला, त्यों ही रणभूमि में उसकी मृत्यु के सूचक लक्ष्ण प्रकट होने लगे. आकाश
में उल्कापात हुआ.वज्रपात के समान गड़गड़ाहट पैदा हुई. असंख्य पक्षी, गीध और कौवे
अमंगलसूचक अशुभ बोली में बोलने लगे. इन भयंकर उत्पातों को सामने उपस्थित देखकर भी
उसने कोई परवाह नहीं की. वह काल से प्रेरित होकर मोहवश अपने ही वध के लिए निकल
पड़ा.
उन महाकाय राक्षसों के रथ का
गम्भीर घोष सुनकर वानरों का दल भी युद्ध के लिए उनके सामने आकर खड़े हो गये और
देखते-ही देखते भीषण युद्ध छिड़ गया. एक अकेले रावण ने आते ही कितने ही वानरों के
सिर धड़ से अलग कर दिये, कितनों की छाती छेद डाली और बहुतों के कान काट डाले.
कितनों ने घायल होकर अपने प्राण त्याग दिये. कितनों के मस्तक कुचल डाले और कितनों
की आँखे चौपट कर दीं. भयंकर क्रोध में आवेष्ठित होकर वह युद्धस्थल में जहाँ-जहाँ
गया, वहाँ-वहाँ के वानरयूथ पति उसके बाणॊं का वेग सहन नहीं कर सके. उस अकेले ने
असंख्य वानरों को यमलोक पहुँचा दिया.
इस प्रकार रावण ने अपने तीखे
बाणॊं से वानरों के अंग भंग कर डाले. धराशायी हुए वानरों से पूरी रणभूमि पट गयी.
राक्षसराज रावण के तीखे बाणॊं की मार से पीड़ित होकर वानर चीखते-चिल्लते हुए भागने
लगे, जैसे दावानल की ज्वाला से घिरकर जलते हुए हाथी चीत्कार करके भागते हैं.
अट्टहास करता हुआ वह कभी हाथी पर, कभी बादलों की ओट लेकर तीख बाणॊं से वानर्रों का
संहार करता हुआ समरांगण में विचरने लगा.
उधर विरुपाक्ष भी गर्जना करते हुए
भीषण संहार कराता हुआ विचर रहा था. उसने एक विशाल वृक्ष को उखाड़कर सुग्रीव की ओर
उछाल दिया, सुग्रीव ने भी एक वृक्ष को उखाड़कर उसके हाथी पर प्रहार किया. घातक
प्रहार से हाथी मारा गया. वह हाथी पर से तुरंत कूद पड़ा. और सुग्रीव की ओर दौड़ा.
महात्मा सुग्रीव ने एक विशाल शिला को क्रोधपूर्वक दे मारा. किसी तरह पीछे हटकर
उसने अपनी आत्मरक्षा के लिए तलवार लेकर आक्रमण कर दिया. तलवार से घायल होकर उन्हें
मूर्च्छा हो आयी. कुछ अन्तराल के बाद चेत आने पर उन्होंने विरुपाक्ष की छाती पर
वेगपूर्वक मुक्का मारा. मुक्के की चोट खाकर विरुपाक्ष ने क्रोधित होते हुए सुग्रीव
के कवच को काट डाला. उससे आहत होते हुए सुग्रीव ने एक जोरदार थप्पड़ मारा जिसका
स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान दुःसह्य था. उससे आहत होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा.
महात्मा सुग्रीव ने उसके दोनों पैरों को पकड़कर चारों ओर घुमाया और वेगपूर्वक दूर
फ़ेंक दिया, जिससे उसके प्राण-पखेरु उड़ गये. उसे मरा हुआ पाकर राक्षस-सेना में भगदड़
मच गयी. जिसे जिस ओर समझ आता, उधर भाग निकले.
विरुपाक्ष को मरा देखकर रावण ने
महोदर से कहा-" महोदर ! क्या देख रहे हो..? इस समय मेरी आशा का केन्द्र तुम
पर ही है. रणभूमि में अपना पराक्रम दिखाऒ और शत्रु-सेना का वध कर डालो. यही बदला
चुकाने का समय है. अतः अच्छे से युद्ध करो."
" जी बहुत अच्छा" कहते
हुए उसने शत्रुसेना में प्रवेश करते हुए वानरों का संहार करने लगा. उसे भीषण
मार-काट करता देख वानर दसों दिशाओं में भागने लगे. अपनी सेना में मची भगदड़ को
देखकर सुग्रीव सामने आये. भागते सैनिकों को आश्वस्थ करते हुए उन्होंने एक विशाल
शिला को उठाकर, महोदर के वध के लिए उछाल दी. विशाल शिला को अपनी ओर आता देखकर
महोदर ने एक शक्तिशाली बाण चलाकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले.
उस शिला को विदीर्ण हुई देख
सुग्रीव का क्रोध बढ़ गया. उन्होंने एक वृक्ष को उखाड़ कर उसके ऊपर फ़ेंका लेकिन उसने
एक शाल का वृक्ष उखाड़कर उस वृक्ष के कई टुकड़े कर डाले. तभी सुग्रीव को पृथ्वी पर
पड़ी हुई परिध दिखाई दे गयी. उन्होंने परिध को घुमाकर उसके घोड़ों को मार डाला.
घोड़ों के मारे जाने से अनिंयत्रित होते रथ से नीचे कूद पड़ा, उसके एक हाथ में परिध
और एक हाथ में गदा था. मेघों के समान गर्जना करते हुए दोनों वीर एक-दूसरे से भिड़
गये.
कुपित होकर महोदर ने गदा से
सुग्रीव पर प्रहार किया. उन्होंने परिध उठाकर उसके द्वारा फ़ेंकी गयी गदा पर आघात
किया. गदा छिटकर एक ओर गिर गयी और परिध एक
ओर. महोदर ने एक मूसल उठाकर सुग्रीव की ओर उछाला जिसे उन्होंने अपने मुद्गर से काट
गिराया.
अपने प्रयास में असफ़ल होते महोदर
ने तलवार निकाल ली. सुग्रीव ने भी तलवार निकाल ली. दोनों योद्धा तलवार चलाने में
सिद्धहस्त थे. और विजय की आशा लिये हुए एक-दूसरे पर घातक करने लगे. अपने बल पर
घमंड करने वाले महान वेगशाली तथा शौर्य-संपन्न महोदर ने सुग्रीव के कवच पर तलवार
चला दी. कवच में उलझी तलवार को खींचने का प्रयास करता देख बुद्धिमान सुग्रीव ने
महोदर के शिरस्त्राणसहित कुण्डलमंडित मस्तक को काट दिया. मस्तक कट जाने से महोदर
पृथ्वी पर गिर पड़ा. पृथ्वी पर गिरा महोदर,
पर्वत के विशाल शिखर-सा जान पड़ता था.
सुग्रीव के द्वारा महोदर के मारे
जाने से बौखलाये महापार्श्व ने अपने तीखे बाणों से अंगद की सेना में हलचल मचा दी.
क्रोध से भरे हुए महापार्श्व ने मुख्य-मुख्य वानरों के मस्तक धड़ से काट-काट कर
गिराने लगा. उसने कितनों की बाँह काट दीं और कितने ही वानरों के अंग-भंग कर दिये.
वानरशिरोमणि अंगद ने लोहे का एक परिध उठाकर उस पर दे मारा. परिध के प्रहार से उसकी
सुध-बुध जाती रही और वह रथ से नीचे गिर पड़ा. अंगद ने तत्काल एक विशाल शिला हाथ में
ले ली और उसके घोड़ों को मार गिराया और रथ को चूर-चूर कर डाला.
दो घड़ी के बाद होश में आने पर
उसने तीन तीखे बाण जाम्बवान की छाती पर मारे. बाणॊं से पीड़ित अंगद और जाम्बवान के
क्रोध की सीमा न रही. उन दोनों ने परिध उठाकर प्रहार किया. अगंद के चलाये हुए परिध
ने उस दुष्ट के मुकुट और धनुष को गिरा दिया. अंगद ने शीघ्रता से उसके पास पहुँचकर
एक जोरदार थप्पड़ उसके गाल पर मारा,जिससे उसका कुण्डल टूट कर गिर पड़ा. महापार्श्व
ने शीघ्रता से एक फरसा उठा लिया और अंगद पर भीषण प्रहार किया.
तत्पश्चात अत्यन्त क्रोध में भरे
हुए वीर अंगद, जो अपने महान पराक्रमी पिता के समान ही पराक्रमी थे, मुठ्ठी बांधकर
उसकी छाती पर मुक्का मारा. मुक्का वज्र के समान असह्य था. मुक्के के लगते ही
महापापी महापार्श्व खून का वमन करता हुआ पृथ्वी पर निष्प्राण होकर गिर पड़ा. उसे
मरा पाकर रावण का क्रोध सातवें आसमान तक जा पहुँचा. इधर महापार्श्व के मारे जाने का समाचार सुनकर वानर सिंहनाद
करने लगे. युद्ध स्थल पर देवताओं और वानरों की बड़ी भारी गर्जना सुनकर इन्द्रद्रोही
रावण रोषपूर्वक युद्ध के लिए उत्सुक वहीं खड़ा रहा.
संध्या हो चली थी. वीर हनुमान जी
ने शंखनाद करते हुए युद्ध की समाप्ति की घोषणा कर दी. इस ध्वनि को सुनते ही सभी
वीर सैनिकों ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्रों को समेटा और अपने-अपने शिवरों में लौट
गये.
०००००
प्रभु श्रीराम जी एक विशाल शिला
पर विराजमान थे. विभीषण, महाराज सुग्रीव, अंगद सहित वीर हनुमान उन्हें घेर कर
बैठे हुए वार्तालाप कर रहे थे.
उन्होंने विभीषण को सम्बोधित
करते हुए कहा- " राजन ! आपकी सुवर्ण नगरी दिन के प्रकाश में तो जगमगाती रही
है. वही नगरी रात्रि के घिर आने के पश्चात, मात्र एक दीप के प्रकाश से भी जगमगाती
थी, जैसे कोई हीरा जगमगा रहा हो. उसका झिलमिल प्रकाश दूर-दूर तक फ़ैला करता था,
लेकिन आज वही नगर अन्धकार में पूर्णतः डूबा हुआ है. उसकी आभा क्षीण हो गयी है.
जहाँ हर समय वसंत-सी छटा छाई होती थी, आज शोक में डूबी हुई है . जहाँ तक मुझे याद
है, पिछले एक पखवाड़े से इस महान नगर में, एक भी दीप प्रज्जवलित नहीं हुआ
हैं."
" सच कहा प्रभु
आपने...पापाचार में डूबी हुए इस नगर का यही हाल होना था. लंकेश जानता था कि उसका
पाप कर्म एक-न-एक दिन संपूर्ण लंका को ले डूबेगा, लेकिन अहंकारी रावण को लाख
समझाने के बाद भी चेत नहीं आया, इसमें हमारा कोई दोष नहीं है."
"प्रभु ! उसकी इस अहंकारी
सोच के चलते उसके सभी बलवान, पराक्रमी पुत्र मारे गये, इस बात से तो उसे कोई
शिक्षा ग्रहण करना चाहिए था, लेकिन प्रायश्चित करने के बजाय उसका अहंकार अब भी
उसके सिर पर चढ़कर बोल रहा है."
००००००
अहंकारी रावण के कक्ष में अन्धकार
फ़ैला हुआ था. नीम अंधेरे कक्ष में बैठा वह सोच रहा था-" मेरे एक-से बढ़कर-एक
पुत्र इस युद्ध में मारे गये. महाबली वीर
विरुपाक्ष तो मारा ही गया था, महोदर और महापार्श्व भी काल के गाल में डाल दिये
गये. मुझे अपने इन वीर और पराक्रमी राक्षसों पर पूरा भरोसा था कि वे युद्ध की दिशा
बदल देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. निश्चित ही कल होने वाला युद्ध भयानक होगा.
आने वाला "कल" उसे डरा तो अवश्य रहा था, लेकिन सिर पर बैठा
"काल" उसे सही निर्णय नहीं लेने दे रहा था. वह यह सोचकर अपने आपको
दिलासा देता कि अभी मुझमें अनेकानेक शक्तियाँ समाहित हैं, उनके रहते मुझे एक
साधारण से बनवासी से भय नहीं होना चाहिए."
संपूर्ण रात्रि सोच-विचार में बीत
गयी. प्रातःकाल होते ही उसने अपने सारथी को बुलाकर कहा-" हे सूत ! मेरे
पराक्रमी पुत्रों के साथ मेरे सभी मंत्री मारे गये और लंकापुरी पर चारों ओर से
घेरा डाला गया है. इसके लिए मुझे बड़ा दुःख हो रहा है. निश्चित ही आज मैं राम और
लक्ष्मण का वध करके ही, अपने इस दुःख को दूर करूँगा. रणभूमि में उस राम रूपी वृक्ष
को उखाड़ फेकूँगा, जो सीता रूपी फ़ूल के द्वारा फल देने वाला है और सुग्रीव,
जाम्बवान, कुमुद, नल, द्विविद, मैन्द, अंगद,गन्धमादन, हनुमान और सुषेण आदि समस्त
वानरयूथपति जिसकी शाखा-प्रशाखा हैं, आज सबका वध कर डालूँगा. तुम शीघ्रता से मेरा
रथ सजाओ." ऐसा कहते हुए महारथी वीर रावण अपने बचे-खुचे सैनिकों को साथ लिया
और रथ पर आरुढ़ होकर रणभूमि की ओर प्रस्थित हुआ. रथ की घर्घराहट से दसों दिशाओं को
गुँजाता हुआ बड़ी तेजी के साथ रानजी की ओर बढ़ा.
रथ की आवाज से नदी, पर्वत और
जंगलों सहित वहाँ की सारी भूमि गूँज उठी. धरती डोलने लगी. यहाँ तक की वहाँ के सारे
पशु-पक्षी भी भय से थर्रा उठे. उस समय उसने
"तामस" नाम के अत्यन्त भयंकर महाघोर अस्त्रों को प्रकट कर, समस्त
वानरों को भस्म करना प्रारम्भ किया. देखते-ही-देखते वहाँ की भूमि लाशों से पट गयी.
जिनके पाँव उखड़ गये. वे इधर-उधर भागने लगे. इससे रणभूमि में धूल उड़ने लगी.यह
"तामस" अस्त्र साक्षात् ब्रह्माजी का बनाया हुआ था, इसलिए वानर-योद्धा
इसके वेग को सह नहीं सके. इस बाण से आहत होकर वानरों की सैकड़ों सेनाएँ तितर-बितर
हो गयीं. सारा दृष्य देखकर श्रीराम युद्ध
के लिए उद्यत हो सुस्थिरभाव से खड़े हो गये.
वानर-सेना को खदेड़कर राक्षससिंह
रावण ने देखा कि श्रीराम और लक्ष्मण, विचलित हुए बिना उसी स्थान पर खड़े हैं. उसे
आता हुआ देखकर श्रीराम जी को अति प्रसन्नता हुई. उन्होंने अपने धनुष के मध्यभाग
को कसकर पकड़ा, और धनुष की डोरी को कान तक खींचकर टंकार करना प्रारम्भ किया,मानो
वे संपूर्ण पृथ्वी को विदीर्ण कर डालेंगे.
रावण के बाण-समूहों और रामजी के धनुष की टंकार से जो भयानक शब्द प्रकट हुआ, उससे
आतंकित होकर कई राक्षस धराशायी हो गये, कुछ जिस ओर मार्ग मिला, भाग खड़े हुए.
रावण पर प्रहार करने को उत्सुक
लक्ष्मणजी भी अपने पैने बाणों से उसपर भीषण प्रहार करने लगे. बाणॊं को अपनी ओर आता
देख रणवीर रावण ने असंख्य बाण छोड़कर आकाश में ही काट गिराया. क्रोध से लाल-लाल आँखे नचाता रावण,
आकाश की उँचाइयों से और थोड़ा नीचे उतर आया और विषधर सर्पों के समान महाभय़ंकर एवं
दीप्तिमान बाण-समूहों को उन तीखे भल्लों से काट डाला.
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अस्त्र-शस्त्र -ब्रह्मास्त्र.
नारायानास्त्र आदि शस्त्रों के बारे में
जानकारी पुनः
वेदों में 18 युद्ध कलाओं के विषयों पर मौलिक ज्ञान अर्जित
है। प्राचीन वैदिक काल में आज के सभी तरह के आधुनिक अस्त्र-शस्त्र थे। इसका उल्लेख
वेदों में मिलता है। उस काल की तकनीक आज के काल से भिन्न थी लेकिन अस्त्रों की
मारक क्षमता उतनी ही थी जितनी कि आज के काल के अस्त्रों की है। हालांकि ये किस
तकनीक से संचालित होते थे, यह शोध का विषय हो सकता है, लेकिन यह तो तय था कि वे सभी दिव्यास्त्र
मंत्रों की शक्ति से ही संचालित होते थे। अब सवाल यह उठता है कि कैसे?
दो प्रकार के संहारक होते हैं:- अस्त्र और शस्त्र
1.अस्त्र : 'अस्त्र' उसे कहते थे, जो किसी मंत्र या किसी यंत्र द्वारा संचालित
होते थे। मंत्र और यंत्र द्वारा फेंके जाने वाले अस्त्र बहुत ही भयानक होते थे।
इनसे चारों तरफ हाहाकार मच जाता था। जैसे वर्तमान में यंत्र से फेंके जाने वाले
अस्त्र तोप होती है। मंत्र से जैसे ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, पर्जन्यास्त्र आदि।
2.शस्त्र : शस्त्र : हाथों से चलाए जाने के कारण इन्हें
शस्त्र कहते हैं। शस्त्र दो प्रकार के होते थे यंत्र शस्त्र और हस्त शस्त्र। यंत्र
शस्त्र के अंतर्गत शक्ति, तोमर, पाश,
बाण सायक, शण, तीर, परिघ, भिन्दिपाल, नाराच आदि होते थे। हस्त शस्त्र के अंतर्गत
ऋष्टि,
गदा, चक्र, वज्र, त्रिशूल, असि, खंजर, खप्पर, खड्ग, चन्द्रहास, फरसा, मुशल, परशु, कुण्टा, शंकु, पट्टिश, वशि, तलवार, बरछा, बरछी, कुल्हाड़ा, चाकू, भुशुण्डी आदि। उक्त सभी से युद्ध लड़ा जाता था।
दिव्यास्त्रों की जानकारी :
मंत्र
द्वारा संचालित अस्त्रों को दिव्यास्त्र कहा जाता है। प्राचीनकाल में दिव्यास्त्र
चलाने की विद्या कुछ खास लोगों को ही सिखायी जाती थी। कर्ण ने ब्रह्मास्त्र चलाने
के लिए परशुराम से शिक्षा ली थी। इस तरह द्रोणाचार्य ने कौरवों सहित पांचों
पांडवों को शिक्षा दी थी।
अस्त्रों के प्रमुख प्रकार : 1. दिव्यास्त्र और 2. यांत्रिकास्त्र
1. दिव्यास्त्र :
वे
अस्त्र जो मंत्रों से चलाए जाते थे, उन्हें दिव्यास्त्र कहते हैं। प्रत्येक अस्त्र
पर भिन्न-भिन्न देव या देवी का अधिकार होता है और मंत्र-तंत्र द्वारा उसका संचालन
होता है। वस्तुत: इन्हें दिव्य तथा मांत्रिक-अस्त्र कहते हैं।
दिव्यास्त्रों के नाम : 1.
आग्नेयास्त्र, 2. पर्जन्य, 3. वायव्य, 4. पन्नग, 5. गरूड़, 6. नारायणास्त्र, 7. पाशुपत, 8. ब्रह्मशिरा, 9. एकागिन्न 10. अमोघास्त्र और 11. ब्रह्मास्त्र। इसके अलावा कुछ ऐसे भयानक अस्त्र
थे जो यंत्र या तंत्र से संचालित होते थे।
दिव्यास्त्रों का प्रभाव :
कहते
हैं कि आग्नेयास्त्र से आसमान से अग्नि बरसती है तो पर्जन्य से भारी बारिश। इसी
तरह वायव्य से आंधी और तूफान शुरू हो जाते थे। सभी अस्त्र शस्त्रों का प्रभाव इतना
घातक था कि संपूर्ण युद्ध स्थल का वातावरण भयावह हो जाता था। इनसे बचना मुश्किल ही
होता था। जो इन अस्त्रों की काट जानता था वही बच सकता था।
कैसे दिव्यास्त्रों को साधा जा सकता है?
इसके
लिए बहुत कठिन तप करना होता है। सर्वप्रथम पर व्रत, उपवास, ध्यान आदि करके मन को काबू में करने पांचों
इंद्रियों को संचालित करने की शक्ति अर्जित की जाती है। जो व्यक्ति एकचित्त हो
जाता है वही दिव्यास्त्र को प्राप्त करने की क्षमता रखता है। प्रत्येक शस्त्र पर
भिन्न-भिन्न देव या देवी का अधिकार होता है और मंत्र, तंत्र और यंत्र के द्वारा उसका संचालन होता है।
मंत्रों के बारे मे महादेवेन कीलितम में लिखा है कि आपके अन्दर योग्यता ,पात्रता और पवित्रता है तो मंत्र का प्रयोग आप
कर सकते हैं अन्यथा नहीं।
ब्रह्मास्त्र क्या है?
ब्रह्मास्त्र
अचूक अस्त्र है,
जो शत्रु और उसके पक्ष
का नाश करके ही छोड़ता है। इसका प्रतिकार दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। महर्षि वेदव्यास लिखते हैं कि जहां
ब्रह्मास्त्र छोड़ा जाता है वहां 12 वर्षों तक पर्जन्य वृष्टि (जीव-जंतु, पेड़-पौधे आदि की उत्पत्ति) नहीं हो पाती।' इसका मतलब यह कि यह परमाणु बम जैसे है। रामायण
काल में भी परमाणु अस्त्र छोड़ा गया था और महाभारत काल में भी। ब्रह्मास्त्र का
प्रयोग महाभारत में अर्जुन और अश्वत्थामा के अलावा कर्ण जानता था। परन्तु अपने
गुरु परशुराम के शाप के कारण कर्ण अपने अंत समय में इसके प्रयोग करने की विद्या
भूल गया था।
ब्रह्मशिरा
इसकी
शक्ति ब्रह्मास्त्र जैसी ही थी। यह एक महाविनाशकारी अस्त्र था। ब्रह्मशिरा का अर्थ
होता है ब्रह्माजी के सिर। इसका प्रयोग महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण, गुरु द्रोण और अर्जुन ही जानते ते। अश्वत्थामा
भी इसका प्रयोग करना जानता था लेकिन वह इसको वापस लेना नहीं जानता था। युद्ध के
अंत में उसने क्रोधवश यह चला दिया था। जवाब में अर्जुन ने भी अश्वत्थामा पर
ब्रह्मशिरा का प्रयोग कर दिया।
परन्तु बाद में जब ऋषि
मुनियों ने अर्जुन एवं अश्व्थामा को समझाया की इन दो महाविनाशकारी अस्त्रों के आपस
में टकराने से पृथ्वी में प्रलय आ जाएगी तब अर्जुन ने इसे वापस ले लिया कुंति
अश्वत्थामा ऐसा नहीं कर पाया और उसने इस अस्त्र को अर्जुन की पुत्रवधु उत्तरा के
गर्भ की ओर मोड़ दिया। इससे उत्तरा का गर्भ मृत हो गया। भगवान श्री कृष्ण को
अश्वत्थामा के इस कृत्य पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने अश्वत्थामा तीन हजार वर्षों
बीमारियों के साथ भटकने का शाप दे दिया। बाद में उन्होंने उत्तरा के गर्भ को फिर
से जीवित भी कर दिया था।
वासवी शक्ति:-
इसे
अमोघ अस्त्र भी कहा जाता है। यह महाविनाशकारी अस्त्र इंद्र के पास था। इस अस्त्र
की खासियत यह थी कि इसे एक बार ही प्रयोग किया जा सकता था और यह अचूक था। कर्ण को
यह अस्त्र इंद्र ने कवच कुंडल के एवज में दिया था। कर्ण इस अस्त्र का प्रयोग
अर्जुन पर करना चाहता था। परन्तु कर्ण को वासवी शक्ति अस्त्र का प्रयोग न चाहते
हुई भी अपने मित्र दुर्योधन के कहने पर अति शक्तिशाली योद्धा घटोत्कच पर करना पड़ा।
पाशुपत अस्त्र :-
महादेव शिव का पाशुपत अस्त्र महाविनाशकारी अस्त्र है। इससे
सम्पूर्ण विश्व का नाश कुछ ही पलो में हो सकता है। इस अस्त्र की खासियत यह है कि
इसका प्रयोग केवल दुष्टों के वध के लिए ही किया जाता है अन्यथा यह अस्त्र पलटकर
प्रयोग करने वाले को मार देता है।
नारायणास्त्र:-
यह
अस्त्र भी पाशुपतास्त्र के समान ही महाविनाशकारी है। नारायण अस्त्र से बचने का कोई
उपाय नहीं है। यदि इस अस्त्र का प्रयोग एक बार किया जाता है तो समूर्ण संसार में
कोई ऐसी शक्ति नहीं जो इसे रोक सके। इस अस्त्र को सिर्फ एक ही तरीके से रोका जा
सकता है और वह है अपने सभी अस्त्र त्याग कर नर्मतापूर्वक अपने आप को समर्पित कर
देना। क्योंकि यदि शत्रु कहीं भी होगा तो नारायणास्त्र उसे ढूढ़कर उसका वध कर ही
देता है। केवल इसके सामने खुद को समर्पित कर देना ही इसके प्रभाव से बचने का उपाय
है।
शस्त्र क्या होते हैं?
शस्त्र
: हाथों से चलाए जाने के कारण इन्हें शस्त्र कहते हैं। शस्त्र दो प्रकार के होते
थे यंत्र शस्त्र और हस्त शस्त्र। उस काल में युद्ध के दौरान शरीर के विभिन्न अंगों
की रक्षा का उल्लेख भी मिलता है। उदाहरणार्थ शरीर के लिए चर्म तथा कवच का, सिर के लिए शिरस्त्राण और गले के लिए कंठत्राण
इत्यादि का।
शस्त्र
के सामान्य भाग:
1.
काटने वाले शस्त्र, जैसे तलवार, परशु आदि।
2.
भोंकने वाले शस्त्र, जैसे बरछा, त्रिशूल आदि।
3.
कुंद शस्त्र, जैसे गदा, लट्ठ आदि।
*यंत्र शस्त्र :
यंत्र
शस्त्र के अंतर्गत शक्ति, तोमर, पाश,
बाण सायक, शण, तीर, परिघ, भिन्दिपाल, नाराच आदि होते थे।
*हस्त्र शस्त्र :
हस्त
शस्त्र के अंतर्गत ऋष्टि, गदा,
चक्र, वज्र, त्रिशूल, असि, खंजर, खप्पर, खड्ग, चन्द्रहास, फरसा, मुशल, परशु, कुण्टा, शंकु, पट्टिश, वशि, तलवार, बरछा, बरछी, कुल्हाड़ा, चाकू, भुशुण्डी आदि। उक्त सभी से युद्ध लड़ा जाता था।
अस्त्र क्या
होते हैं?
'अस्त्र' उसे कहते थे, जो किसी मंत्र या किसी यंत्र द्वारा संचालित
होते थे। मंत्र और यंत्र द्वारा फेंके जाने वाले अस्त्र बहुत ही भयानक होते थे।
इनसे चारों तरफ हाहाकार मच जाता था। जैसे वर्तमान में यंत्र से फेंके जाने वाले
अस्त्र तोप होती है।
अस्त्र के सामान्य भाग:-
1.
हाथ से फेंके जाने वाले
अस्त्र,
जैसे भाला, त्रिशुल आदि।
2.
वे अस्त्र जो यंत्र
द्वारा फेंके जाते हैं, जैसे बाण, गुलेल आदि।
3.
वे अस्त्र जो मंत्र या
तंत्र द्वारा फेंके जाते हैं, जैसे नारायाणास्त्र, पाशुपत ब्रह्मास्त्र आदि।
यजुर्वेद के उपवेद धनुर्वेद में अस्त्र और
शस्त्रों के संबंध में विस्तार से बताया गया है। अस्त्र शस्त्रों के संबंध में
धनुर्वेद,
धनुष-चन्द्रोदय और
धनुष-प्रदीप इन 3
प्राचीन ग्रंथों का अक्सर जिक्र होता है। अग्नि पुराण
में धनुर्वेद के विषय में उल्लेख किया गया है कि उसमें अस्त्रों के प्रमुख 4 भाग बताए गए हैं- 1. अमुक्ता, 2. मुक्ता, 3. मुक्तामुक्त और 4. मुक्तसंनिवृत्ती।
अमुक्ता :
अमुक्ता
को शस्त्रों की श्रेणी में रखा गया है। ये वे शस्त्र होते थे, जो फेंके नहीं जा सकते थे। अमुक्ता के 2 प्रकार हैं- 1. हस्त-शस्त्र : हाथ में पकड़कर आघात करने वाले
हथियार जैसे तलवार,
गदा आदि। 2. बाहू-युद्ध : नि:शस्त्र होकर युद्ध करना।
मुक्ता
:
मुक्ता
को अस्त्रों की श्रेणी में रखा गया, जो फेंके जा सकते थे। मुक्ता के 2 प्रकार हैं:- 1. पाणिमुक्ता : अर्थात हाथ से फेंके जाने वाले
अस्त्र जैसे भाला और 2. यंत्रमुक्ता : अर्थात यंत्र द्वारा फेंके जाने वाले अस्त्र जैसे
बाण,
जो धनुष से फेंका जाता
है।
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श्रीरामजी ने रावण
को और रावण ने राम को लक्ष्य लेकर अनेक बाण चलाये. महावेग से चलने वाले बाण एक
दूसरे से टकराते और बीच आकाश में ही कट कर गिर जाते. वे दोनों लंबे समय तक
दायें-बायें पैतरे एक-दूसरे को दिखाते रहे. एक-दूसरे को घायल करते रहे. दोनों
महावीरों के मध्य चल रहे इस युद्ध को देखकर कहा जा सकता है कि दोनों ही योद्धा
एक-दूसरे के बल की परीक्षा ले रहे हों.
एक साथ जुझते हुए
दोनों ने सायकों (बाण) की सघन वर्षा करते हुए एक-दूसरे पर घातक प्रहार करने लगे.
भयानक शोर को सुनते हुये संपूर्ण प्राणी थर्रा उठे. सारा आकाश इनके द्वारा छोड़े गए
बाणॊं से ढंक गया. दोनों ही महान धनुर्धर और दोनों ही युद्ध की कला में निपुण थे.
दोनों ही अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ थे. अतः दोनों ही रणभूमि में यत्र-तत्र
विचरते हुए बाण पर बाण चलाते थे..
अभी रामजी केवल
बाणॊं को चलाते रहे थे,लेकिन रावण ने पैंतरा बदलकर रामजी के ललाट में नाराचों की
माला-सी पहना दी. तत्प्श्चात क्रोधित होते हुए श्रीरामजी ने अपने तरकस से चार तीर
निकाले. उसे धनुष पर चढ़ाया और मंत्रों से अभिमंत्रित कर " रौद्रास्त्र"
का प्रयोग किया. भीषण आघात से रावण के अभेद कवच कट कर गिर पड़े. फ़िर उत्तम बाणॊं
से रावण के ललाट पर चलाकर उसे घायल कर दिया. फ़िर
लगातार वाणॊं की वर्षा करते हुए उन्होंने पाँच सिर वाले सर्पों के समान बाण
चलाकर उसे लहूलुहान कर दिया.
क्रोध में आविष्ठित
होते हुए रावण ने किसी मंत्र का जाप किया, उसमें सिंह,बाघ,चक्रवाक, गीध, बाज,
सियार, भेड़िये, गदहे, कुत्ते, मगर और जहरीले सर्पों के समान मुख वाले बाणों की वृष्टि
कर दी. अपने ऊपर घातक अस्त्रों का प्रयोग होता देख श्रीराम जी ने "
आग्नेयास्त्र " का संधान किया, जो अग्नि,सूर्य, चन्द्र, धूमकेतु, ग्रह,
नक्षत्र,, उलका तथा बिजली की प्रभा के समान प्रज्ज्वलित मुख वाले नाना प्रकार के
बाणॊं को प्रकट किये और लक्ष्य लेकर उनका संधान कर दिया. वे इन अस्त्रों को प्रयोग
में लाते, इससे पूर्व महाबली रावण ने उनके ऊपर "आसुरास्त्र" चला दिया
था, उसे बीच आकाश में ही काट दिया. आसुरास्त्र के नष्ट होते ही सुग्रीव सहित सभी
वानर वीर पराक्रमी श्री रामजी को घेरकर हर्षनाद करने लगे.
अपने उस अस्त्र के
नष्ट होजाने पर महातेजस्वी रावण को बहुत क्रोध हो आया. उसने कोधवश श्रीराम के ऊपर
एक दूसरे भयंकर अस्त्र को छोड़ने का आयोजन किया, जिसे मायासुर ने बनाया था. उस समय
रावण के धनुष से वज्र के समान दृढ़ और दमकते हुए शूल, गदा, मूसल, मुद्गर, कूटपाश
तथा चमचमाती अशनि आदि भांति-भांति के
अस्त्र छूटने लगे मानो प्रलयकाल में वायु के समान विविध रूप प्रकट हो रहे हों. तब
उत्तम अस्त्र के ज्ञातों में श्रेष्ठ रामजी ने "गान्धर्व" नामक श्रेष्ठ
अस्त्र के द्वारा रावण के उस अस्त्र को शांत कर दिया. यह देखकर रावण को क्रोध हो
आया. उसके नेत्र क्रोध से लाल हो गये. अब उसने "सूर्यास्त्र" का संधान
किया. परंतु श्रीरामजी ने अपने बाणसमूहों द्वारा उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले.
तत्पश्चात रावण ने अत्यन्त ही तीखे दस बाणॊं से उनके सारे मर्मस्थानों में गहरी
चोट पहुँचायी. इससे विचलित न होते हुए
रामजी ने बहुत-से बाण चलाकर, उसके सारे अंगों में घाव कर दिये. फ़िर कुपित होकर
सात सायकों से रावण की ध्वजा,जिस पर खोपड़ी का चिन्ह बना था, कई टुकड़े कर डाले.
अनुज लक्ष्मण ने एक बाण चलाकर रावण के सारथि के
जगमगाते कुण्डलों से मण्डित मस्तक काट डाला और पाँच पैनेबाण चलाकर हाथी की सूँड के
समान मोटे धनुष को काट डाल. महात्मा विभीषण ने सुअवसर पाकर रावण के घोड़ों को मार
गिराया. अपने भाई को आक्रमक करता देख, रावण ने क्रोधित होते हुए विभीषण को मारने
के लिए वज्र के समान प्रज्जवलित शक्ति चलायी. शक्ति को विभीषण की ओर आता देख वीर
लक्ष्मण ने तीन बाण मारकर उसे बीच में ही काट दिया.
तदनन्तर रावण ने एक
अति विशाल शक्ति हाथ में ली, जो अपनी अमोघता के लिए विशेष विख्यात थी. काल भी
स्वयं उसके वेग को सह नहीं सकता था,दिव्य तेज से प्रज्जवलित हो उठी, का संधान कर
दिया. विभीषण पर घात लगाकर शक्ति का संधान करते हुए रावण को लक्ष्मण जी ने देख
लिया था. शक्ति विभीषण तक पहुँच पाती, वे स्वयं उन्हें पीछे करके उस शक्ति के
सामने खड़े हो गये. विभीषण को बचाने के लिए वीर लक्ष्मण अपने धनुष को खींचकर हाथ
में शक्ति खड़े हुए रावण पर बाणॊं की वर्षा कर दी.
" लक्ष्मण ने
मेरे भाई को बच लिया" यह सोचता हुआ रावण लक्ष्मण के सामने खड़ा हो गया और
बोला-" अपने बलपर घमंड करने वाले लक्ष्मण ! तुमने विभीषण को तो बचा लिया,
लेकिन अब तुम मुझसे बच नहीं पाओगे."कहते हुए उसने मयासुर की माया से निर्मित
आठ घण्टॊं से विभूषित तथा महाभयंकर शब्द करने वाली, उस अमोघ एवं शत्रुघातिनी
शक्ति को, जो अपने तेज से प्रज्जवलित हो रही थी, लक्ष्मण को लक्ष्य लेकर चला दिया
और जोर से गर्जना करने लगा.
नागराज वासुकि की
जिव्हा के समान दैदिप्यमान वह महातेजस्विनी और महावेगवाली शक्ति जब लक्ष्मण के
विशाल वक्षःस्थल पर गिरी और बहुत गहराई तक धँस गयी. उस शक्ति से लक्ष्मण का हृदय
विदीर्ण हो जाने के कारण वे पृथ्वी पर गिर पड़े.
रामजी ने उस भयंकर
शक्ति को अपने दोनों हाथों से पकड़कर निकाला और उसे तोड़ डाला. वे जब लक्ष्मण के
हृदय में धँसी शक्ति को बाहर निकाल रहे थे, उचित अवसर देखकर रावण उनके सम्पूर्ण
अंगों पर मर्मभेदी बाणॊं की वर्षा करता रहा. रामजी ने इसकी परवा न करते हुए हनुमान
तथा सुग्रीव से बोले- " हे वानर वीरों ! तुम सब लोग वीर लक्ष्मण को चारों ओर
से घेर कर खड़े रहो. अब मेरे लिए पराक्रम का अवसर आया है. कुछ ही देर में यह संसार
रावण से रहित दिखाई देगा."
" मेरे राज्य
का नाश, वन का निवास, दण्डकारण्य की दौड़-धूप, विदेहकुमारी सीता का राक्षसराज
द्वारा अपहरण तथा राक्षसों के साथ
संग्राम- इन सबके कारण मुझे घोर दुःख सहना पड़ा है और नरक के समान कष्ट उठाना पड़
रहा है, किंतु रणभूमि में रावण का वध करके आज मैं सारे दुःखों से छुटकारा पा
जाऊँगा."
" जिसके लिए
मैं वानरों की विशाल सेना साथ लाया हूँ, जिसके कारण मैंने युद्ध में बालि का वध
किया, सुग्रीव को राज्य पर बिठाया, जिसके उद्देश्य के लिए समुद्र पर पुल बाँधा और
उसे पार किया, वह पापी रावण आज युद्ध में
मेरी आँखों के सामने उपस्थित है. अब यह जीने योग्य नहीं है."
"जिस
संहारकारी विष का प्रसार करने वाले सर्प की आँखों के सामने आकर जैसे कोई मनुष्य
जीवित नहीं बच सकता अथवा विनतानन्दन गरूड़ की दृष्टि में पड़कर कोई सर्प नहीं बच
सकता, उसी प्रकार आज रावण मेरे सामने आकर जीवित या सकुशल नहीं लौट सकता."
"हे वानरवीरों
! अब तुम लोग पर्वत के शिखर पर बैठकर मेरे और रावण के इस युद्ध को सुखपूर्वक देखो.
आज संग्राम में देवता,गन्धर्व, सिद्ध,ऋषि और चारणॊं के सहित तीनों लोकों के
प्राणी राम का रामत्व देखें. आज मैं वह पराक्रम प्रकट करूँगा, जिसकी अब तक यह
पृथ्वी कायम रहेगी, तब तक चराचर जगत के जीव और देवता भी सदा लोक में एकत्र होकर
चर्चा करेंगे और जिस प्रकार युद्ध हुआ है, उसे एक-दूसरे से कहेंगे."
ऐसा कहते हुए रामजी
ने सावधान हो अपने सुवर्णभूषित तीखे बाणॊं से रणभूमि में दशानन रावण को घायल करने
लगे.. जिस प्रकार मेघ जल की धारा गिराता है, उसी प्रकार श्रीराम नाराचों और मूसलों
की वर्षा करने लगे. एक-दूसरे पर चोट करते राम और रावण के छोड़े हुए श्रेष्ठ बाण
परस्पर टकराते, भयंकर शब्द प्रकट करते हुए पृथ्वी पर गिरते दिखाई देते. राम और
रावण के धनुष से प्रकट होती टंकार की ध्वनि स्मस्त प्राणियों के मन में त्रास
उत्पन्न कर देती थी. वायु के थपेड़ों से जिस्स तरह मेघ छिन्न-भिन्न हो जाता है, उसी
प्रकार दीप्तिमान धनुष धारण करने वाले महात्मा राम के बाण-स्मूहों की वर्षा से
आहत और पीड़ित होकर रावण ने वहाँ से भाग निकलना ही उचित समझा. उसने अदृश्य हो जाने
वाले मंत्र का जाप किया और देखते-ही-देखते आँखों के सामने से ओझल हो गया.
महाबली रावण को
कायर की भाँति पलायन करता देख सभी वानयूथों सहित सुग्रीव, हनुमान जी सहित सभी वानर
हर्षोल्लास के साथ,भिन्न-भिन्न विजय-सूचक शब्द निकालते हुए नृत्य करने लगे.सभी
प्रभु श्रीरामजी के पराक्रम और धीरज को देखकर भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे.
रावण के घातक
अस्त्रों और वज्र से मूर्च्छित पड़े लक्ष्मण का उपचार कुशल वैद्य सुषेण ने हनुमानजी
से ओषधियाँ लाने के कहा. चुंकि हनुमान जी उन ओषधियों को पहचानते नहीं थे, अतः
उन्होंने समूचा पर्वत लाकर वैद्य जी के पास ही रख दिया. महातेजस्वी महाकपि सुषेण ने उन ओषधियों
को कूट-पीस कर लक्ष्मण जी की नाक में दे दिया. शत्रुओं का संहार करने वाले लक्ष्मण
के शरीर में जहाँ-तहाँ बाण धंसे हुए थे. ओषधि के सूंघते ही उनके शरीर से बाण निकल
गये और वे नीरोग हो शीघ्र ही भूतल से उठकर खड़े हो गये. उन्हें स्वस्थ देखकर सभी
"साधु-साधु" कहकर वैद्य जी की प्रशंसा करने लगे.
