Saturday 29 September 2012

पातालकोट-धरती पर एक अनोखा अजूबा


                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                पातालकोट-धरती पर एक अजूबा                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                          गगनचुंबी इमारतें, सडकों पर फ़र्राटे भरती रंग-बिरंगी-चमचमाती लक्जरी कारें,मोटरगाडियां और न जाने कितने ही कल-कारखाने, पलक झपकते ही आसमान में उड जाने वाले वायुयान, समुद्र की गहराइयों में तैरतीं पनडुब्बियाँ, बडॆ-बडॆ स्टीमर,-जहाज आदि को देख कर आपके मन में तनिक भी कौतुहल नहीं होता. होना भी नहीं चाहिए,क्योंकि आप उन्हें रोज देख रहे  होते हैं,उनमे सफ़र कर रहे होते  हैं. यदि आपसे यह कहा जाय कि इस धरती ने नीचे भी यदि कोई मानव बस्ती हो,जहाँ के आदिवासीजन हजारों-हजार साल से  अपनी आदिम संस्कृति और रीति-रिवाज को लेकर जी रह रहे हों, जहाँ चारों ओर बीहड जंगल हों, जहाँ आवागमन के कोई साधन न हो, जहाँ विषैले जीव जन्तु, हिंसक पशु खुले रुप में विचरण कर रहे हों, जहाँ दोपहर होने पर ही सूरज की किरणें अन्दर झांक पाती हो, जहाँ हमेशा धुंध सी छाई रहती हो, चरती भैंसॊं को देखने पर ऐसा प्रतीत है,जैसे कोई काला सा धब्बा चलता-फ़िरता दिखलाई देता हो, सच मानिए ऐसी जगह पर मानव-बस्ती का होना एक गहरा आश्चर्य पैदा करता है.
                                                जी हाँ, भारत का हृदय कहलाने वाले मध्यप्रदेश के छिन्दवाडा जिले से 62 किमी. तथा तामिया विकास खंड से महज 23 किमी.की दूरी पर स्थित पातालकोट को देखकर ऊपर लिखी सारी बातें देखी जा सकती है. समुद्र् सतह से 3250 फ़ीट ऊँचाई पर तथा भूतल से 1200 से 1500 फ़ीट गराई में यह कोट यानि पातालकोट स्थित है.                                                                                   
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हमारे पुरा आख्यानों में पातालकोट का जिक्र बार-बार आया है.पाताल कहते ही हमारे मानस-पटल पर ,एक दृष्य तेजी से उभरता है. लंका नरेश रावण का एक भाई,जिसे अहिरावण के नाम से जाना जाता था, के बारे में पढ चुके हैं कि वह पाताल में रहता था. राम-रावण युद्ध के समय उसने राम और लक्ष्मण को सोता हुआ उठाकर पाताललोक ले गया था,और उनकी बलि चढाना चाहता था,ताकि युद्ध हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाए. इस बात का पता जैसे ही वीर हनुमान को लगता है वे पाताललोक जा पहुँचते हैं. दोनों के बीच भयंकर युद्ध होता है,और अहिरावण मारा जाता है.उसके मारे जाने पर हनुमान उन्हें पुनः युद्धभूमि पर ले आते हैं.         
