Tuesday 23 October 2012

कहानी---फ़ांस


फांस

निन्नी का मन तो उस दिन से अशांत था।http://www.anubhuti-hindi.org/images/2011/05_09_11.jpgफांस ही ऐसी थी, जो शायद अब पूरी जिंदगी चैन नहीं लेने देगी। इस हादसे के बाद से, उसका दिमाग ऐसा सुन्न कर दिया गया था कि वह कुछ भी सोच नहीं पाई थी। रह-रहकर एक बवण्डर सा उठता। कोई बात याद आती। फिर एक-एक करके सब कुछ उभरने लगता था।
अपने किचन में व्यस्त थी निन्नी, तभी टेलीफोन की घंटी घनघना उठी। बार-बार आ रहे टेलीफोन से वह पहले से ही परेशान थी। घंटी सुनते ही उसका सिर भन्नाने लगा। जी में आया टेलीफोन ही अब उठाकर फेंक दिया जाना चाहिए। स्टोव को सिम करते हुए वह टेलीफोन तक पहुंच ही पाई थी कि घंटी बजना बंद हो गई। पैर पटकते हुए वह किचन की ओर बढ़ रही थी कि फिर घंटी बज उठी। अब उसका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ आया था। बुदबुदाते हुए वह फिर लौटी। रिसीवर उठाया। उस तरफ भैया थे। भैया का स्वर डूब सा रहा था, बोलते-बोलते वे रुक भी जाया करते थे। शंका-कुशंका के भंवर में वह फंसती जा रही थी। बड़ी मुश्किल से वे सिर्फ इतना ही कह पाए ‘‘मां सीरियस है निन्नी, जितनी जल्दी हो सके चली आओ।’’ इसके बाद उन्होंने क्या कुछ कहा उसे नहीं मालूम। खबर सुनकर ऐसा भी लगा जैसे शरीर को काठ मार गया हो। कान से टेलीफोन चिपकाए वह बड़ी देर तक खड़ी रही। उसे तो यह भी भान नहीं रहा कि टेलीफोन कभी का डिस्कनेक्ट हो चुका है। कुछ नार्मल होते ही फफक कर रो पड़ी थी निन्नी।
हड़बड़ाहट में उसने सूटकेस पैक किया। नौकरानी को आवश्यक निर्देश दिए। बच्चों को कुछ खिला देने को भी कहा। सूटकेस पैक करते समय उसे नरेन्द्र और मांजी की बराबर याद आ रही थी। काश इन दोनों में से कोई एक, उसके पास होता तो वह अपना दु:ख शेअर कर सकती थी और उनके कंधे पर सिर रखकर थोड़ी देर ही सही- रो तो सकती थी। रुलाई के बाद थोड़ा मन का बोझ तो हल्का हो जाता। गैराज से गाड़ी निकालकर वह गेट पर रुककर बच्चों का इंतजार करने लगी थी। बच्चों को आता देख उसने गेट खोल दिया। बच्चों को बिठाया। सूटकेस रखवाया और आगे बढ़ ली।
गाड़ी चलाते समय मां की याद घनी हो आती। कैसी होगी मां। जिंदा है अथवा चल बसी। नहीं जानती। पर मां की याद उसे रुला जाती। डेढ़-दो सौ किलोमीटर का सफर कब और कैसे तय हो गया, पता ही नहीं चल पाया। गाड़ी रोकते हुए उसने स्पीड से गेट खोला और जूतियां खटखटाते हुए सरपट भाग निकली। बच्चों को भी उतारना है यह उसे याद नहीं रहा। सीधे वह मां के कमरे में पहुंची। मां को देखा। सन्न रह गई। महीना भर पहले तो ठीक थी मां। अचानक यह क्या हो गया। उसने मन ही मन अपने आपसे कहा था।
दो सफेद चादरों के बीच मां का जिस्म पड़ा था। मां का हाथ थामे भैया, सिर झुकाए बैठे थे। भाभी भी उदास-गमगीन, पांयते बैठी थी। देखते ही लगा, खेल खत्म हो गया है। कलेजा मुंह को हो आया। रुलाई फूट पड़ी। अब वह मां के शरीर से लिपटकर जार-जार रोए जा रही थी। क्या हो गया भैया मां को? कब से बीमार पड़ी थी। पहले सूचना क्यों नहीं दी। किसी अच्छे डाक्टर को दिखलाया था। अस्पताल में भर्ती क्यों नहीं करवाया। तरह-तरह के प्रश्नों की बौछार लगा दी थी निन्नी ने। भैया बार-बार पीठ पर हाथ फिराते रहे। समझाते रहे। बड़ी मुश्किल से वह अपने आप पर काबू पा सकी थी।
उसने महसूस किया कि मां का शरीर अभी गर्म है। उंगलियों के पोर नाक के पास ले जाकर देखा। हल्की-हल्की सांसें चल रही हैं। उसने नब्ज टटोली। वह भी धीमी गति से चल रही है। यह जानकर प्रसन्नता सी हुई कि मां अब तक जिंदा है। मां के शीघ्र स्वस्थ हो जाने के लिए वह ईश्वर से मन ही मन प्रार्थना करने लगी। वह न जाने अब तक कितने ही देवी-देवताओं को नवस चुकी थी।
एक-एक पल भारी लग रहा था। कब क्या घट जाए कहा नहीं जा सकता। तीनों एक दूसरे के चेहरे की ओर देखते। मन से मन की बात होती। नजरें अनायास ही झुक जातीं। सभी गंभीर मन। मन में समाए डर से आतंकित। घड़ी ने रात के चार बजाए। एक हल्की सी कराह, मां के मुंह से निकली। सभी की नजरें मां के निस्तेज चेहरे पर आकर केन्द्रित हो गईं। सभी उसे ध्यान से देखने लगे। निर्जीव पड़े शरीर में हल्की-सी हरकत हुई। ओंठ फडफ़ड़ाए। शायद वे कुछ कहना चाह रही होंगी। अधीरता के साथ निन्नी ने मां-मां कहा, कुछ शरीर को हिलाया-डुलाया भी। फिर वे अचेत हो गईं। सारे लोगों के दिल एक बार फिर भय के साथ धडक़े थे। सारी रात आंखों ही आंखों में कैसे कट गई, पता ही नहीं चल पाया।
