Ramkatha राम कथा - दंडकारण्य की ओर ( Part - 2)
गोवर्धन यादव : श्री राम के एक समर्थ उन्नायक
मेरे पूर्वज भारत की जमीन से हुए और मैं मॉरिशस में
जन्मा चार पीढ़ियों से हूँ। जन्मों की इस परंपरा से मैं भारत से डेढ़ सौ साल से भी
अधिक दूर पड़ जाता हूँ, लेकिन ऐसा नहीं कि इतनी लंबी दूरी के कारण भारत मुझसे छूटा
हो। मेरे परिवार का संस्कार रहा उन्होंने यहाँ भारत का जिया और यही मुझे विरासत में
प्राप्त हुआ है। इस संप्राप्ति में भारतीय मंत्र तो मुझे बहुत मिले जो बहुत हद तक मुझे
कंठस्थ हैं। मेरी संप्राप्ति और भी तमाम है, लेकिन यहाँ मैं उस विस्तार में न जा कर
भारत के महान चरित्रों में से एक चरित्र, जो राम का चरित्र है, उस पर अपने को केन्द्रित
करना चाहता हूँ। इस चरित्र को मुझे अपने शब्दों का अर्घ्य समर्पित करना है और यह अवसर
मुझे मेरे अपने मित्र गोवर्धन यादव ने दिया है। गोवर्धन यादव जी मेरे बहुत अच्छे मित्र
हैं और मित्रता की डोर तो साहित्य से ही है। पर ऐसा भी है साहित्य से हो कर हम अनुभूतियों
से भी बहुत जुड़े हैं फिर तो मैं उन्हें अपना भाई तक मामने का एक सम्मोह अपने मन में
संजोये रखता हूँ। फेसबुक से हम जुड़े थे, लेकिन हम उस जुड़ाव को मजाक न बना कर साहित्यिक
गंभीरता और मित्रता की सच्ची डोर तक ले गये जो आज भी कायम है। गोवर्धन जी कभी मेरी
मातृभूमि मॉरिशस आये थे और कालांतर में मैंने उनसे बातें करने की प्रक्रिया में ऐसा
पाया मॉरिशस उनके लिए अनभूला रह जाने वाला है। गोवर्धन जी ने प्रश्नों के माध्यम से
मेरा साक्षात्कार लिया था जिसे उन्होंने अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाया। कालांतर
में मैं सपत्नीक भोपाल गया था जहाँ गोवर्धन जी स्वयं मुझसे मिलने आये थे। यह सब दर्शाता
है साहित्य के आदमी हों और जो लिखते हों उसे जीते भी हों तो इस तरह के रिश्ते अपने
आप बनते चले जाते हैं।
मेरे मित्र गोवर्धन यादव
की कहानियाँ मुझे बहुत प्रभावित करती हैं। मुझे लगता है कहानी लेखन के लिए उन्हें कथ्य
की कमी नहीं पड़ती। पर मैं एक लेखक होने के नाते जानता हूँ हर कथ्य लेखन के लिए होता
नहीं है। कथ्य चुना जाता है और मैं मित्र गोवर्धन की कहानियों से परिचित होने के विश्वास
पर कह सकता हूँ उन्हें कथ्य का चयन करना आता है। पर बात इससे एक कड़ी आगे तो जाती है।
कथ्य को साहित्य का रूप देना अहम होता है। यह एक गुण है तो है और मैं गोवर्धन जी के
लिए लिखने की प्रक्रिया में ऐसा मान रहा हूँ लेखन का उनका जो श्रेय है उसी को अपने
कुछ शब्दों से आँकने की मैं कोशिश कर रहा हूँ।
वर्तमान जन जीवन पर लिखने
वाले गोवर्धव यादव जी ने अब एक नया मोड़ अख्तियार किया है। वे अतीत में लौटे हैं और
वहाँ से मोती ही छान निकाल रहे हैं। वे मोती ही निकालें अन्यथा अतीत में उनके
जाने का कोई मतलब न होगा। वे अपने तरीके से राम नाम के उन्नायक के रूप में अपनी पहचान
बना रहे हैं और मुझे लगता है उनकी स्थापना प्रबल तो होगी ही। राम को अब तक बहुत गाया
गया है। भारत की भाव भूमि में राम की गहरी पैठ है। लिखने वाले आज भी राम को अपने नजरिये
से थामने की कोशिश करते हैं और इस संदर्भ में उनकी कलम चल पड़ती है। गोवर्धन यादव जी
की भी कलम चल पड़ी है और वे इस छान बीन में लगे हुए हैं राम के चरित्र की परिपुष्टि
के लिए अपनी ओर से उनका अपना लेखकीय अवदान क्या हो सकता है। उनकी ओर से लिखित ‘वन
गमन’ शीर्षक से राम नाम की जो महिमा मुझे पढ़ने को मिली मुझे लगा और सत्य यही
है वे राम को एक मनुष्य के रूप में चित्रित करना चाहते हैं। राम एक मनुष्य ही थे जिन्होंने
अपने कर्म से भारतीय मानस पर राज किया और राज करने का उनका सौजन्य ऐसा रहा वे मंदिरों
में ईश्वर के रूप में स्थापित हो गये। भारत में इस तरह की मीमांसा हमेशा से होती चली
आयी है जो अपने कर्म से बड़ा हो वह स्वयं ईश्वर हो जाता है और जो कर्म से च्यूत होता
है उसे निचले पायदान में रख कर नीच अधम के रूप में उसकी भर्त्सना की जाती है।
गोवर्धन यादव जी एक सर्जक
हैं जिनके हृदय में प्रगाढ़ रूप से स्थापित हो लिखें तो मनुष्य के लिए ही लिखें। इसी
बिना पर मुझे लगता है उन्होंने अपने वर्तमान लेखन के लिए राम का चयन इसलिए किया हो
यह भी मनुष्य के लिए ही लिखा जाये। लोग राम को मंदिरों में पूज लें, लेकिन साथ में
राम को गलियों में विचरण करता भी देख लें। राम की गली बड़ी ही संकाटापन्न और काँटेदार
थी। विधान हो तो हो राम को धरती पर आना हो क्योंकि लंका तक उनकी गली का नाम लिखा जा
चुका हो। पर सुकुमार राम को महल छोड़ कर वन की गलियों से वहाँ तक पहुँचना था। यह जादू
से होने वाला नहीं था, यह कर्म से होता और इस अर्थ में राम कर्म के सच्चे साधक के रूप
में अपने चरित्र की छाप छोड़ गये हैं। आज हम फिल्मी तर्ज़ पर राम कथा को इस रूप में
ग्रहण कर लेते हैं वे जिस अयोध्या से चले थे वहाँ से उन्हें वापस तो आना ही था। बस
रावण बाधक था जिसे खत्म करने की देर हो। चौदह साल में यह पूरा होना था और हुआ भी, एक
दिन न ज्यादा न एक दिन कम। काव्यकार ने इसी तरह से हमें परोस दिया और हम इसी पर आज
भी चले जा रहे हैं। इसे प्रश्न तो न बनाया जायेगा, लेकिन इस पर मंथन किया जा सकता है।
मंथन से ऐसे भाव तो निश्चित ही निकलेंगे राम ने मनुष्य के रूप में वन गमन किया तो उनके
लिए शेर होने के साथ मच्छर भी हुए। राम दिन में शेर से लड़ लें, लेकिन सोते वक्त उन्हें
मच्छर परेशान करें तो वे करवट बदलते रह जायें। ऐसी छोटी - छोटी बातों से भी तो राम
थे। लेखकों ने इस तरह की बहुत खोज की और यह खूब लिखा गया है। पर राम जो मनुष्य के चोले
से थे शायद उन्हें विधाता से वरदान हो तुम पर लिखा जाना कभी पूरा होने वाला नहीं
है। तो जो राम पर लिखा जाना अभी अधूरा है मेरे मित्र गोवर्धन यादव उसी से भिड़ने का
प्रयास कर रहे हैं। गोवर्धन जी को लिखने की महारत हासिल है। बल्कि इस तरह से कहूँ उन्होंने
बड़ी निष्ठा से लेखन के अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया है। तब तो विश्वास होना निश्चित
है वे जिस राम पर लिख रहे हैं वह उनका अपना राम होगा। मुझे एक बार लिटेरेरी फेस्टिवल
में भाग लेने के लिए पटना बुलाया गया था। हिन्दी के अनन्य लेखक नरेन्द्र कोहली जी की
उपस्थिति उस कार्यक्रम में विशेष रूप से शोभित थी। उन्होंने राम पर बहुत लिखा है। उन्होंने
वहाँ कहा था राम पर जो लिखा वह उनका अपना राम है। यह बात हर चरित्र के साथ लागू हो
सकती है। किसी ने किसी लेखक को सुनाया नहीं होता है वह ऐसा है या ऐसा नहीं है तो कैसा
है। लेखक उसे स्वयं गढ़ता है।
राम का चरित्र भी यही है उसे नित नया गढ़ा जाता है,
लेकिन यह अपेक्षा अवश्य की जाती है राम की मर्यादा खंडित न हो। गोवर्धन यादव जी उम्रदाँ
होने के साथ लेखन में परिपक्वता तो रखते ही हैं। राम जैसे जटिल प्रश्न को ले कर वे
हाँ - ना के दो पाटों पर लेखन के अपने शब्द बिछाते जायेंगे और निश्चित ही जिम्मेदार
लेखन की भावना से एक सुन्दर एवं सार्थक राम की रचना करेंगे। पर राम के मामले में स्थापित
होना उनके लिए एक चुनौती तो होगी। इसी चुनौती का नाम गोवर्धन यादव हो रहा है। अपने
इस ध्येय में उन्हें सफलता मिले।
मेरी ओर से उन्हें समस्त शुभ कामनाएँ।
रामदेव धुरंधर
मॉरिशस
16 - 05 - 2022
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दीपस्तंभ सा दिग्दर्शक- 'दंडकारण्य की ओर'
श्री गोवर्धन
यादव एक ऐसे ख्याति प्राप्त लेखक हैं जिनकी लेखनी सतत प्रवाह मान रहती है। मेरा उनसे
लेखक के रूप में संपर्क लगभग दो दशक पुराना है । मैं उनकी रचनाओं का पाठक तो हूं ही
उनकी रचनाओं को संपादक के रूप में बाल पत्रिका 'देवपुत्र' में प्रकाशित करते रहने का
भी अवसर अनेक बार प्राप्त हुआ है।
कुछ समय
पहले ही उनका उपन्यास 'वनगमन' हस्तगत हुआ था। पूरा उपन्यास पढ़ने के बाद अनायास उनकी
लेखनी में श्री नरेंद्र कोहली और रामकुमार भ्रमर दिखाई देने लगे । पौराणिक आख्यानों
को प्रासंगिक बनाते हुए नई पीढ़ी को सौपना
एक दुरूह कार्य है । हर कोई इसकी हिम्मत नहीं जुटा पाता लेकिन गोवर्धन जी ने यह हिम्मत
भी जुटाई और अपने कार्य के साथ न्याय भी किया । 'वनगमन' की कथा को संपूर्णता प्रदान
करने के लिए दूसरा खंड 'दंडकारण्य की ओर' प्रकाशित हो रहा है।
यूं तो
रामकथा भारत के जन जन के हृदय में मंदिर की प्राण प्रतिष्ठित प्रतिमा की तरह विराजमान
है, किंतु इस रामकथा को जितने मनीषियों ने पुनर्लेखन किया उसमें एक शोध परक नवीनता
आती चली गई । गोवर्धन यादव जी का उपन्यास रामकथानुरागीयों को एक नवीन अनुभूति प्रदान
करेगा।, विशेषकर देश की नई पीढ़ी अर्थात युवा वर्ग को यह राम कथा अपने दैनंदिन जीवन
में प्रकाश स्तंभ की तरह दिशा निर्देश करने में सक्षम सिद्ध होगी । क्योंकि इस समय
नई पीढ़ी समकालीन युवा लेखकों की लेखनी से सृजित पौराणिक आख्यानों को हाथों हाथ ले
रही है. उसी श्रंखला में श्री गोवर्धन यादव
जी का यह नया उपन्यास भी बड़ी मात्रा में पाठकों तक पहुंच कर उन्हें प्रभावित करेगा।
मैं इस नवीन उपन्यास हेतु हृदय से अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं ।
सदैव
सा
डॉ
विकास दवे
निदेशक,
साहित्य अकादमी,
23.05.2022 मध्यप्रदेश
शासन, भोपाल
लेखकीय प्रतिवेदन.
समस्त रामभक्तों को जय राम जी की.
"हरि
अनन्त हरि कथा अनन्ता."
प्रभु श्रीरामजी की असीम कृपा से मुझे रामकथा पर
आधारित उपन्यास (प्रथम खण्ड) "वनगमन" लिख पाने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जिसे
दिल्ली के "साहित्यभूमि प्रकाशन" ने प्रकाशित किया है. इस प्रथम खण्ड में
प्रभु श्रीरामजी की अयोध्या से चित्रकूट तक की यात्रा का वर्णन है.
इस प्रथम खण्ड की भूमिका आदरणीय डा. राजेश श्रीवास्तव
( निदेशक रामायण केन्द्र तथा मुख्य कार्यपालन आधिकारी मध्यप्रदेश तीर्थ एवं मेला प्राधिकरण,
अध्यात्म मंत्रालय म.प्र.शासन भोपाल एवं आदरणीय डा. दीपक पाण्डॆय (सहायक निदेशक, केन्द्रीय
हिंदी निदेशालय, शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार नई दिल्ली) ने लिखी है.
पाठकों को इस बात पर आश्चर्य होगा और होना भी चाहिए
कि आखिर मैंने इस उपन्यास में ऐसा क्या नया लिख दिया है, जिसकी जानकारी किसी को नहीं
है?. जबकि रामकथा अन्य अनेक भाषाओं में लिखी जा चुकी है. हिन्दी में-11, मराठी में
-8, बांगला में -25, तमिल में-12. तेलुगु में
12 तथा उड़िया में 6 रामायणें लिखी गईं है. सभी स्वनाम धन्य लेखकों ने अपनी-अपनी मति
से, अपनी-अपनी बोली-बानी में, अपनी-अपनी शैली
में प्रभु श्रीराम जी का गुणानुवाद किया है.
मैंने कहीं पढ़ा था कि "गीता को गाया जाना
चाहिए और रामायण को पढ़ा जाना चाहिए". इस "पढ़ा जाना" शब्द ने मुझ
पर गहराई से प्रभाव डाला कि ऐसा क्यों कर कहा गया है?. बचपन से अब तक मैंने कई बार
तुलसीकृत रामायण को पढ़ा है. पढ़ना है इसलिए पढ़ गया, लेकिन जिस गहराई में उतर कर पढ़ा
जाना चाहिए था, शायद वह नहीं कर पाया था.
फ़िर पढ़ने के इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए मैंने वाल्मीकि
रामायण, कम्बन रामायण, अद्भुत रामायण आदि का भी अध्ययन किया और पाया कि राम जी गम्भीरता
में समुद्र के समान , धैर्य में हिमवान के जैसे, पराक्रम में विष्णु के जैसे तथा चन्द्रमा
के समान प्रियदर्शन हैं. क्रोध में वे कालाग्नि
के तुल्य, क्षमा में पृथिवी के तुल्य, त्याग में कुबेर के तुल्य एवं सत्य में धर्म
के तुल्य हैं. धर्माचरण, निर्मलता, परोपकारिता, कर्तव्य निष्ठा और अपनी मातृभूमि के
प्रति निष्ठा का संतुलित मिश्रण रामजी के चरित्र में है. उनके लोकव्यापी, कल्याणकारी आचरण के कारण ही
"रामकथा" मानव के लिए मर्यादा कथा बनी, रामकथा संहिता बनी, पुराण बनी, इतिहास
बनी और इसी से हास-परिहास, व्यंग्य, कटुता, मित्रता, शत्रुता, द्वैष, प्रेम, श्रद्धा
और विश्वास के विभिन्न रंग उत्पन्न हुए. रामकथा
एक राजघराने की गाथा होकर भी सामान्य मनुष्य के प्रत्येक निमिष को समेटने वाली रामायण
बनी.
रामकथा की लोकप्रियता इसी बात से सिद्ध हो जाती
है कि आज सदियों बीत जाने पर भी श्रीराम के चरित्र का गुणगान करती अनेक कृतियाँ लिखी
जा चुकी हैं और वर्तमान में भी लिखी जा रही है, फ़िर भी उस विषय पर पाठकों की रुचि और
उत्सुकता आज भी यथावत बनी हुई है. शायद ही विश्व का कोई ऐसा चरित्र होगा, जिसको इतनी
अधिक भाषाओं में यत्किंचित परिवर्तन के साथ लिखा गया हो या उसका अनुवाद किया गया हो.
रामकथा से जुड़ाव का मूलभूत कारण श्रीराम के चरित्र
में देवत्व की बजाय उन मानवीय गुणों का होना है जो किसी समाज और देश को आदर्श बनाते
हैं. रामकथा श्रीराम का मात्र जीवन चरित्र नहीं है, बल्कि यह एक जीवन का मेनिफ़ेस्टो
या आचार संहिता है, जो समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए है. यही कारण है कि रामकथा
से जुड़ा प्रत्येक प्रसंग अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है और देश,काल और समय की परिधियों
को तोड़कर सार्वकालिक और सार्वभौमिक हो गया है.
जैसे-जैसे मैं इस रामकथा
की अतल गहराइयों में उतरता चला गया, मुझे बहुमूल्य मोती, मणि-माणिक्य मिलते गए. विचारों
में गहराइयां मिलीं, स्थिरता मिली, व्यापकता मिली. यही वे
कारक थे कि मैं जननायक श्रीरामजी के गुणानुवाद का लोभ संवरण नहीं कर पाया और उपन्यास
लिखने की ओर प्रेरित हुआ."
मेरे मतानुसार
"वनगमन" महज एक "यात्रा" है. एक ऐसी अद्भुत यात्रा,
जिसका प्रारंभ अयोध्या से होता है और अंत लंका
जाकर होता है. यह यात्रा बहुउद्देशीय है. इस यात्रा में कई दिलचस्प मोड़ है.
कई रुकावटे हैं, कई संक्रातिकाल (टर्निंग पाईन्ट
हैं). और एक ऐसा चतुर्भुज भी है, जिसके केन्द्र में प्रभु श्रीरामचन्द्र जी हैं
चतुर्भुज
के एक कोने पर पिता खड़े हैं जो "मोह" का प्रतिनिधित्व करते है. दूसरे कोने
पर माता कैकेई खड़ी हैं. जो एक क्षत्राणी है, अतः वे "कर्म" का प्रतिनिधित्व
करती हैं. वे राजनीति की कुशल खिलाड़ी रही हैं. वे अनेकों बार अपने पति महाराज दशरथजी
के साथ, देवताओं के आह्वान पर युद्ध करने जाती है. विजय श्री भी मिलती है, लेकिन उसका
सारा श्रेय देवराज इन्द्र के खाते में चला जाता है. अतः वे चाहती थीं कि इसका सारा
श्रेय रघुवंशियों को मिले. वे इस बात को लेकर
भी आश्वस्त थीं कि राम के द्वारा ही इसे प्राप्त
किया जा सकता है.
वे जानती
थीं कि राम का व्यक्तित्व संघर्षशील है. वे शौर्य और पराक्रम में अद्वितीय हैं. वे
राम के व्यक्तित्व को संसार से परिचित करवाना चाहती थी. वे यह भी जानती थीं कि राम
ने अल्पकाल में ही सारी विद्याएं प्राप्त कर ली थीं. ज्ञान तो उन्हें मिल गया था,लेकिन
व्यक्तित्व नहीं बन पाया था. अतः वे चाहती थीं कि राम राजमहलों से बाहर निकलकर प्रकृति
के खुले आसमान के नीचे, बरसात में भींगते हुए, बरसात की बूंदों का आघात सहते हुए, वनों
में मिलने वाले अभावों और कष्टों को सहकर, अथक श्रम करते हुए वह अपने व्यक्तित्व का निर्माण
करे. वे श्रम के महत्व को जानती थी. जानती थीं कि श्रम वंदनीय है, अभिनंदनीय है. अतः व्यक्तित्व को गढ़ने
का प्राकृतिक नियम है- प्रकृति के बीच जाकर, संघर्ष करके ही उसे गढ़ा जा सकता है. वे
राम के व्यक्तित्व को गढ़ना चाहती थीं. वे यह भी जानती थीं कि अयोध्या से बाहर निकल
कर ही राम के व्यक्तित्व में अधिक निखार आएगा.
अपनी सेविका
मंथरा के बहकाने अथवा रामजी के समझाने के बाद
वे स्वयं यह निर्णय लेती हैं कि दो वरदानों के माध्यम से ही राम को वनवास पर भेजा जा
सकता है. बाली और महाराज दशरथजी के बीच हुए युद्ध को भी वे नहीं भूली थीं. बाली को
मिले वरदान के कारण युद्ध में महाराज को पराजय का मुँह देखना पड़ा था और रघुकुल का गौरवशाली
मुकुट बाली के हाथों सौंप देना पड़ा था. वे रामजी का राज्याभिषेक उसी मुकुट से करना
चाहती थीं.
वे यह भी
अच्छी तरह जानती थीं कि महाराज दशरथजी का राम के प्रति जो पुत्रमोह है, उसके चलते वे
किसी भी कीमत पर राम को वनवास पर नहीं जाने देंगे. लेकिन वे उन्हें वन भेजने का मन
बना लेती हैं. वे यह भी जानती थीं राम महाराज दशरथ के प्राणॊं में समाए हुए है. राम
का वन जाना माने पति की मृत्यु होना सुनिश्चित है. राक्षसराज रावण के सहित दानवों का
संहार करने और सनातन धर्म को बचाने के लिए राम का वन जाना अति आवश्यक है. अतः वे सनातन
धर्म की पुनर्स्थापना के लिए, वैधव्य की मर्मांतक पीड़ा तक को सहने के लिए राजी हो जाती
हैं.
दुःख इस बात
को लेकर होता है कि राम को वन भेजकर माता कैकेई को "खलनायिका" के फ़्रेम में
कैद कर दिया गया है. यह उनके साथ सरासर अन्याय है. यदि वे राम को वन नहीं भेजतीं, तो
राम केवल अयोध्या की सीमा के भीतर ही सिमट कर रह जाते. लेकिन माता कैकेई ने उन्हें
वन भेजकर, राम की गौरवगाथा को संपूर्ण आर्यावर्त
के घरों-घर पहुँचा दिया. अतः उन्हें खलनायिका कहकर उनका अपमान नहीं किया जाना
चाहिए. उपन्यास " वनगमन" में रामजी और कैकेई के बीच चल रही वार्ता
को पढ़कर, आप कैकेई के उदात्त स्वरुप को जान पाएंगे, पहचान पाएंगे.
तीसरे कोने पर माता कौशल्या
हैं जो "ममता" की प्रतिमूर्ति हैं. वे केवल इस बात को लेकर चिंतित है कि
मेरा बेटा जंगल में कैसे रह पाएगा?, क्या खायेगा?, कहाँ सोएगा? आदि-आदि. और चौथे कोने
पर माता सुमित्राजी हैं. वे "त्याग" की प्रतिमूर्ति हैं. वह सबकी सुनती हैं,
सब कुछ देखती हैं, किसी से कुछ नहीं कहतीं. केवल अपने पुत्र लक्ष्मण को आज्ञा देते
हुए कहती हैं कि तुझे राम के साथ वन जाना चाहिए. बेटा-जहाँ राम निवास करेंगे, सच माने
में वही तो अवध है. (अवध तहाँ जहँ राम निवासू ). वे तेरे पिता तुल्य है और जानकी तेरी
अपनी माता के समान. (तात तुम्हारी मातु वैदेही, पिता रामु सब भाँति सनेही) वे लक्ष्मण को इस कड़ी शर्त के साथ, राम के साथ जाने
की अनुमति देती हैं और कहती हैं कि तुझे राम और सीता की सेवा अपने प्राणॊं के समान
करनी चाहिए. ( सेइअहिं सकल प्रान की नाईं ). तथा उन दोनों की सुरक्षा चौबीसों प्रहर
जागते हुए करना होगा. यह भी ध्यान रखना होगा कि वन में उन्हें कोई कष्ट नहीं होना चाहिए.
"वनगमन" मे प्रभु रामजी
के वन-यात्रा अयोध्या से प्रारंभ होकर चित्रकूट में विश्राम पाती है. यहाँ कुछ समय
व्यतीत करने के बाद वे दण्डकारण्य़ की ओर प्रस्थित
होते है.
कृपालु रामजी मुझसे दूसरा
खण्ड लिखवाना चाहते रहे होंगे. उनकी कृपा और आशीर्वाद पाकर मैंने अति उत्साहित होकर
दूसरा खण्ड " दन्डकारण्य की ओर " लिखा, जो शीघ्र ही प्रकाशित होने
जा रहा है. इस दूसरे खण्ड की भूमिका मारीशस से प्रख्यात साहित्यकार और मेरे मित्र श्री
रामदेव जी धुरंधर जी और साहित्य अकादमी भोपाल के निदेशक मान. श्री विकास दवे जी ने
लिखी है.
रामजी के इस दूसरे पड़ाव
की यात्रा में उनका सामना अनेक दुर्दांत दानवों और राक्षसों से होता है और उनके साथ
उनकी मुठभेड़ भी होती है. दण्डकारण्य़ में मिलने वाले दावनों/राक्षसों को किसी न किसी देवता से वरदान मिला हुआ था, तो
किसी को उसके पापाचरण के कारण श्राप भी मिला था. इसी क्रम में उनका सामना एक ऐसी विकट
राक्षसी शुर्पणखा से होता है, जो न केवल मायावी है, बल्कि राक्षसराज रावण की बहन भी
है. रामजी के अनुपम और अद्वितीय सौंदर्य को देखकर वह कामासक्त होती है. वह रामजी के
साथ संसर्ग करना चाहती थी. लेकिन. राम ने एकपत्नीव्रत होने की बात कहकर उसकी उपेक्षा
की. राम से मिली उपेक्षा को उसने अपना अपमान समझा और बदला लेने के लिए सीता को माध्यम
बनाया.
शुर्पणखा एक चतुर खिलाड़ी
थी. वह एक तीर से दो शिकार करना जानती थी. अतः उसने सीता जी के अनुपम सौंदर्य का बखान
कर अपने भाई रावण को सीता हरण के लिए उकसाया. दरअसल वह रावण से प्रतिशोध लेना चाहती
थी क्योंकि रावण ने उसके पति विद्युतजिव्ह को निर्दयतापूर्वक एक युद्ध में मार डाला
था, जबकि वह अच्छी तरह से जानता था कि विद्युतजिव्ह उसका बहनोई है.
दण्डकारण्य़ में रामजी
को अनेक ऋषि, महर्षि, तपस्वियों से परिचित होने का अवसर मिलता है. प्रभु राम इनसे मिलकर
केवल ज्ञानार्जन ही नहीं करते हैं, बल्कि अस्त्र-शत्र भी प्राप्त करते हैं. इसी यात्रा
में उनका सामना अनेक दुर्दांत दानवों और राक्षसों से भी होता है. हमें ऋषि, महर्षि,
तपस्वियों तथा दैत्यों,दानवों और राक्षसों
के नाम पढ़ने को तो मिलते हैं, लेकिन हम उनके बारे में विस्तार से कुछ नहीं जानते. वे
केवल एक पात्र की हैसियत से हमारे सामने आते हैं और हम आगे बढ़ जाते हैं. अतः उपन्यास
लिखते समय मैंने उन सभी ऋषियों, मुनियों महर्षियो आदि का विस्तार से परिचय देने का
प्रयास किया है, ताकि हम उनका इतिहास,उनकी अच्छाइयों और बुराइयों तथा शक्तियों के बारे
में जान सकें.
सीताजी का हरण होता है.
सीताजी की खोज में प्रभु रामजी ऋष्यमूक पर्वत जाते है, जहाँ उनकी भेंट हनुमानजी और
सुग्रीव से होती है. एक से एक मिलकर, अनेक हो जाते हैं. पवनपुत्र श्री हनुमानजी रामजी
के दूत बनकर लंका जाते हैं. रामकथा का यह दूसरा
खण्ड " दण्डकारण्य़ की ओर " हनुमान जी के लंका प्रस्थान के साथ ही इसका समापन
होता है.
रामजी के महति कृपा पाकर
मैं इस उपन्यास का तीसरा और अन्तिम खण्ड " लंका की ओर" लिख रहा हूँ.
इस तीसरे खण्ड पर लेखन कार्य निरन्तरता के साथ जारी है.
यह कथन कितना सटीक और
सत्य के करीब है कि-"वह पुराण, पुराण नहीं, वह संहिता, संहिता नहीं, वह इतिहास, इतिहास नहीं और वह काव्य,
काव्य नहीं, जिसमें राम का नाम न आया हो. राम का प्रभा मंडल अनंत है,चतुर्दिक है. आस्था
और विश्वास से परिपूर्ण है.
महाकवि लक्ष्मण सूरी ने
राम का वर्णन करते हुए " पोलस्त्यबध " रचना में लिखा है-" जिनके हाथ
में दान, पैरों में तीर्थ- यात्रा, भुजाओं में विजयश्री, वचन में सत्यता, प्रसाद में
लक्ष्मी, संघर्ष में शत्रु की पराजय है. वे दो बार नहीं बोलते " राम द्विनाभी
भाषते". राम जी की यह यात्रा, धर्म की जय यात्रा है.
रामकथा अयोध्या की नहीं,
अपितु अयोध्या से बाहर निकलकर "राम" बनने की गाथा है. रामभक्त संत तुलसीदास
जी ने रामचरित मानस के संपूर्ण अयोध्याकांड में उन्होंने एक बार भी अयोध्या शब्द का
प्रयोग नहीं किया. यहीं नहीं उत्तरकांड में एकमात्र चौपाई को छोड़ दें, संपूर्ण मानस
में वे अयोध्या को कौशल, साकेत, अवधपुरी ही कहते हैं. अयोध्या तो राम से है. अर्थात-
"जहाँ राम हैं, वही तो अयोध्या है".
मुझे विश्वास है कि रामकथा
पर आधारित दूसरा खण्ड " दण्डकारण्य की ओर" आपको रुचिकर लगेगा और साथ
ही इसमें बहुत कुछ नया भी पढ़ने को मिलेगा. उन तमाम पात्रों का परिचित भी प्राप्त होगा,
जो रामकथा में स्थान तो पाते हैं, लेकिन उनका विस्तार से परिचय नहीं मिलता.
जय रामजी की.
103, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म,.प्र.) 480001 गोवर्धन यादव (संयोजक
मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, जिला इकाई,छिन्दवाड़ा). 9424356400 goverdhanyadav44@gmail.com
05-07-2022
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नोट- आमेजन की इस लिंक में जाकर आप "वनगमन" उपन्यास
की कृति खरीद कर सकते हैं.
https://www.amazon.in/dp/B0B4JZ4D6S?ref=myi_title_dp
Inbox((ल
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Drafts दण्डकारण्य
की ओर.
ब्रह्म मुहूर्त में उठ बैठे थे श्रीराम. दैनिक नित्यक्रिया
कर्म के बाद वे सीताजी के साथ पावन मंदाकिनी के तट पर पहुँचे. एक विशाल शिला पर
उन्होंने अपना धनुष और तरकशों से भरा तुणीर रखा और गहरे पानी में उतरकर स्नान
किया. तत्पश्चात सीताजी ने स्नान किया और फ़िर वे दोनों उसी शिला पर आकर विराजमान
हो गए.
धुंधलका अब
भी छाया हुआ था. टिमटिमाते तारे अब धीरे-धीरे आखों के सामने से ओझल होने लगे थे.
रात्रि का अंतिम प्रहर और सूर्योदय के बीच की इस संधि-बेला को निहारना रामजी को
अत्यन्त ही प्रिय था. दो प्रहरों की इस संधि-वेला में मंद-मंद शीतल बयार बहने लगी.
कलियाँ, जो अब तक लाज के मारे घूंघट
काढ़े हुईं थीं, फ़ूल बनकर खिलखिलाने लगी थी. अलसाया भ्रमर पराग चुराने के लिए
गुनगुनाता हुआ, मस्ती के साथ उड़ चला था. कभी वह उस फ़ूल पर जाकर मंडराने लगता तो
कभी किसी और फ़ूल पर. रंग-बिरंगी तितलियां भी फ़ुदक-फ़ुदक कर, कभी उस
फ़ूल पर तो कभी किसी अन्य फ़ूल पर जा बैठतीं. पक्षियों के दल भी चारा-पानी की तलाश
में, अपने घोंसलों से निकल पड़े थे. हिरणों के
झुण्ड अपने
मृगछौनों के साथ धमा-चौकड़ी मचा रहे थे.
शाखा-मृग भला कब पीछे रहते? वे कभी इस डाल से उस डाल पर, तो कभी और अन्य वृक्ष पर
जा चढ़ते और उछल-कूद करने लगते.
अब सूर्योदय
का समय हो चला था. सूर्यनारायण उदित हों इससे पूर्व सारा वातायण ललछौंही किरणॊं से
रंग-बिरंगा हो उठा था.. प्रभु रामजी
और सीताजी ने उदित बाल-भास्कर को प्रणाम किया, जल चढ़ाकर अर्ध्य दिया और पुनः
प्रणाम किया.
मंदाकिनी के
पावन तट पर इस समय फ़ूलों का मेला लगा हुआ था. तरह-तरह के रंग-बिरंगे पुष्प खिले
हुए थे. सीताजी ने अपने आंचल में कुछ सुगन्धित पुष्पों का चुनाव करते हुए इकठ्ठा
किया ताकि वे अपनी पर्णकुटी में आकर अपने इष्टदेव को पुष्प अर्पित कर सकेंगी और
बचे हुए फ़ूलों की पंखुरियों को यत्र-तत्र बिखरा देंगी, ताकि उनकी कुटिया पूरे दिन
सुवासित बनी रहे. सीताजी फ़ूल चुनने में मगन थी. तथी रामजी ने एक ताजे गुलाब के
पुष्प को तोड़ा और सीताजी के जुड़े में लगा दिया. रामजी की हथेली का कोमल स्पर्श
पाकर सीताजी बिना मुस्कुराए कैसे रह सकती थीं?. अधरों पर मंद हास लिए उन्होंने कुछ
पुष्पों को अपनी अंजुरी में भरा और अपने पति के श्रीचरणॊं में अर्पित किया और झुककर प्रणाम करने लगीं. रामजी ने अपनी विशाल बाहों का घेरा बनाकर
उन्हें आहिस्ता से उठाया और अपने हृदय से लगा लिया. ऐसा करते हुए उन्हें परम सुख
की प्रतीति होने लगी थी. देर तक वे दोनों एक दूसरे के दिल की धड़कनों को सुनते रहे
थे.
अपनी
पर्णकुटी में प्रवेश करने से पूर्व सीताजी ने तुलसी-चौरा में लगी तुलसी को जल
चढ़ाया. कुछ पुष्प अर्पित किए और सिर झुकाकर प्रणाम करते हुए आशीष मांगा कि उनका
वनवास-काल बिना किसी विघ्नबाधा के बीत जाना चाहिए..
कुटी में
प्रवेश करते हुए वे भोजन पकाने में व्यस्त हो गईं थी और रामजी एक विशाल वृक्ष के
नीचे बैठकर प्राकृतिक सुषमा को निहार रहे थे. लक्ष्मण वन की ओर ताजा शहद और
कंद-मूल और फ़ल संग्रहित करने के लिए निकल गए थे.
इस बीच
सीताजी ने भोजन पका लिया था और लक्ष्मण जी भी प्रचूर मात्रा में ईंधन और मधु सहित
कंद-मूल-फ़ल ले आए थे.
फ़ुरसत के
समय आदमी अपने आगत और विगत के बारे में अक्सर सोचने लगता है. ठीक उसी तरह रामजी भी
अपने आगत और विगत के बारे में गंभीरता से सोच रहे थे. कल ही की तो बात है..
उन्होंने वन में निवास करने वाले अनेक तपस्वियों को अन्यत्र जाते हुए देखा था.
उन्होंने तो कुछ मुनियों को आपस में वार्तालाप करते हुए भी सुना था, जो उनकी ओर
देख तो रहे थे,लेकिन अत्यन्त ही धीमी आवाज में अपने मन की व्यथा-कथा एक-दूसरे को
बतला रहे थे.
मुनियों को
इस तरह व्यवहार करता देख, वे मन ही मन आकलन करने लगे थे कि कोई न कोई ऐसी बात
अवश्य है. फ़िर वे गहराई में उतरकर सोचने लगे कि कहीं मेरी ओर से कोई ऐसा धृष्ट
आचरण तो नहीं हो गया, जिसके कारण वे मुझसे रुठे हुए है?. क्या सीता उनको समय पर
अर्ध्य-पाद्ध आदि देकर सेवा नहीं कर रही हैं? लक्ष्मण स्वभाव से थोड़ा गुस्सैल जरुर
है, लेकिन मुझे नहीं दीख पड़ता कि उससे कोई ऐसा अपराध हो गया हो? तरह-तरह के विचार
मन में आते, जो उनके हृदय को व्यथित कर जाते.
आखिरकार उन्होंने मन बना लिया था कि वे इस बात की गहराई तक
जाकर मालूम करने की कोशिश करेंगे कि मुनि-समाज आखिर उनसे रुठा हुआ क्यों हैं?.
एक विशाल वृक्ष के नीचे मुनि-समाज बैठकर आपस में वार्तालाप
कर रहे था. उचित समय जानकर रामजी उनके पास जा पहुँचे और दोनों हाथ जोड़कर सभी का
अभिवादन करते हुए अत्यंत ही विनय पूर्वक जानना
चाहा कि आखिर आप लोग किस गंभीर विषय पर वार्तालाप कर रहे हैं? यदि कोई आसन्न संकट
हो तो कृपया मुझे बताइए. ताकि समय रहते मैं आप लोगों के कष्टों का निवारण कर सकूँ?
मुझसे अथवा मेरी भार्या सीता से अथवा मेरे अनुज से कोई ऐसा अपराध हो गया हो, जिसके
चलते आप लोग ऐसा व्यवहार करने लगे हैं? यदि ऐसा है, तो कृपया मुझे बतलाने की कृपा
करें. मैं दशरथ पुत्र राम, आपके समक्ष प्रतिज्ञा करता हूँ कि कोई भी संकट चाहे वह
देवों की ओर से उत्पन्न हुआ हो या फ़िर राक्षसों की ओर से....मैं उन्हें अभी और
तत्काल यमलोक की सैर कराऊँगा. विनती करते हुए रामजी ने मुनि-समाज से जानना चाहा
था.
रामजी के इस प्रकार पूछने पर एक महर्षि, जो जरावस्था के
कारण वृद्ध तो थे ही, तपस्या द्वारा भी वृद्ध हो गए थे. समस्त प्राणियों पर दया
करने वाले मुनिश्री ने श्रीरामजी से
कांपते स्वर में कहा- " हे तात ! हे दयानिधि ! आपके कारण ही तापसों पर
राक्षसों की ओर से भय उपस्थित होने वाला है. उससे उद्विग्न होकर ये ॠषि आपस में
कानाफ़ूसी कर रहे हैं.."
" हे तात ! यहाँ वन-प्रांत में रावण का छोटा भाई खर
नामक एक राक्षस है,जिसने जनस्थान में रहने वाले समस्त तापसों को उखाड़ फ़ेंका है. वह
बड़ा ही ढीठ, विजयोन्मत्त, क्रूर, नरभक्षी और घमंडी है. वह हमें ही नहीं, आपको भी
सहन नहीं कर पा रहा है."
त्वं यदाप्रभृति ह्यास्मिन्नाश्रमे तात वर्तसे :
तदाप्रभृति रक्षांसि विप्रकुर्वन्ति तापसान (अयोध्या काण्ड शोड़शाधिकशतमःसर्ग).
"हे राम ! जबसे आप इस आश्रम में रह रहे हैं, तबसे सब
राक्षस, तापसों को विशेषरूप से सताने लगे हैं. ये अनार्य राक्षस विभत्स, क्रूर और
भीषण, नाना प्रकार के विकृत एवं देखने में दुःखदायक रूप धारण कर सामने आते हैं और
अपवित्र पदार्थों से तपस्वियों का स्पर्श कराकर, अपने सामने खड़े हुए अन्य ॠषियों
को पीड़ा पहुँचाते हैं. और तो और वे अज्ञातरूप से आकर हमारे आश्रम में छिप जाते है
और अल्पज्ञ अथवा असावधान तापसों का विनाश करते हुए आनंद मनाते हैं".
"हे रघुनंदन ! होमकर्म आरम्भ होने पर ये दुष्ट दानव
यज्ञादि की सामग्री को इधर-उधर फ़ेंक देते हैं और प्रज्ज्वलित अग्नि में पानी डाल
देते हैं और कलशादि को फ़ोड़ डालते हैं".
हे राघव ! इन दुरात्मा राक्षसों से तंग आकर, सभी
ऋषि-मुनियों ने चित्रकूट के आश्रमों को त्याग कर अन्यत्र जाने का विचार लेकर मुझसे
मंत्रणा कर रहे हैं. हे तात ! यहाँ से कुछ दूर पर एक विचित्र वन है, जहाँ अश्वमुनि
का आश्रम है, मैं समस्त ॠषियों को लेकर उस आश्रम का आश्रय लूँगा"
" हे राम ! खर आपके प्रति कोई अनुचित वर्ताव करे, उसके
पहले ही यदि आपका विचार हो तो, कृपया आप लोग भी हमारे साथ ही यहाँ से चल
दीजिए".
रामजी ने समस्त ऋषि-मुनियों और तापसों को सांत्वना देते हुए
बहुविध समझाने का प्रयास किया, लेकिन वे उन्हें अन्यत्र जाने से रोक नहीं पाए.
उन महान
तपस्वियों, ऋषियों-मुनियों का इस तरह आश्रमों का त्याग करके चले जाना, कोई साधारण
घटना नहीं थी. इस घटना की याद आते ही उनका अपना मन कसैला होने लगा था. वे गहराई
में उतर कर सोचने लगे थे-" क्या तापसियों को मुझ पर भरोसा नहीं है कि मैं खर
को मार गिरा पाऊँगा? .इस पृथ्वी से दानवों को मारने के लिए ही तो मैंने जन्म लिया है. इतना सब जानते-बूझते हुए
भी मुनि-समाज का अन्यत्र चले जाने के पीछे केवल और केवल भय ही असली कारण था.
भयाक्रांत मनुष्य को लाख समझाया जाए, फ़िर भी वह भय के घेरे से बाहर नहीं निकल पाता
है. यदि वे एक क्षण को भी इस बात को स्मरण में रखते कि राम उनकी रक्षार्थ ही यहाँ
आया है, तो वे कदापि चित्रकूट छोड़कर अन्यत्र नहीं जाते, लेकिन वे सभी भय से भयभीत
होकर, एक आम मनुष्य की तरह सोचने लगे हैं. ॠषि-मुनियों का इस तरह आश्रमों को छॊड़
कर अन्यत्र चले जाने के पीछे केवल और केवल भय ही है, और कुछ नहीं.
००००००
लक्ष्मण वन से ताजा शहद और बहुत प्रकार के कंद और फ़ल लेकर
लौट आए थे. कुटिया से उठते हुए धुएं को देखकर उन्होंने सहज ही अंदाजा लगा लिया कि
भाभी जी इस समय रसोई-घर में व्यस्त होंगी. अतः.उन्होंने पर्णकुटी के द्वार पर ही
सारी सामग्रियों को रखकर, सूचित कर देना ही उचित समझा.
अब उन्हें अपने भ्राता की तलाश थी. रामजी इस समय पेड़ की सघन
छाया में बैठे, मन की अतल गहराइयों में उतरकर, तापसियों के भय को दूर करने का कोई
समाधानकारक हल खोज रहे थे. लक्ष्मण उनके समीप जा पहुंचे और शिकायती स्वर में
बोले-" भैया.....आज आप यहाँ..?....मैंने आपको न जाने कहाँ-कहाँ खोजा और आप
हैं कि आज इस पेड़ के नीचे बैठे हैं? बोलने को तो लक्ष्मण ने काफ़ी कुछ बोल डाला था,
लेकिन अपने में ही खोए हुए थे राम. न तो उन्होंने लक्ष्मण को पास आता देखा और न ही
उनकी किसी बात को सुना था.
लक्ष्मण ने दो-तीन बार उन्हें पुकारा था तब जाकर वे अपने
वर्तमान में लौट पाए थे..
"आओ...सुमित्रानंदन
आओ....मैं तुम्हारे ही आने की प्रतीक्षा कर रहा था. आओ...समीप ही
बैठो..मुझे तुमसे कुछ परामर्श करना है".
" हाँ..हाँ...क्यों नहीं. भैया, कहिए आप मुझसे किस
विषय में परामर्श करना चाहते हैं ?". समीप बैठते हुए लक्ष्मण ने जानना चाहा.
" अनुज ! मुझे लगता है कि हमें इस स्थान को त्याग कर
अन्यत्र चले जाना चाहिए?.
" वो क्यों भैया...?...यह वन तो आपको अत्यन्त ही प्रिय
है. फ़िर यहाँ पवित्र पावनी मंदाकिनी का मनोरम तट है, चहुँओर सघन वन है. इस उर्वरा
भूमि में नाना प्रकार के कंद-मूल और फ़ल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है. भाभी ने अपनी
पर्णकुटि को रुचि पूर्वक कितनी सुन्दर शैली से सजाया-संवारा है. आँगन में अनेक
प्रकार के पेड़-पौधे पुष्पित और पल्लवित हो रहे हैं. कई वृक्ष तो फ़लों से लद गए हैं
और कई फ़ूलों से लदे हुए हैं. भाभीजी कितने मनुहार से इन पेड़ों और पौधों की जड़ों
में पानी का सिंचन करती रही हैं. तुलसी चौरा पर सुबह-शाम दीप प्रज्ज्वलित करती
हैं. यदि उन्हें कोई शिकायत होती तो वे आपको अवश्य कह सुनातीं. इसके साथ ही यह भूमि ऋषि-मुनियों की तपोभूमि
भी है. अचानक ऐसा क्या हो गया कि आपने इस स्थान को त्याग देने का मन बना लिया?.
मैं नहीं समझता कि इससे बढ़कर सुन्दर और कोई जगह हो सकती है?. लक्ष्मण ने अनेकानेक
प्रश्नों के पहाड़ रामजी के समक्ष खड़े कर दिये थे.
"अनुज लक्ष्मण ! तुम्हारा इस तरह सोचना उचित है मेरे
भाई.... मैं भी तुम्हारी जगह होता तो शायद ऐसे ही प्रश्न करता".
. "हे अनुज !. शायद तुम इस बात से अब तक अनभिज्ञ हो कि
बिना मेरे संज्ञान में लाए, बहुत से तपस्वी उद्विग्न होकर अन्यत्र जाने के लिए
उत्सुक दिखाई दे रहे हैं, जबकि इससे पहले वे आनन्दमग्न रहा करते थे. क्या तुम
जानना नहीं चाहोगे कि उन्होंने इस स्थान को त्याग कर, अन्यत्र जाने का मन क्यों
बनाया?".
" भैया ! मेरा आपसे अनुरोध है कि कृपया पहेलियाँ न
बुझाते हुए आप कारण बतलाने की कृपा करेंगे, तो अच्छा होगा". लक्ष्मण ने कहा.
"सुनो लक्ष्मण ! ॠषि, मुनि और तपस्वियों के आश्रमों
में हम तीनों उनके कुशल-क्षेम पूछने
नियमित रुप से जाते रहे हैं. एक दिन मैं अकेला ही महर्षि कुलपति जी से
मिलने चला गया. तब जाकर मुझे ज्ञात हुआ कि अनेक तपस्वी इस क्षेत्र का त्याग कर
अन्यत्र जाने का मन बना चुके हैं. उनकी उद्विग्नता को देखकर मैंने कुलपति महर्षि
से जानना चाहा कि वे इस तपस्थली को छोड़कर अन्यत्र जाने की क्यों सोच रहे है?. तब
उन्होंने बतलाया कि आपके ही कारण राक्षसों की ओर से भय उपस्थित होने वाला है.
विस्तार से बतलाते हुए उन्होंने यह भी बताया कि रावण के छोटे भाई खर ने जनस्थान
में रहने वाले समस्त तापसों को उखाड़ फ़ेंका है. वह बड़ा ही ढीठ, विजयोन्मत्त, क्रूर
नरभक्षी और घमंडी है. विभिन्न भयानक रूप धारण कर वह अपवित्र पदार्थों से तपस्वियों
का स्पर्श कराकर उन्हें पीड़ा पहुँचाता है. कभी-कभी तो वह अन्य दानवों के साथ
अज्ञातरूप से आकर आश्रम में छिप जाता है और अवसर पाकर तापसों का विनाश करते हुए
सानन्द से विचरता हैं".
"महर्षि कुलपति ने अपनी कांपती हुई आवाज में मुझे यह
भी बतलाया था कि वे समस्त तपस्वियों को लेकर अश्वमुनि के आश्रम का आश्रय लेने के
लिए जाने का मन बना चुके हैं. उन्होंने सलाह देते हुए मुझसे भी अनुरोध किया कि मैं
सीताजी और अनुज लक्ष्मण को साथ लेकर हमारे साथ चल देना चाहिए".
इतना सुनते ही लक्ष्मण का चेहरा क्रोध से तमतमाने लगा था.
नेत्रों से जैसे अग्नि बरसने लगी थी. उन्होंने अत्यन्त ही क्रोधित होते हुए कहा-
" भैया ! क्षमा करें....मैं कुलपति
जी की कही गई बातों से तनिक भी सहमत नहीं हूँ कि हमारे रहते उन्हें कोई कष्ट उठाना
पड़ रहा है, जबकि हम उनकी सुरक्षा को लेकर सदैव सजग बने रहते आए हैं. फ़िर आपके रहते
हुए उस दानव की इतनी हिम्मत कि वह यहाँ आकर उपद्रव मचाए?. क्या वह अत्याचारी नहीं
जानता कि रघुवंशशिरोमणि राम इसी स्थान पर पर्णकुटी बनाकर निवास कर रहे हैं. ऐसे
अत्याचारी दानव को अभी और तत्काल यमलोक पहुँचा देना चाहिए. बस आप मुझे आज्ञा दें,
मैं अभी और इसी समय उस दानव खर के सहित सभी दानवों को मार गिराऊँगा". तमतमाते
हुए लक्ष्मण ने कहा.
"सुमित्रानंदन ! अब शांत भी हो जाओ. मैं नहीं चाहता कि
जिस पवित्र और पावन स्थान पर रहकर हमने इतने लंबे समय तक रहकर सुखमय जीवन जिया है,
उस जगह पर कोई रक्तपात हो. रही बात खर की. और उसे मारकर यमलोक पहुँचाने की, तो अभी
उसका समय नहीं आया है. समय आने पर हम निश्चित ही उसे यमलोग पहुँचाकर ही रहेंगे,
तुम निश्चिंत रहो".
" हे लक्ष्मण ! बरसों से इसी स्थान पर रहकर तप करने
वाले ॠषि-मुनि और तपस्वियों के अन्यत्र चले जाने का और एक कारण है, जिसे शायद हम
समझ नहीं पाए थे. उस कारण की जड़ में और कोई नहीं, शायद मैं ही हूँ. मुझसे मिलने के
लिए नजदीक पास के जनस्थान के लोग बेखटके आते-जाते रहे हैं. उनके आने से शोर-गुल तो
होता ही है. इसी शोर-गुल के कारण तापसियों
को ध्यान लगाने में रुकावटें आ रही थीं. तुम तो जानते ही हो कि तापसियों को ध्यान
लगाने और जप-तप करने के लिए एकांत की आवश्यकता होती है".
" हे वीर लक्ष्मण ! उपरोक्त कारणॊं के अलावा एक कारण
और है, क्या तुम उसे जानना नहीं चाहोगे?. तुम्हें भी वह कारुणिक दृष्य जब-तब
दिखलाई पड़ता होगा, जब भरत हमारी तीनों माताओं के सहित विशाल सेना और
अयोध्यावासियों को लेकर, मुझे वापिस लिवा ले जाने के लिए यहाँ आया था. उसका यहाँ
आना इस बात की पुष्टि करता है कि उसके हृदय में मेरे प्रति कितनी गहराई से प्रेम
है. मैं उसके इस अनन्य प्रेम का आजीवन ऋणी रहुँगा".
" हे अनुज ! जैसे ही मेरी दृष्टि तीनों माताओं पर
पड़ीं, वे एक कोने में खड़ी रहकर सुबग-सुबग कर विलाप कर रही थीं. मैं उन तीनों को
विधवा के रुप में देख्र रहा था. उनका सुहाग उजड़ चुका था. कभी उन्हें रंग-बिरंगी
साड़ियाँ और तरह-तरह के आभूषण पहनने का शौक था, वे सफ़ेद रंग की साड़ियों में लिपटी
खड़ी थीं और उनके शरीर पर एक भी आभूषण नहीं था. जिनकी ललाट पर हमेशा सूर्य का-सा
सिंदूरी गोला, जो सुहाग का प्रतीक होता है, दमकता रहता था, क्रूर काल ने उसे
सदा-सदा के लिए पोंछ दिया है. उनके चेहरों पर जो रघुकुल गौरव की आभा दमकती थी, वह
निस्तेज हो गई हैं. हे अनुज लक्ष्मण ! यह सब
मेरी आँखों के सामने जब-तब दिखाई देता है. यह कारुणिक दृष्य मुझे हलाकान-परेशान
कर देता है, मेरी बेचैनी बढ़ा देता है". यह कहते हुए रामजी की आँखें नम होने
लगी थीं और आँखों से आँसू लुढ़ककर गालों पर बहने लगे थे.
अपनी व्यथा-कथा कहते हुए रामजी अब फ़फ़क कर विलाप करने लगे
थे. बोलते-बोलते वे अचानक चुप हो गए थे. वे आगे और बोलना भी चाहते थे लेकिन दारूण
दुःख के चलते, शायद उन्हें शब्द नहीं मिल पा रहे थे.
देर तक अन्यमस्क बैठे रहने के बाद उन्होंने भारी गले से
बोलते हुए कहा-" वे लक्ष्मण ! इस पृथ्वी से पापाचार को समाप्त करने से पहले राम
को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है ?, तुम इसका सहज ही अनुमान लगा सकते हो".
" इन्हीं सभी बातों को भी ध्यान में रखते हुए, मैंने अन्यत्र जाने का मन बना लिया है."
इतना कहकर वे चुप हो गए और प्रतीक्षा करने लगे थे कि सीता और लक्ष्मण इस विषय में
क्या कहते हैं.
बात सच थी. इस बात पर न तो कभी सीताजी ने और न ही लक्ष्मण
ने गौर किया था. प्रश्न काफ़ी गंभीर थे. वे रामजी के एक-एक शब्द को, न केवल ध्यान
से सुन रहे थे, बल्कि विचार भी रहे थे, कि
अब हमें किस ओर प्रस्थान करना चाहिए?.
काफ़ी सोच-विचार के बाद, दोनों ने रामजी के बातों का अनुमोदन
करते हुए, अन्यत्र चलकर निवास करने की सहमति दे दी थी. दोनों की सहमति पाकर रामजी
को अच्छा लगा.
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा-" सीते ! इस
स्थान का त्याग करने से पहले हमें सती अनसूया और महर्षि अत्रि जी के दर्शनों के
लिए जाना चाहिए. इतने दिन यहाँ निवास करते रहने के बाद भी हम उनके दर्शनों से
वंचित रह गए हैं".
तं चापि भगवान्त्रिः पुत्रवत
प्रत्यपद्धत .
अत्रि मुनि का आश्रम
वे तीनों यशस्वी यात्री मार्ग में जहाँ-तहाँ, जो स्थान पहले
देखने में नहीं आए थे, ऐसे अनेक प्रकार के भू-भागों तथा फ़ूलों और फ़लों से लदे हुए
भांति-भांति के मनोहारी वृक्षों को निहारते हुए, सघन वन के बीच से चलते हुए जा रहे
थे. मार्ग चलते हुए रामजी ने अपनी भार्या सीताजी और लक्ष्मण को संबोधित करते हुए
बतलाया कि अत्रि मुनि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं, वे ब्रह्मा जी के नेत्रों से
उत्पन्न हुए हैं. उन्होंने कर्दम की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था, जो एक महान
पतिव्रता के रूप में विख्यात है. पुत्रोत्पत्ति के लिए इन्होंने ॠक्ष पर्वत पर घोर
तप किया था, जिस कारण उन्हें त्रिमूर्तियों की प्राप्ति हुई थी. त्रिदेवों के अंश
रूप में दत्त ( विष्णु ), दुर्वासा ( शिव
), और सोम ( ब्रह्मा ) उत्पन्न हुए.
आपस में वार्तालाप करते हुए वे तीनों उस परम पवित्र कुटि के समीप जा पहुँचे, जहाँ
मुनि अत्रि अपनी सहधर्मिणी सती अनसूया जी के साथ निवासरत थे.
अत्रि जी के आश्रम में पहुँचकर रामजी ने उन्हें अपना परिचय
देते हुए कहा-" हे मुनिश्रेष्ठ, मैं दशरथनन्दन राम, आपके श्रीचरणों में
प्रणाम निवेदित करता हूँ. (सीताजी की ओर इंगित करते हुए) हे महामुने ! ये जनकदुलारी सीता मेरी भार्या हैं और (लक्ष्मण की ओर इंगित करते हुए) ये मेरे
अनुज लक्ष्मण हैं. पिताश्री की आज्ञा का अनुपालन करते हुए मैं चौदह वर्षों के लिए
वन में निवास करने के लिए आया हुआ हूँ. अनुज लक्ष्मण अपने भ्रातृत्व स्नेह के कारण
मेरे साथ चले आए हैं".
" आओ राम ! आओ..इस आश्रम में तुम्हारा स्वागत
है.तुम्हारा कल्याण हो".
मुनि ने आशीर्वाद देते हुए उन्हें अपने समीप ही बैठने का
संकेत किया. तत्पश्चात उन्होंने अपनी धर्मपरायणा तपस्वी अनसूया का परिचय देते हुए
बतलाया-" एक समय दस वर्षों तक वृष्टि नहीं हुई थी, उस समय जब सारा जगत दग्ध
होने लगा था, तब अनसूया ने अपनी तपस्या के तप के प्रभाव से फ़ल-फ़ूल उत्पन्न किये और
मन्दाकिनी की पवित्र धारा बहायी. उन्होंने उनके प्रताप को बतलाते हुए कहा-"
हे राम ! जिन्होंने दस हजार वर्षों तक भारी तपस्या करके अपने उत्तम व्रतों के
प्रभाव से, ऋषियों के समस्त विघ्नों का निवारण किया था, वे ही यह अनसूया देवी
हैं.
"धर्मात्मा राम ! प्रजापति कर्दम और देवहूति की नौ
कन्याओं में से वे एक हैं. इनके सतीत्व का तेज इतना अधिक है कि आकाशमार्ग से जाते
देवों को उसके प्रताप का अनुभव होता है, इसी कारण उन्हें " सती अनसूया"
के नाम से भी जाना जाता है".
" हे राम ! एक
बार की बात है. नारद मुनि जी आकाशमार्ग से विचरण कर रहे थे, तभी उन्होंने
लक्ष्मीजी, सरस्वतीजी और पार्वती जी को परस्पर विमर्श करते हुए देखा. तीनों
देवियाँ अपने सतीत्व और पवित्रता की चर्चा कर रही थीं. नारद मुनि उनके पास पहुँचे
और उन्होंने अनुसूया के असाधारण पातिव्रत्य धर्म के बारे में बतलाया. नारद जी
बोले-" उनके समान पवित्र और पतिव्रता तीनों लोकों में नहीं है." यह
सुनकर तीनों देवियों के मन में अनसूया के प्रति ईर्ष्या होने लगी. तीनों देवियों
ने सती अनसूया के पातिव्रत्य को खण्डित करने के लिए, अपने पतियों से कहा. तीनों ने
उन्हें बहुत समझाया, पर वे राजी नहीं हुईं.
इस विशेष आग्रह पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने सती अनसूया
के सतीत्व और ब्रह्मशक्ति को परखने की सोची. जब मैं अपने आश्रम से कहीं बाहर गया
हुआ था, तब उन तीनों ने यतियों का भेष धारण किया और आश्रम में जाकर भिक्षा मांगने
लगे.
अतिथि-सत्कार की परंपरा के चलते सती ने त्रिमूर्तियों का
उचित रूप से स्वागत कर उन्हें भोजन करने के लिए आमंत्रित किया. लेकिन तीनों ने एक
स्वर में कहा-" हे साध्वी ! हमारा एक नियम है, जब तुम निवस्त्र होकर भोजन
परसोगी, तभी हम भोजन ग्रहण करेंगे".
अनसूया असमंजस में पड़ गईं कि इससे तो उनके पातिव्रत्य के
खंडित होने का संकट है. उन्होंने मन ही मन मेरा स्मरण किया. तब दिव्य शक्ति से
उन्होंने जान लिया कि ये तो त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं.
मुस्कुराते हुए अनसूया ने कहा-"जैसी आपकी इच्छा".
उन्होंने अपनी अंजुरी मे जल लेकर उसे अभिमंत्रित किया और उन तीनों त्रिदेवों पर
छिड़क कर उन्हें तीन प्यारे शिशुओं के रूप में बदल दिया. सुंदर शिशुओं को देखकर
उनका मातृत्व भाव उमड़ पड़ा. उन्होंने उन तीनों को स्तनपान कराया. दूध-भात खिलाया और
गोद में सुला लिया. तीनों गहरी नींद में सो गए. तब उन्होंने उन तीनों को पालने में
सुलाकर कहा-" तीनों लोकों पर शासन करने वाले ब्रह्मा, विष्णु और महेश अब मेरे
शिशु बन गए हैं, मुझसे बड़ा बड़भागी और कौन हो सकता है? यही सोचकर वे मधुर कंठ में
लोरी गाकर उन्हें पालने में झुलाती थीं".
" महिनों बीत जाने के बाद भी जब तीनों देव अपने-अपने
लोकों में नहीं पहुँचे, तब वे अपने पतियों को खोज में निकल पड़ीं. जब वे तीनों
आकाशमार्ग से जा रही थीं, तभी उन्होंने देखा कि एक सफ़ेद बैल सती के आश्रम के द्वार
पर आ पहुँचा है. एक विशाल गरुड़ पंख फ़ड़फ़ड़ाते हुए आश्रम के ऊपर मंडरा रहा है और एक
राजहंस अपनी चोंच में कमल का फ़ूल लिए नीचे उतरकर आश्रम के द्वार पर आ गया है. इस
अद्भुत दृष्य को देखकर तीनों ने अनुमान लगाया कि हमारे पतिदेव इसी आश्रम में हैं.
इसी बीच नारद मुनि जी भी अपनी वीणा बजाते हुए उसी आश्रम के द्वार पर आ पहुँचे.
आकाशमार्ग से उतरकर अब तीनों देवियां भी आश्रम के द्वार पर आ पहुँची".
नारद जी ने विनयपूर्वक माता अनसूया जी से कहा-" माते !
अपने पतियों के वाहनों को देखकर ही ये तीनों देवियां यहाँ पर आईं हुईं हैं और अपने
पतियों को ढूंढ रही हैं. अब आप कृपा पूर्वक उनके पतियों को उन्हें सौंप
दीजिए".
अनसूया जी ने उन तीनों देवियों से कहा-" झूले में सोने
वाले शिशु अगर तुम्हारे पति हैं तो आप इन्हें ले जा सकती हैं."
"लेकिन जब तीनों देवियों ने तीन शिशुओं को देखा जो एक
समान लग रहे थे और गहरी निद्रा में सो रहे थे. इस पर लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती
भ्रमित होने लगीं".
नारद जी ने उनकी स्थिति जानकर चुटकि लेते हुए पूछा-"
क्या आप अपने पतियों को पहचान नहीं पा रही हैं? अब शीघ्रता से अपने-अपने पति को
गोद में उठा लीजिए."
" देवियों ने जल्दी में एक-एक शिशु को उठा लिया. वे
शिशु एक साथ त्रिमूर्तियों में रूप में खड़े हो गए. तब उन्हें मालूम हुआ कि सरस्वती
ने शिवजी को, लक्ष्मी ने ब्रह्मा जी को और पार्वती ने विष्णु को उठा लिया है.
तीनों देवियां शर्मिंदा होकर दूर जा खड़ी हुईं. तीनों देवियों ने अनसूया से क्षमा
याचना की और बताया कि हमने ही इन्हें आपकी परीक्षा लेने के लिए बाध्य किया था.
क्षमा मांगते हुए उन तीनों ने प्रार्थना की कि उनके पतियों को पुनः अपने स्वरूप
में ले आएं".
अनसूया ने त्रिदेवों को उनका रूप प्रदान किया. तीनों देवों
ने प्रसन्न होकर बोला-" हे देवी ! वरदान मांगो. त्रिदेव की बात सुन अनसूया
बोलीं-" प्रभु ! आप तीनों मेरी कोख से जन्म लें, बस यही वरदान मुझे
चाहिए."
"उस दिन से ये मां सती अनसूया के नाम से प्रख्यात हुईं
थीं. कालान्तर में भगवान दत्तात्रेय के रूप में विष्णु, चन्द्रमा के रूप में
ब्रह्मा का तथा दुर्वासा के रूप में भगवान शिव का जन्म इन्हीं के गर्भ से हुआ
था"..
अत्रि मुनि ने बात को आगे बढ़ाते हुए रामजी से कहा-"
निष्पाप राम !. इन्हीं अनसूया ने देवताओं के कार्य के लिए अत्यन्त उतावली होकर दस
रात के बराबर एक ही रात बनायी थी. वे सम्पूर्ण प्राणियों के लिए वन्दनीया तपस्वनी
है. क्रोध इन्हें कभी छू भी नहीं सका है. ऐसी देवी अनसूया तुम्हारे लिए माता की
भांति पूज्यनीय है".
मंत्रमुग्ध होकर वे तीनों सती अनसूया जी की महिमा का बखान
प्रमुदित होकर सुन रहे थे.
फ़िर उन तीनों को सम्बोद्धित करते हुए उन्होंने कहा-"
अब तुम तीनों को भीतर जाकर देवी अनसूया के दर्शनों का लाभ उठाना चाहिए और उनसे
आशीर्वाद भी प्राप्त करना चाहिए".
"जी.अच्छा" कहकर उन तीनों ने कुटिया के भीतर
प्रवेश किया, जहाँ वे विराजमान थी.
उन्होंने देखा. देवी अनसूया अपनी वृद्धावस्था के कारण शिथिल
हो गयी थीं, उनके शरीर में झुर्रियाँ पड़ गयी थीं तथा सिर के बाल सफ़ेद हो गए थे. उन
तीनों ने निकट जाकर उन्हें प्रणाम किया और अपना परिचय दिया.
उस संयमशीला तपस्विनी को प्रणाम करके हर्ष से भरी हुई सीता
ने निकट जाकर दोनों हाथ जोड़ते हुए उनका कुशल-समाचार पूछा. सती-साधवी अनसूया जी ने
सीताजी को अपने पास बैठने को कहा. जब वे उनके निकट बैठ गयीं, तब साधवी ने कहना
शुरु किया-"सीते ! तुम बन्धु-बान्धवों को छोड़कर और उनसे मिलने वाली प्रतिष्ठा
का परित्याग करके वन में भेजे हुए श्रीराम का अनुसरण कर रही हो- यह बड़े सौभाग्य की
बात है. पति नगर में रहे या वन में, वे भले हों अथवा बुरे, जिन स्त्रियों को वे
प्रिय होते हैं, उन्हें महान अभ्युदयशाली लोकों की प्राप्ति होती है."
" हे विदेहनन्दनी ! मैं बहुत विचार करने पर भी पति से
बढ़कर कोई हितकारी बन्धु नहीं देखती. तुम लोक-परलोक को जानने वाली, उत्तम गुणों से
युक्त, पुण्य-कर्मों में संलग्न रहने वाली हो. तुम इसी तरह अपने पतिदेव श्री
रामचन्द्रजी की सेवा में लगी रहो. सतीधर्म का पालन करो, पति को प्रधान देवता समझो
और प्रत्येक समय उनका अनुसरण करती हुई अपने स्वामी की सहधर्मिणी बनो, इससे तुम्हें
सुयश और धर्म दोनों की प्राप्ति होगी".
आशीर्वाद देते हुए सती-साधवी अनसूया जी ने सिरहाने रखी एक
बड़ी-सी पोटली निकाली और सीताजी की ओर बढ़ाते हुए कहा-" सीते ! इसमें सुन्दर
दिव्य हार, वस्त्र और आभूषण, अंगराग और बहूमूल्य अनुलेपन मैं तुम्हें देती हूँ. हे
विदेहनन्दिनी ! मेरी दी हुईं ये वस्तुएँ तुम्हारे अंगों की शोभा बढ़ायेंगी. ये सब
तुम्हारे योग्य है और सदा उपयोग में लायी जाने पर भी निर्दोष एवं निर्विकार रहेंगी".
" हे जनककिशोरी ! इस दिव्य अंगराग को अंगों में लगाकर
तुम अपने पति को उसी प्रकार सुशोभित करोगी, जैसे लक्ष्मी अविनाशी भगवान विष्णु की
शोभा बढ़ाती है".
" सीते ! अब रात घिर आयी है. वह नक्षत्रों से सज गयी
है. आकाश में चन्द्रदेव चाँदनी की चादर ओढ़े उदित होते हुए दिखायी दे रहे हैं. अतः
अब तुम जाओ. मैं तुम्हें जाने की आज्ञा देती हूँ. जाकर अपने पति श्रीरामचन्द्र जी
की सेवा में लग जाओ. तुमने मीठी-मीठी बातों से मुझे भी बहुत संतुष्ट किया
है".
"बेटी मिथलेशकुमारी ! पहले मेरी आँखों के सामने,
अपने-आपको अलंकृत करो. इन दिव्य वस्त्र और आभूषणों को धारण करो. इनसे सुशोभित होकर
मुझे प्रसन्न करो".
यह सुनकर देवकन्या के समान सुन्दरी सीताजी ने उसी समय उन
वस्त्राभूषणॊं से अपना सिंगार किया और देवी अनसूयाजी के चरणॊं में सिर झुकाकर
प्रणाम किया.
वस्त्राभूषणॊं से सुशोभित सीताजी को वे देर तक निहारती रही
और प्रसन्न होती रही थीं. तदन्तर उन्होंने सीता को रामजी की सेवा में उपस्थित होने
को कहा.
श्रीराम ने जब सीताजी को वस्त्र और आभूषणॊं से विभूषित देखा
तो वे अपनी प्रसन्नता की अतिरेक को छिपाए छिपा न सके थे. उस समय मिथिलेशकुमारी
सीता ने तपस्विनी अनसूया जी के हाथ से जिस प्रकार वस्त्र, आभूषण और हार आदि का
प्रेमोपहार प्राप्त हुआ, वह सब कह सुनाया.
रामजी, लक्ष्मण जी ने सीताजी का वह सत्कार, जो मनुष्यों के
लिए सर्वथा दुर्लभ है, देखकर बहुत प्रसन्न हुए. तदनन्तर समस्त तपस्वीजनों से
सम्मानित हुए रामजी ने अनसूया के दिए हुए पवित्र अलंकार आदि से अलंकृत सीताजी को
देखकर प्रसन्नता के साथ, अत्रि मुनि के आश्रम में रात्रि विश्राम किया.
