छुटकारा पाना संभव नहीं.
घड़ी की टिक-टिक के साथ ही वह भी जाग रहा था. रात्रि के ग्यारह बज चुके थे और
मार्ग्रेटा अब तक नहीं लौटी थी. नींद से आँखें बोझिल होने लगी थीं, सिर भारी होने
लगा था, बावजूद इसके वह जाग रहा था. जाते समय वह उसकी गाड़ी लेती गई थी और कह गयी
थी कि जल्दी ही लौट आएगी. लेकिन वह अब तक नहीं लौटी थी. उसे लेकर मन के आंगन में
शंका और कुशंका के जहरीले नाग फ़न उठाये विचरने लगे थे. एक विचार आता. मन कहता,
नहीं...ऎसा नहीं हो सकता. तत्काल दूसरा विचार आ धमकता. उसे भी उसका मन स्वीकर नहीं
कर पाता. फ़िर एक विचार कौंधा....हो सकता है कि
नशे की हालत में कहीं उसकी गाड़ी ठुक तो नहीं गई? मन में ऎसा विचार आते ही
वह असहज हो उठा था.
नये विचारों के साथ, नई दुनियां में उड़ान भरने वाली मार्ग्रेटा ने अपनी एक
अनोखी दुनिया बसा ली है. उसके एक नहीं बल्कि कई-कई दोस्त हैं. उसी तरह उसने कई
क्लब भी ज्वाईन कर रखे हैं उसने. उसे कई बार समझाने
की कोशिश की कि कहीं उसके साथ कोई हादसा न हो जाये, या फ़िर कोई उसकी इज्ज्त न लूट
ले, उसे ऎसी जगह नहीं जाना चाहिए. वह एक कान से सुनती और दूसरे से बाहर निकाल
देती. इसके उलट वह उसके उपदेशों को सुनकर उसे एक जाहिल गवांर या मिसफ़िट होने का
लेबल लगाते हुए कहती...दुनियां कहां से कहां निकल गई है मिस्टर और तुम हो कि अब तक
पुरानी जड़ों को पकड़े बैठे हो. रही इज्जत लूटने की तो किसी में इतनी हिम्मत नहीं है
कि वह मेरी ओर आंख उठाकर भी देख सके. जिम में जाते हुए मैंने अपने बचाव के सारे
हुनर सीख रखें है. इसलिए मुझे डर नहीं लगता. एक फ़्रीलांस रिपोर्टर को तो हिम्मतवर
होना बहुत जरुरी होता है..फ़िर हम इस रंगीन दुनिया में आए है तो हमें उसी तरह
रंगीनियत में जीना चाहिए, उसका आनन्द उठाना चाहिए. यहीं नहीं और भी तरह-तरह के
तर्क लगा कर वह उसे चुप रहने पर मजबूर कर देती.
मन में एक बार उठ खड़ी हुई विचारों की आंधी थमने का नाम नहीं ले रही थी. उसने
निर्णय किया कि उसे अब सो जाना चाहिए. जो भी होगा सामने आएगा, तब देखा जाएगा. लाईट
बुझा कर उसने चादर को खींचकर अपने पैरों पर डाला ही था कि गाड़ी की आवाज सुनाई दी.
उसे यकीन हो गया कि वह लौट आयी है. दरवाजा हल्के से बंद था. उसने धक्का देकर खोला
और लड़खड़ाते कदमों से चलते हुए अपने कमरे में समा गई. उसने जानबूझ कर चुप्पी साध ली
थी कि व्यर्थ की बकवास में क्यों पड़ा जाए क्योंकि नशे में धुत्त व्यक्ति कुछ
ज्यादा ही विद्वान हो जाता है. ऎसे समय में बात करना उचित नहीं होता.
नींद के बोझ से पलकें भारी होने लगी थी लेकिन घड़ी की टिक-टिक के साथ ही
विचारों की टिक-टिक भी शुरु हो गई थी, जो थमने का नाम नहीं ले रहीं थीं. बिस्तर पर
असहाय पड़ा वह अपने आपको कोस रहा था और कोस रहा था उस मनहूस घड़ी को जब उसके जीवन
में मार्ग्रेटा का प्रवेश हुआ था. बीते हुए कल के पन्ने फ़ड़फ़ड़ाने लगे थे और वह
उसमें समाने लगा था.
कम्पनी ने उसे एक पाश कालोनी में तीसरे माले पर एक फ़्लैट दे रखा था जो एक
आयताकार जमीन पर निर्मित किया गया था. आयत के चारों ओर बिल्डिंगे खड़ी की गई थीं और
आयत के भीतर एक खेल परिसर का निर्माण किया गया था जिसमें बच्चे खेल खेल सकें.
पिछवाड़े की ओर खुलने वाली खिड़की के ठीक सामने वाली खिड़की जिस पर मोटा पर्दा डला
रहता, इसी में वह रहा करती थी.
एक शाम. जब वह आफ़िस से घर लौटा तो उसने सहज रुप से अपनी खिड़की को खोला और अपनी
दोनों कुहनियों को टिकाते हुए बच्चों को खेलता देखता रहा था. तभी सामने वाली खिड़की
जो शायद ही कभी खुली हो, खुलती है और उसमें एक युवती प्रकट होती है. वह अपने हाथ
हिला-हिलाकर अभिवादन करती नजर आयी. कुछ देर बाद उसने अपनी हथेली को फ़ैलाया और फ़ूंक
लगाते हुए एक लंबा फ़्लाईंग-किस हवा में उछाल दिया था. शायद वह अपने किसी
ब्वायफ़्रेंड के लिए ऎसा कर रही होगी. वह यह समझ नहीं पाया कि ये सब उसके लिए ही
किया रहा है. प्रतिदिन यह क्रम दोहराया जाता रहा और वह एक मूकदर्शक की तरह देखता
रहा.
एक दिन. शाम को आफ़िस से लौटते हुए जैसे ही अपना दरवाजा खोला, एक लिफ़ाफ़ा पड़ा
दिखा. उस पर पाने वाले का नाम नहीं था. उत्सुकतावश उसने लिफ़ाफ़ा खोला. तह किए गए
कागज को सीधा किया. उसमें लिखा था-“ हेलो जानेमन... बड़े बेरुखे हैं आप !. हम
प्रायः रोज ही हाथ हिला-हिलाकर आपका इस्तकबाल करते रहे हैं, फ़्लाईंग-किस देते रहे
हैं लेकिन आपने कोई प्रतुत्तर नहीं दिया. क्या इतना भी नहीं समझते कि एक लड़की अगर
इतना कुछ कर रही है तो क्यों कर रही है? यह सब आपके लिए ही किया जा रहा था. मैं भी
एक नामी-गिरामी प्रेस में काम करती हूँ. घर आकर कोई काम तो रहता नहीं, सो बोर होते
रहती हूँ. अकेली हूँ न!. समय काटे नहीं कटता. चाहती थी कि आपसे दोस्ती जोड़ी जाए तो
समय आराम से काटा जा सकता है. आपकी ओर से कोई पहल न होते हुए देखकर मैंने खुद चलकर
यह लिफ़ाफ़ा आपके दरवाजे से अन्दर सरका दिया था. नीचे मेरा कांटेक्ट नम्बर नोट है,
आप इस पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं. मुझे आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी.......
मार्ग्रेटा...
पत्र पढ़कर पूरा हुआ ही थी तभी कालबेल घनघना उठी. उसने वहीं से बैठे-बैठे कहा-
“प्लीज कम-इन...दरवाजा खुला हुआ है.” वह तब तक नहीं जान पाया कि आने वाला कौन है?
शायद वह इस भ्रम में भी था कि कोई मित्र मिलने आया होगा. सहसा दरवाजा खुला. अपनी
सैंडिले खटखटाते हुए उसने कमरे में प्रवेश किया. उसके प्रवेश के साथ ही खुशबूदार
लैवेण्डर/परफ़्यूम की मादक गंध से पूरा कमरा गमगमा उठा. नजदीक आते ही उसने हाथ
मिलाने के लिए अपनी हथेली को आगे बढ़ाते हुए कहा-“ हाय हैण्डसम..आई एम
मार्ग्रेटा...आपकी पड़ौसी....चौंक गए न मुझे देखकर...मैंने सोचा...जब दोस्ती करनी
ही है तो इस बात का इंतजार ही क्यों किया जाये कि पहल कौन करेगा?. इधर से गुजर रही
थी, सो सोचा कि चलकर मिल ही लिया जाये. अचानक...इस तरह आकर मैंने आपको डिस्टर्ब तो
नहीं किया?”
अचकचा गया था देवेन्द्र कि उसके सामने एक हुस्न की परी अचानक आकर खड़ी हो गई
है. झीने कपड़ों में से झांकता उसका गदराया यौवन और शरीर सौष्ठव को देखकर कहा जा
सकता है कि विधाता ने उसे किसी खास सांचे में ढालकर बनाया होगा. उसकी पलकें झपकना
भूल गईं थीं और वह फ़टी आँखों से उसके माधुर्य का रसास्वादन करने में खो सा गया था.
वह प्रत्युत्तर में बहुत कुछ बोलना चाह रहा था लेकिन शब्द जैसे गले में आकर अटककर
रह गए थे.
इस तरह एक कातिल हसीना ने उसके जीवन में प्रवेश किया था. रोज फ़ोन लगते.
गुदगुदी बातें होतीं. मदहोश कर देने वाली खुमारी उस पर तारी होने लगती. कभी वह
चुप्पी साध लेती. जानबूझ कर फ़ोन का स्विच आफ़ कर देती.. वह बार-बार फ़ोन लगाता लेकिन
आउट आफ़ कव्हरेज की ट्युनिंग सुनकर उसकी बेचैनी बढ़ जाती. कभी आ धमकती फ़िर एक लंबा
अन्तराल बना लेती. वह यह सब जानते बूझते कर रही थी. जानती थी वह कि उसने अपने यौवन
के मद में डूबो कर जिस तीर का संधान किया है, वह ठीक निशाने पर पड़ा है. वह यह भी
जानती थी कि जितनी ज्यादा बेचैनी बढ़ेगी, उतना ही वह पास आता जायेगा और फ़िर वह इस
कदर अपने आपको उलझा लेगा कि सिवाय मेरे, उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा.
बढ़ती बेचैनी अब व्यग्रता के रुप में ढलने लगी थी. उसकी स्थिति कुछ ऎसी होने
लगी थी उसकी जैसे जल बिन मछली की होती है. न खाने-पीने से मन जुड़ पा रहा था उसका
और न ही आफ़िस के काम को वह उतनी तल्लीनता से ही कर पा रहा था.
एक शाम. उसका रुठा हुआ वसंत लौट आया था. वियोग की तपिश से मुर्झाया चेहरा खिल
उठा था. कामनाएं मचलने लगीं थीं. आकाश पटल पर काले कजरारे मेघों को देखकर जिस तरह
मयूरा नाच उठता है, ठीक उसी तरह उसका मन आनन्दित होकर थिरकने लगा था “ कहाँ गायब
हो गईं थी मिस मार्ग्रेटा तुम....तुम्हें देखने को आँखें तरस गईं....कितनी बार मैंने
फ़ोन लगाया, लेकिन कनेक्ट नहीं हो पाया...कहाँ चली गईं थीं तुम “. बिस्तर से उठते
हुए उसने कहा.
“ अभी जैसे-तैसे शाम हुई है और आप हैं कि बिस्तर से चिपके पड़े हैं.....क्या
बात है...तबीयत तो ठीक है न !. उसने नजाकत के साथ कहा.
“ नहीं..कुछ ऎसे ही...थोड़ा सिरदर्द हो रहा था.....”
“ लो... इतनी से बात है...अभी दर्द भगाये देते हैं”.
उसने अपना पर्स खोला. एक बोतल निकाली और उठते हुए किचन से दो ग्लास और फ़्रीज
से कुछ नमकीन और पानी की बोतल उठा लाई. बोतल का कार्क खोला और ग्लास में उडेंलकर
बढ़ाते हुए कहा- “ लीजिए...दो घूंट हलक के नीचे उतारिये.....दर्द अभी छूमंतर हो
जायेगा”.
“ ये क्या....शायद शराब है?..मैं शराब नहीं पीता”
“कौन कमबख्त कहता है कि ये शराब है...ये जौ के दानों से बनी बियर है.. गर्मी
के दिनों में इसका इस्तेमाल किया जाता है....जो दिल और दिमाक को ठंडक पहुंचाती
है..... समझे.”
“वाह कमाल की चीज है....सिर दर्द एकदम से गायब हो गया”. चहका था देवेन्द्र.
“ कितनी भीषण गर्मी पड़ रही है...क्या आपको ऎसा नहीं लग रहा..मुझे तो बेहद
गर्मी लग रही है”. कहते हुए उसने अपनी कुर्ती निकाल कर एक ओर रख दिया था. अब वह
केवल ब्रेसरी में उसके सामने बैठी हुई थी. उसके तराशे हुए संगमरी जिस्म को देखकर
देवेन्द्र के जैसे होश ही उड़ गए थे..दिल में खलबली से मचने लगी थी. वासनायें धधकती
ज्वाला की तरह प्रज्जवलित हो उठी थीं. उसने आगे बढ़कर उसे अपनी बाहों के घेरे में
ले लिया था. मदहोशी के चलते क्या कुछ हुआ, उसे याद नहीं. लेकिन जब वह सोकर उठा तो
बिस्तर खाली था. शायद वह जा चुकी थी.
इसके बाद वह चार-पांच दिन तक दिखाई दी और न ही उसका फ़ोन आया. देवेन्द्र अपनी
ओर से उसे बार फ़ोन लगाकर संपर्क करने की कोशिश करता, लेकिन “आउट आफ़ रेंज” की
ट्युनिंग सुनकर उसे खीज होने लगती. मन में विचार आया कि खुद चलकर उसके फ़्लैट में
जाना चाहिए, लेकिन वह हिम्मत नहीं जुटा पाया था.
एक शाम. फ़ोन की घंटी बजी. उसने यह सोचते हुए लपक कर फ़ोन उठाया कि शायद
मार्ग्रेटा का फ़ोन होना चाहिए. अंदाजा सही निकला. उसने एक ही सांस में न जाने
कितनी ही बातें कह सुनायी. शिकायतें दर्ज कराते हुए अब वह अन्दर से पूरी तरह खाली
हो गया था. उसे अब मार्ग्रेटा के जवाब का इंतजार था.
“ देवेन्द्र.. मुझे नौकरी से टर्मिनेट कर दिया गया है और अल्टिमेटम भी दिया
गया है कि मैं एक सप्ताह के भीतर फ़्लैट खाली कर दूं . अब आप ही बतलायें मैं कहाँ
जाऊँ...क्या इतने कम समय में शहर में दूसरी जगह तलाशी जा सकती है? .फ़िर एक अकेली
लड़की को कोई भी इतनी आसानी से फ़्लैट नहीं देगा...पहले तो तरह-तरह के सवाल पूछे
जाएंगे... कई-कई जानकारियां ली जाएंगी, तगड़ी रकम पगड़ी के रुप में ली जाएगी, तब
कहीं जाकर फ़्लैट मिल पाएगा. आप मेरे दोस्त हैं. ऎसी कठिन परिस्थिति में मुझे आपका
साथ चाहिए. क्या हम एक छत के नीचे रहते हुए अपनी दोस्ती का निर्वहन नहीं कर सकते?
मेरे वहाँ रहते जो भी खर्च आएगा, उसमें मैं आपसे शेयर करुंगी. कुछ दिनों की बात
है, दूसरी नौकरी लगते ही मैं आपका फ़्लैट खाली कर दूंगी. मुझे आपके उत्तर की
बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी.”
प्रत्युत्तर में वह कुछ कह पाता, इसके पहले ही मार्ग्रेटा ने फ़ोन काट दिया था.
अब उसकी बारी थी. उत्तर उसे देना था. हाँ कहे या फ़िर सिरे से इंकार कर दे. वह
गंभीरता से सोचने लगा था. “ उसका वर्तमान तो मैं जानता हूँ कि वह एक रईस बाप की
इकलौती संतान है,. रही भविष्य की बात, तो वह उससे अपना फ़्लैट खाली करने को तो कह
ही सकता है, लेकिन उस स्थिति में क्या होगा जब उसके माता-पिता उससे मिलने न आ
धमके. वे चार-छ महिने के अंतराल में आते हैं. चार-छः दिन रुककर लौट भी जाते हैं.
लेकिन आने से पहले सूचित जरुर करते हैं. यदि ऎसा कुछ हुआ तो उसे किसी होटल में तब तक
रुकने को कहा जा सकता है,. फ़िर वह अपनी ओर से कह भी चुकी है कि दूसरी नौकरी लगते
ही शिफ़्ट हो जाएगी”. यह सोचते हुए उसने मार्ग्रेटा को फ़ोन लगाया और कहा कि जब तक
तुम्हारे रहने के लिए दूसरी व्यवस्था नहीं हो जाती, तब तक वह उसके साथ रह सकती है.
यही तो चाहती थी मार्ग्रेटा. अपने मन की मुराद पूरा होते देख वह चहक उठी थी.
उसने तत्काल अपना सामान पैक किया और आ धमकी. फ़्लैट में दो बेडरूम थे. एक पर उसने
कब्जा जमा लिया था.
मार्ग्रेटा का साथ पाकर खुश था देवेन्द्र. प्रेमालाप में मगन रहते हुए उसका
दिन कैसे बीत जाता, पता ही नहीं चल पाता. हाँ, उसके मन में एक शिकायत जरुर बनी
रहती कि भगवान ने रातों को इतनी छॊटी क्योंकर बनाया होगा?.
एक दिन. किसी काम से वह बाहर गया हुआ था. तभी फ़ोन की घटीं टिनटिना उठी. घंटी
बजती रही थी लगातार, लेकिन मारग्रेटा ने जानबूझकर फ़ोन नहीं उठाया था. वह नहीं
चाहती थी कि किसी को पता चले कि वह धर्मेन्द्र के साथ “लिव-इन-रिलेशन” में रह रही
है. आने वाला फ़ोन धर्मेन्द्र के पिताजी का था. घर से निकलने के पहले वे इतल्ला
नहीं दे पाए थे. सो स्टेशन पर से उन्होंने फ़ोन लगाते हुए सूचित करना जरुरी समझा
था. उन्होंने आटॊ लिया और सीधे चले आए थे.
कालबेल की आवाज सुनकर उसने यह सोचते हुए दरवाजा खोला कि देवेन्द्र लौट आया है.
दरवाजा खुलते ही उसकी नजर एक अपरिचित व्यक्ति पर पड़ी. उसने देखा. धोती-कुर्ता पहने
उस व्यक्ति ने सिर पर टोपी पहन रखी है और आँखों पर चश्मा चढ़ा हुआ है तथा हाथ में
छड़ी उठा रखी है. देखते ही समझ गई कि हो न हो देवेन्द्र के पिताजी ही होने चाहिए.
वह कुछ कह पाती, उन्होंने भारी-भरकम आवाज में पूछा-“ तुम कौन हो और देवेन्द्र कहाँ
है? ऎसा तो नहीं कि उसने फ़्लैट बदल लिया है, कहीं मैं गलत पते पर तो नहीं आ गया
?”.
“ जी नहीं आप सही पते पर आए हैं...आइए...अन्दर तो आइए...कहते हुए वह पीछे हट
ली थी. अपने जूते खटखटाते हुए वे अन्दर चले आए थे और एक कुर्सी पर बैठ गए थे.
बैठते ही उन्होंने पूछा-“ बेटी, तुम कौन हो, पहचान नहीं पाया. इससे पहले तो
तुम्हें यहाँ नहीं देखा?”.
सिट्टिपिट्टी गुम हो गई थी मारग्रेटा की कि क्या जवाब दे. क्या वह यह कहकर
बतलाए कि वह आपके बेटे की लव्हर है...दोस्त है, या यह बतलाए कि वह एक पेईंग-गेस्ट
की तरह यहाँ रह रही है, या कि वह धर्मेन्द्र के साथ लिव-इन-रिलेशन में रह रही है?.
किसी तरह उसने अपनी बिखरी हुई हिम्मत को समेटते हुए कुछ कहना चाहा, लेकिन शब्द गले
में आकर अटक कर रह गए थे. वह एक बुत की तरह नीची गर्दन लिए खड़ी रह गई थी. उसे इस
बात का भी भय मन में समाया हुआ था कि उसे अस्त-व्यस्त कपड़ों मे देखकर न जाने
उन्होंने क्या कुछ नहीं सोचा होगा उसके बारे में.
पिता समझ गए. न समझने जैसी कोई बात ही नहीं थी और न ही जवाब-सवाल करने की
जरुरत थी. उन्होंने दुनियां देखी है. दुनियां की रीति-रिवाजों से परिचित थे और
जानते थे कि निपट गांव से चलकर शहर आया आदमी किस तरह शहरों की चकाचौंध में अपने को
झोंक देता है. शहर उसे कितना अपना बना पाता है, ये तो वे नहीं जानते, लेकिन इतना
अवश्य जानते है कि गाँव से निकला नौजवान एक बार शहर आता है तो दुबारा पलटकर गाँव
नहीं लौटता. गाँवों में बचे रहते है अपाहिज, लंगड़े, लूले, बिमार, लाचार बूढ़े लोग,
जो अपना सर्वस्व लुटा कर, आशा भरी नजरों से अपने बेटॊं की राह तकते हुए अपनी आँखें
गवां देते है, लेकिन वे निष्ठुर कभी नहीं लौटते. उन्होंने अपने बेटे का वर्तमान और
खुद के भविष्य का आकलन कर लिया था और वापिस लौटने का मन बना लिया था.
कुर्सी से उठते हुए उन्होंने कमरे का एक चक्कर लगाया. टेबल पर बिखरी शराब की
बोतलें और ग्लास देखकर उनकी आँखें नम हो आयी थी. बाहर निकलने से पहले वे इतना ही
कह पाये थे कि देवेन्द्र को बतला देना कि उसके पिता आए थे लेकिन किसी जरुरी काम की
वजह से रुक नहीं पाए.
थका-हारा देवेन्द्र घर लौटा. अपनी बुझी हुई आवाज में उसने बतलाया कि पिताजी आए
थे और तत्काल ही वापिस लौट गए. यह सुनते ही देवेन्द्र सन्न रह गया था. धड़कने तेज
होने लगी थी और आँखों के सामने अन्धकार नाचने लगा था. सोचने-समझने की बुद्धि
कुंठित होने लगी थी. काफ़ी देर तक अवसन्न स्थिति में बने रहने के बाद वह कुछ
सामान्य स्थिति में आने लगा था.
वह गंभीरता से सोचने लगा था कि देवता तुल्य उसके पिताजी गाँव से चलकर उससे
मिलने आए थे और बिना कुछ कहे वापिस लौट गए ?. कैसे क्या बीती होगी उनके मन पर ?.
कितना संताप हुआ होगा उन्हें यहाँ आकर? कितना कुछ सोच रखा होगा उन्होंने मेरे बारे
में? न जाने कितने सपने बुने होंगे उन्होंने मुझ को लेकर और मैं हूँ कि उन सपनों
में रंग नहीं भर पाया?. सोचते-सोचते उसकी रुह कांपने लगी थी और आँखों से आँसू
झरझरा कर बह निकले थे.
मिचमिची आँखों को पोंछते हुए उसने एक बोतल निकाली. कार्क खोला. गिलास में
उंडेला और तब तक पीता रहा, जब तक वह नशे में धुत्त नहीं हो गया था. मारग्रेटा ने
उसे अपनी बाहों का सहारा देते हुए किसी तरह बिस्तर तक लाया और सुला दिया.
मन पर लगे आघातों को शराब के सहारे मिटाया जा सका होता तो न जाने कितने ही
गमॊं से सहज ही में छुटकारा पाया जा सकता है, लेकिन होता है इसके उलट है. नशे की
हालत में आदमी और ज्यादा दार्शनिक हो जाता है...खुद स्वयं से बात करने लगता है और
अक्सर बड़बड़ाने लगता है...चीखने-चिल्लाने लगता है और अजीबो-गरीब हरकतें करने लगता
है.
हड़बड़ा कर उठ बैठा धर्मेन्द्र. वह कितनी देर रात तक नशे की हालत में सोता पड़ा
रहा था, उसे याद नहीं. उसने लाईट आन किया. घड़ी की ओर देखा. रात के पांच बज रहे थे.
उसके ठीक बगल में मारग्रेटा चित पड़ी सो रही थी. लालिमायुक्त उसके होंठों पर मधुर
मुस्कान खेल रही थी. शायद वह कोई हसीन सपना देख रही होगी. अस्त-व्यस्त कपड़ों में
से उसका जोबन बाहर तांक-झांक रहा था. वह इस निश्कर्ष पर पहुंच चुका था कि मार्ग्रेटा
से छुटकारा पाना अब इतना आसान नहीं है. वह उसके बगैर एक पल भी नहीं रह सकेगा. रही
पिताजी से बात करने की,तो वह गाँव जाकर उन्हें सब कुछ बतला देगा. पिता उदारमना है,
मान जायेंगे. मानेंगे कैसे नहीं,..एकलौती संतान जो हूँ मैं उनकी.
उसकी उंगलियां मार्ग्रेटा की उलझी हुई लटॊं से खेलने लगी थी. देर तक लटॊं से
खेलते रहने के बाद अब उसकी हथेली उसकी संगमरमरी देह पर फ़िसलने लगी थी.
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------
2.
ये रात फ़िर
न आएगी.
(लोक-कथा
पर आधारित- रोचक ढंग में)
शरद
पुर्णिमा का दिन था. चांद अपने पूरे यौवन के साथ आकाश पटल पर चमचमा रहा था. मौसम
बड़ा सुहाना हो गया था. रात के बारह बजे सारा जंगल आराम से सो रहा था. चारों ओर
शांति का साम्राज्य था. पॆड़ की एक डाल पर बन्दर और बन्दरिया बैठे जाग रहे थे और
दूसरी डाल पर तोता और मैना बैठे हुए थे. यह वह समय था जब पशु-पक्षी एक दूसरे की
भाषा समझते थे.
तोता
बोला:-“मैना, रात नहीं कट रही है.