                                पाताल अर्थात अनन्त गहराई वाला स्थान. वैसे तो हमारे धरती के नीचे सात तलॊं की कल्पना की गई है-अतल, वितल, सतल, रसातल, तलातल, महातल,तथा महातल के नीचे पाताल.. शब्दकोष में कोट के भी कई अर्थ मिलते हैं=जैसे-दुर्ग, गढ, प्राचीर, रंगमहल और अंग्रेजी ढंग का एक लिबास जिसे हम कोट कहते है. यहाँ कोट का अर्थ है-चट्टानी दीवारें, दीवारे भी इतनी ऊँछी,की आदमी का दर्प चूर-चूर हो जाए. कोट का एक अर्थ होता है-कनात. यदि आप पहाडी की तलहटी में खडॆ हैं,तो लगता है जैसे कनातों से घिर गए हैं. कनात की मुंडॆर पर उगे पॆड-पौधे, हवा मे हिचकोले खाती डालियाँ,,हाथ हिला-हिला कर कहती हैं कि हम कितने ऊपर है. यह कनात कहीं-कहीं एक हजार दो सौ फ़ीट, कहीं एक हजार सात सौ पचास फ़ीट, तो कहीं खाइयों के अंतःस्थल से तीन हजार सात सौ फ़ीट ऊँची है. उत्तर-पूर्व में बहती नदी की ओर यह कनाट नीची होती  चली जाती है. कभी-कभी तो यह गाय के खुर की आकृति में दिखाई देती है.                                            पातालकोट का अंतःक्षेत्र शिखरों और वादियों से आवृत है. पातालकोट में, प्रकृति के इन उपादानों ने, इसे अद्वितीय बना दिया है. दक्षिण में पर्वतीय शिखर इतने ऊँचे होते चले गए हैं कि इनकी ऊँचाई उत्तर-पश्चिम में फ़ैलकर इसकी सीमा बन जाती है. दूसरी ओर घाटियाँ इतनी नीची होती चली गई है कि उसमें झांककर देखना मुश्किल होता है. यहाँ का अद्भुत नजारा देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो शिखरों और वादियों के बीच होड सी लग गई हो. कौन कितने  गौरव के साथ ऊँचा हो जाता है और कौन कितनी विनम्रता के साथ झुकता चला जाता है. इस बात के साक्षी हैं यहाँ पर ऊगे पेड-पौधे,जो तलहटियों के गर्भ से, शिखरों की फ़ुनगियों तक बिना किसी भेदभाव के फ़ैले हुए हैं.
                                पातालकोट की झुकी हुई चट्टानों से निरन्तर पानी का रिसाव होता रहता है. यह पानी रिसता हुआ ऊँचें-ऊँचे आम के वृक्षॊं के माथे पर टपकता है और फ़िर छितरते हुए बूंदॊं के रुप में खोह के आँगन में गिरता रहता है. बारहमासी बरसात में भींगकर तन और मन पुलकित हो उठते है.                                        


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                अपने इष्ट, देवों के देव महादेव, इनके आराध्य देव हैं. इनके अलावा और भी कई देव हैं जैसे-मढुआदेव,हरदुललाला, पनघर, ग्रामदेवी, खेडापति, भैंसासर, चंडीमाई, खेडामाई, घुरलापाट, भीमसेनी, जोगनी, बाघदेवी, मेठोदेवी आदि को पूजते हुए अपनी आस्था की लौ जलाए रहते हैं, वहीं अपनी आदिम संस्कृति, परम्पराओं ,रीति-रिवाजों, तीज-त्योहारों मे गहरी आस्था लिए शान से अपना जीवन यापन करते हैं. ऐसा नहीं है कि यहां अभाव नहीं है. अभाव ही अभाव है,लेकिन वे अपना रोना लेकर किसी के पास नहीं जाते और न ही किसी से शिकवा-शिकायत ही करते हैं. बित्ते भर पेट के गढ्ढे को भरने के लिए वनोपज ही इनका मुख्य आधार होता है. पारंपरिक खेती कर ये कोदो- कुटकी, -बाजरा उगा लेते हैं. महुआ इनका प्रिय भोजन है .