शत्रुओं का संहार
करने वाले श्रीराम जी ने उन्हे दोनों भुजाओं में भर लिया. ऐसा करते हुए उनके
नेत्रों से आँसू छलक उठे. हृदय से लगाते हुए उन्होंने कहा-" वीर ! बड़े
सौभाग्य की बात है कि मैं तुम्हें मृत्यु के मुख से पुनः लौटा हुआ देख रहा हूँ.
तुम्हारे बिना मुझे जीवन की रक्षा से, सीताजी से अथवा विजय से भी कोई मतलब नहीं
है. तुम तुम्हीं नहीं रहोगे, तो इस जीवन को रखकर मैं क्या करुँगा."
स्नेह में पगे
शब्दों को सुनकर लक्ष्मण जी ने कहा-" भैया ! आप सत्यपराक्रमी हैं. आपने रावण
का वध करके लंका का संपूर्ण राज्य विभीषण को देने की प्रतिज्ञा की थी, वैसी
प्रतिज्ञा अब किसी ओछे और निर्बल मनुष्य की भांति आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए.
अब रावण का वध करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी कीजिए.. हे भ्राता ! जब सूर्यनारायण
अस्ताचलगामी होने लगें,उससे पूर्व आप जितनी शीघ्रता से दुष्ट रावण का वध कर सकें,
अवश्य कीजिए. मैं उस अराधम का वध देखना चाहता हूँ."
लक्ष्मण की कही हुई
बातों को सुनकर शत्रुओं का संहार करने
वाले श्रीरामजी ने धनुष लेकर बाणों का संधान किया. उन्होंने रावण को लक्ष्य में
रखकर भयंकर बाण छोड़ना आरंभ किया. रावण ने अपने ऊपर आते बाणों को देखकर दूसरे रथ पर
सवार होकर रामजी के सन्मुख आ खड़ा हुआ और अपने वज्रोपम बाणों से श्रीरामजी को उसी
तरह बींधने लगा,जैसे मेघ पर्वतों पर अच्छादित होकर धारावाहिक वृष्टि करता है.
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा * देखि विभीषण भयउ अधीरा अधिक
प्राति मन भा संदेहा* बंदि चरण कह सहित सनेहा.(तु.रा.79/2)
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना
* केहि बिधि जितब वीर बलवाना. सुनहु
सखा कह कृपानिधाना* जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना ( 3)
रावण को रथ पर और प्रभु
श्रीरामजी को बिना रथ के देखकर महात्मा विभीषण
अधीर हो गये. उन्होंने अधीरता के साथ रामजी से कहा- " हे प्रभु ! आपके
पास न तो रथ है और न ही पैरों में जूते और न ही बचाव के लिए कोई कवच ही है. फिर
किस प्रकार से आप इस महाअसुर रावण से किस प्रकार जीत पायेंगे?. इसमें मुझे संदेह
है."
अपने मित्र विभीषण को शंका में
ग्रसित पाकर रामजी ने मुस्कुराते हुए कहा-" मित्र ! तुम्हारी सोच निराधार
नहीं है. यह सच है कि मेरे पास रथ नहीं है, पैरों में जूते नहीं हैं और न ही अपने
बचाव के लिए लिये कोई कवच ही है क्या रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए रथ,जूते और
कवच धारण करना अति आवश्यक है?..क्या इनके बिना राम, रावण पर विजय प्राप्त नहीं कर
सकता?."
" प्रभु ! क्षमा
करें. राक्षसराज रावण अपने दिव्य रथ पर
आरूढ़ होकर आकाश में स्थित होकर आप पर घातक प्रहार कर रहा है. ऊपर से नीचे आते बाण
की गति तीव्र होती है. लेकिन आप जिन भी अस्त्रों को प्रयोग में लाकर रावण पर आघात करते
हैं, उनमें इतनी गति नहीं होती कि वह अपने शत्रु को चोट पहुँचा सके. इसी विचार ने
मुझे उद्वेलित कर दिया है. काश , आपके पास भी रथ होता तो आप उस दुरात्मा के ठीक
सामने खड़े होकर प्रहार करते तो उसे अधिक पीड़ा पहुँचा सकते थे." विभीषण ने
कहा.
" मित्र ! मेरे पास जो
दिव्य रथ है, उसे तुम देख नहीं पा रहे हो. मैं पृथ्वी पर खड़ा रहूँ अथवा आकाश में,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. मेरे संधान किये हुये बाण रावण को उनकी मारन क्षमता से
उतना ही आघात पहुँचायेंगे. आप व्यर्थ की चिंता मत कीजिए." रामजी ने कहा.
"क्षमा करें प्रभु ! आप
मुझे आश्वस्त करते हुए कह जरुर रहे हैं कि मेरे पास रावण से बढ़कर दिव्य रथ है. मैं
उसी पर आरूढ़ होकर युद्ध कर रहा हूँ. लेकिन मुझे तो कोई रथ दिखाई नहीं दे रहा
है." विभीषण ने जानना चाहा.
" मेरे जिस रथ को तुम देख
नहीं पा रहे हो, मैं उस दिव्य रथ के बारे में तुम्हें बतलाने जा रहा हूँ. उसे
ध्यान से सुनिये. शूरता और धैर्य मेरे रथ के पहिये हैं. सत्य और शील दृढ़ ध्वजा व
पताका है. बल, ज्ञान, इन्द्रियदमन और परोपकार हे चारों घोड़े हैं, जो क्षमा, कृपा
और समता की रस्सी से जुड़े हुये हैं. भगवान का भजन ही चतुर सारथी है. वैराग्य,ढाल और
संतोष तलवार है. दान फरसा है, बुद्धि तीव्र शक्ति है, श्रेष विज्ञान कठिन धनुष है.
निर्मल और अचल मन तरकस के समान है. सम यम और नियम -ये अनेक बाण हैं. ब्राह्मण व
गुरु-पूजन अभेद कवच है. इसके समान जीत का दूसरा उपाय नहीं है."
" हे सखे ! जिसके पास ऐसा
धर्म-युक्त रथ है उसे जीतने को कहीं भी कोई शत्रु नहीं है. हे सखा ! जिसके पास ऐसा
दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार रूपी महान दुर्जय शत्रु को भी विजय कर सकता है."
रामजी ने अपने सखा को समझाते हुए उनकी शंका का समाधान कर दिया.
००००००
आकाश-पटल पर
उपस्थित देवराज इन्द्र ने रावण का रौद्र रूप देखा कि वह किस तरह अपने दिव्य रथ पर
आरुढ़ होकर रामजी पर घातक बाण, जो वज्र के समान थे, लगातार बरसा रहा है.
देवेन्द्र ने अपने
सारथि मातलि को बुलाकर कहा-" सारथे ! रघुनन्दन श्रीराम भूमि पर खड़े रहकर उस
दुष्ट रावण से युद्ध कर रहे हैं, जबकि रावण आकाश में रथ पर आरुढ़ होकर, उन पर घातक
बाणॊं की वर्षा कर रहा है. नीचे पृथ्वी पर खड़े रहकर रामजी के द्वारा छोड़े गये बाण,
उतनी गति से प्रहार नहीं कर पा रहे हैं, जितनी गति से उन्हें करना चाहिए. अतः तुम
मेरा दिव्य रथ लेकर रामजी की सेवा में जाओ और मेरी ओर से विनम्र निवेदन करते हुए
प्रार्थना करना कि आप इस पर आरुढ़ होकर उस दुष्ट का सामना करें. जाओ सारथि! शीघ्रता
से जाओ और रामजी को रथ में बिठाकर, देवताओं के महान हित का कार्य सिद्ध करो."
"जी देवेन्द्र
! जैसी आपकी आज्ञा." कहते हुए मातलि ने रथ को हाँकते हुए श्रीरामजी के सन्मुख
उपस्थित होकर बोला-" महाबले शत्रुसुदन श्रीरामजी ! सहस्त्र नेत्रधारी देवराज
इन्द्र ने विजय के लिए आपको यह रथ समर्पित किया है. इस रथ में इन्द्र का विशाल
धनुष है, यह अग्नि के समान तेजस्वी कवच है. सूर्य के सदृश प्रकाशमान बाण हैं तथा
कल्याणमयी निर्मल शक्ति है. हे स्वामी ! आप इस रथ पर आरूढ़ हो मुझ सारथि की सहायता
से राक्षसराज रावण का वध कीजिए, जैसे महेन्द्र दानवों का संहार करते हैं."
रामजी ने इन्द्र को
साधुवाद देते हुए उस दिव्य रथ की परिक्रमा की और उसे प्रणाम करके उस दिव्य रथ पर
सवार हुए और आकाश-पटल में रावण की समकक्ष ऊँचाइयों पर स्थित रहते हुए उन सभी
अस्त्रों को नष्ट कर दिया. अपने अस्त्रों को कटता हुआ देख रावण को अत्यन्त ही
क्रोध हो आया. उसने गन्धर्व-अस्त्र को अभिमंत्रित करते हुए रामजी की ओर छोड़ा, जिसे
रामजी ने बीच में ही काट कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये.
रावण ने अपनी तरकाश
से एक घातक बाण निकाला, जिसका मुख सर्पों के समान था. वह मुख आग के समान
प्रज्ज्वलित हो रहा था और अपने मुख से जलती आग उगल रहा था, जिसका स्पर्श वासुकि
नाग के समान असह्य था, घात लगाकर रामजी की ओर संधान कर दिया.भयानक सर्पों को अपनी
ओर आता देख रामजी ने अपने धनुष पर गरुड़ास्त्र का संधान कर छोड़ दिया. रघुनाथजी के
धनुष से छूटे हुए अग्नियुल्य बाण असंख्य गरुड़ बनकर सब ओर विचरते हुए रावण के महान
वेगशाली सर्पाकार सायकों का संहार कर डाला. अपने अस्त्र को नष्ट होता देख क्रुद्ध
रावण रामजी पर भयंकर बाणॊं की वर्षा की जिससे रामजी सहित सारथि मातलि को घायल कर
दिया. वे दोनों थोड़ा संभल पाते कि रावण ने एक तीक्ष्ण बाण से रथ की ध्वजा को काट
डाला. रथ के निचले हिस्से को गिरा दिया और घोड़ों को क्षत-विक्षत कर दिया.
यह देखकर देवराज
इन्द्र,गन्धर्व, चारण, सिद्ध और महर्षियों के मन में गहरा विषाद छा गया. विभीषण के
सहित सारे यूथपति भी बहुत दुःखी हो गये.श्रीराम रूपी चन्द्रमा को राव रूपी राहु से
ग्रस्त होता हुआ देखकर सभी को अपार दुःख होने लगा.सूर्य की किरणें मंद पड़
गयीं.समुद्र प्रज्जवलित-सा होने लगा.आकाश में इक्ष्वाकुवंशियों के नक्षत्र विशाखा
पर जिसके देवता अग्नि और इन्द्र हैं, आक्रमण करके मंगल जा बैठा. उस समय लंकेश अपने
दस मस्तकों और बीस भुजाओं से युक्त हाथों में धनुष लिये मैनाक पर्वत के समान दिखाई
दे रहा था. रामजी पर लगातार बाणॊं के प्रहार करते रहने से रामजी अपने सायको का
संधान ही नहीं कर पा रहे थे.
अपने ऊपर लगातार
बाणॊं की वर्षा होता देख, रामजी का धैर्य डोलने लगा था. उन्हें अत्यन्त क्रोध हो
आया. उनकी मौहें तेढ़ी होने लगी थीं. नेत्र लाल होने लगे थे.रामजी का रौद्र रूप
देखकर ऐसा जान पड़ता था कि वे समस्त राक्षसों को भस्म कर देंगे. उनके मुख की ओर देखकर
समस्त प्राणी भय से थर्रा उठे. पृथ्वी कांपने लगी. पर्वत हिलने लगे.सारिताओं का
स्वामी समुद्र में ज्वार मचल उठा.आकाश में
सब ओर से उत्पातसूचक प्रचण्ड गर्जना करने वाले बादल गर्जते हुए चक्कर लगाने
लगे. यह सब देखकर स्वयं रावण भी भयभीत होने लगा. अपने प्राणॊं को संकट में पाकर
उसका आत्मविश्वास डगमगाने लगा. धनुष पर पकड़ कमजोर होने लगी.
आकाश में अपने-अपने
विमानों में बैठे देवता, गन्धर्व, बड़े-बड़े नाग, ऋषि, दैत्य, गरुड़- ये सब
युद्धपरायण रामजे और रावण के समस्त लोकों के प्रलय की भांति उपस्थित हुए नाना
प्रकार के भयानक प्रहारों से युक्त उस युद्ध का दृश्य देखने लगे.
रावण को युद्ध में
संलग्न होने के लिए असुर दशग्रीव को उकसाते हुए उसके नाम का जयघोष कर रहे थे. इस
ओर देवगण भी श्रीरामजी को पुकार कर बारम्बार कहने लगे- "जय जय श्रीराम...जय
हो रघुनन्दन...आपकी जय हो...आपकी विजय हो."
दुष्टात्मा रावण ने
अत्यन्त ही क्रोधित होते हुए श्रीरामजी पर प्रहार करने की इच्छा से एक बहुत बड़ा
हथियार उठाया. वह हथियार बहुत शक्तिशाली, बहुत शब्द करने वाला, तथा सम्पूर्ण
शत्रुओं का संहारक था. उसकी शिखाएँ शैल-शिखरों के समान थीं, वह मन और नेत्रों को
भयभीत करने वाला था. उसका अग्रभाग अत्यन्त ही तीखा था. वह धूमकेतु के समान भयंकर
जान पड़ता था, वह साक्षात काल को नष्ट कर देनी की क्षमता रखता था. उस घातक अस्त्र
का नाम "शूल" था.भयंकर रोष में भरकर राक्षसराज रावण ने उस शूल को अपने
हाथ में ले लिया. फ़िर उसने उसे अपने मस्तक से लगाया. नेत्रों को बंद कर कुछ
मंत्रों का मन-ही-मन जाप कर उसे शूल को अभिमंत्रित किया. फिर भयानक गर्जना की. उस
गर्जना को सुनकर पृथ्वी, आकाश सहित सभी दिशायें कम्पित होने लगीं. उस निशाचर के
भैरवनाद से सम्पूर्न प्राणी थर्रा उठे. प्रशांत सागर भी अशांत हो उठा.
शूल को हाथ में
लेकर उस महापराक्रमी रावण ने रामजी को सम्बोधित करते हुए कठोर वाणी में कहा-"
राम ! यह शूल बज्र के समान शक्तिशाली है. इसे मैंने रोषपूर्वक अपने हाथ में लिया
है. मेरा यह अमोघ शूल तुम्हारे अनुज लक्ष्मण के सहित तुम्हारे भी प्राण ले लेगा."
"मुझ जैसे
शूरवीर पराक्रमी से युद्ध की इच्छा रखने वाले राम !....आज तुम्हारा वध करके सेना
के मुहाने पर जो मेरे शूरवीर राक्षस मारे गये हैं, उन्हीं के समान अवस्था में मैं
तुम्हें पहुँचा दूँगा."
"सावधान राम !
सावधान लक्ष्मण ! मैं अभी इस शूल से तुम दोनों को समरभूमि में मौत के घाट उतारता
हूँ." यह कहते हुए उसे उस शूल को चला दिया. रावण के हाथ से छूटते हुए वह शूल
आकाश में चमक उठा. उसकी चमक को देखकर ऐसा प्रतीत हुआ मानो आकाश में बिजलियाँ कड़क
उठी हों. उस शूल में जड़े आठ घंटॊं से गम्भीर घोष हो रहा था.
परम पराक्रमी
रघुननदन जी ने उस भयानक शूल को अपनी ओर आता देख बाणॊं की वर्षा कर दी. उस महान शूल
ने रामजी के धनुष से छूटे सभी बाणॊं को जलाकर राख कर दिया. अपने समस्त बाणॊं को
राख होता हुआ देखकर रामजी को बड़ा क्रोध हुआ. क्रोध में भरते हुए उन्होंने मातलि की
लायी हुई देवेन्द्र द्वारा सम्मानित शक्ति को हाथ में लिया. शक्ति हाथ में लेते ही
उल्का के समान प्रकाशमान हो उठी. समस्त आकाश को अपनी प्रभा से उद्भासित कर दिया
तथा घंटानाद प्रकट होने लगा.
रामजी ने उस शक्ति
को अपने धनुष पर रखकर संधान कर दिया. शक्ति सीधी चलती हुई राक्षसराज रावण के शूल
पर पड़ी, जिसके प्रहार से वह निस्तेज होकर टूट-टूट कर बिखर गया. बिना विलम्ब किये
रघुनाथ जी ने वज्रतुल्य पैने बाणॊं से रावण के घोड़ों को घायल कर दिया.और तीन तीखे
बाणॊं को से रावण की छाती छेद डाली और उसके ललाट पर चोट पहुँचायी. उस बाण की मार
से रावण के सारे अंग क्षत-विक्षत हो गये.सारे शरीर से खून की धारा बह निकली. रामजी
के बाणॊं से जब रावण का सारा शरीर अत्यन्त घायल हो लहुलुहान हो गया, यह देखकर उस
बड़ी पीड़ा हुई. साथ ही उसे भारी क्रोध भी हो आया.उस्के नेत्र अग्नि के समान
प्रज्ज्वलित हो उठे. उसने अपना धनुष उठाया और अत्यन्त कुपित होकर महासमर में रामजी
पर आक्रमण कर उसने शस्त्रों बाणधाराओं की वृष्टि कर रामजी को आच्छादित कर दिया.
लेकिन तनिक भी विचलित न होते हुए वे स्थिर भाव से खड़े रहे. तदनन्तर शीघ्रतापूर्वक
हाथा चलाते हुए निशाचर राघवेन्द्र की छाती में सहस्त्रों बाण मारे,जिससे घायल हुए
रामजी रक्त से नहा उठे.
अत्यन्त क्रोधित
होते हुए उन्होंने एक तेजस्वी सायक को हाथ में लिया. धनुष पर चढ़ाया और कान तक
डोरी खींचते हुए उन्होंने रावण से हँसते हुए कठोर वाणी में कहा-" हे नीच
राक्षस ! विशाल वन में मुझसे विलग हुई दीन अवस्था में विद्यमान विदेहकुमारी का
बलपूर्वक अपहरण करके तू अपने आपको बड़ा शूरवीर समझता है.. अबलाओं पर वीरता दिखाने
वाले निशाचर ! मर्यादा का चक्र भंग करने वाले, पापी, निर्लज्ज, सदाचारशून्य
निशाचर! तूने वैदेही के रूप में अपनी मौत बुलायी है. क्या तू अपने को शूरवीर मानता
है?."
उसे धिक्कारते हुए
उन्होंने कहा-" ओ खोटी बुद्धिवाले निशाचर ! आज मेरे बाणों से कटकर तेरा
कुण्डलों से युक्त मस्तक कटकर गिर पड़ेगा.तेरी लाश को गृध्र घसीटेंगे. तेरी आतों को
पक्षी खींच-खींचकर खायेंगे." ऐसा कहते हुए शत्रुओं का नाश करने वाले
श्रीरामजी ने सहस्त्रों बाण चलाकर उसे पीड़ित करना आरम्भ कर दिया. उधर वानरों ने भी
बड़ी-बड़ी शिलाओं को उठाकर रावण पर फेंकना आरम्भ कर दिया. चारों ओर से हो रहे प्रहार
से रावण व्याकुल होने लगा. अपनी व्याकुलता के कारण उसमें इतनी भी शक्ति नहीं बची
थी कि वह अपना धनुष संभाल पा रहा था और न ही अस्त्र उठा पा रहा था. रामजी ने अपने
तीखे बाणॊं से से उसे अधमरा कर दिया. कुछ समय तक तो वह अपने स्थान पर खड़ा रहा फिर
मूर्च्छित होकर अपने रथ में गिर पड़ा. अपने राजा को शक्तिहीन होकर रथ पर पड़ा देखकर
सारथि ने रथ को लौटाकर समरभूमि से बाहर निकल गया.
रणभूमि से विवश होकर
भागते हुए रावण को देखकर, वानरयूथपतियों के सहित सुग्रीव, विभीषण, हनुमान आदि
हर्षोल्लास प्रकट करते हुये अपने स्वामी श्रीराम का जयघोष करने लगे. महावीर
लक्ष्मण अपने अग्रज श्रीरामजी की प्रशंसा करने लगे.
थोड़ी देर बाद जब
उसे चेत आया तो उसने अपने आपको रणभूमि में न पाकर, किसी अनजान स्थान पर पाया. उसने
सारथि से जानना चाहा- " सारथि....तुम मुझे युद्धभूमि से बाहर निकालकर यहाँ
किस स्थान में ले आये.? दुर्बुद्धे ! क्या तूने मुझे पराक्रमशून्य, असमर्थ, पुरुषार्थशून्य,
डरपोक, ओछा, धैर्यहीन, निस्तेज, माया रहित और अस्त्रों से वंचित समझ रखा है, जो
मेरी अवहेलना करके तू अपनी बुद्धि का मनमाना काम कर रहा है? तूने मुझसे पूछा क्यों
नहीं?. "
" सारथि !
तेरा अभिप्रायः क्या है?.यह जाने बिना ही मेरी अवहेलना करके तू किस लिए शत्रु के
सामने से मेरा यह रथ हटा लाया?. आज तूने मेरे चिरकाल से उपार्जित यश,पराक्रम,तेज,
और विश्वास पर पानी फेर दिया.?"
" मेरे शत्रु
का बल-पराक्रम विख्यात है. उसे अपने बल-विक्रम द्वारा संतुष्ट करना मेरे लिए उचित
है और मैं युद्ध का लोभी हूँ, तो तूने मेरे रथ को युद्धभूमि से हटाकर शत्रु की दृष्टि
में मुझे कायर सिद्ध कर दिया. मुझे तो ऐसा भी लगता है कि तूझे शत्रु ने लोभ देकर
अपने पक्ष में मिला लिया है. तूने जो कार्य किया है, वह शत्रुओं के जैसा है."
"यदि तू मेरे
साथ बहुत दिनों से रहा है और यदि मेरे गुणॊं का तुझे स्मरण है तो मेरे इस रथ को
शीघ्र लौटा ले चल. कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरा शत्रु भाग जाय?." रावण ने अपने
सारथि से कहा. रावण ने अत्यन्त क्रोधित होते हुए अपने सारथि से कहा.
यद्यपि सारथि बुद्धि में रावण के लिए हित की
भावना थी, तथापि उस मूर्ख ने जब उससे ऐसी कठोर बात कही तब सारथि ने विनय से साथ
कहा-" महाराज ! न तो मैं डरा हूँ और न ही मेरा विवेक नष्ट हुआ है और न ही
मुझे शत्रु पक्ष ने बहकाया है, मैं असावधान भी नहीं हूँ. न ही मेरा आपके प्रति
स्नेह कम हुआ है तथा आपने मेरा जो सत्कार किया है, उसे मैं भूला भी नहीं
हूँ."
" हे लंकेश !
मैंने सदा से ही आपका हित चाहा है. मैं सदा से ही आपके यश के लिए प्रयत्नशील रहा
हूँ. मेरे हृदय में आपके प्रति आदर और
स्नेह रहा है. आप अपने शत्रु के घातक प्रहार से मूर्च्छित होकर रथ पर गिर
पड़े थे. उस समय आपके प्राणों को संकट में घिरा देखकर मुझे उचित लगा कि पहले आपके
प्राणों को बचाना उचित होगा.अतः मैं आपको युद्धभूमि से बाहर सुरक्षित स्थान में ले
आया."
" हे स्वामी !
मैं आपके प्रिय और हित मे सदैव तत्पर रहने वाला हूँ. अतः इस कार्य के लिए आप किसी
ओछे और अनार्य पुरुष की भांति मुझ पर दोषारोपण न करें. जैसे चन्द्रोदय के कारण
समुद्र का जल नदी के वेग को पीछे लौटा देता है, उसी प्रकार मैंने जिस कारण से आपके
रथ को युद्धभूमि से पीछे हटाया है,उसे कृपया सुनिये."
"उस समय मैंने
समझा था कि आप भीषण युद्ध करते हुए थक गये हैं. आपके पाँव लड़खड़ा रहे थे. शरीर
थर-थर कांप रहा था. आपका पराक्रम शिथिल पड़ गया था और आप अचानक मूर्च्छित होकर रथ
में गिर पड़े थे, जिसे देखकर शत्रु-पक्ष हर्षोल्लास करने लगा था. मुझे यह सब देखकर
अच्छा नहीं लगा कि आपका कोई उपहास उड़ाये. इतना ही नहीं मेरे घोड़े भी रथ
खींचते-खींचते थक गये थे. उनके पाँव भी लड़खड़ा रहे थे. इसके साथ ही मेरे सामने
जो-जो लक्षण प्रकट हो रहे थे, यदि वे सफल हुए तो उसमें आपका अमंगल ही दिखायी देता
है."
" एक सारथि को
देश-काल, शुभ लक्षणों का, चेष्टाओं का, उत्साह, अनुत्साह, और खेद का तथा बलाबल भी
ज्ञान रखना चाहिए. धरती पर जो ऊँचे-नीचे, सम-विषम स्थान हों, उनकी भी जानकारी
रखनी चाहिए. युद्ध का उपयुक्त अवसर कब होगा,इसे भी जानना और शत्रुओं की दुर्बलता
पर भी दृष्टि रखनी चाहिए."
" शत्रु के
पास जाना, शत्रु से दूरी बनाए रखना, युद्धभूमि से अलग हो जाने का उपयुक्त अवसर
तलाशना, इन सब बातों को समझना रथ पर बैठे सारथि का कर्तव्य होता है. आपको तथा रथके
घोड़ों को देर तक विश्राम देना,आदि के लिए मैंने जो कार्य किया है, वह सर्वथा उचित
था."
" हे स्वामी !
मैंने अपनी मनमानी करने के लिए नहीं अपितु अपने स्वामी के स्नेहवश उनकी रक्षा के
लिए इस रथ को दूर हटाना उचित समझा. हे शत्रुवीर ! अब मुझे आज्ञा दीजिये. आप ठीक
समझकर जो भी कहेंगे,उसे मैं मन में आपके ऋण से उऋण होने की भावना करुँगा."
दोनों हाथ जोड़ते हुए विनम्र भाव से सारथि ने रावण से प्रार्थना करते हुए कहा.
वस्तु-स्थिति का
वास्ताविक ज्ञान होने पर रावण संतुष्ट हुआ. और नाना प्रकार से उसकी सराहना करके
युद्ध के लिए उद्धत होते हुए बोला-" सूत ! अब तुम रथ को खींचकर यथा शीघ्र राम
के सामने ले चलो, रावण अब अपने शत्रु को मारे बिना घर नहीं लौटेगा." ऐसा कहकर
रावण ने सारथि को पुरस्कार के रूप में अपने हाथ का एक सुन्दर आभूषण उतार कर दिया.
रावण का आदेश पाकर
सारथि ने तुरन्त ही घोड़े हाँके. फ़िर तो राक्षसराज का वह विशाल रथ क्षण भर में
युद्ध के मुहाने पर रामजी के समीप जा पहुँचा.
०००००
उधर श्रीरामजी
युद्ध में थककर चिंता करते हुए युद्धभूमि में खड़े थे. इतने में रावण युद्ध के
सामने आकर उपस्थित हो गया. राम-रावण के बीच चल रहे युद्ध को देखने की उत्सुकता लिए
भगवान, अगस्त्य मुनि आदि आकाश-पटल पर अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ होकर आए हुए थे.
अदृश्य रहते हुए वे सभी प्रभु श्रीरामजीके समक्ष उपस्थित हुए और हाथ जोड़कर, विनम्रता से अनुरोध करते हुए कहने लगे-" सबके हृदय में रमण करने
वाले महाबाहो श्रीराम ! आप कृपया हमसे एक अत्यन्त ही गोपानीय स्त्रोत को सुनें.
इसके जपने से निश्चित ही आप राक्षसराज रावण पर विजय प्राप्त करेंगे."
" हे प्रभु !
इस गोपनीय स्त्रोत का नाम है-"आदित्यहृदय". यह परम पवित्र और संपूर्ण
शत्रुओं का नाश करने वाला है. इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है. यह संपूर्ण
मंगलों का मंगल है.इस्सके जाप से सभी पापों का नाश हो जाता है. यह चिंता और शोक को
मिटाने वाला है.
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् * पूज्यस्व विवस्वन्तं भास्करं
भुवनेश्वरम्
अर्थात -भगवान
सूर्य अपनी अनन्त किरणॊं से सुशोभित हैं. ये नित्य उदय होने वाले देवता और असुरों
से नमस्कृत विवस्वान् नाम से प्रसिद्ध प्रभा का विस्तार करने वाले और संसार के
स्वामी हैं.अर्थात-संपूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं. ये तेज की राशि तथा अपनी
किरणॊं से जगत को सत्ता एवं स्फ़ूर्ति प्रदान करने वाला है. ये ही अपनी राशियों का
प्रसार करके देवता और असुरों सहित सम्पूर्ण लोकों का पालन करते हैं." इस
मंत्र का जाप कीजिए."
" हे राम ! ये
ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर,काल,यम, चन्दमा, वरूण,
पितर, वसु,अश्विनीकुमार, मरुद्गण, मनु, वायु, अग्नि,प्रजा,प्राण, ऋतुओं को प्रकट
करने वाले तथा प्रभा के पुंज हैं."
" हे
रघुनन्दन. ! आप गायत्री मंत्र का जाप कर भगवान सूर्य ने इन नामों का जाप करें.
"आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान् सुवर्णसदृशो
भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः हरिदश्वः
सहत्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमन् तिमिरोन्मथनः
शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोSशुमान हिरण्यगर्भः
शिशिरस्तपानोSहस्कारो रविः अग्निगर्भोSदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः व्योमनाथ
स्तमोभेदी ऋग्युजुःसामपारगः धनवृष्टिरपां
मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः आतमी
मण्डली मृत्युः पिंगलःसर्वतापनः कविर्विश्वो
महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः नक्षत्राग्रहताराणामधिपो
विश्वभावनः तेजसामपि तेजस्वी द्वादशत्मन् नमोSस्तु ते."
" हे महाबाहो
! तुम एकाग्रचित्त होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो. इस आदित्यहृदय का तीन
बार जप करके तुम निश्चित ही युद्ध में विजय पाओगे, और तुम इसी क्षण रावण का वध कर
सकोगे." ऐसा कहकर वे अंतर्ध्यान हो गये.
मंत्र का विधिवत
जाप करने के पश्चात उन्होंने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साहपूर्वक रावण का
वध करने का निश्चय किया..
रावनु रथी
बिरथ रघुबीरा * देखी विभीषण भयउ अधीरा.
अधिक प्रीति मन भा
संदेहा* बंदि चरन कह सहित सनेहा.
रावण को सोने के रथ
पर आरूढ़ होकर आते देखकर विभीषण जी चिंतित हो उठे कि मेरे राम के पास रथ नहीं
है.उनके पैरों में जूते भी नहीं है, कवच भी नहीं है, वे बलवान वीर रावण से कैसे
जीत पाएंगे?. यह क्षण मात्र को आये इस विचार ने उन्हें उद्वेलित कर दिया. मन में
अपार पीड़ा का अनुभव होने लगा. मन शंका-कुशंका से भर उठा.
उन्होंने अपने मन की
पीड़ा को उजागर करते हुए रामजी से कहा-" हे प्रभु ! आपके पास न तो रथ है, और
नहीं पैरों में जूते? न ही आपके पास कोई सुरक्षा कवच ही है?. आप परमप्रतापी, बलवान
राक्षस लंकेश पर कैसे विजय प्राप्त कर पायेंगे?.
रामजी ने अपने
मित्र विभीषण की गहन पीड़ा को समझा और फ़िर मुस्कुराते हुए बोले-" मित्र विभीषण
! आपकी मानसिक वेदना को समझा जा सकता है. तुम केवल इस बात को लेकर चिंतित हो कि
मेरे पैरों में जूते नहीं है. मेरे पास रावण के जैसा रथ नहीं है और न ही मेरे पास
कोई सुरक्षा कवच ही है. एक पापाचारी के पास उसका अपना दिव्य रथ है और धर्म-रक्षक बिना रथ के उस पापी से युद्ध
करने जा रहा है. यह तो नियम विरुद्ध युद्ध हुआ न?."
" हे सखा !
तुम्हारा इस प्रकार चिंतित होना स्वभाविक ही है. लेकिन मेरे पास एक ऐसा दिव्य रथ
है, जिसे तुम देख नहीं पा रहे हो.. हे सखे ! जिससे जीत होती है वह और ही रथ
है." रामजी ने कहा.
" प्रभो ! यह
समय पहेलियाँ बुझाने का नहीं है?.आप क्या कहना चाहते हैं, मुझ अल्पबुद्धि वाले को
कुछ भी समझ नहीं आ रहा है?"
" मित्र !
इसमें कुछ भी समझने जैसा नहीं है. मैं तुम्हें सरल भाषा में समझा कर कह रहा हूँ.
सुनो ! शूरता और धैर्य मेरे रथ के पहिये हैं. सत्य और शील दृढ़ ध्वजा और पताका
है.बल, ज्ञान, इन्द्रियदमन और परोपकार ये चारों घोड़े हैं, जो क्षमा और समता की
रस्सी से जुड़े हुए हैं. भगवान का भजन ही मेरा चतुर सारथि है. वैराग्य मेरी ढाल है
और सन्तोष मेरी तलवार. दान मेरा फरसा है, बुद्धि तीव्र शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान
मेरा कठिन धनुष है.निर्मल और अचल मन तरकस है, सम, यम और नियम-ये मेरे बाण है. ब्राह्मण
और गुरु-पूजन मेरे अभेद्य कवच हैं."
" हे सखा !
जिसके पास ऐसा धर्मयुक्त रथ है, उसको भला कौन शत्रु पराजित कर सकता है?. हे मित्र
! सुनो....जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो वह वी संसार रूपी दुर्जय शत्रु पर भी विजय
प्राप्त कर सकता है." रामजी ने अपने मित्र विभीषण को समझाते हुए कहा.
इस
ओर अकेले महात्मा विभीषण रामजी को बिना रथ के देखकर चिंतित हो रहे थे.उसी प्रकार
स्वयं देवराज इन्द्र भी इस बात को लेकर चिंतित थे.
देवेन्द्र
ने अपने सारथि को रथ लाने की आज्ञा दी. जब रथ आ गया तो उन्होंने अपने सारथि मातलि
को समाझाते हुए कहा-" सारथे !श्री रघुनाथजी भूमि पर खड़े हैं और वह राक्षस रथ
पर बैठा हुआ है. ऐसी दशा में इन दोनों का युद्ध बराबर नहीं है. तुम मेरा रथ लेकर
शीघ्रता से उनके पास जाओ और विनम्रता से कहना कि यह रथ देवराज इन्द्र ने आपकी सेवा
में भेजा है.इस तरह तुम उन्हें बिठाकर देवताओं का महान हित का कार्य पूरा
करो."
तदनन्तर
देवराज इन्द्र का जो शोभाशाली श्रेष्ठ रथ है, जिसके सभी अवयव सुवर्णमय होने के
कारण जागमगा रहा था, जिसे सैकड़ों घुँघरुओं से
विभूषित किया गया था, जिसकी कांति प्रातःकाल की भांति अरुण है, जिसके कूबर में
वैदूर्यमणि जड़ी गई है,जिसमें सूर्यतुल्य तेजस्वी, हरे रंग वाले सोने से सजे हुए
घोड़े जुते हैं,तथा जिसका ध्वज-दण्ड सोने का बना हुआ है, उस रथ पर आरूढ़ हो मातलि
देवराज का संदेश ले स्वर्ग से भूतल पर उतरकर श्रीरामजी के सामने खड़ा हुआ.
रथ
पर बैठा हुआ सारथि मातलि हाथ जोड़कर श्रीरामजी से बोला- " हे महाबली शत्रुसूदन
रघुवीर जी ! देवराज इन्द्र ने विजय के लिये आपको यह रथ समर्पित किया है.( विशाल
धनुष आदि दिखाते हुए) यह इन्द्र का विशाल धनुष है. यह अग्नि के समान तेजस्वी कवच
है.ये सूर्यसदृश्य प्रकाशमान बाण है. तथा यह कल्याणकारी निर्मल शक्ति है..यह दिव्य
रथ सप्त समुद्र, सप्त शैल, पंचभूत, तीन अग्नि, असत्य से रहित महानतप पचेन्द्रीय,
पंचाग्नि, चार दिशायें, संचरण करने वाले दस पवन ,दिन-रात- तथा चार चंचल, मनोहर, अजर,अमर और मन की गति से चलने
वाले अश्व बनकर इस रथ में जुते है."
"
हे महात्मन ! सृष्टि के आरंभ में त्रिपुर-दाह करने वाले (शिव) तथा चतुर्मुख के
द्वारा यह रथ निर्मित हुआ था. यह सहस्त्रों सूर्य के समान है. युगांत में भी इसका
नाश नहीं होगा, ऐसा यह दिव्य रथ इन्द्र का है."
"
स्वामी ! यह असंख्य ब्रह्माण्डों को भी अपने ऊपर उठाकर ले जा सकता है. इसे छोटा अथवा
बड़ा बनाया जा सकता है. सृष्टि को निगलने वाले विष्णु का उदर ही इसका उपमान हो सकता
है."
"
हे प्रभु ! यह शर के वेग जैसे वेग से जाने वाला है.यह रथ नेत्र, मन,तथा पवन को भी
अपने वेग से हरा सकता है और मन की भावना के भी आगे दौड़ सकता है. गगन और पृथ्वी के
अन्तर को यह एक पल में माप सकता है.इसे जल और अग्नि में ले जाया जा सकता है."
"
हे सृष्टि को बनाने वाले! सप्त समुद्र हैं, उससे दूगुने लोक हैं.किंतु वे सब
परिवर्तनशील हैं. किसी-न-किसी सस्मय उनमे परिवर्तन होता है. किन्तु कभी परिवर्तित
न होने वाला एकमात्र वस्तु यह रथ ही है."
"
हे आदिपुरुष ! देवता,मुनि, शिव,ब्रह्मा, सबने मिलकर प्रेरित किया है, तो देवेद्र
ने इसे आपके पास भेजा है." अश्वों के मन को पहिचानने वाले मातलि ने रामजी से कहा.
रामजी
को यह सुनकर मन हे संशय किया-"कदाचित मायावी रावण का छल ही तो नही है? तब उस
रथ में जुते घने केसरीवाले अश्वों ने आनादि वेद के वचन कहकर मातलि की बात को सत्य
घोषित किया.
रामजी
ने संशय से मुक्त होकर सद्गुणों से पूर्ण उस सारथि से प्रश्न किया-" तुम्हारा
नाम क्या है?." उसने नमस्कार करते हुए कहा-" हे प्रभो ! मुझे इस रथ का
चालक मातलि कहते हैं." तब श्रीरामजी ने मारुति एवं अपने अनुज को देखकर
कहा-" तुम्हारा अभिप्राय क्या है?. उन्होंने प्रणाम करते हुए कहा-" हे
प्रभु! इसमें संदेह नहीं है, यह रथ इन्द्र का ही भेजा हुआ है."
श्रीरामजी
ने संतुष्ट होकर उस रथ को तो पहले दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया. फ़िर उसकी परिक्रमा
की और रथ पर आरूढ़ हुए. उस समय पापकर्म
मिट्टी में गिरकर रो रहे थे. सत्कर्म नाच रहे थे. अब दुःख में डूबे हुए देवतादि
प्रसन्न हुये.
नगड़ों
की ध्वनि. युद्ध में वीरों की ध्वनि, युद्धभूमि में चतुरंग सेना से घिरने से
उत्पन्न ध्वनि, राम एवं रावण के रथों की गड़गड़ाहट से उत्पन्न ध्वनि-सब ध्वनियाँ ऐसी
उठीं कि कान के परदे फ़ट गए और पृथ्वी के सब प्राणी सुनकर भय से प्राणहीन-से हो
गये.
चक्रवर्ती
रामजी ने मातलि से कहा-’-" हे सारथि ! तुम अपने कर्तव्य के बारे मेरी दो
बातें ध्यान में रखना.. शत्रु के द्वारा आक्रमण किये जाने के पश्चात तुम मेरे
मनोभाव को समझकर धीरता से कार्य करना और आतुर मत होना."
मातलि
ने उत्तर देते हुए कहा-" हे वदान्य ! आपका चित्त, अश्वों का मन, शत्रु की
मनोवृत्ति, शत्रु की कमी अथवा पूर्णता, उसका परिणाम निर्ब्याज रुप से फ़ल प्रदान
करने वाले काल की रीति तथा प्राप्त कार्य- इन सबका यदि ठीक-ठीक विचार नहीं करुँ तो
मेरी विद्या किस काम की.? तब अकलक प्रभु ने कहा-"ठीक है". यह कहकर मातलि
ने अपने रथ को हांकते हुए उस ओर प्रस्थित हुये जिस ओर राक्षसराज रावण अपने
सुवर्णिम रथ पर आरूढ़ था.
महोदर
नामक पर्वताकार राक्षस ने लंकेश से कहा-" हे लंकेश ! राम देवेन्द्र के रथ पर
आरूढ़ होकर आपसे युद्ध करने आ रहे हैं. उस चमत्कारी रथ से आपको सावधान हो जाना
चाहिए."
तब
लंकेश ने कहा-" इसमें भय नाम की कौन-सी बात है?. तुम देखना. राम मेरे सामने
ज्यादा समय तक टिक नहीं पायेगा." ऐसा कहते हुए उस्ने अपने सारथि से रथ आगे
बढ़ाने को कहा.
