Tuesday 26 March 2024

Ramkatha राम कथा - वनगमन ( Part - 1)

 

                                                     Ramkatha राम कथा  -  वनगमन  ( Part - 1)



 

‘सर्व जन हिताय’ का शुभारंभ  ‘ वनगमन ’

 

भारतीय समाज और संस्कृति में रामायण महत्वपूर्ण कृति है और रामकथा मानवता एवं विश्व कल्याण की भावना को अभिव्यक्ति देती है| रामकथा के विविध प्रसंगों और पात्रों पर साहित्यिक रचना की सुदीर्घ परम्परा विद्यमान है जिसका प्रारंभ बाल्मीकि रचित महाकाव्य‘रामायण’ और जैन साहित्य परंपरा से देखा जा सकता है |  कालांतर में भारत की कई भाषाओं,उपभाषाओं और लोकभाषाओं में  रामकथा लिखी गई हैं,इन रचनाओं ने न केवल रचनाकारों को नई साहित्यिक दृष्टि दी है,बल्कि जन मानस को भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन के विविध पक्षों से प्रेरणा लेने के लिए का भी प्रेरित किया है |मध्ययुग में तुलसीदास द्वारारचित ‘रामचरितमानस’ ने उसमें विद्यमान आदर्शों और मूल्यों के कारणलोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तो ध्वस्त किये ही, साहित्यिक मानदंडों के आधार पर अपनी अनुपमेयता से वैश्विक स्वीकृति भीप्राप्त की |

रामकथाकी लोकप्रियता इसी बात से सिद्ध हो जाती है कि आज सदियों बीत जाने पर भी श्रीराम के चरित्र का गुणगान करती अनेक कृतियाँ लिखी जा चुकी हैं और  वर्त्तमान  में भी  लिखी जा रही हैं , फिर भी उस विषय पर पाठकों की रुचि और उत्सुकता आज भी यथावत बनी हुई  है | शायद ही विश्व का कोई ऐसा चरित्र होगा जिसको विश्व की इतनी अधिक भाषाओँ में यत्किंचित परिवर्तन के साथ लिखा गया हो या उसका अनुवाद किया गया हो | रामकथा से जुड़ाव का मूलभूत कारण श्रीरामके चरित्र में देवत्व की बजाय उन मानवीय गुणों का होना है जो किसी समाज और देश को आदर्श बनाते हैं | रामकथा  श्रीरामका मात्र जीवन चरित नहीं है ,बल्कि यह एक जीवन का एक मेनिफेस्टोया आचार संहिता है जो समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए  है| यही कारण है कि रामकथा से जुड़ा  प्रत्येक प्रसंग  अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है और देश,काल और समय की परिधियों को तोड़कर सार्वकालिक और सार्वभौमिक हो  गया है |

रामकथा से जुड़े विविधप्रसंगों पर साहित्य की विविध विधाओं में विभिन्न कालखंडों से रचनाएँ की जा रहीहैं औरयह क्रम आज भी बना हुआ है | इसी परंपरा को आगे बढाते हुए  श्री गोवर्धन यादव ने‘  "वनगमन’" उपन्यास लिखकर पाठकों और साहित्यिक खेमे में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराई है | यह उपन्याससाहित्य-भूमि प्रकाशन,नई दिल्ली द्वाराप्रकाशित किया जा रहा  है | गोवर्धन यादव ने इस  उपन्यास में श्रीराम के जीवन से संबंधित एक अत्यंत महत्वपूर्ण चिर-परिचित घटना को लेखनीबद्ध  किया है, जो श्रीराम के वन-गमन से जुडी हुई है |  रामकथा से संबंधित सभी कृतियों में इस प्रसंग का वर्णन मिलता है, लेकिन गोवर्धन यादव ने अपनी सूक्ष्म और मौलिक दृष्टि से इस प्रसंग को एक नया औपन्यासिक धरातल दिया है| जहाँ सभी उस सुबह की प्रतीक्षा कर रहे थे ,जिसमें राम का राज्याभिषेक होना था, लेकिन कैकेयीके  राजा दशरथ से राम के लिए चौदह वर्ष के वनवास और भरत के लिए राजगद्दी मांगते ही समस्त अयोध्या पर दुर्भाग्य के काले बादल छा जाते हैं और खुशियों पर ग्रहण लग जाता है | घटनाक्रम आगे बढ़ता  है और श्रीराम को वल्कल  धारण करके अपनी पत्नी तथा प्रिय भ्राता के साथ वन गमन के लिए निकलजाना पड़ता है |

राज्याभिषेक की घोषणा के पश्चात श्रीराम माता कैकेयी के भवन जाते हैं और उन्हें अपने अवतार का प्रयोजन बताते हुए मानव कल्याण के इस उद्देश्य में अपना साथ  देने के लिए मनाते हैं  | उपन्यासकार ने इस प्रसंग को उठाकर बड़ी ही खूबसूरती से कैकेयी को सर्वथा कलंक मुक्त करनेका प्रयास किया है और माता के प्रेम और त्याग को महिमा मंडित किया है | यह सर्व विदित है कि कैकेयी राम को प्राणों से भी अधिक प्यार करती थीं उन्हें कभी यह ध्यान भी नहीं रहा कि उनकी कोख से राम ने जन्म नहीं लिया है| तभी तो राम के राज्याभिषेक का समाचार सुनकर वे अत्यंत प्रसन्न होती है जबकि वह जानती थी कि राजा दशरथ ने उनके पिता महाराज अश्वपति को वचन दिया था कि कैकेयी की कोख से जन्मा राजकुमार ही उनका उत्तराधिकारी होगा और सरयू के पावन तट पर बसी अयोध्यापुरी का सम्राट होगा| राम के प्रति कैकेयी के प्रेम को रामचरित मानस में इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-

कौशल्या सम  सब महतारीं|  रामहि सहज सुभाय पियारीं ||

मोपर करहिं सनेहु विसेषी|  मैं करि प्रीति परीक्षा देखी ||

जो विधि जन्म देइकरिछोहू|  होहिं राम सिय पूत पतोहू ||

प्राण ते अधिक राम प्रिय मोरें| तिन्हके तिलक छोभु कास तोरें ||

 

उधर श्रीराम भी अपनी सभी माताओं में सबसे अधिक प्रेम कैकेयी से ही करते थे ,माता-पुत्र के इस प्रेम की  अभिव्यक्ति विविध प्रसंगों में यत्र-तत्र देखी जा सकती है |

श्रीराम  माँ से आशीर्वाद लेकर निकल पड़ते हैं सनातन धर्म की रक्षा के लिए,मानवता के कल्याण के लिए और उच्चतम आदर्शों की स्थापना के लिए | इस यात्रा में उनके सहभागी हैं नारी आदर्श की प्रतिमूर्ति माता सीता और अपने अग्रज श्रीरामके लिए सुख-शैय्या का त्याग करने वाले शेषावतार लक्ष्मण | श्रीराम इस यात्रा में अकेले नहीं हैं ,उन्होंने अपने साथ समाजके दीन-हीन तबके को लिया है जो सदैव से वंचित-उपेक्षित माना जाता रहा है | श्रीराम प्रतीकात्मक रूप से उनसे सहयोग लेकर न केवल अपना लक्ष्य प्राप्त करते हैं,बल्कि उन्हें  समाज के लिए समान रूप से उपयोगी सिद्ध करते  हुए उनमें  आत्म स्वाभिमान की भावना पैदा करते हैं| श्रीराम के चरित्र का अनूठापन उन्हें जन-जन से जोड़ता है और उन्हें मानव  से ईश्वरत्व प्रदान करता है |

अयोध्या से लेकर चित्रकूट तक की इस  सरस और सहृदयी  यात्रा में पाठक प्रकृति के नैसर्गिक साहचर्य  से अभिभूत होता है | उपन्यासकार ने  प्रकृति और मनुष्य के आत्मीय संबंधऔर उनके महत्त्व को जन कल्याण के लिए अनिवार्य बताया है | हिंदी जगत में कृति का निश्चित ही स्वागत होगा और पाठकवर्ग द्वारा उसे सराहा जाएगा,इसमें संदेह नहीं |

मैं गोवर्धन यादव जी को इस अनुपम कृति के लिए बधाई और शुभकामना देता हूँ और कामना करता हूँ  कि वे अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य  को समृद्ध करते रहें |

 

                                                                                                                                डॉ दीपक पाण्डेय

                                                                                                                                सहायक निदेशक

                                                                                                                                केंद्रीय हिंदी निदेशालय

                                                                                                                                शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार

                                                                                                                                नई दिल्ली  

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                                                राम का वनगमन एक अद्भुत घटना थी.

                                                                                                                                  डा. राजेश श्रीवास्तव.

रामकथा को गद्य में कहना सदैव एक बड़ी चुनौती रहा है. संभवतः यही कारण है कि रामायणकारों ने रामकथा की भावाभिव्यंजना के लिए काव्य को ही प्रमुख आधार चुना है. ऐसे में जबकि रामकथा पर विपुल साहित्य  उपलब्ध है. गोवर्धन यादव का उपन्यास "वनगमन" का सामने आना एकबारगी चौंकाता भी है किंतु राम के वनगमन की मधुर गाथा का वाचन, श्रवण जिस तरह भी जितनी बार भी, जिस किसी विधा में भी किया जाए, सदैव मनोहर है.

वनगमन का सम्पूर्ण सौंदर्य राम की मुस्कान में अन्तर्निहित है जिसे वे अयोध्या  की सीमा में प्रसारित करते है और माता कौशल्या से भी चहककर कहते हैं

                जँह सब भांति मोर बड़काजू                                                                                                                                             पिता दीन्ह मोहि कानन राजू..                                                                                                                          

और यह भी कि                                                                                                                                                                             मुनिगन       मिलनु विसेस वन सबहिं भाँति हित मोर.

वन में तो बहुत कुछ है करने को. भील, कोल और तपस्वी मुनिगण भी तो वन में ही निवास करते हैं वहाँ तो ऋ‍षियों का निवास है, वन में मुनियों और ऋ‍‍षियों का सत्संग मिलेगा, यह विचार ही राम को स्स्फ़ूर्ति से भर देता है. राम का वनगमन एक अद्भुत घटना थी. और एकदम अचानक हुई. जैसे कोई कहे कि कल से तुम साधु हो जाओ. युगान्तकारी घटनाएँ अचानक ही हुआ करती हैं और युगपुरु‍ष उसे सदैव समभाव से ग्रहण करते हैं. राम के वनगमन का दृ‍ष्य ठीक इसी प्रकार का रहा होगा, इसमें संदेह किया जा सकता है किन्तु इस कथा से जुड़ी रामराज्य की अवधारणा पर कोई संदेह न होगा. अनेक युगों से मानव मन का संवर्धन करती आई रामकथा के साथ हमारा जीवन सम्पृक्त है. वही हमारी संस्कृति का आधार है. राक्षसी प्रवृत्ति को ठीक समझने ऋ‍षियों के आचार-विचार और सत्संग का ज्ञान भी राम के वनगमन के कारण ही संभव हो सकता है.

वन का अर्थ एकांत नहीं होता, निर्जन नहीं होता. अनेक प्रकार के पंछी-पखेरु अपने कलरव से वन को सदैव गुंजायमान रखते हैं. सरित कलकल, मेघगर्जन, पर्वतरोर, वृक्षनर्तन वन को जीवन प्रदान करते हैं. निर्जन तो जंगल होता है. जहाँ सब जड़ हो, जहाँ पशु प्रवृत्ति प्रभावी होती हो, वही तो जंगल है. वन जीवंत होता है. वन में जड़-चेतन का समन्वय होता है.\

प्राचीन काल में लोकनिर्माण की गतिविधियों के संचालन का उत्तरदायित्व साधु-ब्राह्मण, वानप्रस्थों पर ही था. वे अपनी शक्ति और युक्ति से धर्म, कर्त्तव्य और सदाचार का वातावरण बनाने हेतु तत्पर रहते थे. राम भी ऐसे ही तापसी वनवासी हुए.              

वन निर्जन कहाँ हैं. वन को किस तरह परिभाषित किया जाता रहा होगा, यह भी विचारणीय प्रश्न है? दण्ड्कवन या किषिकन्धा नगरीय क्षेत्र नहीं है. ये वन ही हैं. यहाँ वन संस्कृति विद्यमान है. राक्षस जाति के वीरों को इन वनक्षेत्रों का अधिकारी बनाया जाता था. वे इन वनों के स्वामी हुआ करते थे. यदि कॊई इनकी अनुमति के बिना इनके वनक्षेत्र में प्रविष्टः हुआ तो इनका शत्रु. छत्तीसगढ़ का बस्तर और कर्नाटक का तुंगभद्रा किनारे बसी हम्पी इसी वनसंस्कृति के दुर्गम क्षेत्र थे. ऋष्यमूक पर्वत के चतुर्दिक दण्डक वन के निवासियों को ही वानर कहा जाता हो ऐसी संभावना है.

जरा वनवासी को और समझ लें. वनवासी सभ्यता का अपना प्रथक परिचय है. नागरी सभ्यता से दूर असुविधाओं और अशिक्षा की बीच अनेक जातियाँ निवास करती ही थी. उनके अपने ग्राम थे वह वन नहीं है, किन्तु आश्रम वन ही की परिधि में आते थे. इसीलिए राम ग्राम-नगर की सीमा में नहीं गए, किन्तु आश्रमों में गए और स्वयं भी आश्रम बनाकर रहे. वनवासी का जीवन बिना अस्त्र के संभव नहीं. इसीलिए राम के पास भी अस्त्र थे. वनवासी का अर्थ ही है कि अपनी सुरक्षा स्वयं करने की भावना.

तब वन में जीवन यापन की सारी सुविधाएं थीं. आज की तरह वन नहीं थे. आज के वन में जीवन उतना सुविधाजनक नहीं है. लेकिन राम वन के सभी संसाधनों से परिचित थे.

पत्तों से  कुटी (पर्णकुटी ) बन जाती थी. कुश और पत्तों की सुन्दर साथरी ( बिछौना), कन्द, मूल और फ़ल का नित्य आहार उपलब्ध थे. वनवासी इनका उपयोग करते हैं. धनुर्विद्या और अस्त्र-शस्त्र संचालन में तो राम लक्ष्मण निपुण थे ही ( उन्हें दिव्य अस्त्र भी प्राप्त थे.)        

कैकेई ने जो दो वर मांगे उनकी भाषा और अर्थ  विचित्र थे. यह जो राम के लिए राज्याभिषेक की तैयारी की गई है, इसी अभिषेक सामग्री द्वारा मेरे पुत्र भरत का अभिषेक किया जाए और दूसरा- घीर स्वाभाव वाले श्रीराम तपस्वी वेष में वल्कल तथा मृगचर्म धारण करके चौदय वर्षों ताक दण्डकारण्य़ में जाकर रहें. भरत को आज ही निष्कंटक युवराज पद प्राप्त हो जाए. आज ही राम को वन जाता देखूँ. वाल्मीकि की कैकेयी बहुत हठी और निष्ठुर है. वह कहती है-धर्म की अभीष्ठ फ़ल की सिद्धि के लिए तथा मेरी प्रेरणा से आप अपने पुत्र श्रीराम को घर से निकाल दीजिए. मैं अपने इस कथन को तीन बार दुहराती हूँ.

प्रवाज्य सुतं राम त्रि खलु त्वां ब्रहीम्यहम

दशरथ को बहुत क्रोध आया. उन्होंने कहा-वनवास उसको दिया जाता है जिसके बहुत से दोष सिद्ध हो चुके हों.

ब्रवीपि दोषान गुणनित्यसम्मते.

उन्होंने कहा-पापिनी...मैंने अग्नि के समीप वैदिक मंत्र का पाठ करके तेरे जिस हाथ को पकड़ा था, उसे आज छोड़ रहा हूँ. साथ ही तेरे और अपने द्वारा उत्पन्न हुए तेरे पुत्र का भी त्याग करता हूँ.

यस्ते मंत्रकृत पाणिरग्नौ पापे मयधृतः : सत्यंजामि स्वजं चैव तव पुत्रं सहत्वया.  ( 2 / 14 /14 )

दशरथ ने यह भी कहा-यदि भरत को भी श्रीराम का वन में जाना प्रिय लगता हो तो मेरी मृत्यु के बाद वे मेरे शरीर का दाहसंस्कार न करें.

वरदान के बारे में दशरथ और कैकेयी के अतिरिक्त कोई नहीं जानता किंतु इस प्रसंग को राम चित्रकूट में जिस तरह भरत से साझा करते हैं उससे लगता है कि उन्हें वरदान की यह बात मालूम थी.

पुरा भ्रातः पिता नः स मातरं ते समुद्धहन : मातामहे समाश्रीशीद राज्यशुल्कमनुत्तमम .

( भाई, जब हमारे पिता का विवाह माता से हुआ था तब तुम्हारे नाना ने  हमारे पिताजी से यह वचन लिया था कि तुम्हारी माता के पुत्र को ही वे राज्य देंगे.) पिता की आज्ञा तो बहुत बड़ी बात है. राम पिताकी अनकही बात का सम्मान करते हैं.

कैकेयी अपनी जय चाहती है. वह राम के मुख उदासी देखना चाहती है. उदासी भी सामान्य नहीं विशेष उदासी. इस विशेष उदासी के अर्थ को कौन जानता है?. कैकेयी जानती होंगी या राम ?. तभी तो राम मुस्कुरा पड़ते हैं. राम का मूल स्वभाव ही प्रसन्नता है. वास्तव में राम पांच देवताओं के स्वरूपों, अंशों और गुणों को धारण किए हुए हैं- अग्नि का प्रताप, इन्द्र का पराक्रम, सोम की सौम्यता, यम का दण्ड और वरुण की प्रसन्नता. वन में मुनियों और ऋषियों का सत्संग मिलेगा. यह विचार ही राम को स्फ़ूर्ति से भर देता है- *मुनिगन मिलनु विसेस, वन सबहिं भांति हित मोर*.          वनगमन की सूचना मिलने पर भी राम प्रसन्न हैं. वनगमन कोई दण्ड नहीं हैं.

कैकेयी को मंथरा ने उकसाया जरुर था किन्तु वह तो उस दासी का धर्म ही था. अपनी स्वामिनी को सर्पोपरी देखना और उसके हित साधना- इसमें अनुचित क्या ? कौशल्या और सुमित्रा के प्रति उसकी संवेदनाओं की सीमा स्वभाविक है. स्वामिनी कैकेय़ी को पटरानी के रूप में देखने इच्छा तो पूर्ण न हो सकी, किन्तु उसे राजमाता के रुप में स्थापित करने में वह कुछ योगदान तो दे सकती है. उसे पूर्ण विेश्वास है कि तनिक भी विवेक से काम लिया जाए तो, भरत को अयोध्या का राजा बनाया जा सकता है. इस विवेक में थोड़ी चतुराई और थोड़ी कूटनीति आवश्यक है- वह इसी दिशा में तो कार्य कर रही है.

कैकेयी को मंथरा की बात एकदम जंच गई. यह विचारणीय प्रश्न है. कुछ न कुछ तो उसके मन में पहले से भी चल रहा होगा. राम को वनवास भेजने का उद्देश्य भरत को गद्दी देने की इच्छा मात्र नहीं हो सकता. दशरथ को यह अंदेशा तो था ही कि कैकेयी को दिये गए वरदान और उसके पिता को दिया गया वचन अभी प्रासंगिक है. कैकेयी पुत्र को ही राजा बनाया जाएगा यह वचन उन्होंने उस स्थिति में दिया था, जब वे संतान प्राप्ति की समस्त संभावनाओं के प्रति निराश हो चले थे. किंतु अब स्थितियां बदल चुकी है. दशरथ ने राम का अभिषेक तुरंत करने का विचार बनाया.

मंथरा ने कैकेयी को अपने सामर्थ्य भर उकसाने का प्रयास किया था. इतनी तैयारी चल रही है पखवाडए से और तुम्हें तनिक भी संज्ञान नही,

भयउ पाख दिन सजत समाजु : तुम्ह पाइ सुधि मोहि सन आजू.

मंथरा पूर्वाजन्म में दुंदुभि नामक एक गंधर्व कन्या थी. उसके अवचेतन में भविष्य की दृष्टि भी वास करती है. उसकी योजना का प्रबल पक्ष भरत को राजा बनाना नहीं हो सकता. राम के वनवास में उसकी रुचि है. उसने कैकेयी को स्पष्ट रुप से कहा-
सुतहिं राजु, रामहिं वनवासु : देहु लेहु सब सवति हुलासु

और कैकेयी ने भी वर किस तरह माँगे

सुनहुँ प्रानप्रिय भावत जी का : देहुँ एक वर भरतहुँ टीका

उसे ज्ञात था भरत को राज्य देने में राजा दशरथ को तनिक भी संकोच नहीं होगा. किन्तु दूसरे वर के बारे में संशय था.

माँगउ देसर वर कर जोरी : पुरवहुँ नाथ मनोरथ मोरी

हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरे इस मनोरथ को पूर्ण कर दीजिए.

तापस वेष बिसेषि उदासी : चौदह बरस राम वनवासी.

राम को यह वनकाल तपस्वी के वेष में बिताना होगा और वह भी विशेष उदास भाव से.

राम की वनयात्रा के अनेक पक्ष हैं किंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य और ध्येय यह है कि वे अपनी वनयात्रा को दूसरों ( विशेषकर ऋषियों तथा वन नागरिकों ) की रक्षा तथा सेवा के लिए अर्पित कर देते हैं.

तापसी वेष में राम, लक्ष्मण और सीता का वनगमन चौदह वर्ष के लिए एक तरह का वानप्रस्थ आश्रम ही है. पुराणकारों ने वानप्रस्थ आश्रम को दो रुपों-तापस और सांन्यासिक में विभाजित किया है. माना जाता है कि जो व्यक्ति वन में रहकर हवन, अनुष्ठान और स्वाध्याय (वेद और स्वयं का अध्ययन ) करता है. वह तापस वानप्रस्थी कहलाता है और जो साधक क्ठोर तप करता तथा ईश्वर आराधना में निरन्तर लगा रहता है उसे सांन्यासिक वानप्रस्थी कहते हैं. ये  तापसी वानप्रस्थी अपने उत्तराधिकारियों को अपने कार्य सौंपकर सामाजिक तथा परमार्थिक कार्यों में लगा देते हैं.

राम के सम्पूर्ण कथा को दो खंडों में रखते हुए लेखक गोवर्धन यादव के उपन्यास का यह पहला खंड है."वनगमन". इस उपन्यास को लिखने से पहले उन्होंने मानस के साथ-साथ वाल्मीकि रामायण का भी भली-भांति अध्ययन मनन किया है जिसका प्रमाण वे सम्पूर्ण उपन्यास में देते चलते हैं.(यथा- धर्म के दस लक्षण- धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रीय निग्रह, विद्या, सत्य और आक्रोध) दशरथ जी के सभी मंत्रियों  के नाम -धृष्टि, जयंत, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और सुमंत्र.) दो पुरोहित-वशिष्ठ और वामदेवजी. अन्य योग्य मंत्री-सुयज्ञ, जाबालि, काश्यप, गौतम, मार्कण्डेय, कात्यायन आदि.

 गोवर्धन यादव की शैली सपाट किंतु गहरी है. वे तथ्यों के अन्वेषण करने, प्रसंगों की तारतम्यता, तर्क, प्रश्न और समाधान उनकी शैली का महत्वपूर्ण लक्षण है. राज्य संचालन, राज्य वैभव, सैन्य विशेषताओं तथा नागरिक संहिता को भी वे अपने विचार तर्क, तथ्य एवं गंभीर कल्पनात्मक सौंदर्य के साथ प्रस्तुत करते हैं. राम की वंशावली को भी उन्होंने प्रसंगवश समाहित किया है.

उपन्यास में कथा के प्रसंगों को स्पष्ट करने हेतु छोटे-छोटे शीर्षकों में विभाजित किया गया है. कथा का विस्तार राजा दशरथ की पुत्रैच्छा से लेकर राम के चित्रकूट पहुँचने तक विस्तार लिए हुए है. दशरथ जी को अपने श्वेत बाल दिखाई देने से अपने वंश एवं राज्य के उत्तराधिकारी की चिन्ता होती है और उसमें नवीनता यह कि अपने पुत्रों को राज्य सौंपने के विकल्पों में वे सबसे पहले शत्रुघ्न के नाम पर विचार करते है. उसके पश्चात लक्ष्मण, भरत और अंत में राम के बारे में चिन्तन करते हैं.

दशरथ जी अपने पूर्वजों को प्रणाम कर पिता अज का स्मरण भी करते हैं. वे कुलगुरु वशिष्ठजी के आश्रम पर स्वयं ही राम के राज्याभिषेक का प्रस्ताव लेकर  पहुँचते हैं. राम के राज्याभिषेक की तैयारी का भव्य चित्रण उस औपन्यासिक कृति को गौरव प्रदान करने वाला है. ज्योतिष गणना तथा मुहूर्त की प्रचलित परम्परओं का लेख भी शोधपरक है.

जो प्रश्न संभवतः प्रत्येक रामकथा प्रेमी पाठक के मन में उपजते हैं उन्हें भी गोवर्धन यादव ने तर्कपूर्ण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. जैसे- राम विचार करते हैं कि- जैसा कि मुझे विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि महाराज ने समस्त आर्यावर्त के राजाओं को विशेषा दूतों के माध्यम से निमंत्रण भी भिजवा दिया है लेकिन जानबूझकर या फ़िर किसी विशेष कारण के चलते उन्होंने भरत के मामाजी और मेरी ससुराल जनकपुरी में निमंत्रण नहीं भिजवाया है. इन दो राज्यों को निमंत्रण नहीं भेजे जाने के पीछे महाराज की क्या मंशा है, इसे जानना भी मेरे लिए जरुरी है.

राम के वनगमन के कारणों तथा प्रतिफ़लन के अनेक पक्षों पर सूक्ष्मता से विचार किया गया है. रामकथा से सुभिज्ञ पाठकों के मन में भी यह विज्ञासा बनी रहती है कि लेखक अब किस प्रसंग पर ठहरकर नए विचार हमारे सामने रखने वाला है. अस्तु यह कौतुहल बनाए रखना रामकथा के संदर्भ में लेखक की बड़ी उपलब्धि है.

श्री गोवर्धन  यादव एक प्रतिष्ठित कथाकार हैं. अनेक कहानी संग्रहों के माध्यम से उनकी साहित्य के क्षेत्र में विशेष पहचान है. कथा के कहन को वे बहुत सुन्दर तरह से साधते है. इसलिए रामकथा और उसके पात्रों को नए सिरे गढ़ते-विचारते अपनी अलग पहचान छोड़ जाते हैं. उपन्यास का दूसरा खंड भी अत्यन्त रोचक एवं शोधपरक होगा इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है.

उपन्यास वनगमन के लिए बहुत शुभेच्छा के साथ आशा करता हूँ कि पाठकों को इसमें नवीनता के साथ महत्वपूर्ण एवं शोधपरक सामग्री लक्षित होगी तथा नए लेखकों और शोधार्थियों के लिए भी यह उपन्यास मील का पत्थर सिद्ध होगा. जय श्रीराम.

                                                                                                    डा. राजेश श्रीवास्तव

                                                                                                निदेशक रामायण केन्द्र भोपाल                                                                                                                                                          मुख्य कार्यपालन अधिकारी                                                                                                                                                              म.प्र.तीर्थ एवं मेला प्राधिकरण                                                                                                                                                           आध्यात्म मंत्रालय म.प्र, शासन भोपाल.                                                                                                                                                                                                     

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

(लेखकीय प्रतिवेदन).

 

उपन्यास प्रवेश.

 

"वनगमन"  दरअसल यात्रा का ही पर्याय है. घर की चहारदीवारी से बाहर निकल कर प्रकृति के अनूठे सौंदर्य के दर्शन करना. खिलता मौसम, खिलखिलाता जीवन, नदियों का गूंजता स्वर, पहाड़ियों का एकांत, समुद्र की पछाड़, दमकता सूरज, घने वनपठारों का विस्तार, कितने ही रंग और रूप बदलते आसमान के नीचे, कितने ही रुपों में बसता लोक-जीवन, जहाँ सभी ओर प्रकृति का अनूठा राग बज रहा होता है, देखने और समझने का अवसर प्रदान करता है. यदि माता कैकेई राम को वन जाने का आदेश नहीं देतीं, तो शायद ही राम प्रकृति से इतना घनिष्ठ तादात्म्य स्थापित कर पाते.

"वनगमन"  का तात्पर्य तो देश को जानना भी है. इसका मतलब देश की ऊर्जा और उस जीवनशक्ति को जानना है, पहचानना है, जो हजारों साल से सकारात्मक रुप से रची-बसी थी.लेकिन किन्हीं कारणॊं से वह नकारात्मकता से घिर गई थी. राम को वनगमन का आदेश देने के पीछे माता कैकेई की दूरदृष्टि का ही सुपरिणाम था कि वे शोषित-पीढ़ित और वंचित जनों की आवाज सुन पाए. उनके दुःख दूर कर पाए और उन्हेंघोर निराशा के अंधकार से बाहर निकाल पाए. अगर माता कैकेई राम को वन नहीं भेजतीं तो, राम केवल जीवन भर के लिए अयोध्या के शासक भर बने रहते. वे राम के शौर्य को, उनके पराक्रम को जानती थीं. वे जानती थीं कि राम ही एक ऐसा अकेला व्यक्ति है, जो रावण-राज के अस्तित्व को सदा-सदा के लिए मिटा सकता है.

"वनगमन" एक अन्य अर्थ में ऊर्जा का "विस्फ़ोट"होना भी हुआ. अपनी यात्रा के समय जो व्यक्ति,राग-द्वे‍षसे जितना दूर होगा,  उतना ही उसके चेहरे पर प्रसन्नता का भाव आएगा.

यात्रा एक आंतरिक संतुलन भी स्थापित करती है और जब वह स्थापित हो जाती है,तो सारी आंतरिक शक्तियाँ जागृत होकर बाहर आने को छटपटाने लगती हैं. इस असाधारण विस्फ़ोट को हम अद्भुत चमत्कार, अलौकिक या फ़िर जादू जैसा नाम भी दे सकते हैं.

"वनगमन"- एक मनोवैज्ञानिक, व्यवहारिक और अध्यात्म से जुड़ने का एक सशक्त माध्यम भी है. जब हमारी अपनी मूल प्रकृति पर हमारा आधिपत्य होने लगता है तो एक विलक्षण सृजनात्मकता का उदय होता है. इस तरह श्रीराम अपनी मूल प्रकृति तक पहुँचे.

राम किस तरह निखरेंगे, वे किस तरह वे अपनी स्वभाविक प्रवृत्ति से जन-नायक बनेंगे,कैकेईजी बखूबी जानती थीं. यही कारण थे कि वे जन-नायक कहलाए. इसका सारा श्रेय यदि किसी को जाता है तो वह केवल माता कैकेई जी को ही जाता है.

वे स्वयं क्षत्राणी थीं. वे कई बार महाराज दशरथ जी के साथ युद्ध के मैदान में गईं थीं. एक कुशल रथ संचालन से लेकर,शस्त्र चलाने में भी वे पारंगत थी. इतना ही नहीं, वे राजकाज के संचालन में सहयोगी तो थी ही थी. लेकिन उनकी दूरदृष्टि समूचे आर्यावृत्त पर भी टिकी रहती थी. युद्ध के मैदान में उन्होंने अनेक दानवों को मार गिराया था, लेकिन समूल नष्ट नहीं कर पायी थीं. इसका दुःख तो उन्हें बराबर बना रहा. वे बराबर इस प्रयास में निरत रहती थीं कि भारत की संस्कृति को, भारत के सनातन धर्म को कैसे बचाया जा सकता है?. उनकी पारखी नजरों ने राम को पहचान लिया था. अपना सुख, वैभव यहाँ तक कि अपने सुहाग को भी दांव पर लगाकर, उन्होंने राम को वन जाने की आज्ञा दी थी. चौदह बरस का बननास तो दिया ही दिया,साथ में एक कड़ी शर्त औरजोड़ दी कि राम को इस चौदह वरस की अवधि में "विशेष उदासी"बन कर रहना होगा.

इस "विशेष उदासी"के पीछे गहरा भाव यह था कि राम,किसी भी गाँव या नगर में प्रवेश नहीं करेंगे., संकेत स्पष्ट है कि उस समय भी अनेक राजा-महाराजा तो रहे ही होंगे, लेकिन किसी ने भी रावण के बढ़ते अत्याचार के विरुद्ध, न तो आवाज उठाई और न ही शस्त्र. वे कदापि नहीं चाहती थीं कि ऐसे अकर्मण्य़ राजाओं का साथ राम को लेना पड़े..अतः उसे स्वयं की शक्ति अर्जित करनी होगी और रावण-राज को समूल नष्ट करके,अयोध्या की गौरव-गाथा का गान अमर करना होगा..

वे राम के व्यक्तित्व से संसार को परिचित करवाना चाहती थीं. वे जानती थीं कि व्यक्तित्व के गढ़ने का प्राकृतिक नियम है प्रकृति के बीच जाकर, वहाँ संघर्ष करके, जूझकर अपने व्यक्तित्व को गढ़ना. रामजी ने अपने भाइयों के साथ गुरुकुल में जाकर अल्पकाल में सारी विद्याएं प्राप्त कर ली थीं. ज्ञान तो मिल गया था, लेकिन व्यक्तित्व नहीं बन पाया था. राम स्वयं इस बात को बहुत अच्छी तरह से जानते थे कि ज्ञान के बल पर राज्य तो चलाया जा सकता है, लेकिन उसे बनाया या बचाया नहीं जा सकता.

राम का व्यक्तित्व संघर्षशील है. श्रम-प्रधान है. इसीलिए उनका रंग सांवला है. उनकी देह महलों के सुरक्षित और सुगंधित वातावरण में नहीं पनपती. वह प्रकृति के खुले में बरसात की बूंदों का आघात सहती हैं और सब सह-सहकर ही अपना निर्माण करती है. माथे पर आयी पसीने की बूंदे,जहाँ अभिनंदनीय है, पूज्यनीय हैं, वहीं वे सामंतीय चेतना के खिलाफ़ विद्रोह का शंखनाद भी है. उस सामंतीय चेतना के विरुद्ध, जो श्रम को दुत्कार कर, विश्राम को महिमा-मंडित करती है.

जब विश्वामित्र जी आकर दशरथ जी से राम और लक्ष्मण को मांगते हैं तो पिता के कहने पर राम चल देते हैं. यह भविष्य के चौदह वर्ष के वनवास की पूर्व की तैयारी थी. उसका पूर्वाभ्यास था. उन्होंने पिता की आज्ञा मानी और चुपचाप चल दिए. लेकिन बाद के वर्षों में वे वनवास क्यों गए? क्या उन्हें पिता ने आज्ञा दी थी?. नहीं. पिता ने तो वनगमन के लिए कहा ही नहीं था. केवल माता कैकेई के वचनों को उन्होंने पिता की आज्ञा मानी और वन जाने का निश्चय कर लिया.

"वनगमन"एक अर्थ में इस बात की प्रत्याभूति (गारंटी) भी था कि राम,न सिर्फ़ उन आक्रमणकारी दानवों से ऋषि, मुनियों, तपस्वियों के प्राणॊं को बचाएंगे, जो घने जंगलों के बीच रहकर, न केवल यज्ञादि करते हैं अपितु शस्त्र और शास्त्र का निर्माण भी कर रहे होते हैं, जिन्हें दानव आकर नष्ट-भ्रष्ट कर देते थे.. वे कोई साधारण ‍ऋषि-मुनि नहीं थे,बल्कि एक असाधारण वैज्ञानिक भी थे. "वनगमन"के बाद राम उन तक पहुँचे. वहाँ पहुँचकरवह केवल ज्ञान ही अर्जित नहीं करेंगे, बल्कि शस्त्रों से भी परिचित होते चलेंगे और रावण की सत्ता को चुनौती देंगे..

"वनगमन"एक साधारण घटना मात्र नहीं है. यह घटना एक शासक के द्वारा, एक राजकुमार को दिए गए आदेश से जुड़ी हुई है,न कि एक पिता के द्वारा एक पुत्र को दिए गए आदेश से. इस घटना से स्पष्ट है कि राजा ने वन-गमनके आदेश पर अपने हस्ताक्षर किए ही नहीं थे,तो फ़िर आदेश का पालन करने का प्रश्न ही नहीं उठता था, लेकिन राम ने उसे आदेश मान लिया, जबकि वह था ही नहीं. जब उन्होंने अपना उद्देश्य निर्धारित कर लिया, तो उस उद्देश्य को पाने के लिए उन्होंने निर्ममता तथा अवज्ञा की सीमा से परे जाने में संकोच भी नहीं किया. वे स्वयं भी जानते थे कि वन जाने के बाद, पिता शायद ही जीवित रहेंगे. उनकी तीनों माताएं विधवा हो जाएंगी.

कैकेई जी भी स्वयं जानती थी कि उनके इस निर्णय से अयोध्या में भूचाल आ जाएगा. राम के वन जाते ही उन्हें वैधव्य जैसे आघात को सहना पड़ेगा. पता नहीं,लोगउनके विरुद्ध कितनी ही बाते बनाएंगे. कोई उन्हें घरफ़ोडू, कोई खलनायिका जैसे संबोधनों से संबोधित करेगा. सगा बेटा घृणा की दॄष्टि से देखेगा और तो और, निकट भविष्य में कोई परिवार, अपनी बेटियों का नाम "कैकेई" रखना पसंद करेगा. इतना सब कुछ जानने और समझने के बाद भी,वे अपने निर्णय पर अडिग रहती हैं और राम को वन जाने को कहती हैं. यदि वे राम को वन नहीं भेजतीं तो,राम केवल राम ही बने रहते. एक शासक से बढ़कर और कुछ भी नहीं हो सकते थे.लेकिन विमाता कैकेई ने उन्हें अयोध्या की सीमा से निकालकर,समूचे आर्यावर्त के घरों-घर तक पहुँचा दिया.

खलनायिकाएँ केवल घर के दो टुकड़े करवा सकती है. मन-मुटाव पैदा करवा सकती हैं. वे कभी भी ऐसा अद्भुत इतिहास सृजित नहीं कर सकतीं. अतः माता कैकेई को खलनायिका कहकर उनकाअपमान नहीं किया जा सकता.

राम कथा पर "रामायण" तीन सौ से लेकर एक हजार तक की संख्या में विविध रुपों में लिखी जा चुकी है, जिसमें वाल्मीकि रामायण सबसे प्राचीन मानी जाती है. इस गौरव ग्रंथ के कारण वे दुनिया के आदि कवि माने जाते हैं. राम कथाएं अन्य  भारतीय भाषाओं में लिखी गयी हैं. हिंदी में 11,  मराठी में 8, बांगला में 25,  तमिल में 12,  तेलुगु में 12, तथा उड़िया मे 6रामायणें मिलती हैं. लेकिन अवधि (हिंदी)में लिखित गोस्वामी तुलसीदास कृत "रामचरित मानस" ने अपना विशेष स्थान बनाया है. कई देशों के अलावा अन्य कई भाषाओं में राम कथाएं लिखीं गईं हैं. इनके अलावा और भी रामायणें लिखी गई हैं, लेकिन अब तक 28 की ही खोज की जा सकी हैं.

"वनगमन उपन्यास"में मैने कुछ प्रयोग भी किए हैं.. जैसे कि महाराज दशरथजी का कानों के पास सफ़ेद हो चुके बालों को देखना और रामजी के राज्याभिषेक करने का निर्णय लेना. निर्णय लेने से पूर्व वे अपने चारों बेटों का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं. (२) श्रीराम और सीता माता द्वारा एक "आभासीय दुनिया"का निर्माण करते हुए माता कैकेई जी के पास जाना और महाराज दशरथजी से दो वर मांगने का अनुरोध करना. (३) एक जनश्रुति के अनुसार- महाराज दशरथजी का अचानक सामना बाली से होता है और वह उन्हें युद्ध के लिए ललकारता है.बाली को ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त था कि उसे सामने वाले की आधी शक्ति प्राप्त हो जाएगी. घनघोर युद्ध के बाद महाराज की हार होती है.युद्धजीतने पर बाली ने दो विचित्र शर्त रखी कि वे रघुकुल की शान यानि अपना मुकुट मेरे सामने रख जाएं या फ़िर कैकेई को छोड़ जाएं.अंततोगत्वा महाराज अपना मुकुट विजेता बाली को सौंप देते है.

चुंकि रानी कैकेई जी भी एक वीर योद्धा थीं,.किसी भी वीर योद्धा को यह कैसे सुहाता कि उन्हें मुकुट छॊड़कर आना पड़े. उन्हें बहुत दुःख हुआ कि रघुकुल का गौरव मुकुट उनके बदले रख छोड़ा गया है. उन्हें मुकुट को वापस लाने की चिंता हर समय लगी रहती थी. इसलिए भी उन्होंने रामजी के राजतिलक के समय रामजी के लिए वनवास मांगा था. उन्होंने श्रीरामजी से कहा था- तुम्हें उस मुकुट को लेकर आना होगा. मैं उसी मुकुट से तुम्हारा राजतिलक करूँगी.

उपरोक्त तीनों प्रसंग उपन्यास को और अधिक रोचक बनाने में सहायक बन पड़े हैं. ऐसा मेरा अपना मानना है.

रामजी असीमित शक्तिशाली, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ जैसे दिव्य गुणॊं की खान हैं. मैं, न तो बुद्धि के बल पर, न ही चेतना के स्तर पर और न ही स्तुति के सहारे आपकी त्रिगुणात्मक शक्तियों को समग्रता के साथ समझ पाने में समर्थ हूँ. फ़िर भी मैं आपके द्वारा निर्मित मायावी संसार में आपके दर्शन के लिए तीर्थयात्राएं करता हूँ.

आप सर्वत्र उपलब्ध हैं, आप चेतना और ध्यान से परे है फ़िर भी मैं आपका ध्यान करता हूँ. आप शब्दों में नहीं बांधे जा सकते फ़िर भी मैं  आपके गुणॊं का वर्णन करता हूँ. मेरे प्रयासों से हुए इन तीनों अपराधों को कृपया करके क्षमा करेंगे ऐसी मेरी विनम्र प्रार्थना है.         

उपन्यास लेखन के इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए मेरा प्रयास रहेगा कि अगला उपन्यास जो दण्डकारण्य में रामनाम से प्रकाशित होगा.

मेरा अपना मानना है कि वनगमन से पूर्व उनके पास कोई रोडमैपनहीं था और न ही कोई पथ-प्रदर्शक. वे किसी एक ऋ‌‍षि या मुनि के पास जाते, और वे उन्हें किसी अन्य के पास जाने का परामर्श देते हैं. इस तरह उनकी यात्रा अनवरत जारी रहती है.

यात्रा के पड़ाव पर मिलने वाले ऋ‌‍षि या मुनि के नामों का उल्लेख तो हमें पढ़ने को मिलता है,लेकिन उनका न तो कोई परिचय मिलता है और न ही विस्तार से जानकारी. मेरी सतत कोशिश रहेगी कि मैं उनका परिचय देता चलूं.

हरि अनंत हरि कथा अनंता

रामजी एक हैं लेकिन उनकी कथाएं अनंत है. आपकी महति कृपा से मैंने अपने प्रथम उपन्यास वनगमनलिखने का सायास प्रयास किया है. मैं नहीं जानता कि इसमें मैं कितना सफ़ल हो पाया हूँ?. जो कुछ भी मैं लिख पाया हूँ. यह सब आपकी ही कृपा और आशीर्वाद का सुफ़ल है.

मेरे इस उपन्यास लेखन में मित्र (प्रो).श्री राजेश्वर अनादेव, श्री सुरेन्द्र वर्मा, श्री लक्ष्मण प्रसाद डेहरिया तथा श्री रणजीत सिंह परिहार का अथक सहयोग प्राप्त हुआ है. मैं आप तीनों का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ.

                                                                जय सिया राम जी की.

                                                                                                                                  गोवर्धन यादव.

                                                                                                                       संयोजक,  मध्यप्रदेश रा‍ष्ट्रभा‍षा प्रचार                                                                                                                           समिति, जिला इकाई,छिन्दवाड़ा-480001

                                                                                                               

आवास.

103,कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001     

संपर्क09424356400

ईमेल- goverdhanyadav44@gmail.com

 

 

 

 

 

 

 

रात्रि का तीसरा प्रहर अभी बीतने को था कि महाराज दशरथ की अचानक नींद  अचानक खुल गई. मिचमिचाई आँखों से उन्होंने देखा, महारानी कैकेई गहरी निद्रा में निमग्न हैं. वे अपनी शैया पर लगातार करवटें बदलते रहे थे, लेकिन निंदिया महारानी, जो एक बार रुठी तो फ़िर लौटकर नहीं आयी. जब नींद नहीं आ रही है, तो शैय्या पर पड़े रहना उन्हें उचित नहीं लगा. वे तत्काल उठ बैठे और महल की अटारी की ओर बढ़ने लगे

महाराज का अंग रक्षक सतर्क था. वह जानता था कि महाराज नियमित रुप से ब्रह्म मुहूर्त में ही जागते है और नित्य क्रियाकर्म के पश्चात व्यायाम आदि करते हैं, तत्पश्चात वे स्नान करने के बाद पूजागृह में जाकर, अपने आराध्य देव सूर्यनारायण की पूजा किया करते हैं. आज उनका इस तरह जाग जाना और अटारी की ओर प्रस्थान करना, उसकी समझ से परे था

जब उसने देखा, कि महाराज बिना कोई संकेत दिए अटारी की ओर बढ़ रहे हैं तो वह उनके पीछे हो लिया. महाराज ने संकेत से ही उसे द्वार पर ही रुक जाने को कहा. शस्त्रधारी अंग रक्षक वहीं द्वार पर रुककर उनके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा.

त्रियामा के इस अशुभ समय में अचानक जाग जाना, उनके मन में संदेह की बीज बो गया. शीतल बयार के झोंकें, जो अपने साथ फ़ूलों की सुवासित गंध लेकर मंद गति से प्रवहमान होकर, उनके शरीर को छूते हुए आगे बढ़ रही थी, लेकिन उद्विग्न मन को जरा-भी सुहावनी नहीं लग रही थी.

उचाट मन लिए वे देर तक यहाँ से वहाँ टहलते रहे. फ़िर एक ओर खड़े होकर अपनी नगरी अयोध्या को निहारने लगे. पूरा नगर ही इस समय आँखों में गहरी निद्रा आँजें सो रहा था. बीच-बीच में किसी पंछी के पर फ़ड़फ़ड़ाने की आवाज आती, तो कभी कुनमुनाते चिड़ियों के बच्चों के स्वर सुनाई देते. इन सबसे बेखर महाराज अविचल मुद्रा में देर तक खड़े रहे, फ़िर आकर एक आसन पर विराजमान हो गए.

विचारों की श्रृँखला टूटने का नाम ही नहीं ले रही थी. उन्होंने आकाश की ओर निहारा. निरभ्र आकाश में असंख्य तारे टिमटिमा रहे थे. वे देर तक तारों को देखते रहे. तभी  अचानक एक तारा टूटा और अपनी आभा बिखेरते हुए आँखों के सामने से ओझल हो गया. तारे का टूटना अशुभ माना जाता है. आकाश की ओर निहारते हुए उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा- "हे विधाता..!.भविष्य में क्या कुछ अशुभ घटने जा रहा है, मेरी रक्षा कीजिए प्रभो..... मेरे परिवार पर कोई आँच न आए.... तू ही रखवाला है.

अपने मन को नियंत्रित करते हुए वे स्वयं से संवाद करने लगे थे- "कितनी आश्चर्य की बात है कि जिसने देवताओं के आव्हान पर अनेकों बार दानवों से घनघोर युद्ध कर उन्हें पराजित किया हो, जो स्वयं दस रथों का संचालक हो, जो धर्म के दस लक्षणों- ( धृति,, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, विद्या, सत्य और अक्रोध ) से युक्त हो, जो बल, बुद्धि और शौर्य में पारंगत हो, जिसने इक्ष्वाकु कुल में जन्म लिया हो, ऐसे धीर-वीर पुरुष के मन में मलिनता कैसे आ सकती है.? संभव है, त्रियामी का ही असर हो.. वे ज्यादा देर तक अटारी पर ठहर नहीं रह पाए थे और नीचे उतर आए.
रात्रि का चतुर्थ प्रहर शुरु हो चुका था. उन्होंने देखा, महारानी कैकेई अब भी गहन निद्रा में निमग्न हैं. एक आसन पर विराजते हुए उन्होंने दर्पण हाथ में लिया और अपनी छवि को निहारने लगे. तभी उन्होंने देखा. कान के पास के बाल सफ़ेद हो चुके है. कान के पास के बालों का सफ़ेद होना इस बात का संकेत था कि वृद्धावस्था आ चुकी है.  वृद्धावस्था में प्रवेश कर चुका मनुष्य अक्सर अपने अतीत के गर्भ में उतरकर सोचने लगता है.

 

अयोध्या का वैभव

महाराज दशरथ जी भी अपने अतीत में उतरकर सोचने लगे थे- " जिस प्रकार से देवराज इन्द्र नें अमरावतीपुरी को बसाया था, इसी प्रकार मैंने धर्म और न्याय के बल से पुण्यसलीला-सदानीरा सरयू  के पावन तट पर बसी अयोध्यापुरी, जिसे मेरे पूर्वजों द्वारा बसाई गई थी, समय-समय पर उसमें व्यापक परिवर्तन कराते हुए, उसका विशेष रूप से पुनर्निर्माण करवाया है."

"सदानीरा सरयू के अलावा मैंने पुरी में कई बावड़ियों और कुओं का भी निर्माण करवाया. किसान खुश हैं और वे प्रायः सभी किस्म की फ़सले उगाते हैं. अनाज के भण्डारण के लिए कई इमारतें बनवाई हैं. नदी का जल अत्यंत ही मीठा है, मानो ईख का रस भरा हो. नगर के व्यापारी राज्य में खुश रहते हैं. उन पर राज्य का लगने वाला शुल्क भी काफ़ी कम हैं. अतः वे अपना व्यापार मन लगाकर करते हैं और समय सीमा के भीतर कर अदायगी भी करते है."

" मैंने महलों की दीवारों पर सोने का पानी चढ़वाया है. नगर में प्रवेश के लिए चौड़ी-चौड़ी सड़कें बनवाईं, सड़कों के किनारे अनेकानेक प्रजातियों के वृक्ष लगवाये, व्यायाम शालाएं बनवाईं, पुरी में बहुत सी नाटक मण्डलियां थीं, उनके लिए नाट्यगृह बनवाए, बड़े-बड़े फ़ाटक लगवाए . सभी प्रकार की सामग्रियों के लिए पृथक-पृथक बाजार बनवाए . नगर के चारों ओर गहरी-गहरी खाईयाँ खुदवायीं. तथा चारों ओर उद्यान तथा आम के बागीचे बनवाए ,  गुप्तगृहों और स्त्रियों के लिए क्रीड़ा-भवनों का निर्माण करवाया. नगर को सभी प्रकार के यन्त्र और अस्त्र-शस्त्र संचित कर उसे अजेय बनाया. सेना में अस्त्र-शस्त्र के प्रयोग में कुशलता प्राप्त सैनिकों को भर्ती कराया ताकि कोई शत्रु आसानी से पुरी पर आक्रमण न कर सके."

"मेरे पास काम्बोज और वाल्हीक देश में उत्पन्न उत्तम घोड़े, वानायु देश के अश्वों तथा सिंधुनद के निकट पैदा होने वाले दरियाई घोड़े और इन्द्र के अश्व उच्चै:श्रवा के समान श्रेष्ठ घोड़ों से नगर शोभायमान है. इनके अलावा हिमालय के क्षेत्र में पाए जाने वाले भद्रजाति के, विन्ध्य पर्वत पर मंद्रजाति के, सह्यपर्वत पर पैदा होने वाले मृग, पर्वताकार हाथी तत्र-तत्र विचरते रहते हैं."

"पुरी सभी प्रकार के धन--धान्य से संपन्न है. पुरी के निवासी प्रसन्न, धर्मात्मा, बहुश्रुत, निर्लोभ, और सत्यवादी हैं. पुरी में कोई भी ऐसा कुटुम्बी नहीं है, जिसके पास उत्कृष्ट वस्तुओं का संग्रह न हो, जिसके पास गाय, बैल, घोड़े, अथवा धन-धान्य का अभाव हो. नगर में कोई भी ऐसा नहीं है, जो अग्निहोत्र न करता हो, यज्ञ न करता हो. पुरी में निवास कर रहे ब्राह्मण सदा अपने सत्कर्मों में लगे रहते हैं. पुरी में कोई भी ऐसा द्विज नहीं है, जो असत्यवादी हो, शस्त्रों के ज्ञान से रहित हो, दूसरों के दोष ढूढ़ने वाला हो, साधन में असमर्थ और विद्याहीन हो.

वेदों के सभी छहों अंगों को न जानने वाला, व्रतहीन, दीन-हीन, विक्षिप्त-चित्त अथवा दु:खी कोई भी नहीं है. सभी वर्णों के लोग, देवता और अतिथियों के स्वागत-सत्कार को अपना परम धर्म मानने वाले हैं, सभी शूरवीर, पराक्रमी, दीर्घायु प्राप्त, धर्म और सत्य का आचरण करने वाले हैं. एक ऐसी अद्भुत पुरी अयोध्या, जिसका गुणगान देव-गंधर्व आदि करते नहीं थकते हैं. मेरे अपने दरबार में सभी उत्तम गुणों से संपन्न आठ मंत्री यथा- धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल, और सुमन्त्र जैसे अर्थशास्त्र के ज्ञाता सदा मेरी सेवा में लगे रहते हैं."

" वे सभी मंत्र के तत्वों को जानने वाले, बाहरी कुचेष्टाओं को देखकर ही उनके मनोमालिन्य को समझ लेने में कुशलता प्राप्त हैं. फ़िर ऋषियों में श्रेष्ठतम वसिष्ठ जी और वामदेव जी- ये दो महर्षि मेरे माननीय ऋत्विज (पुरोहित) हैं. इनके सिवा सुयज्ञ, जाबालि, काश्यप, गौतम, दीर्घायु  मार्कण्डॆय और विप्रवर कात्यायन जैसे मेरे सुयोग्य मंत्री हैं. ये सभी के सभी विद्वान तो हैं ही, साथ ही विनयशील, कार्यकुशल, जितेन्द्रीय, शस्त्रविद्या में पारंगत, पराक्रमी, राजकार्यों में दक्ष, क्रोध-कपट, स्वार्थ से कोसों दूर, निस्वार्थ भाव से मेरी सेवा में संलग्न रहते आए हैं. गुप्तचर सदा चौकन्ने और सजग रहते हैं और शत्रु पक्ष की गोपनीय बातों को मुझ तक पहुँचाते रहते हैं."

तुलनात्मक  अध्ययन.

                विचारों की श्रृंखला टूटने का नाम ही नहीं ले रही थी. उन्होंने एक बार फ़िर से दर्पण हाथ में लेकर अपना मुखड़ा देखा. कानों के पास सफ़ेद बालों को देखकर, उन्हें अपना बीता समय भी याद हो आया, जब उनके पिताश्री अज ने वृद्धावस्था में पहुँचने के बाद उन्हें राजपाट सौंप दिया था.

                " मेरे चार पुत्र हैं, सभी होनहार हैं. सभी उत्तम गुणॊं में संपन्न है और सभी की शादियाँ हो चुकी हैं. इन्हीं चारों में से मुझे किसी एक का चुनाव करना होगा. चारों पुत्र अल्प अंतराल में, एक ही दिन जन्में थे. महारानी कौशल्या से राम, पटरानी कैकेई से भरत और छोटी पटरानी सुमित्रा से शत्रुघ्न और लक्ष्मण. चारों परस्पर प्रीति रखते है. सभी एक दूसरे को प्राणपन से स्नेह रखते हैं. इनका  आपस में कोई विवाद, मनमुटाव आदि कभी नहीं हुआ. सभी गुणवान, बलवान और उत्तम गुणों से युक्त हैं. इन चारों में से ही कोई एक राजगद्दी का उत्तराधिकारी हो सकता है. ".

                " महारानी और दोनों पटरानियों के बीच कभी  मनोमालिन्य नहीं रहा. कौशल्या शुरु से ही कैकेई और सुमित्रा को अपनी सगी छोटी बहन मानती आई हैं. एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या का भाव  भी किसी  के  मन में कभी नहीं आया. सभी एक दूसरे को समान आदर देती रही हैं और एक सच्ची सहेलियों की तरह रहती आयीं है".

                सबसे पहले उन्होंने अपनी छोटी पटरानी सुमित्रा से उत्पन्न शत्रुघ्न और लक्षमण के बारे में विचार किया. "शत्रुघ्न जैसा उसका नाम है, शत्रु भी उनका नाम लेने से भय खाते हैं. अपने नाम के अनुरूप वे शूरवीर हैं, निडर हैं. लेकिन मन, क्रम और वचन में वे राम के प्रति अत्यधिक स्नेह रखते हैं. अतः वे राजगद्दी पर बैठने से साफ़ मना कर देंगे".

                "लक्ष्मण में भी एक राजा बनने के सारे गुणसूत्र विद्यमान हैं लेकिन उनका अनुराग राम के प्रति है. पल भर को भी वे राम से च्युत नहीं हो पाते हैं. यदि उन्हें राजगद्दी पर बिठाए जाने का प्रस्ताव दिया जाए, तो वे सिरे से इनकार कर देंगे. जहाँ तक मझली पटरानी कैकेई से उत्पन्न भरत का चुनाव करते हैं, तो वे राम के अनन्य प्रेमी हैं, राम के चरणॊं में उनका अनुराग किसी से छिपा नहीं है. अपने स्वभाव से ही वे साधु प्रवृत्ति के हैं. मोह, माया से सर्वथा दूर रहने वाले भरत को यदि राजगद्दी संभालने को कहा जाएगा, तो वे उनके प्रस्ताव को कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे. स्पष्टवक्ता भरत राम के पक्ष में ही अपना निर्णय देंगे".

                अब उन्होंने महारानी कौशल्या गर्भ से उत्पन्न राम के बारे में गंभीरता से विचार करना शुरु किया. " राम सदा से ही शांत चित्त में रहते आए हैं, वे सदैव ही मधुर वचन बोलते हैं, यदि कोई कठोर बात कह भी दे, तो वे उसका उत्तर नहीं देते. कभी कोई एक बार भी उन पर उपकार कर दे, तो वे उसके एक ही उपकार से सदा संतुष्ट रहते हैं. मन को वश में रखने के कारण किसी के सैकड़ों अपराध करने पर भी उसके अपराधों को याद नहीं रखते हैं."                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             

                " वे बड़े ही कुशाग्र और बुद्धिमान हैं. अपने पराक्रम से संपन्न होने वाले किसी भी कार्य को लेकर उन्हें कभी घमण्ड नहीं होता. वे सदा से ही वृद्ध पुरुषों का सम्मान करते आए हैं, वे परम दयालु, क्रोध को जीतने वाले और विशेषकर ब्राह्मणॊ को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, उनका यथोचित आदर करते हैं. दीन-दुखियों के प्रति उनके मन में दया का भाव प्रबल रहता है. वे धर्म के रहस्यों को जानते हैं. उनकी इन्द्रियाँ सदैव वश में रहती है. अपने कुलोचित आचार, दया, उदारता और शरणागत रक्षा आदि में उनका मन लगा रहता है. वे क्षत्रिय धर्म के पालन को अधिक महत्व देते और मानते हैं, अतः प्रसन्नता के साथ उसमें संलग्न रहते हैं. उनके मन में कभी भी अमंगलकारी निषिद्ध कर्म में कभी प्रवृत्ति नहीं रहती, शास्त्र विरुद्ध बातों को सुनने में उनकी रुचि कभी नहीं रही. वे अपने न्याययुक्त पक्ष के समर्थन में, बृहस्पति के समान, एक-से-बढ़कर एक युक्तियाँ देते हैं. उनका शरीर निरोग है. वे एक कुशल वक्ता, देश-काल के तत्वों को गहराई से समझने वाले हैं".

                "राम श्रेष्ठ गुणों से युक्त हैं. अपने सद्गुणॊं के कारण प्रजा में अत्यन्त ही प्रिय हैं. वे संपूर्ण विद्याओं के व्रत में निष्नात, वेदों के छःहों अंगो के ज्ञाता हैं. धनुर्विद्या में वे मुझसे से भी श्रेष्ठ हैं. अपनी जन्मभूमि के प्रति अनुरागी राम को, श्रेष्ठ ब्राहणों द्वारा उत्तम शिक्षा प्राप्त हुई है. उन्हें धर्म, काम और अर्थ का सम्यक ज्ञान है. वे अपनी स्मरणशक्ति से संपन्न प्रतिभाशाली हैं. वे लोक-व्यवहार के संपादन में समर्थ और समयोचित धर्माचरण में कुशल हैं. "

                " राम न केवल धर्माचरण में कुशल हैं, बल्कि वे शास्त्रों के ज्ञाता, दूसरों के मनोभावों को जानने में भी कुशल हैं. साधु-संतो, ऋषि-मुनियों की आज्ञा पालन करने में सदा तत्पर रह्ते हैं, वहीं वे दुष्टजनों को दण्ड देने में बिलकुल भी हिचकते नहीं हैं. धन किस तरह से अर्जित किया जा सकता है, वे उसके उपायों से भली-भांति जानते हैं. वे सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का संधान करने में निपुण हैं. वे संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं से मिश्रित नाटक आदि के ज्ञान में निपुण हैं. अर्थ और धर्म का संग्रहण करते हुए, तदनुकूल काम का सेवन करते है. आलस्य से कभी घिरे न रहकर वे सजग बने रहते हैं. संगीत, वाद्य, और चित्रकारी आदि शिल्पों के विशेषज्ञ भी हैं. पर्वताकार हाथियों और घोड़ों पर चढ़ने और उन्हें भली-भांति चालों की शिक्षा देने में भी निपुण हैं. संपूर्ण लोक में धनुर्वेद के सभी विद्वानों में श्रेष्ठ हैं. शत्रु सेना पर आक्रमण और प्रहार करने के साथ ही सेना संचालन में उन्हें विशेष दक्षता प्राप्त है. संग्राम में शत्रु ही क्या देवता भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते. अपने क्रोध को किस तरह नियंत्रित किया जाता है, वे भली-भांति जानते हैं. दर्प और ईर्ष्या से वे कोसों दूर हैं. धरती की क्षमाशीलता के अनुरुप ही उनमें क्षमाशीलता कूट-कूट कर भरी हुई है".

 ( निर्णय )

अपने पुत्र राम को अनुपम गुणॊं से युक्त पाकर, मन ही मन में महाराज दशरथ ने निर्णय कर लिया कि वे अपने ज्येष्ठ पुत्र राम का ही राज्याभिषेक करेंगे..

यह शुभ विचार ब्रह्म मुहूर्त में आया जानकर महाराज की प्रसन्नता अचानक बढ़ गई. मुख मण्डल एक अपूर्व तेज से दमकने लगा था. शरीर में रोमांच हो आया था. इस शुभ विचार से उनकी सारी चिंताएँ पल भर में तिरोहित हो गई थीं.

प्रसन्नवदन महाराज ने नित्यक्रियाकर्म के पश्चात व्यायाम शाला में जाकर व्यायाम किया. फ़िर शीतल जल से स्नान कर अपने कुल देवता सूर्यनारायण को दण्डवत प्रणाम करते हुए अपना मनोरथ कह सुनाया. तत्पश्चात वे उस विशाल कक्ष में पहुँचे, जहाँ उनके पूर्वजों की विशाल प्रतिमाएँ स्थापित की गई थीं.

सबसे पहले उन्होंने सूर्यवंश के संस्थापक महाराज मरीचि, कश्यप, विवस्वान, वैवस्वत मनु, अयोध्या को राजधानी बनाने वाले महाराज इक्ष्वाकु. कुक्षि, विकुक्षि, बाण, अनरण्य, पृथु, त्रिशंकु, धुंधमार,युवनाश्व के पुत्र मान्धाता, सुसन्धि, प्रसेनजित, भरत, असित, सगर ( मां गंगा को प्रसन्न कर धरती पर लाने के लिए शिवजी की घनघोर तपस्या की लेकिन असफ़ल रहे. इनके बाद, असमंज, अंशुमान, दिलीप, आदि  प्रयत्न करते रहे. अंत में महाराज भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने माँ गंगा के प्रचण्ड वेग को रोक कर अपनी जटाओं में धारण किया था, गंगाजी को धरती पर लाने का श्रेय इन्हें ही प्राप्त हो पाया था), महाराज ककुत्स्थ, महाराज रघु (पराक्रमी नरेश होने के कारण महाराज रघु के बाद इस वंश का नाम रघुकुल पड़ा था ), प्रवृद्ध, शंखण, सुदर्शन, अग्निवर्ण, शीघम, मरु, प्रशुश्रुक. अम्बरीश, नहुष, ययाति, नाभाग आदि महाराजाओं के चरणों में प्रणाम निवेदित करते हुए अपना मनोरथ सिद्ध करने में सहायक होने का वरदान मांगा

तत्पश्चात वे अपने पिता महाराज अज की प्रतिमा के सामने आ खड़े हुए. सबसे पहले उन्होंने उनके श्रीचरणों में दण्डवत प्रणाम करते हुए अपने संकल्प को दुहराया- "पिताश्री...आपने आपकी  इच्छा के अनुरुप अयोध्या पुरी के कुशल संचालन के लिए तथा पुरखों की विरासत को अक्षुण्य बनाए रखने के लिए मेरा राज्याभिषेक किया था. आपका आशीर्वाद पाकर मैंने इस पुरी को इन्द्र की पुरी अमरावती से कहीं अधिक बढ़कर सजाया-संवारा है. इसकी भव्यता को देखकर देवगण भी आश्चर्य प्रकट करते हैं और बार-बार मेरी प्रशंसा करते नहीं थकते. अब मैं बूढ़ा हो चला हूँ. जिस तरह आपने वृद्धावस्था में पहुँचते ही मुझे राज्य का प्रभार सौंप दिया था, उसी प्रकार मैं भी कल, मेरे चार पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ पुत्र राम को अयोध्यापति होने की घोषणा करने जा रहा हूँ ".

"राम मुझसे भी कहीं आधिक बढ़कर अयोध्या की देखभाल करेगा. उसमें वे सारे गुण-धर्म हैं जो एक कुशल राजा के होने चाहिए. वह केवल मुझे ही नहीं अपितु अपनी सभी माताओं के भी लाड़ले और दुलारे है. सभी उसे अपना पुत्र कहते नहीं अघातीं. वह अपने अनुजों से अत्यधिक स्नेह रखता है. वह प्रजा का भी दुलारा है. इतना ही नहीं वह मुझे अपने प्राणों से भी कहीं अधिक प्रिय है. इस भूमण्डल में कोई भी ऐसा राजा या शत्रुदल ऐसा नहीं है, जो उसके विरोध में खड़ा होने का साहस रखता हो. स्वर्ग में बैठे हे पिताश्री !  मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए कि मैं अपने मनोरथ को पूर्ण कर सकूं. मैं पुत्र राम को इस सारी पृथ्वी का राज्य करते देखना चाहता हूँ, यही मेरी जीवन की साध है ". विनीत भाव से महाराज दशरथ ने पुनः अपने पिता अज की प्रतिमा के चरणों में प्रणाम निवेदित किया और वापिस लौट पड़े.

मेरा मनोरथ शीघ्र ही पूरा होगा, इसी आशा को मन में संयोए, प्रसन्न्वदन राजा दशरथ अपने कक्ष में लौट आए. सूर्योदय होने में अभी कुछ समय शेष था. मन ही मन वे स्वयं से बतियाने लगे थे "पता नहीं आज भूवन भास्कर उदित होने में विलंब क्यों कर रहे है? उन्हें अब तक तो उदित हो जाना चाहिए था".

सृष्टि का सारा चक्र अपने निर्धारित गति से चलता है, पल भर भी वह आगे-पीछे नहीं होता. मन में उमंग और उत्साह लिए राजा अपने कक्ष में यहाँ-वहाँ टहलते रहे. वे व्यग्रता से सूर्योदय होने की प्रतीक्षा करने लगे थे.

सूर्योदय का समय हो चला था. आकाश में घिरा कुहासा अब धीरे-धीरे छंटने लगा था. शीतल पवन मंद-मंद गति से प्रवहमान होने लगा था. पौधों पर ऊग आई कलियाँ, जो अब तक लाज के मारे घूंघट काढ़े हुई थीं, अपनी मादक सुगंध को बिखराते हुए खिलने लगी थी. भ्रमर जो अब तक अलसाया पड़ा था, आनंदमगन हो, मकरंद चुराने के लिए निकल पड़ा था. सरोवर का जल, जो अब तक ठहरा हुआ था, हिलोरे लेने लगा था. चिड़ियों के समूह और अन्य पक्षियों के दल अपनी-अपनी बोलियों में चहचहाते हुए तथा ऊँची-ऊंची उड़ान भरते हुए, सामुहिक गान गाकर, अपने आराध्य देव की अगवानी में निकल पड़े थे. शाखामृग कब पीछे रहने वाले थे?. वे कभी इस डाली से उस डाली पर, तो कभी किसी अन्य डालियों पर उछल-कूद मचाने लगे थे. दाना-पानी के तलाश में बगुलों के दल निकल पड़े थे. सारी सृष्टि, जो अब तक अलसाई-सी सोई पड़ी थी, प्रमुदित होकर मुस्कुराने लगी थी.

महाराज दशरथ अपने कक्ष से निकल कर छज्जे पर आकर खड़े हुए. ललछौंही किरणॊं के साथ उदित होते अपने आराध्य देव सूर्यनारायण के दर्शन करते हुए उन्होंने विनीत भाव से प्रणाम किया और मन ही मन अपने संकल्प को दोहराते हुए, अपने मनोरथ को बिना किसी विघ्नबाधा के संपन्न हो जाने की प्रार्थना करने लगे..

 

मंत्रणा.

तत्पश्चात महाराज ने अपने कांधे पर उत्तरीय डाला, मुकुट धारण किया और निकल पड़े अपने राजगुरु वशिष्ठ जी के आश्रम की ओर. महाराज का अंग रक्षक एक निश्चित दूरी बनाते हुए उनके पीछे हो लिया था.

अग्निहोत्र संपन्न हो जाने के बाद, वायुमंडल में फ़ैलता सुगंधित धुँआ, उनके नाक के नथुनों से आकर टकराने लगा था और आश्रम के छात्रों द्वारा गाए जाने वाले सामुहिक स्वस्तिवाचन के शब्दों की अनुगूंज उनके कानों में सुनाई दे रही थी. वे समझ गए कि गुरुदेव अब अपने आसन पर आकर विराजमान हो चुके होंगे.

आश्रम के प्रवेशद्वार पर उपस्थित शिष्य से उन्होंने कहा- हे छात्र ! गुरुदेव के श्रीचरणॊं में मेरा विनम्र प्रणाम निवेदित करते हुए, सूचित करने की कृपा करें कि महाराज दशरथ आपके दर्शनों की अभिलाषा लिए आश्रम के द्रार पर खड़े हैं और आपकी अनुमति की प्रतीक्षा कर रहे हैं ".

 

शिष्य ने महाराज दशरथ का निवेदन अपने गुरु को कह सुनाया और आज्ञा पाकर वह पुनः उनके समक्ष उपस्थित होकर आदर के साथ उन्हें आश्रम में लिवा ले गया.

"आओ..राजन आओ, आपका इस आश्रम में स्वागत है. बड़ी ही शुभ घड़ी में आपका आगमन हुआ है, निश्चित ही आप किसी मनोकामना को लेकर पधारे हैं. देव आपकी सहायता करें. राजन...आसन ग्रहण करें और अपना मनोरथ कह सुनाएँ". गुरु वसि‍ष्ठ ने कहा.

"गुरुदेव....(हाथ जोड़ते हुए)  आपके अनुशासन में रहते हुए मैंने एक राजा के कर्तव्यों का भली-भांति निर्वहन किया है. राज्य की प्रजा खुशहाल है. फ़िर आपसे कुछ छिपा भी नहीं है. मैं अपनी उम्र के चौथे आश्रम में पहुँच चुका हूँ. सच कहूँ, राज्य का प्रभार संभालते-संभालते अब मैं थक भी गया हूँ. मेरे हृदय में केवल एक ही चिंता है कि मेरे जीते-जी राम राजा हो जाएं. गुरुदेव.....मुझे राम के राज्याभिषेक से मिलने वाली प्रसन्नता कैसे सुलभ होगी? मेरे हृदय में बारम्बार एक ही विचार उत्पन्न हो रहा है कि कब मै अपने प्राणॊं से भी ज्यादा प्रिय राम का राज्याभिषेक होता हुआ देखूँगा. बस, यही मेरे जीवन की अन्तिम अभिलाषा है कि युवा राम को राज्य का प्रभार सौंप कर सुख से स्वर्ग प्राप्त करुँ ".. महाराज दशरथ जी ने कहा.

"बड़ा ही उत्तम विचार है राजन तुम्हारा.... तुम्हारा कल्याण हो राजन..... राम राजा होंगे, इससे बढ़कर प्रसन्नता की बात और क्या हो सकती है?. नीलकमल के समान श्यामकांति से सुशोभित तथा समस्त शत्रुओं का संहार करने में समर्थ राम को, मैं ही क्या, पुरी के समस्त नागरिक राम को युवराज-पर पर विराजमान होते देखना चाहते हैं. अतः राजन !... जितना शीघ्र हो सके प्रसन्नतापूर्वक राज्याभिषेक कीजिए, इसी में हम सभी का हित है. उनके राज्याभिषेक के लिए सभी दिन और सभी घड़ियाँ शुभ होंगी "..

गुरुदेव का आशीर्वाद और अनुमति पाकर महाराज का हृदय-कमल खिल उठा था. शरीर पुलकायमान हो उठा था और अंशात मन में प्रसन्नता की लहरें तरंगित होने लगीं थीं..

प्रसन्नवदन महाराज ने पुनः प्रणाम निवेदित करते हुए गुरुदेव से बिदा लेने के लिए आज्ञा मांगी. आज्ञा पाकर वे अपने महल की ओर लौट पड़े.