सुबह होते तक सब कुछ सामान्य होने लगा था, सभी ने ईश्वर को मन ही मन धन्यवाद दिया। मां के गिरते स्वास्थ्य को लेकर उसने भाभी से कुछ बातें कीं। प्रश्न सुनते ही भाभी चमक उठी और अर्र-सर्र, जो मुंह में आया बकने लगी। हालांकि उसने कोई ऐसी बात नहीं की थी जिससे उसके सम्मान को ठेस पहुंचे। सभी बातें सामान्य सी ही थीं।
भाभी की बातें सुनते ही निन्नी का मन बुझ सा गया। अंदर सब कुछ क्षत-विक्षत था। इसके बाद कहने-सुनने को बचा ही क्या था। उसने कितना भला समझा था भाभी को। कुल खानदान से भी ठीक थी। शक्ल-सूरत की बुरी नहीं थी। पर उस दिन तो उन्होंने हद ही कर दी। ऐसी कड़वी जुबान की तो उसने कल्पना तक नहीं की थी। तमतमाते हुए उन्होंने तो यहां तक कह डाला था कि अगर इतना ही हेमटा बतलाना है तो, ले जाओ अपनी मां को अपने साथ और जो चाहो सो करो।
भाभी की बातें अंदर उतरकर कलेजा छलनी कर रही थीं। उसका माथा चकराने लगा था। उसने तब यह सोचा भी नहीं था। मगर जब उसने भैया की ओर देखा। समझ गई। उनका चेहरा झुका हुआ था। वे एक शब्द भी नहीं बोले थे। सब कुछ शायद पहले से ही तय था और वह हो भी रहा था। उसने सूटकेस उठाया। बच्चों को साथ लिया और ओपल में आ बैठी। गाड़ी स्टार्ट की और वापिस हो ली। घर से निकलते समय उसे ऐसा लगा कि भाभी अथवा भैया ही उसे आगे बढक़र रोकेंगे। कुछ दिन और ठहर जाने को कहेंगे अथवा अपने कहे पर खेद प्रकट करेंगे। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वे उसे सूटकेस ले जाता देखते रहे। किसी के भी मुंह से एक शब्द नहीं निकला था। एक बार ही सही वे रुकने को तो कहते। इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता था। उसका मन आत्मग्लानि से भर उठा था।
घर आकर वह सीधे बिस्तर पर पसर गई। रह-रहकर पिछली बातें याद आती रहीं। आंखों की कोर भीग उठीं। नरेन्द्र और मांजी को वह आज बहुत मिस करने लगी थी। मन के किसी कोने से एक प्रश्न उभरता। निन्नी, तूने ठीक नहीं किया वापिस आकर? तुझे और कुछ दिन रुक जाना चाहिए था। कम से कम मां के ठीक होने तक ही सही। झगड़ा-झांसा किसके घर में नहीं होता। ननद-भौजाई के बीच अक्सर ऐसी नोंक-झोंक तो होती ही रहती है। तरह-तरह के प्रश्न मन को उद्वेलित करते रहे। उसे तो ऐसा भी लगने लगा कि वह प्रश्नों के जंगल में घिर गई है।
सारे प्रश्नों को दरकिनार करते हुए वह अपने आपको समझाइस देने लगी थी। उसने ठीक ही किया है वापिस होकर। वह वहां रुककर करती भी तो क्या करती। मां-बाप की नजरों में बेटा ही सब कुछ होता है। बेटियों की तो कोई अहमियत होती ही नहीं है। बेटी लाख-से-लाख जतन करे, पर वैतरणी तो बेटा ही तारता है न! बस इसी एक सोच के चलते वे सारे दुख उठा लेते हैं, मुंह से उफ्ï तक नहीं करते, भले ही वे इस लोक की चिंता न करें, पर परलोक सुधारने के चक्कर में पड़े रहते हैं। भैया ने आखिर दिया ही क्या है मां को, सिवाय दु:ख, परेशानी, कुण्ठाओं के और वे दे भी क्या सकते थे। इन सबके बावजूद भी वे धन-जायदाद के स्वामी बने ही रहेंगे, समाज के कर्म-धर्म समाज के नियम कायदे बनाने वालों ने कितनी चतुराई से पत्ते फांटे होंगे, उसे उबकाई सी आने लगी थी। मां बेटे के नाते भैया का क्या यह फर्ज नहीं बनता कि वह उनकी प्राणवचन से सेवा करते। वे तो वही कहते करते देखे गए जो बीवी ने कह दिया। अरे उसकी अपनी भी तो सास है। वह तो उनके साथ ऐसा बर्ताव नहीं करती।
वह सोचती, इन पांच-छ: सालों में समय चक्र कितना घूम गया है। वक्त बदला या आदमी। मगर अब इतना जरूर जानने लगी है कि मां ने धीरेन्द्र भैया को जो संस्कार दिये- माहौल दिये- अपने जीवन का अर्क निचोड़ कर जिंदगी का अर्थ दिया, सब बेकार गया। ये पांच-छ: साल इतने ताकतवर हो गए कि इन्होंने एक लंबा इतिहास ही धो डाला।
एक ही बात, नये-नये रूप में आकर उसे उद्वेलित कर जाती। ऐसा भी लगा कि बार-बार उसी बात को सोचते रहने में, संभव है दिमाग की नसें ही फट जाएं। अब वह सो जाना चाहती थी ताकि दिमागी आराम मिल सके। पर नींद भी दुश्मनी साधे बैठी थी, जो लाख पुचकारने के बाद भी नजदीक नहीं आ रही थी। अनमनी सी उठ बैठी वह और सीढिय़ां चढ़ते हुए छत पर आकर दीवार का सहारा लेकर धम्म से बैठ गई। सामने एक पीपल का पेड़ था। देशी-परदेशी पखेरुओं ने उसकी मजबूत शाखों पर अपने घोंसले बना लिए थे। इस समय नवजात शिशुओं को छोडक़र एक भी परिन्दा पेड़ पर नहीं था। सभी दाना-चुग्गा की जुगाड़ में निकल चुके थे। एक स्तब्ध खामोशी छाई हुई थी। पीपल की टहनी से एक पतंग आकर अटक गई थी। जब तेज हवा का झोंका आता पतंग चक्करघिन्नी खाने लगती। पल भर को लगा कि वह भी एक पतंग की तरह ही है जो न तो आसमां की हो सकी, न जमीन की। बीच में ही अटकी पड़ी है। उसकी इस दुर्दशा को देखकर पत्ते भी तालियां बजाने लगे थे।