कोई ऎसी बात सुनाओ कि वक्त भी कट जाए और मनोरंजन भी हो.” मैना मुस्कुराई और बोली:-“ क्या कहूँ आप बीती या जगबीती. आप बीती में भेद खुलते हैं
और जगबीती में भेद मिलते हैं”. तोता होशियार था, बोला-“ तुम तो जगबीती सुनाओ”. मैना ने कहा:-“ आज की रात एक चमत्कारी रात
है. आज ही के दिन चन्द्रमा से अमृत बरसेगा. अमृत की कुछ बूंदे कमलताल में भी
गिरेगी, जिससे इसका पानी चमत्कारी गुणॊं से युक्त हो जाएगा. यदि कोई प्राणी आधी
रात को इस कमलताल में कूद जाए तो आदमी बन जाएगा.”. तोता बोला- “:क्या सचमुच
में ऎसा हो सकता है”. मैना ने कहा :”जो प्रेम करते हैं, वे सवाल नहीं पूछते, भरोसा करते
हैं”.तोते ने मैना से कहा “ तो फ़िर देर किस बात की. चलो
हम दोनो तालाब में कूद पड़ते हैं और आदमी बन जाते हैं”. मैना ने कहा,” अरे तोता, हम पंछी ही भले.
अभी तू आदमी के फ़ेर में नहीं पड़ा है, इसलिए चहक रहा है. हम अपनी ही जात में बहुत
खुश हैं.”
तोता-मैना
की बातें बन्दर और बन्दरिया ने सुनी तो चौंक पड़े. अधीर होकर बन्दरिया ने बन्दर से
कहा -“ साथी आओ..कूद पड़ें.” बन्दर ने अंगड़ाई लेते हुए
कहा- “अरे छॊड़ रे सखी, हम ऎसे ही
खुश हैं. एक डाल से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर छलांग मारते रहते हैं. पेड़ों पर
लगे मीठे-मीठे फ़ल खाकर अपना गुजर-बसर करते हैं. न घर बनाने की झंझट और न ही किसी
बात की चिन्ता. हमें क्या दुख है. अपने दिमाक से आदमी बनने का ख्याल निकाल दे”. बन्दरिया आह भर कर बोली-“ ये जीवन भी कोई जीवन है?
मैं तो तंग आ गई हूँ इस जीवन से. मुझे यह सब करना अच्छा नहीं लगता. आदमी की योनि
में जन्म लेकर मैं दुनियां के सारे सुख उठाना चाहती हूँ . देखो, मैंने अपना मन बना
लिया है और मैं अब तालाब में कूदने जा रही हूँ. यदि तुम मुझसे सच्चा प्यार करते हो
तो मेरा साथ देना होगा. मैना की बताई घड़ी
बीतने वाली है, सोच क्या रहे हो, आओ पकड़ो मेरा हाथ और कूद पड़ो ”. बन्दरिया की बात सुनकर
बन्दर हिचकिचाने लगा. बोला-“ तुम भी मैना की बातों में आ गयी. पानी में तो कूद
पड़ेगे, लेकिन किसी जहरीले सांप ने काट लिया तो मुफ़्त में जान चली जाएगी”. बन्दरिया समझ गयी कि बन्दर
साथ न देगा. घड़ी बीतने ही वाली थी. बन्दरिया चमत्कार देखने के लिए उत्सुक थी, झम्म
से कमलताल में कूद पडी. आश्चर्य, बन्दरिया की जगह वह सोलह साल की युवती बन गई थी.
उसके रुप से चांदनी रात जगमगा उठी. डाल पर बैठे
बन्दर ने जब उसका अद्भुत रूप देखा तो पागल हो उठा. उसने तत्काल फ़ैसला लिया कि वह
भी कमलताल में कूदकर आदमी बन जाएगा. उसने डाल से छलांग लगाया और तालाब में कूद
पड़ा, लेकिन वह शुभ घड़ी कभी की बीत चुकी थी. वह बन्दर का बन्दर ही बना रहा.
दिन निकला. थर-थर कांपती
युवती, सूरज की गुनगुनी धूप में अपना बदन गर्माने लगी थी. तभी संयोग से एक राजकुमार
उधर से आ निकला. उसने उस रुपवती युवती को देखा तो बस देखता ही रह गया. उसने अपने
जीवन में इतनी खूबसूरत युवती इसके पहले कभी नहीं देखा थी. देर तक अपलक देखते रहने
के बाद, वह उसके पास पहुँचा और अपना उत्तरीय उतारकर उसके कंधो पर डाल दिया. फ़िर
अपना परिचय देते हुए कहा – “-हे सुमुखी...सुलोचनी..मैं इस राज्य का राजकुमार हूँ
और शिकार खेलने के लिए इस जंगल में आया हूँ. इससे पहले मैंने तुम्हें यहाँ कभी
नहीं देखा. तुम्हें देखकर यह नहीं लगता की तुम इस लोक की वासी हो. हे ! त्रिलोक
सुन्दरी बतलाओ, तुम किस लोक से इस धरती पर अवतरित हुई हो और तुम्हारा क्या नाम है ?”.
एक
अजनबी और बांके युवक को सामने पाकर वह शर्म से छुईमुई सी हुई जा रही थी. शरीर में
रोमांच हो आया था. सोचने –समझने की बुद्धि कुंठित सी हो गई थी. वह यह तय नहीं कर
पा रही थी कि प्रत्युत्तर में क्या कहे.? क्या उसे यह बतलाए कि कुछ समय पूर्व तक
वह बन्दरिया थी और अर्धरात्रि में इस कमलताल में कूदने के बाद, एक सुन्दर-सुगढ युवती बन गई है? देर तक नजरें नीचे झुकाए वह
मौन ओढ़े खड़ी रही.
राजकुमार
ने मौन को तोड़ते हुए कहा:-“ मैं भी कितना मुर्ख हूँ, जो ऎसे-वैसे सवाल पूछ बैठा.
मुझे यह सब नहीं पूछना चाहिए था. देवी माफ़ करें. मेरी एक छॊटी सी विनती है, उसे
सुन लीजिए. तुम्हारी यह कमनीय काया जंगल में रहने योग्य नहीं है. तुम्हारे ये
नाजुक पैर उबड़-खाबड़ और कठोर धरती पर रखने लायक नहीं है. फ़िर जंगल के हिंसक पशु
तुम्हें देखते ही चट कर जाएंगे. मैं नहीं चाहता कि तुम उनका शिकार बनो. तुम्हें तो
किसी राजमहल में रहना चाहिए. तुम कब तक इस बियाबान जंगल में यहाँ-वहाँ भटकती
रहोगी. मेरा कहा मानो और मेरे साथ राजमहल में चली चलो. मैं दुनिया के सारे वैभव,
सुख-सुविधाएँ तुम्हारे कदमों में बिछा दूँगा. तुम्हें अपनी रानी बनाकर रखूँगा. पूरे राजमहल में तुम्हारा ही
हुक्म चलेगा. देर न करो और चली चलो मेरे साथ”.
“शायद सच कह रहे हैं राजकुमार, अब यह कमनीय काया जंगल में रहने
लायक नहीं रह गई है. उसे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अब वह बन्दरिया नहीं, एक नारी
बन गई है और एक नारी को अपना तन ढकने के लिए कपडॆ चाहिए, फ़िर तन सजाने के लिए
आभूषण चाहिए. अब वह पॆड पर नहीं रह सकती. उसे रहने को घर चाहिए और भी वह सब कुछ
चाहिए,जिसकी सुखद कल्पना एक नारी करती है. यह ठीक है कि उसका मन अब भी अपने प्रिय
में रम रहा है, लेकिन वह उसकी आवश्यक्ताऒं की पूर्ति नहीं कर सकता. उसे तो अब
चुपचाप राजकुमार का कहा मानकर उसके साथ हो लेना चाहिए इसी में उसकी भलाई है”. यह सोचते हुए उसने
राजकुमार के साथ चलने की हामी भर दी थी. घोडॆ पर सवार होने के पहले उसने अपने
प्रिय को अश्रुपुरित नेत्रों से देखा और हाथ हिलाकर बिदा मांगी.
बन्दर
ने देखा कि उसकी प्राणप्रिया राजकुमार के साथ जा रही है, तो उसने उन दोनो का पीछा
किया. कहाँ घोडॆ की रफ़तार और कहाँ बन्दर की दुड़की चाल. भागता भी तो बेचारा कितना
भागता.? दम फ़ूलने लगा था. आँखों के सामने अन्धकार नाचने लगा और अब मुँह से फ़ेस भी
गिरने लगा था आखिरकार वह बेहोश होकर गिर पड़ा.
संयोग
से उधर से एक महात्मा निकल रहे थे. वे त्रिकालदर्शी थे. बन्दर को देखते ही सारा
माजरा समझ गए. उन्होंने अपने कमण्डल से पानी लेकर उसके मुँह पर छींटॆ मारे. बन्दर
को होश आ गया. होश में आते ही बन्दर फ़बक कर रो पड़ा और उसने महात्माजी से अपना
दुखड़ा कह सुनाया. महात्मा ने उसे धीरज बधांते हुए कहा कि तुम्हें अपने साथी पर
भरोसा करना चाहिए था. यदि तुम भरोसा करते तो ये दिन न देखने पड़ते. खैर जो होना था,
सो हो चुका. अब तुम किसी मदारी के साथ हो लो. कुछ दिन बाद तुम्हें तुम्हारी
प्रियतमा मिल जाएगी.
संयोग
से उधर से एक मदारी आ निकला. उसने बन्दर को पकड़ लिया. अब वह गाँव-गाँव, शहर-शहर
करतबें दिखलाता घूमने लगा. एक दिन वह उस राज्य में जा पहुँचा. नियमानुसार उसे
राजमहल जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करना था. रस्सी से बंधे अपने प्रेमी को देखते ही
वह खुशी से उछल पड़ी. उसने मदारी को पास बुलाया और मुँहमांगी कीमत देकर खरीद लिया.
अब वह दिन भर उसके साथ बना रहता. वह जहाँ-भी जाती, उसे अपने साथ ले जाती. रसीले
मीठे-मीठे फ़ल खिलाती. खूब बतियाती. उसे खिला-खिला देखकर राजकुमार की आशा बलवती
होने लगी थी कि साल बीतते ही वह उसके साथ शादी रचा लेगी. देखते ही देखते पूरा साल
कब बीत गया किसी को पता ही नहीं चल पाया.
पूनम
की वह अनोखी रात का दिन भी आ गया. चांद अपने पूरे यौवन के साथ आकाश पटल पर चमचमा
रहा था. उस समय कमलिनी अपने प्रेमी बन्दर के साथ अटारी पर बैठी हुई थी. दोनो
प्रेमी गले में हाथ डाले उस अद्भुत रात का आनन्द उठा रहे थे. संयोग से तोता-मैना
कहीं से उड़ते हुए आए और राजमहल की अटारी पर बैठ गए. तोते ने मैना से कहा:- “कितनी
सुहानी रात है. ऎसी रात में भला किसे नींद आती है. तुम कोई ऎसी बात सुनाओ, जिससे
समय भी कट जाए और मनोरंजन भी हो”.. मैना बोली:-“ आप सुनाऊँ या जगबीती. आप
सुनाने में भेद खुलते है और जगबीती सुनाने में भेद मिलते है” तोता होशियार था बोला:- “तुम तो जगबीती ही सुनाओ”.
मैना
बोली:-“ तुम्हें याद है अथवा नहीं,
यह तो मैं नहीं जानती. बात पिछले साल की है. ऎसी ही चमत्कारी रात थी. उस दिन एक
पेड़ की डाल पर बन्दर और बन्दरिया जाग रहे थे. मनुष्य़ तन पाने के लिए बन्दरिया पानी
में कूद पड़ी और देखते ही देखते एक सुन्दर युवती में बदल गयी. बन्दर ने जब यह
चमत्कार देखा तो वह भी पानी में कूद पड़ा था,लेकिन वह अद्भुत घड़ी बीत चुकी थी. वह
बन्दर का बन्दर ही बना रहा. संयोग से युवती बनी बन्दरिया को उसका पुराना प्रेमी
मिल तो गया है लेकिन अलग-अलग योनियों में जन्म लेने से उनका मिलन संभव नहीं हो
सका. आज की रात भी अद्भुत रात है. ऎसी अनोखी रात फ़िर कभी नहीं आएगी. यदि
कोई आधी रात के समय कमलताल में कूद पड़े, तो मनचाही योनि प्राप्त कर सकते हैं.” इतना कहकर दोनों उड़ गए.
तोता
और मैना की बातें सुनकर बन्दर बहुत खुश हुआ. उसका अपना मनोरथ शीघ्र ही पूरा होगा,
यह सोचकर वह खुशी के मारे वह उछल-उछलकर नाचने लगा. उसे उछलता-कूदता देख कमलिनी को
बेहद आश्चर्य हो रहा था. उसने पूछा कि आखिर क्या बात है जो इतना उछल-कूद कर रहे
हो. बन्दर ने चहकते हुए कहा:- “सुना तुमने, मैना क्या कह रही थी”.
“क्या कह रही थी मैं भी तो सुनूं?” कमलिनी ने पूछा.
´” कह रही थी कि यदि कोई इस कमलताल में
कूद पड़े तो मन चाही योनि प्राप्त कर सकता है. मैं चाहता हूँ कि तुम कमलताल में कूद
पड़ो और फ़िर से बन्दरिया बन जाओ. इस तरह हमारा फ़िर से मिलन हो सकता है.” बन्दर ने अति उत्साहित होते हुए कहा.
उसकी
बात सुनते ही वह खिलखिलाकर हंस पड़ी और तब तक हंसती रही थी, जब तक बेदम नहीं हो
गयी. बन्दर समझ नहीं पा रहा था कि उसके हंसने के पीछे क्या कारण हो सकता है. उसने
अधीर होकर उसका कारण जानना चाहा.
“तुम्हारी बेवकूफ़ी भरी बातों को सुनकर
केवल हंसा ही जा सकता है और मैंने वही किया है. सच कहा है किसी ने कि बन्दर बेवकूफ़
होते हैं. उनमें अकल केवल इतनी सी होती है...इतनी सी. उसने अपनी तर्जनी के पोर पर
अपना अंगूठा रखते हुए कहा था. तुम मुझे सलाह देने वाले कौन होते हो कि मैं कमलताल
में जाकर कूद जाऊँ और बन्दरिया बन जाऊँ और पेट की भट्टी की आग को बुझाने के लिए तुम्हारे
साथ जंगल-दर-जंगल भटकती रहूँ. आज मेरे पास
क्या नहीं है. धन है, दौलत है, राजमहल है, नौकर-चाकर हैं और इससे भी बढ़कर
मुझ पर अपनी जान छिड़कने वाला वाला राजकुमार है, जो आज नही तो कल इस राज्य का राजा
बन जाएगा और मैं महारानी. अरे
बुद्धु....मानव तन बड़ी मुश्किल से मिलता है. मैं इतनी बेवकूफ़ नहीं कि तुम्हारे
खातिर, फ़िर उसी योनि में चली जाऊँ.? जरा ठंडॆ दिमाक से सोचो, तुम और मैं साथ तो
है, भले ही तुम बन्दर की योनि में हो, इससे क्या फ़र्क पड़ता है अतः मेरी मानो मेरे
साथ बने रहो, अच्छा खाओ-पियो और ऎश करो और एक कोने में पड़े रहो.” कमलिनी ने कहा.
कमलिनी
की बातें सुनकर उसका माथा चकराने लगा . उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि वह इस
तरह से उसके प्यार को ठुकरा देगी. उसे गुस्सा भी बहुत आ रहा था, लेकिन वह जानता था
कि गुस्सा करने से विवेक बोथरा हो जाता है और फ़िर बनता काम भी नहीं बन पाता. यह सच
है कि वह अब भी उससे उतना ही प्यार करता है, जितना की वह पहले भी करता आया था और
हर हाल में उसका साथ छोड़ना नहीं चाहता था. वह तो अपने खोए हुए प्यार को पुनः
प्राप्त करना चाहता है. अब उसका दिमाक काफ़ी तेजी के साथ उस ओर सोचने पर मजबूर हो
गया था,जिससे वह कमलिनी को पा सकता है.
काफ़ी
सोचने और विचार करने के बाद उसके दिमाक
में एक योजना आयी, जिसके बल पर वह सफ़ल हो सकता था.
वह
राजकुमार के पास जा पहुँचा और निवेदन करते हुए कहने लगा:-“राजकुमारजी, मैं जानता हूँ
कि आप कमलिनी से बेहद प्यार करते हैं और उससे शादी भी करना चाहते हैं. वह भी कुछ
ऎसा ही चाहती है, लेकिन उसे आपकी यह सूरत अच्छी नहीं लगती, इसलिए उसने आपसे एक साल
बाद विवाह करने की बात कह कर, आपके प्रस्ताव को टाल दिया था. मैं एक ऎसा उपाय
जानता हूँ, जिससे आप अपना चेहरा सुन्दर बना सकते हैं.” इतना कहकर वह चुप हो गया था
और इस बात का इंतजार करने लगा था कि उसकी बातॊं ने राजकुमार पर कितना असर डाला है.
राजकुमार
को लगा कि बन्दर शायद ठीक ही कह रहा है. उसने अधीर होकर बन्दर से उस उपाय के बारे
में विस्तार से जानना चाहा. बन्दर ने एक सांस में सारी योजना कह सुनाई.
दोनो
मध्य रात्रि में पहाड की उस चोटी पर जा पहुँचे ,जहाँ से उन्हे कमलताल में छलांग
लगानी थी. अब बन्दर ने राजकुमार से कहा:-“ आप अपनी आँखें बंद कर लीजिए और हाथ
जोडकर प्रार्थना करते हुए उन वाक्यों को दुहराते जाएं जैसा कि मैं कहता जाऊँ”.
राजकुमार ने अपनी आँखें बंद कर ली और प्रार्थना
की मुद्रा में अपने हाथ जोड लिए. बन्दर ने कहना शुरु किया:-“ हे प्रभु ! आपने नारद मुनि
को हरि का रुप दिया था, कृपया वही रुप मुझे देने की कृपा करें”.बन्दर के कहे वाक्यों को
दुहराते हुए राजकुमार ने ताल में छलांग लगा दिया. अब बन्दर की बारी थी. उसने
कमलताल में कूदने से पहले कहा कि वह
राजकुमार बनना चाहता है, कहकर कूद पड़ा. आश्चर्य राजकुमार बन्दर बन गया था और वह
राजकुमार.
राजकुमार
ने जब अपना बदला रुप देखा तो फ़ूट-फ़ूटकर रोने लगा. बन्दर से राजकुमार बने युवक ने
कहा:-“ अब रोने धोने से कुछ होने
वाला नहीं है. आपने जो रुप मांगा था, वह आपको मिल गया है. अब केवल एक ही उपाय शेष
है कि या तो आप मेरे साथ राजमहल चला चलें अथवा जंगल की ओर निकल जाएं.
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
3.
अजनबी.
दुनिया का सबसे
जटिल और उबाऊ यदि कोई काम हो सकता है, तो वह है किसी का इन्तजार करना. इन्तजार
करता आदमी ठीक उस सुप्त ज्वालामुखी की तरह होता है जिसके अन्दर विचारों का लावा धधकता
रहता है, तरह-तरह की तरंगे-लहरें उठती रहती हैं और जब सहनशीलता की सारी हदें पार
हो जाती है तो अचानक फ़ट पड़ता है.
इन दिनों
अमरकांत के मन के अन्दर इन्तजार का एक ज्वालामुखी अन्दर ही अन्दर सुलग रहा था. वह
हैरान और परेशान है कि सुनीता अब तक क्यों नहीं लौटी, जबकि उसे आज दस बजे घर पहुँच
जाना चाहिए था. इस समय दिन के ग्यारह बज रहे हैं. इन्तजार करते-करते उसकी आँखें
पथराने लगी और मन के आंगन में शंका और कुशंकाओं के जहरीले नाग, फ़न उठाए बिलबिलाने
लगे थे. जाने से पूर्व उसने कहा भी था कि एस.एम.टी. की बस से रवाना होगी, जो ठीक
पौने दस बजे यहाँ पहुँच जाती है. कहीं ऎसा तो नहीं कि बस कैंसिल हो गई या फ़िर उसका
टायर पंकचर हो गया. कुछ तो हुआ है, अन्यथा अब तक उसे आ ही जाना चाहिए था. अधीर
होकर उसने फ़ोन घुमाया. वह जानना चाहता था कि उसे आने में विलम्ब क्यों हो रहा है
अथवा उसका अभी लौट आने का मन नहीं हो रहा है?. फ़ोन की घंटी बज रही थी लगातार. फ़िर
फ़ोन पर एक आवाज उभरती है “सब्सक्राइबर इज नॉट आन्सरिंग”. उसे आश्चर्य हुआ कि आखिर
वह फ़ोन क्यों नहीं उठा रही है. फ़ोन रिचार्ज होने लिए स्वीचबोर्ड पर टंगा है या फ़िर
संभव है कि फ़ोन उसकी पहुँच के बाहर है,या फ़िर वह अपना पर्स ले जाना भूल गई? शायद
इसलिए वह फ़ोन अटैण्ड नहीं कर पा रही होगी. उसने फ़िर से नम्बर मिलाया और इन्तजार
करने लगा. इस बार भी वही रटा-रटाया जवाब सुनने को मिला. उसकी खीज बढ़ती जा रही थी.
उसने अधीर होकर एस.एम.टी के संचालक संतु को फ़ोन लगाया और बस की लोकेशन जानना चाहा
कि बस आई भी अथवा नहीं. फ़ोन पर एक स्वर गूंजा- “भाईसाहब..बस तो अपने निर्धारित समय
पर कभी की आ चुकी. क्या कोई आने वाला था उससे?”. “हाँ भाई हाँ.. मेरी पत्नि आने
वाली थी और वह अब तक घर नहीं पहुँची है, बस उसी का इन्तजार कर रहा था”. “हो सकता है
कि भाभीजी को बस-स्टैण्ड में आने में देर हो गई हो और बस जा चुकी हो. ( उसने समझाते
हुए कहा) हर पन्द्रह मिनट पर एक बस यहाँ के लिए रवाना होती है, हो सकता है कि वे
किसी दूसरी बस से रवाना हो चुकी हों. और थोड़ा इन्तजार कर लीजिए”. एक सांत्वना देने
वाला स्वर गूंजा था उस तरफ़ से.
तभी उसने महसूस
किया कि उसके अन्दर बैठा एक अजनबी आदमी उछ्लकर उसके सामने वाली कुर्सी में आकर धंस
गया है. अमरकांत इस समय कपड़े बदलकर जुराब पहनने के लिए झुका हुआ था. उसे सामने
देखकर उसने पूछा- “तुम यहाँ कैसे घुस आए, जबकि दरवाजा अन्दर से बंद है? आखिर तुम
हो कौन, क्या नाम है तुम्हारा, कहाँ रहते हो और क्या चाहते हो मुझसे?. उसने एक
साँस में कई प्रश्न उछाल दिए थे.
“आश्चर्य....घोर
आश्चर्य...(हंसते हुए) तुम मुझे नहीं जानते. मैं तुम्हारे ही भीतर रहता हूँ..दूसरा
आदमी. फ़िर पूछॊगे....दूसरा कौन?. मैं समझता हूँ- जरा ध्यान से सुनना-“ ईश्वर ने
हमें दो मस्तिस्क दिए हैं, दो आँखे दी है, नाक में दो नथुने दिए है, दो फ़ेफ़ड़े दिए
हैं, दो हाथ दिए है, पेट भी दो है और पैर भी दो दिए हैं. ठीक इसी तरह हर आदमी के
भीतर एक आदमी और हर औरत के भीतर एक औरत रहती है. अब तुम मुझे अजनबी समझ लो
या फ़िर दूसरा आदमी. जब कोई आदमी हलाकान-परेशान रहता है, जब उसे कुछ भी सुझाई
नहीं देता, ठीक उस समय वह अपने अन्दर के आदमी से सलाह-मश्विरा करता है, फ़िर किसी
निष्कर्ष पर पहुँचता है. मैं वहीं अन्दर का आदमी हूँ.” उसने कहा.
अमरकांत की
इच्छा हुई कि उसका टेंटुआ पकड़कर दबा दे ताकि हमेशा-हमेशा के लिए छुटकारा पा जाए
क्योंकि वह किसी कुशल जासूस की तरह पिछले कुछ दिनों से उसका पीछा करता आ रहा है और
उसकी हर छॊटी-बड़ी बातों और हरकतों को जान जाता है. अपने गुस्से पर नियंत्रण करते
हुए उसने अहिस्ता से कहा—“-बंद करो अपनी बकवास और यहाँ से उड़न-छू हो जाओ. वैसे ही
मुझे आफ़िस जाने में विलंब हो रहा है. मेरे पास बिल्कुल भी समय नहीं है कि मैं
तुम्हारी बकवास सुनता रहूँ... समझे तुम”. इतना कहकर उसने ताला जड़ दिया. ऎसा करते
हुए उसे प्रसन्नता हो रही थी कि उसने उसे भीतर बंद कर दिया है.
बाहर निकलकर
उसने अपनी मोटरसाइकिल निकाली. इस समय घड़ी में दिन के साढ़े ग्यारह बज चुके थे, जबकि
उसका आफ़िस ग्यारह बजे से शुरू होता है. उसने जेब से मोबाईल निकाला और तत्काल आफ़िस
मैनेजर को फ़ोन लगाते कहा कि किसी आवश्यक कार्य के चलते उसे आफ़िस आने में विलंब हो
गया है. वह ठीक बारह बजे से पहले आफ़िस पहुँच जाएगा और आधे दिन की कैजुअल-लीव के
लिए आवेदन दे देगा.
उसकी
मोटरसाइकिल आफ़िस की ओर बढ़ रही थी लगातार. तभी उसने महसूस किया कि वही अजनबी, लगभग
हवा मे तैरता हुआ उसके साथ चला आ रहा है. उसे देखकर उसका माथा ठनका. वह सोचने पर
मजबूर हो गया कि जिसे मैंने ताले में बंद कर दिया था, बाहर कैसे निकल आया?. वह कुछ
और सोच पाता कि उस अजनबी ने कहा-“ दोस्त..बुरा मान गए?. इसमें बुरा मानने जैसी कोई
बात ही नहीं थी. मैं अब भी कह रहा हूँ कि इन्तजार-विन्तजार छॊड़ॊ. वह नहीं आने
वाली. मैं तुमसे कब से आगाह कर रहा हूँ कि औरत जात पर विश्वास करना नीरी बेवकूफ़ी
है. पिछली बार भी तो ऎसा ही हुआ था और इस बार भी वही हो रहा है., लेकिन तुम हो कि
उसे सती सावित्री समझे बैठे हो.”
वह सरासर उसकी
बीबी पर लांछन मढ़ रहा था. सुनते ही उसके क्रोध का पारा चढ़ने लगा था. अब वह गुस्से
में फ़ट पड़ा था. उसने लगभग चीखते हुए कहा- “बंद करो अपनी बकवास...तुम कौन होते हो
मेरी बीबी पर लांछन मढ़ने वाले?.