0000000
रामजी
ने सारथि को समझाते हुए कहा-" हे मातले ! देखो, मेरे शत्रु रावण का रथ बड़े
वेग से आ रहा है.रावण जिस प्रकार प्रदक्षिण भाव से महान वेग के साथ पुनः आ रहा है,
उससे जान पड़ता है कि उसने समरभूमि में अपने वध का निश्चय कर लिया है. अतः तुम
सावधानी से जाओ और शत्रु के रथ की ओर आगे बढ़ो.जैसे हवा उमड़े हुए बादलों को
छिन्न-भिन्न कर डालती है, उसी प्रकार आज मैं शत्रु के रथ का विध्वंस करना चाहता
हूँ. भय और घबराहट को छोड़कर मन और नेत्रों को स्थिर रखते हुए घोड़ों की बागडोर काबू
में रखो और तेज रथ चलाओ."
" हे सारथि ! तुम्हें देवराज इन्द्र
का रथ हाँकने का अभ्यास है. अतः तुमको कुछ अतिरिक्त सिखाने की आवश्यकता नहीं है.
तुम एकाग्रचित्त होकर रथ का संचालन करो. मैं तुम्हें केवल कर्तव्य का स्मरणमात्र
करा रहा हूँ. तुम्हें कोई शिक्षा नहीं दे रहा हूँ."
श्रीरामचन्द्रजी के इन वचनों को सुनकर
मातलि को बड़ा संतोष हुआ और उसने रथ को दाहिने रखते हुए अपने रथ को आगे बढ़ाया.
अपने सामने रामजी के रथको आता देख रावण
को अत्यन्त ही क्रोध हो आया और बाणों की वृष्टि करने लगा. श्रीरामजी को भी क्रोध
हुआ और उन्होंने ने देवराज इन्द्र का धनुष हाथ में लिया और बाणों की झड़ी लगा दी.
दोनों दर्प से भरे हुए दो सिहों के समान आपने-सामने डटे थे.
युद्ध के समय ऐसे भयानक उत्पात होने लगे,
जो रोंगटे खड़े कर देने वाले थे. उनसे रावण का विनाश और रामजी के अभ्युदय की सूचना
मिलती थी. रावण का रथ जिस ओर भी जाता था, उसी-उसी ओर आकाश में गीधों का झुण्ड
दौड़ता दिखता था.असमय ही जपा (अड़हुल) के फ़ूल-की-सी लाल रंगवाली संध्या से आवृत्त
हुई लंकापुरी, दिन में जलती हुई-सी दिखाई देती थी.
रावण के लिए यह समय अनुकूल नहीं था.
बड़े-बड़ी उल्काएँ वज्रपात-की-सी गड़गड़ाहट के साथ गिरने लगी थीं, जो उसके लिए अहित की
सूचना दे रही थीं. वह जहाँ-जहाँ जाता, वहाँ-वहाँ की धरती डोलने लगती थी. गीदड़ियां
अमंगलसूचक बोली बोलती थीं और उनके पीछे गीध पीछे-पीछे मंडराते चलते थे. बिना बादल
के भयानक बिजलियाँ कड़कने लगी थीं. समस्त दिशाओं में अंधकार छा गया. भयानक आवाज
करने वाली सैकड़ों सारिकाएं आपस में घोर कलह करती हुईं उसके रथ पर आकार गिरने लगीं.
शकुनों के ज्ञाता रामजी इन अपशकुनों को देखकर जहाँ हर्षित हो रहे थे, वहीं लंकेश
के मन में गहरी निराशा-हताशा छाने लगी थी.
श्रीराम और रावण का घोर युद्ध.
प्रभु श्रीराम और रावण के बीच घोर
युद्ध चल रहा था, जो समस्त लोकों के लिए भयंकर था. इस युद्ध को देखने के लिए आकाश-पटल में देवतागण,
गन्धर्व, यक्षादि अपने-अपने वाहनों पर आरुढ़ होकर युद्ध देखने की लालसा लिए हुए
अवतरित हुए. केवल वे ही इस युद्ध को देखने के लिए ललायित नहीं थी, बल्कि रामजी के
सारे यूथपतियों सहित वानर और राक्षस भी इस युद्ध को होता हुआ देखना चाहते थे.इस
समय समस्त वानर और राक्षसों की विशाल सेनाएँ हाथ में हथियार लिये निश्चेष्ट खड़ी
थीं.
दोनों ओर के सैनिकों के हाथों में
नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र विद्यमान थे और उनके हाथ युद्ध के लिए व्यग्र हो रहे
थे, तथापि उस अद्भुत संग्राम को देखकर उनकी बुद्धि आश्चर्यचकित हो उठी थी, इसलिए
वे चुपचाप खड़े थे. एक दूसरे पर प्रहार नहीं कर रहे थे.
सारे राक्षस टकटकी लगाए रावण की
ओर देख रहे थे. इसी प्रकार सारे वानर श्री रघुनाथजी की ओर. उन सबके नेत्र विस्मित
थे, अतः निस्तब्ध खड़ी रहने के कारण उभय पक्ष की सेनाएँ चित्र-लिखित-सी जान पड़ती
थी. एक दूसरे पर प्रहार नहीं कर रहे थे. रामजी को यह विश्वास था कि जीत मेरी ही
होगी और रावण को यह निश्चित हो गया था कि उसे इस युद्ध में मरना ही होगा. अतः वे दोनों
युद्ध में अपना पराक्रम दिखाने लगे.
श्रीराम जी ने दशानन पर
क्रोधपूर्वक बाणॊं का संधान किया,जिससे रावण के रथ की ध्वजा कट कर गिर पड़ी. ध्वजा
को कटा देखकर रावण क्रोधित हो उठा. क्रोधित होते हुए उसने रामजी पर बाणॊं की वर्षा
कर दी. बाणॊं के प्रहार से उसने घोड़ों को घायल करना प्रारंभ किया, परन्तु वे सभी
दिव्य घोड़े थे, इसलिये न तो वे लड़खड़ाये और न ही अपने स्थान से विचलित हुए.
उन घोड़ों का घबराहट में न पड़ता
देख उसने गदा, चक्र,परिध, मूसल ,पर्वत-शिखर, वृक्ष, फ़रसे तथा माया निर्मित
अस्त्रों की वृष्टि करने लगा. ये दोनों योद्धा दायें-बायें प्रहार करते हुए निरन्तर युद्ध करने लगे. रावण ने एक तीखा बाण
मारकर रामजी के घोड़ों को घायल कर दिया. वे दोनों एक-दूसरे के प्रहार का बदला
चुकाते हुए परस्पर आघात करते रहे. रामजी के
धनुष से छूटे हुए बाणॊं ने रावण के तेजस्वी घोड़ों को पीछे हटने के लिए विवश
कर दिया. घोड़ों के हटने पर दशानन रावण क्रोध के वशीभूत होकर रामजी पर तीखे बाणॊं
की वर्षा करने लगा.तत्पश्चात रावण ने इन्द्र के सारथि मातलि को लक्ष्य करके बज्र
के समान शब्द करने वाले वाण छोड़े. लेकिन उसके इस घातक प्रहार से मातलि को कोई
व्यथा नहीं हुई.
इस प्रकार उन दोनों में बड़ा भयंकर
और रोमांचकारी युद्ध होने लगा. गदाओं,मुसलों और परिधों की आवाज से तथा बाणॊं के
पंखों की सनसनाती हुई हवा से समुद्र विक्षुब्ध हो उठा, जिससे पाताललोक में निवास
करने वाले जलचर, समस्त दानव और सहस्त्रों नाग व्यथित हो उठे. पर्वतों, वनों और
काननों सहित सारी पृथ्वी काँप उठी. सूर्य की प्रभा लुप्त हो गयी और वायु की गति भी
रुक गयी. जिससे देवता, गन्धर्व,महर्षि,किन्नर और बड़े-बड़े नाग सभी चिन्ता में पड़
गये. सबके मुँह से यही बात निकलने लगी -" गौ और ब्राह्मणॊं का कल्याण हो,
प्रवाहरूप से सदा रहने वाले इन लोकों की रक्षा हो और रघुनाथजी युद्ध में रावण पर
विजय पायें."
गन्धर्वों और अप्सराओं के समुदाय
उस अनुपम युद्ध को देखकर कहने लगे-" आकाश, आकाश के तुल्य है, समुद्र, समुद्र
के ही समान है तथा राम और रावण का युद्ध राम और रावण के युद्ध के सदृश्य है".ऐसा
कहते हुए राम और रावण का युद्ध देखने लगे.
काटतहीं पुनि भए नबीने*राम बहोरि भुजा सिर छीने
प्रभु बहु बार बाहु सिर हुए* कटत झटिति
पुनि नूतन भए.
तदनन्तर श्री रामजी ने कुपित होकर
धनुष पर एक विषधर सर्प के समान बाण का संधान किया और उसके द्वारा जगमगाते हुए
कुण्डलों से युक्त रावण का एक मस्तक काट डाला. उसका यह कटा हुआ सिर पृथ्वी पर गिर
पड़ा. लेकिन आश्चर्य रावण के वैसा ही दूसरा नया सिर उत्पन्न हो गया. शीघ्रतापूर्वक
हाथ चलाते हुए रामजी ने अपने सायकों द्वारा दूसरा सिर काट डाला. उसके कटते ही पुनः
नया सिर उत्पन्न दिखायी देने लगा, किन्तु
रामजी ने उसे भी अपने बज्र तुल्य सायकों से काट डाला. इस प्रकार एक-से
तेजवाले उसके सौ सिर काट डाले गये, तथापि उसके जीवन का नाश होने के लिए उसके
मस्तकों का अन्त होता दिखायी नहीं देता था. कटे हुए सिर आकाश मार्ग में दौड़ते हुए
कहते हैं-" कहाँ हैं राम ? कहाँ हैं लक्ष्मण ! कहाँ है हनुमान? वानरराज
सुग्रीव कहाँ हैं? ऐसा कहते हुए सिरों के समूह दौड़े,जिन्हें देखकर वानर भाग चले.
रावण के सिरों को कटता और फ़िर
अपने स्थान पर जाकर जुड़ जाने का मायावी खेल देखकर रामजी मन-ही-मन सोचने लगे-"
कितने आश्चर्य की बात है कि मैंने जिन बाणॊं से मारीच, खर, दूषण को मारा, क्रौंचवन
में विराध का वध किया, दण्डकारण्य़ में कबन्ध को मौत के घाट उतारा, साल वृक्ष और
पर्वतों को विदीर्ण किया, बाली के प्राण लिये और समुद्र को क्षुब्ध कर दिया, अनेक
बार के संग्राम में परीक्षा पास करके जिनकी अमोधता का विश्वास किया, वे ही मेरे
सायक आज रावण के ऊपर निस्तेज / कुण्ठित हो रहे हैं?. इसका क्या कारण हो सकता है?.
राम जी को चिन्तामग्न देखकर रावण
ने लगातार बाणॊं की वर्षा करते हुए उनकी छाती पर बाणॊं की झड़ी लगा दी. इतना ही
नही, उसने गदा और मूसलों की वर्षा कर उन्हें पीड़ित करना आरम्भ किया. इस महायुद्ध ने बड़ा भयंकर रूप धारणकर लिया , जिसे
देखते ही रोंगटे खड़े हो जाते थे. यह युद्ध कभी आकाश में, कभी भूतल पर तो कभी-कभी
पर्वत-शिखर पर होता था. देवता, दानव, यक्ष, पिशाच, नाग, और राक्षसों के
देखते-देखते यह महान संग्राम सारी रात चलता रहा. युद्ध न तो दिन में बंद होता था
और न ही रात्रि में. दो घड़ी अथवा एक क्षण को भी युद्ध नहीं थमा.
पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ, छोड़ी
सक्ति प्रचंड* चली बिभीषन सन्मुख, मनहु काल कर दंड (93.लंकां)
क्रोधित होते हुए रावण नें एक बाण
निकाला. उसे अभिमंत्रित करते हुए उसने अपने धनुष पर चढ़ाया और लक्ष्य लेकर विभीषण
पर चला दिया. वह विभीषण के सामने को ऐसी चली मानो काल का दंड हो. अत्यन्त घोर
शक्ति को विभीषण की ओर आता देख विभीषण को पीछे खींचकर, राम स्वयं सामने आकर खड़े हो गये. उस शक्ति के लगते
ही रामजी को क्षण भर के लिए मूर्च्छा आ गयी. रामजी को मूच्छित होता देख विभीषण को
अत्यन्त ही क्रोध हो आया. वे हाथ में गदा लेकर दौड़े. और बोले-"अरे अभागे !
धूर्त! दुर्बुद्धि ! कहते हुए रावण की छाती पर प्रहार किया. गदा की चोट खाते ही वह
पृथ्वी पर गिर पड़ा. उसके दसों मुख से रक्त बहने लगा. गिरने के बाद वह उठ खड़ा हुआ.
फ़िर दोनों एक दूसरे पर प्रहार करने लगे.
चुंकि रावण को अनेकानेक शक्तियाँ
प्राप्त थीं, अतः उस वह बिना थके विभीषण पर प्रहार पर प्रहार करता रहा. युद्ध
करते-करते विभीषण थकने-से लगे थे. वीर हनुमानजी ने देखा कि अत्याचारी रावण विभीषण
के प्राण लेना ही चाहता है. बिना विलम्ब किये हनुमानजी उसके रथ पर उछलकर जा
पहुँचे. उन्होंने सारथि की छाती पर एक लात मारकर उसके प्राण ले लिए. फ़िर उन्होंने
रावण पर अपनी गदा से प्रहार किया और फ़िर उछलकर आकाश में आ गये. रावण ने उड़ते हुए
हनुमानजी की पूँछ पकड़ ली और अब पूँछ से लटका-लटका वायु में तैरने लगा.
पूँछ से लटके रावण को वे से वायु
में झुलाते हुए, कभी किसी पर्वत श्रेणी के पास से निकलते.तो कभी किसी वृक्ष के पास
से. दोनों ही स्थिति में वह टकरा-टकरा कर लहूलुहान होता रहा. फ़िर देर तक उस वायु
में झुलाते रहने के बाद, हनुमानजी ने पूँछ का जोरदार झटका देकर, रावण को पृथ्वी पर
गिरा दिया. नीचे गिर वह संभल भी नहीं पाया था कि हनुमानजी उस पर लगातार गदा चलाकर
उसे व्यथित करते रहे.
सहसा मायावी रावण अदृश्य हो गया
और आकाश में उपस्थित होकर अनेकों रुपों में प्रकट होकर गर्जना करने लगा. उसके
अट्टहास को सुनकर वानर-सेना भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगी. यहाँ-वहाँ भागते वानर
धैर्यहीन होकर पुकारते- भैया लक्ष्मण! हमें बचाइये...हे राम ! हमारे प्राणॊं की
रक्षा कीजिए." दसों दिशाओं से करोड़ों रावण दौड़ते और कठोर गर्जना करते. रामजी
ने अपने तरकस से एक उत्तम बाण "शारंग" अपने हाथ में लिया. उसे धनुष पर
चढ़ाया और छोड़ दिया. उस एक बाण से उन्होंने संपूर्ण रावणॊं को नष्ट कर दिया.
जब उसने देखा कि वह अकेला रह गया
है, उसने ललकारते हुए कहा-" मूर्खों ! तुम सदा से मेरी मार खाते रहे हो, ऐसा
कहकर वह आकाश-मार्ग में उड़ गया. वीर अंगद ने उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे चारों
ओर घुमाते हुए उसे पृथ्वी पर पटक दिया और उस पर लात-घूंसों से मार-मार कर अधमरा कर
दिया. यह देखकर रामजी के सेना हर्ष मनाने लगी. छाती में लातों की प्रचण्ड चोट लगने से रावण व्याकुल हो
गया.जामवन्त ने क्रोधपूर्वक उसकी छाती पर लात मारी,जिससे वह मूर्च्छित हो
गया.मूर्च्छा बीत जाने के बाद सब रीछ, वानर उस घेर कर खड़े हो गये.
संध्या होने के साथ ही युद्ध
विराम की घोषणा हो चुकी थी. सारे सैनिक अपने शिवरों में पहुँचकर विश्राम आदि करने
लगे थे. घायल योद्धाओं की सेवा-सुश्रुषा की जाने लगी.
०००००
उसी रात्रि में त्रिजटा ने सीताजी
के पास जाकर सारी कथा कह सुनायी. सारी कथा सुनते ही सीता के हृदय में भारी विषाद
हुआ कि रावण रामजी के बाणॊं से सिर कटने के बाद भी नहीं मर रहा है. वे त्रिजटा से
कहतीं-" हाय ! मेरा यह दुर्भाग्य ही है, जो उसे जिला रहा है. जिस दैव ने कपट
का मिथ्या स्वर्ण मृग बनाया था,वही दैव अब भी मुझसे रूठा हुआ है. उसी विधाता ने
मुझे कठिन दुःख दिया और भैया लक्ष्मण को कटु वचन कहलवाये., जो रामजी के वियोग रूपी
भारी विषैले बाणों से तक-तक कर मुझे बहुत बार मार कर अब भी मार रहा है, जो ऐसे भी
दुःख में मेरे प्राणों को बचाये हुए है, वही विधाता उनको जीवित रख रहा है, अन्य
कोई नहीं."
सीताजी प्रभु की याद कर-कर विलाप
करने लगी. विलाप करते हुए उन्होंने त्रिजटा से जानना चाहा कि रामजी के बाणॊं से
रावण का प्राणांत क्यों नहीं हो रहा है?..
एहि जे हृदयँ बस जानकी, जानकी उर मम बास. मम
उदर भुअन अनेक लागत, बान सब कर नास है.. सुनि
वाचन हरष विषाद मन अति. देखि उनि त्रिजटाँ कहा. अब मारिहिं रिपु एहि बिधि सुनहिं,
सुंदरि तजहि संसय महा. (छ्न्द.)
यह सुनकर त्रिजटा से उन्हें
समझाते हुए कहा-" सीते ! इसके पीछे दो कारण हैं. पहला यह कि प्रभु रामजी रावण
के हृदय में बाण इसलिये नहीं मार पा रहे हैं कि तुम रावण के हृदय में वास कर रही
हो. यदि वे उसका हृदय विदीर्ण कर देंगे, तो तुम्हारे भी प्राण नहीं बचेंगे.और
दूसरा यह कि उसके उदर में अनेकों ब्रह्माड हैं. बाण लगते ही सारे ब्रह्माण्डों का
नाश हो जायेगा, यही सोच कर प्रभु श्रीराम उन स्थानों पर बाणॊं का प्रहार नहीं कर
पा रहे हैं."
यह सुनकर सीता की वेदना और तीव्र
हो उठी. उन्होंने उत्सुकतावश त्रिजटा से जानना चाहा कि आखिर वह दुष्ट कैसे मारा
जायेगा. तब त्रिजटा ने उन्हें समझाते हुए कहा-"सीते ! सिरों के कटते रहने से
जब वह व्याकुल हो जायेगा और जब उसका ध्यान तुमसे छूट जायेगा, तब सुजान रामजी रावण
के हृदय में बाण मारेंगे. वे उस घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे हैं."
०००००
रावण की मूर्च्छा दूर हुई. उसने
देखा कि उसे अनेक वानरों ने घेर कर रखा है. उसने अपनी मायावी शक्तियों का प्रयोग
किया और अंतर्ध्यान हो गया.
सबेरा होते ही उसने पुनः अपनी
भायावी शक्तियों से युद्ध करने की ठानी. मायावी शक्तियों के प्रभाव से उसने
अनेकानेक प्रचण्ड जन्तु प्रकट किये. भूत-पिशाच, बैताल तथा योगिनियों को प्रकट
किये. वे सभी एक हाथ में तलवार और दूसरे में नर-कपाल लेकर वानरों का वध करतीं और
उनका रक्त पीकर नाचने-गाने लगीं. उनको
अपनी ओर आता देखकर वानर भागने लगे.यह देखकर रामजी ने एक बाण निकाला. उसे
अभिमंत्रित कर छोड़ दिया, जिससे उसकी मायावी शक्तियों को हर लिया.
फ़िर अनेकों बाण छोड़कर वे रावण के
शीश काटने लगे. एक शीश कटता तो तत्काल दूसरा उस स्थान पर ऊग आता.यह देखकर उन्होंने
अपने मित्र विभीषण से जानना चाहा-
नाभिकुंड पियूष बस याकें.
नाथ जिअत रावनु बल ताकें
सुनत विभीषण बचन कृपाला
.हरषि गहे कर बान कराला
विभीषण ने बतलाया-" हे प्रभु
! हे चराचर नायक ! इसकी नाभि-कुण्ड में अमृत का वास है. हे नाथ ! उसी के बल से
रावण जीता है."
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रावण को अमरता का वरदान
था.
प्राचीन धर्म ग्रंथों एवं मान्यताओं के अनुसार रावण की नाभि में अमृत
आरोपित किया गया था, जिसके कारण रावण अमर हो गया था. यही कारण है कि रावण को मारना कोई साधारण बात नहीं थी,
राम एवं
रावण के युद्ध को वैज्ञानिक दृष्टिकोण
रावण
की नाभि में अमृत आने की आध्यात्मिक कथा
धर्म ग्रंथों के अनुसार
एक समय की बात है बाली ओर रावण के बीच युद्ध हुआ, इस युद्ध में रावण को अंदरूनी चोट लगी, जिससे कि लंकापति रावण बहुत ज्यादा बीमार पड़ गया था. रावण की इस स्थिति से मंदोदरी
बहुत ज्यादा चिंतित हो गई और उसने मन ही मन में यह निर्णय लिया कि
मैं महाराज रावण को अमर बना कर ही रहूंगी.
मंदोदरी ने अपने पति को
अमर बनाने के लिए अपने माता-पिता की सहायता ली. मंदोदरी अपने माता-पिता के पास पहुंची और
उन्होंने अपनी सारी आपबीती बताई.
इससे उसके माता-पिता ने
चंद्रलोक से अमृत कलश लाकर रावण को अमर करने कि हाँ कर दी, लेकिन समस्या यह थी कि मंदोदरी के पास उड़कर के जाने की शक्ति नहीं थी. मंदोदरी की मां के पास यह शक्ति थी, उसके बाद में मंदोदरी की मां ने सारी शक्तियां मंदोदरी को दे दी थी, क्योंकि मंदोदरी की मां एक देवी स्त्री थी. मंदोदरी की मां से मंदोदरी ने
शक्तियां प्राप्त करके वह चंद्रलोक चली गई.
चन्द्र लोक में जा करके
मंदोदरी ने चंद्र देव के सामने अपने पति यानी कि लंकापति रावण की दीर्घायु के लिए पूजा का बहाना
रचा. चन्द्र देव तथा वहां के देवता इस बात को समझ
नहीं पाए कि मंदोदरी की चाल क्या है, मंदोदरी यहां क्यों आई है ?
वैसे तो कोई भी सामान्य
व्यक्ति इस अमृत कलश के कुंड को नहीं चुरा सकता था, क्योंकि मंदोदरी के पिता द्वारा उसे स्वर्ग लोक में
स्थापित किया गया था. वह भी बहुत ही चमत्कारिक तथा विद्युत शक्तियों के द्वारा
इस कलश को स्थापित किया गया था.
चंद्रलोक का एक नियम है कि चन्द्र देव साल में एक बार
अश्विन मास की पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) के दिन इस अमृत कलश
को वहाँ से निकालते हैं तथा धरती वासियों के कल्याण के लिए कुछ बूंदे
धरती पर गिराते हैं, अब मंदोदरी के सामने यह अच्छा मौका था, क्योंकि जिस दिन मंदोदरी गई थी उसके दो दिन
बाद ही पूर्णिमा थी, इसलिए मंदोदरी को अमृत कलश चुराने का अच्छा मौका मिल गया, जैसे ही पूर्णिमा की रात्रि को चंद्र देव ने अमृत कलश वहाँ से बाहर निकाला, तभी रावण की पत्नी मंदोदरी ने मौका पाकर के अमृत कलश को चुराकर के भागने लगी.
देवताओं को इसका पता चल गया और देवताओं ने मंदोदरी का पीछा किया. पीछा करने पर मंदोदरी बहुत ज्यादा ही घबरा गई और उसने अमृत कलश को देवलोक में एक खिड़की में अमृत कलश को छोड़ दिया तथा उसमें से अमृत की कुछ बूंदे को अपनी अंगुठी में भर कर के उसके ऊपर एक नग जड़ दिया. इस तरह मंदोदरी अमृत लेकर धरती लोक पर पहुँच
गई.
मंदोदरी ने रावण को अमर करने के लिए अपने देवर विभीषण का
सहारा लिया. वह एकमात्र लंका में ऐसे व्यक्ति थे जो कि धर्म, पूजा पाठ तथा सकारात्मक प्रकृति के विचारधारा वाले व्यक्ति थे.
मंदोदरी ने यह सारी घटना विभीषण को बताई, पहले तो विभीषण ने उसका विरोध किया
मगर मन्दोदरी क़े बहुत समझाने के बाद वह तैयार हो गया. लेकिन विभीषण ने एक शर्त रखी कि इस बात का पता हमारे दोनों के अलावा और किसी को नहीं होना चाहिए, इस बात से रावण की पत्नी मंदोदरी भी सहमत हो
गई और उन्होंने शरद पूर्णिमा के दिन ही इस अमृत की बूंद को
रावणकी नाभि मे अमृत स्थापित करने का
निर्णय लिया.
पूर्णिमा की रात्रि को मंदोदरी तथा विभीषण ने रावण को अशोक
वाटिका में बुलाकर, मदिरा के साथ कुछ जड़ी बूटियां
पिलाकर के रावण को अचेत किया गया. रावण की अचेत होने के बाद कमल नाल
पद्धत्ति द्वारा विभीषण ने उस अमृत
की बूंदों को रावण की नाभि में स्थापित कर दिया. जिसके कारण रावण अमर हो गया.
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एक ओर श्रीराम और दूसरी ओर राक्षसराज रावण. उन दोनों मे से
श्रे रघुनाथ जी की युद्ध में विजय होती न देखकर, देवराज इन्द्र के सारथि मातलि ने
युद्धपरायण श्रीरामजी से कहा-"
हे वीरवर ! आप अनजान
की तरह क्यों इस राक्षस का अनुसरण कर रहे हैं?. प्रभो ! आप इसके वध के
लिए ब्रह्माजी के अस्त्र का प्रयोग कीजिये. देवताओं ने इसके विनाश का जो समय बताया था वह अब आ पहुँचा
है."
मातलि के इस वाक्य से रामजी को उस अस्त्र का स्मरण हो आया. फ़िर तो उन्होंने
फ़ुफकारते हुए उस महान अस्त्र को अपने हाथ में लिया. यह वही बाण था, जिसे पहले
शक्तिशाली भगवान अगस्त्य ऋषि ने
श्रीरघुनाथजी को दिया था.
वह विशाल बाण ब्रह्माजी द्वारा दिया हुआ था और युद्ध में अमोघ था.
तेजस्वी ब्रह्माजी ने पहले इन्द्र के लिए उस
बाण का निर्माण किया था और तीनों लोकों पर विजय पाने की इच्छा रखने वाले देवेन्द्र
को अर्पित किया था. उस बाण के वेग में
वायु, धार में अग्नि और सूर्य की, शरीर में आकाश की तथा भारीपन में सुमेरु और
मन्दराचल की प्रतिष्ठा की गयी थी.
यह अस्त्र सम्पूर्ण भूतों के तेज से बनाया गया
था. जिसमें सूर्य के समान ज्योति निकलती रहती थी, प्रलयकाल की धूमयुक्त अग्नि के
समान भयंकर दीप्तिमान, विषधर के समान विषैला, सुवर्ण पंख से युक्त, स्वरूप से जाज्वल्यमान, मनुष्य आदि को विदीर्ण कर डालने वाला तथा
शीघ्रतापूर्वक लक्ष्य का भेदन करने वाला था. इसमें बड़े-बड़े पर्वतों को भी तोड़-फ़ोड़
करने की अद्भुत शक्ति थी. देखने में अत्यन्त ही भयंकर, बज्र के समान कठोर, भयंकर
शब्द से युक्त, फुंफकारते हुए सांप के समान भयंकर था. उस महान सायक को वेदोक्त
विधि से अभिमंत्रित कर श्रीरामजी ने उसे अपने धनुष पर चढ़ाकर संधान करना चाहा,
जिससे संपूर्ण प्राणी थर्रा उठे और धरती डोलने लगी.
तब अनेकों अपशकुन होने लगे. बहुत
से गदहे, गीदड़ व श्वान रोने लगे. आकाश में जहाँ-तहाँ पुच्छल तारे उदित हो गये. दशो दिशाओं में बड़ा
दाह होने लगा. आकाश में वज्रपात होने लगे.वायु वेग से बहने लगी. पृथ्वी कंपित होकर
हिलने लगी. मेघ रक्त और बालु और धूल बरसाने लगे. ऐसे अनेकों अपशकुन होता देख,
आकाश-पटल पर अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ होकर, महान युद्ध को अपने नेत्रों से होता
देख रहे देवतागण हर्षित होने लगे. चुंकि मन्दोदरी पतिव्रता स्त्री थी. उसने जान
लिया कि देर-सबेर मेरे पति का श्रीरामजी के बाणॊं से वध होना निश्चित ही है, विलाप
करने लगीं.
श्री रघुनन्दन जी ने अब उस उत्तम
बाण का संधान करने लगे, तब संपूर्ण प्राणी थर्रा उठे और धरती डोलने लगी. श्रीरामजी
ने अत्यन्त क्रोधित होते हुए बड़े यत्न के साथ धनुष को खींचकर उस मर्मभेदी बाण को
रावण पर चला दिया. वह बाण रावण की छाती पर जा लगा. लगते ही उसने नाभि में छिपे
अमृत-कुण्ड को सुखा दिया.. इस प्रकार रावण का वध करके खून से रँगा वह बाण अपना काम
पूरा करने के पश्चात, पुनः रामजी के तरकस में लौट आया
बिना सिर और भुजाओं के धड़ पृथ्वी
पर नाचने लगा. वह प्रचण्डता के साथ रणभूमि में दौड़ने लगा. उसका कटा हुआ सिर भीषण
गर्जना के साथ कहता-" कहाँ हैं राम ! कहाँ है लक्ष्मण ! मैं तुम दोनों भाइयों
को मार गिराऊँगा...कहाँ हो तुम दोनों?."कहता हुआ पृथ्वी पर आकर गिर पड़ा.
आकाश में स्थित देवताओं को तीनों लोकों में भय देने वाले रौद्र राक्षस के
मारे जाने पर महान हर्ष हुआ. वे अन्तरिक्ष से भूतल पर रघुनाथ जी के रथ के ऊपर
फ़ूलों की वर्षा करने लगे.
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प्रभु श्रीराम जी फ़ाल्गुन मास
के कृष्ण-पक्ष की अष्टमी तिथि की मध्या के समय लंका के निकट पहुँचे थे. उसी दिन
रात को वानर-सेना ने का पर घेरा डाला था. नवमी के दिन युद्ध आरंभ हुआ था. छः दिनों
के युद्ध में कुम्भकर्ण, इन्द्रजित, आदि का वध हुआ. सातवें दिन अमावस को रावण से
अन्तिम युद्ध हुआ और उसी रात के द्वितीयार्ध्य में रावण का वध हुआ था. शुक्ल-पक्ष
की प्रतिपदा को रावण का अन्तिम संस्कार, द्वितीया को विभीषण का राज्याभिषेक,
तृतीया को सीता जे की अग्नि परीक्षा क्रमशः हुई थी. चतुर्थी के दिन श्री
रामचन्द्रजी ने लंका से प्रस्थान किया था, चतुर्थी के दिन ही पंचमी तिथि का प्रवेश
हो गया था. अतः इस पक्ष में कहा गया है कि पंचमी तिथि आ गई है. पंचमी को चौदह वर्ष
की अवधि समाप्त हुई थी,
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श्री रघुनन्दन जी ने राक्षसराज को
मारकर सुग्रीव, अंगद,तथा विभीषण को सफ़ल मनोरथ किया और स्वयं भी उन्हें प्रसन्नता
हुई. रावण को मारा गया जानकर शिव, ब्रह्माजी को बड़ा हर्ष हुआ. समूचे ब्रह्माण्ड भर
में जय-जय की ध्वनि गूंजने लगी. चारों ओर से "श्रीरामजी की जय हो" के
शब्दों से समूचा वातायण गूंजारित होने लगा.
रावण के मारे जाने से सम्पूर्ण
दिशाएँ प्रसन्न हो गयीं. उनमें प्रकाश छा गया, आकाश निर्मल हो गया, पृथ्वी का
कांपना बंद हुआ. हवा स्वभाविक रुप से चलने लगी तथा सूर्य की प्रभा भी स्थिर हो
गयी.
सुग्रीव, विभीषण, अंगद तथा
लक्ष्मण अपने सुहृदयों के साथ युद्ध में श्रीरामजी की विजय से बहुत प्रसन्न हुए.
इसके बाद उन सबने मिलकर नयनाभिराम श्री रामजी की विधिवत पूजा की. अपने शत्रुओं को
मारकर, अपनी प्रतीज्ञा पूर्ण करने के पश्चात, अपने स्वजनों सहित सेना से घिरे हुए
महातेजस्वी श्रीराम, रणभूमि में देवताओं से घिरे हुए इन्द्र की भाँति शोभा पाने
लगे.
०००००००
रावण को पृथ्वी पर पड़ा देखकर मरने
से बचे हुए समस्त राक्षस भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे. रावण का वध हुआ देखकर सारे
वानर गर्जना करते हुए राक्षसों पर टूट पड़े.
विजय लक्ष्मी से सुशोभित हो
अत्यन्त हर्ष और उल्लास से भरकर राम-सेना, अपने स्वामी श्री रघुनन्दन की विजय और
रावण के वध की घोषणा करते हुए जोर-जोर से गर्जना करने लगे. अपने स्वामी का जयघोष
करने लगे. रावण के प्राणांत होते ही, आकाश-पटल में रोमांचकारी युद्ध देख रहे
देवताओं, गन्धर्वों ने दुन्दुभियाँ बजाते हुए हर्ष मनाने लगे तथा राघव पर सुगन्धित
पुष्पों की वर्षा करने लगे. संपूर्ण लोकों को भय देने वाले राक्षसराज के मारे जाने
पर देवताओं और चारणॊ को महान हर्ष हुआ.
रावण का वध हो जाने के पश्चात
सारे वानरयूथपति- सुग्रीव, वीर हनुमान, वृद्ध ऋषराज जाम्बवन्त, नल-नील सहित
संपूर्ण वानर-सेना प्रसन्नता से लकदक होकर नृत्य करने लगे और. श्रीरामजी और
लक्ष्मण के नामों का जयकारा लगाने लगे.
रावण के मारे जाने के पश्चात देवता, गन्धर्व,यक्ष, किन्न्नर, अप्सरायें ही
प्रसन्न नहीं हो रही थीं, बल्कि पेड़,पौधे, लताएँ, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, यहाँ तक
की संपूर्ण पृथ्वी सहित, तीनों लोकों में उत्सव का-सा वातावरण निर्मित हो गया था.
अप्सरायें मारे प्रसन्नता के खिलखिलाकर, न केवल हँस रही थी, बल्कि नृत्य करने लगी
थीं. संपूर्ण आकाश रंग-बिरंगे रंगों में नहा उठा था. देवताओं और देवियों ने
अत्यधिक प्रसन्न होकर, आकाश-पटल पर रंग-गुलाल की वर्षा करते हुए आनन्द मनाया. बंद
कलियाँ मुस्कुराने लगी थीं. भौरें प्रसन्न होकर पूरे वातायण को अपनी गुनगुन से
गूंजारित करने लगे थे. पेड़ों की शाखाएँ नव-पल्लव और फ़ूलों के भार से लद गए थे.
चारण विभिन्न-विभिन्न वाद्ययंत्रों को बजाकर उत्साहित होकर नाचने-कूदने लगे.
मिष्ठान्नादि बांटे जाने लगे.
अगर किसी को प्रसन्नता नहीं हो
रही थी, तो वे थे महात्मा विभीषण जी थे. अपने अग्रज की मृत्यु का कारण बने विभीषण
जी को, जहाँ दारुण दुःख हो रहा था, वहीं वे अपने पराजित हुए भाई को, रणभूमि में
मृत पड़ा देखकर उनका हृदय शोक के वेग से व्याकुल हो फूट-फूट कर विलाप करने लगे थे
-" हा विख्यात वीर भाई दशानन ! हा कार्यकुशल नीतिज्ञ ! तुम तो सदा बिछौने पर
सोया करते थे, आज मारे जाकर भूमि पर पड़े हो. तुम्हारे माथे का मुकुट जो सूर्य के
समान तेजस्वी है, यहाँ पृथ्वी पर पड़ा है."
" हे भ्राता ! मैंने आपको
कितना समझाया, बुझाया था लेकिन अहंकार के कारण तुमने मेरी एक नहीं सुनी. यदि सुन
लिये होते तो आज तुम्हारी ऐसी दुर्दशा नहीं होती. काम, क्रोध और मोह के वशीभूत
होने के कारण ही, तुम मेरी बातों की अवहेलना करते रहे.मुझे अब भी उस बात को लेकर
कोई दुःख नहीं है, न ही कोई संताप है कि आपने मुझे भरी सभा में लात मार कर, लंका
से निष्काशित कर दिया था. मुझे दुःख इस
बात का है कि आपने अपने सगे भाई की बातों पर विश्वास न करते हुए, अपने चापलुस
मंत्रियों और सेनापतियों की बातों को अधिक महत्व दिया, उनका कहा माना."
"हे त्रिलोक विजयी भ्राता !
अहंकार में पड़कर न केवल तुमने, बल्कि
प्रहस्त,इन्द्रजित, अतिरथी, कुम्भकर्ण, अतिकाय, नरान्तक,आदि ने मेरा उपहास उड़ाया,
उन्होंने मेरी बातों को कोई महत्व नहीं दिया, उसी का परिणाम आज सामने खड़ा होकर
अट्टहास कर रहा है. हे लंकेश ! लंकेश मेरे भाई ! तुम्हारे नहीं रहने से ,लंका सूनी
हो गयी. उसका सारा वैभव नष्ट हो गया."
" महारानी मन्दोदरी ने
तुम्हें कितना समझाया-बुझाया कि जवान बेटों को, श्रीरामजी से युद्ध करके मौत के
मुँह में मत धकेलो. लेकिन तुम निर्दयी ने उनकी भी एक नहीं सुनी. आज सारा रनिवास
विधवाओं से भरा पड़ा है. उनके आँसू पोंछने वाला भी कोई नहीं बचा. यह सब आपकी जिद्द
और अहंकार के कारण हुआ है."
" हे पर्वत के समान कंधों
वाले ! मैने कहा था-पूर्व में जो वेदवती नामक नारी तुम्हारे कारण अग्नि में प्रवेश
करके मर गयी, यही वह सीता है, जो सारे संसार की माता है. किंतु तुमने मेरी एक बात
नहीं सुनी. घोर युद्ध में अपने सारे कुल के मिटते रहने पर भी तुमने युद्ध छोड़कर
संधि नहीं की. अब तुम मर गये."
"तुमने अपने अति बलवान बहनोई
(शूर्पणखा के पति) को मार डाला. क्या ओंठ चबाती हुई (क्रोध प्रकट करके) शूर्पणखा
ने ही अति क्रूर षड़यंत्र करके तुमसे इस प्रकार बदला लिया है. हे भ्राता !
विजयलक्ष्मी का, कला की अधिष्ठात्री देवी का तथा कीर्तिलक्ष्मी का आलिंगान करने
वाले तुम्हारे हाथों ने ईर्ष्या से भरकर, देवी के लिए अगम्य प्रभाव से युक्त
पातिव्रत्य में प्रसिद्ध लक्ष्मी के रूप में अवतारित सीता देवी को छूना चाहा और
तुम अपने प्राण खोकर रणभूमि में पड़े हुए हो."
" सुरभित कमल पर आसीन ब्रह्म
देव एवं परशुधारी शिव के किये गये वर सब तुम्हारे सिरों के साथ ध्वस्त हो गये.
सीता का हरण करके, उसे लाते समय, तुमने नहीं जाना हो, तो अब यह समझ रहे हो न कि
रामचन्द्र देवाधिदेव भगवान विष्णु ही हैं."
"तुम जानते थे कि पतिव्रता
सीता कभी तुम्हें स्वीकार नहीं करेगी, फिर भी तुम उन पर अत्याचार करते रहे, उन्हें
धमकाते रहे, डर दिखाते रहे. एक नीति-विशेषज्ञ को इतनी बुद्धि नहीं आयी, कि जो हो
नहीं सकता, तुम उसे करने के लिए मनमानी पर उतर आए.?. तुम न तो सीता को पा सके और न ही राम को. कितना
अच्छा होता कि तुम, सीताजी को सादर रामजी को सौंप आते, तो आज इस तरह धूल में लिपटे
पड़े नहीं रहते?." विगत को याद करते हुए महात्मा विभीषण दारुण विलाप करने लगे.
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नोट-प्रभु श्रीरामजी ने
लक्ष्मण को रावण के पास भेजा इस घटना का उल्लेख न तो वाल्मीकि रामायण में है और न
ही रामचरित मानस में इसका उल्लेख मिलता है.
जनश्रुति है कि रामजी ने राननीति का पाठ सीखने के लिए लक्ष्मण को भेजा था.
काफ़ी खोज के बाद भी इसका लिखित उल्लेखित प्रमाण कहीं नहीं मिलता.