जब अलग-अलग जाति के, अलग-अलग प्रजाति के मूक पखेरू आपस में तालमेल बिठाकर रह लेते हैं तो भला आदमी क्यों नहीं रह पाता। अगर भाभी भी थोड़ा सा सामंजस्य बिठा लेती तो शायद मां की यह दुर्दशा न हुई होती और न ही उन्हें असमय अपनी मौत की याचना करनी पड़ती। वह अपने आप में सोचने लगी थी। भाभी की याद आते ही लगा कि तूफान फिर सक्रिय होने लगा है। वह सब कुछ भूल जाना चाहती है पर एक-एक कर सब याद आने लगता था। अब वह अपने आपको समझाईस देने लगी थी और नार्मल होने की कोशिश करने लगी थी।
देखा सूर्यास्त होने को है। पक्षियों के समूह वापिस होने लगे हैं। पक्षियों का कलरव सुनकर बूढ़े पीपल के शरीर में उत्साह का संचरण होने लगा है। चहल-पहल से भर उठता है पीपल का घर आंगन। पीपल के पत्तों के बीच में ललछौटी किरणें बहने लगी थीं, धीरे-धीरे संवलाने लगी थीं। आकाश में जब तक लटका अंधियारा नीचे उतरकर जमीन पर लोटने लगा था। थोड़ी देर बाद चांद आकाशपटल पर मुस्कराने लगा था। सारा दिन उसने चुप्पी साधे छत पर ही बिता दिया था। अब वह सीढिय़ां उतर कर नीचे आने लगी थी।
नीचे उतरते ही उसे पंकज व ऋचा की याद हो आई। पूरा दिन लगभग यूं ही बीत गया। उसने उन दोनों की सुध ही नहीं ली। बाहर निकलकर देखा। दोनों नौकरानी को घेरे बैठे हैं और वह उन्हें नई कहानियां सुनाने में मगन थी। नौकरानी की मन ही मन वह प्रशंसा करने लगी थी। वह भी अब उनके बीच आकर कहानियों के मजे लेने लगी थी। बच्चों को मैं अब कहानियां सुनाती हूं-तब तक तू खाना पका ले। भूख बहुत जमके लगी है। नौकरानी को समझाईस देते हुए उसने प्याज के कुरकुरे पकौड़े, पराठे, भरंवा भटे, दही का रायता, पापड़ सलाद बनाने को कहा। पकौड़ों के साथ इमली की चटनी मिल जाए तो मजा आ जायेगा। उसने मन ही मन कहा था। इमली की चटनी याद आते ही मुंह में खट्टापन तिर आया था।
खाना पक जाने की सूचना मिलते ही वह उठ खड़ी हुई। खाना खाने से पहले नहाने की सूझी। आज दिन भर से वह बैठी ही तो रही है। उसने आज न तो मुंह ही धोया था और न ही नहाया ही था। वह सीधे बाथरूम में घुस पड़ी। बाथरूम में घुसने से पहले उसने टेप ऑन किया। लता का कैसेट फंसाया। गायिकाओं में उसे लता ही प्रिय थी। जी-भर के नहाने के बाद वह भोजन पर टूट पड़ी। बड़े दिनों बाद वह आज लजीज खाना खा रही थी।
देर रात तक वह लता को सुनती रही और बच्चों के साथ कभी चाईनिज चेकर खेलती रही तो कभी सांप-सीढ़ी। सांप-सीढ़ी खेलते समय उसकी गोटी अचानक बड़े सांप के मुंह पर आ गई। सांप के मुंह से घिसरती हुई वह पूंछ पर आकर अटक गई थी। पल भर को लगा कि वह सांप, सांप न होकर भाभी हो और गोटी की जगह वह स्वयं बैठी हुई है। मुंह के पास आते ही उसने उसे निगलना शुरू कर दिया था। और वह सरसराती हुई सांप के जिस्म में गहरे तक उतरती चली जा रही थी। सांप ने अब अपने जिस्म को मोडऩा शुरू कर दिया था। पलभर को लगा कि उसकी हड्डी-पसलियां चरमरा गई हैं। एक सहज कल्पना से वह सिहर उठी थी। पलभर को तो यूं लगा कि उसका वजूद ही नेस्तनाबूद हो गया है।
अब वह आगे नहीं खेल पाई। उसने बोर्ड हटा दिया और पीठ को पलंग का सहारा देते हुए लंबे पैर पसार कर छत की ओर टकटकी लगाए देखने लगी थी। बच्चों ने कब लाईट ऑफ किया और वे कब सो गए, उसे भान ही नहीं रहा। होश तो उसे तब आया जब उसने अपने आपको गहरे अंधकार में कैद पाया। उसने चाहा भी कि नाईट लैम्प जला ले पर अंधकार में ही घिरे रहना उसे अच्छा लग रहा था। अंधेरे को छेदते हुए उसकी नजरें अब भी छत से चिपकी हुई थीं।
ऐसा लगा कि कुछ किरणें इक_ी हो रही है। एक अस्पष्ट चित्र सा उभरने लगा था। तस्वीर अब साफ होने लगी थी। मां की तस्वीर थी। अगल-बगल में दो बच्चे। एक व्यक्ति पीछे खड़ा दिखलाई दिया। तस्वीर और भी स्पष्ट नजर आने लगी थी। पीछे खड़ा हुआ व्यक्ति मामाजी थे। दो बच्चों में एक वह स्वयं थी दूसरे धीरेन्द्र भैया थे। मामाजी की तस्वीर देखकर पुराने बातें याद हो आईं।
काफी छोटे थे दोनों भाई-बहन। पिता का साया सिर से हट चुका था। मां खेतों में कड़ी मेहनत करती और दोनों की अच्छी परवरिश करती। ताऊजी की नियत खेल-खलिहान के साथ जेवरात आदि हड़पने की थी। वे अपनी ओर से बिसातें बिछाते। मां शायद हर बिसात की काट जानती थी। अपनी स्कीम को फेल होता देख ताऊजी खिसियाते गए थे। अब उन्होंने अपने तरकश से अंतिम अस्त्र का संहार करने की ठानी।
पुआल का ढेर मकान के पीछे जमाया जाने लगा। उस दिन सारे हौद खाली कर दिए गए और गांव की बिजली भी ठप्प कर दी थी। अमावस की रात थी। खेतीबाड़ी पशुधन सम्हालने के साथ ही मां उतना ही भक्तिभाव से गीता रामायण भी बांचती थी। शायद कान्हा साथ दे रहे थे। वह जान चुकी थी कि उसका घर आज लाक्षागृह की तरह धू-धू कर जल उठेगा। समय पूर्व वह लोगों की आंख बचाकर पिछवाड़े से भाग निकली और तब तक ऊबड़-खाबड़ सडक़ों पर दौड़ती रही, चलती रही जब तक मामाजी का घर नहीं आ गया था। घर से निकलते समय वह पीछे पलट-पलट कर देखती रही थी। पूरा घर अग्नि की भेंट चढ़ चुका था।