सुबह की पहली किरण के साथ ही तीनों उठ बैठे. नित्य
क्रियाकर्म के बाद उन्होंने स्नान किया. सूर्यदेव को जल अर्पण कर प्रणाम किया.
उन्होंने देखा कि आश्रम के सभी बनवासी तपस्वी मुनि स्नान कर
अग्निहोत्र कर चुके हैं, तब रामजी और लक्षमण ने मुनि जी को सादर प्रणाम करने के
बाद जाने की आज्ञा मांगीं.
धर्मपरायण अत्रि मुनि ने दोनों भाइयो को समझाते हुए
कहा-" हे रघुनन्दन ! इस वन का मार्ग राक्षसों से भरा पड़ा है. वे आए दिन
उपद्रव करते रहते हैं. इस विशाल वन में वे नाना प्रकार के रूप धारण कर लोगों को न
सिर्फ़ डराते हैं बल्कि उनके प्राण लेने में भी नहीं हिचकते. इस वन में नरभक्षी
राक्षसों के अलावा रक्त के प्यासे हिंसक पशु भी निवास करते हैं".
"राघवेन्द्र !. जो तपस्वी और ब्रह्मचारी उन्हें
असावधान अवस्था में मिल जाता है, राक्षस और हिंसक पशु उन्हें अपना शिकार बनाने में
तनिक भी देरी नहीं लगाते. अतः आप इन्हें बलपूर्वक रोकिए और उन्हें मार
भगाइये".
" हे रघुकुलभूषण ! ( मार्ग दिखाते हुए ) यह वही मार्ग
है, जिससे महर्षि लोग वन के भीतर फ़ल-मूल लेने जाते हैं. आपको भी इसी मार्ग से इस दुर्गम वन
में प्रवेश करना चाहिए".
तपस्वी ब्राह्मणॊं ने हाथ जोड़कर वन की स्थिति से रामजी को
अवगत कराया. और अपना आशीर्वाद देते हुए उनकी मंगलयात्रा के लिए स्वस्तिवाचन किया.
उभय बीच श्री सोहइ कैसी । ब्रह्म जीव बिच माया जैसी
शत्रुओं को संताप
देने वाले रामजी ने अपने कंधे पर धनुष रखा. बाणॊं से भरा तूणीर अपनी पीठ पर कसा और
चल पड़े. उनके ठीक पीछे सीताजी सावधानी पूर्वक चलते हुए, उन स्थानों से दूरी बनाते
हुए चल रही थीं, जिन स्थानों पर रामजी के चरण-कमल पड़ रहे थे और सबसे अंत में
लक्ष्मण जी भी उनका अनुसरण करते हुए चल रहे थे. चलते समय वे विशेषकर इस बात का
ध्यान रख रहे थे कि कहीं असावधानी से अथवा भूलवश इनके पग उस स्थान पर न पड़े,
जिन-जिन स्थानों पर रामजी और सीताजी के चरण-कमल पड़ रहे थे.
उन्हें वहाँ ऋषि-मुनियों के
बहुत से आश्रम दिखाई दिए. आश्रमों को
झाड़-बुहार कर स्वच्छ रखा गया था. वहीं बड़ी-बड़ी
अग्निशालाएँ, यज्ञपात्र, मृगचर्म, कुश, समीधा, जल से भरे हुए कलश क्रम से रखे हुए थे.. आश्रम के चारों ओर स्वादिष्ट फ़ल देने वाले वृक्ष लगे हुए थे. बहुत से रंग-बिरंगे पक्षी अपनी-अपनी बोलियों से बोलते हुए वहाँ के समूचे वातावरण को
गुंजारित कर रहे थे. आश्रम के
अन्दर बहुत से कृष्णमृग यहाँ-वहाँ विचर
रहे थे. पवित्र महर्षियों से सुशोभित वह आश्रम-समूह ब्रह्माजी के धाम की भाँति तेजस्वी तथा वेदमंत्रों के
पाठ की ध्वनि से गूँजता था. कमलपुष्पों
स सुशोभित पुष्करिणी उस स्थान की शोभा में चार चांद लगा रही थी तथा वहाँ और भी
बहुत-से फ़ूल सब ओर बिखरे हुए थे.
उन आश्रमों में चीर और काला
मृगचर्म धारण करने वाले तथा फ़ल-फ़ूल का आहार
करके रहने वाले जितेन्द्रिय एवं सूर्य और अग्नि के समान महातेजस्वी पुरातन मुनि
निवास करते थे.
आश्रम के प्रवेश द्वार पर पहुँच
कर रामजी ने कांधे पर से धनुष और तूणीर उतारकर एक ओर रख दिया और द्वार पर उपस्थित
मुनि बालक से विनम्रतापूर्वक कहा-" हे मुनि बालक ! मैं राम ! अपनी भार्या और अनुज लक्ष्मण के
साथ यहाँ आया हूँ. मैं महर्षि
के दिव्य दर्शनों का अभिलाषी हूँ. आप भीतर जाकर उन्हें मेरा प्रणाम निवेदित करते हुए, आश्रम के भीतर आने की अनुमति प्राप्त कर हमें अनुगृहित करें".
मुनिकुमार ने शीघ्रता से जाकर
अपने गुरुदेव को प्रणाम करते हुए रामजी का निवेदन उन तक पहुँचा दिया. तत्क्षण अनेक महर्षि और ऋषियों ने स्वयं द्वार पर उपस्थित
होकर प्रभु श्रीराम जी, सीताजी और
लक्ष्मण का स्वागत करते हुए, न केवल मंगलमय आशीर्वाद दिया, बल्कि उन तीनों को आदरणीय अतिथि के रूप में भी ग्रहण किया.
उन्हें आश्रम के भीतर प्रवेश
करता देख, वन में निवास करने वाले सभी मुनि तीनो को एकटक नेत्रों से
देख रहे थे. वे सभी रामजी के रूप, शरीर का गठन, कान्ति, सुकुमारता एवं सुन्दर वेष में देखकर आश्चर्यचकित होकर देख
रहे थे. इससे पहले
उन्होंने इतनी तेजस्विता लिए हुए किसी भद्रपुरुष को नहीं देखा था. रामजी को निहारते हुए वे चित्रलिखे से प्रतीत हो रहे थे.
धर्मपरायण मुनियों ने रामजी का
विधिवत स्वागत-सत्कार करते हुए जल समर्पित
किया. फ़िर बड़ी ही प्रसन्नता के साथ उन्होंने फ़ल-मूल और फ़ूल आदि के साथ आश्रम भी समर्पित कर दिया.
तत्पश्चात धर्मज्ञ मुनि ने हाथ
जोड़कर कहा-" हे रघुनन्दन !. आप सदा धर्म का पालन करने वाले, शरणागतों को शरण देने वाले प्रजावत्सल हैं, सदा नन्दनीय, पूज्यनीय और हम सबके आदर्श हैं. हम आपके ही राज्य में निवास करते हैं. अतः आपको हमारी रक्षा
करनी चाहिए. आप नगर में रहें अथवा वन में, आप हम लोगों के राजा हैं. आप समस्त जनसमुदाय के शासक एवं प्रजा पालक हैं".
" हे राम ! धर्म का पालन करते हुए हम सभी ने जीवमात्र को
दण्ड देना छोड़ दिया है. हमने क्रोध
और इन्दियों को जीत लिया है. अब केवल तपस्या करना ही हमारा धन है. अतः सब ओर से इस धन की आपको रक्षा करनी चाहिए".
तपस्वियों
की विनती सुनकर राम जी को अत्यन्त ही प्रसन्नता का अनुभव हो रहा था. तेजस्वी राम ने उन सभी को आश्वस्त करते हुए कहा- "
हे समस्त मुनिवरों ! आप निर्भय रहें. मेरे रहते आपको कोई कष्ट नहीं दे पाएगा. मैं अपने प्राणपन से आप सभी की रक्षा करता रहूँगा. आप सभी अपने
धर्म में स्थित रहते हुए यज्ञादि करते रहें".
रामजी ने
सभी ऋषि-मुनियों का आतिथ्य स्वीकार करते हुए, आश्रम में बनी सुन्दर-सी कुटिया में रात्रि भर निवास किया.
वह रात
बीतने पर सभी बनवासी तपस्वी मुनियों ने स्नान करके अग्निहोत्र कर चुके, तब
श्रीरामजी ने उनसे जाने की आज्ञा मांगी.
तब वे
धर्मपरायण बनवासी तपस्वी उन दोनों भाइयों से बोले-" हे रघुनंदन ! इस वन का
मार्ग राक्षसों से आक्रान्त है. यहाँ उनका उपद्रव होता ही रहता है. इस विशाल वन
में नाना रुपधारी राक्षस तथा रक्त-पिपासु हिंसक पशु निवास करते हैं. अतः हे
राघवेन्द्र ! जो तपस्वी और ब्रह्मचारी असावधान अवस्था में मिल जाता है, उसे ये
राक्षस और हिंसक जन्तु इन्हें मारकर खा जाते हैं. अतः हे राम ! आप कृपया इन्हें
मार भगाइए".
" हे
रघुकुलभूषण ! यह वही मार्ग है जिससे महर्षि लोग फ़ल-मूल लेने के लिए जाते हैं, आपको
भी इसी मार्ग से दुर्गम वन में प्रवेश करना चाहिए" .
0000000
मार्ग में चलते हुए उन्होंने उस
निर्जन वन को देखा जो नाना प्रकार के मृगों से व्याप्त था, वहाँ बहुत-से रीछ और बाघ रहा करते थे. वहाँ के वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ आदि नष्ट हो चुकी थीं. यहाँ तक कि उस वनप्रांत में एक भी जलाशय नहीं बचा था. जहाँ कभी मधुप की गूंज गुंजारित हुआ करती थी, जहाँ कभी झिंगुरों की झंकार हुआ करती थी, सूना पड़ा हुआ था. वे समझ नहीं पा रहे थे कि इस वनप्रान्त की दुर्दशा किसने की
होगी?
सीतया
सह काकुत्स्थतस्मिन घोरमृगायुते. : ददर्श गिरिशृंगाभं पुरुषादं महास्वनम (श्लोक 4 अरण्य़काण्ड द्वितीयःसर्ग)
आश्चर्यचकित
होते हुए वे थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि उन्होंने एक भयानक नरभक्षी राक्षस को देखा. जो पर्वतशिखर के समान ऊँचा था. वह उच्च-स्वर में गर्जना कर
रहा था. जव वह गर्जना करता तो सारा वनप्रांत कांपता-सा लगता था.
किसी मदमाते हाथी की तरह चलता हुआ वह विशाल शिलाओं को ठोकर मारकर हवा में उछाल
देता था. उसकी आँखों से अंगारे बरस रहे थे. उसके गले में कई आयुधवीरों के
मुण्डमाल, अश्वों, गजों, सिंहों और अजगरों को गूंथकर बनाई गई मालाएँ पड़ी हुई थीं.
देखने में वह अत्यन्त ही कुरूप और डरावना दिखाई देता था. उसका मुँह बहुत बड़ा था. उसका आकार-प्रकार बड़ा
ही विकट और पेट विकराल था. वह देखने
में अत्यन्त ही भयंकर, घृणित और
बेडोल था. उसका मुख खून से भींगा हुआ था. उसने व्याघ्रचर्म पहन रखा था. उसने एक
लोहे का शूल धारण किया था, जिसमें हिरण, भेड़िये आदि जानवरों के शव लटके हुए थे.
जैसे ही उस
क्रूर राक्षस ने नरश्रेष्ठ रामजी, सीताजी और लक्ष्मण को अपनी ओर आता देखा, भयंकर गर्जना के साथ क्रोध में भरकर पृथ्वी को कम्पित करता
हुआ, उनकी ओर दौड़ा.
पलक झपकते
ही उसने विदेहनन्दिनी सीताजी को अपनी गोद में भरकर दूर ले जाकर खड़ा हो गया. फ़िर उन
दोनों भाइयों से बोला-" चीर धारण
किए हुए तुम दोनों जटाधरी कौन हो? और इस दण्डकवन में आकर क्यों विचर रहे हो? क्या तुम्हें इस घोर वन में घुसते हुए डर नहीं लगा? मुझे लगता
है कि तुम सभी मेरे हाथों माए जाओगे".
" देखने में तो तुम दोनों तपस्वी लगते हो, फ़िर तुम्हारा इस युवती स्त्री के साथ रहना कैसे सम्भव हुआ? अधर्म-परायण, पापी तथा मुनि समुदाय को कलंकित करने वाले, तुम कौन हो?".
" शायद तुम दोनों को मेरे बारे
में कोई जानकारी नहीं है, तभी तो तुम
इस दुर्गम वन में चले आए हो.
मैं प्रतिदिन यहाँ के ऋषि-मुनियों को
मारकर उनके मांस का भक्षण करता हूँ और अस्त्र-शस्त्र लेकर इस दुर्गम वन में निडरता के साथ विचरता रहता
हूँ"
" तुम्हारी ये स्त्री बड़ी ही
सुन्दर है. मैं इसे अब अपनी भार्या बनाऊँगा
और तुम दोनों को मारकर तुम्हारा रक्तपान करुँगा".
दुरात्मा विराध की गर्जना और
घमंड से भरी बातों को सुनकर विदेहनन्दिनी थर-थर कांपने लगी. वे ठीक इस तरह कांप रही थीं, जिस तरह कोई चिड़िया बाज के क्रूर पंजो में छटपटाती है. थर-थर कांपती
और छटपटाती सीता जी, किसी तरह उस
दुष्ट के चंगुल से छूटकारा पाना चाहती थीं, लेकिन उसकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि लाख कोशिश करने के बाद भी,
वे उसकी पकड़ से बाहर नहीं निकल पा रही थीं.
उस निर्दयी राक्षस ने समूचे वन
प्रांत को कम्पित करते हुए पूछा-" अरे ! मैं तुम
दोनों से पूछता हूँ कि आखिर तुम लोग कौन हो? और इस तरह मेरे क्षेत्र में तुम लोगों
ने घुसने का दुस्साहस कैसे किया? क्या तुम्हें यहाँ आते हुए डर नहीं लगा ?".
दर्प से भरे हुए
राक्षस को अपना परिचय देते हुए रामजी ने कहा-" अरे दुष्ट.! शायद
तुमने इक्ष्वाकुकुल के गौरव के बारे में नहीं सुना?
इक्ष्वाकुल ही मेरा कुल है. हम सदाचार
का पालन करने वाले क्षत्रिय किसी कारणवश वन में निवास करते हैं. अब हम तेरा
परिचय जानना चाहते हैं. अब बता, तू
कौन है और इस तरह दण्डकवन में स्वेच्छा से क्यों विचर रहा है?".
सत्यपराक्रमी रामजी के इस तरह
पूछने पर उसने कहा-" हे
रघुवंशी नरेश ! मैं प्रसन्नतापूर्वक अपना परिचय दे रहा हूँ. तुम उसे विस्तार से सुनो. मैं "जव" नामक राक्षस
का पुत्र हूँ. मेरी माता का नाम "शतहृदा" है. सारा
भूमण्डल मुझे "विराध" के नाम से जानता है".
" मैंने ब्रह्मा जी का कठोर तप कर उन्हें प्रसन्न किया है और
उनसे इच्छित वर मांग कर मैं अमर हो गया हूँ, मैंने उनसे
यह वरदान मांगा है कि किसी भी शस्त्र से मेरा वध नहीं हो. मैं संसार में अछेद और अभेद्य होकर रहूँ और कोई भी प्राणी मेरे शरीर को छिन्न-भिन्न नहीं कर सके".
" यह स्त्री बड़ी सुन्दरी
है, अतः मेरी भार्या बनेगी और तुम दोनों पापियों का मैं युद्धस्थल में रक्तपान
करूँगा".
" इतना सब कुछ जान लेने के बाद, मैं समझता हूँ कि तुम मुझ पर कोई शस्त्र नहीं चलाओगे. यदि कोशिश करना चाहो तो खुशी से कर सकते हो. तुम मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं पाओगे, उलटे अपने प्राणॊं से हाथ धो बैठोगे. अतः तुम दोनों की इसी में भलाई है कि जैसे आए हो, वैसे ही
यहाँ से निकल जाओ. मैं तुम
दोनों पर कोई आक्रमण नहीं करुँगा और न ही तुम्हारे प्राण लूँगा". विराध ने गरजते हुए कहा.
विराध की
बातों को सुनकर रामजी की आँखों में क्रोध उतर आया. उन्होंने उसे धिक्कारते हुए कहा-" हे नीच, पापी ठहर, मैं तुझे अभी यमलोक पहुँचाता हूँ. इतना कहकर उन्होंने अपने धनुष पर तीर चढ़ाया और लक्ष्य लेकर
निशाना साधते हुए तीर का संधान कर दिया. इस तरह उन्होंने एक-के-बाद एक लगातार सात बार बाण छोड़े, जो गरुड़ और वायु के समान वेगशाली थे.
रामजी के
घातक बाणों से घायल विराध ने सीताजी को अलग रख दिया और स्वयं हाथों में शूल लिये
अत्यन्त ही कुपित होकर रामजी और लक्ष्मण पर टूट पड़ा.
तब काल, अन्तक और यमराज के समान उस भयंकर राक्षस विराध के ऊपर दोनों
भाइयों ने प्रज्जवलित बाणॊं की वर्षा कर दी. भीषण गति से चलने वाले बाण, उसके विशालकाय शरीर को टकराते और बिना कोई नुकसान किए नीचे
गिर जाते. बाणॊं को इस तरह गिरता देख वह जोरों से अट्टहास करने लगा.
ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त विराध ने अपने प्राणॊं को रोक
लिया और शूल उठाकर उन दोनों पर आक्रमण कर दिया. उसका यह शूल आकाश में वज्र और
अग्नि के समान प्रज्जवलित हो उठा. अपनी ओर इस शूल को आता देख रामजी ने अपने तरकश
से दो तीर निकाले और उसे बीच रास्ते में ही काट दिया. कटा हुआ शूल छिन्न-भिन्न
होकर पृथ्वी पर आ गिरा, जैसे कोई बालक खेल-खेल में धरती से मूली उखाड़ लेता है. ठीक
उसी तरह अत्यन्त ही क्रोधित होते हुए उसने एक विशाल वृक्ष को यूंहि उखाड़ लिया और
रामजी की ओर उछाल दिया. श्रीरामजी ने कई तीर एक साथ चलाकर, उस वृक्ष को तिनके की
तरह काट दिया.
अपनी ओर से
अनेक प्रकार के षड़यंत्र कर चुकने के बाद, उसे निराशा ही हाथ लगी थी. जिस तरह बाज
पक्षी, झपट्टा मार कर अपने शिकारी पर आक्रमण करता है, ठीक उसी तरह वह दोनों भाइयों
पर टूट पड़ा. उसे अपनी ओर आता देख
श्रीरामजी ने और लक्ष्मण जी ने फ़ुर्ती के साथ अपनी-अपनी तलवारें निकाली और उस पर
प्रहार करने लगे. आघातों की परवाह न करते हुए उसने सीताजी को छोड़ दिया और दोनों
भाइयों को अपने कंधे पर उठा लिया और तेजी के साथ सघन वन की ओर भागने लगा.
वेगापूर्वक
भागते हुए विराध का विरोध न करते हुए रामजी ने लक्ष्मण से कहा-" इसे रोकने का
प्रयास बिल्कुल भी मत करना. देखते हैं यह कितनी दूर भागता है. मुझे लगता है कि यह
उस तरफ़ ही भाग रहा है, जहाँ इसने अपना स्थाई आवास बना लिया होगा".
विराध
द्वारा दोनों भाइयों को इस तरह उठाकर भागता हुआ देखकर, सीताजी विचलित-सी होने लगी
थी और अब वे जोरों से विलाप करती हुई उस राक्षस को पुकार कर कहने लगी-" हे
राक्षसराज ! मुझे इस तरह अकेली पाकर वन में रीछ, चीते खा जाएंगे. इससे अच्छा होगा
कि तुम मुझे ले जाओ और उन दोनों भाइयों को छोड़ दो".
सीताजी की
करूण पुकार को सुनकर लक्ष्मण जी के क्रोध का पारावार बढ़ने लगा. उन्होंने शीघ्रता
से उसकी बायीं बाँह तोड़ डाली. इसी प्रकार रामजी ने उसकी दायीं बाँह उखाड़ फ़ेंकी.
दोनों भुजाओं के टूटने से विराध घोर गर्जना करते हुए पृथ्वी पर आ गिरा. उसके गिरते
ही दोनों भाइयों उसे मुक्कों से और लातों से मारने लगे तथा उठा-उठाकर पृथ्वी पर
रगड़ने लगे. इतना सब कुछ होने के बाद भी वह वह राक्षस नहीं मरा.
रामजी ने
लक्ष्मण से कहा कि वरदान के प्रभाव से यह अवध्य हो गया है. इसे शस्त्र से नहीं
मारा जा सकता. अतः तुम शीघ्रता से एक गहरा गढ्ढा खोदो. हम इसे यहीं पृथ्वी के नीचे
गाड़ देंगे. इस प्रकार लक्ष्मण को गड्ढा खोदने की आज्ञा देने वाले रामजी ने, अपने
एक पैर से विराध का गला दबाते हुए खड़े हो गए.
रामजी की
कही हुई बात को सुनकर विराध ने रामजी से विनयपूर्वक कहा-" हे नरश्रेष्ठ !
आपका बल देवराज इन्द्र के समान है. मैं आपके हाथों मारा जा रहा हूँ. दुर्भाग्य से
मैं आपको पहचान न सका. आपका अतुलित बल देखकर मैं जान गया कि आप रघुकुल शिरोमणि
श्रीरामचन्द्रजी हैं और ये आपके छोटे भाई महायशस्वी लक्ष्मण जी हैं".
" हे रघुकुलश्रेष्ठ ! शाप के कारण ही मुझे इस भयंकर
राक्षस शरीर धारण करना पड़ा है. मैं "तुम्बुरु" नामक गन्धर्व हूँ. हे राम
! कुबेर ने मुझे राक्षस होने का शाप दिया था. दरअसल मैं रम्भा नाम की एक अप्सरा
में आसक्त था. मैं एक दिन समय पर उनकी
सेवा में नहीं पहुँच पाया. इसीलिए क्रोधित होते हुए उन्होंने मुझे राक्षस होने का
शाप दे दिया. क्रोधित कुबेर से मैंने क्षमा याचना की कि और जानना चाहा कि मुझे इस
राक्षस शरीर से मुक्ति कब मिलेगी?. तब उन्होंने मुझे बतलाया कि दशरथनन्दन श्रीराम
से तुम युद्ध में मारे जाओगे, तब तुम अपने पहले स्वरूप को पाकर स्वर्गलोक में
जाओगे".
लक्ष्मण जी ने इस बीच एक बहुत ही गहरा गड्ढा खोद दिया था.
दोनों भाइयों ने उसकी टांगों को पकड़ा और घसीटते हुए उसे गहरे गड्ढे में फ़ेंक दिया
और उसके ऊपर मिट्टी डालने लगे. सिर को छॊड़कर उसका पूरा शरीर मिट्टी से पूर दिया
गया था. उसका सिर मिट्टी में दबे, इसके पूर्व उसने अत्यन्त ही दीन-हीन होकर कहा-
" हे रघुवीर ! आज आपकी कृपा से मुझे उस भयंकर शाप से छुटकारा मिल गया है.
आपका कल्याण हो...आपको मेरा प्रणाम....बार-बार प्रणाम".
" हे धर्म के अनुपम स्वरूप ! आप प्राणीवर्ग के लिए
माता-पिता हो. संसार के लोग अनेक देवताओं
की स्तुति करते हैं, लेकिन महात्मा पुरुष तुम्हारे अतिरिक्त किसी को श्रेष्ठ नहीं
मानते".
"हे लक्ष्मी से अधिष्ठित वक्ष वाले रघुवीर ! अनेक
धर्मों के आराध्य देवता कर्म के बंधनों में पड़े हुए लोगों के समान ही कठोर तपस्या
करते हैं, किंतु तुम्हारे करने योग्य कोई तपस्या नहीं है. अतएव कर्म बंधनों से
मुक्त आत्माओं की तरह आप सदैव योगनिद्रा में मग्न रहते हो".
" तुम आदिशेष का रूप धारण करके सुंदर भू-देवी का वहन
करते हो. वराह के रूप में इस भूमि को धारण करते हो. और प्रलयकाल में इस सृष्टि को
निगल जाते हो. एक ही पग में सारी सृष्टि को ढंक लेते हो".
" हे वराह-रूप में पृथ्वी को उबारने वाले ! तुमने अपना
विशाल आकार ग्रहण कर ब्रह्माजी को उपदेश दिया था".
" हे उपमान रहित ! हे एकनाथ ! तुम अपने पूर्व विश्राम
स्थान क्षीरसागर को छोड़कर, मुझ जैसे अधम के सुकृत्य के लिए ही, इस घोर वन में आए
हुए हो. आपकी कृपा से मैं इस जीवन के सागर को पार कर गया. मैं जन्महीन हो गया.
आपने अपने प्रवाल चरण-युगल से मेरे पापमय जीवन को पोंछ दिया".
रामजी के
श्रीचरणों को बारम्बार नमस्कार और स्तुति करते हुए वह नराधम शापमुक्त हो गया और
देवरूप धारण कर, पृथ्वी से ऊपर आकाश में खड़ा हो गया. उसने अपने दोनों हाथों को
जोड़कर कहा-" हे रघुवीर ! अब मैं पापमय जीवन को त्याग कर सहर्ष अपने लोक को
जाऊँगा. जाने से पूर्व मैं आपको एक उचित सलाह दे रहा हूँ. कृपा कर आप मेरी विनती
जरुर सुनें".
" हे
तात ! यहाँ से देढ़ योजन दूर दण्डकारण्य में पवित्र पावन गोदावरी के पावन तट पर,
सूर्य के समान तेजस्वी गौतम कुल में उत्पन्न महामुनि शरभंग आश्रम बनाकर निवास करते
हैं. उन्होंने उत्तर की आर्य सभ्यता का प्रचार तथा विस्तार दक्षिण के जंगली
प्रांतों में किया है. आप वहाँ शीघ्रता से जाइये.वे आपको कल्याण की बात बतायेंगे." इतना कहते हुए वह आकाश
मार्ग से होता हुआ ब्रह्मलोक चला गया.
00000
पुनि आए जहँ सुनि सरभंगा.
बलशाली और
भयंकर राक्षस विराध का वध करने के पश्चात रामजी ने अपनी भार्या सीताजी को हृदय से लगाकर सांत्वना दी, जो अब तक भय के
कारण थर-थर कांप रही थी. फ़िर वे अपने अनुज लक्ष्मण के साथ, उस पर्वत प्रदेश के सघन
वन में प्रवेश करने लगे. पेड़ों पर कुरवग और कोगु की लतिकाएँ झूल रही थीं. पेड़ों की
सघनता के कारण मार्ग में अंधकार भी फ़ैला हुआ था. पता नहीं किस ओर से कोई हिंसक पशु
हमला कर दे या फ़िर कोई राक्षस ही सामने आकर खड़ा हो जाए, कहा नहीं जा सकता ?.
ऐसे सघन वन में प्रवेश करते हुए रामजी ने अपने अनुज लक्ष्मण
से कहा-" हे सुमित्रानंदन ! यह वन बड़ा ही कष्टकारी जान पड़ता है. इससे पहले हम
कभी भी ऐसे वन में नहीं रहे हैं. वन की सघनता के कारण मार्ग भी सुझाई नहीं दे रहा
है. अतः हमें एक-एक पग बड़ी सतर्कता के साथ बढ़ाते हुए आगे बढ़ना चाहिए. जितनी जल्दी
हो सके हमें तपोनिष्ठ महामुनि शरभंग के
आश्रम तक पहुँच जाना चाहिए".
श्रीराम आगे चले, मध्य में सीताजी और अंत में लक्ष्मण जी,
नदी, वन,पर्वत और दुर्गम घाटियों को पार करते हुए वे आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ रहे
थे. इस क्रम में तीनों को चलते हुए देखकर ऐसा प्रतीत होता है, मानों ब्रह्म और जीव के मध्य में माया चल रही हो. वे
जहाँ-जहाँ जाते हैं, तहाँ-तहाँ मेघ आकाश में उनके ऊपर छाया करते हैं
अभिगच्छामहे शीघ्रं शरभंग तपोधन्म ; आश्रमं शरभंगस्य राघवोSभिजगाम ( श्लोक3) पंचम सर्ग
कभी पर्वत
प्रदेश की ऊँचाइयों पर, तो कभी ढलान को पार करते हुए वे देवताओं के तुल्य
प्रभावशाली तथा तपस्या से शुद्ध अन्तःकरण वाले शरभंग मुनि के आश्रम के समीप जा
पहुँचे. आश्रम के पास पहुँचकर रामजी ने देखा कि स्वयं देवराज इंद्र अपने रथ पर
विराजमान हैं, जिनकी कांति से समूचा आकाश प्रकाशित हो उठा है. उनके साथ अनेक देवता
भी रथ पर विराजमान थे. रथ पृथ्वी का स्पर्श न करते हुए आकाश में खड़ा था, जिसमें
उत्तम नस्ल के हरे रंग के घोड़े जुड़े हुए थे. उन्होंने यह भी देखा कि दो सुन्दरियाँ
देवराज इंद्र के मस्तक पर चँवर डुला रही हैं.
उन्होंने यह
भी देखा कि इन्द्र के मस्तक पर श्वेत बादलों के तथा चन्द्रमा के समान कान्तिमान
छत्र तना हुआ है, जो विचित्र फ़ूल मालाओं से सुशोभित था. बहुत से देवता, सिद्ध और
महर्षिगण जहाँ देवराज इन्द्र की स्तुति करते हैं , ऐसे देवराज शरभंग मुनि से
वार्तालाप कर रहे थे.
रामजी ने
सीताजी और अनुज लक्ष्मण को तर्जनी से संकेत करते हुए उस रथ के बारे में बतलाते हुए
कहा-" हम लोगों ने बहुत पहले, देवराज इन्द्र के दिव्य रथ के बारे में सुन रखा
था कि उसमें हरे रंग के उत्तम घोड़े जुते हुए होते हैं. ऐसे दिव्य रथ को आज हम आकाश
में देख रहे हैं".
"हे
लक्ष्मण ! देखो तो सही, उस रथ के दोनों ओर जो हाथों में खंग धारण किए हुए, कानों
में दिव्य कुण्डल धारण किए हुए सौ-सौ युवक खड़े हुए हैं, सभी ने लाल वस्त्र धारण
किया है. इनको देखना कितना प्यारा लगता है".
" हे
लक्ष्मण ! जब तक मैं स्पष्टरुप से यह पता नहीं लगा लेता कि रथ पर विराजमान तेजस्वी
पुरुष कौन है?, तब तक तुम विदेहनन्दिनी सीता के साथ इसी जगह पर ठहरो".
इस प्रकार
का आदेश देने के पश्चात श्रीरामजी शरभंग मुनि के आश्रम पर गए. उन्हें अपनी ओर आता
देखकर शचिपति इन्द्र ने रथ में विराजमान देवताओं से कहा कि आप लोग इस रथ को हांक
कर दूर ले चलो, ताकि मेरी मुलाकात श्रीरामजी से नहीं होनी चाहिए. श्रीरामजी से
मुलाकात करने का यह समय मुझे उचित नहीं जान पड़ता है. जब वे लंकापति रावण पर विजय
प्राप्त कर लौटेंगे, तब मैं इनके दर्शन करने अवश्य जाऊँगा. शचिपति इन्द्र ने शरभंग
मुनि का सत्कार कर और आज्ञा पाकर देवराज इन्द्र स्वर्गलोक को चल दिए.
सहस्त्र
नेत्रधारी इन्द्र के चले जाने के बाद रामजी अपनी पत्नी सीताजी और अनुज लक्ष्मण के
साथ आश्रम में प्रवेश किया. इस समय महामुनि अग्निहोत्र करने में निमग्न थे. तीनों
ने उन्हें प्रणाम किया. प्रणाम करने के पश्चात रामजी ने अपना परिचय देते हुए कहा- रामोSहमस्मि भगवन भवन्तं द्रष्टुमागतः- हे धर्मज्ञ महर्षे ! मैं राम हूँ और आपके दर्शन
करने के लिए आया हूँ. अतः आप मुझसे बात कीजिए".
श्रीराम जी
का दर्शन करके महर्षि सुतीक्ष्ण ने अपनी दोनों भुजाओं से उनका आलिंगन किया और समीप
बैठने को कहा. आज्ञा पाकर श्रीराम जी उनके समीप आकर बैठ गए.
तदनन्तर
रामजी ने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर मुनिश्री से जानना चाहा कि देवराज इन्द्र किस
प्रयोजन को लेकर आपके पास आए थे.
" हे राम ! आप सर्वज्ञ हैं. अब भला आपसे क्या
छिपाना?. मैंने अपनी उग्र तपस्या के बल पर
उस लोक पर विजय प्राप्त कर लिया है, जो अन्य पुरुषों के लिए अत्यन्त ही दुर्लभ है.
देवराज इन्द्र मुझे ब्रह्मलोक ले जाने के निमित्त से यहाँ आए थे".
देवलोकमितो वीर देहं त्यक्त्वा महीतले.
"हे
देव ! मुझे यह ज्ञात हो गया था कि आप मेरे आश्रम के निकट आ गए हैं. तब मैंने
निश्चय किया कि आपके दिव्य दर्शन किए बिना मैं ब्रह्मलोक कदापि नहीं जाऊँगा. आप
जैसे प्रिय अतिथियों का दर्शन प्राप्त करना, भला कौन नहीं चाहेगा?. आपके दर्शन
प्राप्त करने के लिए कितने ही ॠषि-मुनि, तपस्वी बरसों तप करते हैं, फ़िर भी आपके
दर्शन सहजता से प्राप्त नहीं होते. जब स्वयं आप चलकर मेरे आश्रम आ रहे हैं, तो भला
मैं इस दुर्लभ अवसर को कैसे त्याग देता?. रही ब्रह्मलोक जाने की, तो मैंने उसे
अपनी तपस्या के बल पर पहले ही प्राप्त कर लिया है".
" हे
पुरुषशिरोमणि ! मैंने स्वर्गलोक सहित ब्रह्मलोक पर भी विजय पायी है. कृपया कर आप
उन लोकों को ग्रहण कीजिए".
मुनिश्री से
हाथ जोड़कर प्रभु रामजी ने उत्तम वचन बोलते हुए कहा-. "हे महामुने ! मैं ही
आपको उन उत्तम लोकों की प्राप्ति करवाउँगा. इस समय तो मैं इस वन में आपके बताये
हुए स्थान पर निवास करना चाहता हूँ".
श्रीरामजी
के ऐसा कहने पर महाज्ञानी शरभंग मुनि बोले-" हे महाभाग राम !.हे पुरुषोत्तम !
आप मन्दाकिनी नदी के स्त्रोत के विपरीत दिशा में, इसी के किनारे-किनारे चले जाइये.
इससे आप वहाँ सुगमता से पहुँच जाएंगे".
उन्होंने
अपने शिष्यों को पास बुलाकर कहा-" आप लोग उस मार्ग से भली-भांति परिचित हैं.
श्रीराम जी केवल हमारे अतिथि ही नहीं हैं, बल्कि हम सब के आराध्य भी हैं. आप लोग
कृपया प्रभु श्रीरामजी को साथ लेकर उस स्थान तक पहुँचाने मे अपना सहयोग प्रदान
करें.
तत्पश्चात
उन्होंने रामजी को संबोधित कर प्रार्थना करते हुए कहा- "हे नरश्रेष्ठ ! आप दो
घड़ी यहीं मेरे पास ठहरिये और जब तक मैं इस पुरानी काया का त्याग नहीं कर देता, तब
तक आप मेरी ओर ही देखते रहें."
इसके बाद महातेजस्वी शरभंग मुनि ने मंत्रोच्चारण करते हुए
अग्नि प्रज्जवलित की और स्वयं अग्नि में प्रविष्ठ हो गए. अग्नि ने उसी समय महात्मा
के रोम, केश, जीर्ण त्वचा, हड्डी, मांस और रक्त सबको जला दिया. तत्क्षण वे एक
तेजस्वी कुमार के रूप में प्रकट होकर ब्रह्मलोक चले गए.
००००००
अभ्यगच्छन्त काकुत्स्थं रामं ज्वलिततेजसम.
शरभंग मुनि
के ब्रह्मलोक चले जाने के बाद, उस बिहड़ वन में रहकर तपस्या करने वाले अनेक
तपस्वियों, मुनियों और इक्कीस प्रकार के ऋषि-मुनि-तपस्वीगण, जो ब्रह्माजी के नख और
रोम से उत्पन्न, सूर्य और चन्द्रमा की किरणॊ का पान करने वाले, कच्चे अन्न को
कूटकर खाने वाले, केवल पत्तों का आहार करने वाले, कण्ठ तक पानी में डूबकर रहने
वाले, बिना बिछौना के सोने वाले, केवल जल या वायु का सेवन करने वाले, खूले मैदान
में रहने वाले, वेदी पर सोने वाले, पर्वत-शिखर पर रहने वाले, भीगे कपड़े पहनकर रहने
वाले, चारों ओर अग्नि जलाकर तपस्या करने वाले ऋषियों ने रामजी से सामुहिक
प्रार्थना की-" हे रघुननंदन ! आप महात्मा, धर्मज्ञ, सत्य धर्म का पालन करने
वाले हैं. आप हमारी उसी तरह रक्षा करें जैसे इन्द्र देवताओं की रक्षा करते हैं,
उसी तरह आप मनुष्यलोक के रक्षक हैं".
" हे राम ! इस वन में रहने वाले अनेक वानप्रस्थ
महात्माओं का समुदाय निवास करते हुए तपश्चर्या
करता हैं, राक्षसों द्वारा मारे जाते हैं. आइए. देखिए. ये भयंकर राक्षस आए
दिन गए तपस्वियों को मार कर खा जाते हैं (कंकालों का ढेर दिखाते हुए) पम्पा सरोवर
और उसके निकट बहने वाली तुंगभद्रा नदी के तट पर जिनका निवास है,जो मन्दाकिनी के
किनारे रहते हैं, उन सभी ऋषि-मुनियों का संहार किया जा रहा है."
" हे राघव ! इन राक्षसों से बचने के लिए, हम आपकी शरण
लेने के उद्देश्य से आपके पास आए हैं. हे
प्रभु ! आप शरणागत वत्सल हैं. अतः इन निशाचरों से मारे जाते हुए हम मुनियों की
रक्षा कीजिए".
"हे वीर राजकुमार ! इस भूमंडल में हमें आपसे बढ़कर कोई
दूसरा सहारा दिखाई नहीं देता. आप इन राक्षसों से हमें बचाइये".
सभी की बातों को गम्भीरता से सुनने के बाद रामजी ने
सांत्वना देते हुए कहा- "हे मुनियों ! हे तपस्वियो ! आप इस तरह मुझसे
प्रार्थना न करें, मैं तो इसी महान उद्देश्य को लेकर वन में आया हूँ. आप लोगों के
प्रयोजन की सिद्धि के लिए ही मेरा आगमन हुआ है. आपकी सेवा का अवसर मिलने से मेरा
यह वनवासकाल महान फ़लदायक सिद्ध होगा".
" हे तपोधनो ! मैं तपस्वी मुनियों से शत्रुता रखने
वाले राक्षसों का युद्ध में संहार करना चाहता हूँ. अब आप और मेरे अनुज लक्ष्मण का
पराक्रम देखें".
सभी को आश्वस्त करने के पश्चात रामजी ने मुनियों से जानना
चाहा कि वे अपनी भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण के संग कुटी बनाकर रहना चाहते हैं.
कृपा कर मुझे उपयुक्त स्थान बतलाने की कृपा करें".
सहितो
भ्रात्रा सीतया च परंतपः :: सुतीक्ष्णस्याश्रमपदं जगाम सह तैर्द्विज्जै.
रामजी की प्रार्थना सुनकर महामुनि बे बतलाया कि यहाँ से कुछ
दूरी पर सुतीक्ष्ण मुनि का आश्रम है, वह स्थान ज्यादा उपयुक्त है. अतः आपको वहाँ
कुटी बनाकर रहना चाहिए. महामुनि ने महात्मा सुतीक्ष्ण का परिचय बतलाते हुए
कहा-" हे महाभाग ! सुतीक्ष्ण मुनि महर्षि अगस्त्य के शिष्य हैं. गुरु आश्रम
मे रहकर वे अध्ययन किया करते थे. अध्ययन समाप्त होने के पश्चात गुरु ने उन्हें
बिदा देना चाहा, लेकिन वे अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देना चाहते थे. बार-बार के
अनुरोध के बाद महर्षि अगस्त्य जी ने कहा-" अगर तू मुझे गुरु-दक्षिणा में कुछ
देना ही चाहता है, तो तुझे रामजी और सीताजी को लेकर मेरे आश्रम में आना होगा. मैं
प्रभु श्रीरामजी, सीताजी और लक्ष्मण के दर्शन करने का अभिलाषी हूँ. बस,
गुरु-दक्षिणा में मुझे इतना ही चाहिए".
गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए उन्होंने अपने गुरुजी
के चरणॊं में प्रणाम किया और फ़िर एक सघन वन में जाकर तपस्या करने लगे. जैसे-जैसे
समय बीतता रहा, सुतीक्ष्ण के धैर्य और गुरु वचन को पूरा करने के लिए निष्ठा और
दृढ़ता बढ़ती चली गई. वे आपके राम नाम को उच्चारित करते हुए , अपनी भक्ति में इस तरह
डूबे हुए हैं कि उनके शरीर में आत्मा की जगह आपका का नाम दौड़ रहा है. वे तपस्या
में लीन रहकर अचेतावस्था जैसी स्थिति में रहते हैं. आपके दर्शनों के उपरान्त वे
आपको अपने गुरु से मिलवाने के लिए बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं. हे रामजी
! कृपा कर आपको सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम पर जाना चाहिए, ताकि वे अपनी गुरु-दक्षिणा
से उॠण हो सकें".
महामुनि ने अपने कुछ शिष्यों को आज्ञा दी के श्रीरामजी का
पथ-प्रदर्शक बनकर साथ जाएं और उन्हें महात्मा सुतीक्ष्ण के आश्रम तक सकुशल
पहुँचाकर आएँ.
शत्रुओं को
संताप पहुँचाने वाले श्रीराम ने आश्रम के सभी को आश्वस्त करने के पश्चात वे सभी
पहाड़ की तराई में बने सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम की ओर बढ़ चले.
सुतीक्ष्णस्य्याश्रमपदं
जगाम सह तैर्द्विजैः
मार्ग में
अनेक नदियों को पार करते हुए उन्हें मेरुगिरि के समान एक अत्यन्त ही ऊँचा पर्वत
दिखाई दिया. समूचा वन नाना प्रकार के वृक्षों से भरा हुआ था. अनेक वृक्षों पर
प्रचूर मात्रा में फ़ल लदे हुए थे, कुछ में रंग-बिरंगे पुष्प खिले हुए थे.
मुनि
अगस्ति कर सिष्य सुजाना : नाम सुतीछन रति भगवाना
तभी
उन्होंने देखा कि की पद्मासन लगाए हुए सुतीक्ष्ण मुनि ध्यानस्थ होकर बैठे हुए हैं.
रामजी ने उन तपोधन मुनि के पास जाकर उनसे कहा-" हे सत्यपराक्रमी धर्मज्ञ महर्षे
! मैं दशरथ पुत्र राम हूँ और आपके दर्शनों
के लिए आया हूँ. अतः आप मुझसे बात कीजिए".
जिसके
रोम-रोम में राम बसते हो..जिसका हृदय राम नाम से धड़कत रहा हो...जिसकी हर आती-जाती
श्वास में राम रमता हो, ऐसे सुतीक्ष्ण मुनि के सामने स्वयं रामजी आकर यह कहते
हैं-"हे मुनिश्वर ! मैं आपके दर्शनों की अभिलाषा लिए हुए आपके समक्ष खड़ा
हूँ.".
धन्य है राम
और धन्य हैं वे महात्मा जो निस-दिन राम नाम का जाप करते हैं. कितने अहोभाग्य की
बात है उनके लिए, जो राम की एक प्रभा पाने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देते
हैं और स्वयं रामजी आकर उससे कहें कि मैं वन-वन भटकता हुआ तुम्हारे दर्शनों के लिए
आया हूँ.
मुनि
ध्यानावस्था में थे. वे अपने राम में खोए हुए थे. उन्हें लगा कि कोई उन्हें जगाकर
पुकार रहा है. कौन हो सकता है वह?, मुनि अब स्वयं से वार्तालाप करने लगे थे. पुकार
रामजी की थी. पुकारने वाले राम थे और सुनने वाले भाग्यशाली सुतीक्ष्ण मुनि थे.
ध्यानावस्था से बाहर निकलना ही था. पुकार ही कुछ ऐसी थी. उन्हें चेतनावस्था में
आना पड़ा. वे इस तरह जाग्रतावस्था में लौटे, जैसे अभी-अभी गहरी नींद से जागे हों.
हृदयँ
चतुर्भुज रूप देखावा.
कुछ पल को पलकें झपकीं.
फ़िर खुली. फ़िर झपकीं. फ़िर उन्होंने पुनः आखें खोलीं. देखा. रामजी स्वयं
चतुर्भुज रूप में उनके समक्ष विराजमान हैं. अंदर गहरे तक धड़कते राम और स्वयं सामने
विराजित राम. आपस में मिले.
सुतीक्ष्ण ने बिना समय गवाएं अपनी दोनों विशाल बाहों को
फ़ैलाकर रामजी का आलिंगन लिया. फ़िर दोनों हाथ जोड़कर कहा-" हे भक्तवत्सल ! हे
सत्यवादियों में श्रेष्ठ श्रीराम ! आपका स्वागत है...आपका आत्मीय स्वागत है....आज
आपके दिव्य दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया और आपके आगमन से मेरा आश्रम सनाथ हो
गया".
"हे यशस्वी वीर ! मैं आपके दर्शनों का अभिलाषी...आपके
आगमन की प्रतीक्षा में था. इसीलिए इस पृथ्वी पर अपने शरीर को त्यागकर मैं यहाँ से
देवलोक में नहीं गया. हे राम ! मेरी प्रतीक्षा सफ़ल हुई".
" हे देव ! मैंने सुन रखा था कि आप चित्रकूट पर्वत पर
आकर रह रहे हैं. हे प्रभु ! यहाँ सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले देवराज इन्द्र
आए थे. वे मुझसे कह रहे थे कि तुमने अपने पुण्यकर्म के द्वारा समस्त शुभ लोकों पर विजय पायी है..उनके कथानानुसार
मैंने तपस्या से जिन देवसेवित लोकों पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, इन लोकों में
आप सीताजी और अनुज लक्ष्मण के साथ विहार करें. मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ वे सारे
लोक आपकी सेवा में समर्पित करता हूँ".
रामजी ने सुतीक्ष्णजी की हर एक बात को ध्यान से सुना था.
सुना कि मुनि मुझे सारे लोक समर्पित कर रहे हैं. जो सारे लोकों के स्वामी हैं..जो
सारी सृष्टि के अधिपति हैं, वे उन लोकों को लेकर इस समय कर्रेंगे भी क्या ?.
उन्हें तो केवल इस बात चिंता थी कि मुझे तो इस समय कुटिया बनाकर यहीं-कहीं रहना
है. वे स्वयं सब जानते थे. जगत का नियंता क्या नहीं जानता.? लेकिन अपने भक्तों को
महान बनाने वाले श्रीराम, उलटे मुनि से जानना चाहते हैं कि -"मेरी इच्छा है
कि मैं इस वन में ठहरने के लिए किस स्थान पर कुटिया बनाऊँ?". रामजी आग्रह
करते हुए उपयुक्त स्थान जानना चाहते थे. प्रश्न राम जी ने उपस्थित किया था. उत्तर
मुनिश्री को देना था. कितनी विचित्र लीला है रामजी की.
दुविधा में थे मुनिश्री. यदि वे रामजी को अन्यत्र जाने का
निर्देश देंगे, तो निश्चित ही उन्हें कुछ दूर जाकर रहना पड़ेगा. अतः वे नहीं चाहते
थे कि रामजी उनके आश्रम से दूर जाकर निवास करें. कितनी कड़ी तपस्या के पश्चात राम
मिले हैं, वे किसी भी कीमत पर उनको अपने से दूर नहीं जाने देना चाहते थे. यही
सोचकर बुद्धिमान मुनि ने श्रीराम जी से विनित होकर मधुवाणी में कहा-" हे
श्रीराम ! मेरे इस आश्रम से बढ़कर और कौन-सी जगह हो सकती है?. यह आश्रम सब प्रकार
से सुविधाजनक है. अतः आप यहाँ सुखपूर्वक निवास कीजिए. यहाँ ऋषियों का समुदाय सदा
आता-जाता रह्ता है. यहाँ मूल-फ़ल भी सर्वदा सुलभ होते हैं".
" हे प्रभु !
इस आश्रम में मृगों के झुण्ड बिना किसी भय के आते हैं और अपने रूप, कान्ति
एवं गति से मन को लुभाकर, बिना किसी को कष्ट दिए यहाँ से लौट जाते हैं. इस आश्रम
में उनके उपद्रव के सिवा और कुछ नहीं होता". मुनिश्री ने रामजी को परामर्श
देते हुए बतलाया.
"हे महाभाग ! आप तो भली-भांति जानते ही हैं कि हम
क्षत्रिय हैं और क्षत्रियों को आखेट खेलना अत्यन्त ही प्रिय होता है. यदि मैं
उपद्रवकारी मृगसमूहों को अपने बाण से मार गिराऊँगा, तो इसमें आपका अपमान होगा. यदि
ऐसा होता है कि इससे बढ़कर कष्ट की बात, मेरे लिए और क्या हो सकती है? अतः हे
मुनिवर ! मैं इस आश्रम में अधिक समय तक निवास नहीं कर सकता". रामजी ने कहा.
सांयकाल हो चुका था और रामजी को संध्योपासना करना था. अतः
अन्यत्र निवास करने के स्थान के विचार को स्थगित करते हुए उन्होंने सीताजी और
लक्ष्मण के साथ, सुतीक्ष्ण मुनि के उस रमणीय आश्रम में रात्रि निवास किया.
संध्या का समय बीतने पर रात हुई देख महात्मा सुतीक्ष्ण ने
स्वयं ही तपस्वी-जनों के सेवन करने योग्य शुभ अन्न ले जाकर रामजी तथा अन्य बंधुओं
को बड़े सत्कार के साथ अर्पित किया.
००००००
सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में रात बिताने के बाद, वे तीनों
प्रातःकाल जाग उठे. नित्यक्रिया क्रम के बाद सीताजी सहित श्रीराम और लक्ष्मण जी ने
कमल की गंध से सुवासित शीतल जल में स्नान किया. तदनन्तर उन्होंने विधिपूर्वक अग्नि
और देवताओं की पूजा-अर्चना की. फ़िर उदित भुवन-भास्कर को जल अर्पित किया और
सुतीक्ष्ण मुनि के दर्शन कर, प्रणाम निवेदित करते हुए अत्यन्त ही मधुर वाणी में
रामजी ने कहा--""हे मुनिदेव ! सर्वथा पूज्यनीय होकर भी आपने हमारा पूजन
किया. हम तीनों आपके आश्रम में सुखपूर्वक रहे. अब हम दण्डकारण्य़ में निवास करने वाले पुण्यात्मा ऋषियों के दर्शन करना चाहते
हैं. हमारे साथ जो मुनिगण आए हुए हैं, वे सब आगे जाने के आग्रह कर रहे हैं. अतः हे
मुनिदेव ! अब हमें यहाँ से जाने की आज्ञा
दें".
प्राविश्य
तु महारण्यं दण्डकारण्यमात्मवान
सघन वनों की
शोभा को निहारते हुए उन्होंने "दण्डकारण्य" नामक वन में प्रवेश किया
===========================================================
इस वन का नाम दण्डकारण्य़ क्यों पड़ा?
इक्षुवाकु के पुत्रों में से सब से छोटा
पुत्र सर्वगुण सम्पन्न था. वह शूरवीर और विद्वान तथा प्रजा सेवी होने के कारण
प्रजा का प्रिय पात्र बन गया था. उसका नाम दण्ड था. वह विंध्यपर्वत के दो शिखरों
के मध्य रहता था. यहीं उसके पिता ने उसको राज्य दिया था. उस नगर का नाम मधुमत्त
था. राज दण्ड ने वहीं बहुत दिनों तक राज्य किया. एक बार चैत्र मास की वासन्तिक
सुरमणीयता में राजा दण्ड विचरण करते हुए शुक्राचार्य के आश्रम पहुँचे. शुक्राचार्य
की बड़ी कन्या अरजा उस समय वन में विचर रही थी. राजा दण्ड उसे देखकर उस पर आसक्त
एवं काम से पीड़ित हो गए. राजा दण्ड ने गुरु कन्या से उसका परिचय पूछ कर प्रणय
निवेदन किया, परन्तु अरजा ने उसके इस निवेदन को यह कहकर अस्वीकृत कर दिया कि आप
मेरे पिता के शिष्य हैं. धर्मानुकूल मैं आपकी बहन हूँ. पहले तो आपको मेरे लिए ऐसी
बातें नहीं करनी चाहिए थी, क्योंकि मेरे पिता बहुत क्रोधी हैं, आप यह जानते ही
हैं, परन्तु फ़िर भी यदि आपकी आसक्ति मुझमें है तो आप जाकर मेरे पिता जी से मुझको
मांग लें. यदि वे चाहेंगे तो धर्मानुकूल मेरा विवाह आपसे कर देंगे.
परन्तु राजा दण्ड तो कामान्ध हो रहे थे.
उन्होंने अरजा से कहा-" आज तुम्हें पाने के बाद यदि मेरा वध हो जाए तो भी
मुझे परवाह नहीं". वे पलभर भी इन्तजार करना नहीं चाहते थे. ऐसा कहकर राजा
दण्ड ने शुक्राचार्य की कन्या अर्थात गुरुकन्या के साथ बलात संभोग किया. काम का
ज्वर उतरने के बाद वे अपने राज्य लौट गए.
इधर अरजा रोती हुई शुक्राचार्य के पास आयी,
परन्तु शुक्राचार्य इस समय स्नान करने गए हुए थे. लौटकर उन्होंने अपनी पुत्री की
दशा देखी और स्वयं ही अपने तपोबल से सब कुछ जान लिया. क्रोध से जलते हुए
शुक्राचार्य ने तत्काल राजा दण्ड को श्राप दिया कि तेरे समूचे 100 योजन लम्बे राज्य में इन्द्र
गर्म धूल की वर्षा करेंगे और इस वन के समस्त प्राणियो के सहित विनाश हो जाएगा.
अपनी बेटी को पंचवटी भेजकर वे भी अपने
शिष्यों के सहित अन्य स्थान पर चले गए. उनके शाप से दण्डक का राज्य जलकर राख हो गया.
राजा दण्ड के नाम से ही इस वन प्रदेश का नाम
दण्डकारण्य़ या दण्डक वन पड़ा.
......................................................................................................................................
"हे
मुनिश्रेष्ठ ! आप तो भली-भांति जानते ही हैं कि ग्रीष्म-काल शुरु हो चुका है.
सूर्यदेव जब प्रचण्ड होकर असह्य ताप देने लगे, उससे पहले हमें यहाँ से चल देना
चाहिए". कहते हुए रामजी ने सीताजी सहित लक्ष्मण ने मुनि के चरणॊं की वंदना
की.
"हे राम ! छाया की भांति आपका अनुसरण करने वाली आपकी
धर्मपत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ यात्रा कीजिए. आपका मार्ग विघ्न-बाधाओं से
रहित हो. हे वीर ! आप दण्डकारण्य में रहने वाले तपस्वियों और मुनियों के दर्शन
कीजिए".
" इस यात्रा में आप प्रचूर मात्रा में फ़ल-मूल और फ़ूलों
से युक्त सुशोभित वन देखने को मिलेंगे. मृगों के झुण्ड आपको यत्र-तत्र विचरते
मिलेंगे. आपको अनेक प्रकार के पक्षी भी देखने को मिलेंगे. आपको ऐसे तालाब और सरोवर
भी देखने को मिलेंगे, जिनमें प्रफ़ुल्लित कमल-दल शोभा दे रहे होंगे. तालाबों और
सरोवरों के निकट आपको जल-पक्षी तथा कारण्डव भी देखने को मिलेंगे".
" हे राम ! पहाड़ों की चोटियों से शोर मचाते और तीव्र
गति से बहने वाले अनेक झरने और कुहकते हुए मोरों के झुण्ड भी आपको देखने को
मिलेंगे. मोरों की मीठी बोली से समूचा वन-प्रांत सदा गूंजता रहता है. उनकी मीठी
बोली सुनकर आपको बड़ी प्रसन्नता होगी. हे देव ! लेकिन संध्या काल के आगमन से पूर्व
आपको पुनः इसी आश्रम में लौट आना चाहिए". मुनिश्री ने कहा.
मुनिश्री से आज्ञा पाकर रामजी, सीता जी, लक्ष्मण सहित अनेक
तपस्वियों के साथ आश्रम से बाहर निकले और वहाँ से वन की ओर प्रस्थान किया.
०००००
सघन वन में अनेक तपस्वियों और मुनियों, सीताजी और लक्ष्मण
के संग रामजी को प्रवेश करता हुआ देखकर हिरनों के झुण्ड ने चारा ( घास.) चरना छोड़
दिया और वे सब उनकी अद्वितीय सुंदरता को टकटकी लगाए देखने लगे .
खूबसूरती के मामले में वे स्वयं भी किसी अन्य जानवर से कम
नहीं होते. उनकी कजरारी चमकदार और गोल-गोल आँखें बहुत ही सुंदर और आकर्षक होती
हैं. इतना ही नहीं, इनकी शारीरिक संरचना भी बहुत अधिक सुंदर होती हैं. दौड़ लगाने
में ये औसतन चालीस मील प्रति घंटा की गति से दौड़ सकते हैं. दस फ़ीट तक की लंबी छलाग
लगाने में वे प्रवीण होते है. इन विशेषताओं के अलावा, इस जीव की और भी विशेषताएं
है कि इनकी सूंघने की शक्ति बहुत ही ज्यादा होती है. हमेशा चौकन्ना रहने वाला यह
जीव, मनुष्य की तुलना में उच्च से उच्च आवृत्ति की ध्वनि को भी आसानी से सुन सकता
है.
इनकी नाभी में कस्तुरी पायी जाती है. जिसकी गंध में पागल
होकर वह जंगल-जंगल भागता फ़िरता है फ़िर भी उस गंध के बारे में नहीं जान पाता कि
उसकी नाभी में ही वह गंध समायी हुई है. मदमाती गंध को भूलकर वे रामजी के अनुपम
सौंदर्य को निहारने में लगे हुए थे.
कस्तूरी की भीनी-भीनी गंध रामजी के नथुनों से आकर टकराने
लगी थी. क्षत्रिय धर्म उन्हें पुकारने लगा था. भुजाओं में मछलियाँ उछलने लगी थीं.
उन्होंने तरकश से एक तीर निकाला. प्रत्यंचा खींचकर धनुष-बाण चढ़ाया और लक्ष्य साधकर
उसे छोड़ दिया. हालांकि उन्होंने केवल एक बाण निकाला था, लेकिन हवा में उठते हुए वह
तीर अनेकों तीरों में परिवर्तित होकर, अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहा था. निशाना
सही लगा था. मृगों का झुण्ड अपना सुध-बुध खोकर रामजी की अलौकिक छवि को निहारने में
मग्न थे. वे नहीं जानते थे पलक झपकते ही वे मृत्यु की आगोश में चले जाएंगे. पल भर
में ही अनेक कस्तूरी मृग घायल होकर पृथ्वी
में तड़पने लगे थे. एक साथ अनेकों मृगों का शिकार कर रामजी प्रसन्न हो रहे थे. उनके
चेहरे पर छाई प्रसन्नता की मोहक झलक देखी जा सकती थी. अपने अग्रज भ्राता रामजी की
प्रसन्नता को देखकर लक्ष्मण कुछ बोलने के लिए अपना मुँह खोल भी नहीं पाए थे कि
सीताजी के क्रोध के पारावार को देखकर जहाँ रामजी स्तब्ध थे, वहीं लक्ष्मण का मुँह
खुला कि खुला रह गया था. वे समझ नहीं पा रहे थे, भला इसमें क्रोधित होने की क्या
आवश्यकता थी.
सीताजी ने एक नवजात मृग छौने को अपने दोनों हाथ बढ़ाकर उठा
लिया. छौने का मृत शरीर उनकी बाहों में समाया हुआ था, लेकिन उसकी गर्दन बेजान होकर
नीचे लटकी हुई थी. मृगी ठिठकी हुई अपने नवजात शिशु को टकटकी लगाए निहारते हुए आँसू
बहा रही थी. तब शायद हिरणी भी नहीं जान पायी थी, उसका नन्हा शिशु जो उसके आसपास
उछल-कूद कर रहा था, बिना किसी अपराध के काल के गाल में समा जाएगा.
" क्षमा करें नाथ ! आप दयानिधि हैं...जीवों पर दया
करना आपका स्वाभाव है. फ़िर मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि इन निरपराध मृगों को मार कर
आपको क्या मिला? आपकी उज्ज्वल छवि को निहारना किस अपराध की श्रेणी में आता है?.
गुस्से में तमतमाते हुए सीताजी ने रामजी से जानना चाहा.
"हे जनकनन्दिनी ! मृगया हम क्षत्रियों का शौक है. बचपन
से ही हमें आखेट खेलने का प्रशिक्षण दिया गया है. मैं नहीं समझता कि इसमें आपको
कोई आपत्ति होनी चाहिए?". रामजी ने
अपने प्रत्युत्तर में कहा.
" हे आर्यपुत्र ! ये क्षत्रियों के लिए मात्र एक खेल हो
सकता है. अपने मनोरंजन का एक साधन हो सकता है. मैं जानना चाहती हूँ कि आखिर इन
निरीह मृगों ने ऐसा कौन-सा अपराध किया था कि आपने उन्हें जान से मार डाला? आपकी
छवि को निहारना किस अपराध की श्रेणी में आता है, यह मैं जानना चाहती हूँ?. मृग सदा
चौकन्ने रहते हैं. आपके आगमन को उन्होंने जान लिया था. वे भाग भी सकते थे, लेकिन
नहीं...वे कुछ देर ठहर कर आपके दिव्य दर्शन करने में मग्न थे. यदि वे आपके कपट भरे
व्यवहार को जान पाते तो एक क्षण भी नहीं ठहरते ?".
" हे वीर ! आपने दण्डकारण्य़ निवासी ऋषियों की रक्षा के
लिए युद्ध में राक्षसों का वध करने की प्रतिज्ञा की है. इसी के लिए आप अपने भाई के
साथ धनुष-बाण लेकर दण्डकाराण्य के नाम से विख्यात वन की ओर प्रस्थित हुए थे."
" हे स्वामी ! यद्धपि आप महान पुरुष हैं, तथापि
अत्यन्त सूक्ष्म विधि से विचार करने पर आप अधर्म को प्राप्त हो रहे हैं. अतः आपको
इस घोर कर्म के लिए प्रस्थित हुआ देख मेरा चित्त चिन्ता से व्याकुल हो उठा है.
आपके प्रतिज्ञा-पालनरुप व्रत पर विचार करते हुए ही मैंने आपको समझाने का प्रयास
किया है".
"इस जगत में काम से उत्पन्न होने वाले तीन प्रकार के
व्यसन हैं. पहला मिथ्याभाषण, दूसरा परस्त्रीगमन, और तीसरा बिना बैर भावना के
दूसरों के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार..ये तीनों व्यसन, न आपमें पहले कभी थे और न
ही आगे कभी होंगे".
" आप धनुष बाण लेकर अपने भ्राता लक्ष्मण के साथ इस वन
में आए हैं. संभव है आप समस्त वनवासी राक्षसों को देखकर कदाचित आप उन पर बाणॊं का
प्रयोग कर बैंठे.. यदि किसी तपस्वी के पास भी अस्त्र हो तो वह निश्चित ही एक-न-एक
दिन उसका प्रयोग करेगा ही. अतः शत्रों का प्रयोग कब और कहाँ और कैसे करना चाहिए,
इस पर गंभीरता से विचार करने के बाद ही प्रयोग में लाना चाहिए. जब तक कोई हम पर
आक्रमण न करें, तब तक हमें भी उस पर आक्रमण नहीं करना चाहिए, चाहे वह पशु हो या
कोई राक्षस ही क्यों न हो?. आप मुनिवृत्ति धारण करके राज्य का त्याग करके वन में
आए हैं. अतः आपको अपने धर्म मे स्थित रहते हुए उसका पालन करना चाहिये".
" हे आर्य ! धर्म से अर्थ प्राप्त होता है. धर्म से ही
सुख का उदय होता है और धर्म से ही मनुष्य सब कुछ पा लेता है. इस संसार में धर्म ही
सार है".
" हे स्वामी !
इन ऋषि-मुनियो और तपस्वियों ने विनयपूर्वक आपसे विनती करते हुए, यह भी अनुरोध किया
है कि वे इन सभी राक्षसों का वध करने में समर्थ है, लेकिन चिरकाल से उपार्जित किए
हुए तप को खण्डित करना नहीं चाहते. क्योंकि तप में सदा ही बहुत-से विघ्न आते रहते
हैं. वे सभी इस बात को लेकर आशान्वित हैं कि आप और आपके भ्राता लक्ष्मण उनकी रक्षा
करें".
" हे स्वामी ! मैंने स्त्री जाति की स्वभाविक चपलता के
कारण बहुत-सी बातें आपसे की हैं. फ़िर आप स्वयं धर्म के ज्ञाता हैं. अतः मेरी बातों
को अन्यथा न लेते हुए आपको जो उचित जान पड़े, उसे करें". सीताजी ने रामजी से
कहा.
"हे जनकदुलारी ! दण्डकारण्य में ऋषियों की बात को
सुनकर मैंने पूर्वरूपेण उनकी रक्षा करने की प्रतिज्ञा की है. मैं इस प्रतिज्ञा को
कभी मिथ्या नहीं होने दूँगा, क्योंकि सत्य का पालन करना मुझे सदा से ही प्रिय
है.".
"सीते ! मैं अपने प्राण छोड़ सकता हूँ. तुम्हारा और
लक्ष्मण का भी परित्याग कर सकता हूँ, किंतु अपनी प्रतिज्ञा को, विशेषतः ब्राह्मणॊं
के लिए की गई प्रतिज्ञा को मैं कदापि नहीं तोड़ सकता".
" सीते ! तुमने स्नेह और सौहार्दवश जो बातें मुझसे कही
हैं, मैं उनसे बहुत संतुष्ट हूँ, क्योंकि जो अपना प्रिय न हो, उसे कोई हितकर उपदेश
नहीं देता".
"हे देवी ! अब उस मृगछौने को चारा चरने के लिए छोड़ भी
दो, जिसे तुमने बहुत समय से उसे अपनी कोमल बाहों में उठा रखा है. देखों
तो..सही...वो कैसा टुकुर-टुकुर तुम्हें निहार रहा है. उसकी माँ (मृगी) भी स्वयं इस
बात की प्रतीक्षा कर रही है कि कब उसका दुलारा तुम्हारी बाहों से मुक्त
होगा?" रामजी ने मुस्कुराते हुए सीताजी से कहा.
" अरे...अरे..ये तो जीवित है.(आश्चर्य प्रकट करते हुए
कहतीं हैं.) मैंने जब इसे उठाया था, तब तो यह प्राणहीन था....अचानक जीवित कैसे हो
गया?. स्वामी...स्वामी... ये कैसा चमत्कार है....कहीं आप कोई लीला तो नहीं कर रहे
हैं मुझे चिढ़ाने के लिए?."
" सीते ! जो भी हो, तुम प्रसन्न तो हुईं न !. तुम्हारी
प्रसन्नता में ही मेरी प्रसन्नता है...थोड़ा तनिक दूर-दूर तक भी तो देखो..सारे मृग
तुम्हारी ओर कैसे निहार रहे हैं?..
"अरे वाह.... सब कुछ जैसा की वैसा ही है....संभवतः
मेरी ही दृष्टि में कोई दोष रहा होगा?" सीताजी ने कहा.
प्रसन्नता की लहरें उनके कोमल मन में हिलोरें लेने लगी थी.
प्रसन्नता के अतिरेक के चलते उनके नयन सजल होने लगे थे. हल्का-सा क्रोध जो अब तक
उनके मन में छाया हुआ था, तिरोहित हो चुका था. वे स्वयं इस बात को लेकर अब तक
अचंभित थीं कि यह सब कैसे हो गया?. मृत-छौने सहित सभी मृग अचानक जीवित कैसे हो
उठे?. समझ गईं सीता. समझने में तनिक देर भी नहीं लगी कि जिस पर राम की कृपा हो,
उसे भला कौन मार सकता है. किसे जीवन देना है और किसका जीवन ले लेना है, इसमें मेरे
राम सक्षम हैं. बिना उनकी कृपा के कुछ नहीं हो सकता.
" हे प्रभु ! मेरी धृष्ठता को क्षमा करें. क्रोधवश मैं
न जाने कितना कुछ बोल गई...मुझे क्षमा करें नाथ...मुझे क्षमा करें" कहती हुईं
वे रामजी के चरणों में झुक आयी थीं. रामजी ने उन्हें बीच में ही रोककर आलिंगनबद्ध
कर लिया था. प्रेमाश्रु छलक-छलक कर रामजी की छाती को भींगो रहे थे. कुछ समय्
पश्चात् सीताजी सामान्य स्थिति में आ गई थीं.
श्रीरामचन्द्रजी अपनी प्रिया मिथिलेशकुमारी के साथ हाथ में
धनुष ले अनुज भ्राता लक्ष्मण के साथ रमणीय तपोवन में विचरण करने लगे.
वन में जैसे कोई विशाल गजराज मस्ती में झुमता हुआ चलता है.
ठीक इसी प्रकार विशालबाहू श्रीरामचन्द्र जी आगे-आगे चले. उनके ठीक पीछे सीता जी और
सबसे अंत में शूरवीर लक्ष्मण अपने हाथ में धनुष-बाण लिये विचरण कर रहे थे.
राह चलते हुए सीताजी बहुत ही सतर्क थीं.. वे हर बार की
तरह इस बात पर विशेष ध्यान रखती थीं कि
कहीं धोके से भी उनके पग उस स्थान पर न पड़े, जहाँ उनके प्राण-वल्लभ के चरण पड़ रहे
थे. इतना ही नहीं, लक्ष्मण जी भी उन स्थानों पर अपने पग नहीं रखते थे, जिन स्थानों
पर उनके ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामजी और भाभी सीताजी ने चरण पड़ते थे.