महुआ के सीजन में ये उसे बीनकर सुखाकर रख लेते हैं और इसकी बनी रोटी बडॆ चाव से खाते हैं. महुआ से बनी शराब इन्हें जंगल में टिके रहने का जज्बा बनाए रखती है. यदि बिमार पड गए तो तो भुमका-पडिहार ही इनका डाक्टर होता है. यादि कोई बाहरी बाधा है तो गंडा-ताबीज बांध कर इलाज हो जाता है. शहरी चकाचौंध से कोसों दूर आज भी वे सादगी के साथ जीवन यापन करते हैं. कमर के इर्द-गिर्द कपडा लपेटे, सिर पर फ़डिया बांधे, हाथ में कुल्हाडी अथवा दराती लिए. होठॊ पर मंद-मंद मुस्कान ओढे ये आज भी देखे जा सकते हैं.  विकास के नाम पर करोडॊ-अरबॊं का खर्चा किया गया, वह रकम कहां से आकर , चली जाती है, इन्हें पता नहीं चलता और न ही ये किसी के पास शिकायत-शिकवा लेकर नहीं जाते. विकास के नाम पर केवल कोट में उतरने के लिए सीढियां बना दी गयी है,लेकिन आज भी ये इसका उपयोग न करते हुए अपने बने –बनाए रास्तों-पगडंडियों पर चलते नजर आते हैं. सीढियों पर चलते हुए आप थोडी दूर ही जा पाएंगे,लेकिन ये अपने तरीके से चलते हुए सैकडॊं फ़ीट नीचे उतर जाते हैं.  हाट-बाजार के दिन ही ये ऊपर आते हैं  और इकाठ्ठा किया गया वनोपज बेचकर, मिट्टी का तेल तथा नमक आदि लेना नहीं भूलते. जो चीजें जंगल में पैदा नहीं होती, यही उनकी न्यूनतम आवश्यकता है.                                                                                     एक खोज के अनुसार पातालकोट की तलहटी में करीब 20 गाँव सांस लेते थे, लेकिन प्राकृतिक प्रकोप के चलते वर्तमान समय में अब केवल 12 गाँव ही शेष बचे हैं. एक गाँव में 4-5 अथवा सात-आठ से ज्यादा घर नहीं होते. जिन बारह गांव में ये रहते हैं, उनके नाम इस प्रकार है-रातेड, चमटीपुर, गुंजाडोंगरी, सहरा, पचगोल, हरकिछार, सूखाभांड, घुरनीमालनी, झिरनपलानी, गैलडुब्बा, घटलिंग, गुढीछातरी तथा घाना. सभी गांव के नाम संस्कृति से जुडॆ-बसे हैं. भारियाओं के शब्दकोष में इनके अर्थ धरातलीय संरचना, सामाजिक प्रतिष्ठा, उत्पादन विशिष्टता इत्यादि को अपनी संपूर्णता में समेटे हुए है.
                ये आदिवासीजन अपने रहने के लिए मिट्टी तथा घास-फ़ूस की झोपडियां बनाते है. दिवारों पर खडिया तथा गेरू से पतीक चिन्ह उकेरे जाते हैं .हँसिया-कुल्हाडी तथा लाठी इनके पारंपरिक औजार है. ये मिट्टी के बर्तनों का ही उपयोग करते हैं. ये अपनी धरती को माँ का दर्जा देते हैं. अतः उसके सीने में हल नहीं चलाते. बीजों को छिडककर ही फ़सल उगाई जाती है.. वनोपज ही उनके जीवन का मुख्य आधार होता है.                                                                                                                                                                                                                                                                                                                        पातालकोय़ में उतरने के और चढने के लिए कई रास्ते हैं. रातेड-चिमटीपुर और कारेआम के रास्ते ठीक हैं. रातेड का मार्ग सबसे सरलतम मार्ग है, जहाँ आसानी से पहुँचा जा सकता है. फ़िर भी संभलकर चलना होता है. जरा-सी भी लापरवाही किसी बडी दुर्घटना को आमंत्रित कर सकती है.            