मामाजी ने हमारा भरपूर स्वागत ही नहीं किया बल्कि ठहरने खाने तक का पुख्ता इंतजाम भी किया। इन्हीं मामाजी की बदौलत आज एक आलीशान बंगला और खेतीबाड़ी हमारे पास थी। धीरे-धीरे यह तस्वीर धुंधलाती चली गई। एक दूसरी तस्वीर उभरकर आंखों के सामने आने लगी। इस तस्वीर में हम तीन के अलावा दो जन भी जुड़ जाते थे। पहले नरेन्द्र यानि पति और दूसरी तस्वीर रेखा भाभी की थी। कुल मिलाकर हम पांच लोगों का छोटा-सा पारिवारिक समूह था।
भैयाजी और रेखा, साथ ही, एक क्लास में पढ़ते थे। भैया ऑल राउण्डर होने के साथ-साथ मेधावी छात्र भी रहे हैं। इनका दिल आ गया होगा भैया पर। अपना चक्कर चलाने के लिए इन्होंने मुझे मोहरा बनाया। दोस्ती गांठी। कॉलेज जाते समय अक्सर साथ जाती। फिर धीरे-धीरे घर में प्रवेश करने लगी और देखते ही देखते उन्होंने वह मुकाम पा ही लिया जिसके लिए उन्होंने भगीरथ तप किया था। कॉलेज से निकलते ही दोनों जॉब भी पा चुके थे और पास ही के शहर से रोजाना अप-डाउन भी करते थे।
मैं कॉलेज में गोल्ड मेडलिस्ट रही। अत: प्राध्यापक की नियुक्ति भी जल्दी ही मिल गई। नौकरी लगने के छ: माह बाद शादी भी हो गई। सो मैंने अपना ट्रांसफर भी ले लिया। अब तक सब कुछ ठीक ठाक चल ही रहा था कि नियति ने अपने क्रूर हाथों से इस तस्वीर को तीन टुकड़ों में काट रख दिया था। पहले टुकड़े में- मैं और नरेन्द्र अलग कर दिए गए। दूसरा और तीसरा टुकड़ा कटकर भी इस तरह जुड़ा दिखाई देता रहा जैसे काटा ही नहीं गया हो। पर मां की तस्वीर भैया-भाभी की तस्वीर से काटकर अलग की जा चुकी थी।
चार-पांच छ: साल बीत गए। भैया को संतान सुख नसीब नहीं हुआ। अब वे इस घर को बेचकर अन्यत्र चले जाना चाहते थे पर मां ऐसा नहीं होने देना चाहती थी। वे बार-बार कहा करती थी कि जिस घर में तूने सांस लीजहां तू पला-बड़ा हुआ और जिस शहर ने तुझे तमीज सिखाई-मान दिया- पहचान दिया- उसे तू क्यों बेचने पर तुला हुआ है। उसने यह भी सलाह दी थी कि ऋचा को गोद ले ले। मन रम जायेगा। फिर आखिर तेरी बहन की ही तो लडक़ी है। पर भाभी अपनी बहन की लडक़ी को गोद लेने का मानस बना चुकी थी।
विचारों की टकराहट बढ़ती ही चली जा रही थी। बात सुलझने का अंत ही नजर नहीं आ रहा था। अब क्या था। मां की उपेक्षा की जाने लगी। कभी या तो खाना बनाया ही नहीं जाता था या बना भी लिया तो पर्याप्त बचाया ही नहीं जाता था ताकि मां भरपेट न खा सके। मां के बुढ़ाते शरीर में भले ही कृष्ण खड़े रहे हों पर मन का अर्जुन तो गहरे तक हार मान चुका था। लड़ता भी तो किससे लड़ता और किसके लिए। गांडीव एक कोने में रख देना ही उसने उचित समझा था।
विचारों की तंद्रा के चलते नींद ने उसे कब अपने आगोश में ले लिया था, पता ही नहीं चल पाया। वह जब सोकर उठी तो सूरज बहुत ऊपर चढ़ आया था। जागने के साथ ही उसने महसूस किया कि शरीर में ऐंठन के साथ-साथ पोर-पोर में आलस भी रेंग रहा है। जमुहाते हुए वह उठ बैठी। बाथरूम जाने से पहले उसने फिर से लता का कैसेट लगाया। पूरा वाल्यूम खोला और बाथरूम में समा गई। आदमकद आईने के सामने खड़ी वह ब्रश कर रही थी। मुंह धोने के बाद अब वह लता के स्वर में स्वर मिलाने लगी थी। उसने निर्णय ले लिया था कि अब वह अपने आपको और व्यथित नहीं करेगी। नियति को जो मंजूर होना है, वह होकर ही रहेगा। उसने अपने चेहरे को, आईने के और नजदीक ले जाकर गौर से देखा। आंखों के नीचे स्याह निशान घर बनाने लगे थे। वह चौंक उठी। अपने आप में डूबकर जीने का संकल्प उसने लिया और अब वह पूरी गति से थिरकती हुई लता के स्वर में स्वर मिलाने लगी थी।
एक थिरकन के साथ खुश्बू का एक तेज झोंका उसके बदन से आ चिपका। पल भर को यह लगा कि शरीर एक मीठी अग्नि में जलने लगा है। उसने कपड़े उतार फेंके और शॉवर आन कर दिया। उसकी कोमल हथेलियां अब उसके नाजुक बदन पर यहां-वहां दौडऩे लगी थीं। सहसा यह भी लगा कि नरेन्द्र की हथेलियां उसके शरीर पर फिसलती जा रही हैं। कभी-कभी नरेन्द्र यूं ही बाथरूम में घुस आया करता था और...। नरेन्द्र की याद आते ही लगा कि वह यहां स्वयं उपस्थित हैउसके ही साथ है। वह आंखें बंद किए अपने कल्पना संसार में तब तक डूबी रही, जब तक शॉवर की आखिरी बूंदें समाप्त नहीं हो गईं। शॉवर के बंद हो जाने के बाद ही उसकी चेतना वापिस लौटी थी।