वन में पड़ी पगडंडियों के बीच से चलते उन्हें भांति-भांति के
पर्वत शिखर और नाना प्रकार की नदियाँ देखने को मिलीं. नदियों के तट पर कहीं सारस
तो कहीं चक्रवात पक्षियों के झुंड दिखाई दिए. नाना प्रकार के पक्षियों की सुन्दरता
देखते हुए वे एक ऐसे सरोवर के किनारे जा पहुँचे, जिसकी लम्बाई और चौड़ाई एक-एक योजन
( आठ मील अथवा 13 किमी.) की
थी. यह सरोवर लाल और श्वेत कमलों से भरा हुआ था. हाथियों के झुण्ड गहरे पानी में
उतरकर नाना प्रकार के करतब दिखला रहे थे. कभी कोई हाथी अपनी सूंड में पानी भरकर
हवा में उछाल देता था. सरोवर में तैरते राजहंस, लंबे-लंबे डग भरता सारस, कलहंस तथा
अन्य पक्षियों के दल यत्र-तत्र विचरते, अपनी-अपनी बोलियों में बोलकर समूचे
वन-प्रांत को गुंजारित कर रहे थे. मत्स्य-कन्याएं भी भला पीछे रहने वाली कहाँ
थीं?. वे भी पूरी शक्ति लगाकर पानी की सतह से ऊपर उछल-उछलकर मस्ती कर रही थीं तथा
जल में रहने वाले अन्य जीव भी अपनी-अपनी कलाकारी दिखला रहे थे.
ततः
कौतूहलाद रामो लक्ष्मणश्च महारथः ;; मुनिं धर्मभृतं नाम प्रष्टुं
समुपचक्रमे.(श्लोक 8)
अब तक न जाने कितने ही अनुपम दृश्य रामजी ने देखे थे, लेकिन
ऐसा अद्भुत और मनोरम दृश्य घटित होता हुआ और कहीं नहीं दिखाई पड़ा था. कौतुहल बढ़ाने
वाले इस रहस्य को जानने के लिए रामजी सरोवर के निकट जा खड़े हुए और ध्यान से सुनने
का प्रयास करने लगे. जल के भीतर से कोई कोकिल-कंठी महिला सुमधुर गीत गा रही थी.
केवल वे गीत के बोल ही नहीं सुन पा रहे थे, बल्कि वाद्य-यंत्रों से निकलने वाली हर
ध्वनि को वे सुन पा रहे थे. आश्चर्यचकित होते हुए उन्होंने अपनी भार्या सीताजी और
अनुज लक्ष्मण को संकेत देते हुए पास आने को कहा. सभी ने वही सुना, जो जल के भीतर
से स्वर-लहरी बाहर छन-छनकर आ रही थी. सभी को आश्चर्य इस बात पर हो रहा था कि न तो
वहाँ कोई गायक अथवा गायिका दिखाई दे रही थी और न ही वाद्य-यंत्र बजाने वाले ही
दिखाई दे रहे थे.
रामजी के सहयात्री बने तपस्वियों में ज्येष्ठ मुनिश्री
धर्मभृत से जानना चाहा-" हे महामुने ! इस अत्यन्त अद्भुत संगीत की ध्वनि और
सुमधुर गीतों को सुनकर हमें बहुत बड़ा ही कौतुहल हो रहा है. पृथ्वी तल पर तो हमने
भी गीत-संगीत सुने हैं लेकिन जल के भीतर से आती यह सुमधुर संगीत को सुन पाने का यह
हमारा पहला अवसर है".
हे धर्मज्ञ मुने ! क्या आप इसका रहस्य जानते हैं? यदि जानते
हैं तो कृपया हमें इस रहस्य के बारे में विस्तार से बलताने की कृपा करें". रामजी ने निवेदन करते हुए
जानना चाहा.
"हे राम ! यह सरोवर "पंचाप्सर" सरोवर के नाम
से विख्यात है. यह सर्वदा अगाध जल से भरा
रहता है. माण्डकर्णि नामक मुनि ने अपने तप के बल पर इसका निर्माण किया था. महामुनि
माण्डकर्णि जलाशय में रहकर केवल वायु का आहार करते हुए दस सहस्त्र वर्षों तक
तपस्या करते रहे थे. उस समय अग्नि आदि देवता उनके इस तप से अत्यन्त ही व्यथित हो
उठे. आपस में वार्तालाप करते हुए वे
इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हो न हो मुनि हमारा स्थान ले लेना चाहते हैं. इसीलिए वे
इतना कठोर तप कर रहे है. भय से आक्रांत होकर देवताओं ने उनकी तपस्या में विघ्न
डालने का मानस बनाया. उन्होंने पांच-अप्सराओं को बुलाया, जिनकी अंगकान्ति विद्युत
के समान चंचल थी. देवताओं ने उनसे कहा कि वे अपनी कामजनित-क्रीड़ाऒ से मुनि की
तपस्या को भंग कर दें".
" हे राघव ! सभी अप्सरायें काम-कलाओं मे निपुण थीं. इस
कला के अलावा नृत्य और संगीत-कला में भी पारंगत थी. उन्होंने अपनी कलाओं के माध्यम
से ऐसा इंद्रजाल बिछाया कि मुनि अपनी तपस्या बीच में ही भूलकर उनके बनाए जाल में
जा फ़ंसे. मुनि ने उन सभी पांचों अप्सराओं को अपनी पत्नी बनाना स्वीकार किया और
उनके निवास के लिए सरोवर के भीतर घर बना दिया, जो इसी सरोवर के जल के अंदर छिपा
हुआ है. उसी घर में सुखपूर्वक रहती
रहती हुई पाँचों अप्सराएँ, तपस्या के प्रभाव से युवावस्था को प्राप्त हुए मुनि को
अपनी सेवाओं से संतुष्ट करती हैं".
" हे राम ! क्रीड़ा-विहार में लगी हुईं उन अप्सराओं के
ही वाद्यों की यह ध्वनि सुनायी देती है, जो उनके आभूषणॊं की झंकार के साथ मिली हुई
है. साथ ही उनके गीत का भी मनोहर शब्द सुनाई पड़ता है". मुनिश्री ने विस्तार के साथ उस
दिव्य सरोवर के बारे में बतलाते हुए कहा.
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पम्पा सरोवर-
भारत के कर्नाटक राजय
के कोपल्ल जिले के अनेगुंडी मार्ग पर स्थित एक झील है. यह सरोवर पहाड़ियों में
स्थित है और हनुमान मन्दिर से लगभग एक किमी. की दूरी पर स्थित है. झील के आसपास
बहुत सारे सुन्दर कमल के फ़ूल देखने को मिलते हैं. यहीं पास में एक प्राचीन लक्ष्मी
मन्दिर भी है, साथ ही भगवान शिव जी का भी मन्दिर स्थापित है. इसके अलावा मन्दिर के
निकट एक छॊटा तालाब भी है जिसके अन्दर आम का पेड़ और गणेश की प्रतिमा भी देखने को
मिलती है.
तुंगभद्रानदी से
दक्षिण मे स्थित यह झील हिन्दू धर्म में पवित्र मानी जाती है. हिन्दू मान्यता के
अनुसार पांच पवित्र झीलों के से एक है. सामुहिक रुप से " पंच-सरोवर "
कहलाने वाली यह झील- मानसरोवर, बिन्दु सरोवर, नारायण सरोवर, पुष्कर सरोवर और पम्पा
सरोवर को मिलाकर बनी. है. इसका उल्लेख भागवत पुराण में मिलता है. हिन्दू पौराणिक
कथाओं में पम्पा सरोवर को भगवान शिव की भक्ति दिखाने का स्थल भी बताया गया है,
जहाँ भगवान शिव जी तपस्या करते थे. यह सरोवर उन सरोवरों में से है जिसका उल्लेख
हिन्दू महाकाव्य में मिलता है कि भक्तिनी शबरी रामजी के आगमन के आने की प्रतीक्षा
इसी सरोवर पर कर रही थी.
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" यह तो बड़े आश्चर्य की बात है मुनिश्री " रामजी
ने भावितात्मा महर्षि के कथन को सुनकर अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा.
आश्चर्य में भर देने वाले पंचाप्सर सरोवर को देखने के बाद
वे सभी वापिस लौट आए.
पर्वत की उँचाइयों पर से नीचे उतरते हुए रामजी को एक
आश्रम-मण्डल दिखाई दिया, जहाँ सब ओर कुश तथा वल्कल वस्त्र फ़ैले हुए थे. वह आश्रम
अपने ब्राह्मीतेज से प्रकाशित हो रहा था. विदेहनन्दिनी सीताजी और अनुज लक्ष्मण ने
उस आश्रम में सुखपूर्वक निवास किया.
तदनन्तर महान अस्त्रों के ज्ञाता श्रीरामचन्द्रजी बारी-बारी
से सभी तपस्वियों के आश्रमों पर गए, जिनके यहाँ वे पहले रह चुके थे. इस प्रकार
मुनियों के आश्रमों में रहते हुए उन्हें परम आनन्द का अनुभव हो रहा था.
सब ओर से घूम-फ़िरकर धर्म के ज्ञाता श्रीराम, सीताजी और अनुज लक्ष्मण के साथ
फ़िर से सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम पर लौट आए. सुतीक्ष्ण मुनि भी कई दिनों से
श्रीरामजी के लौट आने की व्यग्रता से प्रतीक्षा कर रहे थे.
उस आश्रम में रहते हुए श्रीरामजी ने एक दिन महामुनि सुतीक्ष्ण के पास बैठकर विनीत भाव से
कहा-" हे भगवन ! मैंने प्रतिदिन बातचीत करने वाले प्रायः सभी के मुँह से सुना
है कि इस दण्डकवन में महाज्ञानी मुनि अगस्त्यजी निवास करते हैं. उनसे मिलने की
मेरी बड़ी इच्छा है. लेकिन वन की विशालता के कारण मैं मार्ग को नहीं जानता
हूँ".
" हे राम ! मैं भी स्वयं चाहता था कि आप सीता और
लक्ष्मण के सहित महर्षि अगस्त्य जी के आश्रम पर जरुर जाएं. आपको यह जानकर
प्रसन्नता होगी कि महर्षि अगस्त्य जी मेरे गुरु हैं. मैं गुरु दक्षिणा में उन्हें
बहुत कुछ देना चाहता था. लेकिन अपनी निर्धनता के चलते मैं उन्हें कुछ नहीं दे पाया था. लेकिन मेरी
लगन और सेवा से प्रसन्न होकर उन्होंने कहा था कि यदि तुम कुछ देना ही चाहते हो तो
मुझे श्रीराम, सीताजी और लक्ष्मण को लेकर मेरे आश्रम पर लेकर आना होगा. अभी उनका
दण्डकारण्य में प्रवेश हो चुका है.".
" हे प्रभु ! आपके बारे में मैंने काफ़ी कुछ सुन रखा
था. तभी से मेरे मन में आपके दर्शन करने की अभिलाषा जाग्रत हुई थी. आपको पाने के
लिए मुझ जैसे, न जाने कितने ऋषि-मुनि-तपस्वी, वर्षों तप करते हैं, लेकिन शायद ही
इसमें सभी सफ़ल हो पाते होंगे?. निश्चित ही मैं भाग्यशाली हूँ कि आप स्वयं चलकर
मेरे आश्रम तक आए और दर्शन देकर मुझे कृतार्थ किया. हे राम ! मेरा जीवन धन्य हुआ
आपके दर्शनो को पाकर".
अब प्रभु संग जाउँ गुरु पाहीं.
"हे राम !
अपने गुरु का ऋण चुकाने का सौभाग्य भी मुझे अब मिलने जा रहा है. मैं स्वयं आपको
अपने साथ गुरुजी के आश्रम पर लेता चलूँगा. हम यहाँ से प्रस्थान करें, इससे पूर्व
मैं अपने गुरु के बारे में जानकारी देना आवश्यक समझता हूँ."
"हे प्रभु ! आप सर्वज्ञ हैं, आप सब कुछ जानते हैं फ़िर
भी मैं अपने गुरु महर्षि अगस्त्य जी का परिचय देना आवश्यक समझता हूँ. उनकी महिमा
का गुणानुवाद करते हुए मुझे अतिरिक्त प्रसन्नता ही प्राप्त होगी".
"हे
श्रीराम !. महर्षि अगस्त्य को पुलस्त्य ऋषि का बेटा माना जाता है. उनके भाई का नाम
विश्रवा था, जो रावण के पिता थे. ऐसे महान महर्षि ने श्रावण शुक्ल की पंचमी को
काशी में जन्म लिया था. इनका विवाह विदर्भ देश के राजा मलयध्वज नाम के राजा की सुपुत्री राजकुमारी लोपमुद्रा से हुआ
था, जो एक पतिव्रता नारी के साथ वीर तथा बुद्धिमान महिला थीं. इध्मवाहन"
(लोपमुद्रा का ही एक नाम था ) ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 165 सुक्त से 191 तक के सूक्तों की रचना मेरे गुरु अगस्त्य जी ने ही की थी. अतः इन्हें
मंत्रदृष्टा भी कहा जाता है".
"
विंध्याचल पर्वत अपने घमण्ड में चूर होकर अपनी ऊँचाइयाँ लगातार बढ़ाता जा रहा था.
वह सुमेरु से भी ऊँचा उठना चाहता था. उसकी बढ़ती ऊँचाई से सूर्य का प्रकाश धरती तक
नहीं आ पाता था. अतः देवताओं के आग्रह पर मेरे गुरु अगस्त्य जी ने दक्षिण की ओर
जाना स्वीकार किया. चुंकि विंध्याचल महर्षि अगस्त्य का शिष्य था. गुरु को अपनी ओर
आता देख उसने उन्हें प्रणाम किया और झुकते हुए चरण स्पर्श किया. अपना आशीर्वाद प्रदान
करते हुए उन्होंने अपने शिष्य से कहा कि मुझे दक्षिण दिशा में जाना है, लेकिन तुम्हारी अत्यधिक
ऊँचाइयों को मैं लांघ नहीं पाऊँगा. अतः तुम इसी तरह झुके रहो. जब तक कि मैं वापिस न हो लूँ". तबसे विंध्याचल
उनके पुनरागमन की प्रतीक्षा में झुका हुआ ही है".
"हे
प्रभु ! एक समय की बात है जब राक्षस राज वर्तासुर के आतंक से धरती जब-तब कांप उठती
थी. उसके आतंक को मिटा देने के लिए देवताओं और राक्षसों में भयंकर युद्ध हुआ. इस
युद्ध में वरतासुर मारा गया. वरतासुर के मारे जाने के बाद बहुत से राक्षस देवताओं
के भय से समुद्र में जाकर छिप गए और छिपे-छिपे देवराज इन्द्र की वध की योजना बनाने
लगे".
" तब
राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य ने राक्षसों को सुझाव दिया कि पहले ऋषि-मुनियों को
नष्ट कर दिया जाये, तो देवराज का वध करना आसान हो जाएगा. उनके सुझाव से सहमत होते
हुए राक्षस दिन के समय समुद्र में छिपे रहते और रात में निकलकर ॠषि-मुनियों के
यज्ञ नष्ट देते और उन्हें मार कर खा जाते थे. इस प्रकार ऋषि समुदाय में हाहाकार मच
गया, क्योकि देवता भी उनकी रक्षा करने में अपने को असमर्थ पा रहे थे".
"सभी
देवता भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे और सारी घटनाओं से उन्हें अवगत कराया. तब
भगवान विष्णु ने कहा कि पूरे समुद्र को सुखाने की शक्ति सिर्फ़ अगस्त्य मुनि के पास
है. अगर तुम सब उनके पास जाकर प्रार्थना करोगे तो वे तुम्हारी विनती अवश्य स्वीकार
कर लेंगे. तब सभी देवता मुनि के अगस्त्य के पास पहुँचे और सारी स्थिति से अवगत कराया".
"अगस्त्य
ऋषि मान गए और समुद्र तट पर पहुँचे और देखते ही देखते उन्होंने समुद्र का सारा
खारा जल पी लिया. समुद्र के सूखते ही सभी देवताओं ने मिलकर राक्षसों को पाताल लोक
से भगा दिया, कुछ को मार गिराया".
"इसके
बाद देवताओं ने अगस्त्यजी से प्रार्थना करते हुए कहा कि अब आप कृपाकर समुद्र का जल
वापिस भर दीजिए. महर्षि ने कहा कि अब ऐसा होना संभव नहीं हैं. मैंने जितना जल पी
लिया था, वह सब पच गया है. अब तुम्हें कोई दूसरा उपाय करना होगा. आश्चर्यचकित
देवता ब्रह्माजी के पास पहुँचे. ब्रह्माजी ने कहा कि जब भागीरथ धरती पर गंगा लाने
का प्रयत्न करेंगे, तब समुद्र जल से भर जाएगा".
" हे
भगवन ! एक बड़ा ही रोचक प्रसंग महर्षि अगस्त्य जी से जुड़ा हुआ है. मणिमती नगरी के
इल्वक तथा वातापि नामक दो दुष्ट दैत्य रहते थे. इल्वक नामक दैत्य वेश बदलकर ऋषि,
मुनियों और तपस्वियों को भोजन करने के लिए आमंत्रित करता था. वह अपने भाई वातापि
का वध करके उसका मांस भोजन में मिला देता. इस बात से अनजान ऋषि-मुनि के भोजन कर
चुकने के बाद, वह अपने भाई वातापि को बाहर निकल आने के लिए आवाज लगाता. उसकी आवाज
सुनकर वातापि उनका पेट फ़ाड़कर बाहर निकल आता . इस तरह दोनों भाइयों ने अनेक
ऋषि-मुनियों को मार डाला".
" एक बार उसका सामना महर्षि अगस्त्य जी से हुआ. इल्वक
ने उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया. कपटी इल्वक ने वातापि का वध कर उसका मांस भोजन
में मिला कर परोस दिया. भोजन कर चुकने के बाद उसने अपने भाई का नाम लेकर पुकारा कि
वह बाहर आ जाए. लेकिन महर्षि ने उसे अपने पेट में ही मार डाला था. भाई के लाख
बुलाने के बाद भी वातापि महर्षि के पेट से बाहर नहीं निकल पाया. इसके बाद क्रोधित
महर्षि ने इल्वक को भी मार गिराया. इस तरह उन्होंने अनेक ऋषि-मुनियों को मारे जाने
से बचा लिया".
" हे धनुषधर राम ! महर्षि अगस्त्य की गणणा सप्त-ऋषियों
में आती है. ये भगवान शंकर के सात शिष्यों में से एक है..आपको यह जानकर अत्यधिक
प्रसन्नता होगी कि मेरे गुरु आपके पिता दशरथजी के राजगुरु हैं. इस दण्डकारण्य में
वे सर्वाधिक पूज्यनीय हैं.. आपने "अगस्त्य संहिता" नामक ग्रंथ की रचना की है. आप केवल एक तपस्वी भर नहीं है, बल्कि आपने विद्धुत
बनाने, तांबा, सोना और चांदी के लेपन की विधि विकसित की. इस खोज के कारण उन्हें
"कुंभोद्भव" ( अर्थात Battery Bone) भी कहा जाता है. इतना ही नहीं आपने पानी को प्राणवायु ( Oxigen ) और उदान वायु (
Hydrogen ) में परिवर्तित किया. उन्होंने ऊर्जा के स्त्रोत, उत्पत्ति और
उपयोग" पर प्रचुर मात्रा में शोधग्रंथ लिखे हैं."
" हे राम ! मेरे गुरुदेव ने आकाश में उड़ने वाले गर्म
गुब्बारे, विमान बनाने और उसे संचालित करने की तकनीक की भी खोज की है. उन्होंने एक
रेशमी वस्त्र पर अंजीर, कटहल, आंवला, अक्ष, कदम्ब, मीराबोलेन वृक्ष के तीन प्रकार
के और दालों के सम्मिश्रण से रस या सत्व निकाल कर रेशमी वस्त्र पर लेप लगाने के
पश्चात शंख और शर्करा के घोल में डालकर उसे फ़िर से सुखाया. इस तरह उस रेशमी वस्त्र
से बने बैलून में उदानवायु (Hydrogen ) को भर कर उसे आसमान में उड़ाकर
दिखाया है".
"हे राम ! आपको ऐसे दिव्यात्मा महर्षि अगस्त्य के
दर्शन अवश्य करने चाहिए".
हरषि चले
कुंभज रिषि पासा.
अपने गुरु के गुणानुवाद को सुनाने के पश्चात सुतीक्ष्ण मुनि
रामजी, सीताजी, लक्ष्मण जी सहित अनेक शिष्यों को लेकर अपने गुरु के आश्रम की ओर चल
दिए.
०००००००
सघन वन में चलते हुए उन्होंने मार्ग में नीवार ( जलकदम्ब),
कटहल, साखू, अशोक, तिनिश, चिरिविल्व, महुआ, बेल, तेंदू तथा अन्य जंगली वृक्षों को
देखा. यह विचित्र वन मेघमाला सदृष्य पर्वतमालाओं, सरिताओं तथा सरवरों के नयनाभिराम
दृष्यों को निहारते हुए आगे प्रस्थित हो रहे थे.
इस विरान निर्जन अरण्य का वातावरण अत्यन्त ही मनोरम था.
सुन्दर विशाल वृक्षों पर विविध प्रकार की लतिकाएं वायु के वेग में झूल रही थीं.
फ़ूलों और फ़लों के भार से झुके हुए सहस्त्रों वृक्ष शोभा पा रहे थे. विशाल हाथियों
के झुण्ड भी यत्र-तत्र विचरते दिखाई देते थे. मदमस्त हाथियों ने वृक्षों की
डालियों को तोड़कर इधर-उधर बिखेर दिया था
शाखामृग वृक्षों की ऊँची-ऊँची शाखाओं पर अठखेलियाँ कर रहे
थे. नाना प्रकार के पक्षियों का कलरव चहुँओर सुनाई दे रहा था. हिंसक पशु भी हिरण
आदि के साथ बैरभाव छोड़कर कल्लोल कर रहे थे. जहाँ वन की भूमि समतल है, वहाँ
पिप्पलीका के वृक्ष बहुतायत से दिखाई दे रहे थे. कहीं भांति-भांति के कमलसरोवर थे
जो स्वच्छ जल से भरे हुए थे. उन सरोवरों के निकट हंस और कारण्डव आदि पक्षी सब ओर
फ़ैले हुए थे तथा चक्रवाक उसकी शोभा बढ़ा रहे थे.
हर्षो उल्लासित राम ने प्रकृति नटी के अनुपम दृष्य को
निहारते हुए अपनी भार्या सीताजी और अपने अनुज लक्ष्मण से कहा-" हम तीनों इस
सुरम्य वन में सानन्द विचरण करेंगे. इस वन में पकी हुई पीपलियों की गंध वायु से
प्रेरित होकर सहसा इधर आयी है, जिससे कटु रसका उदय हो रहा है. देखो... देखो तो
सही....महर्षि अगस्त्य के आश्रम के अद्भुत प्रभाव से जन्मजात शत्रु सिंह और मृग
एक दूसरे की हत्या करना भूलकर, परस्पर स्नेह का वर्ताव कर रहे हैं. यह सब
महर्षि के तपोबल का ही प्रभाव है. मैंने सुना है कि यहाँ आकर राक्षस भी अपना
उपद्रव करना भूल जाते हैं और अपनी तामसी वृत्ति को त्याग कर महर्षि के अनन्य भक्त
बन गए हैं. उनकी कृपा से यहाँ देवता, राक्षस, यक्ष, गन्धर्व, नाग, किन्नर आदि सभी
मानवीय धर्मों का पालन करते हुए, अत्यन्त ही प्रेमपूर्वक रहकर अपना जीवन यापन करते
हैं. ऐसे दिव्य महात्मा महर्षि के दर्शन करने का सौभाग्य आज हमें प्राप्त होने
वाला है".
" हे अनुज लक्ष्मण ! यहाँ के वृक्षों के पत्ते जैसे
सुने गए थे, वैसे ही चिकने दिखाई देते हैं तथा पशु पक्षी भी क्षमाशील एवं शांत
हैं. इससे जान पड़ता है कि शुद्ध अन्तःकरण वाले महर्षि अगस्त्य का आश्रम यहाँ से
अधिक दूर नहीं है. जो अपने नाम के अनुरूप संसार में अगस्त्य ( जो अग अर्थात पर्वत
को स्तम्भित कर दे उसे अगस्त्य कहते हैं.) के नाम से विख्यात हैं, उन्हीं का आश्रम
दिखाई देता है, जो थके-मांदे पथिकों की थकावट को दूर कर देने वाला है".
"जिस पुण्यकर्मा महर्षि ने समस्त लोकों की हितकामना से
राक्षसों का वेगपूर्वक दमन करके इस दक्षिण दिशा को शरण देने योग्य बना दिया है तथा
जिनके प्रभाव से राक्षस इस दक्षिण दिशा को केवल दूर से भयभीत होकर देखते हैं,
उन्हीं का यह पवित्रतम आश्रम है".
" हे अनुज ! ये ऐसे प्रभावशाली मुनि हैं जिनके आश्रम
में कोई झूठ बोलने वाला, क्रूर, शठ, नृशंस अथवा पापाचारी मनुष्य जीवित नहीं रह
सकता. यहाँ धर्म की आराधना करने के लिए देवता, यक्ष, नाग और पक्षी नियमित आहार
करते हुए निवास करते हैं. इसी आश्रम में रहते हुए अनेकानेक सिद्ध, महात्मा, महर्षि
नूतन शरीरों के साथ सूर्यतुल्य तेजस्वी विमानों में स्वर्गलोक को प्राप्त हुए
हैं".
" हे लक्ष्मण ! संपूर्ण लोकों के द्वारा पूजित तथा सदा
सज्जनों के हित में लगे रहने वाले महात्मा अगस्त्य जी का हमें आशीर्वाद प्राप्त
होगा तथा हमें उनकी सेवा करने का सौभाग्य भी प्राप्त होगा".
" हे सुमित्रानंदन ! अब हम लोग आश्रम पर आ पहुँचे
हैं". तदनन्तर उन्होंने सुतीक्ष्ण जी से विनयपूर्वक कहा कि आप आश्रम के भीतर
जाकर अपने गुरु महर्षि अगस्त्यजी से निवेदन करते हुए अवगत कराने की कृपा करें कि
राम अपनी भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ आपके आश्रम पर आ चुके हैं.
०००००
प्रसन्न...बहुत प्रसन्न थे सुतीक्ष्ण मुनि. उन्हें तीन
बातों को लेकर अत्यधिक ही प्रसन्नता का अनुभव हो रहा था. पहली तो यह कि उन्हें
उनकी गुरुजी की महति कृपा से श्रीरामचन्द्र जी, सीता जी तथा लक्ष्मण के दिव्य दर्शनों
का पुण्य लाभ मिला. दूसरी यह कि वे आज गुरु-दक्षिणा से उॠण हो जाएंगे. तीसरी बात यह कि उन्हें अपने गुरुजी के दर्शन एक बड़े
अंतराल के बाद होने जा रहे हैं.. प्रसन्नवदन सुतीक्ष्ण जी के पैर जैसे पृथ्वी पर
नहीं पड़ रहे थे. प्रवेश-द्वार से चलते हुए वे अपने महान गुरु के समीप कब पहुँच गए,
पता ही नहीं चल पाया.
सुतीक्ष्ण जी को अपने गुरुकुल में आया देख, आश्रम के सभी
तपस्वी और छात्र प्रसन्नता के साथ हर्षोल्लास करने लगे. सभी उन्हें सादर
नमस्कार/प्रणाम करते हुए उनका स्वागत करने लगे .
सुतीक्ष्ण मुनि ने देखा कि महर्षि अगस्त्य इस समय ध्यानस्थ
अवस्था में जाप कर रहे हैं. वे उनके समीप जा खड़े हुए और अत्यन्त ही मधुर वचनों में
बोलते हुए उन्होंने कहा:- गुरुदेव ! मैं आपका शिष्य सुतीक्ष्ण, आपके चरणॊं में
दण्डवत प्रणाम करता है. हे गुरुदेव ! कृपया अपने नेत्र खोलिये...आपका शिष्य आपके समक्ष
उपस्थित है".
महर्षि अगस्त्य जी ने सुना....सुना कि उनका शिष्य उन्हें
पुकार रहा है. उन्होंने धीरे से अपने नेत्र खोले. देखा. उनका प्यारा शिष्य अपने
दोनों हाथ जोड़े उनके समक्ष उपस्थित खड़ा है. जनकल्याण की भावना से ओतप्रोत महर्षि
अगस्त्य ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा:-" शिष्य ! गुरुकुल में तुम्हारा
स्वागत है. तुम कब आए? क्या तुम रामजी को लेकर आए हो या यूंहि खाली हाथ चले आए
हो?".
त्रिकालज्ञ महर्षि स्वयं जानते थे कि श्रीराम जी का दण्डकवन
में प्रवेश हो चुका है और वे शीघ्र ही उनके आश्रम में पधारेंगे. इतना सब कुछ जानने
के बाद भी उन्होंने, श्रीरामजी को अपने आश्रम पर लाने का दायित्व सुतीक्ष्ण को सौंपा थी. उनकी इच्छा थी
कि मेरे स्वयं के अलावा सभी को परमात्मा रामजी के दर्शन प्राप्त होने चाहिए. एक
सदगुरु अपने शिष्यों का कितना ध्यान रखते हैं, यह इस बात से सिद्ध हो जाता है.
प्रश्न गुरुदेव ने
किया था. जवाब तो सुतीक्ष्ण को देना था.
प्रसन्नवदन सुतीक्ष्ण जी ने पुनः चरणॊं में प्रणाम निवेदित
करते हुए अत्यन्त ही मधुर वचनों में कहा- "
गुरुदेव ! मैं अकेला कहाँ आया हूँ ?, मेरे साथ प्रभु श्रीराम, अपनी भार्या
सीताजी तथा अनुज लक्ष्मण के साथ आश्रम के प्रवेश-द्वार पर आपके आगमन की प्रतीक्षा
कर रहे हैं. कृपया शीघ्रता से मेरे साथ चलिए....इस शुभ अवसर पर हम सभी तपस्वीगण
तथा वेदपाठी छात्रों के सहित उनका भावभीना स्वागत करेंगे."
" मेरे राम आ गए....मेरे राम आ गए."
सुतीक्ष्ण......मेरे प्यारे शिष्य....तुम रामजी को लेकर आ गए.?...तुम मेरे राम को
लेकर आ गए?". फ़िर अपने शिष्य सुतीक्ष्ण से बोले:- सुतीक्ष्ण तुमने मुझे
गुरु-दक्षिणा मे, एक ऐसा अनुपम अवसर उपलब्ध कराया है, जिसकी की मैं बड़े समय से
प्रतीक्षा कर रहा था. आज तुम गुरु-ऋण से मुक्त हुए. अब देर न करो और सभी ऋषि-मुनि
और वेदपाठी ब्राह्मण छात्रों और शिष्यों को साथ लेकर जाऒ और उन्हें सत्कारपूर्वक
आश्रम के भीतर मेरे समीप ले आओ. तुम उन्हें अब तक ले क्यों नहीं आए? अब तनिक भी
विलम्ब मत करो .जाओ शीघ्रता से जाओ".... महर्षि अगस्त्यजी ने सुतीक्ष्ण से
कहा.
पित्रौ दशरथस्येमौ रामो लक्ष्मण एव च : प्रविष्ठावाश्रमपदं
सीताया सह भार्यया.
"जी...जैसी आपकी आज्ञा" कहते हुए सुतीक्ष्ण शीघता
से आश्रम के द्वार पर पहुँचे और उन्होंने बड़ी ही विनम्रता के साथ श्रीरामजी का
यथोचित स्वागत-सत्कार करते हुए उन्हें आश्रम के भीतर लिवा लाए.
आश्रम में प्रवेश करते हुए रामजी ने देखा कि हिरणॊं का
झुण्ड बड़े ही शान्तभाव से उन्हें टुकुर-टुकुर निहार रहा है. उन्होंने यह भी देखा
कि वहाँ ब्रह्माजी, अग्निदेव, भगवान विष्णु, महेन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर,
धाता, विधाता, वायु, अरूण, गायत्री, वसु, नागराज अनन्त, गरूड़, कार्तिकेय, आदि की
स्थापना की गई है.
इतने में मुनिवर अगस्त्यजी भी अपने शिष्यों से घिरे हुए अग्निशाला से बाहर
निकले. वीर श्रीराम ने मुनियों के आगे-आगे आते हुए उद्दीप्त तेजस्वी अगस्त्य जी के
दर्शन किए. महाबाहू श्रीरामजी ने सूर्यतुल्य तेजस्वी महर्षि अगस्त्य जी के चरणॊं
में प्रणाम किया और बोले-" हे महामुने ! अयोध्या में जो दशरथ नाम से प्रसिद्ध
राजा थे, उन्हीं का ज्येष्ठ पुत्र राम, अपनी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ
आपके दिव्य दर्शनों के लिए आया हूँ".
जैसे ही रामजी महर्षि के चरणों में प्रणाम करने के लिए
झुकने ही वाले थे कि उन्होंने उन्हें बीच में ही रोकते हुए अपने हृदय से लगा लिया.
कुछ देर आलिंगनबद्ध होने के पश्चात
उन्होंने रामजी, सीताजी और लक्ष्मण जी को आसन तथा जल ( पाद्य, अर्ध्य आदि) देकर
उनका आतिथ्य-सत्कार किया. फ़िर कुशल-समाचार पूछकर उन्हें आसन पर विराजने को कहा.
रामजी के आसन ग्रहण करने के बाद, वे स्वयं अपने आसन पर बैठे.
महर्षि अगस्त्य जी ने कहा"-" हे राम ! यह सौभाग्य
की बात है कि आज चिरकाल के बाद आप स्वयं मुझसे मिलने के लिए आ गए. आप संपूर्ण
लोकों के राजा, महारथी और धर्म का आचरण करने वाले हैं. आज आप मेरे अतिथि के रूप
में पधारे हैं, अतएव आप हम लोगों के माननीय एवं पूज्यनीय हैं". ऐसा कहते हुए
उन्होंने मूल, फ़ल, तथा अन्य उपकरणॊं से रामजी का पूजन किया.
इदं दिव्यं महच्चापं हेमवज्रअविभूषितम (32 / द्वादश सर्ग )
तत्पश्चात उन्होंने कहा-" हे पुरुषसिंह राम ! ( एक
दिव्य धनुष रामजी की ओर बढ़ाते हुए ) यह महान दिव्य धनुष विश्वकर्माजी ने बनाया है.
इसमें सुवर्ण और हीरे जड़े हुए हैं. यह भगवान विष्णु का दिया हुआ है तथा यह जो
सूर्य के समान देदिप्यमान अमोघ उत्तम बाण है, ब्रह्माजी का दिया हुआ है. इनके
सिवाय देवराज इन्द्र ने ये दो तरकस दिए हैं, जो तीखे तथा प्रज्ज्वलित अग्नि के
समान तेजस्वी बाणॊं से सदा भरे रहते हैं, कभी खाली नहीं होते. साथ ही यह तलवार भी
है, जिसकी मूठ में सोना जड़ा हुआ है. इसकी म्यान भी सोने की ही बनी हुई है".
"श्रीराम
! पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने इसी धनुष से युद्ध में बड़े-बड़े असुरों का संहार
करके देवताओं की गौरव को उनके अधिकार के साथ लौटाया था. हे राम ! आप यह उत्तम
धनुष, ये दो तरकस, ये बाण और यह तलवार राक्षसों पर विजय प्राप्त करने के लिए ग्रहण
कीजिए". ऐसा कहकर महातेजस्वी अगस्त्य जी ने सभी श्रेष्ठ आयुध श्रीरामचन्द्रजी
को सौंप दिए.
तदनन्तर
उन्होंने रामजी से कहा-" हे राघव ! आपका कल्याण हो. मैं आप सहित लक्ष्मण पर
भी बहुत प्रसन्न हूँ.. आप स्वयं चलकर मेरे आश्रम पर आए, इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता
हुई है".
"
रास्ता चलने के परिश्रम से आप लोगों को थकावट का अनुभव हो रहा होगा, साथ ही कष्ट
भी.. .....मिथिलेशकुमारी जानकी भी अपनी थकावट दूर करने के लिए उत्कण्ठित जान पड़ती
है, यह बात स्पष्ट ही जान पड़ती है. ये सुकुमारी हैं और इससे पहले उन्हें ऐसे
दुःखों का सामना नहीं करना पड़ा है. वन में अनेक प्रकार के कष्ट होते ही हैं, फ़िर
भी ये तुम्हारे प्रेम से प्रेरित होकर
यहाँ आयी हुई हैं".
"हे
श्रीराम ! जिस प्रकार सीता का यहाँ मन लगे, वह जैसे भी प्रसन्नता प्राप्त करना
चाहें, वही कार्य आप करें. निःसंदेह उसने आपके साथ वन में आकर दुष्कर कार्य किया
है."
" हे
रघुनन्दन ! सृष्टिकाल से अब तक स्त्रियों का प्रायः यही स्वभाव रहता आया है
कि यदि पति सम अवस्था में रहे अर्थात
धन-धान्य से सम्पन्न, स्वस्थ एवं सुखी है, तब तो वे उसमें अनुराग रखती हैं. परंतु
यदि विपरीत अवस्था में पड़ जाए तो उसे त्याग देती हैं.. स्त्रियों में विद्धुत-की-सी
चपलता, शस्त्रों की तीक्ष्णता तथा गरुड़ एवं वायु की-सी तीव्र गति होती है. आपकी यह
धर्मपत्नी सीता सब दोषों से रहित हैं एवं
पतिव्रताओं में उसी तरह अग्रगण्य़ हैं, जैसे देवियों में अरुन्धती."
.................................................................................................................................
अरुन्धती का परिचय.
सन्ध्या
ब्रह्मा की मानस पुत्री थी जो तपस्या के बल पर अगले जन्म में अरुन्धती के रूप में महर्षि वसिष्ठ की पत्नी बनी. वह तपस्या
करने के लिये चन्द्रभाग पर्वत
के बृहल्लोहित नामक सरोवर के पास सद्गुरु की खोज में घूम रही थी. सन्ध्या की जिज्ञासा देखकर महर्षि वसिष्ठ वहाँ प्रकट हुए और सन्ध्या से
पूछा- कल्याणी! तुम इस घोर जंगल में कैसे विचर रही हो, तुम
किसकी कन्या हो और क्या करना चाहती हो? सन्ध्या कहने लगी-
भगवन्! मैं तपस्या करने के लिये इस सूने जंगल में आयी हूँ.
अब तक मैं बहुत उद्विगन् हो रही थी कि कैसे तपस्या करूँ, मुझे
तपस्या मार्ग मालूम नहीं है. परन्तु अब आपको देखकर मुझे बडी
शान्ति मिली है. वसिष्ठ जी ने कहा- तुम एकमात्र परम
ज्योतिस्वरूप, धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के दाता भगवान विष्णु की आराधना करके ही अपना अभीष्ट
प्राप्त कर सकती हो. सूर्यमण्डल में शंख-चक्र-गदाधारी चतुर्भुज
वनमाली भगवान विष्णु का ध्यान करके ॐ नमो वासुदेवाय ॐ इस मन्त्र का जप करो और मौन
रहकर तपस्या करो. पहले छ: दिन तक कुछ भी भोजन मत करना,
केवल तीसरे दिन रात्रि में एवं छठे दिन रात्रि में कुछ पत्ते खाकर
जल पी लेन.। उसके पश्चात् तीन दिन तक निर्जल उपवास करना और
फिर रात्रि में भी पानी मत पीना. भगवान तुम पर प्रसन्न होंगे
और शीघ्र ही तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करेंगे. इस प्रकार उपदेश
करके महर्षि वसिष्ठ अन्तर्धान हो गये और वह भी तपस्या की पद्धति जानकर बडे आनन्द
के साथ भगवान की पूजा करने लगी. इस प्रकार बराबर चार युग तक
उसकी तपस्या चलती रही.
भगवान् विष्णु उसकी भावना के अनुसार रूप धारण करके उसकी आँखों के
सामने प्रकट हुए. गरुडपर
सवार अपने प्रभु की मनोहर छवि देखकर वह सम्भ्रम के साथ उठ खडी हुई और क्या कहूँ?
क्या करूँ? इस चिन्ता में पड गयी. उसकी स्तुति करने की इच्छा जानकर भगवान ने उसे दिव्य ज्ञान, दिव्य दृष्टि एवं दिव्य वाणी प्रदान की. अब वह भगवान
की स्तुति करने लगी. स्तुति करते-करते वह भगवान के चरणों पर
गिर पडी. भगवान को बडी दया आयी और उन्होंने अमृतवर्षिणी
दृष्टि से उसे हृष्ट-पुष्ट कर दिया तथा वर माँगने को कहा.
सन्ध्या ने कहा- भगवन्! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके पहला वर तो यह दें
कि संसार में पैदा होते ही किसी प्राणी के मन में काम के विकार का उदय न हो,
दूसरा वर यह दीजिये कि मेरा पातिव्रत्य अखण्ड रहे और तीसरा यह कि
मेरे भगवत्स्वरूप पति के अतिरिक्त और कहीं भी मेरी सकाम दृष्टि न हो. जो पुरुष मुझे सकाम दृष्टि से देखे वह पुरुषत्वहीन अर्थात नपुंसक हो जाये. भगवान ने कहा कि चार अवस्थाएँ होती हैं-बाल्य, कौमार्य,
यौवन और बुढापा. इनमें तीसरी अवस्था अथवा
दूसरी अवस्था के अन्त में लोगों में काम उत्पन्न होगा.
तुम्हारी तपस्या के प्रभाव से आज मैंने यह मर्यादा बना दी कि पैदा होते ही कोई
प्राणी कामयुक्त नहीं होगा. त्रिलोकी में तुम्हारे सतीत्व की
ख्याति होगी और तुम्हारे पति के अतिरिक्त जो भी तुम्हें सकाम दृष्टि से देखेगा वह
तुरन्त नपुंसक हो जायगा. तुम्हारे पति बड़े भाग्यवान्, तपस्वी,
सुन्दर और तुम्हारे साथ ही सात कल्पतक जीवित रहनेवाले होंगे. तुमने
मुझसे जो वर माँगे थे वे दे दिये. अब जो तुम्हारे मन में बात है वह बताता हूँ.
तुमने पहले आग में जलकर शरीर त्याग करने की प्रतिज्ञा की थी सो
यहीं चन्द्रभागा नदी के किनारे महर्षि मेधातिथि बारह वर्ष का यज्ञ कर रहे हैं, उसी में जाकर शीघ्र ही अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो, वहाँ
ऐसे वेश से जाओ कि मुनिलोग तुम्हें देख न सकें. मेरी कृपा से तुम अगिन्देव की
पुत्री हो जाओगी, जिसे तुम पति बनाना चाहती हो, मन से उसका
चिन्तन करते-करते अपना शरीर त्याग करो. यह कहकर भगवान ने अपने करकमलों से सन्ध्या
के शरीर का स्पर्श किया और तुरन्त ही उसका शरीर पुरोडाश (यज्ञ का हविष्य) बन गया.
इसके बाद सन्ध्या अदृश्य होकर उस यज्ञमण्डप में गयी. भगवान की कृपा से उस समय उसने
अपने मन में मूर्तिमान् ब्रह्मचर्य और तपश्चर्या के उपदेशक वसिष्ठ को पति के रूप
में वरण किया और उन्हीं का चिन्तन करते-करते अपने पुरोडाशमय शरीर को अगिन्देव को
समर्पित कर दिया. अगिन्देव ने भगवान की आज्ञा से उसके शरीर को जलाकर सूर्यमण्डल
में प्रविष्ट कर दिया. सूर्य ने उसके शरीर के दो भाग करके अपने रथ पर देवता और
पितरों की प्रसन्नता के लिये स्थापित कर लिया. उसके शरीर का ऊपरी भाग जो दिन का
प्रारम्भ यानी प्रात:काल है, उसका नाम प्रात:सन्ध्या और
शेषभाग दिन का अन्त सायं सन्ध्या हुआ और भगवान ने उसके प्राण को दिव्य शरीर और
अन्त:करण को शरीरी बनाकर मेधातिथि के यज्ञीय अगिन् में स्थापित कर दिया.
इसके पश्चात् मेधातिथि ने यज्ञ के अन्त में उस स्वर्ण के समान
सुन्दरी सन्ध्या को पुत्री के रूप में प्राप्त किया।. उस समय यज्ञीय अर्घ्यजल में
स्नान कराकर वात्सल्य स्नेह से परिपूर्ण और आनन्दित होकर उसे गोद में उठा लिया और
उसका नाम अरुन्धती रखा. अरुन्धती चन्द्रभागा तट पर स्थित तापसारण्य नामक आश्रम में
पलने लगी. पाँचवें वर्ष में पदार्पण करने पर ही उसके सद्गुणों से सम्पूर्ण
तापसारण्य पवित्र हो गया.
एक दिन अरुन्धती
चन्द्रभागा के जल में स्नान करके अपने पिता मेधातिथि के पास ही खेल रही थी, स्वयं ब्रह्माजी पधारे और उसके पिता से कहा कि अब अरुन्धती को शिक्षा देने
का समय आ गया है, इसलिये इसे अब सती साध्वी स्त्रियों के पास
रखकर शिक्षा दिलवानी चाहिये; क्योंकि कन्या की शिक्षा
पुरुषों द्वारा नहीं होनी चाहिये. स्त्री ही स्त्रियों को शिक्षा दे सकती है;
किन्तु तुम्हारे पास तो कोई स्त्री नहीं है, अतएव
तुम अपनी कन्या को बहुला और सावित्री के पास रख दो. तुम्हारी कन्या उनके पास रहकर
शीघ्र ही महागुणवती हो जायगी. मेधातिथि ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और उनके जाने
पर अरुन्धती को लेकर सूर्यलोक में गये. वहाँ उन्होंने सूर्यमण्डल में स्थित
पद्मासनासीन सावित्रीदेवी का दर्शन किया. उस समय बहुला मानस पर्वत पर जा रही थी,
इसलिये सावित्रीदेवी भी सूर्यमण्डल से निकलकर वहीं के लिये चल पडी.
बात यह थी कि प्रतिदिन वहाँ सावित्री, गायत्री, बहुला, सरस्वती एवं द्रुपदा एकत्रित होकर धर्मचर्चा
करती थी और लोक-कल्याणकारी कामना किया करती थी. महर्षि मेधातिथि ने उन माताओं को
पृथक्-पृथक् प्रणाम किया और सबको सम्बोधन करके कहा कि यह मेरी यशस्विनी कन्या है.
यहीं इसके उपदेश का समय है. इसी से मैं इसे लेकर यहाँ आया हूँ. ब्रह्मा ने ऐसी ही
आज्ञा की है. अब यह आपके पास ही रहेगी. माता सावित्री और बहुला आप दोनों इसे ऐसी
शिक्षा दें कि यह सच्चरित्र हो. उन दोनों ने कहा- महर्षे! भगवान विष्णु की कृपा से
तुम्हारी कन्या पहले से ही सच्चरित्र हो चुकी है; किन्तु
ब्रह्मा की आज्ञा के कारण हम इसे अपने पास रख लेती हैं. यह पूर्वजन्म में ब्रह्मा
की कन्या थी. तुम्हारे तपोबल से और भगवान की कृपा से यह तुम्हारी पुत्री हुई है.
अरुन्धती कभी सावित्री के साथ सूर्य के घर जाती तो कभी बहुला के साथ इन्द्र के घर
जाती. स्त्रीधर्म की शिक्षा प्राप्त करके वह अपनी शिक्षिका सावित्री और बहुला से
भी श्रेष्ठ हो गयी.
एक दिन मानस पर्वत पर
विचरण करते-करते अरुन्धती मूर्तिमान् ब्रह्मचर्य महर्षि वसिष्ठ को देखा. उनके
मुखमण्डल से प्रकाश की किरणें निकल रही थीं. अरुन्धती इस रूप पर मुग्ध हो गई.
जगन्माता सावित्री को इस बात का पता लगा. इसके बाद मेधातिथि ने महर्षि वसिष्ठ से
इस कन्या को पत्नी के रूप में स्वीकार करने का निवेदन किया. विवाह के अवसर पर
ब्रह्मा, विष्णु आदि के द्वारा स्नान कराते समय जो जलधाराएँ
गिरी थीं, वही गोमती, सरयू, सिप्रा, महानदी आदि सात नदियों के रूप में हो गयीं,
जिनके दर्शन, स्पर्श, स्नान
और पान से सारे संसार का कल्याण होता है
विवाह के पश्चात् वसिष्ठजी
अपनी धर्मपत्नी के साथ विमान पर सवार होकर देवताओं के बतलाये हुए स्थान पर चले
गये. वे जब जहाँ जिस रूप में रहकर तपस्या करते हुए संसार के कल्याण में संलग्न
रहते हैं, तब तहाँ उन्हीं के अनुरूप वेश में रहकर अरुन्धती
उनकी सेवा किया करती हैं. आज भी वह सप्तर्षि मंडल में स्थित वसिष्ठ के पास ही दीखती हैं
..................................................................................................................................................
" हे शत्रुदमन राम !
आपके यहाँ आने से इस प्रदेश की शोभा बढ़ गयी है. यहाँ आप, सीता और अनुज लक्ष्मण के
साथ निवास करें".
मुनि के वचनों को सुनकर
रामजी ने महर्षि को हाथ जोड़कर विनयपूर्वक कहा:-" हे मुनीश्वर ! आपका मुझे पर
महान अनुग्रह हुआ है. परंतु मुने ! अब आप कोई मुझे ऐसा स्थान बतलाइये जहाँ बहुत से
वन हों, जल की सुविधा हो तथा जहाँ मैं आश्रम बनाकर सुखपूर्वक सानन्द निवास कर
सकूँ".
श्रीरामजी के कथन को सुनकर
मुनिश्रेष्ठ ने दो घड़ी तक सोच-विचार किया. तदनन्तर उन्होंने कहा:- " तात !
यहाँ से दो योजन ( एक योजन माने आठ मील/ एक मील बराबर 1.6
किमी) की दूरी पर "पंचवटी" नाम से विख्यात एक बहुत
ही सुन्दर स्थान है, जहाँ बहुत-से मृग रहते हैं तथा फ़ल-मूल और जल की अधिक सुविधा
है. वहाँ जाकर लक्ष्मण के साथ आप आश्रम बनाइये और पिता की आज्ञा का पालन करते हुए
वहाँ सुखपूर्वक निवास कीजिए".
" हे अनघ !..आपका और
राजा दशरथ का सारा वृत्तान्त मुझे अपनी तपस्या के प्रभाव से तथा आपके प्रति स्नेह
होने के कारण अच्छी तरह विदित है".
" हे राघव ! आपने तपोवन
में मेरे साथ रहने की ओर वनवास का शेष समय यहीं बिताने की अभिलाषा प्रकट करके, जो
यहाँ से अन्यत्र रहने योग्य स्थान के विषय में मुझसे पूछा है, इसमें आपका हार्दिक
अभिप्राय क्या है ? यह मैंने अपने तपोबल से जान लिया है .आपने ऋषियों की रक्षार्थ,
राक्षसों के वध की प्रतीज्ञा की है. इस प्रतीज्ञा के निर्वहन के लिए आपको अन्यत्र
ही रहना चाहिए".
इतो द्वियोजने तात
बहुमूलफ़लोदकः : देशो बहुमृग श्रीमान पंचवट्यभिविश्रुतः.(13/चतुर्दशः सर्ग)
"
हे राम ! यहाँ से दो योजन की दूरी पर
पंचवटी नाम से विख्यात एक बहुत ही सुन्दर स्थान है., जहाँ बहुत-से मृग रहते हैं तथ
फ़ल-मूल और जल की अधिक सुविधा है. वह पवित्र पावन स्थान गोदावरी के तट पर है.
सुन्दर वनों और पुण्य सलिला गोदावरी का पवित्र तट देखकर मैथिली का वहाँ बहुत मन
लगेगा".
"
हे महाबाहू ! वह स्थान प्रचुर फ़ल-मूलों से सम्पन्न तो है ही, इसके अलावा वहाँ
भांति-भांति के विहंग (पक्षी) आपको देखने को मिलेंगे. वहाँ का एकान्त पवित्र और
रमणीय है. अतः हे श्रीराम ! आप भी सदाचारी और ऋषियों की रक्षा करने में समर्थ हैं.
अतः वहाँ रहकर तपस्वी मुनियों का पालन कीजिए".
"
हे वीर ! यह जो महुओं का विशाल वन दिखाई देता है, इसके उत्तर से होकर आपको जाना
चाहिए. उस मार्ग में जाते हुए आपको एक विशाल बरगद का वृक्ष मिलेगा. उसके आगे दूर
तक ऊँचा मैदान है, उसे पार करने के बाद एक पर्वत दिखाई देगा. उस पर्वत से थोड़ी ही
दूर पर "पंचवटी" नामसे प्रसिद्ध सुन्दर वन है, जो सदा फ़ूलों से
सुशोभित रहता है".
महर्षि
अगस्त्य के ऐसा कहने पर लक्ष्मण सहित श्रीरामजी ने उनका सत्कार करके उन सत्यवादी
महर्षि से वहाँ जाने की आज्ञा मांगी. उनकी आज्ञा पाकर उन दोनों भाइयों ने
अपनी-अपनी पीठ पर तरकस बांधा, धनुष हाथ में लिया और महर्षि के बताये हुए मार्ग से
बड़ी सावधानी के साथ पंचवटी की ओर प्रस्थित हुए.
आससाद महाकायं गृध्रं
भीमपराक्रमम (1.चतुर्दश सर्ग)
कभी पर्वत की ऊँचाइयों पर चढ़ते हुए, तो कभी उतार
में उतरते हुए, तो कभी किसी नदी को पार करते हुए श्री राम वन के अन्दर बनी पगडंडियों पर चलते
हुए, एक ऐसे विशाल
पर्वत के समीप पहुँचे, जिसमें एक बड़ी-सी कन्दरा बनी हुई थी और उसमें एक विशालकाल गिद्ध
बैठा हुआ था. देखने में वह भयंकर और पराक्रमी जान पड़ता था.
इतना विशाल और भयंकर पक्षी को प्रायः सभी ने पहली बार
देखा था. उसे देखकर
महाभाग श्रीराम ने अनुमान लगाया कि संभवतः यह कोई राक्षस होना चाहिए. कहीं यह हम पर
आक्रमण न कर बैठे, इस आशंका के चलते, उन्होंने तरकश से तीर निकालकर अपने बाण पर चढ़ा लिया
और सावधानी से एक-एक पग बढ़ाते हुए उस ओर आगे बढ़ने लगे थे, जिस कन्दरा
में गिद्धराज बैठे हुए थे.
बिना हिले-डुले गिद्धराज उन दोनों युवकों को अपनी ओर बढ़ता देख
रहे थे. जैसे-जैसे वे समीप
आते जा रहे थे, वैसे-वैसे उनके
चेहरे स्पष्ट रुप से दिखाई देने लगे थे. गिद्धराज ने गौर से गौरांग रामजी को देखा और सोचने
लगा कि यह जटाजूट धारी, जिसके कांधे पर धनुष-बाण रखा है, वह कोई तपस्वी तो नहीं हो सकता. मैंने
इंद्रादि देवताओं सहित ब्रह्मा, विष्णु और महेश को देखा है और मैं उन्हें सदैव देखता
भी रहता हूँ, फ़िर ये वीर कौन है?. इनके शरीर
में तीनों लोकों में स्वत्व बनाने वाले उत्तम पुरुष के लक्षण विद्यमान है. इनके साथ एक
रमणी भी साथ चल रही है. मैं नहीं जानता ये धनुर्धारी वीर कौन है?. जटायु अपने मन में तरह-तरह के तर्क-वितर्क कर रहा था.
कुछ समीप आते ही श्रीराम जी ने लगभग उसे ललकारते हुए
पूछा-" तुम कौन हो?. मैं तुम्हें नहीं जानता. मेरा लक्ष्यभेदी बाण तुम्हारे प्राण हरने के लिए तुम
तक पहुँचे, इससे पूर्व कृपया अपना परिचय देंने की कृपा करें".
तब उस पक्षी ने बड़ी ही मधुर और कोमल वाणी में उन्हें
प्रसन्न करते हुए कहा-" रुक जाओ....रुक जाओ..वत्स ! बेटा मुझे अपने पिता का मित्र समझो".
रामजी का उठा हुआ हाथ उठा ही रह गया था. वे समझ नहीं
पा रहे थे, कहाँ एक गिद्ध और कहाँ उनके पिता राजा दशरथ....इनके बीच
मैत्री कैसे हो सकती है?.
पिता का मित्र जानकर रामजी को मन ही मन बड़ी प्रसन्नता
का अनुभव हो रहा था. वे उस रहस्य को जानना चाहते थे कि पिताश्री और इस गिद्धराज के बीच मित्रता कब और कैसे स्थापित हुई ?. उन्होंने बड़ी ही विनम्रता के साथ अपने दोनों हाथ जोडकर कहा-" हे तात !.कृपया अपना
कुल और परिचय देने की महति कृपा करें और यह भी बतलाने की कृपा करें कि आप और मेरे
पिताश्री के बीच मित्रता कब और कैसे स्थापित हुई?".
" हे महाबाहु ! एक बार तुम्हारे पिता पंचवटी में आखेट
खेलने आए थे, तब हमारे बीच मैत्री स्थापित हुई थी..हे राघव ! विनतानन्दन अरूण से मैं और मेरे बड़े भाई
सम्पाति उत्पन्न हुए. आप मेरा नाम जटायु समझें. मैं श्येनी का
पुत्र हूँ".
" हे रघुनन्दन ! एक बार हम दोनों भाइयों ने सूर्य-मंडल को
स्पर्श करने के लिए ऊँची उड़ान भरी थी. सूर्य के प्रचण्ड ताप से मैं जलने लगा था, तब सम्पाति ने
मुझे अपने पंखों के नीचे सुरक्षित रख लिया था. लेकिन सूर्य के अत्यधिक निकट जाने से सम्पाति के पंख
जल गए थे और वे चेतनाशून्य होकर समुद्र के तट पर गिर गए थे.. हे राघव ! तभी
से मैं इसी स्थान पर रहता आया हूँ".
" हे धनुर्धारी वीर ! अब कृपया आप अपना नाम बतलाने की
कृपा करें. मैं बड़ी ही व्यग्रता के साथ आप सहित सभी का नाम जानना चाहता हूँ.". गिद्धराज
जटायु ने कहा.
" हे तात ! अयोध्या के महाराज दशरथ जी का मैं ज्येष्ठ
पुत्र राम,आपको प्रणाम निवेदित करता है. (लक्ष्मण की ओर संकेत करते हुए ) ये मेरे अनुज
लक्ष्मण हैं. (अब सीता की ओर संकेत करते हुए) ये मेरी भार्या सीता है".
परिचय प्राप्त करने के पश्चात गिद्धराज अपनी कन्दरा
से नीचे उतर आए. फ़िर उन्होंने रामजी से जानना चाहा -" हे राम ! मेरे मित्र दशरथ कैसे हैं? उन चक्रवर्ती की पर्वत सदृष्य विशाल भुजाएं बलशाली तो
है न ?".
रामजी ने सुना. सुना कि वृद्ध गिद्धराज जटायु अपने मित्र के हाल
जानने को उत्सुक दिखाई दे रहे हैं. उनके नेत्र सजल हो उठे. उन्होंने बड़ी
ही विनम्रता के साथ सारा वृत्तांत कह सुनाया और कहा कि चक्रवर्ती महाराज दशरथ अपने
अविस्मर्णीय सत्य की रक्षा के लिए स्वर्ग सिधार गए हैं".
ज्योंही गिद्धराज ने सुना कि अब उनके परम मित्र अब इस
संसार में नहीं है, विलाप करते हुए तत्क्षण मूर्छित होकर गिर पड़े.
तब उन दोनों वीरों ने उन्हें अपनी बांहों में उठाया
तथा अपने अश्रुओं से उनके मुख को धोया. मूर्छावस्था से निकलते ही वह फ़िर जोरों से विलाप करने
लगा.
"हे राजाओं के राजा दशरथ ! हे असत्य के शत्रु ! हे यश
के प्राण ! तुम मुझ अकेले को शोक भोगने के लिए छोड़कर चले गए. हे राम ! तुम
धन्य हो ...तुम धन्य हो ...तुम अपने पिता
के सत्य वचनों की रक्षा
के लिए अपनी
विमाता की आज्ञा को शिरोधार्य करके, सारा राज्य अपने भाई भरत को सौंप कर यहाँ आए
हो. हे तात !
तुमने जो साहसपूर्वक काम किया है, उसे तुम्हारे अलावा और कौन कर सकता है?. यों कहकर उसने
रामजी को अपने आलिंगन में लेकर मस्तक सूंधा और आनंदाश्रु बहाते हुए कहा-" हे समर्थ कुमार ! तुमने उन चक्रवर्ती महाराज दशरथ और
मुझको अपार यश दिया है. तुम लोग इसी वन में निवास करो, मैं तुम्हारी
रक्षा करुँगा".जटायु ने रामजी से कहा.
" हे तात ! मुझे महर्षि अगस्त्य जी ने विचार करके, एक अति सुन्दर
नदी के तट पर स्थित एक स्थान के बारे में कहा है".
तब जटायु ने कहा--" वह महिमापूर्ण स्थान बहुत ही अच्छा है. तुम लोग वहाँ
रहकर धर्म का निर्वाह करो. आओ...मैं तुम्हें वह स्थान दिखलाता हूँ". यों कहकर वह
आकाश में उड़ने लगा. उड़ते हुए उसने कहा- " हे रघुनन्दन...अब तुम सब मेरे पीछे-पीछे आओ, मैं तुम्हें वह स्थान दिखलाता हूँ".
एक स्थान पर उतरते हुए उसने बतलाया- “ हे राम...! यही वह परम पवित्र
गोदावरी का पावन तट है. हे वीर ! यहाँ के सघन वन में नाना प्रकार के वृक्षो के
सहित पीपल, बरगद, आंवला, बेल तथा अशोक के वृक्ष बहुतायत में पाए जाते हैं. ये सभी
वृक्षों में अद्वितीय औषधीय गुण विद्यमान हैं. पांच वृक्षों के कारण ही यह स्थान
पंचवटी कहलाया. मेरी जानकारी के अनुसार इस स्थान से बढ़कर और कोई ऐसा स्थान नहीं
है, जहाँ पर पर्णकुटि बनाकर रह सुखपूर्वक रह सकेंगे.".
" हे रघुनंदन ! इस रमणीय स्थली से कुछ दूर ही
मेरा निवास है. मैं वहाँ रहकर आप सभी की सुरक्षा करता रहूँगा".
इतना कहकर गिद्धराज जटायु अपने स्थान पर लौट आए.
०००००००
अयं पंचवटीदेशः सौम्य पुष्पितकाननः
पंचवटी की प्राकृतिक सुषमा को देखकर रामजी ने अपने अनुज
लक्ष्मण से कहा-" हे सौम्य ! मुनिवर अगस्त्य ने
हमें जिस स्थान का परिचय दिया था, उनके तथाकथित स्थान में हम लोग आ पहुँचे हैं.
हिंसक जन्तुओं और नाना प्रकार के सर्पों और मृगों से भरी यही वह पंचवटी का प्रदेश
है. यहाँ का वनप्रांत पुष्पों से कैसी शोभा पा रहा है."
" हे लक्ष्मण ! अब तुम इस वन में चारों ओर दृष्टि
डालो, क्योंकि तुम इस कार्य में निपुण हो. यह देखकर निश्चय करो कि हमें किस स्थान
पर आश्रम बनाना चाहिए ?".
"हे अनुज ! तुम किसी ऐसे स्थान को ढूँढ़ निकालो, जहाँ
से जलाशय निकट हो. जहाँ वैदेहीकुमारी सीता का मन लगे और तुम और हम प्रसन्नतापूर्वक
रह सकें. जहाँ जल और वन दोनों का रमणीय दृष्य हो तथा जिस स्थान के आस-पास ही
समिधा, कुश और जल मिलने में सुविधा हो".
लक्ष्मण को दिशा निर्देश देते हुए स्वयं रामजी को एक ऐसा
स्थान दिखाई जो समतल था तथा चारों ओर से फ़ूले हुए वृक्षों से घिरा हुआ था. पास में
ही बावड़ी भी थी, जिसमें कमल-दल मुस्कुरा रहे थे. इसी के आसपास हंस और कारण्डव ( हंस या बत्तख की जाति का पक्षी
) आदि जलपक्षी, अपनी-अपनी बोलियों में बोलते हुए, समूचे वनप्रांत को गुंजारित कर
रहे थे. यह स्थान गोदावरी से न तो अधिक दूर था और न ही अत्यन्त निकट था. कलकल-छलछल
के स्वर निनादित करती हुई अल्हड़ नदी गोदावरी के मद्धम-मद्धम स्वर सुनाई दे रहे थे.
इसी स्थान से लगी हुई पर्वत श्रेणियाँ थीं, जिसमे बहुत-सी कन्दराएँ बनी हुई थीं.
बहुत से मयूरों का समूह यहाँ से विचरते हुए देखा जा सकता था.
इस रमणीय वन प्रांत में साल, सालई, ताल (पाम-शाखाहीन पेड़ जो
खंबे के समान होता है और जिसके सिरे पर बड़े-बड़े पत्ते होते हैं.), तमाल-(बीस से
पच्चीस फ़िट ऊँचा, सुंदर और सदाबहार वृक्ष), खजूर, कटहल, जलकदम्ब (कदम्ब), तिनिश
(काला पलाश, साल भर हरा बना रहता है), पुनाग ( सुलतान चम्पा ), आम, अशोक, तिलक
(पुन्नाग जाति का पेड़), केवड़ा, चम्पा, चन्दन, कदम्ब, पर्णास ( पलाश- जिसे पलाश,
छूल अर्जुन, परसा, डाक, किंशुक, केसु आदि नामों से भी पहचाना जाता है.), लकुच (
बड़हल), अश्वकर्ण ( संस्कृत में अग्निवलभा या अश्वकर्णिका ), खैर, शमी, और पाटल (
पाटल या पाडर वृक्ष जिसके पत्ते बेल के समान होते हैं. ये तीन प्रकार के होते हैं
जिसके फ़ूलों का रंग क्रमशः लाल,सफ़ेदे और पीला होता है.), आदि वृक्षों से घिरा हुआ
पुष्पों, गुल्मों (किसी वृक्ष या वनस्पति के कटे हुए तने या टहनी को कहते हैं, जो
फ़िर से उग सकता है) तथा लता-वल्लरियों ( मंजरी) से घिरा हुए ये पर्वत बड़ी शोभा पा
रहे थे.
यह सब देखते हुए रामजी ने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा- "
हे अनुज ! मेरा अनुमान है कि इन पर्वतों में स्थान-स्थान पर सोने, चाँदी तथा तांबे
के समान रंगवाले सुंदर गैरिक धातुओं से भरे हुए हैं, जिनसे नीले, पीले और सफ़ेद रंग
परावर्तित हो रहे हैं ".
" हे सुमित्रानन्दन ! मुझे यह स्थान बड़ा ही मनोरम और
सुहावना लग रहा है. यहाँ बहुत-से पशु-पक्षी निवास करते हैं. हम लोग भी यहीं इन
पक्षीराज जटायु के साथ रहेंगे. क्यों न हम इसी स्थान पर पर्णकुटी का निर्माण करें?
निर्माण करने से पूर्व मैं तुम दोनों से जानना चाहता हूँ कि क्या यह स्थान मुझे
जितना मन को प्रफ़ुल्लित करने वाला लगा, क्या तुम्हें भी उतना ही प्रफ़ुल्लित कर रहा
है?" रामजी ने सीताजी और
लक्ष्मण से जानना चाहा.
जिस स्थान का चुनाव रामजी ने किया था, सचमुच में बहुत ही
आकर्षिक था. प्रायः दोनों ने एक स्वर में कहा-" निश्चय ही यह स्थान मनभावन
है. इसी स्थान पर हमें आश्रम बनाना चाहिए".
महाबली लक्ष्मण ने आश्रम बनाने के लिए लगने वाली सामग्रियों
को इकठ्ठा करने के लिए कुदाल, कुल्हाड़ी तथा अन्य उपकरणॊं को साथ लिया और सघन वन
में प्रवेश किया.
महाबली लक्ष्मण ने बाँस-बल्लियाँ इकत्र किया.. तत्पश्चात
उन्होंने मिट्टी को एकत्रित करके दीवार खड़ी की. फ़िर उसमें सुन्दर एवं सुदृढ़ खम्बे
लगाए. खम्बों के ऊपर बड़े-बड़े बाँस तिरछे करके रखे. बासों के रख दिए जाने के बाद,
उन्होंने शमी वृक्ष की शाखाएँ फ़ैला दीं और उन्हें मजबूत रस्सियों से कसकर बांध
दिया. इसके बाद ऊपर से कुश, कास, सरकंडॆ और पत्ते बिछाकर उस पर्णशाला को भली-भांति
छा दिया. तथा नीचे की भूमि को समतल करके उस कुटी को रमणीय बना दिया.
कुटी का निर्माण कर देने के पश्चात लक्ष्मण जी ने गोदावरी
में स्नान किया फ़िर कमल के फ़ूल को तथा प्रचुर मात्रा में फ़लादि लेकर लौट आए.
तदनन्तर शास्त्रीय विधि के अनुसार देवताओं को पुष्प अर्पित किया और वास्तुशांति
करके उन्होंने अपना बनाया हुआ आश्रम श्रीरामचन्द्र जी को दिखाया.
रामजी ने
सीता के साथ उस नवनिर्मित कुटी में प्रवेश किया. अन्दर की साज-सज्जा को देखकर
रामजी को अत्यधिक प्रसन्नता हुई. कुटिया
वास्तव में इतनी आकर्षक बन पड़ी थी कि वे उसे देर तक निहारते रहे थे. फ़िर उन्होंने
लक्ष्मण को अपनी विशाल बाहों में भरकर हृदय से कसकर लगा लिया और स्नेह के साथ
कहा-" हे सामर्थ्यवान लक्ष्मण ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ. तुमने एक महान
कार्य किया है. मैं तुम्हें इस समय कोई पुरस्कार तो नहीं दे सकता, लेकिन तुम्हें
प्रगाढ़ आलिंगन में भरकर अपनी प्रसन्नता तो प्रकट कर ही सकता हूँ". ऐसा कहते
हुए उन्होंने लक्ष्मण को अपनी छाती से लगाते हुए कहा- "हे वीर ! तुम मेरे
मनोभाव को तत्काल समझ जाते हो. तुम-जैसे पुत्र के कारण मेरे धर्मात्मा पिता अभी
मरे नहीं हैं--तुम्हारे रूप में वे अब भी जीवित ही हैं".
सुन्दरतम
दृष्यावली, रंग-बिरंगे पर्वतों के बीच, जो सुमधुर फ़ल-मूल से सम्पन्न थी, उस दिव्य
पंचवटी प्रदेश में वे सुखपूर्वक रहने लगे.
शरद्व्यपाये हेमन्तऋतुरिष्टः प्रवर्तत
उस पर्णकुटी में रहते हुए शरद ऋतु के बीत जाने के पश्चात,
ऋतुओं की श्रृँखला में बंधी हुई एक ऋतु "हेमन्त" का पदार्पण हुआ. इस ऋतु
को चारों ऋतुओं में सबसे खूबसूरत ऋतु माना जाता है. यह ऋतु नवम्बर माह के आखिरी
सप्ताह से शुरु होकर जनवरी माह के दूसरे सप्ताह तक रहती है. इसे अगहन और पुरुष
(पौष ) के नाम से भी जाना जाता है.