                पातालकोट के दर्शनीय स्थलों में ,रातेड, कारेआम, चिमटीपुर, दूधी तथा गायनी नदी  का उद्गम स्थल और राजाखोह प्रमुख है. आम के झुरमुट, पर्यटकॊं का मन मोह लेती है. आम के झुरमुट में शोर मचाता- कलकल के स्वर निनादित कर बहता सुन्दर सा झरना, कारेआम का खास आकर्षण है. रातेड के ऊपरी हिस्से से कारेआम को देखने पर यह ऊँट की कूबड सा दिखाई देता है. राजाखोह पातालकोट का सबसे आकर्षक और दर्शनीय स्थल है. विशाल कटॊरे मे मानिंद ,एक विशाल चट्टान के नीचे 100 फ़ीट लंबी तथा 25 फ़ीट चौडी कोत(गुफ़ा) में कम से कम दो सौ लोग आराम से बैठ सकते हैं. विशाल कोटरनुमा चट्टान, बडॆ-बडॆ गगनचुंबी आम-बरगद के पेडॊं, जंगली लताओं तथा जडी-बूटियों से यह ढंकी हुई है. कल-कल के स्वर निनादित कर बहते झरनें, गायनी नदी का बहता निर्मल ,शीतल जल, पक्षियों की चहचाहट, हर्रा-बेहडा-आँवला, आचार-ककई एवं छायादार तथा फ़लदार वृक्षॊं की सघनता, धुंध और हरतिमा के बीच धूप-छाँव की आँख मिचौनी, राजाखोह की सुंदरता में चार चाँद लगा देता है. और उसे एक पर्यटन स्थल विशेष का दर्जा दिलाता हैं. नागपुर के राजा रघुजी ने अँगरेजों की दमनकारी नीतियों से तंग आकर मोर्चा खोल दिया था, लेकिन विपरीत परिस्थितियाँ देखकर उन्होंने इस गुफ़ा को अपनी शरण-स्थली बनाया था, तभी से इस खोह का नाम राजाखोह पडा. राजाखोह के समीप गायनी नदी अपने पूरे वेग के साथ चट्टानों कॊ काटती हुई बहती है. नदी के शीतल तथा निर्मल जल में स्नान कर व तैरकर सैलानी अपनी थकन भूल जाते हैं.                                                                                                               पातालकोट का जलप्रवाह उत्तर से पूर्व की ओर चलता है. पतालकोट की जीवन-रेखा दूधी नदी है, जो रातेड नामक गाँच के दक्षिणी पहाडॊं से निकलकर घाटी में बहती हुई उत्तर दिशा की ओर प्रवाहित होती हुई पुनः पूर्व की ओर मुड जाती है. तहसील की सीमा से सटकर कुछ दूर तक बहने के , पुनः उत्तर की ओर बहने लगती है और अंत में नरसिंहपुर जिले में नर्मदा नदी में मिल जाती है.
                                पातालकोट का आदिम- सौंदर्य जो भी एक बार देख लेता है, वह उसे जीवन पर्यंत नहीं भूल सकता. पातालकोट में रहने वाली जनजाति की मानवीय धडकनों का अपना एक अद्भुत संसार है,जो उनकी आदिम परंपराओं, संस्कृति,रीति-रिवाज, खान-पान, नृत्य-संगीत, सामान्यजनों के क्रियाकलापॊं से मेल नहीं खाते. आज भी वे उसी निश्छलता,सरलता तथा सादगी में जी रहे हैं.
                                यहाँ प्राकृतिक दृष्यों की भरमार है.यहाँ की मिट्टी में एक जादुई खुशबू है, पेड-पौधों के अपने निराले अंदाज है, नदी-नालों में निर्बाध उमंग है, पशु-पक्षियों मे निर्द्वंद्वता है ,खेत- खलिहानों मे श्रम का संगीत है, चारो तरफ़ सुगंध ही सुगंध है, ऐसे मनभावन वातावरण में दुःख भला कहाँ सालता है?. कठिन से कठिन परिस्थितियाँ भी यहाँ आकर नतमस्तक हो जाती है                                       सूरज के प्रकाश में नहाता-पुनर्नवा होता- खिलखिलाता-मुस्कुराता- खुशी से झूमता- हवा के संग हिचकोले खाता- जंगली जानवरों की गर्जना में कांपता- कभी अनमना तो कभी झूमकर नाचता जंगल,  खूबसूरत पेड-पौधे, रंग-बिरंगे फ़ूलों से लदी-फ़दी डालियाँ, शीतलता और ,मंद हास बिखेरते, कलकल के गीत सुनाते, आकर्षित