उन्होंने अपने प्रधान सेवक को आज्ञा देते हुए कहा कि जितनी जल्दी हो सके सभी मंत्रियों सहित सभासदों को सभागृह में उपस्थित होने के लिए कहें. और हाँ ! ...वामदेव जी और गुरुदेव वसिष्ठ जी से भी विनय पूर्वक पधारने के लिए मेरी ओर से प्रार्थना करें ".

एक अभिलाषु एक मन मोरे

परामर्श.

सभा में उपस्थित वामदेव जी और गुरु वशिष्ठ को प्रणाम निवेदित करते हुए महाराज ने सभी मंत्रियों और सभासदों से कहा- मैं अपने युवापुत्र राम को युवराज पद पर सुशोभित होते हुए देखना चाहता हूँ.. क्या आप लोग मेरी राय से सहमत हैं?. यदि हाँ, तो इसी चैत्रमास की किसी शुभ घड़ी में यह कार्य संपन्न किया जा सकता है ".

महाराज की बातों को  सुनकर पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहटसे गूंज उठा. सभी ने एक स्वर में कहा--"महाराज...हम बरसों से यही कामना अपने दिल में संजोए हुए बाट जोह रहे थे कि हमारे राम जी को कब युवराज पद दिया जाएगा?. आपने हमारे मन की बात कहकर, हम सब पर बड़ा उपकार किया है. हम सभी चाहते हैं कि जितनी शीघ्रता से यह कार्य संपन्न हो सके किया जाना चाहिए "..

सभी मंत्रियों और सभासदों की राय जानने के बाद महाराज ने गुरु वसिष्ठ जी से विनय पूर्वक हाथ जोड़कर कहा- "गुरुदेव..!..आपने सभी मंत्रियों और सभासदों के उत्तम विचारों को सुना. सभी राम को युवराज पद पर सुशोभित होते देखना चाहते हैं. अब आप कृपया वह शुभ घड़ी और राज्याभिषेक में लगने वाली सामग्रियों के बारे में बतलाएं, ताकि समय से पूर्व इकठ्ठी करा ली जाएं "

तैयारियाँ.

महाराज का वचन सुनने के बाद वसिष्ठ जी ने सेवकों से कहा-  "तुम लोग सुवर्ण आदि रत्न, देवपूजन की सारी सामग्री, सभी प्रकार की औषधियाँ, श्वेत पुष्पों की मालाएँ, खील, अलग-अलग पात्रों में शहद और घी, नदियों तथा तीर्थोंका पवित्र जल, नए वस्त्र, सभी प्रकार से अस्त्र-शस्त्र, चतुरंगी सेना, उत्तम लक्षणों से युक्त हाथी, चमरी गाय के पूँछ से बने हुए दो व्यंजन, ध्वज, श्वेत छत्र, अग्नि के समान देदीप्यमान सोने के सौ कलश,, सुवर्ण से मढ़े हुए सींगों वाला एक साँड, समूचा व्याघ्रचर्म, नाना प्रकार के ऊनी तथा रेशमी वस्त्र, एवं बिभिन्न प्रकार की मणियाँ और भी जो-जो वांछनीय वस्तुएँ है एकत्रित करें. संपूर्ण पुरी को ध्वजा, पताकाएं, तोरण, कलश, घोड़े, रथ एव हाथियों की सजावट करवाएं ".

"सभी मंत्रीगण और सभासद अपने-अपने क्षेत्रों में जाएं और जितनी शीघ्रता से हो सके ढिंढोरा बजवाकर पुरवासियों को सूचित करें कि कल राम जी का राज्याभिषेक होने वाला है. उन्हें इस बात से भी अवगत करवाया जाए कि राज्याभिषेक के बाद, राम अपनी भार्या सीता एवं अनुजों के साथ दिव्य रथ पर सवार होकर सभी को दर्शन देते हुए पुरी का भमण करेंगे. अतः सभी राजपथों पर उनके स्वागत के लिए तोरणद्वार बनाए जाएं ".

"अन्तःपुर तथा समस्त नगर के दरवाजों को सुगंधित चंदन और मालाओं से सजा दो और ऐसी धूप सुलगा दो, जिसकी सुगंध से समस्त अयोध्यापुरी सुवासित हो उठे. दूध, दही और घी के अत्यन्त गुणकारी पकवान और भोजन की व्यवस्था करो, जिसमें एक लाख ब्राहमण भोजन कर सकें".

"कल सूर्योदय के पश्चात स्वस्तिवाचन होगा. अतः पुरी सभी ब्राह्मणॊं को निंमत्रित करो और उनके बैठने के लिए उत्तम आसनों की व्यवस्था करो. पुरी में सब ओर ध्वज, पताकाएं फ़हरायी जाए, राजमार्गों पर सुगंधित जल का छिड़काव किया जाए. नगर के समस्त संगीत निपुण गुणीजनों को बुलवाया जाए. स्त्रियाँ और पुरुष सुंदर वेषभूषा पहनें तथा नर्तकियाँ राजमहल की दूसरी ड्यौढ़ी पर पहुँचकर खड़ी रहें ".

"देव-मन्दिरों में तथा समस्त चैत्यवृक्षों के नीचे, समस्त चौराहों पर जो पूज्यनीय देवता स्थापित किए गए हैं, उन्हे पृथक-पृथक भक्ष्य-भोजन पदार्थ अर्पित किए जाएं. लंबी तलवारें लिए और गोह के बने दस्ताने पहिने शूरवीर योद्धा स्वच्छ वस्त्र पहिने आंगन में उपस्थित रहें ".

वसिष्ठ जी तथा वामदेव जी ने सभी मंत्रियों सहित सभासदों को उचित परामर्श देते हुए राज्याभिषेक में लगने वाली सामग्रियों को इकठ्ठा कर यज्ञशाला में जमा करने के आदेश दिए.

ढिंढोरा पीटने वालों को तत्काल बुलाया गया और उन्हें आदेश दिया गया कि आप लोग हर मोहल्ले, गलियों और राजमार्ग की ओर निकल जाएं और पुरवासियों को इस आनन्दित कर देने वाले समाचार से अवगत करवाएं कि कल प्रातः श्रीराम का राज्याभिषेक होगा.

उत्सव

ढिंढोरा पीटने वाले पुरी में चारों ओर फ़ैल गए और शुभ समाचार सुनाने लगे थे.

"ढमढम.ढम....ढमाढम ढमढम.......सुनो...सुनो...सुनो.....मेरे प्यारे नगरवासियों सुनो.....बाल, वृद्ध, आबाल सभी सुनो....कल प्रातःकाल हम सबके स्वामी, प्रभु श्रीराम जी का राज्याभिषेक होगा". हाट-बाजार, गली-मुहल्लों, में वे नाचते-थिरकते जाते और ढोल बजा-बजाकर नगरवासियों को सूचित करते जाते थे.

राज्याभिषेक की सूचना मिलते ही सारी जनता हर्षोलास के साथ झूम-झूम कर नाचने लगे. पुरवासियों का उल्ल्हास देखने लायक था. जैसे पूर्णिमा के चांद के निकलते ही समुद्र की लहरों में ज्यावाभाटा आता है, उसी तरह लोगों के हृदय में खुशियोंका समुद्र ठाठे मारने लगा था.

किसी ने तुरही निकाल लाया, किसी ने झांझ-मंजीरे, तो किसी ने ढोलक, किसी ने टिमकी और जिसके हाथ कुछ नहीं आया, उसने एक बड़ी से परात उठा लाया और लगा बजाने और नाचने. यदि किसी ने किसी कारणवश सूचना नहीं सुन पाया, तो पास-पड़ौस के लोग आकर उसे सुनाते.. एक बूढ़े ने दूसरे बूढ़े से कहा- "धन्य भाग हमारे भईया, जो जीते-जी हम रामजी का राज्याभिषेक होता हुआ देखेंगे. बरसों-बरस की हमारी साध अब पूरी होने वाली है". दूसरे ने सुर में सुर मिलाते हुए पहले से कहा- "सच कही भैया आपने, बड़े-बड़े मुनि, ज्ञानी ध्यानी, महात्मा, तपस्वी बरसों-बरस साधना करते हैं, तपस्या करते हैं फ़िर भी उन्हें भगवान के दर्शन नहीं हो पाते. हमने-तुमने न कोई तपस्या करी और न ही कोई साधना, फ़िर भी हमें घर-बैठे परम सुखधाम रामजी के दर्शन होने वाले है". दूसरे ने पहले वाले की बात को आगे बढ़ाते हुए कहा-- "ऐसी बात नहीं है भैया....जरुर हमने आपने पिछले जन्म में कोई बड़ा पुण्य का काम किए रहे होंगे, तभी तो हमें इस जन्म में उसका सुफ़ल मिल रहा है "..

परम मंगलमय समाचार सुनने के लिए उम्रदराज महिलाएँ, युवतियों सहित नववधुएँ भी घर से बाहर निकल आयीं थीं और एक-दूसरे को बधाइयाँ देने लगी थीं. कुछ तो ढोलक की थाप और मंजीरे की झंकार में लयबद्ध होकर नाचने लगी थीं. अयोध्यापुरी में मानों, स्वर्ग धरती पर उतर आया था.

केवल पुरवासी ही प्रसन्न नहीं हुए थे बल्कि पेड़-पौधों पर नए पल्लव निकल आए थे. कुछ पेड़ तो फ़लों से भी लद गए थे. लताएँ सुगन्धित फ़ूलों के भार से नीचे तक झुक आयी थीं. राज्याभिषेक की बातें सुनकर सारे पक्षी भी अत्यन्त प्रसन्न होकर, अपनी-अपनी बोलियों में चहचहाने लगे थे. पक्षियों की चहचहाट से पूरी अयोध्या गुंजायमान होने लगी थी. मूक पशु भी पीछे कहाँ रहने वाले थे. गाय-भैंसो ने जमकर दूध दिया ताकि नाना-प्रकार की मिठाइय़ाँ और पकवान बनाए जा सकें. इतना ही नहीं वाचाल हवा के झोंको ने इस प्रसन्नतादायक समाचार को सरयू को भी कह सुनाया. "अहा...अहा ! धन्य भाग मेरे कि मेरे राम राजा बनेंगे ", ऐसा सुनते ही उसकी लहरों में हर्ष की लहरें तरंगित होने लगी थीं. यह समाचार केवल नदी ने ही नहीं सुना था, बल्कि उसके जल में रहने वाले सभी जीव-जंतु भी खुशी के मारे, जलक्रीड़ा करते हुए, अपने-अपाने अंदाज में थिरकने लगे थे. नदी में नीलकमल और गुलाबी कमल खिल उठे थे.

सरयू के पवित्र पावन जल में स्नान करने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी थी. असंख्य लोगों ने नदी में स्नान किया और  किनारे बने पूर्वाभिमुखी मन्दिरों में स्थापित देवों की पूजा-अर्चना की और मन ही मन प्रार्थना कि कल होने वाले राज्याभिषेक में किसी भी प्रकार की विघ्नबाधा नहीं होने पाए.

मंदिरों में शंख फ़ूके जाने लगे थे. घड़ियाल बजने लगे थे और प्रसन्नचित पुजारी अपने आराध्य देवों की आरती उतारी उतारने लगे थे. आरती के ठीक बाद दूध. दही, फ़ल, मेवा आदि का प्रसाद जमकर बांटा जाने लगा था.

राजमहल के जिस भी कर्मचारियों ने राज्याभिषेक की बातों को सुना. उनके मन में उल्ल्हास तरंगित होने लगा था. राज्याभिषेक की बातें सुनकर रनिवास के सभी सेवक और सेविकाओं के मन में प्रसन्नता की लहरें तरंगित होने लगी थीं, जैसे पूर्ण चंद्र को देखकर समुद्र की लहरों में तीव्र हलचलें होने लगती है और वे अपनी सीमाएं लांघकर दूर-दूर तक फ़ैल जाती हैं. कुछ पाने की लालसा में सेवक और सेविकाएं सीधे रनिवास की ओर भाग खड़े हुए थे. जैसे ही रानियों ने इस कर्णप्रिय समाचार को सुना. प्रसन्नवदन महारानियों. ने उन्हें बहुत सारे गहने, रुपया-पैसे और वस्त्रादि दिए.

पुलकित रानियाँ  मंगल कलश सजाने लगीं थीं..माता सुमित्रा जी ने मणियों की बहुत प्रकार के सुन्दर व मनोहर चौक पूरे. रामजी की माता कौसल्या जी ने आनन्दित होकर ब्राहमणॊं को बुलाया और बहुत सारी दान-दक्षिणाएँ दीं. उन्होने ग्राम देवी-देवताओं और नागों का विधिवत पूजन किया और उनका बलि भाग देने को कहा और प्रार्थना की कि जिस भी प्रकार से मेरे बेटे राम का हित संवर्धन हो, कृपाकर उसे अपना आशीर्वाद दें.

मार्गदर्शन

महाराज दशरथ जी ने गुरु वशिष्ठ जी और राम-सीता जी को अपने महल में बुला भेजा. समाचार पाकर वे शीघ्रता से राजमहल चले आए. स्वयं महाराज दशरथ ने अपने प्रिय पुत्र राम और पुत्रवधु सीता जी सहित गुरुदेव के चरण स्पर्श किये. तदनन्तर उन्होंने गुरुदेव से कहा- "गुरुदेव....पुत्र राम और कुलवधु सीता को उचित सीख देते हुए उन्हें उचित मार्गदर्शन देने की कृपा करें. राज्याभिषेक से पहले उन्हें क्या कुछ करना होगा,  भली-भांति निर्देश देने की कृपा करें".

राम और सीता को उचित मार्गदर्शन देने के पश्चात उन्होंने उन दोनों को अपने महल में जाने और विधि-विधान के साथ उपवास आदि को मन लगाकर करने को कहा.

तभी मंत्रियों ने महाराज के कक्ष में प्रवेश करते हुए उनका सादर अभिवादन किया और बतलाया कि आपने निर्देशानुसार सभी काम सुचारु रुप से संपन्न किए जा रहे हैं, महाराज ने सभी को साधुवाद दिया. फ़िर प्रसन्नवदन दशरथ जी ने अपने सुयोग्यमंत्री सुमन्त्र को आज्ञा देते हुए कहा कि वे शीघ्रता से राम को रथ में बिठाकर ले आएं.

निर्णय

राजसिंहासन पर विराजमान महाराज दशरथ ने अपने प्रिय पुत्र राम, जो गंधर्वराज के समान तेजस्वी, चंद्रमा से भी अधिक कांतिमान, मन को मोहित कर देने वाले, किसी मतवाले हाथी-की-सी चाल में चलकर आते हुए देखा. अपने प्रिय पुत्र राम को देर तक टकटकी लगाए देखते रहने के बाद भी उन्हें तृप्ति नहीं हो रही थी. अपलक वे राम की छवि को लगातार निहारते रहे थे. अपने दिव्य रथ से उतरकर राम जी और सुमन्त्र जी ने महाराज के कक्ष में प्रवेश किया. तदनन्तर अपने दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम निवेदित किया.

राम ने पुनः एक बार फ़िर विनीत भाव से अपने पिताश्री को प्रणाम किया. और अत्यन्त ही मधुर वचनों में कहा-"पिताश्री... आपके श्रीचरणॊ में आपका पुत्र राम, अपना प्रणाम निवेदित करता है. मेरे लिए क्या आज्ञा है?, कृपया यथाशीघ्र कह सुनाएं..उसे शीघ्रता से पूरा करने के लिए मैं आपके सन्मुख उपस्थित हूँ. कृपया आदेश देने की कृपा करें". प्रणाम की मुद्रा में रामजी के दोनों हाथ आपस में जुड़ आए थे.

उन्होंने राम के दोनों हाथ पकड़ लिए और पास खींचकर अपनी छाती से चिपका लिया. जिस परह समुद्र की लहरें उछाल मार कर आकाश को छूना चाहती है, उसी प्रकार महाराज के हृदय में प्रेम समाए नहीं समा रहा था. अपने प्रिय पुत्र को बाहों में भर कर छाती से लगाए रखने के बाद उन्होंने राम जी को अपने पास बैठने का संकेत किया और स्नेह से सिर पर हाथ फ़िराते हुए कहा- "पुत्र..राम.... तुम धन्य हो.... धन्य है तुम्हारी माँ कौसल्या जिसके गर्भ से तुम्हारा जन्म हुआ है. तुम अपनी माता के अनुरूप ही उत्पन्न हुए हो. मुझसे भी बढ़कर तुममें अनेक उत्तम गुण है...तुम गुणॊं की खान हो राम". बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने पुल्कित होते हुए कहा"- "राम.!. मेरे चारों पुत्रों में तुम ज्येष्ठ हो. रघुकुल में सदा से यही रीति चली आई है कि ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य के संचालन का अधिकारी होता है. अतः मैंने निर्णय ले लिया है कि तुम्हें राजगद्दी सौंपकर निश्चिंतता से अपना शेष समय परिवार के साथ बिताऊँ. मैं राज कारणॊं से उनके लिए समय नहीं निकाल पाता था ".

"फ़िर तुम्हारे तीनों छॊटे भाई तुम्हें अपने प्राणॊ से भी ज्यादा स्नेह रखते हैं. उनके प्रति तुम्हारा अनुराग भी किसी से छिपा नहीं है. तुम एक पल भी अपने अनुजों से दूर नहीं रह पाते हो. तुमने अपने गुणों से प्रजाजनों को भी सम्मोहित कर रखा है. समस्त प्रजा तुम्हें राजा के रूप में राजसिंहासन पर बैठा देखना चाहती है. समस्त आर्यावृत्त में कोई भी ऐसा राजा नहीं है, जो तुमसे विरोध करता हो. उन सभी का एक ही मत है कि राम ही अयोध्या के राजा बनें ".

इतना कहकर महाराज अचानक चुप हो गए थे और कनखियों से राम के चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगे थे. प्रस्ताव पिताजी की ओर से आया था. जवाब राम को देना था. वे निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि पिताश्री को क्या जवाब दिया जाना चाहिए, जिससे वे संतुष्ट हो सकें.....प्रसन्न हो सकें.

उन्होंने पिताश्री के एक-एक शब्द को ध्यान से सुना था. हर शब्द में मधु-सी मिठास थी. हर एक शब्द में गहरा प्रेम हिलोरे ले रहा था. बोलते समय उनका शरीर रोमांचित हो उठा था. आँखें सजल हो उठी थी. वे और भी बहुत कुछ कहना चाह रहे थे, लेकिन प्रेम के अतिरेक के चलते, शब्द शायद तालु में आकर अटक गए थे.

दुविधा.

राम जी ने गहरी चुप्पी साध ली थी. वे अपने भीतर गहरे उतरकर इसका उत्तर खोजने का प्रयास करने लगे थे.

पिताश्री का प्रस्ताव तो एक था, लेकिन उससे जुड़ने वाले अनेकों प्रश्न थे. राम के मन में एक नहीं बल्कि अनेकों प्रश्न उठ खड़े होने लगे थे. वे सोचने लगे थे- " कल तक तो सब ठीक-ठाक था. राजपाट को लेकर कोई चर्चा तक नहीं हुई थी और न ही किसी कोने से कोई ऐसी सुगबुगाहट तक सुनाई दी थी. फ़िर अचानक, रात भर में ऐसा क्या हो गया कि पिताश्री ने मुझे सुबह-सुबह बुला भेजा और राजकाल संभालने का आग्रह करने लगे. ऐसा तो नहीं कि राजमहल में कोई ‍षड़यंत्र रचा जा रहा हो?"

"कहीं ऐसा तो नहीं कि माता कैकेई ने भरत को राज प्रभार सौंप देने के लिए महाराज को विवश किया हो? यदि ऐसा भी है तो वे भरत के समर्थन में ही खड़े रहेंगे. उनके विरुद्ध अपना कोई दावा भी प्रस्तुत नहीं करेंगे. वे खुद चाहते हैं कि भरत ही राजगद्दी पर बैठें. वे इसके लायक भी हैं. फ़िर राजपाठ को लेकर, वैसे भी मेरे मन में कभी कोई विचार तक नहीं आया. शुरु से ही इसमें मेरी कभी कोई विशेष रुचि नहीं रही है ".

"फ़िर हम चार भाई हैं. भले ही हम अन्य माताओं के गर्भ से उत्पन्न हुए हों...भले ही शरीर से हम संख्या में चार हैं, लेकिन सभी में एक ही आत्मा है...हमारा एक-दूसरे के प्रति आपस में अनन्य प्रेम है......हमारा विशेष लगाव है. हम पल भर को भी अलग होने की कल्पना तक नहीं कर सकते...फ़िर तीन अन्य भाईय़ों के रहते, केवल मुझसे ही क्यों कहा जा रहा है कि मैं राजगद्दी पर आसीन हो होऊँ? यह उचित प्रतीत नहीं होता ".

"राम....तुम चुप क्यों हो? तुमने अब तक मेरे प्रस्ताव पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है? क्या तुम्हें अपने पिता पर विश्वास नहीं है? क्या मेरा प्रस्ताव उचित नहीं है? क्या तुम इस प्रस्ताव से प्रसन्न नहीं हो ? आखिर तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, मैं भी तो जानूँ... मैं जानना चाहता हूँ कि वह कौन-सी दुविधा है, जो तुम्हें ऐसा करने से रोक रही है? जब तक मुझे बतलाओगे नहीं, तब तक उसका निराकरण कैसे किया जा सकता है?. मैं इस साम्राज्य का राजा होने के साथ ही तुम्हारा पिता भी हूँ. एक राजा यही चाहता है कि उसका उत्तराधिकारी एक सुयोग्य पात्र हो, जिसमें राजा बनने के सभी गुण विद्यमान हों.... मैंने वे सारे गुणसूत्र तुममें ही देखें हैं.... तुम ही राजगद्दी के सही उत्तराधिकारी हो.... बोलो राम..बोलो.....क्या तुम अपने पिता की एक छॊटी-सी प्रार्थना स्वीकार नहीं करोगे?". कहते हुए उनकी आँखें रामजी के चेहरे पर जा टिकी थीं.

"पिता श्री...आप ये क्या कह रहे हैं ?, पिता अपने बेटों से प्रार्थनाएँ नहीं किया करते, वे आज्ञा देते हैं और हर पुत्र को पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करना चाहिए. आपने एक राजा होने के नाते उचित निर्णय लिया है, एक पिता होने के नाते आपने अपने स्वधर्म का पालन ही किया है ".

"मैं आपसे क्षमा चाहते हुए कुछ कहना चाहता हूँ. मेरे मन में केवल एक ही दुविधा है. हम चार भाई हैं, हम चारों ने एक ही दिन जन्म लिया है. सभी की उम्र लगभग एक-सी ही है. अन्य तीन भाईयों को छॊड़कर, केवल मुझे ही राज्य का उत्तराधिकारी क्यों बनाया जा रहा है?. भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न भी तो उतने ही योग्य और राज्य के कुशल संचालक हैं. फ़िर समझ में नहीं आ रहा है, कि मुझ अकेले का चुनाव क्यों किया गया?. शायद यही कारण है कि मेरा मन आपके इस प्रस्ताव को मानने से मना कर रहा है. क्या यह संभव नहीं है कि हम चारों भाईय़ों को चार दिशाओं का प्रभार देकर, राज्य का प्रभारी  बना दिया जाए? यदि ऐसा किया गया तो, किसी के भी मन में कोई पछतावा जैसी चीज नहीं रह जाएगी. सभी अपने-अपने क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व कर, प्रजाजनों की यथाशक्ति देख-रेख कर सकेगा".राम ने अपने पिताश्री से कहा.

"पुत्र राम...मैं तुम्हारी मनोदशा को अच्छी तरह से समझ रहा हूँ. तुम्हारा भातृ-प्रेम भी मुझसे छिपा नहीं है. तुम्हें राजपाट से तनिक भी मोह भी नहीं है, यह भी मैं जानता हूँ, लेकिन केवल बड़े पुत्र को ही राजगद्दी पर बिठाए जाने की परम्परा हमारे कुल की रही है. एक राजा होने के नाते, तुम अपने अनुजों से उन सभी कार्यों को सुचारु रुप से संचालित करवा सकते हो, वे भी एक राजा के प्रतिनिधि के रूप में अपने को राजा ही समझेंगे. ऐसा मेरा विश्वास है".

"जहाँ तक भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के बारे में जो तुम जो सोच रहे हो, वह सोच उचित ही है. मुझे विश्वास है कि वे कभी भी तुम्हारे युवराजपद पर बैठने का विरोध नहीं करेंगे. शत्रुघ्न जैसा उसका नाम है, अपने नाम के अनुरूप वह शत्रुओं का पल भर में विनाश कर सकता है. लक्ष्मण में भी इतनी शक्ति है कि वह पल भर में समूची पृथ्वी को किसी चंडुक (गेंद) की भांति उछालकर, आकाश में फ़ेंक सकता है. रही बात भरत की, तो वह शुरु से ही ठहरा साधु प्रवृत्ति का. उसे तनिक भी राजपाठ से कोई मोह नहीं है. सभी तीनों भाईयों का आपस में उत्कट प्रेम है, और वह प्रेम तुममें आकर समाहित हो जाता है. मुझे तीनों पर पक्का भरोसा है कि. वे तीनों ही तुम्हारे अनुशासन में रहकर राजकाज में सहयोग ही करेंगे. मुझे कहीं से कहीं तक नहीं लगता कि वे तुम्हारे विरोध में उठ खड़े होंगे. अतः एक ज्येष्ट पुत्र होने के नाते, तुम मेरे इस प्रस्वाव को सहर्ष स्वीकार करो. इसी में हम सबकी भलाई है".

"सभी मंत्री, महामंत्री तथा सभी सभासदों ने भी एक ही स्वर में तुम्हें राज्यप्रभार सौंप देने के लिए मुझसे निवेदन किया है. वे तुम्हें ही राजा के रूप में देखना चाहते हैं. रही बात प्रजा की, तो समस्त अयोध्यापुरी के प्रजाजन भी केवल और केवल तुम्हें ही राज्यप्रभार सौंप देने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं".

"तुम्हें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि राजकाज करते हुए मेरी उम्र हो चली है. एक तरह से मैं अब थक-सा भी गया हूँ. तुम्हें राजगद्दी सौंपकर मैं निश्चिन्तता से अपना सारा समय परिवार को देना चाहता हूँ. काम की अधिकता से मैं उन्हें कभी ज्यादा समय नहीं दे पाया. फ़िर मेरी एक नहीं, चार-चार पुत्रवधुयें है, उनसे उत्पन्न पोतों के साथ खेलते हुए मैं समय बिताना चाहता हूँ. एक राजा बनने के सारे गुण तुममें विध्यमान हैं. प्रजा को कैसे प्रसन्न रखा जाता है, तुम भली-भांति जानते हो. तुम बलशाली होने के साथ ही, उतने ही विनीत भी हो. कल पुष्य नक्षत्र है, अतः कल तुम युवराज का पद ग्रहण करो और राजगद्दी पर बैठकर सुखपूर्वक प्रजा का पालन करो".

"मैंने वशिष्ठ जी से प्रार्थना की है कि वे तुम्हे उचित परामर्श देंगे. उनकी हर बात तो ध्यान लगाकर सुनना और उसी के अनुसार तुम और बहू सीता को उपवास-व्रतादि करना होगा". महाराज दशरथजी ने कहा.

"जी..जैसी आपकी आज्ञा" कहते हुए राम ने अपने पिता को प्रणाम किया और अपने महल की ओर चल दिए.

सभी पुरवासियों के चले जाने के बाद महाराज दशरथ ने पुनः मंत्रियों को बुलाकर अपने निश्चय को दोहराते हुए कहा- "कल पुष्य नक्षत्र है, कल प्रातः मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र राम का राज्याभिषेक करने जा रहा हूँ. कृपया एक बार फ़िर ध्वनिमत से मेरे प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति दें. अब भी कुछ बना-बिगड़ा नहीं है. अब भी समय है, मेरे इस प्रस्ताव को लेकर यदि किसी के मन में कोई शंका-कुशंका या असहमति हो हो तो कृपया मुझसे निःसंकोच कहें".

सभी मंत्रियों ने एक स्वर में अपने महाराज के प्रस्ताव पर अपनी सहमति व्यक्त की और कहा-"महाराज, राम को भला कौन नहीं चाहता?. सभी उनसे अनन्य प्रेम रखते हैं. एक राजा बनने के सारे गुण राम में विद्यमान हैं. वे केवल हमारे ही नहीं बल्कि समस्त प्रजाजनों सहित संपूर्ण आर्यावृत्त को स्वीकार हैं. अतः आप निश्चिंतता से उनका राज्याभिषेक कीजिएगा".

सभी मंत्रियों की सहमति पाकर महाराज ने अपने सुयोग्य मंत्री सुमन्त्र से कहा कि वे राम को पुनः सादर दरबार में लेकर आएं.

द्वार पर उपस्थित द्वारपाल ने राम को सुमन्त्र के पुनरागमन की सूचना दी. सुमन्त्र का दुबारा आना, उनके मन में संदेश का बीज बो गया. वे समझ नहीं पा रहे थे, आखिर पिताश्री मुझसे और क्या चाहते हैं?. कोई न कोई ऐसी बात जरुर है, जिसे वे अब भी खुलकर नहीं कह पा रहे हैं?. आखिर वह कौन-सी बात है, जिसे न तो वे सार्वजनिक ही कर पा रहे हैं और न ही मुझसे खुलकर कह पा रहे हैं?. जरुर कोई न कोई ऐसी बात अवश्य है जो उनके मन में काँटॆं की तरह चुभ रही है...मुझे उस बात की तह तक जाना होगा, जिसको लेकर वे अब तक व्यथित हो रहे हैं.

रामजी ने सुमन्त्र जी का स्वागत करते हुए कहा- "मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आपको पुनः आना पड़ रहा है. पिताश्री ने तो प्रायः सभी बातें मुझसे कह दी हैं, जो राज्याभिषेक से संबंधित थी. मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि अब और कौन-सी बात वे कहना चाहते है, जिसे वे शायद नहीं कह पाए हों? आप तो उनके परम सखा भी हैं और मंत्री भी. आपको सब ज्ञात होगा ही... कृपा कर शीघ्रता से कह सुनाएं". रामजी ने सुमन्त्र से कहा.

"राम.....महाराज ने केवल इतना भर मुझसे कहा है कि वे आपसे पुनः मिलना चाहते हैं. उनके मन में क्या है क्या नहीं, यह मुझे नहीं मालुम, लेकिन उन्होंने मुझे आज्ञा दी है कि मैं तुम्हें लेकर उनके समक्ष उपस्थित होऊँ". सुमन्त्र ने रामजी से कहा.

"जी चलिए"- कहते हुए राम उनके साथ पिता के महल की ओर चल दिए.

महाराज दशरथ ने राम को आता देखा. राम ने अपने पिता के चरणॊं में प्रणाम किया और अत्यन्त ही मधुर स्वर में कहा- "मैं राम...आपकी सेवा में पुनः उपस्थित हूँ... मेरे लिए क्या आज्ञा है पिता श्री.... राम उसे यथा शीघ्र पूरा करने का वचन देता है".

झुककर प्रणाम करते हुए राम को महाराज ने अपनी दोनों बाहें फ़ैलाते हुए छाती से लगा लिया. देर तक अपनी छाती से लगाए रखने के बाद उन्होंने राम को अपने कक्ष में चलने को कहा, जहाँ उन दो के अतिरिक्त तीसरा कोई नहीं था.

सीख

एक आसन पर विराजमान होते हुए उन्होंने राम को भी आसन ग्रहण करने को कहा. जब राम आसन पर विराज चुके तो उन्होंने कहना शुरु किया. "राम... मैंने संसार के सारे अभीष्ट सुखों को भोग लिया है. मन में उन सुखों को लेकर अब कोई लालसा मेरे मन में नहीं रह गई है. मैंने अपने जीते जी देवताओं, ऋषियों, माता-पिता और ब्राह्मणों के ऋणॊं से भी उऋण हो गया हूँ. तुम्हें युवराज पद पर अभिषेक करने के सिवाय अब और कोई कर्तव्य बाकी नहीं रह गया है. मैं ही नहीं सारी प्रजा तुम्हें युवराज पद पर प्रतिष्ठित होते हुए देखना चाहती है..अतः तुम्हें मेरी आज्ञा का पालन करते हुए युवराज पद स्वीकार करना ही होगा".

अपने मन की व्यथा-कथा सुनाते हुए उन्होंने आगे कहना शुरु किया- "राम..!. कितने आश्चर्य की बात है कि जिसने देवताओं के आव्हान पर, अनेकों बार दानवों से घनघोर युद्ध कर उन्हें पराजित किया हो, जो स्वयं दस रथों का संचालक हो, जो धर्म के दस लक्षणों- धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, विद्या, सत्य और अक्रोध से युक्त हो, जो बल, बुद्धि और शौर्य में पारंगत हो, जिसने इक्ष्वाकु कुल में जन्म लिया हो, ऐसे धीर- वीर पुरुष को आजकल बहुत बुरे-बुरे सपने आते हैं जो मुझे अन्दर तक हिलाकर रख देते हैं. ज्योतिष्यों का कहना है कि मेरे जन्म नक्षत्र में सूर्य, मंगल और राहु का प्रवेश हो चुका है. उनका यह भी मानना है कि इन दुष्ट ग्रहों की उपस्थिति से मुझ पर घोर आपत्ति आ सकती है या फ़िर मेरी मृत्यु भी हो सकती है. राम...मैंने लंबा जीवन जी लिया है....सारे सुखों को भी जी भर के भोग लिया है....मुझे मरने से डर नहीं लगता, लेकिन मरने से पहले मेरे मन में एक ही अभिलाषा है और वह यह कि मैं तुम्हे युवराज पद सौंप कर निश्चिंतता के साथ स्वर्गारोहण करुँ."..

"आज चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र से एक नक्षत्र पहले पुनर्वसु नक्षत्र में विराजमान है. निश्चित ही कल चन्द्रमा पूर्ण रूप से पुष्य नक्षत्र पर रहेंगे. अतः तुम इस शुभ नक्षत्र में युवराज पद ग्रहण करो. मुझे विश्वास है कि तुम मेरी इस इच्छा को अवश्य पूरा करोगे. मैं चाहता हूँ कि तुम और बहू सीता, सारी रात इन्द्रीय संयम पूर्वक रहते हुए उपवास करो और कुश की शैया पर सोओ".

"भरत इस समय अपने मामा के यहाँ गए हुए हैं. मैं चाहता हूँ कि उसके आने से पूर्व तुम युवराज पद पर प्रतिष्ठित हो जाओ. अक्सर शुभ कामों के संपन्न होने से पहले, काफ़ी विघ्नबाधा भी उपस्थित हो जाया करती हैं. जहाँ तक भरत की बात है तो मुझे तनिक भी संदेह नहीं है कि वह आचार-विचार और व्यवहार में कुशल तो है ही, साथ ही वह धर्मात्मा, दयालु, और जितेन्द्रीय हैं. तुम्हारे प्रति गहन अनुराग भी वह रखता है. तुम्हारे बगैर वह एक पल भी चैन से बैठ नहीं पाता है. अतः भरत को लेकर मेरे मन में कोई संदेह नहीं हैं. फ़िर धर्मात्मा, जितेन्द्रीय लोगों के मन में भी कभी-कभी राग-द्वेश और लोभ जैसे दुष्ट विचार अचानक प्रवेश कर जाते हैं. वे कब और कैसे मन-मस्तिष्क पर हावी हो जाते हैं, वे खुद भी नहीं जान पाते हैं. अतः राम..!.. आज की रात तुम्हें काफ़ी सावधानी से बितानी होगी. मेरी मानो, तुम अपने अंगरक्षकों की संख्या बढ़ा दो और अपने महल के चारों ओर सैनिकों को तैनाती भी कर दो".

दुविधा में राम.

पिता की एक-एक बात को वे ध्यानस्थ होकर सुन रहे थे राम. सुन रहे थे कि भरत की अनुपस्थिति में मुझे राज्य का प्रभार स्वीकार कर लेना चाहिए. क्या पिताजी यह नहीं जानते कि भरत और मेरे भले ही दो अलग-अलग शरीर हैं, लेकिन हममें एक ही हृदय धड़कता है?. मेरी हर आती-जाती सांस में भरत होता है. उसकी अनुपस्थिति मात्र से ही मैं बेचैन हो जाता हूँ. पल भर को भी मैं उससे विलग नहीं हो पाता हूँ. भरत केवल मेरा अनुज ही नहीं है, बल्कि मेरी दो आँखे हैं, जिनके माध्यम से मैं संसार देखता हूँ. भरत मेरी दो बाहें है, दो पैर हैं, जिनसे मैं अपने दैनिक कार्य संपादित करता हूँ. इतना सब कुछ जानने और समझने के पश्चात भी पिताश्री के मन में, भरत को लेकर आखिर इतना गहरा संदेह क्यों है?".

"यह ठीक है कि पिताश्री बूढ़े हो चले है और शारीरिक रूप से कमजोर भी. फ़िर ज्योतिषियों की काल-गणणा के अनुसार जो विपदाएं भविष्य में उन पर आ सकती हैं, उनको लेकर भी उनके मन में एक भय-सा समाया हुआ है, शायद तभी उन्होंने शीघ्रता से यह निर्णय लिया है कि मुझे राज्य का प्रभार सौंपकर वे निश्चिंतता से अपना शेष जीवन जी सकें. यह उनका अपना निर्णय है कि उन्होंने मेरा चुनाव किया है. लेकिन मेरा राज्याभिषेक भरत की अनुपस्थिति में ही हो, यह बात मेरे मन को गहराई से कचोट रही है".

"अभी तक मैंने अपनी स्वीकृति नहीं दी है, बावजूद इसके, मंत्रियों से कह दिया गया है कि वे शीघ्रता-शीघ्र आयोजन की तैयारी शुरु कर दें. पुरी को नववधु की तरह सजाया-संवारा जाए. सभासदों से भी यह भी कह दिया गया है कि समस्त पुरी के निवासियों को, इसकी सूचना तत्काल दे दी जाए, कि कल मेरा राज्याभिषेक होने जा रहा है."

"जैसा की मुझे विश्वस्तसूत्रों से ज्ञात हुआ है कि महाराज ने समस्त आर्यावृत्त के राजाओं को, विशेष दूतों के माध्यम से निमंत्रण भी भिजवा दिया है. लेकिन जानबूझ या फ़िर किसी विशेष कारणों के चलते उन्होंने भरत के मामा जी और मेरी ससुराल जनकपुरी में निमंत्रण नहीं भिजवाया है. इन दो राज्यों को निमंत्रण नहीं भेजे जाने के पीछे महाराज की क्या मंशा है?, इसे भी जानना मेरे लिए बहुत जरुरी है".

विचारों की श्रृँखला टूटने का नाम ही नहीं ले रही थीं. सवाल बहुतेरे मन में उठ खड़े हो रहे थे, लेकिन कोई भी सूत्र अब तक उनकी पकड़ में नहीं आया था. वे सोचने लगे थे:- "क्या मेरा भरत की अनुपस्थिति में अयोध्या पुरी की राजगद्दी पर बैठ जाना उचित होगा?. माँ कैकेई क्या सोचेगीं मेरे बारे में? क्या वह यह नहीं कहेंगी कि राम तू तो बड़ा स्वार्थी निकला...तू भरत को प्राणॊं से भी ज्यादा प्रिय है, कहते नहीं थकता था, राजगद्दी के लोभ में तुने अपने साधु सरीखे भाई भरत के साथ छल किया है? जानता हूँ माँ कौसल्या मेरी जननी है. उनके गर्भ से ही मेरा जन्म हुआ है. लेकिन मेरा बचपन तो माँ कैकेई की गोद में सोते-खेलते बीता है. सारा लाड़-दुलार तो मुझे उन्होंने ही दिया है. उनके आगे-पीछे ही तो मैं ठुमुक-ठुमुक कर चलता रहा हूँ. मेरी कितनी ही रातें उनके गोद में बीती हैं. क्या मैं उनकी ममता के साथ छल नहीं कर रहा हूँ? क्या मेरा भरत की अनुपस्थिति में राजगद्दी पर बैठना उचित होगा? नहीं...नही...राम से ये नहीं हो सकेगा. ऐसा होता हुआ सपने में भी मैं नहीं देख सकता.".

"माँ कौशल्या मेरे बारे में क्या सोचेंगी?. वे भी कहेंगी कि राम, राजगद्दी के प्रलोभन में तूने भरत जैसे धर्मात्मा के साथ छल किया है...कपट किया है...विश्वासघात किया है?. तरह-तरह के लांछन वे मुझे पर लगाएँगी.. राम...तू ये सब कैसे सुन पाएगा.....इतना साहस कैसे जुटा पाएगा?".

"माँ सुमित्रा भी चुप क्यों कर रहेगीं?. वे भी कुछ न कुछ तो कहेंगी ही...वे भी मुझे..स्वार्थी, लोभी, धोखेबाज कहने से नहीं चूकेंगी. फ़िर लक्ष्मण, शत्रुघ्न भी तो कुछ न कुछ कहेंगे ही."अपने आपसे प्रश्न कर रहे थे राम.

प्रश्नों के चक्रव्यूह में घिरे राम को बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. वे सोच रहे थे- " एक तरफ़ पूरा परिवार है और दूसरी तरफ़ हैं पिता. पिता की हर आज्ञा को, हर हाल में मानने वाला राम, अवज्ञा कैसे कर सकेगा? पिता का कहा नहीं मानने पर पिता को मर्मांतक पीड़ा तो होगी ही होगी और अगर वे इस पीड़ा को लेकर चल बसे, तो स्वर्ग में बैठी उनकी आत्मा कलपेगी... मुझे धिक्कारेगी.... सारा संसार मुझे पितृहंता कहेगा".

"अब तक मैं अपने पिता की हर-छोटी बड़ी आज्ञा का पालन करते आया हूँ. उनकी कोई भी आज्ञा का उल्लंघन मैंने कभी नहीं किया है. उसे सहर्ष स्वीकार करते हुए पूरा ही किया है. परिवारिक उलझनों में न पड़ते हुए मुझे हर हाल में उनकी आज्ञा का पालन करना ही होगा."

सारी उलझनों को परे हटाते हुए राम वर्तमान में लौट आए थे. वे इस समाचार से सीता को अवगत कराने के लिए अपने महल की ओर चल दिए.

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अपने महल के भीतर प्रवेश करते हुए उन्होंने अत्यन्त ही मधुर स्वर में पुकारा- सीते....सीते...उनकी आवाज पूरे कक्ष का चक्कर लगाकर वापिस लौट आयी थी. फ़िर उन्होंने बारी-बारी से हर एक कक्ष में जाकर देखा. सीता वहाँ कहीं नहीं मिलीं.

द्वार पर उपस्थित सेविका ने प्रणाम निवेदित करते हुए कहा:- क्षमा करें प्रभु...महारानी सीताजी, माता कौसल्याजी के महल की ओर गई हुई हैं".

वहाँ से निकलकर वे माता कौसल्या जी के अन्तःपुर में चले आए. उन्होंने ने देखा- सीता और माता कौसल्या ने रेशमी वस्त्र पहन रखे हैं और वे देवमन्दिर में बैठकर देवताओं की आराधना करने में निमग्न हैं. राज्याभिषेक का समाचार सुनकर माता सुमित्रा, लक्ष्मण को संग लिए पहले से ही वहाँ उपस्थित हो चुकी थीं.

राम ने माता कौसल्या जी के चरण स्पर्ष कर प्रणाम करते हुए कहा- "माते...पिताश्री ने मुझे प्रजापालन कर्म में नियुक्त किया है. कल प्रातः मेरा राज्याभिषेक होगा. जैसा कि उनका आदेश है कि सीता को भी मेरे साथ इस रात्रि में उपवास आदि करना होगा. अतः कल होने वाले अभिषेक के निमित्त आप मेरे और सीता के लिए जो-जो भी मंगलकार्य करने आवश्यक हों, कृपया उन्हें करवाइए

माता कौसल्या चिरकाल से ही राम के शीघ्र युवा होने और राजा बनने के सुहाने सपने देखती रही हैं. जैसे ही उन्होंने सुना कि कल प्रातः राम का राज्याभिषेक होगा, खुशी के मारे उनकी आँखें छलछला आयीं थीं. उन्होंने राम को अपने हृदय से लगाते हुए आशीर्वचन कहे:- "मेरे प्रिय पुत्र राम...तुम्हारा कल्याण हो. तुम चिरंजीवी होओ. तुम्हारे मार्ग में विघ्न डालने वाले शत्रुओं का नाश हो. तुम राजलक्ष्मी से युक्त होकर मेरे और बहन सुमित्रा सहित सभी बंधु-बांधवों को आनन्दित करो".

"बेटा राम.!  तुम्हारा जब जन्म हुआ था तब पवित्र चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की नवमी थी, अभिजित नक्षत्र था. तुमने दिन के बारह बजे जन्म लिया था, तब न तो अधिक शीत थी और न ही सूर्य की तपन, बल्कि संपूर्ण संसार को सुख देने वाला शुभ समय था. तब शीतल मंद और सुवासित हवा बह रही थी. नदियों में अमृत सदृष्य धारा बह रही थी. ऐसे सुहावने समय काल में तुमने जन्म लिया था"

स्नेह से सिर पर हाथ फ़ेरते हुए माता ने आशीर्वाद देते हुए कहा:- "कल पावन पुष्य नक्षत्र में तुम्हारा राज्याभिषेक होगा. इस उत्तम घड़ी में तुम राज सिंहासन पर बैठकर हम माताओं, पिताश्री और सारे प्रजाजनों को सुख प्रदान करोगे. उनकी हर छोटी-बड़ी समस्याओं को हल करोगे. फ़िर तुम अकेले कहाँ हो, तुम्हारे तीन भाई भी तुम्हारे सहयोगी होंगे. वे तुम्हारी हर आज्ञा का पालन करते हुए तुम्हारा सहयोग करेंगे".

अपनी माता से शुभाषिश लेते हुए राम ने अपने अनुज लक्ष्मण की ओर देखा. प्रसन्नता के चलते उनके चेहरे की दमकती आभा अलग ही देखी जा सकती थी. राम ने लक्ष्मण से कहा:- "भ्राता....तुम मेरी द्वितीय अन्तरात्मा हो. हम सब मिलकर राज्य-प्रभार के उत्तरदायित्वों का अच्छे से निर्वहन करेंगे".

ऐसा कहते हुए उन्होंने दोनों माताओं को प्रणाम किया और बिदा मांगी. अपनी धर्मपत्नी सीता को लेकर वे अपने महल की ओर चल पड़े.

महल में पहुँचकर राम ने स्नान किया. और विशाललोचना पत्नी के साथ श्रीरंगनाथ जी की पूजा-अर्चना की. तत्पश्चात उन्होंने हविष्य-पात्र को सिर झुकाकर नमस्कार किया और प्रज्जवलित अग्नि में श्रीरंगनाथ ( यह मूर्ति पूर्वजों के समय से ही दीर्घकाल तक आयोध्या में उपास्य देवता के रूप में रही. बाद में श्रीराम जी ने यह मूर्ति विभिषण को दे दी थी, वर्तमान में यह श्रीरंगक्षेत्र में पहुँची- पद्मपुराण में यह कथा मिलती है ) की प्रसन्नता के लिए विधिपूर्वक हविष्य की आहुति दी. तत्पश्चात अपने मनोरथ की सिद्धि का संकल्प लेकर यज्ञ शेष हविष्य का भक्षण किया और मन पर संयम रखते हुए विदेहनन्दिनी सीता के साथ श्रीनारायणदेव का ध्यान करते हुए बिछी हुई कुश की चटाई पर विश्राम करने लगे.

अग्नि को समर्पित हविष्य से भीनी-भीनी सुगंध से समूचा कक्ष गमगमा उठा था. देर रात तक सीता से अनेक विषयों पर बार्तालाप होता रहा. राम की मीठी-मीठी बातें सुनते हुए वे कब नींद के आगोश में चली गईं, राम को पता ही नहीं चल पाया और राम उन्हें जाग रही है, इस भ्रम में बातें करते रहे थे..जब हाँ-हूँ की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली, तो उन्होंने सीता सोता हुआ पाया.

विचारों की श्रृँखलाएँ थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. वे उठ खड़े हुए और महल की छत पर चले आए.

देर तक यहाँ-वहाँ टहलते रहने के बाद वे एक आसन पर बैठ गए. शीतल हवा मंदगति से प्रवाहित हो रही थी. हवा की पीठ पर सवार होकर, जुही, चमेली की मादक गंध उनके नथुनों से आकर टकराने लगी थी. सुगंध को पाकर उनका मन प्रसन्नता से खिल उठा था. उन्होंने सिर उठाकर आसमान की ओर ताका. चन्द्रदेव अपनी चांदी-सी चमक लिए हुए आसमान पर विराजमान थे. देर तक वे टिमटिमाते तारों को निहारते रहे. कल क्या कुछ होगा?, उसको लेकर विचार मंथन करने लगे थे.

अचानक सीता की नींद खुल गई. उन्होंने कनखियों से देखा. राम अपनी शैय्या पर नहीं थे. इतनी रात अचानक वे कहाँ चले गए?. व्यग्रता से ढूँढते हुए वे भी छत पर चली आयीं. देखा...राम एक आसन पर विराजमान होकर, आकाश की ओर ध्यानस्थ होकर ताक रहे हैं.

"स्वामी...आप और यहाँ अकेले.?..मुझे जगा दिया होता....अचानक मेरी नींद खुली और मैंने आपको अपनी शैय्या पर न पाकर, मेरा मन व्याकुल होने लगा था. मैंने भवन के हर कक्ष में आपको तलाशा. जब आप कहीं नहीं मिले तो आपको ढूँढते हुए मैं छत पर चली आई. क्षमा करें नाथ.... मेरी उपस्थिति से आपको कोई कष्ट तो नहीं हुआ". सीताजी ने रामजी से कहा.

"नही सीते..नहीं...अच्छा हुआ जो तुम यहाँ चली आयीं. मैं तुम्हें अपने साथ लेकर आने वाला था, परन्तु तुम निद्रा-देवी की गोद में चली गईं थीं, अतः मैंने तुम्हें जगाना उचित नहीं समझा." राम ने सीताजी से कहा.

"आपको नींद क्यों नहीं आ रही है, इसका कारण तो मैं समझ सकती हूँ, लेकिन यह ज्ञात नहीं है कि आखिर किस बात को लेकर आप इतने बेचैन और परेशान हैं.? अब ऐसी कौन-सी बात शेष रह गई है, जो आपकी व्यथा को बढ़ा रही है. क्षमा करें नाथ ! मैं उस कारण को जानना चाहती हूँ". सीता ने राम से जानना चाहा.

"सीते....तुम मेरे स्वभाव से भली-भांति परिचित हो....तुमसे कुछ भी छिपा नहीं है. फ़िर बातों को छिपाकर रखना मेरे स्वभाव में ही नहीं है. सच कहूँ.....पिताश्री का चेहरा जब-तब मेरी आँखों के सामने प्रकट होता है, तो उनकी लाचारी, बेचारगी देखकर मैं अन्दर तक सिहर उठता हूँ. एक धीर-वीर-गंभीर व्यक्ति इतना लाचार, इतना अवश कैसे हो सकता है? .राज्याभिषेक को लेकर उन्होंने जो निर्णय लिया है, यह उनका अपना नीजि निर्णय है, और उन्होंने उसे कह सुनाया भी है, लेकिन दूसरी ओर वे भरत को लेकर इतने चिंतित है कि उसकी उपस्थिति मात्र से उन्हें कोई खतरा दिखाई देता है. शायद यही कारण रहा हो कि उन्होंने भरत के मामाजी को, न तो कोई संदेशा भिजवाया और न ही निमंत्रण....और तो और उन्होंने अब तक माता कैकेई के भवन में जाना तक उचित नहीं समझा, जबकि वे सबसे ज्यादा स्नेह उन्हीं से करते हैं...माता कैकेई के अनुमति के बिना अयोध्या का पत्ता तक नहीं हिलता है. उनसे न तो कोई परामर्श लिया गया और न ही उन्हें सूचित किया गया है. संभव है, राजपाठ को लेकर माता कैकेई ने पहले से ही कोई ‌षड़यंत्र रच रखा हो जिसकी भनक पिताश्री को लग चुकी हो. उस ‍षड़यंत्र का रहस्योघाटन हो, इससे पूर्व वे मेरा राज्याभिषेक कर देना चाहते हैं"

"खैर...राजमहलों में इस तरह के ‍षड़यंत्र तो होते ही रहते हैं. पिताश्री को ही ले लीजिए... तीन-तीन पत्नियों के रहते हुए वे स्वतंत्रतापूर्वक कोई निर्णय नहीं ले पाते है...सभी को एक साथ प्रसन्न रख पाना भी उतना ही कठिन कार्य है, जैसे किसी पर्वत को ऊँगली पर उठा लेने की कोशिश करना. अतः मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि मैं आजीवन एक पत्नी धर्म का निर्वहन करुँगा. उन्होंने हौले से सीता का हाथ अपने हाथ में लेते हुए अपने वचनों को दोहराया-"सीते..!.मैं राम...ईश्वर को साक्षी मानकर दृढ़ प्रतीज्ञा करता हूँ कि मैं आजीवन एक पत्नीव्रत का पालन करुँगा". कहते हुए राम रोमांचित हो उठे थे. उन्होंने सीता को अपनी विशाल बाहोँ के घेरे में लेकर आलिंगनबद्ध कर लिया था. ऐसा करते हुए राम और सीता को अलौकिक सुख की प्रतीती हो रही थी. दोनों के शरीरों में रोमांच हो आया था. हृदय तेजी से धड़कने लगे थे. एक अपूर्व आनन्द के अतिरेक के चलते दोनों के नयन सजल हो उठे थे.

देर तक इसी अवस्था में बैठे रहने के बाद, राम ने उन्हें अपने आलिंगन से मुक्त करते हुए देखा और कहने लगे- "हे जनकनंदिनी !....मेरा मन इन पारिवारिक बंधनों में बंध कर रहना नहीं चाहता. नदी यदि अपने उद्गम से चलकर आगे प्रवाहित न हो, तो वह मात्र पोखर बन कर रह जाती है. मैं पोखर नहीं बनना चाहता. तुम तो भली-भांति जानती ही हो कि राजा के क्या कर्तव्य होते? उन कर्तव्यों को पूरा करते-करते वह सिंहासन से बंधा रह जाता है. मुझे न जाने क्यों रह-रह कर गुरु विश्वामित्र जी की याद हो आती है. सुबाहू और ताड़का जैसे क्रूर राक्षसों के वध के लिए वे मुझे और भ्राता लक्ष्मण को अपने आश्रम में ले गए थे. वहाँ रहते हुए हमने न सिर्फ़ उनका वध किया बल्कि अनेक राक्षसों को मार गिराया था"

"गुरुदेव ने प्रसन्न होकर दिव्यास्त्र देते हुए मुझसे कहा था-  राम.!...अयोध्यापति दशरथ के रहते ये राक्षस उधर नहीं फ़टकते, लेकिन दक्षिण में उन्होंने अपना साम्राज्य फ़ैला लिया है. वे निस दिन मुझ जैसे तपस्वियों की तपस्या ही भंग नहीं करते, बल्कि उन्हें मार कर भक्षण तक कर जाते हैं. जब ऋषि-मुनि यज्ञादि करते हैं तो वे आकाश मार्ग से आकर हवनकुंड में अपवित्र चीजों को डालकर, उनका अनुष्ठान्न पूरा नहीं होने देते. उनके आतंक के कारण ऋषि-मुनियों को भयानक दिन देखने पड़ रहे हैं. कल को तुम राजा बनोगे, तो राज्य की सीमा से बाहर नहीं निकल पाओगे. तुम्हारा जन्म तो इनके सर्वनाश के लिए ही हुआ है. इन राक्षसों के कारण सनातन धर्म संकट में पड़ गया है. यदि समय रहते धर्म को नहीं बचा सके तो धरती रसातल में चली जाएगी. धर्म की रक्षा के लिए तुम्हें शस्त्र उठाने ही पड़ेंगे. तुम्हारे अलावा इस धरती पर और कोई शूरवीर नहीं है जो इनका नाश कर सके. राम !....निर्णय तुम्हें लेना होगा. जितनी शीघ्रता से तुम निर्णय लोगे, उतनी जल्दी ही इस धरती पर बढ़ता पापाचार समाप्त होगा".

"सीते !...दानवों के संहार के लिए महर्षि विश्ववामित्र जी द्वारा दिए गए वे सभी दिव्यास्त्र मुझ में समाहित हो चुके हैं. वे जब-तब मेरे समक्ष उपस्थित होकर मुझसे निवेदन करते हैं कि प्रभु हमारा उपयोग आप कब करेंगे?". कहते हुए राम अचानक उठ खड़े हुए और चलते हुए छत की चाहरदीवारी से सटकर खड़े हो गए थे.

उन्होंने सीता जी को इंगित करते हुए कहा:- "सीते...यहाँ से पूरी अयोध्यापुरी दिखाई देती है. इतनी रात बीत जाने के बाद भी लोग पुरी को सजाने-संवारने में लगे हैं. जगह-जगह तोरण-द्वार बनाए जा रहे हैं. सभी राजमार्गों के दोनों ओर कदली-वृक्ष लगाए जा रहे हैं. पताकाएँ फ़हराई जा रही हैं. राजमार्ग पर सुगन्धित जल के छिड़काव के बाद सुन्दर-सुन्दर अल्पनाएं बनाई जा रही है. नागरिकों की चहल-पहल भी यहाँ से देखी जा सकती है. लोग अपनी निद्रा का त्याग कर इस पुरी को सजाने-संवारने में जुटे हुए है कि समय रहते जितनी भी भव्यता बनाई जा सकती है, बनाने के उपक्रम करने में लगे हुए हैं. कल जैसे ही सुबह होगी, पुरी में पैर रखने की जगह भी नहीं बचेगी. सारे आर्यावृत्त से जनसामान्य से लेकर राजे-महाराजे अपने दल-बल के साथ यहाँ पहुँचेगे. सभी के मन में एक ही आस है कि वे मेरा राज्याभिषेक होता हुआ देखें."

"हे सीते.!....तुमने और मैंने अवतार रूप में जन्म इसीलिए नहीं लिया है कि हमें धरती पर शासन करना है, बल्कि हमारा उद्देश्य तो दानवराज रावण को मारकर, उसके अत्याचारों से इस पावन धरा को मुक्त कराना है. तुम देख ही रही हो कि मेरी इच्छा के विरुद्ध कितना कुछ किया जा रहा है."

"हे जनकनन्दिनी.!....मेरा कर्तव्य मुझे पुकार रहा है. तुम्हें मेरा साथ देना होगा ताकि राम अपने अभियान में सफ़ल हो सके. लेकिन वर्तमान में जो चल रहा है, सब उलटा-पुलटा चल रहा है. पिताश्री मुझे राज-प्रभार संभालने के लिए आज्ञा दे चुके हैं. पिता की आज्ञा मानता हूँ तो मैं यहीं अयोध्या का होकर रह जाऊँगा और आज्ञा नहीं मानता हूँ तो रघुकुल का गौरव कलंकित हो जाएगा. मुझे इस चक्र से निकलना ही होगा. किसी भी तरह निकलना होगा. (हाथ जोडकर प्रार्थना की मुद्रा में) हे...रंगनाथ जी !  आप मेरी सहायता करें.....कुछ तो ऐसा उपाय कीजिए कि मैं पिता की आज्ञा मानने का दोषी न कहलाऊँ और राज्य के बंधन से भी मुक्ति पा सकूँ"

"इस दुविधा से निकलने का कोई तो मार्ग सोचा होगा आपने?" सीता जी ने कहा.

"हर समस्या का हल उसी समस्या में छिपा होता है, बस उसे ढूँढ निकालना होता है."

"इसका अभिप्राय तो यह हुआ कि समस्या का हल खोज लिया गया है." सीता ने कहा.

"हाँ सीते..हाँ ....अब एक ही रास्ता शेष है. हमें माता कैकेई से मिलकर प्रार्थना करनी होगी कि वे हमें इस मायाजाल के चक्र से निकलने का कोई उपाय बतलाएं. केवल और केवल अब उनकी शरण में जाकर ही हम इस बंधन से मुक्त हो सकते हैं".

"लेकिन..."

"लेकिन क्या...."

"माता कैकेई इस समय निद्रावस्था में होगी. क्या उन्हें जगाना उचित होगा?.

"यह तुम्हारा भ्रम है सीते...कि वे सो चुकी होंगीं...निश्चित ही वे जाग रही होगीं और इस बदलते घटना क्रम पर वे गहराई से सोच-विचार भी कर रही होंगी. भले ही पिताश्री ने उन्हें मेरे राज्याभिषेक का समाचार नहीं भी दिया होगा, लेकिन उन्हें इस घटना की जानकारी मिल चुकी होगी. राजमहल में कहाँ क्या हो रहा है, उन्हें समय रहते पल-पल की जानकारी मिल जाती है. हमें उनकी शरण में जाना होगा. प्रार्थना करती होगी. उनके समक्ष एक आभासी संसार (माया) की रचना करनी होगी. अब केवल और केवल माता कैकेई ही हमारी सहायक हो सकती हैं.                         

                                                                ०००००

कैकेई जी से मंत्रणा

एक आभासी संसार का निर्माण करते हुए श्रीराम और सीताजी माता कैकेई के अन्तःपुर में पहुँचे.

माता कैकेई इस समय अपने आसन पर विराजमान होकर आसमान की ओर ताक रही थी. दीपक का हल्का-हल्का प्रकाश पूरे कक्ष में फ़ैला हुआ था. संभवतः वे किसी गूढ़ विषय को लेकर मन ही मन चिंतन कर रही थीं. राम और सीता के पदचापों को सुनकर उन्होंने पलट कर देखा. सीता और राम उनकी ओर बढ़ते चले आ रहे हैं. 

देखते ही उन्होंने कहा- "आओ राम .....आओ सीते  आओ...तुम दोनों का इतनी रात गए मेरे कक्ष में आने का भला क्या प्रयोजन हो सकता है? जरुर कोई न कोई ऐसी बात अवश्य है, जिसने तुम्हें परेशान कर रखा है. मैं तुम्हारा मनोरथ किस तरह सिद्ध कर सकती हूँ, निःसंकोच मुझसे कहो."

माता के चरणो में दोनों ने प्रणाम निवेदित किया. तदन्तर राम ने कहना शुरु किया. माते.!..आपसे भला मेरी कोई बात छिपी रही है?. संभवतः आपको विदित ही हो चुका होगा कि पिताश्री कल प्रातः मेरा राज्याभिषेक करने जा रहे हैं. अयोध्यापुरीको पूरी भव्यता के साथ सजाया-संवारा जा रहा है. संपूर्ण अयोध्या में जैसे खुशियों का सागर उमड़ पड़ा है. सारी प्रजा भी मुझे युवराज के पद पर बैठा देखना चाहती हैं."

"आप भली-भांति जानती ही हैं कि मेरा मन इन सब चीजों में नहीं रमता है..पिता की आज्ञा का उल्लंघन भी नहीं कर सकता. मन मार कर मुझे उनका प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा है.. यदि मैं उनकी आज्ञा नहीं मानता हूँ, तो उनकी प्रतिष्ठा और कीर्ति धूमिल हो जाएगी.

"माते !..मैं आपकी शरण में आया हूँ. कृपा कर आप मुझे इस चक्रयूव्ह से बाहर निकालें. केवल और केवल आप ही यह उपक्रम कर सकती हैं, दूसरा और कोई नहीं".

"वह कैसे?.

( संकट प्रबंधन)

"संभवतः आप भूली नहीं होंगी. सम्ब्रासुर नामक राक्षस से युद्ध में सहायक होने के लिए देवराज इन्द्र ने महाराज से मदद करने की गुहार लगाई थी. इस विनाशकारी युद्ध में आप पिताश्री की सारथी बनकर युद्ध के मैदान में गई थीं. एक बार रथ के पहिए की कील निकल गई थी, कील की जगह आपने अपनी ऊँगली डालकर अनर्थ होने से बचाया था और दूसरी बार युद्ध में शत्रु ने पिताश्री पर युधास्त्र चलाकर उन्हें मरणासन्न अवस्था में पहुँचा दिया था. तब तत्काल आपने रणभूमि से रथ को दूर ले जाकर उनका उपचार करते हुए, उनके प्राणों की रक्षा की थी. इन दोनों घटनाओं से प्रसन्न होकर महाराज ने आपसे दो वर मांगने का आग्रह किया था. आज उन दो वरदानों को मांगने का समय आ चुका है. माते.!......आप महाराज से मेरे लिए चौदह साल का बनवास और भरत के लिए राज्याभि‍षेक का वर मांग लीजिए.... बस यही एकमेव रास्ता बचता है मेरे लिए," रामजी ने कैकेई से कहा.

"राम.!...ये क्या कह रहे हो तुम ....तुमने ये कैसे सोच लिया कि कैकेई ऐसा कर सकती है?....क्या वह सत्ता की लालच में इतना गिर सकती है? ..जिस राम को उसने अपने बेटे से ज्यादा स्नेह दिया....लाड़-प्यार...दुलार दिया.....जिसे उसने इन हाथों से खिलाया-पिलाया और...अपनी ममतामयी गोद में सुलाया.....वह कैसे कह सकेगी कि राम को चौदह बरस का बनवास दिया जाय?.अरे......जिसने कालीन के नीचे कभी अपने पाँव नहीं रखे.....क्या वह बीहड़ जंगलों में.......पथरीले-कंटीले रास्तों में दर-दर भटकाने के लिए कैसे भेज सकेगी?.... जिस राम ने अब तक चाँदी की शैया पर बिछे, मखमली गद्दों में सुखपूर्वक शयन करते हुए रात्रि बिताई हो...उसे अपने स्वार्थ के लिए घास-फ़ूस और सूखे पत्तों से बने बिछौने पर सोता हुआ कैसे देख पाएगी?"

"राम..!  जिन जंगलों की बात तुम कर रहे हो, शायद जंगलों के बारे में मुझसे ज्यादा तुम नहीं जानते..वे दिन में जितने सुहावने दिखते हैं, रात होते ही डरावने हो उठते हैं. फ़िर जंगलों में बड़े-बड़े खूंखार जानवर विचरते रहते है...अपने सुकोमल बदन राम को भला एक माँ, जंगली जानवरों से लड़ने-भिड़ने के लिए कैसे भेज सकती है?...इतना ही नहीं, जंगलों में भयानक राक्षसों ने अपने ठिकाने बना लिए हैं, वे तो तुम्हें देखते ही मार कर जाएंगे......एक माँ भला इतनी निर्दयी कैसे हो सकती है कि वह अपने प्राणों से भी प्रिय बेटे को राक्षसों के हवाले छोड़ सकती है?....क्या तुमने कभी इस पर कभी गंभीरता से सोचा-विचारा भी है?. राम...तुम मुझसे मेरे प्राण मांग लेते तो मैं हँसते-हँसते दे देती..लेकिन कैकेई इतना बड़ा जघन्य अपराध कभी नहीं कर सकती...नहीं कर सकती....नहीं कर सकती "......कहते-कहते फ़बक कर रो पड़ी थी कैकेई.

राम ने अपने उत्तरीय से विलाप कर रही कैकेई के आँसू पोंछॆ, फ़िर विनित भाव से कहा:- माते.!..आप जैसी क्षत्राणी को विलाप करता देख मेरा कलेजा फ़टा जा रहा है. मैं आपको इस तरह विवश और लाचार नहीं देख सकता....इस तरह अधीर होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है. मैं पुनः आपके श्रीचरणो में विनम्रता से निवेदित कर रहा हूँ कि आप महाराज श्री से इन दो वरदानो को मांगे. इसमें जगत का कल्याण होना छिपा हुआ है". राम ने कहा.

"कल्याण..कैसा कल्याण...राम.....जानते हो राम.... इन दो वरदानों को मांगकर मुझे क्या मिलेगा? मेरा बेटा मुझसे छिन जाएगा......पुत्र भरत फ़िर कभी मुझे माँ कहकर नहीं पुकारेगा. वह मुझे घृणा की दृ‍ष्टि से देखेगा...फ़िर तुम भली-भांति जानते ही हो कि महाराज तुम्हें अपने प्राणॊं से भी ज्यादा चाहते हैं...उनके प्राण तुममें समाए हुए है...तुम्हारे नहीं रहने से वे अपने प्राण त्याग देंगे. मुझ सहित महारानी कौसल्या और सुमित्रा को भी वैधव्य की मर्मांतक पीड़ा से होकर गुजरना पड़ेगा. कोई स्त्री क्योंकर विधवा होना चाहेगी.?. जानते-बूझते कोई स्त्री, क्यों अपना सुहाग उजाड़ने का उपक्रम करेगी?. इतना ही नही, संसार मुझे दुष्टा कह कर पुकारेगा कि अपने बेटे की खुशी के लिए उसने पूरा परिवार उजाड़ डाला....संसार का कोई भी प्राणी अपने बच्चियों का नाम कैकेई रखने से परहेज करेगा....सारा संसार मेरे नाम पर थू-थू करेगा? क्या तुम यही चाहते हो?. मुझसे ऐसा करवाते हुए तुम्हें क्या मिलेगा...बोलो राम...बोलो.?." कैकेई ने राम से कहा.

"माते.!. एक सामान्य मनुष्य भी यही सोचेगा., जैसा-कि आप सोच रही हैं. राम की माता होने के नाते आपको इतना छोटा नहीं सोचना चाहिए...आप ऐसा सोच भी कैसे सकती हैं? हम जो इस चलते-फ़िरते संसार को देख रहे हैं यह मात्र एक सपने के सदृष्य है. समय बदलते ही दृष्य भी बदल जाते हैं. कल को न मैं रर्हूंगा, न आप रहेगीं, और न ही पिता श्री....हम सब इतिहास का हिस्सा बन जाएंगे... हम आज हैं, ..कल और कोई रहेगा....यदि कोई बच रहेगा तो केवल देश और  हमारा सनातन धर्म बच रहेगा.. इसी धर्म की संस्थापना के लिए ही तो मैंने रघुकुल में जन्म लिया है माते".

"रावण के बढ़ते अत्याचार से धरती कांप रही है,, सारे देवगण उसके आतंक से भयभीत होकर यहाँ-वहाँ छिपकर रहने के लिए विवश है. सनातन धर्म का नाश हो चला है. यदि उस दुष्ट का संहार नहीं हो सका तो इस धरती पर दानव ही दानव होंगे...मानवता समूल नष्ट हो जाएगी. आपके इन दो वरदानों में संसार का कल्याण छिपा है. अतः माते.!..अपने मन-मस्तिष्क से क्षुद्र विचारों को बाहर निकाल फ़ेंके और जनकल्याण की भावना से आगे आएँ".

"आप भले ही वरदान न मांगना चाहें. लेकिन राम.आपसे ऐसा वरदान मांगने के लिए प्रार्थना कर रहा है. आप जब भी कहलाएंगी, राम की माता ही कहलाएंगी......दुनियां आपको राम की माता के रुप में पहचानेगी...आपके इस त्याग और बलिदान को दुनिया युगों-युगों तक याद रखेगी. आपको कोई पाप नहीं लगेगा क्योंकि आपने ये सब राम के कहने से किया है. अतः मन में आयी मलीनता को मिटा दें और जनकल्याण के लिए खुशी-खुशी आगे आएँ".

"हूं.....तो राम !..... तुमने वन जाने का निश्चय कर ही लिया है?.....फ़िर भला मैं कौन होती हूँ तुम्हें रोकने वाली.....सच भी है .... तुमने जिस उद्देश्य को लेकर जन्म लिया है,  उसे तो हर हाल में पूरा करना ही चाहिए.  मैं अपनी ओर से तुम्हारे मनोरथ को यथाशीघ्र पूरा करने का प्रयत्न करुँगी. अब तुम निश्चिंत होकर अपने अभियान की ओर अग्रसर होने की तैयारी में लग जाओ...मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है.  शीघ्र ही तुम इसमें सफ़ल होकर लौटो.  मैं तुम्हारे लौट आने की प्रतीक्षा करती रहूँगी".

(स्नेह से सीता की ओर निहारते हुए) ."सीते !. राम के साथ तुम्हारा आना इस बात का संकेत है कि तुमने भी राम के साथ वन जाने का मन बना लिया है.....ठीक भी है......तुम्हें तो राम के साथ होना ही चाहिए. तुम सदा राम की परछाई बन कर रहना. एक स्त्री का पति, चाहे वह राजमहल में रहे चाहे वन में रहे, सुख में रहे या फ़िर दुःख में, उसे सदैव अपने पति का अनुसरण करते हुए सदा उसके साथ ही रहना चाहिए. तुम साथ रहोगी, तो मेरे राम को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा. आशा है, तुम मेरे विश्वास पर खरा उतरोगी.

"अच्छा माते ! अब हमें आज्ञा दीजिए. राम और सीता जी ने कैकेई के चरणॊं में प्रणाम करते हुए जाने की आज्ञा मांगी.

भारी मन लिए हुए कैकेई राम और पुत्रवधु सीता को जाता हुआ देखती रही थी. तभी उन्हें याद आया कि राम से एक जरुरी बात तो बतलाना ही भूल गई. भावावेश के चलते स्मरण में ही नहीं रहा. उन्होंने राम को आवाज देते हुए कहा- "रुक जाओ राम....रुक जाओ. तुमसे कुछ जरुरी बातें करना बाकी रह गया है".

माता कैकेई की करूण पुकार रामजी के कानों तक पहुँची.  उन्होंने सुना. सुना कि माता कैकेई उन्हें वापिस लौट आने को कह रही हैं.  उठते कदम वहीं रुक गए थे.  बिना समय गवाएं वे पुनः शीघ्रता से लौटने लगे थे.  पास आकर उन्हें अत्यंत ही विनीत शब्दों में हाथ जोड़कर कहा -"माते ! आपने मुझे बुलाया ? .....कहिए. अब आपकी क्या आज्ञा है.?. मुझे कह सुनाइए...राम उसे हर हाल में पूरा करने का वचन देता है".

"आज्ञा नहीं राम ! आज्ञा नहीं.......बस एक छोटी-सी विनती है"  कैकेई ने कहा.