हेमन्त ऋतु प्रकृति में आनन्द एवं उत्साह भर देती है और
चारों ओर हरियाली दिखाई देने लगती है. हेमन्त ऋतु में वातावरण हरा-भरा होने के साथ
ही काफ़ी सुहावना हो उठता है. हेमन्त के आते ही नाना प्रकार के पुष्प खिलने लगते
हैं. फ़ूल केवल खिलते ही नहीं है, बल्कि उनमें एक विशेष प्रकार की चमक भी दिखाई देने
लगती है. और तो और इस ऋतु में अनेक प्रकार के मघुर फ़ल भी लगने लगते हैं. रात के
समय पेड़ों के पत्तों पर हल्की ओस की बूंदे जमा हो जाती है. जब इन पर सूर्य की
किरणें पड़ती हैं तो ओस की बूंदे मोतियों की-सी आभा लिए चमकती दिखाई देती हैं.
इस ऋतु में सुबह हल्का तो कभी भारी घना कोहरा छा जाता है.
हलका कोहरा तो सूर्योदय के पश्चात मिट जाता है, लेकिन घना कोहरा सूर्योदय के
पश्चात भी काफ़ी समय तक छाया रहता है. रात में गिरी ओसबिन्दुओं और अन्धकार से
आच्छादित तथा प्रातःकाल कुहासे (कोहरा.) के अंधेरे से ढकी हुई प्रकृति अलसायी-सी, सोयी हुई-सी दिखायी देती है.
इन दिनों नदियों के जल भाप से ढके हुए होते हैं. इसमें
विचरने वाले पक्षी दिखाई नहीं पड़ते. उन्हें उनके कलरव से ही पहचाना जा सकता है.
इन दिनों सरोवर का जल अत्यन्त ही शीतल हो जाता है. प्यासे
पखेरू पानी की सतह में चोंच डालने से कतराते हैं और प्यासे रह जाते हैं,. इसी
प्रकार प्यासे हाथी भी अपनी सूंड पानी की सतह तक तो ले जाते हैं, लेकिन जैसे ही
उनकी सूंड अत्यधिक शीतल जल का स्पर्श करती है, वह अपनी सूंड वापिस खींच लेता है और
प्यासा ही रह जाता है.
ठंड से बचने के लिए पखेरु अपने घोंसले सूर्योदय होने के
पश्चात भी आसानी से नहीं छोड़ते,जबकि अन्य दिनों में वे सूर्योदय होने से पूर्व ही
अपना घोंसला छोड़ देते हैं और निरभ्र आसमान में ऊँचा-ऊँचा उड़ते हुए संपूर्ण वातावरण
को अपनी-अपनी बोलियों में बोलते हुए गुंजारित करते हैं. जब सूरज थोड़ा आसमान में
ऊँचा उठता है, तब जाकर वे अपना घोंसला छोड़कर बाहर निकल पाते है.
अन्य दिनों में सूरज की किरणे काफ़ी गरम होती हैं जबकि इस
ऋतु में वह काफ़ी कोमल और सुहावनी हो उठती है. कुनकुनी धूप में बैठना सभी को बहुत
अच्छा लगता है. दिन के शुरुआत से ही आने वाली धूप सुहानवी लगने लगती है.
आसमान में अक्सर बादलों की छुटमुट बस्तियाँ बस जाती है.
उनकी उपस्थिति देखकर लगता है, मानों ढंड
से बचने के लिए वे धूप सेंकने के लिए चले आए हों.
यह मौसम किसानों के लिए खुशियां का संदेशा लेकर आता है. धान
की फ़सल पूरी तरह से पक कर तैयार हो जाती है. खेतों में पकी फ़सल को देखकर किसानों
में मुर्छाए चेहरों पर विशेष चमक देखी जा सकती है. खूब फ़सल होगी, इस कल्पना मात्र
से अनेक सुहाने सपने उनकी आँखों में पलने लगते हैं. और कई-कई इच्छाएं बलवती होने
लगती हैं.
अक्सर इन दिनों आसमान नीले रंग में काफ़ी साफ़ और स्पस्ट
दिखाई देता है. इस ऋतु में दिन छोटे और रातें बड़ी होने लगती हैं. गर्मी के दिनों
में जहाँ सूरज साढ़े पांच उदित हो जाते हैं, वहीं वे इस ऋतु के आने के बाद से सात
बजे के आसपास उदित होते हैं.
आयुर्वेद में हेमंत ऋतु को सेहत बनाने की ऋतु कहा जाता है.
इस ऋतु में मानव शरीर के दोष शांत स्थिति में होते हैं. अग्नि उच्च होती है, इसलिए
वर्ष का यह सबसे स्वास्थ्यप्रद मौसम होता है, जिसमें भरपूर ऊर्जा, शरीर की उच्च
प्रतिरक्षा शक्ति प्राप्त होती है. इस ऋतु में शरीर प्रायः स्वस्थ रहता है. पाचन
शक्ति बढ़ जाती है. इस ऋतु में मौसम मध्यम शीतल होता है, क्योंकि पृथ्वी की सूर्य
से दूरी अधिक हो जाने के कारण तापमान कुछ महिनों के लिए काफ़ी कम हो जाता है. अपने
सुहावने एवं लुभावने मध्यम ठंडे मौसम के कारण सैलानी अपने घरों से निकल पड़ते है.
हेमन्त ऋतु में रात के समय हल्की-हल्की बूंदा-बांदी होती
है. इस मौसम में रात में होने वाली बारिश को देसी भाषा में पाला पड़ना कहते हैं.
पाला पड़ने से फ़सल खराब होने का संदेह किसानों में मन में बना रहता है.
आसमान पर डेरा डाले बादलों के समूह मुस्कुराते-से दीखते
हैं. आसमान स्पष्ट और नीला दिखाई देता है. इस समय अनेक प्रकार के फ़ूल खिलने लगते
हैं. कलियाँ जो अब तक घुंघट काढ़े हुए होती हैं, अपनी होंठो पर मंदहास लिए लचीली
डालियों पर थिरकने लगती हैं. पराग का आसक्त भौंरा ( भ्रमर.) गुन-गुन के स्वर गुंजारित करते हुए निकल पड़ता
है पराग चुराने. वह कभी इस फ़ूल पर, तो कभी दूसरे पर जा बैठता है और पराग-रस का
आनन्द उठाने लगता है.
तितलियाँ भी भला कहाँ पीछे रहने वाली थीं?. हजारों की
संख्या में रंग-बिरंगी तितलियों के दल भी वातावरण में यत्र-तत्र फ़ुदकने लगती हैं.
स्वास्थ्य के लिए "हेमन्त" ऋतु सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है. इस ऋतु के समय
प्रकृति हरी-भरी होने के कारण, सुहावनी हो उठती है. रात्रि के समय पेड़ों के पत्तों
पर हल्की ओस की बूंदे जमा हो जाती हैं, जो सुबह मोती के समान दिखाई देती हैं. इतना
सब देखते हुए कहा जा सकता है कि "हेमन्त: ऋतु का यह मौसम रामजी, सीताजी के
लिए खुशियों का संदेशा लेकर आया था. ००००००००
ब्रह्ममुहुर्त में सीताजी और रामजी जाग गए थे. अभी सूर्योदय
होना बाकी था. नित्यक्रियाकर्म के बाद वे दोनों गोदावरी के तट पर जा पहुँचे. इस
समय गोदावरी के पानी की सतह पर कुहरा आच्छादित था... कमल के पुष्प की विशेषता है
कि वह सूर्योदय होने पर खिलता है, जबकि कुमुदनी रात में खिलती है. इस समय कुमुदनी
तथा कमल के फ़ूल और पत्ते पानी की सतह पर तैरते दिखाई देते हैं.. कुछ पुष्प खिले
हुए थे जबकी बहुतेरे पुष्पों की पँखुड़ियाँ टूटकर बिखर गई थीं.
गोदावरी के जल में गहरे उतरकर रामजी स्नान करने लगे. उन्हें
स्नान करता देख सीताजी भी गहरे जल में उतरकर स्नान करने लगी. दोनों के शरीर गहरे
पानी में डूबे हुए थे, जबकि दोनों के मुख-मंडल जल की सतह से ऊपर उठे हुए थे. कमलदल
और कुमुदनी के बीच दोनों के मुख-मण्डल को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, मानों असंख्य
कीर्ति रश्मियाँ विकीर्ण होकर मुस्कुरा रही हों.....बिजली के दो फ़ूल खिले हुए हों.
तभी प्राची से बाल-भास्कर के उदित होते ही नियति नटी अद्भुत
छटा दिखलाने लगी थी. अलसाई कलियां मुस्कुराने लगी थी. भ्रमरों का दल गूंजारते हुए
पराग-कण का पान करने के लिए निकल पड़ा था .नाना प्रकार के पुष्पों के भार से लचीली
डालियाँ झुक गई थीं. शीत लहर अब भी जारी थी. मछली की तलाश में बगुलों का दल तट पर
उतर आया था. हिरणॊं की टोली चारा चरने बाहर निकल आयी थीं, कई प्रकार से जलीय पक्षी
पानी में उतरकर किल्लोल करने लगे थे.
रामजी ने अपनी अंजुरी में जल भरकर उदित होते बाल-भास्कर को
जल अर्पण कर प्रणाम किया. सीता जी ने एक गगरी में जल भरा और अब उन्होंने नाना
प्रकार के पुष्पों का चुनाव कर इकठ्टा करने लगीं .ताकि वे अपने आश्रम में स्थापित
देवी-देवताओं को अर्पित कर सकें और बाकी के बचे फ़ूलों से आश्रम को सजा सकें.
प्रतिदिन की ही भांति रामजी ने एक पुष्प को तोड़ा और सीताजी के जूड़े में लगा दिया.
ऐसा करते हुए उन्हें प्रसन्नता का अनुभव हो रहा था.
रामजी और सीता जी स्नान करके लौटें, इससे पूर्व लक्ष्मणजी
ने पर्याप्त मात्रा में ईंधन इकठ्ठा कर लिया था और वन से ताजे फ़ल-मूल भी ले आए थे.
आश्रम लौटकर रामजी पूर्वान्ह-काल के होम-पूजन के कार्य
पूर्ण किए और अब वे एक शिला पर आकर विराजमान हो गए. उन्हीं के समीप सीताजी भी आकर
बैठ गईं.
कुछ ही समय पश्चात ऋषि-मुनियों की टोली भी आ पहुँची. रामजी
ने सभी का स्वागत-सत्कार किया. जब सब लोग यथा स्थान बैठ गए, तब लक्ष्मण ने हाथ
जोड़कर विनती करते हुए रामजी से जानना चाहा-" हे देव ! चराचर के स्वामी..! मैं
आपसे जानना चाहता हूँ कि ज्ञान, वैराग्य और माया के बीच क्या संबंध है तथा ईश्वर और जीव का भेद भी समझा कर कहिए, जिससे आपके चरणॊं में प्रीति हो
और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जायें?".
लक्ष्मण के इस प्रकार प्रश्न पूछने पर राम बिना मुस्कुराए
नहीं रह सके थे. उन्होंने लक्ष्मण सहित सभी ऋषि-मुनियों को संबोधित करते हुए
कहा-" हे लक्ष्मण ! मैं थोड़े में ही
सब समझाकर कहे देता हूँ, आप सभी ध्यानपूर्वक उसे सुनें. मैं, मेरा और तू और
तेरा-यही माया है, जिसने समस्त जीवों को अपने वश में कर रखा है. इसे और भी सरल
शब्दों यह कहा जा सकता है कि इन्द्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, उसे
माया ही समझो. विद्या और अविद्या के बीच एक महीन-सा अंतर है. अविद्या दोषों से
युक्त है, जबकि विद्या का वह गुण है, जो जगत की रचना करती है और वह प्रभु से
प्रेरित होती है. ज्ञान वह है जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी दोष नहीं है. जो सबको
समान रूप से ब्रह्म को देखता है, उसी को परम ज्ञानी अथवा वैराग्यवान कहना चाहिए.
जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणॊं को तिनके के सामान त्याग चुका हो..जो माया को
ईश्वर और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहते हैं और जो बन्धन और मोक्ष देने
वाला, सबसे परे और माया का प्रेरक है, वह ईश्वर है. धर्म से वैराग्य और योग से
ज्ञान होता है. यही ज्ञान मोक्ष का देने वाला है, ऐसा वेदों में वर्णन किया
है..भक्ति स्वतंत्र है. ज्ञान और विज्ञान तो इसी के अधीन है. हे तात ! भक्ति अनुपम
एवं सुख की मूल है और वह तभी मिलती है, जब संत अनुकूल होते हैं".
"हे अनुज ! अब मैं भक्ति के साधन विस्तार से कहता हूँ.
भक्ति वह सुगम मार्ग है, जिससे जीव ईश्वर का साक्षात्कार पा लेता है..वेदों के
अनुसार आचरण करने से वैराग्य उत्पन्न होता है, वैराग्य उत्पन्न होने से धर्म के
प्रति प्रेम उत्पन्न होता है. तब जाकर नौ प्रकार की भक्तियाँ उसे प्राप्त होती
हैं. ऐसी निष्काम भाव से कर्म करने वालों के हृदय-कमल में ईश्वर निवास करते हैं
".
भक्तियोग को सुनकर लक्ष्मण सहित सभी ऋषि-मुनियों ने अत्यन्त
ही सुख पाया और अब वे अपने-अपने आश्रमों की ओर लौटने लगे. इसी तरह, प्रतिदिन,
रामजी के मुखारविंद से किसी न किसी गूढ़ विषय पर सत्संग होता रहा. इस तरह दिन पर
दिन बीतते चले गए.
सुपनखा
रावन कै बहिनी.
शूर्पणखा एक
राक्षसी थी. वह अपने भाई खर और दूषण के साथ दण्डक वन में रहती थी. मृगों तथा अन्य
पशुओं का वध कर, उसका मांस भक्षण करना और मदिरापान करना, उन तीनों की दिनचर्या का
एक आवश्यक अंग था. वे कई-कई दिनों बाद अपनी गुफ़ा से बाहर नहीं निकलते थे, लेकिन जब
उन्हें भूख सताती, बाहर आते. आखेट करते, जमकर मदिरा पान करते और मांस का भक्षण
करते. एक तरह से कहा जाए तो वे तीनों दण्डक वन के स्वामी थे. उनका उस वन में इतना
आतंक था कि भूलकर भी कोई उस निर्जन वन में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं रखता था.
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शूर्पणखा एक परिचय
पूर्व जन्म में शूर्पनखा इन्द्रलोक की
"नयनतारा" नामक अप्सरा थी.उर्वशी, रम्भा, मेनका, पूंजिकस्थला आदि प्रमुख
अप्सराओं में इसकी गिनती होती थी. एक बार इन्द्र के दरबार में अप्सराओं का नृत्य
चल रहा था. उस समय नयनतारा नृत्य करते समय भ्रूसंचालन अर्थात आँखों से इशारा भी कर
रही थी. इसे देखकर इन्द्र विचलित हो गए.
तब से नयनतारा इन्द्र की प्रेयसी हो गई. उस
समय पृथ्वी पर एक "वज्रा" नामक एक ऋषि घोर तपस्या कर रहे थे.तब इन्द्र
ने नयनतारा को पृथ्वी पर भेजा कि वह ऋषि की तपस्या भंग कर दे. ऋषि के तपस्या भंग
हो गई और उन्होंने उसे राक्षसी होने का श्राप दे दिया. ऋषि से क्षमा याचना करने पर वज्रा ऋषि ने उससे कहा कि राक्षस जन्म
में तुझे प्रभु के दर्शन होंगे. तब वही अप्सरा देह त्याग करने के बाद शूर्पणखा
राक्षसी बनी. तभी उसने दृढ निश्चय कर लिया था कि प्रभु के दर्शन होने पर वह उन्हें
प्राप्त कर लेगी.
शूर्पणखा महान ऋषि विश्रवा व कैकसी की
पुत्री, तथा रावण, कुंभकरण, विभिषण की लाड़ली बहन थी. शुरु से ही वह अति सुंदर व
बड़े-बड़े नाखूनों वाली स्त्री थी. बचपन में उसका नाम "मीनाक्षी" रखा गया
था. मीनाक्षी उसे कहते हैं जिसकी आँखे मछली के समान हो. बाद में उसे
"चंद्रमुखी" के नाम से भी जाना जाने लगा. अत्यधिक बड़े नाखूनों के कारण
लोग उसे शूर्पणखा भी कहते थे.
जब शूर्पणखा विवाह योग्य हो गयी, तब उसका
विवाह दैत्यराज राक्षस कालनेय के पुत्र "विद्धुत जिव्ह" के साथ करवा
दिया गया.
विद्धुतजिव्ह भी रावण के समान ही प्रतापी व
दैत्यों की जाति का राजकुमार था. उसके अंदर भी रावण के समान संपूर्ण पृथ्वी पर
शासन करने व राजा बनने की चाह थी.
रावण लंका का राजा था व अत्यंत ही बलवान था.
उसने अपने पराक्रम के बल पर अनेक राज्यों को अपने अधीन कर लिया था. अपने जीवनकाल
में उसने बहुत युद्ध किये थे. अब इसे उसका दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य कि उसका
सामना दैत्यराज कालनेय से भी हुआ. उसकी इस सेना में उसका पुत्र विद्धुतजिव्ह भी
था. रावण ने यह जानते हुए भी विद्धुतजिव्ह उसकी बहन का पति है, वध कर दिया.
जब शूर्पणखा को
विद्धुतजिव्ह की मृत्यु का समाचार पता चला तो वह अत्यंत ही क्रोधित हो गयी. उसके
अंदर रावण से प्रतिशोध लेने की अग्नि धधकने लगी थी. उसने उसे श्राप दिया कि उसकी
मृत्यु का कारण वह बनेगी.
शूर्पणखा स्वयं एक
राक्षसी थी, वह जानती थी कि रावण को ब्रह्मा, विष्णु व शिव का वरदान प्राप्त है कि
उसकी मृत्यु किसी * देवता, राक्षस, दैत्य, दानव, असुर,
गन्धर्व, किन्नर, सर्प, यक्ष, गरुड, नाग व गिद्ध * से नहीं होगी. अतः
अपने भाई रावण के महल को छोड़कर, वह अपने अन्य भाईयों खर और दूषण के साथ रहने के
लिए दण्डक वन चली आयी थी. इस दण्डक वन पर खर और दूषण का साम्राज्य था.
* देवता, राक्षस, दैत्य, दानव, असुर, गन्धर्व, किन्नर, सर्प, यक्ष, गरुड,
नाग व गिद्ध आदि के बारे में विस्तार से जानकारी इस प्रकार है.
* देवता-कोई भी परालौकिक शक्ति का पात्र जो अमर और
पराप्राकृतिक है और इसलिए पूज्यनीय है, उसे देवता या देव कहा जाता है. हिन्दू धर्म
में देवताओं को या तो परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक रूप या फ़िर उन्हें ईश्वर का सगुण
रूप माना जाता है. निरुक्तकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है-" जो कुछ
देता है, वही देवता है अर्थात देव स्वयं द्युतिमान है, शक्ति संपन्न हैं- किंतु
अपने गुण के वे स्वयं अपने में समाहित किए जाते रहे हैं, जबकि देवता अपनी शक्ति द्युति आदि संपर्क में
आए व्यक्तियों को भी प्रदान करते है. देवता देवों में अधिक विराट है क्योंकि उनके
प्रवृत्ति अपनी शक्ति, द्युति गुण आदि का वितरण करने की होती है. जब कोई देव दूसरे
को अपना सहभागी बना लेता है, वह देवता कहलाने लगता है.
" एक अन्य अर्थ
में-जब देव वेद-मंत्र का विषय बन जाता है, अब वह देवता कहलाने लगता है जिससे किसी शक्ति अथवा पदार्थ को प्राप्त करने की प्रार्थना
की जाए और वह जी खोलकर देना प्रारंभ करे, तब वह देवता कहलाता है".
सांस्कृतिक दृष्टि से
प्रायः हर देश के मान्य देवताओं का स्वरूप प्रतीकात्मक होता है, इस ओर ध्यान दें
तो जान पड़ता है कि "देवता" की स्थिति मनुष्य और परमात्मा के मध्यवर्ती
हैं. मनुष्य संघर्षमय जीवन से जूझते हुए
निराशा के क्षणॊं में जब किसी का अनपेक्षित सहारा प्राप्त करता है तब अपने कार्य
की सिद्धि के लिए उसे देवता या अवतार मानने लगता है, ऐसे सहयोग उसे जीवन के हर मोड़
पर मिलते है और धीरे-धीरे देश की संस्कृति में अनेक देवताओं की प्रतिष्ठा हो जाती
है. देवताओं का कार्य-क्षेत्र एक दूसरे से अलग मानते हुए भक्तगण उनके स्वरूप में
अलग-अलग प्रकार की शक्ति तथा गुणॊं की स्थिति के दर्शन करते हैं जो प्रत्येक देवता
के स्वरूप के प्रतीकों को दूसरे देवताओं से अलग रूप प्रदान करते हैं. इस प्रकार
उनके स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्ति, स्वभाव, कार्य-क्षेत्र के लिए रूढ़ हो
जाते हैं. विचित्र बात तो यह है कि प्रत्येक देवता का वाहन तक दूसरे देवता से
भिन्न है तथा वाहन भी किसी-न-किसी भावना का प्रतीक बनकर प्रकट होता है".
"राक्षस" " दैत्य,निशाचार, असुर अथवा दुष्ट
प्रकृति का और निर्दय व्यक्ति "राक्षस" की श्रेणी में आते हैं. प्राचीन
काल से ही राक्षस प्रजाति का नाम रहा है. राक्षस वह जो विधान और मैत्री में
विश्वास नहीं रखता और वस्तुओं को हड़प करना चाहता है. "दक्ष प्रजापति"
राक्षस वंश के थे. वे सुरसा के पुत्र थे जो स्वयं दक्ष प्रजापति की पुत्री है.
" रावण ने रक्ष
संस्कृति या रक्ष धर्म की स्थापना की है. राक्षस को अक्सर बदसूरत, भयंकर दिखने
वाले और विशाल प्राणियों के रूप में चित्रित किया जाता है, जिसमें दो नुकीले मुँह
ऊपर से उभरे हुए और नुकीले, पंजे जैसे नाखूनों वाले होते है. उन्हें मतलबी,
जानवरों की तरह बढ़ता हुआ और अतृप्त नरभक्षी के रूप में दिखाया जाता है, राक्षस
मानव मांस की गंध को सूंघ सकता है. कुछ अधिक क्रूर राक्षस को लाल आँखों और बालों
को जकड़ते हुए, हथेलियों से खून पीते हुए या मानव खोपड़ी से पीते हुए दिखाया गया है.
इन्हीं की श्रेणी में पिशाचों को भी रखा जा सकता है. आमतौर पर ये उड़ सकते है,
लुप्त हो सकते है. इनमें भ्रम की जादुई शक्तियां भी होती है. वे कभी किसी प्राणी
के रूप में इच्छानुसार आकार बदलने में सक्षम होते है. इन्हीं के समतुल्य राक्षसी
भी होती हैं."
दैत्य-(पर्यायवाची- असुर, दनुज,दानव)-"दैत्य- महर्षि कश्यप और दिति के पुत्र
थे. इन्हें असुर भी कहा गया है. हिरण्यकशिपु और हिरणयाक्ष प्रसिद्ध दैत्य थे. इनकी
प्रवृत्तियाँ आसुरी थीं. देव और असुरों में युद्ध भी होते रहे हैं. देवता दैत्यों
के सौतेले भाई थे और महर्षि कश्चप की दूसरी पत्नी अदिति के पुत्र थे. सरल जानकारी
के तौर पर जाना जा सकता है कि देवताओं की अदिति, दैत्यों की दिति, दानवों की दनु
और राक्षसों की सुरसा के उत्पत्ति हुई. जबकि इनके पिता एक ही थे, वैदिक ऋषि कश्चप,
जिनकी गणना सप्तऋषियों में की जाती है. जिनका गोत्र इतना विशाल है कि माना जाता है
कि सृष्टि के प्रसार में उनके वंशजों का योगदान ही सर्वोपरि है. पर महान पिता की
विभिन्न माताओं से जन्मी संताने, जो आपस में भाई-बहन ही थे, कभी भी एक मत नहीं हुए
और अपने-अपने हित, स्वार्थ के लिए जीवन भर लड़ते-मरते रहे. सृष्टि के रचयिता
ब्रह्मा और उनके कुल के लोग पृथ्वी के वासी नहीं थे. उन्होंने पृथ्वी पर अपने कुल
के विस्तार के लिए आक्रमण कर यहाँ दैत्यों और दानवों का दमन किया जिसके कारण धरती
और स्वर्ग में रहने वालों के बीच युद्ध की शुरुआत हुई थी.
गंधर्व- गंधर्व स्वर्ग में रहने वाले देवताओं की
प्रजाति है. यह भारतीय संगीतज्ञ के रूप में जाने जाते हैं. गंधर्वराज पुष्पदंत
इंद्र की सभा में गायक थे. गंधर्व महर्षि कश्चप के पुत्र थे, उनकी उत्पत्ति
अनिष्ठा से हुए थी. ये देवताओं के लिए सोम रस प्रस्तुत करते हैं. सोमरस के
अतिरिक्त उनका सम्बन्ध औषधियों से भी था. ये देवताओं के गायक भी थे. इस रूप में
इन्द्र के वे अनुचर माने जाते हैं. विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा के पुत्र थे.
चूंकि वे माँ वाग्देवी का पाठ करते हुए जन्मे थे, इसलिए उनका नाम
"गन्धर्व" पड़ा. एक अन्य उल्लेख के अनुसार वे कश्यप और उनकी पत्नी
अरिष्टा से जन्मे थे. जबकि हरिवंश पुराण के अनुसार उन्हें ब्रह्माजी की नाक से
उत्पन्न होना बताया गया है. गंन्धर्वों का प्रधान "चित्ररथ" है और उसकी
पत्नियाँ अप्सराएं होती हैं.. ये सभी मानवों से कुछ अलग हैं. इन सभी के पास
रहस्यमय ताकत होती है और ये सभी मानवों की किसी न किसी रूप में मदद करते हैं.
गन्धर्व वेदों में एक अकेला ऐसा देवता है, जो स्वर्ग के रहस्यों तथा अन्य सत्यों
का उद्घाटन किया करता है.! गंधर्वों के दो भेद मिलते हैं- देव गंधर्व और मनुष्य
गंधर्व. गंधर्व को राक्षस,पिशाचादि के समय एक प्रकार का भूत ही माना गया है.
यक्ष- ऐसा माना जाता है कि प्रारम्भ में दो
प्रकार के राक्षस होते थे, एक जो रक्षा करते थे वे "यक्ष" कहलाये तथा
दूसरे यक्षों में बाधा उपस्थित करने वाले "राक्षस" कहलाये.
"यक्ष" का शाब्दिक अर्थ होता है "जादू की शक्ति" हिन्दू धर्म
ग्रन्थों में एक अच्छे यक्ष का उदाहरण मिलता है जिसे कुबेर कहते है तथा जो धन-सम्पदा
में अतुलनीय हैं.
"यक्ष और
यक्षिणियों की संख्या चौसठ (64) बतलाई गई हैं. जिनमें आठ यक्षिणी- मनोहारिणी, कनकावती, कामेश्वरी, रति
प्रिया, पद्मिनी तथा नटी यक्षिणी. प्रमुख होती हैं.यक्षिणी सिद्ध होने के बाद साधक
को ऐश्वर्य, धन, संपत्ति आदि प्रदान करती हैं.
गरुड़- कश्यप ऋषि की दो पत्नियाँ थीं, एक का नाम
वनिता और दूसरी का नाम कद्रू था. एम बार कश्यप ने प्रसन्न होकर दोनों पत्नियों से
वर मांगने को कहा. कद्रू ने एक हजार वीर नागों की माता होने का वर मांगा और वनिता
ने दो पुत्र मांगे जो बाद में अरूण और गरुड के नाम से प्रसिद्ध हुए. अरूण सूर्य के
सारथी बन गए, वहीं गरुड भगवान विष्णु का वाहन बने. सम्पाति और जटायु इन्हीं अरूण
के पुत्र थे.
गिद्ध- एक ऐसी बदसूरत चिड़िया है जिसकी खानपान की
आदतें पारिस्थितिकी तंत्र के लिए जरुरी है. ये अपनी बुलंद उड़ान के लिए जाने जाते
हैं.इनके लिए किसी सीमा का निर्धारण नहीं किया जा सकता. ये सड़ा हुआ मांस और मृत
पशुओं को खा जाता है )
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सहसा एक दिन
शूर्पणखा के मन में विचार आया कि बहुत दिनों से वह अपनी गुफ़ा-महल से बाहर नहीं
निकली है, अतः थोड़ा भ्रमण कर लेना चाहिए. विचार आने मात्र की देरी थी कि वह वायु
के झोंको पर सवार होकर आकाश-मार्ग से विचरते हुए
उस स्थान पर जा पहुँची, जहाँ श्रीराम ने आश्रम बनाकर निवास कर रहे थे.
"आश्चर्य...घोर आश्चर्य. दण्डक वन में आश्रम
?"...उसने अपने आपसे प्रश्न किया. सोचते ही उसके माथे पर बल पड़ने लगे. आँखों
में क्रोध की चिंगारी भड़कने लगी. उसे इस बात पर आश्चर्य हो रहा था कि वह कौन-सा
हिम्मतवर मनुष्य अथवा ॠषि है, जिसने मेरे दण्डक वन मे आश्रम बना लिया है? क्या उसे
ऐसा करते हुए तनिक भी भय नहीं लगा? क्या वह इस बात को नहीं जानता कि दण्डक में
प्रवेश करने का मतलब होता है मृत्यु को गले लगाना.? संभव है कि उसे यहाँ के
प्रचालित नियमों की जानकारी नहीं होगी, तभी तो उसने यहाँ आश्रम बना लिया और बिना
किसी भय के निवास करने लगा है.
आकाश मार्ग से नीचे उतरते हुए वह कुटिया के समीप, एक सघन
वृक्ष की ओट लेकर जा ख़ड़ी हुई. अंदर प्रवेश करने से पूर्व यह जानना चाहती थी कि
आखिर इस कुटिया में कौन रह रहा है? कुटिया में कितने लोग है? कुटिया में निवास
करने वाला निश्चित ही बड़ा शूरवीर होगा, तभी तो उसने इस वन में कुटिया बनाकर रहने
का साहस किया है?. निश्चित ही उसके पास अस्त्र-शस्त्र भी होंगे? कुटिया के प्रांगण में
प्रवेश करने से पूर्व वह जानना चाहती थी कि कुटिया मे कोई राक्षस है, गंधर्व है,
ऋषि है या फ़िर कोई सामान्य मनुष्य है, उसकी बल-बुद्धि का पता लगाना उसे आवश्यक
लगा.
पुरुष
मनोहर निरखत नारी.
उसने वृक्ष की टहनियों को हटाते हुए देखा. एक बहुत ही सुंदर
और आकर्षक युवक, विशाल शिला पर विराजमान है. उसके अंगों से उठती दिव्य कांति को
देखकर, उसकी आँखोँ की पुतलियोँ ने काम बंद कर दिया था. समुद्र में उठती ज्वारभाट
की तरह काम-वासना का ज्वारभाट उसकी नस-नस में हिलोड़े लेने लगा था. कामाग्नि के
भड़कने के साथ ही उसकी आँखें नशीली हो उठी थी. उसका शरीर इतना अधिक तप रहा था कि
चन्द्रमा की शिला उसके स्पर्श से पिघलने लगी थी. अपनी काम वासना को शांत करने के
लिए ,वह किसी भी सीमा का उल्लघंन करने को तैयार हो गई थी.
वह जानती थी एक सुंदर व्यक्ति को एक रुपसी चाहिए होती है,
जो अपनी सुंदरता के बल पर उसे अपनी ओर आकर्षित कर सके. स्त्री के आकर्षक से
सम्मोहित होकर ही वह स्त्री से प्रणय निवेदन करता है और उसे आलिंगन-बद्ध करने के
लिए उतावला होने लगता है.
वह जानती थी कि मुझ जैसे अनाकर्षक और बेडौल स्त्री की ओर
देखना भी वह शायद ही पसंद करेगा. शरीर से उठती दुर्गंध से उसे ध्यान हो आया कि
उसने कई दिनों से स्नान भी नही किया था. अतः उसे सुन्दर रूप धारण करके ही उसके पास
जाना चाहिए. यह विचार आते ही उसने अपनी माया का जाल फ़ैलाया और देखते-ही-देखते वह
एक सुंदर स्त्री में बदल गयी. मोटे-मोटे भद्दे हाथ किसी तरूणी से हो गए. चाल
मतवाली हो गई. उसके शरीर से सड़ी हुई मछली की तरह दुर्गँध उठती थी,अब उसकी देह से मदोन्मत्त कर
देने वाली सुगंध निकलने लगी थी.
उसकी देह किसी दैत्याकार पर्वत की तरह थी. सिर के बाल
बेरुखे थे. लटें
आपस में बुरी तरह से उलझी हुई थीं. शायद उसमेँ कई दिनोँ से सिर में तेल नहीं डाला
था और न ही केश-विन्यास नहीं किया था. देखते ही देखते उसके बाल घुँघराले और लटे
नितम्ब तक लहराने लगी थीं. उसके नेत्र बड़े-बड़े और भेंगापन लिए हुए थे. अब कमल के
फूल की पाँखुडी के सदृष्य हो गए थे. नासिका चौड़ी-भद्दी-सी थी, अब तोते की चोंच की भाँति सुन्दर और नुकिली हो गयी थी. होंठ मोटे और फैले
हुए थे, जिन पर रक्त सना हुआ था, अब संतरे की फाँक की तरह
मुलायम-गुलाबी और आकर्षक हो गए थे. कटि प्रदेश पर अनावश्यक चर्बी चढी हुई थी,अब वह किसी टहनी की तरह पतली और लचकदार हो गयी थी. उसने अपना इतना सुंदर
रूप धारण कर लिया था कि उसे देखकर अप्सरा भी शर्माने लगे...उसे ईर्ष्या होने लगे.
इतना सब कुछ कर लेने के बाद उसने सुवर्ण आभूषणॉ को धारण
किया, जिसमें मणी-माणिक्य आदि जड़े
हुए थे. पहले उसकी चाल बेढँगी थी, अब उसकी चाल मतवाली हो उठी
थी. देखते ही देखते वह अति सुंदर, अनेक कलाओं में दक्ष, तेजस्वी और अलौकिक दिव्य
देहयष्टि की स्वामिनी हो गई थी. यह भी कहा जा सकता है कि जिस तरह से अप्सरा
तिलोत्तमा के शरीर का निर्माण, स्वयँ ब्रह्माजी ने अपने हाथों से किया था. ठीक उसी
तरह उसने भी माया के बल पर, अपने को एक सुंदरतम नारी की देह में परिवर्तित कर लिया
था. इस तरह वह अब एक अतुलनीय,अवर्णनीय रूप-लावण्य अप्सरा की
तरह दिखाई देने लगी थी. अब उसने लावण्यमयी देहयष्टि को दर्पण में निहारा. वह स्वयँ
पर मोहित होने लगी थी. वह अपने आप पर नियन्त्रण नहीं रख पा रही थी. उसके मन में
ऐसी वासना उमड़ी कि नदी का प्रवाह भी छोटा पड़ने लगा था. जैसे-जैसे उसकी बुद्धि
वासना प्रवाह में प्रवाहित होती गई, उसी तरह उसका शील भी
क्रमशः घटता चला गया.
इस समय शूर्पणखा गगन पर चित्र प्रतिमा के समान थी. वह टकटकी
लगाए रामजी को निहार रही थी और उनकी विशाल बाहों का झूला बनाकर उसमें झूल जाना
चाहती थी.
वह इसी
प्रकार देर तक खड़ी रही. फिर यह विचार करके कि रामजी के विशाल वक्ष का आलिंगन
करुँगी, अन्यथा अमृत पीने के बाद भी
मेरे प्राण नहीं बच सकेंगे. अब कोई उपाय नहीं. अब उसने रामजी के सन्मुख जाने के
लिए अपने पग बढ़ाये. अपने कदम बढ़ाने के साथ ही उसने वशीकरण मँत्र का जाप किया और
चंद्रमा से अधिक सुंदर बदनवाली सूर्पनखा अपनी काँति बिखेरते हुए वह काम वासना से आविष्ट हो कर, रामजी के सन्मुख जा
खड़ी हुई. उसने अत्यंत ही विनम्रता से जानना चाहा कि किस कारण से आपने तपस्वी वेश
धारण कर मस्तक पर जटा-जूट धारण किया है?. किस कारण के आपने धनुष-बाण ग्रहण किया है? साथ ही में आपके साथ एक सर्वांग सुदरी स्त्री भी
है. क्या आप नहीं जानते कि यह राक्षसों का प्रदेश है, जो तुम
यहाँ चले आए? तुम्हारे आगमन का प्रयोजन क्या है? मुझे सब ठीक-ठीक बताओ?".
शूर्पणखा के
इस तरह पूछने पर शत्रुओँ को सँताप देने वाले रामजी ने अपने सरल स्वभाव के कारण सब
कुछ बतला आरम्भ किया." हे देवी ! दशरथ नाम से प्रसिद्ध एक चक्रवर्ती राजा हो
गए हैं, जो देवताओं के समान पराक्रमी
थे. मैं उन्हीं का ज्येष्ठ पुत्र हूँ और
लोगों में राम नाम से विख्यात हूँ. ये मेरे छोटे भाई
लक्ष्मण हैं, जो मेरी आज्ञा
के अधीन रहते हैं और ये ( उँगली से इँगित करते हुए) मेरी पत्नी हैं ,
जो विदेहराज जनक की पुत्री तथा सीता के नाम से प्रसिद्ध है ".
अपने पिता
महाराज दशरथ और माता कैकेयी की आज्ञा से प्रेरित होकर मैं धर्मपालन की इच्छा रखकर
धर्मरक्षा के ही उद्देश्य से इस वन में निवास करने के लिए यहाँ आया हूँ".
" अब
मैं तुम्हारा परिचय प्राप्त करना चाहता हूँ. तुम किस की पुत्री हो? तुम्हारा नाम क्या है? और तुम किसकी पत्नी हो? तुम्हारे अँग-प्रत्यंग बहुत
ही मनोहर हैं. तुम्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कोई अप्सरा स्वर्ग से उतरकर
धरती पर चली आयी हो. इन बियाबान वन में मुझे मनुष्य नामका कोई प्राणी देखने में
नहीं आया. कहीं तुम इच्छानुसार रूप धारण करने वाली कोई राक्षसी तो नहीं हो?. यहाँ
किस लिए आयी हो? मुझे ठीक-ठीक बताओ?".
रामजी ने जानना चाहा.
रावणो नाम में भ्राता.
काम से पीड़ित शूर्पणखा बोली-" मेरे मन को मथने वाले हे
बांके वीर ! मैं सब कुछ ठीक-ठीक बतला रही हूँ. तुम मेरी बात सुनो. मेरा नाम
शूर्पणखा है और मैं इच्छानुसार रूप धारण करने वाली राक्षसी हूँ. मैं समस्त
प्राणियोँ के मन में भय उत्पन्न करती हुई इस वन मेँ अकेली विचरती हूँ. मेरे भाई का
नाम रावण है. सँभव है, उसका नाम तो तुम्हारे कानों तक अवश्य पहुँचा होगा".
."रावण विश्रवा मुनि का वीर पुत्र है. शायद तुमने सुना
ही होगा. मेरे दूसरे भाई का नाम बाहूबली कुम्भकर्ण है, जिसकी निद्रा सदा ही बढ़ी रहती
है. मेरे तीसरे भाई का नाम विभींषण है, परँतु वह धर्मात्मा
है. वह राक्षसों की प्रवृति वाला नहीं है और न ही राक्षसों के आचार-विचार का पालन करता है. खर और दूषण का
नाम तो तुमने सुना ही होगा?. ये दोनों महाबली और युद्धकला मेँ अपने पराक्रम के लिए
विख्यात है".
यह सँजोग
बिधि बिचारी.
" हे श्रीराम !
बल और पराक्रम में मैं अपने उन सभी
भाइयो से बढ़कर हूँ. तुम्हारे प्रथम दर्शन
से ही मेरा मन तुममे आसक्त हो गया है. तुम्हारा रूप सौंदर्य अपूर्व है. आज से पहले
देवताओं में भी किसी का ऐसा रूप मेरे
देखने में नहीं आया है. अतः इस अपूर्व रूप के दर्शन से मैं तुम्हारे प्रति आकृष्ट
हो गयी हूँ. यही कारण है कि मैं तुम जैसे पुरुषोत्तम के प्रति, पति की भावना रखकर
बडे प्रेम से पास आयी हूँ".
" हे राम ! मैं उत्कृष्ट भाव-अनुराग, महान बल-पराक्रम
से सम्पन्न हूँ और अपनी इच्छा तथा शक्ति से समस्त लोकों में विचरण कर सकती हूँ. अतःअब तुम दीर्घकाल के
लिए मेरे पति बन जाओ. तुम इस अबला सीता को लेकर क्या करोगे?".
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी.
" तुम्हारी ये सीता विकारयुक्त है और कुरूपा भी है. यह
सीता मेरी दृष्टि में कुरूप, ओछी, विकृत, धँसे हुए पेटवाली
और मानवी है. अतः तुम्हारे योग्य नहीं है. मैं ही तुम्हारे अनुरूप हूँ. मैं सच कह
रही हूँ कि तुम्हारे समान कोई पुरुष और मेरे समान कोई नारी इस पृथ्वी तल पर नहीं
है. मैं इसे तुम्हारे भाई के सहित ही खा जाऊँगी. फिर तुम कामभाव से युक्त होकर
मेरे साथ पर्वतीय शिखरों और नाना प्रकार के वनों की शोभा देखते हुए दण्डकवन मैं
विहार करना".
शूर्पणखा के ऐसा कहने पर, बातचीत करने में कुशल
रामजी जोर-जोर से हँसने लगे. फिर उन्होने इस मतवाले नेत्रों वाली निशाचरी से
मुस्कुराते हुए कहा-" आदरणीया देवी ! मैं
विवाह कर चुका हूँ. यह मेरी प्यारी पत्नी विद्यमान है. फिर मैंने सौगंध भी उठा रखी है कि मैं आजीवन एक
पत्नी-धर्म का पालन करुँगा. तुम बुद्धिमान हो. किसी एक स्त्री में अनरुक्त रहने
वाला व्यक्ति, किसी
अन्य स्त्री को कैसे संतुष्ट कर पाएगा?, तुम इसे भली-भाँति
जानती हो. तुम मुझसे प्रेम निवेदन कर रही हो, जबकि मेरी
प्रियतमा कोई और है, ऐसी स्थिति मेँ मैँ तुम्हारे साथ वह व्यवहार नहीं कर पाउँगा, जैसा कि तुमने कल्पना कर रखी है. मेरे हृदय में सीता के स्थान पर कोई अन्य
स्त्री स्थान ग्रहण नहीं कर सकती, यह जानते बूझते भी क्यों
तुम मेरे हृदय में स्थान बनाने को ललायित हो रही हो. तुम जैसी स्त्रियों के लिए तो
सीता का बना रहना अत्यन्त दुःखदायी ही होगा".
" ये मेरे छोटे भाई लक्ष्मण बडे शीलवान, देखने में अति प्रिय लगने वाले
और बल-पराक्रम से सम्पन्न हैं. इनके साथ स्त्री नहीं है. ये अपूर्व गुणों से
सम्पन्न हैं. ये तरूण तो हैं ही, इनका रूप भी देखने में बड़ा
मनोरम है. अतः यदि इन्हें भार्या की चाह होगी तो ये तुम्हारे सुंदर रूप के योग्य
पति होंगे".
" हे विशाललोचने ! जैसे सूर्य की प्रभा मेरू पर्वत का
सेवन करती है, उसी
प्रकार तुम मेरे इन छोटे भाई लक्ष्मण को पति के रूप में अपनाकर, सौत के भय से रहित
होकर इनकी सेवा करो". रामजी ने सलाह देते हुए शुर्पणखा से कहा.
" हे पुरषोत्तम ! आपने सच ही कहा है. सबसे पहले मेरी
दृष्टि आप पर ही पड़ी थी. आपके आकर्षण में मैं इतनी अधीर और बावली हो उठी थी कि आपको किसी
भी कीमत पर पाना चाहती थी. मैंने निश्चय भी कर लिया था कि मैं आपके साथ ही रमण
करुँगी. तब मुझे ज्ञात नहीं था कि आप सीता के साथ वचनबद्ध हो चुके हैं. वैसे आपका
अनुज भी कम सुंदर नहीं है ?. मैं आपके भाई लक्ष्मण की भार्या हो सकती हूँ. उसके अँगीकार लेने पर वह
मेरे साथ समूचे दण्डकारण्य में सुखपूर्वक विचरण कर सकेंगे". शूर्पणखा ने
रामजी से कहा.
लक्ष्मण दोनों के बीच चल रही वार्ता को ध्यानपूर्वक सुन रहे
थे. सुन रहे थे मूर्खा शूर्पणखा अब मुझे अपनी माया की जाल में उलझा कर मुझसे प्रणय
करना चाहती है.
सुँदरि सुनु मैँ उन्ह कर दासा.
रामजी के ऐसा कहने पर वह काम से मोहित हुई राक्षसी रामजी को
छोडकर सहसा लक्ष्मण जी के पास जा पहुँची और आँखें नचाते हुए बोली-" हे वीर
लक्ष्मण ! तुम्हारे इस सुंदर रूप के अनुरुप मै ही हूँ. अतः मैं तुम्हारी भार्या हो
सकती हूँ. मुझे अँगीकार तुम मेरे साथ समूचे दण्डकारण्य में सुखपूर्वक विचरण कर
सकोगे".
काम पीढ़ित शूर्पणखा की बातोँ को सुनकर मुस्कुराते हुए
लक्ष्मण जी ने कहा-" हे लाल कमल के समान गौरवर्णवाली सुंदरि ! क्या तुम नहीं
जानती कि मैं तो एक दास ठहरा ?. मैं अपने अग्रज श्रीरामजी का दास हूँ. एक राजकुमारी होकर तुम क्यों दासी
बनना चाहती हो ?".
" हे विशाललोचने ! एक बार ही सही, तुम रामजी को एक बार फिर से
निहारो. वे सम्पूर्ण ऐश्वर्यो से युक्त हैं मेरी सलाह मानो,
तुम उनकी छोटी स्त्री हो जाओ. वे तुम्हारे सारे मनोरथ पूर्ण करेंगे. तुम्हारा यह
निर्मल रूप-रँग और शारीरिक शौष्ठव सब उन्हीं के योग्य है. मैं तुम्हें फिर से परामर्श
दे रहा हूँ कि मुझ जैसे दास की भार्या बनकर, दासी बनना कहाँ
तक उचित है ?"
" हे कोमलाँगी शूर्पणखा ! मुझे विश्वास है कि भ्राता
तुम्हें अँगीकार करते हुए अपनी कुरूप, विकृत,पेटवाली और वृद्धा भार्या को
त्यागकर वे तुम्हें सादर ग्रहण कर लेंगे".
" हे सुंदर कटिप्रदेश वाली शूर्पणखा ! मैँ नहीं समझता
कि ऐसा कौन बुद्धिमान मनुंष्य होगा, जो तुम्हारे इस सुंदरतम रूप को को छोड़कर मानव कन्याओं से
प्रेम करेगा?".
लक्ष्मण जी उसके मन को बहलाने के लिए मात्र परिहास ही कर
रहे थे. हास-परिहास क्या होता है?
यह भला एक राक्षस कुल में पैदा होने वाली स्त्री कैसे समझ सकती थी?
उसे लगा कि लक्ष्मण सच ही कह रहे हैं. उनकी सलाह उचित जान पड़ती है.
मै भला दासी क्योंकर बनना चाहूँगी? ऐसा विचार मन मेँ आते ही
वह रामजी के पास लौट आयी. रामजी इस समय एक शिला पर सीताजी के साथ बैठे हुए थे.
कामाँध शूर्पणखा रामजी के निकट चली आयी और अत्यंत ही क्रोधित होकर कहने लगी-"
हे राम ! तुम इस कुरूप, विकृत और धँसे हुए पेट वाली और
वृद्धा का आश्रय लेकर मेरा विशेंष आदर नहीं कर रहे हो?. कान खोलकर सुन लो, मैं अभी और इसी समय, इस मानवी को खा जाऊँगी और फिर मेरे सौत के न रहने पर
आपके साथ निर्भय होकर विचरण करुँगी".
नाक कान बिनु कीन्हि
एक बार में
ही कितना कुछ बोल चुकी थी राक्षसी शूर्पणखा ?. वह अब
केवल गीदड़ भभकी ही नहीं दे रही थी, बल्कि क्रोध में बोलते समय, उसकी समूची देह काँपने-सी लगी थी.
आँखें जलते हुए अँगारे की तरह धधकने लगी थीं. पलक झपकते ही उसने सीताजी पर
प्राण-धातक हमला कर दिया. सचेत थे रामजी. रामजी जितने सचेत थे, उससे कहीं ज्यादा सचेत और सतर्क थे लक्ष्मण जी. क्रोधाग्नि में जलते हुए
वह, इस बात का अनुमान नहीं लगा पायी थी कि
उस पर भी आक्रमण हो सकता है.पलक झपकते ही लक्ष्मण जी ने अपनी म्यान से तलवार
निकाली और उस दुष्टा के कान और नाक काट
दिए.
नाक और कान कट जाने पर खून से भींगी हुई शूर्पणखा ने
महाभयँकर और विकराल रूप धारण कर लिया और अब वह नाना प्रकार के स्वरों में जोर-जोर
से चीत्कार करते हुए कहने लगी-" हे लक्ष्मण ! तुमने निर्ममता से मेरे दोनों
कान और नाक काट डाले?. ऐसा करते
हुए तुम्हें जरा-सा भी भय नहीं लगा? इसके भींषण परिणाम तुम्हें भुगतने होंगे, शायद इसकी कल्पना तक तुमने नहीं की होगी?. शूर्पणखा...इसका बदला ले कर रहेगी...बदला लेकर रहेगी. सावधान राम !
सावधान लक्ष्मण..! सावधान......सावधान सीते..!..अब तुम दोनो यहाँ से बचकर जीवित
नहीं जा सकते ".
" सीते ! तेरे
कारण ही मुझे अपने नाक-कान से वंचित होना पड़ा है. अगर तू न
होती तो, मैं राम को अपनी मायावी शक्ति से अपने प्रेम-पाश में बांध लेने में सफ़ल
हो जाती. अरे.....राम तो क्या, मैं लक्ष्मण को भी अपनी काम-वासना के अधीन कर
ही डालती. तेरी सुन्दरता के आगे मेरा वश नहीं चला......सीते ! तू मेरी अपराधी है. मैं तुझसे ऐसा बदला लूंगी कि
तुम्हें आजीवन याद रहेगा".
कहते हुए वह अपने मूल स्वरूप में लौट आयी थी. अनेकानेक
धमकियाँ देते हुए वह भयँकर गर्जना करती हुई उस सघन वन में राक्षससमूह मेँ निवास कर रहे अपने भाई खर को
पुकारती हुई भाग खडी हुई . उसकी भयँकर गर्जना को सुनकर पूरा वन प्रान्त थर्रा उठा
था. उसकी तेज आवाज को सुनकर ऐसा प्रतीत हुआ मानो आकाश से बिजली गर्जना करते हुए
पृथ्वी पर गिरती है.
शूर्पणखा को इस तरह भागता हुआ देखकर लक्ष्मण जी को बड़ी
प्रसन्नता का अनुभव हो रहा था. लक्ष्मण के पराक्रम को देखते हुए रामजी और सीता जी
भी प्रसन्न हुए थे. प्रसन्नवदन श्रीराम जी ने लक्ष्मण से कहा-" हे सौमित्र !
" पानं दुर्जनसंसर्ग पत्या च विरहोटनम //
स्वप्नोन्यगेहेवासश्च नारीणां दूषणानि षट"
" हे
सुमित्रानन्दन !- मदिरा पान करने वाली, दुष्ट पुरुषों का संग करनेवाली, पति के साथ
न रहने वाली, बिना किसी काम के इधर-उधर विचरन करने वाली, असमय एवं देर तक सोने
वाली, अपना घर छोड़कर दूसरे के घर में रहने वाली औरतें दुष्टा कहलाती हैं".
" हे
अनुज ! तुमने शूर्पणखा को उचित दण्ड ही
दिया है. उसके इस वासनामय व्यवहार के
लिए यही दण्ड उचित भी था. तुम्हारे इस पराक्रम को देखकर मुझे प्रसन्नता ही हुई है". (सीताजी की ओर
देखते हुए).
"हे
अनुज ! जिस स्त्री के नाम और कान काट दिए गए हों, वह पल भर को भी चैन से नहीं बैठेगी?. उसके मन में प्रतिशोध लेने की ज्वाला भयँकर रूप से भड़क चुकी है. वह हमसे
प्रतिशोध लेने के लिए कोई न कोई उपाय सोच रही होगी?. अब तक वह कोई ठोस निर्णय भी ले चुकी होगी. सँभव है कि वह राक्षसों का दल
लेकर हमारे ऊपर आक्रमण भी कर सकती है?".
" हे लक्ष्मण- !
मुझे लगता है वह भागकर अपने भाई खर और दूषण के पास अवश्य जाएगी.
उन्हें अपना दुःखड़ा कह सुनाएगी ".
"हे अनुज- जिस खर को तुम उन दिनों दण्ड देना चाहते थे,
तब उसकी मृत्यु निकट नहीं आयी थी. अब उसका यमलोक जाने का मार्ग खुल गया है. देखना वह शीघ्र ही हमारे सामने प्रकट
होगा".
" हे वीर
! बात यहीं नहीं रुकेगी. खर और दूषण के
मारे जाने के बाद, वह अपने भाई लंकापति रावण तक जरुर पहुँचेगी. लंका, आतंकी रावण
का गढ़ है. उस आतंकवादी रावण को मारने और धर्म की स्थापना करने का सुअवसर शीघ्र
ही हमें मिलने जा रहा है".
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शूर्पणखा
शूर्पणखा के पिता का
नाम ऋषि विश्रवा था, जो पुलत्स्य ऋषि के पुत्र थे. यदि अपने परिचय में वह अपने
पिता का नाम बतलाते हुए कहती कि मेरे पिता का नाम विश्रवा है, तो शायद रामजी के
दृष्टि में उसका थोड़ा मान बढ़ जाता,
यदि वह अपना परिचय देते हुए कहती
कि मेरे भाई का नाम विभिषण है तब भी रामजी की दृष्टि में वह दया का पात्र हो सकती
थी .लेकिन ऐसा न कहकर उसने अपना प्रथम
परिचय रामजी को यह कहकर दिया कि वह रावण की बहन है. वह क्रूर राक्षसी रामजी
को अब तक मात्र एक मानव समझ कर कह रही
थी,. शायद इसीलिए उसने रावण का नाम बतला कर वह अपना प्रभाव डालना चाहा. संभव है कि
वह पिता विश्रवा अथवा भाई विभिषण का नाम लेकर परिचय देती तो शायद ही उसे अंग-भंग
का शिकार नहीं बनना पड़ता
रामजी के वनगमन का
एकमात्र कारण तो यही था कि वे आतंक के गढ़ तक जाएं और उसे समूल नष्ट कर, भय का
वातावरण सदा-सदा के लिए समाप्त किया जाए. रावण तक पहुँचने का एकमात्रा रास्ता शूर्पणखा से ही होकर जाता है. रामजी इसे जानते
थे. वे दण्डकारण्य़ तक आ चुके हैं. इस बात की सूचना रावण तक पहुंचाने के लिए
शूर्पणखा से बढ़कर और कौन-सा माध्यम हो
सकता था.
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."हे अनुज ! यहाँ के राक्षस-राक्षसनियाँ मायावी है.
पता नहीं वे किस वेश में हमारे समक्ष आएँगे, वे सामने से अथवा पीठ पीछे अथवा आकाश-मार्ग से भी आक्रमण कर
सकते हैं. वे प्रकट रूप से सामने आते हैं
या अदृष्य रूप से, कहा नहीं जा सकता?".
" हे अनुज ! अब तुम देखना, जिस तरह जनमेजय़ ने नागों की
संपूर्ण प्रजाति को मार डालने के लिए यज्ञ किया था. मंत्र के प्रभाव से अनेकानेक
सर्प अपने बिल से बाहर निकलते और वायु में उड़ते हुए यज्ञ में आकर गिरते और अपने
प्राण खो देते थे. ठीक उसी प्रकार शूर्पणखा के कहने मात्र से अनेकानेक राक्षस हमसे
बदला लेने के लिए निकलने लगेंगे. अतः अब हमें बहुत ही सावधानी से रहने की आवश्यकता
है".
ऐसा कहते हुए स्वयँ उन्होंने और लक्ष्मण जी ने अपने धनुष की
प्रत्यँजा खींचकर तीर चढ़ा लिए और अत्यधिक सतर्कता बरतते हुए चारों ओर दृष्टि डालकर
निहारने लगे.
उन्होंने कनखियों से सीताजी की ओर देखा. वे एक ओर बैठी हुईं शून्य में झांक रही थीं.
शायद उनके मन में किसी वेदना ने स्थान ले लिया था. रामजी को आश्चर्य होने
लगा था कि शूर्पणखा को दिए गए दंड से उन्हें तो प्रसन्न होना चाहिए, लेकिन वे तो
उदास बैठीं हैं.
रामजी से रहा नहीं गया. उन्होंने कहा-" सीते ! क्या
बात है?. क्या तुम शूर्पणखा को दिए गए दण्ड से प्रसन्न नहीं हो?. मैं समझता हूँ कि
उस दुष्टा को इससे बड़ा दण्ड और क्या दिया
जा सकता था.? रामजी ने जानना चाहा.
" हे राघव !
मेरी धृष्टता को कृपया क्षमा करें. मैं सच कह रही हूँ कि शूर्पणखा ने मेरे
बारे में जितना भी, जो कुछ भी कहा, उसका मुझे तनिक भी दुःख नहीं है. दुःख इस बात
का है, मैं उसे अपनी ओर से कड़ा दण्ड देना चाहती थी कि आखिरकार उसने मेरे पति पर डोरे
डालने की कुचेष्टा करने का साहस कैसे किया? वह मेरी सौत बनना चाहती थी न !..मेरी
सौत बनने की इच्छा रखने वाली उस दुष्टा को मैं स्वयं दण्ड देना चाहती थी, लेकिन
मेरे हाथ आया अवसर देवर जी ने मुझसे छीन लिया. बस मुझे इस बात का दुःख हो रहा
है". सीता ने अपनी वेदना प्रकट करते
हुए रामजी से कहा.
’ सीते ! ये क्या रही हो तुम ?....रामजी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए जानना चाहा.
" हाँ राघव ! मैं उसे दण्ड देने के लिए तत्पर हुई ही
थी, कि इस बीच देवर जी आ गए". सीताजी ने कहा.
"सीते ! तुम उस समय असावधान थीं, तुम्हारे पास कोई अस्त्र-शस्त्र
भी नहीं था. तुम उसे लाने जातीं, तब तक तो वह तुम्हें बड़ा आघात पहुँचा चुकी होती.
वीर लक्ष्मण अस्त्र-शस्त्र लिए हुए थे और साथ ही चौकन्ने भी थे. यदि वे उस क्षण
वहाँ नहीं पहुँचते तो मेरी प्रिया के साथ कुछ भी घटित हो सकता था".
" सीते ! वनवास मे कठिन दिनों से तुम मेरे साथ रहीं. तुम्हार्रे चन्द्रमा से मुख को निहारते
हुए ,तुम्हारा ये राम वन में मिलने वाले सारे कष्टों को विस्मृत करता रहा. यदि
तुम्हारे साथ कोई अनर्थ हो जाता, तो मैं वनवास की शेष अवधि कैसे काट पाता ?. जहाँ
सीता नहीं होगी, वहाँ राम कैसे रह सकता है ? इस पर कभी सोचा है
तुमने.?". रामजी ने सीताजी से कहा.
लक्ष्मण दूर खड़े रहकर भाई और भाभी के बीच हो रही वार्ता को
ध्यान से सुन रहे थे. वे नहीं चाहते थे कि भाभी के मन में किसी प्रकार का क्लेष
बना रहे. उन्होंने भाभी की मनःस्थिति को
समझते हुए वातावरण को हल्का बनाने की पहल करते हुए कहा-" भाभी जी !.मैंने
आपके बचपन की एक विशेष बात सुन रखी है , जिसे मेरे सिवाय भैया भी नहीं जानते?. यदि
आप चाहें तो मैं भैया के सामने बतला सकता
हूँ".
" अच्छा तो आपने मेरे बचपन की किस खास बात को जानते
हैं?. आश्चर्य है कि राघव को भी नहीं पता ? ऐसे कैसे हो सकता है ? अच्छा बताओ तो
सही, वह कौन-सा रहस्य है?". सीता ने आश्चर्य प्रकट करते हुए जानना चाहा.
" मैंने सुन रखा था कि बचपन में आप वानर देखकर डर जाया
करती थीं. फ़िर वह तो एक राक्षसी थी.
निश्चित ही आप उसके विकराल रूप को देखकर भयभीत हो गई होंगी?". लक्ष्मण
ने वातावरण को हल्का बनाने के लिए पहल करते हुए कहा.
" क्या कहा तुमने देवर जी....सीता और डरपोंक ?. ऐसे
कैसे हो सकता है. सीता किसी से नहीं डरती. मेरे पिताश्री न केवल अस्त्र के बल्कि
शस्त्रों के संचालन में भी सिद्धहस्थ हैं.
वे हमें बचपन से ही आखेट के लिए
घने वनों में जाने के लिए प्रोत्साहित किया करते थे. उन्होंने मुझे कई प्रकार के अस्त्र और शस्त्रों के संचालन का
प्रशिक्षण भी दिया है. मैंने कई हिंसक पशुओं को मार गिराया था. बोलो...तुम्हारी
भाभी फ़िर डरपोक भला कैसे हुई?". इतना कहते हुए उन्होंने अपनी बगल से एक बरछी
निकालते हुए रामजी और लक्ष्मण दोनों को दिखाया.
" देवर जी ! मैं मानती हूँ कि वह राक्षसी थी, लेकिन थी
तो एक स्त्री ही न !.. एक स्त्री को यदि दूसरी स्त्री सजा देना चाहे, तो क्या वह
नहीं दे सकती?. एक सुनहरा अवसर आया था, उसे तुमने छीन लिया?. बस इसी बात का मुझे
कष्ट हो रहा है".
" खैर जो भी हो, आपने मेरे प्राण बचाए, इसके लिए तो
मुझे आपको धन्यवाद देना ही चाहिए. तुम सच मानों, मैं तुमसे कतई अप्रसन्न नहीं हूँ
और न ही मुझे किसी प्रकार का कोई दुःख ही हो रहा है".
" भाभी जी ! धन्यवाद किस बात का?. आप दोनो के रक्षार्थ
में ही मेरा जीवन समर्पित है. अतः धन्यवाद देकर मुझे लज्जित न करें". हाथ
जोड़ते हुए लक्ष्मण ने कहा.
बोझिल वातावरण को हास्यमय बनाने के लिए लक्ष्मण ने पहल की
थी, अब तीनों ठहाका लगागर हंसने लगे थे.
00000
खर दूषण पहिं गइ बिलपाता
राक्षसी शूर्पणखा विलाप करती हुई अपने भाई खर के पास
पहुँची. इस समय खर मदिरा का सेवन कर रहा था और बीच-बीच मेँ हिरण का भूँजा हुआ माँस
का भक्षण कर रहा था. वह अपनी मस्ती में मस्त था. बाहर क्या कुछ हो रहा है, इससे वह अनजान बना हुआ था.
शूर्पणखा ने उसके गुफा-महल के हर कक्ष में
तलाश किया, लेकिन वह कहीं नहीं मिला. अँत में वह उसके शयन
कक्ष में जा पहुँची. देखती क्या है कि उसका भाई और भाभी मदिरा में धुत्त होकर
प्रलाप कर रहे हैं.. देखते ही शूर्पनखा का क्रोध सातवें आसमान तक जा पहुँचा.
अत्यंत क्रोधित होते हुए उसने अपने भाई खर से कहा- " हे
मेरे भाई खर.!. तुम यहाँ मदमस्त होकर मदिरा पान कर रहे हो, तुमको न तो अपने राक्षस-धर्म की
परवाह है और न ही समाज की. देखते नहीं मेरी क्या हालत बना दी गई है?". (विलाप करती हुई कहती है )
अपनी बहन को इस तरह अंगहीन और रक्त से भींगी हुई अवस्था में
देखकर उसकी आँखों से अंगारे बरसने लगे. पूरा शरीर तमतमाने लगा था. क्रोधाग्नि में
जलते हुए उसने पूछा-" हे बहन ! तनिक पास आओ और मुझे विस्तार से बतलाओ कि आखिर
तुम्हें किसने रूपहीन बनाया है ?".
"अरी बावली ! तू यूँहि विलाप करती रहेगी या बतलाएगी भी
कि तुझ पर ऐसा कौन-सा सँकट आन पडा है? जब
तक तू अपने कष्टो के बारे मेँ बतलाएगी नहीं, भला मैं उसका उपचार किस तरह कर सकता
हूँ?".
" मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि तुम स्वयं दूसरे
प्राणियों के लिए साक्षात यमराज के समान हो, बल और पराक्रम से सम्पन्न हो.
इच्छानुसार सर्वत्र विचर सकती हो. अपनी रुचि के अनुसार रूप धारण कर सकती हो, फ़िर
तुम्हें किसने इस दुरावस्था में डाला है, जिससे दुःखी होकर तुम यहाँ आयी हो?’.
"देवताओं, गन्धर्वों, भूतों तथा महात्मा ऋषियों में
कौन भला ऐसा बलशाली है, जिसने तुम्हें रूपहीन बना दिया है?. संसार में कोई भी ऐसा
नहीं दिखता जो हमारा अहित कर सके. देवराज इंद्र भी ऐसा साहस नहीं कर सकते".
" हे बहन ! इस धरती पर ऐसा कौन रण-बांकुरा है जिसने
मेरी प्रिय बहन पर घातक प्रहार करने का दुस्साहस किया है.? तुम धीरे-धीरे होश में
आओ और मुझे उस उद्दण्ड का नाम बतलाओ जिसने
बलपूर्वक आक्रमण करके तुम्हे परास्त किया है?." खर ने अपनी बहन से जानना
चाहा.
" भैया ! अपने इस दण्डकारण्य में दो युवक, जो बड़े ही
सुकुमार, रूपवान और महान बलवान हैं आए हुए हैं. उन दोनों के बड़े-बड़े नेत्र खिले
हुए कमल पुष्प की तरह हैं. उन दोनों ने वल्कल वस्त्र और मृगचर्म पहन रखा है. वे
दोनों जितेन्द्रीय, तपस्वी और ब्रह्मचारी हैं".
" एक ने अपना नाम लक्ष्मण बतलाया था. उसके साथ उसके
अग्रज भी हैं, जिनका नाम राम है. दोनों ही राजा दशरथ के पुत्र हैं. उन दोनों के
बीच एक तरूण अवस्थावाली रूपवती स्त्री भी है, जिसके शरीर का मध्यभाग बड़ा ही सुन्दर
है. वह सब प्रकार के आभूषणॊं से विभूषित है. उस स्त्री के कारण ही उन दोनों ने
मिलकर मेरी एक अनाथ और कुलटा स्त्री की भांति ऐसी दुर्गति की है".
" हे भ्राता ! मैं युद्ध में उस कुटिल आचारवाली स्त्री
के और उन दोनों राजकुमारों के मारे जाने पर उनका उष्ण रक्त पीना चाहती हूँ."
" हे मेरे बलवान भाई ! रणभूमि में उस स्त्री और उन पुरुषों का रक्त
मैं पी सकूँ- यह मेरी पहली और प्रमुख इच्छा है, जो तुम्हारे द्वारा शीघ्र ही पूर्ण
की जानी चाहिए." जिस तरह अग्नि की
ज्वाला को भड़काने (तेज करने) के लिए घी आदि डाला जाता है, ठीक उसी तरह शूर्पणखा ने
अपने भाई की क्रोधाग्नि को भड़काने के लिए कहा.
शूर्पनखा के ऐसा कहने पर कुपित होकर खर ने अपने सेनापति को बुलाया और आज्ञा दी
" हे सौम्य !
मेरे मन के अनुसार चलने वाले, युद्ध के मैदान से कभी पीछे न हटने वाले, भयंकर
वेगशाली, काले रंग वाले, युद्ध में उत्साहपूर्वक आगे बढ़ने वाले चौदय सहत्र
राक्षसों को युद्ध के लिए तैयार करो."
चौदह सहत्र राक्षसों को, जो यमराज के समान भयंकर थे, बुलाया और आदेश दिया-" हे
वीरों ! तुम सभी, इसी समय, दण्डकारण्य के भीतर जाओ और वल्कल तथा काले हिरणों के
चर्मधारण किए हुए शस्त्रधारी मनुष्यों को ढूँढ निकालो. उनके साथ एक स्त्री भी है.
ये तीनों हमारे वन में बलपूर्वक घुस आए हैं".
" तुम लोग वहाँ जाकर सबसे पहले उन दोनों पुरुषों को
मार डालो, फ़िर उस दुराचारिणी स्त्री के भी प्राण ले लो. मेरे यह प्रिय बहन उन
तीनों का रक्त पीयेगी. जाओ...शीघ्रता से जाओ और अपने प्रभाव से उन दोनों मनुष्यों
को मार गिराओ और मेरी प्रिय बहन के मनोरथ को शीघ्र पूरा करो".
आदेश पाकर उन सभी चौदह राक्षसों ने अपने स्वामी खर का
अभिवादन करते हुए एक स्वर में कहा- " जैसी आपकी आज्ञा...हम अभी जाकर उन दो
पुरुषों सहित उस स्त्री को भी मार गिराएगें. आप निश्चिंत रहें". ऐसा कहते हुए
वे सभी चौदह राक्षस हवा के उड़ आए बदलों के समान, शूर्पणखा के साथ पंचवटी की ओर
जाने लगे.
" हे सेनापति ! तुम शीघ्रता से मेरा रथ तैयार करवाओ,
जिसमें बहुत सारे धनुष, बाण, और मंत्र शक्ति से चलित सभी आयुध रखवा दो. मैं उस
उद्दण्ड राम का वध करने के लिए अपनी सेना का संचालन करूँगा. जाओ...शीघ्रता से सारी
तैयारी करके मेरे पास आओ". खर ने अपने सेनापति को आदेश दिया. उसके इस प्रकार
आज्ञा देते ही सूर्य के समान प्रकाशमान और चितकबरे रंग के अच्छे घोड़ों से सुसज्जित
रथ वहाँ आ खड़ा हुआ.
उसने अपने भाई दूषण को इसकी सूचना देते हुए युद्ध पर जाने
का आमंत्रण भिजवाया. शायद कई दिनों के बाद दूषण के लिए यह सुनहरा अवसर था, जब उसे
रणभूमि में जाने के लिए भाई खर ने बुला भेजा था.
समाचार पाते ही वह अपने भाई खर के पास आया. दोनों भाई रथ पर
सवार हो गए. उनका रथ आकाश मार्ग से उड़ चला. उसका रथ किसी पर्वत शिखर सा ऊँचा था.