जनश्रुति के अनुसार
मरने से पहले रावण लक्ष्मण को जीवन की 3 सबसे बड़ी सीख दे गया था
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रावण जिस समय मरणासन्न अवस्था में था, तब भगवान राम ने लक्ष्मण से कहा कि इस संसार से
नीति,
राजनीति और शक्ति का महान पंडित विदा ले रहा है, तुम उसके पास जाओ और उससे जीवन की कुछ ऐसी शिक्षा ले लो जो और कोई नहीं दे सकता. राम
की बात मानकर लक्ष्मण मरणासन्न अवस्था में पड़े रावण के सिर के पास
जाकर खड़े हो गए.
लक्ष्मण काफी देर तक रावण के
सिर के पास खड़े रहे, लेकिन
रावण ने उनसे कुछ नहीं कहा. इसके बाद लक्ष्मण वापस लौट आए और प्रभु श्रीराम से
सारी बातें बताई. तब भगवान राम ने लक्ष्मण से कहा कि अगर किसी से ज्ञान प्राप्त
करना हो तो उसके चरणों के पास खड़े होना चाहिए, न कि सिर के पास. यह बात सुनकर लक्ष्मण
वापस रावण के पास गए और उसके पैरों के पास खड़े हो गए. उस समय महापंडित रावण ने
लक्ष्मण को 5 ऐसी बातें बताई जो जीवन में सफलता की कुंजी है।
रावण का पहला उपदेश यह था कि
इंसान को कभी भी अपने शत्रु को खुद से कमजोर नहीं समझना चाहिए, क्योंकि कई बार जिसे हम कमजोर समझते हैं, वहीं
हमसे ज्यादा ताकतवर सिद्ध हो जाता है।.
रावण का दूसरा उपदेश था-" 'खुद
के बल का दुरुपयोग कभी भी नही करना चाहिए. घमंड इंसान को ऐसे तोड़ देता है, जैसे दांत किसी सुपारी को तोड़ता है."
और तीसरा उपदेश था-, ' इंसान को हमेशा अपने हितैषियों की बातें माननी
चाहिए, क्योंकि कोई भी हितैषी अपनों का बुरा नहीं चाहता
".
रावण का चौथा उपदेश था-" 'हमें शत्रु और मित्र की हमेशा पहचान करनी चाहिए. कई
बार जिसे हम अपना मित्र समझते हैं, वे ही हमारे शत्रु साबित हो जाते हैं
और जिसे हम पराया समझते हैं, असल मे वे ही हमारे अपने होते हैं.
रावण का पांचवाँ और सबसे उत्तम
उपदेश था-" हमें कभी
भी पराई स्त्री पर बुरी नजर नहीं डालनी चाहिए, क्योंकि पराई
स्त्री और बुरी नजर डालने वाला इंसान नष्ट हो जाता है."
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(२)
(मानसश्री डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता--मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति के अनुसार-
कश्मीरी रामावतारचरित रचयिता श्री प्रकाशराम कुर्यगामी
ने अपने ग्रन्थ में श्रीराम एवं रावण के युद्ध का वर्णन करते हुए बताया है
कि श्रीराम द्वारा रावण के दस सिर ब्रह्मास्त्र से गिरा देने और 20 भुजाएं काट डालने के पश्चात् का वर्णन छन्द 31 से 60 तक बड़ा ही रोचक तथा अन्य रामकथाओं से भिन्न
वर्णित किया है।
दपन आकाशि प्युठ् वोयुख
नकारह।
सपन्य तिम पंज्य तु वान्दर जिन्दु
दुबारह।। रामावतारचरित 31 (कश्मीरी)
रामावतारचरित में वर्णन है कि रावण के श्रीराम द्वारा युद्ध
में मारे जाने के उपरांत, आकाश में नक्कारे बज उठे और सभी मृत वानर और रीछ
पुन: जीवित हो गये. रावण जैसा वीर बेहाल हो गया. यह सत्य है कि देव की
गति के समक्ष किसी की कुछ नहीं चलती. जब श्रीरामचन्द्रजी ने रावण को
धराशायी कर दिया तो ऐसा कहते हैं कि उन्होंने लक्ष्मणजी से कहा कि तुम रावण के
पास जाकर यह पूछ लो-" हे महाराज! आपकी कोई इच्छा तो शेष नहीं रह
गई." तब लक्ष्मणजी रावण के पास गये और विचार करने लगे कि यहाँ पर किससे क्या पूछूं
? तब लक्ष्मणजी जाकर रावण के सिर की ओर खड़े हो गये. लक्ष्मणजी ने कहा= हे
दशानन! मुझे रामचन्द्रजी ने यह कहने के लिए भेजा है कि रावण से यह बात पूछो
कि हे महाराज! आपकी कोई अभिलाषा तो नहीं है.? श्रीराम के पास आपका संदेश लेकर जाऊँगा (और श्रीरामचन्द्रजी उसे पूर्ण कर देंगे क्योंकि वे
सर्वशक्तिमान हैं).
ध्यान देने योग्य बात यह है कि यही बात लक्ष्मणजी ने
रावण के कान में तीन बार इस प्रकार कही – हे महाराज! जल्दी कहिए क्योंकि मुझे देरी हो रही
है. ऐसा कहते हैं कि रावण ने उत्तर में कुछ नहीं कहा और
लक्ष्मणजी वापस रामजी के पास आ गये. लक्ष्मणजी ने हाथ जोड़कर पूरी बात
ज्य़ों की त्यों बता दी. इतना सुनकर श्रीराम ने लक्ष्मणजी से कहा- " हे
लक्ष्मण! तुमने किस प्रकार वार्तालाप किया?.तुम्हें ज्ञात नहीं कि दशानन
कौन था?"
तब लक्ष्मणजी ने कहा कि मैं सिर की ओर से उसके निकट गया,
किन्तु रावण ने प्रयत्न करने पर भी कुछ नहीं कहा. तभी क्रुद्ध होकर श्रीरामजी ने
लक्ष्मणजी को उपाय बताते हुए कहा- तुम
जाकर उसकी तीन परिक्रमाएँ लगाओ तथा हाथ जोड़कर पुन: निवेदन करो." तब लक्ष्मणजी ने दशानन को प्रणाम कर विनती की.
" हे लंकेश! मेरे अपराध को क्षमा करें क्योंकि मैं उसमें कैद हो गया था." असल बात
यह है कि जब बार-बार रोते हुए लक्ष्मणजी ने प्रणाम किया तो दशानन प्रसन्न हो
गया. रावण को प्रसन्न देखकर लक्ष्मणजी ने वही दोहराया जो वह पहले कह चुके
थे. तब दशानन ने कहा, मेरी तीन अभिलाषाएं थीं -
प्रथम यह कि अग्नि के
धुएं का नाश कर दूं. कोई प्रेम से यज्ञ रचकर अग्नि में आहुति देता है. कई
प्रकार की सामग्री व अन्य चीजें इधर-उधर से जमा करता है. जाप करने के लिए
ब्राह्मण अथवा पंडित बैठाता है. किन्तु इस धुएं से आँखों में आँसू आ जाते
हैं और आँखें दुखने लगती हैं.
दूसरी अभिलाषा यह थी कि
धरती से आकाश तक एक सीढ़ी बनाऊँ ताकि कोई भी योगी बिना किसी कठिनाई के स्वर्ग लोक
में प्रवेश कर चला जावे.
तीसरी अभिलाषा यह थी कि सोने में सुगंध (मुश्क) रूपी
जान डालता जैसे गुलों में मुश्क (खुशबू) होती है अन्यथा पीतल और सोने में
एक जैसी न दिखने वाली बात ही क्या रहती है. अमाँ किन्तु अब क्या हो सकता
है?
देव को मेरी यह बात प्रभावित न कर पाई। अब मैं कर ही क्या सकता
हूँ,
अब तो मेरी दोपहरी शाम में बदल गई है। यह बात रावण से सुनकर लक्षमणजी
श्रीरामजी के पास लौट आये। उनका मन काँप रहा था। श्रीराम के पास पहुँचकर
श्रीलक्ष्मणजी ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि आप ही कहें कि कहीं भला
आदमी ऐसा भी कर सकता था? जो कुछ भी हो जैसा रावण ने कहा था वह तो आज तक कोई
भी नहीं कर सकता है।
तब श्रीरामजी ने कहा ऐसी कौन-सी तीन बातें हैं जो न
हो सकें। सच तो यह है कि हर बात हो सकती है और अटूट भक्तिभाव रखने से
पूर्ण हो सकती है। हे लक्ष्मण! ध्यानपूर्वक सुनो – रावण बहुत बड़ा शिवभक्त था। नित्य शिवजी की पूजा सुमेरू पर्वत पर करता था। उसने अपने सभी दस
मस्तक काटकर शिवजी को भेंट कर दिये थे। जब पूजा समाप्त हो जाती तो पुन: उसके 10 मस्तक जीवित होकर वापस आ जाते थे।
इतना सुनकर लक्ष्मणजी
आश्चर्य करने लगे और श्रीराम ने उन्हें उपदेश दिया कि मनुष्य को सदैव स्मरण रखना
चाहिये कि महाबली रावण का अंत कैसे हुआ? उसकी मृत्यु निश्चित उसके चरित्र
एवं उसके अभिमान के कारण हुई। यदि मनुष्य ईश्वर का मान सदैव मन में धारण
कर लेता रहे तो वह सदा सत्य के पथ पर चलकर चरित्रवान-अभिमानरहित होकर मोक्ष
के मार्ग पर चलकर मेरे लोक में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त करता है। ईश्वर का
भजन ही सब दुर्गुणों को नष्ट कर देता है तथा हमारी अभिलाषाएँ पूर्ण कर सकता
है। श्रीरामचरितमानस में काकभुशुण्डी संवाद में वर्णित है:
“जो इच्छा करिहहु मनमाही, हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।” (श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड 113-2)
अच्छे कर्म, उत्तम चरित्र एवं ईश्वरभक्ति सभी अभिलाषाएं
पूर्ण करती है। रावण में इन गुणों की न्यूनता थी, अत: वही हुआ –
“राम कीन्ह चाहहि सोई होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई”।। (श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड
127-1)
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एक अन्य कथा के अनुसार
रावण के बारे में कौन नहीं जानता, रामायण काल का सबसे प्रमुथ पात्र था। रावण बरहाल एक असुर था परंतु उनके पास अथाह ज्ञान था। वह ब्राह्मण कुल के थे। उन्होंने अपने जीवन में अपने परिश्रम के दम लगभग जीवन में सब कुछ हासिल किया था। पर क्या आप जानते हैं कि रावण की भी कुछ ऐसी इच्छाएं थी, जिन्हें रावण भी अपने जीवन में हासिल नहीं कर पाए थे।
अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर वो क्या चीज़ें हैं। दरअसल धार्मिक कथाओं के
अनुसार रावण की तीन ऐसी इच्छाएं थी, जिन्हें वो अपने जीवन में केवल आलस्य के कारण पूरा नहीं कर पाए। जबकि उनके पास इन इच्छाओं को पूरी करने की शक्ति व क्षमता दोनों थी। तो आइए जानते हैं रावण की उन इच्छाओं बारे में साथ ही जानेंगे की रावण ने मृत्यु से पहले लक्ष्मण को क्या सीख दी थी.
रावण की
तीन अभिलाषाएँ जो पूर्ण न सकी-
१. सोने
में सुगंध पैदा करना.(२) धरती से स्वर्ग तक सीढ़ी बनाना.(३) समुद्र के खारे पानी को
मीठा बनाना.
धार्मिक कथाओं के अनुसार रावण दिग्विजयी थे, उन्होंने देवताओं तक को अपना चाकर बना रखा
था। उनके लिए अपने जीवव में कोई भी काम को न कर पाना अंसभव नहीं
था। तो सवाल ये है कि क्यों इनकी ये इच्छाएं पूरी नहीं हो सकी?. तो आपको
बता दें दरअसल इसका कारण था उनका आलस्य जिस कारण वो अपने इन तीन इच्छाओं
को पूरा करने में सक्षम नहीं हो सके। मृत्य से पहले अपने इसी अनुभव को
उन्होंने श्री राम के भाई लक्ष्मण से
सीख से जरिए साझा भी किया था।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब रावण की मृत्यु के समय लक्ष्मण जी उनसे ज्ञान लेने के लिए उनके पैरों की ओर बैठे तो रावण ने उन्हें सबस पहले यही ज्ञान दिया कि जीवन में कभी भी किसी काम को करने के लिए आलस मत करना क्योंकि जो समय एक समय हाथ से निकल जाता है, वो कभी वापि, नहीं आता। इसलिए अपने जीवन में उन कार्यों को समय रहते पूरा करना चाहिए जिनका जीवन में अधिक महत्व हो।
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उन्हें विलाप करता देख श्रीरामजी
ने उनके समीप आए तथा युक्तिसंगत बात कहते हुए उन्होंने शोकमग्न विभीषण से
कहा-" आपका भाई समरांगण में असमर्थ होकर नहीं मारा गया है. उसने रणभूमि में
प्रचण्ड पराक्रम प्रकट किया है. युद्ध को उत्साहित रावण को मृत्यु से तनिक भी भय
नहीं था. यह दैवात् रणभूमि में धराशायी हुआ है."
" हे महात्मा विभीषण ! जो
लोग अपने अभ्युदय की इच्छा से क्षत्रियधर्म में रहकर रणभूमि में मारे जाते हैं,
उनके नष्ट होने पर इस तरह शोक नहीं करना चाहिये. जिस बुद्धिमान वीर ने इन्द्र सहित
तीनों लोकों को युद्ध में भयभीत कर रखा हो, यदि वह स्वयं होकर काल के अधीन हो गया,
तो इसके लिए शोक करने का कोई अवसर नहीं है."
" हे महात्मन ! युद्ध में
सदा विजय-ही-विजय मिलती रहे, पराजय न मिले, ऐसा कभी नहीं हुआ है. संग्राम में या
तो वह स्वयं मारा जाता है या फ़िर उसका शत्रु. क्षात्र-वृत्ति का आश्रय लेने वाले
वीरों के लिए यह आदर की वस्तु है. क्षत्रिय-वृत्ति से रहने वाले वीर पुरुष यदि
युद्ध में मारा गया हो तो उसके लिए शोक नहीं करना चाहिए. यह शास्त्रों का सिद्धांत
है."
" हे धर्म-रक्षक विभीषण
! तुम सात्विक बुद्धि का आश्रय लेकर
निश्चिंत हो जाओ और आगे बढ़कर अपने अग्रज का अन्तिम-संस्कार करो." पराक्रमी
श्रीरामजी के ऐसा कहने पर शोक-संतप्त
विभीषण को बड़ी शांति मिली.
उन्होंने बड़ी ही विनम्रता से कहा-
" हे रघुवीर ! मेरे अग्रज ने अनेकों युद्ध के अवसरों पर देवताओं तथा इन्द्र
को भी पराजित किया था, आज यही वीर रणभूमि में आपसे टक्कर लेकर उसी तरह शांत हो गया
है,जैसे समुद्र अपनी तट-भूमि तक जाकर शान्त हो जाता है."
" हे प्रभो! मेरे प्रतापी
भाई ने याचकों को दान दिया, भृत्यों का भरण-पोषण किया, मित्रों को धन दिया और अपने
शत्रुओं से बैर का बदला लिया. सारे भोंगों को भोगा. इसी मेरे भाई ने अग्निहोत्र
किये. कठिन तपस्यायें कीं और आज यह प्रेत-भाव को प्राप्त हुआ है. अतः अब मैं आपकी
कृपा से इसका प्रेत-कृत्य करना चाहता हूँ."
परम दयालु श्रीरामजी ने
कहा-"विभीषण ! वैर-भाव जीवन भर बना रहता है. लेकिन मरने के बाद उसका स्वतः
अन्त हो जाता है. अब हमारा प्रयोजन सिद्ध हो चुका है. अतः अब तुम इस वीर का
संस्कार करो. रावण केवल तुम्हारा स्नेह का पात्र नहीं है, अपितु वह मेरा भी
स्नेहभाजन है."
०००००००
रावण के मारे जाने का समाचार
सुनकर मन्दोदरी मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं. देर तक मूर्च्छित रहने के बाद जब उन्हें
चेत आया तो शोक से व्याकुल हुईं अन्य राक्षसियाँ के साथ अन्तःपुर से निकलीं. वे
बार-बार धरती की धूलल में गिरतीं-पड़ती विलाप करती हुईं , लंका के उत्तरी दरवाजे से
निकलकर युद्धभूमिं में आयीं और अपने मरे हुए पति को खोजने लगीं. युद्धभूमि में बिना
मस्तकों के लाशे बिछी हुईं थीं तथा भूमि में रक्त की कीच जम गयी थी. वे सबकी सब
अपने मरे हुए पतियों को खोजने लगी थीं. सबके नेत्रओं से आसूँओं की धारा बह रही थी.
महारानी मन्दोदरी ने महाकाय
महापराक्रमी और महातेजस्वी रावण को देखा, जो काले कोयले के ढेर-सा पृथ्वी पर पड़ा
हुआ था. धूल में सने हुए अपने मृतक पति पर सहसा दृष्टि पड़ते ही वे कटी हुई वन-लता
के समान उसके शरीर पर गिर पड़ीं. कभी आदर के साथ आलिंगन कर, कभी पैर पकड़कर तो कभी
गले से लगकर विलाप करने लगीं.
कोई स्त्री अपनी दोनों भुजाएँ ऊपर
उठाकर पछाड़ खाकर गिरी और धरती पर लोटने लगी. कोई मरे हुए अपने पति का मुख देखकर
मुर्च्छित हो गयी. कोई पति का मस्तक लेकर, उसका मुँह निहारती हुई रोदन करने लगती.
रावण को धरती पर मरकर गिरा देखकर
महारानी मन्दोदरी विलाप करते हुए कहने लगीं-" हे स्वामी ! आपने अपने भुजबल से
यमराज और इन्द्र को भी भयभीत कर रखा था, राजाधिराज कुबेर का पुष्पक विमान छीन लिया
था, गन्धर्वों सहित अन्य देवताओं को भी आपने रणभूमि में भय प्रदान किया था, आज
प्राणहीन होकर समरांगण में सदा-सदा के लिए सो गये हैं."
" हे स्वामी ! आप असुरों,
देवताओं और नागों से भी भयभीत होना नहीं जानते थे. जिन्हें देव,दानव,राक्षस भी
नहीं मार सकते थे, आज एक मनुष्य के हाथों मारे जाकर रणभूमि में सो रहे हैं. ये
कैसी विडम्बना है कि जो देवताओं, असुरों तथा यक्षों के लिए भी अवध्य थे, वे किसी
निर्बल प्राणी के समान एक मानव के हाथ से मृत्यु को प्राप्त हो गये?."
" हे नाथ ! आपने अपने
सदा हित की बात करने वाले, सुहृदयों की
बातों को अनसुना करते हुए, अपनी मृत्यु के लिए सीता का अपहरण किया. उसका फल यह हुआ
कि वे सारे राक्षस मार गिराये गये और स्वयं भी मरकर, हम लोगों को दुःख के महासागर में
गिरा दिया."
" हे दशानन ! आपके प्रिय भाई
विभीषण आपको आपके हित की बात बता रहे थे, तो भी आपने अपने वध के लिए उन्हें कटु
वचन सुनाये और लात मारकर उन्हें लंका से निष्कासित कर दिया. उसी का प्रयक्ष फल
दिखाई दे रहा है."
" हे स्वामी ~ आपने मेरी भी
एक नहीं सुनी. मैं बारम्बार आपसे अनुरोध करती रही कि सीता को ससम्मान श्रीराम जी
लौटा दें, लेकिन आपकी हठधर्मिता के कारण, आप अपने अहंकार में डूबे रहे और सीता को
न लौटाने की जिद पर अड़े रहे.आज उसका दुष्परिणाम हमें देखने को मिल रहा है."
" हे वीर ! यदि आप सीता को
लौटा देते तो आपके भाई का मनोरथ सफल हो जाता, श्रीराम हमारे मित्र-पक्ष में आ
जाते, हम सबको विधवा नहीं होना पड़ता और हमारे शत्रुओं की कामनाएँ पूरी नहीं होतीं.
परंतु आप ऐसे निष्ठुर निकले कि सीता को बलपूर्वक कैद कर लिया तथा राक्षसियों को,
हम स्त्रियों को, और अपने आपको - तीनों को एक साथ नीचे गिरा दिया, विपत्ति में डाल
दिया."
" हे राक्षसशिरोमणि ! आपके
स्वेच्छाचार के कारण ही हमारा सर्वनाश हुआ है,ऐसी बात नहीं है. दैव ही सब कुछ
करता-कराता है. दैव का मारा हुआ ही मारा जाता या मरता है.. इस महाभयानक युद्ध में
वानरों का, राक्षसों का और आपका स्वयं का भी विनाश दैवयोग से ही हुआ है. संसार में
फल देने के लिए उन्मुख हुए, दैव-विधान को, कोई धन से,कामना से, पराक्रम से, आज्ञा
से अथवा शक्तियों से नहीं पलट सकता."
" हे राक्षसराज ! जब आप
क्रोध करते थे, उस समय इन्द्र भी आपके सामने खड़े होने से भय खाते थे. बड़े-बड़े
गन्धर्व, ऋषि और चारण भी आपके डर से चारों दिशाओं में भाग खड़े होते थे. आपने तीनों
लोकों को जीतकर, अपने को सम्पत्तिशाली और पराक्रमी बनाया था. आपका वेग सह लेना
किसी के लिए भी संभव नहीं था. आप एक ऐसे देश में
विचरते थे, जहाँ मनुष्यों की पहुँच संभव नहीं थी. आप इच्छानुसार रूप धारण
करने में समर्थ थे, तो भी आपका श्रीराम के हाथों विनाश हुआ. एक मानवमात्र से आप
परास्त हो गये. युद्ध के मुहाने पर सब ओर से विजय पाने वाले श्रीराम के द्वारा
आपकी पराजय हुई है, ऐसा मुझे विश्वास नहीं होता. मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि
काल ही अतर्कित माया रचकर, आपके विनाश के लिए श्रीराम के रूप में यहाँ आ पहुँचा
है.."
" हे महाबली वीर ! यह भी
संभव है कि देवराज इन्द्र ने आप पर आक्रमण किया हो, परंतु मुझे नहीं लगता कि इन्द्र आपकी ओर आँख उठाकर
देख सके, क्योंकि आप महाबली महापराक्रमी और महातेजस्वी थे. आपने तो अपनी
इन्द्रियों को जीतकर तीनों लोकों में विजय पायी थी, शायद उसी वैर को याद रखती
हुई-सी इन्दियों ने ही अब आपको परास्त किया है."
" हे स्वामी ! मैंने आपसे
बारम्बार प्रार्थना की थी कि आप रामजी से बैर न कीजिए, लेकिन आपने मेरी एक नही
सुनी, आज उसी का फ़ल आपको प्राप्त हुआ है. जब मैंने सुना की जनस्थान में बहुतेरे
राक्षसों से घिरे होने पर भी, आपके भाई खर को श्रीराम जी ने मार डाला, तभी मुझे
विश्वास हो गथा था कि रामचन्द्र जी कोई साधारण मनुष्य नहीं है. संसार का कोई भी
प्राणी की मृत्यु अकारण नहीं होती है. इस नियम के अनुसार सीता आपकी मृत्यु का कारण
बन गयीं. आपने सीता के कारण होने वाली मृत्यु को स्वयं ही दूर से बुला लिया."
" हे वीर ! मैं वस्त्राभूषण धारण करके
अनुपम शोभा से सम्पन्न होकर पुष्पक विमान द्वारा कैलाश, मन्दराचल, मेरुपर्वत,
चैत्ररथ वन तथा संपूर्ण देविद्यानों में विहार करती हुई विचरती थी, वहीं मैं आपका
वध हो जाने से समस्त कामभोगों से वंचित हो गयी हूँ. मुझ मन्दभागिनी ने कभी स्वपन
में भी नहीं सोचा था, वही मुझे वैधव्य का दुःख प्रदान करने वाली अन्तिम अवस्था
आपको प्राप्त हो गयी. दानवराज मय मेरे पिता, राक्षसराज रावण मेरे पति और इन्द्र पर
विजय प्राप्त करने वाल मेरा इन्द्रजित मेरा पुत्र है-यह सोचकर मैं अत्यन्त गर्व से
भरी रहती थी.मेरी धारणा बनी हुई थी कि मेरे रक्षक ऐसे लोग हैं, जो दर्प से भरे
शत्रुओं को मथ डालने में समर्थ, क्रूर, विख्यात बल और पौरुष से सम्पन्न तथा किसी
से भी भयभीत होने वाले नहीं हैं. ऐसे प्रभावशाली तुम लोगों को, यह मनुष्य से अज्ञात भय किस प्रकार प्राप्त हुआ?.
" जब लक्ष्मण ने मेरे बेटे
इन्द्रजित का वध किया, उस समय मुझे गहरा आघात पहुँचा था और आज आपका वध होने से, तो
मैं मार ही डाली गयी. मैं शोक से पीड़ित
हो रही हूँ और आप गहरी नींद में सो रहे हैं?. मैं पराक्रमी युद्धकुशल
और समरभूमि से कभी भी पीछे न हटने वाले सुमाली नामक राक्षस की दौहित्री हूँ, आप
मुझसे बोलते क्यों नहीं हो?. हे स्वामी ! उठिये...मुझसे बातें कीजिए."
इस तरह विलाप करती हुई मन्दोदरी नेत्रों
से आँसू झर रहे थे. विलाप करते-करते सहसा वह मूर्च्छित होकर रावण की छाती पर गिर पड़ी. उसकी सौतें भी शोक से
व्याकुल हो रही थीं, उन्होंने उसे उस अवस्था मे देखकर उठाया और
स्वयं भी रोते-रोते, जोर-जोर से विलाप करती
हुई मन्दोदरी को धीरज बंधाने लगीं.
०००००००
रावण का प्राणांत होते ही बची-खुची
राक्षसों की सेना रणभूमि से भाग गयी. रणभूमि के यत्र-तत्र शव बिखरे पड़े हुए थे.
रक्त की कीच जम गयी थी. आकाश में गिद्द और चीलें शवों के भक्षण के लिए मंडराने लगी
थीं.
युद्ध की समाप्ति के पश्चात राम,
लक्ष्मण सहित सभी वानरयूथपति अपने-अपने शिवरों में लौट आए. जहाँ एक ओर उन्हें
राक्षसराज रावण के मारे जाने पर, हार्दिक प्रसन्नता हो रही थी, वहीं वे इस बात को
लेकर भी शोकसंतप्त थे कि महाबली रावण, एक महारथी, जिसके भय के कारण देव-दानव,
यक्ष, गन्धर्व आदि उसके समक्ष खड़े रहने का साहस नहीं जुटा पाते थे, एक ऐसा
प्रकाण्ड विद्वान, जिसने शिव जी को प्रसन्न करने के लिए "शिव-ताण्डव "
जैसे महान ग्रंथ की रचना की हो, एक ऐसा उद्भट विद्वान, जिसने समस्त वेदों का
अध्ययन किया हो, एक ऐसा बलवान जिसने कैलाश उठा लिया था, आज अपने अहंकार के कारण और
माता सीताजी के अपहरण के कारण मारा गया.
शोकसंतप्त विभीषण की ओर रामजी ने
देखा. वह एक ओर बैठा आँसू बहा रहा था.तब रामजी ने उसे धैर्य बंधाते हुए कहा-
"महात्मा विभीषण ! तुम जैसे धैर्यवान व्यक्ति भी यदि अपना धैर्य खो देंगे, तो
उन स्त्रियों का क्या होगा, जिनके पति रणभूमि में मारे गये हैं?. उनका तो सब कुछ
लुट गया, उन्हें कौन धैर्य बंधाएगा?. अतः अच्छा होगा कि तुम उन तमाम स्त्रियों
सहित महारानी मन्दोदरी को धैर्य धारण करने का आग्रह करें और अपने भाई का
दाह-संस्कार करें."
यह सुनकर विभीषण ने कहा-"
भगवन् ! जिसने धर्म और सदाचार का त्याग कर दिया था, जो क्रूर, निर्दयी, असत्यवादी
तथा परायी स्त्रियों का स्पर्श करने वाला था, उसका दाह-संस्कार करना मैं उचित नहीं
समझता हूँ."
" सबके अहित में संलग्न
रहनेवाला यह रावण भाई के रूप में मेरा शत्रु था. यद्यपि ज्येष्ठ होने से वह मेरे
लिए गौरव होने के नाते मेरा पूज्य भी था, तथापि
वह मुझसे सत्कार पाने का योग्य नहीं है. लोग मेरी बात को सुनकर मुझे क्रूर
अवश्य कहेंगे, परंतु जब रावण के दुर्गुणों को भी सुनेंगे, तब लोग मेरे विचार को
उचित ही बतायेंगे." विभीषण ने अनेक कारण बतलाते हुए रामजी से कहा.
यह सुनकर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ
रामजी को प्रसन्नता अवश्य हुई, इसके साथ ही उन्हें कुछ क्षोभ भी हुआ. उन्होंने
विभीषण को नीतियुक्त बातें समझाते हुए कहा- " हे धर्मज्ञ विभीषण ! तुम्हारी
बात उचित है.भले ही रावण विधर्मी और असत्यवादी रहा हो, परंतु वह संग्राम में सदा
ही तेजस्वी, बलवान और शूरवीर रहा है. सुना जाता है- इन्द्रादि देवता को भी उसने
परास्त किया था. समस्त लोकों को रुला देने
वाला रावण, पराक्रम से संपन्न और महामनस्वी था. फ़िर तुम एक ही माता-पिता से जन्में
हो. तुम्हारे सिवाय अब तुम्हारे परिवार में, कोई भी प्राणी आज जीवित नहीं है. रावण
तुम्हारा सहोदर था. तुम्हारे हाथों से जल-अर्पण करने से ही उसे मुक्ति मिलेगी. अतः
उसका अन्तिम संस्कार तो तुम्हें ही करना होगा."
" विभीषण ! बैर मरने तक ही
रहता है. मरने के बाद उसका अंत हो जाता है. अब हमारा प्रयोजन सिद्ध हो चुका है.अतः
इस समय जैसे वह तुम्हारा भाई है, वैसे ही मेरा भी है. इसलिये उसका दाह-संस्कार
करो. धर्म के अनुसार रावण तुम्हारी ओर से
शीघ्र ही विधिपूर्वक दाह-संस्कार
प्राप्त करने के योग्य है. ऐसा करने से तुम यश के भागी होओगे"
रामजी के परामर्श को मानते हुए
विभीषण अपने भाई रावण के दाह-संस्कार की शीघ्रतापूर्वक तैयारी करने के लिए तैयार
हुए.वे रामजी के शिविर से बाहर निकल ही रहे थे कि उन्होंने देखा असंख्य राक्षसियों
के साथ मन्दोदरी उस ओर आ रही थीं. उन्हें आता देख विभीषण क्षण-मात्र को चौंके कि
अपने पति के शव को रणभूमि में छोड़कर, रामजी के शिविर में उनके आने का भला क्या प्रयोजन
हो सकता है?."
वे मन-ही-मन सोचने लगे थे-"
महारानी मंदोदरी उन्हें जमकर कोसेंगी....दुत्कारेंगी...फटकारेंगी.... भला-बुरा
कहेंगी और यह कहने से भी नहीं चूकेंगी, कि घरभेदी-अधम-नीच विभीषण, तेरे ही कारण
मेरे पति की मृत्यु हुई है. यदि तुम राम को उनके नाभि में छिपे अमृत-कुण्ड का
रहस्य उजागर न करते तो, शायद ही राम मेरे पति का वध कर सकते थे. समूची लंका को
उजाड़ने में तुम्हारा ही हाथ था. वे तो यह भी कहेंगी कि यदि भाई ने गुस्से में तुझे
लंका से निष्कासित कर भी दिया था, तो इसका मतलब यह तो नहीं होता कि तुम उनके प्राण
लेकर अपने अपमान का बदला लोगे?. वे तो यह भी कह सकती हैं कि तुम्हारे ही कारण मेरे
यशस्वी पुत्र मारे गये और मेरी पुत्रवधुओं को वैधव्यजैसा दारूण दुःख उठाना पड़ रहा
है." यह सोचते हुए उनके पैरों में कंपन होने लगा था. कंठ सूख गया था. नेत्रों
के सामने अन्धकार तैरने लगा था. उनमें इतना साहस भी नहीं बचा था कि अपनी भाभी
मंदोसरी से आँख मिलाकर उनकी ओर देख सकें.
यह सोचते हुए उनकी गर्दन झुक आयी थी.
वे कुछ और सोच पाते कि मन्दोदरी
ने शिविर में प्रवेश करने से पूर्व द्वारपाल से कहा-" हे रामजी के सेवक !
अपने प्रभु श्रीरामजी से जाकर मेरी ओर से निवेदन करें कि महारानी मन्दोदरी आपके
दर्शनों के लिए आयी हुईं हैं."
दयालु श्रीरामजी ने जैसे ही सुना
कि महारानी मन्दोदरी मेरे शिविर में आकर मुझसे मिलना चाहती हैं. वे एक क्षण भी
विलम्ब किये बिना, द्रुतगति से चलते हुए शिविर के बाहर निकले. उन्होंने महारानी
मन्दोदरी का विधिवत स्वागत करते हुए कहा-" महारानी मंदोदरी ! आप ! स्वयं चलकर
मेरे आयीं है. आपका स्वागत है. बोलिये..आपकी क्या अभिलाषा है? मुझसे कहिये."
रामजी ने महारानी मन्दोदरी से जानना चाहा.
" हे राम ! मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए. मैं तो यह अभिलाषा लेकर
आयी थी कि जिस लंकेश से देव, दानव, किन्नर, यहाँ तक स्वयं देवराज इन्द्र मेरे
दिवंगत पति के सामने, एक पल को भी नहीं ठहर पाते थे, त्रिलोकी में कोई भी ऐसा वीर पुरुष नहीं है, जो
उनका विरोध करने का साहस रखता था. ऐसे पराक्रमी लंकेश का नाम भर सुनकर,
अच्छे-अच्छे योद्धा थर-थर कांपने लगते थे. उस महान पराक्रमी तेजस्वी लंकेश को
रणभूमि में मार गिराने वाला, भला कौन प्रतापी पुरुष है?, मैं उनके दर्शन करना
चाहती थी. इसी अभिलाषा को लिए हुए मैं आपके शिविर में चली आयी."
" हे देवी ! मैं आपका अपराधी
राम.!..आपके सन्मुख उपस्थित हूँ. यह सच है कि लंकेश को मार गिराने वाला और कोई
नहीं, उसका अपना अहंकार और धर्म-विरुद्ध आचरण था. उसने अनगिनत अपराध किये थे.
अनेकों निर्दोष लोगों की उसने निर्ममतापूर्वक वध किया था. उसने परमपिता ब्रह्माजी
से प्राप्त वरदानों को भलाई के काम में उपयोग न करते हुए, उसका घोर उल्लंधन किया
था. उसकी बढ़ती कामुकता के कारण ,उसने अनेक पतिव्रता स्त्रियों को अपनी वासना का
शिकार बनाया और तो और उसने मेरी धर्मपरायणा पत्नी सीता का मेरे अनुपस्थिति में हरण
कर लंका ले आया. यही वे अनगिनत पाप थे, जो उसके सिर पर चढ़कर बोल रहे थे. इन्हीं
पापों ने उसे यम के द्वार पर ला खड़ा किया."
"हे देवी ! सनातन धर्म की
स्थापना और ध्वस्त होती संस्कृति के रक्षार्थ
ही मैंने जन्म लिया है. विधर्मियों को समाप्त करने के लिए ही मैंने
प्रतिज्ञा ली थी. मैंने ही तुम्हारे पति लंकेश का वध किया है. प्रकृति का यही नियम
है कि जिसने जन्म पाया है, उसे एक-न-एक दिन मरना अवश्य है. आपके पति का वध करना
परम आवश्यक था. उसे मारने के लिए मैं एक निमित्त बना. और कोई कारण नहीं था कि आपका
पति मारा जाता."
" हे देवी ! प्रकृति का यह
चक्र सनातन काल से ही चलता आया है कि कोई भी अजर-अमर नहीं हो सकता. अतः शोक को
त्याग दीजिए और महात्मा विभीषण को साथ ले जाकर उस श्रेष्ठ वीर का अन्तिम संस्कार
संपन्न कीजिए." श्रीरामजी ने महारानी मंदोदरी को समझाते हुए कहा.
" हे विष्णु के अवतारी राम !
हे दयालु राम ! हे देवाधिदेव राम ! हे परमात्मा ! हे दशरथ नंदन श्रीराम ! हे मन को
रमने वाले राम ! आपके दर्शनों को पाकर मैं धन्य हुई. हे पराक्रमी,धीर, वीर
श्रीरामजी !आपके दर्शन पाकर मैं उपकृत हुई, जिन्होंने रणभूमि में कभी अपनी पराजय
स्वीकार नहीं की, उस पराक्रमी, अजेय लंकेश का आपने वध किया है. मैं तो केवल आपके
दर्शनार्थ ही आयी हुई थी. आपको प्रणाम..बारम्बार प्रणाम". ऐसा कहते हुए वे
रणभूमि की ओर प्रस्थित हुईं.
००००००
विभीषण ने सकुचाते हुए अपनी नगरी
लंका में प्रवेश करके शीघ्र ही शकट, लकड़ी,अग्निहोत्र की अग्नियाँ, यज्ञ कराने वाले पुरोहित, चन्दनकाष्ट,, अन्य
प्रकार की लकड़ियाँ, सुगन्धित अगर,गन्धयुक्त पदार्थ आदि वस्तुओं को एकत्रित किया.
तदनन्तर उन्होंने दाह-संस्कार का कार्य पूर्ण किया. राक्षसराज रावण के शव को रेशमी वस्त्र से ढंककर ,उसे सोने के
दिव्य रथ में रखने के पश्चात उस शिविका को पताकाओं और फूलों से सजाया गया. फिर
अन्य प्रजाजनों के साथ उसे कंधे पर उठाकर श्मशानभूमि की ओर चले.चिता सजायी गयी.
उसके ऊपर रावण के पार्थिव देह को रखा गया. तदनन्तर उन्होंने चिता में विधि के
अनुसार आग लगायी. उसके बाद भींगे वस्त्र पहने हुए ही तिल-कुशा और जल के द्वारा
विधिवत अपने भ्राता को जलान्जलि दी. फ़िर महारानी मन्दोदरी आदि सभी रानियों ने अपने
पति को तिलांजलि दी. तपश्चात विभीषण ने
रावण की स्त्रियों को बारम्बार सान्त्वना देकर उन्हें घर चलने के लिए
अनुनय-विनय किया.
००००००
देवता, गन्धर्व और दानवगण रावण-वध
का दृष्य देखकर उसी की शुभ चर्चा करते हुए अपने-अपने विमान से यथास्थान लौट गये .
इसके बाद महाबाहु श्रीरामजी ने मातलि से कहा-" हे मातिल ! आपने युद्धभूमि में
मेरी यथायोग्य सहायता कर मुझ पर बड़ा उपकार किया है. चुंकि अब युद्ध समाप्त हो चुका
है. मायावी राक्षसराज का वध किया जा चुका है. अतः अब अपना देदीप्यमान रथ वापिस ले
जायें. देवराज इन्द्र को मेरी ओर से सादर धन्यवाद देना न भूलना." तब इन्द्र
के सारथि मातलि ने प्रभु श्रीरामजी के चरणॊं में प्रणाम किया और उनकी आज्ञा को
शिरोधार्य करते हुए, उस दिव्य रथ पर बैठकर पुनः दिव्यलोक को चले गये.
मातलि के जाने के पश्चात महामना
रघुनाथजी ने रथियों में श्रेष्ठ सुग्रीव जी को बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने हृदय से
लगा लिया. सुग्रीव जी का आलिंगन लेने के पश्चात महाबाहु श्रीरामजी ने अपने अनुज
लक्ष्मण से कहा-" सौमित्र ! अब तुम लंका में जाकर महात्मा विभीषण का
राज्याभिषेक करो. हे सौम्य! यह मेरी बड़ी इच्छा है कि महात्मा विभीषण को मैं लंका
के राज्य पर अभिसिक्त होता हुआ देखूँ."
अपने अग्रज श्रीरामजी के वचनों को
सुनकर लक्ष्मण जी को विनोद करने का मन हुआ. उन्होंने कहा-" हे भ्राता ! यदि
आप अन्यथा नहीं लें तो, मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ. यदि आप आज्ञा दें तो मैं
अपने मन की बात आप पर उजागर करूँ."
" हाँ...हाँ, क्यों नहीं.
लक्ष्मण तुम्हें मेरी अनुमति है, कहो...तुम मुझसे क्या पूछना चाहते हो..खुल कर
कहो. कि तुम्हारा अभिप्राय क्या है?." रामजी ने मुस्कुराते हुए लक्ष्मण से
जानना चाहा.
" हे भ्राता ! हमने काफी संघर्ष
करने के पश्चात रावण जैसे दुर्दांत राक्षस का वध किया है. क्यों न हम अपनी अयोध्या
के साम्राज्य का विस्तार करते हुए लंका को अधिग्रहीत कर लें."
"लक्ष्मण ! लक्ष्मण मेरे
भाई....तुम्हारा यह विचार तुम्हारे लिए उत्तम हो सकता है, मेरे लिए नहीं. शायद तुम
भूल रहे हो कि राक्षसराज विभीषण, लंका से निष्कासित होने के पश्चात मेरी शरण में
आया था. मैंने उसी समय उन्हें लंका का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था."
" राम सब कुछ कर सकता
है,लेकिन शरण में आये किसी शरणागत की सम्पति हड़प लेने की, या उस पर बलपूर्वक
अधिकार कर लेने की सोच नहीं सकता. ऐसा सोचना भी मेरे लिए पाप है. राम देना जानता
है, लेना नहीं. रावण के वध के पश्चात केवल और केवल महात्मा विभीषण ही उस राज्य के
सच्चे उत्तराधिकारी हैं.
" हे लक्ष्मण ! अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते".