"माँ ! आप ये क्या कह रही हैं?  माताएँ अपने पुत्रों से विनती नहीं करती, बल्कि उन्हें आज्ञा देती हैं..आप आज्ञा दीजिए, राम उसे पूरा करने के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ है.". कहते हुए रामजी टकटकी लगाए माता कैकेई की ओर देखने लगे थे.

बाली के हाथों मिली करारी हार की याद आते ही उनके मन में अपार पीड़ा होने लगी थी. मन कसैसा हो उठा था.. वाणी अवरुद्ध हो गई थी. आँखें डबडबा आईं थीं और अब आँसू गालों पर लुढ़ककर बहने लगे थे. असमंजस में पड़ गईं थीं कैकेई.  उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपनी पराजय की व्यथा-कथा राम को कैसे और किस मुँह से सुना पाएगीं?. पुराना जख्म हरा ही नहीं हुआ है, बल्कि अब फ़ूटकर शिराओं में भी बहने लगा था.

"माँ.....ये क्या? आपके आँखों में आँसू ? राम के रहते हुए माँ के आँखों में आँसू ? कितने ही दारूण दुःख झेल सकता है राम.... लेकिन अपनी माँ को इस तरह आँसू बहाते हुए नहीं देख सकता...कदापि नहीं देख सकता. मुझे बतलाइए तो सही कि वह कौन-सी बात है जो आपके मन को पीड़ा पहुँचा रही है? मैं राम...शपथपूर्वक कह रहा हूँ कि मैं उस पीड़ा को अवश्य दूर कर दूँगा.                  ’मैं वह सब कुछ करने को तैयार हूँ जिसमें आपकी प्रसन्नता बनी रहे. यदि किसी ने भी जाने-अनजाने में आपका अहित किया है या आपका अपमान किया है, चाहे हो देवता हो  या फ़िर कोई और... राम उसे जीवित नहीं छोड़ेगा. उसे मार गिराएगा. अब आप कृपया कर इस तरह विलाप करना बंद कर दीजिए और मुझे बतलाइए कि वह कौन-सी ऐसी पीड़ा है, जो आपके दिल और दिमाक को मथ रही है?"राम ने अनुनय करते हुए माता कैकेई से जानना चाहा.

"राम !  एक क्षत्राणी होने के कारण मैंने कभी हार नहीं मानी. मैं सदा से ही विजयी होती आई हूँ लेकिन एक बार मुझे रणक्षेत्र में अपमानजनक हार मिली है. इस अपमानजनक हार का बदला लेने की कसक, अब तक मेरे दिल में ज्वाला बनकर धधक रही है. राम...तुम्हें हमारी हार और अपमान का बदला लेना है.  मुझे विश्वास है कि तुम ऐसा कर सकोगे. जिस दिन तुम इसका बदला ले लोगो, तब जाकर मेरे कलेजे को ठंडक मिलेगी.".

"मैं तुम्हारे पिताजी के साथ, एक बार नहीं  अपितु कई बार युद्ध के मैदान में जाती रही हूँ. मैंने भी अपने पराक्रम से अनेक दानवों को मार गिराया था. दुर्योग से एक दिन हमारा सामना बाली से हो गया.  बाली को उसके पिता इंद्र से एक स्वर्ण हार प्राप्त हुआ था, जिसको स्वयं ब्रह्मा जी ने अभिमंत्रित कर उसे पहिनाते हुए वरदान दिया था कि रणभूमि में जो भी दुश्मन उसका सामना करेगा, उसकी आधी शक्ति क्षीण हो जाएगी और उसे प्राप्त हो जाएगी.  इस वरदान के कारण युद्धरत तुम्हारे पिता की आधी शक्ति उसे प्राप्त हो गई थी.  भीषण युद्ध करने के बाद भी तुम्हारे पिता की हार हुई.  महाराज बाली से युद्ध हार चुके थे.  वे बाली के अपराधी बन चुके थे."

"बाली ने तुम्हारे हारे हुए पिता के सामने एक चिचित्र शर्त रखी कि या तो वे मुझे बाली के पास छोड़ जाएं या फ़िर रघुकुल का गौरव अपना मुकुट छोड़ जाएं. बड़े असमंजस में पड़ गए थे तुम्हारे पिता.  यदि वे मुझे बाली के अधीन कर देते तो उनके पुरुषार्थ पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता.  उन पर तरह-तरह के लांछन लगाए जाते. फ़िर कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति, अपनी पत्नि को कैसे किसी दुश्मन के अधीन छोड़ सकता है?. अतः तुम्हारे पिता ने अपना गौरव,  अपना मुकुट... बाली को देना स्वीकार कर लिया था".

"बरसों-बरस तक हम पति-पत्नि, बाली से मिली हार को भूल नहीं पाए थे. रह-रह कर वह क्षण हमें याद आता... तब-तब अपनी करारी हार का स्मरण हो आता.  हम सदा ही इस चिंता में घिरे रहते थे कि रघुकुल के उस गौरवशाली मुकुट को किस तरह से वापिस पाया जा सकता है?"

"विधि का विधान भी देखो राम ! दृष्टि-विहीन ऋषि का श्राप फ़लीभूत हुआ और हम निःसंतान रानियों का सौभाग्य उदित हुआ. पुत्रहीन दंपत्ति को पुत्रवान होने का गौरव प्राप्त हुआ हमें एक नहीं बल्कि चार-चार पुत्रों की माता कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ.. तुम चार भाईयों को पाकर हम निहाल हो उठे थे. तुम्हारे जैसे पुत्रों को पाकर हम उस अपमान को लगभग भुला ही बैठे थे.

लेकिन जब तुम्हारे पिता ने तुम्हें युवराज पद देने का निश्चय कर लिया था,  तब जाकर मुझे वो पुरानी घटना फ़िर याद हो आयी.. बरसों पुराना जख्म फ़िर हरा हो गया. मैं कदापि नहीं चाहती थी कि तुम्हारा राज्याभिषेक उस मुकुट से हो, जिसे बाद में बनवाया गया था. हमारा असली मुकुट...हमारे रघुकुल का गौरव, जिसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करती आयी थी, अब वह दुष्ट बाली का गौरव बढ़ा रहा है. रघुकुल के गौरवशाली मुकुट को पाकर दु‍ष्ट बाली अट्टहास करता फ़िरता होगा...वह जब-तक तुम्हारे पिता की निंदा करता होगा. राम ! उसका अट्टहास अब भी मेरे कानों में गूंजता रहता है.

.हे  राम ! मुझे तुम पर पूरा भरोसा है कि तुम हमारे अपमान का बदला बाली से अवश्य लोगे.  तुम बाली को या तो रणक्षेत्र में हरा कर या फ़िर उसे मारकर, हमारे रघुकुल का गौरव,  हमारा सम्मान लौटा लाओगे.  जब तुम चौदह वर्ष का वनवास काट कर वापिस लौटोगे, तब तुम्हारा राज्याभिषेक हम उसी मुकुट से करेंगे".

" राम ! निश्चित ही मैं अब तुम्हारे पिता से तुम्हारे लिए चौदह बरस का वनवास और भरत के लिए राज्याभिषेक हठपूर्वक मांगूगी. मैं जान गई हूँ कि तुमने हमारे यहाँ पुत्ररूप में जन्म इसीलिए लिया है कि तुम अत्याचारी-दुष्ट रावण को मारकर, इस धरा को उसके आतंक से मुक्ति दिलाओगे. मैं तुम्हारे लिए वनवास नहीं भी मांगती, तब भी तुम्हारा वन जाना सुनिश्चित था."

"जाओ राम...जाओ....बहन कौसल्या से भी तो तुम्हें वन जाने की अनुमति प्राप्त करनी होगी. तुम्हारा वनवास शुभ हो. तुम अपने अभियान में सफ़ल होकर लौटो. मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है,"

कैकेई ने अपने दोनों हाथ बढ़ाते हुए राम को अपनी भुजाओं में भर लेना चाहा. देखती क्या हैं कि..वहाँ तो कोई भी नहीं है. न राम हैं और न ही सीता.... हे देव...तो क्या मैं सपना देख रही थी?...या भ्रम के भंवर में पड़ गई थी?....लेकिन मैं तो अभी-अभी राम से ही बातें कर रही थी...वह तो मुझसे महाराजश्री से दो वरदान मांगने के लिए निवेदन कर रहा था.  कह रहा था कि इन दो वरदानों से देश का कल्याण होगा....देवताओं का कल्याण होगा....दानवों का नाश होगा...सनातन धर्म बचेगा आदि-आदि.

कैकेई गंभीरता के साथ इस घटना पर गहराई से सोचने लगी थीं. भले ही राम अपने महल से चलकर मेरे पास नहीं आया होगा..लेकिन उसने जो कुछ कहा, सच ही कहा था. राम कोई साधारण मानव नहीं है...वह तो इस पावन धरा पर बढ़ते जा रहे पापाचार को समूल ‌नष्ट करने के लिए अवतारी पुरुष होकर हमारे कुल में जन्मा है".

’दानवों के नाश के लिए कितनी ही बार मैंने महाराज दशरथ जी के साथ युद्ध किया है, लेकिन जितने मारे जाते हैं, उससे कहीं अधिक पैदा हो जाते है. दानवों का हमने बड़ी संख्या में विनाश तो किया, लेकिन कभी रावण तक नहीं पहुँच पाए. सच कह रहा था राम...यदि इनका समूल नाश नहीं लिया गया तो रावण और उसके सहयोगी दानवों का ही इस पावन धरा पर साम्राज्य रहेगा. इनके रहते न तो मानव बच पाएंगे और न ही हमारा सनातन धर्म ही बच पाएगा

.अब जो भी हो, मुझे राम के साथ खड़ा होना चाहिए... भले ही संसार मुझे दुष्टा कहे...पापी कहे...और भी जो कहना चाहे, कहते फ़िरे...लेकिन मुझे इस अभियान में अपनी हिस्सेदारी का निर्वहन करना ही होगा". कैकेई जी ने मन बना लिया था कि वे महाराजश्री से दो वरदान मांग कर रहेगी. वे कह उठी थीं...."धन्य हो राम....धन्य हो हरि...आपके दिव्य दर्शन को पाकर मैं धन्य हुई. तुमने मेरी आँखे खोल दीं., जनकल्याण के लिए, सनातन धर्म की संस्थापना के लिए मैं अपना योगदान देने के लिए सहर्ष तैयार हूँ."

                                                                        ०००००    

देवों की मंत्रणा.

रात्रि का दूसरा प्रहर

उस तरफ़ राम वहाँ अकेले चिंतित नहीं थे, बल्कि स्वर्ग में बैठे समस्त देवतागण भी चिंतित थे. सभी देवगण एक स्थान पर एकत्रित होकर आपस में मंत्रणा कर रहे थे कि कोई तो ऐसा उपाय खोजा जाना चाहिए,ताकि किसी भी तरह रामजी का राज्याभिषेक न होने पाए. वे यह भी जानते थे कि एक बार राम गद्दी पर विराजमान हो गए तो वे केवल अयोध्या तक सीमित होकर रह जाएंगे. राजतंत्र का चक्रव्यूह ही कुछ ऐसा होता है कि लाख चाहने के बाद भी आदमी बाहर नहीं निकल पाता है.

हम सभी देवगण जानते हैं कि महाराज दशरथ ने एक बार नहीं, बल्कि अनेकों बार हमारे साथ मिलकर दानवों के साथ युद्ध किया हैं. हम यह भी जानते हैं कि रघुकुल अपने वचनों के निर्वहन करने के लिए अपने प्राण तक देने से भी पीछे नहीं हटता. कुछ तो ऐसा उपाय खोजा जाना चाहिए ताकि महाराज पर  वचन न निभाने का कलंक भी नहीं लगने पाए. और न ही श्रीराम जी पर पिता की आज्ञा न मानने का लांछन भी लग पाए. काफ़ी सोचने विचारने के बाद भी देवगण कोई उपाय नहीं खोज पाए थे.

एक देवता ने अपना मत रखते हुए कहा:- ऐसा भी तो किया जा सकता है कि किसी तरह माता कैकेई को याद दिलाया जाए कि महाराज ने उन्हें दो वचन दे रखें हैं. एक वरदान में वे भरत का राज्याभिषेक और दूसरे में एक निश्चित अवधि के लिए राम जी को वनवास मांग लें.

दूसरे देवता ने कहा- आपकी सलाह उचित है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि कैकेई जी अपने पुत्रमोह में रामजी को वनवास जाने की और भरत को राजगद्दी दिलाने जैसी बातें सपने में भी सोच सकतीं हैं. रामजी के प्रति उनका अनन्य प्रेम है. भले ही उन्होंने भरत को जन्म दिया है लेकिन वे उनसे बढ़कर रामजी के प्रति स्नेह रखती हैं. माता कैकेई उन्हें जी-जान से चाहती हैं और पुत्रवत व्यवहार करती हैं. फ़िर रामजी का अनुराग भी हमसे छिपा नहीं है. वे उन्हें अपनी माता कौसल्या के समकक्ष ही मानते है. रामजी का बचपन उन्हीं की गोद में हँसते-खेलते बीता है. ऐसी माता को हम अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए कुमाता कहलाने का अधिकारी नहीं बना सकते. कोई और दूसरा उपाय खोजा जाना चाहिए.

काफ़ी विचार-विनिमय की बाद भी जब कोई उपाय खोजा नहीं जा सका तो सभी देवगणॊं ने एक सामूहिक निर्णय लिया कि भगवान शेषशायी विष्णु जी के शरण में जाना चाहिए. वे ही हमें कोई उपाय बतलाएंगे.

ऐसा निर्णय लेकर वे परमपिता ब्रह्माजी सहित अनेक देवतागणों, मुनियों और गंधर्वों के क्षीरसागर जा पहुँचे और स्वस्तिवाचन करते हुए चतुर्भुधारी भगवान श्री विष्णु जी की सामूहिक प्रार्थना करने लगे -"-हे देवताओं के स्वामी !...भक्तों को सुख देने वाले, आपकी जय हो.....हे गो-ब्राह्मणॊं के हितैषी,...दानव द्रोही.....लक्ष्मी जी के स्वामी..आपकी जय हो..... हे देवता और पृथ्वी के पालक आपकी माया अद्भुत है, जिसे देवतागण भी नहीं जान पाते हैं....आप सहज ही कृपालु और दीनबंधु हैं......हम पर कृपा करें.

हे अविनाशी.... सबके हृदय में निवास करने वाले....सर्व व्यापक... परमानंद स्वरूप,  आपकी जय हो. आप इंद्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित और मुक्ति देने वाले हैं. आपको मुनि-वृंद प्रेम से रात-दिन ध्यान करते है और आपके गुणानुवाद में रमते रहते हैं, हे सच्चिदानंद भगवान... आपकी जय हो.

हे पाप नाशक..!. हम पर कृपा करें,. हम न तो भक्ति जानते हैं और न ही पूजा. हे..भव भय हरन करने वाले, मुनियों को आनंद देने वाले, विपत्तियों को नाश करने वाले….हम समस्त देवतागण, मन, वचन और कर्म की चतुराई को त्याग कर आपकी शरण में आए हैं.”.

हे सुन्दर गुणॊ के धाम ! सुखों के पुंज ! हे नाथ ! हम आपके चरण-कमलों में सादर प्रणाम करते हुए प्रार्थना करते हैं कि रावण के अत्याचारों से सारे संसार को मुक्त करवाएं. आपसे भला क्या छिपा है कि उस दुर्दांत रावण ने सूर्य, चन्द्रमा, वायु, वरूण, कुबेर, अग्नि, यमराज सहित अनेक देवताओं को अपने कारावास में कैद कर रखा है, आप उन्हें शीघ्रताशीघ्र मुक्त करवाने का कोई उचित मार्ग सुलभ करवाएं..

हे देवों के देव.!. आपने उस दानव के नाश के लिए महाराज दशरथ के यहाँ पुत्र-रूप में जन्म लिया है. कल प्रातः श्रीराम जी का राज्याभिषेक होना सुनिश्चित हुआ है. यदि वे अयोध्या के राजा के रूप में राजगद्दी पर विराजमान हो जाते हैं तो फ़िर वे उस दुर्दांत का वध करने शायद ही निकल पाएंगे. अतः हे प्रभु ! कोई ऐसा उपाय खोज निकालिए कि राम जी राजकाज के चक्रव्हूह में उलझ कर न रह जाएं....हे प्रभु..!..इस आसन्न संकट से हम सभी को उबारिए...हमारे संकटों दूर करें”...

तभी श्री हरि ने सभी को सम्बोधित करते हुए कहा- "हे समस्त देवताओं..ऋषि...मुनियों ....मैं आप लोगों की प्रार्थना से अति प्रसन्न हुआ हूँ. आसन्न संकट से मुक्ति पाने के लिए आपको भगवती सरस्वती जी के शरण में जाना होगा. वे ही आपकी सहायक हो सकती हैं"

समस्त देवताओं ने श्री हरि को सुना और अब वे सामूहिक रूप से देवी भगवती सरस्वती को नमन करते हुए उनका आव्हान करने लगे.

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता 

या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना 

या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता ।

सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा 

 

( जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फ़ूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्रा धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसम ग्रहन किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु, एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा सदा पूजित हैं, वहीं संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली सरस्वती हमारी रक्षा करें.)

 

 

 

               शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमाम् आद्यां जगद्व्यापिनीम्।

वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌॥

हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीम् पद्मासने संस्थिताम्‌।

वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥

 

हे माँ सरस्वती...आप श्वेतरूपा है जो ब्रह्मविचार की परम तत्व है, आपकी कीर्ति सारे संसार में फ़ैल रही है. आपके के एक हाथ में वीणा, दूसरे में पुस्तक (वेदादि) रहती हैं. तीसरे हाथ से आप भक्तों को अभय देती है तथा चौथे हाथ में स्फ़टिकमणिम की माला रहती है. हे कमल के आसन पर विराजमान भगवती....हे सर्वसाधारण और मूढ़ लोगों को बुद्धि प्रदाता भगवती ....हम आपकी शरण में आए हैं. हम सब आपकी वन्दना करते हैं. आपको प्रणाम...बार-बार प्रणाम....आप हम पर दया करें और शीघ्रता से प्रकट होकर हमारी मनोमामना पूरी करें.

 

देवों की प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवती सरस्वती जी प्रकट हुईं और देवताओ से कहा- "मैं आप लोगों की प्रार्थना से अत्यन्त ही प्रसन्न हुई हूँ. कृपया बतलाएं कि कौन-सा संकट आप लोगों पर आया हुआ है और मैं उस संकट को कैसे दूर करने में सहायक सिद्ध हो सकती हूँ, कृपया मुझसे कहें."

 

"हे देवी भगवती.!....हें हंस रूढ़ा देवी भगवती..!.आपसे कुछ छिपा नहीं हैं. आप सब भली-भांति जानती ही हैं कि हम देवतागण किस मनोरथ को लेकर आपकी शरण में आए हैं. आप कृपया इस आसन्न संकट से हमें बचाइए...हे भगवती दयापूर्वक हमारी सहायता करें".

 

"हे देवताओं.!..जब तक आप अपना मनोरथ मुझसे खुलकर नहीं कहेंगे, मैं किस विधि आप लोगों की सहायता कर सकूँगी? कृपया स्पष्टता से कहें....मैं वह कारण जानना चाहती हूँ जिससे आप समस्त देवगण संकट से ग्रसित हुए हैं"

 

"हे देवी.!...कल प्रभु श्रीराम जी का राज्याभिषेक होने जा रहा है. हम सभी चाहते हैं कि आप कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे उनका राज्याभिषेक न होने पाए"

 

भगवती स्रस्वती ने देवताओं से कहा- "हे समस्त देवताओं.!..स्वर्ग जैसे उच्च स्थान पर निवास करने वालों की बुद्धि तो सदा सतकर्मों में लगी रहती है. वे सदा से ही कल्याण करने की सोचते हैं. ऐसे उच्च स्थान पर रहने के बाद आप लोगों की सोच इतनी निकृष्ट होगी, मुझे आज पता चला. हे देवताओं !, मुझे तो आप लोगों की ओछी बुद्धि पर भी तरस ही आ रहा है. रामजी का राज्याभिषेक होना तो हर्ष का विषय है, बजाय प्रसन्न होने के आप श्रीराम के मार्ग में बाधक बनने की क्यों सोच रहे हैं?. आप ये सब कैसे सोच सकते हैं?.

 

"मुझे तो आश्चर्य इस बात पर भी हो रहा है कि आप लोग कितने स्वार्थी हैं कि श्रीराम को राजा बनते नहीं देखना चाहते. आखिर ऐसी कौन-सी विवशता है, जिसने आप लोगों को ऐसा करने के लिए उकसाया है?."सरस्वती जी ने देवताओं से कहा.

 

"नही देवी...नही....ऐसा मनगढंत लांछन लगाकर हमें लज्जित मत कीजिए. हम कोई क्षुद्र-विचार लेकर आपके सन्मुख उपस्थित नहीं हुए हैं, बल्कि हम जगत के कल्याण की भावनाओं को लेकर आपके पास आए हैं. जैसा की आप जानती हैं कि रावण का अत्याचार इतना बढ़ गया है कि उसने देवाधिदेव महादेव जी से प्राप्त शक्तियों के बल पर हम देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया है. इतना ही नहीं, वह दुष्ट ऋषि-मुनियों तक की तपस्या में भी विघ्न डालता है. जब वे यज्ञादि करते हैं तो हवनकुण्ड में रक्त और मांस, मल-मूत्र डालकर उनका यज्ञ विध्वंस कर देता है. उसने सूर्यदेव, चन्द्र्देव, वायुदेव को अपने बंदीगृह में कैद कर रखा है. उसकी आज्ञा के बगैर वे कोई कार्य संपादित नहीं कर पाते. और तो और उसने शनिदेव को अपने कारावास में उलटा टांग रखा है. उसकी अपरिमेय शक्ति से सारी सृष्टि में हाहाकार मचा हुआ है. ऐसे दुष्ट का अब संहार होना अति आवश्यक हो गया है.

 

"उसके अत्याचारों से त्रस्त होकर हम समस्त देवताओं ने भगवान श्री हरि के शरण में जाकर प्रार्थना की थी कि वे अपनी माया रचकर उस दुष्ट का नाश करें. उन्होंने प्रसन्न होते हुए घोषणा की थी कि वे शीघ्र ही दशरथ जी के यहाँ पुत्र रूप में जन्म लेंगे और रावण के आतंक से सारी सृष्टि को मुक्ति दिलाएंगे." .

 

हे देवी भगवती.! हे मां शारदे ! .श्री हरि मनुष्य रुप में महाराज दशरथ के यहाँ जन्म ले चुके हैं. उनका विवाह जनकनंदिनी सीता जी से भी हो चुका है और कल उनका राज्याभिषेक होने जा रहा है. यदि रामजी और सीता जी राजकाज में उलझ गए तो फ़िर उस दुष्ट का वध करने कौन आगे आएगा?. हममें से किसी एक में भी इतनी शक्ति नहीं है कि हम उस अत्याचारी का बाल-बांका भी कर सकें. यदि रामजी, मात्र आयोध्या के होकर रह जाएंगे तो फ़िर श्री हरि का कथन मिथ्या हो जाएगा.

 

हम सभी इसी सद-इच्छा को लेकर आपकी शरण में आए हैं कि आप अपनी माया से माता कैकेईजी की बुद्धि को भ्रष्ट कर दीजिए.वे रामजी के लिए बनवास और भरत को राजगद्दी दिए जाने का वरदान महाराज दशरथ जी से मांगे. वचनबद्ध महाराज दशरथ वरदान को पूरा करते हुए रामजी को बनवास की आज्ञा देंगे और इस तरह दुष्ट रावण मारा जा सकेगा. हे देवी भगवती आप हमारी सहायक बने. हम पर कृपा करें".

 

एक स्वर में समस्त देवताओं ने अपनी व्यथा-कथा देवी सरस्वती जी को कह सुनाया.

 

"हे देवताओं...मेरी बात को ध्यान से सुनें. माँ कैकेई के रोम-रोम में श्री हरि का वास है, अतः मुझमें इतना साहस नहीं है कि मैं उनकी मति भ्रष्ट कर पाऊँगी~...हाँ... मैं उनकी दासी मंथरा की बुद्धि को जरुर प्रभावित कर सकती हूँ. कैकेई जी उसका कहा मानती हैं. वह कुछ ऐसा त्रिया-चरित्र करेगी जो कैकेई जी की मति को फ़ेर देगी. अतः आप निश्चिंतता से अपने-अपने धाम को जाएँ..आपका काम हो जाएगा". कहते हुए देवी सरस्वती जी अंतर्धान  हो गईं.

 

सारे देव अपना मनोरथ शीघ्र ही सिद्ध होगा. आशान्वित समस्त देवाता अपने-अपने लोकों में लौट गए.  सरस्वतीजी से आश्वासन पाकर सभी देवता निश्चिंत हो गए थे. उन्हें पूरा विश्वास हो चुका था, अब हमारे मनोरथ अब शीघ्र ही पूरे होंगे.

 

                                                                ०००००

 

 

नाम मंथरा मंदमति, चेरी कैकेई केरि.

 

रात्रि का चौथा प्रहर बीता ही था कि मंथरा की अचानक नींद खुल गई. उसने सोचा, जल्दी उठकर करेगी भी क्या?. नींद आँखों से कोसों दूर थी. तभी उसके मन में एक विचार आया कि क्यों न छत पर चलकर अयोध्या पुरी को देखा जाए. कई माह बीत गए छत पर गए हुए. विचार तो उत्तम था लेकिन अपनी झुकी हुई कमर, ऊपर से पीठ पर बड़ा-सा कूबड लेकर वह छत पर कैसे चढ़ पाएगी? वह अपने आपको तौलने लगी थी ? फ़िर हिम्मत बटोर कर उसने छत पर जाने का मानस बना ही लिया.

 

किसी तरह से लाठी का सहारा लेकर वह छत पर जा पहुँची. तभी उसने देखा. सब ओर बहुमूल्य ध्वजा-पताका फ़हर रही थीं. राजमार्गों पर चंदन मिश्रित जल का छिड़काव किया जा रहा है. ब्राह्मण स्वस्तिवाचन कर रहे हैं. नाना प्रकार के वाद्य-यंत्रों की मधुर ध्वनि से पुरी गुंजायमान हो रही है. वेदपाठी ब्राह्मणॊं की ध्वनि गूंज रही है. असंख्य हाथी-घोड़े राजमार्ग पर कतार से खड़े हैं. यत्र-तत्र-सर्वत्र जन समुदाय उमड़ कर हर्ष ध्वनि करते हुए, राम के जयकारे लगाए जा रहे है. तो कभी महाराज दशरथ का नाम उच्चारित कर जयकारा लगाया जा रहा है.

 

वह मन ही मन सोचने लगी थी कि आज से पहले इतनी सुबह उसे ऐसा मोहक दृष्य कभी दिखाई नहीं दिया. जरुर कोई न कोई विशेष पर्व होगा या फ़िर कोई बड़ा उत्सव मनाया जा रहा होगा?...फ़िर उसने अपने दिमाक पर जोर डालकर सोचा, ऐसा तो कोई बड़ा पर्व भी नहीं है. जरुर कोई न कोई विशेष बात तो होनी चाहिए, तभी तो इतना ताम-झाम किया जा रहा है.

 

तभी उसकी नजर रामजी की धाय पर पड़ी. प्रसन्नवदन धाय का चेहरा खिला हुआ था. उसने शरीर पर रेशमी परिधान पहन रखे थे और वह फ़ूलों की माला गूँथ रही थी.

 

मंथरा जानना चाहती थी कि आखिर ये सब क्यों और किस निमित्त से किया जा रहा है?.

 

उसने धाय को आवाज देते हुए पास बुलाया और पूछा:- "बहन.!..क्या तुम बता सकती हो कि पुरी में आज कौन-सा उत्सव मनाया जा रहा है?. संपूर्ण पुरी को किसी दुल्हन की तरह क्यों सजाया जा रहा है?. जहाँ देखों वहाँ भीड़ ही भीड़ नजर आ रही है?. महाराज दशरथ जी अत्यन्त प्रसन्न होकर क्या करने जा रहे हैं?. मुझे विस्तार से बतलाओ".

 

धाय ने व्यंग्यात्मक चुटकी लेते हुए कहा:- "अगर तुम बुरा न मानों, तो एक बात कहूँ. मुझे नहीं लगता कि तुम पुरी में रह रही हो? पुरी का बच्चा-बच्चा जानता है कि कल क्या होने जा रहा है. मुझे तो आश्चर्य हो रहा है कि माता कैकेई की खास दासी होने के नाते तो तुम्हें सारी बातें मालुम होनी चाहिए थी?.

 

धाय की बातें सुनकर मंथरा के तन-बदन में आग-सी लग गई थी. आँखों में क्रोध उतर आया था. प्रत्युत्तर में वह बहुत कुछ कहना चाह रही थी. लेकिन चुप रही, यह सोचकर कि यदि गुस्सा करेगी तो बात बिगड़ जायेगी. किसी तरह उसने अपने क्रोध को नियंत्रित किया और बड़ी ही विनम्रता से कहा:- "बहन...अब क्या बताऊँ... तुमसे कुछ छिपा भी तो नहीं है. एक तो बुढ़ापे का शरीर है. फ़िर स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा है. घुटनों ने भी जवाब दे दिया है. मेरा तो सारा समय बिस्तर पर ही कटता है. जब तक कहीं जाना-आना न हो,  तो कैसे पता चलेगा कि कहाँ क्या कुछ हो रहा है". मंथरा ने धाय से कहा.

 

"मुझे तो बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि माता कैकेई की सबसे चहेती दासी होने के नाते तुम्हें तो सब पता होना चाहिए था. क्या तुम्हें उन्होंने कुछ नहीं बताया?". धाय ने मंथरा से कहा.

 

 

मंथरा मन ही मन सोचने लगी थी. बात सच है कि वह उनकी चहेती दासी है. वे हर छोटी-बड़ी बात मुझे बतलाती रहती हैं. पुरी में होने जा रहे इतने बड़े उत्सव की बात अगर उसे मालुम होती तो वह मुझसे अवश्य बतलातीं. कोई बात ऐसी जरुर है जो उससे छिपाई जा रही है या जानबूझ कर बताया नहीं गया है. मुझे इस रहस्य की गहराई तक जाना होगा. ऐसा विचार करते हुए उसने चतुराई से अपनी बात कही:- "बहन !....हाँ.. यह सच है कि कि उसकी हर छोटी-बड़ी बातें मुझे मालुम रहती है. संभव है उसने मुझे बताया भी होगा. बुढ़ापे के चलते मेरी स्मरण-शक्ति भी अब साथ नहीं दे रही है. शायद भूल भी चुकी होऊँगी". मंथरा ने धाय से कहा.

 

अति उत्साही होते हुए धाय ने बतलाया कि रघुकुल तिलक श्री रामजी का कल राज्याभिषेक होगा. लगभग सारी तैयारियाँ हो चुकी हैं. बस कुछ ही समय पश्चात विधि-विधान के साथ यह समारोह शुरु हो जाएगा. तुम भी शीघ्रता से तैयार हो जाओ और इस महान उत्सव की साक्षी बनकर पुण्य लाभ कमाओ". धाय ने कहा.

 

धाय की बात सुनते ही मंथरा को लगा कि किसी ने उसे उठाकर पृथ्वी पर पटक दिया हो. उसे ऐसा भी लगा कि अनगिनत बर्र-मक्खी ने उसके शरीर पर दंश कर दिया है. सुनते ही उसके तन-मन में आग सी लग गई थी. "आश्चर्य...घोर आश्चर्य....इतना बड़ा ‍षड़यंत्र कैकेई के विरुद्ध रचा जा रहा है और उसे इसकी भनक तक नहीं लगी?"उसने मन ही मन कहा था. फ़िर उसने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा’- "बहन.!..पुरी में इस समय न तो शत्रुघ्न हैं और न ही भरत...वे तो अपने मामा के यहाँ गए हुए हैं....उनकी अनुपस्थिति में इतना बड़ा आयोजन कैसे हो सकेगा? क्या उन्हें आमंत्रित नहीं किया महाराज जी ने?. मंथरा ने जानना चाहा.

 

"नहीं ऐसी बात नहीं है बहन कि महाराज ने अपने दोनों पुत्रों की सुध नहीं ली होगी?. दरअसल बात ये है कि महाराज जी ने अपनी वृद्धावस्था को लेकर कल राजगुरु वशिष्ठ जी से बात की थी कि उन्हें अब रामजी को युवराज पद दे दिया जाना चाहिए. गुरुजी ने मुहूर्त साधकर बतलाया कि आने वाले कल के दिन पुष्य नक्षत्र है, जो सभी नक्षत्रों में श्रेष्ठ बतलाया गया है, राज्याभिषेक किया जा सकता है."

 

"मुहूर्त टल न जाए, यह सोचकर महाराजश्री ने अल्पावधि में जो कुछ भी किया जा सकता था, करने का प्रयास किया है. भरत जी का ननिहाल और रामजी की ससुराल की दूरी भी बहुत है, यदि निमंत्रण भी भिजवाते तो उन्हें आने में कम से कम एक सप्ताह तो लग ही जाता, जबकि मुहूर्त केवल कल भर के लिए ही निकला है.". धाय ने मंथरा से कहा.

 

अब जानने और समझने के लिए कुछ शेष भी नहीं रह गया था. सब कुछ जान चुकी थी मंथरा.

 

देवी सरस्वतीजी को तो बस इसी अवसर की प्रतीक्षा थी. उन्होंने मंथरा की बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया.

                                ००००००

 

 

मंथरा मन ही मन सोच रही थी- "मेरी भोली-भाली कैकेई के साथ कितना बड़ा ‍षड़यंत्र रच दिया गया और उसे उसकी भनक तक नहीं लगने दी?  वाह महाराज वाह....कैकेई को चिकनी-चुपड़ी बातॊ में उलझाए रखा और कहते रहे कि वह अन्य रानियों की अपेक्षा उससे गहरा प्यार करते हैं? महाराज के इस बनावटी नाटक को वह नासमझ अब तक नहीं समझ पायी? उसके योग्य पुत्र भरत के रहते राम का राज्याभिषेक करना, इस बात को सिद्ध करता है कि उन्होंने कैकेई के साथ छल ही किया है. मुझे जितनी जल्दी हो सके, कैकेई को आगाह करना होगा कि अभी भी समय है, समय रहते वह कुछ बड़ा कदम उठा ले, नही तो जीवन भर सिवाय पछतावे और कुछ नहीं मिलेगा."

 

"अच्छा बहन.. चलती हूँ... जाकर मुझे तैयारी भी तो करनी होगी. कहते हुए वह सीढ़ियाँ उतरने लगी थी..

 

               

                धाय की बात सुनकर मंथरा के तन-बदन में आग तो लगी ही हुई थी. गुस्से  में थरथर कांपती मंथरा       को पता ही नहीं चल पाया कि वह इतनी शीघ्रता से सीढ़ियाँ कैसे उतर          गई, जबकि ऊपर चढ़ते हुए    भगवान दिखाई देने लगे थे.

 

                तमतमाई मंथरा सीधे कैकेई के शयन कक्ष में पहुँची. देखा वह गहरी नींद में सो                रही हैं.        उसे सोता देख मंथरा का क्रोध सातवें आसमान पर जा पहुँचा. उसने उसे                 झझकोर      कर उठाया और             लगी बड़बड़ाने- "अरे..कितने आराम से सो रही है...तेरा सारा    राजपाठ-     .. सारा वैभव लुट चुका और             तुझे पता तक नहीं चल पाया?. अगर ऐसी ही सोती पड़ी रही            तो जिंदगी भर पछताने के अलावा      कुछ भी हाथ नहीं लगेगा? ..अरे        पगली....जाग...अभी भी समय है....कुछ कर..."

 

                  आँखे मलते हुए कैकेई उठ बैठीं. और कहा-"अरे...हुआ क्या है री ?, पहले बतला तो सही कि यूंहि पहेलियां बुझाते रहेगी? मैं भी तो सुनूं कि आखिर किस कारण तूने आसमान सिर पर उठा रखा है? "कैकेईने जानना चाहा था.

                                "कैकेई !....सुनेगी तो तेरा कलेजा फ़ट जाएगा ... सुन...जरा कान खोल कर ध्यान से सुन.....महाराज ने राम को अपना संपूर्ण राज्य दे दिया है. कल उसका राज्याभिषेक भी होने जा रहा है......कितनी बढ़-चढ़ कर बातें किया करती थी कि महाराज तुझे प्राणपण से चाहते हैं और तेरे बिना एक पग भी नहीं उठाते... पता नहीं कैसे तूने उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों को सच कैसे मान लिया ?. तुझ पर विपत्ति का पहाड टूट पड़ा है....और तुझे अपनी दुरावस्था का तनिक भी बोध नहीं है?....मंथरा से कैकेई से कहा.

                                "अरे....पागली...इस बात पर तो तुझे प्रसन्न होना चाहिए. बजाय प्रसन्न होने के तू शोक मना रही है?. मेरे राम राजा बनेंगे, इससे बड़ी प्रसन्नता की बात मेरे लिए और क्या हो सकती है?. सहसा उठते हुए कैकेई ने अपनी मंजुषा खोली. रुपया-पैसा, बहूमूल्य गहने और साड़ियाँ निकालकर उसे देते हुए कहा- "जीवन में आज तूने पहली बार मनभावन खबर सुनाई है....ले-..ले ये सारे गहने, रुपया पैसा और बहूमूल्य साड़ियाँ. रख ले. अपना खूब साज-सिंगार करना और मेरे साथ उत्सव में चलना न भूलना...समझी". कैकेई ने मंथरा से कहा.

                                "रहने दे...रहने दे...मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे कपड़े-लत्ते, जेवर-जाटे...मैं जैसी भी हूँ ठीक हूँ. इसी वेशभूषा में ठीक हूँ, एक दिन इन्हें पहन लेने से मैं कोई रानी-महारानी नहीं बन जाऊँगी?, मंथरा पहले भी दासी थी, आज भी दासी हूँ और कल भी दासी ही रहूँगी.. तुम मुझे निकाल भी दोगी तो मंथरा भीख मांगकर अपना पेट पाल लेगी ...लेकिन अपनी सुध कर ?...जिन भारी-भरक्म बहूमूल्य वस्तुओं को तू आज मुझ पर लुटा रही है न......एक दिन उसी के लिए तू स्वयं तरसेंगी....तब याद आएगा कि मंथरा ने सही सलाह दी थी."

                                " मैं एक बार फ़िर से तुझे चेता रही हूँ कि महाराज की प्रेम भरी लच्छेदार बातों का झुला बनाकर झूलना बंद कर दे......तू नहीं जानती.....एक मर्द को अपनी हवस मिटाने के लिए एक सुन्दर और मांसल स्त्री देह चाहिए......वह चिकनी-चुपड़ी बातों में उसे बहलाए-फ़ुसलाए रखता है. कभी वह उसके लिए स्वर्ग को धरती पर उतारकर लाने और देने की बात करता है, तो कभी चांद-तारों से उनकी मांग भर देने को कहता है,.तो कभी उसे संसार की सुंदरतम नारी बता कर उसका दैहिक और मानसिक शोषण करता है..भ्रम में पड़ी स्त्री उसकी चिकनी- चुपड़ी बातों में आकर अपना सर्वस्व लुटा बैठती है.. जिस तरह भ्रमर फ़ूल पर तब तक बैठा रहता है, जब तक उसमें पराग है...जैसे ही उसने पराग (यौवन) का पान किया, तत्काल वह पहले वाले तो छोड़ कर, दूसरे पुष्प की खोज में उड़ जाता है"

                                "अगर वे तुझसे इतना प्रेम रखते हैं तो फ़िर तुम्हारे अलावा दो-दो रानियाँ रखने का क्या औचित्य है? इतना सब कुछ होते हुए भी तेरी आँखें देख नहीं पा रही हैं. तुझ मूढ़मति को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है? बड़ी-बड़ी डींगे मारती रह्ती है कि महाराज मेरे वश में हैं तो फ़िर तेरे जाए भरत का राज्याभिषेक करने की बजाए, राम का क्यों किया जा रहा है? इतनी गहराई से समझाने के बाद भी तुझे समझ में नहीं आ रहा है?, मैं ठहरी दासी...दासी की बातों को भला तू कैसे मानेगी?

                                "अच्छा एक बात बतला....महाराज के निर्णय की जानकारी राज्य के हर छोटे-बड़े कर्मचारियों से लेकर मंत्री-महामंत्री और तो और बच्चे-बच्चों तक को मालुम हो चुकी है...दौंडी पीट-पीट कर गली-मोहल्ले तक के लोगों तक यह बात पहुँचाई जा चुकी है. इतना ही नहीं...पास-पड़ौस के राजाओं तक को निमंत्रण पत्र भेजे जा चुके हैं. अगर नहीं भेजे गए तो तुम्हारे भाई और राम की ससुराल जनकपुर में..आखिर उन दोनों ने महाराज का क्या बिगाड़ा है? क्या वे उनके राह में रोड़ा बनने वाले थे? सुमित्रा और कौसल्या राम के राज्याभिषेक का समाचार पाकर खुशी के मारे फ़ूली नहीं समा रही हैं और ब्राह्मणों और सेवक-सेविकाओं को खुले हाथॊं रुपया-पैसा आदि देकर अपनी खुशी को प्रकट कर रही हैं.. इतना ही नहीं संपूर्ण अयोध्यापुरी को दुल्हन की तरह सजाया-संवारा जा रहा है".

                                "तू भी तो इसी परिसर में रहती है न ! तुझे किसी ने आकर सूचना दी? नहीं दी न..!. तुझे इस योग्य समझा ही नहीं गया है ?. औरों की छोड़.....क्या स्वयं महाराज ने इतना सब कुछ करने के पहले तुझसे परामर्श किया था?...नहीं न...और न ही आकर तुझे बतलाना तक उचित समझा?.

                                "इसीलिए तो मैं तुझे बार-बार समझा रही हूँ कि तेरा सारा सुख-चैन-वैभव, छिनने जा रहा है. जितने ठाठ-बाट से तू अब तक रहती आयी है न...कल को तुझे राम की माता के आगे गिड़गिड़ाकर भीख मांगना पड़ेगा. क्या तू यह कर पाएगी?. अभी भी समय है, चेत जा....महाराज से अपने बेटे भरत के लिए राज और राम के लिए चौदह साल का बनवास मांग ले....भरत राजा बन जाएंगे तो पूरा जीवन ठसके के साथ बिताना? समझी पगली". मंथरा ने कैकेई के कान भरते हुए कहा.

                                "मेरे टुकड़ों पर पलने वाली एक दासी की इतनी हिम्मत कि वह अपनी स्वामिनी को दर्पण दिखलाए?...उसे ऊँच-नीच का पाठ पढ़ाए...उसे क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए की सीख देने लगे?. अरे घरफ़ोडू ,इच्छा हो रही है कि तेरी कैंची की तरह कतरनी-सी चलती जीभ को अभी और इसी समय काट कर फ़ेंक दूँ. फ़िर प्रकृति का नियम भी है कि काने (एक आँख वाले), कुबड़े प्रायः कपटी और कुचाली होते हैं. सुबह उठते ही यदि इनकी मनहूस सूरत दिख जाए, तो पूरे दिन का सत्यानाश हो जाता है." कैकेई ने कहा.

                                "हाँ...हाँ.. इसी समय काट दे मेरी जीभ....लेकिन  मुझे सच कहने से कोई नहीं रोक सकता... मैंने हमेशा से ही तेरा भला सोचा है कैकेई....जब तू इतनी सी थी न ( एक हाथ से दूसरे हाथ की कोहनी पर हथेली रखते हुए) तभी से मैंने एक माँ के कर्तव्य का पालन करते हुए तेरा लालन-पालन किया. शायद तुझे नहीं मालुम....ले वह भी सुन ले.....तुम्हारे पिता अश्वपति को वरदान प्राप्त था कि वे पक्षियों की भाषा समझ सकते हैं. एक दिन प्रातः वे तुम्हारी माता शुभलक्षणा के साथ उद्यान में टहल रहे थे, तभी उन्होंने दो हंसो को आपस में बातें करते हुए सुना. एक हंस ने अपने दूसरे साथी से कहा कि महाराज को तत्काल अपनी रानी से संबंध-विच्छेद कर उसे राज्य से निकाल देना चाहिए, क्योंकि उसे न तो अपने पति के प्रति कोई अनुराग है और न ही कोई विशेष प्रेम है और न ही उसे राज्य की कोई परवाह है.

                                हंसों की बातों को सुनकर वे मुस्कुराने लगे थे. उन्हें मुस्कुराता देख तुम्हारी माता ने उनकी मुस्कुराहट का रहस्य जानना चाहा. अश्वपति ने जो सुना था, उसे कह सुनाया और उन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया.

              वे तो तुझे भी शुभलक्षणा के साथ निष्कासित करने वाले थे. लेकिन मैंने ही बीच-बचाव करते हुए उनसे निवेदन किया कि एक राजा की पुत्री, बड़ी होकर कहाँ-कहाँ की ठोकरे खाती फ़िरेगी.? इससे आपकी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाएगी जाएगी. अच्छा होगा कि आप इस बालिका को मुझे दे दें, मैं एक माँ की तरह उसका लालन-पालन करुंगी. एक तरह से मैं तेरी मौसी-माँ ही हुई और तू राजमद में पागल होकर, उसी को धमका रही है?.....ठीक है तू मुझे माँ-मौसी का दर्जा भले ही नहीं देना चाहती हो तो मत दे, लेकिन मेरा इतना अधिकार तो बनता ही है कि तुझे सही राह दिखलाऊँ...अब उसे मानना या न मानना तेरी मर्जी पर निर्भर करता है.? मंथरा ने कैकेई को समझाते हुए कहा.

                                अपने भयावह अतीत से अब तक अनभिज्ञ थी कैकेई. "मंथरा ने जो कुछ भी कहा, सच ही कहा होगा. मैंने बालपन से लेकर यौवन की देहलीज तक आते-आते उसे ही देखा है, वह हर पल, हर घड़ी मेरी परछाई बन कर रही है. फ़िर शादी के बाद पिताजी ने उसे मेरे पिता जी ने उसे मेरा साथ ससुराल इसीलिए भी भेजा था कि मैं अनजान देश में, अनजान लोगों के बीच अकेलापन महसूस न कर सकूँ.. मुझे तो उसे धन्यवाद देना चाहिए था, लेकिन मैं उसकी भर्तसना कर रही हूँ. उसे भला-बुरा कह रही हूँ. इतना कटु अपमान सहने के बाद भी वह मेरी हितैषी बनी हुई है"

                                "मंथरा ने ठीक सोचा था. एक दासी होने के नाते उसे अपने स्वामिनी के प्रति इतना सचेत तो रहना ही चाहिए. उसने अपने कर्तव्य का भली-भांति निर्वहन ही किया है. एक तरह से वह मेरा मार्ग ही प्रशस्त कर रही है. वह मुझे मेरे कर्तव्य-पथ पर अग्रसित होने के लिए बार-बार गुहार लगा रही है. मुझे बार-बार समझा रही है".

                                "मंथरा का सच उसका अपना सच है. उसका सच घन-संपदा, राजपाठ को लेकर है. उसके सच में यथार्थ की जगह लोभ है.....लालच है....लिप्सा है...जिससे वह चिपकी रहना चाहती है...अब इसमें उस बेचारी का क्या दोष? वह शुरु से ही राज घराने में रहती आई है...सुख-सुविधा का उपभोग करती आई है, वह भला कैसे चाहेगी कि ये सारी सुख-सुविधा उससे छिन जाए. सियार कभी शेर का शिकार नहीं करता, वह तो इस इन्तजार में रहता है कि कोई व्याघ्र शिकार करे और उसे बचा-खुचा खाने को मिल जाए..महज इसीलिए वह मेरी आड़ लेकर इतना सब करवाना चाहती है"

                                "मंथरा की सोच उसकी अपनी सोच है. मुझे राजपाठ, धन, वैभव, पद, प्रतिष्ठा से ऊपर उठकर अपने देश के बारे में सोचना होगा...सोचना होगा कि दानवों के अत्याचारों से धरती माँ कैसे मुक्त हो सकती है?...कैसे अपने सनातन धर्म को बचाया जा सकता है? इसी उद्देश्य को लेकर महाराज दशरथजी के साथ मैंने भी अनेकों बार देवराज इंद्र के अनुरोध पर दानवों के विरुद्ध युद्ध लड़ा था. सदा की तरह परिणाम हमारे पक्ष में आया, लेकिन इसका सारा श्रेय देवराज इंद्र ले गए".

                                "नहीं...नहीं.. अब ऐसा नहीं होगा. इस धर्मयुद्ध को अन्तिम परिणाम तक पहुँचाने के लिए मुझे अपने कर्तव्य-पथ पर बढ़ना होगा और राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास भेजना ही होगा. राम भी तो यही चाहते हैं".,

                                "राम और सीता स्वयं चलकर मेरे कक्ष में आए थे. दोनों का एक साथ आना इस बात का प्रमाण है कि सीता भी राम के साथ जाना चाहती है. काम की अधिकता की वजह से राम को ध्यान ही नहीं रहता कि उसने भोजन भी किया है अथवा नहीं,. वह हर पल लोगों की समस्याओं को सुलझाने में ही लगा रहता है. बचपन से ही वह अपने प्रति कुछ लापरवाह  रहा है. सीता साथ रहेगी तो मेरे राम का हर घड़ी, हर पल ध्यान रखेगी. एक पुरुष की छाया उसकी पत्नि ही होती है. सीता राम की परछाई है, जहाँ राम होंगे, वह वहीं रहना भी चाहेगी. वह कभी भी सीता के मार्ग के मार्ग में बाधक नहीं बनेगी".

                                "राम परिश्रमी है. मेधावी है. सत्याग्रही है. जब वह अपने किसी काम में व्यस्त होगा, तो सीता उसके माथे पर चू आए श्रमसीकर को अपनी मोहक मुस्कान बिखेरती हुई, अपने आँचल से पोंछेगी तो वह अपनी थकान भूल जाएगा".

                                "सीता और राम को वन जाता हुआ देख, लक्ष्मण भी राजभवन में एक पल को भी नहीं रुकेगा. वह भी उन दोनों के साथ जाने की हठ करेगा. अंतोगत्वा वह उसमें सफ़ल भी हो जाएगा. लक्ष्मण का साथ होना माने एक परम संतोष का होना हुआ. वह उन दोनों का विशेष ध्यान रखेगा".

                                "जंगल दिन में जितना सुहावना लगता है, लेकिन रात होते ही उतना ही डरावना हो जाता है. शाम के घिरते ही जंगली पशु-पक्षी अपने भोजन की तलाश में निकल पड़ते है. जंगल,जंगली पशुओं के अलावा, भयानक दानवों से भी भरा पड़ा है, राम-सीता की सुरक्षा के लिए मेरा लक्ष्मण सदा चौकस बना रहेगा. वह उनकी रखवाली करता रहेगा. अतः लक्ष्मण को उनके साथ जाना ही चाहिए....उसमें इतना बल है कि वह अच्छे से अच्छे बलवान और भयानक राक्षसों को मौत के घाट उतार सकता है."

                                "सरयू के उस पार पूरे दक्षिण सहित अन्य स्थानों पर दुष्ट रावण ने अपना सामाज्य फ़ैला रखा है. निश्चित ही वहाँ अनगिनत मायावी दावनों की भरमार होगी, जो राम के मार्ग को अवरुद्ध करने की चेष्टा करेंगे. उनको समूल रुप से समाप्त करने के लिए चौदह वर्षपर्याप्त है, इससे एक दिन भी कम नहीं. मंथरा ने भले ही चौदह साल का गणित यह सोचकर लगाया होगा कि इन सालों में लोग राम को भूल जाएंगे, जबकि इसके उलट होगा, जब राम के पराक्रम की जानकारी अयोध्या  के वासियों तक पहुँचेगी, तो वे उसे कैसे भूल पाएंगे... मैं भी तो यही चाहूँगी हूँ कि दानवों के संहार का सारा श्रेय केवल और केवल राम को ही मिले. अतः मुझे वर में कुछ विशेष प्रावधान जोड़ने होंगे, ताकि राम वनगमन के समय किसी अन्य राज्यों का आश्रय न ले सके. वह उनकी मदद का आग्रही न बन सके".

                                "घने जंगलों के बीच ऋषि-महर्षि, तपस्वी भी रहते हैं. उनके पास ज्ञान का अथाह सागर है. उन्होंने अनेको दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का अनुसंधान किया है. अतः राम को चाहिए कि वह उन तमाम ज्ञानियों से मिले और उनके सानिंध्य में रहकर उन दिव्यास्त्रों को प्रयोग में लाना सीखे".

                                "वनों में अनेक जातियाँ, जनजातियां निवास करती है, जिनमें अघरिया, गोंड, कंवर, हल्बा, भतरा, सबरा, कमार, वैगा. पहाड़ी कोरवा, दलित, अति दलित, कोरकु, बैगा, भारिया, कोल, किरात सहित अन्य जनजाति के लोग निवास करते हैं. ये संगठित होकर रहना नहीं जानते. अतः राम उन्हें संगठित होना सिखाएगा".

                                "ये सभी अत्यन्त ही पिछड़े हुए हैं. अपने पेट की आग बुझाने के लिए ये तीर-कमान चला कर शिकार करना तो जानते हैं., लेकिन ये नहीं जानते कि दुष्ट दानवों से लड़ने-भिड़ने के लिए तीर-कमान नहीं, बल्कि अच्छे हथियारों की जरुरत होती है".

                                "दक्षिण प्रदेश केवल घने जंगलों के लिए ही नहीं जाना जाता, बल्कि वहाँ की धरती में लोहा-तांबा-पीतल सहित अनेकों खनिज पदार्थ भी मिलते हैं, जिनसे हथियार बनाए जा सकते है. दानवों के पास अत्याधुनिक हथियार होने की वजह से ये जनजातियां उनसे लोहा नहीं ले पातीं और डरी-डरी, सहमी-सहमी सी रहती हैं. वे आपस में हिलमिल कर भी नहीं रहते. मेरा राम उन्हें संगठित करता चलेगा. राम उन जनजातियों का आत्मविश्वास तो बढ़ायेगा ही साथ में इन्हें युद्धकला में प्रशिक्षित भी करता चलेगा. उन्हें नए तरीके से जीवन जीने के लिए उनमें नए जोश का संचार करेगा. अतः मेरी पूरी कोशिश रहेगी कि राम केवल वहाँ से होकर गुजरेगा ही नहीं बल्कि उन्हें युद्धकला में पारंगत भी करता चलेगा. जो शोषित है, पीढ़ित है, वंचित हैं, दलित हैं उन्हें चैत्यन्य करता चलेगा. उनमें आत्मविश्वास पैदा करेगा. इस तरह वह शनैः शनैः अग्रसर होता रहेगा. वह उन धर्म-स्थलों के पुनर्निर्माण में भी सहायक होगा, जिन्हें दुष्ट दानवों ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है"..

                                "चूंकि सर्वांगसुन्दरी सीता राम के संग होगी, तो निश्चित है कि उनके बीच शारीरिक संबंध भी स्थापित होंगे और कुछ ही समय में उनके पीछे बच्चों की एक बड़ी सेना तैयार हो जाएगी, जो राम के अभियान को आगे बढ़ाने में परेशानियाँ खड़ा करेंगी. राम इनका उदर-पोषण करेगा कि अपने अभियान को गति देगा? अतः इसके लिए भी मुझे कुछ उपाय खोजने होंगे. अतः राम को वनवास देने के साथ ही उसे विशेष उदासी होकर चौदह वर्ष तक जीवन व्यतीत करना ही होगा".

                                "रावण कोई साधारण दानव नहीं है. उसने अपनी कड़ी तपस्या के बल से अनेकानेक शक्तियाँ प्राप्त कर ली हैं. उन्हें जनकल्याण में न लगाकर वह मानव जाति का संहार करने में लगा रखा है. इतना ही नहीं उसने अपने मद में आकर तपस्वियों सहित ‌ऋषि-मुनियों का जीना हराम कर रखा है. यहीँ तक कि उसने अपनी शक्ति के बल पर देवताओं तक को अपने अधीन कर रखा है. अपने भाई कुबेर से उसने अपार धन-संपदा ही नहीं छिना, बल्कि उसके पुष्पक विमान को भी अपने कब्जे में कर लिया है. उसने अपनी तपस्या के बल पर भोलेनाथ शिवजी से उनका दिव्य महल भी वरदान में प्राप्त कर लंका ले गया है".

                                "अपार शक्तियों से संपन्न रावण यहीं नहीं रुका बल्कि उसने स्वर्ग की अप्सराओं का शील भंग करने से भी पीछे नहीं रहा. कामवासना के अधीन होकर वह संसार की सर्वांग-सुन्दरियों को भी अपना शिकार बनाता फ़िरता है. इस दानव विशेष के संहार के लिए राम को इन चौदह वर्षो तक ब्रह्मचारी बन कर रहना होगा, तभी वे इसे मार पाएंगे".

                                काफ़ी गहन-चिंतन और मनन के बाद कैकेइ जी ने निर्णय लिया कि उसे मंथरा के बताए रास्ते पर चलकर महाराज दशरथ जी को विवश करना होगा कि वे भरत का राज्याभिषेक करें और राम को चौदह वर्षों के लिए वनवास जाने की आज्ञा दें.

                                वे सोचने लगी थीं. "इस समय संपूर्ण आयोध्या में खुशियों की बारात आकर ठहरी हुई है...अयोध्यापुरीका कण-कण आनन्द मगन होकर नाच रहा है..मुझे अपने प्रचण्ड कोप से घोर बवंडर उठाना होगा, जिससे सब तहस-नहस हो जाए, महाराज की सारी योजना पर पानी फ़िर जाए? इस अभियोजन को सफ़ल बनाने के लिए राम ने स्वयं होकर मुझे आमंत्रित किया है. यह सच है कि संपूर्ण धरती से रावण के आंतक को समाप्त करने के लिए उसे बनवास पर भेजना ही होगा. दुनिया चाहे मुझे कितना ही धिक्कारे.. भला-बुरा कहे...मुझे खलनायिका कह कर पुकारे,....इस धरती को बचाने के लिए, अपने सनातन धर्म को बचाने के लिए मुझे घोर अपमान का हलाहल भी पीना पड़े, तो मुझे सहर्ष पीना ही होगा....फ़िर एक क्षत्राणी होने के नाते मेरा अपना कर्तव्य बनता है कि मुझे अपने प्राणॊ के सहित कुछ और भी दांव पर लगाना पड़े, तो लगाना होगा".

                                "मैं स्वयं महाराज दशरथ जी की सारथी बनकर युद्धक्षेत्र में अनेकों बात गई हूँ लेकिन हम उस दुरात्मा के उस चक्र को नहीं तोड़ पाए, जिसका केन्द्र-बिंदु रावण है. युद्ध में छोटे-बड़े दानव तो हमने मार गिराए. उनको मारना तो ठीक इस तरह हुआ, जैसे घास-फ़ूंस साफ़ कर देने के बाद, एक हल्की सी बरसात में वे फ़िर हरियल हो जाते हैं...सिर उठाने लगते हैं. और फ़िर से प्राणवान होकर और भी भीषण अत्याचार करने लगते हैं".

                                "अनेकों बार महाराज दशरथ जी देवराज इंद्र के अनुरोध पर इन दानवों से युद्ध करने गए. छोटे-मोटे युद्धों में विजय श्री मिली भी, लेकिन इसका सारा श्रेय तो देवराज इंद्र लूट कर ले गए, जबकि विजयश्री की माला उनके गले में डाली जानी चाहिए थी, लेकिन नहीं?. अबकी बार मैं ऐसा नहीं होने दूँगी. अबकी सारा श्रेय, मैं अपने पुत्र राम को दिलाना चाहूँगी". गंभीरता से सोच रही थीं कैकेई.

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                                "मंथरे....तेरा कहा सच है. तूने मुझे सही समय पर चेताया है. अब मैं हर हाल में युवराज पद पर भरत का अभिषेक करवाऊँगी और राम को वन भिजवाऊँगी. परन्तु मैं कोई ऐसा उपाय नहीं जानती कि किस तरह मैं अपना अभिष्ठ प्राप्त कर सकूँ  "कैकेई ने मंथरासे कहा.

                                "हे केकयनन्दिनी ! निश्चित ही मैं ऐसा उपाय बतलाऊँगी कि भरत राज्य प्राप्त कर सकेंगे. तुम्हें याद है अथवा नहीं, मैं नहीं जानती लेकिन स्मरण दिलाने के लिए उस घटना को कह सुनाती हूँ. पूर्वकाल की बात है. दण्डकारण्य के वैजयन्त नगर में शम्बर नाम का एक मायावी असुर रहता था. उसके अत्याचारों से धरती कांप-कांप उठती थी. वह मायावी असुर संग्राम में घायल सैनिकों को सोता हुआ पाकर उठाकर ले जाता था और उन्हें मार कर खा जाता था. उस भयंकर मायावी असुर से युद्ध करने के लिए देवराज इंद्र ने महाराज दशरथ जी से सहायता मांगी. महाराज और असुर के बीच भयानक संग्राम हुआ. अपनी हार नजदीक देख उसने महाराज पर अपनी माया का जाल बिछाया और भयंकर शस्त्रों से प्रहार करते हुए उन्हें मरन्नावस्था तक पहुँचा दिया था. संयोग से तुम महाराज की सारथी बनकर रणक्षेत्र में गई हुई थीं. घायल महाराज के रथ को लेकर तुम अन्यत्र ले गईं और उनके प्राणॊं की रक्षा की थी. महाराज ने तुम्हारी वीरता को और उनके प्राणो को बचाए जाने से प्रसन्न होकर तुमसे दो वर मांगने का आग्रह किया था. फ़िर कभी जरुरत पड़ने पर मांग लूँगी यह कहकर तुमने उनसे प्राप्त दो वरों को अपने पास सुरक्षित रख लिया था. आज उन दो वरदानों को मांगने का समय आ गया है. पहले वर में तुम भरत का राज्याभिषेक और दूसरे में राम को चौदह बरस का वनवास मांग लो". मंथरा ने परामर्श देते हुए कहा.

                                "मंथरा...भरत के लिए राज्याभिषेक की मांग करना तो उचित है, लेकिन राम को चौदह साल का बनवास मांगना मुझे कदापि उचित प्रतीत नहीं होता. चौदह साल बहुत होता है. हाँ कुछ समय के लिए तो मैं उन्हें वन भिजवा ही सकती हूँ". कैकेई ने मंथराके मन को टटोलते हुए कहा.

                                "कैकेई.... हं..हं हं....भूल से भी कम समय की मांग मत कर बैठना. शायद तूझे नहीं मालुम कि चौदह साल के वनवास का समय मैंने काफ़ी सोच-समझ कर रखा है. चौदह साल का बीतना माने एक युग का बीतना होता है”..

                                "शायद तुमने जंगल नहीं देखा...और न ही जंगल की भयावहता को तुमने कभी महसूस किया है और न ही कभी तुम्हारा सामना कभी हिंसक पशुओं से हुआ है. जंगल में रहकर एक दिन काटना भी कठिन होता है. जंगल में एक दिन बिताना मानो एक वर्ष काटने के बराबर होता है. चौदह साल में पांच हजार एक सौ दस दिन होंते हैं, जो त्रेतायुग के सालों से कहीं अधिक है. माने एक युग बीत चुका होगा. तब तक लोग राम को भूल भी चुके होंगे. इतने लंबे समय के बाद कोई उसे याद भी नहीं रख पाएगा कि राम, महाराज के ज्येष्ठ पुत्र हैं. इस बीच तुम्हारे भरत का राज्य सुदृढ़ हो जाएगा. प्रजा वश में हो जाएगी और वे आजीवन राज्य का उपभोग कर सकेंगे. "मंथरा ने चहकते हुए कहा.

                                "चलो मान लिया कि चौदह साल ठीक रहेगा, लेकिन मुझे किस तरह की नीति बनानी चाहिए, इस बारे में भी कुछ बतलाओ" -कैकेई ने मंथरा से जानना चाहा.

                                "बहुत ही सरल उपाय है..जैसा-जैसा मैं बतलाती हूँ ...वैसा-वैसा ही तुम करना.... सारे आभूषण उतार कर यहाँ-वहाँ बिखरा दो और राजसी पोषाक उतार कर, मैले-कुचैले वस्त्र धारण कर लो. अपना जुड़ा खोलकर बालों को बिखरा दो और धरती पर लोट जाओ. संभवतः महाराज जी अब आते ही होंगे. तुम सदा से ही बन-ठन के रहती आयी हो. तुम्हें इस दशा में देखकर वे कारण जानना चाहेंगे..तुम्हारी लटों को संवारते हुए कारण जानना चाहेंगे, लेकिन तुम उनके हाथॊं को झटक देना. अपने शरीर को छूने भी मत देना. वे बार-बार तुमसे नाराज होने का कारण जानना चाहेंगे, लेकिन तुम उस तरह का अभिनय करना जैसे कोई कुद्ध नागिन फ़ुंसकारती है. तुम उनकी ओर आँख उठाकर भी मत देखना. अपने क्रोध को तब तक बनाए रखना जब तक तुम्हारा मनोरथ सिद्ध न हो जाए. ध्यान रहे सब काम बड़ी सावधानीपूर्वक करना...समझीं". अच्छा तो मैं अब चलती हूँ. कहकर मंथरा अपनी लाठी को टेकते हुए कैकेई के शयन-कक्ष से बाहर निकल गई.

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                                राज्याभिषेक की सारी तैयारी करते-कराते महाराज दशरथ जी को पता ही नहीं चल पाया कि रात बीत चुकी है. और प्रातःकाल होने को है.

                                प्रतिदिन की तरह सूरज आज भी ऊगा. कक्ष से निकल कर उन्होंने अपने कुलदेवता को नमस्कार किया. देखा. सूरज तो ऊगा लेकिन कल जैसा उसमें तेज नहीं था. निस्तेज सूरज को देखकर उनके मन में शंका का बीज प्रस्फ़ुटित होने लगा था. समझ गए कि आज कोई न कोई अनहोनी जरुर घटेगी. अनहोनी की कल्पना मात्र से उनका शरीर शिथिल होने लगा था. सारा उत्साह जाता रहा था. उन्होंने सूरज को प्रणाम किया और फ़िर मन ही मन ही प्रार्थना करने लगे- "हे ईश्वर..अपनी कृपा बनाए रखना..आज मेरे ज्येष्ठ पुत्र राम का राज्याभिषेक होने जा रहा है. किसी भी प्रकार की विघ्नबाधा उत्पन्न नहीं होनी चाहिए. सभी काम सुचारु रूप से संपन्न हो जाना चाहिए. हे समस्त देवताओं ! इस पुनीत कार्य को सफ़लता पूर्वक संपन्न करवाने में मेरी सहायता करें". सूर्यदेव को नमस्कार करते हुए उन्होंने मन ही मन प्रार्थना करते हुए कहा था.

                                अपने कुलदेवाता सूर्य की प्रार्थना करने के बाद उन्होंने यज्ञशाला में उपस्थित पुरोहितों से कहा’- "राज्याभिषेक से संबंधित जो-जो कार्य किए जाने चाहिए, उन्हें आप यथा शीघ्र पूरा करें. मैं स्नानादि करने के बाद शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ". कहकर वे कैकेई के कक्ष की ओर बढ़ चले.

                                रास्ता चलते वे एक विचित्र प्रकार की शिथिलता महसूस कर रहे थे. मन में कई अनिष्टकारी विचार सहसा उत्पन्न होने लगे थे. शंका-कुशंका की कंटीली बेल उनके मन के आँगन में तेजी से फ़ैलने लगी थी. चाल चलते समय उनके पग सधे हुए भी नहीं पड़ रहे थे. जैसे-तैसे उन्होंने अपने आपको संभालने की कोशिश की और लड़खड़ाते कदमों से आगे बढ़ने लगे.

                                प्रवेश द्वार पर उपस्थित प्रतिहारी से उन्होंने जानना चाहा कि कक्ष में कैकेई दिखाई नहीं दे रही हैं..क्या तुम बता सकती हो, वे इस समय कहाँ पर होंगी?"

 

                                प्रतिहारी ने महाराज को प्रणाम निवेदित करते हुए बतलाया कि वे इस समय अत्यन्त ही क्रोधित है और वे कुछ समय पहले कोपभवन की ओर दौड़ी हुई गईं हैं.

 

कोपभवन पुनि सकुचेउ राऊ

             

                                कोपभवन का नाम सुनते ही महाराज के शरीर में कंपन होने लगा था. गला सूखने लगा था..किसी अज्ञात भय में वे घिरने लगे थे. साँसे अनियंत्रित होने लगी थी...वे मन ही मन कह उठे- "हे भगवन...अब न जाने कौन-सी विपत्ति आने वाली है?..पता नहीं, अचानक कैकेई को क्या हो गया है?

                                डरते-डरते उन्होंने कोपभवन में प्रवेश किया.

                                दो कदम भी नहीं चल पाए होंगे कि उन्होंने एक पायल को पड़ा देखा, जो उनकी प्राणप्रिया कैकेई की थी. उसे उठाते हुए उन्होंने सोचा, शायद पैर में से निकल गई होगी. चार कदम आगे बढ़ भी नहीं पाए थे कि दूसरी पायल दिखाई दी. झुककर उन्होंने उसे उठाया और आगे बढ़ने लगे. देखते क्या हैं कि जगह-जगह अनेकानेक आभुषण यत्र-तत्र बिखरे पड़े हुए थे. थोड़ा और आगे बढ़ने पर उन्होंने कीमती वस्त्रों को भी बिखरा हुआ पाया. समझ गए. समझने में तनिक विलंब भी नहीं लगा कि किसी बात को लेकर कैकेई रुष्ट हो गई है. आखिर किस बात को लेकर वह रुष्ट हुईं होंगी, वे नहीं जानते थे.

              अपनी प्राणप्रिया कैकेई के साथ उन्होने एक लंबा जीवन जिया है. उसे किसी बात पर कभी रूठते नहीं देखा है. उसे कभी क्रोधित होते हुए भी नहीं देखा है..जब-जब भी वे उसके कक्ष में पहुँचे हैं, उसे सदा मुस्कुराते हुए स्वागत करते ही पाया है. राजकाज के कामों को लेकर वह मुझे बराबर सहयोग देते हुए उचित सलाह ही देती आयी हैं. बड़े-से बड़े गंभीर मसलों को वह चुटकी बजाते ही हल कर दिया करती थीं. एक धीर-वीर गंभीर स्त्री का अचानक रुष्ट हो जाना समझ से परे है. वे समझ नहीं पा रहे थे कि अचानक उसे ऐसा क्या हो गया है, जिसकी वजह से उसे क्रोधित होना पड़ा है? किसी ने उसका अपमान तो नहीं कर दिया ? कही किसी ने उसका दिल तो नहीं दुःखा दिया?. वह तो अपनी सभी बहनों की चहेती रही हैं. मुझे नहीं लगता कि ऐसा कुछ हुआ होगा".

                                "विधाता ने स्त्री को बनाया जरुर है, लेकिन वे भी उसे संपूर्णता के साथ समझ नहीं पाए, फ़िर मैं तो एक आम आदमी हूँ. मैंने सदा से ही उसे अपना हितैषी ही पाया है. कदम-कदम पर उसे अपना सहयोगी ही पाया है. राजकाज में दक्ष विदुषी कैकेई ने बड़ी से बड़ी समस्याओं का निदान चुटकी बजाते ही हल कर दिखाया है. मुझे नहीं लगता कि राम के राज्याभिषेक को लेकर वह कॊई बखेड़ा खड़ा करेंगी. फ़िर राम तो उसे सदा से प्रिय रहे हैं."

                                "मैं सदा से ही कैकेई का हास्ययुक्त स्वरूप  देख्ता आया हूँ. उसे हमेशा ताजे गुलाब के फ़ूलों-सा मुस्कुराता हुआ देखता रहा हूँ. कभी मैंने उसे क्रोधित होते हुए नहीं देखा...उसे सदा से ही उत्साही देखा है. सारे आभुषणों को उतार फ़ेंकना तो यही सिद्ध करता है कि उसके मन पर गहरा आघात पहुँचा है. किस बात को लेकर वह रूठी है, कहा नहीं जा सकता."

                                "संभव है राम के राज्याभिषेक को लेकर वह मुझसे नाराज है. नाराजी का कारण भी तो मैं ही हूँ और कोई दूसरा नहीं है. मैंने न तो उसे इस शुभ समाचार से अवगत कराया और न ही उससे मंत्रणा ही की थी....शायद यही कारण होगा उसके रुष्ट होने का." सोचने लगे थे महाराज दशरथ.

                                कैकेई के कक्ष में बढ़ते कदम अचानक रुक-से गए थे. एक बारगी लगा कि पैरों की शक्ति समाप्त हो चुकी है. गला सूखने लगा था. घबराहट अलग बढ़ गई थी. कैकेई का सामना कैसे कर पाएँगे? उसके क्रोध को कैसे झेल पाएंगे? उसे कैसे मना पाएँगे? राज्याभिषेक की प्रक्रिया प्रारंभ होने का समय हो चला है. यदि वे इसी तरह खड़े रह गए, तो अनर्थ हो जाएगा. उन्हें हिम्मत रखनी ही होगी, परिणाम चाहे उनके पक्ष में हो अथवा नहीं....कैकेई से मिलना ही होगा. उसके मन में क्या-कुछ चल रहा है, जानना ही होगा?. जो भी हो. परिस्थितियों का सामना तो मुझे ही करना है".

                                उन्होंने किसी तरह अपनी बिखरी हुई हिम्मत को बटोरा और धीरे-धीरे चलते हुए वे कैकेई के समीप जा खड़े हुए. आहिस्ता से झुकते हुए उन्होंने कैकेई की बिखरी हुई लटॊं को संवारते हुए, संयत स्वरों में कहा:-"हे प्राण प्रिये...आज का दिन तो खुशियाँ मनाने का है. सजने-संवरने का है और तुम इस तरह, बिना कोई कारण बतलाये, धरती पर पड़ी हुई हो? ऐसा कौन-सा अपराध मुझसे बन पड़ा है, जिसके कारण तुम रुठी हुई हो?.