रथ की सजावट देखते ही बनती थी.
पराक्रमी राम धनुष एवं बाण लेकर युद्ध के लिए डटकर खड़े हो
गए. उनकी प्रत्यंचा की टंकार से सम्पूर्ण
दिशाएं गूंजने लगी.
००००००
आकाश मार्ग से उड़ते हुए शूर्पनखा भी अपने सेवक राक्षसों के
सहित रामजी के आश्रम में जा पहुँची. आकाश से ही उसने रामजी की ओर अपना दाहिना
हाथ बढ़ाते हुए, तर्जनी
से संकेत करते हुए कहा-" ये जो सिर पर जटा-जूट बांधे हुए
अत्यन्त ही सुंदर और सांवला युवक दिखाई देता है, जिसने अपने कांधे पर उत्तम धनुष
रखे हुए है, यह राम है. एक सर्वांग सुन्दरी, जो माला गूँथने में व्यस्त है वह उसकी (राम) की पत्नी सीता है और कुछ दूरी पर जो
अन्य सुदर्शन युवक दिखाई दे रहा है, वह उसका छोटा भाई लक्ष्मण है. देखने में लक्ष्मण जितना सीधा-सादा दिखाई दे रहा है, वह
उतना ही धूर्त है. मैंने इससे प्रेम निवेदन किया था, लेकिन इस दुष्ट ने उसे
अस्वीकार करते हुए, मेरे कान और नाक काट कर कुरूप बना दिया".
" तुम लोग शीघ्रता से आश्रम में प्रवेश करो और दोनों भाइयों को मार डालो और उस स्त्री को छीन
लो".
कुछ ही समय में राक्षस-वीरों की भयंकर वेगवाली सेना, युद्ध
की अभिलाषा लिए ,आकाश से उतर कर रामजी के आश्रम के पास आकर ठहर गयी.
आकाशचारी राक्षसों का शोर सुनकर रामजी ने देखा कि खर और
उसका भाई दूषण युद्ध करने की इच्छा लेकर आ धमका है. उन्होंने अपने अनुज लक्ष्मण को
उचित सलाह देते हुए कहा- " हे अनुज !
अपना कल्याण चाहने वाले विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह आपत्ति की आशंका होने
पर, पहले से ही उसके बचाव का उपाय सोच ले. इसलिए तुम धनुष-बाण धारण करके
विदेहकुमारी सीता को साथ ले पर्वत की उस गुफ़ा में चले जाओ, जो वृक्षों से आच्छादित
है".
" हे वीर ! इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि तुम बलवान
और शूरवीर हो तथा इन राक्षसों का वध कर सकते हो. मैं स्वयं इस निशाचरी सेना का
संहार करना चाहता हूँ. इसलिए तुम मेरी बात मानकर सीता को सुरक्षित रखने के लिए
गुफ़ा में ले जाओ".
श्रीरामजी के ऐसा कहने पर लक्ष्मण गुफ़ा के भीतर चले गए.
०००००
रामजी के अनुपम सौंदर्य को देखकर दानवी सेना चकित हो गयी.
राक्षसी शूर्पणखा की बात को सुनकर प्रायः सभी दानवों ने सम्मिलित स्वर में
कहा-" हे बहना ! हम उन पर बाण नहीं
छोड़ सकते. यह तो कोई राजकुमार, मनुष्य़ रूपी भूषण है.. हमने अपने जन्म में ऐसी
सुन्दरता कहीं नहीं देखी है. ये
मारने के योग्य नहीं है. जितने भी नाग,
राक्षस, देवता, मनुष्य और मुनि हैं, उनमें कितनों को हमने देखा है, विजय प्राप्त
की है और मार डाला है. परन्तु हे बहना !
सुंदरता की इस मूर्ति को हम मार कर पाप के भागी नहीं बनना चाहते. तुम चाहे
हमें कायर कह लो, या जिस नाम से भी पुकारोगी, हमें स्वीकार है, लेकिन हम इन पर
आक्रमण नहीं करेंगे". इतना कहकर वे सभी वापिस जाने को उद्धत हो गए.
राक्षसों की बात सुनकर रामजी ने मुस्कुराते हुए राक्षसों के
दल से कहा-" हम क्षत्रिय हैं, वन में आखेट करते हैं और तुम जैसे दुष्टों को
ही खोजते फ़िरते हैं. हम बलिष्ठ शत्रु को देखकर नहीं डरते और फ़िर एक बार साक्षात
काल से भी लड़ सकते हैं".
" यद्धपि हम मनुष्य हैं तथापि दैत्य कुल के नाशक,
मुनियों के रक्षक और दुष्ट-विनाशक बालक
हैं. यदि तुम में बल न हो तो लौट जाओ. मैं संग्राम से विमुख हुए किसी को नहीं
मारता. संग्राम में चढ़कर कपट चतुराई करना और शत्रुओं पर कृपा करना महान कायरता
है".
" हे निशाचरों ! तुम सब-के-सब पापात्मा और ऋषियों का
अपराध करने वाले हो. मैं ऋषि-मुनियों की आज्ञा से ही धनुष-बाण लेकर तुम्हारा वध
करने के लिए ही यहाँ आया हूँ".
"यदि तुम मुझसे युद्ध ही करना चाहते हो तो वहीं खड़े
रहो. यदि तुम्हें अपने प्राणॊं का तनिक भी मोह हो तो शीघ्र ही यहाँ से लौट
जाओ".रामजी ने उन सभी चौदह सहस्त्र राक्षसों को ललकारते हुए कहा.
रामजी की बातों को सुनकर
राक्षसों को क्रोध हो आया. उन्होंने गरजते हुए रामजी से कहा-" अरे !
तूने हमारे स्वामी महाकाय खर के प्रति जघन्य अपराध करके उन्हें क्रोध दिलाया है.
अतः हम लोगों के द्वारा तू तत्काल ही अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा. हम संख्या
में बहुत-से हैं और तू अकेला. तुझमें इतना सामर्थ्य नहीं है कि तू हमारे सामने रणभूमि
में खड़ा भी हो सके?, फ़िर युद्ध करना तो दूर की बात है".
ऐसा कहते हुए क्रोध में भरे हुए सभी चौदह राक्षस एक साथ
तरह-तरह के आयुध और तलवार लेकर रामजी पर टूट पड़े. उन्होंने राघवेन्द्र पर कई शूल
चलाए, परंतु रामजी ने उन समस्त शूलों को उस सुवर्णभूषित बाणों से काट डाला.
रामजी ने सुवर्णमण्डित विशाल धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ायी और
राक्षसों से अपना परिचय देते हुए कहा-" हम दोनों भाई राजा दशरथ जी के पुत्र
राम और लक्ष्मण हैं तथा सीता के साथ इस दुर्गम दण्डकारण्य में आकर
इन्द्रियसंयमपूर्वक तपस्या में संलग्न हैं. फ़ल-मूल का आहार करते हुए तथा
ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इस वन में निवास कर रहे हैं. तुम लोग किसलिए हमारा वध
करना चाहते हो, हम भी तो सुनें".
इसी बीच खर अपनी सेना लेकर आश्रम के पास पहुँचकर क्रोध से
भरे हुए शत्रुघाती श्रीरामजी को देखा, जो धनुष-बाण लिए खड़े थे. देखते ही उसने
तीव्र टंकार करने वाले धनुष को उठाकर अपने सूत को आज्ञा दी -" मेरा रथ राम के
सामने ले चलो".
खर की आज्ञा से सारथी ने घोड़ों को उस ओर बढ़ाया, जहाँ रामजी अकेले खड़े होकर धनुष को
टंकार कर रहे थे.
रामजी के समीप पहुँचे खर को देखकर उसके निशाचर मंत्रियों ने
उसे ( खर.) चारों ओर से घेर लिया था, ताकि रामजी उस पर घात न कर दें. क्रोध में
भरते हुए उसने दुर्जेय राम पर लोहे के
मुग्दर, शूलों, प्रासों और फ़रसों से हमला कर दिया. नाना प्रकार के अस्त्रों की
वर्षा करते हुए निशाचर रामजी को मार डालना चाहते थे.
कोदंड कठिन चढ़ाइ
तत्पश्चात
रामजी ने अत्यन्त कुपित होकर अपने धनुष को खींचा, बाण चढ़ाया और लक्ष्य लेकर छोड़
दिया. हवा को चीरता हुआ वह बाण हजारों की संख्याँ में बनकर निशाचरों के प्राणॊं को
हरता हुआ पुनः तरकश में आ गया.
रामजी की
प्रत्यंचा से छूटे बाणों ने रथ में जुते
घोड़ों, सारथियों ,हाथियों, हाथी सवारों और घुड़सवारों को छिन्न-छिन्न कर डाला. उस
समय उनके नालीक, नाराच, और तीखे अग्रभाग वाले विकर्णी नामक बाणों द्वारा
छिन्न-भिन्न होते हुए निशाचर भयंकर आर्तनाद करने लगे..
नाना प्रकार
के मर्मभेदी बाणॊं से राक्षस सेना, आग से जलते हुए सूखे वन की तरह, जल-जल कर मारे
जाने लगे. आकाशचारी राक्षस भी बाणों और अनेकानेक शस्त्रोंसे रामजी पर प्रहार करने
लगे. तब क्रोधित होते हुए रामजी ने उन पर अनेक बाण छोड़े. पंख कटे पक्षियों की तरह
वे सारे राक्षस पृथ्वी पर आ गिरे. यह सब देखकर सेना में भगदड़ मच गई. जिसे जिधर जगह
मिली, उधर ही भागने लगे.
अपनी सेना
के विनाश को देखकर अत्यन्त कुपित होता हुए
खर धनुष -बाण लेकर रामजी की ओर दौड़ा. दूषण
भी इस बीच उसकी सहायता के लिए सामने आया. दूषण का सहारा मिल जाने से निर्भय खर ने
कई वृक्षों को उखाड़ता हुआ रामजी पर टूट
पड़ा.
चारों ओर
धिर चुके रामजी ने अत्यन्त ही क्रोधित होते हुए "गान्धर्व" नामक अस्त्र
का प्रयोग किया. एक बाण सहत्रों बाण बनकर छूटने लगे. उन बाणॊं से दसों दिशाएँ
पूर्णतः आच्छादित हो गई. बाणॊं से पीढ़ित राक्षस यह नहीं देख पाते थे कि रामजी कब
भयंकर बाण हाथ में लेते हैं और कब उन पर छोड़ देते हैं. वे केवल उनको धनुष खींचते
देखते थे. बाणॊं द्वारा अत्यन्त घायल होकर राक्षसों के समूह, एक साथ गिरते चले गए.
राक्षसों की लाशों से वहाँ की भूमि पट
गयी.
अपने वीर
राक्षसों को यूंहि मरता देख दूषण को बड़ा क्रोध आया. उसने वज्र के समान बाणॊं को
चलाकर रामजी को रोकने का प्रयास किया. तभी अत्यन्त क्रोधित होकर रामजी ने
"क्षुर" नामक बाण से दूषण के विशाल धनुष को काट डाला. फ़िर एक
अर्धचन्द्राकार बाण से सारथी का सिर उड़ा दिया.
धनुष कट
जाने तथा घोड़ों और सारथी के मारे जाने पर रथहीन दूषण ने एक रोमांचकारी
"परिघ" हाथ में लिया और रामजी
पर टूट पड़ा. अपने ऊपर आक्रमण करता देख रामजी ने उसकी दोनो भुजाएँ काट डालीं. दोनो
भुजाएं कट जाने पर वह भीषण शोर मचाता हुआ
पृथ्वी पर गिर पड़ा.
अपने स्वामी
को धराशायी होता देख राक्षसों ने रामजी पर शूल, पट्टिश, फ़रसा व तीन नोकों वाला
सायक चला कर रामजी पर आक्रमण कर दिद्या..
अत्यन्त कुपित होते हुए रामजी ने पांच हजार राक्षसों के सहित दूषण को यमलोक पहुँचा
दिया.
तत्पश्चात उन्होंने अत्यन्त कुपित हो शान पर चढ़ाकर तेज किए
गये सूर्यतूल्य तेजस्वी चौदह "नाराच". हाथ मे लिया उन्हें धनुष पर चढ़ाया और कान तक खींचकर
राक्षसों को लक्ष्य करके छोड़ दिया.
( नाराच अस्त्र- एक प्रकार का बाण है जो छूरे के समान होता
है. इसके नीचे लोहे का एक चौकोर मुँह होता है.)
रामजी के बाणॊं से कटे हुए मस्तकों, भुजाऒ, जाँघों, बाँहों,
अनेकानेक रथों, नाना प्रकार की ध्वजाओं, छिन्न-भिन्न हुए शूलों, टुकडे-टुकड़े हुए
बहुतेरे विचित्र बाणॊं से पटी हुई समरभूमि अत्यन्त ही भयंकर दिखाई देने लगी थीं.
इसी समय सेना के आगे-आगे चलने वाले महाकपाल, स्थूलाक्ष और महाबली प्रमाथी- ये तीनों राक्षस कुपित हो
रामचन्द्रजी पर टूट पड़े.
महाकपाल ने एक विशाल शूल उठाया, स्थूलाक्ष ने पट्टिश हाथ
में लिया और प्रमाथी ने फ़रसा सँभालकर आक्रमण किया. श्री रघुनन्दन ने महाकपाल का
सिर एवं कपाल उड़ा दिया. प्रमाथी को असंख्य बाणसमूहों से मथ डाला और स्थूलाक्ष की
स्थूल आँखों को सायकों से भर दिया. ये तीनों अग्रगामी विशाल वृक्ष की भांति कटकर पृथ्वी
पर गिर पड़े.
तदनन्तर रामजी ने कुपित होकर दूषण के अनुयायी पांच हजार
राक्षसों को उतने ही बाणॊं से निशाना बनाकर क्षण भर में यमलोक पहुँचा दिया.
जैसे ही दूषण और असंख्य राक्षसों के मारे जाने का समाचार
"खर" को मिला, उसने अपने बारह महाप्रतापी सेनापति- श्येनगामी,
पृथुग्रीव, यज्ञशत्रु, विहंगम, दुर्जय, करवीराक्ष, परुष, कालकार्मुख, हेममाली,
महामाली, सर्पास्य तथा रुधिराशन को साथ
लिया और रामजी पर टूट पड़ा.
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महामुनि अगस्त्य जी ने श्रीरामजी को जो आयुध दिये थे उनके
नामों का उल्लेख.
अगस्त्य मुनि को अपने
तपोबल से कई दैवीय शक्तियाँ प्राप्त हुईं
थीं. उनके पास कई ऐसे दिव्य अस्त्र और शस्त्र
थे जो शत्रु का विनाश करने में सहायक थे. चूँकि अगस्त्य मुनि अपनी दिव्य शक्ति
से भगवाब के इस धरती पर जन्म लेने का उद्देश्य व भविष्य को देख सकते थे, इसलिये
उन्हें यह भी ज्ञात था कि भविष्य में भगवान राम का राक्षसराज रावण से युद्ध होगा.
इसलिये उन्होंने रामजी समस्त आयुध भेंट में दे दिये थे
दण्डकारण्य में महामुनि अगस्त्य जी ने रामजी के
प्रयोजन को समझते हुए उन्हें धर्मयुद्ध के लिए दिव्य वैष्णव धनुष, सूर्य के समान
तेजस्वी धनुष, तीक्ष्ण बाणॊं वाले तूरीन महाखड़ग और अमोघ कवच और सेतु निर्माण हेतु
जल विखंडन की विधि भी प्रदान की थी. महर्षि विश्वकर्मा ने भगवान विष्णु के लिए
सारंग धनुष बनाया था जो महर्षि दधीच की हड्डियों से निर्मित अत्यंत ही मजबूत था.
वह किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं काटा जा सकता था और ना ही टूट सकता था. यही धनुष
अगस्त्य मुनि ने श्रीराम जी को दिया था.
देव इन्द्र से प्राप्त दो बाण रखने वाले तरकश
व प्रत्येक में चार दिव्य बाण प्रदान किए थे. इस तरकश में रखे बाण अपने शत्रु का
संहार करके अदृष्य हो जाते थे और पुनःअपने तरकश में वापस आ जाते थे. इसी के साथ
उन्होंने एक बड़ी व छॊटी-सी. तलवार भी प्रदान की थी. ये दोनों तलवारें इतनी
शक्तिशाली थीं कि एक ही बार में कई शत्रुओं के शरीरों को काट सकती थी. इसी तरह
भगवान शिव ने मेरू पर्वत से बनाये गए धनुष
से चलाया था जिससे उन्होंने त्रिपुरासुर राक्षस का वध किया था. यही शक्तिशाली बाण
भी उन्होंने रामजी को मंत्रों से अभिमंत्रित करके प्रदान किया था.)
अस्त्र और शस्त्र में अंतर-
अस्त्र- ये मंत्रों द्वारा
संचालित किए जाते हैं. मंत्र और यंत्र द्वारा फ़ेंके जाने पर हे बहुत ही भयानक हो
जाते है. इनके प्रयोग से चारों तरह हाहाकार मच जाता था. जैसे वर्तमान समय में
यंत्र से फ़ेंके जाने वाला अस्त्र- जैसे ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र,
पर्जन्यास्त्र.
शस्त्र- हाथों से चलाए जाने
के कारण इन्हें शस्त्र कहते हैं. ये दो प्रकार के होते हैं.- यंत्र शस्त्र
और हस्त शस्त्र.
यंत्र
शस्त्र.-के अन्तर्गत- शक्ति,
तोमर, पाश, बाण सायक, शण, तीर,परिध, भिन्दिपाल, नाराच आदि.
हस्त
शस्त्र- इसके अंतर्गत - ऋष्टि, गदा, चक्र, वज्र,
त्रिशूल, असि, खंजर, खप्पर, खड़ग, चन्द्रहास, फ़रसा, मुशल, परशु, कुण्टा, शंकु, पट्टिभ,
वशि, तलवार, बरछा, बरछी, कुल्हाड़ा, चाकू, मुशुण्डी आदि..
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जिस प्रकार वज्र के प्रहार से बड़े-बड़े वृक्ष नष्ट हो जाते
हैं, उसी प्रकार रामजी ने सोनेकी पाँखवाले
बाणों से समस्त सेना का विनाश कर डाला. उसी तरह रामजी ने ’कर्णि’ नामक सौ बाणॊं से
सहस्त्रों राक्षसों को मार गिराया. अब केवल महारथी खर और त्रिशिरा ही बच पाए थे.
उपर्युक्त दो राक्षसों को छोड़कर शेष निशाचर, जो महान
पराक्रमी, भयंकर और दुर्घर्ष थे, युद्ध के
मुहाने पर श्रीराम जी के हाथों मारे गए.
तदनन्तर महासमर में महाबली श्रीराम जी के द्वारा अपनी विशाल
सेना को मारी गई देखकर "खर" एक विशाल रथ पर सवार होकर श्रीरामजी का
सामना करने के लिए आया.
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त्रिशिरा का वध
"त्रिशिरा-"
लंकापति रावण के एक पुत्र का "त्रिशिरा" था. उसके तीन सिर थे. वह एक
मुँह से सुरापान, दूसरे से सोमपान और तीसरे से अन्न ग्रहण करता था. इसका एक और नाम
था-" त्रिशिख". त्रिशिरा देवपुरोहित होते हुए भी असुरों से अधिक प्रेम
करता था.
एक बार इन्द्र ने सोचा
कि त्रिशिरा को असुर-पुरोहित बनाना असुरों की चाल है. अतः उन्होंने उसके तीन सिरों
को काट डाला. सोमपान करने वाला मुख गिरते ही वह "कपिंजल" पक्षी बन गया.
सुरापान वाला मुँह "कलविड्क" चिड़िया बन गया और अन्न ग्रहण करने वाला
मुँह " तित्तिर" पक्षी बन गया.
इन्द्र पर ब्रह्महत्या
का दोष लगा. इन्द्र ने अपना पाप तीन भागों में विभक्त कर दिया, जिससे अन्न को सड़ने का( अन्न में कीड़े लगने का), वृक्षों के
गिरने का और स्त्रियों में रजस्वला होने का दोष उत्पन्न हो गया. तत्पश्चात इंद्र
के पातक को दूर करने के लिए सिंधु द्वीप के बांबरीष ऋषि ने जल अभिशिंचित किया.
अभिषिक्त जल इन्द्र की की मूर्धा पर डालकर इन्द्र की मलिनता को शुद्ध किया.
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अपनी पराक्रमी राक्षसी सेना को घास-मूली की तरह कटता और पृथ्वी पर निष्प्राण होकर धराशायी होता देख,
त्रिशिरा का क्रोध का पारावार बढ़ने लगा. वह शीघ्रता से चलता हुआ अपने सेनापति खर के पास पहुँचा और विनतीपूर्वक बोला-" हे राक्षस राज
! मेरे रहते हुए आपको रामजी के सन्मुख
जाने और युद्ध करने की क्या आवश्यकता है?. कृपाकर आप एक ओर हट जाइये और अपने सेवक
का पराक्रम देखिए. मैं अभी इस महाबाहू राम को युद्ध में मार गिराता हूँ".
" मैं
आपके सामने प्रतीज्ञापूर्वक और अपने
हथियारों की शपथ खाकर कहता हूँ कि जो समस्त राक्षसी सेना के लिए वध के योग्य है, उस राम का मैं वध करुँगा या तो
मैं रणभूमि में अपने प्राणॊं को उत्सर्ग कर दूँगा या फ़िर युद्ध में राम की मृत्यु
का कारण बनूँगा. आप एक ओर खड़े रहकर इस बात के साक्षी बने".
"यदि
मेरे द्वारा राम मारे गए तो आप प्रसन्नतापूर्वक जनस्तान को लौट जाइये अथवा यदि राम
ने मुझे मार दिया, तब आप युद्ध के लिए उस पर धावा बोल दीजिए".
रामजी के
हाथों मृत्यु को गले लगाने को उद्धत हुआ त्रिशिरा ने किसी तरह खर को राजी किया.
खर ने उसे आज्ञा देते हुए कहा-"
अच्छा जाओ...और युद्ध करो.". आज्ञा पाकर त्रिशिरा रामजी से युद्ध करने की
प्रबल इच्छा किये हुए आगे बढ़ा.
पास आते ही
उसने बाणॊं की वर्षा कर दी. जिस तरह काले मेघ गरज के साथ पृथ्वी पर जल बरसाते हैं, ठीक उसी तरह उसके बाण
रामजी राम बाण बरसाना शुरु कर दिया.
रामजी ने
उसे प्रतिद्वंद्वी की तरह आगे आता देखकर तीन बाणॊं से उसके ललाट को बींध डाला.
उसकी उद्दण्डता को देखते हुए रामजी ने कहा-" वाह त्रिशिरा वाह ! तुमने फ़ूलों जैसे बाणॊं को
चलाकर मुझ पर प्रहार किया है. अब मेरे
धनुष से छूटे बाणॊं को ग्रहण करो". इतना कहते हुए उन्होंने क्रोध में भरते
हुए चौदह बाण मारे, जो विषधर के समान थे. फ़िर उन्होंने नुकीले बाणों को चलाकर उसके
घोड़ों को मार गिराया. फ़िर आठ सायक चलाकर उसके सारथी को रथ में ही मार डाला. उसके
रथ की ध्वजा काट दी और रथ को नष्ट कर दिया. गिरते हुए रथ से उसने कूदने का सायास
प्रयास किया, तभी रामजी ने अनेकों बाण चलाकर उसकी छाती छेद डाली. अत्यन्त क्रोधित
हुए उन्होंनें तीन वेगशाली एवं विनाशकारी बाणॊं को चलाकर उसके तीनों मस्तक काट डाले. रामजी के विरुद्ध युद्ध कर रहा
त्रिशिरा, बाणॊं से पीड़ित हो, रुधिर उगलता हुआ, धराशायी हो गया.
अपने बलवान
साथी को मरता देख, सेना में भगदड़ मच गयी थी. जिसे जिधर जगह मिली, वह उधर भाग खड़ा
हुआ. अपनी सेना को इस तरह पलायन करता देख, खर का माथा चकराने लगा था. उसने
बलपूर्वक उन्हें रोका और रामजी पर धावा
बोल दिया.
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एक जानकारी के अनुसार-
तेरहवेँ वर्ष के मध्य
मेँ रामजी का खर-दूंषण नामक राक्षस के साथ युद्ध हुआ था. उस समय सूर्यग्रहण लगा था
और मंगल ग्रहोँ के मध्य था. संगणक के अनुसार 07 अक्टूबत 5077 ईसा पूर्व ( अमावस्या
) थी. अर्थात 2022 से 7098 वर्ष पहले प्रभु श्रीराम का खर और दूंषण के साथ युद्ध
हुआ था. खर और दूषण लंका के राजा रावण के सौतेले भाई थे.. खर- पुष्पोत्कटा से और
दूषण- वाका से ऋषि विश्रवा के पुत्र थे. खर और दूषण समुद्र से इस पार दण्डकवन में निवास करते थे और रावण की
राक्षसी सेना का नेतृत्व करते थे. ते दोनों राक्षसराज रावण के सौतेले भाई थे.
शुर्पणखा इन दोनों भाईयो की सगी बहन थी.
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त्रिशिरा
सहित दूषण को रणभूमि में मारा गया देख श्रीरामजी के पराक्रम को देख खर भयभीत होकर कांपने लगा था.
शरीर शिथिल पड़ता जा रहा था. अस्त्र और शस्त्र
हाथ से छूटकर रथ में गिर गए थे. सारा दृष्य उसने अपनी आँखों से स्वयं देखा
था. उसका भयभीत हो जाना स्वभाविक भी था.
अचंभित होकर
वह सोचने लगा-" एक अकेले राम ने महाबलशाली और असह्य राक्षसों को मार गिराया. उसने दूषण और त्रिशिरा जैसे दुर्जेय
योद्धा को मार गिराया, इतना ही नहीं उसने हमारी चौदह हजार सैनिकों को काल के गाल
में पहुँचा दिया". यही सोच-सोच कर वह उदास होने लगा था.
देर तक
उदासी ओढ़े रहने के बाद उसने अपना धनुष उठाया. एक साथ कई नाराच बाणॊं को धनुष पर
चढ़ाया और लक्ष्य साधकर रामजी पर छोड़ दिया. फ़िर वह नाना प्रकार के अस्त्रों का
प्रदर्शन करता हुआ, युद्ध के अनेक पैतरें दिखाते हुए विचरने लगा.
उसे इस तरह
करता देख रामजी ने भी असंख्य बाणॊं से उस पर आक्रमण कर दिया. दोनों एक दूसरे पर
तरह-तरह के अस्त्र चलाते, जिससे समूचा आकाश ढंक गया.
तदनन्तर
रामजी ने नालीक, नाराच और तीखे अग्रभाग वाले त्रिकर्णि नामक बाणॊं को धनुष पर
चढ़ाकर खर की ओर लक्ष्य करके छोड़ दिया. खर ने फ़ुर्ती दिखाते हुए श्रीराम जी के बाण
सहित धनुष को मुठ्ठी पकड़ने की जगह से काट डाला और सात बाण चलाकर रामजी के मर्मस्थल
पर चोट की.
मर्मस्थल पर
चोट लगने से रामजी को पीड़ित करता हुआ वह रणभूमि मे जोर-जोर से गर्जना करने लगा. वे
अपने को संभाल भी नहीं पाए थे कि खर ने गाँठ वाले उत्तम बाणॊं से प्रहार कर दिया,
जिससे रामजी का तेजस्वी कवच पृथ्वी पर गिर पड़ा.
तब शत्रुओं
का नाश करने वाले रामजी ने अपने विशेष धनुष "वैष्णव" जिसे महामुनि
अगस्त्यजी ने दिया था, जिसकी टंकार से तेज ध्वनि उतपन्न होती है, की प्रत्यंचा
चढ़ायी और बाण चढ़ाकर खर पर लक्ष्य लेकर छोड़ दिया. इस बाण से उसके रथ का लगा हुआ
सुवर्ण जड़ा ध्वज, चार टुकड़ों में कटकर गिर गया.
क्रोध में
भरे हुए रामजी को खर के मर्मस्थलों का ज्ञान था, सो उन्होंने उसकी छाती में प्रहार
किया. फ़िर उन्होंने पूर्वोक्त श्रेष्ठ धनुष हाथ में लेकर लक्ष्य का निर्धारण कर छः
बाण मारे, जिससे उसकी दोनों भुजाओं और छाती में गहरी चोट पहुँचाई. फ़िर सूर्य की
तरह चमकने वाले तेरह बाण मारे. एक बाण से उसके रथ का जुआ काट डाला.चार बाणॊं से
उसके रथ में जुते हुए चार अश्वों को मार गिराया और छठे बाण से सारथी का मस्तक काट
डाला. फ़िर फ़ुर्ती से बारह बाण चलाकर खर के बाण सहित धनुष के टुकड़े-टुकड़े कर दिये.
फ़िर तेरहवां बाण चलाकर खर को घायल कर दिया.
रथहीन खर
क्रोध में भरते हुए अपने हाथ में गदा लिए रामजी की ओर दौड़ा. रामजी ने उसे ललकारते
हुए कहा-" अरे निशाचर ! तूने हाथी,
घोड़े, और रथों से भरी हुई विशाल सेना के बीच खड़े रहकर, तूने सदा से ही कायरतापूर्ण
कर्म किये हैं. तू पापाचारी है. इतना जान ले कि तू अधिक काल तक जीवित नहीं बचेगा.
" हे
निशाचर ! जिस तरह एक खोखला पेड़ ज्यादा दिनों तक खड़ा नहीं रह सकता, उसी प्रकार
पाप-कर्म करने वाले लोकनिन्दित होकर, सारे ऐश्वर्य को प्राप्त करने के पश्चात भी
प्रतिष्ठित नहीं हो सकते".
" जिस
तरह विष मिश्रित अन्न का परिणाम तुरन्त ही भुगतना होता है, उसी प्रकार लोक में
किये पापकर्मों का फ़ल शीघ्र ही प्राप्त होता है".
"याद
रख. संसार में आकर बुरा चाहते हुए पाप कर्म में लगे हुए हैं, उनको प्राणदण्ड देने
के लिए महाराज दशरथ ने मुझे यहाँ वन में भेजा है. जिस तरह जनमेजय ने कालसर्प यज्ञ
करते हुए (शाबर मंत्रों) सर्पिनी मंत्रों
का उच्चारण किया था, जिसके प्रभाव से सर्प
अपने आप बिल से निकल-निकलकर आहूति बनकर यज्ञ में गिरते जाते थे. ठीक उसी तरह मेरे
बाण तेरे शरीर को फ़ाड़कर पाताल में जाकर गिरेंगे".
"तूने
दण्डकारण्य में रहकर जिस तरह ऋषि-मुनियों का भक्षण किया है, आज युद्ध में तू और
तेरे सारे सेनापति मारे जाएंगे. इससे पहले तूने जितने भी महर्षियों-महर्षियो,
मुनियों और तपस्वियों को मारा है, वे सभी
उत्तम विमानों में बैठकर तुझ जैसे दुष्ट को मरता हुआ देखेंगे". (आकाश की ओर
देखते हुए उन्होंने दिवंगत महर्षियों को आह्वान करते हुए कहा)
" हे
दुष्ट ! तेरी जितनी भी इच्छा हो तू मुझ पर
प्रहार कर ले, तू मुझे परास्त करने के लिए
जितने भी प्रयास कर ले, तेरे सारे प्रयास
विफ़ल हो जाएंगे, जिस प्रकार ताड़ के फ़लों को काट कर तोड़ा जाता है, ठीक उसी तरह आज मैं तेरा मस्तक काट कर गिरा
दूँगा".
रामजी की
बातों को सुनकर खर को अत्यन्त ही क्रोध हो आया. उसकी आँखे दहकती हुई अग्नि की
ज्वाला के सदृष्य लाल हो उठीं. उसने रामजी को ललकारते हुए कहा-" हे राम !
तुमने अब तक साधारण राक्षसों को मारा है. बस इतने से ही तुम अपनी प्रशंसा का
गुणगान करने लगे. यह तुम्हें शोभा नहीं
देता".
" हे
राम ! जो क्षुद्र क्षत्रियकुल के होते हैं, वे इस संसार में बड़ाई के लिए व्यर्थ ही ढिंढोरा पीट-पीट कर अपनी
बड़ाई स्वयं करते हैं. जैसे कि तुम स्वयं की बड़ाई कर रहे हो. सच तो यह है कि मुझ जैसे राक्षस से तुम्हारा सामना अभी तक हुआ
ही कहाँ है?".
"
देखो...नाना प्रकार की धातुओं से निर्मित गदा को लेकर मैं स्थिर भाव से तुम्हारे
सामने खड़ा हूँ. मैं अकेला ही पाशधारी यमराज की भांति तुम्हारे प्राण लेने की शक्ति
रखता हूँ.. मैं तुम्हारी तरह अधिक बातें कर समय व्यर्थ नहीं करना चाहता. सूर्यदेव
अस्ताचलगामि होने जा रहे हैं, अतः युद्ध में विघ्न पड़ जाएगा. अतः तुम अब बातें
बनाना बंद करो और मुझसे युद्ध करो".
" जिस
तरह तुमने मेरी सेना के चौदह हजार वीर
राक्षसों का संहार किया है, आज मैं तुम्हारा विनाश करके , उन सभी वीरगति को
प्राप्त हुए सैनिकों की मौत का बदला लूँगा". इस तरह प्रलाप करते हुए खर ने
बज्र के समान भयंकर गदा से रामजी पर प्रहार किया.
अपने बाणॊं
से खर की गदा को विदीर्ण करके मुस्कुराते हुए खर से कहा- " अरे पापी ! हे
निराधम ! क्या यही तेरा बल था, जिसे तूने
गदा के साथ दिखाया था. इससे स्वयं सिद्ध हो जाता है कि तू अत्यन्त ही शक्तिहीन है.
अब तक तू व्यर्थ ही अपने बल की डींगे हांक रहा था...देख - तेरी वह गदा चूर-चूर
होकर पृथ्वी पर पड़ी है. पता नहीं तुझे कैसे विश्वास था कि तो उस गदा से मेरा वध कर
डालेगा. तूने अब अपने बारे में जो कुछ कहा, वह झूठा निकला". रामजी ने उसका
उपहास उड़ाते हुए कहा.
" हे
नीच ! मिथ्याचारी ! मैं तेरे प्राणॊं को
उसी प्रकार हर लूँगा, जैसे गरुड़ ने देवताओं के लिए अमृत-कलश का अपहरण कर लिया था.
मैं शीघ्र ही तेरी दोनों भुजाओं को गला कर काट दूँगा. कटी भुजाओ से बूंद-बूंद
टपकते खून से पृथ्वी तेरे गरम-गरम रक्त का पान करेगी".
" तुम
जैसे दुर्दांत राक्षसों के दल-बल के साथ नष्ट हो जाने के पश्चात मुनिगण वन में
निर्भयपूर्वक विचर सकेंगे".
रामजी ने
उत्तम बाण चला कर अपनी ओर आती गदा के टुकड़े-टुकड़े कर हवा में बिखेर दिये. अपनी गदा
को चूर-चूर होकर गिरता देख खर का क्रोध बढ़ने लगा.
" हे
दुष्टात्मा ! तेरा सारा शरीर धूल-धूसरित होकर पृथ्वी पर लोटने लगेगा. तुझ जैसे
पापाचारी के मारे जाने के बाद दण्डकारण्य में पुनः धर्म-प्रेमियों ऋषि-मुनियों
बिना किसी भय के तप कर सकेंगे और निःशंक विचरण करेंगे".
"
तुमने और तुम जैसे राक्षसों ने इन वन में अनेकानेक राक्षसियों को आश्रय दे रखा है,
वे सभी तेरे मारे जाने के बाद विलाप करती हुईं,
इस वन से भाग खड़ी होंगी और तुझ जैसे दुराचारी, लम्पट और कामी को जिसने भी
पति के रूप में स्वीकार किया है, वे सभी वैध्व्य की भयानक मानसिक पीड़ा
भोगेगीं".
" तू
सदा से ही क्षुद्र विचारों से भरा रहता आया है. सदा से ही ब्राह्मणों के लिए
कण्टकस्वरुप है, इसी कारण वे न तो तप कर पाते हैं और न ही अग्नि में हविष्य ही डाल
पाते हैं. ये मेरे तीक्ष्ण बाण तुझे शीघ्र ही यमलोक पहुँचा कर रहेंगे." रामजी
ने खर से रोषपूर्वक कहा.
रामजी की
रोषपूर्ण बातों को सुनकर खर का क्रोधित होना स्वभाविक था. उसने भी रामजी से उसी
तरह का व्यवहार करते हुए कहा-" हे राघव ! तुम जरुरत से ज्यादा घमंडी हो. मुझे
तो जान पड़ता है कि तुम मृत्यु के अधीन हो चुके हो, तभी इतनी बढ़-चढ़ कर बातें कर रहे
हो".
" जो
भी पुरुष काल के अधीन हो जाता है, उसकी सभी इंद्रियाँ शिथिल पड़ जाती हैं, बुद्धि
सोचना-विचारना बंद कर देती है. उसे पता ही नहीं चलता कि वह काल के अधीन होने
पर उसे अपने कर्तव्यों और अकर्तव्यों का
ध्यान नहीं रहता". कहते हुए उसने चारों तरफ़ देखा. उसे एक विशाल वृक्ष दिखाई
दिया. अत्यन्त क्रोध में भरकर उसने उस वृक्ष को जड़ों से उखाड़ा और लक्ष्य करके
रामजी की ओर उछाल दिया.
रामजी भी
सतर्क थे. उन्होंने अपनी प्रत्यंचा पर बाण चढ़ाया. जो वृक्ष वायु को चीरता हुआ,
उनकी ओर बढ़ रहा था, उसके टुकड़े-टुकड़े कर
डाले. फ़िर लगातार बाण चलाकर उन्होंने खर के शरीर को क्षत-विक्षत कर डाला. उसके
शरीर से खून की नदियाँ बह निकली. अपने शरीर से बहते खून को देखकर उसका क्रोध और बढ़
गया. अत्यन्त व्याकुल होकर वह दो-चार पग पीछे हटा और द्रुत गति से रामजी की ओर
दौड़ा.
रामजी उसकी
हर छोटी-बड़ी गतिविधियों को ध्यानपूर्वक देख
रहे थे. जैसे ही उसे पास आता देखा, उन्होंने एक तेजस्वी बाण हाथ में लिया,
जो ब्रह्मदण्ड के समान भयंकर था. वह तीक्ष्ण बाण देवराज इन्द्र का दिया हुआ था.
धर्मात्मा रामजी ने उसे अपने धनुष पर रखा और खर को लक्ष्य करके छोड़ दिया.
उस महाबाण
के छूटते ही वज्रपात के समान भयानक शब्द हुआ. रामजी ने उस बाण को कान तक खींचकर
चलाया था जो उसकी छाती में जा धंसा. बाण
के छाती में घुसते ही वह भयानक राक्षस घायल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और उसका
प्राणांत हो गया.
उस घोर
निशाचर के मार्रे जाने के पश्चात लक्ष्मण और सीताजी कन्दरा से निकलकर
प्रसन्नतापूर्वक रामजी के सहित अपने आश्रम में प्रवेश किया.
सारे राक्षस-समूह को मार गिराने वाले शत्रुहंता और
ऋषि-मुनि एवं तपस्वियों को सुख पहुँचाने वाले अपने स्वामी श्रीरामचन्द्र जी के दर्शन करके विदेहनन्दिनी सीताजी को बड़ा हर्ष
हुआ. प्रसन्नवदन सीताजी ने अपने स्वामी का बढ़कर आलिंगन किया. उन्हें इस बात पर भी
अत्यधिक प्रसन्नता हो रही थी कि राक्षसों से घनघोर युद्ध करने के बाद भी उन्हें
कोई क्षति उठानी नहीं पड़ी थी.
लक्ष्मण भी
कम प्रसन्न नहीं थे. हर्ष-विभोर होते हुए उन्होंने अपने भ्राता के चरण स्पर्श
किये. अनेकानेक बधाइयाँ दीं. लक्ष्मण जी जैसे ही चरणॊं में झुकने के लिए बढ़े, रामजी ने उन्हें बीच में ही रोकते हुए आलिंगनबद्ध किया.
देर तक अपनी छाती से लगाए रखने के बाद उन्होंने कहा’- " हे वीर ! अगर आज तुम
साथ न होते तो मैं सीता को किसके सहारे छोड़कर दुष्ट दानवों से युद्ध करता.
तुम्हारा मुझ पर बहुत बड़ा उपकार है, इसे मैं कभी विस्मृत नहीं कर पाऊँगा".
" हे भ्राता ! ऐसा कहकर मुझे लज्जित न करें. आप ही
मेरे पिता है और भाभी सीता मेरी माता. एक बालक का अपने माता-पिता के प्रति क्या कर्तव्य
बनता है ?, मैं अच्छी तरह से जानता हूँ. मैं तो केवल अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन
पूरी निष्ठा से कर रहा हूँ. बस, आप दोनों का वरद-हस्त मुझ पर बना रहे".
लक्ष्मण ने रामजी तथा सीताजी से कहा.
लछिमन गए बनहिं जब, लेन मूल फ़ल कंद
रामजी का
सारा दिन दुर्दांत राक्षसों को मारने में ही बीत गया था. संध्यां घिर आयी थी.
रामजी ने सीताजी से कहा कि अब मैं विश्राम करना चाहूँगा. उन्होंने सीताजी के साथ
आश्रम में प्रवेश किया और पूरी रात्रि सुखपूर्वक सोए.
प्रातःकाल
उठकर श्रीरामजी ने स्नान किया और आकाश-पटल पर अवतरित होते बाल-भास्कर को जल अर्पण
करने के बाद प्रणाम किया और एक शिला पर आकर विराजमान हो गए. सीताजी भी उन्हीं के
समीप एक शिला पर विराजमान हो गई थीं तब
रामजी ने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा-" हे सौमित्र ! कल का सारा दिन तो
दुर्दांत राक्षसों का वध करने में बीत गया. शूर्पणखा को पूरा विश्वास था कि वे
हमें युद्धक्षेत्र में पराजित कर देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका ".
" हे
अनुज ! अपने दोनों भाइयों खर और दूषण को यमपुरी जाते हुए शूर्पणखा ने स्वयं अपनी
आँखों से देखा है. वीर भाइयों का इस तरह मारे जाने से उसे कितना दुःख हुआ होगा,
इसकी कल्पना तो हम कर ही सकते है".
" हे
अनुज ! शूर्पणखा को इस दुःख के साथ दो अन्य
दुःख भी उठाने पड़ रहे हैं. पहला तो
यह कि वह हम दोनों को अपनी कामपिपासा का शिकार नहीं बना पायी. और तीसरा यह कि उसे
अपने घृणित प्रयास में नाक और कान दोनों से वंचित होना पड़ा है".
" हे
सौमित्र ! शूर्पनखा अब चुप नहीं बैठेगी. वह अपना रोना-धोना लेकर निश्चित ही लंका गयी होगी. वहाँ जाकर वह
अपने भाई रावण को हमारे विरुद्ध भड़काएगी और बदला लेने के लिए उसे प्रेरित करेगी.
उसकी अपनी समझ के अनुसार समस्त विवादों के मूल में सीता ही है. निश्चित ही वह अपने अपमान का बदला सीता से
लेना चाहेगी".
" लक्ष्मण ! अब हमें पहले से ज्यादा सतर्क रहने की
आवश्यकता होगी. पता नहीं किस रूप में रावण हमारे सन्मुख आएगा, कहा नहीं जा सकता ?
मुझे नहीं लगता कि वह हमसे सीधे आकर युद्ध करेगा.
सबसे पहले वह इस बात का पता लगाने की कोशिश करेगा कि हम दोनों में उससे
युद्ध करने की कितना सामर्थ्य और क्षमता है".
" तुम भली-भांति परिचित हो कि दानव मायावी भी हैं. वे
तरह-तरह की माया जानते हैं . वे किस दिशा से आएंगे, कहा नही जा सकता. मुझे ऐसा भी
लगता है कि वह बारी-बारी से, छोटे-छोटे राक्षसों का दल भेजकर हमें युद्ध करने के
लिए ललकारेगा ".
" हे सुमित्रानन्दन ! शूर्पणखा का हमारे आश्रम में
प्रवेश करना, हमसे प्रेमालाप करना, सीता को देखना और उस पर अचानक आक्रमण कर देना,
यह मात्र एक साधारण घटना नहीं है. उसकी नजरों में सीता अब खलनायिका बन चुकी है.
संभव है वह हमसे प्रतिशोध लेने के लिए सीता को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुँचाने
का प्रयास करवाएगी".
" हे अनुज ! रावण ने कड़ी तपस्या करते हुए अनेक प्रकार
के वरदान प्राप्त कर रखे हैं. संभव है कि वह उनका प्रयोग करेगा. दिन की शुरुआत
अभी-अभी हुई है. हो सकता है कि रावण अपने सभासदों के बीच बैठकर कोई निर्णय लेने की
तैयारी में होगा या ले भी चुका होगा. खैर, जो भी हो, हम हर तरह से उससे युद्ध करने
में पारंगत हैं. लेकिन हमें अधिक सतर्क रहने की आवश्यता है".
" लक्ष्मण ! तुम शीश्रता से वन में जाकर फ़ल-मूल आदि को
प्रचूर मात्रा में ले आओ". रामजी ने लक्ष्मण से कहा.
" जी भैया! जैसी आपकी आज्ञा" कहते हुए लक्ष्मण जी
फ़लादि लाने के लिए चल दिए.
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला. मैं कछु करबि ललित नरलीला
लक्ष्मण के चले जाने के बाद, एक विशाल वृक्ष ने नीचे
बैठे प्रभु रामजी ने स्नेह से सीता जी की ओर निहारते हुए अत्यन्त
ही मृदु वाणी में कहा-" हे प्राणप्रिये !.अब आने वाला संकट कितना भयावह और
दुःखदायी होगा, कहा नहीं जा सकता. हमने अब तक सूखपूर्वक वन-विहार किया है, अब
परिस्थितियाँ शीघ्रता से बदलने वाली है. अतः समय रहते सचेत हो जाना बुद्धिमानी का
काम होगा".
" हे
जनकनन्दिनी !.कानी- नकटी सूर्पनखा ने तुम्हारे अनुपम सौंदर्य को लेकर, अपने भ्राता
रावण से बहुत कुछ कहा होगा. हो सकता है उसने तुम्हारे अपहरण की कोई योजना न बना ली
हो?. वह कपटी तुम्हें पाने के लिए नीचता की सीमा तक जा सकता है".
" हे
भामिनी ! हे सीते ! तुम मेरी आत्मा हो. मेरे दिल की धड़कन हो...तुम पर कोई आंच आए,
मैं इसे सहन नहीं कर पाऊँगा. कोई परपुरुष तुम पर कुदृष्टि डालने की कुचेष्टा
करेगा, राम इसे कदापि सहन नहीं कर सकेगा".
"
तुम्हारी आत्मा पवित्र है.......तुम्हारा मेरे प्रति निश्छल प्रेम है....तुम्हारा अनुराग मुझसे छिपा नहीं
है.....मैं यह भी जानता हूँ कि तुम मेरे बिना, एक पल को भी जीवित नहीं रहोगी, जिस
प्रकार कोई मीन बिना जल के अपने प्राण त्याग देती है, उसी प्रकार तुम भी अपने
प्राणों को खो दोगी.....लेकिन मुझे लगता
है कि अब हमें वियोग की अग्नि में तिल-तिल करके जलना होगा"..
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा
" हे
प्रिये ! पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली, सुशील प्रिये ! हमने अब तक एक अति
सामान्य जीवन जिया है. मैं अब कुछ ललित नर लीला करुँगा, इसमें मुझे तुम्हारा साथ
और सहयोग चाहिए. मैं जब तक राक्षसों का वध करूँ तब तक के लिए तुम अग्नि में वास
करो".
" हे
राघव ! जैसा आपको उचित लगे, वैसा ही कीजिए. मैं संपूर्णता के साथ इसमें सहयोग ही
दूँगी. आप निश्चिंत रहें" जानकी जी ने कहा.
रामजी ने
किसी मंत्र का जाप करते हुए अग्नि देव से प्रार्थना की कि वे प्रकट हो जाएं. तत्क्षण अग्नि देव रामजी के समक्ष नतमस्तक होकर प्रकट हो गए.
" हे
देव ! हे लीला पुरुषोत्तम ! आपने मुझे याद किया. कहिए मेरे लिए आपकी क्या आज्ञा
है. कृपया मुझसे कह सुनाएँ ". अग्निदेव ने रामजी से करबद्ध प्रार्थना करते
हुए कहा.
" हे अग्निदेव ! मुझे आपकी सहायता की आवश्यकता आन पड़ी
है. शूर्पनखा की नाक और कान काटे जाने के बाद से परिस्थियाँ अब प्रतिकूल होने जा
रही है. संभव है दुष्ट राक्षसराज रावण मेरी भार्या सीता के अपहरण की योजना बना रहा
होगा या फ़िर बना भी चुका होगा. मैं नहीं चाहता कि उस दुष्ट दानव का कोई भी अंग
मेरी प्राणप्रिया का स्पर्श कर पाए".
" हे देव ! मैंने अब तक मात्र साधारण लीलाएँ की है,
लेकिन अब कोई चमत्कारी लीला करने का मन हो रहा है. मैंने मानस बना लिया है कि मैं
पृथ्वी पर स्वछंद विचर रही समूचे दानवों का संहार कर दूँ. रावण के अत्याचार से
पृथ्वी पर हाहाकार मचा हुआ है, इतना ही नहीं देवी-देवता, यक्ष, गन्धर्व, नाग,
किन्नर आदि उसके अत्याचार से ग्रसित होकर दुःख
का अनुभव कर रहे हैं".
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता : तैसइ सील रूप सुबिनीता.
" हे देव ! जब तक मैं इन अधर्मी राक्षसों का नाश न कर
दूँ , तब तक के लिए मेरी प्राणप्रिया सीता को अपना आश्रय देकर मुझे अनुग्रहित
करें. आपके आश्रय में रहकर मेरी सीता
पूर्णतः सुरक्षित रहेगी. चुंकि लीला को विस्तार देना है, अतः सीता एक छाया रूप
में मेरे साथ रहेगी. लीला की पूर्णता के
पश्चात मैं अपनी भार्या को आपसे पुनः प्राप्त कर लूँगा. तब तक छाया बनी सीता मेरे साथ रहेगी. इस पुनीत काम में आप मुझे अपना
सहयोग प्रदान करें. राम आपसे प्रार्थना कर रहा है".
" हे राम ! हे लीला-अवतारी ! हे पुरुषोत्तम ! ऐसा कहकर
आप मुझे लज्जित तो न करें. मैं आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए, बेटी सीता को
अपना आश्रय अवश्य प्रदान करूँगा".
" हे नरहरि ! यह तो मेरा सौभाग्य ही होगा कि आपने अपनी
नरलीला में मुझे अपना सहयोगी बनाया." ऐसा कहते हुए अग्निदेव जलती हुई ज्वाला
मे बीच से स्वयं प्रकट होकर बाहर आए और रामजी के समक्ष खड़े हो गए. तत्पश्चात
उन्होंने हाथ जोड़कर कहा-" हे राघव !
एक पिता अपनी बेटी को लिवा लाने के लिए आपके समक्ष उपस्थित है. कृपया कर
सीताजी के साथ मुझे सहर्ष बिदाई दीजिए".
रामजी अपने स्थान से उठ खड़े हुए और उन्होंने आगे बढ़कते हुए
अपनी प्राणप्रिया सीताजी को अपनी लंबी बाहों के घेरे में लेते हुए आलिंगनबद्ध कर
लिया.. आलिंगनबद्ध होकर उन्हें अपार सुख की प्रतीति हो रही थी. सीता भी अपने
आराध्य की बाहों के घेरे में अपूर्व सुख का अनुभव कर रही थीं.
देर तक यूंहि खड़े रहने के बाद रामजी ने सीताजी को बंधनमुक्त
करते हुए अग्निदेव को सौंपतें हुये कहा-" हे अग्निदेव ! आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है. मैं अब निश्चिंत होकर नरलीला कर
सकूँगा."
सीता जी ने अग्नि
में प्रवेश करने से पूर्व प्रभु श्रीरामजी
के चरणॊं में झुकते हुए प्रणाम किया और फ़िर अग्नि में जा समाईं.
चमत्कार, उस
स्थान पर न तो अग्निदेव थे और न ही प्रज्ज्वलित होती ज्वाला. लेकिन उस स्थान पर
सीताजी ने अपनी छाया-मूर्ति छोड़ी थी, उनका रूप, विनय तथा शील वैसा ही था.
०००००.
छाया सीता
सकुचाते हुए खड़ी थीं. रामजी ने आगे बढ़कर, न केवल उनका आत्मीय स्वागत किया. बल्कि
अपनी विशाल भुजाओं को फ़ैलाते हुए उन्हें अपनी छाती से लगा लिया. काफ़ी देर तक
आलिंगनबद्ध रहने के बाद वे दो उसी शिला पर आकर विराजमान हुए, जहाँ वे दोनों पहले
से बैठे हुए थे.
लक्ष्मण जी
ने नाना प्रकार के फ़ल, मूल और कंद इकठ्ठा करके ले आए थे. आश्रम में एक ओर रखते हुए
वे दोनों के पास आकर विराजमान हो गए.
रामजी ने
अपने स्वभाव के अनुरुप दोनों को अनेक किस्से-कहानियाँ सुनाईं, जो धर्म से संबंधित
थीं
रामजी ने
जो यह उत्तम चरित्र रचा, इस मर्म को
लक्ष्मणजी भी नहीं जान पाए कि उनके वन से
आने से पूर्व काफ़ी कुछ घट चुका था.
०००००
त्वरमाणस्ततो गत्वा जनस्थानादकम्पनः
अकम्पन
खर-दूषण की सेना में एक राक्षस था. वह भी
इनके साथ युद्ध-भूमि में गया था. उसने अपनी सेना के चौदह हजार भयंकर राक्षस
सैनिकों को यमपुरी जाते हुए अपनी खुली आँखों से देखा था. देखा था कि रामजी ने
किस तत्परता के साथ युद्धभूमि में
खर और दूषण के सहित पूरी सेना को मार गिराया था. घास-गाजर-मूली की तरह कटते हुए
राक्षसों को, काल के गाल में समाते हुए, वह अपनी खुली आँखों देख रहा था. शायद वह
मरने से डर रहा था. अभी उसकी मृत्यु निकट नहीं आयी थी. बड़ी चालाकी के साथ वह अपनी
जान बचा कर, युद्ध के मैदान से भाग खड़ा हुआ और
सीधे रावण के दरबार में जा पहुँचा.
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दशग्रीवः प्रसूतोSयं दशग्रीवो भविष्यति.
रावण का जन्म और इतिहास
त्रेता युग में जन्मा रावण एक ऐसा दुष्ट राक्षस था जो भगवान शिव का भी
अनन्य भक्त था. उसका जन्म ब्राह्मण-राक्षस कुल में हुआ था,
लेकिन उसके अंदर राक्षस प्रवत्ति के गुण ज्यादा थे. ब्राह्मण होने के कारण
उसे समस्त वेदों व शास्त्रों का अच्छे से ज्ञान था लेकिन उसके कर्म
राक्षसों के समान थे.
रावण ने अपने जीवन में कई वरदान व सम्मान प्राप्त किए
थे लेकिन उसकी सबसे बड़ी भूल माता लक्ष्मी के अवतार माता
सीता का हरण करना था जिसने रावण समेत उसके कुल का नाश कर
दिया.
सप्त ऋषियों व दस मुख्य प्रजापतियों में से एक
महर्षि पुलस्त्य के पुत्र महान हु ऋषि विश्रवा.ए.
दूसरी ओर राक्षस कुल में सुमाली के दस पुत्रो व चार पुत्रियों में से एक
कैकसी थी. सुमाली अपनी राक्षसी पुत्री कैकसी का विवाह उच्च
कोटि के पुरुष से करवाना चाहते थे लेकिन उन्हें पृथ्वी पर कोई भी ऐसा
महान राजा दिखाई नही दिया.
अंत में कैकसी ने महान ऋषि विश्रवा को अपने पति रूप में
चुन लिया। ऋषि विश्रवा का पहले से ही एक पुत्र था जिसे धन
का देवता कुबेर के नाम से जाना जाता हैं. कैकसी से उनके विवाह के
पश्चात उन्हें रावण पुत्र रूप में प्राप्त हुआ.
रावण को कई नामो से जाना जाता हैं. जो उसकी विभिन्न विशेषताओं को दिखाता
है, जैसे कि:
दशानन/ दशग्रीव/ दशाकंथा / लंकापति/ लंकेश/ लंकेश्वर.
ऐसा बतलाया जाता है कि इसका जन्म नोयड़ा से 10 KM. दूर स्थित बिसरख गाँव में हुआ
था. रावण का जन्म एक
मान्यताता के अनुसार रावण का जन्म नेपाल के म्याग्दी जिले में हुआ था और उसकी
पत्नी राजस्थान के जोधपुर जिले के थकाली समुदाय की बेटी थी.
रावण के अलावा महर्षि विश्रवा व कैकसी
के कई अन्य पुत्र-पुत्रियाँ भी हुए. रावण के सात भाई व दो बहने थी. जिनके
नाम हैं: कुबेर, अहिरावण/ महिरावण, कुंभकरण, मेघनाथ, खर,
दूषण, सहस्त्र रावण, शूर्पनखा और
कुम्भिनी.
इन सभी भाई-बहनों में कुबेर सबसे बड़े व धार्मिक प्रवत्ति के
प्राणी थे क्योंकि उनके माता-पिता दोनों ब्राह्मण थे.
विभीषण राक्षस पुत्र होने के बाद भी भगवान विष्णु का भक्त था। अन्य सभी
में राक्षसी प्रवत्ति के गुण विद्यमान थे.
रावण की तीन पत्नियाँ थी जिनमे मुख्य मंदोदरी थी. अन्य दो
में एक का नाम धन्यमालिनी था तथा तीसरी का नाम कही लिखित नही
हैं. इन तीन पत्नियों से रावण को 6 पुत्र प्राप्त हुए,
जिनके नाम हैं: मेघनाथ, अक्षय कुमार, अतिकाय, नारंतक, देवांतक, तथा
त्रिशिरा.
पहले लंका का राजा कुबेर था जिसके पास पुष्पक विमान भी था. कुबेर को
पुष्पक विमान देवशिल्पी विश्वकर्मा जी ने बनाकर दिया था. जब रावण बड़ा हो
गया तब उसने अपनी शक्ति के प्रभाव से कुबेर से लंका छीन ली तथा स्वयं लंका
का स्वामी बन गया. रावण के भय से कुबेर लंका को छोड़कर चला गया.
अब रावण का लंका पर एकछत्र राज था. उसके भाई व पुत्र शासन सँभालने में
उसकी सहायता करते थे. अपने दो भाइयों खर व दूषण को उसने
समुंद्र के उस पार दंडकारण्य के वनों में छावनी बनाने का आदेश दिया था.
रावण ने अपने दो भाइयो कुंभकरण व विभीषण के साथ मिलकर
हजारो वर्षों तक भगवान ब्रह्मा की कठोर तपस्या की. इससे रावण को कई वरदान प्राप्त
हुए. उसने भगवान ब्रह्मा के बनाए किसी भी प्राणी से अपनी मृत्यु ना
होने का वरदान माँगा लेकिन मनुष्य व वानर को छोड़कर. रावण मनुष्य व वानर को
तुच्छ समझता था, इसलिये उसने अपने वरदान में इन दोनों को नही माँगा.
इसके साथ ही रावण ने अपनी नाभि में अमृत भी पा लिया जो
उसे कभी मरने नही देता था. यदि किसी कारणवश रावण का वध
भी हो जाता तो उसकी नाभि का अमृत उसे पुनः जीवित कर देता था..
रावण भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त था. उसने भगवान शिव को
प्रसन्न करने के लिए बहुत प्रयास किए थे. एक बार उसने
अपने हाथ से कैलाश पर्वत को उठाने का प्रयास किया था तब भगवान शिव ने अपने
पैर के भार से रावण का हाथ कैलाश पर्वत के नीचे दबा दिया था.
अपने हाथ के दबने के बाद भी रावण शिव की भक्ति करता रहा.
रावण को वीणा बजाने में बहुत रुचि थी. वह भगवान शिव के
तांडव की धुन को अपनी वीणा पर बजाकर उन्हें सुनाया करता था. इससे प्रसन्न
होकर महादेव ने रावण को एक शक्तिशाली खड्ग व लिंगम उपहार में दिया था.
इन वरदानो को पाने के पश्चात रावण की शक्तियां और अधिक बढ़
गयी. इसके साथ ही उसकी तीनो लोको को जीतने की महत्वाकांक्षा भी बढ़
गयी थी. उसने पाताल लोक को जीतने के लिए अपनी बहन शूर्पनखा के पति
विद्युत्जिव्ह का भी वध कर डाला था. इसके बाद शूर्पनखा ने मन ही मन रावण के
सर्वनाश करने की प्रतिज्ञा कर ली थी.
रावण ने पाताल लोक पर अधिकार कर वहां का राजा अपने भाई
अहिरावण को बना दिया था. पृथ्वी लोक के कई राजाओं को भी
उसने परास्त कर दिया था. उसके पुत्र मेघनाद ने देवराज इंद्र को परास्त कर
बंदी बना लिया था तथा उसका वध करने वाला था. तब भगवान ब्रह्मा ने आकर
इंद्र के प्राणों की रक्षा की थी.
सभी ग्रह व नक्षत्र रावण के नाम से भय खाते थे. उसने अपनी
ही पुत्रवधू रंभा के साथ दुराचार किया था जिस कारण उसे
अपने भतीजे नलकुबेर से श्राप मिला था कि वह किसी भी परायी
स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध दुष्कर्म करने का प्रयास करेगा तो वह
जलकर भस्म हो जाएगा.
रावण अपने राज सिंहासन पर अपने पैरों के नीचे शनि देव को
रखता था तथा उसके महल में सभी नवग्रह, नक्षत्र इत्यादि दास
रूप में थे. अपने इसी विश्व विजयी अभियान के कारण रावण का
अहंकार सातवें आसमान तक पहुँच गया था.
रावण
ज्ञान का एक अथाह भंडार था और उसके समान विद्वान पंडित इस पूरे विश्व में ना पहले
कभी हुआ था और ना ही आगे कभी होगा.
शिव
भक्त रावण एक
बहुत बड़ा उद्भट विद्वान राजनीतिज्ञ सेनापति, राजनीतिज्ञ, महाप्रतापी, महापराक्रमी योद्धा,
अत्यन्त बलशाली, शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता,
वास्तुकला का ज्ञाता और साथ ही बहुत सारे ज्ञान विज्ञान से
जुड़े ग्रंथों का ज्ञाता था. अपनी सिद्धि और तपोबल के जरिए उसने अपने जीवन में
बहुत सारी मायावी शक्तियां अर्जित कर ली थी जिसकी वजह से उसे इंद्रजाल,
तंत्र मंत्र, सम्मोहन और न जाने कितने प्रकार
के जादू करने के लिए वह विख्यात था. यदि संक्षिप्त रूप में कहें तो रावण एक ऐसा
व्यक्ति था जो भगवान की तरह ही 64 कलाओं में निपुण था.
ब्रह्मा
जी के कई सारे पुत्र थे जिनमें से उनके दसवे पुत्र का नाम अनाम प्रजापति पुलत्स्य
था. रावण के पिता ऋषि विश्रवा एक बहुत महान ज्ञानी पंडित थे जो सदैव धर्म के
रास्ते पर ही चलते थे. ब्रह्मा के वंशज होने के कारण रावण भगवान ब्रह्मा जी के
पड़पोता था.. मुनि विश्रवा ने अपने जीवन काल में दो विवाह किये थे . उनकी पहली
पत्नी वरवणिनी और दूसरी पत्नी केकेसी थी. उनकी पहली पत्नी वरवणिनी एक पुत्र को
जन्म दिया जिसे हम कुबेर के नाम से जानते हैं. कुबेर दुनिया के सभी खजानों के राजा
माने जाते हैं और उनकी दूसरी पत्नी कैकसी ने अशुभ समय पर गर्भ धारण करके कुंभकरण, श्रुपनखा और रावण जैसे क्रूर राक्षसों को जन्म दिया. परंतु एक सकारात्मक
काम भी उनके साथ हुआ जब उन्होंने विभीषण को जन्म दिया .विभीषण राक्षस कुल में पैदा
होने के बाद भी बहुत ज्यादा सहज स्वभाव का व्यक्ति था.
वैसे
तो रावण के महल में रानीवास में हजारों रानियां रहती थी परंतु उनका सबसे पहला
विवाह दिति के पुत्र मय जिनकी कन्या का नाम मंदोदरी था. मंदोदरी का प्राकट्य हेमा
नामक एक अप्सरा के गर्भ से हुआ था. पौराणिक इतिहास में यह भी बताया जाता है
कि मंदोदरी राजस्थान के जोधपुर के पास के ही एक क्षेत्र जिसका नाम मंडोर है वहां
की रहने वाली थी. उनका विवाह रावण के साथ हुआ, जिसके बाद उन्होंने कई सारे पुत्रों
को जन्म दिया, जिनमें से मुख्य इंद्रजीत, मदोहर, प्रहस्त, विरुपाक्ष और भीकम वीर थे. इसके
अलावा रावण की बहन शूर्पणखा का विवाह भीम रावण ने कराया था शूर्पणखा के पति का नाम
दानव राज विधु था जो दानव राज कालका का पुत्र था.
रावण जिसे दशानन भी कहा जाता है उसके 10 सिर हुआ करते थे. हमारे शास्त्रों में बताया गया है कि रावण के 10
सिर थे ही नहीं, बल्कि भ्रमित रूप से दिखाई देते थे .दरअसल रावण
अपने गले में एक नौ रत्नों से बनी सुंदर माला पहनता था जिसमें नवरत्न के बड़े-बड़े
मोती लगे हुए थे उनकी चमक इतनी ज्यादा तीव्र थी कि प्रत्येक हीरे में रावण का एक
अलग सिर नजर आता था. जिसमें से देखने पर एक रावण का प्रत्यक्ष सिर्फ और नौ
अप्रत्यक्ष सिर भी साथ में नजर आते थे. जिसके चलते रावण खुद को दशानन कहलवाना बेहद
पसंद करता था और उसके 10 सिरो का भय तीनों लोगों में छाया हुआ था. रावण एक मायावी व्यक्ति था जिसके
चलते वह अपने एक सिर के कट जाने पर दूसरा स्वतः ही प्रकट कर लिया करता था.
प्रकार
भगवान राम ने रावण का वध किया .जब युद्ध के दौरान भगवान राम रावण को नहीं मार पा
रहे थे और लगातार रावण युद्ध के मैदान में अपनी माया दिखाता जा रहा था. तब भगवान
राम को चिंतित देख विभीषण आगे आए और उन्होंने कहा कि भगवान रावण के प्राण उसके
नाभि में एक अमृत कलश में रखे हुए हैं. यदि आप उसकी नाभि पर वार करेंगे तभी रावण
मृत्यु को प्राप्त हो सकता है. पुराना में ऐसा कहा जाता है कि रावण अमर होना चाहता
था जिसके चलते उसने भगवान ब्रह्मा की वर्षों तक घोर तपस्या की जिसके बाद भगवान
ब्रह्मा ने उन्हें वरदान देते हुए उनका जीवन कलश उनकी नाभि में स्थित कर दिया.
इससे रावण अपनी इच्छा अनुसार अजर-अमर तो हो गया.
रावण
को त्रिलोक विजेता कहकर संबोधित किया जाता है दरअसल रावण ने अपनी नीतियों के
बलबूते पर अपने आसपास के मुख्य राज्य जैसे अंग द्वीप, मलय द्वीप, वराहद्वीप, शंख द्वीप, कुश द्वीप, यशदीप और आंध्रालय इन सभी राज्यों पर धावा बोलकर अपने अधीन कर लिया था.
उसके बाद नंबर आया लंका का उस समय लंका पर कुबेर का राज्य स्थापित था कुबेर जो
रावण का सौतेला भाई भी था उसे लंका से पराजित करके रावण ने उसे वहां से भगा दिया
और स्वयं लंका पर अपना आधिपत्य जमा लिया.
वहां
से भागने के बाद कुबेर कैलाश पर्वत के ही आसपास के क्षेत्र जिसे आज तिब्बत के नाम
से जाना जाता है वहां पर रहने लगा। उस समय कुबेर के पास एक पुष्पक विमान भी था जो
मन की गति से चलता था और हवा में उड़ कर कहीं पर भी ले जाया जा सकता था, जिसे रावण
ने कुबेर से छीन लिया था. उसके बाद रावण ने इंद्रलोक पर भी अपना आधिपत्य जमाने के
लिए धावा बोला जिसके बाद रावण के पुत्र मेघनाथ ने इंद्र को हराकर इंद्रलोक भी अपने
नाम कर लिया था जिसके बाद से मेघनाथ को इंद्रजीत के नाम से भी संबोधित किया जाया
करता था. तब से ही रावण को त्रिलोक विजेता के नाम से कहकर संबोधित किया जाता था.\
भगवान
शिव की तपस्या के दौरान जब रावण ने अपनी शक्ति प्रदर्शन के दौरान कैलाश पर्वत अपने
हाथों पर उठा लिया था और वह भगवान शिव को कैलाश पर्वत के साथ ही लंका ले जाना
चाहता था. जब भगवान ने अपने एक पैर के अंगूठे से कैलाश पर्वत को हल्का सा दबाया तो
रावण का हाथ पर्वत के नीचे ही दब गया तब भगवान शंकर से क्षमा मांगते हुए वह भगवान
शंकर की स्तुति करने लगा और वही स्थिति बाद में चलकर शिव तांडव स्त्रोत के नाम से
प्रख्यात हुआ. इसके अलावा उसने अरुण
संहिता को अधिकतर लाल किताब के नाम से संबोधित किया जाता है इस पुस्तक का अनुवाद
कई भाषाओं में किया जा चुका है. पौराणिक कथाओं के अनुसार यह किताब सूर्य के सारथी
अरुण द्वारा लंका पति रावण को प्रदान की गई थी जिसमें जन्मकुंडली, हस्तरेखा और सामुद्रिक शास्त्र से जुड़े कई सारे तथ्य सम्मिलित है. रावण
ने इन ग्रंथों के अलावा रावण संहिता भी लिखी थी. रावण संहिता रावण द्वारा लिखित एक ऐसी पुस्तक है जिसमें रावण के जीवन
काल से जुड़ी प्रत्येक बातें लिखी गई हैं. जिसमें ज्योतिष से जुड़ी सभी जानकारियों
का संपूर्ण भंडार निहित है.
रावण के
बारे में कुछ रोचक तथ्य-
शिवभक्त:- रावण भले ही कितना बड़ा अधर्मी रहा
हो परंतु वह आरंभ काल से ही भगवान शिव की भक्ति में लीन रहा करता था और भगवान शिव
को ही सबसे बड़ा मानता था.
(२)रावण
को गीत संगीत से बहुत ज्यादा प्रेम था .बहुत सारे चित्र में रावण के हाथ में वीणा
देखी जा सकती है.. रावण वीणा वादन किया करता था और वह इतना अच्छा वीणा बजाया करता
था कि स्वर्ग लोक से देवता आकर उसके वीणा वादन को सुना करते थे.