हे अनुज ! मैं जानता हूँ को लंका सोने की बनी है,
लेकिन मुझे इस सोने की लंका में कोई रूचि नहीं है. कहा भी गया है-
मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव * जननी
जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥:
"मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है.
(किन्तु) माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है. फिर तुम तो इस बात को
भली-भाँति जानते ही हो कि मैंने मेरी शरण में आये महात्मा विभीषण से, न सिर्फ़
मित्रता स्थापित की थी, बल्कि अग्नि को साक्षी बनाते हुए, मैंने उन्हें लंका का
राज्य देने का वचन भी दिया था. रान जो कहता है, उस प्राणपन से पूरा करता है. मैं
अपने दिये गये वचनों से पीछे नहीं हट सकता. अतः महात्मा विभीषण ही रावण के वध के
पश्चात लंका के राजा बनेंगे."
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जननीश्च जन्मबूमि स्वर्गादपि
गरीयसी",
यह
एक प्रसिद्ध संस्कृत श्लोक का अन्तिम आधा भाग है, यह नेपाल का राष्ट्रीय ध्येयवाक्य भी है.यह
श्लोक वाल्मीकि रामायण के कुछ पाण्डुलिपियों में मिलता है, और दो रूपों में मिलता है.
प्रथम रूप : निम्नलिखित श्लोक 'हिन्दी प्रचार
सभा मद्रास' द्वारा १९३० में सम्पादित संस्करण में आया है।[1]) इसमें भारद्वाज, राम को
सम्बोधित करते हुए कहते हैं-
मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
अर्थात:- "मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है।
(किन्तु) माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है."
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
संस्कृत भाषा में लिखे इस श्लोक का तात्पर्य है कि जिस जन्मभूमि यानी कि जिस जमीन पर आपने जन्म
लिया, जहाँ आपका लालन-पालन हुआ, वह जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है. कहा गया है कि
माता के चरणों में ही स्वर्ग होता है. अतः दोनों महान हैं. इनसे स्वर्ग की तुलना
नहीं हो सकती. इस बात का उल्लेख. संस्कृत में लिखा गया यह श्लोक वाल्मीकि द्वारा
रचित रामायण की पांडूलिपियों में दो जगह मिलता है. भारतीय वेदों
और पुराणों
में माँ को देवी स्वरूपा माना गया है. वेद,
पुराणों में माँ के
लिए अंबा, अम्बिका, दुर्गा, देवी, सरस्वती, शक्ति, ज्योति, पृथ्वी आदि नामों से पुकारा
गया है. माँ को
मात, मातृ, अम्मा, जननी, जन्मदात्री, जीवनदायिनी, धात्री, प्रसू भी कहा
जाता है.
महाभारत में भी माँ की
महिमा का बखान है. जब यक्ष धर्मराज युधिष्ठर से सवाल
करते हैं कि ‘भूमि से भारी कौन?’ तब युधिष्ठर जवाब
देते हुए कहते
हैं- ‘माता गुरुतरा भूमेरू.’इसका
तात्पर्य है कि माता इस भूमि से कहीं अधिक भारी होती हैं.
महाभारत महाकाव्य के रचियता महर्षि वेदव्यास ने ‘माँ’ की महिमा का बखान
करते हुए लिखा है कि…
नास्ति
मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति
मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया।।’
इसका अर्थ है कि- माँ के समान कोई छाया नहीं है, माँ के समान कोई सहारा नहीं है. माँ के समान कोई रक्षक नहीं है और माँ के
समान कोई प्रिय चीज नहीं है.
तैतरीय उपनिषद में भी माँ की महिमा का वर्णन इस तरह से मिलता है…‘मातृ देवो भवः.’इसका
अर्थ है कि माता देवताओं से भी बढ़कर होती है.
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
संस्कृत भाषा के आदिकाव्य रामायण में
आजकल एक प्रसिद्ध श्लोक नहीं मिलता, जिससे
पाठकों व जिज्ञासुओं को लगने लगता है कि यह श्लोक रामायण का नहीं
है. कुछ लोगों की धारणा बदलने लगती है. कुछ अन्य किसी कवि की रचना मान
लेते हैं. आध्यात्म रामायण, रघुवंशम्, प्रतिमानाटकम्, महावीरचरितम्, उत्तररामचरितम् आदि ग्रन्थों का नाम
लेने लगते हैं. पर यह प्रसिद्ध श्लोक आर्षकाव्य रामायण का
ही है. वाल्मीकि ही इसके रचयिता हैं. दो रूप में यह श्लोक है।
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अपने अग्रज प्रभु श्रीरामजी के वचनों को सुन कर लक्ष्मण को अति
प्रसन्नता का अनुभव होने लगा. वे जानते थे कि महामना विभीषण से प्रथम भेंट में ही
भैया रामजी ने उनका राजतिलक सभी सभासदों की गरिमामय उपस्थिति में ही कर दिया था.
उन्होंने उस समय कहा था-" अहं हत्वा दशग्रीवं
सप्रहस्तं सहात्मजम :राजानं त्वां करिष्यामि सत्यमेतंच्छुम्णॊतु में-(अर्थ.) मैं
सच कहता हूँ कि प्रहस्त और पुत्रों के सहित रावण का वध करके मैं तुम्हें लंका का
राजा बनाऊँगा.
एकमुक्तस्तु सौ मित्रिरभ्यषिश्चद विभीषणाम्* मध्ये वानरमुख्यानां
राजानं राजशासनत्
(अर्थ)-सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने मुख्य-मुख्य वानरों के बीच महाराज
श्रीराम के आदेश से विभीषण का राक्षसों के राजा के पद पर अभिषेक कर दिया."
उन्होंने अपने हाथ में सोने का घड़ा हाथ में लिया और वानरयूथपतियों के हाथ में देकर
उन महान शक्तिशाली तथा मन के समान वेगवाले वानारों को समुद्र का जल लाने की आज्ञा
दी.वेगशाली वानर जल लेकर आ गये. तदनन्तर लक्ष्मण ने एक घट जल लेकर उसे एक उत्तम
आसन पर स्थापित किया और जल से वेदोक्त विधि के अनुसार महात्मा विभीषण का लंका के
राजपद पर अभिषेक किया. यह देखकर मंत्रीगण और सारे सभासदों को बहुत प्रसन्नता हुई.
विशाल राज्य को पाकर और अपनी प्रजा को सान्तवना देकर राजा विभीषण श्रीरामजी के
शिविर में पहुँचे और मांगलिक वस्तुयें देकर श्रीरामजी और लक्ष्मणजी को सादर भेंट
में दिया.
तदनन्तर प्रभु श्रीरामजी ने
पवनपुत्र हनुमानजी से कहा-" हे महावीर ! आप लंका नरेश विभीषण जी के अनुमति
लेकर उत्तम लंकापुरी में प्रवेश कर मिथिलेशकुमारी सीता से कुशल समाचार पूछो. साथ
ही उनको मेरा कुशल समाचार निवेदन कहो और उनका संदेश लेकर लौट आओ."
बिना कोई विलम्ब किये पवनपुत्र
अशोकवाटिका पहुँचे. वहाँ पहुँचकर उन्हें सीताजी को विनम्रतापूर्वक प्रणाम निवेदित
करते हुए कहा-" देवी ! महात्मा विभीषण जी की सहायता से प्रभु श्रीराम और
लक्ष्मण भैया ने रावण का वध कर दिया है. वे दोनों सुग्रीवजी के सहित सकुशल हैं.
शत्रुविजयी श्रीराम जी ने आपकी कुशलता पूछी है."
हनुमानजी के इस प्रकार कहने पर
चन्द्रमुखी सीताजी को बड़ा हर्ष हुआ. शरीर में रोमांच हो आया. हर्ष से गला भर आया.
नेत्रों में जल भर आया. अत्यन्त प्रसन्न हो आँसू बहाती हुई गदगदवाणी में उन्होंने
हनुमानजी से कहा-"हे वानर वीर ! ऐसा प्रिय समाचार सुनाने के कारण मैं तुम्हें
कुछ पुरस्कार देना चाहती थी, किन्तु तुम्हें देने योग्य कोई वस्तु दिखाई नहीं
देती."
" हे सौम्य वीर ! इस भूमण्डल
में मैं कोई ऐसी वस्तु नहीं देखती, जो इस प्रिय संवाद के अनुरूप हो और जिसे मैं
तुम्हें देकर संतुष्ट कर सकूँ. सोना,चांदी एवं नाना प्रकार के रत्न अथवा तीनों
लोकों का राज्य भी इस प्रिय समाचार की बराबरी नहीं कर सकता." सीताजी ने
हनुमानजी से कहा.
" पति की विजय चाहने वाली और
पति के ही प्रिय एवं हित में सदा संलग्न रहने वाली सती-साध्वी देवि! आपके ही के
मुँह से ऐसा स्नेहपूर्ण वचन निकल सकता है. हे माते ! आपका यह वचन सारगर्भित और
स्नेहयुक्त है. अतः भाँति-भाँति की रत्नराशि और देवताओं के राज्य से भी बढ़कर है.
हे माते ! आपके इस वचन से मैं सब कुछ पा गया. मुझे देवताओं के राज्य आदि सभी
उत्कृष्ट गुणॊं से युक्त पदार्थ मुझे मिल गये." हनुमानजी ने माता सीता से इस
प्रकार कहा.
सीताजी के ऐसा कहने पर हनुमानजी
ने कहा- हे देवी! आप श्रीरामजी की धर्मपत्नी हैं. अतः आपका ऐसे सदगुणॊं से सम्पन्न
होना उचित ही है. अब आप अपनी ओर से मुझे कोई संदेश देने की कृपा करें. मैं आपका
संदेशा लेकर रघुनाथ जी के पास जाऊँगा."
हनुमानजी के ऐसा कहने पर विदेहनन्दिनी
ने कहा- " हे वीर ! मैं अपने भक्तवत्सल स्वामी का दर्शन करना चाहती
हूँ."
" जी ..बहुत अच्छा...मैं
शीघ्र ही आपके स्वामी श्री रघुनाथ जी को आपका संदेश सुनाना चाहूँगा" ऐसा कहते
हुए उन्होंने सीतजी को प्रणाम किया और शीघ्र ही लौट आए.
००००००
शिविर में लौटकर वीर हनुमानजी ने
श्रीराम जी को प्रणाम करके कहा-" हे भगवन् ! शोकसंतप्त मिथिलेशकुमारी शीघ्र
ही आपके दर्शन करना चाहती हैं. कृपया आप उन्हें दर्शन दीजिए." ऐसा कहकर
हनुमान जी चुप हो गये.
सीताजी के संदेश को सुनकर श्रीराम
सहसा ध्यानस्थ हो गये. उनकी आँखे डबडबा आयीं. कुछ देर मौन रहने के बाद उन्होंने
महाराज विभीषण से कहा-" हे राजन ! तुम विदेहनन्दिनी सीताजी को मस्तक पर से
स्नान करा कर दिव्य अंगराज तथा दिव्य आभूषणॊं से विभूषित करके शीघ्र मेरे पास ले
आओ."
" जी अच्छा." कहकर
उन्होंने सिर से स्नान करके सुन्दर श्रृंगार किया और बहूमूल्य वस्त्र और आभूषण
पहनकर वे चलने को उद्यत हुईं. तब महाराज विभीषण ने पालकी ( शिबिका.) में बिठाकर
भगवान श्रीरामजी के पास ले आये.
सीताजी के दर्शनों के लिए अच्छी
खासी भीड़ जमा हो गयी थी. हर कोई उन्हें देखना चाहता था. ऐसा होता देख रामजी ने
कहा- " हे महाराज ! विदेहकुमारी जी के सभी दर्शन करना चाहते हैं अतः उन्हें
पालकी का त्याग कर पैदल चलकर ही मेरे पास आयें ताकि सभी वानर उनका दर्शन कर
सकें."
श्रीराम जी के ऐसा कहने पर महाराज
विभीषण सोच में पड़ गये और विनीत भाव से सीताजी को उनके समीप ले आये. रामजी के ऐसे
वचन सुनकर महाराज विभीषण,सुग्रीव तथा हनुमानजी को गहरा विषाद हुआ और वे व्यथित हो उठे. रामजी के इस
सूखे व्यवहार को देखकर उन्हें लगा कि रामजी अपनी पत्नी से निरपेक्ष हो गये हैं,
तभी उन्होंने ऐसा कुछ कहा है.
आगे-आगे महात्मा विभीषण और हनुमान
और पीछे-पीछे सीताजी लज्जा में अपने अंगों में सिकुड़ी जा रही थीं. इस तरह वे अपने
पतिदेव के सामने उपस्थित हुईं और उन्हें सादर प्रणाम किया.
विदितश्चात्स्तु भद्रं ते योSयं रणपरिश्रमः * सुतीर्णः सुहृदां वीर्यात्र
त्वदर्थ मया कृतः(15.वा.रा.)
" सीते ! तुम्हारा कल्याण
हो. तुम्हें मालुम होना चाहिए कि मैंने जो यह युद्ध का परिश्रम उठाया और विजय पायी
है, यह सब तुम्हें पाने के लिए नहीं किया गया है. सदाचार की रक्षा, सब ओर फैले हुए
अपवाद का निराकरण तथा अपने सुविख्यात वंश पर लगे हुए कलंक का परिमार्जन करने के
लिए ही यह सब मैंने किया है."
प्राप्ताचारित्रसंदेहा मम
प्रतिमुखे स्थिता*दीपो नेत्रातुरस्येव प्रतिकूलासि में दृढ़ा. (17वा.रा.)
" सीते ! तुम्हारे चरित्र
में संदेह का अवसर उपस्थित है, फिर भी तुम
मेरे सामने खड़ी हो. जैसे आँख के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती, उसी प्रकार
आज तुम मुझे अत्यन्त अप्रिय जान पड़ती हो."
"कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा,
जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही हुई स्त्री को केवल इस लोभ से कि यह मेरे
साथ बहुत दिनों तक रहकर सौहार्द स्थापित कर चुकी है, मन से उसे ग्रहण कर
सकेगा."
"रावण तुम्हें अपनी गोद में
उठाकर ले गया और तुम पर दूषित दृष्टि डाल चुका है, ऐसी दशा में अपने कुल को महान
बताता हुआ मैं फ़िर तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ.?"
रामजी का एक-एक वाक्य हृदय को
चीरता हुआ-सा प्रतीत हो रहा था जनकसुता को. लेकिन उनके पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं था, जो उनकी अपनी शुचिता
होने को प्रमाणित कर सके. केवल वे अपनी ओर से बोल-बता ही सकती थीं. लेकिन उन बातों
पर रामजी को विश्वास नहीं होगा और वे करेंगे भी नहीं. वे जानती थीं.
जैसे सामने सिंह को खड़ा पाकर
हिरणी भय से कांपने लगती है, ठीक उसी प्रकार सीता थरथर कांपने लगी थीं. उनकी आँखों
के सामने अन्धियारा गहराने लगा था. हृदय तेजी से धड़कने लगा था,.जिस बात की कल्पना
उन्होंने सपने में भी कभी नहीं सोची थी, आज वह हृदय-द्रावक दृश्य उनके सामने खड़ा
होकर अट्टहास कर रहा था.जिस सीता ने राम के सिवाय किसी और की तरफ़ आँख उठाकर, एक पल
को भी नही निहारा, आज वही, मेरे अपने राम, मेरे चरित्र पर संदेह प्रकट रहे
हैं?."
" क्या ये वही श्रीराम हैं
जिन्हें जनकवाटिका में मेरी रूप-छटा को देखकर परम सुख की प्रतीति हो रही थी, जिनके
नेत्र स्थिर हो गये थे. मुख से वचन नहीं निकल पा रहे थे.मेरी सुन्दरता को देखकर
उन्होंने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा भी था-" हे अनुज ! क्या यह महाराज जनक की
वही पुत्री है, जिसके कारण धनुष-यज्ञ हो रहा है. पुष्पवाटिका में प्रकाश करती फ़िर
रही है, जिसकी दिव्य आभा को देखकर मेरे पवित्र हृदय में क्षोभ हो रहा है. मेरा मन
जानकी की रूप- छटा में उलझा है, साथ ही सीता के मुख-कमल की सुन्दर छवि को, मेरे मन
का भ्रमर, रसपान कर रहा है. क्या वे ही राम हैं, जिन्हें अब मेरी ओर देखना भी
सुखकर प्रतीत नहीं हो रहा है?."
" क्या मेरे स्वामी उस दिन
और उस शुभ घड़ी को विस्मृत कर चुके हैं, जब मेरे पिता महाराज जनक जी ने मेरे हाथ को
आपके हाथों में सौंपते हुए कहा था-" रघुनन्दन ! तुम्हारा कल्याण हो. यह मेरी
पुत्री सीता तुम्हारी सहधर्मिणी के रूप में उपस्थित है. इसे स्वीकार करो और इसका
हाथ अपने हाथ में लो. यह परम पतिव्रता, महान सौभाग्यशाली और छाया की भाँति सदा
तुम्हारे पीछे चलने वाली होगी. क्या आपको मेरे पिताश्री के वचन याद नहीं आ रहे
हैं?. हाँ...हाँ... मैं आपकी प्रतिछाया
हूँ. आप मुझसे अलग होने की कैसे सोच सकते हैं."
" शादी के बन्धन में बंधने
के बाद आपने, अग्नि को साक्षी मानकर मुझे तीनों अवस्था में ( युवावस्था,
प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था.) मेरे पालन करने का वचन दिया था. कहाँ गया वह आपका
दिया हुआ वचन?. आप जैसे सत्यवादी को क्या ऐसा कहना शोभा देता है, कि मैं अब आपकी
कोई नहीं होती?."
"इसके साथ ही आपने मुझे यह
भी वचन दिया था कि आज
से मैं आपको अपनी अर्द्धांगिनी घोषित करते हुए, मेरे साथ अपने व्यक्तित्व को मिलाकर,
मैं एक नये जीवन की सृष्टि करुँगा. मैं अपने शरीर के अंगों की तरह तुम्हारा भी
ध्यान रखूँगा. मैं प्रसन्नतापूर्वक सीता को गृहलक्ष्मी
का महान अधिकार सौंपता हूँ और जीवन के निधार्रण में इनके परामर्श को हमेशा महत्त्व
दूँगा. मैं इनके रूप, स्वास्थ्य, स्वभाव सम्बन्धी गुण दोष एवं किसी जानकारी के नहीं होने पर ध्यान नहीं दूँगा तथा इसके लिए कभी असन्तोष भी व्यक्त नहीं करूँगा.
स्नेहपूर्वक उन्हें सुधारने की कोशिश करता रहूँगा तथा धैर्य रखकर आत्मीयता बनाये रखूँगा.सीता को मैं अपना मित्र बनाकर रहूँगा और पूरा-पूरा स्नेह देता रहूँगा. इस वचन का
पालन पूरी निष्ठा और सत्य के साथ करता रहूँगा.आपने मुझे एक नहीं बल्कि सात-सात वचन
दिये थे. फ़िर आज आप उन वचनों को पालन करने
में क्यों अपनी असमर्थता उजागर कर रहे हैं?".
"क्या ये वही मेरे स्वामी
हैं जिन्होंने शूर्पनखा के कामुक अनुनय को ठुकरा कर, मेरा परिचय देते हुए कहा था-
"मैं विवाह कर चुका हूँ. यह मेरी प्यारी पत्नी सीता विद्यमान है". क्यों
वे आज अपनी प्राणप्रिया को जानबूझ कर पहिचानने से मना कर रहे है?. महात्मा अगस्त्य
जी ने भी कहा था " राम ! आपकी यह धर्मपत्नी सीता, सब दोषों से रहित है.
स्पृहणीय एवं पतिव्रताओं में उसी तरह अग्रगण्य हैं, जैसे देवियों में अरुन्धती.
मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि मैंने किस तरह पतिव्रत धर्म का त्याग कर दिया है?. आज
भी मैं अपने मन-प्राण से अपने धर्म का पालन कर रही हूँ. फिर किस आधार पर मेरे
स्वामी मुझ पर लांछन लगा रहे हैं और यह कह रहे हैं कि मैं कहीं भी चली जाऊँ?. क्या
कभी मीन, बिन जल के जीवित रह सकती है?".
" वीर हनुमान के लंका आने से
पूर्व तक, इस अपरिचित-अनचिन्ही नगरी में मेरा सगा कौन था?. कौन परिवार का सदस्य
मेरे साथ था? कौन था, जिसे मैं दुःख की घड़ी में अपना कह सकती थी?. ऐसी अशुभ घड़ी
में मैंने आपकी उज्जवल छवि को मन में बसा कर, अपना एक छोटा-सा आभासीय संसार बना
लिया था, जिसमें मैं हर पल, हर घड़ी आपके साथ होती थी.आपसे बातें कर अपना मन बहलाती
थी. आज जब मैं अपने उस निर्मित संसार से बाहर निकलकर, आपके सन्मुख उपस्थित हुई
हूँ, तो आपने मुझसे किनारा कर लिया?. मेरा साथ छोड़ दिया."
" जब दुष्ट रावण मेरा अपहरण
करके ले जा रहा था, उस समय मेरे द्वारा फ़ेंके गए आभूषणों को देखकर आपने तत्काल
पहचान लिया था कि ये आभूषण मेरी प्राणप्रिया के ही हैं. उन्हें देखकर आपने महान
शोक व्यक्त किया था. आपने नेत्र भर आए थे. यह बात मुझे हनुमान ने स्वयं होकर
बतलाया था. आज आपकी वही प्राण-प्रिया आपके समक्ष उपस्थित है, तो आप उसके साथ रूखा
व्यवहार करने लगे?."
आपने अपने विशेष दूत हनुमान को
संदेशा और अंगूठी देकर कहा था-" हनुमान, इस अंगूठी को देखकर सीता तुम्हें
पहचान जायेगी कि तुम ही मेरे भेजे हुए दूत हो. तुम उसे यह अंगूठी तो दोगे ही, साथ
ही उनका संदेशा भी लेकर आना. आपने मुझे संदेशा भेजते हुए यह भी कहलवाया कि मैं
तुम्हें राक्षसराज रावण का वध करने के लिए शीघ्र ही लंका पहुँच रहा हूँ. आपने मुझे
पाने के लिए इतना उद्यम किया और आज वही आपकी प्राणपिया आपके लिए अछूत कैसे हो
गयी?"
" राम रूपी चन्द्रमा की
किरणों के रस को चाहने वाली चकोरी आपकी सीता, पापी रावण रूपी सूर्य के सामने आँखें
कैसे खोल सकती थी?. मैंने उस पापी की आज तक सूरत तक नहीं देखी है. जव भी मेरा
सामना लोलुप-लम्पट रावण से हुआ है, मैंने हर बार तृण ( घास का टुक़ड़ा) की ओट लेकर
उससे तीखा संवाद किया है. फिर मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि आप मुझे किस रूप में देख
पा रहे हैं?.सीता निर्दोष है, निर्दोष ही रहेगी. सीता आपकी है, आपकी ही रहेगी, यह
सब जानते हुए भी आप मुझसे संबंध विच्छेद की बात क्यों कर कह रहे हैं?"
"नारी जाति के उद्धारक राम !
आपने एक अछूत स्त्री अहिल्या का उद्धार किया और मुझ जैसी निर्दोष...निरापराध
...बेगुनाह नारी को पर घोर लांछन लगाकर उसे नरक-कुंड में झोंक रहे हैं.? यह कैसा
न्याय है स्वामी."?
" भला हो देवेन्द्र का, जो
मेरे लिए परमपिता ब्रह्माजी के द्वारा भेजी गई खीर लेकर आये. उस खीर के प्रभाव से
न तो मुझे क्षुधा लगी और न ही प्यास. मै एक अकेली, उस अशोकवृक्ष के नीचे बैठी आपके
नाम का जाप करती रही और भयानक राक्षसियों की धममियां सुनती रहीं. वे तो मुझे कच्चा
तक खा जाने को उद्धत थीं. वे रावण की ओर से मुझे तरह-तरह के वस्त्राभूषण का
प्रलोभन देती रहती थीं, लेकिन मैंने, न वहाँ का अन्न-जल ग्रहण किया और न ही कोई
आभूषण लेना स्वीकार किया. और तो और, मैंने कभी किसी फल का स्वाद तक नहीं चखा.
इतनी कठिन तपश्चर्या के बाद भी मेरे स्वामी मुझ पर संदेह पाले बैठे है?. यदि मैं
जानती कि ऐसी विकट परिस्थिति से मुझे गुजरना पड़ेगा, तो मैं विष पीकर अपनी जान दे
देती. शायद ऐसा करना उचित ही होता, लेकिन पिया मिलन की आस के कारण मैं ऐसा नहीं कर
पायी."
माता त्रिजटा मुझे सदैव आश्वास्त
कराती रही कि प्रभु श्रीराम शीघ्र ही लंका आयेंगे और दुष्ट दानव को मारकर तुम्हें
ले जायेंगे. बस इसी आशा को मन में संजोये हुए मैं अब तक जीवित रही. और जब हमारे
मिलन की घड़ी आयी, अब आपने अपनी प्राणप्रिया से मुँह मोड़ लिया? आखिर क्यों? क्यों
आपने मेरे साथ इतना ओछा व्यवहार किया, जबकि आप सदैव से व्यवहार कुशल रहे
हैं." तरह-तरह के विचार सीता जी के मन में उठते और उन्हें बेचैन किये दे रहे
थे.
सीता जी ने अपनी ओर से बहुत कुछ
कहा,लेकिन इन सब बातों का लेषमात्र भी प्रभाव रामजी पर नहीं पड़ा. वे रोतीं और आँसू
बहाती हुई, दुःखी एवं चिन्तामग्न होकर बैठे हुए अपने देवर लक्ष्मण से बोलीं-"
हे सुमित्रानन्दन ! सुवर्ण मृग पाने की लालसा ने मुझे कितने शारीरिक और मानसिक
आघात पहुँचायें है, जिनको याद करते हुए हृदय कांपने लगता है., तब मैं तुम्हारा कहा
मान जाती तो शायद ही रावण मेरा अपहरण कर पाता और न ही मैं मुझे अपने प्रियतम श्रीराम
जी का विछोह सहना पड़ता."
" भैया लक्ष्मण ! यह कैसी विडंबना
है कि जब मैंने अयोध्या के ऐश्वर्य को त्याग दिया, तब मेरे पति श्रीरामजी मेरे साथ
थे.और जब मैंने सोना पाने की कामना कि तो
मुझे सचमुच की सोने की लंका मिली तो अवश्य, लेकिन पति का साथ छूट गया. पर आज जब
मैं सोने का त्याग करने को उद्यत हुई, तो मेरे ने मेरा ही त्याग कर दिया?. लालसा
की इस भटकाव में न मुझे सोना मिला और न ही पति मिल पाये. आपने मुझे चेताया भी था,
लेकिन मोह से भ्रमित मेरे मन ने, तुम्हारी बातों की अवहेलना की, जिसका फल मैंने पा
लिया है."
" हे देवर जी ! मुझ अभागन
सीता को क्षमा कर दो. मैंने तुम्हें कितनी खरी-खोटी सुनायी...कितना भला-बुरा
कहा...यहाँ तक तुम्हारी नियत पर भी शंका की. हे भैया ! हो सके तो इस अपराधन सीता
को क्षमा कर दो. मैं तुमसे क्षमा याचना करती हूँ’. कहते-कहते जोरों से विलाप करने
लगीं.
" हे देवरजी !.मैं अब अपने
पति से विलग होकर एक पल को भी जीवित नहीं रहना चाहती. तुम मेरे लिए चिता तैयार कर
दो. मेरे इस दुःख की यही दवा है. मिथ्या कलंक से कलंकित होकर सीता जीवित नहीं रह
सकती."
" फ़िर मेरे स्वामी मेरे
गुणॊं से प्रसन्न नहीं हैं. इन्होंने भरी सभा में मेरा परित्याग कर दिया है.ऐसी
दशा में मेरे लिये जो उचित मार्ग है, उस पर जाने के लिए मैं अग्नि में प्रवेश
करूँगी" सीताजी ने लक्ष्मण से कहा.
वीर लक्ष्मण को सीताजी का अपमान
सहन नहीं हो रहा था. वे बार-बार निरीह आँखों से अपने अग्रज रामजी की ओर देखते. मन
ही मन बहुत कुछ बुदबुदाते, लेकिन वे चाहकर भी कुछ बोल नहीं पा रहे थे. रामजी की
भंगिमा देखकर उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि कुछ निवेदन ही कर पाते. अमर्ष के
वशीभूत होकर उन्होंने चिता तैयार की.
राम एक ओर निर्विकार भाव से खड़े
थे. वे इस समय प्रलयकालीन संहारकारी यमराज के समान लोगों में भय उत्पन्न कर रहे
थे. किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि कोई आगे बढ़कर उन्हें समझाता-बुझाता.
यथा में हृदयं नित्यं नापसर्पति
राघवात् *तथा लोकस्य साक्षी मां सर्वतः पातु पावकःयथा मां शुद्धचारित्रां दुष्टां
जानाति राघवः *ताथा लोकस्य साक्षी मां सर्वतः पातु पावकःकर्मणा मनसा वाचा यथा
नातिचराम्यहम् * राघवं सर्व धर्मज्ञं तथा मां पातु पावकः आदित्यो भगवान् वायुर्दिशश्चन्द्रस्तथैव च *अहश्चापि
तथा संध्ये रात्रिश्च पृथ्वी तथायथान्येSपि विजानन्ति तथा चारित्रसंयुताम्.एवमुक्तवातु वैदेही परिक्रम्य हुताशनम् *
विवेश ज्वलनं दीप्तं निःशंकेनान्तरात्मना.
(25से28 वा.रा.युद्धकांड)
चिता प्रज्जवलित की गयी.
श्रीरामजी सिर नीचे झुकाये खड़े थे. सीताजी ने उनकी परिक्रमा की. इसके बाद वे
प्रज्जवलित अग्नि के पास गयीं. वहाँ देवताओं तथा ब्राह्मणों को प्रणाम करके
उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर कहा--" हे अग्निदेव ! यदि मेरा हृदय कभी एक क्षण के
लिए भी श्री रघुनाथजी से दूर न हुआ हो संपूर्ण जगत के साक्षी, सब ओर से मेरी रक्षा
करें."
" मेरा चरित्र शुद्ध है फिर
भी श्री रघुनाथजी मुझे दूषित समझ रहे हैं. यदि मैं सर्वथा निष्कलंक होऊँ, तो
सम्पूर्ण जगत के साक्षी अग्निदेव मेरी सब ओर से रक्षा करें."
" यदि मैंने मन,वाणी और
क्रिया द्वारा कभी सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता श्रीरघुनाथजी का अतिक्रमण न किया हो
तो अग्निदेव मेरी रक्षा करें."
"यदि भगवान सूर्य,
वायु,दिशाएँ,चन्द्रमा,दिन, रात,दोनों संध्याएँ, पृथ्वी देवी तथा अन्य देवता भी
मुझे शुद्ध चरित्र से युक्त जानते हों तो अग्निदेव मेरी रक्षा करें," ऐसा
कहकर मिथिलेशकुमारी सीता ने अग्निदेव की परिक्रमा की और निःशंक चित्त से उस
प्रज्ज्वलित अग्नि में समा गयीं.
बालकों, वृद्धों से भरे हुए वहाँ
के महान जनसमुदाय ने उन दीप्तिमती मिथिलेशकुमारी को जलती आग में प्रवेश करते देखा.
ऋषियों, मुनियों, देवताओं, गन्धर्वों और स्त्रियों ने उन्हें अपनी आँखों से
सीताजी को आग में गिरते देखकर सभी ने नेत्र भर आए. स्त्रियाँ चीख-चीख कर विलाप
करने लगीं. इस हृदयद्रावक दृश्य को देखकर सुग्रीव, हनुमान, अंगद सहित सभी
वानरयूथपतियों सहित वानर और ऋक्षराज विलाप करने लगे. इतना ही नहीं पेड़ों पर बैठे
पक्षीगण, पेड़-पौधे, सजीव और निर्जीव वस्तुएँ भी सहम गए और विलाप करने लगे. उन सभी
के आर्तनाद से समूचा आकाश सिहर उठा. आकाश-पटल में विराजित सभी देवी-देवता भी विलाप
करते हुए दुःखी हो रहे थे.
इसी समय विश्रवा के पुत्रा
यक्षराज कुबेर, देवताओं के स्वामी इन्द्र, जल के अधिपति वरूण, वृषभध्वज महादेव,
तथा जगत के सृष्टा ब्रह्मवेताओं में श्रेष्ठ ब्रह्माजी अपने-अपने विमानों में आरुढ़
होकर श्रीरामजी के पास आये और हाथ जोड़कर कहने लगे-" श्रीराम ! आप संपूर्ण
विश्व के उत्पादक, ज्ञानियों में श्रेष्ठ और सर्वव्यापक हैं. फ़िर इस समय आग में
गिरी हुई सती-साधवी सीता की उपेक्षा कैसे कर रहे हैं?. आप इस बात को कैसे समझ नहीं
पा रहे हैं.?. वे बहुत प्रकार से प्रार्थनाएँ और स्तुति करने लगे.
तभी परमपिता ब्रह्मा जी की आज्ञा
से प्रज्जवलित अग्नि में अग्निदेव ने
प्रवेश किया और एक पिता की भाँति सीताजी को गोद में लिये चिता से ऊपर उठे और बाहर
निकल आये. अग्नि में तप कर सीताजी प्रातःकाल के सूर्य की भाँति अरुण-पीत कान्ति से
प्रकाशित हो रहीं थीं. तपाये हुए सोने के आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे. उनके अंगों
पर लाल रंग की रेशमी साड़ी लहरा रही थी. सिर पर काले, घुंधराले केश सुशोभित हो रहे
थे.अनिन्द्य सुन्दरी सती-साधवी सीता का अग्नि में प्रवेश करते समय जैसा रूप और वेष
था, वैसे ही रूप-सौंदर्य से प्रकाशित होती हुई उस वैदेही को गोद में लेकर अग्निदेव
ने श्रीरामचन्द्र जी को सौंपते हुए कहा-" हे श्रीराम ! यह आपकी धर्मपत्नी
विदेहकुमारी सीता हैं. इन्हें आपने नर-लीला करने के लिये मेरे पास धरोहर के रूप
में सौंपा था और मैंने एक पिता होने के नाते इन्हें अपने संरक्षण में अब तक रखा.
चुंकि अब आप नर-लीला समाप्त हो गयी है, अतः मैं आपकी अनमोल धरोहर को आपको सौंपते
हुए अत्यन्त ही प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ. पुत्री सीता का कोई पाप या दोष
नहीं है. उत्तम आचरण वाली इस शुभलक्षणा सती ने मन, वाणी, बुद्धि अथवा नेत्रों के
द्वारा भी आपके सिवा किसी दूसरे पुरुष का आश्रय नहीं लिया. इसने सदा सदाचारपरायण
आपका ही किया है."
" हे देव ! अपने बल और
पराक्रम का घमण्ड करने वाले रावण ने जब इनका अपहरण किया था, उस समय यह सती सूने
आश्रम में अकेली थी. आप इसके पास नहीं थे. अतः यह विवश थीं. रावण ने इन्हें अशोकवाटिका
में कैद कर कड़ा पहरा बिठा दिया. भयंकर राक्षसियो को इसकी अभिरक्षा में लगा दिया.
तब भी इसका चित्त आप में ही लगा रहा. यह आपको ही अपना परम आश्रय मानती रही है. इसे
तरह-तरह के लोभ दिये गये. इसे उस दुष्ट की डाँट भी खानी पड़ी, परंतु इसकी
अन्तरात्मा निरन्तर आपके चिंतन में लगी रही. इसने उस राक्षस के विषय में एक बार भी
नहीं सोचा."
" राम ! आपकी पत्नी निष्पाप
है. इसका भाव सर्वथा शुद्ध है. आपके निवेदन पर मैंने एक पिता के रूप में इसे अपना
संरक्षण दिया. और एक पिता होने के नाते मैं आपको आज्ञा देता हूँ, आप इससे कभी कोई
कठोर बात न कहेंगे."
अग्निदेव की इन बातों को सुनकर
श्रेष्ठ धर्मात्मा रामजी का मन प्रसन्न हो गया. उन्होंने आगे बढ़कर सीताजी का हाथ
अपने हाथ में लेते हुए अग्निदेव से कहा-" हे भगवन ! इन सब लोगों की उपस्थिति
में, सीता की पवित्रता का विश्वास दिलाने के लिए ही मुझे, इनकी इतनी कड़ी परीक्षा
लेना आवश्यक लगा था, क्योंकि शुभलक्षणा सीता को विवश होकर दीर्घकाल तक रावण के
अन्तःपुर में रहना पड़ा था.यदि मैं जनकनन्दिनी की शुद्धि के विषय में परीक्षा नहीं
करता तो लोग यही कहते कि दशरथपुत्र राम बड़ा ही मूर्ख और कामी है.
" मैं यह भी जानता हूँ कि
सीता का हृदय सदा मुझमें लगा रहता था. मुझे यह भी विश्वास है कि जैसे महासागर अपने
तटभूमि को नहीं लांघ सकता, उसी प्रकार रावण अपने ही तेज से सुरक्षित इन सीता पर
अत्याचार नहीं कर सकता था. तथापि तीनों लोकों के प्राणियों के मन में विश्वास
दिलाने के लिए एकमात्र सत्य का सहारा लेकर, मैंने अग्नि में प्रवेश करती हुई सीता
को रोकने की चेष्टा नहीं की. मिथिलेशकुमारी जानकी तीनों लोकों में परम पवित्र है.
मैं इनका त्याग नहीं कर सकता."
अशोकवाटिका में अशोक वृक्ष के
नीचे सीताजी ने चार सौ पैंतीस दिन व्यतीत किए थे. इस अवधि में वे निरन्तर अपने
स्वामी श्री रघुनाथ जी की अनुपस्तिथि में चिंतन-मनन किया करती रही थीं. इतने लंबे
अन्तराल के बाद आज वह शुभ घड़ी आयी है, जब वे स्वयं अपने प्राणेश्वर के समक्ष खड़ी
हुईं थीं. पिया मिलन की आस ने उन्हें खूब तड़पाया था, लेकिन आज उन्हें अपने समक्ष
उपस्थित पाकर उनके शरीर में रोमांच हो आया था. मन प्रफ़ुल्लित होकर नृत्य करने लगा
था.
सीताजी क्षणमात्र को अपने चक्षुओं
के पलड़ों को धीरे से खोलतीं, उन्हें कनखियों से देखतीं...निहारतीं और फ़िर पलकें
बंद कर उनकी दिव्य छवि को अपने हृदय में सुरक्षित रख लिया करती थीं. अनगिनत
सुखकारी दिवा-स्वप्न उनकी आँखों के समक्ष उपस्थित होकर, उन्हें भाव-विभोर कर रहे
थे. जैसे बादलों की घटा को देखकर मयूत नाच उठता है, ठीक उसी प्रकार उनका मन-मयूर
नृत्य करने लगा था. उनके शरीर का पोर-पोर आनन्द में नहा उठा था. मन की वीणा में एक
संगीत बजने लगा था. विहाग्नि का ताप मद्यम होने लगा था. मन के आँगन में वसंत उतर
आया था. कोयल कूकने लगी थी. अब उनका अपना मन अपने प्राणेश्वर का आलिंगन चाहता
था,लेकिन लाज और संकोच के वे वैसा नहीं कर पा रही थीं. वे चाहती थीं कि रामजी
स्वयं होकर आगे बढ़ें और उन्हें अपने वक्ष से लगा लें. वे ठिठकी हुई-सी खड़ी उस
सुखकारी क्षण की प्रतीक्षा कर रही थीं.
इधर स्वयं रामजी की भी स्थिति,
सीताजी के ही समान थी, वे भी अपनी प्राणप्रिया को एक लंबे अंतराल के बाद निहार पा
रहे थे. स्मृतियाँ पुनर्जीवित हो उठी थीं. कल्पना के पंख लग आये थे. वे जनकवाटिका
में जा पहुँचे, जहाँ उन्होंने जनकदुलारी सीता को पहली बार देखा था. देखते ही ठगे
से खड़े रह गये थे. पलकों ने झपकना बंद कर
दिया था और हृदय जोरो से धड़कने लगा था. वे उन रोमांचकारी पलों को याद कर प्रमुदित
होने लगे थे. रामजी जानते थे. समझते थे कि लोक-लाज के चलते और मर्यादा में रहते
हुए सीता स्वयं होकर तो उनके पास नहीं आयेंगी. पहल तो उन्हें हर हाल में, स्वयं
होकर करनी पड़ेगी.
उन्होंने आगे बढ़कर कहा-
"सीते ". बस वे इतना ही बोल पाये थे. राम के द्वारा बोले गये इन दो
अक्षरों (सीते.) में संगीत का माधुर्य था और
आँखों में आनंद के आँसू. शब्द जब गहरे अहसास से आते हैं तो प्रेम गाने लगता है.
प्रेम में शब्द नहीं होते. शब्दों के मौन होते ही, मन मोगरे के पुष्प-सा खिल उठता
है और अपनी मदमाती सुगंध से दोनों को सराबोर करने लगता है. वे बहुत कुछ अपनी ओर से
बहुत कुछ कहना चाह रहे थे,लेकिन शब्द ढूँढे नहीं मिल रहे थे.शब्द जैसे खो गये थे.
शब्दों की जगह मौन बोल रहा था. "सीते" कहते हुए उन्होंने अपनी प्रियतमा
को, अपनी विशाल बाहों के घेरे में लेते हुए अपने हृदय से लगा लिया. एक अविस्मरणीय
सुख की प्रतीति दोनों को होने लगी थी. सलोने सपने सजने लगे थे. रामजी सीता जी के
हृदय में गहरे उतर रहे थे और सीताजी राम के हृदय में समाने लगी थी. नीर और क्षीर
मिलकर एक हो रहें थे.