“ फ़िर तुम
नाराज हो गए. क्या सच्ची बात कहना बुरा है? फ़िर एक हमदर्द झूठ का सहारा भला क्यों
कर लेगा?. वह कहकर गई थी कि तीन दिन बाद लौट आएगी..फ़िर क्यों नहीं लौटी? तुम बार-बार
फ़ोन लगा रहे हो और फ़ोन का हमेशा स्वीच ऑफ़ रहना, क्या इस बात का संकेत नहीं है कि
उसे तुम्हारी कोई फ़िक्र नहीं है. फ़िक्र यदि रही होती तो फ़ोन लगाती, बतियाती और
अपने न आने का कारण भी बतलाती. न तो उसने तुम्हारा फ़ोन उठाया और न ही पलट कर फ़ोन
लगाया. शायद तुम नहीं जानते, वह अपने समय की ब्युटीक्यून रही है. कालेज का हर लड़का
उस पर अपनी जान छिड़कता था. नाटकों का उसे बड़ा शौक था. हर कोई उसका हीरो बनना चाहता
था. मतलब एकदम साफ़ है. उसे अपनी नाटक कम्पनी मिल गयी होगी और वह अपने किसी लवर की
बाहों में महारानी बनी झूल रही होगी तभी तो......”
“मैंने कहा न
! अपनी बकवास बंद करो और मेरा पीछा छोड़ॊ.”
“ठीक है, जैसी
तुम्हारी मर्जी. मेरा काम तो तुम्हें आगह करने का था, सो मैंने कर दिया. अच्छा तो
अब मैं तुमसे बिदा लेता हूँ”. कहकर वह अदृष्य हो गया.
आफ़िस पहुँचकर
उसने टेबल की ड्राज से कोरा कागज निकाला. दरखास्त लिखा और चेंबर में घुसते हुए
उसने आफ़िस मैनेजर को दिया और अपनी सीट पर आकर जम गया.
अजनबी के
द्वारा लगाए गए लाछंनो से उसका दिल छलनी-छलनी हो गया था. बार-बार उसकी नजरों के
सामने सुनीता किसी अपराधी की तरह आकर खड़ी हो जाती. उसकी डबडबाई आँखें देखकर साफ़
जाहिर होता है कि वह अपराधी नहीं है. संभव है कि उसकी फ़ेमिली में कोई बीमार पड़ गया
हो, यह भी तो संभव है कि वह खुद बीमार पड़ गई हो. यह भी संभव है कि उसका फ़ोन चोरी
चला गया हो. निश्चित ही कोई न कोई कारण अवश्य रहा होगा, जिसकी वजह से वह अपने आने
अथवा न आने के कारण नहीं बतला पाई. तरह-तरह के विचार उसे उद्वेलित कर जाते. उसे इस
बात का तनिक भी ध्यान नहीं रहा कि इस समय वह आफ़िस में बैठा है और उसे अपना काम
निपटाना चाहिए.
मैनेजर ने
प्यून भेजते हुए उसे तत्काल कैबिन में हाजिर होने की सूचना भिजवाई. “अभी आता हूँ”
कहकर वह अपनी कुर्सी में बुत बना बैठा रहा. प्यून दो बार बुलाने आया, लेकिन वह
अपनी सीट से उठा तक नहीं. उसे ध्यान ही नहीं रहा कि साहबजी का बुलावा आया है. उसे
आता न देख मैनेजर खुद उसके चेंबर में जा पहुँचा. वह अपने ही बनाए हुए चक्रव्यूह
में इतना अधिक उलझा हुआ था कि उसे पता ही नहीं चल पाया कि मैनेजर साहब ठीक उसके
सामने वाली कुर्सी पर विराजमान है.
“क्यों, क्या
बात है मिस्टर अमरनाथ ! जब काम करना ही नहीं था तो आफ़िस क्यों चले आए ?.
शकल-सूरत देखकर तो लगता है तुम आज मैंटली डिसटर्ब हो. घर जाओ और किसी डाक्टर से
चेकअप करवाओ. जब तक तुम ठीक नहीं हो जाते, तुम्हें आफ़िस आने की जरुरत नहीं...समझे”
डांटते हुए मैनेजर उसके केबिन से बाहर निकल गया.
दरअसल उसका मन
किसी काम से जुड़ नहीं पा रहा था. उसने जेब से सिगरेट के पैकेट में से सिगरेट
निकाली और माचिस चमकाते हुए उसे सुलगाया. गहरे कश खिंचते हुए उसे कुछ राहत सी
महसूस होने लगी थी. यह उसकी पांचवीं सिगरेट थी. अब तक वह चार सिगरेट फ़ूंक चुका था.
किसी तरह समय पास करते हुए वह पांच बजने का इन्तजार करने लगा. पांच बजते ही उसने
अपना केबिन छोड़ा. मोटरसाईकिल निकाली और घर की ओर चल पड़ा.
रास्ता चलते
हुए उसने अपनी रिस्टवाच पर नजर डाली. शाम के छः बजे थे. अभी से घर जाकर क्या करेगा
? इस सोच के चलते उसने अपनी मोटरसाईकिल का रुख पार्क की ओर मोड़ दिया. गाड़ी एक
ओर पार्क करते हुए वह भीतर जाकर एक बेंच
पर बैठ गया. अभी पार्क में ज्यादा भीड़-भाड़ नहीं थी. इक्का-दुक्का बच्चे घिसर-पट्टी
पर खेल रहे थे. चारों तरफ़ हरियाली छाई हुई थी. रंग-बिरंगे फ़ूल खिले हुए थे, जिन पर
तितलियाँ मंडरा रही थी. शीतल हवा बह निकली थी. यहाँ आकर उसे कुछ राहत सी महसूस
हुई, बावजूद इसके, अफ़सर की डाँट का असर अब तक उस पर तारी था. मन अब भी कसेला था.
देर तक बैठे
रहने के बाद उसने अपने घर की तरफ़ रुख किया. ताला खोला. घर में प्रवेश किया. अन्दर
अन्धकार का साम्राज्य छाया हुआ था. उसने लाईट आन किया. पल भर में चारों तरफ़ रोशनी
फ़ैल गयी. जूतों को एक ओर उतारते हुए वह सीधे ड्राईंग रुम में जाकर कुर्सी में धंस
गया. देखता क्या है कि वही अजनबी आदमी, सामने वाली कुर्सी मे बैठा हुआ उसे घूरते
हुए मुस्कुरा रहा था. उसे देखते ही वह बमक उठा- “ तुम यहाँ..बंद घर में, आखिर तुम
घुसे कैसे..निकलो...निकलो...इसी समय तुम घर के बाहर निकल जाओ...जीना हराम कर रखा
है तुमने मेरा..नहीं निकले तो मैं तुम्हारा गला घोंट दूगां..जान से मार डालूंगा...
समझे”. देखते ही वह लगभग फ़ट सा पड़ा था और वह बेशर्म अब भी मुस्कुरा रहा था.
“ तुममें इतनी
हिम्मत है तो मार डालो मुझे... मैं देखता हूँ तुम अपने ही वजूद को कैसे मार सकते
हो...लो मैं सामने खड़ा होता हूँ...घोंट दो तुम मेरा गला और मार डालो मुझे.....लेकिन
एक बात याद रखना...मैं मर जाऊँगा लेकिन झूठ नहीं बोलूंगा. मेरी बात अब भी मान लो,
वह नहीं आने वाली.. नहीं आने वाली. तुम्हारी जरा सी भी फ़िक्र होती तो अब तक आ गई
होती....(कुछ देर बाद). क्यों...गला घोंट देने के लिए तुम्हारे हाथ उठ क्यों नहीं
रहे हैं जबकि मैं ठीक तुम्हारे सामने खड़ा हूँ...मैं जानता हूँ तुममे इतनी हिम्मत
ही नहीं है कि तुम मेरा गला घोंट दो..अरे..जिसने अब तक एक चींटी भी नहीं मारी, वह भला
किसी इनसान को कैसे मार सकता है.?...बुजदिल कहीं के...चलता हूँ सुबह फ़िर मिलूंगा”
इतना कहकर वह घर के बाहर निकल गया था.
उस आदमी के चले
जाने के बाद उसने राहत की सांस ली.
दिन भर की
माथपच्ची के चलते उसका मिजाज अब तक गर्माया हुआ था. सिर में भारीपन अब तक तारी था.
उसने अपने कपड़ॆ उतारे. बाथरूम में जाकर शावर के नीचे जा खड़ा हुआ. शावर आन किया,
शावर से शरीर पर पड़ने वाली शीतल बूंदें उसे अच्छी लग रही थी. देर तक उसके नीचे खड़े
रहने के बाद अब वह तरोताजा महसूस करने लगा था.
नहाने के बाद
उसे भूख लग आयी थी. आफ़िस जाने के पहले उसने सुनीता की मनपसंद शिमलामिर्च की भरवां
सब्जी, चार परत वाले पराठें, फ़्राई चांवल, दही और पापड आदि तल कर रखे थे. उसे
पक्का यकीन था कि वह दस बजे तक घर आ जाएगी, सो साथ बैठकर खाना खाएंगे. इन्तजार
करते-करते ग्यारह बज चुके थे और उसके आफ़िस का टाईम भी हो चला था. भूख लगभग समाप्त
हो गई थी और वह सीधे आफ़िस चला गया था. सुबह का बनाया हुआ भोजन ठंडा पड़ चुका था.
स्टोव्ह में उसने खाना गरम किया. खाने बैठा तो खाया नहीं गया. “परसी हुई थाली का
अनादर नहीं करना चाहिए”, उसे मां के शब्द याद आ गए. भारी मन से उसने किसी तरह दो
पराठें हलक के नीचे उतारे और हाथ धो लिए.
खाना खाकर वह
बिस्तर पर आकर पसर गया. बिस्तर पर आते ही सुनीता के साथ बिताए गए एक-एक पल जीवन्त
हो उठे. शरीर में एक उत्तेजना सी फ़ैलने लगी. सांसे फ़ूलने सी लगी. आँखों में एक नशा
सा चढ़ने लगा था. खाली बिस्तर देखकर उसका सारा नशा पल भर में काफ़ूर हो गया. सब ओर
से ध्यान हटाते हुए उसने बिस्तर पर ही पड़े-पड़ॆ टीव्ही. ऑन किया. बाबी फ़िल्म चल रही
थी. अब वह उसमें मजा लेने लगा था. फ़िल्म देखते-देखते, कब वह नींद की आगोश में चला
गया, पता ही नहीं चल पाया.
सुबह सोकर उठा
तो पूरा शरीर भारी लगा, किसी तरह उसने बिस्तर छॊड़ा. फ़्रेश होकर नहाया, तब जाकर कुछ
अच्छा सा लगा. कुर्सी में धंसते हुए उसने फ़ोन उठाया. नम्बर डायल किया, लेकिन
निराशा ही हाथ लगी. फ़िर दूसरा एक विचार मन में आया कि सुनीता के पापा को फ़ोन लगाकर
जानकारी ली जाए. “ऎसा करना उचित नहीं होगा” सोचते हुए फ़ोन रख दिया. अब उसने निर्णय
ले लिया था कि वह सुनीता को लेकर ज्यादा कुछ नहीं सोचेगा. उसे जब आना होगा, तब आ
आएगी.
बाहर खटर-पटर
की आवाज सुनकर सहसा उसका ध्यान खिड़की पर गया. वह दूसरा आदमी खिड़की की कांच में से
भीतर तांक-झांक कर रहा था. “शायद डर के चलते अब वह अन्दर आने की हिम्मत नहीं जुटा
पा रहा होगा” उसने सोचा
अचानक उसके फ़ोन
की घंटी टनटना उठी. उसने यह सोचते हुए लपककर फ़ोन उठाया कि सुनीता का ही फ़ोन होगा.
लेकिन दूसरी तरफ़ से आती आवाज किसी मर्द की थी. कुछ कहने से पहले उन्होंने अपना
परिचय देते हुए बतलाया –“ दामादजी...मैं दामोदर बोल रहा हूँ..मंजू का पिता. शायद
आप मुझे नहीं जानते. जानेगें भी कैसे? आपका यहाँ आना काफ़ी कम ही रहा है न ! इसलिए
आपसे मेरा परिचय नहीं हो पाया. मंजू और सुनीता बचपन की सहेलियाँ हैं. आप यह समझ लें की दो जिस्म और एक जान है वे
दोनों. जिस दिन सुनीता जाने की सोच रही
थी, उसी दिन मंजू को डेलेवरी के लिए हास्पिटल में भरती किया गया. डाक्टर ने बतलाया
कि बच्चा उसकी अंतड़ियों में फ़ंस गया है, अतः तत्काल आपरेशन करना होगा, सुनीता भी
उसके साथ ही थी. खैर किसी तरह डिलेवरी हुई. पोता पैदा हुआ लेकिन मंजू की ब्लिडिंग
नहीं रुक पा रही थी. उसकी जान खतरे में थी, उसे तत्काल नागपुर ले जाया गया. मैं
ठहरा एक अपाहिज, चल-फ़िर नहीं सकता. घर में अन्य कोई मेंबर न होने के कारण सुनीता
को उसके साथ जाना पड़ा. करीब सप्ताह भर उसे वहाँ रुकना पड़ा. इतना सुनने के बाद भी
आपके मन में एक प्रश्न जरुर उठ खड़ा हो गया होगा कि सुनीता ने आपको फ़ोन क्यों नहीं
लगाया? मैं भी आपको फ़ोन पर इस बाबत सूचना नहीं दे पाया. हालात ही कुछ ऎसे बन पड़े
थे जिसका बयान मैं नहीं कर सकता. अगर सुनीता न होती तो शायद ही मेरी बेटी की जान
बच पाती ? बेटा...मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ...मुझे माफ़ कर दो. (अपनी व्यथा-कथा सुनाते हुए दामोदर जी फ़बक कर
रो पड़े थे. उनके सिसकने की आवाज फ़ोन पर स्पष्ट रूप से आ रही थी). बेटा...तुम्हें
अकारण इतने दिनों तक कष्ट उठाना पड़ा, मुझे माफ़ कर दो. मेरा विश्वास है कि आप
सुनीता को भी माफ़ कर देगें.”
“ इतनी बड़ी
घटना घट गई और आपने मुझे सूचित करना तक उचित नहीं समझा ? काश मुझे इस बाबत सूचना
मिल जाती तो मैं भी वहां चला आता....आपकी मदद करता...आपका सहायक ही सिद्ध होता”
“आपकी शिकायत
उचित है बेटे, लेकिन हालात ही कुछ ऎसे बन पड़े थे कि हम सबकी सांसे थम सी गई थी.
जिन्दगी और मौत के बीच झुलती मेरी बच्ची यदि आज जीवित है तो उसका सारा श्रेय
सुनीता बेटी को जाता है. मेरा आपसे पुनः अनुरोध है कि आप उसे माफ़ कर देगें”
इसके बाद
कहने-सुनने को कुछ बचा ही नहीं था. हफ़्ता-दस दिन के भीतर दिल के आंगन में जमीं
कलुषित भावनाओं की काई पिघलकर, आँखों के रास्ते बहने लगी थी. सुनीता के प्रति उठे
नफ़रत के ज्वारभाट अब तिरोहित होने लगे थे. मन में एक अजीब शांति सी महसूस होने लगी
थी और सुनीता के प्रति प्यार के बादल उमड़-घुमड़कर उसके दिल और दिमाक पर छाने लगे
थे. दूसरे ही पल, उसे उस भीतर के आदमी पर क्रोध आने लगा था. “यह तो अच्छा ही हुआ
कि वह उसकी बातों में नहीं आया वरना अनर्थ हो जाता. शंका की एक छॊटी सी चिंगारी
उसके आशियां को जलाकर खाक कर देती” उसने सोचा.
दिल और दिमाक
पर छाया बोझ उतर गया था. अब वह अपने आपको तरोताजा सा महसूस करने लगा था. उसने झट
से शेव किया, नहाया और आफ़िस चला गया.
फ़ोन पर सूचना
देते हुए सुनीता ने बतलाया कि वह लौट आयी है. बात को आगे बढ़ाते हुए उसने शाम को
जल्दी घर आने का आग्रह भी किया था उसने.
सुनीता के आगमन
की बात सुनते ही उसके मन के सूने आंगन में वसन्त उतर आया था, कोयल कुहकने लगी थी
और लाखों फ़ूल एकाएक खिल उठे थे. “जी अच्छा जी” कहते हुए उसने फ़ोन काट दिया था.
पहाड़ सा भारी
दिन कैसे कट गया, पता ही नहीं चल पाया. पांच बजते ही वह अपने केबिन से बाहर निकला.
मोटरसाईकिल स्टार्ट की और अब वह किसी फ़िल्मी हीरों की तरह गीत गुनगुनाता, सीटी
बजाता घर की ओर चला जा रहा था.
रास्ता चलते
उसने सोचा- सुनीता ने उसे इतने दिनों तक खूब तड़पाया है, इन्तजार करवाया है, क्यों
न थोड़ा विलंब से घर पहुँचा जाय. इस ख्याल के आते ही उसने अपनी मोटरसाईकिल की दिशा
बदल दी. यहाँ-वहाँ के चक्कर लगाने के बाद अब वह पालिका-मार्केट में जा घुसा. उसने
सुनीता के पसन्द की तरह-तरह की मिठाइयाँ खरीदी, मोगरे के फ़ूलों का गजरा खरीदा, एक
बुके लिया और लौट पड़ा.
उसकी चाल में
एक विश्व विजेता की सी उछाल थी और मन किसी पंछी की तरह चहचहा रहा था. घर पहुँचते
ही उसकी अंगुली कालबेल पर जा पहुँची. कालबेल के बजते ही जल-तरंग की स्वर-लहरी
तरंगित होने लगी. सुनीता ने दरवाजा खोला. एक मादक मुस्कुराहट बिखेरते हुए सुनीता
ने उसका स्वागत किया. अमरनाथ ने गुलदस्ता देते हुए उसे अपनी बाहों में कैद कर लिया
और ढेरों सारा चुम्बक उसके गालों पर जड़ दिया. बाहों के घेरे में दोनों देर तक
अविचल खड़े रहे.
दामोदर जी से
सारी हकीकत जान चुकने के बाद शिकवे-शिकायत की बात छॆड़ना उसे उचित नहीं लगा. वह
जानता था कि ऎसा किए जाने से हसीन रात खराब हो सकती है. किचन से उठकर दोनों बेडरूम
में चले आए.
कमरे में
प्रवेश करते ही सबसे पहले उसकी नजर बिस्तर पर पड़ी. जगह-जगह गुलाब की पंखुड़ियाँ
बिखरी हुई थी. पूरे कमरे में फ़्रेशनेस का छिड़काव कर दिया गया था और एक कोने में
फ़्रेगनेंट अगरबत्ती सुलग रही थी. मन ही मन वह सुनीता की तारीफ़ किए बिना न रह सका था.
शायद सुनीता जानती थी कि रात को किस तरह खुशनुमा और रंगीन बनाया जा सकता है. उसने
सोचा.
बिना समय गवाएँ
उसने उसे अपनी बाहों में उठाकर बिस्तर पर लिटा दिया और वह उस पर झुकने ही वाला था
कि उसे अजनबी की याद हो आयी. अमरकांत नहीं चाहता था कि वह किसी विलियन की तरह बीच
में टपककर कीमती पलों को बर्बाद कर दे. उसने देखा. खिड़की पर पड़ा पर्दा खुला रह गया
है, संभव है कि अन्दर तांक-झांक करने लगे. उसका शक सही निकला. पता नहीं वह कब आ
धमका था और पर्दे की ओट से अन्दर झांक रहा था. वह चुपचाप से उठा. पर्दे को ठीक
किया और कमरे में जल रही बत्ती बुझा दिया. अब वह निश्चिंत होकर स्वर्गीय आनन्द ले सकता था.
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
4
अन्तिम निर्णय
मन था कि कहीं जुड़ नहीं पा रहा था. जुड़ता भी कैसे, जब उदासी, गहरी काली चादर
ओढ़े मन के भीतर उतर आयी हो तो खुश कैसे रहा जा सकता है?. उसने अपनी हथेली फ़ैलाई और
देखने की कोशिश करने लगी कि कहीं विधाता ने गलती से छोटी-मोटी ही सही, खुशी की एक
छॊटी सी लाईन ही खींच दी हो ?. हथेली पर तेढ़ी-मेढ़ी
लाइनों का जाल सा बिछा था. कहीं आपस में एक दूसरे को काटती हुईं तो कहीं एक सिरे
से आकर दूसरी ओर निकल जाती हुई. निश्चित ही इन लाइनों में से कोई एक लाईन तो जरुर
रही होगी खुशी कि, लेकिन दुर्भाग्य कि वह कई जगहों से कटी हुई थी. इन लाइनों के
क्या अर्थ है, इनमें क्या लिखा-बदा है, यह तो वह नहीं जानती लेकिन इतना जरुर जानती
है कि उसके भाग्य में खुशी की जगह दुख ही दुख लिखे हैं,
दिल पर छाई उदासी की कलिमा अब आँखों में उतर आथी थी. उदास आँखे लिए वह खिड़की
से बाहर देखने लगी थी. बाहर गहमा-गहमी थी. लोग बदहवास से आते और दूर निकल जाते.
कुछ बच्चे कंचे खेलने में लगे थे. जो ज्यादा कंचे जीत जाता, खुशी से उछल-कूद करने
लगता और जो हार जाता मुँह लटकाए एक ओर खड़ा रहता. तभी उसे बाबा संपतराव धरणीधर की एक कविता याद हो आयी.. “ कभी
खुशी, तो गम कभी, पी रहे हैं लोग, किस्त-किस्त जिन्दगी जी रहे हैं लोग “. इन
छोटे-छोटे शब्दों में जिन्दगी का गहरा फ़लसफ़ा छिपा हुआ है. सच ही है, खुशी सभी को
नहीं मिलती और न ही सभी खुशनसीब होते हैं.
तभी उसकी नजरें आकाश की ओर उठ गई. उसने देखा. एक कटी हुई पतंग हिचकोले खाते हुए
नीचे की ओर आ रही है. उसे देखकर वह सोचने लगी थी- “जब तक पतंग तनी हुई थी, कितनी
शान से आसमान में इतरा रही थी और जैसे ही उसकी डोर कटी, वह कहीं की नहीं रही. न
आसमान की और न ही उसकी जो उसे उड़ा रहा होता है. कटी हुई यह पतंग किस ओर जाकर
गिरेगी, कोई नहीं जानता. संभव है किसी पेड़ की डाली से आकर उलझ जाएगी या फ़िर
टेलीफ़ोन के तार पर जाकर लटक जाएगी. धोके से किसी लूटने वाले के हाथ लग गई तो पलभर
में उसका अस्तित्व ही मिट जाएगा, क्योंकि पंतग लूटने वाला एक नहीं बल्कि दस-पांच
लड़के इस लूट में शामिल होते हैं. कटी हुई पतंग को देखकर वह अपनी तुलना पतंग से
करने लगी थी. फ़र्क केवल इतना ही है कि वह दोनों स्थितियां झेल रही है बारी-बारी
से, कभी अधर में टंगे रहने के लिए तो कभी बंधनहीन तैरने के लिए.
विचारों की कंटीली झाड़ियों में उलझते हुए उसका मन लहुलुहान हुआ जा रहा था. वह
और कुछ सोच पाती तभी उसकी बेटी कुनमुनाते हुए रोने लगी. शायद उसने सु कर दिया था.
गीले कपड़ों में वह अपने आपको असहज पा रही थी. उसने हथेली से बिछे कपड़ों को छू कर
देखा. अनुमान सही निकला. बिना देर किए उसने कपड़ा बदल दिया और हथेली से थपकी देने
लगी. थोड़ी देर तक तो वह कुनमुनाती रही फ़िर सो गई थी.
पास ही एक पीपल का पेड़ था जिस पर पखेरुओं ने घोंसले बना रखे थे. पीपल की शाखों
में उलझा सूरज धीरे-धीरे नीचे उतरते हुए अस्ताचल की ओर बढ़ने लगा था और एक सुरमई
अंधियारा छाने लगा था. पक्षियों के दल अब लौटने लगे थे. वे अपने नन्हें शिशुओं के
लिए मुंह में चुग्गा-दाना भर कर लाए थे. घोंसलों में बैठे नन्हें परिंदें घोंसले
के बाहर अपना सिर निकाले उन्हें आता देख, खुश होकर चिंचिंयाने लगे थे. पक्षियों का
दल अपने-अपने घोंसले पर आकर उतर गए थे और अब वे अपने-अपने शिशुओं के मुंह में
चुग्गा खिलाने लगे थे. शिशुओं से देर तक लाड़ लड़ाने के बाद, वे दूर-दूर तक उड़कर
जाते और फ़िर लौट आते थे. शायद दिन भर के बिछड़े अपने संगी-साथियों के साथ आकाश में
उड़ते हुए एक दूसरे का हालचाल जानने की गरज से ये उड़ाने होती थीं. सूरज अपनी किरणॊं
का जाल समेटे पहाड़ के उस पास उतरने की तैयारी में था. तभी सारे पखेरु अपनी-अपनी
बोलियों में बोलने लगे थे, शायद अपने आराध्य देव की बिदाई में वे मिल जुलकर
सांध्यगीत गा रहे थे. ये सब दृष्य देखकर बूढ़े पीपल की देह में झुरझुरी सी भर आयी
थी. वह भी अब तालियाँ बजा-बजाकर पक्षियों का उत्साहवर्धन करने लगा था.
काला-कलूटा अन्धियारा खिड़की फ़लांग कर अन्दर घुस आया और पूरे कमरे में फ़ैल गया.
देर तक अंधियारे में बैठे रहने के बाद उसने स्विच आन किया. रोशनी से कमरा जगमगा
उठा. सबसे पहले उसकी नजर बेटी पर पड़ी.
उसके सूखे होंठॊं पर तैरती मुस्कान देखते ही उसका मन वितृष्णा से भर आया.
उसने तत्काल अपनी नजरें हठा ली. मन में तरह-तरह के विचार उठ खड़े होने लगे थे. वह
सोचने लगी थी-“ इस कलमुहीं को मेरी ही कोख से पैदा होना था ?. पैदा ही हुई थी तो
शकल-सूरत में तो खूबसूरत होनी चाहिए थी. सूखे गन्ने जैसे तो उसके हाथ-पांव है.