(३) अपने पुत्र को अजय और अमर बनाने के लिए रावण ने
अपनी शक्ति के बल पर नव ग्रहों को आदेश दिया था कि जब मेरे पुत्रों का जन्म हो तब
तुम सभी को 11 वे स्थान पर रहना है. सभी देवताओं ने रावण की बात को मान
लिया परंतु शनिदेव ने रावण की बात की अवहेलना करते हुए 12 वें स्थान पर जाकर बैठ गए।
जिसकी वजह से रावण इतना ज्यादा क्रोधित हो गया था कि रावण ने शनिदेव को बलपूर्वक
अपने महल में कई वर्षों तक बंदी बनाकर रख लिया.
(४)
उसके जीवन की सबसे रोचक बात यह कि उसका मोक्ष केवल विष्णु भगवान के अवतार के हाथों
ही लिखा था. उसे सर्व ज्ञाता भी कहा जाता था जिसके चलते सब कुछ जानते हुए भी उसने
भगवान से बैर लिया ताकि वह उसे अपने हाथों से ही मारकर मोक्ष प्रदान कर सकें.
(५) एक कथा के अनुसार यह प्रसिद्ध है कि जब एक
बार भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कई सालों तक रावण हवन यज्ञ करता रहा परंतु
भगवान प्रसन्न नहीं हुए तब उसने अपने सिर काटकर भगवान को अर्पण करना चाहा. जैसे ही
वह एक सिर काटता उसका दूसरा सिर्फ प्रकट हो जाता था. इस तरह उसने नौसेर भगवान को
चढ़ाए और दसवां उसके शीर्ष पर विराजमान रहा, जिसके बाद से ही उसे दशानन की संज्ञा
दी गई
.(६)
माता सीता लगभग 11 महीने तक रावण के महल में स्थित अशोक वाटिका में रहीं परंतु
रावण ने उन्हें एक बार भी नहीं छुआ. ऐसा इसलिए क्योंकि रावण एक श्राप से श्रापित
था जिसमें रावण को यह श्राप दिया गया था कि यदि वह किसी स्त्री को जबरदस्ती से
प्राप्त करना चाहेगा तो उसी समय उसके सिर के 10 टुकड़े हो जाएंगे.
(७)
इतना महान विद्वान और बलवान होने के बावजूद भी रावण किष्किंधा नरेश बाली से हार
चुका था. किष्किंधा नरेश बाली ने लगभग 6 महीने तक उसे अपनी कांख में
दबाकर तपस्या में लीन रहा था.
(८)भारत के दक्षिणी हिस्से में रावण को भगवान के
रूप में माना जाता है, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि रावण के काल में कोई भी गरीब
व्यक्ति गरीब नहीं था. सभी के घर सोने से परिपूर्ण रहा करते थे. रावण को सोने से
बहुत ज्यादा लगाव था जिसके चलते उसने अपने महल और पूरी लंकापुरी सोने की बनवाई हुई
थी.
रावण
इन दस दुर्गुण- काम, क्रोध. लोभ, मोह,गौरव, ईर्ष्या, मन, ज्ञान,, चित्त, और
अहंकार. इन्ही दुर्गुणों के कारण वह दसशीश अथवा दशानन कहलाया..
छन्दतस्तव
रुपं च मनसा यद यथेप्सितम. ब्रह्माजी एक अतिरिक्त वर
दिया कि-तुम अपने मन से जब भी जैसा रूप धारण करना चाहोगे वैसा ही हो जाएगा.
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सत्वरमाणस्ततो
गत्वा जनस्थानादकम्पनः
जनस्थान
से अकम्पन बड़ी उतावली के साथ लंका की ओर गया.
पहुँचने को तो अकम्पन रावण के दरबार मं पहुँच
गया था, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि वह किस तरह महाबली रावण को युद्ध के
समाचार कह सुनाएगा? कैसे सुना पाएगा कि एक साधारण से दिखने वाले राम ने पूरी सेना
सहित खर और दूशण को मार गिराया. वह रावण के क्रोध को जानता था. जानता था कि देव-दानव-गन्धर्व सहित कोई भी
प्राणी रावण के समक्ष खड़ा रहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, फ़िर तो वह एक मामुली-सा
सैनिक था. वह यह भी जानता था कि जब रावण इस समाचार को सुनेगा, तो क्रोध में आकर
उसके प्राण ही ले लेगा.
रावण के
दरबार के प्रवेश द्वार पर पहुँचने से पहले ही वह ठिठक कर खड़ा रह गया था. उसका शरीर
पीपल के पत्ते-सा थर-थर कांपने लगा था. कंठ सूख आया था. आँखों के सामने अंधकार
नाचने लगा था.
देर तक
यूंहि खड़े रहने के बाद उसने किसी तरह अपने साहस को बटोरा और दरबार में प्रवेश
किया.
"लंकापति
रावण की जय हो....वीरों के वीर महाराजाधिराज रावण की जय हो....जिस महाबली का सामना
देव-दानव-गंधर्व सहित देवता भी नहीं कर पाते, ऐसे हमारे वीर-प्रतापी महाराजा रावण
जय हो. काल के भी काल महाराज रावण को अकिंचन अकम्पन आपको प्रणाम करता है".
साहस बटोरते हुए उसने रावण से कहा.
" बोलो
अकम्पन...क्या समाचार लाए हो.? मेरे वीर
योद्धा खर और दूषण कैसे है?.सब कुशल तो है न
मेरे साम्राज्य में ? कहीं कोई कष्ट तो नहीं है तुम लोगों को ?"...रावण ने जानना चाहा.
रावण,
अकम्पन से जानना चाहता था कि उसके साम्राज्य में सब कुशल-मंगल तो है? यदि सब कुछ ठीक होता तो वह उछल-उछल कर समाचार
सुनाता. वह जानता था कि समाचार है ही इतना दुःखदायी कि जिसे सुनकर रावण का क्रोध
सातवें आसमान तक जा पहुँचेगा. वह यह भी अच्छी तरह से जानता था कि क्रोधी रावण समाचार सुनकर उसका मस्तक धड़ से अलग कर देगा
"
अकम्पन...तुम चुप क्यों हो ? तुम कुछ बोलते क्यों नहीं...मैं जानना चाहता हूँ कि
जनस्थान में सब ठीक तो है न? तुम चुप क्यों खड़े हो? समाचार शुभ या अशुम...हम सुनना
चाहते है?."...रावण गरजा.
रावण की
गर्जना इतनी भयंकर थी , मानो आसमान से बिजली चमक कर पृथ्वी पर गिरी हो.
"महाबली
!....कहीं से भी शुभ समाचार नहीं है . बड़ा ही अशुभ समाचार है. हमारे जनपद में
बहुत-से राक्षस रहते थे, वे सभी मारे गए. महावीर खर मारा गया. दूषण भी जीवित नहीं
बच पाया. मैं किसी तरह अपने प्राण बचाकर यहाँ आया हूँ".
अकम्पन के
ऐसा कहते ही दशमुख रावण क्रोध से उबल उठा. क्रोधाग्नि में जलते हुए उसकी आँखें,
लाल-लाल दहकते अंगारों की तरह दहकने लगी थीं, मानो उसे अपने तेज से जलाकर भस्म कर
डालेगा.
दहाड़ते हुए
उसने कहा -" कौन है वह जो मौत के मुँह में जाना चाहता है, जिसने जनस्थान का
विनाश किया है? कौन है वह जो हमारे जनस्थान में निर्भय होकर विचरण कर रहा है? कौन
है वह दुःसाहसी जिसने रावण जैसे महाबली को
खुली चुनौती देने की हिम्मत की है? मैं उसे ऐसी नसीहत दूँगा कि उसे समस्त लोकों
में कहीं भी ठौर-ठिकाना नहीं मिलेगा".
" मेरा
अपराध करके इन्द्र, यक्ष ,कुबेर और स्वयं
विष्णु भी चैन से बैठ नहीं सकते. मैं काल का भी काल हूँ. सभी को जलाकर मृत्यु के
मुख में डाल सकता हूँ. यदि मैं क्रोधित हो जाऊँ तो वायु की गति को रोक सकता हूँ तथा
अपने तेज से सूर्य और अग्नि को भी जलाकर भस्म कर सकता हूँ".
"
अकम्पन......ऐसे कितने लोग हैं,जो मेरे जनस्थान में बलात घुस आए हैं?". रावण
गरजा.
" हे
महाबली ! गिनती में तो केवल वे दो ही लोग हैं". अकम्पन ने कहा.
"
अच्छा, तो गिनती में केवल वे दो लोग ही थे
और तुम लोग खर-दूषण के सहित चौदह हजार
राक्षस.......मुझे आश्चर्य हो रहा है कि इतनी बड़ी सेना के रहते हुए तुम
लोग, उन दोनों का कुछ नहीं बिगाड़ पाए?. इतनी बड़ी सेना को साथ लेकर जाने की क्या
आवश्यकता थी, उन दोनों के लिए तो अकेला खर ही पर्याप्त था." मुझे तो इस बात
पर भी आश्चर्य हो रहा है कि गिनती के दो लोगों ने खर और दूषण सहित चौदह हजार
राक्षसों का वध कर डाला?".
रावण की गर्जना को सुनकार अकम्पन की बोलती बंद हो गई थी.
उसका शरीर डर के मारे पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगा था. गला सूख आया था. मृत्यु
के भय से उसकी सोचने-समझने की बुद्धि कुंठित हो गयी थी. शब्द जैसे तालु में आकर
अटक गए थे. देर तक अमन्सक खड़ा रहने के बाद उसने अपनी खोई हुए हिम्मत को किसी तरह
बटोरने की कोशिश भी की, लेकिन असफ़ल रहा. उसे लगा कि काल उसके सिर पर आकर खड़ा हो
चुका है. वह किसी भी क्षण रावण की तलवार से मौत के घाट उतारा जा सकता है. वह
कौन-सा उपाय होगा, जिससे वह मौत के मुँह में जाने से बच सकता है?.यदि वह राक्षसराज
से अभय दान मांग ले तो शायद जीवित बच पाएगा.
किसी तरह उसने अपनी खोई हुई हिम्मत को बटोरा और अटकते-अटकते
हुए कहा-" लंकापति की जय हो...महाराज आपका यह सेवक आपसे अभय-दान मांगता है.
कृपाकर मुझे अभय-दान देने की कृपा करें" थर-थर कांपते हुए अकम्पन ने कहा.
"अकम्पन... न केवल तुम हमारे एक वीर सैनिक हो बल्कि
हमारे विशेष गुप्तचर भी हो. अतः तुम्हारा जीवित रहना हमारे लिए बहुत आवश्यक है. हम
तुम्हें अभयदान देते हैं. अब निःसंकोच होकर मुझसे सारे समाचार चाहे वे शुभ हो या
अशुभ हों, कह सुनाओ". रावण ने कहा.
अभयदान पाकर अकम्पन को विश्वास हो गया कि रावण अब उसके
प्राण नहीं लेगा. संशयरहित होकर बोला-" हे राक्षक राज ! चक्रवर्ती राजा दशरथ
के नवयुवक पुत्र श्रीराम पंचवटी में निवास कर रहे है. उनके शरीर का गठन सिंह के
समान है, कंधे मोटे और भुजाएँ गोल और लम्बी हैं, शरीर का रंग सांवला है. उनके
यशस्वी और अतुलित बल के स्वामी है. उनके पराक्रम को स्वयं मैने देखा है, जिसकी
तुलना किसी से नहीं की जा सकती. उन महाबली, पराक्रमी श्रीराम ने जनस्थान में रहने
वाले हमारे परमवीर खर और दूषण के सहित चौदह हजार की सेना को उसी तरह मार गिराया
है, जैसे कोई क्रुद्ध सिंह मृगों को मार गिराता है".
" अकम्पन.....! क्या वह इन्द्र के जैसा दिखाई देता है.
क्या वह देवताओं के समान दिखलाई देता है?" . रावण ने जानना चाहा.
" हे दशानन ! जिनका नाम राम है, वे संसार के समस्त
धनुर्धरों में श्रेष्ठ और अत्यन्त ही तेजस्वी हैं. वे दिव्यास्त्रों के प्रयोग में
निपुण हैं तथा युद्ध की समस्त कलाओं में पराकाष्ठा को पहुँचे हुए हैं".
"हे लंकेश्वर ! श्रीराम के साथ उनका छोटा भाई लक्ष्मण,
उन्हीं के सदृश बलवान है. उसका मुख चन्द्रमा की भांति मनोहर है. उसकी आँखें
कुछ-कुछ लाल है और स्वर दुन्दुभि के समान गम्भीर है. जिस तरह अग्नि के साथ वायु
हो, उसी प्रकार अपने अनुज लक्ष्मण के साथ श्रीराम बड़े प्रबल हैं. उन्होंने ही
हमारे जनस्थान को उजाड़ डाला है.".
" उनके
साथ न तो देवता है और न ही कोई महात्मा मुनि.. श्रीराम जी के द्वारा छोड़े गए बाण
सर्प बनकर राक्षसों को खा जाते हैं. भय से कातर हुए हमारे शूरवीर-बलवान राक्षस,
जिस ओर भाग खड़े होते हैं, श्रीराम जी के धनुष से छूटे हुए बाण उनका पीछा करते हुए
उन्हें मार गिराते हैं. इस प्रकार अकेले श्रीराम ने सभी समर्थ राक्षसों को मार
गिराया है". अकम्पन डरते-डरते बतला रहा था जबकि उसे अभयदान मिला हुआ था.
" हे
लंकापति ! देखने में वह किसी तपस्वी-सा दिखाई पड़ता है. उसने चीर वस्त्र और
मृग-छाला धारण किया हुआ है. उसके कांधे पर धनुष और पीठ पर तराकशों से भरा तूणीर कस
रखा है. देखने में तो वह एक साधारण मनुष्य दिखाई देता है, लेकिन उसने मायावी
शक्तियों को साध रखा है. मुझे तो ऐसा भी लगता है कि वह हमारे आगत और विगत से भी
परिचित है. शायद उसे ज्ञात हो गया था कि हम दानवों को वरदान प्राप्त है कि हम आपस में
लड़ते हुए मारे जाएंगे. हुआ वही. उसने अपनी मायावी शक्ति से हमारे चौदह हजार
सैनिकों में से सात हजार राक्षसों को अपना स्वरूप प्रदान कर दिया. चुंकि राम को
मारने सभी आए थे, इसलिए सब आपस में ही एक-दूसरे को राम समझ बैठे और एक दूसरे को
मारकर आपस में ही लड़-लड़कर सब के सब मारे गये".
अकम्पन की
बातों को रावण ध्यान से सुन रहा था और अपने आपको अंदर ही अंदर तौल रहा था. उसने
अपना निर्णय सुनाते हुए कहा-" अब मैं स्वयं राम और लक्ष्मण का वध करने के लिए
जनस्थान जाऊँगा".
रावण के
निर्णय को सुनकर अकम्पन ने कहा-" राजन ! कोई निर्णय लेने से पहले आप उनके बल,
पराक्रम और पुरुषार्थ के बारे में सुन लीजिए. यदि रामजी कुपित हो जाएं तो किसी में
इतना साहस नहीं कि कोई उन्हें रोक सके. वे अपने बाणॊं से वेगवति नदी के प्रवाह को
पलट सकते हैं तथा ग्रह-नक्षत्रों सहित सभी को पीड़ा पहुँचा सकते हैं".
"वे इतने
सामर्थ्यवान हैं कि डूबती पृथ्वी को भी ऊपर उठा सकते हैं. महासागर की मर्यादा का
भेदन करके समस्त लोकों को उसके जल से आप्लावित कर सकते है तथा समुद्र के वेग को
तथा वायु को भी नष्ट कर सकते हैं".
"श्रीरामजी
में इतना सामर्थ्य है कि वे समस्त लोकों को नष्ट कर अपने पराक्रम से पुनः नये सिरे
से प्रजा की सृष्टि कर सकने में समर्थ हैं".
" हे
दशानन ! जैसे पापीजन स्वर्ग पर अधिकार नहीं कर सकते उसी प्रकार आप अथवा समस्त
राक्षसी-जगत भी युद्ध में उन्हें नहीं जीत सकते. मेरी अपनी तुच्छ समझ के अनुसार
सम्पूर्ण देवता और असुर भी मिलकर उनका सामना नहीं कर सकते और न ही किसी में इतना
बल है कि वे श्रीराम का वध कर सके".
" हे
लंकेश्वर ! मैंने एक उपाय सोच रखा
है, यदि आप उसे स्वीकार करने के लिए सहमत
हो जाते हैं तो हम राम से बदला ले सकते हैं. कृपया आप उसे एकचित्त होकर ध्यान से
सुनने की कृपा करें". अकम्पन जानता
था कि रावण की एक सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह
सुन्दर युवतियों को देखते ही कामासक्त हो जाता है और छल-बल से जैसा भी हो
सकता है, उसे प्राप्त करने के लिए नीचता
की सारी सीमाएँ लांघ देता है. अपने
स्वामी को प्रसन्न करने का एक ही उपाय है कि वह सर्वांग सुन्दरी सीताजी के सौंदर्य
के बारे में कह सुनाए.
"
अच्छा तो तुम उपाय भी जानते हो, हम उसे सुनना चाहेंगे? बोलो..तुमने कौन-सा उपाय
सोच रखा है". रावण ने जानना चाहा.
"
महाराज ! श्रीराम जी की पत्नी सीता संसार की सर्वोत्तम सुन्दरी है. उसने यौवन के
मध्य में पदार्पण किया है. उसके अंग-प्रत्यंग सुन्दर और सुडौल हैं. वह रत्नमय
आभूषणॊं से विभूषित है. वह संपूर्ण स्त्रियों में सर्वोत्तम रत्नों में एक हैं. देवकन्या, गन्धर्वकन्या, अप्सरा अथवा नागकन्या
कोई भी रूप में उसकी समानता नहीं कर सकती, फ़िर मनुष्य जाति की कोई दूसरी नारी उसके
समान कैसे हो सकती है?".
तस्यापहर भार्या त्वं तं प्रमथ्य महावने :
सीतया रहितो रामो न चैव ही भविष्यति.
" हे
राक्षसराज ! जिस भी किसी प्रकार के उपाय करके आप श्रीराम जी को धोखे में डालकर
उनकी पत्नी का अपहरण कर लीजिए. सीता से विलग होते ही श्रीराम कदापि जीवित नहीं
बचेंगे". अकम्पन ने रावण को सलाह देते हुए कहा.
" ठीक
है...तुम्हारी सलाह उचित है अकम्पन. मैं कल प्रातः काल सारथि के साथ अकेला ही
जाऊँगा और विदेहकुमारी सीता को प्रसन्नतापूर्वक लंका ले आऊँगा". कहते हुए
उसकी आँखों में एक विशेष प्रकार की चमक देखी जा सकती थी. अत्यधिक प्रसन्न होते हुए
उसने अपने गले में पड़े बहूमूल्य हार को निकाला और अकम्पन की ओर हाथ बढ़ाते हुए
कहा-" लो....तुमने आज हमें इतनी अच्छी खबर सुनाकर प्रसन्न कर दिया है. ये रहा
तुम्हारे लिए अनुपम उपहार". कहते हुए उसने अपने गले से बहूमूल्य हार निकालकर
अकम्पन्न को उपहार में दिया.
नींद परइ
नहीं राति
[h1]
अकम्पन के
एक-एक शब्द रावण के कानों में गूँज रहे थे. राम की पत्नी सीता सम्पूर्ण स्त्रियों
में एक रत्न है. वह संसार की सर्वोत्तम सुन्दरी है. उसने यौवन के मध्य में प्रवेश
किया है. उसकी समानता देवकन्या, गन्धर्वकन्या, अप्सरा अथवा नागकन्या भी उसके रूप
की समानता नहीं कर सकती. सीताजी के रूप और सौंदर्य के विविध रुपों की कल्पना करते
रावण पूरी रात्रि नींद नहीं आयी और वह शैया पर करवटें बदलता रहा.
रावण के
कानों में अकम्पन के ये शब्द भी कानों में गूँज रहे थे -" हे राजन ! कोई
निर्णय लेने से पहले आप उनके बल, पराक्रम और पुरुषार्थ के बारे में सुन लीजिए. यदि
रामजी कुपित हो जाएं तो किसी में इतना साहस नहीं कि कोई उन्हें रोक सके. वे अपने
बाणॊं से वेगवति नदी के प्रवाह को पलट सकते हैं तथा ग्रह-नक्षत्रों सहित सभी को
पीड़ा पहुँचा सकते हैं".
""वे
इतने सामर्थ्यवान हैं कि डूबती पृथ्वी को भी ऊपर उठा सकते हैं. महासागर की मर्यादा
का भेदन करके समस्त लोकों को उसके जल से आप्लावित कर सकते है तथा समुद्र के वेग को
तथा वायु को भी नष्ट कर सकते हैं".
"श्रीरामजी
में इतना सामर्थ्य है कि वे समस्त लोकों को नष्ट कर अपने पराक्रम से पुनः नये सिरे
से प्रजा की सृष्टि कर सकने में समर्थ हैं".
" हे दशानन
! जैसे पापीजन स्वर्ग पर अधिकार नहीं कर सकते उसी प्रकार आप अथवा समस्त
राक्षसी-जगत भी युद्ध में उन्हें नहीं जीत सकते. मेरी अपनी तुच्छ समझ के अनुसार
सम्पूर्ण देवता और असुर भी मिलकर उनका सामना नहीं कर सकते और न ही किसी में इतना
बल है कि वे श्रीराम का वध कर सके".
"देव-दानव
गन्धर्व और तो और सम्पूर्ण देवता और असुर भी मिलकर उनका सामना नहीं कर सकते".
इन अकाट्य बातों को सुनकर रावण का चैन छिन गया था. माथे पर पसीने की बूँदे चू आयी
थीं. घबराहट-सी होने लगी थी. वह निर्णय नहीं कर पा रहा था आखिर उसे क्या करना
चाहिए. दूसरी ओर सीताजी के अनुपम सौंदर्य की एक झलक देख पाने की उतावली उसे और भी
परेशान-हलाकान किए दे रही थी.
रावण ने अकम्पन के मुख से रामजी के शोर्य-बल की पराकाष्टा
के बारे में बहुत कुछ सुन चुका था. वह सीधे-सीधे रामजी से टकराना नहीं चाहता था.
संभव है अकम्पन ने उनके बारे में बढ़-चढ़कर बतलाया हो. राम के बलादि को जब तक स्वयं
नहीं परख लेता, तब तक तो उसे अपने शत्रु के समक्ष नहीं ही जाना चाहिए. जिस रावण के
समक्ष दैत्य-दानव, गन्धर्व सहित देवता तक सामने आने से भय खाते हैं, यदि वह राम से
भयभीत हो गया तो उसकी जग हसाई होगी. उसे कायर-डरपोक कहा जाएगा. उसकी लोकनिंदा
होगी. उसने अब तक देवताओं के मन में जो भय का वातावरण बना दिया है, वह जाता
रहेगा.अगर ऐसा हुआ तो उसका एकछत्र राज्य सदा-सदा के लिए नष्ट हो जाएगा.
रावण जितना बुद्धिमान था, उतना ही क्षुद्र बुद्धिवाला भी
था. बहुत समय तक सोचने-विचारने के पश्चात उसके निश्चय किया कि किसी योग्य व्यक्ति
से उसे परामर्श लेना चाहिए. परामर्श ही एकमेव रास्ता है, जिससे होकर कोई सुलभ
मार्ग निकल सकता है. उसने निश्चय कर लिया था कि वह अपने मामा मारीच से जाकर उचित
सलाह लेगा. उसके बाद ही कोई ठोस निर्णय लेगा.
मन के एक विचार आता, कभी दूसरा. इसी सोच-विचार के चलते वह
अपनी शैया पर पड़ा करवटे बदलता रहा था. कभी इस करवट, तो कभी उस करवट. न तो उसे पूरी
रात नींद ही आयी और नहीं उसे चैन ही मिल पाया था. इस तरह पूरी रात्रि सोच-विचार
में ही निकल गयी..
प्रातःकाल होते ही उसने सारथि "मातलि" को बुला
भेजा और आज्ञा दी कि वह रथशाला से रथ लेकर तत्काल आ जाए.आज्ञा भर देने की देरी थी
कि सारथि ने तत्क्षण एक उत्तम रथ, जो दसों
दिशाओं को प्रकाशित करता था, तथा जिसमें गधे उलटे जुटे थे. बिना देर किए
रावण उस रथ में आरूढ़ हो गया. राक्षसराज का वह रथ आकाश मार्ग से उड़ान भरते हुए एक
आश्रम में पहुँचा,जहाँ उसका मामा मारीच निवास करता था.
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वानशालां ततो गत्वा
प्रछन्नं राक्षसाधिपः संचोदयमास
रथः संयुज्यतामिति .. ( अरण्यकांड-(४)
गुप्तरुप से रथ शाला में जाकर राक्षसराज रावण
ने अपने सारथि को यह आज्ञा दी दी कि "मेरा रथ तैयार करो."
स
च मायामयो दिव्यः खरयुक्तः खरस्वनः प्रत्यदृश्यत
हेमांगो रावणस्य महारथः ( अरण्यकांड-
एकोनपंचाशःसर्ग- (१९)
इतने में ही गधों से जुता हुआ और गधों के
समान ही शब्द करने वाला रावण का वह विशाल सुवर्णमय मायानिर्मित दिव्य रथ वहाँ
दिखाई दिया.
कामगं
रथमास्थाय कांचनं रत्नभूषितम, पिशाचवदनैउतुक्तं खरैः
कनकभूषणर्णः ( अरण्यकांड- (६)
वह रथ इच्छानुसार चलने वाला तथा सुवर्णमय था.
उसे रत्नों से विभूषित किया गया था. उसमें सोने के साज-बाजों से सजे हुए गधे जुते
थे. जिनका मुख पिशाचों के समान था. रावण उस पर आरूढ़ होकर चला.
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पुष्पक
विमान
हिन्दू पौराणिक महाकाव्य रामायण में वर्णित वायु-वाहन
था.
इसमें लंका का राजा रावण आवागमन किया करता था. इसी विमान का उल्लेख सीता हरण प्रकरण में भी
मिलता है. रामायण के अनुसार राम-रावण युद्ध के बाद श्रीराम, सीता, लक्ष्मण तथा लंका के नवघोषित राजा विभीषण तथा अन्य बहुत लोगों सहित लंका से अयोध्या आये थे.
यह विमान मूलतः धन के देवता, कुबेर के पास हुआ करता था, किन्तु रावण ने अपने इस छोटे भ्राता कुबेर से
बलपूर्वक उसकी नगरी सुवर्णमण्डित लंकापुरी तथा इसे छीन लिया था. अन्य ग्रन्थों में उल्लेख अनुसार पुष्पक
विमान का प्रारुप एवं निर्माण विधि अंगिरा ऋषि द्वारा एवं
इसका निर्माण एवं साज-सज्जा देव-शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा की गयी थी. भारत के प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में लगभग
दस हजार वर्ष पूर्व विमानों एवं युद्धों में तथा उनके प्रयोग का विस्तृत वर्णन
दिया है. इसमें बहुतायत में रावण
के पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है.
इसके अलावा अन्य सैनिक क्षमताओं वाले विमानों, उनके
प्रयोग, विमानों की आपस में भिडंत, अदृश्य होना और पीछा करना, ऐसा उल्लेख मिलता है. यहां प्राचीन विमानों की मुख्यतः दो
श्रेणियाँ बताई गई हैं. -
प्रथम मानव निर्मित विमान जो
आधुनिक विमानों की भांति ही पंखों के सहायता से उडान भरते थे, एवं द्वितीय आश्चर्य जनक विमान, जो मानव द्वारा निर्मित नहीं थे, किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक उडन
तशतरियों के अनुरूप हुआ करता था.
विमान केवल रावण के पास ही नहीं था, बल्कि
हर देवी-देवताओं के पास अपने-अपने विमान थे.जैसे ब्रह्माजी का वाहन पुष्पक
विमान, श्रीविष्णु का वाहन गरुड़, शिवजी का वाहन नंदी, देवी सरस्वती का वाहन हंस, लक्ष्मी जी का वाहन कमल-पुष्प. दुर्गा
जी का वाहन सिंह है. इसी तरह अन्य देवताओं के अपने-अपाने वाहन थे, जिस पर आरुढ़
होकर वे एक लोक से दूसारे लोकों में विचरण किया करते थे. सारे वाहन उनके अपने
नाम के अनुरुप बनाए गए थे. जैसे- गरुड़, नंदी, हंस, कमलपुषो और सिंह आदि उन विमान
के नाम थे, जो अपने नामों के अनुरुप थे, देखे जा सकते है. |
इस विमान
में बहुत सी विशेषताएं थीं, जैसे
इसका आकार आवश्यकतानुसार छोटा या बड़ा किया जा सकता था. कहीं भी आवागमन हेतु इसे अपने मन की गति से
असीमित चलाया जा सकता था. यह नभचर वाहन होने के साथ ही भूमि पर भी चल
सकता था. इस विमान
में स्वामी की इच्छानुसार गति के साथ ही बड़ी संख्या में लोगों के सवार
होने की क्षमता भी थी. यह विमान यात्रियों की
संख्या और वायु के घनत्व के हिसाब से स्वयमेव अपना आकार छोटा या बड़ा कर सकता था
क्योंकि विमान गगन में अपने स्वामी की इच्छा के अनुसार भ्रमण करने में सक्षम
था, अतः इसे इसके स्वामी कुबेर
द्वार देवताओं को यात्रा कर के लिये भी दिया जाता था. एक बार रावण ने कुबेर से उसकी नगरी लंकापुरी
एवं यह यह विमान बलपूर्वक छीन लिया था,
तभी कुबेर ने वर्तमान तिब्बत
के निकट नयी नगरी अलकापुरी
का निर्माण करवाया. रावण के वध उपरान्त भगवान राम ने इसे लेकर
एकल प्रयोग उपरान्त इसके मूल स्वामी कुबेर को लौटा दिया
था. इस एकल प्रयोग को विभीषण के
बहुत निवेदन पर राम ने सब लोगों के लंका से अयोध्या वापसी हेतु प्रयोग किया
था.
वर्त्तमान श्रीलंका की
श्री रामायण रिसर्च समित्ति के अनुसार रावण के पास अपने पुष्पक विमान को रखने के लिए चार
विमानक्षेत्र थे. इन चार विमानक्षेत्रों
में से एक का नाम उसानगोड़ा था.
इस हवाई अड्डे को हनुमान जी ने लंका दहन के समय जलाकर नष्ट कर दिया था.
अन्य तीन हवाई अड्डे गुरूलोपोथा,
तोतूपोलाकंदा और वारियापोला थे जो सुरक्षित
बच गए.
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करि पूजा मारीच तब.
मारीच
श्रीरामचन्द्र जी का प्रताप देख चुका था. उन्होंने मात्र एक तीर से जिसका अग्रभाग
टूटा हुआ था, उस बाण से उसे दक्षिण सागर के तट पर उछाल कर फ़ेंक दिया था. उसे समझ
में आ चुका था कि मनुष्य रूप में स्वयं विष्णु "राम" नाम से अवतरित होकर
लीला कर रहे हैं. यद्यपि उसकी देह तो राक्षसी बनी हुई थी, लेकिन मन साधु बन चुका
था. उसने यहाँ रहते हुए कुटिया का निर्माण किया और शेष जीवन उन्हीं परमात्मा राम
के गुणानुवाद में बिताने का निश्चय कर लिया था.
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मारीच का परिचय. मारीच ,
शुण्ड नामक राक्षस और ताड़का का पुत्र था. जो अगस्त्य मुनि के श्राप से राक्षस बन
गया था. एक रिश्ते में शुण्ड रावण का मामा लगता था. मारीच के भाई का नाम सुबाहु
था. ये दोनों भाई विश्वामित्र मुनि के आश्रम में आए दिन उपदव मचाया करते थे, जिससे
वे शांत भाव से न तो तपस्या ही कर पाते थे और न ही यज्ञादि. उन्होंने राजा दशरथजी
से राम और लक्ष्मण को मांगा. उस समय रामजी की आयु मात्र पन्द्रह वर्ष की थी. रामजी
ने ताड़का और सुबाहु को तो तत्काल मार
गिराया था और मारीच को बिना फ़लक वाले से बाण की सहायता से दूर दक्षिण में समुद्र
तट पर उछाल दिया था. यही वह राक्षस मारीच है,जिसने सीता हरण के लिए सोने का मृग बन
कर राम को अपने पीछे आने के लिए विवश किया और रावण को सीताजी के हरण का अवसर
प्रदान किया था.
ताड़का- ताड़का, सुकेतु
यक्ष की पुत्री थीं, जिस्का विवाह सुण्ड नामक राक्षस के साथ हुआ था. वह अयोध्या के
समीप स्थित सुन्दर वन में अपने पति और दो पुत्रों- सुबाहु और मारीच के साथ रहती
थी. उसके शरीर में हजार हाथियों का बल था. उसके प्रकोप के कारण ही सुंदर वन का नाम
"ताड़का वन " पड़ा. इसी वन में
विश्वामित्र सहित अनेक ऋषि-महात्मा रहते थे. रामजी इन्हीं मुनि की सहायता के लिए
यहाँ आए थे.
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साधुवृत्ति
अपना चुका मारीच अपनी कुटीया में बैठा " राम" नाम का जप करने में निमग्न
था. उसने अपने कंधे पर रामनामी दुपट्टा भी ओढ़ रखा था. वह जाप करने में इतना खोया
हुआ था कि कब राक्षसराज रावण उसकी कुटिया में प्रवेश कर चुका है, उसे पता ही नहीं
चल पाया.
रावण ने
तीन-चार बार उसका नाम लेकर पुकारा, तब जाकर वह ध्यान से बाहर निकल पाया था. आँखें
खोलते हुए उसने देखा दशानन उसके सामने खड़ा हुआ था.
मारीच अपने
मांजे का अचानक इस तरह और वह भी पूर्व सूचना के आने का तात्पर्य नहीं समझ पा रहा
था. वह केवल इतना ही अनुमान लगा पाया था कि रावण का एक तरह अचानक आ धमकना, इस बात की पुष्टि करता है कि लंका में सब कुशल
नहीं चल रहा है.
उसने आगे बढ़ते हुए अपने भांजे दशानन का स्वागत-सत्कार किया
और उचित आसन देकर जलादि के द्वारा उसका विधिवत पूजन किया और जानना चाहा -" हे
दशानन ! मेरे प्यारे भांजे ! तुम्हारे राज्य में सब कुशल तो है न? तुम्हारे इस तरह
आने से मेरे मन में खटका हुआ है. सच-सच बताओ, तुम किस प्रयोजन को लेकर मेरे पास आए
हो". मारीच ने जानना चाहा.
" हे तात ! सब कुछ कुशल होता तो मैं तुम्हारे पास आता
ही क्यों? हमारे जनस्थान में किसी राम का आगमन हुआ है. उसने मेरे राज्य की सीमा
में प्रवेश करते हुए मेरे बलवान खर और दूषण को मार डाला है. सारा जनस्थान जो अब तक
अवध्य समझा जाता था, वहाँ के सभी चौदह हजार राक्षसों को युद्ध करते हुए मार गिराया
है".
" मैं उस राम से बदला लेना चाहता हूँ. मुझे ज्ञात हुआ है कि उसकी स्त्री संसार की
सर्वोत्तम सुन्दर स्त्री है. मैं उसकी पत्नी का अपहरण करना चाहता हूँ. इस कार्य
में तुम मेरी सहायता करो". रावण ने कहा.
रावण की बातें सुनकर मारीश ने कहा- " हे दशानन ! मित्र
के रूप में तुम्हारा वह कौन ऐसा शत्रु है जिसने तुम्हें सीता को हर लेने की सलाह
दी है? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि कौन ऐसा पुरुष है जो तुमसे सुख और सम्मान पाकर
भी तुमसे प्रसन्न नहीं है. तुम मुझे उसका नाम बताओ?".
" हे दशानन !. इस घृणित कार्य के लिए जिसने तुम्हें
प्रोत्साहित किया है, उसे तुम अपना शत्रु मानो. वह तुम्हारे हाथों विषधर सर्प के
मुख से दाँत उखड़वाना चाहता है".
" हे राजन ! किसने तुम्हें ऐसी खोटी सलाह देकर तुम्हें
कुमार्ग पर चलने के लिए उकसाया है?".
" हे रावण !. तुम रामजी को नहीं जानते. वह मदमस्त हाथी
की तरह है, जिसे देखकर योद्धा दूर भाग जाते हैं. उस राघव रूपी गजराज का शुण्ड दण्ड
है, प्रताप ही मद है और सुडौल बाँहे ही दोनों दाँत हैं. युद्धस्थल देव,दानव,
गन्धर्व, यक्ष किन्नर आदि किसी में इतना बल नहीं है कि कोई भी उनके समक्ष ठहर नहीं
सकता. फ़िर शत्रुभाव से तो उनकी ओर देखना उससे भी अधिक दुष्कर है".
" हे मांजे ! श्रीरामजी मनुष्य के रूप में एक सिंह है.
तुम उस सोते हुए सिंह को न जगाओ, यही उचित होगा".
" हे लंकेश्वर ! तुम सानंद रहो, सुखी रहो और मेरे परामर्श को मानते हुए
लंका लौट जाओ, इसी में तुम्हारा और तुम्हारे परिवार की भलाई है. बाद में ये मत
कहना कि मामा ने समय रहते समझाया नहीं? तुम अपनी लंका पुरी में सुखपूर्वक रहो और
रामजी को अपनी पत्नी के साथ दण्डकवन में विहार करने दो".
रावण को मारीच की सलाह उचित लगी. उसने अपने मामा को
बहुत-बहुत धन्यवाद दिया और लंका लौट आया.
००००
अपने गूफ़ा महल में विलाप करती..आँसू बहाती शूर्पनखा काफ़ी गंभीरता से सोच रही
थी-" किस तरह राम, सीता और लक्ष्मण से
प्रतिशोध ले सकती हूँ".
उसे पिछली बातें याद हो आयीं जब वह राम के आश्रम में पहुँची थी तब राम की
भार्या सीता उपवन में फ़ूल चुन रही थी. काफ़ी दूरी बनाकर राम एक शीला पर बैठे हुए थे
और उनका अनुज उस समय कुल्हाड़े से लकड़ियाँ फ़ाड़ रहा था. यही उचित अवसर था कि मैं यदि
सीता को राम के रास्ते से हटा दूँ तो मेरा काम बन जाएगा. मैंने जैसे ही सीता पर
आक्रमण किया, वह अपने बचाव को पुकारने लगी. लक्ष्मण झट दौड़ा चला आया और उसने ने
मेरी नाम और कान काट डाले. काम पिपासा के बदले मुझे न तो राम मिल पाया और न ही काम
की पूर्ति हो सकी".
"कामदग्धा नारी के प्रणय निवेदन को स्वीकार नहीं करने के पीछे और कोई
नहीं, बल्कि सीता थी. काश, सीता नहीं होती तो
निश्चित ही राम को पाने में मैं सफ़ल हो जाती".
"जिस स्त्री के कारण उसे इतनी बड़ी सजा मिली है, मै उसे
किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ सकती. मैं अपने अपमान का बदला ले कर रहूँगी.....मैं सीता
से बदला ले कर रहूँगी. मुझे कुछ इस तरह से प्रपंच रचना होगा कि सांप भी मर जाए और
लाठी भी न टूटने पाये".
"काफ़ी सोच-विचार के बाद उसने निश्चय किया कि इस काम के
लिए उसे अपने भाई रावण से जाकर मिलना होगा. उसे सीता के अनुपम सौंदर्य के बारे में
बतलाना होगा. इतना बढ़ा-चढ़ाकर उसका वर्णन करना होगा ताकि रावण की कामवासना जाग जाए
और वह किसी भी उपाय से सीता का अपहरण कर लंका ले आए .एक बार सीता का हरण हो जाए तो उसके वियोग में राम
तड़प-तड़प कर अपने प्राण दे देगा और सीता भी राम के विछोह में अपने प्राण त्याग
देगी. सीता-राम के न रहने पर लक्ष्मण या तो अपनी चिता बनाकर स्वयं उसमें कूद पड़ेगा
या नदी में कूदकर आत्महत्या कर
लेगा".
कामाग्नि में उसका शरीर अब भी गर्म रेत की तरह तप रहा था. रह-रह कर उसे वह घड़ी
याद आ जाती, जब वह रूप बदलकर रामजी के आश्रम में गई थी. रामजी के अनुपम सौदर्य का
जादू अब भी शूर्पनखा के सिर पर चढ़कर बोल रहा था. कितनी ही आशाएँ संजोकर, उसने अपने
आपको सजाया था, संवारा था कि एक बार ही सही, राम का आलिंगन उसे मिल जाता, एक बार संसर्ग
हो जाता, तो वह धन्य हो उठती. राम का सौंदर्य ही इतना आकर्षक और अद्भुत है कि
संसार की कोई भी युवती उनका आलिंगन पाने को ललचा उठेगी....उसकी विशाल बाहों को
झूला बनाकर झूलना चाहेगी. इसी लालसा के
चलते तो वह बन-ठन कर राम के पास गयी थी, लेकिन एक पत्नीव्रत की आड़ लेकर राम ने
उसका प्रणय निवेदन स्वीकार न करते हुए मुझे अपने अनुज लक्ष्मण की ओर यह कह कर
भेज दिया कि वह अकेला है".
लक्ष्मण का शारीरिक शौष्ठव भी लगभग राम के जैसा ही था. ठीक राम के जैसा तो
नहीं था, लेकिन उसका आकर्षण अद्वितीय था. उसे देखते ही मेरा अंग-अंग खिल उठा था.
काम-वासना की अग्नि और ज्यादा तीव्र हो उठी थी. मुझे लगा कि वह मेरे प्रणय निवेदन
को अस्वीकार नहीं करेगा और मेरे साथ परिरम्भन को तैयार हो जाएगा. लेकिन उसने मुझे
फ़िर से राम के पास यह कहकर भेज दिया कि मैं तो उनका दास हूँ. अच्छा होगा कि तुम
मेरे स्वामी के पास ही जाओ".
"मेरी स्थिति उस लुढ़कते गेंद की तरह हो गई थी, जो कभी राम की ओर तो कभी
लक्ष्मण के बीच लुढ़कती रही थी. ऐसा करते हुए मुझे एक तरह से हास्य का पात्र बना
दिया गया. मेरा धीरज डोल गया था और क्रोधाग्नि भी भड़कने लगी थी".
अनेक बीती बातें फ़िर याद हो आयीं थीं. कड़वी यादों को याद
करते ही उसकी जीभ में कड़वाहट-बढ़ गई थी. मन कसैला हो उठा था. वह सोचने लगी थी
" काश .. आज मेरा पति विद्धुतजिव्ह जीवित होता तो मुझे अपनी कामवासना की
तृप्ति के लिए किसी पर-पुरुष की ओर आकर्षित नहीं होना पड़ता. विद्धुतजिव्ह उस समय राजा
कालकेय की सेना में सेनापति था. रावण जानता था कि विद्धुतजिव्ह उसका बहनोई है. यह
जानते-बूझते हुए भी उसने उसे महज इसीलिए मार डाला था कि वह उसके शत्रु कालकेय का
सेनापति है. निर्मम हत्या करते समय उसके हाथ नहीं कांपे थे. उसे यह भी ध्यान नहीं
आया कि मेरी बहन विधवा हो जाएगी ? क्रोधित होते हुए मैंने उसे श्राप दिया था कि
मैं ही तेरी मृत्य का कारण बनूँगी".
उसे यह भी याद हो आया -"विश्व विजय की कामना लिए हुए
रावण स्वर्गलोक में जा धमका था. उसने अपने ही भाई कुबेर के पुत्र नलकुबेर की
प्रेयसी रम्भा के साथ जबदस्ती संभोग किया था. तब रम्भा ने भी उसे श्राप दिया था कि
काम-वासना के प्रति अदम्य लालसा ही तेरी मृत्यु का कारण बनेगी".
"भगवान राम के वंश में जनमे राजा अरण्य से भी रावण का
युद्ध हुआ था, जिसमें राजा अरण्य़ की मृत्यु हो गयी थी. उन्होंने भी मरते समय रावण
को श्राप दिया था कि मेरे ही वंश के एक युवक के हाथॊं तेरी मृत्यु होगी".
उसे यह भी याद हो आया कि एक बार वह शंकर जी के दर्शन
करने कैलाश गया था. नंदी की मुखाकृति
देखकर उसने उसका उपहास किया था. कुपित नंदी ने उसे श्राप दिया था कि बंदर ही तेरे
सर्वनाश का कारण बनेंगे".
क्रोध में उबलते हुए उसने अंतिम निर्णय ले लिया था कि
दुर्दांत रावण से प्रतिशोध लेने का यही उचित अवसर है. मैं उसके समक्ष जाकर अपना
दुखड़ा रो कर उसके पुरुषार्थ को चुनौती देते
हुए उसे ललकारुंगी तथा उससे सीता के अनुपम सौंदर्य तथा लावण्य़ को बड़ा-चढ़ाकर
बखान करुंगी ताकि वह अनैतिक कार्य करने के लिए उद्धत हो जाए और राम के हाथों मारा
जाये.
ऐसा विचार मन में आते ही उसने बिना समय गवांए, अपने
बाहूबली रावण की लंकापुरी जाने का निश्चय किया.
००००
रावण अपने सुवर्णमय सिंहासन पर आकर विराजमान हुआ ही था कि उसकी बहन शूर्पनखा विलाप करती हुई
राज दरबार में जा पहुँची. विलाप करती हुई शूर्पनखा को देखते ही सारे सभापति भौंचक
खड़े हो गए थे. किसी के समझ में नहीं आ रहा था कि रावण की लाड़ली बहन को क्या हो गया
, जो इस तरह विलाप करती हुए चली आयी है. रावण भी समझ नहीं पा रहा कि उसके आगमन के पीछे क्या कारण हैं?.
बोली बचन क्रोध करि भारी.
शूर्पनखा
श्रीरामजी के तिरस्कृत होने के कारण बहुत दुःखी थी. उसने मन्त्रियों के बीच बैठे
हुए समस्त लोकों को रुलाने वाले रावण से अत्यन्त कुपित होकर कठोर वाणी में
कहा-" हे राक्षसराज ! तुम स्वेच्छाचारी होकर विषय-भोगों में मतवाले हो रहे
हो, तुम्हारे लिए घोर भय उत्पन्न हो गया है. तुम्हें इसकी जानकारी होनी चाहिए थी,
किंतु तुम अपने विषय में कुछ नहीं जानते?".
"तुम
गंवार मन्त्रियों से घिरे हुए हो, तभी तो तुमने अपने राज्य के भीतर गुप्तचर नहीं
तैनात किये है. तुम्हारे स्वजन मारे गए और जनस्थान उजाड़ हो गया है. फ़िर भी तुम्हें
उसका पता नहीं चला?".
"अकेले
राम ने चौदह हजार राक्षसों सहित खर और दूषण के प्राण ले लिए. ऋषियों को अभयदान
देकर वहाँ शान्ति स्थापित कर दिया है. जनस्थान तो उसने चौपट ही कर डाला है, क्या
तुम्हें इस बाबत कोई समाचार नहीं मिला?".
शूर्पनखा की
कठोर बातों को सुनकर रावण अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसने जानना चाहा-" कौन राम ? कैसा राम?
उसका बल कैसा है? उसने अत्यन्त दुस्तर दण्डकारण्य में किस लिए प्रवेश किया है?
क्या उसे जनस्थान में रहने वाले मेरे वीर योद्धा खर और दुषण ने नहीं रोका? तुम भी
तो वहीं रहती हो? तुम क्या कर रही थी? तुमने उसे बलपूर्वक रोका क्यों नहीं?
".
" यह
बतलाओ कि उसके पास ऐसा कौन-सा अस्त्र है, जिससे उसने सभी राक्षसों को मार
गिराया?".
" हे
बहना ! मुझे ठीक-ठीक बतलाओ, किसने तुम्हें
क्रुरुप बनाया है...किसने तुम्हारी नाक और कान काट डाले हैं?". रावण ने अनेक
प्रश्नों के पहाड़ शूर्पनखा के सामने खड़े कर दिये थे.
" भैया
! श्रीराम महाराज दशरथ के पुत्र हैं,उनकी भुजाएँ लंबी, आँखे बड़ी-बड़ी और रूप में वह
कामदेव के समान है. उसने चीर और काला मृगचर्म धारण किया है. इन्द्र धनुष के समान अपने विशाल धनुष पर
महाविषैले सर्पों के समान तेजस्वी नाराचों की वर्षा करते है. वे कब फ़ुर्ती से धनुष
खींचते और कब बाणों को छोड़ते हैं, यह मैं नहीं देख पाती थी".
"उसके
धनुष से बाण कुछ इस तरह छूटते हैं मानों बरसात हो रही हो. देखते-देखते आपकी
राक्षसी सेना का संहार हो गया. उस अकेले ने ही खर और दूषण को मार गिराया".
"उसका
एक तेजस्वी भाई भी है जो गुण और पराक्रम में उसी की तरह है. उसका नाम लक्ष्मण है.
वह अपने बड़े भाई का अनन्य भक्त है. उसकी बुद्धि तीक्ष्ण है.वह बल और पराक्रम से
सम्पन्न है".
" हे
महाबली! मैंने स्वयं अपनी इन आँखों से राम के बल और पराक्रम आदि को देखा है, उसे
विस्तार के साथ तुम्हें बतला दिया है. यह
भी बतला दिया है कि उसने तुम्हारी चौदह
सहस्त्र सेना को कुछ ही समय में गाजर-मूली
की तरह काट कर फ़ेंक दिया".
"तुम
अपने आपको देवताओं गन्धर्वों आदि से बल और पराक्रम में श्रेष्ठ ठहराते हो. तुम
अपने आपको सर्वशक्तिशाली बतलाते फ़िरते रहते हो. एक बार फ़िर अपने आपकी परीक्षा कर
लो कि क्या तुम राम के सामने ठहर सकते भी हो अथवा नहीं? तुम अपने आपको बड़ा साहसी
भी बतलाते हो, तुम राम के समक्ष जाने का साहस रख सकते हो अथवा नहीं, इस पर गम्भीरता
से विचार कर लो".
"यदि
बिना रणक्षेत्र में गए विजयी होना चाहते हो तो मेरे पास एक उत्तम विचार है. यदि
तुम ऐसा कर सके तो राम, लक्ष्मण बिना रणक्षेत्र में गये मर जाएंगे".
" हे
दानवराज ! श्रीराम की धर्मपत्नी भी उसी के साथ
है. उसकी आँखे विशाल और मुख चन्द्र के समान है. उसके केश, नासिका, ऊरु तथा
रूप बड़े ही सुन्दर तथा मनोहर है. उसका सुन्दर शरीर तपाये हुए सुवर्ण की कान्ति
धारण करती है. शुभलक्षणा कटि प्रदेश सुन्दर तथा पतला है. वह विदेहराज जनक की कन्या
है और सीता उसका नाम है".
" हे
भाई ! देवताओं, गन्धर्वों, यक्षों और किन्नरों की स्त्रियों में भी कोई उसके समान
सुन्दरी नहीं है. इस भूतल पर उस जैसी सुन्दर स्त्री मैंने कहीं नहीं देखी है. उसका
स्वभाव बड़ा ही उत्तम है. उसका एक-एक अंग स्तुत्य एवं स्पृहनीय है. उसके रूप की
समता करने वाली भूमण्डल में दूसरी कोई स्त्री नहीं है. वह तुम्हारी भार्या होने
लायक है और तुम भी उसके श्रेष्ठ पति हो सकते हो".
"हे
महाबाहो ! जब मैं उस शुभलक्षणा सीता को तुम्हारी भार्या बनाने के लिए लेकर आने को
उद्धत हुई थी कि उस दुष्ट लक्ष्मण ने मेरे कान और नाक काट कर मुझे कुरूप बना
दिया".
" जिस
भाई का केवल नाम लेने भर से देव, गन्धर्व, किन्नर आदि कांपने लगते हों, उनकी बहन
को उसी के राज्य में कुरुप बना दिया जाता है, यह तुम उसे कैसे सहन कर सकते हो?.
उसने केवल मुझे कुरूप ही नहीं बनाया है बल्कि उसने तुम्हारे सामर्थ्य को भी चुनौती दी है. क्या तुम उसकी
चुनौतियों को स्वीकार कर सकते हो? यदि
हाँ, तो तत्काल जनस्थान में जाओ और उसकी भार्या को बलपूर्वक घसीट कर ले आओ और उसे
अपनी पटरानी बनाओ".
"हे
भ्राता ! हे दशानन ! यदि तुम्हें मेरा परामर्श अच्छा लगा हो और यदि तुम उसे अपनी भार्या बनाना चाहते हो तो शीघ्रता
से अपना दाहिना पैर आगे बढ़ाओ".
" दे
दशानन ! बलशाली राम के रहते हुए तुम सीता
की ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकते. अतः कोई ऐसा उपाय खोज निकालों कि तुम उसका हरण
करने में सफ़ल हो जाओ. जितनी शीघ्रता से हो सके तुम उस सर्वांग सुन्दरी सीता को
अपनी भार्या बना लो ".`
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( पूर्व जन्म में शूर्पनखा एक अप्सरा थी.
अपने रूप और यौवन के बल पर देवताओं को रिझाना ही अप्सराओं का काम होता है. वह
उसमें पारंगत थी. इसी तरह राक्षसी बनने के बाद भी उसमें काम वेग उतना ही बना हुआ
था. ठीक इसी तरह उसका भाई भी वासना में सदैव लिप्त रहता था. और कोई परामर्श देने
के बजाए उसने यही परामर्श देना उचित समझा
था.अपनी कामवासना से जब वह रामजी तथा लक्ष्मण को प्रभावित नहीं कर सकी थी, इसीलिए
उसने सीता से बदला लेने का मानस बना लिया था. . एक लम्पट दूसरे लम्पट को इसी
तरह का परामर्श देता है.)
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रावण ने
शूर्पनखा की सारी बातों को ध्यान से सुना था. सुना था कि रामजी के अनुज लक्ष्मण ने
उसकी लाड़ली बहन के कान और नाक काट दिये है. उसने सीताजी के बारे में भी सुना. सुना
था कि इस भूमण्डल में उस जैसी दूसरी कोई स्त्री नहीं है. अपनी बहन के नाक-कान काटे
जाने का समाचार सुनकर उसे क्रोध हो आया था, उसने प्रतिशोध लेने के लिए मन भी बना
लिया था. सीताजी के सौंदर्य को लेकर वह कल्पना जगत में विचरण करने लगा था. बहन के
बातों और उलाहनों को सुनी-अनसुनी करते हुए वह गम्भीरता से विचार करने लगा था कि
किस तरह से वह सीताजी को प्राप्त कर सकता है.
सभागार में
उपस्थित सभी सभासदों की नजरें अपने राजा लंकेश के चेहरे पर जा टिकी थीं. उसके
चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ने और समझने का वे प्रयास कर रहे थे. उसके तमतमाये
चेहरे को देखकर तो यह कहा जा सकता था कि रावण अपनी बहन के अपमान का बदला ले कर
रहेगा. सभी को इस बात की प्रतीक्षा थी कि रावण अब कौन-सा निर्णय लेता है ?. संभव
है कि वह येन-केन-प्रकारेन वनवासी राम से प्रतिशोध लेने के लिए उनकी भार्या सीता
हरण जरुर करेगा.
रावण के
दरबार में ऐसा भयावह दृष्य पहली बार उपस्थित हुआ था, जब संसार के सबसे शक्तिशाली
रावण की बहन के नाक और कान काटे जाने का प्रकरण सामने आया था. रावण के इस अपमान को
सभी ने अपना स्वयं का अपमान समझा था. बात लज्जास्पद ही थी. सभी के सिर शर्म से झुक
गए थे. लेकिन मन ही मन प्रायः सभी राम से बदला लेने का मानस बना चुके थे.
एक सभासद ने
कहा-" महाराज ! इससे लज्जास्पद बात क्या हो सकती है कि महाबली की बहन की
सरेआम नाक-कान काट दिए गए?, इसे हम सहन नहीं कर सकते. यदि आप मुझे आज्ञा दें तो
मैं राम और लक्ष्मण के हाथ-पैर बांधकर आपके समक्ष लाकर खड़ा कर सकता हूँ".
प्रायः सभी
सभासदों ने अपनी वीरता का बखान करते हुए रावण के क्रोध को और भड़का दिया .
सभी की राय
जानने के बाद रावण ने सभा को विसर्जित करते हुए कहा-" मैं आप लोगों की
भावनाओं को भली-भांति समझ रहा हूँ. राम से
बदला हमें लेना है, जरुर लेना है. राम ने किसी और को नहीं बल्कि विश्वविजयी रावण
को चुनौती दी है. मुझे उसकी चुनौती स्वीकार है".
तमतमाते हुए
रावण अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और अपने कक्ष की ओर चल पड़ा. रावण के जाते ही
सभागार में सन्नाटा पसर गया.
नककटी
सूर्पनखा को पक्का विश्वास हो चला था कि उसका तीर निशाने पर लगा है. देर-सबेर ही
सही रावण वह सब कुछ करेगा, जैसा कि उसने सोच रखा था. वह दिन निश्चित ही आएगा,जब
दुष्ट रावण का सर्वनाश होगा.
प्रसन्नवदन
शूर्पनखा अपने आवास में लौट गयी.
००००
अपने कक्ष
में आकर सबसे पहले उसने सीताहरण रूपी कार्य पर ही विचार किया. उसने उसने प्रतिहारी
को आज्ञा दी वह प्रवेश द्वार बंद कर दे और किसी को भी अंदर नहीं आने दे. ऐसा कहकर
वह अपने कक्ष के अन्दर चक्कर काटते हुए इस गंभीर विषय पर गहराई से मनन करने लगा
था.उसे एक-के- बाद एक वे घटनाएं याद
आती रहीं, जब-जब उसने सुन्दर स्त्रियों का हरण किया था.
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दर्शनीयां हि यां रक्षः कन्यां स्त्रीं वाथ
पश्यति ; हत्वा बन्धुजनं तस्या विमाने तां रुरोध सः(3/661)
वह जिस कन्या अथवा स्त्री को दर्शनीय
रूप-सौंदर्य से युक्त देखता, उसके रक्षक बन्धुओं का वध करके उसे विमान में बिठाकर
रोक लेता था. इस प्रकार उसने नागों, राक्षसों, असुरों, मनुष्यों, यक्षों और दानवों
की बहुत-सी कन्याओं को हरकर विमान पर चढ़ाकर ले आया था.
यस्मादेष परक्यासु रमते राक्षसाधमः तस्माद वै
स्रीकृतेनैव वधं प्राप्स्यति दुर्मतिः ( 20/662)
"सभी ने उसको श्राप देते हुए कहा
था-" यह नीच निशाचर परायी स्त्रियों के साथ रमण करता है इसलिये स्त्री के
कारण ही इस दुर्बुद्धि राक्षस का वध होगा." स्त्रियों का विलाप करते हुए उसे
श्राप देती हुई उन सभी स्त्रियों और कन्याओं के चेहरे उसकी आँखों के समक्ष घूमने
लगे थे.
उसे यह भी याद हो आया कि एक रात्रि में वह
कैलाश पर्वत पर छावनी डालकर ठहरा हुआ था. रात्रि को चन्द्रमा को उदित होते हुए
उसने देखा. उस समय कदम्ब, बकुल (मौलसरी), चम्पा, अशोक, पुनाग (नागाकेशर), मन्दार ,
आम, पाडर, लोध, अर्जुन, केतक, तगर, नारियल,प्रियाल और पनस आदि के वृक्ष अपनी
पुष्पों से पर्वत-शिखर के वनप्रान्त को उद्भास्सित कर रहे थे.मधुर कण्ठवाले
कामार्त किन्नर अपनी कामिनियों के साथ रागयुक्त गीत गा रहे थे. वहीं कुबेर के भवन
से अप्सराओं के गीत की मधुर ध्वनि सुनायी दे रही थी.
संगीत की मीठी-मीठी तान, भांति-भांति के
पुष्पों की मादकगंध और मंद-मंद गति से प्रवाहित होती शीतल वायु के स्पर्ष ,रजनी की
मधुरवेला और चन्द्रमा के उदय-उद्दीपन के सभी उपकरणॊं के कारण वह काम के अधीन हो
गया था.
इसी समय अप्स्सराओं में श्रेष्ठ सुदरी, पूर्ण
चन्द्रमुखी रम्भा दिव्य आभूषणॊं से विभूषित होकर उस मार्ग से आ निकली. उसके अंगों
में दिव्य चन्दन का अनुलेप लगा था और केशपाश में पारिजात के पुष्प गुँथे शुए थे.
दिव्य पुष्पों से अपना श्रृंगार करके वह
प्रिय-समागमरूप दिव्य उत्सव के लिए जा रही थी.
उसके रूप-लावण्य़ को देखकर वह कामदेव के बाणॊं
का शिकार हो गया और जाती हुई रम्भा का हाथ
पकड़ लिया और उसके साथ बलात्कार करने कौ उद्धत हुआ था. तभी रम्भा ने विलाप करते हुए मुझसे कहा -"मैं
उसका गुरुजन हूँ, पिता तुल्य हूँ. मैं आपके भाई कुबेर के पुत्र नलकुबर की प्रेयसी
हूँ. अतः एक रिश्ते से मैं आपकी पुत्रवधू हूँ. मेरे साथ बलात्कार करना कहाँ तक
उचित है".
तब मैंने उसको प्रत्युत्तर देते हुए कहा
था-" तुम अपने को मेरी पुत्रवधू बता रही हो, वह ठीक नहीं है. यह नाता-रिश्ता
उन स्त्रियों के लिए लागू होता है, जो किसी एक पुरुष की पत्नी हो. तुम्हारे देवलोक की तो स्थिति
दूसरी ही है. वहाँ सदा से यही नियम चला आ रहा है कि अप्सराओं का कोई पति नहीं
होता. वहाँ कोई एक स्त्री के साथ विवाह करके नहीं रहता" कहते हुए मैंने रम्भा
के साथ समागम किया था.
नलकूबर को जब इस बात का पता चला तो उसे बहुत क्रोध आया. उसने हाथ में जल लेकर,
अपनी प्रेयसी के समक्ष राक्षसराज रावण को
श्राप दिया -" तुम्हारी इच्छा न रहने
पर भी रावण ने तुम पर बलपूर्वक अत्याचार किया है. अतः वह आज से दूसरी किसी ऐसी
युवती से समागम नहीं कर सकेगा.जो उसे नहीं चाहती हो,
यदा ह्यकामां कामार्तो धर्षयिष्यति योषितम ;
मूर्धा तु सत्पधा तस्य शकलीभविता तदा.(55/671)
अर्थात- यदि वह कामपीड़ित होकर उसे न चाहने
वाली युवती पर बलात्कार करेगा तो तत्काल उसके मस्तक के साथ टुकड़े हो जायेंगे.
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बीती घटना
याद आते ही रावण गंभीरता से सोच रहा था कि
उसे सीताजी हरण के लिए उद्धत होना चाहिए अथवा नहीं?. रावण के दस शीश थे और दस
मस्तिस्क. किसी भी गंभीर परिस्थिति पर वह दस कोण से विचार कर सकता था.
पहला
मस्तिस्क "काम" का था. सीताजी के अनुपम सौंदर्य की जानकारी मिलते ही वह
सक्रीय हो गया था. वह सीताजी के हरण के पक्ष में था.
दूसरा
मस्तिस्क "क्रोध" से आविष्ट था. बात ही कुछ ऐसी थी कि क्रोध हो आना
स्वभाविक था. वह राम से बदला लेने के पक्ष में था.
तीसरा
मस्तिस्क" लोभ "से संचारित होता था. वह किसी भी कीमत पर सीताजी को पाने
के पक्ष में था.
चौथा
मस्तिस्क "मोह" का था. सौंदर्य के प्रति आकर्षित होना इसका स्वभाव था.
अतः मोह का उन्माद बढ़ चुका था.वह भी सीता जी के हरण के पक्ष में था.
पांचवा
मस्तिस्क "गौरव" का था. वह भी सीताहरण के पक्ष में था. वह हर हाल में
अपना गौरव अक्षुण्य बनाए रखने के पक्ष में था.
छंटा
मस्तिस्क "ईर्ष्या" था. रावण के रनिवास में एक-से-बढ़कर एक अनेक सुंदर
युवतियाँ थीं, लेकिन कोई सीताजी जैसी नहीं थी. अतः उसमें ईर्ष्यालू का होना
स्वभाविक था.
सातवां
मस्तिस्क "मन" का था. शुरु से ही वह चंचल प्रवृत्ति का था. सीताजी की
चाह में वह और भी चंचल हो उठा था.
आठवां
मस्तिस्क" ज्ञान " का था. जो आरम्भ से ही इस कुविचार के पक्ष में नहीं
था. वह बार-बार आग्रह करते हुए प्रार्थना करता रहा था कि यह विचार ही विनाश को
आमंत्रित करेगा. अतः ऐसा कोई भी अनैतिक काम नहीं करना चाहिए.
नौवां
मस्तिस्क "चित्त" का था. सीताजी के अनुपम सौंदर्य की बात सुनकर वह
विचलित-सा हो गया था. और बार-बार भटकता हुआ उस ओर जा पहुँचता था, जहाँ सीताजी रह
रही थीं.
दसवां
मस्तिस्क "अहंकार" का था. त्रैलोक विजयी रावण का अहंकार वैसे ही सातवें
आसमान पर था. वह किसी को भी अपने समतुल्य मानने से सदैव नकारता रहा है.
केवल और
केवल "ज्ञान मस्तिस्क " इस पक्ष में कतई नहीं था कि सीताजी का अपहरण
किया जाए. उसने स्पष्ट संकेत दे दिये थे, कि इस कुकर्म को करना माने संपूर्ण विनाश
को आमंत्रित करना होगा. उसने पुनः चेतावनी देते हुए रावण को समझाना चाहा और
कहा-" मैं जानता हूँ कि लाख समझाने
के बाद भी तुम समझने वाले नहीं हो. इसमें तुम्हारा क्या दोष. यह तुम्हारा जन्मजात
गुण है कि तुम किसी का कहा कभी नहीं मानते. कोई निर्णय लेने के पहले एक बार और सोच
लेना. पाप की ओर बढ़ता कदम फ़िर वापिस नहीं लौटता...लेकिन तुम्हारा अहंकार तुम्हें
ऐसा करने से रोक नहीं पाएगा, यह मैं जानता हूँ".
केवल ज्ञान
को छोड़कर सभी मस्तिस्कों ने बारी-बारी से अपने विचार प्रकट करते हुए सीता-हरण के
पक्ष में निर्णय सुना दिया था. सभी ने एक स्वर में रावण से कहा-" राम के
चमत्कारों से प्रभावित होने की न तो उसे जरुरत है और न ही बल में वह तुमसे अधिक
श्रेष्ठ है. वह तो केवल एक वनवासी है, जो कंद, मूल.फ़ल और साग-भाजी खाकर अपने जीवन
का निर्वहन करता है और घास-फ़ूंस की झोपड़ी में रहता है. उसमें इतनी हिम्मत नहीं है
कि वह सौ योजन लहलहाते-गरजते सागर को लांघकर लंका पहुँच सकता है".
" रही
बात श्रापों की, तो उसे तुम भूल जाओ. अब तक तुमने सहस्त्रों युवतियों के साथ समागम
किया है. यदि श्राप लगना ही होता, तो अब तक फ़लीभूत हो चुका होता. अतः तुम्हें
भयभीत होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है".
" राम
के पास न तो सेना है और न ही कोई उसकी सहायता के लिए आगे आएगा. तुम बलवान हो,
शक्तिशाली हो, तुम्हारा नाम लेते ही देव, किन्नर, दानव, राक्षस आदि भय से पत्ते की
तरह कांपने लगते हैं. तुम्हारा सामना करने की किसी में भी हिम्मत नहीं है".
आठ सिरों (
आठ विचार.) में केवल एक अकेला "ज्ञान" था, जो बार-बार चिल्ला-चिल्ला कर
उसे चेतावनी देते हुए कह रहा था -" रावण- ! जगत जननी सीता का अपहरण करना
तुम्हें भारी पड़ जाएगा. तुम बैठे-ठाले विनाश को आमंत्रण दे रहे हो. अतः सावधान,
ऐसा काम तुम कदापि नहीं करोगे". लेकिन आठ सिर ( विचार.) इस बात के समर्थन में
थे कि उसे इस योजना पर यथाशीघ्र कार्यवाही करनी चाहिए.
आठ शीशों का
समर्थन प्राप्त होते ही उसने निर्णय कर लिया था कि वह इस काम को प्राथमिकता के साथ
पूरा करेगा.
जब इस बात
पर उसकी बुद्धि स्थिर हो गयी, तब वह अपनी रथशाला में गया और उसने अपने सारथी को
आज्ञा दी कि वह शीघ्रता से रथ तैयार करे.
उसका सुवर्ण
रथ " पुष्पक
विमान "
अनेकानेक रत्नों से सुसज्जित था. शीघ्रता से रथ पर आरुढ़ होकर वह समुद्र तट पर गया.
समुद्र तट पर पहुँचकर उसकी शोभा देखने लगा. कहीं पर कदलीवन, कहीं पर नारियल के
पेड़, तो कहीं पर साल,ताल,तमाल ,अगरु, कहीं तमाल आदि के सुन्दर फ़ूलों से भरे हुए
दूसरे पेड़ उस तट की शोभा बढ़ा रहे थे.
अत्यन्त
नियमित आहार करने वाले बड़े-बड़े महर्षियों, नागों, सुपर्णो (गरुड़ों), गन्धर्वों और
सहत्रों किन्नरों से उस स्थान की बड़ी शोभा हो रही थी. इसी तरह कामविजयी सिद्धों,
चारणों, मुनियों, महात्माओं से भी सागर का तट सुशोभित हो रहा था.
सिन्धु का
यह तट समुद्र के तेज से उसकी तरंगमालाओं से
लहरा रहा था. वहाँ हंस, क्रौंच तथा मेंढक सब ओर फ़ैले हुए थे और सारस उसकी
शोभा बढ़ा रहे थे.
आकाशमार्ग
से यात्रा करते हुए दैत्यराज रावण ने अपने-अपने वाहनों में बैठे गन्धर्वों और
अप्सराओं को देखा.
कहीं उत्तम
जाति के वृक्षों के बड़े-बड़े वन थे. कहीं तमाल के फ़ूल खिले हुए थे तो कहीं समुद्र
के तट पर मोतियों के ढेर सूरज की गर्मी पाकर सूख रहे थे. कहीं ऊँची-ऊँची पर्वत
श्रेणियाँ, तो कहीं पानी के झरने दिखाई दे रहे थे. तो कहीं दिव्य आभूषणॊ और
पुष्पमालाओं से अलकृत रूपसी अप्सरायें वहाँ विचर रही थीं. कितनी ही देवांगनाएँ उस
सिन्धु तट पर आस-पास बैठी हुईं वार्तालाप
कर रहीं थीं.
नदियों के
स्वामी समुद्र के दूसरे तट पर आकर उसने एक रमणीय वन के भीतर पवित्र और एकान्त
स्थान में आश्रम में प्रवेश किया जिसमें उसका मामा मारीच राक्षस निवास करता था.