झरने, नदी का किसी रुपसी की तरह इठलाकर- बल खाकर, मचलकर चलना देखकर भला कौन मोहित नहीं होगा ?. जैसे –जैसे सांझ गहराने लगती है,और अन्धकार अपने पैर फ़ैलाने लगता है, तब अन्धकार में डूबे वृक्ष किसी दैत्य की तरह नजर आने लगते है और वह अपने जंगलीपन पर उतर आते हैं. हिंसक पशु-पक्षी अप्नी-अपनी मांद से निकल पडते हैं, अपने शिकार की तलाश में. सूरज की रौशनी में, कभी नीले तो कभी काले कलूटे दिखने वाले, अनोखी छटा बिखेरते पहाडॊं की श्रृंखला, किसी विशालकाय राक्षस से कम दिखलाई नहीं पडते. खूबसूरत जंगल ,जो अब से ठीक पहले,  हमे अपने सम्मोहन में समेट रहा होता था, अब डरावना दिखलायी देने लगता है. एक अज्ञातभय, मन के किसी कोने में आकर सिमट जाता है. इस बदलते परिवेश में पर्यटक, वहाँ रात गुजारने की बजाय ,अपनी-अपनी होटलों में आकर दुबकने लगता है, जबकि जंगल में रहने वाली जनजाति के लोग, बेखौफ़ अपनी झोपडियों में रात काटते हैं. वे अपने जंगल का, जंगली जानवरों का साथ छॊडकर नही भागते. जंगल से बाहर निकलने की वह सपने में भी सोच नहीं बना पाते. जीना यहाँ-मरना यहाँ की तर्ज पर ये जनजातियां बडॆ सुकून के साथ अलमस्त होकर अपने जंगल से खूबसूरत रिश्ते की डोर से बंधे रहते हैं.
                                अपनी माटी के प्रति अनन्य लगाव, और उनके अटूट प्रेम को देखकर एक सूक्ति याद हो आती है. जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिगरियसी= जननी और जन्म भूमि स्वर्ग से भी महान होती है को फ़लितार्थ और चरितार्थ होते हुए यहाँ देखा जा सकता है. यदि इस अर्थ की गहराइयों तक अगर कोई पहुँच पाया है, तो वह यहाँ का वह आदिवासी है, जिसे हम केवल जंगली कहकर इतिश्री कर लेते है. लेकिन सच माने में वह :धरतीपुत्र है,जो आज भी उपेक्षित है.                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                

लघुकथा---आग


                                        आग
        सेठ हरकमल के आलीशान बंगले के पीछे करीब चार-पांच एकड का रकबा है,जिसका मालिक मंगलु अपनी पत्नि तथा तीन छोटॆ-छोटॆ बच्चों के साथ मुफ़लिसी के साथ गुजर-बसर कर रहा है.
        सेठजी जब भी अपनी छत पर खडॆ होकर उधर देखते हैं तो तन-बदन में आग सी लग जाती है. उन्होंने कई बार मंगलु को अपने कारिन्दों के मार्फ़त खबर भिजवायी कि वह जमीन बेच दे, अच्छी खासी रकम उसे दे दी जाएगी,लेकिन वह टस से मस नहीं होता ,और कहता है कि बाप-दादाओं की एक ही तो निशानी है उसके पास, और वह किसी भी कीमत में उसे नहीं बेचेगा.                                  एक दिन वे अपनी छत पर खडॆ होकर प्रकृति का नजारा देख रहे थे. मंगलु के खेत में गेहूं की फ़सल लहलहा रही थी. गेहूं की कटाई का समय भी हो चला था. उन्होंने अनुमान लगाया कि दो-चार दिन में कटाई शुरु की जा सकती है. वे भारी मन से नीचे उतर आए और उन्होंने अपने विश्वसनीय रामसिंग को बुला भेजा, आवश्यक निर्देश दिए और अपनी गाडी निकालकर दूसरे गांव चले गए. यह सब एक विशेष-प्लान के अंतर्गत हो रहा था.
        रात के गहराते ही उसके खेत और मकान में आग लग गई. आग की भीषण लपटॊं में से वह किसी तरह अपने बच्चों और बीवी को बाहर निकालते हुए आसपास के लोगों को मदद के लिए गुहार लगाता रहा,लेकिन कोई भी उसकी मदद को नहीं आया. चंद मिनटॊं में सब कुछ आग के हवाले चढ चुका था.