चमढ़ी का रंग भी ऎसा कि कोयला भी शरमा जाए. जचकी के ठीक बाद नावन ने उसे
नल्हा-धुलाकर पास में लिटाया तो देखते ही वह बिफ़र पड़ी थी और कह उठी थी कि इतनी
बदसूरत लड़की मेरी नहीं हो सकती.?. कहीं तुम इसे कब्रस्थान से तो उठाकर तो नहीं ले
आयी? मैं ही क्या कोई भी इसे कोई देख ले, तो यही कहेगा कि इसे कब्र से ही उठाकर
लाया गया है. पास बैठी भाभी ने लगभग डांटते हुए तथा इस बात का खण्डन करते हुए
बतलाया कि तूने ही तो इसे जन्मा है. कोई क्यों भला तेरे साथ ऎसा करेगा. पता
नहीं... इस करमजलि को हमारे ही घर पैदा होने था. इसके केवल हाड़ ही हाड़ है, मांस तो
एक तोला भी नहीं है. शक्ल-सूरत में भी उतनी खूबसूरत नहीं है. बच्चे पैदा होते ही
रोने लगते है, जबकि ये तो हंसी थी डायन के जैसी. मुँह में दांत भी इसके देखे गए
हैं. अपशकुनी पैदा हुई है ये लड़की. अपने परिवार में तो क्या, दूर-दूर तक ऎसी लड़की
पैदा हुई हो, हमने तो नहीं सुना. बड़बड़ाते हुए वे कमरे से बाहर निकल गईं थीं.
भैया भी खुश कहां थे? जिस दिन ये पैदा हुई, उसी दिन उन्होंने चेतावनी देते हुए
कहा था-“ सुसी.....जिन्दगी भर चैन से जी नहीं पायेगी इस लड़की को लेकर. जितनी जल्दी
हो सके, इससे छुटकारा पा ले”. और क्या कहते वे ?. कम बोलकर भी उन्होंने काफ़ी कुछ
कह दिया था. इसके बाद उन्होंने कमरे में झांक कर भी नहीं देखा था.
जिस दिन से ये पैदा हुई है, उस दिन से घर का सुख-चैन ही छिन गया था. खुश होने
के बजाय सभी दुखी थे. भैया-भामी से लेकर भतिजा-भतिजी भी इसके आने से खुश नहीं हुए
थे. भाई ने इसके पैदा होने के बाद सुशील को फ़ोन करके खबर दी थी कि उसके बेटी पैदा
हुई है. उत्सुकतावश उसने पूछा भी थी कि कैसी दिखती है उसकी लाड़ो? उसका रंग-रुप
कैसा है? मेरी शक्ल पर है कि उसकी आई की शकल पर गई है. भैया क्या कहते? कहने और
छुपाने को था ही क्या? वे झूठ कैसे बोल सकते थे? बोलना भी नहीं चाहिए था? अगर बात
छुपा भी जाते और जब हकीकत सामने आती तो चेहरा दिखाने लायक नहीं रहता उनका ? जो
हकीकत थी उन्होंने सच-सच कह सुनाया था सुनील को. सुनते ही उसका मूड खराब हो गया
था. दोनों के बीच जो बातें हुईं उसे सुनकर तो उसका कलेजा धक से रह गया था. सुशील
ने तो सीधे-सीधे कह दिया था कि उसे ऎसी लड़की नहीं चाहिए. संभव हो तो तत्काल उसका
टॆंटुआ दबा देना चाहिए. इस लड़की का जिंदा रहना हमारे लिए नासुर बन जायेगा. सही कहा
था सुनील ने. उसकी जगह कोई और होता तो वह भी यही कहता.
सुधा का मन किसी घड़ी के पेण्डुलम की तरह दोलायमान हो रहा था. कभी इधर, तो कभी
उधर. वह निर्णय नहीं कर पा रही थी कि आखिर उसे क्या करना चाहिए? एक मन होता कि
इसका टॆंटुआ तत्काल दबा देना चाहिए और इससे छुटकारा पा लेना चाहिए. एक मन होता कि
क्या एक माँ को ऎसा करना चाहिए? क्या एक माँ ऎसा कर पाएगी?. तरह-तरह के विचार मन
में आते जो उसे अशांत कर जाते.
नींद ने आंखों से दूरी बना रखी थी. कभी पास आती तो कभी कोसों दूर निकल जाती.
बिस्तर पर सोती लड़की को देखती तो उसे लगता कि कोई नागिन पसरी पड़ी है. न तो उसे हाथ
लगाने की इच्छा होती और न ही लाड़ लड़ाने की इच्छा ही होती. नींद को पास बुलाने का
एक ही नायाब और पुराना तरीका था उसके पास. स्कूल की पढ़ाई के समय जब उसे नींद नहीं
आती थी तो वह कोई किताब निकाल कर बैठ जाती थी. पढ़ते-पढ़ते आँखें बोझिल होने लगती थी
और वह कब नींद के आगोश में चली जाया करती थी, पता ही नहीं चल पाता था. कमरे में उस
समय कोई किताब उपलब्ध नहीं थी.
किताबों का जखिरा तो भाई के कमरे में होता है. उनकी अपनी
नीजि लायब्रेरी है. लेकिन इतनी रात गए उनके कमरे में जाना उचित नहीं लगा था उसे.
भाई भले ही नहीं जाग पाए लेकिन भाभी इनसे हटकर है. हलका सा खटका सुनते ही वे उठ
बैठती हैं. यदि उनकी नींद खुल गई तो सैकड़ों सवाल दागे जायेंगे और वह यह नहीं चाहती
कि उसके लिए किसी की नींद में खलल पैदा हो. बिना लाईट जलाये उसने टेबुल को टटोला,
अखबारों का पुलिंदा पड़ा हुआ था. बिना किसी आहट के उसने अखबारों का गठ्ठा उठाया और
अपने कमरे में चली आयी.
शायद ही कोई ऎसा अखबार होगा जिसमें महिलाओं के साथ सामुहिक बलात्कार और
बलात्कार के बाद जघन्य हत्या की खबरें न छपी हों. चार साल की मासूम बच्ची से लेकर
जवान और बूढ़ी महिलाओं तक को नहीं बख्शा था इन आतताइयों ने. कभी सूने घर में घुसकर,
तो कभी शादी का प्रलोभन देकर उनकी असमत लूटी गई, तो कभी चलती बस में तो कभी कार
में उनके शरीर को रौंदा गया या उसे रास्ता चलते अगवा कर लिया गया. और सुनसान जगह
पर ले जाकर उसका शारीरिक शोषण किया, फ़िर हत्या कर दी गई ताकि नाम उजागर न हो सके
और उसे विवस्त्र कर सड़क पर फ़ेंक दिया गया. गुंडॊं का खौफ़ इतना बढ़ गया है कि लोग
अवाक होकर देखते रहते हैं लेकिन बीच बचाव करने कोई आगे नहीं आता. कुछ दयालु किस्म
के लोग मदद के नाम पर आगे बढ़ते तो जरुर हैं लेकिन जान से मारे जाते हैं. इस डर के
लोग हिम्मत नही जुटा पाते और दरिन्दे अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं. एक खबर ने
तो उसे बुरी तरह से चौका दिया था. एक अर्धविक्षिप्त महिला को वे रोटी खिलाने के
नाम से एक सूने नवनिर्मित मकान में ले गए थे और उसके साथ बलात्कार किया और उसे मौत
की नींद सुला दिया गया था.
हत्या और बलात्कार के किस्से पढ़-पढ़कर उसका माथा ठनकने लगा था और वह इस सोच में
पड़ गई थी कि अगर यह लड़की किसी तरह जिंदा भी बची रही तो उन पर बोझ बन कर ही रहेगी.
पहली बात तो यह कि वह न तो तन से स्वस्थ है और न ही मानसिक रुप से विकसित. यदि उसे
जिंदा रखने का प्रयास भी किया जाए तो पास में इतनी रकम भी नहीं है कि उस पर खर्च
किया जा सके. एक अपंग, लाचार लड़की को पालना, उसका हगा-मुता करना, उसकी देखरेख
करना, उसे हाथों से उठाना, नहलाना-धुलाना, सजाना-संवारना आसान काम थोड़े ही है?
बावजूद इसके वह बच भी रही तो कौन भला उससे शादी करना चाहेगा और कौन भला इस बला को
गले लगाना चाहेगा? मां-बाप भले ही ममता के नाम पर उसे जिलाते रहें लेकिन उनके न
रहने पर कौन उसकी देखरेख करेगा...कौन उसकी परवरिश करेगा?
तरह-तरह के विचार मन में उठ खड़े होते, जिनका समाधान कर पाना उसके बूते के बाहर
था. काफ़ी सोचने-समझने के बाद उसने अन्तिम निर्णय ले लिया था कि यदि एक मां किसी
बच्चे को जन्म देती है तो उसे मार भी सकती है, यदि वह खुद के लिए, समाज के लिए, देश के लिए
अनुपयोगी सिद्ध होता है तो, उसे तत्काल समाप्त कर देना ही उचित होगा.
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
5.
अतीत और वर्तमान के समांतर चलते हुए
गली-कूचों में
अफवाहों की तितलियॉं उड़ रही थी। बेखौफ। कभी वे अखबारों के पन्नों में लिपटकर तो
कभी खिड़की-दरवाजों की सुराखों में से फलांगकर घरों में प्रवेश पा जाती थी।
निशा इन सब बातों से अनजान थी। वह
नहीं जानती थी कि उसके खिलाफ कौन षडयंत्र रच रहा है। वह तो यह भी नहीं जानती थी कि
उसका मकसद क्या है? वह
तो अपने आप में व्यस्त थी। अपने में खोई हुई, दीन-दुनिया
से बेखबर, मीरा की तरह,
अनिरूद्ध
के नाम का इकतारा बजाती हुई।
अभी पन्द्रह दिन पहले ही तो वह गोवा
की ट्रिप से वापिस लौटी थी और आते ही बिस्तर से जा लगी थी।
कॉलेज के प्राचार्य ने उसका नाम
प्रपोज करते हुए, आदेश
पारित कर दिए थे कि वह लड़कियों के ग्रुप की इंचार्ज होगी। लड़कों के ग्रुप का
प्रतिनिधित्व अनिरूद्ध कर रहा था। उसे जब इस बात की जानकारी मिली तो उसने सानुनय
इस प्रस्ताव के विरूद्ध अपनी असहमति दर्ज करा दी थी।
उसकी सोच के केंद्र में अनिरूद्ध
था। उसके प्रति बढ़ती आसक्ति और बाद में मिलने वाली बदनामी के डर से,
उसने
वहॉं जाने से मना कर दिया था। पूरे पन्द्रह दिन की एक्सजर्सन ट्रिप थी वह कॉलेज की
तरफ से।
अनिरूद्ध से उसकी पहली मुलाकात बड़ी
ही अजीबो-गरीब परिस्थितियों में हुई थी। वह किसी अन्य कॉलेज से स्थानांतरित होकर
आया था, जहॉं वह स्वयं सहायक
प्राध्यापक थी।
कॉमनरूम में प्रवेश करते ही उसकी
नजर अनिरूद्ध पर जा पड़ी, वह
वहीं ठिठककर खड़ी हो गई। वह उस समय स्टॉफ के अन्य सदस्यों के बीच घिरा बैठा बतिया
रहा था। उसे देखते ही वह भय-मिश्रित आश्चर्य से घिने लगी थी ष्कौन है यह नवयुवक?
उसकी
शक्ल तो हू-ब-हू अजय से मिलती-जुलती है, वही
नाक-नक्श, वही तराश हुआ चेहरा,
शरीर-शौष्ठव,
कद-काठी
और बातें करने का अंदाज भी तो मिलता-जुलता है। उसकी नीली-भूरी ऑंखें और हॅंसने का
अंदाज भी तो अजय से मिलता है।
वर्तमान में रहते हुए वह अतीत की
सीढ़ियॉं उतरने लगी थी।
एम.ए. प्रीवियस की छात्रा थी वह उन
दिनां। शाम के यही कोई चार-साढ़े चार बजे रहे होंगे। यह वह समय होता है जब परिवार
के सारे सदस्य एक साथ बैठकर चाय पीते हैं। वह किचन में चाय बनाने में व्यस्त थी।
तभी मॉं ने कमरे में प्रवेश करते हुए उससे तीन प्याली चाय और बढ़ा देने को कहा।
उसने सुना-अनसुना करते हुए लापरवाही से अपनी गर्दन को झटकते हुए अंदाजा लगाया कि
पापा के दोस्त-वोस्त आ धमके होंगे। किचन से लौटते समय मॉं यह भी कह गई थीं कि चाय
के साथ कुछ खारा-मीठा और बिस्कुटें भी लेती आए।
एक बड़ा-सा ट्रे हाथ में उठाए वह
बैठक-कक्ष में पहुॅंची। वहॉं पापा के दोस्त नहीं थे... कोई अन्य भद्र-पुरूष बैठे
दिखलाई दिये। वह समझ गई। आने वाले निश्चित ही उसे देखने आए होंगे। उसने सहज ही
अंदाज लगाया था। तभी पापा के कहे शब्द याद हो आए ...जब तक तेरी पढ़ाई पूरी नहीं हो
जाती, हम शादी की बात नहीं
करेंगे। पापा का वचन याद आते ही वह आश्वस्त हो चली थी।
नजदीक पहुॅंची ही थी कि पापा ने
लगभग चहकते हुए कहा ....ये रही हमारी बिटिया निशा...और निशा.... ये हैं मिस्टर
अजय... कॉलेज में सहायक प्राध्यापक हैं और ये इनके माता-पिता। उंगलियॉं नचाते हुए
उन्होंने सभी का परिचय करवा दिया था।
ट्रे अब भी हाथ में ही था। उसने
शिष्टाचारवश अपनी गर्दन को झुकाकर सभी का अभिवादन किया। ट्रे को सेन्टर टेबिल पर
रखते हुए वह मॉं के करीब सटकर बैठ गई थी।
चाय की प्याली बढ़ाते हुए उसने अजय
को देखा, तो बस देखते ही रह गई
थी वह। अब एक अजीब किस्म की बेचैनी में घिरनेलगी थी। दिल जोरों से धड़कने लगा था।
सॉंसें बेकाबू हो गई थी। अजय की नीली-भूरी ऑंखों के समन्दर में,
जो
एक बार डूबी तो फिर उबर न सकी थी।
बात पक्की हो,
इससे
पूर्व ही उसने अपना मंतव्य कह सुनाया कि वह आगे भी पढ़ना चाहेगी। अजय की स्वीकृति
की मुहर लग जाने के बाद, वह
उसे और भी सुन्दर दिखाई देने लगा था।
और इस तरह वह अजय के साथ शादी के
बंधन में बंॅधकर ससुराल चली आई थी।
मॉं-बाबूजी का आशीर्वाद और अजय का
प्यार पाकर वह निहाल हो गई थी। दिन सुनहरे और रात मतवाली हो उठी थी। चारों तरफ
खुशियों के बादल बरस रहे थे और वह उसमें सराबोर भी हो रही थी।
पर ये खुशियॉं ज्यादा दिन तक नहीं
टिक पाई। नियति के क्रूर हाथों ने, उसके
माथे पर लगे सिंदूर को बड़ी ही बेरहमी के साथ पोंछ डाला था। वह सधवा से विधवा बना
दी गई थी। फूलों की सेज, कॉंटों
में बदल गई थी। उसके सपनों का रंग-महल धूसर-कॅंटीला हो गया था और वह एक मर्मान्तक
पीड़ा के दौर से गुजरने लगी थी।
मॉं और बाबूजी का बुरा हाल था। वे
विक्षिप्त से रहने लगे थे। अपने इकलौते बेटे के गम ने उन्हें पगला सा दिया था।
उनका हॅंसता-खेलता आशियाना जैसे जलकर खाक हो गया था।
अहिल्या की सी बुत बनी निशा ने अपनी
पीठ पर हल्का सा स्पर्श पाकर पीछे पलटकर देखा। वहॉं कोई और नहीं,
बाबूजी
खड़े थे। उनकी शून्य में झॉंकती निस्तेज निगाहों को देखकर वह भय के मारे कॉंपने लगी
थी और अब फबक कर रो ही पड़ी थी।
देर तक चुप्पी ओढ़े रहने के बाद
उन्होंने अपना मौन तोड़ा था। बड़ी ही संजीदगी के साथ। शब्द जैसे दुःख के कीचड़ में
सने थे और बोलते समय उनकी जुबान लड़खड़ा रही थी।
बेटा... अजय जहॉं तुम्हारा पति था,
वहीं
वह हमारा बेटा भी था। जितना दुःख तुम्हें है, उतना
हमें भी है। दुःख आखिर दुःख ही होता है। वह न तो बड़ा होता है और न छोटा। वह तो
आदमी के कमतर अथवा तीव्रतर अनुभव अथवा आघात के आधार पर छोटा-बड़ा हो सकता है। फिर
जाने वाले के पीछे जाया भी तो नहीं जा सकता। न तो कभी कोई गया है और न ही यह संभव
है। सभी को अपनी-अपनी उमर की फसल यहीं काटनी होती है।
मेरा इशारा उस आने वाले कल की तरफ
है, जहॉं हमें या तो मर-मर के
जीना है अथवा जीते-जी मर जाना है। आने वाला कल सुखभरा हो... बस मेरी यही कामना है।
मेरा क्या है... बुझता हुआ चिराग हूॅं। नहीं जानता... मेरे दीये में कितना तेल
बाकी बचा है। आज नहीं तो कल बुझ ही जाउंगा। तुम्हें अभी जीना है,
फिर
तुम्हारी अभी उमर ही कितनी है।
मैं नहीं जानता,
तुम
अपनी बात कहकर भूल चुकी हो अथवा नहीं। लेकिन मुझे अब भी याद है। तुमने कहा था कि
तुम शादी के बाद भी पढ़ना चाहती थी। याद आया? तुम
मेरी मानो तो कल से ही कॉलेज ज्वाईन करो। एम.ए. करो और परीक्षा की तैयारी में जुट
जाओ। तुम्हें उस खाली जगह को भरना है, जिसे
अजय छोड़ गया है।
बाबूजी की बातें सुनकर वह हतप्रभ
भी। इसव उम्र में भी इतना जोश और जोश वाली बातें और भविष्य में झॉंक सकने वाली
दूर-दृष्टि देखकर उसने भी अपनी हिम्मत की ढहती दीवारों की मरम्मत करनी शुरू कर दी
थी और इस तरह वह एक सहायक प्राध्यापक बनकर उसी कॉलेज में चली आई थी,
जहॉं
अजय था। अजय के द्वारा खाली किए गए जगह में अपने-आपको पाकर वह गदगद हो उठी थी।
दो मिनिट से भी कम समय में उसने
अपने अतीत के गहरे समन्दर को खंगाल डाला था। वह और न जाने कितनी ही देर यूॅं ही
खड़ी रहती, अगर उसे अपनी सहकर्मी
मेडम पॉल ने झकझोर कर बाहर न निकाला हो ...निशाजी... आज बाहर ही खड़े रहने का इरादा
है क्या? अंदर नहीं चलेंगी?
अपने अतीत की दुनिया को पीछे छोड़ते
हुए वह बाहर तो आ गई थी लेकिन अब भी सामान्य नहीं हो पाई थी। दिल पूर्ववत ही जोरों
से धड़क रहा था और सॉंसें फूली हुई थी। वह जैसे-तैसे अपने-आपको उस कमरे में ठेल पाई
थी।
औपचारिक परिचय के बावजूद वह उससे
मिलने अथवा बात करने से अपने- आपको बचाती रही थी। वह जितना भी बचने का प्रयास करती,
वह
उतना ही पास आता चला गया था। वर्तमान और अतीत के समान्तर चलते हुए वह अपने-आपको
असहजता की स्थिति में ही पाती थी।
प्राचार्य के आदेश पाने के बाद के
दो दिनों तक वह सो न सकी थी। उठते-बैठते-टहलते उसे एक ही ख्याल आ घेरता,
वह
कैसे जा सकेगी? उसे जाना ही नहीं
चाहिए। पूरे पन्द्रह दिन तक अजय का और उसका साथ रहेगा। स्वाभाविक है... बातें भी
करनी पड़ेगी। समय-समय पर सलाह-मशविरे भी करने पड़ेंगे अथवा देने पड़ेंगे। वह
अपने-आपको कब तक बचाती फिरेगी। क्या वह अनिरूद्ध से यह कह पाएगी कि उसकी सूरत,
उसके
अजय से हू-ब-हू मिलती है और वह उसमें अपने पति अजय की छबि को ही पाती है। कैसे कह
सकेगी वह? फिर एक विधवा को आज
का क्रूर और दकियानूसी समाज, यह
सब कैसे करने देगा? तरह-तरह
की बातें बनाई जाने लगेगी। संभव है कि सहज होते हुए भी कोई ऐसी-वैसी हरकतें कर
बैठी तो भला वह लड़कियों की नजरों से अपने को कैसे बचा पाएगी?
वे
कंधे उचका-उचका कर यहॉं-वहॉं कहतीं फिरेगी कि एक विधवा को यह सब कहॉं करना कहॉं तक
उचित है। उसकी बदनामी तो होगी ही, साथ
में बाबूजी का सिर भी शर्म से झुक जाएगा। वह किस-किस के मुॅंह पर ढक्कन लगाती
फिरेगी।
ढेरों सारे प्रश्नों का जवाब
देते-देते वह थक सी गई थी। अंत में उसने निर्णय ले लिया था कि वह ट्रिप में जाने
से मना ही कर देगी। बाबूजी को जब इस बात का पता प्राचार्य महोदय से मिला तो वे खुष
नहीं हुए थे। उनकी मान्यता थी कि प्रकृति का संग अच्छे से अच्छे जख्मों को भी भर देता
है। समझाईष देते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि वे अपने विचार उस पर लाद नहीं रहे
हैं बल्कि सलाह दे रहे हैं कि चारदीवारी के भीतर घुट-घुटकर जीने के बजाय,
प्रकृति
की गोद में जाना चाहिए, जहॉं
हर चीज खुली होती है। जहॉं खिड़की-दरवाजे नहीं होते, वहॉं
ही ईष्वर का वरदान बरसता है।
बाबूजी के विचार किसी तपोनिष्ट साधु
पुरूष के जैसे थे, उनके
एक-एक शब्द में जादू भरा सम्मोहन तो था ही, साथ
ही एक दिव्य-दृष्टि भी थी, जो
अंधेरे को भेदकर दूर तक जाती थी।
प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से
वह बाबूजी के आदेश को टाल नहीं सकी थी। उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए वह वहॉं
जाने की तैयारी करने लगी थी।
औरंगाबाद, पुणे,
नासिक
और मुंबई होते हुए ट्रिप गोवा पहुॅंची थी। कॉलेज की ओर से प्रायोजित यह एक्सकर्सन
ट्रिप पूरे पन्द्रह दिनों की थी।
गोवा की हसीन वादियों में कदम रखते
ही वह पुनः अजय की यादों में खोने लगी थी। वह जहॉं भी जाती,
अजय
की यादें उसका बराबर पीछा करती रही थी।
अपनी शादी के बाद हनीमून मनाने वह
गोवा ही तो आई थी। उन यादगार पलों को वह भूल भी कैसे सकती थी। उसने मन ही मन
निर्णय ले लिया था कि अब वह अपनी ओर से ऐसा कुछ नहीं होने देगी जो बदनामी का कारण
बने। इस निर्णय के साथ ही वह ट्रिप का इन्जॉय करने लगी थी।
अजय के व्यक्तित्व की वह शुरू से ही
कायल रही है, लेकिन वर्तमान में
साथ-साथ रहते हुए उसने उसके अंदर छिपे अन्य विशिष्ट गुणों को भी जॉंच-परख लिया था।
अजय के व्यवहार में कहीं भी बनावटीपन नहीं था। उसके नैसर्गिक गुणों के कारण ही तो
वह एक जगमगाते हीरे की तरह था। दूरियॉं अब नजदीकियों में बदलने लगी थी और मौन,
मुखर
होने लगा था।
शाम का समय हो चला था। सभी
छात्र-छात्राएॅं पहाड़ी की चोटी पर बैठे सुर्यास्त का दिलचस्प और अद्भुत नजारा देख
रहे थे।
एक बड़ा सा सिंदूरी गोला,
आसमान
और समुद्र के मध्य लटक रहा था। हवाएंॅ तेज चलने लगी थी और समुद्र की उद्याम लहरें
किनारों से आकर टकराने लगी थी। समुद्री पक्षियों का झुण्ड आसमान में अपने करतब
दिखला रहे थे। उनकी चहचहाटों से समूचा वातावरण संगीतमय हो उठा था।
सिंदूरी गोला आहिस्ता-आहिस्ता नीचे
की ओर उतरने लगा था। समूचे आसमान और समुद्र का पानी सिंदूरी रंग में बदल गया था।
इस अनुपम और अद्भुत नजारे को देखते
हुए निशा, पुनः अजय की यादों
में घिरने लगी थी। उसे ऐसा महसूस हुआ कि अजय उससे सटकर बैठा है और उसकी विशाल
बाहें उसकी कमर के इर्द-गिर्द लताओं की सी लिपटीं हुई हैं।
अजय तो खैर अब इस दुनिया में नहीं
था, लेकिन यादों के झरोखों से वह
अब भी झॉंक रहा था। उसकी निकटता से उत्पन्न ताप और स्पर्श की उष्मा,
वह
अब भी महसूस कर रही थी।
देखते ही देखते वह सुनहरा गोला
समुद्र में पूरी तरह उतर चुका था। चारों तरफ सुरमई अॅंधियारा घिरने लगा था और अब
वह गहराने भी लगा था।
अपने वर्तमान में लौटते हुए वह
वापिस लौट जाने के लिए उठ खड़ी हुई थी। पूरे इत्मीनान के साथ अपने कदमों को आगे
बढ़ाते वह पहाड़ी उतरने लगी थी। सारी सावधानियों के बावजूद उसका पैर बुरी तरह से फिसला
और वह एक चीख के साथ नीचे जा गिरी थी। उसके घुटने, हथेलियॉं
जख्मी हो गए थे और बॉंए पैर की हड्डी संभवतः चटक गई थी।
अनिरूद्ध उससे कुछ फासला बनाकर चल
रहा था। उसे गिरा हुआ देख और आवाज सुनकर वह पास आ गया और मदद के लिए
छात्र-छात्राओं को आवाज देने लगा था। लेकिन पास में कोई भी नहीं था। शायद उसकी
आवाज उन तक नहीं पहुॅंची थी। उसे मदद देने के लिए अब स्वयं आगे बढ़ने के अलावा कोई
चारा भी नहीं था। उसने उसे अपनी बाहों में भरकर उठा लिया और अब वह धीरे-धीरे पहाड़ी
उतरने लगा था।
किसी पर-पुरूष के सामीप्य का वह
पहली बार अनुभव कर रही थी। दर्द का सैलाब अपने चरम पर था। बावजूद इसके वह एक
निर्वचनीय सुख का भी अनुभव कर रही थी।
तत्काल ही उसे हॉस्पिटल ले जाया गया
था।
सारी जॉंच के बाद डॉक्टर ने पैर में
फैक्चर होना बताया था और अब एक बड़ा-सा प्लास्टर उसकी टॉंग पर चढ़ा दिया गया था।
ट्रिप का सारा मजा ही इस दुर्घटना
के बाद किरकिरा हो गया था। एक दिन पूर्व ही समापन की घोषणा के साथ ही
छात्र-छात्राएॅं वापिस लौटने की तैयारी करने लगे थे।
उदासी की चादर ओढ़े अनिरूद्ध,
अपने
कमरे में बैठा निशा के बारे में ही सोच रहा था। दरअसल आज वह अपने मन की गॉंठ उस पर
उजागर कर देना चाहता था लेकिन वह चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाया था।
अपने विचारों की खोल से वह बाहर भी
नहीं आ पाया था कि दरवाजे पर हल्की-सी दस्तक सुनकर उसने लापरवाही से उसे अंदर आने
को कहा। उसकी अपनी सोच थी कि कोई छात्र अपनी समस्या को लेकर उसके पास आया होगा।
उसकी ऑंखें फटी की फटी ही रह गई
थीं। आने वाला कोई छात्र नहीं बल्कि एक छात्रा थी, उर्वशी।
उसने झीने कपड़े पहन रखे थे। पारदर्शी कपड़ों के भीतर से उसका गदराया यौवन झॉंक रहा
था।
उर्वशी को भला कौन नहीं जानता। अपनी
धींगा-मस्ती और खुलेपन के लिए वह सदा ही सुर्खियों में बनी रहती थी। अपने कॉलेज
ज्वाइन करने के दिनां से वह भी उसे जानने लगा था।
अंदर आते ही वह बुलबुल की सी चहकने
लगी थी।
हाय हैण्डसम... किस
गम में डूबे हुए हो?