उसने आईने पर नजर डाली। आंखें शराबी, गाल गुलाबी और ओंठ लजीले हो आए थे। अपने इस परिवर्तित रूप को देखकर उसे शर्म सी आने लगी थी। तन पर साड़ी लपेटते हुए वह बाहर निकली। ड्राईंग रूम से निकलकर वेटिंग रूम में आई तो अखिलेश को असमय देखकर सकपका सी गई। अखिलेश और इस समय! क्योंकर आया होगा वह इस वक्त। ढेरों सवाल मन में रेंगने लगे थे। अखिलेश, नरेन्द्र का सहपाठी ही नहीं अपितु वह फैक्टरी में भी बराबर का हकदार है। अक्सर वह घर पर आता ही रहता है। आज वह पहली बार ऐसे समय पर आया है जबकि उसे इस समय फैक्टरी में रहना चाहिए था। फैक्टरी आवर में वह कभी भी अनुपस्थित नहीं रहा है। आज अचानक उसकी उपस्थिति संदेह पैदा कर रही थी।
अपनी झेंप मिटाते हुए उसने इतना भर कहा था कि अखिलेश भैया, इस समय और आप यहां! वह वाक्य पूरा भी नहीं बोल पाई थी कि अखिलेश ने कहना शुरू कर दिया था कि वह काफी देर से टेलीफोन पर संपर्क करने के लिए प्रयासरत था। आखिर आप थीं कहां इतने लंबे समय से। प्रश्न तो उसके सीधे-सादे थे पर इनका उत्तर उसके पास था ही नहीं। क्या वह यह बतलाती कि वह बाथरूम में बंद थी और क्या वह यह भी बतलाती कि वह उसके दोस्त के साथ काल्पनिक रूप से मस्ती मार रही थी। वह अपने आपमें इतनी गुम थी कि उसे दीन-दुनिया का होश ही नहीं था। निन्नी की चुप्पी इस बात का संकेत दे रही थी कि उसके पास इस छोटे से प्रश्न का समाधानकारक उत्तर नहीं था। उसे चुप देखकर उसने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘भाभी- मांजी आईं थीं और यह पैकेट दे गई हैं। उन्होंने यह भी बतला देने को कहा था कि वह स्वयं घर आईं थीं। दरवाजा अंदर से बंद था। काफी देर तक खटखटाते रहने के बाद भी किसी ने दरवाजा नहीं खोला तो यह पैकेट मुझे सौंपते हुए कहा था कि निन्नी को याद से दे देना और वे तुरंत वापिस भी हो गईं थीं।
आश्चर्य- महान आश्चर्य! मां आईं थीं। यह कैसे हो सकता है। उनसे तो एक कदम भी चला नहीं जाता। भला वे इतनी दूर आ भी कैसे सकती हैं। ढेरों सारे प्रश्न एक साथ दिमाग को मथने लगे थे। कांपते हाथों से उसने लिफाफा खोला। पत्र मां के ही हाथ का था लिखा था- ये चंद कागजात महज कागज न होकर एक छोटी-सी फांस है जिसने हमारे सभी के दिलों में छेद कर दिए हैं। मकान खरीदते समय इस बात का कभी ध्यान ही नहीं आया कि एक दिन यही फांस विवाद का कारण बन सकती है और सभी को तकलीफ पहुंचा सकती है। सच कहती हूं निन्नी इसमें किसी का भी, कहीं भी दोष नहीं है। बच्चे तो मुझे दोनों ही प्रिय रहे हैं। दोनों ही आंखों के तारे रहे हैं पर तुम सबसे लकी मानी जाती रही हो। तुम मामा की भी अति प्यारी रही हो। अतएव मकान की रजिस्ट्री तुम्हारे नाम से करा ली गई थी क्योंकि हम जानते थे कि इसमें बंटवारे की कभी बात ही नहीं होगी। ये सारे कागजात तुम्हें सौंपे जा रही हूं। उचित-अनुचित जो भी जान पड़े वैसा आगे कदम उठाना।... तुम्हारी मां।
अखिलेष मात्र एक कागज का टुकड़ा हाथ में थमाकर लौट चुका था, पर उसे लगने लगा था कि वह मात्र एक कागज का टुकड़ा न होकर एक जीवित बम है। आशंका और कुशंकाओं के जहरीले नाग उसके मन के आंगन में यहां-वहां विचरने लगे थे। एक ख्याल आता तो दूसरा तिरोहित हो जाता था। उसका दिल सहज रूप से यह स्वीकार करने लगा था कि संभवत: मां आई होगी। उन्होंने आवाज दी होगी। दरवाजा भी खटखटाया होगा और प्रत्युत्तर न पाकर सारे कागजात अखिलेष को सौंपकर लौट भी चुकी होगी। पर उसका अपना मस्तिष्क इस बात को मानने के फिर कत्तई तैयार नहीं था। वह खुद भी मां को देखकर आ चुकी थी। मां एक पिंजड़ बनकर रह गई थी। केवल सांसों का क्रमसंचय उसके जीवित होने का प्रमाण था। वे स्वयं होकर न तो उठकर बैठ ही सकती थी और न ही करवट ले सकती थी। ऐसी दशा में उनका यहां आना सहज ही नहीं, अपितु असंभव ही था।
जीवन में ऐसी चित्र-विचित्र घटनाएं अक्सर घटती ही रहती है। जब दिल उसे मानने के लिए तैयार हो जाता है तो वहीं मस्तिष्क उसे पहले ही सिरे से खारिज कर देना है। दिल का संबंध मात्र भावनाओं से जुड़ता है। जब मन और मस्तिष्क में द्वंद्व चल रहा होता है, तब ही आदमी शंकाओं और कुशंकाओं के पाटों के बीच पिसता रहता है। काफी देर तक तो वह मन और मस्तिष्क के बीच चल रहे द्वंद्व-युद्ध को तटस्थ भाव से देखती रही थी। दिल की भावनाओं को खािरज करते हुए उसने भैया से टेलीफोन पर संपर्क साधकर वस्तुस्थिति की जानकारी लेने का निर्णय ले लिया था।
तेज कदमों से चलते हुए वह अंदर आई। टेलीफोन का रिसीवर उठाया और नंबर डायल करने लगी। दूसरी तरफ भैया थे। उनका स्वर डूबा हुआ था। दिल एकबारगी जोरों से धडक़ा। लगभग फफकते हुए उन्होंने बतलाया कि पंद्रह मिनट पूर्व मां हमें छोडक़र चल बसी है। मां के चले जाने और कागजात सौंपे जाने के बीच केवल पांच मिनट का अंतर रहा था। आज तक इस प्रश्न का उत्तर अनुत्तरित है कि क्या वे हवा पर सवार होकर आईं थीं?