                                हे प्राण-वल्लभा.!..तुम जब तक अपने मन की पीड़ा से मुझे अवगत नहीं कराओगी, मैं उसे कैसे दूर कर पाऊँगा"...वे आगे और कुछ बोल पाते कि कैकेई का क्रोध सातवें आसमान पर जा पहुँचा.

                                महाराज के हाथों को दूर झटकते हुए उसने कहा--"मुझे छूने की कोशिश भी मत करना...मैं होती ही कौन हूँ आपकी.?..मुझे बहलाने की तनिक भी जरुरत नहीं है...समझे आप.'"

                                "हे भामिनी...मुझसे क्या अपराध बन पड़ा है, मुझे बतलाओ तो सही....मैं किस तरह से तुम्हारा मनोरथ पूरा कर सकता हूँ...कह सुनाओ..."

                                "हे प्राणवल्लभा.!....हे प्रियतमा.!..इस तरह तुम्हारा गुस्सा ठीक नहीं है. तुम तो सदा से ही प्रसन्नचित्त रहती आयी हो...मेरी हर छोटी-बड़ी समस्याओं को तुम चुटकी बजाते हल करती आयी हो...मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि तुम अचानक इस तरह मुझसे रूठ सकती हो?

                                "हे कैकेईनन्दिनी..!..तुम्हारा क्रोध मुझ पर है. ऐसा तो मुझे विश्वास नहीं होता. फ़िर किसने तुम्हारा तिरस्कार किया है? किसने तुम्हारी निंदा की है? मुझसे कह सुनाओ..?."

                                "हे कल्याणी..!.आखिर तुम किस कारण से धूल भरी धरती पर लोट रही हो?"

                                "हे मेरे चित्त को मथ डालने वाली सुन्दरी..!..मेरे मन में सदा से ही तुम्हारे कल्याण की भावना रही है....फ़िर मेरे रहते हुए तुम्हें इस तरह धरती पर लोटने की क्या आवश्यकता आन पड़ी है?"

                                "हे गजगामिनी..! .क्या तुम किसी रोग से ग्रसित हो गई हो ..मैं अभी और इसी समय किसी कुशल चिकित्सक को बुला भेजता हूँ.. वे तुम्हें शीघ्र ही सुखी कर देंगे."

                                "हे कमलनयनी..!..तुम इस तरह मत रोओ...रो-रो कर तुमने अपना ये क्या हाल बना रखा है? तुम इस तरह शोक न मनाओ...मेरी तुमसे विनती है कि अपना गुस्सा थूक दो...यदि गुस्से का कारण मैं हूँ तो मुझसे कहो...हे भामिनी.!..तुम तो मुझसे कुछ कभी छिपाकर रखती भी नहीं रही हो....कल तक तो सब ठीक-ठाक था, आज अचानक क्या हो गया है तुम्हें?

                                "हे प्राणप्रिये.!..मैं और मेरे सभी सेवक तुम्हारी आज्ञा के अधीन हैं, मैं शपथपूर्वक कह रहा हूँ कि तुम्हारा जो भी मनोरथ होगा, मैं उसे तत्काल पूरा करने के लिए वचनबद्ध हूँ. कृपया अपना मनोरथ मुझसे कह सुनाओ"...

                                "हे देवी..!..तुम कहो, किसका प्रिय करना है या किसी ने तुम्हारा अप्रिय किया है? तुम्हारे उपकारी को धन-दौलत-वैभव से मालामाल कर दूँगा और अप्रिय करने वाले को कठोर से कठोर दंड दूँगा"....

                                "हे श्रमवती..!.तुम मेरे पौरुष से भली-भांति परिचित हो, अतः तुम्हें मुझ पर तनिक भी संदेह नहीं करना चाहिए. मैं अपने समस्त सत्कर्मों की शपथ खाकर कहता हूँ जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो, वही करुँगा".

                                "हे सत्यभामा.!...इस संसार में सूर्य का चक्र जहाँ तक घूमता है, वहाँ तक की सारी पृथ्वी पर मेरा अधिकार है. द्रविड़, सिंधु, सौवीर, सौरा‍ष्ट्र, दक्षिण भारत के सारे प्रदेश, अंग, वंग, मगध, मत्स्य काशी और कोसल आदि समृद्धिशाली प्रदेशों पर मेरा आधिपत्य है. इन प्रदेशों में उत्पन्न होने वाले किसी भी प्रदार्थ को चाहने की कामना हो तो मुझे कह सुनाओ...उसे शीघ्रता से बुलाकर मैं तुम्हें अभी दे सकता हूँ".

                                "हे चंद्रवदनी..!  हे सुलोचना..! अब अपने कोप को शांत करो और मुझे ठीक-ठीक बतलाओं कि किस तरह मैं तुम्हारा मनोरथ सिद्ध करुँ? सूर्यदेव के उदित होते ही जैसे घना कुहरा दूर हो जाता है, ठीक इसी प्रकार मैं तुम्हारे समस्त कष्टॊं का निवारण कर दूँगा. अब अपना क्रोध त्याग दो". महाराज दशरथ ने अनेकों प्रकार की विनती करते हुए कैकेई से कहा.

                                महाराज दशरथ को कामदेव के बाणॊं से पीड़ित तथा कामवेग से वशीभूत देखकर कैकेई को पक्का भरोसा हो गया था कि अब महाराज से वह सब कुछ करवाया जा सकता है, जिसके लिए मुझे इतना बड़ा अभिनय करना पड़ा है.

                                जिस तरह मकड़ी जाल बुनकर, एक कोने में बैठकर अपने शिकार के फ़ंसने की राह तकती रहती है. जैसे ही कोई कीड़ा-मकोड़ा उसके जाल में आकर उलझ जाता है, वह लपक कर आती है और उस कीड़े का खून तब-तक चूसते रहती है, जब तक वह प्राणहीन नहीं हो जाता. ठीक इसी तरह महारानी कैकेई ने देखा कि महाराज अब अपने ही बनाए वाग्जाल में बुरी तरह फ़ंस चुके हैं. इसी अवसर की प्रतीक्षा में थीं कैकेई. वे जान गईं कि यही उचित अवसर है जब मैं अपना मनोरथ महाराज को कह सुनाऊँगी"

                                अत्यंत ही दीन-वाणी में कैकेई ने कहा- "महाराज, न तो किसी ने मेरा अपमान किया है     और न ही किसी ने मेरी निंदा ही की है. मैं अपना मनोरथ कह सुनाऊँ इससे पूर्व आपको प्रतिज्ञा             करनी होगी कि हर हाल में आप मेरा मनोरथ सिद्ध करेंगे".

                                राज्याभिषेक होने का समय नजदीक आ चुका था. उन्हें तैयार होकर जाना भी था, लेकिन उनकी        प्रियतमा इस समय क्रोधित होकर, धूल भरी धरती पर               पड़ी हुई है. उसके                क्रोध को शांत करने       के बाद ही वे अन्यत्र जा सकते थे. उन्होंने             धरती पर बैठते हुए कैकेई                 जी का सिर अपनी गोद में                रखते हुए अत्यन्त ही अधीर होकर कहा- "हे सुमुखी.!.अपना मनोरथ मुझसे शीघ्रता से कह       सुनाओ. मैं महाराज दशरथ देवताओं के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उपस्थिति में प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं तुम्हारा    मनोरथ यथाशीघ्र पूरा करुँगा. हे देवी.!..मेरे कान तुम्हारे उस मनोरथ को सुनने के लिए आतुर     हुए जा रहे हैं."..

                                "हे देवी.!....मुझे अपने प्राणॊं से भी प्रिय राम हैं, मैं उसकी शपथ खाकर        कहता हूँ     कि मैं तुम्हारी मनोकामना को अवश्य पूरा करुँगा".

                                रानी कैकेई इसी क्षण का बड़ी अधीरता के साथ रास्ता देख रही थीं. वे समझ चुकी थीं कि महाराज      जी ने, न केवल देवताओं बल्कि अपने प्रिय पुत्र राम की भी सौगंध खा चुके है, अतः इस बात    की पुष्टि      अपने आप ही हो जाती है कि वे अब हर उस मनोरथ को पूरा करेंगे, जो वह चाहती है".

               

                                कैकेई ने बहुत ही मधुर शब्दों के साथ याद दिलाते हुए कहा-"संभवतः आपको                              स्मरण में तो होगा ही कि देवासुर संग्राम में, शत्रुओं ने आप पर घात लगाकर वार                 किया था     और आपको मरणासन्न अवस्था में पहुँचा दिया था. मैंने अपना सारथी-धर्म का               निर्वहन करते हुए           आपको युद्ध के मैदान से निकालकर, अन्यत्र ले जाकर आपके           प्राणों की रक्षा की थी. आपने प्रसन्न    होते हुए मुझे दो वरदान मांगने को कहा था. उचित अवसर आने पर मैं उन वरदानों को आपसे मांग       लूंगी, कहकर उस अधिकार को अपने पास धरोहर के रूप में सुरक्षित रख लिया था".

                                "तब आपने गर्व के साथ मुस्कुराते हुए मुझसे कहा था- " हे देवी..!..मैं थोड़ा भुल्लकड़     स्वभाव का हूँ. मुझे लंबे समय तक कुछ याद नहीं रहता. जब भी तुम्हारा       मन वरदान मांगने का बने,     मुझे पिछली बातों की याद जरुर दिला देना.          मैं शीघ्र       ही तुम्हारे इच्छित वरदानों को पूरा कर                 दूँगा ".कैकेईने कहा.

                                "हाँ...हाँ ..सुमुखी.!...मुझे याद आ गया. बोलो...बोलो....आखिर तुम          मुझसे         वरदान        में              क्या मांगना चाहती हो?"

                                "हे पृथ्वीनाथ.!..मेरे दो छोटे-छोटे वरदान हैं, संभव है जिसे सुनकर शायद आप उन्हें        देने से मना न कर दें?"

                                ".हे देवी..!...अच्छा तो अब मैं समझा....तुम मेरी परीक्षा लेना चाहती          हो?..बोलो..तुम            मुझसे वरदान में क्या मांगना चाहती हो?....शायद तुम हम रघुवंशियों को                 नहीं जानतीं...हम अपने प्राण            देकर भी वचन निभाना जानते हैं. अब देर न         करो....शीघ्रता से अपने मन की बात मुझसे कह     सुनाओ..."

                                ‘"हे रघुकुल श्रेष्ठ.!..पहला वरदान मैं आपसे मांगने जा रही हूँ, कृपया उसे ध्यानपूर्वक        सुनें....राम की जगह मेरे पुत्र भरत का राज्याभिषेक होना चाहिए".

                                "हे सुमुखी.!....यह तुम क्या मांग रही हो.? तुम्हारी मांग सर्वथा अनुचित प्रतीत                होती है. मैं   राम के राज्याभिषेक की घोषणा कर चुका हूँ. गुरुदेव से भी परामर्श कर                 चुका हूँ. सारी तैयारियाँ    पूरी हो चुकी है. नगर में ढिंढोरा पीटा जा चुका है. सकल समाज का आना भी शुरु हो चुका है.           तुम मेरे साधु स्वभाव वाले भरत की माता होने के नाते                 उतना नहीं जानतीं, जितना कि मैं जानता हूँ. इस    प्रस्ताव       को सुनते ही वह मना कर देगा".        महाराज ने कहा.

                                "महाराज आप सत्यप्रतीज्ञ हैं. यदि आप अपने ही दिए गए वचन से पीछे हटेंगे,              तो             आपकी छवि धूमिल होगी. जब आप मेरा पहला वरदान ही देने में अपने         आपको      असमर्थ पा रहे हैं,          तो मुझे डर है कि आप मेरे दूसरे वरदान को कैसे पूरा कर पाएंगे?"

                                "हे कैकेई.!..यदि समय रहते तुम मुझे एक बार संकेत ही दे देतीं कि तुम भरत का              राज्याभिषेक करवाना चाहती हो तो मैं राम के राज्याभिषेक की घोषणा कदापि नहीं                 करता.        तुमने मुझे बड़ी दुविधा में डाल दिया है".

                "यह सच है कि यदि मैं अपनी प्रतीज्ञा पूरी नहीं करता हूँ तो मेरी जगहँसाई होगी.            ठीक है, मैं भरत का        राज्याभिषेक करने का वचन देता हूँ. अब तो प्रसन्न हो न !."

                "चलो...अब दूसरा वर तुम क्या मांगना चाहती हो, उसे कह सुनाओ".......महाराज ने      कहा.

                                "महाराज..!.दूसरा वरदान सुनकर संभवतः आपके पैरों के नीचे की जमीन न कांपने लगे...मुझे            शक है कि आप उसे पूरा नहीं कर पाएंगे?...सुनते ही मना कर                 देंगे".....कैकेई ने           कहा.

                                "तुम मांग कर तो देखो.सही"....महाराज ने कहा.

                "तो सुनिए.महाराज...आपके धीर-वीर पुत्र राम को तपस्वी वेश में, मृगचर्म धारण             कर चौदह वर्षों तक        दण्डकारण्य में जाकर रहना होगा, ताकि मेरा पुत्र निष्कण्टक युवराज पद पर आसीन होकर राज    करता रहे..मैं अभी और इसी समय      राम को तपस्वी             का वेष       धारण कर वन जाता हुआ देखना       चाहती हूँ. हे सत्यप्रतिज्ञ महाराज ! अपने कुल, शील और गौरव को ध्यान में रखते हुए आप       अपने वचनों का पालन कीजिए"

                                जैसे ही कैकेई ने रामजी को वन भेजने का अपना संकल्प कह सुनाया,          सुनते ही      महाराज      को लगा कि उन्हें आकाश से नीचे धरती पर बलात फ़ेंक दिया गया हो.                 उन्होंने        अपने दोनों कानों          को अपनी हथेलियों से कसकर दबा लिया था, ताकि पुनः वही बात सुनने को न मिले. उन्हें ऐसा भी     लगा कि बर्र मक्खियों के झुंड ने उन पर अचानक हमला कर,दंश कर दियाहै.. वे कितना कुछ सोच कर यहाँ आए थे लेकिन यहाँ                 खेली जा रही कुटिल चाल में जा उलझेंगे, उन्हें इसका तनिक भी                भान नहीं था. बात ही कुछ ऐसी थी            कि अचानक उनके हृदय की धड़कने बढ़ने           लगी थी, आँखों            के             सामने अंधकार तांडव करने लगा था. उन्हें तो ऐसा भी लगने लगा थी कि प्राण अब निकले कि तब              निकले. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि कैकेई कुछ इस तरह अप्रिय निर्णय ले लेगी. अवसन्न      अवस्था      में वे बहुत देर तक बैठे रहे थे.

                                किसी तरह उन्होंने अपने आप को संभाला. चैतन्य अवस्था में लौटते हुए उन्होंने             गुस्से से       कैकेई के सिर को अपनी गोद से बलपूर्वक हटाया और उठ खड़े हुए.

                                खड़े होने को तो वे खड़े हो गए थे, लेकिन साथ ही यह भी अनुभव करने लगे थे              जैसे पैरों      ने              खड़े रहने की शक्ति ही खो दी हो...बहुत देर तक वे अनमने से खड़े रहे. फ़िर जैसे ही उन्हें चेत      हुआ, अत्यन्त ही दुःखी होकर उन्होंने ने कैकेई से कहा:- "हे दुष्ट....दयाहीन, "हे दुराचारिणी              कैकेई..!. तू इस कुल का विनाश होते हुए देखना चाहती..हे...डायन.!..मैंने और मेरे प्रिय पुत्र राम ने   आखिर तेरा क्या           बिगाड़ा है? तू राम को सदैव अपना प्रिय पुत्र कहती आयी हो,    अचानक ऐसा क्या        हो गया कि वह तेरा शत्रु हो गया?"

                                "पता नहीं वह कौन-सी अशुभ घड़ी थी, जब मैंने तुझसे विवाह कर घर ले आयाथा?        तब शायद मैं त्तुम्हारे यौवन के जाल में फ़ंस कर इतना अंधा हो गया था. कि तेरा                असली       स्वरुप         पहचान नहीं पाया.था.. मैं तुम्हारा कुरूप नहीं देख पायाथा? तब शायद मैं नहीं जान पाया था कि जिस                 रूपसी को मैं बिहाकर ले जा रहा हूँ, वह रुपसी नहीं बल्कि एक नागिन  है. आज तूने मुझे तो                डंसा ही डंसा, मेरे परिवार                 के हर सदस्य को           तूने मरणासन्न अवस्था में ला खड़ा कर दिया है."

                                "हे दुरात्मा..!.....तुम तो जानती ही हो कि राम मेरे जीवन का आधार है. जिस प्रकार        एक मीन बिना जल के अपने प्राण त्याग देती है, ठीक उसी तरह मैं भी अपने प्राण त्याग दूँगा. तुम              सधवा होकर भी विधवा होना क्यों चाहती हो, क्यों तुम पूरे घर को तहस-नहस कर देने पर तुली हुई      हो?."

                                "हे देवी..!..एक क्षत्राणी होने के नाते तुम भली-भांति जानती ही हो कि एक राजा में         कौन-कौन सी योग्यताएँ होनी चाहिए..जानते-बूझते हुए भी तुमने भरत का चुनाव                 किया, जबकि               वह राग-द्वेष से कोसों दूर है.....राम का अनुगामी है....वह स्वयं भी राम की जगह             सिंहासनारुढ़ होना          स्वीकार नहीं करेगा? तुम्हारी इस हठधर्मिता से अयोध्या में हाहाकार मच जाएगा, इस पर तनिक तो                सोचना चाहिए था?"

                                "अतः हे देवी.!..ऐसा वर मांगने से तेरा कोई लाभ होने वाला नहीं है. हे पापपूर्ण निश्चय     वाली कैकेई !..तू इस दुराग्रह का त्याग कर दे. तेरे पैरों पर अपना मस्तक       रखते हुए मैं प्रार्थना                करता हूँ कि अपने दुराग्रह का.,.इस पापमय विचार का त्याग कर दे".

                                "हे भामिनी..!..तुम सदा से ही राम को बड़ा बेटा कहती आई हो, फ़िर आज अचानक      क्या हो गया कि तेरे मन में उसके प्रति इतनी नाराजी कैसे उत्पन्न हो गई?. इससे पहले तूने            कभी ऐसा    आचरण नहीं किया है जो अनुचित अथवा मेरे लिए अप्रिय हो, इसीलिए मुझे आज की बात पर          विश्वास नहीं हो रहा है."

                                "राम तुम्हारी सेवा में सदैव लगा रहता आया है, उससे ऐसी कौन-सी भूल हो गई,           जिसकी सजा तू उसे देने जा रही है".

                                "हे देवी !...नगर के गणमान्य नागरिक, बहुत से गुणवान एवं वृद्ध पुरुष मुझसे पूछेंगे कि      राम कहाँ है, तो मैं उन्हें क्या जवाब दूँगा?. क्या मैं यह कह सकूँगा कि मैंने अपनी पत्नी कैकेई के              दवाब में आकर उसे घर से निकाल दिया?"

                                "इस राजमहम में कितने ही सेवक-सेविकाएं काम कर रही हैं, उन्हें भी मैंने कभी               राम के        विरुद्ध बात करते नहीं सुना. वे गुरुजनों, विद्वानों का सम्मान करने में कभी पीछे नहीं रहते. और तो और     वे समस्त अयोध्यापुरी के जननायक हैं, लोग         उस पर पूरा विश्वास भी रखते हैं और उसे अपना सबसे             प्रिय बतलाते नहीं थकते. ऐसे धर्मात्मा राम को वन भेजने का पाप तेरे मन में  कैसे आया?."

                                "सत्य, दान, तप, त्याग, पवित्रता, सरलता, विद्या, और सेवा-शुश्रूषा आदि राम के           विशिष्ठ गुण है. ये सारे गुण उसमें स्थिररुप से रहते हैं. हे देवी ! ऐसे तेजस्वी पुत्र को पाकर तो तुझे गर्व           होना चाहिए, फ़िर भी तू उसका अनिष्ट चाहती है?".

                                "हे कैकेई...मैं वृद्ध हो चुका हूँ..पता नहीं कब मौत, चील बनकर मेरे प्राणॊं को झपट्टा        मारकर उड़ा ले जाए...फ़िर तू तो जानती ही है कि मैं अगर जीवित हूँ तो केवल उसके चंद्रमा के समान            मुख को देखकर ही अपने प्राणॊं को बचाए रखा हूँ. अगर वह एक पल को भी नहीं दिखेगा,               तो निश्चित   ही मैं प्राण त्याग दूँगा. हे भामिनी.!...तुम क्यों                 जानबूझ कर विधवा होना चाहती हो?."

                                "हे कैकेयनन्दिनी !. मुझ पर दया कर...मैं तेरे हाथ जोड़ता हूँ....तेरे पैरों  पड़ता हूँ             इस            कुविचार को अपने मन से निकाल दे."

                                "हे देवी.....राम केवल मेरे अकेले के ही प्रिय नहीं है, बल्कि वे सभी मंत्रियों, सभासदों       सहित पुरी के समस्त प्रजाजनों का भी प्रिय है. सभी एकमत से उसे ही                 सिंहासन पर आरुढ़        होता देखना चाहते हैं. चुंकि राम अपने तीनों भाईयों में ज्येष्ठ      है, ज्येष्ठ पुत्र ही             सिंहासन पर बैठता         आया है, यह हमारे कुल की परिपाटी रही है.                 उसी के अनुसार मैंने यह निर्णय लिया था."

                                "मुझसे राम की माता कौसलया ने कभी नहीं कहा कि राम को गद्दी सौंप दी जानी             चाहिए       और न ही सुमित्रा ने अपने दोनों पुत्रों में से किसी एक को अपना                उत्तराधिकारी बनाने को कहा...यदि    तुम्हारा मन भरत को राजा बनाने का था, तो मैं सहर्ष उसे राजपाठ सौंप दूँगा. अब तो प्रसन्न हो           जाओ...लेकिन राम को वन में भेजने की अपनी जिद तो तुम्हें छोडनी होगी...मेरे जीते जी राम कभी        वन को       नही जाएंगे..इस            बात को      ध्यान से सुन लो."

                                महाराज दशरथ इस प्रकार दुःख से संतप्त होकर विलाप करने लगे थे. उनकी चेतना-        शक्ति         बार-बार लुप्त हो जाती थी. अर्ध-मूर्छित अवस्था में पड़े-पड़े वे बार-बार बस वही     दोहराते....मेरे राम पर दया                करो .....मेरे राम पर दया करो.....उसे वन भेजने की जिद छोड़ दो".

                                ( तालियाँबजाते हुए)..."वाह ..वाह...क्या कहने  सत्यप्रतिज्ञ     महाराज....अपने कुल     की बार-बार दुहाई देने वाले महाराज !यह कहते हुए आप कभी थकते नहीं थे कि हम            रघुवंशी,      अपने दिए गए वचनों से कभी पीछे नहीं हटते, भले ही उसे पूरा करने के लिए अपने प्राण ही क्यों न    त्यागना पड़े?.(तालियाँ). अब कहाँ गयी आपकी कुलमर्यादा?...कहाँ गयी आपकी सत्यनिष्ठा?,                 कहाँ गया आपका कुलगौरव?..आपकी इन थोती बातों पर न तो मुझे कभी विश्वास रहा है और न         ही अभी है?..यह बड़बोलापन आपको सुहाता होगा, मुझे नहीं? यदि हाँ,....यह सच है तो इसे    अभी मेरे दूसरे वरदान को तुरन्त पूरा करें और राम को अविलंब   वन जाने की आज्ञा दें".

                                "हे राजन..!...आप ही ने मुझे दो वरदान देने को कहा है और आज आप      अपनी ही    बातों पर पश्चाताप कर रहे हैं..शूरवीर और सत्यप्रतिज्ञ महाराज को यह शोभा नहीं                 देता..".

                                "महाराज..!..वरदान देने की बात कह कर उसके विपरीत बात करना कहाँ तक न्यायसंगत है?. क्या आप अपने कुल के राजाओं के माथे पर कलंक का टीका लगाएंगे?. आपके ही पूर्वज     महाराज शैब्य ने बाज और कबूतर के झगड़े में (कबूतर के प्राण बचाने की प्रतीज्ञा को पूरा                करने के      लिए) बाज पक्षी को अपने शरीर का मांस काट कर दे              दिया था. इसी तरह राजा अलर्क ने            (एक अंधे    ब्राह्मण को) अपने दोनों नेत्रों का दान कर दिया था. क्या आप इन दानवीरों का उपहास नहीं उड़ा रहे    है?."

                                "समुद्र ने देवताओं के समक्ष वचन दिया था कि वह कभी अपनी सीमा         का उल्लघंन                नहीं करेगा...आज भी वह अपने वचनों को नहीं भूला है और न ही उसने          मर्यादा        की सीमा-रेखा              का उल्लंघन ही किया है. इसी तरह आपके पूर्ववर्ती महापुरुषों के वर्ताव        को ध्यान में रखकर अपनी               प्रतीज्ञा झूठी न करें".

                                "यदि आप मेरे वरदान को देने से मना कर देंगे तो निश्चित ही मैं विष पीकर अपनी            इहलीला     समाप्त कर लूँगी".

                                "हे नर श्रेष्ठ.!..मैं अपने प्रिय पुत्र भरत की शपथ खाकर कहती हूँ कि राम को इस देश से     निकाला देने के सिवाय दूसरे किसी वर से मुझे संतुष्टी नहीं मिलेगी.अतः         जितनी शीघ्रता       से हो सके,   आप उसे वन जाने की आज्ञा दें".

                                विष भरे बाण से जिस तरह कोई मृग घायल होकर जमीन पर तड़पने लगता है, ठीक यहीं   स्थिति महाराज दशरथ की भी हो रही थी. कैकेई की जली-कटी और व्यंग्यात्मक बातों          को            सुनने की शक्ति उनमें तनिक भी नहीं रह गई थी..उन्हें ऐसा भी लगने लगा था कि वे ज्यादा देर             तक खड़े नहीं रह पाएंगे..शरीर में कंपन होने लगा था. गला सूखने लगा था..आँखों के सामने       काला-कलूटा अंधकार तांडव मचाने लगा था..किसी               तरह लड़खड़ाकर चलते हुए वे अपनी                 शैय्या तक पहुँचे और मुर्च्छित होकर गिर पड़े. मूर्च्छावस्था में केवल उनके मुँह से हे राम ! हे     राम...के शब्द ही प्रस्फ़ुटित हो रहे    थे.

                                                                                ००००००००

              रात्रि का पाँचवा प्रहर समाप्त हो चुका था..

                                प्रतिदिन की तरह आज भी सूरज ऊगा. मटमैला-सा, तेजहीन..उसमें आज उतनी लालिमा नहीं थी, जितनी की प्रतिदिन रहा करती थी. उससे झरती पीली-पीली रोशनी को देखकर कहा जा सकता है कि वे अस्वस्थ-से हैं. शायद वे भी आगे का दृष्य नहीं देखना चाहते थे, जो आज राजमहल में घटित होने जा रहा है. लेकिन उदित होना उनकी अपनी नियति थी. ऐसा न करते तो सृष्टि का सारा चक्र ही गड़बड़ा जाता.

              राजगुरु वशिष्ठजीका प्रवेश

                  राजगुरु वशिष्ठजी ने अपनी दैनिक पूजा-पाठ, अग्निहोत्र आदि संपन्न किया और अपने शिष्यों के सहित राजमहल की ओर प्रस्थान किया.

                                पुष्य-नक्षत्र योग का शुभारंभ हो चुका था. राह चलते हुए उन्होंने देखा. सड़कें झाड़-बुहार कर साफ़ कर दी गईं थीं और उन पर सुगन्धित जल का छिड़काव कर दिया गया था. सारा नगर ध्वजा-पताका से सुशोभित किया जा चुका था. चारों ओर सुगन्धित चंदन, अगर और धूप की सुगंध से सुवासित हो रहा था. नगर के बाल-वृद्ध सहित बड़ी संख्याँ में पुरुष तथा स्त्रियाँ हर्ष और उत्साह के साथ इकठ्ठा होने लगे थे. बाजार और दूकाने सज गईं थीं. सब ओर उत्सव और उमंग का वातावरण निर्मित हो गया था. अयोध्या की शोभा इंद्र की नगरी अमरावती की तरह शोभायमान हो रही थी.

                                श्रेष्ठ महर्षियों से घिरे हुए वशिष्ठ जी परम प्रसन्न हो अन्तःपुर में पहुँचे. उन्होंने महाराज के सारथी सुमंत्र को द्वार पर उपस्थित पाया, जो अभी-अभी भीतर से बाहर निकलकर आए थे. प्रसन्नवदन वशिष्ठ जी ने सुमन्त्र से कहा कि वे अन्दर जाकर मेरे आगमन की सूचना महाराज तक पहुँचाएँ और यह भी कहें कि शीघ्रता से वे मंडप में पधारें, ताकि इस पुष्य नक्षत्र में श्रीराम का राज्याभिषेक समारोहपूर्वक संपन्न किया जा सके.

                                सुमन्त्र ने गुरुदेव को प्रणाम निवेदित करते हुए कहा:-"जैसी आपकी आज्ञा..मैं अभी भीतर जाकर महाराज को सूचित करता हूँ. महाराज के आने तक कृपया आप आसन ग्रहण करें. "कहते हुए सुमन्त्र महाराज के कक्ष में जाने को उद्दत हुए.

                                सुमन्त्र महाराज की शैय्या के पास जा खड़े हुए. उन्होंने देखा कि महाराज, अपने             बांए हाथ    को माथे पर रखे हुए है. सुमन्त्र समझ नहीं पा रहे थे कि वे सोए हुए है अथवा जाग रहे हैं. उन्हें इस              बात पर भी आश्चर्य हो रहा था कि ब्रह्ममुहूर्त में जाग जाने वाले महाराज,       इस समय कैसे सो सकते हैं?.             उन्हें तो अब तक तैयार होकर अपने कक्ष से निकल जाना चाहिए था. उन्होंने अत्यंत ही विनीत शब्दों में बोलते हुए कहा:- "महाराज...मेरी धृष्ठता को क्षमा करें. आप निद्रा का त्याग कर शीघ्रता से    तैयार हो जाएं. आपसे मिलने के लिए गुरु वसि‍ष्ठजी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं. राज्याभिषेक की सारी        तैयारियां हो चुकी हैं".

                                "हे राजन..1... जिस तरह सूर्योदय होने पर तेजस्वी समुद्र की लहरें अपने आप तरंगित      होने लगती हैं, उसी सूर्य के भांति आप भी निद्रा का त्याग कर हम सेवकों को आनन्द प्रदान         करें. चारों वेदों के छः अंग तथा समस्त विद्याएँ पितामह ब्रह्माजी को जगाती हैं, उसी प्रकार                आपका      यह छोटा-सा सेवक आपको जगा रहा है...हे रघुकुल सूर्य आप जाग जाइए"

                                "हे ककुत्स्थ-कुलनन्दन..!.भगवती रात्रि देवी बिदा हो चुकी है..नगर और जनपद के        लोग तथा पुरी के समस्त व्यापारीगण उपस्थित हो चुके हैं. हे राजन...गुरु वसिष्ठ जी ब्राहमणॊ के साथ           द्वार पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं. महाराज उठिए और वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर सिंहासन पर      विराजमान होइए. वे सब आपकी उपस्थिति में श्रीराम के राज्याभिषेक का कार्य प्रारंभ करना चाहते हैं"

                                महाराज दशरथ जी ने साम, दाम, दंड आदि का भय दिखाकर कैकेई को मनाने की          असफ़ल कोशिशे कीं थीं लेकिन कैकेई पर उनकी किसी बात का तनिक भी प्रभाव होता नहीं देख कर         वे निढाल, हताश और निराश होकर रह गए थे. उनका मन कहीं जुड़ नहीं पा रहा था. उनके कान        सुमन्त्र के हर एक शब्द को ध्यानसे सुन रहे थे, लेकिन कुछ न बोलना ही उन्हें श्रेयस्कर लगा था इस            समय.

                                बार-बार की विनती सुनकर उन्होंने अहिस्ता से अपनी आँखे खोलीं. सुमन्त्र की               पारखी        आँखों        ने वह दृष्य देखा, जिसे उन्होंने इससे पहले कभी नहीं देखा था.            उन्होंने देखा कि            महाराज      की आँखें लाल-लाल अंगारे की तरह दहक रही हैं. आँखों से बह आयी       आसूँओं की बूंदे            कनपटी      और गालों  पर आकर सूख गई हैं. वे भौंचक                खड़े रह गए थे.             महाराज की इस दारूण स्थितिको       देखते ही उनके मन में अनेकों प्रश्न उठने लगे थे. वे समझ नहीं पा रहे थे कि महाराज को अचानक क्या हो गया                 है?. कहीं वे अस्वस्थ तो नहीं हो गए  हैं अथवा किसी दारुण दुख से वे दुःखित हो रहे हैं? वे               कुछ और बोल पाते कि कैकेई ने सुमन्त्र से कहा:- हे सूत..! .राज्याभिषेक की तैयारियाँ करते-कराते      महाराज पूरा दिन और रात जागते रहे हैं. अतः उनकी आँखें स्वमेव लाल हो उठी . कुछ देर विश्राम      करने के लिए वे अभी अर्ध-जाग्रत अवस्था में निश्चेष्ट पड़े हुए हैं. अच्छा होगा कि आप जाकर श्रीराम             को शीघ्रता से यहाँ बुला लाओ.

                                यदि यह कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि सुमन्त्र केवल एक कुशल              सारथी ही    नहीं थे, बल्कि वे महाराज दशरथ जी के एक तरह से अंगरक्षक भी थे..और विश्वासप्राप्त भी   थे..इतना     ही नही वे महाराज के मंत्री भी थे. इन सारी विशेषताओं के साथ ही वे कुशल रथ संचालक भी थे. युद्ध का मैदान हो अथवा कोई अन्य जगह, वे सामने देखते हुए रथ का संचालन तो करते ही करते थे, लेकिन        उनकी नजर, रथ पर सवार महाराज पर बराबर बनी ही रहती थी. वे महाराज के संकेतों को                 ध्यान में रखते हुए रथ को किस तरह हांकना                है, कहाँ से उसे निकाल लाना है, इसमें उन्हें कुशलता               प्राप्त थी. यदि शत्रु घात लगाकर महाराज पर आक्रमण करता देखते, तो तत्काल रथ को कुछ ऐसे         मोड़ पर ला खड़ा                 करते कि शत्रु का शस्त्र बेकार चला जाता.

                                महाराज दशरथ जी से उनका दीर्घ सानिध्य रहा है. उनकी हर छोटी-बड़ी बातों की          जानकारी    उन्हें रहती थी, लेकिन उस जानकारी को केवल वे अपने तक ही सीमित                 रखते थे. इतने लंबे         सहचर्य में रहते हुए उन्होंने कभी महाराज को इतना अवश...इतना लाचार...इतना            परेशान...इतना             हताश ..कभी नहीं देखा था. महाराज की दशा देखकर वे समझ गए कि नींद तो मात्र एक बहाना है,                निश्चित ही कोई बड़ा ‍षड़यंत्र रचा गया है, इसे        उन्होंने तत्काल भांप लिया था. महाराज का चुप रह                जाना और बीच में कैकेई के हस्तक्षेप करने से बात और भी स्पष्ट हो जाती थी.

                                कैकेई की बातों को अनसुना करते हुए उन्होंने कैकेई से कहा:- "महाराज की आज्ञा          सुने बिना मैं श्रीराम को बुलाने कैसे जा सकता हूँ ?".

                                कैकेई और सुमन्त्र के संभाषण को महाराज सुन रहे थे. सुन रहे थे सारी बातें जो सुमन्त्र उन्हें                 जाग जाने के लिए प्रार्थना कर रहे थे. महाराज को पूरा विश्वास हो चुका था कि कैकेई अपनी जिद पूरी           करके ही मानेगी. अतः मौन तोड़ते हुए उन्होंने सुमन्त्र से कहा:-"सुमन्त्र.!. मैं अपने प्राणॊं से भी प्रिय       श्रीराम को शीघ्र ही देखना चाहता हूँ, तुम उन्हें सादर लिवा लाओ".

                                "जी ...जैसी आपकी आज्ञा" कहते हुए सुमन्त्र श्रीरामजी को लिवा लाने के लिए शीघ्र      ही अन्तःपुर से बाहर निकल गए. वे गंभीरता से सोच रहे थे कि राम को बुला भेजने के लिए कैकेई               इतनी उतावली क्यों हुई जा रही है?. वे समझ चुके थे कि कैकेई ने कोई         विनाशकारी ‍षड़्यंत्र रच दिया            है. उन्हें यह भी लगने लगा था कि अब शायद ही रामजी का ‘राज्याभिषेक हो पाएगा?. उनके मन के           आंगन में शंका-कुशंका की बेल तेजी से फ़ैलने लगी थी.

                अंतःपुर से बाहर निकलकर आने पर उन्होंने ने देखा कि बड़ी संख्या में पुरवासी,             वेदों के       पारंगत ब्राह्मण, राजपुरोहित, सेना के मुख्य-मुख्य अधिकारिर्यों सहित नगर के सेठ-साहूकारों के सहित         अन्य गणमान्य नागरिक भी वहाँ उपस्थित थे. वे सभी               श्रीराम जी को भेंट में देने के लिए अपने साथ         उपहार आदि लेकर आए हुए थे. वे सभी सुमन्त्र को    घेर कर खड़े हो गए और पूछने लगे कि सूर्योदय     कभी का हो चुका है और राज्याभिषेक का मुहूर्त भी आ पहुँचा है, लेकिन महाराज अभी तक अपने     अन्तःपुर से बाहर नहीं निकले हैं?. ऐसा कौन-सा कारण है कि महाराज जी को बाहर आने में विलम्ब         हो रहा है?. तरह-तरह के प्रश्न पूछे जाने लगे थे, लेकिन सुमन्त्र जवाब भी देते तो क्या देते?. वे स्वयं भी नहीं जान पाए थे कि अन्तःपुर में महाराज और कैकेई    जी के बीच किस           बात को लेकर रोष बना हुआ            है. स्वयं उनके पास कोई उत्तर था भी नहीं कि वे सभी              प्रश्नकर्ताओं को संतुष्ट कर सकें. वे जानते थे कि                बिना पक्की जानकारी के मुँह से एक शब्द भी निकालना भारी पड़ सकता है. अतः उन्हें मौन रहना      ही ज्यादा श्रेयस्कर लगा था इस समय..

                बिना कुछ कहे, अपनी विशाल बाहों से भीड़ को परे हटाते हुए, वे निरन्तर आगे बढ़ते जा                 रहे थे. भीड़ का घनत्व ही इतना अधिक था कि उन्हें एक-एक पग आगे बढ़ाने में      मुश्किलोंका सामना        करना पड़ रहा था. फ़िर भी किसी तरह वे आगे बढ़ते गए.

                शीघ्र ही उन्हें कैलाश पर्वत के समान ऊँचा, इन्द्रभवन की शोभा को फ़िका करता             हुआ          श्रीरामचन्द्र जी का भव्य भवन दिखाई दिया. भवन के अग्र भाग में सोने की देव प्रतिमाएँ अलंकृत थीं.            बाहर लगे हुए फ़ाटकों में मणि और मूँगे जड़े हुए थे. सुवर्णनिर्मित पुष्पों की मालाओं को गूँथ कर जगह- जगह लटकाया गया था. चंदन और अगर की सुगन्ध वातावरण को सुरभित किए हुए थी. दीवारों पर       कुशल कारीगरों ने बड़ी ही सुन्दर कलात्मक कलाकृतियाँ उकेरी थीं. पेड़ों पर नाना प्रकार के असंख्य     पक्षी चहक रहे थे. इतने भव्य और विशाल भवन में प्रवेश करते हुए सुमन्त्र की      आँखें श्रीराम जी को       तलाश कर रही थीं. उन्होंने देखा कि अनेक लोग भाँति-भाँति के उपहार लिए पहुँच गए हैं और उन्हें     भेंट देते जा रहे हैं.

                श्रीराम जी ने सुमन्त्र जी को आते हुए देखा. वे समझ गए थे कि किसी विशेष काम से उनका                आगमन हो रहा है, जबकि उन्हें तो इस समय पिताश्री के पास रहना चाहिए था. वे               उनकी अगवानी के         लिए अपने सिंहासन से उठ खड़े हुए. तबतक सुमन्त्र जी भी उनके पास  पहुँच चुके थे. उन्होंने            विनम्रता से श्रीराम जी का                 अभिवादन किया..जयघोष किया और कान के पास मुँह ले जाकर               एकान्त में मिलने            और बात करने के लिए विवेदन किया.

                एकान्त कक्ष में सुमन्त्र जी ने श्रीराम जी से कहा कि महाराज आपसे अभी और इसी          समय मिलना चाहते हैं अतः आप से विनती है कि आप मेरे साथ शीघ्रता से चलने के लिए तैयार हो               जाएं.

                श्रीराम समझ चुके थे कि माता कैकेई जी के द्वारा खेला जाने वाला नाटक अब शुरु होने    जा रहा है. उन्होंने मन ही मन माता के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया कि उन्होंने बड़ी ही समझदारी और              सूझबूझ से उनका काम आसान कर दिया है. अत्यन्त प्रसन्न होते हुए वे         सुमन्त्र जी के साथ चलने को             उद्धत हो गए.

                श्रीराम जी से मिलकर और उन्हें भेंट देने आए लोगों ने देखा. रामजी, बिना कुछ              बतलाए      अचानक सुमन्त्रजी के साथ चले गए हैं.रामजी के इस तरह अचानक उठकर चले जाने से लोगों के            बीच कानाफ़ूसी होने लगी थी. वे समझ नहीं पा रहे थे              कि अचानक ऐसा क्या हो गया है जिसके चलते     सुमन्त्र जी को आना पड़ा होगा. जितने भी लोग उस कक्ष में उस समय वहाँ उपस्थित थे, वे अपनी-           अपनी बुद्धि के अनुसार तर्क-वितर्क करने लगे थे. वे जानना चाहते कि रामजी का इस तरह चले जाने   के पीछे कौन से कारण हो सकते है?, सबके अपने-अपने अनुमान थे, लेकिन सही जानकारी       किसी के पास नहीं थी और न ही       किसी में इतनी हिम्मत थी कि वे सुमन्त्र जी से कुछ पूछ सकते थे.                रामजी के इस तरह चले जाने के बाद उस कक्ष से निकलकर लोग राजमहल की ओर बढ़ने लगे थे.              उनका अपना अनुमान था कि सही जानकारी उन्हें वहीं जाकर    मिल सकती है.

                सुमन्त्र जी के साथ अपने दिव्य रथ पर आरूढ़ होकर श्रीराम ने विशाल राजमार्ग पर          मस्ती में झूमते हुए गजराजों, सुसज्जित रथों. घोड़ों, और अपार भीड़ को देखा. संपूर्ण नगरी          ध्वजा-       पताका से सजी हुई है. जगह-जगह फ़ूल मालाऒ से युक्त तोरणद्वार बनाए गए है.            राजमार्ग      पर रांगोली   से सुन्दर, मनमोहक  और कलात्मक अल्पनाएं काढ़ी गई थीं. अपने सिर पर कलश लिए हुए अनेक            सुहागन स्त्रियां मंगल गीत गा रही है. राम जी को जी भर कर निहारने की ललक लिए नर,नारी,आबाल,                 वृद्धों का जनसमुदाय राजमार्ग के दोनों ओर खड़ा हुआ है. जैसे ही उनकी नजर रामजी पर पड़ती, वे              तुमुल ध्वनि से जयकारा लगाने लगते. यह सब देखते हुए कहा जा सकता है कि इस समय इन्द्र            की अमरावती की चमक भी अयोध्या पुरी के सामने फ़ीकी पड़ रही थी...श्रीहीन लग रही थी.

                वे अपने सुहृदयों के मुख से कहे गए बहुत से आशीर्वचनों को सुनते और उन्हें यथोचित     सम्मान देते हुए चले जा रहे थे. कुछ लोग तो इतने अधीर हो गए थे कि उन्होंने बीच रास्ते          में              रथ को रोकते हुए उन पर फ़ूलों की बरसात करते हुए आरती उतारने लगे थे. सुमन्त्र जी उनसे              विनय पूर्वक कहते:-"भाई हमारा रास्ता अभी न रोंके..हमें शीघ्रता से जाने दीजिए.                महाराज      दशरथ        बड़ी ही व्यग्रता के साथ रामजी के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं". लेकिन लोग उनकी बातों को सुना- अनुसुना      सिंहासन पर आरूढ़ होकर हम प्रजाजनों का                उसी तरह पालन-          पोषण करें, जिस तरह हमारे              प्रिय राजा दशरथ जी और उनके पूर्वज करते रहे हैं.

                 हे राम..! हम सचमुच में भाग्यशाली हैं कि आप जैसा युवराज हमें मिला है. आप            प्रजावत्सल हैं, दयालु हैं सभी का कल्याण चाहते हैं.......हे राम.! हम बड़भागी भी हैं              कि हम आपके दर्शन मात्र से             उस स्वर्गीय सुख का अनुभव कर रहे हैं, जिस सुख को प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े तपस्वी,                बड़े-बड़े     ऋषि-मुनि तक तरसते हैं. निश्चित ही हमने पूर्व जन्म में कोई पुण्य का काम किया होगा, तभी हम अपनी           खुली आँखों से आपके दर्शन कर पा रहे हैं".

                लोगों को तरह-तरह की समझाइश देने के बाद भी लोग अपने उद्गार प्रकट करते जा रहे थे.                 सुमन्त्र जी जानते थे राम के प्रति पुरी के लोगों का कितना प्रगाढ़ तथा निश्छल प्रेम है. यही वे    कारण थे कि लोगों की भीड़ लगातार रथ के आसपास बढ़ती ही जा रही थी. सुमन्त्र जी इस बात को     लेकर हलाकान और परेशान होने लगे थे कि उन्हें पहुँचने में लगातार विलंब होता जा रहा       है.. उन्हें हर हाल में शीघ्रता से महाराज के पास पहुँचना था. अतः उन्होंने अपने रथ की गति बढ़ा दी थी, ताकि      राजमार्ग से लोग स्वतः ही हट जाएंगे और वे सुगमता के साथ चौराहों, देवमार्गो,   चैत्य वृक्षों तथा             देवमन्दिरों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ते चले जा रहे थे.

                दशरथ जी का भवन इस समय इन्द्रसदन से भी ज्यादा शोभायमान हो रहा था. महाराज     जी के महल में प्रवेश करते हुए उन्होंने तीन-चार डयोढ़ियों को जुते हुए रथ से ही पार किया,        तदान्तर दो द्य़ोढ़यों पूर्व ही वे रथ से उतर कर पैदल चलने लगे.

कैकेई के अन्तःपुर में राम.

वे शीघ्रता से अंतःपुर में प्रवेश करने लगे थे. जैसे ही वे अन्दर पहुँचे उन्होंने महसूस           किया कि पूरे अन्तःपुरसे सन्नाटा पसरा हुआ है. उन्होंने देखा कि पिताश्री अपनी                 शैय्यापर      अस्त-व्यस्त अवस्था में पड़े हुए है और माता कैकेई महाराज से दूरी बनाते हुए एक          कोने में खड़ी हैं.उन्होंने मैले-कुचैले कपड़े पहिन रखे थे, जबकि आज तो उन्हें सज-संवर          कर रहना चाहिए था. उनके सिर के बाल भी बिखरे हुए थे, मानों कई दिनों से उन्होंने        सिंगार नहीं किया हो.. सारा दृष्य़ देखकर वे अचंभित रह गए थे वे शीघता से जानना चाहते                 थे कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि जहाँ एक       ओर संपूर्ण पुरी आनन्द में डूबी हुई     हो और दूसरी               ओर महाराज के कक्ष में उदासी         कुण्डली मार कर बैठी हुई है?.

वे पिताश्री की शैय्याके पास पहुँचे और अत्यंत ही विनम्रता के साथ कहा:-    "पिताश्री.!....मैं आपका पुत्र राम..आपकी सेवा में उपस्थित हूँ..... मेरे लिए अगला          आदेश क्या है.....कृपया आज्ञा दें.....राम उसे अवश्य पूरा करेगा. उनकी आवाज            अन्तःपुरमें गुम हो कर रह गई थी,

रामजी ने बार-बार अपने पिता को संबोधित किया लेकिन कोई प्रतिकिया न होता            देख           उनके मन में शंका-कुंशाएं घर करने लगी थी. उन्होंने अपनी हथेली को                 महाराज      श्री के नाक के पास ले जाकर महसूस किया कि साँसें चल रही है. यह जानकर उन्हें          संतोष         मिला. उन्होंने अनुमान लगाया कि शायद वे सो रहे हैं. मन में अचानक दूसरा         विचार कौंधा कि नींद चाहे जितनी भी गहरी हो बार-बार के पुकारने पर कोई प्रतिक्रिया    अवश्य होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा भी नहीं हो रहा है.          उनकी घबराहटबढ़ने लगी थी.

उन्होंने अपने पिता के शरीर को हिलाते-डुलाते हुए कई बार                      पुकारा...पिताश्री.!..पिताश्री.!..देखिए,आपका  पुत्र राम आपके पास बैठा आपको पुकार   रहा है....कृपया निद्रा देवी को त्याग कर मुझसे बातें कीजिए".

कई बार हिलाने-डुलाने के बाद महाराज को थोड़ा-सा चेत आया .चेत आते ही              उन्होंने "हे   राम...हे राम" कहा और फ़िर मुर्छित हो गए...रामजी ने पुनः उनके शरीर        को हिलाते-      डुलाते हुए बहुत कुछ कहा लेकिन महाराज के शरीर में कोई हलचल नहीं     हुई. राम      समझ नहीं पा रहे थे अचानक पिताश्री को क्या हो गया है?, उन्हें मैंने            कभी इस स्थिति                 में नहीं देखा. मुझे देखते ही उनके मन में प्रसन्नता का सागर लहलहाने लगता था,            आज वही पिता बार-बार अनुरोध करने के पश्चात भी नहीं बोल रहे हैं?. मुझसे ऐसी         कौन-सी भूल हो गयी कि पिता नाराज हो गए है?.उन्होंने कम से कम समय में        कितना       कुछ सोच लिया था.

वनवास

जब पिता की ओर से कुछ भी सुनने को नहीं मिला तो उन्होंने उस कक्ष में उपस्थित माता   कैकेई से कारण जानना चाहा कि अचानक पिताश्री को क्या हो गया            है? उन्हें रह-रह                 कर            मुर्छा क्यों आ रही है? वे किस व्याधि से ग्रसित हो गए है? पता नहीं किस      विषाद के चलते उनके मुख की कांति फ़ीकी पड़ गयी है? हर समय प्रसन्नता से               लकदम                 भरे रहने पिताश्री को अचानक क्या हो गया है ? पता नहीं         किसने उनका               दिल          दुखाया है? पता नहीं,     न्हें किसने इतना दारूण दुःख पहुँचाया                है? हे माते...अगर आपको इसका समुचित कारण ज्ञात हो तो कृपया मुझे बताएं,     ताकि राम उनका संताप   दूर कर सके"

"वे तो मुझसे अनन्य प्रेम रखते हैं, आज उनका मन अप्रसन्न क्यों है? देख रहा हूँ,             वे मुझसे      बोल तक नहीं रहे हैं? मेरे अनुज भरत,महाबली शत्रुघ्न अथवा मेरी माता                 कौसल्या, अथवा           माता सुमित्रा का तो कोई अमंगल तो नहीं हुआ है?"

"महाराज को असंतुष्ट करके अथवा उनकी आज्ञा न मानकर उन्हें कुपित कर देने              पर मैं दो      घड़ी भी जीवित रहना नहीं चाहूँगा.. महाराज मेरे आदर्श हैं..मेरे भगवान                 हैं..अपने देवता             तुल्य पिता से मैं प्रतिकूल व्यवहार कैसे कर सकता हूँ?".

"हे माते....मुझे सच्ची बात बतलाइए कि महाराज को इतना गहरा संताप क्यों है?.कहीं आपने तो ऐसी-वैसी बात बोलकर पिताश्री को दुःख पहुँचाया है? मैं आपसे जानना चाह्ताहूँ? कारण चाहे जितना भी बड़ा क्यों न हो, राम उसे अपने प्राणपन से पूरा करेगा. वह हर                काम करेगा, जिससे पिताश्री प्रसन्न हो जाएं."अत्यन्त ही विनीत भाव से श्रीराम ने अपनी   विमाता कैकेई से जानना चाहा था..

वे कुछ और कहते, इससे पूर्व अंत:पुर में पसरे सन्नाटे को तोड़ते हुए कैकेई का स्वर          गूँजा:- "हे राम..!...महाराज न तो कुपित है और न ही किसी कष्ट से ग्रसित है. दरअसल    उनके मन में कोई बात जरुर है जिसे तुम्हारे डर से वे कह नहीं पा        रहे हैं. तुम उनके            अत्यन्त ही प्रिय पुत्र हो अतः कोई अप्रिय बात कहने के लिए उनकी जिव्हा नहीं खुल पा रही है, किन्तु उन्होंने जिस बात के लिए मेरे सामने प्रतिज्ञा की है, उसका तुम्हें पालन   अवश्य करना चाहिए. उन्होंने मुझे दो वरदान         देने का वचन दे रखा है, जिसे वे देने से                बच रहे हैं और गँवार मनुष्यों की भांति          पश्चाताप कर रहे हैं".

"राम ! तुम तो धर्म की ध्वजा हो. सत्यप्रतिज्ञ हो, धर्मात्मा हो, धर्म के मर्म को जानने        वाले हो, अब तुम्हीं बताओ...वचन पूरा नहीं करने मात्र से क्या सत्य को       छोडा जा सकता                 है...क्या उसे छोड़ देना चाहिए?  मुझे मालुम है.....सत्यवादी होना और बात है,              सत्यवादी    होने का ढोंग रचना और बात है. दरअसल तुम्हारे कारण मुझ पर कुपित        होकर तुम्हारे        पिता ने उस सत्य को छोड़ दिया है, जिसकी वे बार-बार दुहाई देते थकते नहीं थे. तुम्हारे   पिता सत्यवादी बने रहें, इसके लिए तुम्हें कुछ करना होगा?"

"महाराज जिस बात को कहना चाहते हैं, वह शुभ है या अशुभ है, यह मैं नहीं                जानती,      लेकिन हाँ.... इतना अवश्य जानती हूँ कि उसे तुम्हें पालन करना होगा.         यदि तुम उसका   पालन कर सको तो मैं वे सारी बातें तुम्हें बता सकती हूँ".

"यदि पिता की कही गयी बातोंको सुनकर, तुम उसे मानने से मना कर दोगे, तो                फ़िर उसे      कह सुनाने का कोई औचित्य ही नहीं है. मैं जानती हूँ कि तुम्हारे पिता,         तुमसे कभी कुछ    नहीं कह पाएंगे. वे जो कुछ कहना चाहते हैं, उसे मुझसे ही सुनना होगा. बोलो                राम.!..क्या तुम अपने पिता के वचनों को, मेरे मुँह से कहते हुए   सुन पाओगे और उसका पालन कर पाओगे?". कैकेई ने राम की ओर देखते हुए     कहा.

"माते..!. आपको अपने राम पर तनिक भी विश्वास नहीं है, तभी आप ऐसी बातें              बोल रही     हैं?. पिता की आज्ञा मानने के लिए मैं आग में कूद सकता हूँ...समुद्र में          डूबकर अपने         प्राण त्याग सकता हूँ......मैं कालकूट पीकर अपनी देह त्याग सकता हूँ....मेरे पिता मेरे       लिए देव तुल्य हैं......मैं सपने में भी उनकी आज्ञा का तिरस्कार   करने की नहीं सोच                 सकता......हे माते.!..महाराजश्री के जो भी अभिष्ट है, वह कृपया                 मुझे बतलाने की कृपा     करें.....मैं राम......प्रतीज्ञा करता हूँ कि मैं उनकी हर आज्ञा का पालन तत्पर्ता के साथ                 पूरा कर दिखाऊँगा. अब आपसे विनती है कि मेरे लिए             पिता की क्या आज्ञा थी, उसे कह सुनाएँ".

"तो सुनो रघुनंदन.!....बहुत पहले की बात है, देवासुर संग्राम में तुम्हारे पिता, दानवों के बाणॊं से बिंध गए थे. मैंने उनके प्राणॊं की रक्षा की थी. उन्होंने अति प्रसन्न         होते हुए      मुझसे दो वरदान मांगने को कहा था. फ़िर कभी जरुरत पड़ने पर मांग लूंगी, कहकर मैंने उन्हें भविष्य के लिए सुरक्षित रख लिया था. मैंने आज तुम्हारे पिता को याद दिलाते हुए दो वर मांग लिए. पहले वर में भरत का राज्याभिषेक हो और दूसरा वर यह मांगा है तुम्हें          आज और अभी राजभवन छोड़कर चौदह वर्षोंके लिए दण्डकारण्य में जाना होगा. यदि तुम अपने पिता को सत्यप्रतिज्ञ बनाए रखना चाहते        हो और अपने स्वयं को   सत्यवादी सिद्ध करने की इच्छा रखते हो,तो तुम्हें शीघता से वन जाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए."

"हे रघुनंदन राम.!..मुझे विश्वास है कि तुम अपने पिता की आज्ञा का पालन करते             हुएउनके     महान सत्य की रक्षा करो और उन्हें संकट से उबार लो".कैकेई ने कहा.

राम ने कैकेई से प्रश्न किया.-"यदि पिताश्री की आज्ञा है तो राम उसे पूरा करने से              कभी          पीछे नहीं हठेगा. लेकिन एक बात, मैं अब तक नहीं समझ पा रहा हूँ कि कल से लेकर आज तक मेरे राज्याभिषेक की तैयारियां चल रही थी. यह मेरे अथवा किसी के कहने से इतना बड़ा आयोजन नहीं हो रहा था?. पिताश्री ने ही मुझसे कहा कि कल तुम्हारा राज्याभिषेक होगा फ़िर अचानक उन्होनें अपना मन कैसे बदल लिया? मुझसे तो एक     शब्द          भी उन्होंने नहीं कहा कि राम अब मैं तेरी जगह भरत का राज्याभिषेक करूँगा और तुझे मैं चौदह वर्षों के लिए बनवास दे रहा हूँ".रामजीने माता कैकेई से जानना चाहा.

"तुम्हारा अभिप्राय तो यही हुआ न ! कि मैं झूठ बोल रही हूँ?. तुम्हें मैं पहले ही बतला चुकी हूँ कि देवासुर संग्राम में मैंने इनके प्राणॊं की रक्षा की थी, उसी से प्रसन्न होकर तुम्हारे पिता ने मुझसे दो वर मांगने को कहा था. तब मुझे किसी चीज की आवश्यकता नहीं थी. आज जरुरत पड़ी और मैंने मांग लिया. महाराज ने मेरे पहले वरदान को     स्वीकार      करते हुए मुझसे कहा कि ठीक है मैं राम की जगह भरत का राज्याभिषेक                 करने को सहर्ष              तैयार हूँ. दूसरे वरदान में मैंने तुम्हारे लिए चौदह वर्ष का बनवास मांगा है, मुझे लगता है कि                 महाराज इसे पूरा नहीं करना चाहते, यही वह कारण है कि वे शोक संतप्त होकर बार-बार मुर्च्छित हो जाते हैं."

"हे राम. !...मुझे जो अच्छा लगा, मैंने मांग लिया,  इस वरदान के बदले कोई दूसरा वर मांग लूं, अब यह संभव नहीं है. मैं एक क्षत्राणी हूँ और एक छत्राणी जो ठान लेती है, उसे पूरा करके ही रहती है. हे राम..!...तुम जितनी शीघ्रता से वन जा              सकते हो, केवल उस दिशा में विचार करो. मुझे मालुम है कि महाराज अपने मुँह              से तुम्हे वनगमन के लिए कभी नहीं कहेंगे. लेकिन उन्हें हर हाल में मेरे वरदान      को परा करना ही होगा, या फ़िर         अपनी महानता का ढिंढोरा पीटना बंद करना         होगा. अपने दिए गए वचनों को पूरा न करने का उन्हें ही अपयश उठाना होगा. उनकी लोकनिंदा होगी सो अलग".

"जो बात तुमसे तुम्हारे पिता नहीं कह सकते, वह बात मैंने तुमसे कह सुनाया है. मैंने जो कहा है, उसे पिता की आज्ञा के रूप में ही तुम्हें स्वीकार करना होगा. यदि तुम पिता की आज्ञा का उल्लघंन करते हो, तो इसके लिए तुम दोषी होगे .तुम्हें भी         लोकापवाद का सामना करना होगा, लोकनिंदा के तुम भी भागीदार होगे."

"कुछ देर पहले तक तो तुम बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे कि पिता की आज्ञा का पालन करने                 के लिए मैं आग में कूद सकता हूँ, पहाड़ की चोटी से नीचे कूद सकता हूँ       और भी             न जाने क्या क्या...? अब इसी में भलाई है कि तुम वन जाने की तैयारी करो". कैकेई ने कहा.

"माना कि पिताश्री ने अपना मन बदल लिया है. अब वे मेरे अनुज भरत का राज्याभिषेक   करना चाहते हैं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी और न ही कोई पछतावा. इतना ही नहीं    मैं अपने प्रिय भ्राता के लिए अपने प्राण भी दे सकता. फ़िर यदि स्वयं              महाराज मुझे आज्ञा दें तो मैं उसका पालन करते हुए उस कार्य को क्यों नहीं करूँगा?"

"हे माते.!..मैं धन का उपासक होकर जीवन नहीं जीना चाहता. ऋषियों की ही भांति मैंने निर्मल धर्म का आश्रय ले लिया है. यहीं रहते हुए मैंने कठोर संयमित जीवन जीने, भीषण गर्मी, बरसात तथा ठंडादि को सहन करने तथा भूख को नियंत्रित कैसे किया जाता है नियमपूर्वक सीख लिया है. अतः वन में रहते हुए मुझे कभी कोई परेशानी नहीं उठानी       पड़ेगी".

"माते..!.यह उचित होगा कि भाई भरत को मामाश्री के यहाँ से बुला लेने के लिए             आप शीघ्रता से द्रुतगति से दौड़ने वाले घोड़ों की व्यवस्था कर दूत को शीघ्र ही जाने की आज्ञा दे. मैं अपने पिता की बात पर कोई विचार न करते हुए तुरंत ही दण्डकारण्य को चला जाऊँगा...आप निश्चिंत रहें"

"हे माता..!..आपका मुझ पर उतना ही अधिकार है, जितना कि पिता श्री का और            माता कौसल्या जी का है. इतनी सी बात कहने के लिए आपने पिताश्री को अकारण कष्ट दिया?. आप भी मुझे वन जाने की आज्ञा दे सकती थीं. राम उसे स्वीकार करते हुए वन को चला जाता".

"अच्छा माते.....अब मुझे आज्ञा दें...मुझे यहाँ से जाकर माता कौसल्या जी और             सीता को     भी समझाना-बुझाना होगा. उन्हें आश्वस्त करते हुए मैं दण्डक वन को चला जाऊँगा. आप निश्चिंत रहें..चुंकि आप राजकाज में दक्ष हैं, अतः मेरी आपसे              एक प्रार्थना है कि          आप भरत को राज्य के संचालन में सहायता करेंगी और उसे      पिताश्री की सेवा-सुश्रुषा करते रहने की उचित सीख भी देंगी"

उन्होंने आगे बढ़कर माता कैकेई और पिताश्री के चरणों में प्रणाम किया और कक्ष से बाहर जाने लगे. सुमन्त्र जी उसी कक्ष में रहकर मां और बेटे के बीच चल रही वार्ता को सुन रहे थे. सुन रहे थे कि ‍निष्ठुर कैकेई ने किस चतुराई के साथ अपने पति की आड़ लेकर राम को वन जाने की आज्ञा दी है. वे सोचने लगे थे- "राम भी अपने तरह के राम हैं. कितनी सहजता के साथ उन्होंने विमाता के वचनों को पिता की आज्ञा मानकर वन जाने को उद्दत हो गए. शायद इनकी जगह कोई और होता तो निश्चित ही इस आज्ञा को     मानने से इनकार कर देता. चूंकि पूरा समाज, अयोध्या के समस्त नर-नारी राम के पक्ष में थे, वे चाहते तो कोई और बड़ा निर्णय लेकर वितंडा खड़ा कर सकते थे, लेकिन नहीं, पिता की महानता और अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा धुमिल न हो जाए, इसका ध्यान रखते हुए उन्होंने वन जाने का निर्णय ले लिया था.

                सुमन्त्र जी को राजकाज का लंबा अनुभव था. वे तुरन्त भांप गए थे. भांप गए थे कि जैसे ही यह समाचार अंतःपुर से बाहर आएगा, लोगों में खलबली मच जाएगी. जगह-जगह        उपद्रव होने लगेंगे. यह भी संभव की क्रुद्ध भीड़, आक्रमक होकर तोड़फ़ोड़ न करने लगे. वे कहीं राजमहल को आग के हवाले न कर दे. बात काफ़ी गंभीर थी, अतः उन्होंने      अन्तःपुर के विश्राम-गृह में महाराज दशरथजी की प्रतीक्षा कर रहे गुरु वशिष्ठ को जाकर स्थिति से अवगत कराना जरुरी लगा. राम अपने कक्ष से बाहर         आएं, वे      उससे पहले वहाँ से निकलकर सीधे गुरुजी के पास पहुँचे और उन्होंने अन्तःपुर में चल रहे ‍षड़यंत्र की सूचना देते हुए कहा-"गुरुदेव...बड़ी ही विकट                 परिस्थिति का निर्माण हो चुका है. अतः आप बाहर जाकर स्थिति को संभालने का जतन करें. हो सके तो आप सैनिकों को भी तैयार रहने को कहें". कहने को तो वे बहुत कुछ बोल चुके थे,                लेकिन मन में एक संदेह भी था कि यदि सैनिकों ने भी विद्रोह कर दिया, तब स्थिति को                 संभालना और भी मुश्किल हो जाएगा. उन्होंने मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की कि इस विकट परिस्थिति में अयोध्या को बचा लें.

                माता कैकेई और रामजी के बीच चल रहे वार्तालाप के बीच महाराज मूर्छावस्था से बाहर निकल आए थे और वे दोनों के बीच चल रही वार्ता को ध्यान से सुन रहे थे.   कैकेई की जली-कटी और कठोर बातों को सुनकर उन्हें अपार दुःख हो रहा था,  आँखें भी डबडबा आयी थीं, और अब लगभग वे रो ही पड़े थे..उनके शरीर में इतनी शक्ति भी नहीं रह गयी थी कि वे कैकेई से कुछ बोल पाते. जैसे ही उन्होंने राम को अपने कक्ष से बाहर    जाते हुए देखा, अपना दाहिना हाथ उठाकर राम को रुक जाने के लिए कुछ कहना चाहते थे. कांपते हुए शब्दों में.….हे राम...हे राम....इतना ही बोल पाए थे .वे आगे बोलना भी चाहते थे लेकिन मूर्छा ने उन्हें फ़िर से आ घेरा था. उनका उठा हुआ हाथ शैया पर बेजान होकर लुढ़क गया ..

                अन्तःपुर में  रहने वाली राजमहिलाएँ उन दोनों के बीच चल रही वार्तालापों को ध्यान से   सुन रही थीं, सुन रही थीं कि किस तरह माता कैकेई ने रामजी को वन जाने के लिए विवश कर दिया है. रामजी का यह स्वभाविक गुण है कि वे अपने माता-पिता सहित बड़े-बूढ़े लोगों का न तो अपमान करते हैं और न ही उनकी कही बातों को टालने की जरुरत ही करते हैं.

                उन्होंने बड़ी सहजता और विनम्रता के साथ अपनी विमाता को धीरज बंधाते हुए             कहा था-     "माता ! आप विश्वास करें...माता कौसल्या और सीता को समझा-बुझाकर मैं शीघ्रता से              वन को चला जाऊँगा",

                अन्तःपुर में  कोहराम.

                इस बात को सुनकर वे सभी शोक में डुबने-उतराने लगीं थीं. उन्होंने श्रीराम को कैकेई के कक्ष से निकल कर जाते हुए देखा, वे इस असह्य दुख से दुखी होकर फ़ूट-फ़ूट कर विलाप करने लगीं थीं. एक सखी ने दूसरी से कहा_"पिता के आज्ञा को सुने बिना ही रामजी वन जाने के लिए कैसे तैयार हो गए?.... वाह राम वाह...  लेकिन राम...राम है...सहज हैं..सरल है....विनम्र हैं...पितृभक्त हैं, केवल विमाता कैकेई जी के कहने मात्र से उन्होंने इतना बड़ा निर्णय कर लिया...धन्य हैं राम....धन्य हैं.. दूसरी सखी ने तीसरी से कहा.-"हम तो केवल उनके चंद्रमुख       को देखकर ही जीवित रहती आयीं हैं.... हम  उनके ही सहारे तो रहती आयीं है...वे ही हमारे रक्षक भी थे...वे कभी भी दूसरों के      मन में क्रोध उत्पन्न होने वाली बातें    नहीं बोलते थे...सभी रुठे हुओं को मना लिया करते थे....मुझे लगता है हम सब अब अनाथ हो जाएंगी". तीसरी ने चौथी से कहा-"लगता है महाराज की बुद्धि मारी गयी है. तभी तो वे समस्त प्राणियों के जीवनाधार राम का परित्याग करने जा रहे हैं."

                अन्तःपुर में मचे आर्तनाद को सुनकर महाराज को अत्यत ही मानसिक पीड़ा होने            लगी थी. वे विलाप करने लगे थे. बड़ा ही हृदयविदारक दृष्य उपस्थित हो चुका था          इस समय. इतना सब देखने और सुनने के बाद भी कैकेई पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा था.लेकिन दृढ़्प्रतिज्ञ राम ने अपने पथ का चुनाव कर लिया था. वे जो एक बार     निर्णय ले लेते हैं उससे फ़िर कभी पीछे नहीं हटते.

                जैसे ही वे अन्तःपुर से बाहर निकले, सुमन्त्र उनके साथ हो लिए. आगे रथ तैयार              खड़ा था.    उन्होंने श्रीराम जी से कहा कि आप रथ पर सवार हो जाइए, मैं आपको         शीघ्रता से कौसल्या जी के महल तक ले चलूँगा.तब रामजी ने अत्यन्त ही मृदु वाणी में कहा:- "नहीं सुमन्त्र जी नहीं.....मैं अब राजकुमार नही रहा...मैं अब एक सामान्य नागरिक हूँ... अत्तः मुझे अब कोई अधिकार नहीं बनता कि मैं रथ की सवारी करूं...अतः उचित होगा             कि मैं पैदल ही चलता हुआ माता के दर्शनों के लिए चला जाऊँगा. उन्हें भली-भांति समझाते-बुझाते मैं शीघ्र की वन की ओर चल दूँगा".बात सच भी थी कि वे अपना विशेषाधिकार खो चुके थे. वे अब एक सामान्य जन की तरह ही थे. एक साधारण प्राणी...एक साधारण नागरिक. वे राजसत्ता का उपभोग भला कैसे कर सकते थे?.

                बातें करते हुए सुमन्त्र जी की नजरें रामजी के चेहरे से चिपकी हुईं थीं. वे देख रहे             थे कि इतनी बड़ी विपदा से गुजरने के बाद भी उनके चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान तैर रही है. वे सदा की तरह सामान्य दिखाई दे रहे हैं. बातें भी विनम्रता से बोल रहे हैं...एक्दम तरोताजा...प्रफ़ुल्लित दिखाई दे रहे हैं. यह सब देखते हुए उन्होंने   बड़ी विनम्रता के साथ     अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा:-"धन्य है राम.....आप.धन्य       हैं...आप जैसा ही व्यक्ति ऐसा सोच सकता है..आप महान है राम...आप महान              हैं.....विधाता आपके मार्ग में सदा सहायक रहें.... चौदह वर्ष की अवधि बीत जाने और आपके सकुशल लौट आने की प्रतीक्षा में मेरी    ये दो आँखें सदा आपकी प्रतीक्षा करती रहेंगी".

                सुमन्त्र जी के हाथ जुड़े की जुड़े ही रह गए थे, कि राम आगे बढ़ चले थे. सुमन्त्रजी           की आँखें देख रही थी...वे न तो बायीं ओर देख रहे थे और न ही दाहिनी      ओर....जबको                 दोनों ओर तरह-तरह के आयोजन किए जा रहे थे. वे यह भी देख पा रहे थे कि लोग उन्हें   आता देख अपनी जगह से उठकर अभिवादन करने लगे थे. उनके नाम का जयकारा लगा रहे थे, लेकिन राम ने उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा.

                चुंकि शत्रुघ्न और भरत अयोध्या में न होकर, अपने मामाजी के यहाँ गए हुए थे.              अतः राज्याभिषेक की तैयारी में लक्ष्मण अपनी पूरी निष्ठा और समग्रता के साथ डटे हुए थे. सहसा उन्होंने अपने बड़े भ्राता रामजी को आते हुए देखा. जिस राह से चलकर वे आ रहे थे, वह राह सीधी माता कैकेई जी और पिताश्री के अन्तःपुर से जुड़ी हुई थी. भैया का सीधा वहाँ से निकल कर आता देख, उनका माथा ठनका था. मन में शंका-           कुशंकायें घर करने लगी थीं. वे समझ गए कि कुछ न कुछ गड़बड़ जरुर है. पर क्या          गड़बड़ी है, ये वे नहीं जानते थे. अतः बिना कुछ बोले वे रामजी का अनुसरण करते हुए पीछे-पीछे चलने लगे थे.. रामजी इस समय माता कौसल्या जी के महल की ओर जा रहे थे.

                महल के बाहर बाल-आबाल, वृद्धजनों सहित अनेक गणमान्य नागरिकों की भीड़            जमा हुई थी. वे सभी रामजी को बधाइयां देने के लिए इकठ्ठा होकर, उनके आगमन          की प्रतीक्षा कर रहे थे. रामजी को आता देख सभी के मन में प्रसन्नता का समुद्र ठाठे मारने लगा था. सभी ने हर्षोल्लास के साथ करतल ध्वनि करते हुए जयकारा लगाना शुरु किया. बिना कुछ बोले और रुके वे सीधे माता कौसल्या जी के कक्ष की ओर बढ़ते चले गए थे.