ओह तुम... क्यों आई
हो इस समय... और वह भी इतनी रात गए ?
क्या करती सरेे ...
दिल मान ही नहीं रहा था... सो चली आई...
उसकी बेशर्मी-भरी
बातों को सुनकर उसे क्रोध हो आया था। मन में आया कि उसे खूब जलील करे और तत्काल
बाहर निकल जाने की कह दे, लेकिन
वह कह नहीं पाया था। मुॅंह से कोई भी बात निकालने के पहिले वह उस बात को तौल लिया
करता था, तब अपना मुॅंह खोल
पाता था। यह उसकी अपनी आदत थी, वह
सोचने लगा था कि ऐसा करने से कहीं दॉंव उल्टा भी पड़ सकता है। ऐसी लड़कियॉं अक्सर
अपने बचाव को लेकर तरह-तरह के दॉंव-पेंचों को निर्धारित करने में माहिर होती हैं।
वे जानती हैं, कब-कहॉं-कौन सा दॉंव
लगाना चाहिए। यदि वह उल्टे उसी पर इल्जाम मढ़ देगी तो वह कहॉं-कहॉं अपनी सफाई देता
फिरेगा। बातों को गम्भीरता से सोचते हुए उसने निर्णय लिया कि इस खूबसूरत बला को,
यहॉं
से किसी तरह टाल देने में ही भलाई है।
उसने बड़ी ही अजीजी के साथ
कहा-ष्देखिए मैडम... इस समय में काफी डिस्टर्ब हूॅं... जो भी बातें आप कहना चाहती
हैं... उसे कल के दिन में भी कही जा सकती है। कृपया मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए और
आप यहॉं से तशरीफ ले जाने की कृपा करें।
अपनी मादक अदाओं को बिखेरती और
गोल-गोल ऑंखें नचाते हुए उसने कहा- ष्सर जी... मैं आई तो थी ही इस इरादे से कि आज
की रात इसी कमरे में बिताउंगी... वह भी आपके साथ, लेकिन...
जानेमन... जाने की कह रहे हैं। मैं चली जाउंगी... बेशक चली जाउंगी... लेकिन मेरी
भी तो कुछ सुन लीजिए। क्यों लट्टू हो रहे हैं आप निशा मेडम पर ?
क्या
रखा है, खास उसमें,
जो
हममें नहीं है। सिर से पॉंव तक एकदम फिट... खूबसूरती से भरा जिस्म। नाप भी
34-24-34 का है। नाप कर देख लीजिए। इतना
कहते ही उसने अपने उपर का टॉप उतारकर फेंक दिया था। कमर से उपर का धड़,
एकदम
नंगा था, विवस्त्र।
उसकी इस निर्लज्ज हरकतों को देखकर
वह दंग रह गया था। सच ही सोचा था उसने कि वह किसी भी पायदान पर उतर सकती है। उसकी
पेशानी पर पसीना छूने लगा था। दिल एक अजीब सी जकड़न में कसने लगा था। वह कब यहॉं से
बाहर जाती है, वह इसकी बड़ी ही
बेसब्री से इंतजार करने लगा था।
उर्वशी शायद अपना होश खो बैठी थीं
उसका पूरा शरीर उत्तेजना में कांॅप-सा रहा था। ऑंखें नचाते हुए उसने कहा- देखा
आपने, मैंने कहा था न!
निशाजी से बीसा ही पड़ूॅंगी।
मैं एक खिला हुआ फूल हूॅं,
जिसमें
चटक रंग है... खुशबू है... मकरंद है... अपनी शोखियॉं भी है,
वह
आपको एक कदम आगे बढ़कर खुला निमंत्रण दे रहा है और आप हैं कि बासी फूल पर मंडरा रहे
हैं। कैसे भॅंवरे हैं आप
शायद आप नहीं जानते। आपको यह बताना
भी जरूरी है कि वह एक जूठन है... उतरा हुआ कपड़ा है। समझ रहे हैं न आप... मेरे कहने
का मतलब है कि वह किसी की विधवा है। मुझे आपकी सोच पर अफसोस ही नहीं हो रहा है,
बल्कि
तरस भी आ रहा है।
मैं जा रही हूॅं। हॉं मैं जा रही हूॅं,
लेकिन
मेरी बात कान खोलकर सुन लीजिए, मेरा
नाम उर्वशी है। उर्वशी के रूप-सौंदर्य के सामने जब विश्वामित्र भी नहीं टिक पाए थे
तो आप कहॉं लगते हैं? उर्वशी
जब कोई चीज ठान लेती है ते करके भी बताती है। उसका मन जिस चीज पर भी आ जाता है,
वह
उसे प्राप्त करके ही दम लेती है। जब मेरा दिल आप पर आ ही गया है ते आपको पाकर ही
रहूॅंगी... बाई हुक या क्रुक... समझे आप? किसी
ने कहा है कि प्यार में जोर-जबरदस्ती नहीं की जाती। मैं आपको अपने राह पर ले ही
आउंगी एक दिन। कहते हुए उसने जमीन पर पड़े टॉप को उठाया, पहना
और जूतियॉं खटखटाती बाहर निकल गई।
दरवाजा धड़ाम से बंद हो गया था।
उस खूबसूरत बला को वह गुस्से में जाता देखता
रहा। दरवाजे की धड़ाम सी आवाज सुनते ही उसका दिल भी जोरों से धड़कने लगा था। वह
सोचने लगा था- उर्वशी जाते-जाते उसे खुली धमकी दे गई है। गुर्राहट से साफ झलकता है
कि वह चैन से नहीं बैठेगी। वह कोई भी हरकत कर सकती है। आने वाले दिन उलझनों से भरे
मिलेंगे... यह तय है। एक घायल नागिन और एक अतृप्त-आत्मा अपना बदला लेने के लिए उस
समय तक घात लगाए बैठे रहते हैं, जब
तक वे अपना बदला नहीं भंजा लेते। उसे अब हर कदम पर सावधानी बरतनी होगी।
वह
यह भी सोचने लगा था- कैसी नादान व बेवकूफ लड़की है उर्वशी। शरीर से वह भले ही एक
सम्पूर्ण औरत के जिस्म में ढल गई है, लेकिन
उसका बचपना अभी भी नहीं गया है। अकल से भी कच्ची लगती है... वह यह नहीं जानती कि
दिल कोई ऐसी-वैसी फालतू चीज तो नहीं कि जब मन में आया, किसी
को भी उठाकर दे दिया। वह क्या जाने दिल और दिल की भाषा। लापरवाही से सिर झटकते हुए
उसने अपने आप से कहा था।
जाने को वह चली तो गई थी लेकिन एक शांत झील
में वह एक बड़ा-सा पत्थर जरूर उछाल गई थी। उसका मन भी किसी झील की तरह अशांत हो उठा
था। विचारों की असंख्य लहरें, तट
पर आकर टकराने लगी थी।
पूरी रात वह चैन की नींद नहीं सो पाया था।
सुबह होने के साथ ही सामान गाड़ियों पर लादा
जाने लगा था।
वापिस लौटने के साथ ही निशा बिस्तर पर जा
टंगी थी।
वह न तो चल-फिर ही सकती थी और न ही कोई काम
ही कर सकती थी। कभी वह तकिया का सहारा लेकर बैठी रहती अथवा मैग्जीन के पन्ने पलटती
रहती या फिर अपनी ऑंखें बंदकर अपनी पलकों में मीठे हसीन सपनां को सजाती रहती। समय
था कि काटे नहीं कट रहा था।
वह इन बातों से सर्वथा अनभिज्ञ थी कि बाहर
कहॉं, क्या हो रहा है। वह
तो यह भी नहीं जानती थी कि कौन उसके खिलाफ विष-वमन कर रहा है।
सोते-जागते-उठते-बैठते वह अनिरूद्ध के बारे में ही सोचती रहती थी।
उसकी ऑंखों के सामने गोवा की हसीन वादियॉं,
उॅंची-नीची
पहाड़ियॉं, लहलहाता समुद्र तैरते
रहते और उन सबके बीच होता अनिरूद्ध।
अनिरूद्ध को पाकर उसके दिल की मुरझाई कलियॉं
फिर से मुस्कुराने लगी थीं। चारों तरफ वसंत का सा माहौल छाने लगा था। शरीर का
रोम-रोम सितार की तरह झंकृत हो रहा था। उसे तो ऐसा भी लगने लगा था जैसे वह किसी
परीलोक में चली आई है।
मीठे-हसीन सपनों को देखती हुई वह सो रही थी
कि अचानक दर्द का एक सैलाब आया और उसके सारे सपनों को बहाकर ले गया। एक तीखे दर्द
के अहसास ने उसे रोने पर मजबूर कर दिया था।
दर्द से निजात पाने के लिए उसने सिरहाने पड़े
दवा का रैपर उठाया, एक
गोली निकाली, जीभ पर रखी और पानी
के घूॅंट के साथ ही उसे हलक के नीचे उतार लिया।
दर्द अब भी पूरी रफ्तार के साथ चिलक रहा था।
थोड़ी देर बाद उसे राहत मिलने लगी थी। वह
पुनः अपने खयालों में खोने लगी थी।
उसे इस ख्याल ने लगभग चौंका ही दिया था कि
वह क्यों अनिरूद्ध को चाहने लगी है? क्या
उसे ऐसा करने का अधिकार है? क्या
आज का दकियानूसी समाज उसे ऐसा करने की इजाजत देगा? वह
कभी किसी की अमानत रही है, उसे
वह अपना दिल की क्या शरीर भी सौंप चुकी थी। क्या वह उसके प्रति विश्वासघात नहीं
होगा? जिस दिल में उसने अजय
को जगह दी थी, अब क्या वह उसे निकाल
बाहर फेंकेगी और अनिरूद्ध को बसने की जगह देगी। क्या वह इतनी आसानी से उसे भूल
पाएगी? अजय को एकदम से भुला
पाना उतना आसान नहीं है।
यह ठीक है कि उसके मन में अनिरूद्ध को लेकर
एक प्यार का पौधा अंकुरित हुआ है। वह उसे चाहने लगी है। वह सिर्फ एक-तरफा प्यार
है। क्या अनिरूद्ध के मन में भी इसी तरह का प्यार पनप रहा है? क्या वह भी उसे चाहने लगा है?
मेरे
अपने बारे में सब कुछ जानते-बूझते हुए वह क्या ऐसा कर पायेगा?
उसने
अपनी ओर से कभी भी इस बात को उजागर नहीं किया है। यह टीक है कि वह रोज़ उसे देखने
आता है। इसका आशय तो यह कदापि नहीं लगाया जा सकता कि वह केवल प्यार जताने ही आ रहा
है। एक सहकर्मी होने के नाते भी तो वह आ सकता है।
प्रश्नों के चक्रव्यूह में वह बुरी तरह
फॅंस गई थी और बाहर निकल जाने के रास्तों के बारे में कुछ भी नहीं जानती थी।
समय का बहाव अपने साथ सब कुछ बहाकर ले जाता
है। उसने अपने जीवन की नौका को समय के बहाव के साथ खुला छोड़ देने का मानस बना लिया
था। वह यह नहीं जानती कि उसकी नाव किस घाट पर जाकर लगेगी अथवा उद्याम लहरों के
थपेड़ां में चूर-चूर होकर, सदा-सदा
के लिए समुद्र के गर्भ में समा जाएगी।
प्रेम-प्यार-समर्पण जैसे शब्दों को
बलाए-ताक पर रखते हुए, वह
उस घड़ी का इंतजार करने लगी थी, जो
भविष्य की मुट्ठियों में कैद थीं।
उर्वशी चुप बैठने वालों में से नहीं थी। वह
चुप बैठी ही कहॉं थी। आने के साथ ही वह इस उधेड़बुन में लगी रही थी कि वह किस तरह
से अनिरूद्ध को पा सकती थी। सारे हथकण्डे अपनाने के साथ ही वह उन्हें समाज में
बदनाम करने की भी योजना बना चुकी थी।
खबरों को सनसनीखेज बनाते हुए वह उसे कागजों
पर उतारती और अखबारों के पन्नों के बीच रखवाकर उन्हें घरों-घर पहुॅंचवाने लगी अथवा
खिड़की-दरवाजों की सुराखों से अंदर डलवा देती। शुरू-शुरू में लोगों ने उसे महज एक
एड का पुर्जा समझकर रद्दी की टोकरियों के हवाले कर दिया तो कभी उसे यूॅं ही फाड़कर
फेंक दिया। फिर अचानक ही ये खबरें लोगों की जुबान पर चढ़कर बोलने लगी। बद्रीविशाल
के विशाल व्यक्तित्व के चलते लोगों की हिम्मत उनके सामने मुॅंह खोलने की तो नहीं
हुई, लेकिन दोनों के
प्रेम-प्रसंगों की चर्चाएॅं आम हो गई थी।
अपने मिशन को असफल होता देख वह क्रोध में
भरने लगी थी। असफल होने के बावजूद उसने हिम्मत नहीं हारी थी। अब वह कॉलेज परिसर
में ही नए-नए हथकण्डे अपनाती और अनिरूद्ध को रिझाने की कोशिश करती। अनिरूद्ध भी कम
होशियार नहीं था। वह उसकी हर चाल को शिकस्त देता चलता था।
अनिरूद्ध निशा से मिलने और हाल-चाल जानने
के लिए सुबह समय नहीं निकाल पाता था। हॉं, शाम
को वह कॉलेज से छूटते ही वहॉं जा पहुॅंचता था।
आने के साथ ही वह सीधा बाबूजी के कमरे में
जा पहुॅंचता था। निशा के हाल-चाल पूछता, फिर
यहॉं-वहॉं की बातें करता हुआ, वह
वापिस हो लेता था। उसने कभी-भी भूलकर सीधे निशा के कमरे में जाने की जहमत नहीं
उठाई थी। उसकी अपनी शालीनता, आत्म-सजगता
और कुशल-व्यवहार से सभी का दिल जीत लिया था। बाबूजी भी उसमें अपने बेठे का स्वरूप
देखकर उसे पुत्रवत् स्नेह भी करने लगे थे। निशा भी उसके कर्तव्यबोध की सराहना करते
नहीं थकती थी।
दो माह बाद वह पूर्णतः स्वस्थ हो गई थी।
हड्डियॉं जुडृ गई थी और अब वह चल-फिर भी सकती थी।
कॉलेज जाने के लिए अपनी गाड़ी न निकालते हुए
उसने पैदल ही जाने का निश्चय किया। दरअसल वह यह देखना चाहती थी कि कहीं कोई
कोर-कसर बाकी तो नहीं रह गई है।
हाथ में किताबों को उठाए वह कॉलेज की ओर बढ़
रही थी। बाहर आते ही उसे लगा कि इस बीच पूरी दुनिया ही बदल गई है।
उसे देखते ही औरतों और पुरूषों की भीड़
इकट्ठी होने लगी थी। वे आपस में खुसुर-फुसुर भी करते जा रहे थे। उन्हें ऐसा करता
हुआ देख, वह असहज होने लगी थी।
उसे आश्चर्य इस बात पर हो रहा था कि पूर्व में ऐसा कभी नहीं हुआ था।
जब वह अपने क्लास-रूम में पहुॅंची तो
ब्लैक-बोर्ड पर अपनी और अनिरूद्ध की तस्वीरें बनी देखकर वह सन्न रह गई थी। कमरे
में सन्नाटा पूरी तरह से पसरा हुआ था। छात्र-छात्राएॅं टकटकी लगाए उसके चेहरे पर
पड़ने वाले प्रभावों को पढ़ने की कोशिश कर रहे थे।
वह समझ गई। उसे समझने में ज्यादा देर भी
नहीं लगी थी। उसके सोच के केंद्र में उर्वशी थी। वह जानती थी कि वह कुछ भी कर सकती
है। गोवा की ट्रिप में भी वह यह ऐसी-वैसी हरकतें कर चुकी थी लेकिन तब वह माहौल को
गड़बड़ होता नहीं देखना चाहती थी, लेकिन
पानी अब सर पर से उॅंचा बहने लगा था।
वह यह भी जानती थी कि इस समय थोड़ा-सा भी
आक्रोश दिखाने से मामला खटाई में पड़ सकता है। संभव है कि वह बाजी भी हार जाए और
लोगों के बीच तमाशा बनकर रह जाए।
अपने धैर्य और संयम को बचाए रखते हुए उसने
अपने ओंठों पर एक विस्मित भरे हास्य को बिखेरा, जैसे
कुछ हुआ ही न हो। उसने डस्टर उठाया और बोर्ड साफ करते हुए उसी तन्मयता से पढ़ाने
लगी, जैसे वह पहले भी पढ़ाती आई
थी।
अपना पिरीयड पूरा करने के बाद उसने उर्वशी
से मुखातिब होकर कहा कि वह उससे अलग से बात करना चाहती है, एकांत
में।
उसे अब उर्वशी का इंतजार था। एक पेड़ के
नीचे खड़े रहकर वह उसके आने का इंतजार कर रही थी।
उर्वशी को आता देख उसने संतोष से गहरी
सॉंसें ली और अब वह उसके साथ आगे बढ़ने लगी थी।
रास्ता चलते उसने मौन ओढ़ रखा था। उर्वशी
हतप्रभ थी कि कि मेडम उसे कहॉं और क्यों ले जाना चाहती है।
रास्ता कट गया और कब घर आ गया,
पता
ही नहीं चल पाया। उर्वशी भी बिना कुछ बोले उसके पीछे-पीछे यंत्रवत् चलती रही थी।
अपने कमरे में प्रवेश करने के साथ ही निशा
ने अपनी तर्जनी उठाकर उस ओर इशारा किया जहॉं अजय की तस्वीर लटक रही थी और उस पर एक
माला भी लटक रही थी। उसने कम से कम शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा- ष्ये मेरे
स्वर्गवासी पति अजय की फोटो है।ष्
उर्वशी की नजरें चकराने लगी थी। वह सोचने
लगी थी...अरे... इसकी सूरत तो हू-ब-हू अनिरूद्ध से मिलती है। ऐसे कैसे हो सकता है?
उसने
अपने आप से कहा था
--------------------------------------------------------------------------------------------------
6. अपने-अपने आसमान
अपने-अपने आसमान
“बाबूजी
sssssss....” उसकी
आवाज मे तल्खी थी. वह चीखकर बोला था. बोलते समय उसके ओंठ कांपे थे. चेहरे पर तनाव
की परछाइयाँ साफ़ देखी जा सकती थी. वह तमतमाया हुआ था. उसकी तर्जनी बाबूजी के तरफ़
तनी हुयी थी.
“बाबूजी......बस ! बस बहुत हो चुका. जितना कहना था.....कह चुके. हमें अब
समझाने की जरुरत नहीं. बहुत समझा चुके आप. अब हम बच्चे नहीं रहे...हमें अपनी
जिन्दगी अपने हिसाब से जीने दें...”
रामप्रसाद का चेहरा फ़क्क पड़ गया था. आवाज गले में फ़ंसकर रह गयी थी. मुँह खुला
रह गया था. वे अवाक थे. अजय के चेहरे पर क्रोध की परतों को कुरेदकर देखने लगे थे. मन
में विचारों का तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था. अंदर सब क्षत-विक्षत था. नजारा देखते हुए वे
सोचने लगे थे.
“अजय में इतनी हिम्मत कहाँ से आ गयी कि वह अपने पिता से जबान लड़ाने लगा. भूल
गया वह किससे बात कर रहा है. अपने पिता से...... वह भी इस लहजे में... वे अपने
आपको टटोलने लगे थे. बोले गए शब्दों को मन ही मन दोहराने लगे थे. याद नहीं पडता कि
उन्होंने अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया था. फ़िर एक बाप अपने बेटे से दोयम-दर्जे
की बात क्यों कर कह सकेगा. वह तो वही बोलता है, जिसमें उसकी भलाई छुपी हुई होती है....वह
उसके लिए कल्याणकारी हो......उसका हितवर्धन करती हो.”
उनकी अब तक की जिन्दगी पढने-पढाने में ही बीती है. कितने ही विध्यार्थियों
को वे अब तक पढा चुके हैं...कितने ही विध्यार्थी उनके कुशल मार्गदर्शन में पी.एच.डी
की उपाधियाँ हासिल कर चुके हैं. अपनी उच्च परम्परा ,कर्तव्यनिष्ठा एवं आदर्श के
लिए वे सदैव याद किए जाते हैं. आज भी उन्हें भिन्न-भिन्न विषयों पर आख्यान देने के
लिए आदर के साथ बुलाया जाता है.
निश्चित ही अजय के कोमल मन में किसी ने विष-वृक्ष बो दिए हैं. कौन है वह ?
क्यों वह उनकी अमन-चैन की जिन्दगी में बवण्डर उठाना चाहता है? क्यों लोग चाहते है
कि उनके नीड का तिनका-तिनका बिखर जाए?” तरह-तरह के प्रश्न उन्हें उद्वेलित-व्यथित
कर जाते.
अजय के चेहरे से चिपकी नजरें हटाते हुए उन्होंने कामिनी की ओर देखा. वह एक
ओर खडी नजारा देख रही थी. उसकी आँखों में एक विशेष चमक थी और होंठॊं पर कुटिल
मुस्कान. वे समझ गए. समझने में तनिक भी देर नहीं लगी. झगडॆ की जड में शायद इसी का
हाथ हो.?
सरस्वती के पुत्र हैं वे, जबकि कामिनी लक्ष्मी की दासी. एक करोडपति बाप की
इकलौती संतान. जब सरस्वती और लक्ष्मी में नहीं निभी तो उनके अनुयायी के बीच तालमेल
कैसे बैठ सकता है?. लक्ष्मीपुत्रों ने सदा से ही सरस्वती-पुत्रों का मखौल ही उडाया
है. मन के कोने में संदेह के बीज पनपने लगे थे.
उन्होंने कातर नजरों से कांता की ओर देखा. वे भी अजय के व्यवहार से नाखुश
थी. वह भी स्तब्ध खडी थीं. जुबान होते हुए भी गूंगी. जिंदा होते हुए भी जडवत,
पाषाण-खण्ड की तरह.
कांता का मन घडी के पेण्डुलम की तरह दोलायमान हो रहा था. कभी इधर-कभी उधर.
वह सोच रही थी., किसका पक्ष लूँ, किसका नहीं. अजय का पक्ष लेती है तो पतिव्रत-धर्म
आहत होता है. पति के नजरों में गिर भी सकती है. पति का पक्ष लेती है, तो ममता घायल
होती है. दो भागों में बंटी औरत कितनी विवश, कितनी लाचार, कितनी अवश होती है. औरत
तो सदा से ही खण्ड-खण्ड होती आयी है.
खण्ड-खण्ड होते हुए भी उसमें दया-ममता-करुणा के विविध स्त्रोत बने ही रहते
हैं. सदियों से यह क्रम औरत जात का पीछ करता आया है. उन्हें सब कुछ लुटाना पडता
है. यहाँ तक नेह भी, प्यार भी और देह भी. वे तरह-तरह से लूटी जाती रही हैं. लुटने
का ढंग भिन्न-भिन्न हो सकता है.
फ़िर उसे कितने ही संबंधों के बीच से होकर गुजरना पडता है. कभी वह दुर्गा
बना दी जाती है, तो कभी काली, कभी कुछ और. देवी बनकार आशीर्वाद भी तो लुटाने पडते
हैं उसे. जब वह दांव पर चढा दी जाती है तो विवस्त्र भी किया जाता है उसे. कभी वह
वैश्या बनाकर कोठे पर बिठा दी जाती है. देह लुटाने के बदले में उसे मिलती है चाँदी
की खनक, जो बुढाते देह के साथ ही अपनी चमक खोने लगती है. किस का पक्ष ले कांता,
किसका न ले? मन में अब भी चक्रवात सक्रिय
था.
अजय के द्वारा कहे गए शब्दों की अनुगूंज अब भी इसके कानों में सुनाई पड
रही थी. अजय की बातों से साफ़ झलक रहा था कि उसने अपना रास्ता चुन लिया है. अपना
अलग घर बसा लेने का मानस बना लिया है.
माँ सब कुछ सह सकती है. दुनियां के सारे दुख-दर्द उठा सकती है. पर पुत्र
वियोग की बात वह सहन नहीं कर सकती. उसका मन राई के दानों की तरह बिखर-बिखर गया था.
पुत्र की कामना ने कितना भटकाया था उसे. कितनी ही मनौतियाँ मांगने, कितने
ही देवालयों की चौखट पर माता नवाने, पीर-पैगंबरों की मजारों पर सजदा करने के बाद
उसने अजय को पाया था. अजय के लिए उसने अपने दिन का चैन और रातों की नींद सभी कुछ
लुटा दिया था.
अपने जीवन का अर्क निचोडकर पिलाया था उसने. उसे संस्कार दिए. समाज में
सम्मानपूर्वक जीने का हक दिया. पिता ने भी क्या कुछ नहीं दिया. पिता ने उसे
शरीर-जमीन, आश्रय मिला. उसने उसे आसमां में उडने के लिए दीक्षित किया. आसमान से
परिचय करवाया. आज वही अजय अपने पिता को धमकाने पर उतर आया. अखिर
क्यों......क्यों....?