        दूसरे दिन उसने थाने में जाकर रपट लिखवाया. थानेदार ने कई प्रशन पूछे लेकिन वह जबाब नही दे पाया कि आग किस तरह लगी. उसने पूछा कि उसे किसी पर शक है,इसका भी वह कोई जबाब नहीं दे पाया. जानता था कि बिना पक्के सबूत के किसी का भी नाम लेना उसे और आफ़त में डाल सकता है.
        बच्चे भूख से चिल्ल-पों मचा रहे थे. कुछ मदद मिल जाएगी,इसी आशा में वह सेठजी के यहां जा पहुँचा. पता चला कि सेठजी तो घर पर नहीं है,लेकिन रामसिंग ने सहानुभूति जतलाते हुए उसे आटा और आवश्यक चीजें दी,ताकि वह चार जून अपने बच्चॊं का तथा खुद का पॆट भर सके.  
        मंगलु ने अब अपना अस्थायी ठिकाना एक आम के पेड के नीचे बना रखा था.शहर जा कर बनी-मजुरी करता और कुछ पैसे कमा कर अपने परिवार का भरण-पोषण करता.
        एक दिन रामसिंग ने उसे बुला भेजा और कहा कि वह उसके साथ जोर-जबरदस्ती नहीं कर रहा है, पर इंसानियत के चलते उसे एक सुझाव देना चाहता है. उसने मंगलू को समझाया कि सेठजी अभी बाहर गए हुए हैं और पता नहीं कब आते हैं. फ़िर भी मैं  तुम्हारे लिए एक काम करवा सकता हूँ. यदि उसकी माने तो वह सेठजी से कहकर एक नया मकान और उनके यहां नौकर दिलवा सकता हूँ.                  मरता क्या नहीं करता. उसे सुझाव पसंद आया और उसने हामी भर दी.
        दो दिन बाद सेठजी का वापिस आना हुआ. मंगलू को खबर दी गई.उसने रामसिंग के साथ जाकर सीमेन्ट-कांक्रीट का बना पक्का मकान देखा और सोचने लगा वह अपने जिंदा रहते तो ऐसा मकान बनाने का सपना भी नहीं देख सकता. सेठजी की कृपा से उसे मकान और नौकरी दोनो मिल रहे है, और वह भी बिना बोले, तो हां कहने में क्या आपत्ति हो सकती थी.                                           सेठजी ने कुछ कागजों पर मंगलू का अंगूठा लगवाया. लोगों की गवाही ली और मकान के कागजाद उसे सौंपते हुए कहा: मंगलू, अब भविष्य में चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है.अब तेरा दुख मेरा अपना दुख होगा.                                                        सेठजी अब जब भी अपनी छत पर चढते हैं, मन गदगद हो जाता है यह देखकर कि उन्का पुराना सपना अब साकार हुआ है.                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                          गोवर्धन यादवहिन्दवाडा)

Friday 28 September 2012

पहचान--करनी और कथनी तथा कौआ और लोमडी ( तीन लघुकथाएं)

लघुकथाएँ
पहचान
दो युवकों के बीच गहरी मित्रता थी. एक के पास बेशुमार दौलत थी, जबकि दूसरा फ़टेहाल था. बावजूद इसके दोनों के बीच कभी मन मुटाव नहीं हुआ.
वह युवक गरीब जरुर था लेकिन काफ़ी विद्वान था. जब वह भाषण देने के लिये खड़ा होता, तो श्रोता मंत्र -मुग्ध होकर उसे सुनते थे ,जब वह मंच पर होता तो फ़टी कमीज-पायजामा ही पहना होता. उसके धनी मित्र को यह बात बहुत अखरती कि उसका मित्र इतनी प्रखर बुध्दि का धनी मालिक है,लेकिन फ़टे कपड़े में उसका उतना प्रभाव नहीं पड़ता. यदि वह मंच पर शानदार कपड़ों के साथ हो तो और भी प्रभावशाली लगेगा.