                असमंजसमें राम

                माताजी के कक्ष में पहुँचकर उन्होंने देखा. वे अपने कुलदेवता श्रीरंग जी की पूजा             करने में       निमग्न थीं. मूर्ति के समीप दीपक प्रज्जवलित किया गया था और अगर-चंदन की अगरबत्ती से पूरा कक्ष सुगंधित हो उठा है.

                थोड़ी देर तक अनमने से खड़े रहे थे राम. सोच रहे थे कि माताश्री इस समय पूरी              श्रद्धा और लगन के साथ अपने इष्ट देव से मेरे निर्विघ्न राज्याभिषेक संपन्न होने के लिए प्रार्थना कर रही होंगी. लेकिन उन्हें अब तक इस बात की भनक तक नहीं लग पायी होगी            कि अब उनका सपना पूरा होने वाला नहीं है..वे जो प्रार्थना करते हुए श्रीरंगजी से मांग रही                 हैं, उनकी मांग कभी पूरी होने वाली नहीं है. यह सच है कि उनका राज्याभिषेक नहीं हो रहा है, बल्कि उन्हें दण्डकवन के लिए प्रस्थान करना है.

                जो सच है, उसे बतला भी जरुरी है. बतलाना तो होगा ही... मैं माताजी को कैसे              बतला        पाऊँगा कि मुझे अभी और इसी समय राज्य का त्याग कर चौदह वर्षो के लिए दण्डकारण्य के लिए निकल जाना है. इस समाचार को जानकर उन पर कैसी क्या बीतेगी? इस पर वे गंभीरता से सोच रहे थे.

                कुछ न बोलते हुए वे अपनी माताजी के निकट जा बैठे. थोड़ी देर बाद जैसे ही उन्होंने अपनी आँखें खोलीं. देखा राम पास में ही बैठे हुए है. अत्यन्त विभोर होते हुए उन्होंने रामजी को अपनी छाती से चिपका लिया और बोलीं.."राम....राम तुम आ गए.......मैं तुम्हारे आने की बड़ी व्यग्रता से प्रतीक्षा कर रही थी" कहते हुए उन्होंने रामजी के माथे पर चंदन का टीका लगाते हुए आशीर्वाद देते हुए कहा:- आज मैं धन्य हुई राम....आज तुम अयोध्यापति बनने जा रहे हो...तुम अयोध्या के राजा   बनोगे..इसी सपने को साकार होते हुए मैं देखना चाहती थी...कितने बरस बाद आज मेरी मनोकामना पूरी होने जा रही है....तुम भी अपने पिता की तरह अयोध्या की प्रजा का निस्वार्थ भाव से पालन-पोषण करते रहोगे"

                असमंजस में थे राम कि माँ को किस तरह बतलाएँ कि अब भरत का राज्याभिषेक होगा और मुझे चौदह वर्षों के लिए दण्डकारण्य जाना होगा, संभव है इस बात को सुनते ही उनके दिल और दिमाग पर गहरा असर पड़ेगा. बात ही कुछ ऐसी थी          जिसे सुनकर वे मूर्छित भी                 हो सकती हैं..अतः राम ने प्रकृति का उदाहरण देते हुए             कहा:- "माता..जिस तरह सूर्योदय होने पर नए दिन की शुरुआत होती है और सूर्यास्त होने पर रात्रि का आगमन होता है.. दूसरे दिन फ़िर सूर्योदय होगा,  नए          दिन की शुरुआत           होगी और बीता हुआ दिन इतिहास का विषय हो जाएगा. जो बात कल थी, वह       आज नहीं होगी. सब कुछ बदला हुआ-सा होगा..ठीक इसी तरह पिताश्री ने जो जो         कुछ कल कहा और सोचा था, रात्रि के बीतने के साथ वह बात बदल दी गई है. अब मेरा राज्याभिषेक न होकर अनुज भरत का राज्याभिषेक होगा. किसके भाग्य में क्या लिखा-बदा है? यह उस व्यक्ति को पता नहीं होता. उसे तो              विधाता के लिखे के अनुसार ही चलना होता है. मेरे भाग्य में शायद वन जाना ही लिखा होगा. मैं आज ही दण्डकारण्य चला              जाऊँगा. मैं राजभोग्य वस्तुओं का त्याग करके, मुनियों की भांति कन्द, मूल और              फ़लों से              अपने जीवन का निर्वाह करते हुए चौदह वर्षों तक निर्जन वन में रहूँगा".

                कौसल्या जी ने कभी दुःख का मुँह नहीं देखा था. वे सदा से ही प्रसन्नचित्त रहती             आयीं         थीं. वे स्वयं तो प्रसन्न रहती ही रहती थीं, साथ में अपनी सौतों को भी प्रसन्न रखती थीं.            आज उनके अपने जीवन में यह पहला अवसर था, जब वे असह्य दुःख का सामना कर रहीं थीं.अपने बेटे के मुख से वनगमन की बात को सुनते ही उनको गहरा आघात लगा          और वे तत्क्षण मूर्छित होकर धरती पर निढाल होकर गिर पड़ीं थीं. उनके मूर्छित        होकर गिर पड़ने के साथ ही, रनिवास में हाहाकार मच गया था. किसी को भी इस            बात की कल्पना तक नहीं थी, कि उन्हें ऐसा हृदयघाती समाचार सुनने को मिलेगा.

                दीन दशा में पहुँच चुकी माँ को उन्होंने अपनी विशाल बाहों में उठाया और उनके            चेहरे पर      शीतल जल का छिड़काव किया. चेत में आते ही उन्होंने राम को अपनी बाहों से भरते हुए     अपनी छाती से चिपका लिया और अब वे फ़बक कर रो पड़ी थीं. उनके आँसू रोके नहीं रुक रहे थे.

                रुदन करते हुए ही उन्होंने राम से कहा- "मैं कैकेई की कुटिलता से भली-भांतो परिचित हूँ. यह सब उसी का करा-धरा है. सौतिया डाह के कारण उसने मुझसे बदला लेने के लिए ही यह चाल चली है. जबकि रघुकुल में ज्येष्ठ पुत्र का राज्याभिषेक होता आया है. उसने अपने पुरखों से चली आई परम्परा को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है. वह तो तुझे खूब    लाड़-प्यार करती थी. वह तेरी बड़ाई करते थकती नहीं थी, फ़िर ऐसा क्या हो गया                कि उसने तुझे राज्य से बाहर ही कर दिया?. उसका कपटी रूप मुझे आज देखने को मिला. पुत्र मोह में पड़कर ही उसने तुझे अपने रास्ते से ही हटा दिया. मैं उसे दोष दूँ भी तो               किस तरह?. इसमें सबसे बड़ी गलती तो तुम्हारे पिता की है. कैकेई ने उन्हें शुरु से ही         अपनी रूप-राशि में इस तरह जकड़ रखा है कि क्या उचित है और क्या अनुचित है, इसका निर्णय भी महाराज नहीं पाए".

                "बेटा.....यदि तुम्हारा जन्म नहीं हुआ होता, तो मुझ पर केवल एक वन्ध्या-स्त्री होने का लांछन लगता, लेकिन पुत्र-विछोह के इस दारूण दु:ख को तो नहीं सहना पड़ता. एक महारानी को जो सुख प्राप्त होना चाहिए था, वह भी मुझे कभी नहीं मिला. सोचा करती थी जब मेरी संतान होगी, तो उसका मुख देखकर मैं सारे दुःखो को भुला दूंगी, लेकिन ऐसा भी नहीं हो पाया. मुझे लगता है कि मेरे दुःखों की सीमा का कोई अंत ही नहीं है".

                "रानियों में ज्येष्ठ होने पर भी मुझे अपनी सौतों से तिरस्कार ही मिलता रहा है. पति से भी कभी मीठे बोल सुनने को नहीं मिले. मुझे न तो उनसे प्यार मिला और न ही सम्मान. मैं तो कैकेई की दासियों के बराबर अथवा उनसे भी गयी-बीती समझी जाती रही हूँ".

                "इतना ही नही, मेरी सेवा कर रहीं सेविकाओं को यदि भरत ने देख लिया तो वे                मारे भय      से कांपने लगती थीं और मेरे कक्ष से बाहर निकल जाया करती थीं. मुझसे बात करने वाला भी कोई नहीं होता था. मैं सदा से ही एकाकी जीवन जीती                 आयी हूँ"

                "कैकेई के मुख से मुझे कभी कोई मीठे बोल सुनने को नहीं सुने. क्रोधी और उग्र               स्वभाव       वाली कैकेई के कटु वचनों को सुन-सुनकर मैंने कितने आघात सहे है, तुम्हें क्या बतलाऊँ. तुम ही मेरा एकमात्र सहारा थे. अब तुम्हारे न रहने पर मुझे और      भी न जाने कितने दुःखों को उठाना पड़ेगा"?.

                "हे राघव.!..इस वृद्धावास्था के चलते सौतों से मिलने वाला तिरस्कार और उनकी जली-कटी बातों को सुनने की मेरी सहनशक्ति की सीमा कभी की समाप्त हो चुकी है. मैं तुम्हारे चन्द्रमा के समान मनोहारी मुख को देखे बिना कैसे जीवित रह सकूँगी?"

                "मुझ भाग्यहीना ने बारंबार उपवास, देवताओं का पूजन और ध्यान लगाया है, लेकिन सारे किए-धरे का मुझे कोई फ़ल प्राप्त नहीं हुआ. इस समाचार को सुनकर भी मेरा ह्रद्याघात नहीं हुआ. तुम्हारे बिना जीना तो ठीक उसी तरह हुआ जैसे बछड़े से बिछुड़ी हुई गाय की भांति होती है. हे राघव ! मैं अब और जीवन जीना नहीं चाहती."

                "हे राघवेन्द्र..तुम मुझे इस तरह शोक में डूबी हुई छॊड़कर जाओगे तो मैं तो मैं भोजन-पानी का त्याग करके अपने प्राणॊं को त्याग दूँगी".

                अपनी माता को विलाप करता देख राम की आँखें भी सजल हो उठी थीं...उनका             दिल भर      आया था. फ़िर भी उन्होंने संयम रखते हुए बोला-: हे माते.!...आप राम की माता                 हैं...राम       की माता को इस तरह विलाप करना शोभा नहीं देता. चाहे जितनी              भी विपत्ति आएं,           चाहे जितना बड़ा भी संकट आए, उसका डट कर सामना करना, धीरज बंधाए रखना, हर हाल में प्रसन्न रहना और अपनी प्रसन्नता को औरों को      बांटना जैसे अद्वितीय गुणॊं को मैंने आपसे ही सीखा है. मैंने हर विपरीत परिस्थितियों को सहन करने की जो शक्ति प्राप्त की हैं. वे सभी मैंने आपसे सीखी है. यदि आप ही अपना धीरज खो देंगी, तो राम को धीरज कौन बंधाएगा? क्या आप राम को इस रूप में देखना चाहेंगी?".

                "मेरे वन को चले जाने के बाद आपकी जवाबदारी और भी बढ़ जाएगी. आप अकेली     कहाँ हैं?...आपके साथ माता सुमित्रा जी, अनुज लक्षमण, शत्रुघ्न, भरत सहित चार-चार पुत्रवधुएँ  भी तो हैं. वे सदैव आपका ध्यान रखेंगी. आपकी सेवा में हर समय उपस्थित रहेंगी.. आपके मन को बहलाती रहेंगी. फ़िर ज्येष्ठ होने के नाते     आपको इतने बड़े परिवार को संभालने की जिम्मेदारीभी तो होगी. इसका भी प्रयत्न आपको ही करना होगा".

                "माँ..!... अपने पिताश्री की आज्ञा का उल्लंघन करने की मुझमें इतनी शक्ति नहीं             है.मैं उनकी हर आज्ञा का पालन करने के लिए सहर्ष तैयार हूँ, भले ही मुझे दारुण दुःख ही क्यों न उठाना पड़े. पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए कण्वमुनि ने गो-हत्या      जैसा जघन्य पाप करने से नहीं हिचके थे. आप तो रघुकुल के गौरव से भली-भांति परिचित ही हैं. अपने ही कुल में जन्में राजा सगर के पुत्रों ने पृथ्वी खोदते हुए अपने प्राणॊ का उत्सर्ग कर दिया था. परशुराम जे अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा को शिरोधर्य करते हुए, अपने       फ़रसे से माता रेणुका का गला काट दिया था. और भी ऐसे महानुभाव रहे हैं जिन्होंने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया है. "माता...मैं कोई नवीन धर्म का प्रसार नहीं कर रहा हूँ. पूर्वकाल में भी धर्मात्मा पुरुषों को भी यही अभीष्ठ था. मैं तो केवल उनके बतलाए हुए मार्ग का अनुसरण ही कर रहा हूँ.

                ."संसार में धर्म ही श्रेष्ठ है. धर्म से ही सत्य की प्रतिष्ठा होती है. पिताजी का यह वचन भी धर्म के आश्रित होने के कारण उत्तम है. धर्म का आश्रय लेने वाले पुरुष को अपने पिता, माता, गुरुजनों के वचनों का पालन करने की प्रतिज्ञा करके उसे मिथ्या नहीं करना    चाहिए. अतः मैं पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता, क्योंकि पिताजी          की सहमति से ही माता कैकेई ने मुझे वन में जाने की आज्ञा दी है."

                "आपके आशीर्वाद से मुझे कभी कोई कष्ट नहीं होगा. चौदह वर्ष की अवधि बहुत छोटी है, वह.यूंहि ही बीत जाएगी..जैसे ही यह अवधि समाप्त होगी, राम फ़िर अआपके सन्मुख उपस्थित हो जाएगा. अतः आप इस तरह विलाप करना छोड़ दीजिए और हँसते- हँसतेअपने राम को वन जाने दीजिए."

                लक्ष्मण का कोप

                बहुत देर तक लक्ष्मण अपने क्रोध पर नियंत्रण रखते रहे थे, लेकिन अब उनके क्रोध का पारावार बढ़ने लगा था. नेत्रों से जैसे अंगारे बरसने लगे थे. उनकी मुठ्ठियाँ कसने लगी थी. उन्होंने अपने ज्येष्ठ भ्राता रामजी से कहा- "बस भैया बस....अब बहुत हो चुका आपका नीति-नियम का समझाना....बहुत समझा चुके आप बड़ी माँ को धर्म की बड़ी-बड़ी     बातें......अरे...जिसके बेटे को अकारण ही इतनी बड़ी सजा दे दी गई                 हो, वह माँ विलाप नहीं करेगी तो क्या करेगी.?..और आप हैं जो उन्हें धीरज धरने            का पाठ पढ़ा रहे हैं...उन्हें धर्मोपदेश दे रहे हैं? क्या यही धर्म है कि बिना किसी अपराध के किसी को दण्डित किया जाए? नहीं ...नहीं.....मैं ऐसे धर्म को नहीं मानता. यह धर्म नहीं,              सरासर अधर्म है"

                "लक्ष्मण ने यूंहि अपने अपने कांधे पर धनुष और तूणीर में बाणॊं को सजा कर नहीं रखा है. मैं अभी... और इसी समय उन सबको मार गिराऊँगा, जो आपके विरुद्ध उठ खड़ा           होगा.. मेरे तीर , न तो कोई रिश्ता देखेंगे और न ही छोटा-बड़ा, सभी को यमलोक की सैर करने का रास्ता दिखाएंगे...हे रघुनन्दन.!आपको बनवास दिया गया है, इस बात को   अभी कोई नहीं जान पाया है..आगे बढ़िए और राज्य के शासन की बागडोर अपने हाथ में ले लीजिए...इस कृत्य मैं आपका सहायक होऊँगा".

                "हे रघुवीर..!...मैं धनुष-बाण लिए आपके पास रहकर आपकी रक्षा करता रहूँगा और आप काल के समान युद्ध के लिए डट जायें..और अपना पौरुष दिखाते हुए उन सबका            वध कर डालिए, जो आपके मार्ग में रुकाबट डालने का साहस रखते हों. यदि कोई भरत का पक्ष लेगा, उन सबका मैं वध कर डालूँगा. यदि माता कैकेई के प्रोत्साहन पर स्वयं पिताश्री भी शत्रु बनकर सामने आ जाए, तो मैं मोह-ममता छोडकर उन्हें कैद कर लूँगा या              फ़िर उन्हें भी मार गिराऊँगा. यदि गुरु भी घमंड में कुमार्ग पर चलते हुए          हमारा विरोध करेंगे, तो मैं उन्हें भी नहीं छॊडूँगा".

                "बड़ी माँ...मैं शपथ खाकर तुमसे मन की सच्ची बात कह रहा हूँ कि ज्येष्ठ भ्राता राम जी   के प्रति मेरा अनन्य अनुराग है. बिना इनके मैं अपने जीवन में कोई कामना नहीं                 रखता....हे माता.!...मैं ज्येष्ठ भ्राता के लिए कुछ भी करने को तैयार हूँ. अब आप मेरे पराक्रम को देखिए कि मैं किस तरह अपनी शक्ति से सारे संतापों को जड़ से मिटाकर, आपके सारे दुःख दूर किए देता हूँ."

                "पिताश्री कैकेई में आसक्तचित्त होकर जिस तरह दीन-हीन बने हुए हैं और अविवेकी होकर                राम जैसे धर्मात्मा को राज्य से बाहर निकालने का मन बना चुके हैं, लक्ष्मण उनका वध करने से भी नहीं हिचकेगा..हे माते.!..आप मेरा विश्वास करें".

                श्रीराम लक्ष्मण की बातों को ध्यान से सुन रहे थे. और देख भी रहे थे कि इस समय लक्ष्मण क्रोध में उबल रहे हैं.. क्रोध के चलते उनकी आँखें लाल-लाग   अंगारों की तरह             दहक रही हैं. वे इस समय किसी का भी वध करने को उद्धत हो           रहे हैं. यहाँ तक कि उन्होंने               माता कैकेई और पिताश्री का भी वध करने जैसी अशोभनीय बातें कह डाली है. क्रोध अग्नि                 के ही समान है. अग्नि का स्वभाव ही है कि वह उन सभी चीजों को भस्म कर डालती है, जो उसकी लपेट में आते-जाते हैं. इसी तरह क्रोधाग्नि में भी सब   कुछ जल कर नष्ट हो जाता है. जैसे ही विवेक की सीमा समाप्त होती है, उसकी जगह क्रोध स्थान ले लेता है. ठीक उसी तरह विवेकहीन पुरुष भी, वे सारे कार्य कर चुकता है, जो उसे नहीं करना चाहिए था. क्रोध थोड़ी देर तक बना रहता है और एक सीमा पर जाकर शांत हो जाता है. क्रोध के शांत होने पर फ़िर विवेक अपने स्थान पर तआ जाता है. क्रोध के उतर जाने के बाद उस व्यक्ति को सिवाय पछतावे के कुछ भी हाथ नहीं लगता है.

                राम जानते हैं कि क्रोधाग्नि को शांत करने के लिए उचित सलाह देने तथा मृदुल              शब्दों की शीतलता से ही उस पर नियंत्रण पाया जा सकता है. यह ठीक उसी तरह           होता है, जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि को शांत करने के लिए शीतल जल का छिडकाव   किया जाता है.              लक्ष्मण के क्रोध को शांत करने के लिए उन्होंने अत्यन्त ही मधुर                 वचनों में कहा:-                "लक्ष्मण... मेरे भाई..!. तुम्हारा क्रोधित होना स्वाभाविक है....तुम्हारी          जगह कोई और             होता, तो वह भी इसी तरह क्रोधित होता, जैसा कि तुम हो रहे    हो......जानते हो क्रोधाग्नि     के प्रचण्ड रूप धारण करने के बाद, व्यक्ति अविवेकी हो जाता है और इसी अविवेक के चलते वह बड़े से बड़ा अनर्थकारी काम करने लगता है, जो उसे नहीं करने चाहिए थे. जैसे ही क्रोधाग्नि शांत होती है, और उसका विवेक जाग्रत होता है, तब उसके पास पछतावा करने के अलावा और कुछ नहीं होता".

                "क्रोध में आकर तुम अपने स्वजनों,..... अपने गुरुजनों को.......यहाँ तक अपने देवतुल्य माता-पिता तक को जान से मारने को उद्धत हो गए थे, यह कहाँ तक उचित है मेरे भाई....जिस माता-पिता से हमने जन्म पाया, जिन गुरुजनों के अनुशासन में रहकर हमने उत्तम विद्या पाई, हम उनका  वध कैसे कर सकते है? यह तो नियम विरुद्ध कर्म हुआ न          !..अतः मेरे भाई..!...अपने गुस्से पर नियंत्रण रखो...अब शांत हो जाओ".

                "हे सौमित्र..!.क्षत्रियों का धर्म है कि वह अपने अस्त्र-शस्त्रों का तभी प्रयोग करे, जब वह किसी के साथ अन्याय होता हुआ देखे...जब कोई अधर्म के पक्ष में खड़ा होकर अन्याय करने पर तुल जाए....जब किसी अबला पर अत्याचार होता दिखाई दे...तब   उसे इनका सहारा लेना चाहिए...जब कोई  आतंकी अथवा उग्रवादी समूची मानवता को नष्ट-भ्रष्ट करने पर उतारु हो जाए, तब अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग किया जाना     चाहिए....जो धर्म के प्रतिकूल आचरण करता पाया जाए, तो उसके विनाश के लिए इनका उपयोग किया जाना चाहिए. अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग धर्म की स्थापना के लिए किया जाना चाहिए...अतः...हे सौमित्र !....अब शांत हो जाओ".

                "लक्ष्मण.!.....तुम क्रोध में आकर उचित और अनुचित के बीच की महीन रेखा को पहचान नहीं पा रहे हो. माता कैकेई ने मुझे दण्डकारण्य जाने के लिए अपनी ओर    से आज्ञा नहीं दी है. उन्होंने तो सिर्फ़ अपने दो वरदान पिताजी से पूरा करने का आग्रह किया था.   माता कैकेई ने भरत का राज्याभिषेक हो,.यह उन्होंने अपने पहले                 वरदान में मांगा था. पिताश्री ने बहुत ना-नुकुर के बाद उसे पूरा करने का वचन दे      दिया है. इसी तरह उन्होंने                 अपने दूसरे वरदान में, मेरे लिए चौदह वर्षों के लिए दण्डकारण्य जाने के लिए मांगा था. अब यहाँ पिताश्री का दायित्व बनता है कि वे उसे भी पूरा करे. लेकिन विडंबना यह है पिताश्री पुत्रमोह के चलते अपने मुँह से ऐसा कभी नहीं कहेंगे, जबकि उनके मौन        में यही अर्थ प्रतिध्वनित होता है. जो बात वे स्वयं होकर नहीं कह सकते थे, उसे माता कैकेई ने कह सुनाया है. अतः सौमित्र.!.....तुम माता कैकेई को दोष देना बंद करो...मुझे तो इसमें उनकी कहीं भी खोट नजर नहीं आती है".

                "लक्ष्मण.!.. एक बात और..जो अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है, जिसे कोई भी समझ नहीं पा रहा है और अकारण ही माता कैकेई पर दोषारोपण मढ़ रहा है. शायद तुम यह भी भूल            रहे हो कि माता कैकेई एक छत्राणी हैं. उन्हें राजकाज का गहरा अनुभव है. उनकी    शूक्ष्म दृष्टि केवल और केवल अयोध्या तक सीमित नहीं रहती. वे आगत और विगत दोनों पर बराबर दृष्टि बनाए रखती हैं. संभव है कि मुझे वन में भेजने            के पीछे कोई गहरा रहस्य छिपा हो, जिसे हम अपने क्षुद्र स्वार्थ के कारण पहिचान नहीं पा                 रहे हैं?.       शायद तुम्हें याद होगा कि ताड़का और सुबाहु के उपद्रवों से तंग आकर, महर्षि         विश्वामित्र जी हम दोनों भाईयों को साथ लेकर गए थे. इसी संदर्भ में मेरे वनवास को जोड़कर                देखा जाए तो, माता कैकेई के मन्तव्य को आसानी से                 समझा जा सकता है. दोनों ही स्थितियां वन जाने से जुड़ी हुई हैं. एक में हमे ले जाया गया था और दूसरी में भेजा जा रहा है. आया कुछ समझ में?

                जंगल में लगी आग को जिस तरह बरसते मेघ बुझा देते हैं, ठीक उसी तरह श्रीराम            की शीतल वाणी को सुनकर, लक्ष्मण की क्रोधाग्नि लगभग शांत तो चुकी थी और अब वे ध्यानस्थ होकर अपने भ्राता की बातों की गंभीरता को समझ रहे थे..सारा       मामला       उनकी समझ में आ गया था. रामजी का स्पष्ट संकेत समझने में उन्हें देर          नहीं लगी थी.

                रामजी ने लक्ष्मण के कानों में इस रहस्य पर से पर्दा उठाते हुए इतने धीमे स्वर मे कह सुनाया, जिसे कोई न सुन सकें. वे जानते थे कि बहुत-सी बातों को अति                गोपनीय बनाए रखना बहुत जरुरी होता है.

                माता कौसल्या जिद काढ़े बैठी थीं कि राम किसी भी कीमत पर वन नहीं जाएंगे,              उनका यह भी कहना था कि यदि राम अपनी बात पर अड़े रहे तो उन्हें मुझे भी                साथ ले जाना होगा.

                सबको समझाया जा सकता है लेकिन पुत्रवियोग की घड़ी में माँ को समझाना बहुत मुश्किल का काम है. अपनी माँ को समझाते हुए उन्होंने कहा"- माँ  !..ये माना कि      माता कैकेई ने पिताश्री के साथ धोखा किया है. पिताश्री ने उन्हें काफ़ी समझाने की             कोशिश भी की, लेकिन वे अपनी बात मनवाने के लिए अड़ी हुईं थीं. जब वे समझाते-समझाते हार चुके तो उन्होंने उनका परित्याग कर दिया है. ऐसी विषम       परिस्थिति में                 आपको पिता श्री के पास होना चाहिए. उनकी सेवा-सुश्रुषा करनी चाहिए. कोई उनके पास बैठे, उन्हें धीरज बंधाए और दो मीठे बोल बोले, ताकि                 उनके मन का संताप दूर किया जा सके. माँ..!.तुम तो ज्ञानी-ध्यानी हो, तुम्हें तो पता ही है कि स्त्री के जीते जी उसका पति ही उसके लिए देवता और ईश्वर के                समान होता है. महाराज आपके प्रभु तो हैं ही, साथ में मेरे भी.प्रभु हैं".

                "जहाँ तक भरत की बात है..वे धर्मात्मा है, प्राणियों के प्रति प्रिय वचन बोलने वाले हैं और सदा धर्म में तत्पर रहते हैं. वह तुम्हारी मन लगाकर सेवा करेगा. अतः उससे    निश्चिंत       रहें. मैं चौदह वर्षों की अवधि बीतते ही फ़िर तुम्हारी सेवा में संलग्न हो जाऊँगा, अतः माता आप धीरज धारण करें.".

                कौसल्या जी जानती थी अपने बेटे के स्वभाव को. वे यह भी जानती थीं कि वे                कितने        आज्ञाकारी हैं. हर छोटी-बड़ी आज्ञा का तत्परता के साथ पालन कैसे और किस तरह किया जाना चाहिए, इसमें वे दक्ष हैं. कौसलया यह भी समझ चुकी थीं कि उनके आँसू भी उन्हें अब रोक नहीं पाएंगे.

                सुमित्राजीकी सीख

                उन्होंने अपनी साड़ी के पल्लु से बहते हुए आसूँओं को पोंछा. फ़िर उन्होंने सेविका को आज्ञा दी वह सुवर्ण कलसी में पवित्र जल भरकर ले आए. उन्होंने उस पवित्र       जल से                 आचमन करते हुए यात्राकालिका का अनुष्ठान किया और अपने पुत्र रामजी को आशीर्वाद देते हुए कहा"-"हे रघुकुलनंदन.!..अब मैं तुम्हें रोक नहीं सकती. अपने अभियान में सफ़ल होकर तुम शीघ्र ही वन से लौट आओ. जिस प्रकार तुम    नियमपूर्वक प्रसन्नता के साथ धर्म का पालन करते हुए देवस्थानों और मन्दिरों में जाकर देवताओं को प्रणाम करना. वे समस्त देव सदा तुम्हारी रक्षा करेंगे. तुम सद्गुणॊं से प्रकाशित हो, तुम्हें विश्वामित्र जी ने जो-जो दिव्य अस्त्र प्रदान किए हैं, वे सभी, तुम्हारी             सब ओर से रक्षा करें. वन की पवित्र नदियाँ पर्वत, वृक्ष, जलाशय, पक्षी, सर्प, और सिंह वन में तुम्हारी रक्षा करें".

                "इन्द्रादि सहित भगवान स्कन्ददेव, सोम, बृहस्पति, सप्तर्षिगणऔर नारद-सब ओर            से तुम्हारी रक्षा करें. समस्त पर्वत, समुद्र, राजा वरुण,  धुलोक, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, वायु, चराचर प्राणी, समस्त नक्षत्र,देवताओं सहित ग्रह, दिन और रात तथा दोनों संध्याएँ-वे सब ओर से तुम्हारी रक्षा करें. छः ऋतुएँ, अन्यान्य मास, संवत्सर, कला और काष्ठा-तुम्हें     कल्याण प्रदान करें".

                "मुनि का वेष धारण करके उस विशाल वन में विचरते हुए समस्त देवता और दैत्य सदा सुखदायक सिद्ध हों.. भयंकर राक्षसों, कुकर्मी पिशाचों तथा समस्त मांस भक्षी जन्तुओं से तुम्हें कोई भय न हो और वे तुम्हारा अहित न करें.जंगल में विचरने वाले     विशाल हाथी, सिंह, व्याघ्र, रीछ, दाढ़वाले अन्य जीव तथा विशाल सींग वाले भैंसे तुमसे द्रोह न करें. आकाशचारी प्राणी, भूतल के जीव-जंतु तुम्हारी रक्षा करे.      शुक्र, सोम, सूर्य, कूबेर तथा यम तुम्हारी रक्षा करें. समस्त लोकों के स्वामी ब्रह्मा, जगत के कल्याणकारक परब्रह्म, ऋषिगण आदि तुम्हारी रक्षा करें".

                ऐसा कहते हुए माता कौसल्या जी ने समस्त देवताओं का पुष्प चढ़ाते हुए विधि-विधान से                 पूजन किया, फ़िर उन्होंने पुरोहित को बुलवाया और विधिवत होम करवाया. पुरोहित ने समस्त उपद्रवों की शान्ति और आरोग्य के उद्देश्य से              विधिपूर्वक अग्नि में होम करके हवन से बचे हुए हविष्य के द्वारा होम की वेदी से              बाहर, दसों दिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों का आव्हान करते हुए बलि अर्पित की. तदनन्तर स्वतिवाचन करते हुए ब्राहमणॊं को मधु, अक्षत, और घृत अर्पित करके                 "वन में श्रीराम का सदा मंगल हो" इस कामना से कौसल्या जी ने उन सबको स्वस्तीवाचन संबंधित मन्त्रों का पाठ करवाया.

                इसके बाद कौसल्या ने सभी विप्रवरों, पुरोहितों को उनकी इच्छा के अनुसार दक्षिणा दी और अपने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए कहा-"हे पुत्र..!.वृत्रासुर का नाश करने के निमित्त जो मंगलमय आशीर्वाद प्राप्त हुआ था, इसी तरह विनतादेवी ने अमृत लाने     के लिए जाने वाले अपने पुत्र गरुड़ के लिए जो मंगलकृत्य किया था, वही मंगल              तुम्हें भी      प्राप्त हो. अमृत की उत्पत्ति के समय दैत्यों का संहार करनेवाले वज्रधारी              इन्द्र के लिए माता अदिति ने जो मंगल आशीर्वाद दिया था, वही मंगल तुम्हारे लिए भी सुलभ हो":इस प्रकार से ,माता कौसल्या जी ने अपने पुत्र के मस्तक पर चंदन लगाकर अक्षत और रोली से टीका लगाते हुए, सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाली विश्ल्यकरणी नामक दिव्य ओषधि लेकर रक्षा के उद्देश्य से उन्होंने मंत्र पढ़ते हुए श्रीराम की कलाई में बांध दी. और उसे जाग्रत करने के लिए अन्य मंत्रों का जाप किया.

                इसके बाद उन्होंने अपने सुयोग्य पुत्र श्रीराम का मस्तक सूंघा और हृदय से लगाते             हुए कहा-"वत्स राम!. तुम सुखपूर्वक वन को जाओ. तुम्हारे सारे मनोरथ पूर्ण हो...तुम स्वस्थ रहो...और सकुशल अयोध्या लौटो". अपना आशीर्वाद देने के पश्चात उन्होंने श्रीराम की    प्रदक्षिणा की. जब वे ऐसा कर चुकीं तब श्रीराम जी ने अपनी माता के चरणों में झुकते हुए अपना शीश नवाया और अब वे अपनी भार्या सीताजी के महल की ओर चल दिए.

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रामजी-सीताजी का संवाद

                सीता जी के कानों में ब्राह्मणॊं के स्वस्तिवाचन की गूंज सुनाई दे रही थी. इसे सुनते हुए उन्होंने इस बात का सहज ही अंदाज लगा लिया था कि राज्याभिषेक की सारी तैयारियां         पूरी हो चुकीहै.उन्होंने राम जी को अपनी ओर आता हुआ देखा. देखा. उन्होंने         वल्कल       वस्त्र पहिन रखे थे. सिर पर जटा-जूट, कांधे पर धनुष और पीठ पर              तरकशों      से भरा तूणीर लिए चले आ रहे हैं.

                रामजी को इस चित्र-विचित्र पोषाक में देख वे सोचने लगी थी. "ये क्या हाल बना           रखा है इन्होंने?. इन्हें तो इस समय उस स्थल पर होना चाहिए था, जहाँ राज्याभिषेक की तैयारियाँ चल रही हैं? मैंने तो ऐसा कहीं नहीं देखा कि जिसका राज्याभिषेक हो रहा हो, वह इस तरह का विचित्र ताना-बाना पहन कर विचरण करता है?’

                विदेहराजकुमारी सीता सामाजिक कर्तव्यों तथा राजधर्मों को जानने वाली थीं. अतः वे अपने देवताओं तथा कुलदेवता की पूजा-अर्चना करके प्रसन्नचित्त हो, अपने स्वामी के आगमन की अधीरता से प्रतीक्षा कर रही थीं.

                पास आते ही उन्होंने अत्यन्त ही विनम्रता से पूछा-"हे रघुनंदन..!. मैं यह क्या देख           रही हूँ ? आखिर आपने ये विचित्र ताना-बाना क्यों धारण कर रखा है.?.. आज तो आपका राज्याभिषेक होने वाला है.....बजाय प्रसन्न रहने के आपके मुख पर उदासी क्यों छाई हुई है? आपके मुख की कांति अचानक उड़ी-उड़ी-सी क्यों लग रही   है.?...आपको इस हालत में देखकर मेरा तो कलेजा बैठा जा रहा है... हे नाथ ! आप चुप क्यों हैं? मुझे शीघ्रता से बतलाने की कृपा करें....जनकनंदिनी सीता जी ने रा        मजी के       समक्ष पश्नों के पहाड़ खड़े कर दिए थे.

                रामजी ने अत्यन्त ही संयत होकर कहा :-"हे सीते..! .मैं जो भी कुछ तुमसे कहने              जा रहा       हूँ, उसे धैर्यपूर्वक सुनें...पिताश्री ने मुझे वन जाने की आज्ञा दी है. इसी कारण मैंने                 वनवासियों की तरह ही इन वस्त्रों को धारण किया है. यह सब क्यों और कैसे हुआ?......इसे भी जानना तुम्हारे लिए आवश्यक है. एक बार देवासुर संग्राम में माता कैकेई, महाराजजी के साथ युद्ध के मैदान में गई हुई थीं, असुरों के घातक प्रहार से घायल होकर पिताश्री मरणासन्न अवस्था में पहुँच चुके थे. माता कैकेई, चुंकि रथ संचालन में दक्ष थीं, अतः उन्होंने घायल महाराज को युद्धक्षेत्र से दूर ले जाकर, उनका उपचार और सेवा-सुश्रुषा की. महाराजश्री ने उनकी सूझबूझ और सेवा-सुश्रुषा से प्रसन्न होकर उनसे दो वरदान मांगने को कहा था, जिसे माता कैकेई ने जरुरत पड़ने पर मांग लूंगी कहकर, अपने वरदान सुरक्षित रख लिये थे.          आज उन्होंने अपने उन दो वरदानों को महाराजश्री से मांग लिया है. पहले में उन्होंने अनुज भरत का राज्याभिषेक करने और दूसरे में मुझे चौदह वर्षों के लिए दण्डकारण्य में जाने का वरदान मांगा है. मैं पिताश्री की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए आज ही वन चला जाऊँगा".

                "हे भामिनी....मैं समझ सकता हूँ कि इस समाचार को सुनकर तुम्हें अत्यन्त ही मार्मिक पीड़ा हुई होगी, लेकिन धैर्य धारण करने के अलावा कोई और अन्य मार्ग भी तो नहीं है ?. वन जाने से पूर्व मैं चाहता हूँ कि तुम यहीं सुखपूर्वक रहते हुए मेरी वृद्ध माता कौसल्या, माता सुमित्रा और माता कैकेई सहित पिताश्री की उचित देखभाल करती            रहोगी. उन्हें किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिए. चुंकि अब भरत राजा होंगे, अतः उनके सम्मान का विशेष ध्यान भी तुम्हें रखना होगा. तुम व्यवहार कुशल हो.,अतः मुझे पूरा विश्वास है कि तुम्हारे व्यवहार से किसी को भी कोई कष्ट नहीं होगा. बनवास की समयावधि पूरी होते ही मैं तुम्हारे पास लौट आऊँगा". रामजी ने सीताजी को समझाते हुए कहा ..

                अपने प्रिय को सुनते हुए सीता जी की आँखे भर आयीं थीं. वे समझ सकती थीं कि विपदा की इस भीषण घड़ी में वे स्वयं जितनी दुःखी हुई हैं, रामजी भी तो उतने ही हो रहे होंगे. अतः विनम्रता से बोलते हुए उन्होंने कहा"-."हे राघव ! आपने कितनी सहजता और सरलता से कह दिया कि मैं महलों की इन चारदीवारी के भीतर रहकर सुखी रह पाऊँगी?. क्या कभी कोई मछली बिना पानी के जीवित रह सकती है? नहीं न !..उसी प्रकार मैं भी आपके वियोग में अपने प्राण त्याग दूँगी. जहाँ तक         माता-पिता, भाई,           बहन आदि का प्रश्न है, वे सभी अपने-अपने भाग्य के अनुसार      अपना जीवन-निर्वाह करते हैं. केवल और केवल एक पत्नि ही अपने पति के भाग्य          का अनुसरण करती हैं. नारियों के लिए इस लोक और परलोक में पति ही सदा उसका आश्रय देने वाला होता है. अतः हे नाथ...मुझे भी अपने साथ ले चलिए".

                "हे आर्य....आपके बिना यदि मुझे स्वर्गलोक का निवास भी मिल रहा हो, तो वह             मेरे लिए नर्क तुल्य ही होगा. मेरे हृदय का सम्पूर्ण प्रेम एकमात्र आपको ही समर्पित            है. मेरी हर आती-जाती स्वाँस में केवल और केवल आप ही रमते हैं. अतः हे रमापति...! मुझे अपने साथ ले चलिए". सीता जी से विनयपूर्वक प्रार्थना करते हुए रामजी से कहा.

                "हे  सीते ! मैं तुम्हारी भावनाओं को अच्छी तरह से समझ रहा हूँ. मैं यह भी समझ रहा हूँ कि वियोग की भीषण ज्वाला में तुम किस तरह भीतर ही भीतर,     तिल-तिल कर              जलती रहोगी..? लेकिन सीते...तुम वन की भयावहता के बारे में शायद कुछ नहीं जानतीं,           तभी ऐसी बात कह रही हो. दिन के प्रकाश में पहाड़ जितने सुन्दर और आकर्षक लगते     हैं, रात होते ही किसी काले कलुटे दैत्यों की तरह लगने लगते हैं. रात के घिरते हुई हिंसक पशु बाहर निकल पड़ते हैं. सिंहो की दहाड़ और जंगली हाथियों के चिंघाड़ने से पूरा वन-प्रांत थर-थर कांपने लगता है. अतः तुम वन चलने का विचार त्याग दो"..

                "हे कोमलांगी.!...जिस प्रकार तुम अपने राज्योद्धान मे मेरे अथवा अपनी सखी-सहेलियों के संग, मखमली मुलायम घास पर चलते हुए भ्रमण करती हो, पेडों पर           चहचहाते पक्षियों                 का कलरव-गान सुनती हो और रंग-बिरंगे पुष्पों को खिलता-     मुस्कुराता हुआ देखती हो.               चलित फ़वारों की शीतलता का आनंद लेती हो, जंगल ठीक इसके विपरीत होता है. जंगलों में कोई निश्चित रास्ते बने नहीं होते. अपने अनुमान के आधार पर रास्ता तय करना होता है, जिसमें पथिक अक्सर गलत रास्ते का चुनाव कर लेता है और अन-अपेक्षित मुसिबतों का शिकार हो जाता है".

                "कोई नहीं जान पाता कि किस झुरमुट में अथवा किसी सघन पेड़ के पीछे घात लगाकर    बैठा हिंसक पशु आक्रमण कर दे. हर पल, हर घड़ी प्राणों पर संकट बना रहता है. रास्ता सहज और सरल नहीं होता. कभी समतल, कभी उबड़-खाबड़, तो कभी कंटीली झाड़ियों के बीच से होकर गुजरना होता है. जंगलों के बीच से तेज प्रवाह से बहती अल्हड़ नदी को पार करना सरल नहीं होता. कभी-कभी मगरमच्छों से भी सामना हो जाता है".

                "दिन में सब कुछ साफ़-साफ़ दिखलाई पड़ता है, अतः कोई कठिनाई नहीं होती,            लेकिन        रात्रि के समय घने अंधकार में चलना, माने प्राणों को संकट में डालने जैसा होता है. यदि धोके से किसी जहरीले सर्प पर पैर पड़ जाए और वह अपने जहरीले दांत गड़ाने में देर                नहीं लगाएगा. अतः देवी.!..तुम मेरे साथ वन में चलने की जिद छोड़ दो".

                "जंगल में रहते हुए कभी भीषण गर्मी, कभी बरसात, तो कभी कड़कड़ाती ठंड के             प्रहारों को झेलना होता है. रात्रि में विश्राम करने के लिए पेड़ो से गिरे हुए सूखे पत्तों को बटोरकर बिझौना बनाकर सोना पड़ता है. अतः हे कोमलांगी.!...तुम वन में जाने का विचार त्याग दो." रामजी ने सीता जी को वन की भयावहता को बतलाते हुए उन्हें राजमहल में सुखपूर्वक रहने की सलाह दी.

                जनकदुलारी अपने प्रिय की बातों को ध्यान से सुन रही थीं. सुन रही थीं कि किस            तरह वे        उनके मनोबल को कमजोर बनाने का असफ़ल प्रयत्न कर रहे हैं. सब कुछ सुन चुकने के बाद उन्होंने कहा:-"हे राघव..!.मैं जानती हूँ कि आपने भी कभी मुलायम गलिचों के नीचे अपने चरण नहीं रखे हैं, आप सदा से ही सोने और चांदी के पलंग पर बिछे                मुलायम और आरामदायक गद्दों और सिरहाने को लेकर सोते रहे हैं...आप सदा से             ही (नक्काशीदार पीढों) रत्नजड़ित चौरंग पर बैठकर, छप्पन प्रकार के व्यंजनों का           रसास्वादन करते हुए भोजन करते रहे हैं, अनेक सेवक हाथ जोड़े आपकी सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं."

                "वन की भयावहता और होने वाले कष्टों को मैं समझ सकती हूँ. वहाँ आपको सुस्वादु        भोजन की जगह कंदमूल और फ़लों को खाकर अपनी भूख मिटानी पड़ेगी. नदी, झरने अथवा जल से भरे डबरों का पानी पीकर आपको अपनी प्यास बुझानी होगी. वहाँ आपको मुलायम बिछौना और सिरहानी नहीं मिलेगी...आपको पत्तो से           बने बिछायत पर           सोने और पत्थर का सिरहाना बना कर खुले आसमान के नीचे             सोना पड़ेगा. वहाँ न तो कोई आपका संगी-साथी होगा और न ही कोई आपसे बातें करने वाला होगा. मानती हूँ कि वन की भूमि कभी सपाट और आरामदायक न होकर उबड़-खाबड़ और काटों से भरी होती है और भी अनेक कष्टों को सहन करते हुए आप अकेले वन-वन भटकते रहेंगे".

.               " हे राघव.!...वनों में रहना आपके लिए भी उतना आसान और सुगम नहीं होगा,            सब कुछ जानने और समझने के बाद भी आप अकेले वन जाने के लिए उद्धत हो रहे हैं?. शायद आप भूल रहे हैं, अथवा आपको जानकारी नहीं है कि पिताश्री ने मेरा           नाम भूमिजा यूंहि नहीं रखा है?.. भूमिजा का जन्म ही धरती माँ की कोख से हुआ है. धरती मेरी माँ हैं. कोई माँ अपनी बेटी को दुःखी कैसे देख सकती है?. वे मेरा ध्यान तो रखेंगी ही रखेंगी, .साथ ही आपके जामाता होने के नाते, वे आपका विशेष ध्यान रखेंगी.        अतः हे राघव ! आप मुझसे निश्चित रहें और मुझे साथ ले चलने की स्वीकृति प्रदान करें"

                "हे राघव....आपने अग्नि देवता को साक्षी मानते हुए मुझे चार वचन दिए हैं. उसी            प्रकार मैंने भी आपको तीन वचन दिए हैं. पहले वचन के अनुसार मैंने आपसे वचन लिया था कि जबभी आप तीर्थ यात्रा, यज्ञ कार्य, पूजा-अनष्ठान करेंगे तो मुझे हमेशा अपने संग रखेंगे. दूसरे वचन के अनुसार मैंने सदा ही आपके पिताश्री और माताओं   का यथोचित सम्मान किया है, जिस तरह मै अपने माता-पिता का सम्मान करती    आयी हूँ. और आपके कुल की मर्यादाओं के अनुसार ही चलती आयी हूँ. आपने            तीसरे वचन में मुझे मेरी तीन अवस्थाओं अर्थात युवावस्था प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था में पालन-पोषण और सहयोग करने का वचन दिया है. अतः हे                 राघव.!..आप अपने तीनों वचनों का निर्वहन करते हुए मुझे अपने साथ वन ले चलें"

                "हे प्राणनाथ.!.मैं शपथपूर्वक कहती हूँ कि आपके विछोह में आपकी सीता जीवित नहीं रहेगी. वह उसी तरह अपने प्राण त्याग देगी, जैसे कोई मीन, बिना जल के         अपने प्राण त्याग देती है. अतः हे रघुवीर.!.....आपसे मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि कृपया           मुझे अपने साथ ले चलिए. मैं आपकी सहचरी बनकर आपकी सेवा करुँगी. जब आप विश्राम करना अथवा सोना चाहेंगे, तो मैं अपनी साड़ी के पल्लु को पंखा बनाकर आपके ऊपर झलती रहूँगी. आप जानते ही हैं कि स्त्रियाँ अनेकों प्रकार के                 व्यंजनादि बनाना           जानती हैं, मैं वनों से ताजे फ़ल और कंद-मूल लाकर, उनसे उत्तम भोजन बनाकर आपको खिलाऊँगी. झरनो से अथवा नदी से शीतल जल लाकर आपकी प्यास बुझाऊँगी, जब आप पूजन में संलग्न होंगे, तब मैं वनों से सुगंधित-ताजे पुष्पों को लाकर आपके समक्ष रखूँगी. यदि आपके पावों में कोई कांटा चुभ जाएगा तो मैं अपनी पलकों             से उसे निकालकर आपको सुख पहुचाऊँगीं. हे दीनानाथ ! मैं अपने मधुर वचनों में बोलते हुए आपका मन बहलाऊँगी, जिससे आप अपने सारे कष्टो को भूल जाएंगें.

                "हे  नाथ.!.. बचपन से ही मुझे वनों से गहरा लगाव है. ऊँची-नीचीं पहाड़ियाँ. के            बीच कमल-से खिले आदिवासियों के गाँव...कुछ कच्चे, कुछ पक्के, कुछ घास-फ़ूंस वाले मकान....गाँवों के चारों तरफ़ लहलहाते जंगल.. पेड़ों से झरती ठंडी-ठंडी शीतल हवाएँ..... कल-कल, छल-छल के स्वर निनादित करती बहती अल्हड़ नदी..... आसमान के सुराख से फ़ूटती रंग-बिरंगी रोशनी.....पेड़ों की शाखाऒं पर धमा-चौकड़ी मचाते शाखा-मृग.......चिंचियाती चिड़ियों का समूह,.... हर छोटी-बड़ी चीजों में भरा होता जादुई रंग. चारों तरफ़ से मानों सपनों की बरसात होती रहती.                 तितलियों-सा फ़ुदकता, मृगछौनों की तरह छलांग मारता मेरा मन, कहीं एक जगह            नहीं ठहरना चाहता था. मेरे साथ होती थीं मेरी प्रिय सखी-सहेलियाँ..... हम जब-तब महाराज से निवेदन करते कि हमें वन में जाना है...तो वे कभी मना नहीं करते थे..           अतः हे नाथ.!.जंगलों में रहना मुझे बचपन से ही प्रिय है.."हे स्वामी ! मुझे अब              वनों का और भय दिखाकर, हतोत्साहित न करें और अपने साथ मुझे चलने की अनुमति प्रदान करें". सीताजी ने रामजी से कहा

                रामजी ने विदेहनंदिनी सीता जी को, वनों की अनेक प्रकार की भयावहता को बतलाते हुए उन्हें राजमहल में ही रुकने का आग्रह किया, लेकिन सीताजी के तर्कों के आगे, उनकी एक न चली. अंततः उन्होंने सीता जी को साथ चलने की अनुमति प्रदान कर दी..

लक्ष्मण का अनुरोध.

                जिस समय श्रीराम अपनी भार्या सीता जी से बातचीत कर रहे थे. लक्ष्मण पहले से            ही वहाँ उपस्थित थे. जैसे ही रामजी ने सीताजी को अपने साथ वन में चलने के लिए स्वीकृति प्रदान की, तत्क्षण उन्होंने श्रीराम के पैरो में गिरते हुए प्रार्थना की- "हे रघुवीर!....मैं भी आपके साथ वन चलूँगा.......धनुष-बाण लिए मैं आगे-आगे चलूँगा..... और रात्रि के आगमन से पूर्व, मैं पेडों से गिरे सूखे पत्तो को बीन-बीन   कर इकठ्ठा कर, आपके और भाभी के लिए शैय्या तैयार करुँगा.... आप दोनों कीसुरक्षा के लिए मैं प्रहरी की तरह रात भर जागता रहूँगा. हे रघुवीर...!  कृपया मेरा निवेदन स्वीकार करे. मुझे साथ ले चलने के लिए मना मत कीजिएगा". यह कहते हुए लक्ष्मण ने रामजी के पैरों को कसकर पकड़ लिया था.

                लक्ष्मण का भ्रातृत्व प्रेम देखकर रामजी की आँखे भर आयीं थीं. अत्यन्त ही विह्वल होते हुए उन्होंने लक्ष्मण को उठा कर अपनी छाती से चिपका लिया था. देर तक        चिपकाए रखने के बाद उन्होंने लक्ष्मण से कहा"- "अनुज.लक्ष्मण..!... तुम मेरे साथ                चल दोगे तो माता कौसल्या और माता सुमित्रा का ध्यान कौन रखेगा? कौन उनको सांत्वना देगा? कौन उनकी सुध लेगा? .कौन उन्हें ढाढस बंधाएगा? मुझे डर है कि            कहीं माता कैकेई उनके साथ दुर्व्यवहार न करने लगें, अतः तुम्हारा यहीं रहना ज्यादा उचित होगा".

                "हे अनुज !....मैं जानता हूँ कि तुम्हारा मेरे प्रति अनन्य प्रेम है....अनन्य अनुराग               है....मैं तुमसे एक पल को भी विलग नहीं रह सकता, लेकिन परिस्थितियाँ अभी              हमारे अनुकूल नहीं है. मुझे तो ऐसा भी लगता है कि इस समय अयोध्या में अघोषित आपातकाल लगा हुआ है. संभव है, कोई बड़ी-अनहोनी न घट जाए.अतः हे लक्ष्मण ! तुम वन चलने का विचार त्याग दो और यहीं रहकर जो समय के अनुकूल लगे, उसे करो".

                "मेरे विछोह से माता कौसल्या कितनी दुःखी हो रही हैं, यह तुम देख ही रहे हो. यदि तुम भी मेरे साथ चल दोगे, तो माता सुमित्रा भी उतनी ही दुःखी होंगी, जितनी की माँ कौसल्या जी हो रहीं हैं. अतः तुम्हारा यह दायित्व बनता है कि तुम यहीं रहकर दोनों को सुख पहुँचाओ. माता कौसल्या भी तुमसे उतना ही स्नेह रखती, जितना वे मेरे प्रति रखती हैं. तुम्हारे पास बने रहने से उन्हें इस बात का आभास           बना रहेगा कि राम यही-कहीं आसपास ही है. अतः लक्ष्मण तुम वन चलने की जिद         छोड़ दो". रामजी ने अनुज लक्ष्मण से कहा.

                "हे राघव ! आपने मुझे सदैव अपने साथ बनाए रखने का वचन दिया है. फ़िर मेरा            और आपका पुराना साथ है. मैं सदा से ही आपकी सेवकाई में संलग्न रहा हूँ. आपको सब याद है, लेकिन मुझे लगता है कि आप उसे भूलने का अभिनय कर रहे हैं?. मेरा काम तो सदा से ही आपके साथ बने रहना है और आप पर शीतल छाया              करते रहना है. आप चाहें लाख मना करें, लेकिन मैं आपका साथ नहीं छॊडूँगा.".                हठी लक्ष्मण ने अपना निर्णय कह सुनाया था.

                "लक्ष्मण..!. जब तुमने हमारे साथ वन चलने का मन बना ही लिया है, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है. तुम हमारे साथ चल सकते हो...लेकिन प्रस्थान से पूर्व तुम्हें माता सुमित्राजी से अनुमति तथा आशीर्वाद और उर्मिला से सहमति लेकर आना होगा. संभव है कि माता सुमित्रा जी अथवा उर्मिला तुम्हें वन जाने से मना कर दें?. उन दोनों की अनुमति और सहमति बहुत जरुरी है...और हाँ....महाराज जनक जी ने मुझे दहेज में दो दिव्य धनुष, दो दिव्य कवच, अक्षय बाणॊं से भरे हुए दो तरकश तथा सूर्य की भांति निर्मल, दीप्ति से दमकते हुए को सुवर्णभूषित तलवारें (खड़ग) दी थीं, ये सभी आचार्य जी के देवघर में सुरक्षित रखे हुए हैं, उन्हें आदरपूर्वक नमन करते हुए अपने साथ लेकर, शीघ्र लौट आओ". रामजी ने लक्ष्मण से कहा.

                अपने ज्येष्ठ भ्राता की अनुमति पाकर लक्ष्मण की प्रसन्नता का पारावार बढ़ गया था. प्रसन्नता से लकदक वे किसी मृग छौने की तरह छलांग लगाते हुए माता सुमित्राजी के अंतःपुर में पहुँचे..रामजी वन के लिए प्रस्थान करने वाले हैं यह समाचार उन्हें पहले ही प्राप्त हो गया था. वे भी राम और पुत्रवधु सीता को      आशीर्वाद देने के लिए महल से निकलने ही वाली थीं. उन्होंने लक्ष्मण को अपनी ओर आते देखा.

                लक्ष्मण ने आगे बढ़कर उनके चरणों में अपना प्रणाम निदेवित करते हुए कहा:-               "माँ....ज्येष्ठ भ्राता और भाभी सीता वन जाने के लिए प्रस्थान करने वाले हैं. मैं भी            उनके साथ वन जाना चाहता हूँ. मुझे विश्वास है कि आप मुझे उन दोनों के साथ वन जाने के मना नहीं करेंगी और मुझे अनुमति और अपना आशीर्वाद जरुर देंगी".लक्ष्मण ने विनय पूर्वक हाथ जोड़ते हुए सुमित्रा जी से कहा.

                "लक्ष्मण...तुम्हारा निर्णय एकदम उचित है. तुमने जो निर्णय लिया है, उसे सुनकर             मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई है. तुम्हारा राम के प्रति अगाध प्रेम है... अनुराग   है...यह बात मुझसे छिपी भी नहीं है...तुम विपत्ति की घड़ी में सदा उनकी ढाल बनकर ख़ड़े रहना...हर पल,,,हर घड़ी उनकी सुरक्षा का ध्यान रखना...वे सारे काम करना, जो वे समय-समय पर करने को कहेंगे."

                "लक्ष्मण...दिन में जंगल सुहाने लगते हैं लेकिन रात में भयानक हो उठते हैं. इस              घने अंधकार का लाभ वन में रहने वाले हिंसक पशु और दानव न उठा पाएं, इसके लिए तुम्हें सदैव जाग्रत अवस्था में बना रहना होगा. यदि तुम इन छोटी-छोटी बातों को सहर्ष करने को तैयार हो तो, मैं तुम्हें उनके साथ वन जाने की अनुमति और अपना आशीर्वाद जरूर दूँगी."  सुमित्रा जी ने लक्ष्मण को  समझाते हुए कहा.

                "हाँ माते...मुझे आपकी सभी बातें स्वीकार हैं. मुझे अपनी अनुमति और आशीर्वाद दोनों प्रदान करें. ज्येष्ठ भ्राता ने मुझे एक अति महत्वपूर्ण काम भी करते हुए शीघ्र       लौट आने को कहा है."

                "लक्ष्मण....मैं तुम्हें राम के साथ वन जाने की अनुमति देती हूँ और अपना आशीर्वाद भी.....लक्ष्मन...तुम्हारा मार्ग प्रशस्त हो....तुम लोगों की यात्रा निष्कंट पूरी हो...वन में तुम लोगों को कोई कष्ट न हो...मैं अपने कुल देवता और ईश्वर से सदा तुम लोगों के कल्याण के लिए प्रार्थना करती रहूँगी.  लक्ष्मण ..जाने से पूर्व तुम्हें अपनी पत्नि उर्मिला से जाकर मिलना होगा और उसकी भी सहमति प्राप्त करनी होगी......उसकी सहमति प्राप्त करना तुम्हारे लिए बहुत जरुरी है. चौदह बरस की               अवधि कोई कम नहीं होती...इस अवधि में उसे वियोग की अग्नि में तिल-तिल कर           जलते रहना पड़ेगा...क्या वह ऐसा कर पाएगी..?. यह भी तुम्हें जानना होगा. अब देर न करो...राम तुम्हारे लौट आने की प्रतीक्षा कर रहा होगा". सुमित्रजी ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा..

                लक्ष्मण का उर्मिला को समाचार सुनाने और वन जाने के निर्णय के बारे में बतलाना.

                शंकित मन लिए लक्ष्मण उर्मिला के कक्ष की ओर चल दिए. उन्होनें देखा. उर्मिला ने एक थाल सजा कर रखी है.. उस थाल में कुछ फ़ूल, एक माला...चंदन-रोली और एक दीप प्रज्जवलित हो रहा है. समझ गए लक्ष्मण.....समझने में तनिक देर भी           नहीं लगी. वे समझ चुके थे कि उर्मिला उन्हें वन जाने की सहमति प्रदान करने के             लिए, प्रवेश द्वार पर पहले से ही तैयार होकर उनके आगमन की प्रतीक्षा कर रही      है.

                "हे स्वामी....आपका आगमन शुभ हो"...ऐसा कहते हुए उर्मिला ने लक्ष्मण के मस्तक पर तिलक-रोली और अक्षत लगाया.. माला पहनाई और फ़ूलों की वर्षा करते हुए आरती उतारी और झुकते हुए चरण स्पर्ष करते हुए कहा:-"हे आर्य...मुझे ज्ञात है कि आप भैया रघुनाथ और बहन सीता के साथ वन जाना चाहते हैं... बड़ा ही सुंदर निर्णय लिया है आपने.  इस निर्णय में मुझे अपना सहयोगी समझें. यदि आप साथ जाने का निर्णय नहीं लिए होते, तो मैं आपको, अपनी ओर से स्वयं कहती कि आपको अपने भ्राता के साथ जाना चाहिए. विपत्ति की इस घड़ी में भाई, भाई के काम न आ सका, तो फ़िर उसका जीना व्यर्थ है."

                "उर्मिल...मैं तो तुम्हें अपना निर्णय सुनाने और सहमति प्राप्त करने की इच्छा से ही आया था....मैंने इस संबंध में एक शब्द भी नहीं कहा और तुमने सहजता से अपनी सहमति प्रदान कर दीं....आश्चर्य है... इतनी कम उम्र में भी तुम्हारी दूरदृष्टि और निर्णय लेने की क्षमता अद्भुत है...ऐसी कुशाग्र बुद्धि की धनी को पत्नि के रूप       में पाकर मैं धन्य हो गया उर्मिल..मैं धन्य हो गया."

                "देखिए....मेरी प्रशंसा में इतना विशाल वितान खड़ा न करें...आप शीघ्रता से                 जाइये...बड़े भैया आपके लौट आने की प्रतीक्षा कर रहे होंगे...आप लोगों के सकुशल यात्रा के लिए मैं अपने ईश से प्रार्थना करती रहूँगी और इसी द्वार पर उपस्थित रहते हुए आपके स्वागत में उपस्थित रहूँगी. आप मुझे इसी द्वार पर खड़ा पाएंगे".        कहते हुए उर्मिलाजी ने उमड़-घुमड़ कर आए अपने आँसूओं को बलपूर्वक आँखों में ही रोक लिया था. वे जानती थीं कि बहते हुए आँसू आदमी को कितना अवश, कितना लाचार बना सकते हैं.

                अपनी माता से आशीर्वाद और पत्नी के सहमति प्राप्त कर लक्ष्मण अपनेगुरु वसिष्ठजी के आश्रम में गए और वहाँ से उत्तम आयुधों को लाकर अपने ज्येष्ठ भ्राता रामजी को दे दिए.

                रामजी वन जाने के पूर्व ब्राह्मणों और वंचितों को द्रव्य आदि देना चाहते थे. उन्होंने गुरुपुत्र सुयज्ञ को आदर पूर्वक बुलवाया और बहुत सारा स्वर्ण, मामा से मिले शत्रुंजय नामक हाथी सहित स्वर्ण-मुद्राएं दान में दीं. इसी तरह उन्होंने समाज के वंचित लोगों को बहुत सारा द्रव्यादि दिया ताकि वे चौदह वर्षों तक अपनी जीविका सुखपूर्वक चला सकें. सभी को मन चाहा धन आदि बांट देने के बाद वे अपनी भार्या सीताजी और अनुज लक्ष्मण के साथ अपने पिताश्री के दर्शनों के लिए महाराज दशरथ के महल की ओर चल दिए.

वन जाने से पूर्व बिदाई मांगना.

                रामजी ने द्वार पर सूत सुमन्त्र जी को उपस्थित पाया. उन्होंने विनयपूर्वक सुमन्त्र जी से कहा:-"सुमन्त्र जी.....आप अंतःपुर में जाकर महाराजश्री  को मेरा प्रणाम               निवेदित करें और सूचित करें कि राम, अपनी मार्या सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ आपसे बिदा मांगने के लिए आया हैं".

                कितने आश्चर्य की बात है कि जिस महाराज दशरथ का नाम सुनते ही, अच्छे-अच्छे सूरमाओं का कलेजा कांपने लगता था, कोई भी शत्रु उनके सामने खड़ा होने         का साहस नहीं जुटा पाता था. स्वयं देवराज इंद्र उनकी सहायता के बिना, असुरों के   साथ युद्ध करने, युद्धभूमि में जाने का साहस नहीं रखते थे, ऐसे वीर, प्रतापी और तेजस्वी महाराज दशरथ, आज अपनी शैया पर अवश, लाचार, निःसहाय और पंगु              होकर पड़े  हैं. मात्र एक दिन में उनका शरीर सूख कर कांटा हो गया था. चेहरे का तेज फ़ीका पड़ गया था. स्थिति यहाँ तक बन पड़ी थी कि स्वयं होकर खड़े भी नहीं हो सकते थे. निःसहाय अवस्था में पड़े-पड़े वे उस दिन को कोस रहे थे, जब उनका विवाह कैकेई से हुआ था. वे मन ही मन इस बात पर भी गंभीरता से चिंतन-मनन कर रहे थे कि काश कामवासना के अधीन होकर, वे अनींद्ध सुन्दरी कैकेई के मोहपाश में  नहीं बंधते तो आज ऐसे दुर्दिन देखने को नहीं मिलते. अवसन्न अवस्था में पड़े-पड़े वे छत की ओर टकटकी लगाए देख रहे थे.

                सुमन्त्र जी ने महाराज को संबोधित करते हुए अत्यन्त ही संयत वाणी में बोलते हुए कहा:- महाराज की जय हो...आप शीघ्र स्वस्थ हों....आप दीर्घायु हों.....महाराज....आपके ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम, पुत्रवधु सीता और लक्ष्मण आपके             दर्शनार्थ, प्रवेश द्वार पर खड़े रहकर, आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे हैं...स्वामी            आज्ञा दें, तो मैं उन्हें सादर आपके पास लेता आऊँ".

                "सुमन्त्र....सुमन्त्र....क्या कहा तुमने....एक बार फ़िर से दुहराओ..... क्या कहा तुमने ...मेरे राम आए हैं....मुझ अभागे से मिलने....  राम आए हैं?.....सुमन्त्र...जो बचपन में ठुमक-ठुमक कर चलता हुआ मेरी गोद में आकर बैठ जाया करता था, तब उसने कभी मुझसे आज्ञा नहीं मांगी.....वही राम मुझसे आज आज्ञा मांग रहा है?....तुमहीं बताओ सुमन्त्र... एक बेटे को, अपने पिता से मिलने के लिए, आज्ञा मांगने की क्या आवश्यकता है ?. मेरी हर आती-जाती सांस में वही तो रमता है...उसी में रमन              करते हुए तो तुम्हारा महाराज अब तक जिन्दा है.....वही राम मुझसे अन्दर आने                 की प्रार्थना कर रहा है?..हे .सुमन्त्र.... हे मेरे सखा.!..तुम शीघ्र जाकर उन्हें सादर मेरे पास ले आओ....ऐसा .लगता है जैसे राम को देखे एक युग बीत गया है". महाराज दशरथ जी ने सुमन्त्र से कहा.

                राम जी के आगमन की सूचना पाकर महाराज दशरथ जी की खुशी का पारावार              बढ़ने लगा था. निढाल शरीर में नई शक्ति का संचार होने लगा था. बरखा की फ़ुंवार मे भींग कर जिस तरह मुरझाई लतिकाएँ पुष्पित-पल्लवित होने लगती है, ठीक उसी तरह श्रीराम के आगमन की सूचना पाकर महाराज का मन प्रसन्नता में झूमने लगा था.

                "जी...मैं अभी उन तीनों को सादर लेकर यथाशीघ्र आपके पास उपस्थित होता हूँ’- सुमन्त्र ने कहा.

                "हे राम...महाराजश्री आप तीनों की अधीरता से राह तक रहे है....आइए..आपका           स्वागत है...भीतर चलिए..".- सुमन्त्र ने हाथ जोड़कर कहा.

                शंकित मन लिए रामजी ने अंतःपुर में प्रवेश किया. देखा. राजमहल के समस्त                 सेवक-सेविकाएँ वहाँ पहले से उपस्थित थे. वे सभी अपने प्रिय महाराज के अस्वस्थ होने का समाचार पाकर, दुःखी मन लिए उन्हें देखने और मिलने के लिए आए हुए थे. जैसे ही उन्होंने रामजी को आते हुए देखा, वे सभी एक निश्चित दूरी बनाकर    खड़े हो गए थे, ताकि राम-सीता और लक्ष्मण को आगे बढ़ने में कोई परेशानी न हो.

                रामजी को अपनी ओर आता देखा, प्रसन्नवदन महाराज ने शैया से उठने का सायास प्रयास किया. वे उठकर खड़े हुए ही थे कि लड़खड़ा कर जमीन पर गिर पड़े और मुर्छित हो गए. रामजी ने शीघ्रता से उन्हें उठाकर शैया पर लिटाया और उनकी हथेलियाँ को अपनी हथेलियों में लेकर गर्माने लगे. उन्होंने तीन-चार उन्हें पुकारा भी, लेकिन महाराज की मुर्छा दूर नहीं हुई.

                रामजी ने गौर से अपने पिता को देखा. बलिष्ठ शरीर एक दिन के अन्दर ही सूख कर कांटा हो गया था. पाला पड़ने से जिस तरह फ़सल पीली पड़ जाती है, ठीक उसी तरह उनका मुख पीला पड़ चुका था. आँखे अन्दर तक धंस गई थीं. अपने पिता को इस दशा में देख कर रामजी का मन दुःख से भारी होने लगा था. आँखें भर आईं थीं.

                देर तक वे महाराज की हथेलियों को सहलाते हुए गर्माते रहे थे. कुछ देर बाद उनकी मूर्छा टूटी. उन्होंने रामजी को अपने निकट बैठा पाया. हाथ बढ़ाकर उन्होंने अपने    प्रिय पुत्र को अपने सीने से चिपका लिया था. ऐसा करते हुए उन्हें अपार खुशी हो    रही थी.

                देर तक अपने सीने से चिपकाए रहने के बाद उन्होंने अपुष्ट आवाज में कहा:- राम...राम मेरे बेटे.... तुम आ गए.....तुम्हारे साथ जो अन्याय हुआ है, उसके लिए कोई और नहीं...बल्कि मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ.....आसक्त होकर मैं कैकेई का वरण नहीं करता, तो आज मुझे ये दिन देखने को नहीं मिलते....मैं तुम्हारा अपराधित हूँ राम...हो सके तो मुझे..........कहते हुए उनकी आँखों से आँसू झरने लगे थे. वे शायद अपने पुत्र राम से माफ़ी मांगना चाहते रहे होंगे, लेकिन शब्द गले में ही फ़ंस कर रह गए थे.

                "नहीं पिताजी नहीं....ऐसा नहीं कहते.....अकारण ही आप माता कैकेई को दोषी मान रहे हैं. विधाता ने मेरे भाग्य में बनवास ही लिखा होगा, तभी तो राजसिंहासन पर    बैठते-बैठते मुझे वन जाना पड़ रहा है....किसके भाग्य में क्या लिखा-बदा है, इसे      कोई नहीं जानता....फ़िर उसके लेखे को बदल पाना मनुष्य के बस की बात नहीं है....अतः आप दोषारोपण न मढ़ते हुए इसे विधाता की मर्जी कहें, तो ज्यादा       उपयुक्त होगा".

                "माता जी ने भरत का राज्याभिषेक मांग कर उसकी सीमाएं बांध दी है, जबकि उन्होंने मुझ पर बड़ा उपकार ही किया है और मुझे जंगलों का राजा बना दिया है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती. इस अंतहीन साम्राज्य को पाकर मुझे अत्यन्त ही             प्रसन्नता हो रही है....जब मैं प्रसन्न हूँ तो फ़िर आपको अकारण अपने आपको दोषी नहीं मानना चाहिए".

                "पिताजी... आप धर्म की ध्वजा हैं...धर्म को गहराई से जानने-समझने वाले हैं...सत्य प्रतिज्ञ हैं.....आपके पूर्वजों ने जो भी प्रतीज्ञा की थीं, उसे अपने प्राण देकर भी उन्होंने अपने वचनोंको झूठा नहीं होने दिया है....मैं जानता हूँ कि आप कभी भी अपने मुँह से मुझे बनवास पर जाने को नहीं कह पाएंगे, लेकिन आप माता कैकेई के प्रति बचनबद्ध हैं, जो आप नहीं कह सकते थे, उसे उन्होंने कह सुनाया है, इसमें       उनका भला क्या दोष? अतः. हे पिताश्री...आप अपने सत्यप्रतीज्ञा होने का धर्म              प्रसन्नता के साथ निभाईए. और मुझे हंसते-हंसते हुए......प्रसन्नता के साथ वन जाने की आज्ञा दीजिए".

                "मुझे वन में कोई कष्ट नहीं होगा, आप निश्चित रहें. मेरे साथ आपकी बहू सीता और अनुज लक्ष्मण भी साथ होंगे, वे मेरी हर जरुरतों का ध्यान रखेंगे. इन दोनों के रहते हुए मुझे कभी कोई कष्ट नहीं होगा, अतः आप निश्चिंत रहें.. मैं भले ही सशरीर अयोध्या में उपस्थित नहीं रहूँगा, लेकिन मेरा मन सदा इस माटी में रमण करता रहेगा, मैं प्रतिदिन आप सभी का स्मरण करता रहूँगा...चौदह बरस देखते-        देखते यूंहि बीत जाएंगे...जैसे ही बनवास के अवधि समाप्त हो जाएगी,...आपका पुत्र राम आपके चरणीं मे शीश नवाने चला आएगा".

                "अतः हे पिताश्री....अब मुझे आज्ञा दीजिए."राम अपने पिताश्री से कुछ और कहने ही वाले थे कि महाराज दशरथ पुनः मूर्छावस्था में चले गए थे.रामजी उनकी मनःस्थिति को समझते थे. समझते थे कि विछोह की घड़ी में उन्हें कितनी मानसिक पीड़ा से होकर गुजरना पड़ रहा है. वे यह भी जानते थे कि विछोह की पीड़ा कुछ दिन तक यूंहि बनी रहेगी, फ़िर धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा.

                राम अपनी जगह से उठ खड़े हुए. उन्होंने महाराज की शैया की प्रदक्षिणा की. प्रणाम किया और अन्तःपुर से बाहर निकलने लगे.

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अयोध्यामें कोहराम.