इस अद्भुत और अविस्मर्णीय अभिसार
के पलों को देखने के लिए आकाश-पटल में उपस्थित हुए देव, गन्धर्व, यक्ष, पुष्पों की
वर्षा करने लगे. केवल देवादि ही नहीं ,बल्कि वीर हनुमान, सुग्रीव. अंगद, जाम्वनत
जी भी उन पर पुष्पों की वर्षा करते हुए स्वयं को धन्य मानने लगे.
००००००
स्वयं देवाधिदेव महादेव जी भी इन
दुर्लभ मिलन के क्षणॊं को देखने के लिए वहाँ पहुँच गए थे. उनके साथ महाराज दशरथ जी
भी अपने दिव्य विमान में उपस्थित थे. वे अपने बेटों की उपलब्धियों पर आशीष देना
चाहते थे. महादेव जी ने श्रीरामजी को उनकी उपलब्धियों पर बधाइयां देते हुए कहा
-" हे राघव ! आपके पिताश्री महाराज दशरथजी विमान में बैठे हुए हैं. आप जैसे
सुपुत्र ने उन्हें तार दिया है.आप लक्ष्मण के सहित उन्हें प्रणाम
करिये.". महादेव की यह बात सुनकर
राघव ने अपने अनुज लक्ष्मण और सीताजी के सहित अपने पिता को प्रणाम किया.
श्रेष्ठ आसन पर विराजमान महाबाहु
नरेश ने अपने दोनों पुत्रों का आलिंगन लेते हुए कहा-" राम ! मैं सच कह रहा
हूँ. तुमसे विलग होकर मुझे देवलोक में देवताओं द्वारा प्राप्त सम्मान भी मुझे
अच्छा नहीं लगा. मैं स्वयं दानवों का वध करने के लिए देवराज इन्द्र के साथ जाता
रहा हूँ लेकिन उनको समूल नष्ट नहीं कर पाया. मेरे अधूरे काम को तुमने शत्रुओं का
वध करके मेरे सारे मनोरथों को पूरा कर दिया और वनवास की अवधि भी पूरी कर ली है.
तुम्हें वन भेजने के लिए कैकेयी ने जो-जो बातें की थीं,वे सब मेरे हृदय में बैठी
हुई हैं."
" हे सौम्य ! आज देवताओं के
द्वारा मुझे मालूम हुआ है कि रावण का वध करने के लिए स्वयं पुरुषोत्तम भगवान
विष्णु ही तुम्हारे रूप में अवतरित हुए हैं. हे राम ! कौशल्या का जीवन सार्थक हुआ,
जो वन से लौटने पर तुम जैसे वीर पुत्र को, अपने घर में हर्ष और उल्लास के साथ
देखेंगी." हे पुत्र ! तुमने मेरी प्रसन्नता के लिए लक्ष्मण और सीता के साथ
चौदह वर्ष व्यतीत किये."
अपने पिता के आशीर्वचनों को सुनते
हुए रामजी ने निवेदन करते हुए कहा-" पिताश्री ! सनातन धर्म की पुनर्स्थापना
एवम भारतीय संस्कृति की रक्षार्थ ही माता कैकेयी ने मुझे वनवास पर भेजा था.यदि वे
ऐसा कड़ा निर्णय नहीं लेतीं तो सनातन धर्म के पतन को शायद ही कोई रोक पाता.मैं
अयोध्या का अधिपति तो बन जाता, लेकिन शायद ही अयोध्या की सीमा से बाहर निकल पाता?.
उन्होंने मुझ पर बड़ा उपकार किया है.आपके राम ने रावण का वध करके पृथ्वी के भार को
कम कर दिया है."
" हे पिताश्री ! आपने माता कैकेयी तथा भरत का पारित्याग कर दिया
है.उन दोनों पर आपका यह घोर शाप माता कैकेयी और भरत भैया का स्पर्श न करे. आप
उन्हें शापमुक्त कर देने की कृपा करें."
"बहुत अच्छा" कहकर दशरथजी ने रामजी की
प्रार्थना स्वीकार कर ली और हाथ जोड़ॆ लक्ष्मण से कहा-" सुमित्रानन्दन ! तुमने
विदेहनन्दिनी सीता और राम की भक्तिपूर्वक सेवा करके मुझे बहुत प्रसन्न किया है.
तुम्हें धर्म का फ़ल प्राप्त हुआ है.. तुम्हें भूमण्डल में महान यश की प्राप्ति
होगी. तुम निरन्तर राम की सेवा करते रहो."
महाराज दशरथ ने अपनी पुत्रवधु
सीता से कहा-" बेटी ! तुम्हें इस त्याग को लेकर राम पर कुपित नहीं होना
चाहिए, क्योंकि वे तुम्हारे हितैषी हैं और संसार में तुम्हारी पवित्रता को प्रकट
करने के लिए ही इन्होंने ऐसा व्यवहार किया है."
" बेटी ! तुमने अपने
विशुद्ध चरित्र को परिलक्षित कराने के लिए
जो अग्निप्रवेश किया है, वह दूसरी स्त्रियों के लिए अत्यन्त दुष्कर है. तुम्हारा
यह कर्म अन्य नारियों के लिए प्रेरणास्पद होगा." इस प्रकार महाराज दशरथजी ने
अपने दोनों पुत्र और पुत्रवधु को आदेश एवं उपदेश देते हुए आशीर्वाद दिया और दिव्य
रथ पर आरुढ़ होकर इन्द्रलोक को चले गये.
०००००
महाराज दशरथजी के लौट जाने के बाद
देवराज इन्द्र प्रभु श्रीरामजी के सन्मुख हाथ जोड़े खड़े हुए और बोले-" हे
नरश्रेष्ठ ! तुम्हें जो हमारा दर्शन हुआ , वह व्यर्थ नहीं जाना चाहिए. हम तुम पर
अत्यन्त ही प्रसन्न हैं. इसलिये तुम्हारे मन में जो इच्छा हो, वह मुझसे कहो."
" हे देवेन्द्र ! यदि आप मुझ
पर प्रसन्न हैं तो मैं आपसे एक प्रार्थना करुँगा कि मेरे लिए युद्ध में पराक्रम
करके जो योद्धा यमलोक को चले गये हैं, वे सब वानर नया जीवन पाकर उठ खड़े हों. जो
वानर मेरे लिए घर-परिवार से बिछुड़ गये हैं, मैं उन सबको प्रसन्न देखना चाहता हूँ.
कृपया आप उन सबको जीवित कर दें."
" हे देवेन्द्र ! युद्ध के
कारण यहाँ की हरी-भरी धरती उजाड़ हो गयी है. चारों ओर शव बिखरे पड़े हैं. खून की कीच
मच गयी है. कृपया इन्हें हटाकर यथावत कर दें. वानरों और राक्षसों ने सघन पेड़ों को
और पहाड़ों की चोटियों को उखाड़ कर एक दूसरे पर प्रहार किया था, उन्हें उनके स्थान
यथावत स्थापित कर दें. बस मैं आपसे यही वर मांगता हूँ."
रघुनाथजी की यह बात सुनकर
महेन्द्र ने प्रसन्नतापूर्वक कहा-" हे तात ! हे परोपकारी राम !अपने सेवकों के
प्रति आपका स्नेह स्तुत्य है. आप महान हैं. आपकी इन महानता का युगों-युगों तक गान
होता रहेगा. हे कृपालु राम !- आपके सारे
योद्धा जो इस धर्म-युद्ध में मारे गये हैं, राक्षसों ने जिनके मस्तक और भुजायें
काट डाली हैं. वे सभी वानर,भालू, लंगूर जी उठें. वे सभी परमानंद से युक्त हो अपने
सुहृदयों, बान्धवों,जाति-भाइयों तथा स्वजनों से मिलेंगे. वे जहाँ भी रहेंगे, वहाँ
असमय में भी वृक्ष फ़ल-फ़ूलों से लद जायेंगे. नदियाँ जल से भर जायेंगी. जिनके अंग
घाव से भरे थे, वे घाव रहित हो जायेंगे." ऐसा वरदान देकर देवराज इन्द्र अपने
लोक को चले गये.
देवराज इन्द्र का वरदान पाकर सभी
वानर, लंगूर, ऋक्ष आदि जीवित हो उठे. उन्हें पहले जैसा स्वस्थ और निरोगी देखकर
रामजी को अत्यन्त ही प्रसन्नता हुई. उन्होंने एक बार पुनः देवेन्द्र को हाथ जोड़कर
धन्यवाद ज्ञापित किया.
००००००
उस रात्रि को विश्राम करके
श्रीराम दूसरे दिन प्रातःकाल सुखपूर्वक उठे. तब राजा विभीषण ने हाथ जोड़कर
कहा-" हे प्रभु ! आपके स्नान के लिए जल, अंगराग, वस्त्र, आभूषण, चंदन और
भांति-भांति की दिव्यमालाएँ उपस्थित है. श्रृंगारकला को जानने वाली कमलनयनी
नारियाँ भी सेवा में प्रस्तुत हैं,जो आपको विधिपूर्वक स्नान करायेंगी."
" राजन ! आपका विचार उत्तम
है,लेकिन मुझे शीघ्र ही अयोध्या के लिए प्र्स्थान करना है.मेरा प्राणप्रिय अनुज
भरत मेरे लौट आने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा है. यदि मुझे लौटने में तनिक भी
विलम्ब हुआ तो वह अपने प्राण त्याग देगा. जहाँ तक स्नान करने की बात है, तो मैं
अयोध्या लौटकर कर लूँगा.लंका से अयोध्या का मार्ग बहुत ही दुर्गम है.कोई ऐसी
व्यवस्था बनाइये कि हम सुगमतापूर्वक और शीघ्रता से अपनी पुरी अयोध्या लौट
सकें." श्रीरामजी ने कहा.
" हे प्रभु !आप इसके लिए
चिन्तित न हों. मैं एक ही दिन में आपको उस पुरी में पहुँचा दूँगा. हे स्वामी !
मेरे बड़े भाई कुबेर का सूर्यतुल्य तेजस्वी पुष्पक विमान मौजूद है,जिसे महाबली रावण
ने कुबेर को हराकर छीन लिया था. हे पराक्रमी राम ! यह इच्छानुसार चलने वाला दिव्य
एवं उत्तम विमान मैंने आप ही के लिए रख छोड़ा है..मेघ जैसा दिखाई देने वाला वह
दिव्य विमान यहाँ विद्यमान है, जिसके द्वारा निश्चिंत होकर आप अयोध्यापुरी को जा
सकेंगे."
" हे रघुनंदन ! यदि आप मुझे
अपना कृपापात्र समझते हैं और मेरे प्रति आपका सौहाद्र है तो आप भैया लक्ष्मण और
जानकी जी कुछ दिन लंका में विश्राम कर लीजिए. मैं संपूर्ण मनोवान्छित वस्तुओं के
द्वारा आपका सत्कार करूँगा. मेरे द्वारा प्रस्तुत किये गये उस सत्कार को आप
सुहृदों तथा सेनाओं के साथ ग्रहण करें. मेरे सत्कार को ग्रहण कर लेने के पश्चात
अयोध्या पधारियेगा."
विभीषण जी के प्रेम में लिपटे
वचनों को सुनकर रामजी ने कहा- " हे राजन. ! युद्धरत रहते हुए मुझे एक सौ
ग्यारह दिन आपकी लंकापुरी में रहते हुए बीत गये हैं. क्या इतना पर्याप्त नहीं
है?.आपने मेरे सुहृद और उत्तम सचिव बनकर सब प्रकार की चेष्टाओं से मेरा सम्मान और
पूजन किया है. तुम्हारी इस बात को मैं निश्चित ही अस्वीकार नहीं कर सकता, परंतु
मेरा मन इस समय अपने भाई को देखने के लिए उतावला हुआ जा रहा है..उसके सिवा माता
कौसल्या, सुमित्रा कैकेयी, मित्रवर गुह और नगर और जनपद के लोगों को देखने के लिए
भी मेरी उत्कण्ठा हो रही है."
" सौम्य विभीषण ! अब विलम्ब
न करते हुए मेरे लिये पुष्पक विमान को यहाँ मँगाओ. जब मेरा कार्य यहाँ समाप्त हो
गया है, तब मेरे लिये यहाँ ठहरना कैसे हो सकता है?."
श्रीरामजी के ऐसा कहने पर
राक्षसराज विभीषण ने मंत्रों का जाप करते हुए उस विमान को आने का आव्हान किया. पलक
झपकते ही वह दिव्य विमान उस स्थान पर आकर ठहर गया. उस विमान का एक-एक अंग सोने से
जड़ा हुआ था. उसके भीतर वैदूर्यमणि (नीलम.) की बेदियाँ थी. जहाँ-तहाँ गुप्त गृह बने
हुए थे.और सब ओर से चाँदी के समान चमकीला था. उसमें श्वेत-पीत वर्णवाली पताकाओं
तथा ध्वजों से अलंकृत था. उसमें सोने के कमलों से सुसज्जित अट्टालिकाएँ थीं, जो उस
विमान की शोभा बढ़ा रही थी. सारा विमान छोटी-छोटी घंटियों से युक्त झालरों से युक्त
था. उसमें मोती और मणियों की जालीदार खिड़कियाँ थीं. सब ओर घंटे बंधे थे, जिससे
मघुर ध्वनि होती रहती थी.
उसकी फ़र्श विचित्र स्फटिकमणियों
से जड़ी हुई थी. उसमें नीलम के बहुमूल्य सिंहासन थे,जिन पर मूल्यवान बिस्तर बिछे
हुए थे. विमान मन के वेग से उड़ाने वाला था और उसकी गति कहीं नहीं रुक सकती
थी.विमान आने की सूचना देकर विभीषण वहाँ खड़े थे. पर्वत के समान ऊँचे और इच्छानुसार
चलने वाले उस पुष्पक विमान को तत्काल उपस्थित देख लक्ष्मण सहित रामजी को बड़ा
विस्मय हुआ.
००००००
पुष्पक विमान के पास ही खड़े
विभीषण से रामजी ने कहा-" विभीषण जी ! ये वानर इस समय अपना काम पूरा कर चुके
हैं. अब आप इनका यथोचित सम्मान और अभिनन्दन करते हुए इन्हें रत्न और धन देकर
संतुष्ट करें. श्रीरामजी के ऐसा कहने पर महात्मा विभीषण जी ने सभी वानरों को
यथेष्ट धनराशि आदि देकर सम्म्मानित किया.
तदनन्तर प्रभु श्रीराम, लजाति
हुईम मनस्वी विदेहकुमारी सीता को अंक में लेकर, पराक्रमी लक्ष्मण के सहित विमान पर
आरूढ़ हुए. विमान में बैठकर समस्त वानरों का समादर करते हुए श्रीरामजी ने विभीषण
सहित सुग्रीव से कहा-" समस्त वानरश्रेष्ठ वीरों ! आप लोगों ने इस मित्र का कार्य अनन्यभाव से
संपन्न किया है. अब आप सब अपने-अपने स्थान पर चले जायें."
फ़िर महाराज सुग्रीव को सम्बोधित
करते हुए कहा-" मित्र ~ अब तुम अपनी सेना के साथ शीघ्र ही किष्किन्धा
पुरी चले जाओ. और विभीषण ! तुम लंका में
रहकर राज्य करो, अब इन्द्रादि देवता भी तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते हैं. अब इस
समय मै अपनी अयोध्यापुरी को जाऊँगा. मैं
आप सबकी अनुमति चाहता हूँ." श्रीरामचन्द्र जी ने महाराज सुग्रीव जे से कहा.
" हे भगवन् ! आपसे विछोह की
कल्पना मात्र से सिहरन होने लगती है. हे दयालु राम ! हमारा मन भी आपके साथ
अयोध्यापुरी चलना चाहता हैं. हम वहाँ प्रसन्नतापूर्वक वनों और उपवनों में रहेंगे.
आपके राज्याभिषेक की झांकी देखने के पश्चात हम शीघ्र ही अपने घर लौट
जायेंगे." प्रत्युत्तर में सुग्रीवजी ने श्रीरामजी से अनुनय करते हुए कहा.
" मित्रों ! यह तो मेरे लिए
प्रिय से भी प्रिय बात होगी. आप लोगों का साथ पाकर मुझे प्रसन्नता प्राप्त
होगी." उन्होंने सुग्रीव से कहा-" हे वानरराज सुग्रीवजी ! लंकेश विभीषण
! आप सभी अपने-अपने मंत्रियों के सहित इस विमान पर आरूढ़ हो जाइये."
आनन्दकंद प्रभु श्रीरामजी जी
विमान की सबसे ऊपरी सातवीं अट्टालिका में, अपनी धर्मपत्नी सीता जी के सहित विराजित
हुये. इस अट्टालिका से चारों ओर निहारा जा सकता था. एक विशेष यंत्र के माध्यम से
राक्षसराज विभीषण से वार्ता की जा सकती थी.राक्षसराज विभीषण जी छटवीं, तथा
पांचवीं में वीर हनुमान जी और लक्ष्मण जी के बैठने की उत्तम व्यवस्था थी. चौथी
अट्टालिका सहित पहली अट्टालिका में अन्य वानरवीरों के लिए आरक्षित की गयी थी.
रामजी की आज्ञा पाते ही लंकेश
विभीषण ने मन की गति से उड़ान भरने वाले उस विमान को उड़ान भरने की आज्ञा दी. आकाश
में पहुँचे हुए उस विमान से यात्रा करते हुए प्रसन्नचित्त श्रीराम जी कुबेर के
समान शोभा पा रहे थे. विमान पर वानर,भालू और विभीषण उस दिव्य विमान में सुख से
बैठे हुए यात्रा कर रहे थे.
००००००
चार सौ पैतींस दिनों के बाद रामजी
को अपनी धर्मपत्नी सीता का सामिप्य प्राप्त हो रहा था. विमान के अपने कक्ष में
बैठे हुए सीताजी और रामजी के बीच मौन पसरा
था. सीताजी भी चुप थीं और रामजी भी. दोनों मन-ही-मन में एक दूसरे से वार्ता कर रहे
थे. लेकिन शब्दों की आवाजाही नहीं हो रही थी. दोनों के बीच पसरे इस मौन को कौन
तोड़ेगा? शायद इस बात को लेकर दोनों के मन में अंतर्द्वंद्व चल रहा था.
बात सच थी कि रामजी के पास कहने
और सुनाने के लिए बहुत कुछ था, लेकिन सीता जी के पास उनकी असहनीय पीड़ा थी. दुःख
थे, संत्रास थे, भयानक से भयानक सपने वे देख चुकी थीं. भयानक से भयानक राक्षसियों
को वे देख चुकी थी. लंकेश की अट्टहास उन्होंने सुन रखी थी. अनेकानेक धमकियाँ थीं,
जो उन्हें आए दिन मिला करती थीं. आज जब उन्हें अपने प्रिय का सामिप्य प्राप्त हो
रहा है, तो बातों में माधुर्य होना चाहिए, कोई ऐसी बात होनी चाहिए, जिसे सुनकर
उनका दुःख भाग जाये? लेकिन वे सुनाती भी तो क्या सुनातीं?. वे नहीं चाहती थीं कि
इस सुखद मिलन की बेला में, दुःखों की, हताशा की गठरी खोली जाए. रामजी भी इस बात को
समझ रहे थे. जान रहे थे सीता के मन पर अब भी भय की काली छाया मंडरा रही है. उनके
हारे हुए मन को संबल देना होगा. उन्हें कुछ ऐसी बातें कह सुनानी चाहिए,जिससे सीता
के मन के भीतर, गहरी पैठ बना चुके, उस भय को समाप्त किया जा सके.
वे डरी-डरी, सहमी-सहमी-सी है.
विदेहराज जनक के यहाँ रहते हुए उन्होंने कभी नहीं जाना कि दुःख क्या होता है? अभाव क्या होता है? विछोह क्या होता है?
जिन मार्गों में वे कभी नहीं चलीं, उन्हें उन कंटक भरी राहों से चलना पड़ा है. मेरे
कारण ही उन्होंने वनवास को स्वीकारा और चलीं आयीं मेरे पीछे. निश्चित ही यह उनकी
सहृदयता ही है, जो उन्होंने मेरे साथ चलना स्वीकार किया. कितने ही डर और विषमताओं
के बारे मैंने उन्हें बतलाया भी था, लेकिन जानते-बूझते हुए भी उन्होंने मेरा साथ
नहीं छोड़ा. निश्चित ही मुझे अपनी ओर से पहल करते हुए उनका मनोरंजन करना होगा. उनका
ध्यान मोड़ना होगा, ताकि वे प्रसन्न-चित्त हो सकें.
उन्होंने धीरे से सीता की कोमल
हथेली को अपने हाथ में लिया. एक सुखद स्पर्श पाकर सीता जी अपनी चेतना में लौंटीं.
हृदय में कुछ हलचल हुई. नेत्रों की चंचलता, जो दूर कहीं खो-सी गयी थीं, एक अनोखी
चमक के साथ दोनों नेत्र चमक उठे. कोमल-कोमल भावनाएँ. कल्पनाएं ,जो भय के कारण
मूर्छा-सी गयीं थीं, स्नेहिल स्पर्श पाकर मुस्कुराने लगीं. रसहीन हो चुके प्राणों
में मघुर रस की निष्पत्ति होने लगी. अपने स्वामी की हथेलियों से मिलने वाली
गर्माहट पाकर, दुःख पिघल-पिघल कर नेत्रों से झरने लगा. सपने सलोने सजने लगे.जिस
प्रकार मयूर श्याम-घन देखकर नृत्य करने लगता है, ठीक उसी प्रकार अपने स्वामी की
श्यामलता देखकर, उनका मन-मयूर नृत्य करने लगा.
रामजी इस बात से बेखबर नहीं थे कि
राजहंस, कलहंस सहित अनेक पखेरु, पुष्पक विमान से एक निश्चित दूरी बनाकर, साथ-साथ
उड़ान भर रहे हैं, वे सीता जी को बिदाई देने के लिए उमंग और उत्साह के साथ, साथ-साथ
उड़ये हुए चल रहे थे. रामजी ने अपनी तर्जनी उठाकर कहा- " सीते ! तुम इस स्थान
पर बहुत दिनों तक रही हो. इनके साथ तुम्हारी आत्मीयता हो गयी है और वे तुम्हें
बिदाई देने के लिए हमारे विमान के साथ-साथ उड़ान भर रहे हैं. गुमसुम-सी बैठीं सीता
को बाहर का दृश्य दिखाते हुए रामजी ने कहा. यह सब देखते हुए उन्हें महान आश्चर्य
होने लगा.
एक निश्चित ऊँचाई पर उड़ते हुए
पुष्पक विमान से देखते हुए श्रीरामजी ने चंद्रमा के समान मुख वाली सीता जी से
पुनःकहा-" विदेहराजनन्दिनी ! देखो...देखो त्रिकूट पर्वत पर बसी इस सुवर्णमयी लंकापुरी को देखो. इसे स्वयं
विश्वकर्माजी ने अपने हाथों इसका निर्माण किया था, कैसे सुन्दर दिखायी दे रही
है."
"इधर-----इधर इस युद्धभूमि
की ओर देखो..जहाँ वानरों और राक्षसों का महान संहार हुआ था. अहंकारी दुष्ट रावण,
जिसने मेरी अनुपस्थिति में तुम्हारा अपहरण किया था. मैंने उसके उस जघन्य अपराध का
दण्ड दे कर, उसका वध कर दिया है. राख का ये ढेर जो तुम देख रही हो न ! यहाँ राक्षसराज रावण राख का ढेर बनकर सो रहा
है. परमपिता ब्रह्माजी ने उसे अजर-अमर बनाने का वरदान दे रखा था, लेकिन मैंने
तुम्हारे लिए इस दुष्ट का वध कर डाला है."
" यहीं पर मैंने कुम्भकरण को
मारा था.कुम्भकरण छः सौ धनुष जितनी ऊँचाई वाला राक्षस था, जो छः मास में एक दिन के
जागता था और फ़िर अगले छः मास के लिए सो जाता था. इसमें एक हजार हाथियों का बल
था.इसे भी मैंने मार गिराया. एक विचित्र राक्षक धूम्राक्ष का वध हमारे वीर हनुमान
ने किया है. महात्मा विद्युन्माली को सुषेण ने और तुम्हारे देवर लक्ष्मण ने रावण
के पुत्र इन्द्रजित का संहार किया है. यही इन्द्रजित अपने पिता रावण के बाद सबसे
बड़ा योद्धा था. अंगद ने विकट नामक राक्षस का वध किया था.विरुपाक्ष और महापार्श्व
भी यहीं मारे गये हैं. अकंपन, त्रिशिरा, अतिकाय, देवान्तक,नरान्तक,कुम्भ और
निकुम्भ ,बज्रदंत, दंष्ट्र, मकाराक्ष, अकम्पन आदि इसी महासमर में मारे गये
हैं."
सीताजी ध्यानमग्न होकर इन
राक्षसों के नाम पहली बार सुन रही थीं, जो रणभूमि में मारे गये थे. विमान अपनी गति
से निरन्तर आगे बढ़ रहा था. लंकापुरी काफ़ी पीछे छूट चुकी थी. समुद्र को देखते ही
रामजी ने सीता जी को बतलाते हुए कहा-" सीते! तुम्हें नीचे जो समुद्र दिखाई दे
रहा है, वहाँ हम लोगों ने रात बितायी थी. सौ योजन फैले इस समुद्र को पार कर
तुम्हारे पास तक पहुँचने लिए, मैंने पुल बनवाया. इस पुल के निर्माण में मेरी सेना
में नल और नील नामक दो वानर हैं, वे दोनों सेतु निर्माण के कुशल कारीगर
(अभियन्ता.) हैं."
" सीते ! नल एक विशाल शिला
खण्ड पर मेरे नाम का प्रथम अक्षर "रा" लिखता और दूसरे शिलाखण्ड पर नील
"म" लिखकर पानी में उछाल देता. तुम्हें जानकर यह आश्चर्य होगा कि दोनों
शिलाएं न केवल पानी पर तैरने लगती थी
बल्कि आपस में जुड़ जाती थीं."
" क्या कहा आपने..! आश्चर्य
...घोर आश्चर्य...एक भारी-भरकम शिला भला पानी की सतह पर कैसे तैर सकती हैं?. कहीं
आप मुझसे कोई विनोद तो नहीं कर रहे हैं?" सीता जी ने आश्चर्यचकित होकर कहा,
" सीते ! मैं कोई विनोद नहीं
कर रहा हूँ. यह सच है. वे पानी पर तैरने
लगती थीं और आपस में जुड़ भी जाया करती थीं. पहली बार जब मैंने ऐसा होता हुआ देखा,
तो मुझे भी यह देखकर आश्चर्य हो रहा था कि इतनी भारी शिला पानी पर कैसे तैर सकती
हैं?. आश्चर्यचकित होकर मैंने भी एक शिला खण्ड उछालकर फेंक दिया. आश्चर्य ...वह
पानी में डुब गया."
" वही रहस्य तो मै आपसे
जानना चाहती हूँ कि आपकी फेंकी हुई शिला पानी में कैसे डुब गयी, जबकि नल और नील के
द्वारा फेंकी गयीं शिलाएँ, न केवल पानी में तैरती रहीं, बल्कि आपस में जुड़ भी जाती
थी. हे स्वामी ! इस रहस्य पर से पर्दा उठाने की कृपा करें." सीता ने आश्चर्य
में भरते हुए श्रीरामजी से जानना चाहा.
"सीते ! इसमें कोई
आश्चर्यचकित कर देने वाली बात बिलकुल भी
नहीं है. " रा" शब्द में "मैं" छिपा हुआ है और "म"
में तुम. इसका मतलब यही हुआ कि राम शब्द तुम और मैं आपस में समाये हैं. यही वह
कारण है कि एक पाषाण पर लिखा गया शब्द "रा." और दूसरी पर लिखा गया शब्द
"म" आपस में जुड़ जाया करते थे." रामजी ने समझाते हुए जनकनन्दिनी
सीता जी से कहा.
" मैने यह माना कि
"रा" में आप विद्यमान है लेकिन "म" में मैं कैसे विद्यमान हूँ
?." जानना चाहा सीताजी ने.
" सीते ! तुम्हारा एक नाम है
सीता. महाराज जनक की तनया होने के नाते तुम्हारा
दूसरा नाम है जानकी. तीसरा नाम है सिया- मतलब सीता और चौथा नाम है-मृणमयी-
अर्थात तुम्हारा जन्म धरती माता की कोख से हुआ है. अतः "रा" और
"म" का आपस में जुड़ाव होना अवश्यंभावी है. दोनों को मिलाकर ही राम बनता
है. सीते ! राम, बिना तुम्हारे बिना अधूरा
है. जहाँ " राम" नाम होगा, वहाँ हम दोनों होंगे. यही वह आश्चर्यचकित कर
देने वाली बात है. अब समझीं तुम !."
" समझी....बहुत गहराई से इस
बात को मैंने समझा. लेकिन आपके द्वारा फेंकी गयी शिला जल में क्यों डूब
गयी.?..इसका अर्थ आपने समझाया ही नहीं...लेकिन मैंने उस रहस्य को जान लिया
है."
" अच्छा,,,,तो तुमने उस
रहस्य को जान लिया है.? (आश्चर्यचकित होते राम जी ने कहा.) मुझे लगता है, अब तुम
मुझसे विनोद करने लगी हो...अच्छी बात है, लेकिन तुम क्या समझीं यह तो बतलाओ".
" आपके द्वारा जल में फेंकी
गई शिला को डूबना ही डूबना है. जब एक निर्जीव शिला पानी में डूब सकती है तो फिर
आपके नाम का सुमिरन करने वाले को भी डूबना ही डूबना है. अर्थात वह जीव सारे बंधनों
से मुक्त होकर आपमें समा जाता है. फिर उसका पुनर्जन्म नहीं होगा."सीताजी ने
रहस्य पर से पर्दा उठाते हुए कहा.
रामजी को यह बात सुनकर अत्यन्त ही
प्रसन्नता हुई कि सीता ने न केवल उस रहस्य को जान लिया है, बल्कि वह मानसिक तौर पर
स्वस्थ हो चली हैं. जानकी जी के मन में गहराई से समाया हुआ भय, अब लगभग दूर हो गया
था. दिल और दिमाक पर छाया हुआ तनाव, पिघल नेत्रों के माध्यम से बहने लगा.
तभी रामजी ने हिरण्याभ नामक पर्वत
को पास आता देख, अपनी तर्जनी उठाकर संकेत करते हुए बतलाया-" सीते ! यह
सुवर्णमय पर्वत का नाम हिरण्यनाभ है. हमारे वीर हनुमान को विश्राम देने के लिए
समुद्र की जलराशि को चीरकर ऊपर को उठ गया था."
" देवी ! इस समुद्र के उदर
में एक विशाल टापू है, जहाँ मैंने अपनी सेना का पड़ाव डाला था. इसी स्थान पर देवों
के देव महादेव ने मुझ पर कृपा की थी- सेतु बांधने से पहले मेरे द्वारा स्थापित
शिवलिंग के रूप में वे विराजमान हुए थे. यह स्थान "सेतुबंध" के नाम से
विख्यात तथा तीनों लोकों में पूजित होगा. यह तीर्थ परम पवित्र और महान पातकों का
नाश करने वाला होगा. यहीं पर महात्मा विभीषण, लंकेश द्वारा निष्कासित होने के पश्चात
मुझसे मिले थे."
विमान बिना किसी शोर के आगे बढ़
रहा था. पास आती किष्किन्धा नगरी को पास आता देख रामजी ने सीता से कहा- "
सीते ! वनप्रांत से सुशोभित यह किष्किन्धा नगर दिखाई दे रहा है, यह वानरराज
सुग्रीव की सुरम्य नगरी है. यहीं पर मैंने दुष्ट बाली का वध किया था. हम इस स्थान
पर कुछ समय तक विश्राम करना चाहेंगे."
तदनन्तर उन्होने उन्होंने राक्षसराज विभीषण को आज्ञा देते हुए
कहा-"महात्मा विभीषण जी ! हम मित्र सुग्रीव की इस सुरम्य नगरी में कुछ देर
विश्राम करना चाहेंगे."
मन की गति से चलने वाले पुष्पक
विमान को राक्षसराज विभीषण जी ने किष्किन्धा में उतरने की आज्ञा दी. आज्ञा पाते ही
वह दिव्य विमान महात्मा सुग्रीव के राजमहल के समक्ष जाकर ठहर गया.
विमान को उतरता देख नगरवासी
उल्लसित होकर नृत्य करने लगे. वे जान गये थे कि राजा सुग्रीव अपनी राजधानी में
राजाराम और सीताजी के साथ आ रहे हैं. सुग्रीव की भार्या महारानी तारा, अन्य
वानरेश्वरों की स्त्रियों को साथ लेकर, महाराज सुग्रीव तथा राम-सीता की अगवानी के
लिए, पूजा की थाल सजाकर राजमहल से बाहर निकलीं. महारानी ने सभी का अर्ध्य देकर
उनकी अगवानी की. उनका पद-प्रक्षालन करते हुए विधि-विधान से पूजन किया और राजमहल
में चलने का आग्रह किया.
तदनन्तर बालिपालित किष्किन्धापुरी
का दर्शन करने के पश्चात सीताजी ने प्रभु रामजी से निवेदन करते हुए कहा-"
स्वामी ! मैं सुग्रीव की तारा आदि प्रिय भार्याओं तथा वानरेश्वरों की स्त्रियों को
साथ लेकर अपनी राजधानी अयोध्या चलना चाहती हूँ. सीताजी के उद्गार को सुनकर
प्रसन्नचित्त महात्मा सुग्रीव ने तारा से शीघ्र ही तैयार होकर चलने को कहा.
तारा की आज्ञा पाकर सारी
वानर-पत्नियों ने श्रृंगार किया और विमान में आरुढ़ हो गयीं. विभीषण जी ने विमान को
आगे बढ़ने की आज्ञा दी. विमान शीघ्र ही ऊपर उठकर ऋष्यमुक पर्वत के समीप जा पहुँचा.
ऋष्यमुक के निकट आते ही श्रीरामजी ने सीता जी को सम्बोधित करते हुए बतलाया- सीते !
वह जो बिजलीसहित मेघ के समान सुवर्णमय धातुओं से युक्त, श्रेष्ठ और महान पर्वत
दिखायी दे रहा है, उसका नाम "ऋष्यमुक" है. यहीं पर मेरी प्रथम भेंट
महाराज सुग्रीवजी से हुई थी. वानरराज सुग्रीव से मित्रता स्थापित होने के पश्चात
मैंने बालि का वध किया था. यहीं पर वह पम्पा पुष्करिणी है, जो चारों ओर से वनों से
घिरी हुई है, यहाँ पर मैंने तुम्हारे वियोग में अत्यन्त ही दुःखी होकर विलाप किया
था. इसी पम्पा के तट पर धर्मपरायणा शबरी का मुझे दर्शन लाभ मिला. इधर यह वह स्थान
है, जहाँ मैंने एक योजन लम्बी भुजा वाले कबन्ध नामक असुर का वध किया था."
कुछ आगे बढ़ते हुए जनस्थान में वह
विशाल वृक्ष दिखाई दिया, जहाँ महातेजस्वी जटायु का निवास स्थल था. " सीते !
यही वह स्थान है, जहाँ महात्मा जटायु ने तुम्हारी रक्षा करते हुए रावण के हाथ से
मारे गए थे.. यह वह स्थान है जहाँ मेरे द्वारा राक्षस दूषण और त्रिशिरा को धराशाही
किया था."
" जनकनन्दिनी सीते ! यह रही
हमारी पर्णशाला, जिसमें हम निवास करते थे. इसी स्थान से दुष्ट रावण ने बलपूर्वक
तुम्हारा अपहरण किया था."
" देखो...देखो...स्वच्छ
जलराशि से सुशोभित रमणीय गोदावरी कलकल-छलछल के स्वर निनादित करती हुई बह रही है.
इसी के शीतल और स्वच्छ जल में उतरकर हम लोग स्नानादि करते थे. इसके तट पर लगे
वृक्षों से सुगन्धित पुष्पों को तुम चुन-चुन कर मालायें गूंथा करती थीं. यहीं, इसी
के पावन तट पर बैठकर मैंने तुम्हारा फूलों से श्रृंगार किया था. याद हैं न वे
क्षण? " कहकर वे चुप हो गये थे. बीते हुए दिनों को याद करते हुए सीता के शरीर
में रोमांच हो आया.
विमान अपनी मन्थरगति से आगे बढ़
रहा था. विमान में विराजित रामजी मार्ग में पड़ने वाले उन स्थानों के बारे में
जानकारी देते जा रहे थे, जहाँ उन्होंने सीताजी के साथ रहते हुए अविस्मर्णीय पलों
को जिया था.
" सीते ! केले के कुंजों से
घिरा हुआ महर्षि अगस्त्य जी का आश्रम दिखायी दे रहा है....यह महात्मा सुतीक्ष्ण का
दिप्तीमान आश्रम है. वह रहा शरभंग मुनि का आश्रम, जहाँ सहस्त्रनेत्रधारी इन्द्र
पधारे थे. यह वह स्थान है, जहाँ मैंने विशालकाय विराध का अंत किया था....यह
रहा..तेजस्वी कुलपति अत्रि मुनि का आश्रम, जहाँ वे अपनी धर्मपरायणा भार्या
अनसूयादेवी के साथ निवास करते है. साधवी अनसूया जी ने तुम्हें दिव्य आभूषण,
साड़ियाँ और अंगराग आदि देकर तुम्हारा सत्कार किया था......यह राज गिरिराज
चित्रकूट, जो दिव्य प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है. यहीं पर अनुज भरत मुझे प्रसन्न
करके, अयोध्या लौटा लेने के लिए, तीनों माताओं और सेना को लेकर आये थे"
" सीते !
देखो...देखो...विचित्र काननों से घिरी हुईं सुशोभित रमणीय यमुना जी दिखायी दे रही
हैं. इसी के पावन तट पर महात्मा भरद्वाज जी का परम पवित्र आश्रम दिखाई दे रहा है
और ये शोभाशाली भरद्वाज जी का आश्रम दिखाई दे रहा है."
(अपनी तर्जनी उठाकर दिखाते
हुए)-" सीते ! वह देखो...पुण्यसलिला त्रिपथगामी गंगाजी दिख रही हैं.उनके तट
पर नाना प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे हैं. इसके तटवर्ती वन के वृक्षा सुन्दर फूलों
से लदे हुए हैं. उन्हें प्रणाम कीजिये."
" हे जनकदुलारी सीते !
देखो..यह श्रृंगवेरपुर दिखायी दे रहा है, इसमें मेरा मित्र गुह रहता है. सरयू इसी
नगर के तट से लगकर प्रवाहित हो रही है. इसी के तट पर मेरे पिता की वैभवशाली
राजधानी अयोध्या दिखाई दे रही है. चौदह
साल का वनवास काटकर तुम लौटकर अयोध्या आयी हो. इसलिये इस पुरी को प्रणाम कीजिए."
ऐसा कहते हुए स्वयं प्रभु श्रीरामजी ने अयोध्या पुरी को प्रणाम किया. तब विभीषण
सहित सभी उल्लसित होकर वैभवशाली पुरी को निहारकर प्रफ़ुल्लित हो उठे.
०००००
आकाश-पटल पर उड़ान भरते हुए पुष्पक
विमान से भरद्वाज मुनि के आश्रम को पास आता देख उन्होंने राक्षसराज विभीषण को
आज्ञा देते हुए कहा-" महात्मा विभीषण ! हम वनवास के चौदह वर्ष पूर्ण होने पर
महात्मा भरद्वाज के आश्रम तक आ पहुँचे हैं.
चौदह वर्षों के बनवास के बाद आज पंचमी की पुण्य तिथि भी है. हम उनके दिव्य
दर्शनों के अभिलाषी है.
.श्रीरामचन्द्र जी
राक्षसराज विभीषणसे कहा-" हे राजन ! हम महात्मा भरद्वाज मुनि के पवित्र आश्रम
तक आ पहुँचे हैं. हम उनके दर्शाभिलाषी हैं. अतः आप विमान के यहाँ उतरने की आज्ञा
दीजिए. विभीषण ! इन्हें ऋषि ने देवेन्द्र इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान पाया
है.ऋक्तंत्र के अनुसार आप परमपिता ब्रह्माजी, बृहस्पति एवं इन्द्र के बाद वे चौथे
व्याकरण प्रवक्ता हैं. व्याकरण का ज्ञान इन्होंने इन्द्र से प्राप्त किया है.
महर्षि भृगु ने इन्हें धर्मशास्त्र का उपदेश दिया है."
महर्षि भरद्वाज जी व्याकरण,
आयुर्वेद सहित धनुर्वेद, राजनीतिशास्त्र, यंत्रसर्वस्व, अर्थशास्त्र, पुराण,
शिक्षा आदि पर आपने अनेक ग्रंथों को रचना की है. इतना ही नहीं आपने वायुपुराणके
अनुसार एक पुस्तक आयुर्वेद संहिता लिखी है, जिसके आठ भाग करके अपने शिषयों को
सिखाया था. चरक संहिता के अनुसार आपने आत्रेय पुनर्वसु को कायचिकित्सा का ज्ञान
प्रदान किया है.हम ऐसे महात्मा और विद्वान महर्षि के दर्शन करना चाहेगे."
महर्षि भरद्वाज जी का आश्रम में
विभिन्न प्रकार औषधीय पौधों के अलावा कपूर, रुद्राक्ष, कलस, बांस, सिंधुरी, आम,
जामुन आदि विशाल वृक्षो से घिरा हुआ था, जिसमें नाना प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे
थे.सधन वृक्षों से घिरे इस आश्रम में प्रवेश करते हुए प्रभु श्रीराम, अपनी भार्या
सीताजी, अनुज लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान, अंगद तथा अन्य मेहमानों को साथ लिये
अग्रसर हो रहे थे.