यात्रा बदरीनाथ धाम की


                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                        यात्रा बद्रीनाथ धाम की                                                                                    

उत्तराखण्ड के गढवाल अंचल में श्री बद्रीनाथ,केदारनाथ,पतित पावनी गंगा, यमुना,अलकनन्दा,भागीरथी,आदि दर्जनों नदियों का उद्गमस्थल, पंच प्रयाग, पंचबद्री, पंच केदार,,उत्तरकाशी,गुप्तकाशी आदि अवस्थित हों,ऐसे विलक्षण क्षेत्र उत्तराखंड का गढवाल मंडल सही अर्थों में यात्रियों का स्वर्ग है.                                                                                                                                                        यहाँ पहुंचने से पहले यात्री को हरिद्वार जाना होता है.यहीं से बद्रीनाथ जाने के लिए बसें-टैक्सी आदि मिल जाती है.  हरिद्वार से यमुनोत्री 246कि.मी, गंगोत्री 273I कि.मी, केदारनाथ 248किमी और बद्रीनाथ 326किमी की दूरी पर अवस्थित है.                                                                                                                                  
मां  भगवती गंगा यहाँ पर्वतीय क्षेत्र छोडकर बहती है. नदी के पावन तट पर मां गंगा का मन्दिर स्थापित है,जहाँ उनकी पूजा-अर्चना अनन्य भाव से की जाती है. मां गंगा की आरती सुबह-शाम को होती है. हजारों की संख्या में भक्तगण उपस्थित होकर अपने आप को धन्य मानते हैं. इसे हर की पौढी भी कहते है. गंगा के तट पर अनेक साधु-महात्मा के दर्शन लाभ भी यात्री को होते हैं. यहाँ अनेक धर्मशालाएं-होटलें हैं, जो सस्ती दर पर आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं.
      कुछ दूरी पर गायत्री संस्थान है,जिसकी आधारशिला आचार्य श्रीराम शर्माजी ने रखी थी. यह स्थान गायत्री परिवार वालों के लिए किसी स्वर्ग से कम नहीं है. हजारों की संख्यां में लोग यहां आते हैं,और दर्शन लाभ कर पुण्य कमाते है. साधक भी यहां बडी संख्यां में आकर जप-तप करते आपको मिल जाएंगे. यहां निशुल्क रहने तथा उत्तम भोजन की व्यवस्था गायत्री संस्थान ने कर रखी है. संस्थान का अपना औषधालय हैं,जहां रोगी अपना इलाज कुशल वैद्दों से करवाकर उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त करते हैं. संस्था का अपना कई एकडॊं में फ़ैला उद्दान है जहाँ दुर्लभ जडी-बूटियों की पैदावार होती है.

           आगे की यात्रा के लिए पर्यटक को ऋषिकेश रात्री विश्राम करना होता है. सुबह गढ्वाल मंडल की बस से बद्रीनाथ के लिए बसें जाती हैं. यात्रियों को चाहिए कि वे अपनी सीटॆ आरक्षित करवा लें,अन्यथा आगे की यात्रा में कठिनाइयां आ सकती हैं. मार्ग काफ़ी संकरा और टेढा-मेढा –घुमावदार है. पहाडॊं की अगम्य उँचाइयों पर जब  बस अपनी गति से चलती है तो उसमें बैठा यात्री भय से कांप उठता है. हजारों फ़ीट पर आपकी बस होती है और अलकन्दा अपनी तीव्रतम गति से शोर मचाती,पहाडॊं पर से छलांग लगाती,उछलती,कूदती आगे बढती है. बस चालक की जरा सी भूल से कभी-कभी भयंकर एक्सीडॆंट भी हो जाते हैं. अतः जितनी सुबह आप अपनी यात्रा जारी कर सकते हैं,कर देना चाहिए.
      ऋषिकेश में गंगा स्नान,किनारे पर बने भव्य मंदिरों में आप भगवान के दर्शन भी कर सकते है. गंगाजी का पाट यहां देखते ही बनता है.
(शिवजी की विशाल मूर्ति तप करते हुए)                           (लक्षमण झूला.)
अनेक मन्दिरों,आश्रमों के अलावा लक्षमण झूला      भी है,जो नदी के दो तटॊं को जोडता है. इस पर से नदी पार करने पर मन में रोमांच तो होता है साथ ही इसकी कारीगरी को देखकर विस्मय भी होता है.