                रामजी, सीताजी और लक्ष्मण के बाहर निकलते ही अन्तःपुर में कोहराम मचने लगा. राजमहल के सभी सेवक-सेविकाएँ ऊंचे स्वर में रुदन करते हुए उनके पीछे हो लिए थे. कोई कहता.".हे राम...हम आपको नहीं जाने देंगे...यदि आप हमारी विनती नहीं सुनेंगे, तो हम भी आपके साथ वन चलेंगे..जहाँ हमारे प्रभु राम होंगे, वहीं हम   नई अयोध्या बसा लेंगे". कोई कहता- "हद हो गई भाई... हद हो गई, धर्मात्मा राम को राजमहल से निष्काकित करते हुए महारानी कैकेई का कलेजा क्यों नहीं फ़ट               गया". कोई कहता..."कितनी चालक और धुर्त है कैकेई कि हमारे प्रिय राम को कांटा समझ कर राज्य के बाहर निकलवा दिया"...कोई कहता-"कैकेई राम की सगी माँ             होती तो क्या ऐसा करती?".किसी ने कहा- "हे राम...हम अब इस अंधेरनगरी में              नहीं रहना चाहते, जिस नगरी में न्याय की जगह अन्याय होने लगा है...आपके साथ सरासर अन्याय हो रहा है, फ़िर भी आप चुप हैं....आपने ऐसा कौन-सा अपराध किया था, जिसके कारण आपको इतना बड़ा दण्ड दिया जा रहा है...क्या इस तरह अपने प्राणों से भी प्रिय पुत्र को देश निकाला दे सकता है जो पुण्यात्मा है...सदाचारी है"...

                किसी ने कहा-, "हमारे महाराज की बुद्धि ही मारी गई है, जो कैकेई के कहने में आ गए, और प्राणॊं से भी अपने प्यारे पुत्र को बनवास दे दिया?". कोई कहता-", रामजी को हम अच्छे से जानते हैं, उन्होंने महाराज से कभी यह नहीं कहा होगा कि मेरा राज्याभिषेक कीजिए. उन्होंने स्वयं होकर अपने ज्येष्ठ पुत्र राम के   राज्याभिषेक की घोषणा की थी, तो अब उनका दायित्व बनता था कि उनका राज्याभिषेक कराते". कोई कहता-."बेटा हो तो राम के जैसा.हो," किसी ने कहा-"भले ही पिता ने अपने मुँह से उन्हें वन जाने की आज्ञा नही दी..थी...फ़िर भी अपनी           विमाता के मुँह से सुनते ही उन्होंने एक पल की भी देरी नहीं लगाई और वन जाने   को उद्धत हो गए...राम तुम धन्य हो...राम तुम धन्य हो"...जितने मुँह उतनी ही बातें लोग कह रहे थे. लेकिन रामजी ने न तो पीछे मुड़कर देखा. न तो किसी की बात को सुना और न ही किसी से कुछ कहा. वे तेज कदमों से चलते हुए आगे    बढ़ते जा रहे थे.

                अन्तःपुर में मचे कोहराम को सुमन्त्र जी अपनी खुली आँखों से देख रहे थे. देख रहे थे कि किस तरह लोग राम के विछोह को लेकर अपना रोष प्रकट कर रहे थे. वे देख रहे थे कि किस तरह लोग दारूण विलाप कर रहे थे. वे यह भी देख रहे थे कि किस तरह लोगों के मन में राज्य के प्रति असंतोष का ज्वालामुखी फ़ट पड़ा है.

                वे लोगों के रोष को वे समझ रहे थे और गंभीरता से सोच भी रहे थे कि राजमहल              में काम कर रहे सेवक और सेविकाओं ने इस घटना को लेकर अभी केवल प्रस्तावना लिखी है, पटकथा तो अभी लिखी जानी बाकी है. रामजी के बनवास की बात तो अभी सिर्फ़ राजमहल के गलियारों में ही चक्कर लगा रही है, यही बात जब अपनी सीमा को तोड़कर बाहर जाएगी, तब क्या होगा? अभी जो छोटा-सा विद्रोह चारदीवारी के भीतर पनप रहा है, बाहर जाकर वह कौन-सी सूरत लेगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती.

                वे केवल देख ही नहीं रहे थे, बल्कि अपने कानों से सुन भी रहे थे कि किस तरह लोग कैकेई के विरुद्ध अपने उद्गार प्रकट कर रहे थे. वे यह भी सुन रहे थे कि                 लोगों ने अपना मन बना लिया है कि वे लाख मना करने के बाद भी रामजी के साथ ही जाएंगे और एक अलग अयोध्या पुरी बसा लेंगे. एक अन्यत्र पुरी के बस जाने के बाद अयोध्या में बची रहेंगी सिर्फ़ ऊँची-ऊँची लट्टालिकाएँ, सूने राजमहल, सन्नाटॊं से घिरे रानियों के अन्तःपुर, सूने राजमार्ग. उजाड़ बस्तियाँ.... जिस अयोध्यापुरी को महाराज के पुरखों ने बसाया-बनाया था और महाराजश्री ने फ़िर एक बार उसका साज-संवार कर, उसे दुल्हन की तरह बना दिया था, क्या वह उजाड़ हो        जाएगी?...क्या उसमें चमगादड़ों के बसेरे बस जाएंगे और अट्टालिकाओ पर बैठकर उल्लू रोया करेंगे. इस उजाड़ पुरी में कोई रहेगा भी तो वह होगी कैकेई और उसका दुलारा भरत..

                सोच और गहरी होती जा रही थी. वे सोच रहे थे कि उन्हें मजबूरी में ही सही, अयोध्यापुरी में ही रहना होगा अपने महाराजश्री के साथ. महाराजश्री को छोड़कर अन्यत्र जाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता. मगर कब तक? मुझे नहीं लगता                कि रामजी के वन चले जाने के बाद महाराज शायद ही जीवित रहेंगे. वे जब जीवित ही नहीं बचेंगे, तो सुमन्त्र भी वहीं चला जाएगा, जहाँ रामजी . सीता और लक्ष्मण रहेंगे.

सुमन्त्र-कैकेई का संवाद.

                कल्पना मात्र से उनका शरीर थर-थर कांपने लगा था, आँखों के सामने अंधकार              तांडव करने लगा था. हलक सूख आया था...सिर चकराने लगा था....उन्हें तो ऐसा भी लगने लगा था कि वे धड़ाम से गिर ही पड़ेंगे..इतना सब होने के बाद भी उन्होंने अपना संयम नहीं खोया था. सोचने-समझने की बुद्धि यथावत काम कर रही थी. उन्होंने जैसे-तैसे अपने को संभाला.

                वे देख रहे थे कि रामजी के चाहने वाले सभी शुभचिंतक उनके पीछे चले गए हैं. अन्तःपुर में केवल तीन व्यक्ति बचे हैं..एक रानी कैकेई, दूसरे मूर्छित अवस्था में शैया पर पड़े महाराज दशरथ और वे स्वयं. उनके मन में अब भी विश्वास था कि बिगड़ी बात सुधारी जा सकती है, यदि कैकेई मान जाए और स्वयं होकर महाराज श्री से कहे कि मैंने अपना दूसरा वरदान वापिस ले लिया है और वे रामजी को विश्वास दिलाते हुए कहें कि मैंने अपना दूसरा वरदान वापिस ले लिया हैं. अतः राम अब तुमको वन जाने की जरुरत नहीं है. यदि ऐसा हो सकें तो उत्तम होगा.

                उन्होंने अत्यंत ही विनीत शब्दों में प्रार्थना करते हुए कैकेई से कहा- "हे देवी..आपकी एक जिद के पीछे सेवक और सेविकाओं में कितना रोष है...कितना गुस्सा है...यह आपने देख ही लिया है. उन्होंने मन बना लिया है कि वे सभी राम के साथ वन चले जाएंगे और एक नई अयोध्या बसा लेंगे. आप तो जानती ही हैं कि महाराज के पुरखों ने इसे कितनी मेहनत और परिश्रम से बसाया था, उजाड़ हो जाएगी. क्या आप अपनी अयोध्या को उजड़ते हुए देखना चाहती हैं?. आपने दो वर मांगे हैं...पहले में भरत को राजगद्दी और दूसरे में राम को चौदह बरस के लिए बनवास...आपके पहले वरदान को महाराजश्री ने मान लिया है.. अब राम का नहीं भरत का राज्याभिषेक होगा. मैं चाहता हूँ कि यदि आप अपने दूसरे वरदान के बदले में कुछ और मांग लेंगी तो अयोध्या पर जो संकट आन पड़ा है, वह टल            जाएगा. आप अगर उदारता का परिचय देकर ऐसा कर सकीं तो राम-सीता और              लक्ष्मण वन नहीं जाएंगे, अयोध्या उजाड़ होने से बच जाएगी, परिवार में जो अन्तःकलह मची है, वह शांत हो जाएगी और महाराज की प्रतिष्ठा भी जस-की-तस बनी रहेगी.

                "हे देवी..आपके भरत को मैंने भी लाड़-दुलार दिया है. मैंने घोड़ा बनकर उसे अपनी पीठ पर सवारी भी करवाई है..उसके साथ मैं भी बच्चा बन कर खेलता रहा हूँ. मैं    उसके स्वभाव से परिचित हूँ , जबकि आप एक माँ होकर भी उसके स्वभाव को नहीं जान पाईं?. साधु स्वभाव का भरत, कभी भी राम की अनुपस्थिति में राजगद्दी               पर बैठना नहीं चाहेगा. वह राम का अनन्य भक्त है, अतः वह रामजी को ही उस राजसिंहासन पर विराजमान होते देखना चाहेगा. अतः आप अपनी जिद छोड़ दीजिए और दूसरे वरदान के बदले कोई और वर मांग लीजिए."सुमन्त्र ने कैकेई से अनुरोध करते हुए कहा.

                "बस सुमन्त्रजी बस.. तुम अपने पद की गरिमा-सीमा का उल्लंघन कर रहे हो...वहीं रुक जाओ....तुम हो ही क्या? मात्र इस राज्य के मंत्री.....क्या उचित है और क्या      अनुचित है उसे आप कैकेई को समझाएंगे?...मुझे समझाने की कोई जरुरत नहीं है...अपना ज्ञान अपने पास रखो तो ज्यादा अच्छा होगा"

                "मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि तुम लोग क्यों इस छोटी-सी बात को लेकर मुझे दोषी            ठहरा रहे हो...जबकि इसमें मेरा जरा-सा भी दोष नहीं है....दोष यदि देना ही है तो           अपने महाराज को दो...बड़ी-बड़ी डींगे मार कर, वे अपने आपको बड़ा ज्ञानी -ध्यानी और सत्यवादी होने का ढिंढोरा पीटते रहते हैं. मैंने तो बस युद्ध भूमि में एक पत्नी          होने का धर्म निभाया था. उसके बदले मैंने उनसे कभी कोई वर नहीं मांगा, लेकिन    अपना बड़प्पन बताने के लिए उन्होंने मुझसे, एक नहीं बल्कि दो-दो वर मांगने को कहा था. आज मैंने अपने दो वर मांग लिए है. वे दो वरदान क्या है, इसे तुम भली-भांति जानते ही हो"..कैकेई ने रोष में भरते हुए सुमन्त्र से कहा.

                "हे देवी...आपने मुझे अपनी सीमा-रेखा बता कर उचित ही किया है...सच है,. मैं            होता ही कौन हूँ जो आपके पारिवारिक विवाद में पड़ूँ. मुझे बीच में पड़ना भी नहीं           चाहिए था, लेकिन..एक मंत्री होने के नाते, मैं अपना राजधर्म नहीं भूला हूँ. राज के लिए क्या उचित और अनुचित है, इस पर अपने विचार रखना मेरा दायित्व बनता              है. वर्तमान में जो हो रहा है, और जो भविष्य में क्या फ़लित होगा, इसका मुझे आभास है.यदि आप इसी तरह अपनी जिद पर अड़ी रहीं, तो ईश्वर भी अयोध्या पर आए सकंट से बचा नहीं पाएंगे’.

                "यदि कोई आम का पेड़ काट कर, उसकी जगह कड़वी नीम का पौधा रोपे और उसे इस आशा के साथ दूध से सिंचित करता रहे कि वह मीठे फ़ल देने लगेगा. ऐसा काम तो कोई मूर्ख ही कर सकता है. तुमने भी वरदान के बहाने राम जैसे धर्मात्मा को बनवास देकर, स्वयं को आनंदित तो कर लिया है, लेकिन महाराज के लिए यह कदापि सुखद नहीं हो सकता.".

                "तुम भी अपनी माँ की तरह ही हो. वह तो भला हो तुम्हारे पिता का कि उन्होंने समय रहते तुम्हारी माँ को राज्य से निकाल दिया, अन्यथा वह भी उसी तरह का व्यवहार करती, जैसा की तुम कर रही हो. अतः हे देवी !पापपूर्ण विचार रखने वाले लोगों के बहकावे में आकर अपने लोक-प्रतिपालक स्वामी को अनुचित कर्म में मत लगाओ".

                "रामजी अपने भाइयों में ज्येष्ठ हैं, उदार है, कर्मठ हैं, स्वधर्म के पालक हैं...जीवजगत के रक्षक हैं और बलवान भी. कृपया उनका अभिषेक होने दें.यदि वे वन को चले जाएंगे तो पूरा संसार तुम्हारी निंदा करेगा. कितना अच्छा होता कि राम राज्य का पालन करते और तुम आराम से बैठकर स्वर्गीय सुखों का आनन्द उठातीं. राम के युवराज पद पर प्रतिष्ठित हो जाने के बाद महाराज अपने पूर्वजों की    परिपाटी का निर्वहन करते हुए स्वयं ही वन चले जाएंगे, लेकिन उन्हें अपने प्रिय पुत्र राम के वियोग में तड़प-तड़प कर प्राणांत होते देखना, क्या उचित        होगा?".सुमन्त्र ने हाथ जोड़कर विनती करते हुए कैकेई से कहा.

                दोनों इस बात से अनभिज्ञ थे कि महाराज मूर्छावस्था से बाहर आ गए हैं और दोनों के बीच चल रही बातों को ध्यान से सुन रहे हैं. उन्होंने अत्यन्त ही धीमें स्वर में सुमन्त्र को अपने पास बुलाया और कहा-"सुमन्त्र...तुम्हारा भला हो...जो बात राज्य के लिए हितवर्धक हो सकती थी, तुमने कैकेई को खूब समझाने का प्रयास किया, लेकिन मुझे मालुम है कि वह लाख समझाने के बाद भी मानेगी नहीं. इस समय वह उस नागिन की तरह हो गई है जो अपने ही बच्चों को निगलने जा रही है."

                "सुमन्त्र...मैं यह भी जानता हूँ कि पितृभक्त राम, अब किसी के भी रोके, रुकेगा नहीं, उसके साथ अयोध्यापुरी के लोग भी जाने को उद्धत हो गए हैं. अतः तुम शीघ्र ही हाथियों के पीठ पर खाद्यान और रत्नों से भरी पूरी चतुरंगिनी सेना को उनके पीछे-पीछे जाने की आज्ञा दो, ताकि वह सुगमता से उनकी आजीविका को चला सके".

                "और हाँ.....राम, लक्ष्मण और पुत्रवधू सीता के लिए उत्तम वस्त्रों का चुनाव करते             हुए उन्हें भी साथ लेते जाएं. राम, लक्ष्मण और सीता ने कभी मखमली गालीचों के नीचे पैर नहीं रखे. अतः हमारा उत्तरदायित्व बनता है कि तुम उन्हें सादर रथ में बिठाकर पुरी की सीमा तक छोड़कर आओगे. मैं ईश्वर रंगनाथ जी से प्रार्थना करुंगा           कि वन की जिस कठोर भूमि पर ये अपने पग रखेंगे, वह इनके लिए कोमल हो जाए"

कैकेई की चेतावनी.

                कैकेई ने महाराज की बातों को सुना और रौद्ररूप धारण करते हुए कहा:-       "महाराज... अब आप अपना यह आधिकार खो चुके हैं. को‍षागार अब आपका नहीं, युवराज भरत का है. भले ही अभी उसका राज्याभिषेक नहीं हुआ है, लेकिन आप     उसे युवराज-पद देने का वचन दे चुके हैं. यदि आप इसी तरह,किसी पराए लोगों के लिए धन और खाद्धान्न लुटा देंगे, तो पुत्र भरत बिना धन और खाद्धान्न के राज्य का संचालन कैसे कर पाएगा? अतः यहाँ से कोई सामग्री इनके सहायतार्थ नहीं जाएगी....जिन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया गया हो, उनकी सहायता करना हमारा उत्तरदायित्व नहीं बनता. वे किस तरह अपना जीवन यापन करेंगे...क्या खाएंगे-पिएंगे आदि पर हमें चिंतित होने की जरुरत नहीं है".

                कैकेई के हर शब्द बुझे हुए बाणॊं की तरह थे, जो महाराज के हृदय को विदीर्ण कर रहे थे. सहनशक्ति की भी अपनी एक सीमा होती है. वह कभी की चुक चुकी थी.      निःसहाय अवस्था में पड़े महाराज अब फ़बक रो पड़े थे और अपना सिर पीटने लगे थे. वे अपने उस दुर्दिन को कोस रहे थे, जब उन्होंने रूपगर्विता कैकेई के अपूर्व सौंदर्य को देखकर उसे रानी बनाने का निर्णय लिया था.

                पल भर को भी वे अपनी मर्मांतक पीड़ा से बाहर निकल नहीं पाए थे कि कैकेई ने            फ़िर से अपनी विषाक्त जिव्हा से एक तीर का संधान करते हुए कहा-"महाराज...अब आप अपनी ये नौटंकी करना बंद करें. रोना-धोना-पश्चाताप करना एक राजा को शोभा नहीं देता. जहाँ तक विलाप करने की बात है, तो इसे राम के वन चले जाने के बाद भी जारी रखा जा सकता है. एक पिता को चाहिए कि वह प्रसन्नवदन होकर अपने पुत्र को बिदाई दे. संभव है कि आपकी रोनी सूरत देखकर कहीं इसका मन न बदल जाए.:

                अब आप शीघ्रता से अपने सेवक को आज्ञा दीजिए कि वह तीनों को बुला लाए.

                                                                OOOOOOOO

पितासे आशीर्वाद और बिदाई मांगना.

                अपनी भार्या सीता, अनुज लक्ष्मण को लेकर रामजी ने महाराज दशरथ जी के अन्तःपुर में प्रवेश किया. उन्होंने देखा. राजगुरु वशिष्ठ जी सहित रनवास की स्त्रियाँ उस कक्ष में पहले से ही उपस्थित थे. उन्होंने बारी-बारी सेगुरु वशिष्ठ जी,     पिताश्री को और माता कैकेई के चरण स्पर्ष कर प्रणाम निवेदित किया. फ़िर अत्यन्त ही विनम्रता से माता कैकेई से पूछा- "माता....राम अपनी भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण के सहित आपके सन्मुख उपस्थित है...मेरे लिए आपकी क्या आज्ञा है...कृपया उसे कह सुनाएं".

                कैकेई लाज-संकोच आदि को बहुत पीछे छोड़ चुकी थीं. उन्होंने रामजी से कहा:-           तुमने ये जो राजसी पो‍षाक और आभू‍षण पहन रखे हैं, उन्हें पहनकर जाना उचित नहीं है. जब वन जाना ही है तो वनवासियों की तरह ही तुमहें रहना चाहिए और उन्हीं के अनुसार पो‍षक भी पहिनना चाहिए. वनवासी पुरु‍ष हों या फ़िर स्त्रियाँ, सभी वल्कल से बने वस्त्रों को धारण करते हैं. अतः उचित होगा कि वन जाने से पहले इन्हें यहीं उतार कर रख दो”.

                कैकेई ने ताली बजाकर अपनी दासी मंथरा को संकेत दिया.

                मंथरा पर्दे की ओट लेकर अपनी शिष्या कैकेई के कुशल अभिनय को देखकर गदगद हुई जा रही थी. उसे अपने आप पर गर्व भी हो आया था कि उसके कुशल निर्देशन के अनुसार उसकी शिष्या सफ़लतापूर्वक मंचित कर रही है. ताली की आवाज सुनते ही वह पर्दे से ओट से निकल बाहर कर आयी. उसके हाथ में एक सुवर्ण थाल था, जिसमें वल्कल वस्त्रों को तह करके सजा कर रखा गया था.

                रामजी और लक्ष्मण ने थाल में से दो-दो चीर उठा कर पहन लिये और जो. कुछ आभूषण उन्होंने पहन रखे थे, उन्हें भी उतारकर थाल में रख दिए. इसी तरह विदेहनन्दिनी सीताजी ने भी दो चीर उठा तो लिए, लेकिन स्त्री सुलभ संकोच के चलते, वे अन्तःपुर में बैठे अपने गुरु वशिष्ठ जी और अन्य लोगों की उपस्थिति में वस्त्र पहिनने में अपने आपको असहज पा रही थीं.

                कैकेई की पैनी निगाहों से यह छिपा नहीं रह गया था. उसने मंथरा से कहा कि वह            सीता को दूसरे कक्ष में ले जाए और वस्त्र पहनाने में उसकी मदद करे.

शोकाकुल  नर-नारी तथा दशरथ का पछतावा.

                रनिवास की स्त्रियाँ भी अन्तःपुर में बैठी हुईं थीं, जो अपने महाराज को देखने और            कुशल क्षेम जानने के लिए इकठ्ठा हुईं थीं, आपस में खुसुर-पुसुर करते हुए एक दूसरे से अपने मन की पीड़ा उजागर करने लगी थीं.  एक ने कहा-"कितनी दुष्ट है कैकेई            कि वल्कल के वस्त्र देते समय उसकेहाथ नहीं कांपे. अरे...हमारे राम और लक्ष्मण,            जो बचपन से ही राजसी पोषाक और कीमती आभूषणो को पहना करते थे, इस दुष्टा ने उन्हें उतरवा कर अच्छा नहीं किया. दूसरी ने तीसरी से कहा..बहन, इसी को कहते हैं सौतिया डाह. इन्होंने कभी माता कौसल्या और सुमित्रा के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया और अब उनके बच्चों से भी बदला लेने से नहीं चूक रही है.

                एक ने कहा-"बहू सीता के हाथ की मेहंदी अभी पूरी तरह से भी नहीं छूटी होगी,... देखों न ! इस कलमुहीं ने उसके भी जेवर उतरवा लिए और उसे भी बल्कल वस्त्र पहिनने को मजबूर कर दिया. दुनिया में न जाने कितनी सासें होंगी, लेकिन मैने ऐसी दुष्ट सास कहीं नहीं देखी". और भी तरह-तरह की बातें वे आपस में खुसुर-         पुसुर करते हुए कह रही थीं...राम, सीता और लक्ष्मण को मुनि वेष में देखकर रनिवास में बैठी स्त्रियों के धैर्य का बांध फ़ूट पड़े थे.और अब वे फ़बक कर पड़ी थीं. वे महाराज दशरथ को चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगी थीं-"महाराज आपको धिक्कार है...धिक्कार है. आपके रहते आपकी सुकुमारी सीता के साथ इतना बड़ा अत्याचार हो रहा है और आप चुप्पी साधे हुए है".

                सीता को वल्कल धारण किए हुए देखकर गुरु वशिष्ठ जी की भी आँखें भर आयी             थीं. उनका भी धैर्य समाप्त हो चुका था. वे भी अपने आपको संभाल नहीं पा रहे थे           .उन्होंने क्रोध में भरते हुए कैकेई से कहा-"मर्यादा का उल्लंघन करके, अधर्म की ओर पैर बढ़ाने वाली कैकेई...तूने यह अच्छा नहीं किया...हे दुर्बुद्धै कैकेई..! तू  केकयराज के कुल की जीती-जागती कलंक है. अरे....महाराज को धोखा देकर अब तूने मर्यादा की सारी सीमाओं को लांघ दिया है".

                "हे केकयराजकुमारी..!.तूने केवल राम के लिए बनवास की मांग की थी. अतः कुलवधु  सीता और लक्ष्मण को किस कारण बनवास भेज रही हो? पता नहीं तुम किस के बहकावे में आकर ऐसी मूढ़तापूर्ण काम कर रही हो, जिस दिन तुम होश में आओगी, तो बहुत पछताओगी

                "शील का परित्याग करने वाली दुष्टा..कैकेई.....हम ही नहीं, सारे नगरवासी अपने            राम के साथ वन.चले लाएंगे. चीरवस्त्रों को धारण कर हम भी वहीं रहेंगे जहाँ हमारे प्रभु राम-सीता और लक्ष्मण रहेंगे. मामा के यहाँ से लौटकर जब दोनो भाई (भरत और शतुघ्न) आएंगे और अपने राम को नहीं पाएंगे, तो वे अपने भाई की तलाश करते हुए वन में जाकर रहने लगेंगे..हे दुष्टा.! फ़िर तू अकेली रहकर इस निर्जन महलों में डोलती रहना".गुरु वसिष्ठजी ने कैकेइ को धिक्कारते हुए कहा.

                महाराज दशरथ जी का भी धैर्य चुक गया था. उन्होंने गरम साँस खीचकर कैकेई से कहा-"कैकेई ! सीता कुश के चीर पहनकर वन जाने योग्य नहीं है. वह सुकुमारी है. वह सदा से ही अपने पिता जनक जी के यहाँ सुख से पली-बढ़ी है. गुरुदेव सही कह रहे हैं.वह वन जाने योग्य नहीं है.

                "हे दुष्टा.!..बिना किसी अपराध के तूने राम को वनवास तो दे दिया है लेकिन बेचारी सीता ने ऐसा कौन-सा.अपराध किया था जो तू उसे इतना भयानक दण्ड दे रही है. तू किस अभिलाषा से सीता को वल्कल- वस्त्र पहने देखना चाहती है, इससे जान पड़ता है कि तूझे नरक में जाने की तैयारी कर ली है"

                अरेदु‍ष्टा ! मैंने सीता से वन जाने को नहीं कहा था.वह तो अपने पतिधर्म का पालन करते हुए राम के साथ जा रही है. उसे अधिकार है कि वह संपूर्ण वस्त्रांलकारों के साथ वन जा सकती है. कम-से कम उससे तो न कहो कि वह भी वल्कल के वस्त्र धारण करे

                "हे कुलघातिनी कैकेई... सुख देने की जगह तूने मुझे दारुण दुख ही दिया है. इस              दुःख को सहन करने की शक्ति अब मुझमें बची नहीं है. तू निश्चित रूप से जान ले कि राम के वन चले जाने के बाद मैं जीवित नहीं बचूँगा. ये दिन देखने के पहलेमृत्यु आ जाती तो अच्छा होता, लेकिन मुझे लगता है विधाता भी मुझसे रूठा हुआहै, जो मेरी प्रार्थना नहीं सुन रहा है"

                उस स्वर्ण थाल से राम जी ने दो वल्कल वस्त्र उठाकर पहन लिया था. लक्ष्मण ने भी दो वस्त्र उठाकर पहन लिए थे. सीता ने वस्त्र तो उठा लिए थे, लेकिन अपने से बड़े-बूढ़ों के सामने उन्हें धारण करने में लज्जा का अनुभव कर रही थीं.

                कैकेई की आँखों से यह छिपा नहीं था. उसने अपने दासी मंथरा से कहा कि वह सीता को अन्यत्र कक्ष में ले जाकर वस्त्र पहिनने में उसकी सहायता करे.

                श्रीरामको मुनि वेष में देखकर महाराज दशरथ पुनः मुर्छित हो गए थे. दो घड़ी अचेत रहने के बाद जब उन्हें होश हुआ, तब वे राम का चिंतन करते हुए विलाप करने लगे थे. वे मन ही मन अपने आपको कोस रहे थे कि दुष्ट कैकेई के द्वारा इतना क्लेश    पाने के बाद भी मेरी मृत्यु नहीं आ रही है तथा ऐसे दारुण दुःख झेलना पड़ रहे हैं.            उनके दुःख का पारावार तो उस समय और अत्यधिक बढ़ गया था, जब उन्होंने अपनी पुत्रवधु और दोनों बेटों को वल्कल वस्त्र पहिने हुए देखा. उनकी आँखे भर आयी..... उनकी इन्द्रियां शिथिल होने लगी थी और वे फ़िर एक बात मूर्छित हो गए                 थे.

                दो-चार घड़ी बाद जब उन्हें चेत आया तो उन्होंने कैकेईको फ़टकार लगाते हुए कहा;--हे दु‍ष्टा ! मैंने तुम्हारे पहले वरदान के अनुसार भरत का राज्याभि‍षेक करने का वचन दे दिया है. सिर्फ़ वचन दिया है, न कि उसका राज्याभि‍षेक किया है. हाँ, यदि मैंने ऐसा कर दिया होता, तब मुझे अपने राजको‍ष से धन-संपदा निकालने का अधिकार नहीं होता. अतः तुम होती कौन हो कि मुझे देने से रोक रही हो. ध्यान रख, मैं अब भी इस अयोध्या का राजा हूँ. राजा ही नहीं हूँ बल्कि चक्रवर्ती            राजा भी हूँ”.

                अश्रूपुरित नेत्रों से देखते हुए सुमन्त्र को बुलाया और आज्ञा की कि वे उत्तम घोड़ों             से जुते हुए रथ यहाँ ले आओ और राम, सीता व लक्ष्मण को जनपद से बाहर तक पहुँचा आओ. फ़िर उन्होंने कोषाध्यक्ष को भी बुलाकर कहा कि वह पुत्रवधू सीता के लिए उत्तम वस्त्र और आभूषण की व्यवस्था करें, जो चौदह वर्षों के लिए पर्याप्त हो.

                आज्ञा पाते ही कोषाध्यक्ष ने खजाने से सब चीजें लाकर सीताजी को दिया. उत्तम            कुल में उत्पन्न सीता ने महाराज की आज्ञा से वस्त्र और आभूषण स्वीकार      किया. माता कौसल्या वहीं उपस्थित थीं, इन्होंने आगे बढ़कर अपनी पुत्रवधू को आभूषण और वस्त्र पहिनाए.( मंथरा ने अनमने ढंग से वस्त्र पहना दिए थे,)फ़िर उन्होंने अपनी पुत्रवधू को दोनों भुजाओं में कसकर छाती से लगाया और मस्तक को सूँघकर स्त्रियोचित सीख एवं आशीर्वाद देते हुए कहा-"हे सीते ! जो स्त्रियाँ पति के द्वारा सम्मानित होकर भी संकट पड़ने पर साथ नहीं देतीं...उसका आदर नहीं करतीं, थोड़ी सी विपत्ति आने पर साथ छोड़ देती हैं...अकारण दोषारोपण करती रहती हैं, झूठ बोलती रहती हैं, अपनी हृदयाहीनता का परिचय देती हैं, और छॊटी-छॊटी बातों में पति को उपालम्भ देती रहती है, ऐसी सभी स्त्रियाँ दुष्टा कहलाती हैं. इन्हें            संपूर्ण जगत में सम्मान प्राप्त नहीं होता.  इसके विपरीत जो स्त्रियाँ सत्य, सदाचार,             शास्त्रों की आज्ञा और कुलोचित मर्यदाओं में स्थित रहती हैं, उन सभी स्त्रियों के लिए एकमात्र पति ही परम पवित्र एवं सर्वश्रेष्ठ देवता है. इसीलिए तुम मेरे पुत्र श्रीराम, जिन्हें वनवास की आज्ञा मिली है, कभी अनादर न करना. वे चाहें जिस परिस्थिति में रहेंगे, उनका सदा साथ निभाना. वे ही तुम्हारे लिए देवता के सदृष्य है".

                सीताजी ने अपनी सास माता कौसलया जी को प्रणाम करते हुए अत्यन्त ही मधुर             वाणी में आश्वासन देते हुए कहा:-"माते ! मुझे अपने पति के साथ कैसा व्यवहार               करना चाहिए, यह मुझे भली-भांति विदित ही है. जिस प्रकार प्रभा कभी चन्द्रमा से दूर नहीं हो सकती, उसी प्रकार मैं पतिव्रत धर्म से विचलित नहीं हो सकती....जैसे              बिना तार के वीणा नहीं बज सकत्ती और जैसे बिना पहिये के रथ नहीं चल सकता, उसी प्रकार मैं पलभर को भी अपने पति से विलग नहीं होऊँगी.. आप निश्चिंत रहे माता....आपकी पुत्रवधु सीता आपके द्वारा दी गईं सभी सीखों का                 विधिवत पालन करती रहेगी".

राम का माता कौसल्या जी को समझाना.

                तदनन्तर रामजी ने अपनी माता कौसल्या जी से हाथ जोड़कर कहा-"हे माते.!. पिताश्री की कारण मुझे वनवास हुआ है, ऐसा समझकर उन्हें दोष मत दीजिएगा. चुंकि माता कैकेई का उन्होंने त्याग कर दिया है, अतः अब आपकी जवाबदारी होगी कि आप पिताश्री का विशेष ध्यान रखेंगी”.

                ."माते, . मैं इस सीमित आयोध्या का राजा नहीं बन पाया, इसका मुझे कोई दुःख             नहीं है.आपके बेटे राम को वनवास नहीं हुआ है, बल्कि पिताश्री ने मुझे वनों का राजा बना कर अपना आशीर्वाद ही दिया है. जहाँ तक मेरी आँखें देख सकती हैं. जहाँ        तक मैं स्वयं चलकर जा सकता हूँ, उतनी भूमि मेरे अधिकार में होगी. इस तरह आपके बेटे का असीमित राज्य होगा"

                "माते !मेरे राज्य में आकाश से बातें करते हुए असंख्य पहाड़ होंगे.....आप इन पहाड़ों को केवल मिट्टी-पत्थर आदि का ढेर न समझें. उनके भीतर चांदी-सोना, हीरे, जवाहरात सहित अनेक बहुमूल्य खनिज पदार्थ भरे हुए हैं. इस अकूत संपदा कीरक्षा के लिए, किसी अन्य रक्षाकर्मियों को न लगाते हुए, विधाता ने हिंसक पशुओं को लगा रखा है. इनके डर से कोई चोर इनके पास फ़टक नहीं पाता है. फ़िर इन रक्षाकर्मियों को राज्य की ओर से कोई पारिश्रमिक नहीं देना पड़ता. वे खुद अपना शिकार कर अपना पेट भर लेते हैं और इन अमूल्य खजाने की निःस्वार्थ रक्षा करते रहते हैं. फ़िर रक्षाकर्मियों पर होने वाला बड़ा खर्च भी राजा का बच जाता है. अतः आप इस बात        को लेकर चिंतित न हों कि राम यहाँ से खाली हाथ जा रहा है. आपके बेटे के पास  धरती के अंदर छिपा धन-दौलत का अक्षय भंडार है. इतना बड़ा भंडार तो कुबेर के          पास भी नहीं होगा". अतः आप इस पर किसी प्रकार का शोक नहीं करें".

                "माते ! आपकी दूसरी चिंता इस बात को लेकर है कि मैं चांदी-सोने के पात्रों में विविध प्रकार के सुस्वादु व्यंजनों का उपभोग करता रहा हूँ, वन में ये सुविधा मुझे           कहाँ मिलेंगी? माता...आप इस बात से भी निश्चिंत हो जाएं..कि राम क्या खाएगा, क्या पिएगा?. माते ! सुस्वादु भोजन हम कहाँ करते हैं, वह तो हमारी जिव्हा इसका रसास्वादन करती है, हम नहीं. उस भोजन में जो आवश्यक तत्व शरीर रक्षा के लिए      होने चाहिए, वे बहुत कम मात्रा में होते हैं. फ़िर रसोई घर से लेकर ईंधन आदि की भी व्यवस्था करनी होती है.जबकि पेड़ों पर लगे फ़ल इनसे कहीं अधिक गुणकारी और स्वास्थ्य वर्धक होते हैं. इन्हें खाने के लिए किसी सुवर्ण थाल की जरुरत नहीं पड़ती. जब भूख व्याकुल करने लगे, पेड़ से तोड़ा और खाया जा सकता है. अतः मेरे भोजन को लेकर आप चिन्तित मत होइए".

                "वन की नदियाँ किसी देश की सीमा-रेखा देखकर नहीं बहतीं. उनमें निर्मल शुद्ध जल प्रवाहित होता है. नदी का पानी पीने के लिए किसी बर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ती. इन दो हाथों की हथेलियों को आपस में जोड़ भर देने से पात्र बन जाता है. जितना पानी पीना हो, आप पी सकते हैं..नदी मना नहीं करतीं. बल्कि वह प्रसन्न ही होती हैं."

                "जहाँ तक मेरे सोने और विश्राम करने की बात को लेकर आप चिंतित हैं, इसे लेकर आप अत्यधिक चिंतित मत होइए. राम सघन छायादार पेड़ के नीचे नीचे लेटकर विश्राम कर लेगा. पेड़ की डालियाँ उस पर शीतल हवा झलती रहेंगी. माते ! इसके लिए किसी अतिरिक्त सेविका की आवश्यकता भी नहीं होती. फ़िर रात्रि में सोने के लिए राम को किसी सुवर्ण शैया की क्या आवश्यक्ता?, जबकि प्रकृति ने इसके लिए अपनी ओर से गुफ़ा नामक उत्तम व्यवस्था बना रखी है. इन गुफ़ाओं में रहकर             शीत, वर्षा और गर्मी आदि के प्रकोप से बचा जा सकता है. अतः माते !.. आपको इन सब छोटी-छोटी बातों को लेकर चिंतित होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं हैं".

                "ये चौदह वर्ष तो सोते-जागते यूंही निकल जाएंगे. फ़िर एक दिन मैं अपनी भार्या             सीता और लक्ष्मण और सुहृदों से घिरा हुआ यहाँ आ पहुँचूगा. अतः आप अपना धीरज बनाए रखें और औरों को भी उचित सीख देती रहा करें".

                ( अपनेदोनों हाथ जोड़ते हुए रामजी ने अपनी सभी माताओ सेकहा "माताओं....साथ रहते हुए मुझसे जाने-अनजाने में कभी कोई कठोर वचन मैंने कह दिए हों, या अकारण मुझसे कोई अपराध हो गया हो, या किसी अन्य कारणों से मैंने आप लोगों का दिल दुखाया है, उनके लिए मैं आप सभी से क्षमा मांगता हूँ और आप सभी से बिदा माँगता हूँ".

                महाराज दशरथजी सहित सभी स्त्रियों ने रामजी के धर्मयुक्त वचनों को सुनकर सब            का चित्त व्याकुल हो गया और अब वे सभी विलाप करने लगे. उनका यह आर्तनाद राजमहल में सब ओर गूँज उठा.

                तदनन्तर सीताजी और लक्ष्मण ने भी हाथ जोडकर अपने पिताश्री के चरण स्पर्ष कर दक्षिणावार्त परिक्रमा की. फ़िर उन्होंने सभी माताओं के चरण स्पर्ष कर बिदा मांगी.

                माता सुमित्रा ने अपने दोनों हाथ बढाकर अपने पुत्र लक्ष्मण को अपने सीने से चिपका लिया. देर तक चिपकाए रखने के बाद उन्होंने लक्ष्मण से कहा-"पुत्र...तुम मेरी आज्ञा पाकर अपने ज्येष्ठ भ्राता के साथ जा तो रहे हो, लेकिन साथ रहना ही           पर्याप्त नहीं होता. तुम्हें हर पल, हर घड़ी चौकन्ना बना रह कर उनकी सुरक्षा का ध्यान रखना होगा. दिन तो जैसे-तैसे कट जाता है, लेकिन रात्रि में हिंसक पशु-पक्षी और वन में रहने वाले दानव सक्रीय हो जाते हैं, अतः तुम्हें प्रहरी बनकर इनकी रक्षा करते रहना होगा."

                "बेटा ! मैं भली-भांति जानती हूँ और समझती भी हूँ कि तुम्हारा राम के प्रति अनन्य प्रेम है, जो किसी से छिपा भी नहीं है, लेकिन एक माँ होने के नाते तुम्हें उचित सीख देना मुझे जरुरी लगा था. तुम अपने ज्येष्ट भ्राता राम को पिता दशरथ      और भाभी सीता को सुमित्रा मानकर उनकी हर छोटी-बड़ी आज्ञा मानते रहना."सुमित्राजी ने अपने पुत्र लक्ष्मण को सीख देते हुए कहा था.

                आज्ञा पाकर सुमन्त्र रथ ले आए और हाथ जोड़कर रामजी से कहा- "प्रभु.....रत्नों से जड़ा सुवर्ण रथ तैयार है" . वे आगे बहुत कुछ कहना चाह रहे थे लेकिन शब्द जैसे गले में आकर अटक-से गए थे.

                श्रीराम, सीता और लक्ष्मण ने पुनः अपनी सभी माताओं, स्वजनों और महल के               सेवक-सेविकाओं को हाथ जोडकर बिदा मांगी और रथ पर आरुढ़ हो गए,                                                   

                                                                                ००००००

प्रस्थान.

                जब प्रभु रामचन्द्र जी अपने अनुज और भार्या सीता जी के साथ सुदीर्घकाल के लिए वन की ओर जाने लगे तो समस्त पुरवासियों ने राजमार्ग को अवरुद्ध करते हुए रथ   को रोक को रोक दिया और विलाप करते हुए विनती कर कहने लगे कि हम सभी आपके साथ वन को चलेंगे. जिस अयोध्या में राम नहीं, वह हमारे लिए किस काम की. जहाँ राम होंगे, वही हम लोग भी रहेंगे और एक नयी अयोध्या का निर्माण कर लेंगे. हे रघुनन्दन राम....हमारी प्रार्थना स्वीकार करें और हमें भी साथ लेते चलें".

                किसी से कुछ न कहते हुए उन्होंने अपने सारथी सुमन्त्र से कहा कि वे तेजी से रथ             को चलाएं. वे रथ को तेजी से हांकने को कहते लेकिन उपस्थित जनसमुदाय उनसे           ठहर जाने की गुहार लगाता. बड़ी दुविधा में फ़ंस गए थे सुमन्त्र. वे न तो वे रथ को आगे बढ़ा पा रहे थे और न ही उसे रोक ही पा रहे थे.

                जब प्रभु रामचन्द्र जी अपने अनुज और भार्या सीता जी के साथ सुदीर्घ काल के लिए वन की ओर जाने लगे तो समस्त पुरवासियों ने दारूण विलाप करते हुए              राजमार्ग को अवरुद्ध करते हुए रथ को रोक लिया था, कुछ लोगों ने रथ के पहियों को कसकर पकड़ लिया था. कुछ ने घोड़ों की वल्गा थाम ली थी और कुछ तो राजमार्ग के बीच में पसर गए थे. चारों ओर से बस यही आवाज आ रही थी हम सब आपके साथ ही चलेंगे. हम भी अब अयोध्या में नहीं रहना चाहते. जहाँ हमारे प्रभु राम जी रहेंगे, हम भी वहीं रहेंगे.

                हैरान, परेशान रामजी, सुमन्त्र जी से रथ को हांक कर आगे बढ़ाने को कहते.. लेकिन वे भी स्वयं देख रहे थे कि रथ आगेबढ़े भी तोकिस तरह?रथ के आगे भारी भीड़      और रथ के पीछे भी भारी भीड. ऐसी विकट परिस्थिति में रथ को हांकना सुमन्त्र जी को भारी पड़ रहा था. चारों ओर कोलाहल मचा हुआ था. ऐसी विकट परिस्थिति में फ़ंसे रामजी सोचने लगे थे कि काश यह रथ पवन वेग से उड़ने वाला होता, तो अब तक वे अयोध्या से बाहर निकल गए होते. लेकिन ऐसा होना संभव भी तो नहीं था.

                सहसा उन्होने पीछे पलट कर देखा. राजमहल से निकलकर माता कौसल्या,"हा              राम..!.हा लक्ष्मण..! हा सीते "की रट लगाए, विलाप करती हुई रथ के पीछे दौड़ी चली आ रही हैं. इतना ही नहीं पिताश्री भी चिल्ला-चिल्ला कर सुमन्त्र को रथ रोकने के     लिए कहते हुए पीछे चले आ रहे हैं. बड़ी ही विचित्र स्थिति में फ़ंस गए थे राम. यदि वे कुछ देर और रुके रहे तो फ़िर अयोध्या से बाहर निकल पाना मुश्किल हो जाएगा. यही सोचकर उन्होंने भीड़ को सम्बोधित करते हुए कहा:- भाईयों,,,बहनों...मैं                आपके उत्कट प्रेम को देखकर अभिभूत हूँ. आप सब, जो मेरे साथ चलना चाहते हैं,                चल सकते हैं, लेकिन मेरे रथ को आगे तो बढ़ने दीजिए". रामजी को बोलते हुई सभी ने सुना. सुना कि रामजी ने हमको अपने साथ चलने की स्वीकृति दे दी है. यह सुनते ही उन सभी के चेहरे प्रसन्नता से खिल उठे थे. भारी प्रसन्नता के चलते वे उछल-कूद करते हुए"जय श्रीराम". जय श्री राम"की जयघोष करने लगे थे.

                जैसे ही लोगों का जमावड़ा राजमार्ग से हटा, सुमन्त्रजी ने पूरे वेग के साथ रथ को             आगे बढ़ा दिया. लोग रथ के पीछे-पीछे, गिरते-पड़ते दौड़ लगाते हुए भागने लगे थे.

                रामजी को इस तरह जाता देखना, शायद सूर्यनारायण को भी अच्छा नहीं लग रहा           था. उनकी चमक फ़ीकी पड़ गई थी. ऐसा जान पड़ता था मानों अचानक रात घिर           आयी हो. वायु के वेग से पेड़ों की डालियाँ, जहाँ लचक-लचक कर, झूम-झूम कर लहराती रहती थीं, निर्जीव होकर लटक गईं थीं. हैं. यही हाल लतिकाओं का भी हो गया था. वे सभी मुरझाकर बेजान होकर लटक गई थीं. पेड़ों पर बैठे पक्षियों की                टोली, जो निश-दिन अपनी-अपनी बोलियों में चहचहाते हुए श्रीराम जी का गुणगान        किया करते थे, एकदम उदास होकर बैठे हुए थे.. सारा दृष्य देखकर कहा जा सकता है कि इस समय अयोध्यापुरी में दुःखों की बाढ़-सी आ गई थी. इस दिन न तो   राजमार्गों पर रोशनी की गई, और न ही राजमहलों में दीप जलाए गए और तो और, लोगों के घरों के चुल्हे तक नहीं जले थे.

                माता कौसल्या जी और महाराज दशरथ जी को घोर निराशा ने घेर लिया था. बलपूर्वक रथ के पीछे दौड़ने के बाद भी वे रामजी को रोक नहीं पाए थे, अब हताश होकर लौटने लगे थे. राजमहल में प्रवेश न करते हुए वे दोनों प्रवेशद्वार पर ही बैठकर विलाप करने लगे थे.. कौसल्या जी ने विलाप करते हुए महाराज दशरथ जी से कहा:- पता नही? वह कौन-सी अशुभ घड़ी थी, जब आपने मेरे बेटे राम का राज्याभिषेक करने का मानस बनाया. अच्छा होता कि आप भरत का राज्याभिषेक       कर देते, तो आज मेरे राम को वन नहीं जाना पड़ता. यदि उसे वन ही भेजना था तो          इतनी लंबी अवधि के लिए उसे वनवास तो नहीं देना था? पता नहीं कैसे आपकी मति मारी गई थी?".

                "हा....उच्छवास भरते हुए दशरथ जी ने जवाब देते हुए कहा:- हाँ कौसल्ये हाँ...मैं           तुम्हारा अपराधी हूँ....मुझे जो सजा तुम देना चाहती हो, दे सकती हो दो...मैं उसे             सहर्ष स्वीकार करता हूँ. लेकिन मैंने गलत भी क्या किया है?. रघुकुल में ज्येष्ठ पुत्र    का ही राज्याभिषेक होता आया है, उसी के अनुसार मैंने राम का राज्याभिषेक करने का निर्णय लिया था, तब नहीं जानता था कि कैकेई मेरे विरुद्ध इतना बड़ा षड़यंत्र                रच देगी?. शायद विधाता की यही रचना रही होगी?

                                दोनों को इस तरह विलाप करता देख, लक्ष्मण की माता सुमित्रा जी ने बहुत प्रकार से दोनों को समझाते और कहा:- हे नाथ..! .हे दीदी...!..अब इस तरह विलाप करने से कुछ नहीं होगा? पितृभक्त राम तो उसीदिन वापस लौटेगा, जब उसके                 वनवास की अवधि पूरी हो जाएगी. अतः अच्छा होगा कि अब हमें उस दिन की             प्रतीक्षा करनी चाहिए. देखिए...विलाप करते-करते आपने अपना ये क्या हाल बना रखा है..अब आप लोग भीतर चलकर विश्राम कीजिए."

                लक्ष्मण की माता सुमित्रा जी के सांत्वना भरे वचनों को सुनकर, कौसल्या जी और महाराज दशरथ जी का शोक आंशिकरूप से दूर हुआ था.

                कौसल्या जी ने उन्हें सहारा देते हुए उठने में मदद की. किसी तरह वे उठकर खड़े             तो हो गए थे, लेकिन उनका मन, उन्हें भीतर जाने से रोक रहा था. उनकी आँखों के सामने वह कारुणिक दृ‍ष्य बार-बार उपस्थित हो जाता, जब उन्होंने श्री राम को महल के बाहर निकलते हुए देखा था.

                कौसल्या जी उन्हें सहारा देते हुए कैकेई के अन्तःपुर में ले जा रही थीं, लेकिन उन्होने जाने से मना करते हुए कहा:-तुम मुझे कहाँ लिए जा रही हो कौसलया?.... क्या तुम्हें नहीं पता कि मैंने उसका त्याग कर दिया है. अतः मैं उसके अन्तःपुर में                कदापि नहीं जाऊँगा...मैं उसका अशुभ चेहरा नहीं देखना चाहता. अतः .तुम मुझे अपने महल में ले चलो...मुझे वहाँ रहकर थोड़ा आराम मिलेगा.

                लड़खड़ाकर चलकर हुए वे शैय्या पर किसी कटे हुए वृक्ष की तरह भरभरा कर गिर कर विलाप करने लगे थे. हे राम ! हे सीते !, हे लक्ष्मण !..कहाँ हो तुम तीनो.?..क्या कोई इस तरह अपने पिता से रूठकर जाता है ?  मैंने एक शब्द भी अपने मुँह से नहीं निकाला और तुम लोगों ने अपनी विमाता के कहने मात्र से         इतना बड़ा निर्णय कैसे ले लिया?.राम ! मैं तुम्हारे विछोह में ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहूँगा. तुम लोग जहाँ भी हो, शीघ्र ही अयोध्या लौट आओ.

                कौसल्या......बहुत जिद्दी बेटा है तुम्हारा राम.....वह शायद ही लौटकर आएगा?. मुझे नहीं लगता कि वह मेरे जीते-जी वापिस लौटेगा??.कहते हुए पुनः विलाप करते हुए महाराज अचेत हो गए थे.

                उन्हें अचेत होता देख कौसल्या भी विलाप करने लगी थीं. वे जानती कि सारा किया धरा कैकेई का है, जिस पर महाराज ने आवश्यकता से अधिक विश्वास किया. अब उस बात को दोहराने से कुछ होने जाने वाला भी नहीं था और न ही महाराज को       उलाहना देना ही उचित होगा, उनके सामने एक केवल और केवल एक ही ध्येय था         कि महाराज किसी तरह स्वस्थ हो जाएं और दीर्घकाल तक जीवित रहें. लेकिन महाराज की वर्तमान की दशा को देखते हुए उन्होंने यह अनुमान जरुर लगा लिया था कि देर सबेर ही सही, राम के विछोह की असहनीय पीड़ा को सहन करने की                 शक्ति अब महाराज में बची नहीं है. संभव है कि वे अब ज्यादा समय तक जीवित            नहीं रहेंगे.

                चेत में आते ही वे पुनः हे राम ! ,हे रामकहते हुए विलाप करने लगे थे. कौसलया ने बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन उनका धैर्य नहीं बंधा पायीं थीं.

                कौसल्या...शरीर में अब इतनी शक्ति भी बची नहीं रह गई है कि जाकर मैं अपने           राम को किसी तरह मनाकर ले आऊँ?.कौसल्ये !  निश्चित ही पुत्र वियोग में में तड़प-तड़प कर मेरी मृत्यु हो जाएगी. मैं अब ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रह         पाऊँगा. “ “ 

                                                                                ०००००

                तीव्रगति से रथ हांक रहे सुमन्त्र जी को रामजी ने रथ रोक देने को कहा. वे देख रहे            थे कि जनसमुदाय रथ के पीछे अब भी दौड़ते-भागते चला आ रहा है.. इसमें पुरी के युवातुर्क, वृद्ध, बालक-बालिकाएं और ब्राहमणॊं सहित अन्य लोग भी सम्मिलित हैं, जो अपने प्राणों को दांव पर लगा कर पीछा करते चले आ रहे हैं. लंबी दौड़ के चलते, वे हांफ़ भी रहे थे.

                रथ के पहिए थमते ही राम नीचे उतर आए. उनके उतरते ही प्रकृति अपना नूतन सिंगार करने लगी थी. लतिकाएँ फ़ूलों से लद गई थीं. रंग-बिरंगी तितालियाँ हवा में यहाँ-वहाँ फ़ुदकने लगी थीं..वायु मंथर गति से चलने लगी थी. ऋषि-मुनियों की तरह, एक पैर पर खड़े रहकर तप करते और राम नाम की रट लगाए, लाखों-करोड़ों वृक्षों ने, अपनी खुली नेत्रों ( नव-पल्लव ) से राम जी के दर्शन कर, अपने को कृतार्थ माना और करतल ध्वनि ( पत्तों का आपस में टकराते हुए ) से उनका भाव-भीना स्वागत किया. वे रामजी के साथ कदम से कदम मिलाकर चल तो नहीं सकते थे, लेकिन अपने आराध्य देव को अपने बीच से जाता देख कर प्रसन्न हो रहे थे..अयौध्या से चल कर आए लोग भी प्रसन्नवदन रामजी के साथ चलते हुए आगे बढ़ रहे थे.

                रामजी विनम्रतापूर्वक लोगो से लौट जाने को कहते, लेकिन कोई भी लौटने के लिए तैयार नहीं हुआ. सभी ने सम्मिलित स्वर में कहा:- "प्रभु ! जहाँ आप रहेंगे, हम भी वहीं रहेंगे. लौटने का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है.

                घने जंगलों के बीच से चलते हुए रामजी की टोली तमसा नदी के पावन तट पर पहुँची. चुंकि सुमन्त्र जी रथ संचालन में कुशल थे और एक मंत्री होने के नाते, उन्हें अयोध्या की सीमा के अन्तरगत आने वाले सभी भूभागों की विस्तृत जानकारी थी. किस ओर पहाड़ हैं, किस ओर नदियों का जाल फ़ैला हुआ है. और कितने बड़े भूभाग में जंगल फ़ैले हुए हैं. वे जानते थे कि अयोध्यावासी इतनी जल्दी रामजी का पीछा छोड़ने वाले नहीं हैं. उन्हें तो हर स्थिति में वापिस लौटना होगा, नहीं तो वे रामजी के लिए परेशानी का कारण बन सकता है.अतः उन्होंने तमसा नदी का वह          तट चुना, जहाँ वह तेज बहाव के साथ बहती हुई भंवर भी बनाती चलती है. वहाँ पहुँचकर सुमन्त्र जी ने थके हुए घोड़ों को रथ से खोलकर उनको थोड़ा टहलाया, पीनी पिलाया, तमसा के शीतल जल से नहलाया और चरने के लिए छोड़ दिया.

                कल-कल, छल-छल के स्वर निनादित कर बहती तमसा नदी को देखकर लोगों के मन प्रफ़ुल्लित हो उठे. कुछ लोग सघन पेड़ के नीचे, अपने दोनों पैरों को फ़ैलाकर     विश्राम करने की मुद्रा में धरती पर लोट गए थे. सघन वृक्षों से झरती शीतल हवा के झोंकें, थके हुए लोगों की देह को विश्रांति पहुँचा रहे थे. तो कुछ उत्साही युवा नदी में शीतल जल में उतरकर स्नान करने लगे थे.

                रामजी अपनी मार्या सीता जी एवं अनुज लक्ष्मण को लेकर नदी के तट पर पहुँचे.उन्होंने पवित्र पावनी तमसा को प्रणाम किया. शीतल जल से मुँह-हाथ धोया और चुल्लू में जल लेकर आचमण किया. फ़िर एक बड़ी सी शिला पर बैठते हुए प्रभु श्रीराम जी ने तमसा के महात्म्य को बतलाते हुए कहा;- यह पवित्र पावनी तमसा,तेज गति से प्रवाहित होते हुए बहती है. अत्यधिक गहराई लिए हुए बहने वाली यह नदी, जल में भंवरें भी बनाती चलती है. इसी के पावन तट पर अनेक ऋषि-मुनियों के आश्रम हैं. इस पुण्यदायी नदी में स्नान करने से अनेक पाप धुल         जाते हैं. अतः आप सभी इन्हें प्रणाम करें.

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                नोट:- (वाल्मिक रामायण में तमसा नदी, अयोध्या से कुछ दूरी पर होने का उल्लेख          मिलता है. जबकि गुगल से सर्च करने पर अयोध्या से फ़ैजाबाद की दूरी        188.9                 किलोमीटर बतलाई गयी है, इसी फ़ैजाबाद के पास तमसा नदी मिलती है. यदि कोई         पचास किलोमीटर प्रति घंटा के हिसाब से वाहन चलाए तो उसे वहाँपहुँचने में 4.24 का समय लगेगा. रथ का इस गति से चलाया जाना संभव हो सकता है, लेकिन आम आदमी इसी गति से लगातार चार घंटे चल सके, ऐसा संभव नहीं है.)

                (*) इसी तमसा नदी के तट पर शिकार खेलने के लिए आए महाराज दशरथ जी के          विष भरे बाण से तपस्वी श्रवन की मृत्यु हुई थी (रघुवंश पुराण के अनुसार)..( वहीं वाल्मिक रामायण के अयोध्याकांड में इस घटना को सरयू के तट पर घटित होने का उल्लेख मिलता है).

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                लंबी दूरी चल कर आए लोगों को विश्राम कर लेने और स्नान कर लेने के बाद लग आयी थी भूख. नदी के तट पर फ़लदार वृक्षों पर फ़ल प्रचूर मात्रा में लदे हुए थे.       सभी ने मिलकर स्वादिष्ट फ़लों को इकठ्ठा किया. फ़िर उन्होंने अपने प्रभु रामजी, सीता जी तथा लक्ष्मण जी को अर्पण करने के पश्चात, सभी ने मिल बांट कर खाया. अपने आराध्य राम जी से बतियाते कब रात्रि घिर आयी, किसी को पता ही नहीं चल पाया. प्रजाजनों से एक लंबी दूरी बनाते हुए लक्ष्मण ने एक विशाल वृक्ष के नीचे, भाभी सीताजी और भ्राता रामजी के लिए, वृक्षों के सूखे पत्तों को बटोकर बिछौना बनाया. सोने से पूर्व रामजी ने सुमन्त्र जी से कहा कि आपको घोड़ों की रक्षा   पर विशेष ध्यान देना होगा. उनके प्रति असावधान रहना हमारी परेशानियाँ बढ़ा सकती हैं. ऐसा निर्देश देकर वे विश्राम करने लगे.

                वीर लक्ष्मण ने अपने कांधे पर धनुष रखा, पीठ पर बाणॊं का तुणीर कसा और सजग प्रहरी की भांति एक शिला पर आसीन हो गए. इसी तरह सुमन्त्रजी भी रात्रि जागरण करते हुए घोड़ों की रखवाली करते रहे.

                अयोध्यावासी अपने-अपने घरों में आरामदायक बिछौनेपर सोया करते थे, उन्होंने            इससे पहले कभी खुले आसमान और धरती पर विश्राम नहीं किया था. अतः वे               अपने आपको असहज पा रहे थे. देर रात्रि तक वे आपस में बतियाते रहे थे. रामजी जानते थे कि ये लोग रात्रि में जितना अधिक जागेंगे, सुबह उतनी ही देरी से उठेंगे.वे          लोग आखिर जागते भी तो कब तक? आखिरकार निद्रा देवी ने उन्हें आ दबोचा. शीत से बचने के लिए उन्होंने पेड़ों की जड़ों को कसकर अपने छाती से चिपका लिया था.

                रामजी सोते हुए भी जाग रहे थे. जाग रहे थे यह सोचते हुए कि अपनी प्रजाजनों से          किस तरह छुटकारा पाया जा सकता है?.भले ही उनका राज्रायाभि‍षेकनहीं हो पाया          था लेकिन उन्हें अपनी अयोध्या की चप्पे-चप्पे की जानकारी थी. किस भूभाग में कितने पर्वत है, कन्दराएं है, जंगल है और तो और तमासा के बारे में भी पूरी जानकारी थी कि वह कहाँ तेज प्रवाह से प्रवाहित होती है और कहाँ पर उथली जगह से बहती हुई आगे बढ़ती है. रात्रि में ही उन्होंने उस दिशा का चयन कर लिया था, जहाँ से होकर रथ को आगे बढ़ाया जा सकता है.

                तेजस्वी राम तड़के ही उठ बैठे और अपने प्रजाजनों को गहरी नींद में सोता देख भाई लक्ष्मण से बोले:-"लक्ष्मण  ! देखो तो सही..ये लोग किस तरह से पेड़ों की जड़ों     से सटकर सो रहे है. इन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है कि ये आसानी से हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगे. अतः ये जबतक सो रहे हैं, हम लोग रथ पर सवार होकर शीघ्रपूर्वक यहाँ से चल दें. फ़िर हमें मार्ग में भय नहीं रहेगा."

                जब हम लोग यहाँ से चल देंगे, निश्चित ही वे हमारी तलाश करेंगे और खोजने के             बाद भी जब हम नहीं मिलेंगे, तो ये लोग अपने-अपने घरों को लौट जाएंगे, फ़िर इस तरह इन्हें जड़ पकड़कर सोना नहीं पड़ेगा"

                "भैया..! मुझे आपकी राय पसंद है. शीघ्रता से आप रथ पर सवार हो जाइए."लक्ष्मण ने रामजी से कहा.

                सुमन्त्र जी रात्रि भर जागते रहे थे. रामजी ने उन्हें बुला भेजा और कहा:-"सुमन्त्रजी            आप तुरंत ही घोड़ों को रथ में जोत दीजिए.अयोध्यावासी अभी गहरी नींद में सो रहे         हैं. यही उचित समय है कि हम लोग अभी और इसी समय तमासा को पार करते हुए आगे बढ़ सकते हैं

तमसा को पार करना.

                सुमन्त्रजी ने रामजी की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुएरथ को उस दिशा में बढ़ाया,            जहाँ तमसा एक उथले स्थान से मंथर गति से बहती हुई आगे प्रवाहित होती है. यह वह उचित स्थान था जहाँ से होकर रथ को आसानी से आगे बढ़ाया जा सकता             था. उन्होने सुगमता से नदी को पार किया.

                नदी पार कर रामजी ने तमसा को प्रणाम किया.और आगे अग्रसर होने लगे..

                काफ़ी आगे जाकर सुमन्त्र जी को एक सघन वटवृक्ष दिखाई दिया. उन्होंने रथ को            रोकते हुए रामजी से कहा-प्रभु !...आप इस सघन वटवृक्ष के नीचे विश्राम करें. मैं किसी तरह अयोध्यावासियों को वापिस भेज कर कुछ समय पश्चात फ़िरसे मैं                 आपकी सेवा में उपस्थित होता हूँ

प्रतिदिन की तरह सूरज उगा.

                आकाश पटल पर सूर्यदेवता काफ़ी ऊँचा उठ चुकाथा.लोग अब तक सोए पड़े थे. तेज किरणॊं की गर्माहट पाकर उन्हें उठने पर मजबूर होना पड़ा.जमुहाई भरते लोग उठ बैठे और अब वे रामजी को प्रणाम करने उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ लक्ष्मण जी ने उनके लिए सूखे पत्तों की शैया बनाई थी.

                आश्चर्य...घोर आश्चर्य....न वहाँ रामजी थे, न सीताजी और न ही लक्ष्मण.. उन्हें अपने स्थान पर न पाकर वे अत्यन्त दुःखी होकर उन्हें पुकारने लगे ..हा राम !.हा लक्ष्मण....आप कहाँ हो? कहाँ हो प्रभु...उनकी खोज में वे कभी उत्तर की ओर, तो           कभी दक्षिण की ओर, तो कभी पूरब-पश्चिम की दिशाओं में दूर-दूर तक जाकर खोजने का उपक्रम करने लगे, लेकिन निराशा ही हाथ लगी., हताश-निराश प्रजाजन अब विलाप करते हुए संताप मनाने लगे थे.

                कोई कहता- "भैया...देर रात तक तो हम जागते रहे थे, लेकिन निगोड़ी नींद ने हमें           आ घेरा....काश. हम सोते नहीं और सतत उन पर निगरानी बनाए रखते, तो वे कहीं नहीं जा पाते". एक ने कहा-"प्रभु...दरअसल हमें साथ नहीं रखना चाहते होंगे, तभी तो वे हमें इस तरह छोड़ कर चले गए". तीसरे ने कहा-"भैये...कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा हमने उन्हें...लेकिन नहीं खोज पाए"...किसी ने कहा-"नदी का प्रवाह तो देखो......किस तीव्रता के साथ प्रवाहित हो रही है...और उसमें बीच-बीच में भंवर भी बन रहे हैं.... ऐसी भयानक नदी को पार उन्होंने कैसे किया होगा...आश्चर्य की बात है?”जितने लोग उतनी बातें.

                एक ने सलाह देते हुए कहा-"भैया....रथ तो अपनी जगह पर खड़ा है और सुमन्त्र जी भी तो अब तक सोए हुए हैं....शायद उन्हें भी पता नहीं चल पाया होगा कि हमारे नाथ हमको छोड़कर न जाने कहाँ चले गए है? वे इस घने जंगल के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं...शायद प्रभु की खोज में, वे हमारे सहायक हो सकते हैं?.चलो...चलते हैं ...उन्हें जगाते हैं....और बतलाते हैं कि प्रभु रामजी अपनी जगह पर नहीं हैं...न ही वहाँ सीता जी हैऔर न ही भैया लक्षमण.......पता नहीं ये तीनों किस अज्ञात दिशा    की ओर निकल गए हैं?.

                सुमन्त्रजी को जगाया गया. हालांकि वे सोए नहीं थे, सोने का नाटक मात्र कर रहे थे. उन्होंने आँखे मलते हुए पूछा-"क्या बात है...इस तरह आप लोग घबराए हुए से क्यों                 हैं?...क्यों अकारण आप लोग इस तरह विलाप कर रहे हैं ? अरे भाई......मुझे भी बतलाओ तो सही कि आखिर हुआ क्या है.....मैं भी तो जानूं? सुमन्त्रजी ने कहा.

                "सुमन्त्र जी....हम लुट गए.....सुमन्त्र जी...हम लुट गए.....हमारे प्रभु श्रीराम, सीता जी और भैया लक्ष्मण हमें सोता हुआ छोडकर, पता नहीं किस दिशा में चले गए?. हमें                नहीं लगता कि वे प्रचण्ड वेग से बहने वाली तमसा को पार कर पाए होंगे?....फ़िर इस बियाबान जंगल में, न तो कोई नाविक दिखाई देता है और न ही कोई      नाव...जिस पर बैठकर हम उस पार जाएँ?"

                "हमने...सभी ने चारों दिशाओं में उन्हें खोज डाला, लेकिन वे हमें कहीं नहीं मिले....इस तरह वे हमें असहाय छोडकर कैसे जा सकते हैं सुमन्त्रजी.?..आप ही कोई उपाय कीजिए...आप तो शायद इस तरफ़ कई बार आए-गए होंगे...आप हमारी सहायता करें मंत्रीवर जी...आप हमारी सहायता करें"

                "हम अपना घर-बार, मोह-माया-ममता का त्याग कर रामजी के साथ चले आए              थे...अब हम कौन-सा मुँह लेकर घर लौटेंगे? न जान्रे कितनी ही बातें हमारे बारे में            कही जाएगीं....कितना भला-बुरा लोग हमारे बारे में कहेंगे ? सुमन्त्र जी हम यहीं     अपने प्राणॊ तो त्याग देंगे...लेकिन हम अपने घर वापिस नहीं लौटेंगे".

                "हाँ सुमन्त्र जी......हाँ....हम अयोध्या नहीं लौटेंगे...जिस अयोध्या में राम नहीं...हम उस अयोध्या में कैसे रह सकते हैं.?...हम सभी ने यह निश्चय किया है कि इसी नदी के तट पर झोपड़ियाँ बना कर रहेंगे और अपने प्रभु के वापिस लौटने की                 प्रतीक्षा करते रहेंगे".सभी ने एक स्वर में कहा.

                "मैं आप लोगों की भावनाओं को समझ रहा हूँ.....समझ रहा हूँ कि आपका रामजी के प्रति कितना अनन्य अनुराग है......कितना समर्पण है.....वे तो चाह्ते ही रहे होंगे कि हम सभी उनके साथ चलें....लेकिन उन्हें हमें छोड़कर जाना पड़ा...जहाँ तक मैं समझ पाया हूं कि इसके पीछे भी उनकी कोई सोच रही होगी.....वे कदापि नहीं चाहते होंगे कि आप लोग भी उनके पीछे भयानक और निर्जन वनों में यहाँ-        वहाँ भटकते फ़िरें......."

                "अच्छा मुझे एक प्रश्न का उत्तर दें....क्या आप लोगों ने कभी खुले आकाश के नीचे.... सूखी-गीली धरती पर सोकर कोई रात गुजारी है.?..नहीं न ! किस तरह आप      लोगों ने कल रात्रि व्यतीत की होगी?....मुझे मालुम है... आप लोगों में कोई भी       आराम से सो नहीं पाया था....."

                "हमारे रामजी के पास न तो प्रचूर मात्रा में धन-संपदा है और न ही आप लोगों के            लिए उत्तम भोजन की व्यवस्था ही है.....अतः वे नहीं चाहते रहे होंगे कि आप लोग भी, उनकी तरह रूखे-सूखे फ़ल खाकर अपनी क्षुधा को शांत करें...खुले आकाश के नीचे और धरती पर सोएं...भीषण गर्मी...बरसात और शीत आदि का सामना       करें....इसीलिए उन्होंने हमें छोडकर अकेले ही जाने का निर्णय लेना पड़ा".....

                "आप लोगों की जानकारी के लिए मुझे यह बतलाना भी जरुरी लगता है कि महाराज दशरथजी ने, कोषागार को आज्ञा दी थी कि वह हाथियों की पीठ पर प्रचूर मात्रा में खाद्यान और धन की व्यावस्था कर रामजी के साथ पहुँचाने के व्यवस्था करें...लेकिन कैकेई ने एक भी छदाम कोष से देने के लिए मना कर दिया था...अब आप ही बतलाइए कि रामजी ने गलत क्या किया है?.उन्होंने तो हमारे सबके लिए           भला ही सोचा, तभी वे हमें सोता हुआ पाकर अकेले ही वनवास के लिए निकल             गए....अब हमारी भलाई अब इसी में हैं कि आपसब अयोध्या लौट जाएं और वनवास की अवधि शीघ्र बीत जाने और रामजी के लौट जानेकी प्रतीक्षा करें". सुमन्त्र जी ने पुरी के लोगों को समझाते हुए कहा.

                "आप सच कह रहे हैं सुमन्त्र जी......रामजी ने हमारे बारे में ठीक ही सोचा होगा.....जब हम एक रात तरीकेसे विश्राम नहीं करपाए तो, चौदह वर्ष किस तरह                बीतते, इसकी कल्पना करने मात्र से घबराहट होने लगती है.अतः हम सभी आपके            साथ ही अपनी आयोध्या को लौट चलते हैं"सभी ने एक स्वर में कहा.

                ' मित्रों....आपका यह विचार बहुत उत्तम है. आप लोग धीरे-धीरे चलते हुए अयोध्या की ओर प्रस्थान करें...मैं आप लोगों के साथ न जाते हुए, प्रभु श्रीराम जी की तलाश कर उन्हें अपने साथ लौटा लाने के लिए प्रयास करता रहूँगा. महाराज दशरथ     जी ने मुझसे कहा भी है कि राम सत्यव्रती और दृढ़ प्रतिज्ञा हैं, बिना वनवास की अवधि पूरी किए बिना, शायद ही वह लौटेगा.. उन्होंने मुझसे यह भी कहा है कि मैं उन्हें रथ में बिठाकर, चार दिन वन में भ्रमण करवाऊँ और फ़िर उन्हेंलौटा लाऊँ.             अब आप ही लोग बतलाइए कि मैं उन्हें लिए बिना अयोध्या कैसे लौट सकता हूँ?. आप लोग भी तो यही चाहते हैं..न ? कि रामजी अयोध्या लौट आएँ.  जंगल में हिंसक पशु विचरते रहते हैं अतः आप लोग एकसाथएकजुटता बनाते हुए अयोध्या पहुँचें...मैं अपनी ओर से पूरा प्रयास ,करुँगा कि रामजी अयोध्या लौट आएँ”. 

                ...देखिए..... मेरे पास रथ है...मैं इसके सहारे वन का चप्पा-चप्पा छान मारुँगा और रामजी, सीताजी और भ्राता लक्ष्मण को वापिस लेता आउँगा....अब आप निश्चिंत होकर प्रस्थान करने की कृपा करें..सुमन्त्र ने सभी आयोध्यावासियों को समझाते       हुए कहा.

                सभी ने सम्मिलित स्वर में कहा.सही कह रहे हैं मंत्रीवरआप.....आपशीघ्रता से               हमारे प्रभु रामजी की वन में तलाश कीजिए....हम अब अयोध्या की ओर प्रस्थान करते हैं 

                रामजी के नाम का जयघो‍ष करते हुए लोग लौटने लगे थे.

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                रामजी का रथ कभी धीमी गति से, तो कभी तीव्रता के साथ आगे बढ़ रहा था. मार्ग में अनेक छोटे-बड़े ग्राम मिलते, जिनमें निवास करने वाले लोग अपने घरों से बाहर निकलकर उनके दिव्य दर्शन करते और आपस में बतियाते हुए कहते:-"धन्य भाग हमारे, जो आज राम, सीता और लक्ष्मण के दर्शन हो गए..कोई कहता-  ’भैया...पिछले जन्म में हमने जरुर कोई पुण्य किए होंगे, जिसका सुफ़ल आज हमें मिल रहा है.