शरीर से तो वह राक्षस ही बना रहा, लेकिन
उसने अपने शरीर को काले हिरण की मृगछाला से लपेट रखा था. गले में रुद्राक्ष की
मालाएँ पहन रखी थी. रामजी के बिना फ़र वाले बाण से समुद्र तट पर फ़ेक दिए गए मारीच
को आत्मज्ञान हो चुका था कि वह रामनाम का जप करे जिसमें उसका कल्याण है.
अपने स्वामी
को पुनः आया देखकर मारीच ने उसका आथित्य-सत्कार किया. आथित्य-सत्कार के बाद उसने
विनम्रता से जानना चाहा-" हे दशानन ! आपका मेरे आश्रम में पुनः आना इस बात का
संकेत है कि तुम किसी महत्वपूर्ण कार्य योजना बना कर आए हो? क्या मैं जान सकता हूँ
कि तुम्हारा किस काम के लिए पुनः इतनी जल्दी आना हुआ है?".
मारीच के इस
तरह पूछने पर, बातचीत करने में कुशल दशानन ने अत्यन्त विनीत हो कर कहा-" हे
तात ! इस समय मैं बहुत दुःखी हूँ. इस दुःख
की अवस्था में तुमसे बढ़कर और कोई और सहारा देने वाला इस संसार में नहीं है".
" तुम
भली-भांति जानते ही हो कि जनस्थान में मेरा भाई खर, महाबाहु दूषण तथा त्रिशिरा
सहित असंख्य मांसभोजी चौदह हजार राक्षस निवास करते थे. ये सभी कुशल योद्धा, नाना
प्रकार के अस्त्र-शस्त्र चलाने में निपुण थे, उन सभी को राम ने युद्ध के मैदान में
मार गिराया है".
" राम
को उसके पिता ने कुपित होकर उसे पत्नी सहित राजमहल से निकाल दिया है. वही राम मेरी
राक्षस-सेना का घातक है. वह शील रहित, तीखे स्वभाव वाला, मूर्ख, लोभी.
अजितेन्द्रीय. धर्मत्यागी, अधर्मा और प्राणियों के अहित में लगा रहता है. बिना
किसी बैर-विरोध के उसने मेरी बहन शूर्पनखा के नाक-कान काट कर उसका रूप ही बिगाड़
दिया है. उसके साथ सर्वांग सुंदरी सीता भी
है जो उसकी धर्मपत्नी है और एक भाई भी है जिसका नाम लक्ष्मण है".
"हे
मामा मारीच ! जिस विधर्मी राम ने मेरी बहन
का रूप बिगाड़ा है, उससे बदला लेने के लिए मैं उसकी पत्नी का बलपूर्वक हरण करना
चाहता हूँ. तुम मेरी सहायता करो". रावण ने मामा मारीच से कहा.
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रावण की नानी का नाम ताड़का था. ताड़का का
विवाह शुण्ड नामक राक्षस से हुआ था. यह
अपने पति के सहित दो पुत्र-सुबाहु और मारीच, अयोध्या के समीप सुन्दर वन में निवास
करते थे. इस रिश्ते से मारीच रावण का मामा हुआ.
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सत्यं
ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यम अप्रियम :
प्रियं च नानूतम ब्रूयात, एष धर्मः सनातन
राक्षसराज
रावण की बातों को सुनकर कुशल तेजस्वी मारीच ने कहा-" हे राजन ! सत्य बोलना चाहिये,
प्रिय बोलना चाहिये किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिए. प्रिय किन्तु असत्य नहीं
बोलना चाहिए, यही सनातन धर्म है".
" हे
राक्षसराज ! सदा प्रिय बोलने वाले पुरुष तो सर्वत्र सुलभ होते हैं, परन्तु जो
अप्रिय होने पर भी हितकर हो, ऐसी बात के कहने और सुनने वाले दोनों ही दुर्लभ हैं.
तुम्हारा हृदय बहुत ही चंचल है, अतः निश्चित ही तुम श्रीरामचन्द्र जी को बिलकुल
नहीं जानते. वे पराक्रम और गुणॊं में बहुत बड़े तथा इन्द्र और वरूण के समान हैं.".
" हे
तात ! मैं तो यही चाहता हूँ कि समस्त राक्षसों का कल्याण हो. ऐसा न हो कि
श्रीरामचन्द्र जी अत्यन्त कुपित होकर समस्त लोकों से राक्षसों को और राक्षसी
संस्कृति को शून्य कर दें".
"हे
दशकंध ! मेरी बातों को ध्यान लगाकर सुनों.
यह सत्य है कि जनकनन्दिनी सीता, तुम्हारे जीवन का अन्त करने के लिए ही उत्पन्न
हुईं हैं. यदि तुमने उनका अपहरण करने की
जिद नहीं छोड़ी तो समूची लंका पर बड़ा संकट आ जायगा. यदि ऐसा हुआ तो तुम जैसे
स्वेच्छाचारी सहित लंकापुरी के समस्त राक्षस एक साथ नष्ट हो जाएंगे".
" हे दशानन ! जो राजा तुम्हारी जैसी नीच सोच वाला,
दुराचारी, स्वेच्छाधारी, पापपूर्ण विचार रखने वाला और छोटी बुद्धि रखने वाला होता
है, वह अपने स्वयं के सहित समूचे राष्ट्र का विनाश कर डालता है".
" तुम्हें किसने बता दिया कि उन्हें पिता ने त्याग
दिया है...राजमहल से निकाल दिया गया है. अरे मूर्ख ! न तो उन्होंने धर्म की
मर्यादा का किसी तरह त्याग किया है और न वे लोभी हैं और न ही दूषित विचार वाले. वे
सदा प्राणियों के हित में सदा तत्पर रहते हैं".
" सत्य तो यह कि उनकी विमाता कैकेई ने उनके पिता दशरथ
जी को धोखे में डालकर श्रीरामचन्द्र जी को चौदह वर्ष के लिए बनवास और अपने बेटे
भरत के लिए राजसिंहासन मांग लिया. कैकेई
ने इस वनवास की अवधि में एक कठिन शर्त और जोड़ दिया कि उन्हें इन चौदह वर्षों की अवधि में "विशेष उदासी" होकर रहना
होगा. वे जानते थे कि पिता ने उन्हें वन जाने का आदेश नहीं दिया है, लेकिन राम ने
उसे आदेश मान लिया, जबकि वह था ही नहीं. माता कैकेई और पिता दशरथ का प्रिय करने की
इच्छा वे स्वयं राज्य और भोगों का
परित्याग करके वनगमन के लिए निकल पड़े हैं".
"हे तात ! श्रीरामचन्द्र जी क्रूर नहीं हैं. वे मूर्ख
और अजितेन्द्रीय भी नहीं हैं. अतः तुम्हें उनके बारे में उलटी बातें नहीं सोचनी
चाहिए. वे साक्षात धर्म के प्रतिमान स्वरूप हैं. वे साधु और सत्यापराक्रमी हैं. वे
देवताओं के अधिपति हैं. वे सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं."
" हे दशानन ! श्रीराम प्रज्ज्वलित अग्नि के समान है.
बाण ही उस अग्नि की ज्वाला है. धनुष और तलवार ही उनके लिए ईंधन का काम करते हैं.
अतः तुम्हें युद्ध के लिए सहसा उस अग्नि में प्रवेश नहीं करना चाहिए".
" श्रीरामजी
की पत्नी जनकदुलारी सीता का तेज अप्रमेय है. वे प्रज्ज्वलित अग्नि की ज्वाला के
समान असह्य है. फ़िर तुममे इतनी शक्ति नहीं है कि तुम उनका अपहरण कर सको . याद
रखना, कभी सपने में भी सीताजी पर बलात्कार करने की सोच भी मन में मत लाना".
" यदि तुम अपने जीवन का, अपने सुखों का और राज्य का
चिरकाल तक उपभोग करना चाहते हो तो श्रीरामजी से बैर मत पालना. कुछ करने से पहले
रामजी की शक्तियों की जांच-परख कर लेना, इसी में तुम्हारा हित होगा."
" हे निशाचरराज !
मै समझता हूँ कि तुम्हारा श्रीरामचन्द्रजी के साथ युद्ध करना उचित नहीं है.
व्यर्थ का उद्धोग करने से तुम्हें कोई लाभ होने वाला नहीं है. जिस दिन युद्ध में
तुम्हारे ऊपर उनकी दृष्टि पड़ जाएगी, उसी दिन तुम अपने जीवन का अन्त समझना".
बार-बार रामचन्दजी के नाम का गुणानुवाद करता देख रावण का
क्रोध सांतवें आसमान तक जा पहुँचा. तमतमाए रावण ने अपने मामा मारीच को चेतावनी
देते हुए कहा-" मामा ! तुम एक मामुली वनवासी को, जो वन-वन भटकता हुआ,
महत्वहीन जानवरों को मारता फ़िरता है, बार-बार "जी" कहकर उसे महिमामण्डित
कर रहे हो, यह उचित नहीं है. यदि तुम इसी प्रकार उसका महिमामण्डन करते रहोगे तो
तुम एक क्षण भी जीवित नहीं बचोगे. मैं अपने खड़ग से तुम्हारी गर्दन धड़ से अलग कर
दूँगा. समझे ?".
" कहाँ वह एक मामुली-सा तुच्छ मनुष्य और कहाँ लंकापति
रावण ?, जिसके आगे देवता ही क्या यक्ष, गन्धर्व,नाग, किन्नर आदि नत्मस्तक होकर
मेरे आदेश की प्रतीक्षा में सिर झुकाए खड़े रहते हैं. तुम मेरे ही सामने उसकी बड़ाई
करते थकते नहीं?. रावण ने अपना रोष प्रकट
करते हुए मारीच से कहा.
" हे दशानन ! श्री शब्द के तीन अर्थ होते हैं -शोभा,
लक्ष्मी और कांति. तीनों ही प्रसंग और संदर्भ के अनुसार अलग-अलग अर्थों में उपयोग
होता है. "श्री "शक्ति का स्वरूप है. राम को जब श्रीराम कहते हैं तो राम
शब्द में ईश्वरत्व का बोध होता है. "श्री" शब्द उनके व्यक्तित्व,
कार्य, महानता और अलौकिकता को प्रकट करता
है. सही माने में "श्री" पूरे ब्रह्माण्ड की प्राण-शक्ति है. वेद में
परमात्मा को ’अनंत श्री वाला" कहा गया है. मनुष्य अनंत-धर्मा तो नहीं हो
सकता, इसलिए वह असंख्य "श्री" वाला तो नहीं हो सकता, लेकिन पुरुषार्थ
से ऐश्वर्य हासिल करके वह "श्रीमान" बन सकता है. इस जगत में उत्पादन, निर्माण, संसाधन,शक्ति, बल,तेज सहित
जितने भी कार्य हैं, सभी में "श्री" की उपस्थिति रहती है. सूर्य,
चन्द्रमा, धरती की गति, समयचक्र, प्राण-शक्ति और आत्मशक्ति में "श्री"
का ही अस्तित्व होता है. प्रलय और सृष्टि दोनो "श्री" के कारण से होते
है".
" हे मेरे प्रिय भांजे ! तुम लंकापति, असुरराज, लंकेश्वर,
दशानन,दशकंद आदि नामों से सारे संसार में जाने जाते हो. क्या तुम्हें किसी ने
श्रीरावण, श्री लंकापति आदि कहकर संबोधित किया है?,नहीं न ? क्योंकि तुम इसके लायक थे ही नहीं. न तुमने कभी
कोई ऐसा काम ही किया है कि जनमानस तुम्हें
"श्री" जैसी पदवी से सुशोभित करता?".
" तुम महाबली हो, सुवर्ण नगरी के अधिपति हो,अकूत
धन-संपदा के धनी कुबेर तुम्हारा दास है, इन्द्रजीत जैसा बलवान-वीर तुम्हारा पुत्र
है, तुम्हारे पास वायु में उड़ान भरने वाला पुष्पक विमान है, तुम मायावी शक्ति से युक्त हो, तुम विद्वान हो,
रावण संहिता और शिव तांडव जैसे ग्रंथों के रचियता हो, परम शिव भक्त हो, तुमने तीनों लोकों को अपने अधिकार में ले रखा
है, इतना कुछ होने के बाद भी कभी तुम्हारे नाम के आगे किसी ने "श्री"
लगाकर सम्बोधित नहीं किया, क्योंकि तुम उसके लायक ही नहीं थे".
" हे लंकापति
रावण ! श्रीराम धर्म के मूर्तिमान स्वरूप हैं. वे पराक्रमी होने के साथ ही साधु
प्रकृति के हैं. जैसे इन्द्र समस्त देवताओं के अधिपति हैं. उसी तरह श्रीराम भी
सम्पूर्ण जगत के राजा हैं. वे इस जगत के नियंता हैं, पालनहार हैं, विष्णु के
अवतारी राम हैं. वे स्वयं श्रीपति हैं. तुम अहंकार में यह भूल कर सकते हो, लेकिन
मैं नहीं. वे तो मेरे आराध्य हैं, फ़िर मैं
उनके नाम के आगे "श्री" लगाकर सम्बोधित करता हूँ, तो कोई अनुचित और
अनैतिक काम नहीं कर रहा होता हूँ".
" हे भांजे ! लगता है तुम अपना विवेक खो चुके हो. मुझे
धमकी देने से कुछ होने जाने वाला नहीं है.. मैं तुम्हारा मामा हूँ. मामा होने के
नाते तुम्हें उचित परामर्श देना मेरा दायित्व बनता है. इसमें बुरा मानना उचित नहीं
है"
यदीच्छसि चिरं भोक्तुं मा कृथा रामविप्रियम.
"हे दशानन ! मैं तुम्हें श्रीराम जी की शक्तियों के
विषय में अपना अनुभव बतला रहा हूँ. एक समय की बात है मैं अपने पराक्रम के अभिमान
में पर्वताकार होकर पृथ्वी के चक्कर लगा रहा था. उस समय मुझमें एक हजार हाथियों का
बल था".
" मेरा शरीर नील मेघ के समान था. राक्षस योनि में जन्म
लेने के कारण मैं ऋषियों के मांस का भक्षण करता था और दण्डकारण्य में सिंह भी
भांति गर्जना करता हुआ विचरता रहता था.
मेरे इस आचरण से उस वन में निवास कर रहे धर्मात्मा महामुनि विश्वामित्र को मुझसे
भय सताने लगा. वे राजा दशरथ जी के पास श्रीरामजी को लेने गए, उस समय उनकी आयु
मात्र बारह वर्ष की थी. राजा दशरथ रामजी अपनी विशाल सेना के साथ स्वयं होकर मुनि के साथ जाने के
लिए उद्धत हो गये थे, लेकिन विश्वामित्र जी ने उन्हें यह कहकर मना कर दिया था, कि
राम भले ही बालक हैं लेकिन वे राक्षस ( मेरा. ) का दमन करने में सक्षम हैं.
क्योंकि उन्होंने रामजी की शक्तियों को पहचान लिया था ."
"
यज्ञभूमि के पास श्रीराम अपने धनुष की टंकार करते हुए खड़े हो गये और मैं मेघों के
समान काले शरीर से बड़े घमंड के साथ उस आश्रम में घुसा. मैं बलवान तो था ही, साथ ही मुझे वरदान भी मिला
हुआ था कि कोई देवता मुझे मार नहीं सकते. मेरे भीतर प्रवेश करते ही
श्रीरामचन्द्रजी की दृष्टि मुझ पर पड़ी. मुझे देखते ही उन्होंने सहसा एक धनुष उठा
लिया और बिना किसी घबराहट के उस पर डोरी चढ़ा दी. मैं मोहवश उन्हें बालक समझ कर
उनकी अवहेलना करता रहा और बड़ी तेजी के साथ
विश्वामित्र की यज्ञवेदी की ओर दौड़ा".
" इतने
ही में श्रीराम ने एक ऐसा तीखा बाण छोड़ा, जो शत्रुओं का संहार करने वाला था, परंतु
उस बाण की चोट खाकर मैं मरा तो नहीं, लेकिन सौ योजन दूर समुद्र में आकर गिर
पड़ा".
" हे
तात ! उस समय श्रीरामचन्द्र जी मुझे मारना नहीं चाहते थे, इसीलिए मेरी जान बच गयी.
उनके बाण के वेग से मैं भ्रांतचित्त होकर दूर फ़ेंक दिया गया और समुद्र के गहरे जल
में गिरा दिया गया. इस प्रकार मैं मरने से बचा. उस समय तो वे बालक ही थे. उन्हें
अस्त्र चलाने का पूरा अभ्यास भी नहीं था, तो भी उन्होंने मेरे सभी सहायकों को मार
गिराया था".
" अतः
हे भांजे ! मेरे मना करने के बाद भी तुम रामजी का विरोध करोगे तो तुम पर घोर
विपत्तियाँ में पड़ जाओगे और अन्त में अपने प्राणॊं से भी हाथ धो बैठोगे. यदि तुम
मिथिलेशकुमारी सीता का हरण कर ले जाओगे, तो समूची सुवर्ण नगरी लंका का विनाश होता
हुआ तुम्हें अपनी आँखों से देखना पड़ेगा.
हे राजन ! निः संदेह तुम्हारे सामने वह दृश्य भी आयेगा कि लंकापुरी में
बाणॊं का जाल-सा बिछ जायेगा".
" हे
दशानन ! परायी स्त्री के संसर्ग से बढ़कर दूसरा कोई महान पाप नहीं है, तुम्हारे
अन्तःपुर में हजारों युवती स्त्रियाँ हैं, उन्हीं में अपना अनुराग रखो और अपने कुल
की रक्षा करो, राक्षसों के प्राण बचाओ तथा अपना मान, प्रतिष्ठा, उन्नति, राज्य और
प्यारे जीवन को नष्ट न होने दें".
" हे
राजन ! मैं तुम्हारा हितैषी हूँ. यदि मेरे बार-बार मना करने के बाद भी तुम
हठपूर्वक सीता अपहरण करोगे तो तुम्हारी विशाल सेना सहित तुम्हारा भी अन्त हो
जाएगा".
"हे असुरराज ! पिछली घटना याद रहने के बाद भी मैं
हठपूर्वक अपने दो असुर साथियों के साथ दण्डकारण्य में हिरण का रूप धारण करके विचरण
कर रहा था. निकट ही श्रीरामजी का आश्रम था, जहाँ वे अपनी भार्या सीता तथा अपने
अनुज लक्ष्मण के सहित आश्रम बनाकर निवास कर रहे थे. उन्होंने हमें एक साधारण मृग
समझकर छॊड़ दिया , लेकिन मैं दण्डकारण्य़ के भीतर धर्मानुष्ठान में लगे ऋषियों को
मारकर उनका रक्त पीता और मांस खाना मेरा नित्य काम था".
" वन में आए महाबली रामजी को मैंने एक सामान्य तपस्वी
जानकर, उन पर अत्यन्त कुपित होकर उनकी ओर दौड़ा. हम तीनों को आता देख उन्होंने अपने
विशाल धनुष को खींच कर तीन बाण छोड़े, जो गरुड़ और वायु के समान शीघ्रगामी और
शत्रुओं के प्राण लेने वाले थे. मैं तो किसी तरह अपनी जान बचाकर भाग निकला, लेकिन
मेरे दोनों साथी वहीं मारे गए".
" इस बार फ़िर मुझे श्रीरामजी के बाणों से किसी तरह
छूटकारा पाकर नया जीवन मिला. उसी दिन से मैंने अपना राक्षसीय-कर्म को तिलान्जलि
देकर साधुवृत्ति को अपनाया और यहाँ आश्रम बनाकर तपस्या करने लगा.. हे राजन ! जब
मैं एकान्त में बैठता हूँ तो मुझे रामजी के दर्शन होते हैं. और तो और वे मुझे सपने
में भी दिखाई देने लगे हैं".
" हे निशाचरराज ! मैं रामजी का प्रभाव जानता हूँ. अतः
मैं इस कार्य में तुम्हारा साथ नहीं दे सकता. एक बार मैं तुम्हें पुनः समझाकर कह
रहा हूँ कि श्रीरामचन्द्र जी बड़े तेजस्वी, महान, आत्मबल से सम्पन्न तथा अधिक
बलशाली हैं. वे समस्त राक्षस-जगत का संहार कर सकते हैं. अतः उनसे बैर पालना कहाँ
तक उचित है? मेरी मानों तो लंका लौट जाओ और अपने परिवार के सदस्यों सहित राक्षसों
को यमलोक जाने से बचा लो".
" हे भांजे ! तुम मेरे बन्धु हो. तुम्हारा और तुम्हारे
परिवार का हित चाहना मेरा परम कर्तव्य बनता है".
" बस मारीच बस , बहुत समझा चुके तुम मुझे. इस बार मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं सीता का
अपहरण करने के पश्चात ही लंका लौटूँगा. रावण
जीवन में जो भी निर्णय लेता है, काफ़ी सोच-समझ कर लेता है. मेरा कोई भी निश्चय कभी
बेकार नहीं गया. उसी का परिणाम है कि रावण ने तीनों लोकों को अपने अधीन कर लिया
है. वायु-अग्नि, शनि आदि देवताओं को मैंने अपनी पुरी में बंदी बनाकर रखा है.
पृथ्वी के नीचे के सात लोक- अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल, उसी
प्रकार पृथ्वी के ऊपर के सात लोकों- भूः,
भुवः,स्व, मह, जन,तप, सत्यलोक पर मेरा आधिपत्य स्थापित हो चुका है. देवता मेरा
नाम लेने भर से कांपने लगते है. ऐसे बलशाली रावण को तुम एक वनवासी का भय दिखाकर
डराने की कोशिश कर रहे हो?".
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हिंदू
मान्यताओं के मुताबिक जिस तरह भू लोक और स्वर्गलोक का ब्रह्मांड में अस्तित्व है
उसी तरह से पाताल लोक का भी अस्तित्व है. हिंदू महाग्रंथों और
पुराणों के मुताबिक ब्रह्मांड में तीन लोक हैं जिसे त्रैलोक्य कहा जाता है. इसे कृतक
त्रैलोक्य,
महर्लोक
और अकृतक त्रैलोक्य कहा जाता है.
कृतक
त्रैलोक्य को त्रिभुवन भी कहा जाता है इसके तीन भेद हैं- भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक. जितनी दूर
तक सूर्य,
चंद्रमा
आदि का प्रकाश जाता है भूलोक कहलाता है. इसके अलावा पृथ्वी और सूर्य
के बीच के लोक को भुवर्लोक कहते हैं यह सभी ग्रहों और नक्षत्रों का क्षेत्र है. तीसरा स्वर्लोक इसे
स्वर्गलोक भी कहा जाता है. यह सूर्य और ध्रुव के बीच का भाग है जिनके
बीच चौदह लाख योजन की दूरी का अंतर है. इसी में स्पतर्षि
मंडल आता है।
क्या है पाताल लोक
पुराणों
में पाताल लोक से जुड़ी कई कहानियों का वर्णन मिलता है.पुराणों के
अनुसार भूलोक यानि पृथ्वी के नीचे सात लोग स्थित है जिनमें सबसे निचला हिस्सा
पाताल लोक कहलाता है. कहा जाता है कि एक बार देवी पार्वती की
कान की बाली गलती से पाताल लोक में गिर गई थी. उन्होंने काफी इसे ढूंढ़ने की कोशिश
की लेकिन उन्हें इसका पता नहीं चला. भूलोक के नीचे रहने वाले शेषनाग को जब इसका
पता लगा तो उन्होंने क्रोधित होकर पाताल लोक से ही जोर की फुफकार मारी और पृथ्वी
के अंदर से गर्म जल की फुहार निकल पड़ी और इसी जल के साथ मणि (कान की बाली) भी
बाहर आ गई.
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" हे मारीच ! रावण
तुम्हें चेतावनी दे रहा है कि तुम मायावी मृग बनकर उस आश्रम में जाओ, जहाँ वह
वनवासी राम, सीता और लक्ष्मण के साथ निवास कर रहा है. तुम्हारा रूप देखकर
सीता मायावी मृग को मारकर मृग-चर्म लाने
को कहेगी. सीता की इच्छा पूर्ती के लिए राम उस मृग के पीछे जाएंगे, तब मैं उसकी
अनुपस्थिति में सीता का अपहरण कर लूँगा.
यदि तुमने मेरी आज्ञा नहीं मानी तो मैं अभी और इसी समय तुम्हारी गर्दन धड़ से अलग
कर दूँगा". कहते हुए रावण ने अपनी म्यान से चन्द्रहास खड़ग खींच कर बाहर निकाल
लिया.
कस न मरौं रघुपति सर लागें
मारीच जानता
था कि हठी रावण के आदेश का पालन नहीं करने का क्या परिणाम हो सकता है?. सच ही कहा
गया है कि शस्रधारी, भेद जानने वाला, स्वामी, कुटिल, धनाढ्य, वैद्य, बन्दीजन और
रसोइया, इन सबसे विरोध करने से कल्याण नहीं होता.
उसने मन-ही-मन निश्चय कर लिया था
कि एक दुराचारी, अत्याचारी, पापी के हाथॊं मरने की अपेक्षा रामजी के हाथों मरना
ज्यादा उचित होगा.
उसने दोनों
हाथ जोडकर कहा- " हे दशानन ! यदि तुम मेरे साथ जाकर श्रीराम के आश्रम से सीता
का अपहरण करोगे, तब न तुम जीवित बचोगे और न ही मैं जीवित बचूँगा और न ही तुम्हारी
सुवर्ण लंकापुरी रहने पाएगी और न ही वहाँ के निवासी राक्षस ही".
" हे
निशाचर ! तुम्हारे हाथों से मारे जाने की अपेक्षा मैं रामजी के हाथॊं मरना ज्यादा
श्रेयस्कर समझता हूँ. मैं तुम्हारी आज्ञा को शोरोधार्य करके सुवर्ण मृग बनकर रामजी
के आश्रम पर जाने के लिए तैयार हूँ." इतना कहकर उसने अपनी दोनों आँखें बंद कर
ली और हाथ जोड़कर किसी मंत्र का उच्चारण
किया. पलक झपकते ही वह एक सुन्दर मृग की काया में परिवर्तित होकर प्रकट हो गया.
उसने बड़ा ही
अद्भुत रूप धारण कर लिया था. उसके सींगों के ऊपरी भाग " इन्द्रनील" नामक
श्रेष्ठ मणि के बने हुए जान पड़ते थे. मुख मण्डल पर सफ़ेद और काले रंग के बूँदें चमक
रही थीं. मुख का रंग कमल के पुष्प का-सा
समान कोमल था. उसके कान लंबे चंपे के पत्ते के सदृष्य थे. गर्दन लंबी थी, उसी के
अनुसार उसकी टांगे भी लंबी थी. उसके खुर किसी मणि की तरह, पिंडलियाँ पतली और
पूँछ के ऊपर का रंग सतरंगी था. उसकी आँखे
गोल-गोल कजरारी और चमकीली थी, मानों काले रंग के दो हीरे चमक रहे हों. उसका पूरा शरीर तपे हुए सोने
की तरह चमचमा रहा था.
वह कभी अपनी लचकदार टांगों से चलता-इठलाता, कभी अपनी लंबी
गर्दन को विशेष मोड़ देकर पीछे पलटकर देखता, कभी अपनी रंग-बिरंगी और छोटी पूंछ को
बार-बार हिलाता, कभी दस-बारह फ़ीट लंबी छलांग लगाता, कभी किसी पृक्ष की ओट लेकर
अपने को छिपाता, कभी गुनगुनी धूप में जा खड़ा होता तो उसकी सुनहरी और चिकनी काया
सुवर्ण की भांति चमचमाती दिखाई देती. और जब वह चौकड़ी भरकर लंबी दौड़ लगाता, तो
देखते-ही देखते आँखों के सामने से ओझल हो जाता.
हिरण बने मायावी मारीच को देखकर रावण बहुत प्रसन्न हुआ.
उसका मनोहारी रूप देखकर रावण ठगा-सा खड़ा रह गया था. अब
शीघ्र ही उसकी मनोकामना पूर्ण होगी,यह सोचकर वह मन-ही-मन प्रसन्न हो रहा था.
ठुमुक-ठुमक कर चलता हुआ वह रावण के पास आ खड़ा हुआ. उसकी
सुवर्णिम काया को देखकर रावण उसकी पीठ पर हाथ घुमाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया.
देर तक वह उसे सहलाता रहा. अचानक उसने दौड़ लगा दी. अपनी लचीली टांगों के बल पर
लंबी छलांग लगाता हुआ वह वहाँ से भाग निकला. जब देर तक वापिस नहीं लौटा तो रावण की
खीज बढ़ने लगी थी. हृदय जोरों से धड़कने लगा था. उसे तो ऐसा भी सोचने पर विवश होना
पड़ा था कि मारीच ने उसके साथ धोखा किया है.
रावण ने अपने धनुष की प्रत्यंचा खींचकर खोजी बाण चढ़ाया और
छोड़ने ही वाला था, कि वह उसके सामने फ़िर आ खड़ा हुआ. विद्वान रावण उसकी इस चालाकी
से बहुत खुश हुआ. खुश हुआ यह जानकर कि जब वह मुझ जैसे को चकमा दे सकता है, तो
निश्चित ही राम को भी अच्छा खासा चकमा दे सकेगा.
विलम्ब होता देख
उसने मृग बने मारीच को आदेश देते हुए
कहा-" मारीच ! मेरा विमान तैयार खड़ा है, अब तुम्हें शीघ्रता से इस पर
आरुढ़ हो जाना चाहिए. अभी शुभ घड़ी भी चल रही है. ( उसकी सोच के अनुसार यह शुभ घड़ी और
शुभ कार्य था ) इस शुभ घड़ी में जितनी शीघ्रता से यह काम संपन्न हो जाए, उतना ही उत्तम होगा. अतः अब विलम्ब
नहीं करना चाहिए".
"जी जैसी आपकी आज्ञा" कहता हुआ मृग बना मारीच
रावण के साथ चला. कदमताल करता हुआ दुष्ट दैत्यराज रावण मन-ही-मन अत्यधिक प्रसन्न
हो रहा था. प्रसन्नता इस बात को लेकर कि वह शीघ्र ही सर्वांग सुन्दरी सीता का हरण
करके अपनी लंका ले जाएगा. वहीं मारीच के मन में खलबली मची हुई थी, कि शीघ्र ही वह
राक्षस योनि को त्यागकर यमलोक चला जाएगा".
शरीर चाहे जिस भी किसी प्राणी का हो, देहधारी मनुष्य का हो,
अथवा कीट-पतंगों का, सभी को अपने शरीर से बहुत प्यार होता है. शरीर चाहे किसी भी
व्याधि से ग्रसित हो, चेहरा-मोहरा खूबसूरत हो, भले ही आँखें भैंगी हो, बदसूरत हो,
उसे अपने नाशवान शरीर से बहुत प्यार होता है. यही स्थिति मारीच की भी थी. शीघ्रता
से वह भी अपने शरीर को त्यागना नहीं चाहता था. लेकिन चाहने मात्र से क्या होता है?
आदमी सोचता कुछ है और होता कुछ और ही है.
सहसा उसके मन में यह विचार भी मन में आया कि यह शरीर ज्यादा
दिनों तक साथ नहीं देगा. किसी न किसी व्याधि से ग्रसित होकर उसे तिल-तिल कर,
तड़प-तड़प कर प्राण त्यागने ही होंगे. अभी समय है. अतः समय रहते प्रभु के चरणॊं में
मन लगाऊँगा तो निश्चित ही मुक्ति मिलेगी. ऐसा उत्तम विचार आते ही उसका शरीर का मोह
जाता रहा. अपने नाशवान शरीर से ध्यान हटाते हुए अपना सारा ध्यान प्रभु
श्रीरामचन्द्र जी के चरणॊं से जोड़ दिया.
रामजी की मनभावन छवि ध्यान में आते ही उसने मन-ही-मन प्रणाम
किया और अपने आपसे कहने लगा-" हे दीनदयाल ! हे पुरुषोत्तम ! तुम्हें मेरा
बारम्बार प्रणाम..बारम्बार प्रणाम. मैंने अपने इस नारकीय जीवन में न जाने कितने
पापकर्म किये हैं. न जाने कितने भोले-भाले तपस्वियों और ऋषियों को मारा है. उनका
रक्त ही नहीं पिया है बल्कि उन्हें मारकर खा भी डाला है. मैं चाहकर ऐसे घृणित
कार्य करने की न भी सोचता, परन्तु जिस योनि में मैंने जन्म पाया था, उसी के अनुसार
मैंने आचरण किये हैं, इसमें भला मेरा क्या दोष? लेकिन जब पाप किये ही हैं, तो इसकी
सजा तो मुझे मिलनी ही चाहिए. निश्चित ही मैं मुझे नरक मिलेगा".
" हे प्रभु ! हे दीनदयाल ! मैंने जाने-अनजाने में
जो-जो भी पापकर्म किये हैं, उन सबके लिए मुझे क्षमा करेंगे. निश्चित ही इन
पापकर्मों में संलग्न रहते हुए मैंने कभी कोई पुण्य के कार्य नहीं किये है और न ही
मैंने कोई कड़ी तपस्या ही की है और न ही आपके नाम का गुणानुवाद ही किया है".
" आपके बिना फ़र वाले बाण से घायल होकर मैं दक्षिण के
समुद्र तट पर आ गिरा था. तभी मेरे मन में आपके प्रति सच्ची श्रद्धा और लगन लगी थी.
बस यही थोड़ा-सा सत्कर्म मैं कर पाया था,लेकिन मेरे न चाहने पर भी लंकापति के आदेश
पर मुझे फ़िर से पाप-कर्म में ढकेला जा रहा है".
" यदि मैं रावण की आज्ञा का पालन नहीं करता हूँ तो भी
बिना मृत्यु के मुझे मरना पड़ेगा. सीताजी के अपहरण हो जाने के बाद भी मुझे मृत्यु
को गले लगाना ही है. दोनों ही स्थिति में मुझे मरना ही है. रावण के हाथों से मारा
जाने से अच्छा होगा कि मैं आपके हाथों मारा जाऊँ. बस इसी इच्छा से मैंने पुनः
पापकर्म करने का मानस बनाया है".
रावण बड़ी व्यग्रता के साथ उसकी राह तक रहा था कि कब वह उसके
विमान में सवार होता है. विमान तैयार ही खड़ा था. यान के नजदीन आने के बाद मृग बना
मारीच उस पर ऊछलकर जा चढ़ा. तत्पश्चात रावण
भी उस रथ पर सवार हुआ और आकाश मार्ग में उड़ चला.
द्रुतगति से उड़ते हुए विमान में जहाँ रावण के मन में लड्डू
फ़ूट रहे थे, वहीं मारीच के पापकर्म पीछे छूट रहे थे.
रावण का वह दिव्य वायुयान, मन के गति से चलने वाला तथा अपने
स्वामी की इच्छानुसार चलने वाला तथा बिना कोई शोर मचाए चलने वाला था.
मार्ग में पहले की भांति वह यान अनेकानेक पर्वत-मालाओं को,
सघन वनों को, नदियों को और नगरों को पीछे छोड़ता हुआ दन्डकारण्य में जा पहुँचा.
शीघ्र ही उसे रामजी का पवित्र आश्रम दिखाई दिया.
रावण ने रामजी के पवित्र आश्रम से कुछ दूरी पर विमान को
उतरने की आज्ञा दी.
विमान से उतरकर रावण ने मारीच को गले से लगाया. उसकी पीठ को
थपथपाया, प्यार जताया और पुचकारते हुए कहा-"मारीच ! अब तुम जा सकते हो. तुम्हें क्या करना है, यह मैं पहले ही समझा
चुका हूँ. फ़िर भी एक बार उसे दोहरा रहा
हूँ. तुम होशियारी के साथ आश्रम में
प्रवेश करने की चेष्टा करोगे. सीता के सन्मुख जाने का प्रयास करोगे और अपनी
सुन्दरता से उसे प्रभावित करने की कोशिश करोगे".
"तुम्हारी सुन्दरता पर मुग्ध होकर वह राम से मृगचर्म
लाने का हठ करेंगी. राम उसकी इच्छा पूर्ति के लिए , धनुष-बाण लेकर तुम्हें मारने
के लिए दौड़ेगे. तुम अपने प्राण बचाने के लिए भागोगे. तुम इतनी दूर भागना कि सीता
अपनी सहायतार्थ राम को पुकारेगी, लेकिन उसकी आवाज राम तक नहीं पहुँचना चाहिए. तुम्हें इतनी दूरी तो जरुर बनाए रखना होगा. मैं
इस विशाल पेड़ के मोटे तने की ओट लेकर खड़ा रहूँगा. जैसे ही राम तुम्हारा पीछा करते
हुए तुम्हें मारने के लिए दौड़ लगाते हुए दूर निकल जाएँगे, मैं अपना काम
निर्विघ्नता के साथ पूरा कर लूँगा. समझे." मारीच को दिशानिर्देश देते हुए
रावण ने पुनः मारीच के गालों को सहलाते हुए स्नेह किया. उसका चुम्मा लिया, पीठ
थपथपायी और कहा-"जाओ मामा मारीच. यह हमारी अन्तिम भेंट होगी. शिवजी तुम्हारा
कल्याण करे".
हिरण बने मारीच के रावण की ओर देखा. फ़िर रामजी का स्मरण
करते हुए उनकी छवि को अपने मन के दर्पण में निहारते हुए गम्भीरता से सोचने लगा.
"रामजी और रावण दोनों की राशि समान है. दोनों के नाम "रा" से
प्रारंभ होते है, एक "रा" रामजी को देवत्व प्रदान करता है तो दूसरा
" रा" याने रावण को दुष्टों की श्रेणी में रखा जाता है, क्योंकि दोनों
का स्वभाव एक दूसरे से विपरीत है. यही कारण है कि संपूर्ण संसार में रामजी की
पूजा-अर्चना की जाती है. घरों-घर उनके चरित्र का गुणानुवाद किया जाता है. रामलीला
का मंचन किया जाता है. उनके आदर्शों पर चलने का प्रयास किया जाता है."
"रामजी कितने परम दयालु, क्रोध को जीतने वाले और
विशेषकर ब्राह्मणॊ को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, उनका यथोचित आदर करते हैं.
दीन-दुखियों के प्रति उनके मन में दया का भाव प्रबल रहता है. वे धर्म के रहस्यों
को जानते हैं. उनकी इन्द्रियाँ सदैव वश में रहती है. अपने कुलोचित आचार, दया,
उदारता और शरणागत रक्षा आदि में उनका मन लगा रहता है. वे क्षत्रिय धर्म के पालन को
अधिक महत्व देते और मानते हैं. अतः प्रसन्नता के साथ उसमें संलग्न रहते हैं. उनके
मन में कभी भी अमंगलकारी निषिद्ध कर्म में
प्रवृत्ति नहीं रहती".
" राम श्रेष्ठ गुणों से युक्त हैं. अपने सद्गुणॊं के
कारण प्रजा में अत्यन्त ही प्रिय हैं. वे संपूर्ण विद्याओं के व्रत में निष्नात,
वेदों के छहों अंगो के ज्ञाता हैं. धनुर्विद्या में वे श्रेष्ठ हैं. अपनी जन्मभूमि
के प्रति अनुरागी राम को श्रेष्ठ ब्राहणों द्वारा उत्तम शिक्षा प्राप्त हुई है.
उन्हें धर्म, काम और अर्थ का सम्यक ज्ञान है. वे अपनी स्मरणशक्ति से संपन्न
प्रतिभाशाली हैं. वे लोक-व्यवहार के संपादन में समर्थ और समयोचित धर्माचरण में
कुशल हैं ".
"राम न केवल धर्माचरण में कुशल हैं, बल्कि वे
शास्त्रों के ज्ञाता, दूसरों के मनोभावों को जानने में भी कुशल हैं. साधु-संतो,
ऋषि-मुनियों की आज्ञा पालन करने में सदा तत्पर रह्ते हैं, वहीं वे दुष्ट जनों को
दण्ड देने में बिलकुल भी हिचकते नहीं हैं. वे सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का
संधान करने में निपुण, हैं..आलस्य से कभी घिरे न रहकर वे सजग बने रहते हैं.
संपूर्ण लोक में धनुर्वेद के सभी विद्वानों में श्रेष्ठ हैं. शत्रु सेना पर आक्रमण
और प्रहार करने के साथ ही सेना संचालन में विशेष दक्षता प्राप्त है. संग्राम में
शत्रु ही क्या देवता भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते. अपने क्रोध को किस तरह
नियंत्रित किया जाता है, वे भली-भांति जानते हैं. दर्प और ईर्ष्या से वे कोसों दूर
हैं. धरती की क्षमाशीलता के अनुरुप ही उनमें क्षमाशीलता कूट-कूट कर भरी हुई
है".
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कितने आश्चर्य की बात
है कि दोनों का नाम "रा" से शुरु होता है. "रा" शब्द का संबंध
चित्रा नक्षत्र से है, ऐसे लोग संवेदनशील होते है. रामजी और रावण में कुछ बातें समान
थीं. दोनों की कुंडली में कुछ ग्रहों की स्थिति समान थी, जिसके कारण दोनों ही
महाविद्वान और शिवाजी के निकट थे, लेकिन कुछ असमानता भी थी, जो एक को देवता और
दूसरे को दानव बना देती है."
"रामजी और रावण की कुण्डली में लग्न में बृहस्पति यानि
गुरु ग्रह बैठे हुए है, लगन में बैठा गुरु ज्ञानवान और विद्वान बनाता है, ये गुण
दोनों में था. श्रीराम और रावण दोनों ही ज्ञानी और विद्वान है. श्रीराम और रावण
दोनों में मंगल मकर में राशि में बैठा हुआ है. ज्योतिष में मकर राशि में मंगल उच्च
स्थान का माना जाता है और पराक्रम को बढ़ाने वाला होता है. श्रीराम और रावण दोनों
ही पराक्रमी है.
"श्रीराम और रावण
दोनों की कुण्डली में शनि तुला राशि में है. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार तुला में
शनि उच्च माना जाता है.
श्रीराम के मुंडली में
चन्द्रमा कर्क राशि में है और रावण की कुंडली में भी चन्द्रमा कर्क राशि में है.
कर्क राशि चंद्रमा की स्वयं की राशि मानी जाती है.
श्रीराम और रावण की
कुंडली में इतनी समानता होने के बाद भी दोनों में शत्रुता हुई.
श्रीराम की कर्क लग्न
की कुंडली है. लग्न का स्वामी चन्द्रमा अपने ही घर में बैठा हुआ है. ये स्थिति
व्यक्ति को क्षमाशील और न्यायप्रिय बनाती है. लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति
यानि गुरू भी बैठे हुए हैं. कर्क में बृहस्पति को उच्च का माना जाता है. उच्च का
गुरू व्यक्ति को भावुक और विद्वान और साधु स्वभाव प्रदान करता है. ऐसे लोग
मर्यादित जीवन जीना पसंद करते हैं. श्रीराम में भी ऐसे ही गुण थे.
श्रीरामजी के कुंडली
में सातवें घर में मंगल उच्च का है. सातवें घर का संबंध जीवनसाथी यानि पत्नी से भी
होता है, ज्योतिष में सातवें घर का कारण शुक्र को माना जाता है. श्रीराम की कुंडली
में सातवें घर का कारक शुक्र है, जिस पर राहु की दृष्टि है और केतु साथ बैठा हुआ
है, और सातवें घर में मंगल है, इन दोनों के प्रभाव की वजह से माता सीता से श्रीराम
को अलग होना पड़ा और वियोग भरा जीवन जीना पड़ा.
रावण की कुंडली में
लग्न में सूर्य बैठा हुआ है. ज्योतिष में सूर्य को ग्रहों का राजा माना जाता है.
लग्न में सूर्य अपनी स्वराशि में होने से उसकी स्थिति और मजबूत है. ऐसे लोग राजा
के समान जीवन जीते हैं और उनका आत्मविश्वास बहुत प्रबल होता है, लेकिन लग्न में
बैठे सूर्य पर मंगल की दृष्टि होने के कारण व्यक्ति के अंदर अहंकार पैदा होता है
और आगे चलकर परेशानी का कारण बनता है और यही रावण के साथ हुआ. उसका अहंकार उसके
अंत का कारण बना.
रावण की कुंडली में
गुरु में ग्रह की एक राशि आठवें घर में यानि आठवें घर का स्वामी गुरु अपने घर से
छटे स्थान लग्न में बैठा हुआ है. शनि पांचवें घर, नवें घर और बारवें में बैठे हुए
चन्द्रमा को देख रहा है. चन्द्रमा बारवें घर में यानि व्यय स्थान में बैठा है.
ज्योतिष में चन्दमा को स्त्री का प्रतीक माना जाता है और स्त्री यानि सीता के कारण
राम और रावण का युद्ध हुआ. छटे घर को शत्रु
का घर भी माना जाता है, जहां मंगल उच्च का बैठा हुआ. ये ग्रहों का समीकरण
रावण के विनाश का कारण बना. दोनों शिव भक्त थे. श्रीरामजी ने युद्ध से पहले शिवजी
की पूजा की थी. रामेश्वरम इसका प्रमाण है. रावण भी बहुत बड़ा शिवभक्त था. रावण के
वजह से ही भगवान शिव का एक ज्योतिर्लिंग देवघर में बाबा वैद्यनाथ के नाम से
विख्यात है.
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रावण एक विशाल वृक्ष के तने की ओट में छिपकर अवसर की तलाश
में था. वहीं मृग बना मारीच एक-एक पग बड़ी सावधानी और सतर्कता के साथ आगे बढ़ा रहा
था. उसने जीवन भर मांस का भक्षण किया था, अतः मृग की योनि में रहकर घास आदि खाने
का अभ्यास नहीं था. वह घास खाने का नाटक बड़ी कुशलता के साथ करते हुए धीरे-धीरे
आश्रम की ओर बढ़ा रहा था.
रामजी एक विशाल शिला पर विराजमान होकर चारों ओर अपनी दृष्टि
घुमाकर निरीक्षण कर रहे थे.इस समय उनके उद्धान में तरह-तरह के रंग-बिरंगे पुष्प खिले हुए थे. एक दूरी बनाते हुए सीताजी
बहुतेरे पुष्पों को इकठ्ठा कर मालाएँ गूथने में व्यस्त थीं. लक्ष्मण जी ने वन से
बहुत-सारा ईंधन काट कर ले आए थे,और अब वे बड़े-बड़े लठ्ठों को कुल्हाड़ी से काट-काट
कर इकठ्ठा करते जा रहे थे.
रामजी काफ़ी सतर्क थे. उन्हें इस बात का आभास हो गया था कि
कोई राक्षस रूप बदलकर आश्रम की ओर धीरे-धीरे पग बढ़ाता हुआ चला आ रहा है. वे
सर्वज्ञ थे. समझ गए थे कि मृग के रूप में मारीच चला आ रहा है. मॄग बना मारीच आश्रम
के प्रवेश-द्वार पर पहुँचा. उसने अपनी गर्दन को घुमाकर-फ़िराकर देखा, फ़िर अगला पग
बढ़ाते हुए आश्रम के अंदर प्रवेश किया. रामजी ने उसे आता देख तो लिया था, लेकिन उसे
देखा-अनदेखा करते हुए वे अपने बाण को धार देते रहे.
मृग को आश्रम के अंदर प्रवेश करने से किसी ने नहीं रोका.
वैसे भी अनेक मृग झुंड-की-झुंड अन्दर आते ही रहते थे. मृगों का प्रतिदिन आश्रम में
आना-जाना बना ही रहता था. सीताजी उन मृगों को कोमल-कोमल घास खिलाया करती थीं.
सुस्वादु मीठा जल पिलाया करती थीं. और उनकी पीठ पर स्नेह से हाथ भी फ़िराती रहती
थीं. जिस दिन मृगों के आने में विलम्ब हो जाता था तो वे उदास हो जाया करती थीं.
रामजी के अत्यन्त निकट से गुजरते हुए वह सोचने लगा था
-" रामजी चाहते तो वे कभी का मुझे मारकर यमलोक पहुँचा चुके होते, लेकिन
उन्होंने मुझे मारा नहीं,बल्कि जीवित रखा. वे भली-भांति जानते थे कि मेरी मृत्यु
का समय अभी आया नहीं है. वे मुझे मारीच राक्षस के रूप में नहीं, बल्कि हिरण के रूप
में मारना चाहते रहे होंगे, तभी तो उन्होंने मुझे जीवन-दान दिया था. स्वयं विधाता
के हाथों मारा जाना, सभी के भाग्य में नहीं होता. निश्चित ही मैं बड़भागी हूँ जो आज
विधाता के तीखे बाणों को खाकर मृत्यु को प्राप्त करुँगा" उसने मन ही मन रामजी
को प्रणाम किया और एक-एक पग बढ़ाये हुए वह उधर चला,जहाँ सीताजी फ़ूलों की मालाएँ
गूँथने में व्यस्त थीं.
एहि मृग कर अति सुंदर छाला
मृग बना मारीच कुछ
इठलाते हुए, कुछ मतवाली चाल चलता हुआ, एक-एक पग धीरे-धीरे बढ़ाता हुआ सीताजी के
समीप से होकर जाने लगा. माला गूँथने वे व्यस्त सीताजी उसे आता हुआ नहीं देख पायी थीं.
कुछ दूर जाकर फ़िर वह उसी रास्ते वापिस लौटने लगा. तब जाकर उन्होंने इस अद्भुत मृग
को देखा. देखते ही वे आश्चर्य में पड़ गईं थी और सोचने लगी थीं कि विधाता ने
निश्चित ही इस मृग को बनाने में अपनी पूरी
क्षमता और कारीगरी को उपयोग में लाया होगा. देखो तो !, इसकी मुलायम और सुवर्णमयी त्वचा, सूर्य के प्रकाश
में किस तरह झिलमिला रही है, कि आँखें चुंधिया जाती हैं. उसकी सुवर्णमयी त्वचा के
ऊपर मोतियों को काढ़कर बनाए गए गोल-गोल छल्ले, इसकी सुन्दरता को द्विगुणित कर रहे
हैं. इसके सींगों के ऊपरी भाग " इन्द्रनील" नामक श्रेष्ठ मणि के बने हुए
जान पड़ते हैं. मुख मण्डल पर सफ़ेद और काले रंग के बूँदें चमक रही हैं. मुख का रंग
कमल के पुष्प का-सा कोमल है. उसके कान और
गर्दन लंबी हैं, उसी के अनुसार उसकी टांगे भी लंबी हैं. उसके खुर किसी मणि की तरह,
पिंडलियाँ पतली और पूँछ का रंग सतरंगी है. उसकी आँखे गोल-गोल कजरारी और चमकीली
हैं, मानों काले रंग के दो बड़े-बड़े हीरे
चमक रहे हों. इसका पूरा शरीर ही तपे हुए सोने की तरह चमचमा रहा है".
" इसका
रूप अद्भुत है. इसकी शोभा अवर्णनीय है. इसकी बोली भी बड़ी कितनी सुन्दर है. विविध
अंगों से सुशोभित यह अद्भुत मृग ने मेरे मन को मोहित कर लिया है. यदि यह मृग जीवित
अवस्था में पकड़ में आ जाय तो एक आश्चर्य की वस्तु होगा और सबके हृदय में विस्मय
उत्पन्न कर देगा".
" जब
हमारे वनवास की अवधि पूरी हो जायगी और हम पुनः अपना राज्य पा लेंगे, उस समय यह मॄग
हमारे अन्तःपुर की शोभा बढ़ायेगा".
सीता जी ने
अपने दोनों हाथ बढ़ाकर उसे पकड़कर दुलार करना चाहा, लेकिन चालाक मॄग उछल कर दूर जा
खड़ा हुआ. उन्होंने माला गूंथना छोड़ दिया.
मृग को पता न चले कि कोई उसके पीछे आ रहा है, यह सोचकर, वे दबे पाँवों उस मृग के पीछ-पीछे
चलीं, लेकिन वह मृग चालाक ही नहीं था बल्कि धूर्त भी था.
जब वह उनकी
पकड़ में नहीं आया तो उन्होंने पति श्रीराम
और देवर लक्ष्मण को हथियार लेकर आने के लिए पुकारने लगीं.
सीताजी के
इस तरह पुकारे जाने पर रामजी और लक्ष्मण को संदेह हुआ कि वे किसी संकट से ग्रसित न
हो गई हों. वे शीघ्रता से अपने धनुष और बाण लेकर दौड़ते हुए आए. रामजी ने जानना
चाहा . हे देवी! तुम्हारा इस तरह पुकारने
का अभिप्राय क्या है? क्या कोई संकट आन खड़ा हुआ है?". रामजी ने जानना चाहा.
आनहु चर्म
कहति वैदेही.
एक मधुर
मुस्कान के साथ उन्होंने मृग की ओर अपनी तर्जनी दिखाते हुए कहा- " हे
पुरुषश्रेष्ठ ! देखिए तो सही, यह मृग कितना सुन्दर और आकर्षक है. ऐसा मृग मैंने
पहली बार देखा है. यदि कदाचित यह श्रेष्ठ मृग, जीते-जी पकड़ा न जा सके तो इसे मारकर
इसका चमड़ा प्राप्त कर लेना चाहिए. आप अभी
मेरे साथ घास-फ़ूंस की बनी हुई चटाई पर बैठते रहे हैं, लेकिन अब मैं मरे हुए मृग का सुवर्णमय चमड़ा
बिछाकर आपके साथ बैठना चाहती हूँ".
" हे
स्वामी ! अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए मुझे अपने स्वामी को काम पर लगाना उचित
प्रतीत नहीं होता और न ही यह न्यायसंगत है. लेकिन इस मृग के शरीर ने मेरे हृदय में
विस्मय उत्पन्न कर दिया है. इसीलिए मैं इसे पकड़कर लाने के लिए आपसे निवेदन करती
हूँ.". सीता जी ने रामजी से अनुरोध करते हुए कहा.
रामजी उस
मृग के बारे में सब कुछ जानते थे. जानते थे कि मारीच सोने का मृग बनकर हमारे आश्रम
में किस उद्देश्य को लेकर आया है. उन्होंने उसे आश्रम में प्रवेश करते हुए देख भी
लिया था, लेकिन अनजान बने रहे थे.
सीताजी के
अनुरोध को सुनते हुए उन्होंने उस मृग को देखा और कहा-" हाँ सीते हाँ !
तुम्हारा कहना सही है. देखो तो इसकी सुनहरी रोमावलियाँ और सींग इन्द्रनील मणि के
समान है. उदयकाल के सूर्य की-सी कान्ति और नक्षत्रलोक की भाँति बिन्दुयुक्त तेज से
मेरी आँखें भी चुंधिया रही है. इसके अद्भुत रूप को देखकर मेरे मन में भी लोभ
उत्पन्न होने लगा है कि इसे किसी भी तरह पकड़ लिया जाना चाहिए". रामजी ने सीता
को संबोधित करते हुए कहा.
सीताजी को
यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव होने लगा था कि इस मृग ने रामजी को भी अपने
रूप-रंग से लुभा लिया है.
सीताजी से
प्रेरित होकर हर्ष से भरे हुए रामजी ने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा-" हे अनुज
लक्ष्मण ! वैदेही के मन में इस मृग को पाने के लिए प्रबल इच्छा जाग उठी है. वास्तव में इसका रूप
है भी बहुत सुन्दर. अपने रूप की इसी श्रेष्ठता के कारण ही यह मृग आज मेरे हाथों
मारा जाएगा".
" हे
सुमित्रानन्दन ! देवराज इन्द्र के नन्दनवन में और कुबेर के चैत्ररथ वन में भी कोई
ऐसा मृग नहीं होगा, जो इसकी समानता कर सके. फ़िर पृथ्वी लोक में तो कदापि हो ही
नहीं सकता. इसकी टेढ़ी और सुचिर रोमाचलियाँ इस मृग के शरीर का आश्रय ले सुनहरे
बिन्दुओं से चित्रित हो, बड़ी शोभा पा रही है. देखो तो इसके मुख की शोभा
इन्द्रनीलमणि के समान जान पड़ता है. इसका उदर शंख और मोती के समान सफ़ेद है. यह
अवर्णनीय मृग किसके मन को नहीं मोह लेगा?.
" हे
अनुज ! मुझे तो ऐसा आभास हो रहा है कि यह कोई मायावी राक्षस ही होगा, जो रूप बदलकर
इस आश्रम में घुस आया है. हमें इस दण्डकवन में निवास करते हुए काफ़ी समय व्यतित हो
गया है,लेकिन ऐसा विचित्र मृग हमने कहीं नहीं देखा".
" हे अनुज ! ये मृग सुन्दर तो है ही. ऐसा ही एक मॄग
आकाश में भी विद्धमान है, जिसे "मृगशिरा (नक्षत्र) के नाम से जाना जाता
है. दोनों ही सुन्दर और दिव्य मृग हैं.
आकाश वाले मृग को हम"तारामृग" और दूसरे को "महिमृग" कह
सकते हैं. निश्चित ही हमारे आश्रम में विचर रहे इस मृग को देखकर मुझे लग रहा है कि
यह मायावी मृग ही होना चाहिए. अब जो भी
हो, मुझे इसका वध करना ही होगा".
" हे सुमित्राकुमार ! वैदेही इस मृग चर्म को पाने के
लिए कितनी उत्कण्ठित हैं. निश्चित ही मैं इस मृग को जीवित अथवा मरा हुआ लाने के
लिए जा रहा हूँ".रामजी ने लक्ष्मण को समझाते हुए कहा.
" भैया ! एक मायावी मृग के लिए आपको इतना अधीर होने की
आवश्यकता नहीं है. मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि यह दानव मारीच ही है, जो
रंग-रूप बदलकर आया है. निश्चित ही यह कोई कार्य-योजना बनाकर आया होगा. मेरा तो यह
भी अनुमान है कि इस मायावी मृग को भेजने के
पीछे दुष्ट दशानन की कोई चाल होनी चाहिए". लक्ष्मण ने कहा.
" हे सौमित्र ! तुम्हारा अनुमान सही हो सकता है. लेकिन
जानकी ने इसे जीवित अथवा मार कर इसकी मृग-छाला लाने का अनुरोध मुझसे कहा है. फ़िर
तुम तो जानते ही हो इस वनवास की अवधि में इन्होंने मुझसे किसी वस्तु को प्राप्त
करने के लिए कभी नहीं कहा. अतः इनकी इच्छापूर्ति के लिए मुझे इस मृग को जीवित
अवस्था में या मृत अवस्था में लाना ही होगा".
" हे अनुज ! तुम भली-भांति जानते ही हो कि दण्डकारण्य़
में अनेकानेक राक्षस निवास करते हैं. वे सभी मायावी हैं. अतः सीता की सुरक्षा का
पूरा दायित्व तुम्हारा होगा. अतः तुम्हें
अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता होगी. मैं शीघ्र ही इस मृग को मारने के
पश्चात, इसका चमड़ा लेकर लौट आऊँगा".
" हे लक्ष्मण ! तात जटायु बहुत ही बलवान और
सामर्थ्यशाली हैं. अतः तुम उनके साथ बने रहकर
सावधान रहना. मिथिलेशकुमारी सीता को अपने संरक्षण में लेकर प्रति क्षण सब
दिशाओं में रहने वाले राक्षसों की ओर से
चौकन्ने बने रहना".
" हे अनुज ! इस वन में पहले वातापि नामक एक राक्षस
रहता था. वह महात्माओं और तपस्वियों का तिरस्कार करते हुए कपटपूर्ण उपाय से उनके
पेट में पहुँच जाता था.फ़िर उनका पेट फ़ाड़कर बाहर निकल जाया करता था. इस तरह उसने कई
महात्माओं को मार डाला था".
" एक
दिन वह महात्मा अगस्त्य जी के पेट में पहुँच गया. अब वाह पेट फ़ाड़कर बाहर आना चाहता
था लेकिन नहीं निकल पाया. तब मुस्कुराते हुए अगस्त्यजी ने कहा-" वातापे !
तुमने बिना सोचे-विचारे इस जीव जगत में बहुत से श्रेष्ठ ब्राह्मणॊं को मार डाला.
उसी पाप से अब तुम पच गए हो. इस तरह पापी वातापि मारा गया".
" हे
अनुज ! जिस प्रकार वातापि महात्मा अगस्त्य जी के द्वारा मारा गया, ठीक उसी तरह आज
यह मायावी मारीच मेरे हाथों मारा जाएगा, तुम
निश्चिन्त रहो. बस तुम्हें चौकन्ने रहकर सीता की रक्षा में संलग्न रहना
होगा". रामजी ने लक्ष्मण को समझाते हुए कहा .
रामजी और लक्ष्मण जी के बीच चल रही वार्ता को
मारीच ध्यान से सुन रहा था. सुन रहा था कि राघव ने निश्चय कर लिया है कि वे अब
मुझे निश्चित ही जीवित नहीं छोड़ेंगे. उसने पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ रामजी का दिव्य स्वरूप
देखा. उन्हें मन ही मन प्रणाम किया. तभी
उसने उन्हें अपनी ओर आते देखा. देखा कि रामजी मेरी ओर ही आ रहे है. वह तत्काल भाग
खड़ा हुआ.
०००००
वह कभी सरपट
भागता. कभी लंबी छलांग लगाता हुआ वह भाग रहा होता था. कभी कुछ दूर तक भागता, फ़िर
रुकता और पलटकर देखता कि रामजी उससे कितनी दूर है. पास दिखाई देते तो वह अपनी पूरी
क्षमता के साथ फ़िर दौड़ लगा लेता.
कभी किसी
सघन पेड़ की ओट लेकर अपने को छिपाने का प्रयास करता. लेकिन वह रामजी की पैनी दृष्टि
में छिपा नहीं रह सका. रामजी ने अपने धनुष की प्रत्यंचा को खींचा, बाण चढ़ाया, तब
तक तो वह काफ़ी दूर निकल गया था.
मायावी मृग
कभी इतना निकट दिखाई देता कि उसे हाथ से पकड़ा जा सके, लेकिन वह मायावी मृग
वहाँ होता नहीं था. कभी डरा हुआ-सा, तो
कभी घबराया हुआ सा दिखाई देता. कभी आकाश में उछलता दिखाई देता. रामजी बराबर उसका
पीछा कर रहे थे. मायावी मारीच मन ही मन में इस बात को लेकर अत्यधिक प्रसन्न हो रहा
था कि जिसे प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े तपस्वी, बड़े-बड़े सिद्धपुरुष, महात्मा,
साधु-सन्यासी, ऋषि-मुनि वर्षों तप कर उनके दर्शन प्राप्त करने के लिए कड़ी तपस्या
करते हैं, फ़िर भी उन्हें रामजी दर्शन नहीं दे पाते, आज मैं उसी रामजी को अपने पीछे
दौड़ा रहा हूँ.
दौड़ा-भागी का खेल खेलते-खेलते रामजी कुपित तो हो रहे थे,
साथ में थकान का भी अनुभव करने लगे थे. थककर चूर होते हुए उन्होंने एक विशाल और
घने पेड़ का आश्रय ले हरी-हरी घासवाली भूमि पर खड़े हो गए. तभी उन्होने देखा, मृगों
का एक झुण्ड पास ही घास चर रहे थे, वह मायावी मृग उनके बीच में जाकर खड़ा हो गया.
असंख्य मृगों के बीच वह आसानी से अपने स्वर्णिम काया के झिलमिलाते रंग के कारण अलग
ही दीख पड़ता था. रामजी ने जैसे ही बाण का संधान करना चाहा, वह अदृष्य हो गया.
फ़िरि फ़िरि प्रभुहिं बिलोकिहौँ
मायावी मारीच की प्रसन्नता यह सोचकर द्विगुणित हो उठी थी कि
ऐसा दुर्लभ अवसर मुझ जैसे नीच और घृणित राक्षस को मिल रहा है जिसने अपने जीवन में
केवल पाप ही पाप किए हैं. न जाने कितने लोगों को मारकर उनका रक्त पिया है तथा मांस
खाया है, उसके पीछे श्रीराम जी दौड़े चले आ रहे हैं. जो संसार को अपनी माया से भ्रम
में डालकर उलझाए रखते हैं, मुझ जैसा क्षुद्र प्राणी आज उन्हें भ्रमित कर रहा है.
वह यह सोचकर और भी प्रसन्नता के साथ इठलाने लगा था कि संसार में शायद ही मुझ जैसा
कोई भाग्यशाली होगा, जिसके पीछे स्वयं परमात्मा, बिना पादुका पहिने, मुझे मारने
अथवा जीवित पकड़ने के लिए लंबी-लंबी दौड़ लगा रहे हैं.
मृग का पीछा करते हुए रामजी को अपने बचपन की स्मृतियां याद
हो आयीं,जब वे छोटा-सा धनुष और बाण लेकर मॄग का पीछा किया करते थे. वे कभी
ठुकुक-हुमुक कर चलते. कभी दौड़ लगाते हुए
वे उसके पीछे भागते, लेकिन मृग उन्हें छकाते हुए पूरी वाटिका के चक्कर लगाने के
लिए विवश कर देता था. कभी दौड़ लगाते हुए गिर भी पड़ते. धनुष और बाण अलग-अलग दिशाओं
में गिर जाते. पूरा शरीर धूल-धूसरित हो जाता. फ़िर उठने का प्रयास करते, और अपना
धनुष-बाण खोजने लगते. उनकी नटखट लीलाओं को देखकर पिता अपनी हँसी नहीं रोक पाते.
उनका आनंद द्विगुणित हो उठता.
जैसे ही वृक्ष-समूह से होकर मृग बना मारीच निकला, उसे देखकर
तेजस्वी रामजी ने उसे मार डालने का निश्चय किया. तब क्रोध में भरे हुए रामजी ने
तरकस से सूर्य के समान तेजस्वी एवं शत्रु
संहारक बाण को धनुष पर रखा. सर्प के समान सनसनाता हुआ वह प्रज्ज्वलित एवं तेजस्वी
बाण, जिसे स्वयं ब्रह्मदेव ने बनाया था, लक्ष्य लेकर छोड़ दिया.
उस तेजस्वी बाण ने मृगरूपधारी मारीच के शरीर को चीरकर उसके
हृदय को विदीर्ण कर दिया था. उसकी चोट से अत्यन्त आतुर हो वह राक्षस ताड़ के वृक्ष
जितनी उँचाइयों तक आकाश में उछला और छटपटाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा. पृथ्वी पर
पड़ा-पड़ा वह भयंकर गर्जना करने लगा.
लछिमन कर प्रथमहिं ले नामा
:: पाछे सुमिरेसि मन महुँ रामा.
मरते समय
उसका कृत्रिम शरीर त्याग दिया था और अपने पुराने स्वरूप में प्रकट हो गया था.
प्राण त्यागने से पूर्व वह जोर-जोर से "हा सीते ! "हा लक्ष्मण"
कहकर चिल्लाने लगा.उसकी हृदय विदारक चीत्कार से पूरा वन-प्रांत कांपने-सा लगा. न
केवल वन प्रांत कांप उठा था.बल्कि उस कर्कश और तेज आवाज को सुनकर भगदड़-सी मच गई
थी. हरी-हरी घास चरते हिरणों के झुण्ड डर कर भागने लगे थे. जिसको जिधर स्थान
मिला,उधर भागने लगे. पेड़ों पर बैठे पक्षी विचित्र ध्वनियों को निकाल कर आकाश में
उड़कर मंडराने लगे थे. कई शाखा-मृग पृथ्वी पर गिर पड़े थे. कपटी और धूर्त मारीच की
चीत्कार की कर्कश आवाज रामजी के आश्रम तक भी जा पहुँची थी..
प्राण
त्यागते समय मारीच ने अपने शरीर को बहुत बड़ा बना लिया था. भयंकर दिखाई देने वाले
और भूमि पर छटपटाते और लोटते मारीच को देखकर रामजी को अपने अनुज लक्ष्मण की कही
हुई बातें याद आने लगी थी. वे बार-बार उन्हें समझा रहे थे कि भैया.! यह मारीच की
माया का बिछाया जाल है और कुछ नहीं, लेकिन उन्होंने तब लक्ष्मण की बात को
सुना-अनसुना कर दिया था.
धूर्त मारीच
जितनी तेज ध्वनि से चिल्ला सकता था, उससे द्विगुणित आवाज निकालते हुए चिल्लाने
लगा "हा सीते ! हा लक्ष्मण ! हा सीते
! हा लक्ष्मण. मारीच के इस तरह चिल्लाने से रामजी के रोंगटे खड़े हो गए. वे इस बात
पर सोचने के लिए विवश हो गए थे कि इन शब्दों को सुनकर सीता की क्या दशा होगी?
लक्ष्मण की क्या दशा होगी?. यह सोचते हुए श्रीरामजी के मन में विषादजनित तीव्र भय
समा गया.
विषादजनित
तीव्र भय को मन में लिए रामजी उतावली के साथ अपने आश्रम की ओर लौटने लगे.
००००००
जाहु वेगि
संकट अति भ्राता.
उस समय वन
में जो आर्तनाद हुआ,उसे सुनते हुए सीताजी ने उसे अपने पति के स्वर से मिलता-जुलता
जानकर अपने देवर लक्ष्मण से कहा- " सुना तुमने देवरजी !.इस आर्तनाद
को...तुम्हारे भैया किसी संकट में पड़ गए हैं और सहायता के लिए वे मुझे और तुम्हें
पुकार रहे हैं. इसे आर्तनाद को सुनकर तो मेरे प्राण ही निकले जा रहे हैं. तुम
जितनी शीघ्रता से उन तक पहुँच सको, पहुँचकर उन्हें सुरक्षा प्रदान करो".
" हे
देवर जी ! वे कोई शरण, रक्षा का सहारा चाहते हैं. तुम उन्हें जाकर बचाओ. जल्दी ही
तुम अपने भाई के पास रक्षार्थ दौड़े हुए जाओ. वे इस तरह आर्तनाद कर रहे हैं, जैसे
कोई सांड सिंहों के पंजे में फ़ँस गया हो. हो सकता है कि वे राक्षसों के वश
में पड़ गए हों".
मरम वचन
जब सीता बोला : हरि प्रेरित लछिमन मन
डोला.
लक्ष्मण को
अपनी जगह अविचल खड़ा देखकर सीताजी को लक्ष्मण पर बड़ा क्रोध हो आया. बार-बार अनुरोध
करने के बाद भी, लक्ष्मण न तो अपनी जगह से तिल मात्र हटे और न ही उन्होंने अपनी
भाभी सीताजी की बातों का उत्तर देना उचित समझा.
" हे
सुमित्राकुमार ! तुम राम के हितैषी तो जान पड़ते हो लेकिन गुप्त रूप से तुम उनके
शत्रु जान पड़ते हो. इसीलिए तुम उन्हें बचाने की पहल नहीं करते हुए अपनी जगह चुपचाप
खड़े हो".
"शायद
मेरे लिये तुम्हारे मन में कोई खोट आ गया है, तभी तुम राघव के पीछे नहीं जा रहे
हो. मुझे तो ऐसा भी प्रतीत होता है कि तुम उन्हें संकट में घिरा देखना चाहते हो.
निश्चित ही तुम्हारे मन में अपने भाई के प्रति स्नेह नहीं है. यही कारण है कि तुम
अपने भाई के रक्षा के लिए न जाकर निश्चिंत खड़े हो. जिनके रक्षार्थ तुम हमारे साथ
आए हो, यदि उन्हीं के प्राण संकट में पड़ गए हों तो यहाँ मेरी रक्षा से क्या होगा?.