कांता की नजरें कामिनी के चेहरे पर जा टिकी. रुप में वह खिले हुए कमल की
तरह थी ,तो रंग में धुली हुई चांदनी की तरह. कामिनी की आँखों में कौंधती बिजली की
चमक और होंठों पर कुटिल मुस्कान देखकर वह अन्दर तक कांप सी गई थी. एक अज्ञात भय मन
की गहराइयों तक उतर आया था. कितना भला समझा था उसने कामिनी को. लेकिन वह तो गुड
भरी हसियां निकली. उसके मन में कुछ न होता तो वह अजय को अपने दुष्कृत्य के लिए
टोकती. उसे मना करती. उसके विरोध में खडी हो जाती. संदेह कुछ-कुछ यकीन में बदलता
जा रहा था.
कामिनी नहीं चाहती थी कि उसका पति अपनी माँ का पल्लु पकडॆ-पकडॆ उसके पीछे
डॊलता फ़िरे. वह यह भी नहीं चाहती थी कि वह अपने पिता की डुगडुगी की आवाज पर पालतू
रीछ की तरह नाचता रहे. वह तो कुछ और ही चाहती थी. वह चाहती थी कि अजय के संग तितली
बनकर,हवा की पीठ पर सवार होकर इठलाती-बलखाती डोलती फ़िरे. फ़िर महलों की रहने वाली
शहजादी का दम घुटता था कच्चे मकान में. वह चाहती थी कि एक काबिल अफ़सर अपने स्टेटस
के मुताबिक रहे. अजय एक हीरा है और वह चाहती थी कि उसे सोने के वृत्त में जडा जाना
चाहिए.
इंसाफ़ के तराजू के पडले ऊपर-नीचे होते हुए आखिर थिर हो गए. निर्णय पति के
पक्ष में गया. कांता का मौन मुखर हो उठा. जड-देह चैतन्य होने लगी. होंठॊं पर शब्द
फ़डफ़डाने लगे. आँखों में क्रोध उतर आया. अजय को उसकी औकात बतलाना भी जरुरी था. उसने
अजय के गाल पर तडाक से एक चांटा जड दिया. चांटा जडने के साथ ही वह केवल इतना भर कह
पायी- “अजय..अब चुप भी कर. क्या अधिकार है तुझे कि तू अपने देवतातुल्य पिता पर
उंगली उठा सके. जिस देवता ने तुझे शरीर दिया..... आत्मा दी..... वाणी दी.... तमीज
सिखाई..... समाज में सम्मानपूर्वक जीने का हक दिया. तू आज उन्हीं की बेइज्जती करने
पर उतर आया”. बस...बस इतना ही वे कह पायी थी और उसे गले से लगाते हुए फ़बककर रो पडी
थीं.
अजय के अदंर उमड-घुमड रहे विद्रोह का चक्रवात धीमा पडने लगा था. मन पर
जमीं अहं की परतें और घमण्ड के हिमकुण्ड पिघलकर आँखों से बह निकले.
कामिनी को समझते देर न लगी. उसे अपना मायाजाल ध्वस्त होता नजर आने लगा. वह
सोचने लगी. “मांजी ने क्रोध जता दिया और अपनी ममता का सागर भी उलीच डाला”. सारा
मामला लगभग शांत होता दिखा. अपनी विफ़लता देखकर वह क्रोध में भरने लगी थी. हारकर भी
हार न मानते हुए उसने अपने तरकश में बचा आखिरी तीर, लक्ष्य साधकर चला दिया.
“अजय....खूब अपमान करा चुके तुम अपना और कितना अपमानित होते रहोगे ? क्यों
पडॆ हो मेंढक की तरह इस कुएँ में, जिसकी अपनी छॊटी सी सीमा है.? तुम्हें तैरने के
लिए तो एक समुद्र चाहिए. क्यों दुबके पडॆ हो अपनी माँ के पल्लु से, जबकि तुम्हें
उडने के लिए एक आसमान चाहिए. क्यों घुट-घुट्कर जी रहे हो, जबकि तुम्हें धरती का सा
विस्तार चाहिए. ये तुम्हें कुछ नहीं दे सकते. ये दे भी क्या सकते हैं तुम्हें.?
इनके पास देने को कुछ बचा भी क्या है.? इन्होंने तुम्हें आदर्शों का मोमजामा भर
पहना दिया है. जबकि आज की दुनियां में इसकी कतई जरुरत नहीं है. खोखले हैं वे सारे
शब्द. वे कभी के अपनी अर्थवत्ता, अपनी गरिमा, अपनी चमक, सभी कुछ खो चुके हैं. ठीक
है...इनके सहारे तुम उस धरातल पर खडॆ तो हो सकते हो, लेकिन आकाश की ऊँचाइयों को
कभी नहीं छू सकते. सुनने मात्र में अच्छे लगते हैं ये शब्द. अब भी समय है
अजय....जागो!. तुम इस भुरभुरी जमीन पर कैसे खडॆ रह सकते हो?. तुम अब भी सूखे हुए
वृक्ष की कोटर में रहना चाहते हो तो रहो. मैं एक पल भी यहाँ ठहरना नहीं चाहती. दम
घुटता है मेरा यहाँ. तुम्हें अपमानित होने में मजा आ रहा हो तो शौक से रहो. मैं
तुम्हें अपमानित होता हुआ नहीं देख सकती....हरगिज नहीं. मैं आज और अभी, इस घर को
छॊडकर जा रही हूँ. तुम चाहो तो मेरे साथ चल सकती हो. बाद में आना चाहो तो, आ सकते
हो. तुम्हें मेरी नजरों की कालीन हमेशा बिछी मिलेगी”.
तीर लक्ष्य साधकर संधान किया गया था. तीर निशाने पर बैठा था. वह जानती थी
कि तीर की तासिर. वह तीर बेहोश करेगा, मगर होश भी बना रहेगा. वह देखेगा भी तो उसे
उसका अक्स नजर आएगा. उसे दर्द भी होगा. आह भी निकलगी....पर आह के साथ उसका अपना
नाम भी होगा. जानती है वह. वह तीर उसने उसके रुप-यौवन और मद के सम्मिश्रण के घोल
में बुझाकर तैयार किया था. एक ऎसे ही तीर का संधान अप्सरा मेनका ने किया था, जिसकी
घातक मार का सामना ऋषि विश्वामित्र को भी करना पडा था. उसके होंठों पर एक कुटिल
मुस्कान तैरने लगी थी.
“क्या कह रही हो कामिनी तुम ? क्यों हमारे विरोध में अजय को भडका रही हो?
क्या हमने तुम्हें पराया समझा?. तुम्हें अपनी बहू नहीं, बेटी माना है हमने. क्या
माँ-बाप को इतना भी अधिकार नहीं है कि वे अपने बेटे को डांट भी सकें.? तुम एक
माँ-बाप होने का हक हमसे छीनना चाहती हो?” कांता के स्वर में हताशा के भाव
सन्निहित थे. बोलते समय उसके होंठ भी कांपे थे.
“मुझे इस विषय में कुछ भी नहीं कहना है और न ही मैं कुछ कहना चाहूँगी.” पैर
पटकते हुए वह अपने कमरे में जा समायी और अपना सूटकेस तैयार करने लगी थी.
एक विभाजन-रेखा स्पष्ट रुप से खींची जा चुकी थी. कामिनी जानती थी कि अजय
उसके प्रेम-पाश में इस कदर जकडा हुआ है कि देर-सबेर ही सही, उसके पास चला आएगा.
अपने हृदय-कमल की पंखुडियों के भीतर, उसने अजय रुपी भौंरे को कैद करके जो रख लिया
था.
कामिनी जा चुकी थी. उसे जाते हुए सभी देख रहे थे. रामप्रसाद एवं कांता
अपने नीड को उजडते हुए देख रहे थे. वे जानते थे कि कामिनी रोके से रुकने वाली नहीं
है. कामिनी के जाते ही एक बडा सा शून्य सभी के मन में उतर आया था.
अजय का दिन का चैन व रातों की नींद छिन गई थी. भूख-प्यास से जैसे उसको कोई
नाता ही नहीं रह गया था. वह खोया-खोया सा रहता. बाबूजी समझाते. माँ समझाती. कामिनी
को वापिस ले आने की कहते तो वह चुप्पी लगा जाता और कमरे में अपने आपको बंद कर
लेता.
माँ अपने पुत्र की हालत देखकर परेशान हो जाती. भला वह अपने पुत्र को दुखी
देख भी कैसे सकती थी. जानती थी कि कामिनी जिद्दी है. फ़िर एक करोडपति बाप की इकलौती
संतान थी. उसने एक बार जिद पकड ली तो पूरा कराये बगैर वह कब मानती थी. उसके पिता
उसकी जिद्द पूरी किये देते थे. माँ-बाप को हक है कि वह अपनी संतान की जिद पूरी
करें,लेकिन उन्हें यह बात ध्यान में अवश्य रखनी चाहिए कि जिद कहीं आदतों में शुमार
न हो जाएं. नदी को अपनी निर्बाध गति से अवश्य बहना चाहिए. पर यह भी ध्यान में रखा
जाना चाहिए कि तटबंध मजबूत हो, अन्यथा वह अपनी उद्दण्डता के चलते बस्तियाँ उजाड
देती हैं.
वे नारी स्वतंत्र्यता की प्रबल
पक्षधर रही है. स्वतंत्रता कहीं स्वछन्दता में न ढल जाए, इस बात का ध्यान भी
माता-पिता को रखना चाहिए. उन्हें समझाना चाहिए कि
देह के भीतर और देह के बाहर भी बहुत कुछ होता है.
अजय को उन्होंने संस्कार दिये थे. पता नहीं...कहाँ कोई कमी रह गयी कि बीज
ढंग से अंकुरित नहीं हो पाए. रह-रहकर एक बवण्डर सा उठता. रह-रहकर बीती बातें याद
आतीं. शादी से पूर्व उन्होंने कामिनी को लेकर जो अंदाजा लगाया था, वह शत-प्रतिशत
सच निकला. “संबंध हमेशा बराबरी वालों से किया जाना चाहिए” का सिद्धांत जानते-बूझते
हुए, और फ़िर अजय की जिद के चलते उन्हें यह रिश्ता स्वीकार करना पडा था.
शाम को छत पर बैठी कांता सूरज को अस्ताचल में जाता देखती रही थी. ललछौंही
किरणॊं से पीपल के पत्ते संवलाने लगे थे. पक्षियों के दल लौटने लगे थे. वे अपने
मुँह में दाना-चुग्गा भर लाई थे, अपने शिशुओं के लिए. दाना-चुगा खिला देने के बाद
वे आपस में बतियाने लगे थे. दूर-दूर तक उड कर जाते, फ़िर वापस लौट आते थे. शायद वे
अपना कौशल दिखा रहे थे. सूरज अपनी किरणॊं के जाल को समेटकर पहाड़ के उस पार उतर
जाना चाहता था एक सुरमयी अंधियारा सा छाने लगा था. सारे पक्षी उसकी बिदाई में
सांध्य गीत गाने लगे थे. बूढे पीपल के देह में झुरझुरी सी भर आयी थी. वह भी
तालियाँ बजा-बजाकर पक्षियों का उत्साहवर्धन कर रहा था..
अपनी अंतिम किरण समेट लेने से पूर्व, सूरज इस बात को देखता चला था कि उसका
अपना परिवर आनन्दमग्न होकर गीत गा रहा है. सभी खुशी में झूम रहे हैं. वह चाहता था
कि इसी तरह सब कुछ चलता रहना चाहिए. वह इस आशा के साथ दक्षिणायन के पथ पर बढ चला
था कि जब वह नए रूप में पूरब से उगेगा तो उसे उसका समूचा परिवार, इसी तरह आनन्द
में डूबा मिले. हँसता-गाता मिले और पूरे जोश-खरोश के साथ उसका स्वागत करे.
छत पर सुबह-शाम टहलना-बैठना अब कांता की दिनचर्या हो गयी थी. खगोलीय घटना
को घटते देख उसे अपार खुशी मिलती थी. पक्षियों की गतिविधियों को बारिकी से देखते
रहने में उसे अपार प्रसन्न्ता होती थी. उसे यह जानकर बेहद खुशी हुई थी कि
भिन्न-भिन्न प्रजाति के मूक-पखेरु किस तरह आपस में हिलमिल कर रहते हैं. कैसे अपने
परिवार को चलाते हैं, जहाँ लडाई-झगडा या फ़िर वाद-विवाद के लिए कोई जगह नहीं होती.
उसने देखा. पक्षियों के बच्चे जब अबोध होते हैं, अपने कोटर में ही रहते
हैं. मादा, शिशु को चुगा-दाना देती रहती है. जब उनके पंख उगने शुरु होते हैं, तो
वह उन्हें उडना भी सिखलती है. कभी-कभी तो वह अपने शिशु को घोंसले के बाहर धकेल
देती है ताकि वे जल्दी उडना सीख जाएं.
बच्चे जब जवान होते हैं तो अपनी पसंद का जीवन-साथी चुनते हैं. जोडा बनाकर
ही वे गर्भाधान की प्रक्रिया अपनाते हैं. मादा के गर्भवती होते ही, दोनो मिलकर नीड
बनाने में व्यस्त हो जाते है, तिनका-तिनका जोडकर घोंसला बनाया जाने लगता है.
नीड के बनते ही मादा अंडॆ देती है. उसे सेती है तब तक, जब तक शिशु बाहर
नही आ जाता. अब नर पक्षी की ड्यूटी बनती है कि वह मादा की देखभाल करे और उसके उदर
पोषण की भी व्यवस्था करे.
उसने एक बात शिद्दत के साथ नोट की थी कि घोंसला केवल एक बार ही बनता है.
उसका उपयोग बाद में नहीं होता. जब शिशु जवान होकर घोंसला छॊड चुका होता है ,
बेलगाम हवा उन घोंसलों को अपने थपेडॊं से तहस-नहस कर डालती है. अपने उजडते हुए
घोंसलों को वे वैराग्यभाव से देखते जाते हैं. घोंसलॊं के प्रति उनका मोह तब तक बना
रहता है, जब तक इनमें उनके बच्चे चहचहाते रहते हैं.. “जिसे एक बार छॊड दिया, उसके
प्रति फ़िर मोह कैसा? शायद यह निष्काम-भाव- वैराग्य का भाव,उन्होंने प्रकृति के
सांनिध्य में रहकर ही सीखा होगा.
कांता को सूत्र मिल गया था. सूत्र इस प्रकृति की मूक भगवदगीता थी. वहाँ न
तो अर्जुन था. न कौरवों की फ़ौज,. न वहाँ कोई मान-समान की भूख थी, न ही अपमानित
होने पर प्रतिशोध के लिए धधकती ज्वाली थी, न राज था और न ही ही पाट, वहाँ
श्रीकृष्ण भी नहीं थे. होना भी नहीं चाहिए थे. वे वहाँ हो भी कैसे सकते थे. बिना
सुने वे गीता का भाष्य सुन चुकी थीं. बिना देखे वे कृष्ण की उपस्थिति का अहसास भी
कर चुकी थीं.
कांता ने रामप्रसादजी को छत पर बुलाया. कुर्सी पर बिठाते हुए प्रकृति की उत्तम
व्याख्या कह सुनायी. नीड बनाते जोडॊं व नीड गिराती हवा को प्रत्यक्ष दिखलाने लगी
थी.
रामप्रसादजी ने कांता की आँखों में आँखें डालकर भीतर तक झांका. एक नीला,
अनंत सागर, अन्दर अपने पूरे विस्तार के साथ फ़ैला हुआ था.
कुछ हद तक असहमत होते हुए भी उन्होंने अपनी सहमती प्रदान कर दी थी. वे इस
बात पर सहमत हो गए थे कि अजय को भी अपना नीड बनाने की स्वतंत्रता है. उन्होंने
निश्चय कर लिया था कि सुबह होते ही वे अजय को बंधनमुक्त कर देंगे ताकि वह नीलगगन
में अपनी उडान भर सके.
बादलों को बलात हटाते हुए एक नया सूरज आसमान के पटल पर मुस्कुराने लगा था.
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
7. अपराधी.
गर्भवास का पिंड छुड़ाकर अभी-अभी तो वह बाहर आया है और आते से ही बेहोश हो गया
था. उसे नहीं मालुम कि वह कितने घंटे बेहोश पड़ा रहा. इस समय वह खुद एक चादर में
लिपटा हुआ था. आंख खुलते ही उसने अपनी नजरें चारों तरफ़ घुमाते हुए कमरे का
निरीक्षण किया. कमरे में उसके सिवाय और कोई नहीं था. वह समझ नहीं पा रहा था कि इस
कमरे में कैसे आया या लाया गया. उसने गौर से देखा, चादर पर चाय के दाग जैसा मटमैला
रंग, लिपस्टिक के सुर्ख लाल रंग और खून के धब्बे साफ़-साफ़ दिखलाई दे रहे थे जो किसी
अनहोनी के होने की गवाही दे रहे थे. उसने यह भी महसूस किया कि उसका शरीर किसी
चिपचिपी झिल्ली में लिपटा हुआ है. तभी एक तेज दुर्गंध का झोंका उसके नथुनों से आ
टकराया. थोड़ी देर तक तो वह इस बदबू को किसी तरह सहता रहा, लेकिन अब उसकी
सहनशक्ति बर्दाश्त से बाहर होने लगी थी. इस
दमघोंटू बदबू के चलते उसका दिमाक भिनभिनाने लगा था. उसने हाथ-पैर चलाते हुए अपने
आपको चादर से मुक्त करना चाहा. मुक्त होते ही उसने चादर के एक सूखे छोर से अपने
शरीर को मलते हुए लिसलिसी झिल्ली को साफ़ किया और उठ खड़ा हुआ.
०००
कमरें में टंगे आईने में उसे अपना अक्श दिखाई दिया. वह एकदम नंग-धड़ंग पड़ा था.
अपने को नंगा देखकर उसे थोड़ी से शर्म तो आयी, लेकिन वह कर भी क्या सकता था. पलंग पर से उछलकर वह नीचे फ़र्श पर आ गया. सूने पड़े कमरे का उसने
शुक्ष्मता से निरीक्षण किया. कोने में टेबुल पर कुछ किताबें पड़ी थीं स्थानीय कालेज
के फ़ायनल ईअर की थीं, जिस पर उस युवती के हस्थाक्षर थे, जिसके साथ कुछ देर पहले उसने इसी कमरे में प्रवेश किया था.
इतना याद आते ही उसके दिमाक की स्क्रीन पर उस युवती का चेहरा उभरने लगा. वह सोचने
लगा था कि क्या,यही वह खूबसूरत युवती है
जिसने उसे पिछले नौ माह तक अपने गर्भ में रखा और उसके बाहर आते ही उसे अपने शरीर
का हिस्सा मानने से इनकार कर उसे अपने हाल पर छॊड़कर चलती बनी. खूबसूरत जिस्म में
बदसूरत विचार कैसे पनप पाया होगा यह उसकी सोच से बहुत दूर की बात थी. एक - दो दिन
नहीं पूरे नौ माह तक वह उस युवती के जिस्म का हिस्सा रहा है, उसी की सांस से सांस
लेता रहा है और उसी के आहार से आहार लेता रहा है. वो जो सपने देखती रही है, उन्हीं
सपनों को देख-देखकर वह क्रमशः बड़ा होता चला गया था. अतः उसकी सारी सोच और
गतिविधियों का वह चशमदीद गवाह रहा है. उसे अपना अतीत याद आने लगा था. कालेज के
अपने कक्ष में बैठी वह प्रोफ़ेसर का लेक्चर ध्यान से सुन रही थी, तभी उसके पेट में
कुछ हलचल हुई. अपनी धीमी आवाज में वह उससे कुछ कहना चाह रहा था, कि अब वह ज्यादा
समय तक उसके गर्भ में ठहर नहीं पाउंगा. लेकिन वह लेक्चर सुनने में इतनी मगन थी कि
उसे मेरी आवाज तक सुनाई नहीं दी. यह तो प्रकृति का नियम है, जिसे चाह कर भी कोई
उसकी अवहेलना नहीं कर सक्ता. उसे फ़िर एक मर्मान्तक पीड़ा होना शुरु हुई. अब वह एक
पल भी सीट पर बैठ नहीं सकती थी. बिना शोर किए वह अपनी सीट से उठ खड़ी हुई. किताबों
को बगल में दबाया और बाहर निकल आयी. समय कम था, कभी भी कुछ भी हो सकता था. कालेज
परिसर से बाहर निकलकर उसने एक रिक्शे वाले को हास्पिटल चलने को कहा और बैठने से
पहले ही उसने रिक्शे वाले के हाथ में एक सौ रुपये का नोट थमा दिया. वह दबी आवाज
में केवल इतना ही बोल पायी थी कि जितनी जल्दी हो सके मुझे हास्पिटल पहुंचा दे.
दोपहर के लगभग दो बज रहे थे, हास्पिटल के परिसर में सन्नाटा पसरा पड़ा था.
इक्का-दुक्का कोई आता-जाता दिखाई दे जाता था. काउन्टर पर कोई कर्मचारी नहीं था.
डाक्टरों के कक्ष भी खाली पड़े थे. हो सकता है कि लंच टाईम में सभी खाना खाने के
लिए जा चुके थे. गैलेरी से गुजरते हुए उसने एक खाली कमरे को देखा. उसने उस कमरे
में प्रवेश किया, दरवाजे की कुंडी चढ़ा दी, अपनी साड़ी और पेटीकोट को उतारकर कोने
में पड़े एक टेबुल पर उछाल दिया और पलंग पर आकर पसर गई.
कुछ देर बाद उसके पेट का दर्द नीचे जांघों की ओर खिसकने लगा था और फ़िर उसे लगा
कि दर्द का एक दहकता हुआ गोला, जो उसके अन्दर घूमते हुए उसकी रगों और मांस को
झुलसा रहा था, एकाएक बाहर आ गया है. तब उसने उस व्यक्ति की तरह महसूस किया था जो
टनो वजनी दरख्त के नीचे दबा पड़ा हो और अचानक उसे एक झटके में दूर फ़ेंक कर उठ खड़ा
हुआ हो. कुछ देर तक तो वह पलंग पर खामोशी के साथ पड़ी रही. गहरी सांस लेते हुए अपने
को राहत पहुंचाने लगी थी. अपने आपको अब सामान्य स्थिति में पाकर वह झटके के साथ
पलंग से उठ खड़ी हुई. शीघ्रता से उसने पलंग पर बिछी चादर से अपने अंगों को साफ़
किया. शरीर पर जहां-तहां खून के छींटे लगे थे, उन्हें साफ़ किया. नवजात को उसी चादर में अच्छी तरह से लपेट दिया. वाशरुम
मे जाकर उसने मुंह-हाथ धोए और दीवार पर टंगे आईने में अपने निस्तेज हुए चेहरे को
निहारा, बालों में कंघी फ़ेरी, बाहर निकली और झट से दरवाजा बंद कर अपनी सैंडिले
खटखटाते हुए अस्पताल से बाहर निकल आयी. यह सब कुछ इतनी जल्दी में हुआ कि वह अपने
नवजात शिशु का चेहरा भी ढंग से नहीं देख पायी.
हास्पिटल के परिसर से बाहर निकलकर उसने एक रिक्शा तय किया और अपने घर की ओर चल
पड़ी. रिक्शे में बैठते ही उए लगा कि वह बड़े बोझ से छुटकारा पा चुकी, जिसे वह नौ
महिने से उठाए हुए थी. उसे उम्मीद नहीं थी कि इतने सस्ते में निपट जाएगी. उसने ऊपर वाले को शुक्रिया अदा की और मन ही मन
उसे लाख-लाख धन्यवाद देते हुए बुदबुदाई कि अच्छा ही हुआ कि उसे किसी ने आते-जाते
नहीं देखा और न ही देख पाया कि उस सूने कमरे में वह क्या कुछ कर आयी है. अगर कोई
देख लेता तो बवाल मच जाता. पुलिस बुलाई जाती. और उसे अरेस्ट कर लिया जाता. तरह-तरह
के प्रश्न पूछे जाते और पूछे जाते मां-बाप के नाम और यह भी तो पूछा जाता कि किसके साथ
उसके अवैद्य संबंध रहे हैं. अखबार वाले कब पीछे रहते? वे भी इस खबर को बढ़ा-चढ़ा कर
प्रकाशित करते. चन्द घंटों मे यह मनहूस खबर लोगों के जुबान पर चढ़ जाती. पास-पड़ौस
के लोग नाम-मुंह सिकोड़ने लगते. कानाफ़ूसी शुरु हो जाती. लोग भले ही सामने आकर इस
बात को नहीं कह पाते,लेकिन आपस में कहा-सुनी शुरु हो जाती. कभी मां को दोषी ठहराते
कि क्या बुढ़िया अंधी हो गई थी जो अपनी बेटी की काली करतूत नहीं देख पायी. पिता को
कहा जाता कि बुढऊ करता क्या है दिन भर, कि वह अपनी बेटी पर नजर नहीं रख सका. जितने
मुंह उतनी बातें बनाई जातीं. उसकी स्वंय की क्या दुर्गत होगी ? उसकी कल्पना मात्र
से रुह कांपने लगी थी. वह कहीं की नहीं रहती. घर से बाहर निकला दूभर हो जाता.
सहनशक्ति जवाब दे जाती. हृदयविदारक बातों को वह भला कब तक सुन पाती और एक दिन किसी
नदी में डूबकर आत्महत्या कर लेती अथवा रेल की पांत पर जाकर अपनी ईहलीला समाप्त कर
लेती. बात केवल यहीं तक आकर नहीं रुकती. अखबार वाले इस खबर को नमक-मीर्च लगाकर
मुखपृष्ठ पर प्रकाशित करते. मोटे-मोटे अक्षरों में खबरें प्रकाशित होतीं कि कोई
निर्मम मां अपने सध्यप्रसूत संतान को छोड़कर भाग गई. पुलिस केस तो बनेगा ही. इसकी
घटना की खोज-खबर भी होगी, लेकिन उसका अपना कोई नाम इसमें नहीं जुड़ पाएगा. यह सोचते
हुए उसने गहरी सांस ली और एक बार फ़िर ऊपर वाले को शुक्रिया कहा.