                स्त्रियाँ आपस में बातें करते हुए कहतीं- "हाय दैय्या...कितनी सुन्दर है सीता मैय्या....पता नहीं कौन-सी दुर्बुद्धि के चलते, विमाता कैकेई ने इतनी सुकोमल- सुकुमारी बहू को महल से निकाल दिया. बेचारी को अब जंगल-जंगल भटकना पड़ेगा". कोई कहती-अपने पिता जनक की राजदुलारी, कोमलांगी सीता को वनवास भेजने में, महाराज दशरथ को थोड़ा सोचना-विचारना तो चाहिए था और उन्हें वनवास पर नहीं भेजना चाहिए था...महिलाओं के अपेक्षा पुरुषों की सहनशक्ति कहीं अधिक होती...एक बारगी..ये कष्ट सह लेंगे, लेकिन बेचारी जनकसुता, क्या इतना. कष्ट उठा पाएगी?

                "एक स्त्री ने दूजे से कहा- हाय...हाय..धर्ममर्यादा का त्याग करने वाली, पापासक्त कैकेई को तनिक भी दया नहीं आयी और उसने कोमलांगी सीता को वनवास पर भेज दिया" दूसरी से तीसरी से कहा;-हमारे महाराजा दशरथ जी तो धर्म के ज्ञाता हैं, दयालु हैं, कैकेई की कपटभरी बातों में आकर, उन्होंने अपनी कुलवधू को देश निकाला दे दिया". तीसरी ने चौथी से कहा-जनकसुता महाभागा सीता, सदा सुखों में ही रत रहती आयीं थी, वन की कठोर भूमि पर, कांटों से भरे रास्तों पर, अपने कोमल-कोमल पग कैसे रख पाएंगी

                कुछ युवतियाँ लक्ष्मणजी के अनुपम सौंदर्य पर मोहित होकर आहे भरने लगीं और एक दूसरे से कहती-"वाह.....क्या बांके युवा है हमारे वीर लक्ष्मण.....उनकी सुंदरता पर भला कौन नहीं रीझेगा.. एक ने दूजे से कहा---सचमुच कामदेव का साक्षात अवतार हैं लक्ष्मण...उन पर कौन नहीं अपने प्राण न्योछावर करना चाहेगा."तीसरी ने चौथी से कहा- मैंने तो अब तक इतना बांका युवक नहीं देखा......यदि कोई अप्सरा उन्हें एक बार देख ले...तो बस गले ही पड़ जाएगी" एक ने कहा....."काश..मैं उनकी धर्मपत्नी होती तो मुझे भी इनके साथ जाने का अवसर मिलता".जितने मुँह उतनी बातें कही जाने लगी थीं.

                आश्चर्य चकित थे रथ पर आरूढ़ रामजी, वे ग्रामीणॊ की बातों को सुनकर भी अनसुना करते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे. वे सोचने लगे थे कि मुझे रथ का सहारा लेकर, इतनी दूर आने में बहुत-सा समय लग गया, जबकि मेरे बनवास की खबरें, उससे पहले ही पूरे जनपद में फ़ैल गई है. सच है, बातों के कोई पैर नहीं होते, वह तो हवा के पीठ पर सवार होकर अल्पावधि में ही मीलों यात्रा कर लेती है.

                रंग-बिरंगे फ़ूलों से लदे सुशोभित वनों को देखते हुए वे सभी कोसल जनपद की सीमा लाँघकर, बेदश्रुति नदी को पार करते हुए अगस्त्यसेवित दक्षिण दिशा की ओर बढ़ चले थे. फ़िर उन्होंने समुद्रगामिनी गोमती नदी को पार किया. शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा गोमती नदी को लाँघते हुए उन्होंने स्यन्दिका नामक नदी को पार किया. यह क्षेत्र धन-धान्य से सम्पन्न और अनेक अवान्तर जनपदों से घिरा हुआ था. रामजी ने इस पावन भूमि की महता से जानकीजी, लक्ष्मण और सुमन्त्र जी को अवगत कराते हुए, विभिन्न विषयों पर वार्तालाप करते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहे..इस प्रकार विशाल और रमणीय कोशल की सीमा को पार करते हुए उन्होंने सुमन्त्रजी से रथ रोक देने को कहा..रथ से उतरकर उन्होंने अयोध्या की ओर मुख कर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए कहा:-"हे दिव्य भूमि अयोध्ये !...मैं तुमसे तथा जो-जो भी देवता तुम्हारी रक्षा करते हैं और जो तुम्हारे भीतर निवास करते हैं, मैं आप सभी को विनयपूर्वक नमन करते हुए, वन में जाने की आज्ञा चाहता हूँ. वनवास की अवधि पूरी करके मैं पिता के ऋंण से उऋण होकर पुनः लौटकर आपके दर्शन करुँगा. तदनन्तर अपने माता-पिता तथा सुहृदयों से मिलूँगा".

                तदनन्तर उन्होंने मन ही मन सभी अयोध्यावासियों का और अपने पूर्वजों का स्मरण करते हुए कहा-"आप लोगों ने मुझ पर बहुत बड़ी कृपा की और मेरे प्रति अत्यन्त ही दया की...आप लोगों को मेरी वजह से अनेक दारूण दुःख झेलने पड़े, आप सभी को राम अपनी ओर से धन्यवाद ज्ञापित करता है. मैं शीघ्र ही वनवास की अवधि पूर्ण कर फ़िर आप लोगों के बीच पहुँच जाऊँगा". कहते-कहते राम भावविह्वल हो गए थे. उनकी आँखें भर आयी थीं और अब वे रुदन करने लगे थे.

                देर तक अन्यमनस्क से खड़े रहे थे राम, फ़िर अपने उत्तरीय से आँसू पोंछते हुए पुनः रथ पर आकर विराजमान हो गए थे.

                कुछ समय बाद वे पुण्य सलीला, त्रिपथगामी गंगाजी के पावन तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर जा पहुँचे.

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( श्रृंगवेरपुर के संबंध में एक रोचक जानकारी.)

बहुत ही रमणीय स्थल है श्रृंगवेरपुर.  श्रृंगी ऋषि की तपस्थली होने के कारण इस स्थान का नाम श्रृंगवेरपुर पड़ा था.  वर्तमान में, मछुआरों के राजा निषादराज ने श्रृंगवेरपुर को अपनी राजधानी बनाया था. श्रृंगवेरपुर को सजाने-संवरने में प्रकृति ने भी कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी थी. नगर के चारों ओर सघन वनों से आच्छादित पेड़ों से शीतल, सुगन्धित बयार, मंथरगति से बहती रहती है. पेड़ॊं पर अनेक पक्षियों के समूहोंने अपने-अपने घोंसलेबनारखेथे. सुबह और शाम को इस नगरी की भव्यता उस समय और बढ़ जाती थी, जब सूर्यदेव उदित होते थे अथवा अस्ताचलगामी होते थे. समूचा आकाश रंग-बिरंगे रंगो मे नहा उठता था. पेडों और लतिकाओं पर सुगन्धित पुष्प खिलखिलाने लगते. तितलियों के समूह यहाँ-वहाँ फ़ुदकने लगते हैं. फ़ूलों की मदमाती सुगन्ध को हवा अपने साथ बहाकर ले जाती है और पूरे श्रृंगवेरपुर को सुगन्धित बना देती है.. इस समय पक्षियों के समूह अनंत आकाश की ऊँचाइयों पर उड़ते हुए अपने आराध्य सूर्यदेव के स्वागत में सामूहिक गीत गाते हैं और संध्या के समय सांध्यगीत गाते हुए उन्हें बिदाई देते हुए मन ही मन पुनः आकाश-पटल पर अवतरित होने की प्रार्थना करते दिखाई देते हैं

एक तरह से श्रृंगवेरपुर रामजी की बहन शांता का ससुराल होने का गौरव भी रखता है. इस स्थली से जुड़ी एक बेहद ही रोचक प्रसंग है. श्रृंगि ऋषि को श्रृष्यशृंग के नाम से भी जाना जाता है. रामजी की बहन शांता का विवाह महर्षि विभाण्डक के पुत्र इन्हीं श्रृंगऋषि से हुआ था. श्रृंग के जन्म को लेकर एक प्रसंग मिलता है. एक दिन जब महर्षि विभाण्डक नदी में स्नान कर रहे थे, तभी नदी में उनका वीर्यपात हो गया. उस जल को एक हिरणी ने पी लिया, जिसके गर्भ से ऋंग का जन्म हुआ था. महर्षि विभाण्डक ने उस नवजात शिशु को अपना पुत्र मानकर लालन-पालन-पोषण किया था.

उस समय अंगदेश के तत्कालीन राजा रोमपाद थे. पूरा क्षेत्र सूखे की चपेट में था. अतः वहाँ के कृषक अपने राजा रोमपाद के पास पहुँचे और प्रार्थना करते हुए मदद मांगने लगे. राजा रोमपाद ने ऋंगऋषि से प्रार्थना की कि वे यहाँ आकर यज्ञादि करें, ताकि इन्द्रदेव प्रसन्न होकर वर्षा करें. यज्ञ के संपन्न हो जाने पर भारी वर्षा हुई. जनता इतनी खुश हुई कि अंगदेश में जश्न का माहौल बन गया. तभी रानी वर्षिणी और राजा रोमपाद ने अपनी गोदली बेटी (महारानी वर्षिणी और उनके पति रोमपाद ने गोद लिया था.) शांता का विवाहऋंग ऋषि से कर दिया.

महाराज दशरथजी की पुत्री शांता के नामका उल्लेख रामायण में भी मिलताहै. ऋंगीऋषि से जुड़ा और एक रोचक कथा पढ़ने को मिलती है, महाराज दशरथ पुत्रेष्टि यज्ञ करवाना चाहते थे, अतः उन्होंने इन्हीं ऋंगीऋषि से प्रार्थना की कि वे अयोध्या आकर पुत्रेष्ठी यज्ञ संपन्न करवाएं. ऋषि जानते थे कि इस यज्ञ को संपन्न करवाने में उनके जीवन भर के सभी पुण्य नष्ट हो जाएंगे. अतः उन्होंने मना कर दिया. लेकिन पत्नी शांता के विशेष अनुरोध को मानते हुए वे अंततः इस यज्ञ को करवाने के लिए तैयार हो पाए थे. इन्हीं पुण्यों के चलते महाराज दशरथजी को पुत्रों की प्राप्ति हुई थी. महाराज दशरथ जी नेऋषि को यज्ञ करवाने के बदले बहुत-सा धन दिया था, जिससेऋंगऋषि के पुत्र और कन्या का भरण-पोषण संभव हो पाया था. यज्ञ से प्राप्त खीर से राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का जन्म हुआ था.

अपने नष्ट हुए पुण्यों को फ़िर से अर्जित करने के लिएऋषि वन में जाकर तपस्या करने चले गए थे. ऐसा माना जाता है कि इन्हींऋषि दंपत्ति का वंश आगे चलकर सेंगर राजपूत बना.

अन्य एकऋंगीऋषि होने का उल्लेख द्वापर युग में (महाभारतकाल) मिलताहै.

महाभारत काल के ऋंगीऋषि:- पाण्डवों के स्वर्गारोहण के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित ने शासन किया. उसके राज्य में सभी सुखी और संपन्न थे. एक बार राजा परीक्षित शिकार के बहुत भटके लेकिन कहीं शिकार नहीं मिला. अंत में वे प्यास बुझाने के लिए भटकते हुए, ऋषि शमिक के आश्रम में पहुँचे, जहाँऋषि समाधी में लीन थे.

राजा नेऋषि से कहा कि वे प्यासे हैं और उन्हें प्यास बुझाने के लिए पानी चाहिए, लेकिनऋषि तो समाधी में लीन थे अतः राजा परीक्षित के बार-बार अनुरोध करने के बाद भी उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. चुंकि राजा परीक्षित के मुकुट में कलियुग बैठा हुआ था, इसी के चलते राजा को क्रोध हो आया और उन्होंने धनुष पर बाण चढ़ाते हुए उनका वध कर देना चाहा, लेकिन संस्कारवश उन्होंने खुद कोऋषि की हत्या करने से रोक लिया. तभी उन्होंने वहाँ एक मरे हुए सांप को देखा और बाण से उसे उठाकर उनके गले में डाल दिया.

शमिकऋषि का किशोर पुत्रऋंगी एक नदी में स्नान कर रहा था. उसके साथियों ने उसे बताया कि किस तरह राजा परीक्षित ने उनके गले में मरा हुआ सर्प डाल दिया है. ऋंगी को क्रोध आ गया और उसने नदी से अंजुली में जलभर कर राजा को श्राप दिया कि आज से सातवें दिन उस राजा को तक्षक नाग डंसेगा और वह मर जाएगा. सात दिन बाद राजा  परीक्षित की तक्षक के डंसने से मृत्यु हो जाती है.

नोट-------वर्तमान में इस ऋंगवेरपुर को आज कुरईपुर के नाम से जाना जाता है.

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संध्या हो आयी थी. उन्होंने संध्या वन्दन किया और एक विशाल रसाल वृक्ष के नीचे रात्रि में विश्राम किया.

                सूरज की पहली किरण के साथ ही सभी उठ बैठे थे. श्रीराम. श्रृंगवेरपुर से सटकर ही गंगाजी प्रवाहित होती हैं. सुबह के नित्यक्रिया कर्म के पश्चात सभी स्नान करने के लिए गंगाजी के पावन-पवित्र तट पर पहुँचे. सामने प्रवाहित हो रही गंगाजी को देखकर सभी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया.

                गंगाजी ने उन्हें दण्डवत प्रणाम करता हुआ देखा तो वे अत्यन्त ही लज्जित होते हुए मन ही मन कहने लगीं :- "हे प्रभु! ये आप क्या कर रहे हैं? प्रणाम तो मुझे पहले करना चाहिए था? आप मुझे प्रणाम कर लज्जित क्यों कर रहे हैं?. मेरा जन्म तो आपके पैर के अंगूठे से हुआ था, जिसे ब्रह्माजी ने अपने कमण्डल में भर लिया था. बाद में भगीरथ के कठिन तपश्चर्या से प्रसन्न होकर, भगवान शंकर जी की सहमति प्राप्त करने के पश्चात, ब्रह्माजी ने मुझे अपने कमण्डल से मुक्त किया था, जिसे शिवजी ने अपनी जटाओं में धारण कर लिया था. वहीं से होकर तो मैं धरती पर अवतरित हुई थी. हे दीनानाथ...आप ऐसा करते हुए आप मुझे लज्जित न करें...."

                रामजी समझ गए. समझ गए थे कि गंगाजी का मंतव्य क्या है?. उन्होंने मन का उत्तर मन से ही देते हुए गंगाजी से कहा-"तुम्हारा कहना उचित है गंगे ! लेकिन अपनी पुत्री को प्रणाम करना, यह धर्म संगत है. हमारे यहाँ पुत्रियों को प्रणाम ही किया जाता है...अब तो संतुष्ट हो न !.प्रभु श्रीराम जी का उत्तर पाकर गंगाजी को बड़ा आत्मसंतोष मिला. (यहाँ दोनों के बीच मन ही मन में वार्तालाप हो रहा था.)

                जैसे ही गंगा ने अपने आराध्य प्रभु राम को अपने पास आता देखा, उसकी प्रसन्नता का पारावार बढ़ गया. लहरों में तीव्र हलचल होने लगी. नदी के कोई हाथ-पैर तो होते नहीं हैं. वह तोलहरों के बल पर ही प्रवाहित होती हुई आगे बढ़ती है. ऊँची-ऊँची उठती लहरों को देखकर यही प्रतीत होता है, मानों वे रामजी को उछल-उछल कर बारम्बार प्रणाम कर रही हों. मात्र गंगा ही नहीं, अपितु उसके अन्दर निवास करने वाली मछलियाँ, मगरमच्छ तथा अन्य जीव-जंतु भी पानी के भीतर से अपना सिर बाहर निकाल-निकाल कर रामजी के दर्शनो का पुण्य़लाभ लेने लगे थे. ऐसा करते हुए वे थकते नहीं थे.

                गंगा के तट पर उगे ऊँचे-ऊँचे विशाल वृक्ष, ठीक उसी तरह से दिखाई दे रहे थे, मानो अनेकानेक तपस्वीगण एक स्थान पर एकत्रित होकर, तथा एक पैर पर खड़े रहकर तप करने में लीन हों. जैसे ही उन्होंने अपने प्रभु रामजी को अपनी ओर आता देखा, उन सभी की प्रसन्नता अचानक बढ़ गई थी. वे मन ही मन कह उठे थे कि राम जी ! आपके दिव्य दर्शनों को पाकर हम कृतार्थ हुए. ..आज हमारी साधना सफ़ल हुई....आज हमारी तपस्या का सुफ़ल हमें मिल गया. वृक्षों की डालियाँ ही उनके हाथ होते हैं. उस समय वाचाल हुई वायु की अपने रामजी के दर्शनों को पाकार वाचाल हो उठी थीं. वह शीघ्रता से आगे बढ़कर रामजी, सीताजी और लक्ष्मण के चरणों में अपना प्रणाम निवेदित करती हुई और उनके शरीरों को छूती हुई आगे बढ़ जाती थी.

                मंद-मंद प्रवाहित होती वायु ने विशाल वृक्षो के मर्म को समझ लिया था. समझ लिया था कि अपनी कठोर हो चुकी डालियों के चलते, वे न तो रामजी को प्रणाम कर पा रहे हैं, और न ही करतल ध्वनि कर पा रहे हैं. वह जानती थी ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते, अतः उसने अपना वेग बढ़ा दिया था. उसके बढ़ॆ हुए वेग के कारण अब वृक्षो की डालियाँ में जोरों की हलचल होने लगी थी. पेड़ पर लदी पत्तियाँ तालियाँ बजाने लगी थीं. यह देखकर वायु की प्रसन्नता द्विगुणित हो उठी थी.

                इतना ही नहीं, पेड़ों पर निवास कर रहे पखेरु अपनी-अपनी टोलियाँ लेकर आकाश में उड़ान भरते हुए रामजी के दर्शनों का पुण्य लाभ लेने लगे थे. मनुष्यों की तरह प्रकृति ने उन्हें बोलने की शक्ति प्रदान नहीं की थी. उनके पास कुछ सीमित शक्तियाँ कि वे अपनी-अपनी बोली में बोलते हुए प्रभु का स्तुति-गान गाने लगे थे. तितलियाँ भी कहाँ पीछे रहने वाली थीं, वे भी फ़ुदकते हुए रामजी, सीताजी और लक्ष्मण जी के अनुपम सौंदर्य का रसपान करने लगी थीं.

                किसी गजराज की तरह मस्त चाल में चलते हुए गंगा के पवित्र-पावन तट पर आकर गंगा जी को पुनः प्रणाम किया. फ़िर गहरे जल में उतरकर स्नान किया, चुल्लु मे जल भर कर आचमण किया और अपने पूर्वजों को नमन करते हुए उन्हें जलांजलि दी. ठीक इसी तरह बारी-बारी से सीताजी और लक्ष्मण ने भी स्नान किया और पवित्र जल का आचमण किया.

                स्नानादि से निवृत्त होकर प्रभु श्री रामजी एक विशाल शिला पर विराजमान हुए और उन्होंने अपनी भार्या सीताजी और अनुज लक्ष्मण को गंगाजी का महत्व बतलाते हुए कहा"-हे सीते !हे अनुज लक्ष्मण ! मैं आप दोनों को इस पुण्यादायिनी गंगा के धरती पर अवतरणको लेकर रोचक प्रसंग सुना रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनें.

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अयोध्या के महाराजा सगर की दो पत्नियाँथीं जिनका नाम था केशिनी और सुमति. जब वर्षों तक महाराज सगर के कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने हिमालय में भृगु ऋषि की सेवा की. भृगु ऋषि ने उनकी सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान मांगने को कहा. सगर ने भृगु ऋषि से संतान प्राप्ति की इच्छा व्यक्त की. भृगु ऋषि ने आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम अनेकों पुत्रों के पिता बनोगे. तुम्हारी एक पत्नी से तुम्हें साठ हजार पुत्र होंगे और दूसरी पत्नी से तुम्हें एक पुत्र होगा और वही तुम्हारा वंश आगे बढ़ाएगा.

कुछ समय पश्चात रानी केशिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम असमंजस रखा गया. सुमति के गर्भ से एक मांसपिंड उत्पन्न हुआ जो साठ हजार टुकड़ों में विभक्त हो गया. बाद में महीनों तक घी से भरे गर्म घड़ों में रखने पर इनसे साठ हजार बच्चों का जन्म हुआ. सगर के सभी पुत्र वीर एवं पराक्रमी हुए हुए किन्तु असमंजस निष्ठुर एवं दुष्ट था. राह चलते लोगों को प्रताड़ित करना उसे अच्छा लगता था. लोगों को सड़क से उठाकर सरयू में फेंक देता था.

 

महाराजा सगर ने भरसक प्रयास किए कि उनका पुत्र सद्मार्ग पर आगे बढे. धर्म और पुरुषार्थ के कर्मों में संलग्न रहे किन्तु कुछ भी परिवर्तन न होने पर उन्होंने असमंजस को राज्य से निष्कासित कर दिया. असमंजस के पुत्र का नाम था अंशुमान जो गुणों में अपने पिता से सर्वथा विपरीत था. वह धर्मोन्मुख, वेदों का ज्ञाता एवं दयालु था. अनेकों विद्याओं में निपुण अंशुमान कर्तव्यनिष्ठ था.

 

एक बार महाराजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ करने का प्रण किया। अनेकों महान ऋषिगण उपस्थित हुए किन्तु यज्ञ प्रारंभ होने से पूर्व ही इंद्र ने घोड़ा चुराकर महर्षि कपिल के तपोवन में छोड़ दिया. महाराजा सगर ने यज्ञ के घोड़े को ढूंढने में अपने सभी पुत्रों को लगा दिया, क्यूंकि उस घोड़े के बिना यज्ञ संभव नहीं था. अनेकों प्रयासों के बाद भी घोडा नहीं मिला तो महाराजा सगर ने अपने पुत्रों को फटकार लगाई क्योंकि काफी समय व्यतीत हो चुका था.

 

पिता की फटकार से व्याकुल हुए पुत्रों ने सही गलत का भेद छोड़ पुनः अश्व की खोज प्रारंभ की. यहाँ वहां पृथ्वी की खुदाई करने लगे, लोगों पर अत्याचार बढ़ा दिए गए, पृथ्वी और वातावरण को नुकसान पहुंचाने लगे. पृथ्वी को कई जगह खोदने के बाद उन्हें वो अश्व महर्षि कपिल के आश्रम के पास दिखा. कपिल मुनि समीप ही तपस्या में लीन थे. घोड़े के मिलने से प्रसन्न उन राजकुमारों ने जब समीप में महर्षि को देखा तो उन्हें लगा कि ये घोडा महर्षि कपिल ने ही चुराया है, जिस कारण वो कपिल मुनि को मारने दौड़े. कपिल मुनि ने आंखें खोलकर उन्हें भस्म कर दिया.

 

जब बहुत समय बीतने पर भी सगर के पुत्र नहीं लौटे तो उन्होंने अपने पौत्र अंशुमान को उनकी खोज में भेजा. अंशुमान अपने चाचाओं को ढूंढ़ते हुए कपिल मुनि के आश्रम के समीप पहुंचे तो वहां उन्हें अपने चाचाओं की भस्म का ढेर देखा. अपने चाचाओं की अंतिम क्रिया के लिए जलश्रोत ढूंढ़ने लगे. गरुड़ देव ने उन्हें बताया कि किस प्रकार उनके चाचाओं को कपिल मुनि ने उनका अपमान करने पर भस्म कर दिया है. किसी भी सामान्य जल से तर्पण करने पर इन्हें मुक्ति नहीं मिलेगी. अंशुमान ने गरुड़ देव से इसका उपाय पूछा तो उन्होंने कहा कि स्वर्ग से हिमालय की प्रथम पुत्री गंगा के पृथ्वी पर अवतरण से ही सगर पुत्रों को मुक्ति मिलेगी.

 

अंशुमान यज्ञ के अश्व के साथ अयोध्या वापस आ गए और उन्होंने महाराजा सगर को सारी बात विस्तारपूर्वक बताई. सगर अपना राजपाठ अंशुमान को सौंपकर हिमालय पर तपस्या करने चले गए, जिससे कि पृथ्वी पर गंगा को लाकर अपने पुत्रों का तर्पण कर सकें. महाराजा सगर गंगा को पृथ्वी पर लाने में असफल रहे. अंशुमान भी अपना राज अपने पुत्र दिलीप को सौंपकर हिमालय तपस्या करने चले गए ताकि गंगा को पृथ्वी पर ला सकें. वर्षों तक तपस्या करने के बाद अंशुमान भी स्वर्ग सिधार गए परंतु गंगा को धरती पर न ला सके.

 

दिलीप भी अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए तपस्या करने हिमालय गए जहाँ अपना सम्पूर्ण जीवन लगा देने के बाद भी वो गंगा को पृथ्वी पर न ला सके.

 

दिलीप के पुत्र भगीरथ, दिलीप के बाद राजा बने. भगीरथ एक धर्मपरायण एवं कर्तव्यनिष्ठ राजा थे. वर्षों तक संतान न होने पर वो अपने राज्य की जिम्मेदारी अपने मंत्रियों को सौंप हिमालय तपस्या करने निकल गए. बिना कुछ खाये पिये उन्होंने कठोर तप किया जिस कारण प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव ने उन्हें वर मांगने को कहा. भगीरथ ने ब्रह्मदेव से अपने मन का प्रयोजन कहा जिसमें अपने पूर्वजों के तर्पण हेतु पृथ्वी पर गंगावतरण एवं अपने लिए संतान की इच्छा जताई. ब्रह्मदेव ने तथास्तु के साथ गंगा के तीव्र वेग की समस्या बताते हुए समाधान में महादेव शिवशंकर नाम का उपाय सुझाया. भगीरथ ने महादेव की तपस्या कर उन्हें भी प्रसन्न कर लिया। महादेव ने गंगा जटाओं में धारण करने पर सहर्ष सहमति जता दी.

 

अंततः गंगा ने धरती पर अवतरित होने का निर्णय लिया. महादेव ने गंगा को अपनी जटाओं में समा लिया और जब उन्हें अपनी जटाओं से छोड़ा तो धाराएं निकलीं। तीन धाराएं पूर्व की ओर एवं तीन धाराएं पश्चिम की ओर बहने लगीं तथा एक धारा भगीरथ के पीछे चलने लगी. महाराज भगीरथ अपने रथ पर आगे आगे तथा गंगा की धारा उनके पीछे पीछे प्रवाहित होने लगी.

 

उसके बाद महाराज भगीरथ का पीछा करते हुए गंगा समुद्र की ओर बढ़ चली और अंततः सगर के पुत्रों की भस्म को अपने जल में मिला कर उन्हें सभी पापों से मुक्त कर दिया.

 

सीते ! गंगाजी का एक नाम "त्रिपथगामी"है. आकाश से उतरकर धरती की ओर आने वाली गंगाजी की पहली धारा को "मंदाकिनी", दूसरी धारा, जो धरती पर उतर चुकी होती है उसे "भागीरथी" तथा पाताल में प्रवाहित होती तीसरी धारा को "भोगवती"के नाम से भी जाना जाता है. सनातन धर्म में गंगा एक विशेष स्थान रखती हैं. इसे माँ स्वरूप माना जाता है, ग्रंथों में इसके अनेक नामों का विवरण मिलता है. गंगा स्त्रोत में गंगा के एक सौ आठ नाम बतलाए गए हैं, जिनके होने के पीछे के कोई न कोई कारण और कहानियाँ जुड़ी हुई है,. जैसे- एक बार जन्हु ऋषि यज्ञ कर रहे थे और गंगा के वेग से उनका सारा सामान बिखर गया. गुस्से में उन्होंने गंगा का सारा पानी पी लिया. जब गंगा ने क्षमा मांगी तो उन्होंने अपने कान से उन्हें वापिस बाहर निकाल दिया. इस तरह इनका एक नाम "जान्हवी" पड़ा. इसी तरह शिवजी ने गंगा को अपनी जटाओं में स्थान दिया, इसलिए उन्हें "शिवाया"के नाम से जाना गया. ये नदी पंडितों के समान पूज्यनीय है, इसलिए गंगा स्त्रोत में इसे "पंडिता समपूज्या" कहा गया. भारत की सबसे पवित्र और मुख्य नदी होने के कारण इसे "मुख्या"के नाम से भी पुकारा जाता है. हुगली शहर पास से बहने पर इसका एक नाम "हुगली"पड़ा.इसके नाम का स्मरण करने मात्र से प्राणियों के सभी पापों का शमन हो जाता है. वैसे तो लोग इसे अनेकों नाम से पुकारते हैं. इसका एक नाम "मोक्षदायिनी"भी है. इसके जल में अस्थियों को विसर्जित करने से आत्मा को शांति मिलती है और व्यक्ति की आत्मानए शरीर को आसानी से ग्रहणकर लेती है.

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                रामजी के शुभागमन की सूचना पवित्र-पावनी गंगाजी के तट से कुछ ही दूरी पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर तक जा पहुँची थी. जैसे ही इसकी सूचना श्रृंगवेरपुर के राजा गुहनिषादराज को मिली कि उनके आराध्य प्रभु श्रीराम जी अपनी भार्या सीताजी और अनुज लक्ष्मण आए हुए हैं, उनकी प्रसन्नता हृदय में नहीं समा रही थी. उन्होंने शीघ्रता से सभी पुरवासियों को समाचार भिजवाया कि वे रामजी के अगवानी में नूतन वस्त्र धारण कर एक जगह एकत्रित होवें. सभी स्त्रियाँ भी मनभावन वस्त्र पहकर, प्रभु की अगवानी के लिए अपने सिर पर मंगल-कलश सजा कर आएंगी तथा उन्हें भेंट में देने के लिए ताजे फ़लों को भी साथ लेते आएं.

                निषादराज की अगुवाई में नगर के सभी स्त्री-पुरुष, बाल, आबाल इकठ्ठा होकर श्रीरामजी के अगुवाई के गंगाजी के तट पर पहुँचे. सभी ने नए वस्त्र धारण किया हुआ था. किसी के हाथ में ( रोशनचौकी) शहनाई थी, किसी के ढोलक, किसी के हाथ में झांझ-मंजीरा, किसी के तुरही, किसी के हाथ में सु‍षिर तो किसी के घन वाद्य था. सभी टोली बनाकर, अपनी पारंपरिक वेशभु‍षा में सजकर स्वागत-सत्कार में नाच रहे थे.

                सभी महिलाओं ने भी पारम्परिक परिधान पहन रखा था. सभी के सिर पर आम के पत्तों से सुशोभित मंगल-कलश रखा हुआ था, जिसमें रुई को तेल से भिगाकर बाती प्रज्जवलित हो रही थीं कुछ महिलाएँ ने नीली, किसी ने पीली साड़ी, गले में आदिवासियों के विभिन्न प्रकार के अलंकरण धारण किए हुए, गोल घेरा बना कर नृत्य कर रही थीं.

                बालक भी पीछे कहाँ रहने वाले थे, सभी सुसज्जित होकर हाथों में ध्वजा-पताका लहराते हुए पंक्तिबद्ध खड़े हुए थे.

                राजा गुह के सैनिक भी पंक्तिबद्ध होकर स्वागतार्थ खड़े हुए थे. कुल मिलाकर कहा जाय तो श्रॄंगवेरपुर में उत्सव का-सा वातावरण निर्मित हो गया था. सभी की आँखें उस पल के प्रतीक्षा कर रहे थे, जब प्रभु रामजी, उनका भार्या सीताजी और अनुज लक्ष्मण के दिव्य दर्शन होंगे.

                शारीरिक शक्ति और सैनिक शक्ति की दृष्टि से बलवान, निषादों के राजा गुह को रामजी ने अपनी ओर आता देखा तो वे अपने स्थान से उठकर खड़े हो गए और अपने अनुज लक्ष्मण के साथ उनकी अगवानी करने के लिए आगे बढ़े.

                अपने प्रभु श्रीराम जी के दिव्य दर्शनों को पाकर, निषादों के राजा गुह के हृदय में प्रसन्नता का सागर लहर-लहर लहराने लगा था. शरीर पुलकायमान हो उठा था. प्रसन्नता का पारावार बढ़कर, अब आँखों के माध्यम से झर-झरकर झरने लगा था. आगे बढ़ते हुए निषादराज, रामजी के चरणों में गिर कर श्रीचरणॊं से लिपट गया,

                रामजी ने अपनी दोनों विशाल बाहों से उसे उठाने का प्रयास करते हुए कहा"-"मित्र.!... यह क्या...तुम्हारी जगह मेरे चरणॊं में नहीं, बल्कि मेरे हृदय में है...उठिए...."

                "हे नाथ !..आपके इन चरण कमलों के दर्शनों के लिए मुझे लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ी है. मैं इन्हें इतनी आसानी से कैसे छोड़ दूँ?. पिछले कई जन्मों के बाद मुझे आज यह सौभाग्य प्राप्त हो पाया है.

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( पिछले जन्म में निषाद राजा गुह, कछुए के रूप में जन्मे थे और क्षीरसागर में यत्र-तत्र विचरते रहते थे. शेषशाही विष्णु के चरण कमल में पद्म का निशान बना हुआ है, जो हीरे की तरह जगमगाता रहता है. तब बुद्धिहीन कछुआ उस चमकते पद्म की ओर आकर्षित होकर उसे छूने आता. जैसे ही वह पास आता, शेषनाग उसे फ़ूंसकार कर भगा देता था. यह क्रम एक बार नहीं बल्कि बार-बार होता रहा और शेषनाग उसे हर बार दूर भगा देता था.

विष्णु प्राणप्रिया लक्ष्मी जी ने इस दृष्य को अनेकों बार देखा था..वे समझ रही थीं कि बेचारा एक छुद्र जीव श्रीचरणॊं के दर्शनों को बार-बार आता है और शेषनाग उसे फ़ूंसकार कर भगा देते हैं. हर बार ऐसा होता देख उन्हें उस पर दया-सी आने लगी थी. एक दिन उन्होंने श्री विष्णुजी को इस बात से अवगत कराते हुए बतलाया कि एक कछुआ प्रायः प्रतिदिन आपके चरण कमलों के दर्शन करने तथा स्पर्ष करने की इच्छा लिए हुए आता है. जैसे ही वह पास आता है, हमारे शेषजी उसे डराकर भगा देते हैं. हे प्रभु !..इस छुद्र जीव पर आपको दया भाव दिखाते हुए उसे चरण स्पर्ष करने देना चाहिए.

लक्ष्मीजी की बातों को सुनकर प्रभु ने मुस्कुराते हुए कहा:- "हे देवी !.. कालान्तर में, मैं जब दुर्दांत रावण के वध के लिए राम के रूप में अयोध्या शीरोमणि महाराज दशरथ जी के यहाँ जन्म लूँगा और यह कछुआ निषादों के राजा के रूप में श्रृंगवेरपुर में जन्म लेगा. अपने वनगमन की अवधि में मैं इसकी इच्छा जरुर पूरी करुँगा".)

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                प्रभु रामजी उसे बार-बार उठाने की कोशिश करते, लेकिन वह उतनी ही शक्ति से श्रीचरणॊं को कसकर पकड़ कर लिपट जाया करता था. बार-बार के आग्रह के बाद वह उठ पाया था. उसके उठते ही प्रभु श्रीराम जी ने उसे अपने दृदय से लगा लिया था. हृदय से लगते हुए उसने कहा:- "हे प्रभु ! हे दीनानाथ ! आज मैं भाग्यशाली पुरुषों की गणना में आ गया हूँ. हे देव !. मैं तो परिवार सहित आपका एक नीच दास हूँ. अब आप कृपा करके मेरे नगर में चलिए और मुझे सेवकाई का अवसर प्रदान करें.

                रामजी को वल्कल धारण किया हुआ देख गुह को बड़ा दुःख हुआ. उसने बड़ी ही विनम्रता से अपने परम मित्र रामजी से हाथ जोड़कर कहा-"प्रभु ! जिस तरह आपके लिए अयोध्या का राज्य है, उसी प्रकार यह राज्य भी है. बतलाइए, मैं आपकी क्या सेवा करुँ. आप जैसा प्रिय अतिथि किस को सुलभ होगा?"

                "हे महाबाहू श्रीराम ! मेरी इस नगरी में आपका स्वागत है. यह सारी भूमि, जो मेरे अधिकार में है, वह सब आपकी ही है. मैं आपकी सेवा में उत्तम खाद्य पदार्थ, कई प्रकार के पकवान, कई प्रकार की चटनियाँ और पेय पदार्थॊ के अलवा आपके घोड़ों के लिए चने और घास. रात्रि में सोने के लिये शैयाएं लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ.. प्रभु ! मेरी यह तुच्छ भेंट स्वीकार करें."

                "हम आपके सेवक हैं और आप हमारे स्वामी....आज से आप ही इस राज्य का भली-भांति शासन करें...अब आप कृपा करके नगर में चलिए और मुझे अपना सेवक बनाइए जिससे सब लोग प्रसन्न हों". गुह ने विनयपूर्वक हाथ जोडकर रामजी से कहा.

                "मित्र !. तुम्हारे यहाँ तक पैदल आने और स्नेह दिखाने मात्र से हमारा स्वागत-सत्कार हो गया. तथा तुम्हें अपने बन्धु-बांधवों को साथ स्वस्थ और सानन्द देख कर मुझे प्रसन्नता हुई है."

                "हे सखा ! तुमने जो कुछ कहा है, वह सब सत्य है किन्तु पिताश्री ने मुझको कुछ और आज्ञा दी है. मुझे मुनियों का-सा वेष धारण करते हुए चौदह वर्षों तक वन में ही रहना है. अतः मेरा गाँव में रहना उचित नहीं है.

                इन सामग्रियों में जो घोड़ों के खाने के लिए चना और घास आदि तुम लाए हो, उसकी मुझे आवश्कयकता है, बाकी की सामग्ररियाँ जो, तुमने प्रेमवश प्रस्तुत की है, वापिस ले जाने की आज्ञा देता हूँ, क्योंकि इस समय दूसरों की दी हुई कोई भी वस्तु मैं ग्रहण नहीं करुँगा.  वन में रहते हुए मैं वल्कल और मृगचर्म धारण करके फ़ल-मूल का आहार करता हूँ और धर्म में स्थित रहकर तापस वेष में वन के भीतर ही निवास करता हूँ."

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                रामजी ने अन्यभोज्य पदार्थों सहित अनेकवस्तुओं को वापिस ले जाने की आज्ञा दे दी थी. गुह ने उसे ध्यान से सुना था. आज्ञा राम की थी उसे शीघ्रताशीघ्र पूरी भी करना था. गुह समझ नहीं पा रहा था कि आखिर ऐसी कौन-सी दुविधा है प्रभु रामजी के साथ?. उसने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए, बड़ी ही विनम्रता के साथ कहा:""प्रभु !...आपका मेरे राज्य में आगमन पहली बार हो रहा है. आपके स्वागत-सत्कार करना मेरा धर्म बनता है कि मैं आपकी सेवा में अपने सामर्थ्य के अनुसार कुछ भेंट आपको अर्पित करुँ. हे प्रभु ! आपसे क्या छिपा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरा जन्म नीच जाति में हुआ है, इस कारण आप मेरी भेंट स्वीकार नहीं कर पा रहें है?". गुह ने विनित भाव से अपना अन्तरमन प्रभु श्रीराम के सन्मुख खोल दिया था.

                "मित्र गुह !.. ये कैसी अनर्थकारी बात कह दी तुमने?. राम की दृष्टि में सभी समान है. विधाता भी सभी को एक-सा बनाता है, उसकी दृष्टि में कोई ऊँच-नीच, कोई छोटा-बड़ा नहीं होता. छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच का विभेदक मानव खुद अपनी क्षुद्र बुद्धि से बनाता है".

                "फ़िर एक भक्त, नीच और अधम कैसे हो सकता है? शोषित-,पीढ़ित-दलित और वंचितों के उत्थान के लिए ही तो राम ने जन्म लिया है. नीच तो वह होता है मित्र, जो अपने धर्म से च्युत हो चुका है..जो पापाचार में संलग्न है. मैं तो उन सभी के विरुद्ध हूँ जो निरीह प्राणियों का शोषण करता है, अकारण लोगों को सताता है, निर्बल पर बलपूर्वक शासन करता है...राम उन सभी के विरुद्ध उठ खड़ा होता है, चाहे वह कोई भी हो...राम उसका समूल नाश कर देता है".

                "मित्र...! तुम्हें मालुम ही हो चुका होगा कि सत्यप्रतिज्ञ पिताश्री ने अनुज भरत को अयोध्या का राजा और मुझे चौदह वर्षों के लिए वनवास दिया है. इस अवधि में मुझे वल्कल वस्त्र धारण करते हुए, मुनियों की तरह उदासी की तरह व्यवहार करना होगा. तुम तो जानते ही हो मित्र ! कि ये लोग जन-सामान्य लोगों के बीच न रहते हुए निर्जन स्थान पर रहते हैं. कंद-मूल और फ़ल ही इनका आहार होता है".

                "प्रभु...! क्षमा करें प्रभु.....(चरणों मे गिरते हुए) मुझसे भूल हुई...ओछी भावनाओं में बहकर मेरे मुँह से ऐसी अशोभनीय बात निकल आयी....प्रभु  ....मुझे क्षमा कर दें..प्रभु... लेकिन मेरा एक छोटा-सा निवेदन कृपया स्वीकार करें. इन सारी वस्तुओं को भले ही आप स्वीकार न करें, लेकिन एक बार सभी सामग्रियों पर अपनी दृष्टि डाल दीजिए. आपकी दृष्टि पड़ते ही यह "प्रसाद"हो जाएगा. गुह ने विनिती करते हुए कहा,

                रामजी गुह का अभिप्राय समझ गए. न समझने जैसी बात भी नहीं थी, प्रसन्नवदन रामजी ने उन सभी सामग्रियों पर दृष्टिपात किया. गुह ने स्वयं उस प्रसाद को ग्रहण किया और अपने परिवार के सदस्यों सहित अपने सभी सेवकों के बीच बंटवा दिया.

                संध्याकाल हो चुका था. उन्होंने संध्योपासना की और भोजन के नाम पर केवल जल ग्रहण किया. फ़िर अनुज लक्ष्मण से बोले-"इस स्थान पर बहुत शोर-गुल हो रहा है. उचित होगा कि हमें किसी निर्जन स्थान पर विश्राम करने के लिए शैया तैयार कर दी जाए".

                लक्ष्मणजी ने एक ऊँचे स्थान का चयन करते हुए वृक्षों के सूखे पत्तों का बिछौना बनाया. उस स्थान पर विराजित होकर प्रभु राम, भार्या सीता, अनुज लक्ष्मण और मित्र गुह को धर्म से संबंधित अनेक गूढ़ बातें बतलाते रहे. अब विश्राम करने का समय हो चला था. प्रभु श्रीराम और सीताजी अब शयन करने लगे थे..

                धनुर्धर लक्ष्मण सावधानी के साथ, कुछ दूरी बनाते हुए एक वृक्ष के नीचे बैठकर अपने ज्येष्ठ भ्राता और भाभी सीता जी के रक्षार्थ पहरा देने लगे थे. गुह भी लक्ष्मण के साथ जुड़कर उनकी सहायता देने में संलग्न हो गए.

                लक्ष्मण को अपने भाई के लिए स्वभाविक अनुराग से जागते हुए देख्न निषादराज गुह को बड़ा संताप हुआ. उसने लक्ष्मण से कहा:-"भैया लक्ष्मण....आपके लिए भी शैय्या तैयार है. आप भी सुखपूर्वक विश्राम कर लें. मुझ सहित मेरे सभी सहयोगी वनवासियो को सब प्रकार के कष्टॊं को सहने का अभ्यास है. मैं सत्य की ही शपथ खाकर तुमसे कहता हूँ कि इस भूतल पर मुझे अपने प्रभु रामजी से बढ़कर दूसरा कोई नहीं है. अतः हम सभी बंधु-बान्धवों के साथ हाथ में धनुष-बाण लेकर सोये हुए प्रभु रामजी और सीता जी के सभी प्रकार से रक्षा करुँगा."

                "हे निष्पाप विषादराज.!..आप सब लोगों के रहते हमें किसी प्रकार का कोई भय नहीं है. जब मेरे ज्येष्ठ भ्राता और भाभी भूमि पर शयन कर रहे हों, तब मेरे लिए शय्या पर सोकर नींद लेना और स्वादिष्ट अन्न खाना अथवा अन्य सुखों को भोगना कैसे सम्भव हो सकता है?. मुझे रह-रहकर अपने पिताश्री की याद आ रही हैं. कहीं ऐसा न हो कि वे अपने प्राणॊं से भी प्रिय, भैया राम के विछोह मे अपने प्राण न त्याग दें?. कभी ऐसा भी विचार आता है कि वे सभवतः हमारे लौट आने की प्रतीक्षा में जीवित बने रहेंगे" माता कौसल्या और माता सुमित्राजी भैया के विछोह में विलाप तो नहीं कर रही होंगी? उन्होंने भोजन भी किया है अथवा नहीं? और भी अनेक प्रकार की चिंता व्यक्त करते हुए लक्ष्मण भावुक हो गए थे. उनकी आँखें भर आयी थीं.

                लक्ष्मण की विषादयुक्त बातों को सुनकर निषादराज गुह का भी धीरज डांवा-डोल होने लगा था और अब वे भी फ़बक कर विलाप करने लगे थे.

                आपस में बातें करते-करते कब रात्रि बीत गई, पता ही नहीं चल पाया.

                प्रभात हुआ देख श्रीराम जी ने लक्ष्मण और गुह से कहा:- अब सूर्योदय का समय आ पहुँचा है. देखो तो सही, उस पेड़ पर बैठी कोयल फ़ुदक-फ़ुदक कर कुहू-कुहू बोल रही है. वन में मयूरों के समूह अपनी वाणी में केका-केका के स्वर उच्चारित कर रहे हैं. इस शुभावसर पर हमें तीव्र गति से बहने वाली समुद्रगामिनी गंगाजी के उस पार उतर जाना चाहिए.

                रामजी का वचन सुनकर निषादराज गुह ने तुरंत अपने सचिव को बुलाकर आज्ञा की कि वह शीघ्र ऐसी नाव लेकर आए, जो देखने में अत्यन्त ही सुन्दर हो, मजबूत हो और साथ ही सुगमतापूर्वक खेने योग्य भी हो. निषादराज गुह का आदेश पाते ही उसके मंत्री ने एक सुन्दर-सी नाव घाट पर पहुँचा दी.

                तदनन्तर रामजी ने निषादराज गुह से कहा कि वह सतर्कता से सेना,  खजाना,  किला और राज्य के विषय में सदा सावधान रहें.  फ़िर उन्होंने मंत्री सुमन्त्र से कहा कि आप भी शीघ्रतापूर्वक अयोध्या को लौट जाएं.

                बस इतना कहना ही था कि सुमन्त्र जी की आँखें भर आयीं. उन्होंने ब़ड़ी ही विनम्रता से कहा:- प्रभु ! मैं आपको इस तरह नहीं जाने दूँगा. जिस अयोध्या में आप नहीं, उस नगर में मैं जाकर क्या करुँगा.?..नहीं...नहीं यह मुझसे नहीं हो पाएगा. मैं भी आपके साथ ही वन चलूँगा. मेरे घोड़े और रथ भी आपके साथ-साथ चलेंगे. भैया लक्ष्मण और मैं सदा आपकी सेवा में संलग्न रहेंगे. हे प्रभु... कृपया कर मुझे वापिस लौट जाने की नहीं कहें".

                "सुमन्त्रजी....आप स्वामी के प्रति स्नेह रखने वाले हैं. आपकी जो उत्कृष्ट भक्ति है, उसे मैं जानता हूँ. जब आप लौट जाएँगे, तब आपको देखकर मेरी छोटी माता कैकेई को विश्वास हो जाएगा कि राम वन को चला गया. यदि आप नहीं लौटे तो उन्हें संतोष नहीं होगा और वे पिताश्री के प्रति मिथ्यावादी होने का संदेह करेंगी, ऐसा हो, मैं यह नहीं चाहता".

                "उनसे जरुर कहिएगा कि राम अपनी भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ वन में रहते हुए कोई कष्ट का अनुभव नहीं कर रहा है. वनवास की अवधि पूरी करने के बाद हम सकुशल आयोध्या लौट आएँगे"

                "सुमन्त्रजी..! माता कौसल्या जी से कहिएगा कि तुम्हारा पुत्र स्वस्थ एवं प्रसन्न है. हम तीनों की ओर से माताओं को चरणवन्दना कह दीजिएगा. तदनन्तर मेरी ओर से पिताश्री से भी यह निवेदन कीजिएगा कि वे भरत को शीघ्रता से बुलवाकर उसे युवराज पद पर अभिषेक कर दें."

                "अनुज भरत से कहिएगा कि महाराज के प्रति जैसा तुम्हारा वर्ताव है, उसी प्रकार समान रूप से सभी माताओं के प्रति भी होना चाहिए. उससे यह भी कहिएगा कि तुम्हारी दृष्टि में कैकेई के प्रति जो सम्मान है, उसी प्रकार मेरी माता कौसल्या और माता सुमित्रा के प्रति भी रखेंगे और पिताश्री का प्रिय करने की इच्छा से युवराज पद को स्वीकार करके सुगमतापूर्वक राज्य का संचालन करते रहेंगे और प्रजाजनों को सुख पहुँचाते रहेंगे."

                "हे तात !..पिता की आज्ञा पाकर आपने हमें रथ के द्वारा लंबी यात्राएं करवायी है. अब हम रथ को छोडकर पैदल ही वन की यात्र करेंगे.  अतः आप लौट जाइए. और हाँ तात ! मुझसे जाने अनजाने में किसी भी प्रकार का आपके प्रति अपराध हो गया हो तो, आप मुझे क्षमा करेंगे."रामजी ने सुमन्त्र जी से कहा.

                इतना कह कर राम चुप हो गए थे. अब बारी थी सीताजी की. उन्होंने सुमन्त्रजी से कहा:-"आप मेरी ओर से तीनों माताओं के चरणॊं में सादर प्रणाम निवेदित कहेंगे. माता सुमित्रा जी से कहिएगा कि देवरजी के साथ रहते हुए मुझे वन में कोई कष्ट नहीं होगा.वे मेरा सदा ध्यान रखते रहेंगे. माता कौसल्या जी से कहिएगा कि उन्होंने वन जाने से पूर्व, जिन-जिन बातों का पालन करने की मुझे सीख दी थी, सीता उसका मन-प्राण से निर्वहन करती रहेंगी. पिताश्री से कहिएगा कि वे मुझे लेकर किसी प्रकार का शोक नहीं करेंगे. अपने पति और देवर के रहते हुए मुझे वन में कोई कष्ट नहीं होगा."

                "लक्ष्मण..!.तुम भी पिताजी और माताओ सहित पिताजी को कोई संदेश नहीं पहुँचाना चाहोगे"रामजी ने लक्ष्मण की ओर देखते हुए कहा.

                ( रोष में भरते हुए )"नहीं भैय्या नहीं....मुझे कोई संदेशा नहीं देना है, कम से कम उस पिता को, जिसने एक पत्नी के कहने पर मेरे देवतुल्य भाई को राज्य से निष्काशित कर दिया.. और उस माता कैकेई को तो कदापि नहीं, जिसने अपने पुत्रमोह में धर्मात्मा राम को कांटा समझकर चौदह वर्षों के लिए वनवास देने की सोची. हाँ माता कौसल्या जी को विश्वास दिलाते हुए जरुर कहिएगा कि मेरे रहते ज्येष्ठ भ्राता पर कोई आंच नहीं आएगी. और माता सुमित्राजी से कहिएगा कि लक्ष्मण उन सभी सीखों को, जो उन्होंने मुझे दी थीं, लक्ष्मण अपने प्राण देकर भी उसका पालन करते रहेगा."लक्ष्मण ने कहा..

                सुमन्त्रजी को आवश्यक निर्देश देने के बाद रामजी ने निषादराज गुह से कहा:- "मित्र..! .इस समय मेरे लिए ऐसे वन में रहना उचित नहीं होगा, यहाँ लोगों का आना-जाना अधिक होता है. अतः मुझे इस स्थान का त्याग करते हुए अपने गंतव्य की ओर बढ़ जाना चाहिए. तुम शीघ्रता से हमें गंगाजी के उस पार उतरवाने का प्रबंध करें"

गंगाजीके उस पार उतरना.

                "प्रभु ! नौका तैयार खड़ी है और आपका दास खेवैया भी तैयार है. आप शीघ्रता से नाव पर सवार हो जाइए. इससे पूर्व मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूँ. हे दीनानाथ ! नाव पर सवार होने से पहले मैं आपके चरण पखारना चाहता हूँ.. मैंने सुन रखा है कि महर्षि विश्वामित्र जी के साथ वन में जाते हुए महर्षि गौतम की साध्वी पत्नी, जो शाप से पत्थर बन गई थी, आपके चरण रज पाकर जीवित हो उठी थी. प्रभु !आपके चरण रज से यदि मेरी नौका स्त्री बन गई तो मेरी जीविका कैसे चलेगी?. अतः आपको नाव पर अपने चरण रखने से पूर्व उन्हें धुलवाना मेरी विवशता बन गई है". विषादराज गुह से रामजी से कहा.

                "मित्र गुह !...तुम्हारे इस अनन्य भक्ति और प्रेम को पाकर मुझे अत्यन्त ही प्रसन्नता हो रही है. मुझे तो अब वही करना होगा जैसा कि तुम चाहते हो... मैं तुम्हें ऐसा करने से रोकूँगा नहीं....अब शीघ्रता से कठौता और जल ले आओ....देखो...अब विलम्ब नहीं होना चाहिए" रामजी ने मुस्कुराते हुए केवट की ओर देखते हुए कहा.

                निषाद राज की आज्ञा का पालन करते हुए एक बड़ा-सा कठौता और एक बड़े से पात्र में जल भरकर लाया गया. प्रेममगन होकर निषादराज ने रामजी के चरणॊं को पखारा और पवित्र जल का स्वयं आचमण करते हुए, परिवार के सदस्यों सहित सभी सहायकों के बीच बंटवा दिया.

                सबसे पहले रामजी ने अपनी भार्या सीता को सहारा देते हुए नाव पर सवार करवाया. फ़िर स्वयं नाव पर सवार हुए. तदनन्तर लक्ष्मण नाव पर सवार हुए. आनन्दमगन निषादराज कुशलता के साथ नाव खेता रहा.

                जब नौका गंगाजी की बीच धारा में पहुँची तब जनकनन्दिनी सीताजी ने अपने दोनों हाथ जोडकर प्रार्थणा करते हुए कहा:-"हे माँ देवी गंगे !..मेरे स्वामी अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए वन में जा रहे हैं. आप ऐसी कृपा कीजिए कि वन में चौदह वर्षों तक निवास करके ये मुझ सहित अपने अनुज लक्ष्मण के साथ पुनः अयोध्या लौटें. हे देवी ! वहाँ से लौटकर मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ आपकी पूजा करूँगी.,,,आपको चुनरी चढ़ाऊँगी.. और आपके किनारे जितने भी तीर्थ और मन्दिर हैं, उन सबका पूजन करूँगी.  हे गंगे ! आप हमारी सहायक हों...हम पर प्रसन्न हों..हम सभी शीघ्र ही आपके दर्शनों के लिए पुनः उपस्थित हों, हमें ऐसा वरदान दीजिए". कहते हुए सीताजी ने गंगाजी को प्रणाम किया.

                कुछ ही समय पश्चात नाव गंगाजी के उस पार जा लगी. पार उतरकर रामजी स्वयं पहले उतरे फ़िर सीताजी को सहारा देते हुए उतारा. उनके बाद लक्ष्मण और सबसे अंत में निषादराज गुह उतरे.

                रामजी गंगाजी के उस पार उतरने के बाद गंभीरता से सोच रहे थे कि केवट ने तो वही किया है, जो उन्होंने उसे आज्ञा दी गई थी. गंगा से उस पार कराने में उसने कड़ा परिश्रम तो किया है. उसने उनके कहे अनुसार अपना काम कर दिया था. काम पूरा हो जाने के बाद अब उसे उसका पारिश्रमिक तो भी दिया जाना चाहिए. यही सोचकर रामजी संकोच में पड़ गए थे, आखिर वे उसे दें भी तो क्या दें? देने को उनके पास था भी कुछ नहीं उस समय. केवल आश्वासन देने से काम तो चलेगा नही? वे यह भी जानते भी थे, कि वह मुझसे कुछ नहीं लेगा. लेकिन उन्हें तो हर हाल में उसका पारिश्रमिक देना ही देना था.

                सीताजी, रामजी की दुविधा को समझ गईं थीं. समझने जैसी कोई बात भी नहीं थी. रामजी कुछ कहें, इससे पूर्व उन्होंने अपनी अंगुली से रत्नजड़ित अंगूठी निकालकर, रामजी की ओर बढ़ा दिया कि वे केवट को उसकी उतराई दे दें.

                केवट सब देख रहा था. देख रहा था कि रामजी ने सीता जी से अंगूठी लेकर मुझे उतरवाई में देना चाहते हैं. वह समझदार था. सतर्क था. वह मन ही मन सोच रहा था कि इतनी सस्ती उतराई लेकर वह आखिर करेगा क्या ? लोगों को गंगा पार कराना तो उसका रोजमर्रा का काम है. पार कराने में मेहनत लगती है, अतः वह सभी से उतराई जरुर लेता है. लेकिन जिन्हें वह नदी के पार पहुँचा रहा है, वे भी तो मेरी ही तरह एक मल्लाह ही हैं, जो अपने भक्तों को भवसागर से पार कराते हैं. जब दोनों ही मल्लाह है, तो अपने जात-भाईयों से उतराई लेना उचित प्रतीत नहीं होता. मैं गंगाजी को पार करवाने के लिए अपना पारिश्रमिक नहीं लूँगा, निश्चित ही प्रभु भी इसी तरह मुझसे भवसागर पार करवाने की उतराई नहीं लेंगे.

                रामजी कुछ बोलें इससे पूर्व उसने अकुलाकर रामजी के चरण पकड़ते हुए कहा:-"हे नाथ ! आज मैंने आपसे क्या कुछ नहीं पाया है? मेरे सारे दोष, सारे दुःख और दरिद्री दूर हो गई है. मैंने जीवन भर बहुत मजदूरी की है. आज विधाता ने मुझको इतनी उतराई दे दी है, कि मेरी कई पीढ़ियाँ तर जाएगीं. हे नाथ ! मुझे कुछ नहीं चाहिए. जब आप लौटकर आएंगे, तब मुझे जो भी देंगे, मै उसे सिर चढ़ा कर ले लूँगा".

                अंतरयामी थेराम. गुह के मन कीगहराई मेंउतरकर वे जान चुके थे कि यह भक्त उन्हें इतनी आसानी से छोड़ने वाला नहीं है. गुह की चालाकी और चतुराई को वे जान गए थे. उन्होंने मुस्कुराते हुए गुह से कहा:-"ठीक है....अब हम अपनी अगली यात्रा प्रारंभ करने जा रहे हैं, अब तुम भी अपने आवास पर लौट जाओ"रामजी ने गुह से कहा.

                अश्रुपुरित नेत्रों से उसने राम जी से कहा: -प्रभु ! आप मुझसे लौट जाने को कह रहे हैं लेकिन मेरा मन तो आपके श्रीचरणॊं को एक पल भर के लिए भी छोड़ना नहीं चाहता.....प्रभु  मेरी एक विनती जरुर सुन लीजिए, कृपया मुझसे लौटने को न कहें..मैं भी आपके साथ रहकर दो-चार दिन रह कर लौट आऊँगा.

                रामजी उसके निश्छल प्रेम के पाश में कुछ इस तरह बंध गए थे कि वे चाहकर भी अब उससे लौट जाने को नहीं कह सकते थे. उसकी इस बात से प्रसन्न हो रामजी ने उसे अपने साथ चलने की अनुमति प्रदान कर दी.

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                सुमन्त्र जी अपनी डबडबाईं आँखों से उन्हें जाता हुआ देख रहे थे. उनकी दृष्टि तब तक उन तीनोंका पीछा करती रही थीं, जब तक वे ओझल नहीं हो गए थे. अपने आराध्य प्रभु रामजी के विछोह में संतप्त होते हुए वे अपना सिर पकड़ कर नीचे घुटनों के बल बैठकर विलाप करने लगे थे.

                किनारे पहुँचकर रामजी अपनी भार्या सीताजी और अनुज लक्ष्मण के साथ सघन वन की ओर प्रस्थान किया.

                सघन और निर्ज वन में प्रवेश करते हुए रामजी ने लक्ष्मण से कहा:- हे सुमित्राकुमार..!...अब इस निर्जन वन में सीता की रक्षा के लिए सावधान हो जाओ. हम जैसे लोगों को निर्जन वन में नारी की रक्षा अवश्य करनी चाहिए. अतः तुम आगे-आगे चलो..तुम्हारे पीछे सीता चलेगी और मैं तुम दोनों की रक्षा करता हुआ सबसे पीछे चलूँगा. अब कठिनाइयों का सामना करना आरम्भ हुआ है. आज विदेहीकुमारी सीता को वनवास के वास्तविक कष्टों का अनुभव होगा."

                "इस वन में मनुष्यों के आने-जाने के कोई चिन्ह दिखायी नहीं देगे,  न तो यहाँ खेत-खलिहान देखने को मिलेंगे और न ही टहलने के लिए कोई बगीचे मिलेंगे.  ऊँची-नीची और गड्ढे ही मिलेंगे, जिसमे गिर जाने का भय रहेगा"समझाते हुए रामजी ने कहा.

                आगे लक्ष्मण बीच में सीता जी तथा सबसे पीछे स्वयं राम, एक अपरिचित वन्य प्रदेश में धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे. धीरे-धीरे चलते हुए वे अब समृद्धशाली वत्स प्रदेश ( प्रयाग ) के नजदीक पहुँच चुके थे.

                दोपहर भी हो चली थी. अब सभी को क्षुधा (भूख) भी लग आयी थी. एक विशाल और घने वृक्ष के नीचे ठहरते हुए रामजी ने कुछ समय तक के लिए विश्राम करना चाहा.

                रामजी और सीता जी के बैठ जाने के बाद लक्ष्मण जी ने अपनी कुदाल निकाली और वन के भीतर कंदमूल-फ़ल की खोज में आगे बढ़ गए. वे जब लौटे तो उनके पास प्रचूर मात्रा में कंदमूल और फ़ल थे.

                कुछ समय तक विश्राम करने के बाद संध्याकाल आ पहुँचा था. रामजी ने संध्योपासना की. फ़िर लक्ष्मण से कहा:-हे सुमित्रानन्दन ! अपने जनपद से बाहर यह पहली रात हमें प्राप्त हुई है. फ़िर सुमन्त्र भी हमारे साथ नहीं है. अतः हम दोनों भाईयों को आलस्य छोड़कर सीता के योगक्षेम के लिए सतर्क रहना होगा.

                लक्ष्मण ! मुझे रह-रह कर पिताश्री की याद हो आती है. मेरे विछोह को लेकर वे अत्यन्त ही क‍ष्ट पा रहे होंगे. वहीं कैकेई अपने मनोरथ में सफ़ल हो जाने से प्रसन्न हो रही होंगी. कहीं ऐसा न हो कि भरत को आया देख राज्य के लिए महाराज को प्राणॊं से वियुक्त कर दे. फ़िर महाराज का कोई रक्षक न होने के कारण वे इस समय अनाथों की तरह मेरे वियोग से दुःखी हो रहे होंगे. यह भी संभव है कि वे तुम्हारी माता सुमित्रा और मेरी माता कौसल्या को भी क‍ष्ट पहुँचाने की कुचे‍ष्टा कर रही हो्ंगी. अतः अनुज ! तुम प्रातःकाल अयोध्या लौट जाओ और बूढे पिता और दोनों माताओं को सुख पहुँचाओ. वनवास मुझे हुआ है, तुम्हें नहीं..मैं और सीता किसी तरह दिन और रात बिता लेंगे. स्वयं तिनकों और पत्तों का संग्रह कर शैय्या बनाकर उस पर सो लेंगे. ऐसा कहते हुए रामजी की आँखें भर आयीं थीं.

                हे पुरु‍षोत्तम श्रीराम !.आपको इस् तरह शोक संतप्त नहीं होना चाहिए. आपके बिना मैं एक पल भी नहीं रह सकता. अतः आप मुझे लौट जाने की न कहें. आप लोग ही मेरे माता और पिता हैं, इन्हें छोड़कर मुझे स्वगलोक भी मिल रहा हो, तो मैं उसका सहर्ष त्याग कर दूँगा. ( चरणॊं में गिरते हुए ) लेकिन मुझे अपने से अलग न करें प्रभु.....मुझसे लौट जाने को न कहेंलक्ष्मण ने अश्रुपूरित नयनो से विनीत भाव से रामजी से कहा.

                लक्ष्मण की नि‍ष्ठा को देखकर रामजी ने उन्हें दीर्घकाल के लिए वनवास रूपी धर्म को स्वीकार करते हुए अपने साथ वन में रहने की अनुमति प्रदान कर दी.

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                घने वनों की सु‍षमा को निहारते हुए वे क्र्मशः आगे बढ़ते जा रहे थे. धीरे धीरे सूर्यास्त का भी समय हो चला था. दिन भर आकाश-पटल पर भ्रमण करने के बाद वे भी थक चले थे. वे भी अब विश्राम करना चाहते थे.

                संध्या का समय हो चला है, यह जानकर रामजी ने इसी स्थान पर रुककर विश्राम और शयन करना उचित समझा. उन्होंने अनुज लक्ष्मण से कहा:- लक्ष्मण !. रात्रि धिर आए उससे पहले  तुम शैय्या का प्रबंध कर लो और कुछ कंद-मूल का भी संग्रह कर लो.

                घना अंधकार छाने से पहले लक्ष्मण ने तत्काल सूखे पत्तों को इकठ्ठा करके शैय्या तैयार की और रामजी और सीताजी से विनयपूर्वक निवेदन किया कि आप इस स्थान पर विराजमान होकर विश्राम करें. मैं शीघ्र ही कंद-मूल और फ़लादि लेकर उपस्थित होता हूँ. उन्होंने कुदाल उठाया. अपने कांधे पर रखा और चल दिए फ़लादि लेने.

                जमीन में अंदर उगने वाला बोढ़ा कांदा ( इसका उपरी आवरण काफ़ी कड़ा होता है. छिलका उतारने के बाद इसका गुदा काफ़ी मुलायम और मीठा और पौष्टिक होता है. सरई वन में यह प्रचूर मात्रा में पैदा होता है) तथा रामफ़ल (. उत्तर भारत और आंध्र प्रदेश में पाए जाने वाले कंद को काफ़ी मोटाई लिए हुए ढोलक की तरह देखाई देता है, प्राप्त होता है. इसे रामकंद के नाम से जाना जाता है ). और कुछ फ़ल लेकर वे शीघ्र ही लौट आए थे. लौटते समय वे अपने साथ पलाश के पत्ते भी लेते आए थे.

                भोजन करने का समय भी हो चला था. लक्ष्मण ने पलाश के पत्तों से पत्तलें बनाई. बोढ़ा कांदा के छिलके उतारे और एक बड़ी-सी पत्तल पर छिले हुए कांदा, और फ़लों  को क्रम से जमाकर ज्येष्ठ भ्राता और भाभी से अनुरोध किया कि वे प्रस्तुत सामग्रियोंका सेवन करें.

                कांदा का अद्भुत स्वाद लेते हुए राम अपने अनुज की बड़ाई करते नहीं थकते थे. तभी सीताजी ने एक फ़ल उठाकर उसे तोड़ा,  अन्दर सफ़ेद गुदाओं से भरपूर और अत्यन्त ही मीठे फ़ल का स्वाद लेते हुए रामजी से कहा:- स्वामी  !  देखिए तो. .कितना स्वादिष्ट फ़ल है यह. "रामजी ने उसका स्वाद लेते हुए कहा:- सीते ! ऊपर से देखने पर भले ही यह फ़ल थोड़ा खुरदुरा-सा लगता है लेकिन अंदर का भाग सफ़ेद, मुलायम, मीठा और स्वादिष्ट है. इस फ़ल का चुनाव तुमने किया है. अतः आज के बाद से इस फ़ल को सीताफ़ल के नाम से जाना जाएगा."

                रामजी ने भी एक फ़ल उठाया.. इस मुलायम फ़ल को तोड़कर उन्होंने मुँह में रखा और एक भाग सीताजी की ओर बढ़ाते हुए कहा कि तुम इसे खाकर देखो, और इसके स्वाद के बारे में बतलाओं कि तुम्हें कैसा लगा?. सीताजी ने उसका स्वाद लेते हुए कहा:- इसका उपरी भाग हल्का पीला रंग लिए हुए इस फ़ल का स्वाद कुछ खट्टा-मीठा है. यह स्वाद मुझे अच्छा लगा. तब सीताजी ने कहा कि आज के बाद से इस फ़ल का नाम रामफ़ल होगा, क्योंकि इसका चुनाव आपने किया है.

                तीनों ने मिलकर अनेक फ़लों और कंद-मूल का सेवन किया. इसके पश्चात रामजी ने लक्ष्मण को संकेत दिया कि अब सोने का समय हो चला है. रामजी का संकेत पाते ही लक्ष्मण ने अपने पीठ पर बाणॊं से भरे हुए तूणीर को कसा, धनुष कांधे पर  रखा और एक दूरी बनाते हुए, सजग प्रहरी की तरह, एक सघन पेड़ के नीचे बैठते हुए पहरा देने लगे.

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महर्षि भरद्वाज जी का आश्रम.

                                उस सघन वृक्ष के नीचे रात बीता कर वे निर्मल सूर्योदय काल में उस स्थान से आगे प्रस्थित हुए. कभी थोड़ी देर विश्राम करते हुए, तो कभी द्रुत गति से चलते हुए, वन की अनुपम शोभा को निहारते हुए वे आगे बढ़ते जा रहे थे. इस प्रकार जब दिन प्रायः समाप्त हो चला था और सांझ घिर आयी थी. तभी रामजी ने अग्निदेव की ध्वजा रूप धूम को आकाश में ऊँचा उठता हुआ देखा. उन्हें दो नदियों के परस्पर टकराने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वह भी सुनाई दे रही थी. तनिक रुकते हुए उन्होंने लक्ष्मण से पूछा:- " भ्राता लक्ष्मण! तुम्हें कुछ दिखाई और सुनाई दे रहा है अथवा नहीं?. आकाश में उठते हुए उस धूम की ओर देखो और दो नदियों के टकराने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, सुनाई देगी. मुझे जान पड़ता है यहीं कहीं आसपास गंगाजी और यमुना की  संगम स्थलि होनी चाहिए और इसी के निकट महर्षि भरद्वाज मुनि का आश्रम भी है".

                हम उनके दिव्य दर्शन करें उससे पहिले मैं तुम्हें उनके बारे में जानकारियां देता चलता हूँ तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो”

                हे नि‍ष्पाप लक्ष्मण..! अब हम महर्षि भरद्वाज जी के आश्रम के अति निकट आ गए हैं. उनके दिव्य दर्शनों का हमें लाभ मिलेगा. मुझे उनके बारे में जो-जो जानकारियाँ मुझे प्राप्त हैं, मैं तुम्हें बतलाता चलता हूँ. ऐसी अनूठी और रोचक जानकारियाँ देते हुए मुझे अत्यन्त ही प्रसन्नता हो रही है"

                "महर्षि अगस्तजी ने इन्द्र से आयुर्वेद का और व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया है. ऋक्तंत्र के अनुसार ब्रह्मा, बृहस्पति एवं इन्द्र के बाद वे चौथे व्याकरण प्रवक्ता हैं . महर्षि भृगु ने उन्हें धर्मशास्त्र का उपदेश दिया था.  तमसा-तट पर क्रौंचवध के समय महर्षि भारद्वाज वाल्मिकी के साथ थे"

                "वे आयुर्वेद व्याकरण और आयुर्वेद के ज्ञाता होने के अतिरिक्त धनुर्वेद, राजनीतिशास्त्र, यंत्रसर्वस्व अर्थशास्त्र, पुराण, शिक्षा आदि ग्रंथों के रचयिता भी हैं. आयुर्वेद संहिता संहिता के अनुसार उन्होंने आत्रेय पुनर्वसु को काय-चिकित्सा का ज्ञान दिया था".

                "जिस प्रयागराज में हम जा रहे हैं, उसको महर्षि भरद्वाजजी ने ही बसाया था और धरती के सबसे बड़े गुरुकुल (विश्वविद्यालय) की स्थापना भी उन्होंने ही  की थी.  इस गुरुकुल में वे वर्षों तक विद्यादान करते रहे है. वे कुशल शिक्षाशास्त्री, शस्त्रविद्या, राजतंत्र मर्मज्ञ, अर्थशास्त्री, शस्त्रविद्या विशारद, आयुर्वेद विशारद, विधि वेत्ता, अभियांत्रिकी विशेषज्ञ, विज्ञानवेत्ता, और मंत्र द्रष्टा भी है. ‍ऋग्वेद के छटे मंडल के द्रष्टाऋषि, भारद्वाज जी ही हैं. इस मंडल में 765 मंत्र हैं. अथर्ववेद में भी ऋषि भारद्वाज के 23 मंत्र हैं.  वैदिक ऋषियों में इनका स्थान ऊँचा स्थान है. आपके पिता का नाम वृहस्पति और माता का नाम ममता था".

                "ऋषि भरद्वाज जी को आयुर्वेद और सावित्र्य अग्नि विद्या का ज्ञान इन्द्र और कालान्तर में भगवान ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त हुआ था. अग्नि के सामर्थ्य के आत्मसात कर ऋषि ने अमृत-तत्व प्राप्त किया था और स्वर्गलोक जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया था. संभवतः इसी कारण ॠषि भारद्वाज सर्वाधिक आयु प्राप्त करने वाले ऋषियों में एक हैं".