ऋषिकेश से बद्रीनाथ की यात्रा के दौरान रास्ते में नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग,तथा देवप्रयाग नामक स्थान भी मिलते हैं. इनका अपना ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व है. गंगा अपने उद्गम के बाद 12 धाराओं में विभक्त होकर आलग-अल्ग दिशाओं में बहती है. इन स्थानों पर वे या तो बहकर निकलती है या फ़िर यहां दो नद्दियों का संगम होता है. प्रत्येक स्थान को पास से देखने में समय लगता है, यात्री यहाँ न रुकते हुए सीधे आगे बढ जाता है,क्योंकि उसमे मन में बदरीनाथजी के दर्शन करने की उत्कंठा ज्यादा तीव्र होती है
इन सभी स्थानों का अपना पौराणिक महत्व है. इन्हीं स्थानों पर रामायण ,महाभारत की रचनाएं की गयी थी. राजा युधिष्ठिर अपने भाईयों व द्रौपदी के साथ इन्हीं स्थानों से होकर गुजरे थे और हिमालय की अगम्य चोटी पर जाकर अपने प्राणॊं का त्याग किया था
बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री के मन्दिर केवल छः माह (मई से अक्टूबर) तक खुले रहते हैं.शेष छः मास तक ‍भीषण ठंड पडने,के कारण बंद रहते है. अकटूबर माह में बद्रीविशाल की पूजा-अर्चना करने के उपपरांत घी का विशाल दीप प्रज्जवलित कर बन्द कर दिया जाता है. छः मास बाद जब मन्दिर के पट खोले जाते हैं तो वहाँ पर ताजे पुष्प और दिव्य दीपक जलता हुआ मिलता है. ऐसी मान्यता है कि इस अवधि में नारद  मुनि जो ‍विष्णु के परम भक्त हैं,यहाँ रहकर अपने आराध्य की पूजा-अर्चना करते हैं. पूजा के ताजे पुष्प का मिलना, इस बात का प्रमाण है कि वहाँ पूजा-अर्चना होती रही है. इससे बडा प्रमाण और क्या चाहिए.                                                                                                                                                                                    पर्यटक, सुबह जितनी जल्दी ऋषिकेश से रवाना हो जाए,उतना ही फ़ायदा उसे होता है. शाम का कुहरा गहरा जाने से पूर्व वह बद्रीनाथ जा पहुँचता है. वहां पहुंचकर उसे अपने लिए धर्मशाला-होटल भी तो लेना होता है. इस बीच ठंड भी बढ चुकी होती है.                                                                                                                                                   (बद्रीनाथजी का भव्य मन्दिर)                                                                                                                                                                   
(मंदिर के प्रांगण मे लेखक अपनी पत्नि के साथ)

बद्रीनाथ का मन्दिर अलकनंदा नदी के उस पार अवस्थित है. पुल पारकर आप मन्दिर में दर्शनों के लिए जा सकते हैं. नदी से इसी पार पर धर्मशालाएं,होटले आदि उपलब्ध हो जाती हैं. मन्दिर के पास ही गरम पानी का कुण्ड है,जिसमे यात्री नहा सकता है. इस कुण्ड से जुडी एक कथा है.जब भगवान बद्रीनाथजी इस स्थान पर अवस्थित हो गए तो भगवती लक्ष्मी ने कहा कि आपके भक्त गण कितनी कठिन यात्रा कर केवल आपके दर्शनार्थ आते है, और उन्हें स्नान कर आपकी पूजा-अर्चना करना होता है. लेकिन इस स्थान पर तो बर्फ़ की परत बिछी रहती है और भीषण ठंड भी पडती है. यदि उनके नहाने के लिए कोई व्यवस्था हो जाती तो कितना अच्छा रहता. बद्रीनाथजी ने तत्काल मन्दिर के समीप अपनी बांसुरी को  जमीन पर छुलाया, एक गर्म पानी का कुण्ड वहाँ बन गया. सभी यात्री यहाँ बडे अनन्य भाव से नहाकर अपने आपको तरोताजा कर,पूजा अर्चना करता है.                                                                                                           बद्रीनाथजी की मुर्ति शालग्रामशिला की बनी हुई है. यह चतुर्भुजमुर्ति ,ध्यानमुद्रा में है. एक कथा के अनुसार इस मूर्ति को नारदकुंड से निकालकर स्थापित की गई थी. तब बौद्धमत अपने चरम पर था. इस मुर्ति को भगवान बुद्ध की मुर्ति मानकर पूजा होती रही,. जब शंकराचार्य  इस जगह पर हिन्दू धर्म के प्रचारार्थ पहुंचे तो तिब्बत की ओर भागते हुए बौद्ध इसे नदी में फ़ेंक गए. उन्होने इसे वहां से निकालकर पुनः स्थापित किया. तीसरी बार इसे रामानुजाचार्य ने स्थापित किया .
पौराणिक मान्यता के अनुसार गंगाजी अपने अवतरण के बाद 12 धाराओं में विभक्त हो जाती है.. अलकनन्दा के नाम से विख्यात नदी के तट श्रीविष्णु को भा गए और वे यहां अवस्थित हो गए..
लोक कथा के अनुसार,नीलकण्ठ पर्वत के समीप श्री विष्णु बालरुप में अवतरित हुए. यह जगह पहले से ही केदारभूमि के नाम से विख्यात थी. श्री विष्णु,तप करने के लिए कोई उपयुक्त स्थान की तलाश में थे. अलकनन्दा के समीप की यह भूमि उन्हें अच्छी लगी और वे यहां तप करने लगे. यह स्थान बद्रीनाथ के नाम से जाना गया.
बद्रीनाथ की कथा के अनुसार भगवान विष्णु योगमुद्रा मे तपस्या कर रहे थे. तब इतना हिमपात हुआ कि सब तरफ़ बर्फ़ जमने लगी. बर्फ़ तपस्यारत विष्णु को भी अपने आगोश में लेने लगी तब माता लक्ष्मी ने बद्री- वृक्ष बनकर भगवानजी के ऊपर छाया करने लगी और उन्हें बर्फ़ से बचाती हुई स्वयं बर्फ़ में ढंक गयीं. भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर उन्हें वर दिया कि वे भी उन्हीं के साथ रहेगी. यह वही स्थान है जहां स्वयं लक्ष्मी बदरी( बेर) का वृक्ष बन कर अवतरित हुईं, बद्रीनाथ के नाम से जगविख्यात हुआ.
