Saturday 29 September 2012

लघुकथा---आग


                                        आग
        सेठ हरकमल के आलीशान बंगले के पीछे करीब चार-पांच एकड का रकबा है,जिसका मालिक मंगलु अपनी पत्नि तथा तीन छोटॆ-छोटॆ बच्चों के साथ मुफ़लिसी के साथ गुजर-बसर कर रहा है.
        सेठजी जब भी अपनी छत पर खडॆ होकर उधर देखते हैं तो तन-बदन में आग सी लग जाती है. उन्होंने कई बार मंगलु को अपने कारिन्दों के मार्फ़त खबर भिजवायी कि वह जमीन बेच दे, अच्छी खासी रकम उसे दे दी जाएगी,लेकिन वह टस से मस नहीं होता ,और कहता है कि बाप-दादाओं की एक ही तो निशानी है उसके पास, और वह किसी भी कीमत में उसे नहीं बेचेगा.                                  एक दिन वे अपनी छत पर खडॆ होकर प्रकृति का नजारा देख रहे थे. मंगलु के खेत में गेहूं की फ़सल लहलहा रही थी. गेहूं की कटाई का समय भी हो चला था. उन्होंने अनुमान लगाया कि दो-चार दिन में कटाई शुरु की जा सकती है. वे भारी मन से नीचे उतर आए और उन्होंने अपने विश्वसनीय रामसिंग को बुला भेजा, आवश्यक निर्देश दिए और अपनी गाडी निकालकर दूसरे गांव चले गए. यह सब एक विशेष-प्लान के अंतर्गत हो रहा था.
        रात के गहराते ही उसके खेत और मकान में आग लग गई. आग की भीषण लपटॊं में से वह किसी तरह अपने बच्चों और बीवी को बाहर निकालते हुए आसपास के लोगों को मदद के लिए गुहार लगाता रहा,लेकिन कोई भी उसकी मदद को नहीं आया. चंद मिनटॊं में सब कुछ आग के हवाले चढ चुका था.
        दूसरे दिन उसने थाने में जाकर रपट लिखवाया. थानेदार ने कई प्रशन पूछे लेकिन वह जबाब नही दे पाया कि आग किस तरह लगी. उसने पूछा कि उसे किसी पर शक है,इसका भी वह कोई जबाब नहीं दे पाया. जानता था कि बिना पक्के सबूत के किसी का भी नाम लेना उसे और आफ़त में डाल सकता है.
        बच्चे भूख से चिल्ल-पों मचा रहे थे. कुछ मदद मिल जाएगी,इसी आशा में वह सेठजी के यहां जा पहुँचा. पता चला कि सेठजी तो घर पर नहीं है,लेकिन रामसिंग ने सहानुभूति जतलाते हुए उसे आटा और आवश्यक चीजें दी,ताकि वह चार जून अपने बच्चॊं का तथा खुद का पॆट भर सके.  
        मंगलु ने अब अपना अस्थायी ठिकाना एक आम के पेड के नीचे बना रखा था.शहर जा कर बनी-मजुरी करता और कुछ पैसे कमा कर अपने परिवार का भरण-पोषण करता.
        एक दिन रामसिंग ने उसे बुला भेजा और कहा कि वह उसके साथ जोर-जबरदस्ती नहीं कर रहा है, पर इंसानियत के चलते उसे एक सुझाव देना चाहता है. उसने मंगलू को समझाया कि सेठजी अभी बाहर गए हुए हैं और पता नहीं कब आते हैं. फ़िर भी मैं  तुम्हारे लिए एक काम करवा सकता हूँ. यदि उसकी माने तो वह सेठजी से कहकर एक नया मकान और उनके यहां नौकर दिलवा सकता हूँ.                  मरता क्या नहीं करता. उसे सुझाव पसंद आया और उसने हामी भर दी.
        दो दिन बाद सेठजी का वापिस आना हुआ. मंगलू को खबर दी गई.उसने रामसिंग के साथ जाकर सीमेन्ट-कांक्रीट का बना पक्का मकान देखा और सोचने लगा वह अपने जिंदा रहते तो ऐसा मकान बनाने का सपना भी नहीं देख सकता. सेठजी की कृपा से उसे मकान और नौकरी दोनो मिल रहे है, और वह भी बिना बोले, तो हां कहने में क्या आपत्ति हो सकती थी.                                           सेठजी ने कुछ कागजों पर मंगलू का अंगूठा लगवाया. लोगों की गवाही ली और मकान के कागजाद उसे सौंपते हुए कहा: मंगलू, अब भविष्य में चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है.अब तेरा दुख मेरा अपना दुख होगा.                                                        सेठजी अब जब भी अपनी छत पर चढते हैं, मन गदगद हो जाता है यह देखकर कि उन्का पुराना सपना अब साकार हुआ है.                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                          गोवर्धन यादवहिन्दवाडा)

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