०००
गर्भ में नौ माह तक बने रह कर उसने उसका घर-बार देखा है, बाप का घर भी देखा
है, लेकिन बदली हुई परिस्थिति में अब वह यह दावा नहीं कर सकता कि इस बेतरतीब बसे
शहर में वह उन जगहों तक पहुंच ही जाएगा. फ़िर उसने निश्चय किया कि वह अब कहीं नहीं
जाएगा. न ही जन्म देने वाली उस मां के बारे में जानकारी ही उठाएगा, जो समाज के डर
से उसे यतीम कर भाग निकली. अगर वह सचमुच में उसे अपना समझती होती तो इस तरह उसे
अनाथ न कर जाती. इस तरह छॊड़कर जाने के पहले उसने तनिक भी नहीं सोचा कि मैं अब किसके
सहारे जीवित रहूंगा. बिना मां के कोई बच्चा जीवित रहने की भला कैसे सोच सकता है? हो
सकता है कि मैं मर ही जाऊं. नहीं...नहीं...मैं अब न तो उस नवयुवती के घर जाऊंगा और
न ही उसे मां कहकर पुकारुंगा, क्योंकि एक मां होने का दर्जा उसने स्वयं छोड़ दिया
है.
खून के रिश्ते का ध्यान आते ही उसकी आंख के सामने उस युवक का चेहरा डोलने लगा
जिसके साथ वह नवयुवती अकसर आती–जाती रही है, जो उसके साथ कालेज में पढ़ता है. वह उस
युवक के घर की स्थिति जानता है, जहां वह रहता है. वह इसी शहर के सिविल लाइन में एक
कमरा किराये पर लेकर रह रहा है. उसके गर्भ में आते ही वह युवती उस युवक के कमरे
में घबराई हुई सी पहुंची थी. कमरा अन्दर से बंद था. हल्की सी थाप से कमरा खुला.
अपनी दिलरुबा को सामने पाकर वह खिल सा गया था. “ आओ..अन्दर आ जाओ...काफ़ी दिन बाद आ
रही हो? सब ठीक-ठाक तो है न !.मैं अभी फ़ोन लगाने ही वाला था”. उसने धीरे से उसका
हाथ पकड़कर बिस्तर पर बैठा लिया और गले में हाथ डालते हुए उसने एक भरपूर चुंबन लिया
और आंखे नचाते हुए कहने लगा... तुम्हारी यादें हमें चैन से सोने नहीं
देतीं..रात-रात भर जागकर केवल और केवल तुम्हारे ही बारे में सोचते रहता हूं. फ़िर
कान में फ़ुसफ़ुसाते हुए कहने लगा....बहुत दिन हो गए...कुछ हुआ नहीं” कहते हुए उसने उसे अपनी बाहों के घेरे में कस
लिया
वह किसी हिमशिला सी जड़वत बैठी थी और उसकी आंखों से आंसू झरने लगे थे. आंखों
में आसूं देखकर वह युवक दहल सा गया था. एक अज्ञात भय ने उसे अपनी लपेट में ले लिया
था. लगभग भरभराई आवाज में उसने धीरे से पूछा-“ क्या बात है? आखिर तुम रो क्यों रही
हो? कुछ तो बोलो..मेरा दिल जोरों से घबराने लगा है. बोलो...बोलो..आखिर क्या बात
है, तुम्हें इस तरह निराश और हताश देखकर मेरा दिल बैठा जा रहा है. बोलो डार्लिंग
कुछ तो बोले ?
“ पन्द्रह दिन से ऊपर हो गए हैं ?”
“ मैं समझा नही”
“ हर माह की दस तारीख को बैठती हूं..आज तीस हो गई. मुझे तो डर लगा रहा है कि
कहीं मैं..... ?”
युवक ने युवती के चेहरे को गौर से देखा. चेहरा देखकर उसने अन्दाजा लगाया. लगा
कि वह सही बोल रही है“ तो इसमे घबराने वाली कौन सी बात है?.
युवती को लगा कि शायद वह इस बात को गंभीरता से नहीं ले रहा है.
“ यह मजाक का वक्त नहीं है. सचमुच में मुझे डर लग रहा है. कुछ गड़बड़ी तो
निश्चित रुप से हुई है. मैंने तुम्हें मना भी किया था कि जल्दबाजी अच्छी नहीं,
लेकिन तुम माने नहीं.”
“ ओफ़ ओ...तुम भी न..!..इतनी छोटी सी बात में घबरा गईं. मैं हूं न !. फ़िर
डाक्टरी पढ़ रहा हूं. कल ही मैं तुम्हारे लिए टेबलेट्स लेता आउंगा. देखना...सब ठीक
हो जाएगा.” चलो...अब थोड़ा सा मुस्कुरा भी दो .”कहते हुए उसने उसके बहते हुए आंसूओं
को अपनी हथेली से पोंछ डाला.
उसके चेहरे पर एक हल्की सी हंसी की किरण फ़ूटी और तत्काल बुझ भी गई.
“लो तुम फ़िर सीरियस हो गईं. अरे भई...माडर्न युग की बाला हो, माडर्न जैसी रहो.
यही तो खाने और खेलने के दिन है. एक बार चक्की-चूल्हे से लग गए तो फ़िर किसे सिर
उठाने की फ़ुर्सद मिलेगी?. उसके शरीर पर दबाव बनाते हुए उसने उसे बिस्तर पर लिटाना
चाहा लेकिन वह बुत बनी बैठी रही.
“ हम
क्या, सभी जानते हैं, औरत और मर्द के मिलन से क्या होता है? क्या तुम इतना भी नहीं
जानतीं? फ़िर इसमें डरने और घबराने वाली जैसी बात नहीं है. कल ही तुम टैबलेट ले
लेना. सब ठीक हो जाएगा.
’मीठी-मीठी बातें करके फ़ंसाना तो तुम अच्छी तरह जानते हो. मुझ पर अभी क्या बीत
रही है, इसकी कुछ परवाह है तुम्हें ? टेबलेट-वेबलेट से कुछ नहीं हुआ तो मुफ़्त में
मैं मारी जाउंगी”
“ऎसा भी कहीं होता है कि दवा अपना असर नहीं बतलाएगी. अगर टेब्लेट से काम नहीं
बना तो फ़िर एक इंजेक्शन काफ़ी है इस बला को टालने के लिए. तुम बिल्कुल भी फ़िक्र मत
करो. मेरा कहा मानो और निश्चिंत हो जाओ. कल की चिंता से मुक्त होकर उन्मुक्त जीवन
जिओ. कुछ नहीं होगा, मैं कह रहा हूं न !. अब तैयार भी हो जाओ.”
बातों ने अपना असर दिखलाना शुरु कर दिया था. दोनो के जिस्मों में एक तूफ़ान उठ
खड़ा हुआ था. तेज गति से चलने वाले तूफ़ान ने मन के संयम को तिनके की तरह उड़ा दिया
था.
परीक्षाएं दस दिन बाद शुरु होने वाली थी. युवती अपनी सहेली के यहां पढ़ने जाने
के बहाने से घर से निकली और सीधे उस युवक के घर जा पहुंची. कांपते हाथों से उसने
कालबेल पर अंगुली रखी. एक घनघनाहट के साथ घंटी बज उठी. युवक ने दरवाजा खोला. दौड़कर
वह उसके सीने से चिपक गई और फ़बक कर रोने लगी. युवक इस अप्रत्याशित घटना से अनजान
था. घबरा उठा. फ़िर उसके बालों में उंगलिया फ़ेरते हुए, उसे सांत्वना देने लगा -“रोओ
मत.....थोड़ा धीरज से काम लो...मैं हूं न तुम्हारे साथ...” .युवक ने हमदर्दी भरे
शब्दों में कहा.
“धीरज....धीरज...कैसा धीरज...तुम तो निश्चिंत होकर बैठे हो और यहां जान पर बन
आयी ह\
युवक खामोश खड़ा रहा. उसका रोना अब सिसकियों में बदल गया था.
“तुम तो कहते थे सब ठीक हो जाएगा...क्या ठीक हुआ...तुम्हारी गोलियां और
इंजेक्शन भी कुछ नहीं कर पाए.... अब तो छः महिने हो गए. पेट भी काफ़ी निकल आया है.
ढीली ड्रेस भी कब तक लोगों की पारखी नजरों से कैसे बचा पाएगी... मां की नजरें मेरा
पीछा करती रहती हैं लगातार. शायद उन्हें इस बात की आशंका भी हो गई हो. उन्होंने
अभी कुछ कहा तो नहीं है, लेकिन उनका घूर-घूर कर देखना, इस बात का प्रमाण है कि
हमारी चोरी पकड़ी गई है. आज नहीं ओ कल बात निकलेगी ही...क्या जवाब दे पाउंगी
मैं...” . सिसकते हुए उसने कहा.
“ इस शहर में प्रायः हमारे सभी परिचित हैं..बात खुल जाएगी. ऎसा करो...किसी
बहाने तुम दो दिन के लिए बाहर जाने के लिए मां की परमिशन ले लो. किसी बड़े शहर में
चलकर रफ़ा-दफ़ा करके चले आएंगे..किसी को कानों काम खबर नहीं होगी” उस युवक ने कहा.
“ अब कुछ नहीं हो पाएगा....कुछ भी नहीं. मेरी सलाह मानों तो हम किसी मंदिर में
अथवा चर्च में चलकर शादी कर लेते हैं.....एक बार शादी का ठप्पा लग जाएगा, फ़िर कोई
क्या बोल पाएगा...तुम भी फ़्री और मैं भी”...भर्राए हुए शब्दों ने उसने प्रस्ताव
रखा.
“ शादी...यू मीन मैरिज...कैसे संभव है डार्लिंग... हम तो खैर कर
लेगें....लेकिन मेरे डैडी और मम्मी इसके लिए कभी भी सहमत नहीं होगें. फ़िर मैं अपना
धर्म नहीं बदल सकता.. तुम्हारे माता-पिता भी तो किसी और धर्म के लड़के से शादी की
स्वीकृति नहीं देगें. बड़ी उलझन में डाल दिया तुमने....” युवक ने कहा.
“बड़े बुजदिल और कायर इन्सान हो तुम.... ऎसा कैसे कह सकते हो तुम.....मुझे अपने
जाल में फ़ंसाने के पहले तुम्हें अपना दीन-धर्म याद नहीं आया और अब ऎसी बात कह रहे
हो?
“थोड़ा धैर्य तो रखो डार्लिंग...मुझे सोचने के लिए दो-चार दिन की मोहलत तो दो”
रिरियाते हुए उस युवक ने कहा.“
अब सोचने विचारने की कौनसी बात रह गई ...जो भी करना है, जल्दी करो...शादी के
अलावा अब कोई विकल्प बचा भी नहीं है हमारे पास. यदि तुम इनकार करते हो तो केवल और
केवल एक ही रास्ता मेरे लिए बचता है कि मैं आत्महत्या कर लूं. क्या तुम ऎसा होते
देख पाओगे?..कहते हुए वह फ़बक कर रो पड़ी
०००
कमरा अन्दर से बंद था, लेकिन बाहर की आवाज छनकर अन्दर आ रही थी जिसके आधार पर
वह अन्दर बैठा बाहर की गतिविधियों का आकलन तो कर सकता था. पर अब तक वह किसी निर्णय
पर नहीं पहुंच पाया था. बित्ते भर के उस भ्रून के दिमाक में उथल-पुथल मची हुई थी
कि अब उसे क्या करना चाहिए ?. यदि वह वहीं पड़ा रहता है तो निश्चित ही हास्पिटक की
नर्स की नजर में पड़ जाएगा. फ़िर वह उसकी मां की तलाश में जमीन-आसमान एक कर देगी.
कमरे की बात पूरे परिसर में फ़ैल जाएगी. पुलिस आ धमकेगी. केस दर्ज किया जाएगा . फ़िर
उस युवती का अता-पता की तलाश की जाएगी. अगर वह पकड़ी गई तो उसके घर वालों का जीना
दूभर हो जाएगा. और न पकड़ी गई तो उसे लावारिश समझ कर किसी बच्चा पालु संस्था के
सुपर्द कर दिया जाएगा, जहां उसे जीवन तो मिल जाएगा,लेकिन वह अंत तक बिन मां-बाप का
बच्चा अर्थात लबरा ही कहलाएगा. यदि इसी तरह वह कमरे में पड़ा रहा और दुर्भाग्य से
कोई उस कमरे में नहीं आया तो हो सकता है कि बिना आहार के उसकी जान ही चली जाएगी.
तभी उसके दिमाक में एक विचार आया कि क्यों न वह अपने पिता के घर चला जाना
चाहिए. तभी किसी नारी कण्ठ की आवाज सुनकर वह चौकन्ना हो गया. नर्स शायद इसी ओर आ
रही थी, उसने अनुमान लगाया. आवाज सुनते ही वह बेंच पर से उचककर दरवाजे की ओट में
जाकर खड़ा हो गया.
चूं...चा..चर्र.चर्क की आवाज के साथ दरवाजा खुला. सबकी नजरों से बचता हुआ वह
फ़ुर्ती से बाहर निकल आया.
अंधेरी रात होने के कारण उसने अपने को सुरक्षित महसूस किया. सड़क पर चलते हुए
वह उस रास्ते पर आहिस्था से अपने कदमों को रखता हुआ उस दिशा की ओर बढ़ने लगा था,
जहां उसके पिता का घर था. अंधेरा होने के बावजूद उसने घर पहचान लिया था. दरवाजा
अन्दर से बंद था. भीतर युवक और युवती आपस में बातें कर रहे थे. दरवाजा बंद होने के
बावजूद अन्दर की आवाज उचककर बाहर तक आ रही थी. वह दरवाजे से सटकर खड़ा हो बातें
सुनने लगा.
“ तुमको न तो किसी ने अन्दर जाते देखा
और न ही बाहर.निकलते देखा. सबकी नजरों से बचते हुए तुमने बड़ी होशियारी से वह सब कर
दिखाया,जिसकी मुझे उम्मीद भी नहीं थी. गुड...वेरी गुड ”
“ सबकी नजरों को हम धोका तो दे सकते हैं लेकिन ऊपर वाले के नजरों से कैसे बच
सकते हैं? हमने छिपकर जो पाप किया उसे कोई नहीं जान पाया,लेकिन उसकी नजरों में हम
चोर ही हुए न !.”
“ ये पाप..पुण्य की बात मत करो...इसके चक्कर में हम रहते तो जानती हो कितना
क्या कुछ झेलना पड़ता इसका अन्दाजा है तुम्हें. चलो, अच्छा ही हुआ कि सस्ते में
निपटे.”
“ सो तो है...लेकिन बच्चा बहुत प्यारा था. गोल मटोल, गोरा-गोरा, बड़ी-बड़ी
प्यारी-प्यारी सी
आंखे, लरजते होंठ, वजन भी उसका कम से कम दस-बारह पौण्ड से कम न रहा होगा. इतने
प्यारे बच्चे से जुदा होने को मन ही नहीं कर कर रहा था. फ़िर जल्दबाजी में मैं उसे
दूध पिलाना भी भूल गई. ऎसा न हो कि बेचारा भूख के मारे दम ही तोड़ दे”.
“छोड़ो भी अब इन सब बातों को..
” तुम पुरुष हो न ! नहीं समझोगे इन बातों को और न ही जान पाओगे कि ममता क्या
होती है. मैं समझ सकती हूं क्योंकि मैंने उसे जनमा है...उसे अपनी कोख में पाला है.
बस ईश्वर से एक ही प्रार्थना करती हूं कि बेचारा बच जाए. नहीं जानती वह किस
यतीमखाने में परवरिश पाएगा ?. क्या तुम कुछ नहीं कर सकते उसके लिए?”.
“ देखो...मैं तुम्हारी भावनाओं को समझ रहा हूं. समझ रहा हूं कि तुम पर कैसी क्या बीत रही है, लेकिन हम भावनाओं
में बह गए तो मुसिबत बन जाएगा वह हमारे लिए.? क्या तुम आने वाली मुसिबतों का सामना
कर पाओगी...? नहीं न !”
“ अच्छा तो अब मैं चलती हूं ”.
दरवाजा खुलने की आवाज सुनते ही वह दीवार से चिपक गया. नवयुवक युवती को छोड़ने
कुछ दूर तक गया. इसी का फ़ायदा उठाते हुए वह चुपके से कमरे में प्रवेश करते हुए
सोफ़े पर जाकर बैठ गया. युवक ने जैसे ही कमरे में प्रवेश किया उसने वहीं से
बैठे-बैठे कहा- “गुड मार्निंग डैड...वेरी गुड मार्निंग. पहली बार मिल रहे हैं न हम
! अतः गुड मार्निंग कहना जरुरी था.”
इस अप्रत्याशित घटना से युवक बुरी तरह चौंक गया था. वह समझ नहीं पा रहा था कि
बंद कमरे में कौन अन्दर घुस आया है? कमरे में नाईट बल्ब अपनी सीमा और सामर्थ के
अनुसार उजाला फ़ेंक रहा था. उसने आंखे मिचमिचाते हुए उसने कमरे का निरेक्षण शुरु
किया. दस-बारह इंच का हाड़ के पुतले को वह नहीं देख पाया था. तभी उसने एक बार अपने
शब्दों को दुहराया-“वेर गुड मार्निंग डैड...मैं
यहां सोफ़े पर बैठा हूं.”
“ गुड मार्निंग...लेकिन तुम हो कौन और मेरे कमरे में कैसे घुस आए? झल्लाते हुए
उसने कहा.
“ लो अब आप अपने ही खून को नहीं पहचान पाए ? मैं आपका बेटा......जिसे कठोर दिल
वाली मेरी मां ने मुझे जनमते ही अस्पताल में छोड़ दिया और भाग निकली. फ़िर पलटकर तक नहीं
देखा कि मैं किस हाल में हूं”.
“ तुम यहां आए कैसे
“वेरी सिम्पल...चलकर आया और कैसे. अरे..आप तो बच्चों की सी बातें करने लगे. एक
बेटा अपने पिता के यहां नहीं जाएगा तो फ़िर कहां जाएगा?
“ मेरा कोई बच्चा-वच्चा नहीं है. चलो...भागो यहां से”.
“ फ़िर कहां जाउं?
“जहन्नुम में और कहां”
“वैसे तो आप दोनों ने मुझे जहन्नुम भेजने के लिए कितने ही प्रयास किए..क्या
सफ़ल हो पाए? नहीं न !. फ़िर वहीं भेजना चाहते हैं?”
“ तुम भागते हो की नहीं......नहीं तो तुम्हें पकड़ कर बाहर फ़ेंके दिए देता
हूं”. कहकर युवक उसके पीछे दौड़ा. वह कभी बिस्तर के नीचे, तो कभी सोफ़े के पीछे, तो
कभी बुक सेल्फ़ के पीछे छिपते हुए उसे छकाते रहा. इस भाग-दौड़ में उसका दम फ़ूलने लगा
था. एक नन्ही सी जान, आखिर भागता भी तो कितना ?. उसे इस बात का भी डर सताने लगा था
कि कहीं वह उसके हाथ लग गया तो संभव है कि गर्दन न मरोड़ दे. दरवाजा अधखुला था. भाग
निकलने का एक ही उपाय था. उसने दौड़ लगा दी और सड़क पर आ गया. बाहर छाए अन्धकार का
उसे फ़ायदा मिल गया. वह एक बड़े से पत्थर की आड़ में जा छिपा. युवक ने उसे यहां वहां
ढूंढा, लेकिन इसे खोज नहीं पाया और उलटे पैर वापिस लौट आया.
पत्थर की ओट में देर तक सुस्ताते रहने के बाद उसे भूख भी लग आयी थी. उसकी भूख
केवल मां के दूध से ही शांत हो सकती थी.
तभी उसे युवक और युवती के बीच चल रही बात का एक सिरा पकड़ में आया. वह कह रही थी कि
उसे दूध पिलाना भूल गयी. इतका मतलब साफ़ है कि उसे मेरी चिंता है. अब केवल एक ही
रास्ता बचता है कि युवती के यहां जाना चाहिए. उसने फ़ूर्ती से कदम बढ़ाए और उस ओर चल
पड़ा, जिस ओर वह रहती थी.
अन्धकार होने के बावजूद उसने घर पहिचान लिया था.
दरवाजा अधखुला था. बिना कोई शोरगुल किए उसने कमरे में प्रवेश किया. अन्दर तीखी
बहस चल रही थी. एक सोफ़े पर एक उसके नानी बैठे हुए थे. हाथ बांधे दो नवयुवक खडे थे,
जो रिश्ते में उसके मामा थे, दो नवयुवतियां कड़ी थी, जो रिश्ते में उसकी मौसियां थी
और दीवार से सिर टिकाए वह युवती थी, जिसके गर्भ में वह नो माह तक रहा था. एक ओर
दुबककर खड़ा होकर वह बातें सुनने लगा.
“ये कुल्छ्छनी है पिताजी...इसका गला घोंट देना चाहिए”. बेटा बोल रहा था.
“ इसने तो हम सब की नाक काट कर रख दी. इसे इतनी कड़ी सजा दी जानी चाहिए कि कई
जनमों तक याद रहे”. दूसरा बेटा बोला.
“ अब हम दो बहने घर से बाहर कैसे निकल पाएंगी पिताजी ? हर कोई हम पर उंगली
उठाएगा कि ये तो उसकी बहने है, निश्चित ही ये भी वैसी होगी जैसे की इनकी बड़ी बहन
है. लोग हमको बुरी नजरों से देखेगें और हमारी इज्जत पर हाथ डालने से नहीं चूकेगें.
इसे फ़ौरन अपने घर से निकाल दीजिए”. एक बहन बोली थी.
पिता अवाक थे. क्या बोले, क्या न बोले, क्या निर्णय करें, कैसे निर्णय करे. उनके
इंसान के तराजू के पल्ले ऊपर-नीचे हो रहे थे....वे किमकर्त्व्यविमूढ़ बैठे हुए थे.
आंखों से आंसू झरझराकर बह रहे थे. मां ने अपना सिर पल्लु में ढंक लिया था. शायद वे
सोच रही होगी कि किस मनहूस घड़ी में मैंने इसे जना था. कुछ भी कुछ बोल पाने की
स्थिति में नहीं थी
किसी अपराधी की तरह दीवार से सिर टिकाए युवती खड़ी थी. उसने उसे पहचान लिया था.
पहचानता कैसे नहीं? गर्भ में जो पूरे नौ माह रहा था. बित्ता भर के होने के नाते
किसी की भी नजर उस पर अब तक नहीं पड़ी थी. देर तक खड़े रहने से उसकी टांगों में दर्द
होने लगा था. भूख भी जोरों से लग आयी थी. हलक सूखने लगा था. “और देर तक यूंहि खड़ा
रहा तो संभव है जान भी चली जाएगी. इन्हें लड़ना झगड़ना है तो झगड़ते रहें, इससे उसे
क्या...उसे तो तत्काल दूध चाहिए भूख मिटाने के लिए
उसने तत्काल निर्णय लिया और तन कर सबके जाकर खड़ा हो गया. विनम्रता से उसने बारी-बारी
से सबको प्रणाम करते हुए बोला. “ नानाजी- नानीजी, आप दोनों को प्रणाम, मैं आपका
नाती.... दोनो मामाऒं को प्रणाम...मैं आपका भांजा और दोनों मौसियों को प्रणाम..मैं आपका भतीजा.....मैं
सबके सामने खड़ा हुआ हूं. आप आपस में खूब लड़िए..झगड़िए...इससे मेरा कोई लेना-देना
नहीं. मुझे तो सबसे पहले अपनी मां से मिलना है, जो जल्दबाजी में मुझे अनाथ कर भूखा
छोड़ आयी थी” कहते हुए उसने दौड़ लगाई और अपनी मां के पैरों से जा चिपका. युवती ने
फ़ौरन उसे उठाकर अपने सीने से चिपका लिया फ़िर सरपट दौड़ लगाते हुए कमरे में जा समाई
और फ़ौरन दरवाजे की कुंडी चढ़ा दी
बिस्तर पर लेटते हुए उसने ब्लाउज के हुक खोल दिए और अपने बेटे का मुंह स्तनों
ले लगा दिया.. ऎसा करते हुए उसे अपार सुख की प्राप्ति हो रही थी और वह वह
चुकुर-चुकुर करते हुए दूध पीने लगा था.
वह यह नहीं जानता और न ही जानना चाहता है कि उसकी मां कुलछ्छनी है या अपराधी.
वह तो केवल इतना जानता और समझता है कि वह उसकी मां है और कुछ नहीं.