                "हे लक्ष्मण ! ऐसी दिव्य छवि वाले महर्षि से हमें शस्त्रऔर शास्त्र की विद्या सीखने को मिलेगी. उनसे प्राप्त शिक्षा के बल पर हम बहुत सारी विपत्तियों से सहज में ही छुटाकारा पा सकेंगे. निश्चित ही हम सभी बड़भागी हैं जिन्हें ऐसे महात्मा के दिव्य दर्शनों का पुण्य़ लाभ मिलने जा रहा है".

                आकाश में उठते हुए धूम की ओर बढ़ते हुए, वे कुछ ही समय में, महर्षि भरद्वाजजी के परम पवित्र आश्रम में पहुँच गए थे. आश्रम के द्वार पर उन्होंने महर्षि के शिष्य को खड़ा पाया. रामजी ने उस शिष्य से कहा:- मैं दशरथ नंदन राम, अपनी भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ महर्षि भरद्वाजजी के दिव्य दर्शनों की अभिलाषा लिए हुए आया हूँ. आप कृपा कर महर्षि को मेरा प्रणाम निवेदित करते हुए मेरे आगमन की सूचना दें.  जब तक आप उनकी अनुमति प्राप्त कर नहीं आ जाते, तब तक मैं यहीं, इसी द्वार पर आपके आगमन की प्रतीक्षा करता रहूँगा.

                महर्षि की अनुमति प्राप्त कर शिष्य ने रामजी से कहा:- "भगवन!  आपका आत्मीय स्वागत है. गुरुवर ने मुझे आज्ञा दी है कि मैं आप सभी को सादर अन्दर लिवा लाऊँ... हेप्रभु ! आप मेरे साथ चलिए". कहते हुए शिष्य लौट चला था और रामजी, सीताजी और लक्ष्मण को लिए उस शिष्य के पीछे-पीछे जाने लगे.

                पर्णशाला में प्रवेश करते हुए उन्होंने तपस्या के प्रभाव से तीनों कालों की सारी बातें देखने देखने की दिव्य दृ‍ष्टि प्राप्त कर लेने वाले महात्मा भरद्वाज जी के दर्शन किए, जो अग्निहोत्र संपन्न करने के पश्चात अपने शि‍ष्यों से घिरे हुए थे. महर्षि को देखते ही तीनो ने हाथ जोडकर उनके चरणॊं में प्रणाम किया.

                प्रणाम निवेदित करने के बाद रामजी जी ने अपने दोनों हाथ जोड़कर अपना परिचय देते हुए कहा:-भगवन ! हम दोनों राजा दशरथ के पुत्र हैं. मेरा नाम राम है और इनका लक्ष्मण तथा ये वेदेहराज जनक की पुत्री और मेरी धर्मपत्नी सीता है, जो इस निर्जन तपोवन में मेरा साथ देने आयी हुई हैं. पिताश्री ने मुझे चौदह वर्षों के लिए वनवास में रहने की आज्ञा दी है. मुझे आता देख अनुज लक्ष्मण भी वन में रहने का व्रत लेकर मेरे साथ चले आए हैं..हम तीनों वन में रहते हुए कंद-मूल और फ़लों का आहार करते हुए धर्म का पालन कर रहे हैं”.

                रामजी की विनयशीलता और मधुर वचनों को सुनकर महर्षि भरद्वाज जी को परम संतो‍ष हुआ.  इस समय उनके चारों ओर मृग, पक्षी और ‍‌‌ऋ‍‍षि-मुनि बैठे हुए थे. अपने आश्रम पर अतिथि के रूप में पधारे श्रीराम, सीता जी सहित लक्ष्मण का स्वागतपूर्वक सत्कार करते हुए उन्होंने अपने एक शि‍ष्य को बुलाकर उन तीनों के लिए सुस्वादु और मीठा जल और नाना प्रकार के जंगली फ़ल-मूल लाने को कहा

                रामजी बिछाए गए आसन पर विराजमान हो गए, तब महर्षि भरद्वाज ने रामजी से कहा: राम ! मैं दीर्घकाल से तुम्हारे शुभागमन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. आज मेरा मनोरथ सफ़ल हुआ. मैंने यह भी सुन रखा है कि तुम्हें अकारण ही वनवास दे दिया गया है”.

                गंगा और यमुना की यह संगम-स्थल बड़ा ही पवित्र और एकान्त है. यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता बड़ी ही मनोरम है. उन्होंने अपने एक शि‍ष्य को बुलाकर उन तीनों के लिए सुस्वादु और मीठा जल और नाना प्रकार के जंगली फ़ल-मूल-फ़ल लाने को कहा. अतः तुम लोग यहाँ सुखपूर्वक रहो. मैंने आपके ठहरने की उत्तम व्यवस्था करवा दी है. आप तीनों इसी स्थान पर सुखपूर्वक रहो”.

                महर्षि अगस्त जी के आश्रम में रात्रि विश्राम करते हुए रामजी ने अनुज लक्ष्मण से जानना चाहा :-

                "सुमित्रनंदन !हमारे इस वनवासकाल में हमें महर्षि, ऋषि, मुनि, साधु, संत-महात्मा आदि के दर्शन होंते रहेंगे. क्या तुम बतला सकते हो कि इनके बीच क्या अन्तर होता है?."

                "हे ज्येष्ठ भ्राता, मुझे नहीं मालुम कि इनके बीच क्या विभेद होता है. कृपया आप ही बतलाने की कृपा करें, तो उत्तम होगा?"लक्ष्मण ने रामजी से कहते हुए जानना चाहा.

                "सुमित्रानंदन इनके बीच क्या विभेद होता है, वह मैं तुम्हें कह सुनाता हूँ.  भार्या सीता, तुम भी इसे ध्यान से सुनो.  भारत प्राचीन समय से ही ऋषि-मुनियों का विशेश महत्व रहा है. ये सभी अपने तप के बल पर समाज का कल्याण का कार्य करते हैं.  आज भी तीर्थ स्थलों, जंगल और पहाड़ों में कई साधु-संतादि के दर्शन हमें मिलते है.

                महर्षि वह होता है जिसके पास कुछ सिध्दियाँ और भक्ति एवं ज्ञान हो. ठीक इसी प्रकार परम तेजस्वी, भक्ति की पराकाष्ठा पर पहुँचने वाले मुनि को ब्रह्मर्षि कहा जाता है. वे हमेशा लोककल्याण के कार्यों में ही लगे रहते है.  उनकी भक्ति और तपस्या का एकमात्र उद्देश्य जनता की भलाई करना होता है. विश्वामित्र जी. वसिष्ठ जीवाल्मीक जी, तथा अगस्त्य जी, महर्षि के पद पर प्रतिष्ठित हैं.

                देवर्षि उसे कहते है जिसने देवताओं के बारे में बहुत ज्यादा ज्ञान प्राप्त कर लिया हो, जैसे देवर्षि नारद.  महाऋषि वे होते है जो ऋषियों के भी ऋषि होते है. राजर्षि का मतलब है कि कोई राजा ऋषियों के स्तर का ज्ञान प्राप्त कर लेता था,  उन्हें राजर्षि कहा जाता है..

                वैदिक ऋचाओं के रचयिताओं को ऋषि का दर्जा प्राप्त है. ऋषि को सैकड़ों सालों के तप या ध्यान के कारण सीखने और समझने के उच्च स्तर पर माना जाता है. वैदिक काल में सभी ऋषि गृहस्थ आश्रम से आते थे. ऋषि पर किसी तरह का क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और ईर्ष्या आदि की कोई रोकटोक नहीं है और ना ही किसी भी तरह का संयम का उल्लेख मिलता है. ऋषि अपने योग के माध्यम से परमात्मा को प्राप्त हो जाते थे और अपने सभी शिष्यों को आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे.

                मुनि उसे कहते हैं जिसके मन में किसे भी प्रकार की कामना का कोई ज्वार नहीं उठता है. उसका मन एकदम शांत होता है. उसका संबंध बाहरी मौन से नहीं है.जिसने भी मौन व्रत धारण कर लिया है, वहीं मुनि है.

                संत, महात्मा और साधु-संतवो है जिसने अविनाशी सत् को जान लिया है महात्मावह है जिसकी आत्मा किसी भी क्षुद्र विचारों से व्यथित नहीं होती,  वो महान और पवित्र कार्यों के संलग्न रहता है. साधुएक सरल स्वभाव है जो किसी के भी अंदर हो सकता है.

                योगी और सिद्ध-जिसने कर्मयोग के द्वारा समत्व बुद्धि को प्राप्त कर अविनाशी सत् के साथ स्वयं का योग करा लिया है वही योगी है. सिद्ध वो है जिसने कुंडलिनी जागरण के द्वारा अविनाशी सत् का साक्षात्कार किया है.

 

                ऋषि मुनियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी से रामजी ने सीताजी और लक्ष्मण को रोचक जानकारी देते हुए कहा:- अनुज ! संभवतः हम मध्यरात्रि तक जाग चुके हैं. अब हमें विश्राम करना चाहिए. सूर्योदय होने के साथ ही हमें किसी अन्य स्थान के लिए जाना होगा.ऐसा निर्देश देकर वे विश्राम करने लगे थे.

                सूर्योदय से ठीक पहले सभी जाग गए थे. नित्य क्रिया-कर्म के बाद सभी ने स्नान किया और तैयार होकर महर्षि अगस्तजी के पास पहुँचे. महर्षि को प्रणाम निवेदित करने के पश्चात रामजी ने विनय पूर्वक कहा :- हे ‍महात्मन ! मेरे नगर और जनपद के लोग यहाँ बहुत ही निकट पड़ते हैं. अतः वे सुगमता से मुझसे मिलने के लिए आते-जाते रहेंगे. उनके इस तरह आने-जाने से आपको भी अकारण क‍ष्ट उठाने पड़ेगे और तप-आदि करने में विघ्न उत्पन्न होगा. अतः हे भगवन ! किसी एकान्त प्रदेश में आश्रम योग्य उत्तम स्थान के बारे में मुझे बतलाएं, जहाँ हम तीनों प्रसन्नतापूर्वक रह सकें”. बड़े विनय के साथ हाथ जोड़कर रामजी ने महर्षि से ऐसा स्थान बतलाने का अनुरोध किया.                                              

                महर्षि के कानों ने एक-एक शब्द को ध्यान से सुना था.  सुना था कि रामजी उनसे निर्जन स्थली के बारे में जानकारी लेना चाह रहे है.  उत्तर उन्हें देना था.  प्रश्न जैसे कहीं गुम हो गया था.  सुनकर भी वे शायद सुन नहीं पाए थे.  उनकी आँखें रामजी के अलौलिक छवि को निहारने में लगी हुई थी.  नयनाभिराम छचि को निहारते हुए वे किसी दिव्य-लोक में विचरण करने लगे थे. जिस राम को पाने और जानने के लिए उन्होंने कड़ी तपस्या की थी. अपना संपूर्ण जीवन जिनके लिए समर्पित कर दिया था,  अरे जिसने सारी सृष्टि का निर्माण किया हो,... जो कण-कण में व्याप्त है.....जिसकी इच्छा के बिनापत्ता तक नहीं हिलता हो, .....जिनकी आँखों का संकेत पाकर सारे ग्रह सहित संपूर्ण ब्रह्मांड संचालित होता है, ऐसी एक विराट सत्ता का स्वामी, उनके सामने नतमस्तक होकर पूछ रहा है कि मैं कहाँ जाकर रहूँ ?  महर्षि भरद्वाज जी भले ही त्रिकालदर्शी थे.  वे अपनी जगह बैठे-बैठे ही संपूर्ण विश्व के श्रे‍ष्ठ स्थानों के बारे में तत्काल बतला सकते थे, लेकिन जो इस सृ‍ष्ठी का ही बनाने वाला हो, वे उसे ऐसा उपयुक्त स्थान कैसे बतला सकते थे?. लेकिन वे अपने आपको असमर्थ पा रहे थे.

                रामजी ने पुनः उसी प्रश्न को दोहराया "महात्मन !  मुझे वह सुलभ मार्ग और उस निर्जन स्थान की जानकारी दें, जहाँ मैं सुखपूर्वक अपनी भार्या सीताजी और अनुज लक्ष्मण के सहित निवास कर सकूँ". रामजी के बार-बार पूछने के बाद, महर्षि जैसे नींद से जागे थे. अब वे चैतन्य हो वर्तमान में लौटने लगे थे.

                रामजी उनसे पूछ रहे थे. उन्हें हर हाल में उत्तर तो देना ही होगा.... उन्हें उपयुक्त स्थान तो बतलाना ही पड़ेगा. बातों की गंभीरता को वे समझ रहे थे. समझ रहे थे अब बचाव का कोई मार्ग शे‍ष नहीं है. आखिरकार उन्होंने रामजी से कहा:-"राम...यहाँ से दस कोस की दूरी पर एक सुन्दर परम पवित्र पर्वत है, जिसे "चित्रकूट" के नाम से जाना जाता है, चित्रकूट पर्वत पर बड़ा ही रमणीय स्थल है. इस पर्वत पर लंगूर, वानर और रीछ निवास करते हैं. यहाँ बड़े-बड़े, विशाल हाथियों के दल विचरते दिख जाएंगे. इनके अलावा इस पर्वत पर बहुत से ऋषि-मुनि तपस्या में लीन होकर साधनाएं कर रहे हैं. एकान्त के उद्देश्य से यह स्थान आपके लिए उपयुक्त है. अतः वहाँ जाकर निवास करें".

                "राम ! इस परम पवित्र पर्वत रमणीय तथा बहुसंख्यक फ़ल-मूलोंसे संपन्न है. बड़ी संख्या में हिरणॊं के झुण्ड यहाँ-वहाँ स्वछंद विचरते, उछलते-कूदते देखे जा सकते हैं. वहाँ तुम्हें पवित्र मन्दाकिनी नदी, अनेकानेक जलस्त्रोत, पर्वतशिखर, गुफ़ाएँ. कन्दराएँ तथा छलछल के स्वर निनादित करते मनभावन झरने भी तुम्हें देखने को मिलेंगे. यह पर्वत सीता के साथ विचरते हुए तुम्हारे मन को आनन्द प्रदान करेगा.  जमीन पर घोंसला बनाकर रहने वाला पक्षी टिट्तिभ ( टिटहरी ) और स्वरसाधिका कोकिला के मधुर कूक भी तुम्हारा मनोरंजन करेंगी. अतः हे राम, आप इस रम्य पर्वत पर निवास करें".

                रामजी अपनी भार्या सीता जी और अनुज लक्ष्मण के साथ महर्षि के आश्रम में रात्रि को सुखपूर्वक विश्राम किया और सबेरे प्रयाग में स्नान किया और अपने सेवक गुह के सहित प्रसन्नता से मुनिवर को सिर नवाकर प्रणाम किया.और रम्य पर्वत "चित्रकूट" की ओर प्रस्थान किया.

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                रामजी ने अपनी भार्या सीताजी और लक्ष्मण के सहित महर्षि के चरणों में प्रणाम निवेदित करते हुए बिदा मांगी. तब महर्षि ने स्वस्तिवाचन करते हुए उन्हें अपना आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा:- "हे रघुनन्दन श्रेष्ठ !. तुम दोनों भाई गंगा और यमुना के संगम पर पहुँचकर जिनमें पश्चिमोमुखी होकर गंगा मिली है,, यमुना के निकट पहुँचकर लोगों के आने-जाने के कारण पदचिन्हों को चिन्हित कर घाट को अच्छी तरह देख-भालकर वहाँ जाना और एक बेड़ा बनाकर पार उतर जाना".

                "तत्पश्चात आगे जाने पर तुम्हें बहुत बड़ा बरगद का वृक्ष मिलेगा, जिसके पत्ते हरे रंग के हैं. वह चारों ओर से बहुसंख्य दूसरे वृक्षों से घिरा हुआ है, उस वृक्ष को "श्यामवट"के नाम से जाना जाता है. उसकी छाया में बहुत-से सिद्ध पुरुष निवास करते हैं. वहाँ पहुँच कर सीता दोनों हाथ जोडकर उस वृक्ष के आशीर्वाद की याचना करे. उसकी जो भी इच्छा हो, उसे कह सुनाए और उस वृक्ष के पास कुछ काल तक निवास करे अथवा वहाँ से आगे बढ़ जाएं."

                "श्यामवट से एक कोस की दूरी पर तुम्हें नीलवन का दर्शन होगा,  वहाँ चीड़, बाँस और बेर के पेड मिलेंगे.  मैं उस मार्ग से कई बार आया-गया हूँ.  कालिन्दी वहाँ प्रचण्ड वेग से बहती है. अतः काष्ठ और बाँसों की डोंगी बनाकर उस पार उतर जाना"..महर्षि ने रामजी को मार्गदर्शन देते कहा.

                संगम में पहुँचकर लक्ष्मण ने कुछ सूखे हुए काष्ठ और बांसों की एक बड़ी-सी डोंगी का निर्माण किया.  सबसे पहले रामजी ने सीता को, फ़िर लक्ष्मण को और अंत में स्वयं उस पर सवार होकर आगे बढ़ने लगे. जब डॊंगी बीच यमुना की धारा में पहुँची, तब सीता ने यमुना जी को हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि वे अपने पति और देवर के साथ आपके उस पार जा रही हूँ. आप ऐसी कृपा करें कि हम उस पार सकुशल उतर जाएं. लौटकर आने के बाद हम पुनः आपके दर्शन करेंगे. आपकी पूजा करेंगे और घाट पर बने मन्दिरों में जाकर दर्शनों का पुण्य लाभ उठाएँगे.

                यमुना के दक्षिण तट पर उन्होंने उस डोंगी को वहीं छोड़ दिया. कुछ दूर पैदल चलने के बाद उन्हें "श्यामवट"के दर्शन हुए.  वटवृक्ष के समीप पहुँचकर सीताजी ने मस्तक झुकाते हुए उस महावृक्ष को प्रणाम किया और सकुशल लौट आने का आशीर्वाद मांगा.

                यमुना के तट पर आच्छादित वृक्षों की डालियों पर धमाचौकड़ी मचाते हुए शाखामृगों, अपनी बोली में "केका"के स्वर निकाल कर नृत्य करते हुए मोरों के समूह,  घास चरते, कभी स्वछंद विचरते विशालकाय हाथी और हंसों और सारसों के झुण्ड देखकर सीताजी को अत्यन्त ही प्रसन्नता हो रही थी.  वनों की सुषमा को निहारते हुए वे लोग यमुना नदी के समतल तट पर आ गए और रात में उन्होंने वहीं निवास किया.

                रात्रि व्यतीत होने पर रामजी ने धीरे से सीताजी तथा लक्ष्मण को जगाते हुए कहा:- हे वीर लक्ष्मण...प्रातःकाल हो चुका है. अब हमें शीघतापूर्वक "चित्रकूट" की ओर चल देना चाहिए. ऐसा कहते हुए सभी ने स्नान किया. और क्रमशः आगे बढ़ने लगे.

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                आज मैं (चित्रकूट) बहुत प्रसन्न हूँ. इतना प्रसन्न तो मैं इससे पहले कभी नहीं हुआ था, जितना की आज हुआ हूँ. समाचार ही कुछ ऐसा है किजिसे सुनकर मेरे हृदय में खुशी का ज्वार-भाट उमड़ने-घुमड़ने लगा है. एक पर्वत होने के नाते, लोग मुझे केवल पत्थर और मिट्टी का ढेर समझते हैं, .जबकि मेरे पास सुनने, समझने और सोचने कि बुद्धि है, लेकिन दुर्भाग्यवश मेरे हाथ-पाँव नहीं है,  वरना मैं झूम-झूम कर नाचता.  जिव्हा भी नहीं है, वरना मैं सारे जनपद में जाकर, ढिंढोरा पीटकर अपनी खुशी अपनों के बीच बांटता. अपनी इन्ही कुछ कमियों (अपंगता) के रहते हुए भी मैंने कभी पराजय नहीं मानी और न ही निरुत्साही हुआ हूँ. मैंने पेडों की शाखाओं को अपने हाथ और नदी को अपना पैर माना है, जिनके माध्यम से मैं नाच और गा तो सकता ही हूँ.

                मेरी खुशी का कारण क्या है, क्या आप उसे जानना नहीं चाहेंगे?. आप न भी सुनना-जानना चाहोगे, तब भी मै आपको बतलाए बगैर नहीं रह सकता. बात ही कुछ ऐसी है, जिसे सुनकर आप भी प्रसन्नता में झूम उठेंगे. तो चलिए, मैं आपको उस पावन प्रसंग की ओर लिए ले चलता हूँ जहाँ प्रभु रामजी और महर्षि भरद्वाज जी के बीच वार्तालाप हो रहा था. रामजी ने अत्यन्त ही विनम्रतापूर्वक महर्षि से जानना चाहा कि कृपया मुझे उस रम्य स्थान का पता बतलाएं, जहाँ मैं अपनी भार्या सीताजी और अनुज लक्ष्मण के संग, कुछ समय तक सुखपूर्वक निवास कर सकूँ.

                अखिल ब्रह्मांड के रचियता को ऐसे स्थान का पता पूछ्ता देख, वे भी कुछ समय के लिए हतप्रभ-से रह गए थे. प्रश्न रामजी ने पूछा था, सो अब उत्तर देने की बारी महर्षि जी की थी. उन्होंने रामजी को बतलाया कि यहाँ से दस कोस की दूरी पर एक सुन्दर और महर्षियों द्वारा सेवित परम पवित्र पर्वत है, उस पर बहुत से लंगूर विचरते रहते हैं. वहाँ वानर और रीछ भे निवास करते हैं. वह पर्वत "चित्रकूट"नाम से विख्यात है और गन्धमादन के समान मनोहर है.

चित्रकूट की प्रसन्नता

                जब यह वार्ता हो रही थी, उस समय मेरे परम सखा पवन-देव जी भी वहाँ उपस्थित रहकर इस वार्तालाप को सुन रहे थे. बिना विलम्ब किए, उन्होंने तत्काल आकर मुझे इस बात से अवगत करा दिया था. सच कहूँ, मैंने तो कभी इस बात की कल्पना तक नहीं की थी, मेरे प्रभु, बिन मांगे, मुझे इतना बड़ा उपहार देने जा रहे हैं, जहाँ तक मुझे याद है कि मैंने भी कभी कोई बड़ा अनुष्ठान या कठोर तप नहीं किया था, तिस पर भी प्रभु रामजी ने मुझ पर बड़ी कृपा की और अपने निवास के लिए मुझे उपयुक्त माना.  निश्चित ही मेरे कुछ पुण्यों का उदय हुआ होगा, तभी तो साक्षात परब्रह्म परमेश्वर, मुझे अपने दिव्य दर्शन देने के लिए स्वयं चलकर मेरे यहाँ पधार रहे हैं.

                मेरे मित्र पवनदेव केवल यहीं नहीं रुके थे, बल्कि उन्होंने समूचे वनांचल के सहित मन्दाकिनी को भी इस बात से अवगत करा दिया था. मैंने भी मन ही मन में, ‌ऋतुओं के राजा वसंत से प्रार्थना की थी कि वे अपनी सेना के सहित, प्रभु रामजी के आगमन से पूर्व, बिना विलम्ब किए मेरे यहाँ पधारने की कृपा करें. सच्चे मन से की गई प्रार्थना का असर हुआ और वे अपनी पूरी फ़ौज के साथ, बिना देरी किए यहाँ आ गए थे.

                देखते ही देखते समूचा वनांचल अपनी संपूर्णता के साथ खिल उठा था. कोकिला के अलावा, पास-पड़ौस से नाना प्रकार के पखेरुओं का आना शुरु हो चुका था. अपनी-अपनी बोलियों में बोलते पक्षियों के कलरव-गान से समूचा वन-प्रांतर गुंजारित होने लगा था. कोकिला कभी इस पेड़ पर से, तो कभी किसी अन्य पेड़ की शाख पर बैठकर, मीठे स्वर में गाकर प्रभु रामजी के आगमन की सूचना दूर-दूर तक फ़ैलाने में तनमयता से जुटी हुई थी. पेड़ों ने नए पत्ते पहन लिये थे. लताएं भी पीछे कहाँ रहने वाली थीं. वे भी नए पुष्पों से अपने को सजाती हुईं, पेड़ों की शाखाओं पर चढ़कर इठलाने लगी थीं.

                मंदाकिनी तो जैसे पगला ही गई थी. उसका जल प्रवाह तेजी से बढ़ने लगा था. कलकल-छलछल के अपने आदिम-स्वर में गीत गाती हुई, प्रसन्नता से हिलोरें लेने लगी थी. बात केवल अब उस तक नहीं रही थी, बल्कि उसके अंदर रहने वाली जलचरों को भी हो चुकी थी. वे भी पानी की सतह से बार-बार अपना सिर निकालकर प्रभु के आगमन की बाट जोहने लगे थे.

                बात है तो बहुत पुरानी. जिसे मैं आज तक भूल नहीं पाया हूँ. भूल भी कैसे सकता हूँ. एक बार स्वयं भगवान विष्णु, भोले भण्डारी शिवशंकर जी और परमपिता ब्रह्माजी साधु बनकर, मेरे ही प्रांगण में रहने वाली सती-साधवी अनुसुईया जी के सतीत्व की परीक्षा लेने आए थे. उन्होंने उनके समक्ष एक विचित्र शर्त रखी कि वे विवस्त्र होकर उन्हें भोजन करायेंगी, तभी वे भोजन ग्रहण करेंगे. अनुसुईयाजी असमंजस में पड़ गईं थीं कि इससे तो मेरा पातिव्रत्य धर्म खंडित हो जाएगा. अपनी दिव्य शक्तियों के बल पर वे जान चुकी थी साधुओं के वेश में कोई और नहीं बल्कि त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं. उन्होंने मन ही मन अपने पति का स्मरण किया, हाथ में जल लिया और उसे अभिमंत्रित कर, उन तीनों पर छिड़कते हुए, उन तीनों को प्यारे शिशुओं के रूप में बदल दिया. जब नन्हें शिशुओं को भूख लगी और अब वे रोने लगे थे. उन्हें रोता-बिलखता देख अनुसूईया के हृदय में मातृत्व भाव उमड़ पड़ा. उन्होंने तीनों को स्तनपान कराया. दूध-भात खिलाया और अपनी गोद में सुलाया.

                करीब छः माह तक उन तीनों को शिशु बनकर सती के आश्रम में रहना पड़ा था. जब वे तीनों अपने-अपने लोकों में नहीं पहुँचे, तब लक्ष्मीजी, पार्वती जी तथा सरस्वती जी को चिंता हुईं और अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर, उन्हे खोजने निकल पड़ीं. काफ़ी खोज-खबर लेने के बाद पता चला कि वे तीनों साधवी जी के यहाँ शिशुओं के रूप में रह रहे हैं. उन तीनों ने अत्यन्त ही विनीत होकर, साधवी जी से क्षमा मांगते हुए कहा कि हम तीनों अपने आपको असाधारण पतिव्रता मान कर चल रही थीं, अतः हमारा अभिमान दूर करने के लिए, इन तीनों को आपकी परीक्षा लेने के लिए विवश होकर आना पड़ा. अब आप हम पर प्रसन्न होइए और तीनों को उनके मूल स्वरूप में लौटा दीजिए. सती जी ने उन तीनों की प्रार्थना से प्रसन्न होकर, जल हाथ में लेकर अभिमंत्रित किया और उन तीनों पर छिड़क दिया. इस तरह वे अपने मूल स्वरूप में आ सके थे और अपने-अपने लोकों को जा सके थे.

                ये वही सतीजी है, जिनकी कृपा से मन्दाकिनी को मेरी धरती पर अवतरित होकर प्रवाहित होने का गौरव प्राप्त हुआ है.

                इस असाधरण घटना की गूंज आज भी मेरे प्रांगण में यत्र-तत्र गूंज रही है. इन सबके अलावा अनेक ऋषि-मुनि-तपस्वी मेरी कन्दराओं में रहकर कठोर तप कर रहे है. निश्चित ही मैं बड़भागी हूँ. . बड़भागी इस अर्थ में कि साक्षात भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी जी, राक्षसराज रावण सहित अन्य दानवों का वध करने के लिए राम और सीता के रूप में मेरे प्रांगण में पधार रहे हैं, इतना बड़ा सौभाग्य मुझे जो मिलने जा रहा है, वह कोई साधारण बात नहीं है.

चित्रकूट में प्रवेश.

                धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए रामजी जी ने चित्रकूट पर्वत की ऊँचे शिखर को देखते हुए कहा :-"लक्ष्मण....यह चित्रकूट पर्वत कितना मनोहारी है. यहाँ कंद-मूल और फ़ल-फ़ूल की भी बहुतायत है. इस मनोरम स्थान पर अनेक साधु-संत, ‍ऋषि-मुनि तपस्या करते हैं. इस रमणीय स्थल पर सुख से जीवन-निर्वाह किया जा सकता है.

                बातों ही बातों में पता नहीं चल पाया कि कब वाल्मिकी जी का आश्रम आ चुका है. उन तीनों ने महर्षि के आश्रम में प्रवेश करते हुए ध्यानस्थ महर्षि को प्रणाम निवेदित किया और चरणॊं में शीश झुकाया.

                धर्म के मर्मज्ञ महर्षि वाल्मिकी उनके आगमन से बहुत प्रसन्न हुए. "आइए.राम आइए...आप लोगों का स्वागत है...आइये बैठिए"ऐसा कहते हुए उनका आदर-सत्कार किया.

                तदनन्तर रामजी ने महर्षि वाल्मिकी को अपना पारिचय देते हुए कहा:-मैं महाराज दशरथ का पुत्र राम, अपनी भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण आपके चरणॊं मे सादर प्रणाम करते हैं. ऐसा कहते हुए सभी ने महर्षि के चरणों में झुकते हुए प्रणाम किया. फ़िर अत्यन्त ही मधुर स्वर में बोलते हुए रामजी ने महर्षि से कहा:- हे महाभाग...आपने तो काफ़ी समय पूर्व ही मेरे लिए पटकथा लिख दी है. राम उसके अनुसार सफ़ल अभिनय भी कर रहा है. मैं आपके इस पवित्र पावन पर्णकुटी से कुछ दूरी पर रहकर निवास करना चाहता हूँ. वसंत ‍ऋतु के चलते चित्रकूट इस समय मुझे बड़ा ही मनभावन लग रहा है. इस स्थान पर आकर मैं अपने सारे संताप भूल चुका हूँ. अतः आप मुझे यहाँ निवास करने की आज्ञा प्रदान करें”.

                राम ! तुमने मेरे मन की बात कह दी है. अब शीघ्रतापूर्वक अपने रहने के लिए एक सुंदर-सी पर्ण-कुटी तैयार करवाओ और सुखपूर्वक तब तक निवास करते  रहो, जब तक तुम्हारा मन लगे”कहते हुए महर्षि वाल्मिकी जी राम की प्रार्थना को सुनते हुए अनुमति प्रदान कर दी थी.

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                महर्षि वाल्मीकि जी के आश्रम से निकलकर रामजी, मन्दाकिनी के पावन तट पर आए. उन्होंने एक बड़ी-सी शिला का चुनाव किया और उस पर विराजमान होकर प्राकृतिक सुषमा को निहारने लगे. उनके पार्श्व में मंथरगति से बहती पुण्य सलीला मन्दाकिनी थी, ठीक सामने चित्रकूट पर्वत की दूर-दूर तक फ़ैली पर्वत-श्रेणियाँ. सालई तथा अन्य प्रजाति के सघन वृक्ष आच्छादित थे, पेड़ों से झरती शीतल ठंडी-ठंडी हवा प्रवहमान हो रही थी. अनेको प्रकार के लतिकाएं जिनमें रंगीन और सुगंधित पु‍ष्प खि हुए थे, वृक्षों से लिपटकर हवा में झूलती हुई लहरा रही थीं.

                प्राकृतिक सुषमा को देर तक निहारते रहने के बाद उन्होंने सीता जी से जानना चाहा:- "सीते.! मेरा मन इस स्थान पर एक पर्णकुटि बनाने को कह रहा है, जिसमें हम  सुखपूर्वक निवास कर सकें. पवित्र पावन मन्दाकिनी यहाँ से काफ़ी कम दूरी पर प्रवाहित हो रही है. सामने अपनी विशाल बाहों को फ़ैलाए चित्रकूट पर्वत की श्रेणियाँ दिखाई दे रही हैं. पेड़ों पर धमाचौकड़ी मचाते शाखामृग भी यहाँ-वहाँ विचरते दीख रहे हैं. हिरणॊं के झुण्ड भी हरी-मुलायम घास चरते दिखाई दे रहे हैं. देखो तो सही,.... वे अपने गर्दन उठाकर संभवतः हमें ही निहार रहे है. हाथियों के झुण्ड यहाँ-वहाँ विचर रहे हैं. इस स्थान पर कंद-मूल भी बहुतायत से मिल जाएंगे. आम्रवृक्षों की डालियाँ फ़लों के भार से नीचे झुक आयी है. कदलीवृक्ष तथा सीताफ़ल भी यहाँ प्रचुर मात्रा में पेड़ों पर लगे हुए हैं.  मेरे मन ने इस स्थान का चुनाव कर लिया है. यदि तुम्हें भी यह स्थान उचित जान पड़ता हो, तो लक्ष्मण को पर्णकुटि तैयार करने के लिए कहा जा सकता है."

                "स्वामी ! आपने तो मेरे मन की बात कह दी है . मैं भी यही सोच रही थी.  मुझे भी यह स्थान पर्णकुटि बनाने के लिए सर्वथा उचित प्रतीत होता है. अब शीघ्रता से हमें पर्णकुटि का निर्माण प्रारंभ कर देना चाहिए."सीताजी ने कहा.

                "अनुज लक्ष्मण !  तुम्हारा क्या विचार है?  क्या तुम्हें भी यह स्थान पर्णकुटि के निर्माण के लिए उचित जान पड़ता है? यदि हाँ, तो शीघ्रता से हमें उसके निर्माण में जुट जाना चाहिए’. रामजी ने लक्ष्मण की ओर निहारते हुए जानना चाहा था.

                "पर्णकुटि निर्माण के लिए यह जगह मुझे भी पसंद है भैया.... मैं शीघ्र ही वन जाकर लकडियाँ, बांस, और छत पर छप्पर छाने के लिए अमलतास और पलाश लाकर पर्णकुटि निर्माण का काम शुरु कर देता हूँ.

                लक्ष्मण ने कुल्हाड़ी अपने कांधे पर रखी और वन की ओर निकल गए. लक्ष्मण जब वन से बल्लियाँ और बांस काट रहे थे, तभी आसपास के ग्रामीण, जो इस समय वनोपज इकठ्ठा करने के लिए आए हुए थे. उन्होंने एक सुंदर-सुगठित अजनवी व्यक्ति को पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाते हुए देखा. वे यह नहीं समझ पा रहे थे, कि यह अपरिचित व्यक्ति आखिर कौन हो सकता है? तभी एक ने दूसरे से कहा:-"देखने में यह युवक तो किसी राजघराने का व्यक्ति लगता है. इसके मुख का छाई कांति स्पष्ट बतलाती है कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं है?. तभी दूसरे ने कहा"चलो चलकर देखते हैं और उसी से परिचय प्राप्त करते हैं". अभी तीसरे व्यक्ति ने कहा:-"हाँ हाँ क्यों नही ? चलकर पूछने में क्या हर्ज है?.चलो चलते है"ऐसा कहकर वे सभी लक्ष्मण जी के पास पहुँचे और हाथ जोड़कर "जय रामजीकी” बोलते हुए दोनों हाथ जोडकर नमस्कार किया. तदनन्तर उनमें से एक व्यक्ति ने पहल करते हुए लक्ष्मण से पूछा:- हे अजनवी भ्राता ! हम आपको इस स्थान पर पहली बार देख रहे हैं. संभवतः आप कहीं बाहर से आए हुए हैं. हम आपका परिचय जानना चाहते हैं?".

                सभी के मुँह से "जय रामजी"का शब्द सुनकर लक्ष्मण जी को परम संतोष मिला कि सभी लोग रामजी के भक्त होने चाहिए, तभी तो उन्होंने ’जय रामजीका उद्घो‍ष करते हुए संभा‍षण किया. यदि वे रामभक्त नहीं होते तो किसी और भाषा में मुझसे बात करते. लक्ष्मण ने भी उन सभी को हाथ जोड़कर "जय रामजी" कहते हुए अपना परिचय दिया और बतलाया कि वे श्रीरामजी के छोटे भाई लक्ष्मण है. पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर रामजी चौदह वर्षों के वनवास के लिए अयोध्या से चलकर चित्रकूट आ पहुँचे हैं. मैं उन्हीं की आज्ञा से बांस-बल्लियाँ लेने आया हूँ ताकि भैया और भाभी के रहने के लिए एक सुन्दर-सी पर्णकुटि बना सकूँ"

                "हमारे राम चित्रकूट आ गए है......हमारे राजा राम चित्रकूट आ गए है."हर्षोल्लास में भरते हुए प्रायः सभी ने एक स्वर में कहा था. फ़िर उन्होंने लक्ष्मण जी से कहा:-"भैया लक्ष्मण...आप एक ओर हटिए....हम भी अपनी-अपनी कुल्हाड़ी लेकर आए हैं. हम सभी मिलकर बांस-बल्लियाँ काट कर इकठ्ठा कर लेते हैं फ़िर आपके साथ ही चलते हैं जहाँ हमारे प्रभु रामजी ठहरे हुए हैं. सबसे पहले हम उनके चरणॊ में अपना प्रणाम निवेदित करेंगे फ़िर एक सुन्दर-सी पर्णकुटि का निर्माण भी कर देंगे. आप निश्चिंत रहे."

                जहाँ दो हाथ काम कर रहे थे, अब वहाँ बीसों हाथ काम करने में जुट गए थे. देखते ही देखते पर्याप्त मात्रा में बांस-बल्लियाँ काटी जा चुकी थी और अब वे लोग अपने कांधों पर ढो कर उस ओर बढ़ चले थे जहाँ प्रभु रामजी और सीताजी एक शिला पर विराजमान थे.

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                लोगों के मन में प्रसन्नता का ज्वारभाट हिलोरें ले रहा था. सभी प्रसन्नबदन अपने आराध्य प्रभु रामजी के दर्शनों की अभिलाषा लिए तीव्रगति से आगे बढ़ रहे थे. वे शीघ्र ही उस स्थान पर आ पहुँचे, जहाँ रामजी जनकदुलारी सीताजी के साथ एक शिला पर बैठे हुए थे.

                सभी ने निर्माणाधीन स्थल पर बांस-बल्लियों को पटका. फ़िर बारी -बारी से उनके चरणॊं में अपना मस्तक रखते हुए प्रणाम करते हुए कहा:-"प्रभु ! आपके शुभ दर्शन पाकर हम धन्य हुए. हम कब से आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे."एक ने कहा. “प्रभु ! हम लोगों ने सुन रखा था कि आप श्रृंगावेरपुर से चलकर चित्रकूट पहुँचने वाले है, तभी से हम आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे”. दूसरे ने तत्काल कहा:-  हे स्वामी ! माता कैकेई ने आपके साथ ठीक नहीं किया. अकारण ही आपको चौदह साल का वनवास दे दिया". तीसरे ने उसे टोकते हुए कहा:- तू चुप रह. तुझे नहीं मालुम. माता कैकेई ने जो कुछ किया, ठीक ही किया है. वे वैसा नहीं करतीं तो हमारे रामजी कभी वन नहीं आते और हम आपके दर्शनों से वंचित रह जाते. निश्चित ही हम लोग बड़भागी हैं जो आपके चरण-कमलों के दर्शन हम लोग कर पा रहे हैं”.,..जितने मुँह उतनी बातें होती रहीं.  सभी के मन में जो कुछ भी उमड़- घुमड़ रहा था, उन्होंने रामजी से कह सुनाया.

                सबकी बातें सुन लेने के बाद रामजी ने मुस्कुराते हुए कहा:-"भाईयों ! माता कैकेई को लेकर आपके मन में जो धारणा गलत बन चुकी है. वह ठीक नहीं है...वह निर्मूल है. , शायद तुम लोगों को समझने में जरुर कोई भूल हुई है. तभी तुम लोग ऐसा सोच रहे हो. दरअसल महाराज दशरथ मेरा राज्याभिषेक करके, मुझे अयोध्या की सीमा में बांधने का उपक्रमकर रहे थे. लेकिन उदारमना माता कैकेई ने मुझ पर बड़ा ही उपकार किया है. उन्होंने तो मेरी सीमा का विस्तार ही किया है. मुझे वनों का राजा बनाकर आप लोगों के बीच आने और आप लोगों से मिलने का सुअवसर प्रदान किया है. अगर ऐसा नहीं होता तो आप लोगों से मेरी मुलाकत कैसे हो पाती? अतः आप लोग कृपया माता कैकेई को दोषी  ठहरानाबंद करें.."

                बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा:- "चित्रकूट की यह पावन धरती और सदानीरा मंदाकिनी का यह तट मुझे अत्यन्त ही रुचिकर लगा है. मैं इस स्थान पर एक पर्णकुटि बनाकर निवास करना चाहता हूँ.  यह विचार मन में आते ही मैंने अनुज लक्ष्मण को पर्णकुटि के निर्माण के लिए आवश्यकता अनुसार बांस-बल्लियाँ लाने की आज्ञा दी थी"

                "प्रभु ! हम लोग भी घास-फ़ूस की झोपड़ियों में ही रहते आए हैं. अतः इसका निर्माण कैसे किया जाता है, इसमें हमें कुशलता प्राप्त है. हम अपने आराध्य देव के लिए एक अत्यन्त ही सुंदर कुटिया का निर्माण कर देंगे.  बड़े भाग्य हमारे कि इसके निर्माण का सुनहरा अवसर हमें मिल रहा है,  हम उसे खोना नहीं चाहते.  अतः हे प्रभु ! आपसे हमारी करबद्ध प्रार्थना है कि आप हमें इसके निर्माण की आज्ञा दें. निश्चित ही कुछ ही समय में हम आपकी इच्छा के अनुरूप पर्णकुटि का निर्माण कर देंगे."

                रामजी ने मुस्कुराते हुए कहा:-"भाईयों...आप लोगों की इस सदेच्छा को मैं कैसे अस्वीकारकर सकता हूँ? मैं तो बस प्रेम के अधीन हूँ. जहाँ मुझे सच्चा प्रेम मिलता है, मैं स्वयं भी उस के अधीन हो जाता हूँ. मैं तुम लोगों की सच्ची लगन और श्रद्धा को देखकर अभिभूत हुआ हूँ..

                उन्हे तो बस  अपने प्रभु श्रीराम जीकी आज्ञा भर पाना था. जैसे ही उन्हें रामजी से आज्ञा मिली, वे कुटिया के निर्माण में तल्लीनता से जुट गए थे.

                हवा और प्रकाश को ध्यान में रखते हुए उन्होंने पर्णकुटि का प्रवेश द्वार पूर्वाभिमुखी रखा ताकि सूरज की किरणें सीधे अन्दर प्रवेश कर सके. प्रभु के विश्राम करने के लिए एक कक्ष, एक बैठक कक्ष तथा रसोई कक्ष का निर्माण करते हुए एक बड़े से आंगन को घेरकर तुलसी, अनार, जामफ़ल, नीम, आंवला, केले के वृक्ष,एक पीपल का पेड, तीन कैथ, तीन बेल और आंवला एवं आम के पांच-पांच पौधे और फ़ूलदार वृक्षों को रोपित किया.

                बांस-बल्लियों को आपस में बांधने के लिए उन्होंने पटसन जिसे पाट या पटुआ के नाम से भी जाना जाता है. इसका तना पतला और बेलनाकार होता है. इसे पानी में देर तक भिंगो देने के बाद ऊपरी आवरण को उतारकर रस्सी बनाई जातीहै. बन कर तैयार हुई रस्सी से बांस-बल्लियों को आपस में बांधकर पर्णकुटी का ढांचा खड़ा किया गया. अब छप्पर (छत) पर छानी की जानी थी, ताकि वर्षा जल भीतर प्रवेश न कर सके. कुछ लोगों ने वन से कांस.( एक प्रकार की घास ,) अमलतास और पलाश के पत्तों को लाकर छत को ढंकते हुए छप्पर बना दिया था.

                लक्ष्मण भी इस कार्य में दक्षता के साथ उनका हाथ बंटा रहे थे.. कहाँ क्या बनाना चाहिए, कहाँ क्या लगाना चाहिए आदि पर अपना सुझाव देते हुए वे निर्माण कार्य को आगे बढ़ा रहे थे. रामजी और सीताजी लक्ष्मण की कार्यशैली को देखकर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सके थे और उनकी सूझबूझ की प्रसंशा करते थकते नहीं थे.

                अब इसकी कलात्मक साज-सज्जा की जानी बाकी थी. कुछ कारीगरों ने बांस की खप्पचियों से जालीदार खिड़कियाँ और दरवाजे बनाए.. इतना सब हो जाने के बाद आम के पत्तों की तोरण और रंग-बिरंगे फ़ूलों से मालाएं बनाकर मुख्य द्वार पर बांध दिया गया.

                पर्णकुटि के चार कोनो पर चार छोटे-छोटे कक्षों का निर्माण भी किया गया था. शत्रुओं की गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए, प्रत्येक कक्ष में तीन ओर से खुली हुईं खिड़कियों का निर्माण किया गया था, ताकि लक्ष्मण वहीं से बैठे-बैठे पर्णकुटि की सीमा का उल्लंघन करने वालों को आसानी से देख सकें.

                निर्माण कार्य पूरा हो चुका था. गृह-प्रवेश से पूर्व वास्तुशान्ति किया जाना आवश्यक होता है, अतः रामजी ने लक्ष्मण से कहा कि वे काले छिलके वाला "गजकन्द" खोदकर ले आएं और उसे पकाएं, ताकि उस पके हुए गुदे से पर्णशाला के अधि‍ष्ठाता देवताओं का पूजन किया जा सके.

                सद्गुणों तथा जपकर्म के ज्ञाता रामजी ने शौचादि कर्म से निपटने के बाद स्नान किया और नियमपूर्वक सभी मंत्रों का पाठ और जप किया, जिससे वास्तुयज्ञ की पूर्ति हो जाती है.

                उस पर्णकुटि के अनुरूप रामजी ने आठ दिक्पालों, गणेशजी तथा विष्णु जी की स्थापना की. फ़िर सभी देवताओं के विधि-विधान से पूजा-अर्चना करने के बाद सीताजी, और रामजी ने एक साथ निवास के लिए पर्णकुटि में प्रवेश किया.

                यह सब करते-कराते संध्या का समय हो चला था. रामजी ने संध्यावंदन किया और अस्त होते सूरज देवता को प्रणाम किया. लक्ष्मण ने इस बीच कंद-मूल और फ़ल तथा भोजन करने के लिए केलों के पत्तों को वन से इकठ्ठा कर ले आए थे..सभी ने मिलकर भरपेट भोजन किया.

                प्रभु श्रीराम जी ने संध्योपासना की. अस्ताचलगामी सूर्यनारायण को प्रणाम किया और एक शिला पर आकर विराजमान हो गए. पास ही की दो अन्य शिलाओं पर सीताजी और लक्ष्मण जी क्रमशः आकर बैठ गए. देर रात्रि तक रामजी अपनी भार्या सीताजी और अनुज लक्ष्मण को शस्त्र और शास्त्रों के बारे में अनेक रहस्यमयी और रोचक जानकारियां देते रहे. सीताजी ध्यानस्थ होकर सभी बातों को सुन रही थीं. सुन रही थीं और सोच भी रही थी कि रामजी गंभीर विषयों को कितनी आसानी ने साथ सरल शब्दों में कह सुनाते हैं.

                रामजी की दृष्टि में छिपा नहीं रह गया था कि सीताजी की आँखें भारी होने लगी थीं, शायद अब वे विश्राम करना चाहती थी. अपनी वाणी को विराम देते हुए उन्होंने अनुज लक्ष्मण से कहा-"सौमित्र...मुझे लगता है कि अब हमें विश्राम करना चाहिए. तुम भी जाकर आराम से निद्रा देवी की गोद में जाकर विश्राम करो. कल सुबह हम फ़िर किसी विशेष विषय-वस्तु पर बातें करेंगे.

                उन्होंने सीता जी को संकेत देते हुए कहा-"सीते...चलो चलते हैं और चलकर विश्राम करते हैं. अनुज लक्ष्मण आज दिन भर परिश्रम का काम करते रहे हैं, उन्हें हमसे ज्यादा आराम करने की आवश्यक्ता है. सीता जी ने पर्णकुटि में प्रवेश किया. रामजी ने हौले से दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

                                                                                ००००००

                रात गहराती जा रही थी. चारों ओर गहरा अंधकार पसरा पड़ा था. आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे. आकाश में लाखों-करोड़ों की संख्या में तारे थे, लेकिन वे धरती के अंधकार को दूर कर पाने में नकारा सिद्ध हो रहे थे. तभी एक ओर से किसी जंगली जानवर के गुर्गुराने की आवाज की आवाज सुनकर लक्ष्मण चौकन्ने हो गए थे. उन्होंने फ़ुर्ती से अपना धनुष कांधे से उतारा और तीर को फ़ंसाते हुए सतर्कता से उस ओर देखने लगे, जिस ओर से आवाज आयी थी. वे देर तक निशाना साधकर बैठे रहे थे लेकिन कोई जानवर उधर से नहीं गुजरा और न ही पास आया.

                देर तक एक शिला पर बैठे-बैठे लक्ष्मण को निद्रा आकर घेरने लगी थी, लेकिन वे हर बार उसे दूर भगा देते थे. देर तक वे निद्रा से आँख मिचौनी खेलते रहे थे. तभी उन्होंने किसी स्त्री की आवाज सुनाई दी."लक्ष्मण जी...सारे धरतीवासी सुख की निद्रा में निमग्न होकर सो रहे हैं..आकाश में टिमटिमाते तारे भी अब ओझल होने लगे हैं.. पेड़-पौधे, यहां तक सभी पखेरु भी अपने-अपने नीड़ो में आराम से सो रहे है. एक अकेले आप हैं जो मुझे अपने पास तक नहीं आने दे रहे हैं. इस तरह आप कब तक जागते रहेंगे?. तुम्हें भी अब मेरी गोद में आकर थोड़ा सो लेना चाहिए".

                आवाज सुनते ही फ़ुर्तिले लक्ष्मण ने धनुष पर बाण चढ़ा लिया था. उनका मुख-मंडल क्रोध में तमतमाने लगा था. लगभग चेतावनी देते हुए उन्होंने ललकारते हुए कहा-"हे देवी...तुम कौन हो...मैं तुम्हें नहीं जानता...तुम किसी दुर्भावनावश तो यहाँ नहीं आयी हो.? तुम क्यों मुझे सो जाने के लिए विवश कर रही हो? कहीं तुम्हारा इरादा मेरे ज्येष्ठ भ्राता और भाभी को हानि पहुँचाना तो नहीं है? सावधान...लक्ष्मण तुम्हें चेतावनी दे रहा है...तुम जो भी हो..मेरे सामने तत्काल प्रकट हो जाओ, अन्यथा ये शर तुम्हारा वध करके ही मेरे तुणीर में वापिस लौटेगा"

                निद्रा देवी, लक्ष्मणजी के सन्मुख प्रकट हुई और अपना परिचय देते हुए कहा- "हे वीर लक्ष्मण.....मेरा नाम निद्रादेवी है. मेरा इरादा किसी को हानि पहुँचाने का नहीं है. और न ही किसी दुर्भावनावश मैं आपके पास आयी हूँ. मेरा काम तो बस इतना-सा ही है कि मैं तुम्हें अपने आगोश में लेकर सुखपूर्वक सो जाने के लिए प्रार्थना कर रही हूँ. यदि आप इस तरह जागते रहे, तो आपके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और आप अपने ज्येष्ठ भ्राता और भाभी की रक्षा उतनी सहजता से नहीं कर पाओगे. अतः आपको इस पर गंभीरता से सोचने और विचार करने की आवश्यकता है. संसार का कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जो कम से कम आठ-दस घंटे न सोता हो. आपको नींद की आवश्यकता है. अतः आप निश्चिंत होकर कुछ समय के लिए ही सही, सो जाइए".

                "हे निद्रा देवी....शायद तुम इस बात से अनभिज्ञ हो कि लक्ष्मण केवल और केवल एक ही उद्देश्य लेकर अयोध्या से चलकर ज्येष्ठ भ्राता के साथ आया है कि वह सतत जागते रहकर, उनकी चारों ओर से सुरक्षा प्रदान करेगा. फ़िर मेरी माताश्री ने भी मुझे इस पुनीत कार्य में संलग्न होने के लिए अपना आशीर्वाद दिया था. उन्होंने कहा था कि रामजी को अपने पिता दशरथ की तरह और भाभी को मेरी जगह मानना. इस संसार में इन दोनों के अलावा मेरा कोई सगा-संबंधी नहीं है. वे ही मेरे लिए सब कुछ हैं. अतः मेरा दायित्व बनता है कि मैं अपने स्वामी की सुरक्षा में लगातार जागता रहूँ"

                "हे वीर लक्ष्मण...देर-सबेर ही सही, तुम्हें मेरी शरण में आना ही पड़ेगा. तुम जाग कर भी सोते रहोगे और तुम्हें पता ही नहीं चल पाएगा कि तुम सो रहे हो अथवा जाग रहे हो."

                "हे देवी....! आप कोई ऐसा उपाय जरुर जानती होगी कि मैं रामजी के वनवास की अवधि समाप्त होने तक सतत जागता रहूँ. यदि कोई ऐसा उपाय आपके पास है तो कृपा कर मुझे बतलाएँ." लक्ष्मण ने निद्रा देवी से कहा.

"हाँ...एक उपाय अवश्य है....यदि आपके बदले की नींद, कोई दूसरा लेने को सहर्ष तैयार हो तो..मैं वहाँ जाने को तैयार हूँ".

                लक्ष्मण सोच में पड़ गए थे कि कौन ऐसा होगा, जो मेरे बदले के नींद लेने के तैयार होगा?.काफ़ी सोचने-विचार ने बाद उन्होंने निद्रादेवी से कहा-"मेरी पत्नि उर्मिला, जो अब भी जाग रही होगी.  तुम उसके पास जाकर मेरा मंतव्य कह सुनाओ. मुझे विश्वास है कि वह मेरे बदले की नींद लेने के लिए सहर्ष तैयार हो जाएगी".

                "ठीक है, मैं अभी जाकर उनसे पूछती हूँ कि क्या तुम अपने पति की नींद लेने को तैयार हो अथवा नहीं". कहते हुए वे अंतर्ध्यान हो गईं.

                पलक झपकते ही निद्रा देवी उर्मिला के समक्ष जा खड़ी हुईं.

                उर्मिला के अन्तःपुर के एक आले में रखा दीपक टिमटिमा रहा था और एक हल्का-सा प्रकाश पूरे कक्ष में फ़ैल रहा था. किसी जड़वत पाषाण प्रतिमा के सदृष्य, वे कक्ष के एक कोने में बैठी अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को लेकर गंभीरता से सोच रही थीं. सोच रही थीं कि पूर्व जन्म में उससे जाने अथवा अनजाने में कोई जघन्य पाप हो गया होगा, जिसकी सजा उसे इस जन्म में भुगतनी पड़ रही है. यदि ऐसा हुआ होता तो शायद ही मेरा जन्म, जनक जैसे महाप्रतापी राजा जनक जी के घर में नहीं होता. और न ही मेरा विवाह गौरवाशाली रघुवंश में जन्में लक्ष्मण जैसे शूरवीर से होता?. उन्होंने तत्काल इस क्षुद्र विचार को दिमाक से निकाल देना उचित समझा.

                विचारों की श्रृंखला टूटने का नाम ही नहीं ले रही थीं.   मन के किसी एक कोने से, कोई एक नया प्रश्न उठ खड़ा होता और वे उसका उत्तर खोजने में लग जाती थीं. अंत में वे इस निष्कर्ष पर पहुँची कि यदि माता कैकेई श्रीरामजी को वनवास पर नहीं भिजवातीं तो उसके पति उसके साथ होते और उसे विरहाग्नि में झुलसना नहीं पड़ता. कैकेई जी ने तो केवल रामजीको वनवास दिया था,  न कि बहन सीता को, लेकिन उन्होंने महल में रहने की बजाय अपने पति के संग जाना उचित समझा. यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन मेरे पतिदेव को तो किसी ने नहीं कहा था कि वे रामजी के साथ वन जाएं, लेकिन उन्होंने रामजी का साथ दिया और बिना हिचक वे उनके साथ हो लिए. वन जाने से पूर्व उन्होंने मुझसे परामर्श भी किया था कि वे रामजी के साथ वन जाना चाहते हैं. मैंने ही बिना कुछ सोचे समझे उन्हें सहमति प्रदान कर दी थी. बस चूक यहीं हुई. यदि मैं भी बहन सीता की तरह जिद पर अड़ जाती, तो उन्हें हर हाल में मुझे साथ ले जाना पड़ता. पति के संग रहना और पति की अनुपस्थिति में रहने में क्या अंतर होता है, मुझे अब समझ में आ रहा है. लेकिन दुर्भाग्य मेरा कि मैं समय की बारिकी को समझ नहीं पायी, इसी का दुष्परिणाम है मुझे विरहाग्नि में झुलस-झुलस कर समय बिताना पड़ रहा है.

                उर्मिला अपने ही प्रश्नों के चक्रव्यूह में इस तरह उलझी हुईं थी कि निद्रादेवी की आवाज तक उन्हें सुनाई नहीं दी थी. बार-बार के संबोधन के बाद उर्मिला जैसे नींद से जागीं. उन्होंने अपने सामने एक अपरिचित महिला को देखा. देखते ही उन्होंने कहा-"हे देवी ! तुम कौन हो? मैंने तुम्हें इससे पहले कभी नहीं देखा? इतने बड़े राजमहल में प्रवेश करते हुए किसी ने नहीं रोका? आखिर तुम हो कौन? अपना परिचय देने की कृपा करें.

                निद्रादेवी ने अत्यन्त ही शांत मन से उत्तर देते हुए कहा-"उर्मिले ! मेरा नाम निद्रादेवी है. संसार का शायद ही कोई ऐसा प्राणी होगा, जिसे मैं अपने आलिंगन में लेकर नहीं सुलाती. मैं देख रही हूँ कि रात्रि का तीसरा प्रहर शुरु हो चुका है और तुम अब तक जाग रही हो, क्या तुम सोना ही नहीं चाहती. मैं तुम्हें सुलाने के लिए ही यहाँ आयी हुई हूँ.

                "हे देवी ! क्या जागना और क्या सोना? मैं तो सोते हुए भी जाग रही हूँ और जागते हुए भी सो ही रही हूँ. मेरी पलकों ने तो अब झपकना ही छोड़ दिया है. शायद तुम विरहाग्नि में तिल-तिल कर जली नहीं हो, अतः तुम क्या जानो कि बिना पति के सेज पर सोना, मानों कांटॊं पर सोना होता है".

                "हे उर्मिले ! मैं तुम्हारे दुःख को समझ सकती हूँ. विरह की बेला में भला किसे नींद आती है?. ठीक यही हाल तुम्हारे पतिदेव का भी है. वे अपनी कर्तव्यपरायणता के चलते सोना नहीं चाहते, और तुम हो कि विरहाग्नि में जागते रहना चाहती हो. मैं तुम्हारे पास जिस प्रयोजन को लेकर आयी हूँ, वह बतलाना तो भूल ही गई, मेरी बात जरा ध्यान से सुनो. लक्ष्मण जी ने प्रतीज्ञा कर रखी है कि रामजी के अयोध्या लौटने से पहले वे सोना नहीं चाहते. वे सतत जागते हुए उनकी रक्षा में संलग्न रहना चाहते हैं.

                "तुम्हारे ही पतिदेव ने मुझे तुम्हारे पास यह जानने के लिए भिजवाया है कि उनके बदले की नींद यदि तुम लेना स्वीकार कर लोगी तो वे निश्चिंत होकर उनकी रक्षा में संलग्न रह पाएंगे. मुझे तुम्हारा उत्तर चाहिए कि क्या तुम अपने पतिदेव की नींद लेना स्वीकार करोगी, या मना कर दोगी? मुझे इसका उत्तर तत्काल चाहिए?.

                "अहा ! सौभाग्य मेरा कि आपको मेरे पतिदेव ने मेरे पास भिजवाया है. यदि परीक्षा की घड़ी में पत्नि पति साथ न दे तो उसे धर्मपत्नी होने का कोई अधिकार नही है. मैंन्रे उन्हें अपने प्राणपन से अपना आराध्य माना है. यदि वे अपनी नींद मुझे देना चाहते हैं तो जाकर उनसे कह दें कि उर्मिला आपकी हर इच्छा की पूर्ति करेगी. मैं उर्मिला प्रतीज्ञापूर्वक कहती हूँ कि मैं उनकी नींद लेने को सहर्ष तैयार हूँ. अब तो आप खुश हैं न ? जितनी जल्दी हो सके आप शीघ्रता से उनके पास जाकर यह शुभ समाचार पहुँचाने की कृपा करें कि उर्मिला ने स्वीकृति दे दी है"

                उर्मिला की स्वीकृति प्राप्त होते ही निद्रादेवी अंतर्ध्यान हो गई थीं.

                                                                ००००००

 

चित्रकूट में वसंत.

                प्रतिदिन की तरह सूरज ऊगा. सूर्योदय से पूर्व सभी उठ बैठे थे.नित्यक्रिया कर्म के बाद एक स्फ़टिक शिला पर विराजमान होकर रामजी वनों की शोभा को निहारते रहे. फ़िर उन्होंने अपनी भार्या सीता जी से कहा: -हे विदेह नन्दिनी ! देखो...देखो तो सही भोर के इस सुहाने मौसम को तो देखो...आकाश रंग-बिरंगे रंगों में नहा उठा है...तोतों, मोरों और जंगली पक्षियों के मिले-जुले स्वरों को सुनो...कितने प्रसन्न होकर सूर्यदेव के स्वागत में गीत गा रहे हैं. मंद-मंद शीतल बयार बह रही है. ऐसे सुहावना मौसम कितना सुखकर लग रहा है.

                सीते ! इस समय मदमादते वसंत ऋतु में सब ओर पलाश के पुष्पों की अरूण प्रभा के कारण वे चटक-चमकीले-से दीखते हैं. झरे हुए इन लाल-पीले पुष्पों से धरती पर कालीन-सी बिछ गई है. भिलावे और बेल के पेड़ों की डालियाँ अपने फ़ूलों के भार से झुकी हुईं, हवा के झोंकों में वे किस तरह लहरा रही हैं. चातक "पी कहाँ-पी कहाँ" की रट लगा रहा है.

                गिरिवर चित्रकूट पर्वत पर, जामुन, असन, लोध, प्रियाल, कटहल, धव, अंकोल, भव्य, तिनिश, बेल, तिन्दुक, बाँस, काश्मरी, नीम (अरि‍ष्ट), वरण, महुआ, तिलक, बेर, आँवला, कदम्ब, बेत, धन्वन (इंद्रजौ),      बीजक (अनार), आदि घनी छायावाले वृक्ष जो फ़ूलों और फ़लों से लदे होने के कारण कितने सुहावने और मनोरम प्रतीत होते हैं.

                देखो तो सही, पर्वत शिखर से कितने सारे झरने गिर रहे हैं. गुफ़ाओं से निकलती हुई वायु नाना प्रकार के पु‍ष्पों की गन्ध लेकर प्रवाहित हो रही है.

                मन्दाकिनी कलकल-छलछल के स्वर निनादित करती हुए मंथर गति से प्रवहमान हो रही है. हे सर्वांगसुन्दरी सीते ! जल के भीतर रहने वाले जीव-जंतु सहित असंख्य मछलियाँ को उछल-कूद करते हुए देखकर मुझे ऐसा प्रतीत होता है मानों वे तुम्हें जी भर के देखना चाहती हों ( मंद-मंद मुस्काते हुए केवल विनोद करने की मंशा को लेकर रामजी ने सीताजी से कहा था)

                हे प्रियतमे ! मन्दाकिनी में खिले कमल दलों को देखों..भ्रमरों के असंख्य दल इन फ़ूलों पर किस तरह आसक्त होकर गूंजन कर रहे हैं. खिले हुए कमलों की पंखुड़ियाँ, सांझ होते ही अपने आप बंद होने लगती है. पराग के लोभी ये भ्रमर, कभी-कभी उड़ना भूल कर इनमें कैद होकर रह जाते है

                फ़िर लक्ष्मण को इंगित करते हुए बतलाया:-लक्ष्मण ! देखो..देखों उस डाल पर मधुमक्खियों ने छत्ते लटक रहे हैं.  मेरे अनुमान के अनुसार एक-एक छत्ते में सोलह सेर मधु ( एक सेर लगभग 933 ग्राम के बराबर होता है). वृक्षों की डालियाँ अपने फ़लों के भार से झुक गई हैं. हम इनका सेवन करते हुए इस नंदन-काननमें आनन्द के साथ विचरण करते रहेंगे".

                हे लक्ष्मण ! मुझे जो बनवास प्राप्त हुआ है, इससे मुझे दो लाभ एक साथ मिल गए. पहला तो यह कि मुझे पिताश्री की आज्ञा का पालन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है और दूसरा यह कि मेरे अनुज भ्राता भरत को अयोध्यापति होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है”.

                फ़िर अपनी भार्या सीता जी से कहा. हे विदेहराजनन्दिनी ! देखो तो सही...पेड़ो ने नए पत्ते पहन लिए हैं. फ़ूलों पर रंग उतर आया है. वायु में मौसम का संगीत बज रहा है. यह ऋतु मन को रंगती हुए दसों दिशाओं मे झूम रही है. रंग का यह महोत्सव मन को नए संगीत और आशा के सराबोर कर रहा है. यही वे कारण है जिसके कारण मुझे यह पर्वत प्रिय लगने लगा है.

                हे सीते.....! मुझे तो ये यह मौसम किसी जादूगर से कम नहीं लगता....देखों न ! ...मधुप गुनगुना रहा है और फ़ूल न जाने कौन-सी कहानी कह रहा है.. शाखों ने गुलाबी दुकुल ओढ़ लिया है...कोयल का पंचम महक रहा है उनकी सांसों में.....धरती सुगंधों की सरगम गुननुना रही है...मलयानिल ने हौले से कलियों के कानों में न जाने क्या कह दिया कि वह फ़ूल बनकर खिलखिलाने लगी है.

                उन्होंने एक लचकती डाली से सुंदर.-सुगंधित पुष्प को तोड़ कर कहा..."सीते......ये फ़ूल वसंत का सपना है...वसंत का प्रतिफ़ल है...सुगन्धित प्रतिक्रिया है....ये फ़ूल गंध की अनंत यात्रा है...आओ...इस वसंत को हम जी भर के जी लें ...सांसों में आकंठ पी लें...ये जीवन फ़ूल बने...सुगंध बने"..ऐसा कहते हुए रामजी ने उस पुष्प को सीताजी के जुड़े में लगा दिया.

                उन्होंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा.-हे सीते ! वसंत ऋतु में न तो ज्यादा सर्दी की तरह बहुत ठंडा रहता है और न ही गर्मी की तरह बहुत गर्म. रात में मौसम और भी सुहावना और आरामदायक हो जाता है.. इस ऋतु के आते ही प्रकृति में सब कुछ जाग्रत कर देती है. पेड़, पौधे, घास-फ़ूल फ़सलें सहित अन्य जीवों को जैसे लंबी नींद से जगा देती है. पेड़ों पर नई पत्तियाँ और शाखाएँ निकल आती हैं और फ़ूल तरोताजा और रंगीन हो जाते हैं.

                फ़ूलों के खिलने के इस मौसम में मधुमक्खियाँ फ़ूलों के आस-पास मंडराने लगती हैं और फ़ूलों से मकरंद चुराकर शहद बनाती है. फ़लों का राजा आम जैसे बौरा उठा है. कोयल इसकी घनी शाखाओं पर बैठकर पीहू....पीहू के गीत गा रही है”.

                फ़िर लक्ष्मण को इंगित करते हुए कहने लगे- हे लक्ष्मण  ! वसंत ऋतु का मौसम सभी मौसमों का राजा होता है. वसंत ऋतु के दौरान प्रकृति अपने सबसे सुन्दरतम रुप में प्रकट होती है और हमारे हृदय को आनंद से भरदेती है. सभी वृक्ष और लताएँ नवीन पल्ल्वों और पुष्पों से सजकर झूम रही है. प्रकृति को नया जीवन मिलता है और वह नई उमंग व सजधज के साथ अपनी शोभा बिखेरने लगती है.

                खेतों में सरसों की पीली मखमली चादर बिछ गई है. आम के पेड़ मंजरी के बोझ से झुक पड़ते हैं. और हवा के झोंकों में झूम उठते हैं. वायु में सुगंध बिखर जाती है. फूलों से अटखेलियां करते भंवरे, मधु पीकर मधुर गुंजार करने लगे हैं. तथा रंग-बिरंगी तितलियों से उड़ते हुए झुंड, सभी के मन को मोह लेते हैं. प्रकृति के मोहक रूप को देखकर मनुष्य का मन भी प्रफुल्लित हो उठता है. कोयल की कूक मानव मन को संगीत लहरी से भर देती है. इस प्रकार वसंत ऋतु में संपूर्ण प्रकृति मानव जगत नई सुंदरता उमंग उल्लास और आनंद से भर जाता है वसंतोत्सव......मनुष्य अपने हृदय के उल्लास को विविध प्रकार से प्रकट करता है. वासंती कपड़े पहन कर स्त्रियाँ वसंत का स्वागत करती हैं.  होली भी वसंत का उत्सव है जब पके हुए अन्न के दाने अग्नि को समर्पित करके बसंत का स्वागत किया जाता है. बसंत के सौन्दर्य में डूबे मानव मन मयूर-सा नाच उठता हैं.

                वसंत ऋतु में तापमान में नमी आ जाती है और सभी जगह हरे-भरे पेड़ों और फूलों के कारण चारों तरफ हरियाली और रंगीन दिखाई देता है”.

                लक्ष्मण के बाद सीताजी को सम्बोधित करते हुए कहने लगे.:-सीते ! कोयल पक्षी गाना गाना शुरु कर देती है.  प्रकृति में सभी जगह फूलों की खूशबू और प्रेमाख्यान से भरी हुई होती हैं,, क्योंकि इस मौसम में फूल खिलना शुरु कर देते हैं,.  आसमान पर बादल छाए रहते हैं और कलकल-छलछल के स्वर निनादित करती हुई अल्हड़ नदियाँ, उछल-कूद करती हुई बहती हैं. हम कह सकते हैं कि  प्रकृति आनंद के साथ घोषणा करती है कि वसंत आ गया है.

                इस मौसम की सुन्दरता और चारों ओर की खुशियाँ, मस्तिष्क को कलात्मक बनाती है और आत्मविश्वास के साथ नए कार्य शुरु करने के लिए शरीर को ऊर्जा देती है. सुबह में चिड़ियों की आवाज और रात में चाँद की चाँदनी,  दोनों ही बहुत सुहावने,  ठंडे और शान्त हो जाते हैं. आसमान बिल्कुल साफ दिखता है और हवा बहुत ही ठंडी और तरोताजा करने वाली होती है. यह किसानों के लिए बहुत महत्वपूर्ण मौसम होता है, क्योंकि उनकी फसलें खेतों में पकने लगती हैं और यह समय उन्हें काटने का होता है. सभी आनंद और खुशियों को महसूस करते हैं क्योंकि, यह मौसम त्योहारों का मौसम है”.

                जब वसंत आता है, तो इस ऋतु में प्रकृति की सुंदरता देखते ही बनती है .पेड़ों पर नए पत्ते उग आते हैं और ऐसा लगता है मानो प्रकृति ने हरियाली एंव खूबसूरत फूलों की चादर ओढ़ कर अपना श्रृंगार किया हो. इस सुहावने मौसम में जीवन का आनंद दोगुना हो जाता है. हर तरफ नए फूलों की सुगंध वातावरण को मनमोहक बना देती है. आमों के पेड़ों की सुगंध की मादकता का तो कहना ही क्या. कोयल की कूक भी इस मौसम की एक खास विशेषता है .सरसों के पीले फूल एवं महुए की मादक गंध मिलकर पवित्रता एंव मादकता का अनोखा संगम प्रस्तुत करते हैं .सरसों के पीले फूल जहाँ प्रकृति के स्वर्णमयी होने का आभास कराते हैं,  वही महुए एवं आम्रमंजरी की मादक गंध से प्रकृति बौराई हुई सी नजर आती है .यह स्थिति मन को मोहने के लिए पर्याप्त होती है

                संत की इन्हीं विशेषताओं के कारण इसे ऋतुओं का राजा कहा जाता है .वसंतमें प्रकृति के मनोहारी हो जाने के कारण इसे प्रकृति के उत्सव की संज्ञा भी दी गई है .इस ऋतु में प्रकृति की सुषमा अपने चरम पर होती है, जिस तरह जीवन में यौवन काल को आनंद का काल कहा जाता है, उसी तरह वसंत ऋतु को भी आनंददायी होने के कारण प्रकृति का यौवन काल कहा जाता है .वसंतऋतु में चारों ओर आनंद ही आनंद फैला नजर आता है .लहलहाती फसलों को देखकर किसानों का मन हर्षित हो जाता है. आने वाले समय में सुख एंव सफलता की उम्मीद, उनके लिए वसंत एक संदेश लेकर आता है.

                वसंत ‍ऋतु की सुंदरतम व्याख्या करने के बाद, कमलनयन श्रीराम ने चन्द्रमा के समान मनोहर मुख तथा सुन्दर कटिप्रदेशवाली विदेहराजनान्दिनी सीताजी से कहा:-हे विदेहकुमारी ! मेरे प्रपितामह मनु सहित अनेक राजर्षियों ने नियमपूर्वक किए गए वनवास-काल को अमृत तुल्य बतलाया है. मैं अपने उत्तम नियमों का पालन करते हुए, सन्मार्ग में स्थित रहकर, तुम्हारे और भ्राता लक्ष्मण के साथ, इस पावन और पवित्र स्थल पर कुछ काल तक सानन्द से व्यतीत करते हुए अलौकिक सुखों को प्राप्त करूँगा”.          

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