एक दिन वह गरीब मित्र जब उस धनी व्यक्ति के घर पर बैठा था तो उस धनी मित्र ने सलाह देते हुये कहा:-मित्र तुम बुरा न मानो तो एक बात कहूँ. उसने मुस्कु्राते हुये कहा" कभी ऐसा हुआ है जो आज होगा .बोलो तुम क्या कहना चाहते हो .तुम जो कहोगे मैं वैसा ही करुँगा.
धनी मित्र ने कहा" तुम जब भाषण देने जाते हो,तब मेरे कपडे पहनकर जाया करो.( आलमारी खोलते हुये) देखो..यहाँ कपडों का अंबार लगा है. जो भी ड्रेस तुम पहनना चाहो शौक से पहन सकते हो.
जब भी,जहाँ भी भाषण देने उसे जाना होता,वह अपने मित्र के कपडे पहन कर जाता. उसका धनी मित्र भी उसके साथ होता.
अपने धनी मित्र के कपडे पहनकर वह मंच पर भाषण दे रहा था तो हीरे जैसा दमक रहा था. उसका धनी मित्र उसे देखकर खुश हो रहा था. उसने अपने बाजू में बैठे हुये आदमी से कहा;" मंच पर जो सुन रहे थे. किसी ने भी नहीं पूछा की उसके बदन पर जो अभी-अभी कपडे पहन रखे थे ,वे कहाँ गये
अपना भाषण समाप्त कर वह जैसे ही मंच से नीचे उतरा ,लोगों ने उसे घेर लिया और उसे बधाइयों पर बधाइयां देने लगे. .आज वह पहले से ज्यादा आत्मविश्वास से भरा हुआ था. उसकी प्रसन्न्ता देखने लायक थी.
उसका धनी मित्र अपनी सीट पर बैठा ,यह सब देख रहा था. वह चाह कर भी अपने मित्र को बधाई देने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. भाषण समाप्त कर वह जैसे ही मंच से नीचे उतरा ,लोगों ने उसे घेर लिया और उसे बधाइयों पर बधाइयाँ देने लगे.. उसने कई बार सोचा की चल कर उसे बधाइयाँ देनी चाहिये ,लेकिन उसके पैर ,जैसे जमीन से चिपक से गये थे.
हाथी की सी मस्त चाल से झुमता- मुस्कुराता वह अपने मित्र की ओर बढा चला आ रहा था.
 
करनी और कथनी
सावित्री पढी-लिखी युवती है. पढ़ने में जितनी निपुण, उतनी ही खूबसूरत. एम.ए. करते ही उसकी शादी ,एक बड़े रईस परिवार में हो गयी. घर में नौकर-चाकरों की भीड़ लगी हुए है. अतः उसके लिए करने को कोई काम न बचता था. वह चाहती थी कि उसे भी कोई जाब कर लेना चाहिए, लेकिन अपने मन की बात वह अपने पति से कह नहीं पायी. उसने सोचा जब इनका अच्छा मूड होगा, उस दिन वह अपने मन की बात कह देगी. समय बीतता रहा, लेकिन उसके मन की बात, मन में ही धरी रह गयी. एक दिन दो मित्र बैठे बात कर रहे थे और वह उनके लिए चाय बना रही थी. दोनों के बीच नारी की स्वतंत्रता को लेकर गर्मा-गरम बहस चल रही थी. उसके पति ने अपने मित्र के सामने शेखी बघारते हुए कहा कि वह नारी की स्वतंत्रता का पक्षधर है. उसका यह भी मत था कि पढी-लिखी युवतियों को दिन भर खाली बैठे रहने के अपेक्षा कुछ करना चाहिए. उसने सोचा कि अब वह समय आ गया है, जब उसे अपने मन की बात कह देना चाहिए, लेकिन उनके मित्र के सामने कहना उचित नहीं लगा. शाम को उसने अपने मन की बात उजागर करते हुए उसने कहा:-विद्यानिकेतन की प्राचार्या उसकी जान पहचान की हैं, एक मुलाकात में उन्होंने मुझसे कहा था कि खाली बैठे रहने के अपेक्षा मुझे कोई जाब कर लेना चाहिए. यदि तुम्हारा मूड बच्चों को पढ़ाने का हो तो मुझे बतला देना. यदि आप अनुमति दें तो मैं उनसे कहकर अपनी ज्वाइनिंग दे दूँ. बात सुनते ही वह भड़क उठा था:-“क्या बकती हो तुम? दुबारा ऐसी-वैसी बात करने की सोचना भी मत. हमारे जैसे ऊँचे खानदान की औरतें बेपरदा होकर बाहर नहीं निकलती, नौकरी करना तो दूर की बात है. फ़िर ईश्वर की दया से हमारे पास क्या कमी है, आराम से इसी चारदीवारी के बीच रहो. अपने पति के मुख से ऐसी बात सुनकर उसका मन बुझ सा गया था. वह सोचने लगी थी कि सारे मर्द बातें तो खूब करते हैं ”नारी स्वतंत्रता” की,लेकिन जब उसे निभाने का मौका आते है, तो अपने पैर पीछे खींच लेते हैं. कथनी और करनी में क्या फ़र्क होता है, वह जान गई थी.