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
कहानी. कुत्ता
कहानी. कुत्ता

सुबह के साढ़े सात-आठ
बज रहे होंगे। पीछे आंगन में भरपूर धूप उतर आई थी। सोचा कि धूप में बैठकर शेव करना
चाहिए। दाढ़ी बनाने का सामान एवं आईना लेकर जा पहुंचा। आईने को कील पर टांगकर ट्ïयूब से क्रीम
निकालकर ठोड़ी पर लगाया और ब्रश को पानी से हलका गीला करते हुए झाग उठाने लगा। धूप
बड़ी सुहावनी लग रही थी। ठंड में भला धूप किसे अच्छी नहीं लगती। ब्रश चलाते हुए
मैं फिल्मी गीत गुनगुना रहा था। तभी मेरे कानों में कुछ असंसदीय शब्द आकर टकराए।
मैंने सोचा-शायद किसी की आपस में झमक हो गई होगी। पर झगड़ा और वह भी सिविल लाइन
में— नहीं,
ऐसा
नहीं हो सकता। ब्रश चलाते हुए मैंने इंकार की मुद्रा में सिर झटक दिया। मिनट दो
मिनट भी नहीं बीते होंगे कि शब्दों में तीखापन उतर आया। मुझे अब भी विश्वास नहीं
हो रहा था कि इस पॉश कॉलोनी में कभी झगड़ा भी हो सकता है।
इस कॉलोनी में एक से
बढ़कर एक एग्जेक्यूटिवïस रहते हैं। जाहिर है उन्होंने इतनी बड़ी
पोस्ट पाने के लिए भगीरथ तप किया होगा। अनेक विषयों की मोटी-मोटी पोथियां बांची
होंगी,
तब
जाकर तो वे यहां तक आ पहुँचे हैं। जहाँ तक मुझे मालूम है कि इनके सिलेबस में
गालियों को लेकर कोई प्रमाणिक किताब नहीं है। फिर ये नई-नई गालियाँ उगल कैसे रहे
हैं? समझ में नहीं आता कि इन्होंने सीखा कहाँ से होगा~? अब तो तीखेपन के साथ एक
कर्कशता भी साफ-साफ सुनाई देने लगी थी।
मैं उठा और सामने
वाले कमरे की खिड़की से झांककर देखा। शर्माजी और वर्माजी अपनी-अपनी बार्डर पर खड़े
होकर मुँह की तोपें चला रहे थे और गोले के रूप में गालियाँ दाग रहे थे। ब्रश अब भी
मेरे हाथ में था।
मैंने अंदाज लगाया कि
मामला शांत हो चुका है। पर देखता क्या हूं कि दोनों फिर प्रकट हो गए। वर्मा जी के
हाथ में हॉकी थी और शर्मा जी को कुछ नहीं मिल पाया होगा, सो उन्होंने
सब्जी काटने वाला चाकू ही उठा लिया। वर्मा जी ने आव देखा न ताव, चार-छ: हाकी
शर्मा जी को दे मारी वे दर्द के मारे चीख उठे।
पल दो पल भी नहीं
बीते होंगे कि तोपें एकदम शांत हो गईं और अब वे आपस में उलझ पड़े। कभी शर्मा जी
ऊपर, तो कभी वर्मा जी। दो एग्जीक्यूटिवस इस तरह जंगलीपन पर उतर आएंगे, ऐसा मैंने
सोचा भी नहीं था। मेरा अनुमान दूसरी बार भी गलत साबित हुआ। थोड़ी देर
गुत्थम-गुत्थी चलती रही। फिर वे अपने-अपने घर में तेजी से घुस गये। मैंने अंदाज
लगाया कि मामला शांत हो चुका है। पर देखता क्या हूं कि दोनों फिर प्रकट हो गए।
तमाशबीन भीड़ अपने-अपने आंगन में खड़े तमाशा देख रही थी। बच्चे एवं महिलाएं
अपने-अपने घरों की खिड़कियों से तांक-झांक कर रहे थे। किसी ने भी आगे बढ़कर उन्हें
रोकने का प्रयास नहीं किया। चोट खाकर शर्मा जी घायल सांप की तरह अपने बिल में जा घुसे
और तुरंत ही वापिस आ गए। अब उनके हाथ में रिवाल्वर थी। उन्होंने वर्मा जी पर गोली
दाग दी। सौभाग्य से गोली उन्हें लग नहीं पाई, पर अब वे
अपनी जान बचाने सरपट भागे। भागते समय उनका पैर केले के छिलके पर जा पड़ा। जमकर
फिसलते हुए दूर जा गिरे। फिर उठे और बेतहाशा भागने लगे। पर दुर्भाग्य ने अब भी
उनका पीछा नहीं छोड़ा। वे सामने वाले पिलर से जा टकराए और बेहोश होकर गिर पड़े।
सिविल लाईन के अपने
कुछ कायदे-कानून होते हैं। मैं लुंगी बनियान में बाहर आने से तो रहा। लुंगी उतारूं, पैण्ट डालूं, शर्ट पहनूं, तब तक तो सब
कुछ घट चुका होता है। मैं जैसे ही घर से बाहर निकला, सपकाले जी
अपनी जीप पर घुरघुराते आ धमके। सपकाले जी नगर निरीक्षक हैं। पास ही रहते हैं। शायद
गोली चलने की आवाज सुनकर लपके हों। मेरे बढ़ते कदम वहीं रुक गए। सोचा, जब पुलिस खुद
चलकर मौके पर पहुंच चुकी है तो बीच में कूदना, किसी मूर्खता
भरे काम से कम नहीं होगा। वर्मा जी एक तरफ बेहोश पड़े थे तो दूसरी तरफ शर्मा जी
पड़े दर्द में कराह रहे थे। उन्होंने दोनों को उठाकर जीप में डाला और जीप धुआँ
उगलती हुई फुर्र से आगे बढ़ गई।
मैंने अनुमान लगाया
कि या तो वे सीधे थाना पहुंचेंगे, जुर्म कायम करेंगे अथवा अस्पताल जाकर
पहले दोनों को भर्ती करवाएंगे। जो भी हो, शाम तक सब खुलासा हो
ही जायेगा। यह सोचकर मैं घर आ गया और फिर नए सिरे से दाढ़ी बनाने लगा। मोहल्ले में
एकदम सन्नाटा सा छाया हुआ था। धमाके की आवाज सुनकर भीड़ अपने-अपने दड़बों में जा
घुसी थी। खिड़कियाँ और दरवाजे बंद हो गये थे। किसी ने भी हिम्मत नहीं की कि पलट कर
तो देख लें।
शाम पांच बजे के लगभग
मैंने अपना स्कूटर उठाया और अपने पड़ोसियों को देखने अस्पताल की ओर बढ़ चला। वे
किस वार्ड में भरती होंगे इसका सहज में ही पता चल गया। शर्मा जी प्राइवेट वार्ड दो
में और वर्मा जी सात नंबर में भर्ती थे। शर्मा जी के कमरे में गया तो उन्हें देखकर
पहचान ही नहीं पाया। ऐसा लगा जैसे अंतरिक्ष में जाने से पूर्व यात्री ने अपना
कॉस्टïयूम पहन रखा
हो। सिर से लेकर पाँव तक पट्टियाँ बंधी थीं। आँख, नाक और मुँह
को छोड़कर पट्टियाँ ही दिखाई दे रही थीं। मैं पहचान नहीं पाया कि शर्मा जी ही हैं
अथवा अन्य और कोई। मैंने भारतीय पद्धति से दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन किया. शरीर
में हरकतें हुईं. मैं स्समजह गया शर्माजी ही हैं. ईशारा पाकर मैं पास ही पड़ी
कुर्सी पर जा बैठा। मुझे पता है कि शर्मा जी इस समय कुछ भी बोल पाने की स्थिति में
नहीं हैं। शिष्टतावश मैंने कुछ फल खरीद लिए थे, सो उन्हें एक
टेबल पर रखते हुए, फिर आऊँगा, कहकर कमरे से
निकल गया। दरअसल उनकी ये हालत देखकर मेरे मन में डर आ समाया था। मैंने सोचा, लगे हाथ
वर्मा जी को भी देख आना चाहिए। वर्मा जी के कमरे में पहुँचा तो देखा उनके भी वही
हाल थे। जगह-जगह प्लास्टर चढ़ा हुआ था। परिवार के सदस्य उनके आसपास उदास मुद्रा
में बैठे हुए थे। बातों ही बातों में पता चला कि उनके बाएं पैर की हड्डी टूट गई
है। फिलहाल कच्चा प्लास्टर बांध दिया गया है। सिर में भी चोट लगी है वहाँ भी
मल्हम-पट्टी कर दी गई थी। जाहिर है कि वर्मा जी बोलने बताने की स्थिति में नहीं
थे। उनके लिए भी अलग से फल खरीद लिए थे, सो उनकी पत्नी के हाथ में देते हुए, फिर
आऊँगा कहकर बाहर आ गया।
दूसरे दिन शाम को फिर
अस्पताल गया। देखा शर्मा जी तकियों का सहारा लगाए बैठे हैं। नमस्कार लेकर कुर्सी
पर बैठा। कमरे में खामोशी छायी हुई थी। मेरे अलावा वहां उस समय कोई भी मौजूद नहीं
था। बात कहाँ से शुरू करूं इस बात की मुझे चिन्ता सी होने लगी थी। थूक से गले को
गीला करते हुए मैंने पूछा, 'शर्मा जी, आखिर कारण
क्या हो सकता है कि आप दोनों पक्के दोस्त, एकदम गाली
गलौच पर उतर आए और आपस में उलझ भी पड़े। स्थिति ऐसी बन गयी कि आप आज अस्पताल में
पड़े हैं। क्या मैं झगड़े का कारण जान सकता हूँ?
उनकी आँखों में आए
क्रोध को मैं भलीभांति देख रहा था। काफी देर तक तो वे तमतमाए से दिखे, फ़िर उनके
ओठों पर हल्की सी हरकत हुई। उनके ओंठ कांपे। फिर दर्द को लगभग दबाते हुए उन्होंने
कहा,
'यादव
जी क्या करेंगे आप कारण जानकर, आपसे हमारा क्या लेना देना? हमदर्दी
बतलानी ही थी तो उस समय आप कहां थे? यदि वक्त पर बीच बचाव करते तो यह नौबत
ही नहीं आती। उनकी बातें सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने किसी बिच्छू को छेड़ दिया
हो। फिर मैंने संयत होकर कहा, 'शर्मा जी ऐसी बात नहीं है। आप बिना
जाने-बूझे मुझ पर तोहमत लगा रहे हैं। दरअसल बात ये है कि जब आप आपस में
गुत्थम-गुत्था हो रहे थे, तब मैं पिछवाड़े में (आंगन में) बैठा, शेव कर रहा
था। तभी मेरे कानों से असंसदीय शब्द आकर टकराए। मैंने अनुमान लगाया कि अपनी कॉलोनी
में झगड़ा तो हो ही नहीं सकता। मैं पीछे से चलकर सामने वाले कमरे में आकर खिड़की
से झांककर देखता हूँ, तब तक तो बहुत कुछ घट चुका था। लुंगी उतारकर पैंट पहनकर बाहर
आऊं ,
तब
तक तो गोली भी चल चुकी थी। और सपकाले जी आप दोनों को जीप में डालकर रवाना भी हो
चुके थे। अब आप ही बतलाइए इसमें मेरी तरफ से क्या कसूर हुआ है। कृपया अब तो गुस्सा
थूक दीजिए और कारण बतलाने की कृपा कीजिए।
पड़ोसी होने के कारण
कह लीजिए अथवा सहानुभूति के दो बोल सुनकर शर्मा जी कुछ पिघले। उन्होंने
अटकते-अटकते कहना शुरू किया-
'ये साला वर्मा का
बच्चा,
जब
यहाँ पोस्टिंग होकर आया था, तो न जाने कितने ही लफड़े पीछे छोड़कर
आया था। वो तो मैं ही था कि साले के सब लफड़ों को निपटवाया। जब तक उसकी पूँछ मेरे
पाँवों के नीचे दबी थी, तब तक मेरे पीछे मिमियाते घूमता रहता
था और जब काम निकल गया तो मुझे ही आँखें दिखाने लगा। वह तो अच्छा ही हुआ कि साले
को गोली नहीं लगी, नहीं तो भगवान को प्यारा हो गया होता। इतना
कहकर वे चुप हो गए। मुझे उनकी बातों पर अब भी विश्वास नहीं हो रहा था। जरूर वे कुछ
मुझसे छिपा रहे थे।
मैंने कहा, 'सर, कुछ विशेष
बात तो रही होगी अन्यथा आप जैसे शांति के पुजारी को, हाथ में
हथियार लेने की जरूरत ही क्या थी?
काफी देर तक तो वे
चुप रहे,
फिर
चुप्पी को तोड़ते हुए उन्होंने बतलाया कि वर्मा ने उन्हें भद्दी-भद्दी गालियाँ तो
दीं,
साथ
ही उस साले ने मुझे कुत्ता भी कह डाला। उसका कुत्ता कहना ही था कि झगड़ा बढ़ गया
और नौबत यहाँ तक आ पहुँची। काफी समय तक कमरे में सन्नाटा छाया रहा। मैंने और
ज्यादा देर तक बैठना उचित नहीं समझा और नमस्कार लेकर फिर आऊंगा कहकर बाहर आ गया।
अस्पताल का माहौल ही
कुछ ऐसा रहता है कि वहाँ ज्यादा देर बैठा नहीं जा सकता। अत: मैंने स्वत: निर्णय
लिया कि वर्मा जी को देखने दूसरे दिन जाऊँगा। खाना खाने बैठा तो ढंग से खाया भी
नहीं गया। हाथ धोकर अपने कमरे में आया और सिगरेट जलाकर धुआँ उगलने लगा। मेरे मन के
गलियारे में तरह-तरह के प्रश्न रेंगने लगे। सो जाना चाहा पर नींद आँखों से कोसों
दूर थी। बिस्तर पर पड़े-पड़े मैं सोचने रहा था, कि गाली-गाली न होकर शाबर मंत्र हो
गयी। मुँह से एक गाली निकली नहीं कि हाथापाई की नौबत आ गयी। यदि सड़क चलते किसी से
जै रामजी की ले लो, तो यह भी संभव है कि वह आपको कोई जवाब भी न दे, पर यदि जै
रामजी के बदले कोई शानदार गाली जैसे कुत्ता-हरामी-साले कहकर देख लो। वह चलते-चलते
अचानक रुक जायेगा। पलटकर आयेगा और आपसे भिड़ पड़ेगा। संभव है कि वह आपके हाथ-पैर
भी तोड़ डाले। ऐसा बतलाते हैं कि किसी पूर्णिमा के दिन शाबर मंत्र को कुछ बार पढ़
लें, तो वह जागृत हो उठता है फिर उसके जागृत होते ही आप चाहें तो बिच्छू का विष
उतार दें अथवा भूत-प्रेत भी। पर गाली ऐसा शाबर मंत्र है जिसे साधने के लिए कोई दिन
निश्चित नहीं,
जब
चाहो तब आजमा कर देख लो। इधर मुँह से गाली निकली नहीं, कि उधर उसका
परिणाम देख लो।
नींद अब भी नहीं आ
रही थी,
टेबल
पर एक किताब पड़ी थी। रंजू की किताब थी। शायद वह पढ़ते-पढ़ते सो गई थी। किताब
उठाकर पन्ने पलटने लगता हूँ। उसमें एक कहानी पढऩे को मिली। कहानी धोबी-गधे और
कुत्ते को लेकर थी। इस कहानी में कुत्ते को विशेषकर हाईलाईट किया गया था। नींद अब
भी कोसों दूर थी। शेल्फ से एक किताब उठाकर लाया और पढऩे बैठ गया। तभी पत्नी ने
कमरे में प्रवेश किया। उन्होंने अपनी रजाई खींची और सो गयीं। थोड़ी ही देर में वे
खुर्राटे भरने लगीं। पर यहाँ आंखों में नींद नहीं आ रही थी। रह-रहकर कुत्ते का
फिगर सामने आकर खड़ा हो जाता। जिस कहानी को मैं अभी-अभी पढ़ रहा था वह महाभारत पर
केन्द्रित थी। कथानक कुछ इस प्रकार से था— महाभारत का युद्ध जीतने के बाद महाराज
युधिष्ठिर अपना राजपाट अपने पुत्रों को सौंपकर, हिमालय में
तप करने को निकल पड़े। जब वे हिमालय की ऊँचाइयों की ओर बढ़ रहे थे तभी द्रौपदी गिर
पड़ी। उसके बाद भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव भी जा
गिरे। युधिष्ठिर ने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा और वे आगे बढ़ते चले गए। जब वे
हिमालय की अंतिम ऊँचाई को छू ही रहे थे, तभी देवराज इन्द्र
अपना दिव्य रथ लेकर उनके सामने प्रकट हो गए। उन्होंने महाराज से प्रार्थना की कि
वे उनके साथ स्वर्ग चलें। युधिष्ठिर जब रथ में बैठने के लिए आगे बढ़े तब उनकी नजर
अपने कुत्ते पर पड़ी। वह भी उनके पीछे-पीछे आ रहा था। महाराज ने उसे रथ में बिठाना
चाहा तो देवराज इन्द्र ने कड़ी आपत्ति की। उन्होंने रथ में बैठने से इंकार कर दिया।
काफी देर तक इस मुद्दे पर बहस होती रही। अन्त में देवराज ने अपनी हार स्वीकार करते
हुए कहा कि वे उनकी परीक्षा ले रहे थे और अब वे उस कुत्ते को भी अपने साथ ले जाने
के लिए तैयार हैं। दोनों में हुई बहस से यह बात भी स्पष्ट होती है कि वह कोई
साधारण कुत्ता नहीं था बल्कि स्वयं धर्म का अवतार था जो महाराज के पीछे-पीछे चला आ
रहा था।
यदि वर्मा जी ने, शर्मा जी को
कुत्ता भी कह डाला होगा तो उन्हें तो गर्व ही होना चाहिए था क्योंकि कुत्ता तो
धर्म का अवतार है। इस तरह शर्मा जी भी धर्म से संबद्ध हुए, पर उन्होंने
उसे गहराई से न लेते हुए अन्यथा ले लिया। शायद यही कारण प्रमुख रहा होगा तभी तो दो
पक्के दोस्त आपस में उलझ गए।
भारतीय दर्शन के
अनुसार कुत्तों को भी पूजने की बात पढ़ऩे को मिली।
उसे श्वान देवता कहकर
संबोधित किया गया है। यह बात अलग है कि अंग्रेज भी कुत्तों से नफरत करते रहे हैं।
तभी तो उन्होंने अपना रोष प्रकट करते हुए अपने होटलों में लिखा था कि 'इंडियन्स
एण्ड डॉग आर नॉट अलाउड. मतलब भारतीयों का
एवं कुत्तों का प्रवेश निषिद्ध है। उन्हें ये नहीं मालूम कि भारतीय भूखा रह सकता
है,
यहाँ
का कुत्ता भी भूखा रह सकता है। पर अपने देश के प्रति, अपने मालिक
के प्रति वह गद्दारी नहीं करता। कुत्तों को लेकर न जाने मैं कितनी देर रात तक
सोचता ही रहा।
तीसरी शाम, जब मैं वर्मा
जी के कमरे में पहुँचा तो देखा उनके पास कोई दिखाई नहीं दे रहा है। शायद परिवार के
लोग घर पर चले गए होंगे। पास बैठते हुए मैंने पूछ ही डाला, 'वर्मा जी, आप जैसे
अभिन्न मित्रों के बीच हुई हाथापाई देखकर कुछ अच्छा नहीं लगा। आखिर कारण क्या था
कि आप दोनों आपस में उलझ पड़े। बड़ी देर तक तो वे खामोश रहे पर उन्होंने इस शर्त
पर रहस्य खोलने की बात की कि मैं किसी अन्य पर इसे प्रकट न करूं। एक पड़ोसी होने
के नाते लड़ाई झगड़े का कारण पूछना मेरा कर्तव्य भी तो बनता ही था। उनका भी यह
कर्तव्य बनता है कि वे अपने नजदीक के मित्रों अथवा विश्वसनीय लोगों को कारण बतलाएं
ताकि और आगे टेंशन न बढ़ पाए। मैं जानता था कि वर्मा जी मुझ पर भरोसा रखते हैं।
कमरे में काफी देर तक
सन्नाटा रहा। शायद वे सोच रहे होंगे कि बात कहाँ से शुरू करें अथवा मुँह खोलें भी
या नहीं। खैर जो भी हो, थोड़ी देर बाद उन्होंने दबी जुबान में
कहा,
'यादव
जी,
आप
तो घर के ही आदमी हैं, अब आपसे क्या छुपाना। पर मुझसे वादा करो ये
बात किसी अन्य को मालूम न पड़े। मेरी प्रतिष्ठा के साथ-साथ जीवन- मरण पर भी इसका
व्यापक असर पड़ेगा। मैंने सहज ही अंदाज लगा लिया कि बात काफी गंभीर किस्म की है
तभी तो स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है।
'मैं शर्मा जी की अब
भी इज्जत करता हूं क्योंकि आड़े वक्त उन्होंने मेरे बड़े-बड़े काम कर दिए थे। कोई
और होता तो शायद ही कर पाता। इसके बाद हमारी अंतरंगता बढ़ती गयी। परिवार में
आना-जाना उठना-बैठना यहाँ तक कि पारिवारिक, गोपनीय बातें
भी हम एक दूसरे की जानने लगे थे। देर रात तक एक दूसरे के घर बैठे रहना अथवा
रात-बिरात आना-जाना बना रहा। कभी किसी ने एक दूसरे को संदेह की नजर से नहीं देखा।
घनिष्ठता का फायदा उठाते हुए शर्मा जी ने गुल खिलाना शुरू कर दिया। उन्होंने मेरी
साली सुनन्दा के ऊपर डोरे चलाना शुरू कर दिए। तुम तो जानते हो कि वह हमारे साथ ही
रहकर कालेज में पढ़ रही है। मैं जातना हूँ कि सुनन्दा इतनी खूबसूरत है कि उस पर
कोई भी बिना सोचे समझे अपनी जान तक न्यौछावर कर देगा। अमानत में खयानत वाली बात बन
गई। शर्मा जी को मैंने एक मर्तबा टोका भी, पर वे लोलुप
दृष्टि वाले बाज नहीं आए। बस यही कारण था कि हमारी झमक हो गई। आप तो जानते ही हैं
कि कुत्ता एक ऐसा प्राणी है जो अपने नजदीकी अथवा खून के रिश्तों को न देखते हुए भी
संसर्ग करने लगता है। यही कारण था कि मैंने उन्हें गालियाँ देने के अलावा कुत्ता
भी कह डाला।
माहौल को नॉर्मल
बनाते हुए मैं घर आ गया।
वर्मा जी के मुँह से
कुत्ते की व्याख्या सुनकर मेरे मन में कुत्ते के प्रति और भी जानकारी इकठ्ठी करने
की प्रबल इच्छा बन गयी। कुत्ता मेरी नजरों में अब हीरो बन चुका था।
खाना वगैरह खा-पीकर
जब मैं अपने शयन कक्ष में पहुँचा तो रोजमर्रा की तरह अखबार उठाकर पढऩे लगा। सोने
से पहले कुछ न कुछ पढ़ते रहने की मेरी पुरानी आदत है। “सांध्य” में एक दिलचस्प खबर
पढऩे को मिली। मुख्यमंत्री जी ने अपने भाषण के दौरान मजाकिया लहजे में कुत्ते को
लेकर अपनी व्यथा-कथा व्यक्त की थी। उन्होंने कहा कि जब एक कुत्ता देशाटन पर निकला
तो बाहर के कुत्तों ने उसका जोरदार स्वागत सत्कार किया और जब वह वापिस अपने घर आया
तो मोहल्ले के कुत्तों ने उसकी फजीहत कर डाली। व्यंग्य में चुभन थी। इसकी अच्छी
खासी प्रतिक्रियाएं भी हुईं। मेरा ऐसा मत है कि जब भी कोई गंभीर बात कहना चाहता है
तो वह किसी प्रसंग को लेकर अथवा कहानी को माध्यम बनाकर अपनी व्यथा कथा कह देता है।
समझदार व्यक्ति उसे समझते बूझते हुए भी अपनी ओर से कोई प्रतिरोध अथवा प्रतिक्रिया
व्यक्त नहीं कर पाता।
वैसे कुत्ता आदमी का
सबसे पुराना दोस्त रहा है। सच्चा आज्ञाकारी रहा है। शायद यही कारण है कि हजारों
साल के बाद भी उसकी नजदीकियाँ बनी हुई हैं। हाँ कुत्ते की नस्लों को लेकर उनका
वर्गीकरण किया जा सकता है। अच्छी नस्ल का कुत्ता आज भी पिअर्स में नहाता है, डनलप के
गद्दों पर सोता है, महंगी कारों में शान से घूमता है। जब आदमी
सड़क पर कुत्ते के साथ घूम रहा होता है तब उन दोनों के बीच रिश्ते को जोडऩे वाली
एक चेन जरूर होती है। कुत्ता आगे-आगे भाग रहा होता है और मालिक लगभग घसीटता हुआ
उसके पीछे-पीछे खिंचा चला जाता है। यहाँ ये समझ में नहीं आ पाता कि कुत्ता आदमी को
घुमा रहा है अथवा आदमी कुत्ते को। जब कुत्ता अपनी पर उतर आता है तो काट भी खाता
है। अगर उसने काट लिया तो तय मानिए चौदह इन्जेक्शन पक्के में लगने ही लगने है.
इंजेक्शन लगवाने से आदमी बच जाता है. टःईक इसके उलय़, यदि कोई आदमी कुत्तेपन पर उतर
आए और किसी को काट खाए, तो तय समझिये कि वह जिंदा नहीं रह सकता.
कुत्तों को लेकर एक
दिलचस्प लेख पढऩे को मिला। उसमें एक प्रश्न था. कुत्ता भेड़िए का वंशज है या फिर
सियार का? इस प्रश्न को लेकर काफ़ी माथा-पच्ची होती रही थी. काफी हो-हल्ला भी मचता
रहा है। कोई कहता कुत्ता सियार का वंशज है, कोई कहता
भेड़िए का। जब इस मुद्दे पर बहस का कोई अंत दिखाई नहीं दिया तो जीव- वैज्ञानिकों ने
इस पर खोज करनी शुरू कर दी और इस बात की पुष्टि के लिए मादा के डी.एन.ए.के इस
माइंट्रोइट्रोक्वाड्रियल डी.एन.ए. जिसका वंशक्रमानुसार कोई परिवर्तन नहीं होता, का अध्ययन
शुरू किया। इसके लिए वैज्ञानिकों ने 162 भेड़िए तथा 67 प्रजातियों
वाले 140 कुत्ते,
जिसमें शिकारी कुत्ते, झबरे कुत्ते, छोटे मगर
प्यारे दिखने वाले कुत्ते शामिल थे, के माइंट्रोक्वाड्रियल डी.एन.ए. का
अध्ययन किया और दावा किया कि कुत्ते में सियार की बजाय भेड़िए से ज्यादा समानताएं
हैं।
कुत्ते पाले जाने के
मामले में भी वैज्ञानिक एकमत नहीं थे, क्योंकि आज जो भेड़िय़ा है उसका डी.एन.ए.
कुत्ते के डी.एन.ए. से बिल्कुल भी नहीं मिलता। किन्तु बहुत सारी मादाओं में आपस
में समानताएँ थीं। अत: यह हो सकता है कि ये कुत्ते ऐसे किसी मादा भेड़िए की
सन्तानें हों, जिनकी प्रजाति अब लोप हो गई हो। पहले कुत्ता भेड़िए की तरह ही दिखता
था और आदमी जंगलियों की तरह रहता था। आदमी का न तो कोई समाज था और न ही घर-बार। जब
उसने अपना घर बसाना शुरू किया तो उसने भेड़िय़ों को पाला और इस तरह भेड़िया में और
आदमियों में भी स्वरूप में भी परिवर्तन आता चला गया।
डार्विन ने अपनी
थ्योरी से सिद्ध किया है कि आदमी भी बंदर की औलाद है। वैसे हिन्दू माइथोलॉजी के
अनुसार हम मनु एवं शतरूपा के वंशज हैं पर हम अपनी आदत के अनुसार पाश्चात्य बातों
पर ज्यादा भरोसा रखते आए हैं। यही कारण है कि डार्विन आज ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए
हैं।
कुल मिलाकर दोनों ही
जानवर रहे हैं और बदले परिवेश में आज भी इनमें समानताएँ हैं। समानताएँ भले ही कम
मिलें,
पर
निकटताएँ आज भी जरूरत से ज्यादा हैं। कुत्तों को लेकर न जाने कितनी ही बातें दिमाग
में रेंगती रहीं। अब ऐसा लगने लगा था कि सिर फट जाएगा तभी नींद का एक झोंका हवा
में तैरता हुआ आता है और उसी समय मोहल्ले का एक कुत्ता भों-भों करके भौंकने लगता
है।
103, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001 गोवर्धन यादव. 09424356400-….08319806243 वरिष्ठ साहित्यकार
एवं संयोजक म.प्र.राष्ट्रभाषा
प्रचार समिति, जिला इकाई,छिन्दवाड़ा