आश्रम के प्रवेश द्वार पर उपस्थित
तपस्वी विद्यार्थी से रामजी ने कहा-" हे बालश्रेष्ठ ! मैं राम, अपनी
धर्मपत्नी सीताजी और अनुज लक्ष्मण के सहित महात्मा भरद्वाज जी के दर्शनों का
अभिलाषी होकर आपके आश्रम पर आया हुआ हूँ. कृपया आप जाकर महर्षि जी से मेरा प्रणाम
तथा निवेदन कहियेगा. आप आज्ञा लेकर आयेंगे, तब तक हम सभी इसी प्रवेश-द्वार पर
उपस्थित रहकर प्रतीक्षा करेंगे." ऐसा कहते हुए उन्होंने अपने सभी अस्त्र-शस्त्र
बाहर रख दिये थे.
" जी" ऐसा कहते हुए वह
मुनि-बालक ने आश्रम में प्रवेश किया और शीघ्र ही आज्ञा लेकर लौट आया.
रामजी ने उस पवित्रतम आश्रम में
प्रवेश कर तपस्या के धनी भरद्वाज मुनि को प्रणाम किया. महर्षि भरद्वाज जी ने रामजी
से कहा- " हे राम ! तुम्हारा आत्मीय स्वागत है इस आश्रम में. विराजिए...कहकर
महर्षि ने उन्हें आसन देते हुए विराजित होने को कहा.
आसन पर विराजमान होने के पश्चात
रामजी ने महात्मा भरद्वाज जी से विनम्रतापूर्वक जानना चाहा.
" हे भगवन ! आपने
अयोध्यापुरी के विषय में भी कुछ सुना है?.वहाँ सुकाल और कुशल-मंगल तो है न ?.भरत
प्रजापालन में तत्पर रहते हैं न ? मेरी माताएँ जीवित तो है न ?." रामजी ने
जिज्ञासावश अयोध्या की वर्तमान स्थिति को जानने लिए महर्षि से जानकारी प्राप्त
करना चाहा.
रामजी के इस प्रकार पूछने से
महामुनि ने मुस्स्कुराते हुए कहा-" हे रघुनन्दन ! भरत तो आपकी आज्ञा के अधीन
हैं और वे अपनी जटा बढ़ाये हुए आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं. आपकी चरण-पादुका
को सामने रखकर राज्य का सारा कार्य संपादित करते हैं. आपके घर पर और नगर में भी सब
कुशल हैं."
" हे राम ! आपको सीता और
अनुज लक्ष्मण को वन जाता देख मुझे अत्यधिक करूणा हुई थी.परंतु इस समय तो सारी
स्थिति ही बदल गयी है. आप शत्रु पर विजय पाकर अपने मित्र-बांधवों के साथ लौट रहे
हैं. इस रूप में आपको देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है."\
" हे रघुवीर ! वनवास के उन
चौदह वर्षों में आपने जितने दुःख उठाये और क्या-क्या किया है, वे सब मुझे मालूम
है. हे राघव ! सीता के हरण से लेकर दुष्ट लंकेश के वध तक का सारा वृत्तांत मैंने
अपने तपोबल से जान लिया है."
" हे नरश्रेष्ठ ! मैं
तुम्हें एक वर देना चाहता हूँ. आपकी जो इच्छा हो, उसे मांग लो. आज मेरा अर्ध्य और
आतिथ्य-सत्कार ग्रहण करने के पश्चात कल सबेरे अपनी पुरी अयोध्या को जाइयेगा."
रामजी जानते थे कि मेरे वनवास पर
जाने के पश्चात मार्ग के सारे वृक्ष, लतायें सूख चुके होंगे.उनमें मीठे सुस्वादु
फल लदने बंद हो चुके होंगे. जहाँ तक प्रजाननों की बात है, वे तो मुझे देखने के
पश्चात ही स्वस्थ और प्रसन्न होंगे. उन सबके लिए वर मांगने की अपेक्षा वनदेवी को
प्रफ़ुल्लित होता हुआ देखना, ज्यादा श्रेयसकर होगा. उन्होंने वर मांगते हुए
कहा-" हे भगवन ! आप मुझे वर देना ही चाहते हैं तो मैं अपने वर में आपसे
मांगता हूँ कि अयोध्या के सारे वृक्षादि पुनः हरे-भरे हो जायें. वे सब-की-सब मधु
की धारा टपकाने वाले हो जायें. उनमें नाना प्रकार के बहुत-से आमृतोपम सुगन्धित फल
लग जायें."
" धन्य हो राम. आपने अपने
लिए कुछ न मांगते हुए प्रकृति के हरी-भरी हो जाने की कामना को लेकर मुझसे वर मांगा
है. तुम्हारा सोचना सही है. सच है, प्रकृति के स्वस्थ रहने पर ही मनुष्य स्वतः
स्वस्थ और प्रसन्न रहने लगेंगे. तुम्हारे इस
वर को मांगने से मुझे अत्यन्त ही प्रसन्नता हुई है. मैं समझ सकता हूँ कि तुमने
अपनी प्रजा की कुशल-मंगल की कामना को लेकर वर इसलिए नहीं मांगा क्योंकि वे केवल और
केवल तुम्हारे दर्शनों के उपरान्त ही स्वस्थ और प्रसन्न हो जायेंगे."
" राम ! तुम्हारे बिना
अयोध्या सजीव होकर भी निर्जीव-सी हो गयी है. लोग चित्रलिखे से जान पड़ते है. जीवित
रहते हुए भी मृतक के समान. तुम्हें देखते ही उन्हें संजीवनी मिल जायेगी."
राम ! तुमने जैसा वर मांगा है,
वैसा ही होगा." उनकी इस वाणी के निकलते ही तत्काल वहाँ के सारे वृक्ष
स्वर्गीय वृक्षों के समान हो गये. जिनमें फल नहीं थे, उनमें फल आ गये, जिनमें फूल
नहीं थे, वे फूलों के भार से लद गये और जो पूरी तरह से सूख गये थे, उनके नये हरे
पत्ते निकल आये. आश्रम से आयोध्या जाने का जो मार्ग था, उसके आस-पास के तीन योजन
के वृक्ष ऐसे ही हो गये.
महर्षि भरद्वाज जी के आश्रम में
प्रभु श्रीराम सहित सभी ने रात को विश्राम किया. प्रातःकाल रामजी ने अपने विशेष
दूत श्री हनुमानजी को बुलाकर कहा-" हे कपिश्रेष्ठ ! तुम शीध्रता से अयोध्या
जाकर पता लो कि राजभवन में सब लोग कुशल तो हैं. श्रृंगवेरपुर पहुँचकर वनवासी
निषादराज गुह से मिलना और मेरी ओर से कुशल कहना. मुझे सकुशल, नीरोग और चिन्तारहित
जानकर उसे बड़ी प्रसन्नता होगी. मित्र गुह मेरी आत्मा के ही समान है. वे तुम्हें
प्रसन्न होकर अयोध्या मार्ग और भरत का
समाचार बतायेगा. भरत से मिलकर तुम मेरी ओर से उसकी कुशलता पूछना और उन्हें सीता
एवं लक्ष्मण सहित मेरे लौटने का समाचार बताना. बलवान रावण के द्वारा सीता के अपहरण
से लेकर अब तक की सारी घटनाओं को कह सुनाना."
"इतना करने के पश्चात तुम
मेरी ओर से भरत से निवेदन करना कि श्रीराम अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर
राक्षसराज विभीषण, वानरराज सुग्रीव तथा अन्य महाबलियों के सहित प्रयागराज तीर्थ तक
आ पहुँचे हैं."
" हे हनुमान ! वहाँ के सारे
वृत्तांत तथा भरत की चेष्टाएँ देखकर तुम्हें यथार्थ की जानकारी प्राप्त हो जायेगी.
तुम उसके मुख की कान्ति, दृष्टि और बातचीत
से उसके मनोभावों को समझने की चेष्टा करें. यादि चिरकाल तक शासन करने और राज्य के
वैभव का संसर्ग होने से भरत स्वयं ही राज्य पाने की इच्छा रखते हों, तो वे निर्भीक
होकर राज्य का संचालन करें. उस दशा में हम कहीं अन्यत्र रहकर तपस्वी जीवन व्यतीत
कर लेंगे."
मनोभावों को समझने में कुशल वीर
हनुमानजी ने अपने स्वामी की आज्ञा को शोरोधार्य करते हुए तीव्र वेग से उड़ान भरते
हुए गंगाजी तथा यमुनाजी को पारकर शृंगवेरपुर पहुँचकर निषादराज गुह से मिले और अपने
स्वामी का संदेश सुनाते हुए बतलाया कि श्रीराम, सीताजी तथा अनुज लक्ष्मण के सहित
अनेक मित्रों को साथ लेकर प्रयाग में भारद्वाज मुनि के आश्रम में रात बीताकर कल
उनकी आज्ञा लेकर वहाँ से चलेंगे. तुम्हें यहीं श्रीरघुनाथजी के दर्शन होंगे."
गुह से यूं कहकर महातेजस्वी और
वेगशाली हनुमानजी बड़े गेग से आगे उड़ चले. मार्ग में उन्होंने परशुराम-तीर्थ,
बालुकिनी नदी, वरुथी, गोमती और सालवनों और अनेकानेक जनपदों को देखते हुए नंदीग्राम
के समीप जा पहुँचे. अयोध्या से एक कोस की दूरी पर आश्रमवासी भरत को देखा,
जिन्होंने चीर वस्त्र और काला चर्म पहने हुए, सिर पर जटा बढ़ी हुई थी. वे दुःखी और
दुर्बल दिखायी देते थे. भाई के वनवास के दुःख ने उन्हें बहुत ही कृश कर दिया था.
फल-मूल ही उनका भोजन था. वे अपनी इन्द्रियों का दमन करके तपस्वियों-सा जीवन व्यतीत
करते हुए धर्मानुकूल आचरण करते थे. रघुनाथ
जी की अनुपस्थिति में वे अयोध्या से दूर बैठकर शासन कर रहे थे.
बुद्धिमान हनुमान जी ने मन-ही-मन
विचार किया कि मुझे अपना मूल स्वरूप त्याग
कर सामान्य मनुष्य की-सी देह बनाकर भरत से मिलकर जानना होगा कि वे श्रीराम जी को
लेकर क्या सोचते हैं?.उनके अयोध्या आगमन को लेकर उनके मन में कितनी लालसा है?
उन्होंने इस बारे में क्या सोच रखा है?.इस बात का पता लगाना बहुत जरुरी है."
भरतस्तु तव्या वाच्यं कुशलं
वचनान्मम* सिद्धार्थ शंस मां सभार्य सहलक्ष्मणम्
भरद्वाज मुनि के दर्शन करने के उपरांत श्री
रामजी ने वानरवीर श्री हनुमानजी को आज्ञा देते हुए कहा-" हे वीर हनुमान ! तुम
शीघ्र ही अयोध्या जाकर पता करो कि राजभवन में सब लोग कुशल तो हैं न?."
" हे हनुमान ! श्रृंगवेरपुर में पहुँचकर
तुम मेरे मित्र निषादराज गुह से मिलना और मेरी ओर से कुशल कहना. मुझे सकुशल,
नीरोग, और चिन्तारहित जानकर उसे अत्यन्त ही प्रसन्नता होगी. हनुमंत ! निषादराज गुह
मेरी आत्मा के समान है. वह तुम्हें अयोध्या का मार्ग और भरत का समाचार
बतायेगा."
फिर
तुम नंदीग्राम जाना. वहाँ साधुवृत्ति का जीवन निर्वहन करते हुए मेरे अनुज भरत से
मिलना. उसका कुशल-क्षेम पूछना और बतलाना कि मैं सीता और लक्ष्मण को साथ लेकर, अपने सारे मनोरथों को सफल करते हुए अयोध्या लौट रहा हूँ."
" हे वानर श्रेष्ठ ! अयौध्या लौटने में
मात्र एक दिवस बचा है. कहीं ऐसा न हो कि किन्हीं कारणों से मैं समय पर नहीं पहुँच
पाया, तो वह पगला आत्मदाह न कर बैठे?. अतः उसे मेरे आगमन की सूचना देते हुए अवश्य
बतलाना कि बलवान रावण के द्वारा सीता के हरे जाने का, सुग्रीव से मैत्री होने का,
रणभूमि में बालि का वध, सीता की खोज का, तुमने जो अगाध जलराशि से भरे हुए अपार
महासागर को लांघकर, जिस तरह सीता का पता लगाया था उसका, फिर समुद्र-तट पर मेरे
जाने का, सागर के दर्शन करने का, उस पर पुल बनाने का, रावण के वध का, दिवंगत पिता
दशरथ जी के दर्शन आदि होने का समाचार उसे कह सुनाना."
" हे वीर ! उसे बतलाना कि मैंने शत्रुओं
को जीतकर, राक्षसराज विभीषण, वानरराज सुग्रीव तथा अन्य मित्रों के साथ प्रयागराज
तक आ पहुँचा हूँ. उससे यह भी बतलाना कि राम तुमसे मिलने के अधीर हो रहा है.
निश्चित ही वह शुभ घड़ी आन पहुँची है, जब तुमसे मेरी भेंट होगी."
" हनुमंत ! सारे वृत्तांत सुनने के
पश्चात, भरत पर कैसी-क्या प्रतिकिया होती है, यह तुम्हें उसकी चेष्टाओं, मुख की
कान्ति, दृष्टि और बातचीत करने का ढंग आदि
को परखने के बाद वास्तविकता के दर्शन होंगे. यदि वह अयोध्या के राज्य को पाने की
इच्छा रखता हो, तो मैं तपस्वी की भाँति वन में रहकर जीवन यापन कर लूँगा. तुम जानते
ही हो कि मुझे वन में रहना कितना प्रिय है?."
" जी प्रभु ! जैसी आपकी आज्ञा. मैं
शीघ्रताशीघ्र जाकर निषादराज गुह, भरत तथा राजमहल जाकर आपका शुभ समाचार उन सभी तक
पहुँचा दूँगा." यह कहते हुए पवनपुत्र हनुमान जी, वायु के झोंको पर सवार होकर अयोध्या के लिए प्रस्थित हुए.
वायुमार्ग से उड़ान भरते हुए हनुमानजी ने पुण्य
सलीला गंगाजी और वेगशाली यमुना के संगम को लांघकर श्रृंगवेरपुर पहुँचकर निषादराज
गुह से मिले और हर्ष के साथ कहा-" निषादराज जी ! तुम्हारे परम मित्र श्रीराम,
सीता और लक्ष्मण के साथ आ रहे हैं और उन्होंने तुम्हें अपना कुशल-समाचार कहलाया
है. वे इस समय प्रयागराज में महात्मा भरद्वाजजी के आश्रम में हैं और आज पंचमी की
रात बिताकर, कल मुनिश्री की आज्ञा लेकर वहाँ से प्रस्थान करेंगे. तुम्हें यहीं
श्रीरघुनाथजी के दर्शन होंगे."
समाचार सुनाने के पश्चात उन्होंने निषादराज
गुह से कहा-" क्षमा करे निषादराज जी, मैं अब यहाँ एक पल को भी नहीं रुक सकता.
मुझे शीघ्रताशीघ्र राजमहल पहुँचकर सभी माताओं और भैया भरत को रामजी के शुभागमन का
समाचार कह सुनाना है."
समाचार सुनकर निषादराज गुह को अत्यधिक प्रसन्नता
हुई.
उनके शरीर में रोमांच हो आया. नेत्रों में जल भर आया और मुर्छाई हुई
आशाएँ बलवती होने लगी. समय की बुनावट ही
कुछ इस तरह हुई थी कि वे हनुमानजी को और कुछ समय के लिए शृंगवेरपुर में रोकना
चाहते थे, लेकिन नहीं रोकते हुए उन्होंने स्वयं होकर कहा-" हे पवनपुत्र ! आप
शीघ्रता से नंदीग्राम पहुँचे और भरत भैया को रघुनाथजी का समाचार सुनाकर, अयोध्या
जायें और सभी माताओं को यह शुभ समाचार सुनाकर उनकी मानसिक पीड़ा को दूर करें."
यह कहते हुए उन्होंने हनुमानजी का आलिंगन लिया और बिदाई दी.
हनुमानजी को बिदाई देने के पश्चात उन्होंने
मुनादी करने वालों को बुला भेजा और श्रृंगवेरपुर के सहित अन्य जनपदों में प्रभु
श्रीरामजी के शुभागमन और स्वागत की तैयारी में जुट जाने की आज्ञा प्रसारित करवाई.
००००००
परशुराम तीर्थ, बालुकिनी नदी, वरुथी, गोमती और
भयानक साल वनों के दर्शन करते हुए वे अयोध्या से एक कोस दूर नन्दीग्राम जा पहुँचे.
आकाश-पटल में स्थिर रहते हुए उन्होंने एक मनोरम पर्णकुटि को तथा बहुत-सी स्त्रियों
को, जो अपने पुत्र-पौत्रों के साथ वस्त्राभूषणों से अलंकृत थीं, वाटिका में खिले
सुगन्धित पुष्पों का चयन कर रही थीं. पर्णकुटि के चारों ओर राम नाम की भगवा रंग की
पताकायें फहरा रही थीं. कुटिया के प्रवेश द्वार से लेकर सारी कुटिया को चारों ओर
से, फूल मालाओं से सजाया गया था. कुटिया के भीतर से मद्दम, लेकिन कर्णप्रिय राम-भजन
की धुन सुनाई दे रही थी. जिसे देखकर मन्दिर होने का भ्रम उपस्थित हो रहा था. वहाँ
के मनोरम वातावरण को देखकर उन्हें प्रसन्नता का अनुभव होने लगा.
बुद्धिमान हनुमानजी ने मन ही मन विचार किया कि
संजीवनी लाते समय भरतजी से मेरी पहली मुलाकात हो चुकी है और अब यह मेरी दूसरी
मुलाकात होगी. मुझे अपने प्रभु श्रीरामजी ने, न केवल भरत से मिलने को कहा था,
बल्कि उन्होंने मुझे भरत के मन में क्या कुछ चला रहा है, इसे भी जानने को कहा था.
यदि मैं अपने मूल स्वरूप में रहकर भरत से भेंट करता हूँ, तो वे तत्क्षण मुझे पहचान
लेंगे और अपने मन की अनेक बातों को छिपा
जायेंगे. गम्भीरता से विचार करने के पश्चात उन्होंने एक ब्राह्मण का रूप धारण किया
और नीचे उतर आये.
पर्णकुटि में प्रवेश करते हुए उन्होंने देखा
कि सभी मंत्री, पुरोहित, सेनापति, यहाँ तक की भरत के सेवक-सेविकाओं ने भगवा वस्त्र
धारण किया हुआ है. कुछ दूर आगे बढ़कर उन्होंने देखा. एक ऊँचे सिंहासन पर फूलों से
सुसज्जित पादुकायें रखी हुई हैं और पास ही एक दीप प्रज्जवलित हो रहा है.सिंहासन के
ठीक सामने एक युवक बैठा हुआ है. जिसने काले मृग का चर्म धारण किया हुआ है, जिसके
सिर पर जटा बढ़ी हुई है, गले में रुद्राक्ष की मालाएँ पड़ी हुई है और सारा शरीर
वल्कल और मृगचर्म से ढंका हुआ है, जो देखने में किसी सन्यासी के समान तेजस्वी
दिखाई दे रहा है, जिसके अपने दोनों नयन मूंद लिये हैं और वह ध्यानस्थ होकर जाप कर
रहा है. उसे देखते ही हनुमानजी ने तत्काल पहचान लिया कि यही भरत हैं. सिंहासन पर
रखी हुईं पादुकाये मेरे प्रभु श्रीरामजी की ही हैं.यह जानकर उन्होंने शीश नवाकर
प्रणाम किया.
ब्राह्मण वेश धारी हनुमान जी उनके निकट बैठ
गये और-" जय जय राम, जय सियाराम" "राम सिया राम, जय जय राम"
का जोर-जोर से उच्चारण करते हुए भजन गाने लगे. अपने प्रभु के नाम को मधुर स्वर में
उच्चारित होता हुआ सुनकर भरत जी का ध्यान भंग हुआ और उन्होंने अपने दोनों नेत्रों
को खोलकर देखा. एक अपरिचित ब्राह्मण उनके निकट बैठे हुए श्रीरामजी का भजन गा रहे
हैं. रामजी का भजन सुनते ही उन्हें अपार प्रसन्नता और भजन गायक पर घनेरी प्रीति
होने लगी.
उन्होंने बड़े ही विनीत भाव से ब्राह्मण से
जानना चाहा-" हे भैया ! तुम कोई देवता हो या मनुष्य, जो मुझ पर कृपा करके
यहाँ पधारे हो? हे सौम्य ! कृपा कर मुझे अपना परिचय दीजिए."
प्रश्न भरत ने पूछा था और उत्तर हनुमानजी को
देना था. लक्ष्मण की सहजता, सरलता, विनम्रता और उत्कंठा को देखकर हनुमानजी बिना
प्रसन्न हुए नहीं रह सके थे. उन्होंने अत्यन्त ही पुलकित होते हुए कहा- " हे
भाई ! मैं तुम्हें एक अति प्रसन्न्तादायक शुभ समाचार सुना रहा हूँ. तुम्हें शीघ्र
ही आनन्दकंद, दशरथनंदन प्रभु श्रीरामजी के दिव्य दर्शन होंगे." यह सुनते ही
भरत का मुर्झाया चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा. सूने मन के आँगन में खुशियों की एक
नदी भरभराकर बह निकली. शरीर में रोमांच हो आया. वर्षा के बाद जैसे सूखी हुई दुर्वा
हरियल हो उठती हैं, ठीक उसी प्रकार भरत की मुर्झायी हुई आशाएँ पल्लवित होने लगी.
नेत्रों से आँसू झर-झरकर बहने लगे. वे अपने भ्राता से मिलने के लिए अत्यधिक अधीर
हो उठे.
अत्यन्त ही भाव-विभोर होते हुए उन्होंने
हनुमानजी से कहा -" क्या कहा आपने..? फ़िर से एक बार कहिये. इस शुभ समाचार को
बार-बार सुनने का मेरा मन हो रहा है. श्रीराम आने वाले हैं? कहाँ हैं वे? उन्हें
आता हुआ तुमने कहाँ देखा?. तुम उनसे किस प्रकार मिले?.मुझ तक समाचार भिजवाने को
किसने तुमसे कहा?. हे प्रियवर! मुझे सब
विस्तार से कह सुनाइये." भरत ने दीनतापूर्वक जानना चाहा.
" हे देव ! आप दण्डकवन में चीर-वस्त्र और
जटा धारण करके रहने वाले जिस श्री रघुनाथ जी
के लिए निरन्तर चिंतित रहते हैं, उन्होंने आपको कुशल-समाचार कहलाया है और
आपका भी पूछा है. अब आप इस अत्यन्त दारूण शोक को त्याग दीजिए. भगवान श्रीराम रावण
को मारकर मिथिलेशकुमारी को वापिस ले सफल मनोरथ हो अपने मित्रो के साथ आ रहे हैं. उनके साथ महातेजस्वी लक्ष्मण
और यशस्विनी विदेहकुमारी सीता जी भी हैं." बस इतना सुनते ही भरत आनन्दविभोर
होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और हर्ष से मुर्च्छित हो गये.
दो घड़ी मुर्च्छित रहने के बाद जब उन्हें होश
हुआ. वे उठकर खड़े हुए और इस आशा को संजोय हुए पर्णकुटि से बाहर निकलकर देखने लगे
कि प्रभु श्रीराम कहाँ हैं? वे अब तक मेरी पर्णकुटि में क्यों नहीं
पहुँचे?.पर्णकुटि के बाहर कोई भी नहीं था. यह देखकर उन्हें निराशा ही हाथ लगी थी.
वे उलटे पैर वापिस होकर पुनः उस ब्राह्मण से पूछने लगे-" हे तात ! आपने तो
मुझसे कहा था कि श्रीराम शीघ्र ही मुझसे मिलने आ रहे हैं?, बाहर तो कोई नहीं है.
कहीं आप मुझसे कोई छल तो नहीं कर रहे हैं?. भरत ने जानना चाहा.
" हाँ लक्ष्मण भैया ! यह सच है कि आपके
भ्राता आ रहे हैं. अभी वे भरद्वाज मुनि के आश्रम में है. आज पंचमी की रात बिताकर, वे कल प्रातः उनकी आज्ञा लेकर, पुष्पक विमान से
अयोध्या पहुँच जायेंगे. आप उनके स्वागत की भव्य तैयारी कीजिए"
’" हे सौम्य ! तुमने जो यह प्रिय संवाद
मुझे कह सुनाया है, इसके बदले मैं तुम्हें कौन-सी प्रिय वस्तु प्रदान करूँ?. मैं
तुम्हें इसके लिए एक लाख गौवें, सौ उत्तम गाँव तथा उत्तम आचार-विचार वाली सोलह
कुमारी कन्याएँ पत्नी के रूप में समर्पित करता हूँ. मेरे स्वामी प्रभु श्रीरामजी
को वन में गये बहुत वर्ष बीत गये. इतने वर्षों बाद मुझे यह आनन्ददायी समाचार सुनने
को मिली है." लक्षमण जी ने कहा.
" हे भरत श्रेष्ठ ! न तो मेरा कोई घर-बार
है और न ही मैं गृहस्थ हूँ. मैं इन सब वस्तुओं को लेकर क्या करूँगा?. मैं ठहरा
बाल-ब्रह्मचारी. कन्याओं को ग्रहण कर, न तो मुझे घर बसाना है और न ही कोई
खेती-बाड़ी करनी हैं. अतः क्षमा करें..मुझे आपसे कुछ भी नहीं चाहिए. मेरे अपने जीवन
का आधार, मेरे स्वामी श्रीरामचन्द्रजी ही हैं, बस उन्हीं के श्रीचरणों की सेवा
करते रहना मेरा परम लक्ष्य है, इसके सिवाय मुझे कुछ भी नहीं चाहिए." इतना
कहकर हनुमान जी चुप हो गये.
" हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! निश्चित ही तुम कोई देवता अथवा मनुष्य हो, जो
मुझ पर कृपा कर यहाँ पधारे हो. हे सौम्य ! पहेलियाँ न बुझाते हुए मुझे बताओ कि
आखिर तुम कौन हो?" लक्ष्मण ने जानना चाहा.
इतना सुनते ही हनुमानजी अपने मूल स्वरूप में
भरत के सामने प्रकट हुये. भरत ने उन्हें देखा. देखते ही उन्हें आलिंगबबद्ध कर
लिया. ऐसा करते हुए उन्हें परमानन्द की प्राप्ति हो रही थी.
भरत ने उन्हें कुशासन देते हुए आसन ग्रहण करने
को कहा और श्रीरामजी के वनवास विषयक सारा चरित्र सुनाने को कहा. रामजी के
गुणग्राहक हनुमानजी ने रामजी को वनवास देने से लेकर, रावण वध तक का समाचार विस्तार
से कह सुनाया. तत्पश्चात पवनपुत्र
हनुमानजी ने भरत से यह कहते हुए बिदा मांगी कि उन्हें राजमहल में पहुँचकर इस शुभ
समाचार को सभी माताओं और परिजनों को भी कह सुनाना है. भरत जी से बिदा लेकर
पवनपुत्र,पलक झपकते ही अयोध्या के राजमहल की ओर प्रस्थित हुये.
००००००
प्रसन्नवदन भरतजी ने तत्काल मुनादी करने वाले
लोगों को बुला भेजा. आदेश पाते ही अनेक मुनादी करने वाले लोग पर्णकुटि में पहुँच
गये.भरत ने सभी को सम्बोधित करते हुए सारा समाचार कह सुनाया, जो उन्होंने रामजी के
अनन्य भक्त श्री हनुमान जी से सुना था.और आदेश दिया कि तुम सब लोग अयोध्या के
कोने-अतरे में जाकर यह शुभ समाचार सुनाऒ कि कल रघुनन्दन श्रीराम, अनुज लक्ष्मण और
सीताजी का नगरागमन होगा.
फिर उन्होंने सभी मंत्रियों,
सभासदों और नगर के सभी गणमान्य नागरिकों को बुला भेजा. सभी लोगों की गरिमामय
उपथिति में उन्होंने, श्री
रामचन्द्रजी, सीताजी, लक्ष्मण जी तथा रामजी के अन्य मित्रों के अयोध्या आगमन का
शुभ समाचार कह सुनाया और आज्ञा की कि आप सभी अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर रामजी
के अगवानी के लिये तैयारी करने के लिए कहें. राजमार्गों पर शुद्ध-शीतल और सुगन्धित
जल का छिड़काव करने, रंग-बिरंगी अल्पनाएँ बनाने, अनेकों तोरण-द्वार बनाये जाने.
राजमार्ग के दोनों ओर सुसज्जित हाथियों, रथों, घुड़सवारॊं और सैनिकों को उपस्थित रहने को कहें.
गृह मंत्री को आदेशित करते
उन्होंने आज्ञा दी कि वे लाखों की संख्या में नगर के गली-चौराहों, मुख्य -मुख्य
राजमार्गों पर और राजमहल के कोने-कोने में दीप प्रज्जवलित करें. विशेषकर महिलाओं
और बेटियों से कहें कि वे रंग-बिरंगे सुन्दर वस्त्राभूषण से अलंकृत होकर, सिर पर
कलश और प्रज्जवलित दीप सजाकर प्रभु श्रीरामजी की अगवानी के लिये तैयार होकर आयें.
इसके अलावा और भी बहुत -कुछ जो आपको उचित और रुचिकर लगे, इसकी युद्ध-स्तर पर
तैयारी करें.
००००००
" ढम-ढमाढक
ढमढम......सुनो..सुनो...सुनों.. नगरवासियों सुनो.. हम तुम्हारे लिए शुभ समाचार
लेकर आये हैं....सुनो...सुनो..कल हमारे प्रभु श्रीराम, माता सीता, भैया लक्ष्मण
अपने मित्रों के साथ, पुष्पक विमान पर सवार होकर अयोध्या पहुँच रहे हैं.
ढमढम...ढमाढम ढमढम." मुनादी करने वाले लोग अत्यन्त ही प्रफ़ुल्लित होकर
नाच-गाकर इस शुभ समाचार को प्रसारित कर रहे थे.
इस प्रसन्नतादायक समाचार को सुनते ही
नगरवासियों को अत्यन्त ही प्रसन्नता का अनुभव होने लगा. समाचार सुनते ही वे
थिरक-थिरक कर नृत्य करने लगे.
रामजी के वनवास जाने के ठीक बाद से, नर हो या
नारी, बालक हों या वृद्ध, सभी के मन में एक गहरा अवसाद, किसी जहरीले सर्प की
भांति, कुण्डली मारके बैठ गया था. वे हंसना, मुस्कुराना, खिलखिलाना यहाँ तक की
अपनी घर-गिरस्थी को छोड़कर, सन्यासी-जीवन यापन कर
रहे थे. इतना ही नहीं, जबसे श्रीराम वनवास के लिए निकले हैं, उस दिन के बाद से
किसी भी घर में दीपक तक नहीं जला. चुंकि जीवन तो हर जीव को जीना होता है, लेकिन
लोग मर-मर के जी रहे थे. हर किसी के चेहरे निस्तेज हो गये थे. भूख-प्यास आदि
उन्हें नहीं सताती थी और न ही वे चैन की नींद ही सो पाते थे, सब जागते-सोते, उन
सूनी गलियों और राजपथ को निहारा करते थे, जिस पथ पर से होकर श्रीराम चौदह वर्षों
के लिए, बिना किसी शिकायत-शिकवे के अयोध्या छोड़कर चले गये थे. अब जब श्रीराम वनवास
काट कर लौट रहे हैं, का समाचार सुनते ही निराशा की चादर ओढ़कर सोयी हुई समूची
अयोध्या पुरी, अपने पूरे वैभव के साथ खिलखिखाने लगी थी.
इतना ही नहीं, सरयु में जल-स्तर बढ़ गया था.
पेड़-पौधे हरियल होने लगे, जिनकी शाखाओं में उस दिन के बाद से, न तो फल लदे थे और न
ही कोई पुष्प खिल पाया था, अब उन पर हरितिमा छाने लगी. डालियाँ फलों के भार से
नीचे-नीचे तक झुक आयी. कई पेड़ों की शाखाओं पर सुगधित पुष्प खिलने लगे. निर्जीव बेलाओं में रंग-बिरंगे पुष्प खिलने लगे
और उनकी लचकदार डालियां नीचे तक झूल आयी थीं.
इस पावन समाचार को सुनकर केवल सरयु ही प्रसन्न
नहीं हुई थी, बल्कि उसके अंदर रहने वाले जीव-जंतु, मछलियाँ आदि प्रसन्नता के साथ
जल-क्रीड़ा करने लगे थे. हिरणों के झुंड धमाचौकड़ी करते हुए लंबी-लंबी छलांग लगाने लगे. शाखा-मृग भी कहाँ
पीछे रहने वाले थे?. वे भी प्रसन्न होकर अपनी बोलियों में बोलते हुए हुए धमा-चौकड़ी
करने लगे. अटारी पर और वृक्षों की शाखाओं में उदास बैठे पखेरु, चहचहाते हुए अपनी
बोलियों से, पुरी को गुंजारित करने लगे. समूचा आकाश रंग-बिरंगे रंगो में नहा उठा.
नगरवासी प्रसन्नता से लकदक होकर नृत्य करने
लगे. किसी ने तुरही उठा लाया, किसी ने परात, किसी ने झांझर तो किसी ने मंजीरे उठा
लाया, किसी ने बड़ी-ढोलक उठा लाया और उन्हें बजा-बजा कर नृत्य करने लगे. महिलाएं भी
भला पीछे रहने वाली कहाँ थीं. वे भी भाव-विभोर होकर नृत्य करने लगी और मधुर गीत
गाने लगी...".घर आ रहे लक्ष्मण राम..पुरी में आनन्द भयो....परमानन्द
भयो....आनन्द भयो...घर आ रहे लक्ष्मण राम, पुरी में आनन्द भयो."
कुछ मित्र मिलजुल कर गाने लगे-
" तू मिट जायेगा, तेरा हर
निशा मिट जायेगा...
तू जो कमाया बस यहीं पे रह
जाएगा
अरे जिसने भी कमाया श्री राम का
नाम...\
वही भवसागर में तर जायेगा.
(२) अनादि अनंतम करूनामय
अनुपम..
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री
राम....
चरित्र सर्वोत्तम श्री राम.
कण-कण व्यापम..
.धर्म नायकम श्री राम.
(३) जय सियाराम, जय जय
सियाराम..
जय सियाराम...जय जय सियाराम....
(हो.). मेरे मन में हैं
राम...मेरे तन में हैं राम...(२)
कण कण में हैं राम
जिनका नाम ले ले के बन जाते हैं
मेरे बिगड़े काम
जय सियाराम, जय सियाराम
जय जय सिया राम (२)
(हो) मेरे मन में हैं राम, मेरे
तन में हैं राम
राम राम राम राम.कय सिया राम
किसी ने राग उठाते हुए गीत गाया-
हंस के हर दुःख को सहा पिता
के वचन का पालन किया बनवासी
बन के रहा जिन्होंने
सुखों को त्याग दिया हंस
के हर दुःख को सहा
पिता क वचन का पालन किया बनवासी
बन के रहा. केवट
की नाव चढ़े और अहिल्या को तार दिया सबरी
के जूठे बेर चखे उद्धार किया हो सांचा जिसका
नाम सर्वव्यापी निष्काम मुक्तिदाता
हैं श्रीराम जिनका
नाम ले ले के पापी को भी मिलता है आराम जय
सियाराम, जय सियाराम (२)
अंतरा
मित्र भाई हो या राजा का धर्म दुनिया
को सिखलाए राम जहां
पे था कोई ना छोटा बड़ा राम
युग है ऐसा महान (२) युगों
से युगों तक सत्य सनातन श्रीराम का नाम ना
कोई था ना कोई है, न कोई होगा उनके समान वो हनुमत के हैं राम, वो करूणा निधान (२) धर्म रक्षक हैं राम जब भी रावण जन्म लेता है, चले आते है राम जय सिया राम जय
सियाराम (४)
गायकों की एक मंडली ने बड़ा ही सुन्दर गीत
गाया-
मेरे मन में
हैं राम मेरे तन में है राम मेरे मन में हैं राम मेरे तन में है राम । मेरे
नैनों की नगरिया में राम ही राम ॥
मेरे रोम रोम के हैं राम ही रमैया । सांसो
के स्वामी मेरी नैया के खिवैया । गुन
गुन में है राम झुन झुन में है राम । मेरे
मन की अटरिया में राम ही राम ॥
जनम जनम का जिनसे है नाता मन
जिनके पल छिन गुण गाता । सुमिरन
में है राम दर्शन में है राम मेरे
मन की मुरलिया में राम ही राम ॥
जहाँ भी देखूँ तहाँ राम जी की माया
सबही के साथ श्री राम जी की छाया ।
त्रिभुवन में हैं राम हर कण में है
राम सारे जग की डगरिया में राम ही राम ॥
०००००
श्रीरामजी के आगमन में समय कम बचा था. हर
व्यक्ति कोई-कोई न कोई काम हाथ में लेता और पूरी तन्मयता के साथ उसे पूरा कर रहा
था. कई लोग गीत गाकर मगन हो रहे थे तो कोई भजन गाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रहा
था.
००००००
अयोध्यापुरी के राजमहल में पहुँचकर हनुमानजी
ने पुनःअपना ब्राह्मण का रूप धारण किया और राजमहल में प्रवेश किया. सबसे पहले
उन्होंने माता कैकेई जी से मिलने का मानस बनाया. प्रवेश-द्वार
पर उपस्थित द्वारपाल से उन्होंने सविनय कहा- " मैं माता कैकेई जी से मिलने का
अभिलाषी हूँ. कृपया आप जाकर उन्हें मेरी ओर से प्रणाम निवेदित करते हुए सूचित करें कि प्रभु श्रीरामजी का एक दूत आया
है और वह आपको प्रभु श्रीरामजी का एक बहुत ही शुभ समाचार सुनाना चाहता है. अतःआप
उनकी आज्ञा प्राप्त कर मुझे तदानुसार सूचित करें, तब तक मैं द्वार पर ही उपस्थित
रहकर, आपके लौट आने की प्रतीक्षा करूँगा."
" अहो ! मेरे भाग्य कि मैं प्रभु
श्रीरामचन्द्रजी के विशेष दूत के दर्शन का पुण्य-लाभ ले रहा हूँ. हे ब्राह्मण देव
! मैं आपको पहचानता नहीं हूँ और न ही इससे पूर्व कभी मेरी आपसे भेंट हुई है.
बावजूद इसके कि आप हमारे स्वामी के विशेष दूत होकर शुभ समाचार सुनाने, बड़ी दूर से
चलकर अयोध्या पधारे हैं, तो मुझमें इतना साहस नहीं कि मैं आपको प्रवेश-द्वार पर ही
रुकने को कहूँ. आपको द्वार पर तनिक भी रुकने
की आवश्यकता नहीं है. मेरे प्रभु श्रीरामजी के दूत को भला महारानी कैकेई जी की
आज्ञा की क्या आवश्यकता है?. चलिए, आप मेरे साथ चलिए, मैं स्वयं होकर आपको महारानी
के कक्ष तक ले चलूँगा."
द्वारपाल आगे-आगे और ब्राह्मण के वेषधारी पवनपुत्र श्री हनुमानजी
उसके पीछे-पीछे चलते हुए उस कक्ष के समीप पहुँचे, जहाँ वे निर्वासितों-सा जीवन जी
रहीं थीं. द्वारपाल ने संकेत से उन्हें रुकने को कहा और भीतर जाकर कहा-"
क्षमा करें माता ! हमारे स्वामी प्रभु श्रीरामजी का संदेशा लेकर कोई ब्राह्मण देव
पधारे हैं. वे आपके दर्शनों के अभिलाषी हैं."
द्वारपाल से समाचार सुनकर प्रस्तर की सी
प्रतिमूर्ति बनी बैठी माता कैकेई जी के शरीर में कुछ हलचल-सी हुई. धीरे-धीरे वे अवचेतन अवस्था से बाहर निकलने का प्रयास करने लगीं.
चेतना में लौटते ही उन्होंने द्वारपाल से पुनःजानना चाहा कि वह क्या बताना चाहता
है?.
" माते ! कोई ब्राह्मण देव, हमारे स्वामी
प्रभु श्रीरामचन्द्रजी का शुभ समाचार लेकर आये हैं और आपसे भेंट करना चाहते
हैं."
" क्या कहा तुमने.....? एक बार फ़िर से
बोलो..." माता कैकेई जी ने कहा.
" माते ! कोई ब्राह्मण, हमारे स्वामी
प्रभु श्रीरामचन्द्रजी का शुभ समाचार लेकर आये हैं और आपसे भेंट करना चाहते
है."
" जाओ...जाओ....शीघ्रता से जाओ और उन्हें
सादर भीतर लेकर आओ."
" जी." कहता हुआ द्वारपाल उन
ब्राह्मण को लिवा लाने के लिए द्रुतगति से
चलता हुआ आया और कहा- " हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! माता कैकेई जी ने आपको सादर लिवा लाने को कहा
है. अब आप मेरे साथ चलकर उनसे भेंट कर सकते हैं."
माता कैकेई के कक्ष में नीम अंधकार फैला हुआ
था. चारॊं ओर सन्नाटा पसरा पड़ा था. वे निस्तेज-सी दिखाई दे रही थीं. देखने में वे
कोई प्रस्तर की-सी प्रतिमा दिखाई दे रही थीं. निस्तेज चेहरे पर निराशा-हताशा की
परछाइयाँ और झाइयाँ अलग ही दिखाई दे रही थी. आँखे अंदर धंसी हुई थीं और आँखों के
नीचे काले घेरे बने हुए थे. संभवतः अपराध बोझ के नीचे दबी माता कैकेई ने ,न जाने
कितने ही शारीरिक और मानसिक दारूण दुःखों को झेला होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया
जा सकता था.