 
कौआ और लोमड़ी
कौवे के लिए आज का दिन बड़ा भाग्यशाली रहा. रोज सूखी रोटी पर काम चलाना पड़ता था,आज उसे घी चुपड़ी रोटी खाने जो मिल रही थी. रोटी का टुकड़ा चोंच मे दबाते हुए उसने बड़ी शान के साथ हवा के बलखाते-तो कभी डाई मारते हुए लगाया और फ़िर एक डाल पर बैठ कर रसास्वादन करने लगा. पिछले कई जनम की बैरन लोमड़ी सब देख रही थी और मन ही मन सोच रही थी कि यदि आज वह काले-कलूटे कौवे को बेवकूफ़ बनाने में सफ़ल हो जाती है तो घी लगी रोटी उसके मुंह में होगी. पिछली घटना वह अब तक भूल नहीं पायी थी,जब उसने कौवे को गाना गाने को कहा था और उसने अपने आपको तानसेन की औलाद मानते हुए अपना मुंह खोला दिया था और रोटी उसमें कब्जे में आ गयी थी.
इस बार उसने पैंतरा बदलते हुए कौवे को गालियां देना शुरु कर दिया- साला काला कलूटा कौआ, न जाने अपने आपको क्या समझता है/ तू तो शरीर से ही नहीं, मन से भी काला है,तू चाहे जितनी साबुन लगा कर नहा ले, फ़िर भी काला की काला ही रहेगा..और भी न जाने क्या-क्या वह बकती रही और कौआ अपनी रोटी खाने में मगन रहा. वह जानता था कि मुंह खोला और गए काम से.
पूरी रोटी पेट में उतार चुकने के बाद उसने लोमड़ी से कहा:-देख, पूंछ कटी लोमड़ी...मैं उतना मूर्ख नहीं हूं,जितना तू मुझे समझती है. मैं एक बार बेवकूफ़ क्या बन गया..तू हमेशा उसी तर्ज पर मुझे मूर्ख बनाने की कोशिश मत कर. मैं किसी भी प्रकार से तेरे झांसे में अब आने वाला नहीं हूँ. मैंने विष्णु शर्मा का पंचतंत्र पूरा पढ लिया है,अतः दुबारा ऐसी कोशिश करना ही मत...समझी..पूंछ कटी लोमड़िया...”
लोमड़ी की समझ में नहीं आ रहा था कि इस कलूटे को कैसे पता चला कि मेरी पूंछ कट गई है. अपने अपमान के क्रोध में खिसियाती लोमड़ी ने कहा:- अरे वाह रे कालिया, तू तो पक्का नेता बन गया है रे !.देखती हूँ. कब तू मेरी हाबड में आता है.?” कहती हुई झाडियों में समा गयी थी.
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गोवर्धन यादव
103,कावेरी नगर,छिन्दवाडा (म.प्र.) 480001