मुर्ति के दाहिनि ओर कुबेर, उनके साथ में उद्द्वजी तथा उत्सवमुर्ति है. उत्सवमुर्ति शीतकाल में बर्फ़ जमने पर जोशीमठ ले जायी जातीहै. उद्दवजी के पास ही भगवान की चरणपादुका है. बायीं ओर नर-नारायण की मुर्ति है और इसी के समीप श्रीदेवी और भूदेवी विराजमान है.                                                                        चरणपादुका को लेकर एक पौराणिक कथा है कि द्वापर में जब भगवान श्रीकृष्ण अपनी लीलाओं को समेट रहे थे, तब उनके अनन्य भक्त नारदमुनि ने बडे ही अनन्यभाव से प्रार्थणा करते हुए पूछा था कि भगवन ,अब आपसे अगली भॆंट कब, कहां और किस रुप में होगी?. तो भक्तवत्सल प्रभु ने मुस्कुराते हुए अपनी चरण पादुका उतारकर नारदजी को देते हुए बतलाया कि अमुक स्थान पर मेरी चरणपादुका को स्थापित करते हुए पूजा-अर्चना करते रहें, वे समय आने पर बद्रीनाथ के नाम से धरती पर अवतरित होंगे. श्रीविग्रह के पास रखी चरणपादुका का मिलना और जब मन्दिर के कपाट खोले जाते हैं,तब ताजे खिले हुए सुगंधित पुष्पों का मिलना ,इस बात की पुष्टि करते हैं कि नारद अपने ईष्ट की पूजा-अर्चना आज भी करते हैं. वे किस रुप में वहां आते हैं,यह आज तक कोई नही जान पाया है,लेकिन वे आते जरुर हैं.
बद्रीनाथजी के मन्दिर के पृष्टभुमि पर आपको आकाश से बात करता जो पर्वत शिखर दिखालायी देता है,उसकी ऊँचाई 7.138 मीटर है,जिस पर हमेशा बर्फ़ जमी रहती है. बर्फ़ से चमचमाते पर्वत शिखर को देखकर यात्री रोमांचित हो उठता है.             वैसे तो यहां धुंध सी छायी रहती है. यदि आसमान साफ़ रहा तो सूर्य की किरणें परावर्तित होकर                रंगबिरंगी छटा बिखेरती है.                                                                                                          अन्य स्थानॊं की अपेक्षा यहां चढौतरी को लेकर किसी किस्म की परेशानी नहीं होती और भगवान के दर्शन लाभ भी बडी आसानी से हो जाते हैं. कुछ पर्यटक पण्डॊं के चक्कर में न पडते हुए पूजा_पाठ करते पाए जाते हैं.जबकि यहां के पण्डॆ, आपसे न तो जिद करते हैं और न ही कोई मोल भाव. आप अपनी श्रद्धा से जो भी दे दें, स्वीकार कर लेते हैं. अपने जजमान के खाने-पीने-पूजा-पाठ के लिए वे विशेष ध्यान भी देते है,साथ ही गाईड की भी भुमिका निभाते है. वे आपका नाम-पता आदि अपनी बही मे दर्ज कर लेते हैं और जब मन्दिर के कपाट बंद हो जाते हैं,उस अवधि में वे अपने जजमान के यहाँ बद्रीनाथ का प्रसाद-गंगाजल आदि लेकर पहुँचते हैं और प्राप्त धन से अपना जीवनोपार्जन करते हैं.
 हजारों फ़ीट की ऊँचाई पर खडा व्यक्ति ,जब मन्दिर के प्रांगन से, चारों ओर अपनी नजरें घुमाता है, तो प्रकृति का अद्भुत नजारा,             उसे अपने सम्मोहन में बांध लेता है. कल्पनातीत दृष्य देखकर वह रोमांचित हो उठता है.
नर-नारायण के विग्रह- बद्रीनाथजी की पूजा में मुख्यरुप से वनतुलसी की माला, चने की दाल, नारीयल का गोला तथा मिश्री चढाई जाती है,जो उन्हें अत्यन्त ही प्रिय है.                                                                               बद्रीविशाल के मन्दिर से कुछ दूरी पर एक और ऊँचा शिखर दिखलायी देता है,जिसे नीलकंठ के नाम से जाना जाता है. इसकी भव्यता और सुन्दरता को देखते हुए इसे क्विन आफ़ गढवाल भी कहा जाता है. माणागांव भारत का अन्तिम गाँव है, कुछ पर्यटक इस गांव तक भी जाते हैं. करीब 8किमी दूर एक पुल है जिसे भीमपुल भी कहते है ,इस स्थान पर ‌अष्ट वसुओं ने तपस्या की थी. लक्ष्मीवन भी पास ही है. यहीं से एक रास्ता जिसे सतोपंथ के नाम से जाना जाता है. इसी मार्ग से आगे बढते हुए राजा युधिष्ठिर ने अपने भाइयों और भार्या साहित अपनी इहलीला समाप्त की थी. सरस्वती नदी को माणागांव में देखा जा सकता है. भगवान विष्णु की जंघा से उत्पन्न अप्सरा उर्वशी का मन्दिर बामनी गांव में मौजूद है.                          
आप किसी लोककथा-पौराणिक कथा और स्थानीयता के आधार पर बनी दंतकथाओं पर विश्वास करें या न करें,लेकिन जीवन में एक बार इन पवित्र और दिव्य स्थानों के दर्शनार्थ समय निकाल कर अवश्य जाएं. प्रकृति की बेमिसाल सुन्दरता, ऊँची-ऊँची पर्वत मालाएँ, सघन वन,और चारों ओर छाई हरियाली आपकॊ अपने सम्मोहन में बांध लेगी.  प्रकृति का यह सम्मोहित स्वरुप आपमें एक नया जोश, एक नया उत्साह भर देगी. इसी बहाने आप अपने देश, भारत की अन्तिम सीमाऒं पर पहुँच कर आत्मगौरव से भर उठेंगे. शायद इन्हीं विचारों से ओतप्रोत होकर आदिशंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाऒं में पीठॊं की स्थापना की थी. ऐसा उल्लेख हमें अपने पौराणिक ग्रंथॊं मे पढने को मिल जाता है कि भगवान जब भी मनुष्य रुप में इस धरती पर अवतरित होना चाहते हैं तो वे भारतभूमि में ही अवतार लेना पसंद करते है.