हनुमानजी ने उनके चरणों में शीश नवाकर प्रणाम
किया और कहा-" माते ! मैं प्रभु श्रीराम जी का समाचार लेकर आया हूँ"
" तुम मेरे लिए राम का समाचार लेकर आये
हो.?....मेरे राम का..? ......कैसा है मेरा राम...?.कहाँ है मेरा राम...?. सीता
कैसी है...... लक्ष्मण कैसा है.....वे तीनों कब अयोध्या लौट रहे हैं ? बोलो ब्राह्मणदेव...बोलो..
मेरे राम ने कैसा समाचार भेजा है....उस
आनन्ददायिनी समाचार को शीघ्र कह सुनाओ.... बोलो..बोलो ....मुझे शीघ्रता से वह शुभ
समाचार कह सुनाओ.....एक अरसा बीत गया कोई शुभ समाचार सुने बिना...उसे सुनने के लिए
मेरे कान कब से तरस रहे हैं....? बोलो ब्राह्मण देव बोलो." अधीर होते हुए
कैकेई जी ने सारा वृत्तांत जानना चाहा.
कैकेई के निष्प्राण शरीर में जैसे प्राण लौट
आए थे. उन्हें एक विशेष आनन्द की अनुभूति होने लगी थी. उनके कान उस शुभ समाचार को
सुनने के लिए आतुर हो उठे थे. वे टकटकी लगाए उस ब्राह्मण की ओर देख रही थीं. अधीर
होकर उन्होंने पुनः उस दूत से रामजी का वनवास विषयक सारा समाचार सुनाने का आग्रह
किया.
" हे माता ! प्रभु श्रीराम, सीताजी तथा
लक्ष्मण ने आपके श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित किया है."
" हे माते ! प्रभु श्रीरामजी ने आपको
कहला भेजा है कि आप धैर्य धारण करें. बिना किसी अपराध के भी आपको अनेकों शारीरिक
और मानसिक कष्टों को सहना पड़ा है, अब कृपाकर आप उन सारे कष्टों को, स्वपन समझ कर
भूल जाइये."
बलवान रावण के द्वारा सीताजी का हरण किए जाने
का, सुग्रीव से बातचीत होने का, रणभूमि में बाली के वध करने का, राक्षसराज रावण
सहित सभी दानवों का वध करने का, विभीषण को लंका का राजा बनाने सहित अनेक वनवास
विषयक सारा समाचार कह सुनाने के बाद हनुमानजी ने विनयपूर्वक कहा-" हे माता ! प्रभु श्रीराम, सीताजी और भैया
लक्ष्मण को साथ लेकर सारे मनोरथों को पूर्ण कर लौट आए हैं. इस समय वे महात्मा
भरद्वाज मुनि के आश्रम में आ पहुँचे है. पंचमी की रात्रि को वे वहीं विश्राम कर,
कल प्रातःकाल पुष्पक विमान से अयोध्या आएंगे. उनके साथ किष्किन्धा नरेश महाराज
सुग्रीव, लंकापति विभीषण, श्रृंगवेरपुर के राजा निषादराज गुह, युवराज अंगद आदि के
सहित उनका आगमन होगा." हनुमान जी ने सारे समाचार सुनाते हुए, महारानी कैकेई
के दुःखों को काफी हद तक कम करने का सायास प्रयास किया.
राजकाज में दक्ष महारानी कैकेई जी, तनमय होकर
दूत की बातों को सुन रही थीं. सुन रही थीं कि दूत जिस आत्मविश्वास के साथ समाचार
सुना रहा है, उसके द्वारा उच्चारित शब्दों को सुनकर जाना जा सकता है कि वह व्याकरण
का भी ज्ञाता है. वे समझ गयीं कि यह दूत कोई सामान्य नागरिक नहीं है, ब्राह्मण तो
कदापि नहीं हो सकता. बुद्धिमान ब्राह्मण ने वे बातें नहीं बतलायीं जो उसे सुनाना
चाहिए था. सारा वृतांत सुनने के बाद उन्होंने कहा-" मेरे राम का समाचार
सुनाकर तुमने मुझ पर बड़ा उपकार किया है..लेकिन मुझे यह नहीं बतलाया कि राम की सेना
में कौन ऐसा वीर था, जो सौ योजन समुद्र को लांघकर सीता की खोज में लंका गया था?.
राम की विशाल सेना किस तरह लंका पहुँची? लक्ष्मण के मुर्च्छित होने पर संजीवनी
बूटी लाने कौन गया था? यह तो तुमने मुझे
बतलाया ही नहीं ?." कैकेई ने जानना चाहा.
बुद्धिमान हनुमान समझ गए अब ज्यादा समय तक वे
माता कैकेई के समक्ष, ब्राह्मण के वेश में नहीं रह सकते. वे यह भी जान गये थे कि
माता कैकेई कोई सामान्य स्त्री नहीं हैं. वे एक क्षत्राणी हैं. युद्ध के सारे
कला-कौशल को वे जानती हैं, तभी तो वे महाराज दशरथजी के साथ, देवताओं के पक्ष में
उपस्थित रहकर, दानवों से युद्ध करने जाती रही हैं. वे यह भी जानती हैं कि युद्धरत
रहते हुए वे रावण जैसे दुर्दांत राक्षस के द्वारा स्थापित रक्ष संस्कृति को पूरी
तरह से समाप्त नहीं कर पायी थीं. और तो और एक बार उन्हें बाली से युद्ध करते समय
जो करारी पराजय मिली थी और रघुकुल का गौरवशाली मुकुट बाली को सौंपना पड़ा था. इस
तरह मिली पराजय की कसम उनके मन में कांटे की तरह चुभती रही है. वे रामजी के बल,
पराक्रम, तेज और शौर्य से भली-भाँति परिचित थीं और उन्हें चक्रवर्ती सम्राट के रूप
में देखना चाहती थीं. वे जानती थीं कि राम को वनवास पर भेजने के सिवाय और कोई
दूसरा मार्ग शेष नहीं बचता. अतः उन्होंने वैधव्य जैसे दारूण दुःख को स्वीकार करते
हुए, श्रीराम जी को चौदह वर्षों के लिए बनवास पर भेजने के लिए, अपने पति पर दवाब
बनाया. बाली के द्वारा मिली करारी हार से अयोध्या का गौरव भी कलंकित हुआ था, वे
किसी भी कीमत पर उस राजमुकुट को प्राप्त कर गौरवान्वित होना चाहती थीं. इसके लिये
उन्होंने रामजी का चयन किया था. वे यह भी जानती थी कि चारों बेटॊं में केवल राम ही
अयोध्या की राजगद्दी पर बैठने का सही उत्तराधिकारी है. वे राम जी को केवल अयोध्या
तक की सीमाओं का राजा न बनाकर, संपूर्ण आर्यावर्त का राजा, चक्रवर्ती सम्राट बनाना
चाहती थी, अतः उन्हें अप्रिय कड़े निर्णय लेने पड़े थे. उनकी दृष्टि केवल अयोध्या ही सीमित नहीं थी बल्कि संपूर्ण
आर्यावर्त पर बनी रहती थी, हर घटनाक्रम की उन्हें जानकारी मिलती रही है, तभी तो वे
इतना कड़ा निर्णय ले पायी होंगी.यह सब सोचते हुए उन्हें अपने मूल स्वरूप में प्रकट
होना पड़ा.
हनुमानजी अपने मूल स्वरूप में प्रकट होते हुए
कहा- " माता मुझे क्षमा करें. मैं यदि वानर के रूप में आपके समक्ष उपस्थित
होता तो संभव है आप डर जातीं. जैसा कि आपने जानना चाहा कि वह कौन था, जिसने सौ योजन समुद्र को
लांघकर,लंका जाकर, सीता माता का पता लगाया ? वह कौन था जिसने संजीवनी बूटी लाकर
लक्ष्मण जी के प्राण बचाये?. हे माता ! मैं केसरीनन्दन हनुमान, एक अदना-सा रामजी
का सेवक, उनकी कृपा पाकर ही मैंने इतने दुःसाध्य कामों को कर संभव कर पाया. यदि
उनकी कृपादृष्टि मुझ पर नहीं होती, तो मै उन्हें नहीं कर पाता." हनुमानजी ने
क्षमा याचना करते हुए कहा.
" हे वानर श्रेष्ठ ! इस शुभ समाचार के
बदले तुम जो भी मांगना चाहो, मैं तुम्हें दूँगी. बोलो...तुम्हारी क्या अभिलाषा
है?.
" माता
! मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं तो केवल श्री रामजी के चरणों का अगुरागी हूँ.
मुझ पर सदा रघुनाथ जी कृपा बनी रहे, इसके सिवाय मेरी कोई भी अभिलाषा नहीं है. हे
माता !मेरा जन्म तो रघुनाथजी जी की सेवा करने के लिए ही हुआ है."
" माते ! रघुवंश के जिस मुकुट को आप पुनः
बाली से प्राप्त करना चाहती थीं, वह उस समय बाली के पास न होकर राक्षसराज रावण के
पास था, जिसे बाली के सुपुत्र अंगद ने ले आया है."
" हे माता ! आपने दो वरदान मांगाते हुए, पहले
वरदान में भैया भरत के लिए राज्य और रामजी के लिए चौदह वर्षों के लिए बनवास मांगा
था. पहले मांगे गए वरदान पर उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी थी, लेकिन दूसरे वरदान
को वापिस न लेने के पश्चात उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर आपका त्याग कर दिया था. यह
बात रामजी को ज्ञात थी. दुर्दांत रावण के वध और सीताजी की अग्नि परीक्षा के
पश्चात, श्रीरामजी को आशीर्वाद देने के लिए, स्वर्ग से पधारे महाराज दशरथ से रामजी
ने प्रार्थना की कि वे माता कैकेई को दिये गए शाप से मुक्त करते हुए, उन्हें अपनी
पत्नी के रूप में स्वीकार करें. प्रभु श्रीरामजी की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए
उन्होंने अपने वचनों को वापिस ले लिया.अतः माते अब आपको प्रसन्न हो जाना चाहिए और
हर्ष के साथ उनकी अगवानी के लिए सभी माताओं को साथ लेकर शीघ्र तैयार होकर जाना
चाहिए."
हनुमानजी से अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्हें
आशीर्वाद दिया. फिर उन्होंने अपनी बहन कौसल्या और सुमित्राजी को बुलाकर राम के
आगमन का शुभ समाचार कह सुनाया और कहा कि हम तीनों अपने दोनों बेटों और बहू सीता को
सादर लिवा लाने के लिए जायेंगी.
००००००
भरत जी के कुशल नेतृत्व में, ध्वजा-पताकाओं से
विभूषित हजारों अच्छे-अच्छे घोड़ों और घुड़सवारों तथा हाथों में शक्ति, ऋष्टि और पाश
धारण करने वाले सहस्त्रों पैदल योद्धाओं से घिर्रे हुए असंख्यक स्तुति और पुराणॊं
के जानकार सूत, समस्त वैतालिक (भाँट), बाजे बजाने में कुशल सब लोग,गणिकाएँ,
महारानी कौसल्या जी, सुमित्राजी तथा कैकेई जी, अयोध्या के आठों मंत्री- धृष्टि,
जयन्त, विजय, सिद्धार्थ, अर्थसाधक, अशोक, मन्त्रपाल और सुमन्त्र, सेनाएँ, सैनिकों
की स्त्रियाँ, ब्राह्मण, क्षत्रिय,, व्यवसायी-संघ के प्रमुख मुखिया, और बहुत से
रथी, महारथी हाथियों, रथों, घोड़ों पर सवार होकर निकले.
धर्मात्मा भरत मुख्य-मुख्य ब्राह्मणों,
व्यवसायी वर्ग के प्रधानों, वैश्यों तथा माला हाथ में लिये मंत्रियों से घिरकर
अपने बड़े भाई की चरणपादुकाओं को सिर पर धारण किये, शंखों और भेरियों की गम्भीर
ध्वनि के साथ चले. उस समय बन्दीजन उनका अभिनन्दन कर रहे थे. श्वेत मालाओं से
सुशोभित सफेद रंग का छत्र तथा राजा के योग्य सोने से मढ़े हुए श्वेत चँवर भी
उन्होंने अपने साथ रख लिया
घोड़ों की टापों, रथ के पहियों, हथियों के
गर्जन और शंखों एवं दुन्दुभियों के गहरे नादों से सारी पृथ्वी हिलती-सी जान पड़ती
थी.
दूर से ही महात्मा भरत जी को पुष्पक विमान दिखायी
दिया जो चन्द्रमा के समान दिखायी देता था, जिसे विश्वकर्माजी ने बनाया था और
परमपिता ब्रह्माजी की विशेष कृपा से कुबेरे को प्राप्त हुआ था. इस विमान में
सातवीं मंजिल पर विदेहकुमारी सीता के साथ श्रीरामजी तथा प्रथक-प्रथक तलों पर
महातेजस्वी सुग्रीव, महात्मा विभीषण आदि
विराजमान थे.
सब लोग अपने-अपने रथों, घोड़ों और हाथियों से
उतरकर विमान में विराजमान अपने स्वामी श्री रामचद्रजी की ओर दृष्टि लगाये हाथ
जोड़कर खड़े हो गये. उनका शरीर हर्ष से पुलकित हो उठा. उन्होंने दूर से ही
अर्ध्य-पाद्य आदि के द्वारा श्रीराम का विधिवत पूजन किया. विमान के ऊपरी भाग में
बैठे हुए भाई श्रीरामजी पर दृष्टि पड़ते ही भरत ने विनीत भाव से उन्हें प्रणाम
किया. श्रीरामजी की आज्ञा से विमान पृथ्वी पर उतर आया.
विमान के उतरने के पश्चात भरत जी अपने भ्राता
श्रीरामचन्द्रजी के पास पहुँचकर आनन्दविभोर हो अपने भ्राता के श्रीचरणों में
साष्टांग प्रणाम किया. रामजी ने उन्हें उठाकर अपने हृदय से लगाया. फ़िर शत्रुओं को
संताप देने वाले भरत ने लक्ष्मण और विदेहकुमारी सीताजी को बड़ी प्रसन्नता के साथ
प्रणाम किया. इसके बाद भरत ने सुग्रीव, जाम्बवान, अंगद,मैन्द, द्विविद, नील, ऋषभ,
सुषेण, नल, गवाक्ष, गन्दमादन, शरभ और पनस का आलिंगन किया. फिर किष्किन्दा के राजा
वानरराज सुग्रीवजी को हृदय से लगाते हुए कहा-" हे महात्मा सुग्रीवजी ! हम चार
भाई हैं. आप हमारे पाँचवे भाई हो. फ़िर महात्मा विभीषण लंकापति विभीषण जी से
कहा-" हे राक्षसराज ! कितने सौभाग्य की बात है कि आपकी सहायता पाकर श्री
रघुनाथजी ने अत्यन्त ही दुष्कर कार्य पूरा किया है."
तदनन्तर धर्मज्ञ भरत ने स्वयं होकर श्रीरामजी
की चरण-पादुकाएँ लेकर उनके चरणों में पहना दी और हाथ जोड़कर कहा-" भैया ! मेरे
पास धरोहर के रूप में रखा हुआ आपका यह राज्य, आज मैंने
आपके श्रीचरणॊं में लौटा दिया है. आज मेरा जन्म सफल हो गया. मेरा मनोरथ पूरा
हुआ."
" हे भ्राता ! आपके राज्य का खजाना,
कोठार, घर और सेना सब देख लें. आपके प्रताप से ये सारी वस्तुएँ पहले से दस गुनी हो
गयी है."
भ्रातृवत्सल भरत को इस प्रकार कहते हुए देख
भावविभोर हुए राक्षसराज विभीषण अपने आपको रोक नहीं पाये और उनके नेत्रों से आँसू
बहने लगे.
भरत के आश्रम में पहुँचकर श्रीरामजी ने पुष्पक
विमान को आज्ञा देते हुए कहा-" हे विमानराज ! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि
तुम यहाँ से देवप्रवर कुबेर के पास चले जाओ और उन्हीं की सवारी में रहो."
श्रीरामजी की आज्ञा पाकर वह विमान दिशा को लक्ष्य करके कुबेर जी के पास पहुँच गया.
००००००
सभी ने बारी-बारी से स्नान किया. शत्रुघ्न ने
श्रीरामजी तथा लक्ष्मण का श्रृंगार किया.तीनो रानियों ने अपने हाथों से अपनी
पुत्रवधू सीताजी का श्रृंगार किया.. फिर बड़े उत्साह के साथ माता कौसल्या ने समस्त
वानरपत्नियों का श्रृंगार किया. तत्पश्चात शत्रुघ्न की आज्ञा से सारथि सुमन्त्र
जी एक सर्वांगसुन्दर रथ जोतकर ले आये.
महाबाहू श्रीराम और जनककुमारी सीताजी उस विशाल और दैदिप्यमान रथ पर आरूढ़ हुए.
सुग्रीव की पत्नियाँ समस्त आभूषणॊं से विभूषित होकर नगर भ्रमण के लिए अपने-अपने
वाहनों पर सवार होकर चले.
भरत जी सारथि बनकर घोड़ों की बागडोर अपने हाथों
में ले रखी थी. शत्रुघ्न ने छत्र लगा रखा था और लक्ष्मण अपने भ्राता श्रीरामजी के
मस्तक पर चँवर डुला रहे थे. उस समय आकाश पटल पर उपस्थित मरुत्गणों सहित देवताओं के
समूह श्रीरामचन्द्रजी के स्तवन की मधुर
ध्वनि सुन रहे थे.वानरराज सुग्रीव एक पर्वताकार हाथी पर तथा समस्त वानर हजारों
हाथियों पर चढ़कर यात्रा कर रहे थे.
शंखध्वनि और दुन्दुभियों के गम्भीर नाद के
साथ, श्रीरामचन्दजी अयोध्यापुरी की ओर प्रस्थित हुए. दिव्य रथ में अपने स्वामी
श्रीरामजी को बैठकर आता देख सभी पुरवासी भाइयों, मंत्रियों, ब्राहमणॊं तथा प्रजाजन
तुमुल ध्वनि निकालते हुए, प्रभु श्रीरामचन्द्रजी का
जयघोष करते हुए आनन्दित हो रहे थे. वहीं अनेक युवतियाँ नृत्य करते हुए चल रही थीं.
इस समय प्रभु श्रीरामजी अपनी दिव्यकांति से उद्भासित हो रहे थे.
सबसे आगे बाजे वाले थे. वे सभी आनन्दमगन होकर
तुरही, करताल और स्वस्तिक बजाते हुए चल रहे थे और स्त्रियाँ मंगल गान गाते हुए चल
रही थीं. सुवर्ण पात्रों में अक्षत,हाथों में मिठाइयों की थाल लिए अनेकों मनुष्य
चल रहे थे.वे रामजी के मित्र सुग्रीव की मित्रता, हनुमानजी के प्रभाव तथा अन्य
वानरों के अद्भुत पराक्रम की चर्चा करते जा रहे थे. जो ज्यादा समय तक पैदल नहीं चल
सकते थे, ऐसे असंख्य वृद्ध पुरुष, स्त्रियाँ और बालक पंक्तिबद्ध होकर, राजमार्ग के
दोनों ओर खड़े होकर, अपने स्वामी श्रीरामजी के स्वागत एवम दर्शनों के लिए उपस्थित
थे. प्रायः प्रत्येक महिलाओं और पुरुषों के हाथों में थालियाँ थीं, जिसमें
सुगन्धित पुष्प, अक्षत और प्रज्जवलित दीप सजा रखा था, जैसे ही प्रभु श्रीरामचन्द्र
जी का रथ पास आता, वे अपने स्वामी रघुनाथजी पर पुष्पों की बरसात कर, आरती उतारते,
जयघोष करते हुए अपने को धन्य मानते.
संध्या घिर आयी थी. संध्या को घिरता देख
राजमहल और राजमार्गों के दोनों ओर असंख्य दीप प्रज्जवलित कर दिये गए . जगमग दीपों
की रोशनी में प्रभु श्रीरामजी का दिव्य रथ राजमहल के प्रवेश द्वार पर आकर ठहर गया. चौदह वर्षों के उपरान्त आज पहली बार
संपूर्ण अयोध्या में करोड़ों दीप प्रज्जवालित किये गए थे.
प्रभु श्रीराम अपनी भार्या और अनुजों के साथ
रथ से उतर कर चलते हुए प्रवेश द्वार की ओर बढ़े. प्रवेश द्वार पर उपस्थित महारानी
कौसल्या जी, सुमित्राजी और कैकेई जी ने राम जी, सीताजी और लक्ष्मण का परछन
किया.महात्मा भरत और शत्रुघ्न ने सुगन्धित पुष्प मालाएँ पहनाकर सभी का
स्वागत-सत्कार किया. इसके पश्चात प्रभु श्रीरामजी ने सीताजी और लक्ष्मण के साथ सभी
माताओं का बारी-बारी से आलिंगन लेते हुए चरणों में प्रणाम किया.
श्रीरामचन्द्रजी ने माता कैकेई के श्रीचरणॊं
में पुनः प्रणाम निवेदित करते हुए कहा-" माते ! आपकी कृपा और आशीर्वाद से
मैंने दुर्दांत राक्षसराज रावण का वध कर दिया है. रक्ष संस्कृति की समाप्ति के
पश्चात हमारा सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति की स्थापना का मूल उद्देश्य पूरा हो
चुका है."
" माते ! रावण के वध के पश्चात सीता की
अग्नि परीक्षा के समय, मेरे स्वर्गवासी पिता स्वर्ग से मुझे आशीर्वाद देने के लिए
विशेष विमान से आए थे, मैंने उनसे निवेदन किया कि आप मेरी माता कैकेई को क्षमा कर
दें और अपने वचनों को वापिस ले लें. उन्होंने आपको क्षमा करते हुए, अपने वचनों को
वापिस ले लिया है."
"माते ! जैसा की आपने मुझे अयोध्या का
गौरवशाली राजमुकुट, बाली को मार कर अथवा उसे युद्ध में पराजित कर, वापिस लाने की
आज्ञा दी थी, उसे मैं वापिस लेता आया हूँ".
" माता ! अब आपका राम पुनः आपके श्रीचरणों
में, चौदह वर्षों का वनवास कुशलतापूर्वक पूरा करते हुए अयोध्या लौट आया है. अब आप बीते दिनों को मात्र
एक स्वपन समझ कर भूल जाइये."
" राम ! बेटा राम....तो तुमने मेरे
अपराधों को क्षमा कर दिया है?." माता कैकेई ने जानना चाहा.
" आप ये क्या कह रहीं हैं माते ? अपराध
और वह भी आपसे, ऐसे कैसे संभव है कि आप कोई अपराध कर सकती हैं?. आपने तो वही किया
जो देशकाल और परिस्थितियों के लिए अत्यन्त ही आवश्यक था. सनातन धर्म की संस्थापना
के लिए, और रक्ष संस्कृति को समूल नष्ट करने के लिए, आपने मेरा चुनाव कर मुझ पर
बड़ा उपकार किया है. यदि आप मुझे वन नहीं भेजतीं, तो राम केवल अयोध्या की सीमा के
भीतर कैद होकर रह जाता. आपने मुझे वन भेजकर रघुवंश के गौरव में यशवृद्धि ही की है.
मुझे एक राजा नहीं बल्कि चक्रवर्ती सम्राट बनाया है. यह सब आपकी दूरंदेशी सोच के
परिणाम का सुफल है, जो मुझे प्राप्त हुआ है. मुझे आप पर गौरव है. एक मां अपने बेटे
के लिये कितना कुछ कर सकती है, इसका संदेश आपने पूरे विश्व को दिया है. अतः माते !
आप अपने मन में छाये अपराध बोध को विस्मृत कर दें, राम आपसे प्रार्थना कर रहा
है."
" राम ....मेरे राम....सचमुच में तुम
महान हो. मुझे तुम पर गर्व है बेटे...मुझे तुम पर गर्व है ." ऐसा कहते हुए
माता कैकेई जी ने नेत्रों से झर रहे आँसूओं को, अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछते हुए
राम को अपने हृदय से लगा लिया.
रात्रि घिर आयी थी, शत्रुघ्न के आदेश पर
अनेकानेक सेवक तिल के तेल से जलने वाले बहुत-से दीपक, पलंग और बिछौने लेकर सभी
मेहमानों के विश्राम के लिये आये और रसोइये भोजन की तैयारी में जुट गये.
०००००००
इस ओर एक कक्ष में विराजमान अयोध्या के राज
पुरोहित, वसिष्ठ के मार्गदर्शन में रामजी के राज्याभिषेक के विषय में आवश्यक विचार
करने लगे. तीन मंत्री-- अशोक, विजय और सिद्धार्थ एकाग्रचित्त हो श्रीरामचन्द्रजी
के अभ्युदय तथा नगर की समृद्धि के लिए परस्पर मन्त्रणा कर रहे थे.
वसिष्ठजी ने अन्य सेवकों को आज्ञा देते हुए
कहा-" श्रीरामचन्द्रजी के राज्याभिषेक के लिए जो-जो आवश्यक कार्य करना है, वह
सब मंगलपूर्वक तुम सब लोग करो. फिर महात्मा भरत ने सुग्रीव से कहा कि अभिषेक के
लिए अपने दूतों को आज्ञा दें कि वे लोग
प्रातःकाल ही चारों समुद्र के जल से भरे हुए घड़ों के साथ उपस्थित होवें और अगले
आदेश की प्रतीक्षा करें.
सुग्रीवजी की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए सभी
विशालकाय वानर, जो गरूड़ के समान शीघ्रगामी थे, हाथों में सुवर्ण कलश लेकर तत्काल
आकाश में उड़ चले. जाम्बवान, हनुमान, गवय और ऋषभ इन चारों वानरों ने चार समुद्रों
और पाँच सौ नदियों से कलश भर कर ले आये. इसी तरह रीछों की बहुत-सी सुन्दर सेना थी,
वे शक्तिशाली जाम्बवान के नेतृत्व में पूर्वी समुद्र का जल ले आये. ऋषभ दक्षिणी
समुद्र से जल ले आये. गवय ने पश्चिम दिशा में स्थित महासागर से जल ले आया. गरुड
तथा पवनसुत हनुमानजी ने उत्तरवर्ती महासागर से जल भर कर ले आये. इस तरह श्रेष्ठ
वानरों के द्वारा लाये गये जल के पात्रों को पुरोहितों को सौंप दिया.
तदनन्तर ब्राह्मणॊं ने शुद्धचेता वसिष्ठ ने
सीता जी तथा रामचन्द्रजी को सादर बुलाकर रत्नमयी चौकी पर बैठाया. तत्पश्चात
वसिष्ठजी, वामदेव, जाबालि, काश्यप, कात्यायन, सुयज्ञ, गौतम और विजय-इन आठ
मंत्रियों ने सबसे पहले सम्पूर्ण औषधियों
के रसों तथा पूर्वोक्त जल से ऋत्विग् ब्राह्मणॊं के द्वारा वैदिक मंत्रों के
द्वारा, फ़िर सोलह कन्याओं के द्वारा, तत्पश्चात अन्याय योद्धाओं, व्यवसायियों ने
भी श्रीरामचन्द्रजी का स्वच्छ एवं सुगन्धित जल के द्वारा सीताजी और
श्रीरामचन्द्रजी का अभिषेक किया.
प्रभु विलोकि मुनि मन अनुरागा /
तुरत दिव्य सिंहासन मांगा /रवि सम तेज सो बरनि न जाई / बैठे राम इज्न्ह सिरु नाई
/जनकसुता समेत रघुराई /पेखे प्रहरषे मुनि समुदाई./ बे मंत्र तब दिजन्ह उचारे / नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे.
तदनन्तर ब्रह्माजी के द्वारा बनाया हुआ
रत्नशोभित, दैदीप्यमान किरीट, रघुवंश के राजाओं का अभिषेक किया हुआ, जो
भांति-भांति के रत्नों से चित्रित, सुवर्णनिर्मित एवं महान वैभव से शोभायमान किरीट
को तथा अन्यान्य आभूषणॊं से
श्रीरामचन्द्रजी को विभूषित किया. इस समय शत्रुघ्न और वानरराज सुग्रीव
श्वेत रंग के चँवर रामजी के मस्तक पर डुला रहे थे.
इस शुभावसर पर देवराज इन्द्र की प्रेरणा से
वायुदेव ने सुवर्णमय कमलों से बनी हुई एक दीप्तिमयी माला और सब प्रकार के रत्नों
से युक्त मणियों से विभूषित मुक्ताहार राजा रामचन्द्रजी को भेंट में दी. रामजी के
राज्याभिषेक के शुभावसर पर पूरा परिसर अयोध्यावासियों से खचाखच भरा हुआ था. वे
अपने नेत्रों से अपने राजा रघुनाथजी का अभिषेक होता हुआ देखकर, अत्यधिक प्रसन्नता
का अनुभव करते हुए स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहे थे. अभिषेक के पावन अवसर पर
देवगन्धर्व गाने लगे और अप्सरायें नृत्य करने लगीं. परिसर में बैठी महिलायें गीत
गाते हुए नॄत्य भी करती जाती थीं.
श्रीरघुनाथजी के राज्याभिषेकोत्सव के समय
पृथ्वी खेती से हरी-भरी हो गयी, वृक्षों में फल आ गये और फूलों में सुगन्ध छा गयी.
राजा रामचन्द्रजी ने अपने राज्याभिषेक के पश्चात ब्राह्मणॊं को एक लाख घोड़े, इतनी
ही दूध देने वाली गौवें, तीस करोड़ अशर्फ़ियाँ तथा नाना प्रकार के बहूमूल्य आभूषण और
वस्त्र भी बाँटे. तत्पश्चात रामजी ने अपने मित्र सुग्रीव को सोने की एक दिव्य
माला, बालिपुत्र अंगद को दो बाजूबंद भेंट में दिये. सुग्रीव के साथ आये वानरों को
प्रभु श्रीरामजी ने बहूमूल्य आभूषण और वस्त्र भेंट में दिये.
उत्तम मणियों से युक्त उस परम उत्तम मुक्ताहार
( जिसे वायुदेवता ने रामजी को भेंट में दिया था ), जो चन्द्रमा की किरणॊं के समान
प्रकाशित हो रहा था. श्रीराम जी ने उसे अपने गले से उतार कर अपनी धर्मपत्नी सीताजी
के गले में पहना दी. इसके अलावा कभी न मैले होने वाले दो दिव्य वस्त्र और भी बहुत
से सुन्दर आभूषण अर्पित किये. अपने पति की ओर से बहुमूल्य उपहार पाकर वे अत्यधिक
प्रसन्नता का अनुभव महसूस कर रही थीं.
तदनन्तर महारानी सीताजी ने महाराज सुग्रीव जी
की पत्नी रुमा एवं साथ आयीं अनेक वानर-पत्नियों को बहुमूल्य हार, पैंजन, सोने की
चूड़ियाँ और वस्त्रादि देकर उनका सम्मान किया.
श्रीरामचन्द्रजी और महारानी सीताजी के द्वारा
सभी मेहमानों को कुछ-न-कुछ उपहार में दिया जा रहा था. केवल एक अकेले हनुमानजी ऐसे
थे, जो इस चकाचौंध से दूर हटकर, एक कोने में बैठकर राम नाम का जाप कर रहे थे. किस
को क्या मिला, कितना मिला, इन सब बातों से अनजान बने हुए थे. सीताजी की खोजी नजरें
उन्हीं को खोज रही थीं.
विदेहनन्दिनी सीताजी ने अपने पति की ओर देखकर,
वायुपुत्र हनुमान को कुछ भेंट में देने का विचार किया. उन्होंने अपने गले से वह
मुक्ताहार, जो उन्हें अपने पति श्रीरामजी से प्राप्त हुआ था, निकालकर बारम्बार
समस्त वानरों तथा पति की ओर देख रही थीं.
उनकी इस चेष्टा को समझकर रामजी ने कहा-"
हे भामिनी ! हे सौभाग्यशालिनी ! तुम जिस पर संतुष्ट हो, उसे यह हार दे दो."
अपने स्वामी की अनुमति प्राप्त करने के पश्चात
उन्होंने सुग्रीवजी से कहा- " हे राजन ! क्या आप बता सकते हैं कि इस समय
हमारे वीर हनुमान कहाँ हैं.?"
" जी.... मैं अभी उन्हें खोज निकालता
हूँ. वे यहीं-कहीं आसपास ही होंगे." सुग्रीव ने कहा.
भीड़ को परे हटाते हुए वे इस कोने से उस कोने,
उस कोने से इस कोने में जाकर, अपने मंत्री हनुमान को ढूँढ रहे थे. लेकिन वे तो
भीड़-भाड़ से काफ़ी दूर हटकर एक एकान्त में बैठकर, अपने स्वामी श्री रामचन्द्रजी के
नाम का जाप कर रहे थे. सुग्रीवजी ने उनके कंधे पर हथेली से स्पर्श किया. स्पर्श की
उष्मा पाकर वे चैतन्य होकर यहाँ-वहाँ देखने लगे. उन्होंने अपने समक्ष अपने राजा
सुग्रीवजी को खड़ा पायाऔर अत्यन्त ही विनीत होकर कहा-" हे राजन ! आपकी क्या
आज्ञा है, कह सुनाइये?".
" हनुमान ! माता सीताजी तुमको कब से खोज
कर रही हैं और तुम यहाँ एकान्त में बैठकर क्या कर रहे हो.?."
" जी ...मैं अपने स्वामी रघुनाथजी का
चिन्तन-मनन करते हुए उनके नामों का स्मरण
कर रहा था."
"
ठीक है....अब विलम्ब न करते हुए मेरे साथ चलो. वे तुम्हें कोई उपहार देना
चाहती हैं. चलकर देखो...तुम्हें कौन-सी अनमोल वस्तु भेंट में मिलती है."
सुग्रीव ने कहा.
" जी अच्छा...चलिए." यह कहते हुए
हनुमानजी महाराज सुग्रीव जी के साथ चलने को उद्यत हुये.
"माते ! आपने मुझे याद किया. कहिए..मेरे
लिये क्या आज्ञा है." हनुमान जी ने सीतामाता के निकट जाकर जानना चाहा.
तब कजरारे नेत्रों वाली माता सीता ने हनुमान
से कहा-" हे पवनपुत्र हनुमान ! सुवर्ण-नगरी लंका में मैं जब, संकटॊ से चारों
ओर से घिरी हुई थी, तब तुमने मुझे अनेक संकटों से उबारा. मुझे ढाढस बंधाया.
निराशा-हताशा में घिरी सीता को तुमने, मेरे स्वामी के नाम वाली अंगूठी देकर तुमने
मुझे नया जीवन प्रदान किया. तब मेरे पास तुम्हें देने के लिए कोई उचित पुरस्कार
नहीं था. मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दे पायी थी."
" हे हनुमान ! तुम तेज, धृति, यश,
चतुरता, शक्ति, विनय, नीति, पुरुषार्थ, पराक्रम और उत्तम बुद्धि वाले हो. मैं तुम
पर बहुत ही प्रसन्न हूँ. तुम्हें अपनी ओर
से यह मुक्ताहार देना चाहती हूँ." यह कहते हुए उन्होंने उस मुक्ताहार को हनुमानजी
को दिया.
मुक्ताहार को स्वीकार करते हुए उन्होंने
अत्यन्त ही मधुर वचनों में कहा-" माते ! आपका और मेरे स्वामी श्रीरामचन्द्रजी
का स्नेह मुझ पर सदैव बना रहे. मैं सदैव आपके श्रीचरणों में सेवा करता रहूँ. इस
अकिंचन सेवक को इतना ही चाहिए. मैं इस मुक्ताहार को लेकर क्या करुँगा?. मैंने जो
भी कुछ किया है, उसे सेवाभाव से ही किया है. अपने स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य
करके ही किया है. सेवाभाव से किये गए कार्यों के बदले, कोई उपहार लेना मुझे उचित
प्रतीत नहीं हो रहा है."
" हे माता ! आप इसे अन्यथा नहीं लें कि
मैं इस अनुपम उपहार को लेने से इनकार नहीं कर रहा हूँ. आपकी कृपा और आशीर्वाद ही
मेरे लिये पर्याप्त है. आप दोनों का वरद-हस्त मुझ पर सदैव बना रहे, यहीं आप दोनों
से मेरी प्रार्थना है." यह कहते हुए उन्होंने उस हार को अपने गले में डाल
लिया. मुक्ताहार पाकर कपिश्रेष्ठ हनुमानजी उसी तरह शोभा पाने लगे जैसे चन्द्रमा की
किरणों के सदृश श्वेत बादलों की माला से कोई पर्वत सुशोभित हो रहा हो.
इसी प्रकार जो-जो प्रधान-प्रधान एवं श्रेष्ठ
वानर थे, उन सबका वस्त्रों और आभूषणॊं द्वारा यथोयोग्य सत्कार किया गया.
राज्याभिषेक का कार्यक्रम संपन्न होने के पश्चात श्री रामचन्दजी ने विभीषण,
सुग्रीव, हनुमान तथा जाम्बवान, मैन्द,, द्विविद, नील, नल आदि सभी श्रेष्ठ वानरों
को पुनः मनोवांछित वस्तुएँ एवं प्रचुर रत्नों द्वारा यथायोग्य सत्कार किया.
सभी वानरश्रेष्ठो को और लंकापति विभीषण आदि का
बारी-बारी से आलिंगन लेते हुए श्रीरामचन्द्रजी ने भारी मन से सभी को अपने-अपने
स्थानों में लौट जाने आज्ञा देते हुए बिदाई दी.
फिर कृपालु श्रीरामजी ने निषाद को बुलाया और
उपहार में वस्त्राभूषण देते हुए कहा-
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता *
सदा रहेहु पुर आवत जाता.
" हे सखे ! तुम मेरे भ्राता भरत के समान
हो. तुम सर्वदा अवधपुरी में आते-जाते रहना."
रामजी के इन वचनों को सुनकर निषादराज को
अत्यन्त ही प्रसन्नता हुई. शरीर पुलकायमान हो उठा. वाणी अवरुद्ध हो गयी. नेत्रों
में जल भर आया. उन्होंने अपने स्वामी और सखा के चरणॊं में साष्टांग प्रणाम किया.
श्रीरामचन्द्रजी ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया.अपने सखा श्रीरामजी के गले लगते
हुए, गुह को परम आनन्द की अनुभूति हो रही थी.
राम राज बैठें त्रिलोका * हरषित
भए गए सब सोका.*
बयरु न कर काहू सन कोई*राम
प्रताप विषमता खोई.
प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के राज्य-सिहासन पर
बैठते ही तीनों लोक हर्षित हो गये और संपूर्ण शोक दूर हो गये. कोई किसी से बैर
नहीं करता. श्रीरामजी के प्रताप से सारी विषमता नष्ट हो गयी.
दैहिक दैविक भौतिक तापा * राम काज नहिं काहुहि ब्यापा
सब नर करहिं परस्पर प्रीती*चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति
नीती.
"राम-राज्य" में दैहिक, दैविक और
भौतिक ताप किसी को भी नहीं व्यापा. सब मनुष्य आपस में प्रीति करते हैं और
वेदानुकूल नीति में तत्पर रहकर अपने धर्म के अनुसार चलते हैं
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा* सब सुंदर सब बिरुज सरीरा महिं
दरिद्र कोउ दुःखी न दीना* नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना
किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती और न ही किसी
को पीड़ा ही होती है. सब सुन्दर स्वरूप वाले हैं और सबके शरीर रोग-रहित हैं. कोई
दरिद्री नहीं है और न ही कोई दुःखी तथा दीन है. न कोई मूर्ख है और न ही कोई
लक्षण-रहित है.
सब लोग दम्भ रहित, धर्म में तत्पर और पुण्यवान
है. स्त्री और पुरुष सब चतुर और गुणी हैं. सभी गुणदाता और पण्डित तथा ज्ञानी हैं
सभी दूसरे के किये हुए उपकार के प्रति कृतज्ञ है एवं किसी में भी कपट और सयानापन
नहीं है. संपूर्ण चराचर जगत में राम के राज्य में काल, कर्म, स्वभाव और गुणॊं से
उत्पन्न हुए दुःख किसी को भी नहीं होते.वन में वृक्ष सर्वदा फूलते हैं. हाथी और
सिंह एक साथ रहते हैं. पशु,पक्षी सभी स्वाभाविक बैर भुलाकर, आपस में प्रीति बढ़ा कर
साथ-साथ रहते हैं. पक्षी बोलते हैं तथा अनेकों मृगों के झुण्ड, वन में
निर्भयता-पूर्वक घूमते हुए आनन्द करते हैं. शीतल, मन्द, सुगन्धित तीनों प्रकार की
वायु चलती है. और भौंरे फूलों का रस लेकर चलते हुए गुंजार करते रहते हैं.
लता और वृक्ष माँगते ही रस टपका देते हैं.
गौवें मनचाहा दूध देती हैं. पृथ्वी सर्वदा अन्न युक्त रहती है.सम्पूर्ण नदियाँ
श्रेष्ठ शीतल, निर्मल, स्वादिष्ट और सुखदायक जल बहाने लगीं. सागर अपनी मर्यादा में
रहता है. तालाब कमलों से परिपूरित हैं. दसों दिशायें प्रसन्न हैं. चन्द्रमा अपनी
पीयूषवर्षिणी किरणों से वसुन्धरा को पूर्ण कर देते हैं. सूर्य उतना ही तपते हैं,
जितने से कार्य सध जाय और बादल माँगने से जल दे देते हैं.
* राज्यं दशसहस्त्राणि प्राप्य वर्षाणि राघवः
*( 95. युद्धकांड)
श्री रघुनाथ जी ने अयोध्या का राज्य पाकर ग्यारह सहस्त्र वर्षों तक उसका
पालन किया.
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