" तू
बड़ा ही दुष्ट है, श्रीराम जी को अकेला वन में जाते ही मुझे प्राप्त करने के लिए ही
अपने भाव को छिपाकर तू भी अकेला ही उनके पीछे-पीछे चला आया है अथवा यह भी सम्भव है
कि भरत ने ही तुझे भेजा होगा".
" तेरा
और भरत का मनोरथ कभी सिद्ध नहीं हो सकता. नीलकमल के समान श्यामसुन्द्दर कमलनयन
श्रीराम को पति के रूप में पाकर मैं दूसरे किसी क्षुद्र पुरुष की कामना कैसे कर
सकती हूँ.?"
" हे
सुमित्रकुमार ! मैं तेरे ही सामने निःसंदेह अपने प्राण त्याग दूँगी, किंतु श्रीराम
के बिना एक क्षण को भी जीवित नहीं रह सकूँगी. हे लक्ष्मण ! मैं गोदावरी नदी में समा जाऊँगी या तेज विष का
पान कर लूँगी, या जलती आग में प्रवेश कर जाऊँगी, परन्तु रघुनाथ के सिवा दूसरे किसी
पुरुष का कदापि स्पर्श नहीं करुँगी".
कहते हुए वे छाती पीटने लगी थीं.
ऐसा कारुणिक
दृष्य देखकर लक्ष्मण को सहसा लगा कि अब कलेजा फ़ट जाएगा. उन्होंने अपने दोनों कानों
को हथेलियों से कस लिया था, ताकि कुछ सुनाई न दे.
अपनी भाभी
की जली-कटी और उल्हाना भरी बातों को सुनकर लक्ष्मण का धैर्य डगमगाने लगा था. वे
अन्दर ही अन्दर उबलने लगे थे. क्रोध का पारावार बढ़ता जा रहा था. जो कुछ भी उनकी
भाभी ने कहा, उसका उन्हें कोई दुःख नहीं था. दुःख इस बात को सुनकर हो रहा था कि
उन्होंने बिना सोचे-समझे मुझ पर लांछन लगा दिया कि मेरे मन में (सीताजी) उनके
प्रति कोई खोट है. वे सब कुछ सहन कर सकते थे. लेकिन सीताजी के आतप्त वचनों को सुनकर उनके मन को गहरा आघात लगा
था".
हाथ जोड़ते हुए लक्ष्मण ने कहा- हे देवी !. यह समय हमारे लिए प्रतिकूल नहीं
हैं. अतः मैं आपकी बातों का जवाब नहीं दे सकता. आप रिश्ते में मेरी केवल भाभी ही
नहीं हैं, बल्कि मेरी आराध्य है. आप केवल आराध्य ही नहीं है बल्कि माता सुमित्राजी
के समान है. माँ और भाभी को मैं समान मानता
हूँ. माता सुमित्रा जी प्रभु रामजी के साथ वन जाने से पूर्व उन्होंने मुझसे
कहा भी था -"तात
तुम्हरि मातु बैदेही :: पिता रामु सब भाँति सनेही". हे वीर लक्ष्मण !
सीता तुम्हारी भाभी ही नहीं है, वरन माता
के समान हैं और राम तुम्हारे ज्येष्ट भ्राता ही नहीं, बल्कि पिता के समान
हैं. मैं आपके मुखार्विंद में अपनी माता सुमित्रा जी की ही छवि देखता हूँ".
" हे देवी ! मुझे लगता है कि आपने आसन्न संकट के चलते
अपना विवेक खो दिया है और आपकी बुद्धि भी भ्रष्ट हो गई है, तभी आप मुझ पर ऐसा
घृणित लांछन लगा रही हैं. आपको इस तरह मुझ
पर लांछन नहीं लगाना चाहिए ". लगभग क्रोधित हुए लक्ष्मण ने कहा.
क्रोध तो उन्हें बहुत आ रहा था. बात ही कुछ इस तरह की
थी,जिसे सुनकर क्रोध आना स्वभाविक था. फ़िर भी किसी तरह उन्होंने अपने क्रोध को
संभाला और विनय पूर्वक कहने लगे. हे विदेहकुमारी ! आप विश्वास कीजिए, देवता,
गन्धर्व, नाग, किन्नर, असुर और राक्षस, ये सब मिलकर भी भ्राता रामजी को परास्त नही
कर सकते, इसमें कोई संशय नहीं है".
" हे देवी ! देवताओं, मनुष्यों, राक्षसों, पिशाचों,
किन्नरों, घोर दानवों आदि में कोई भी ऐसा वीर नहीं है, जो पराक्रमी श्रीराम का
सामना कर सके. वे युद्ध में अवध्य हैं. अतः आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए".
" हे देवी ! युद्ध में विजयी होने की आशा लिए स्वयं देवराज
इन्द्र, जिन परमवीर पिताश्री दशरथजी को साथ लेकर जाया करते थे, उन्हीं पिता के परम
वीर, पराक्रमी और धनुर्विद्या में निष्नात पुत्र रामजी को भला कौन पराजित कर सकता
है ?. निश्चित ही उस मायावी दानव मारीच को रामजी ने मार गिरा होगा, यह आवाज उसी की
है, जो भ्रम फ़ैलाने का उपक्रम कर रहा है".
’हे जनकनन्दिनी ! मुझे आश्चर्य इस बात पर भी हो रहा है कि
जिन रामजी के पदचाप को आप तत्काल जान जाती थी, उसी रामजी की अर्धांगिणी
होकर भी आप उनकी आवाज को पहिचान नहीं पा रही है?".
" जो दानवों
के लिए साक्षात काल के समान हैं, उन्हीं रामजी को विश्वामित्र जी मारीच सहित अनेक
दानवों के संहार के लिए अपने साथ लेकर गए थे, ऐसे वीर और पराक्रमी रामजी की शक्ति
पर आपको तनिक भी विश्वास नहीं हो रहा है?. निश्चित ही वह दानव मारा गया है, यह उसी
की आवाज है. मैं स्वयं भी भैया के साथ गया था. मैंने मारीच को सुना है, यह उसी की
आवाज है".
" हे
देवी ! मुझे यह भी संदेह हो रहा है कि कहीं आप पर किसी प्रेत की छाया तो नहीं पड़
गई है ? या फ़िर
कोई मायावी दानव ने आपका रूप धारण करके
ऐसी घृणित बातें करके मुझे रामजी से अलग करवाना चाहता है?".
"
महात्मा श्रीराम ने मुझ पर आपकी रक्षा करते रहने का दायित्व सौंपा है. अतः आप मेरी
अभिरक्षा में सुरक्षित है. इस समय आप मेरे पास उनकी धरोहर के रूप में भी है. अतः
श्रीरामचन्द्रजी की अनुपस्थिति में मैं
आपको इस निर्जन वन में अकेला नहीं छोड़ सकता".
" हे
देवी ! बड़े-बड़े राजा-महाराजा मिलकर भी रामजी के बल को कुण्ठित नहीं कर सकते. यदि इन्द्र और समस्त देवताओं सहित तीनों लोक के
लोग भी रामजी पर आक्रमण करें, तो वे श्रीरामजी के बल के वेग को नहीं रोक सकते. अतः
आप संताप करना छोड़ दीजिए".
" हे
विदेहनन्दिनी ! जिस तरह भ्राता श्रीराम जी ने खर को मार गिराया है, उसी प्रकार इस
जनस्थान में रह रहे अनेक राक्षसों को भी उन्होंने मार गिराया है. अतः मेरा निवेदन
है कि आप मन में शांति धारण करें. श्रीराम जी का कोई भी प्राणि अहित नहीं कर सकता.
क्या आपको अपने पति के बल पर
कुछ संदेह है ?". लक्ष्मण जी
ने बहुत प्रकार से सीताजी को समझाने की कोशिश की, लेकिन उन बातों का उन पर तनिक भी
प्रभाव नहीं पड़ रहा था.
हरि
प्रेरित लछिमन मन डोला "वन दिसि देव सौंपि सब काहू.
अत्यन्न्त
ही कठिन परिस्थितियों में उलझ गए थे लक्षमण जी. एक ओर भ्राता का आदेश था कि मुझे सीता की अभिरक्षा में संलग्न रहना होगा और
दूसरी ओर भाभीजी बार-बार अपने प्राण त्याग देने की धमकी दे रही हैं. ऐसी विषम
परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए?".सोचने लगे थे लक्ष्मणजी.
उन्होंने
अत्यन्त ही विनम्रता से कहा--" हे देवी ! आपकी बातों को सुनकर मैं भयभीत हो
रहा हूँ. एक ओर मैं आपकी आज्ञा का उल्लंघन
नहीं कर सकता और दूसरी ओर मैं अपने भ्राता की आज्ञा का पालन नहीं कर सकने का दोषी
भी बन रहा हूँ. बड़ी ही विकट परिस्थिति में आपने मुझे उलझा दिया है. लेकिन मुझे हर
हाल में आपके प्राणों को बचाना जरुरी लगता है. मैं आपकी मृत्यु का कारण
नहीं बनना चाहता है. इससे अच्छा होगा कि
मैं यहाँ से चला जाऊँ. आप दुःखमुक्त होकर यहीं रहें. यह दास जा रहा है. अब कठोर
विधि-विधान को कौन रोक सकता है?".
"आप
निश्चित ही जान लें कि कुछ अहित घटित होने जा रहा है. आपकी आज्ञा है कि मैं भैया
के पास उनकी आज्ञा का उल्लंघन कर यहाँ से जाऊँ. मेरे जाने के बाद आप नितांत अकेली
रह जायेंगी, इसलिए सावधान रहिए". कहते हुए लक्ष्मण अत्यन्त ही व्याकुल हो
उठे.
उन्होंने
दोनों हाथ जोड़कर सीताजी से कहा-" हे देवी ! मैं अब वहीं जाता हूँ, जहाँ भैया
राम गये हैं. यदि अहित घटित हुआ, तो गृद्धराज (जटायु) अपनी शक्ति भर आपकी रक्षा
करेंगे. हे देवी ! आपका कल्याण हो".
वन दिसि
देव सौंपि सब काहू ; चले जहाँ रावन ससि राहू.
वीर लक्ष्मण
ने अपना धनुष कांधे पर रखा और बाणॊं से भरा तूणीर पीठ पर कसा और समस्त देवों को
हाथ जोड़ते हुए कहा- "हे वन के सम्पूर्ण देवताओ ! हे वनदेवी ! हे पृथ्वी ! हे
आकाश ! अब मैं माता सीता की अभिरक्षा का दायित्व आपको सौंप रहा हूँ. आप माता सीता की रक्षा करें, क्योंकि इस समय
मेरे सामने जो बड़े भयंकर अपशकुन प्रकट हो रहे हैं, उन्होंने मुझे संशय में डाल
दिया है. क्या मैं श्रीरामचन्द्रजी के साथ लौटकर पुनः भाभी सीताजी को सकुशल देख
सकूँगा ?".
अपने मन को
वश में रखने वाले लक्ष्मण ने सीताजी को प्रणाम किया और उस दिशा में चल दिये, जिस
ओर रामजी गए थे.
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लक्ष्मण रेखा
"हा सीते ! हा
लक्ष्मण !" की भ्रामक आवाज
सुनकर सीताजी का विषाद बढ़ जाता है. वे
लक्ष्मण से कहती हैं कि तुम शीघ्रता से उस दिशा में जाओ, जिस
दिशा में तुम्हारे भाई गए हुए हैं. वे किसी भयानक
संकट में पड़ गए हैं अतः तुम जाकर उनकी सहायता करो. तब
सीताजी को लक्ष्मण बहुत प्रकार से समझाते हुए कहते हैं कि आने वाली आवाज तो मैंने
भी सुनी है,लेकिन ये आवाज
भैया राम की नहीं हो सकती. निश्चित ही यह
आवाज उस मायावी दानव मारीच की है. लेकिन सीताजी इतनी
घबराई हुईं थीं कि वे सच और झूठ के बीच की महीन रेखा को समझ नहीं पायीं. वे
स्वयं जानती थी कि देवेन्द्र इन्द्र,दानव,यक्ष, किन्नर, गन्धर्व
आदि उनके शौर्य और पराक्रम के समक्ष टिक नहीं सकते. वे
लक्ष्मण पर तरह-तरह के दोषारोपण
लगाने लगती हैं. जबकि
लक्ष्मण देवी सीता को अपनी माता सुमित्रा जी के समान और ज्येष्ठ भ्राता रामजी को
अपने पिता के समतुल्य मानते थे. वे सपने में उन
दोनों के प्रति अहित होता नहीं देख सकते थे.लेकिन
जब उल्हाने का स्वर तेज होने लगा और मनगढंन आरोप लगाए जाने लगे.
एक
ओर रामजी की आज्ञा थी कि तत्पर रहकर सीता की अभिरक्षा में रहेंगे और दूसरी ओर
सीताजी के द्वारा तरह-तरह के लांछनों को
सुनकर लक्ष्मण का धैर्य भी डोलने लगा था. एक
ओर सीताजी के कटु वचनों से उत्तेजित और दूसरी ओर राम को देखने के आंतरिक इच्छा के
मध्य असमंजस मे थे लक्ष्मण..उन्हें इस बात का
पूर्वाभास हो चुका था, कि आने वाला समय
बहुत ही कष्टप्रद सिद्ध होने वाला है. व्यर्थ
के दोषारोपण से बचने के लिए वे अनिच्छापूर्वक उस ओर चल पड़े जिधर उनकें ज्येष्ठ
भ्राता गए थे.
रामभक्त
तुलसीदास जी ने अपने मानस में कहीं नहीं लिखा कि वन जाने से पूर्व लक्ष्मण ने कोई
रेखा खींची थीं और न ही इस बात का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में भी देखने को नहीं
मिलता कि लक्ष्मण के आश्रम के चारों ओर एक रेखा खींची थी. लेकिन
कतिपय विद्वानों ने लक्ष्मण रेखा खींची गई थी, इस
बात का उल्लेख कर एक भ्रामक स्थिति का ही निर्माण दिया है. वालमीकि
जी ने अरण्यकाण्ड के श्लोक 34 में लिखा है-रक्षन्तु
त्वां विशालाक्षि समग्रा वनदेवताः // अप
त्वां सश रामेण पश्येयं पुनरागतः. लक्ष्मणजी
सीताजीको संबोद्धित करते हुए कहते है-" विशाललोचने
! वन के सम्पूर्ण देवता आपकी रक्षा करें, क्योंकि
इस समय मेरे सामने जो बड़े भयंकर अपशकुन हो रहे हैं, उन्होंने
मुझे संशय में डाल दिया है. क्या मैं
श्रीरामचन्द्रजी के साथ लौटकर पुनः आपको सकुशल देख सकूँगा".ऐसा लक्ष्मण
जी सीताजी को वनदेवियों को सौंपकर दुःख से अत्यत ही खिन्न होकर रामजी क पास जाने
को उद्दत होते हैं.
मानस
में तुलसीदास जी भी इस बात की ओर संकेत करते हुए लिखते हैं.-
– ”मरम वचन जब सीता बोला , हरी प्रेरित लछिमन
मन डोला ! बन दिसि देव सौपी सब काहू ,चले जहाँ रावण ससि
राहु !” (पृष्ठ-578 अरण्य
काण्ड ) अर्थात-
जब
सीताजी ने मार्मिक वचन कहे तो ईश्वर की इच्छा से लक्ष्मण का मन चंचल हो गया. वे
उन्हें वन तथा दिशा के देवताओं को समर्पण कर वहाँ को चले, जहाँ
श्रीरामजी थे.
.यहाँ भी लक्ष्मण जी द्वारा कोई रेखा
खीचे जाने और उसे न लांघने की घटना का उल्लेख नहीं किया गया है.
बस, इसी
अवसर की प्रतीक्षा में था रावण. भिक्षु का वेश बना
दंड-कमण्डल के सहित सीता जी के पास आया. यहाँ
कहीं भी लक्ष्मण जी न तो रेखा खींचते है और न ही माता सीता को उसे लांघने की
चेतावनी देते हैं..
”लक्ष्मण -रेखा
का सम्बन्ध
पंचवटी
में कुटी के द्वार पर खींची गयी किसी रेखा से न होकर
नर-नारी के लिए
शास्त्र द्वारा निर्धारित आदर्श लक्षणों से प्रतीत होता है .यह नारी-मात्र
के लिए ही नहीं वरन सम्पूर्ण मानव जाति के लिए आवश्यक है कि विपत्ति-काल में वह धैर्य
बनाये रखे किन्तु माता सीता श्रीराम के प्रति अगाध
प्रेम के कारण
मारीच
द्वारा बनायीं गयी श्रीराम की आवाज से भ्रमित हो गयी
.माता सीता ने न केवल श्री
राम द्वारा लक्ष्मण जी को दी गयी आज्ञा के उल्लंघन
हेतु लक्ष्मण को विवश किया
बल्कि
पुत्र भाव से माता सीता की
रक्षा
कर रहे लक्ष्मण जी को मर्म वचन भी बोले. माता
सीता ने उस क्षण अपने
स्वाभाविक
व शास्त्र सम्मत लक्षणों- धैर्य, विनम्रता के विपरीत सच्चरित्र व श्री राम आज्ञा
का पालन करने में तत्पर देवर श्री लक्ष्मण को जो
क्रोध
में
मार्मिक वचन कहे. उसे ही माता सीता द्वारा लक्षण की रेखा का उल्लंघन कहा जाये तो उचित
होगा .
माता
सीता स्वयं स्वीकार करती हैं- ” हा लक्ष्मण तुम्हार नहीं दोसा, सो फलु
पायउँ कीन्हेउँ रोसा !” (पृष्ठ-५८८
,अरण्य काण्ड ) निष्कर्ष
रूप
में
कह सकते हैं कि लक्ष्मण
रेखा
को सीता-हरण के सन्दर्भ
में उल्लिखित कर स्त्री के
मर्यादित आचरण-मात्र
से न जोड़कर देखा जाये .यह समस्त मानव-जाति
के लिए निर्धारित
सुलक्षणों
की एक सीमा है जिसको पार करने पर मानव-मात्र
को दण्डित होना ही
पड़ता
है. तुलसीदास
जी के स्पष्ट शब्दों में लिखा भी है-”मोह मूल मद लोभ सब नाथ नरक के
पंथ ” अर्थात- मोह,
मद और लोभ ये सब नरक के पंथ हैं.
कृतिवास
रामायण में लक्ष्मण रेखा का वर्णन
लक्ष्मण
रेखा का उल्लेख न तो वाल्मीकि रामायण में और न ही तुलसी की मानस में देखने-पढ़ने को
मिलता है. हाँ, रावण की पत्नी मंदोदरी बाद में एक जगह इस बात का संकेत ज़रूर करती
है. वह रावण को उलाहना देते हुए कहती है कि तुम अपने आपको बड़ा बलशाली बतलाते हो,
लेकिन तुमसे एक रेखा भी लांधी नहीं जा सकी थी..
दक्षिण
की सबसे लोकप्रिय कम्ब रामायण में रावण तो सीताजी सहित पूरे आश्रम को ही उठाकर ले जाता
बतलाया गया है. वहीं बंगाल की कृत्तिवास रामायण में तंत्र-मंत्र वाले प्रभाव का
उपयोग करते हुए "लक्ष्मण रेखा" होने का उल्लेख किया है. बंगाल का कालू
जादू विश्व प्रसिद्ध है. संभवतः लक्ष्मण रेखा के चमत्कार को बतलाने के लिए इसका
प्रयोग किया गया हो सकता है.
फ़िल्म
वाले भला पीछे कहाँ रहते. रामानंद सागर ने अपने सीरियल में लक्ष्मण द्वारा रेखा
खीचने का दृष्य फ़िल्माया था.
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विशालकाय
वॄक्ष की ओट में छिपे रावण को यह सोचकर परम संतोष मिल रहा था कि मामा मारीच ने सब
कुछ वैसा ही किया है, जैसा कि उसने उसे निर्देश दिया था. मरने से पहले मामा मारीच
ने "हा सीते !, हा लक्ष्मण ! कहते हुए ठीक उसी प्रकार की आवाज निकाला था, जिस
तरह राम निकाला करते थे. बहुत दूर से आती आवाज से ज्ञात होता है कि श्रीराम इतनी
दूर जा चुके हैं . वे लाख कोशिश करने के बाद भी वे शीघ्रता से आश्रम नहीं लौट सकते
थे..
मन ही मन
उसने अपनी मामा मारीच को धन्यवाद देते हुए कहा- मामा, तुम्हारे इन दो मार्मिक
शब्दों ने मेरा रास्ता आसान कर दिया है". देवर और भाभी के बीच चल रही
कहा-सुनी (गरम बहस) को वह कान लगा कर सुन भी रहा था. अपनी भाभी के मर्मान्तक वचनों
को सुनकर लक्ष्मण को न चाहते हुए भी अपने भ्राता की तलाश में जाना पड़ा. आश्रम का
परिसर सूना पड़ा था और आश्रम में केवल अकेली सीताजी थीं. दुष्ट रावण को इसी अवसर की
प्रतीक्षा थी. अब वह समय नजदीक आ गया है, जब वह स्वप्न-सुन्दरी सीता का हरण कर
लंका ले जाएगा.
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सून बीच दसकंधर देखा :
आवा निकट जती के वेषा.
एक अर्थ में "जती" का अर्थ होता है कि जिस व्यक्ति ने अपनी इन्द्रियों
को वश में कर लिया हो.उसे जती अथवा यति कहते हैं. सम्भवतः साधुओं के अनेक
संप्रदायों में मे से एक" जति "भी होता है. सच्चे साधु की पहचान उसके
गुणों से होती है न कि वेशभूषा से. अगर वेशभूषा बदलने से लोग साधु हो जाएं तो हम
रावण को साधु ही समझेंगे. रावण असाधु है, साधु का वेष धारण कर उसे सीता जी का हरण
किया था.
"लघुसिद्धांतकौमुदी" में कहा है- "साध्नोति परकार्यमिति साधुः"जो दूसरों का कार्य कर देता है, वह साधु है. साधु का मूल उद्देश्य है
समाज का पथप्रदर्शन करे. साधु वेदोक्त ज्ञान को जगत को देते हैं और अपने जीवन को
त्याग और वैराग्य से जीते हुए ईश्वर भक्ति में लीन रहना होता है. गुणॊं से ही साधु
की पहचान होती है. सच्चा साधु हर जगह केवल और केवल पराम प्रभु की कृपा का चमत्कार
देखता है.
जो साधु सिर्फ़ फ़लों पर
गुजर-बरस करता है उसे "फ़लहारी", जो सिर्फ़ दूध पीकर गुजारा करते हैं
उन्हें" दूधाचारी" जो बिना नमक का खाना खाते हैं उन्हें "
अलूना" कहते हैं.
कपिल देव ने अपनी माता
देवहूति को सच्चे साधु के लक्षण बताते हुए कहा कहा था कि जिसकी सद्वस्तु
(सत्बुद्धि) भगवान में अनन्य भाव से प्रीति है वह साधु है. चाहे वह ब्रहमचारी,
वानप्रस्थी अथवा सन्यासी ही क्यों न हो. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र हो.
यहां तक कि पशु-पक्षी व कीट-पतंग भे साधु की श्रेणी में आते है. जैसे हनुमानजी
वानर जन्म में हैं, गरुड पक्षी जन्म में है, ऐसे जन्म को पाकर भी ये परम संत (
साधुओं की उच्च श्रेणी) हैं.
त्रिदेव ने साधुओं का
वेष धारण कर सती-साधवी अनसूया की परीक्षा ली थी, विष्णु ने साधु का वेष धारण कर
उनके सतीत्व की परीक्षा लेनी चाही थी. श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर की दानशीलता की
परीक्षा लेनी चाही. इक अवसर पर कृष्ण ने भगवत भक्त राजा मोरध्वज की परीक्षा ली
थी. इन्द्र ने साधु के वेष में कर्ण से
कवच और कुण्डल मांग लिए थे. ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं. इन उदाहरणों से
ज्ञात होता है समाज में साधु को उच्च स्थान प्राप्त था. लोग उन पर विश्वास करते थे. उन्हें कोई भी नाराज अथवा क्रोधित करना नहीं
चाहता था. परीक्षा लेना अलग बात है लेकिन साधु के वेश में ठगी करने का सबसे बड़ा
उदाहरण है कि रावण ने साधु का वेष धारण कर माता सीता का हरण किया था.
हा सीते ! हा लक्ष्मण
! सुनकर सीताजी बड़ी दुविधा में थी. सारी परिस्थितियां अनुकूल नहीं थी. अतः वे साधु
और असाधु के बीच के अंतर को नहीं पहचान पायीं और नकली साधु बने रावण के बनाए
मायावी जाल में फ़ंस गयीं थीं.
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वृक्ष की ओट
से बाहर निकलकर उसने सन्यासी का वेष धारण किया और रामजी के आश्रम की ओर चल पड़ा.
उसके अपने शरीर पर गेरुए वस्त्र पहन रखे थे. मस्तक पर शिखा और बगल में डंडा और हाथ
में कमण्डल लटका लिया था.
उस कपटी और धूर्त
रावण को विजायोन्मत्त होकर चलता देख वायु का वेग रुक गया था. पक्षियों का चहचहाना
रुक गया था. वृक्षादि सहम-से गए थे. गोदावरी का प्रवाह रुक-सा गया था. सूर्य का
तेज कम हो गया था. वे बादलों का ओट लेकर छिप जाने का अवसर तलाश करने लगे थे. शायद
वे जनकनन्दिनी का हरण देखना नहीं चाहते थे.
रामजी से
बदला लेने का उचित अवसर उसके हाथ लग आया था. अतः निश्चिंत होकर वह शनैः-शनैः अपने
पग बढ़ाता आश्रम की ओर बढ़ रहा था.
देवी सीता
इस समय आश्रम में अकेली थीं. रामजी की कुशलता की कामना मन में संजोती हुई वे शोक और चिन्ता में डूबी हुईं अपने अश्रु बहा
रही थी. उनका मुख-मंडल निस्तेज हो चुका था और हृदय शंका-कुशंका के चलते जोरों से
धड़क रहा था. वे मन ही मन अपने ईष्ट (देवी-देवताओं) को मना रही थीं कि उनके पति सुरक्षित रहें और
शीघ्र ही वापिस आ जाएं.
जति के वेष
धारण किए हुए रावण ने आश्रम के द्वार पर जाकर आवाज लगाया-" भिक्षाम
देहि...भिक्षाम देही".
किसी साधु
पुरुष को द्वार पर आया जानकर उनकी तंद्रा टूटी. हथेलियों से आँसू पोछते हुए वे
द्वार पर आ खड़ी हुई.
रावण पहली
बार इतनी सुन्दर स्त्री को पहली बार देख रहा था. सीता का तेज इतना प्रखर था कि
उसकी आँखें चुंधियाने लगी थीं, जबकि उसके वैभव को देखकर मन्दहास से युक्त अप्सरा
तिलोत्तमा स्वर्ग का मोह छोड़कर उसकी सेवा में पैर सहलाने आदि के लिए लंका चली आयी
थी.
सभी लोकों
में रहने वाली असंख्य सुन्दरियाँ, उसकी कृपा को प्राप्त करने की लालसा रखती थीं.
उसका ध्यान रखते हुए कृश होती रहती थीं. तो भी वह उन सब की उपेक्षा कर अपने हृद्दय
को मुग्ध कर देने वाली एक रमणी को खोज रहा था.
उन्हें
देखते ही कामदेव के बाणॊं से घायल राक्षसराज रावण ने पहले तो वेद मंत्रों का उच्चारण किया, ताकि सीताजी को उस पर असाधु
होने का संदेह न होने पाए. उसने सुवर्ण-सी कांति वाली और रेशमी पिताम्बर धारण करने
वाली सीताजी से विनितभाव से कहने लगा-" हे सुन्दरी ! तुम कौन हो और इस निर्जन
वन में अकेली क्यों रह रही हो?. हे देवी
!-कहीं तुम श्री, किर्ति, शुभ स्वरूपा लक्ष्मी अथवा कोई अप्सरा तो नहीं हो? कहीं
तुम कामदेव की पत्नी रति तो नहीं हो?".
"पृथ्वी
पर ऐसी रूपवती नारी मैंने आज दिन से पहले तीनों लोकों में नहीं देखी थी. तुम्हारा
यह अनुपम सुन्दर रूप, सुकुमारता और नयी अवस्था और कहाँ यह दुर्गम वनक्षेत्र?,
जिसमें दुर्दांन्त राक्षस अपनी स्वेच्छा से रूप धारण करने वाले हैं, यह स्थान तुम्हारे लिए रहने योग्य नहीं है. तुम्हें तो रमणीय
राजमहलों, समृद्धिशाली नगरों और सुगन्धयुक्त उपवनों में निवास करना चाहिए".
" हे
देवी ! तुम रुद्रॊं अथवा वसुओं के सम्बन्ध रखने वाली देवी जान पड़ती हो. मुझे
आश्चर्य होता है कि जिस वन में देवता, गन्धर्व,किन्नर आने का साहस नहीं रखते, फ़िर
तुम इस निर्जन वन में कैसे आ गयीं?.. यहाँ वानर, सिंह, चीते, व्याघ्र, भेड़िये,
रीछ, शेर और गीध (गिद्ध),वेगशाली और भयंकर मदमत्त गजराजों आदि के बीच रह रही हो,
क्या तुम्हें इनसे डर नहीं लगता?".
" हे कल्याणमयी देवी! बताओ, तुम कौन हो? किसकी
पत्नी हो? और कहाँ से आकर इस दण्डकारण्य़ में अकेली विचरण कर रही हो?".
वे कुछ घड़ी
तक विचार करती रहीं कि एक अनजान व्यक्ति
को अपना परिचय कैसे दें पाएँगी? आगन्तुक मेरा अतिथि है और ब्राह्मण भी, यदि अपना
परिचय नहीं दिया, तो हो सकता है शाप दे दे.. पुरुषोत्तम राम तथा लक्ष्मण इस समय वन में सुवर्ण मृग के शिकार के
लिए गए हुए हैं. वे अब तक लौटकर नहीं आये थे. सीताजी बारम्बार आश्रम से बाहर
दृष्टि डालते हुए उनके लौट आने की प्रतीक्षा कर रही थीं, किंतु उन्हें सब ओर हरा-भरा
विशाल वन ही दिखायी दे रहा था.
शाप के भय
से भयभीत सीता ने विनम्रता पूर्वक अपना परिचय देते हुए कहा- " हे ब्रह्मन !
मैं मिथिलानरेश महात्मा जनक की पुत्री और अवधनरेश श्रीरामचन्द्रजी की पत्नी हूँ .
मेरा नाम सीता है. विवाह के बारह वर्षों तक मैं इक्ष्वाकुवंशी महाराज दशरथ में
राजमहल में रहकर अपने पति के साथ सभी मानवोचित सुख भोगे है, मैं वहाँ सदा
मनोवांछित सुख-सुविधाओं से सम्पन्न रही हूँ".
" महाराज दशरथजी, मेरे पति श्रीरामजी को युवराज पद पर
सुशोभित करना चाहते थे. गुरु वशिष्ठजी ने राज्याभिषेक करने के लिए तिथि की विधिवत
घोषणा कर दी थी. राज्याभिषेक की सारी तैयारियाँ भी की जा चुकी थी. राज्याभिषेक हो,
इससे ठीक पहले रामजी की विमाता कैकेई जी ने महाराज दशरथजी से दो वर मांगे. पहले वर
में अपने पुत्र भरत के लिये राज्याभिषेक और दूसरे वरदान में रामजी को चौदह वर्ष का
वनवासमांगा.
"सत्यप्रतिज्ञ महाराज दशरथ जी ने मेरे सास को बहुतेरा
समझाया और दूसरे वरदान के बदले में कोई और वर मांगने को कहा लेकिन वे नहीं मानी.
अपने पिता का वचन मिथ्या न होने पाए, अतः रामजी ने वन जाने का निश्चय कर लिया.
श्रीरामजी के सौतेले भाई लक्षमण जो बड़े पराक्रमी, समरभूमि में शत्रुओं का संहार
करने वाले, उत्तम व्रत का पालन करने वाले, श्रीरामजी के सहायक होकर हमारे साथ वन
चले आए".
रावण की वेषभूषा
में ब्राह्मणत्व का निश्चय कराने वाले चिन्ह दिखायी देते थे. अतः उस रूप में आये
हुए उस रावण को देखकर सीताजी ने ब्राह्मण योग्य सत्कार करने के लिए निमन्त्रण देते
हुए कहा- हे महात्मन ! पैर-हाथ धोने के लिए जल उप्लब्ध है. कृपया हाथ-पैर धो
लीजिए. चटाई बिछी हुई है, आप आसन ग्रहण कीजिए. इस समय हमारी कुटिया में वन में
उत्पन्न्न हुए उत्तम फ़ल-मूल उपलब्ध हैं कृपया उनका शांतभाव से उपभोग कीजिए. मेरे पति श्रीरामजी वन
गए हुए हैं. वे शीघ्र ही प्रचूर मात्रा में फ़ल-मूल लेकर आते ही
होगें. तब आपका विशेष सत्कार होगा".
साधु के वेश में आए रावण से परिचय प्राप्त करना चाहती थीं
वैदेही. अतः उन्होंने बड़ी ही विनम्रता से कहा- "हे ब्रह्मण.! अब आप भी अपने नाम-गोत्र और कुल का
ठीक-ठीक परिचय दीजिए. आप इस तरह इस निर्जन वन में अकेले किस लिए विचरते
हैं?".
" सीते !..मैं कुबेर का सौतेला भाई परम प्रतापी
दशग्रीव रावण हूँ. जिसके नाम से देवता, असुर और मनुष्यों सहित तीनों लोक थर्रा
उठते हैं, मैं वही राक्षसों का राजा रावण हूँ. मेरे राजधानी का नाम लंका है,जो बीच
समुद्र के एक पर्वत के शिखर पर बसी हुई है. मैंने बलपूर्वक तीनों लोकों से बहुत सी
सुन्दर स्त्रियों का हरन कर उन्हें सुवर्ण निर्मित लंका में ले आया हूँ. वे
प्रसन्नता के साथ रहते हुए ,आमोद-प्रमोद कर रहते हुए मेरी सेवा में संलग्न रहती
हैं".
" हे देवी ! मैं इन्द्र का भी इन्द्र हूँ. चतुर्भुज के
वंश में उत्पन्न हुआ हूँ. स्वर्ग सहित सभी लोकों पर शासन करने वाला हूँ. और मेरे
जिह्वा पर वेद मंत्रों का आवास है. मैं इतना शक्तिशाली हूँ कि मैंने शिवजी के महान
कैलाशगिरि को जड़ से उखाड़ लिया था. मेरी भुजाओं में इतना बल है कि मैंने गजों पर
आघात करके उनके दांतों को चूर-चूर कर दिया था".
मेरे द्वार पर देवता द्वारपाल बनकर पहरा देते हैं. मेरे
अधीन कल्पतरु आदि देवलोक की सभी विभूतियाँ हैं. मेरे वैभव से आकृष्ट होकर सुन्दर
मंदहास से युक्त तिलोत्तमा आदि अप्सराएँ स्वर्गलोक छोड़कर मेरी लंका में आ गईं हैं.
वे मेरी सेवा में रहकर पानदान उठाना, मेरे पैर सहलाना सहित पादरक्षा लाना आदि का
कार्य करती हैं. सब लोकों में रहने वाली असंख्य सुन्दरियाँ मेरी कृपा को प्राप्त
करने की लालसा रखती हैं और मेरा ध्यान करते हुए अपने शरीर को कृश करती रहती हैं. मैं
उन सबकी उपेक्षा करके,मेरे हृदय को मुग्ध कर देने वाली तुम्हारे सरीखी रमणी को ही
खोज रहा था".
"मेरी इच्छा के अनुसार सूर्य, चन्द्रमा आदि संचरण करते
हैं. दिव्यकांति से युक्त इन्द्र आदि देवता मेरे प्रासाद की रक्षा करते हैं".
" मेरे पास मन की गति से तथा मेरी इच्छा से चलने वाला
पुष्पक विमान है. मैंने उसे अपने भाई कुबेर से पराक्रम से जीत लिया है. मैं उसी
विमान से विचरता हूँ. हे देवी! मैं जहाँ खड़ा होता हूँ वहाँ हवा धीरे-धीरे चलने
लगती है. सूरज भी मेरे भय से चन्द्रमा की भांति शीतल हो जाता है. जब मैं चलता हूँ
तो पेड़ों के पत्ते तक नहीं हिलते. नदियों का बहाव थम जाता है और जब मैं क्रोधित
होता हूँ तो पृथ्वी भी कांपने लगती है".
"मेरी लंकापुरी के महलों की दीवारें, दालान, फ़र्श सब
सोने के बने हुए है. सड़कें हाथी, घोड़े, रथों से भरी रहती हैं.भांति-भांति के
वाद्धयंत्रों की मधुर स्वर लहरी चारों ओर गूँजती रहती है. मेरे उद्धानों में
मनोवांछित फ़ल देने वाले नाना प्रकार के वृक्ष लगे हैं".
" हे देवी ! तुम मेरे साथ चलकर लंकापुरी में निवास
करो. मेरी सारी सेविकाएँ दिन-रात तुम्हारी सेवा में उपस्थित रहेंगी और अपने मधुर
गीतों से तुम्हें प्रसन्न बनाए रखेंगी. तुम्हारी ये कोमल काया इस दण्डकारण्य में
वन-वन भटकने और रुखा-सूखा खाकर रहने के योग्य नहीं है".
" तीर-कमान ले कर वन-वन भटकते उस राम में ऐसा क्या है
जो तुम उसे अपना सर्वेश्वर बताते थकती नहीं हो?. तुम्हारा वह सर्वेश्वर, तुम्हें
यहाँ से वहाँ भटकने और कंद-मूल फ़ल खिलाने के अतिरिक्त दे भी क्या सकता है?. पत्तों
की शैया बनाकर तुम्हें सोना पड़ता है, जबकि तुम लंका में सुवर्ण जड़ित शैया पर सोने
को मिलेगा और तुम्हें मन पसंद उत्तम भोजन भी खाने को मिलेंगे. छीं......यह भी कोई जीवन है. मैं मेरा सारा
वैभव तुम्हारे चरणॊं में समर्पित करता हूँ, तुम इस नारकीय जीवन जीने की अपेक्षा
मेरे साथ लंका चली चलो. मेरा पुष्पक विमान तैयार खड़ा है".
" हे सीते ! मैं फ़िर कह रहा हूँ कि तुम्हारी ये कंचन
काया वन-वन भटकने, काटों भरे रास्तों पर चलने, और फ़ल-मूल खाकर जीवन व्यतित करने के
लिए नहीं बनी है. यदि तुम मेरी सुवर्णमयी लंका में रहोगी, तो मेरी दासियाँ
तुम्हारे पग-पग पर फ़ूल बिछाया करेंगी. तुम यहाँ वन में रहकर फ़ल-मूल का आहार करती
हो, तुम्हें मेरे यहाँ भोजन में प्रतिदिन उत्तम प्रकार का सुस्वादु भोजन उपलब्ध
होगा".
" तुम एक तुच्छ वनवासी के साथ इस दुर्जन वन में रहती
हो, यह मुझे जानकर अच्छा नहीं लगा. तुम त्रैलोक सुन्दरी हो, अतःतुम्हें तो मेरी
सुवर्णमयी लंका में रहना चाहिए. वहाँ रहकर तुम मेरे साथ नाना प्रकार के इच्छित
सुखों को प्राप्त कर सकोगी".
" हे सीते !.तुम मेरी भार्या हो जाओ तो सब प्रकार के
आभूषणों से विभूषित पांच हजार दासियाँ तुम्हारी नित्य सेवा किया करेंगी. इस तरह
तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा".
" हे सुन्दरी ! मेरे प्रणय निवेदन को ठुकरा कर तुम्हें
पश्चाताप ही होगा. शरीर पर चीर धारण करने वाला और मृगछाला ओढ़ने वाला राम, मेरी
कहीं से कहीं तक बराबरी नहीं कर सकता. अतः तुम बिना किसी संदेह के मेरे साथ लंका
चली चलो".
" तुम्हारा राम शासन चलाने योग्य नहीं था, तभी तो
अयोध्या नरेश ने उसे राज्य से निष्कासित कर दिया है. उसके साथ सिवाय दुःख उठाने के
अतिरिक्त तुम्हें कुछ मिलने वाला नहीं है. तुम इस भ्रम में भी मत रहो कि वनवास की
अवधि बीत जाने के बाद तुम्हें महारानी बना दिया जाएगा. अतः शीघ्रता से निर्णय ले
लो कि तुम्हें वन-वन भटकना है या फ़िर सुवर्णिम राजमहल में रहना है?."
अपने स्वामी श्रीरामजी को इस तरह तिरस्कृत करने वाले
ब्राह्मण रुपी रावण पर कुपित होते हुए उन्होंने कहा-"हे दुष्ट रावण ! मेरे
पतिदेव पर्वत के समान अविचल, इन्द्र के
तुल्य पराक्रमी, महासागर के समान प्रशान्त हैं. उन्हें कोई क्षुब्ध नहीं कर सकता.
मैं तन-मन और प्राण से उन्हीं का अनुसरण करने वाली तथा उन्हीं की अनुरागिनी
हूँ".
" हे दानव ! समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न, वट-वृक्ष
की भांति सभी को अपनी छाया में आश्रय देने वाले, सत्यप्रतिज्ञ, महातेजस्वी श्रीराम
मेरे पति हैं, मैं उन्हीं की अनुरागिनी हूँ".
"उनकी बड़ी-बड़ी भुजाएँ और छाती चौड़ी है. वे महान
पराक्रमी तथा सिंह की ही भांति गर्व के साथ चलते हैं. वे जितेन्द्रीय हैं और उनका
यश महान है, मेरा अनुराग उन्हीं के प्रति नित्य बना रहता है".
" हे लम्पट ! पापी निशाचर ! मैं एक सिंहनी हूँ और तू एक सियार की भांति है.
तू मुझे प्राप्त करने की इच्छा रखता है, लेकिन ध्यान रहे, जिस प्रकार से सूर्य की
प्रभा पर कोई हाथ नहीं लगा सकता, उसी प्रकार तू मुझे छू भी नहीं सकता".
" हे रावण ! शायद तुमने विराध तथा खर आदि राक्षसों के
मरने का समाचार नहीं सुना होगा. राघव ने उन्हें उनकी चौदह सहस्त्र दानवों को पल भर
में मार गिराया है. मेरे स्वामी गरुड़ हैं और तुम मात्र एक कौवे. मेरे राम सागर हैं
और तुम मात्र एक दुर्गंध छोड़ते पोखर. मेरे राम चन्दन हैं तो तुम कीचड़ हो. वे हंस
हैं और तुम गिद्द से अधिक कुछ नहीं हो. तुम मुझे अपृहत कर सकते हो, किन्तु राम के
रहते तुम्हें वही आनन्द प्राप्त होगा,जैसे कोई मक्खी घी में गिरकर तड़प-तड़प कर मर
जाती है".
" यदि तुम वास्तव में कुबेर के भाई हो, तो कुप्रयोजन से
क्यों आए हो? इन्द्र की पत्नी का अपहरण
करने वाले रावण तुम जीवित तो बच सकते हो,लेकिन तुम मुझे कष्ट देने का प्रयास
करोगे, तो निश्चित ही राम के हाथों मारे जाओगे".
" निर्लज्ज रावण ! जिन दानवों का तुझ-जैसा क्रूर, दुर्बुद्धि
और अजितेन्द्रीय राजा हो, वे सब राक्षस मेरे स्वामी श्रीराम के हाथों मारे जाएँगे.
तुमने शचि का अपहरण किया और जीवित बच गए, लेकिन राम की पत्नी मुझ सीता का हरण कर
कोई कुशल नहीं रह सकता". निर्भिकता से बोलते हुए सीताजी का स्वर कांप रहा था.
सीताजी द्वारा दिए जा रहे उपालंभ को सुनकर दशानन रावण धैर्य
खोने लगा था. उसने क्रोधित होते हुए कहा-" अच्छा, तो तुम मेरा पराक्रम देखना
चाहती हो". खिसियाये हुए रावण ने अपना असली स्वरूप सीता जी के सामने
प्रदर्शित किया...
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दशानन.
दशानन का शाब्दिक अर्थ
है दस सिर वाला. रावण के दश शीश थे या नहीं भी थे, यह कहाँ सत्य है कोई नहीं
जानता. किंतु अनेक विद्वानों का मानना है कि रावण के दस शीश नहीं थे किंतु वह अपनी मायावी शक्ति से दस सिर होने का भ्रम
पैदा कर देता था, इसी कारण लोग उसे दशानन
कहते थे. कुछ विद्वानों के अनुसार रावण छः
दर्शन और चारों वेदों का ज्ञाता था, इसीलिए उसे दसकंठी भी कहा जाता था. दसकंठी कहे
जाने के कारण प्रचलन में उसके दस सिर मान लिए गए.
जैन शास्त्रों के
उल्लेखित है कि रावण के गले में नौ
बड़ी-बड़ी गोलाकर मणियां होती थी, उन मणियों में उसके दस सिर दिखाई देते थे.रावण चुंकि मायावी था. अतः
उस शक्ति के बल पर वह दस सिर होने का भ्रम
पैदा कर डर पैदा किया करता था.
रावण के दस सिर होने
की चर्चा रामचरित मानस में आती है. जब कृष्णपक्ष की अमावस्या को युद्ध के लिए चला
था तथा एक-एक दिन क्रमशः एक-एक सिर कटते थे. इस तरह दसवें दिन अर्थात शुक्लपक्ष की
दशमी को रावण का वध हुआ. इसीलिए दशमी के दिन रावण दहन किया जाता है.
रावण संहिता में इस
बात का उल्लेख किया गया है कि एक बार दशानन अपने भाई कुबेर से पुष्पक विमान बल
पूर्वक छिनने के बाद उस पर सवार होकर आकाश मार्ग से वनॊं का आनंद लेते हुए सैर
करने लगा. इसी मार्ग में उसने एक जगह सुंदर पर्वत से घिरे और वनों से आच्छादित
मनोरम स्थल को देखकर वह उस स्थान में
प्रवेश करना चाहता था, लेकिन उसे यह नहीं पता कि वाह कोई सामान्य पर्वत नहीं
है,बल्कि भगवान शिव का कैलाश है.
उस वक्त रावण को वहां
प्रवेश करने से रोक दिया, लेकिन रावण तो रावण था. वह कहाँ मानने वाला था रावण को न
मानते हुए देखकर नंदीश्वर ने रावण को समझाने की प्रयास किया. उसने रावण को कहा
-" हे दशग्रीव ! तुम यहाँ से लौट जाओ, इस पर्वत पर भगवान शंकर क्रीड़ा कर रहे
हैं. गरुड़, नाग, यक्ष, देव, गंधर्व तथा राक्षसों का यहाँ प्रवेश निषिद्ध कर दिया
गया है".
नंदीश्वर के द्वारा
कहे इन शब्दों से रावण को क्रोध हो आया. क्रोधित होने के कारण उसके कानों के
कुण्डल हिलने लगे. उसकी आँखों से अंगारे बरसने लगे. वह पुष्पक विमान से उतरकर
गुस्से में भरकर यह पूछते हुए कि यह शंकर कौन हैं? कैलाश पर्वत के अंदर जा पहुँचा.
वहां रावण ने देखा कि
भगवान शंकर के निकट ही चमकते हुए शूल को हाथ में लिए नंदीश्वर दूसरे शिव के समान
खड़ा है. उस समय रावण ने नंदीश्वर के पशु समान मुख को देखकर उनकी अवज्ञा करते हुए
जोर-जोर से हंसना शुरू कर दिया.
तब भगवान शंकर के
द्वितीय रूप नंदी ने क्रुद्ध होकर समीप खड़े दशानन को श्राम देते हुए कहा-" हे
दशानन ! तुमने मेरे जिस पशु रूप का मजाक
उड़या है, ऐसा ही पशु रूप वाला कोई शक्तिशाली तथा तेजस्वी तुम्हारे कुल का वध करने के
लिए उत्पन्न होगा, जिसके सामने तुम्हारा यह विशालकाय शरीर भी तुच्छ साबित होगा और
जो तुम्हारे मंत्रियों तथा पुत्रों का भी अंत कर देगा".
नंदी ने तो अपने क्रोध
में यह भी कहा कि मैं तुम्हें अभी भी मार डालने की शक्ति रखता हूँ , लेकिन तुम्हें
मारूंगा नहीं, क्योंकि अपने कुकर्मों के कारण तुम तो पहले ही मर चुके हो. ऐसे में
शिवगण नंदी से श्राप मिलने के बाद राक्षस राज रावण ने पर्वत के समीप खड़े होकर
क्रोधित स्वर में कहा कि जिसने मेरी यात्रा के समय मेरे पुष्पक विमान को रोकने की कुचेष्टा की है,
मैं उस पर्वत को ही जड़ से उखाड़ फ़ेकूंगा.
इतना कहकर दहाड़ते हुए
रावण पर्वत को अपने हाथों से उठाने की कोशिश करने लगा जिससे पूरा कैलाश पर्वत
हिलने लगा. संपूर्ण शिव लोक में हड़कंप मच गया. स्वयं पार्वतीजी भगवान शंकर से लिपट
गईं.
ऐसी स्थिति को देखकर
भगवान शंकर ने अपने पैर के अंगूठे से उस पर्वत को दबा दिया. शंकरजी के पैर का दवाब
पड़ते ही पर्वत के जैसी रावण की भुजाएं नीचे दब गईं और राक्षसराज रावण दर्द से कराह
उठा उसके जोर-जोर से कराहने के तीनों लोक कांप उठे. सभी ओर हाहाकार मच गया.
तब दशानन पहुंचा
शिवाजी के शरण में और शिवजी ने प्रसन्न होकर उसे एक नया नाम दिया "रावण".
रावण को मुसीबत में
देखकर उसके मंत्रियो ने कहा-" हे महाराज ! आपको इस दर्द से सिर्फ़ भगवान शंकर
ही छूटकारा दिला सकते हैं. अतःआप उनकी शरण में जाइए".
इस प्रकार रावण
मंत्रियों की बात मानकर शिव को प्रसन्न करने के लिए साम वेदोक्त स्त्रोतों द्वारा
स्तुति करने लगा और एक हजार वर्ष तक स्तुति करते रहा.
तब भगवान शिव ने प्रकट
कोकर रावण की भुजाऒं को मुक्त करते हुए कहा-"हे दशानन ! तुम वीर हो, मैं तुम
पर प्रसन्न हूँ. पर्वत में दब जाने से जिस तरह तुम चीखे थे और जिससे भयभीत होकर
तीनों लोकों के प्राणी रोने लगे थे, उसे के कारण तुम "रावण" नाम
से प्रसिद्ध हो जाओगे".
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" सीते ! तू मुझे नहीं
जानती. मैं अपनी इन दोनों भुजाओं से सारी पृथ्वी को उठा सकता हूँ. एक घूंट में सारा समुद्र पी सकता हूँ.. यदि मैं
चाहूँ तो अपने तीखे बाणॊं से सूर्य को भी व्यथित कर सकता हूँ. मैं इच्छानुसार रूप
धारण कर सकता हूँ. देखो...मेरी ओर देखो" . ऐसा कहते-कहते क्रोध से भरे हुए
रावण की आँखों से अंगारे बरसने लगे थे. राक्षस राज रावण जो अब तक अपने एक हाथ में कमण्डल , बगल में छड़ी और दूसरे हाथ में
भिक्षा-पात्र लिए हुए, केसरिया रंग की धोती पहने हुए था, सभी अदृश्य हो गए थे. और
अब वह अट्टहास करता हुआ विशालकाय शरीर के
साथ सीता के समक्ष खड़ा हो गया. उसका अट्टहास कुछ ऐसा था मानो आकाशीय बिजली चमक के
साथ गर्जना कर रही हो.
क्रोधवंत तब रावन, लीन्हिसि रथ
बैठाइ
एक सिर वाले रावण के दस शीश हो गए थे और वह अपनी तीखी दाढ़ों और विशाल भुजाओं से
युक्त पर्वत के शिखर के समान प्रतीत होते रावण ने, सीता को बलपूर्वक आश्रम से बाहर
घसीटकर ले आया. आश्रम से बाहर निकलते ही उसने पुष्पक विमान का स्मरण किया. पलक
झपकते ही पुष्पक विमान उसके पास आकर खड़ा हो गया. उसने बड़ी ही निर्दयता के साथ
सीताजी को विमान में बिठाया. फ़िर स्वयं उस पर आरूढ़ हो गया. उसके आरुढ़ होते ही विमान आकाश में उड़ने लगा.
=================================================
(*) अध्यात्म रामायण में उल्लेखित है कि रावण ने
सीता को उनके पैरों के नीचे की पृथ्वी को खोदकर उठाया और पृथ्वी के अंश सहित
उन्हें वैसे ही रथ पर बैठा दिया.
तद
दृष्टवा वनदेव्यश्च भूतानि च वतत्रसु : ततो दिदार्यधरणीं नखैरुद्धृत्य बाहुभिः (
अध्या./अर/सर्ग 7/ श्लोक 51
तोलयित्वा
रथे क्षिप्त्वा ययौ क्षिप्रं विहायसा : हा राम हा लक्ष्मणेति रुदती जन्काअत्मजा (
श्लोक 52)
इस
तरह से नाखूनों से पृथ्वी तल को खोद कर सीताजी को उठाने का मतलब स्पष्ट है कि सीता
उसके हाथ में स्थित धरणी अंश पर ही अवस्थित थीं, न कि रावण के कोरे हाथों में.
अतएव रावण ने सीता का स्पर्श नहीं किया. जैसाकि उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है.
(*)
कम्ब रामायण के अनुसार- सीताजी के हरण के पहले रावण ने उन्हें मन ही मन नमस्कार
किया और ज्योंहि वह सीताजी को उठाने के लिए आगे बढ़ा उसे पूर्व में मिले
श्राप का स्मरण हो आया कि परनारि का स्पर्श (उसकी इच्छा के बिना) नहीं करना चाहिए,
अपनी स्तभं जैसी बलवान एवं ऊँची भुजाओं से उस आश्रम के स्थान को ही नीचे से एक
योजन पर्यन्त खोदकर उठा लिया. इस प्रकार सीताजी को उनके आश्रम के साथ उठाकर अपने
रथ पर रख लिया.
रथ के प्रकट होते ही जोर-जोर से गर्जना करने
वाले रावण ने कठोर वचनों द्वारा विदेहनन्दिनी सीता को डाँटा और पूर्वोक्त रूप से
गोद में उठाकर तत्काल रथ में बिठा दिया.
ततः
सा राक्षसेन्द्रेण हियमाणा विहायसा भृशं
चुक्रोश मत्ते भ्रान्तचित्ता यथातुरा.
राक्षस राज जब सीता को हरकर आकाशमार्ग से ले
जाने लगा, उस समय उनका चित्त भ्रमित हो उठा. वे पगली-सी हो गयीं थीं और दुःख से
आतुर-सी होकर जोर-जोर से विलाप करने लगीं.
क्रोधवंत
तब रावण, लीन्हीसि
रथ बैठाइ.. चला गगनपथ आतुर ((,भयँ हाँकि न जाइ (चौपाई-(श्लोक 28 अरण्यकांड)
अर्थात- जब क्रोधवंत रावन ने सीताजी को रथ
में बैठा लिया और आतुरतापूर्वक आकाश मार्ग से चला लेकिन भय के कारण उससे रथ हाँका
नहीं जा रहा था.
उपरोक्त श्लोंको से स्पष्ट है कि रावण ने
सीताजी का हरण किया और उन्हें रथ में
बिठाकर अपनी लंका नगरी में ले गया.
----------------------------------------------------------------------------------------------------------राक्षसराज रावण जब सीताजी को आकाशमार्ग से ले
जाने लगा. वे पागल-सी हो गयीं और दुःख से आतुर-सी होकर अपनी सहायता के लिए रामजी
और लक्ष्मण को आवाज लगाने लगी थीं. बारम्बार पुकारने के बाद भी उन्हें न तो
लक्ष्मण दिखाई दे रहे थे और न ही श्रीराम दूर-दूर तक दिखलाई पड़ रहे थे. जोर-जोर से
विलाप करती हुए वे पुकारने लगी- " हे लक्ष्मण ! इच्छाधारी रावण मुझे हर कर
लिए जा रहा है. हे रघुनन्दन ! रावण मुझे अधर्मपूर्वक हरकर लिये जा रहा है...मेरी
रक्षा करो...मुझे इस दुष्ट के हाथों से
बचाओ".
" हे पर्वतों ! हे वृक्षों ! हे मयूरों ! हे कोयलो !
हे हिरणॊं ! हे हाथियों ! तुम शीघ्रता से मेरे प्रभु के पास जाओ और मेरे स्वामी
रघुनन्दन श्रीराम को बतलाओ कि दुष्ट रावण मुझे हरकर ले जा रहा है".
" हे मेघों ! हे वन देवताओं ! मेरे प्रभु कहाँ हैं,
क्या तुम जानते हो? उन्हें जाकर बतलाओ कि तुम्हारी प्राणप्रिया इस समय घोर संकट से
ग्रसित हो गई है".
" हे गोदावरी ! तुम मेरी माता के समान हो. तुम दौड़कर
मेरे प्रभु के निकट जाओ और मुझ अभागन का समाचार कह सुनाओ".
" हे निर्झरों ! पर्वत-कंदराओं में निवास करने वाले
सिंहों ! तुम मेरे प्रभु श्रीराम को जाओ और बतलाओ कि बीस भुजाओं और दस शीश वाले
दुष्ट रावण ने, धरती के सहित पूरा आश्रम उठा लिया है और अपने यान में मुझे बलात हरन कर ले जा रहा
है".
सीताजी की मर्मांतक पुकार पूरे वन प्रांत में गूंजती रही,
लेकिन उन्हें बचाने कोई नहीं आया. फ़िर अंत में उन्होंने जटायु को पूकारते हुए
कहा-" हे पक्षीराज गरुड़ जी....मेरी सहायता कीजिए.....दुष्ट दावन रावण मुझे हर
कर लिए जा रहा है".
हा लछिमन तुम्हार नहीं दोसा : सो फ़लु पायउँ कीन्हेउँ रोसा.
" हा रामजी !
हा लक्ष्मण ! रावण बलात मेरा अपहरण कर मुझे लिए जा रहा है.. हा लक्ष्मण ! काश...मैं तुम्हारा कहा मान जाती,
तो मुझे आज ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते. हे लक्ष्मण ! तुम्हारा कोई दोष नहीं
है. मैंने क्रोध का फ़ल पा लिया है.....हा राम ! हा लक्ष्मण !. कहते हुए जोर-जोर से
विलाप करने लगीं.
फ़िर उन्होने रावण को धिक्कारते हुए कहा-" दुष्ट ! तूने
माया से एक कपट हिरण बनाया. मेरे मन में उस हिरण को पाने का लालच पैदा करवाया और
मेरे स्वामी को तूने आश्रम से बाहर भेजने का उपाय किया. फ़िर मेरे आश्रम में घुसकर मुझे हर कर ले जा रहा है.
यदि तू सही में वीर है तो आश्रम की ओर लौट चल और रामजी से युद्ध कर, तेरी वीरता की
परीक्षा हो जाएगी" .
सीता का उपालम्भ सुनकर रावण ने कहा-" क्या तुम मुझे
मूर्ख समझती हो...मैं एक मामूली से वनवासी से, जो केवल तीर-कमान लेकर वन-वन भटकता
फ़िरता है. बेर-भाजी-आंवला, कंद-मूल खाकर अपने को बड़ा पितृ-भक्त कहता फ़िरता है, मैं
ऐसे साधारण मनुष्य के साथ युद्ध करुँगा? तो कैलाश पर्वत को उठाने वाली मेरी बलिष्ठ
भुजाओं का अपमान होगा".
" क्या पाप है ?, क्या पुण्य है ?, इसका विचार हमारी दानव जाति नहीं जानती. वे जो कुछ भी करते
हैं, ठीक ही करते हैं, उसे पाप-पुण्य के तराजू पर तौल कर नहीं करते. सुन्दर
नारियों का हरन करना और उन्हें भोगना हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है. मैंने तुम्हारा
अपहरण कर अपनी जाति का गौरव ही बढ़ाया है". रावण ने सीताजी को लगभग धमकाते हुए
कहा.
अब कोई उपाय शेष नहीं था. तभी उन्हें ध्यान आया कि गिद्धराज
जटायु जी को अपनी सहायता के लिए पुकारना चाहिए. वे भले ही वृद्ध हो गए हों, संभव
है कि उन्हें उड़ान भरने में परेशानी भी आ सकती हैं लेकिन तेजस्वी गिद्धराज इतने
अशक्त नहीं हो सकते कि वे मेरी पुकार सुनकर न आ सकें?. वे मेरे स्वसुर के मित्र हैं. उन्होंने मुझे
बेटी कहकर अपना आशीर्वाद दिया था और सुरक्षा का आश्वासन भी. उन्होंने रामजी से कहा
भी था कि मैं पास रहकर सदा मेरी रक्षा में संलग्न रहेंगे. निश्चित ही वे मेरी
सहायता के लिए दौड़े चले आएंगे. लक्ष्मण ने
जाने से पूर्व इस ओर संकेत भी किया था कि जटायु मेरी रक्षा करेंगे".
तभी उन्होंने एक ऊँचे वृक्ष पर गीधराज को निद्रामग्न देखा.
उन्होंने पुकारा-" हे जटायुजी! कृपया
मेरी सहायता दीजिए. दशानन रावण मेरा हरन
कर मुझे बलात लिए जा रहा है. मेरी सहायता कीजिए...मेरी सहायता कीजिए. आपकी
पुत्रवधु का जीवन संकट में हैं..मेरी सहायता करें".
गीधराज सुनि आरत बानी.
गीधराज यद्धपि बूढ़े हो चुके थे और अशक्त भी. इस समय उनकी
आयु साठ हजार वर्ष की हो चुकी थी. इस समय
वे निद्रावस्था में थे. उन्होंने सीताजी की करूण पुकार को सुना. सुना कि वे सहायता
के लिए मुझे पुकार रही हैं. उन्होंने अपनी आँखें खोली. देखा कि रावण सीता का
निर्दयतापूर्वक अपहरण कर आकाश मार्ग से उड़ा चला जा रहा है.
पक्षियों में श्रेष्ठ गीदराज ने तत्काल ऊँची उड़ान भरते हुए
रावण के पुष्पक विमान के सामने जा खड़े हुए. उन्होंने रावण को चेतावनी देते हुए
कहा-" दुष्ट रावण ! तू मुझे नहीं
जानता. मैं जटायु हूँ पक्षियों का राजा. तुमने परस्त्री पर कुदृष्टि डालने का साहस
कैसे किया?. क्या तू श्रीराम को नहीं
जानता, तभी तो तूने ऐसी धृष्टता की है. तू सीता को नहीं बल्कि एक विषैले सर्प को
लिए जा रहा है, जो तेरे सर्वनाश का कारण बनेगी".
" एक तो मैं
वृद्ध हो चुका हूँ और इस समय मेरे पास कोई अस्त्र भी नहीं है. तुम युवा हो और
तुम्हारे पास अनेक अस्त्र हैं. भले ही मेरे पास अस्त्र नहीं है लेकिन मेरी विशाल
और नुकिली चोंच से मैं तुझे इतनी चोट पहुँचाउँगा कि तू उसे आजीवन याद रखेगा. मैं तूझे सीता को नहीं ले जाने दूँगा. सावधान
रावण ! मैं तुम्हें सचेत करता हूँ. अपना कुप्रयोजन त्याग दो अथवा अपने रथ से उस
प्रकार गिरने के लिए तैयार हो जाओ जैसे कि
कोई पका हुआ फ़ल वृक्ष से गिरता है".
इतना कहकर गीधराज ने रावण पर आक्रमण कर दिया. गीदराज पूरी
ताकत के साथ उड़ान भरते हुए रावण पर टूट पड़े और अपनी नुकिली चोंच से रावण के शरीर को
लहुलूहन करते रहे. रावण हर बार बचने का प्रयास करता, लेकिन सफ़ल नहीं हो पाया.
रावण ने देखा कि उसके शरीर से रक्त की धारा फ़ूटकर बहने लगी
है. अपने शरीर से खून बहता देख रावण को क्रोध हो आया. उसने अपनी तलवार उठाया और
जटायु पर प्रहार करना चाहा. रावण तलवार चलाने को उद्यत होता, तब तक गीधराज उसे
अपनी चोंच से प्रहार कर हवा में ऊँचा उड़ान भर चुके होते थे. रावण ने सोचा कि तलवार
से काम नहीं चलेगा. उसने तत्काल धनुष-बाण उठाया और प्रहार करने को उद्यत हुआ.
जटायु ने बाणॊं के भयंकर प्रहार से प्रतिरक्षा के लिए अपने पंखों का उपयोग किया और
अपने पैरों से रावण के धनुष को नष्ट कर
दिया.
जटायु ने ऊँची उड़ान भरते हुए रावण पर पूरी ताकत के साथ
आक्रमण किया और रावण का कवच फ़ाड़ डाला और अपने नुकिले पंजों से रथ में जुते हुए
खच्चरों का वध कर दिया. उसने रथ को नष्ट कर दिया और साथ ही अपनी चोंच से रावण के
सारथी का सिर भी काट डाला. रथ नष्ट हो जाने से रावण भूमि पर गिर पड़ा, किन्तु उसने
सीताजी को अपनी भुजाओं में दबाए रखा.
चुंकि जटायु वृद्ध थे और शीघ्र ही थक भी गए थे. रावण एक हाथ
में तलवार लिए आकाश में उड़ने के लिए उठा ही था कि गीदराज उसकी पीठ पर जा चढ़े. रावण
ने जटायु पर प्रहार किया, लेकिन उसने उस प्रहार को बचा लिया और रावण की दस भुजाओं
को अपनी चोंच से फ़ाड़ डाला. दस भुजाओं के कटने के बाद तुरन्त ही उसकी दस नयी भुजाएँ
उत्पन्न हो गईं.
घमासान युद्ध होने के बाद भी रावण ने सीता जी को अपने बंधन
से मुक्त नहीं होने दिया. अत्यन्त ही रोष में भरते हुए रावण ने अपनी तलवार निकाली
और जटायु के पंख, पैर काट डाले. पंख और पैर कट जाने से जटायु घायल होकर पृथ्वी पर
गिर पड़े.
लहुलूहन गृद्रराज को धरती पर तड़पते देखकर सीताजी का हृदय
चीत्कार करने लगा. विलाप करती हुई कहने लगीं-" हे राम ! मेरा कैसा अभाग्य है
कि जो कृपा कर मुझे बचाने के लिए यहाँ आये थे, वे पक्षिप्रवर इस निशाचर द्वारा
मारे जाने पर पृथ्वी पर पड़े हैं".
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टीप. छतीसगढ़ के दण्डकारण्य में ऋषि ताक्षर्य कश्यप
और विनीता के पुत्र गिद्धराज जटायु का मंदिर है. यह वह स्थान है जब सीताजी के हरण
कर रावण पुष्पक विमान से लंका जा रहा था, तो सबसे पहले जटायु ने रावण को रोका
था.इस स्थान पर रावण और जटायु के बीच भंयंकर युद्ध हुआ था. रावण की तलवार से इसी
स्थान पर उसके पंख कट कर गिरे थे, रामजी की पहली भेंट पंचवटी नासिक में हुई थी,
जहाँ वे रहते थे. लेकिन उनकी मृत्यु दंडकारण्य़ में हुई.
रामायण में पक्षियों
की भूमिका रही है. एक ओर जहाँ कौवे के आकार के काकभुशुण्डी की चर्चा मिलती है तो
दूसरी ओर देव पक्षी गरूड़ और अरूण का भी उल्लेख मिलता है. गरूड ने ही श्रीरामजी और
लक्ष्मण जी को नागपाश से मुक्त कराया था. इसके बाद सम्पाती और जटायु का विशेष
उल्लेख मिलता है. जटायु को श्रीरामजी की राह में शहीद होने वाला पहला सैनिक माना
जाता है.
लोमेश ऋषि के शाप के
चलते काकभुशुण्ड कौवा बन गए थे. शापमुक्त होने के लिए उन्हें राम मंत्र और
इच्छामृत्यु का वरदान मिला था. कौवे के रूप में उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत
किया. वाल्मीकि से पहले ही काकभुशुण्डी ने
गरूड को रामायण सुना दी थी. वाल्मीकि श्रीरामजी के समकालीन थे और उन्होंने
रामायण की रचना तब लिखी, जब रावण वध के बाद श्रीरामचन्द्रजी का राज्याभिषेक हो
चुका था.
रामायण में सम्पाति और
जटायु को किसी पक्षी की तरह चित्रित नहीं किया गया है, लेकिन रामचरित मानस में वह
भिन्न है. रामायण के अनुसार जटायु गृद्धराज थे और वे ऋषि ताक्श्जर्य कश्यप और
विनीता के पुत्र थे.
रामजी के काल में
सम्पाती और जटायु नाम के दो गरुड थे. वे दोनों ही देवपक्षी अरूण के पुत्र थे.
प्रजापति कश्यप की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए- गरूड और अरूण. गरुड़ भगवान विष्णु
की शरण में चले गए और अरूण सूर्य के सारथी बने. सम्पाती और जटायु इन्हें अरूण के
पुत्र थे.
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शोक से व्याकुल सीता पुकारने लगी-" हे राम ! हे
लक्ष्मण..!..मुझे इस दुष्ट के चुंगुल से बचाओ" " हे राम ! हे लक्ष्मण !
अब आप ही दोनों मेरी रक्षा करें. कहते हुए सीताजी इस प्रकार से रुदन करने लगी थीं,
जिससे निकटवर्ती देवता और मनुष्य सुन सकें. वे कभी लता से जा लिपटतीं, तो कभी किसी
पेड़ से और बारम्बार कहती "मुझे इस दुष्ट के चुंगल से छुडाओ". सीताजी की करुण पुकार से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
हिल उठा. सीताजी को राम-राम की रट लगाता देख, रावण ने उन्हें फ़िर से पुष्पक विमान
पर बलपूर्वक बिठाया और आकाश मार्ग में उड़ चला.
रावण को आकाश मार्ग में उड़ते देख मिथिलेशकुमारी जानकी जी
विलाप करती हुईं रावण से बोली-" हे नीच..अधम रावण ! क्या तुझे ये कुकर्म करते
हुए लाज नहीं आती, जो तूने मुझे अकेली और असहाय पाकर पाकर चुराये लिए जा रहा है".
"हे दुष्ट ! तू बहुत बड़ा कायर और डरपोक भी है. मेरा
हरन करने के लिए ही तूने माया द्वारा मृगरूप में उपस्थित हो मेरे स्वामी को आश्रम
से दूर हटाया. मेरे श्वसुर के सखा जटायुजी मेरी रक्षा करने के लिए उद्यत हुए थे,
तूने उन्हें मार गिराया. तू एक बूढ़े पक्षी
को तो मार सकता था, लेकिन मेरे स्वामी श्रीराम के समक्ष तू क्षण भर भी ठहर नहीं सकता. ऐसा नीच काम करते
समय यदि तू श्रीरामजी के दृष्टि में आ जाता, तो एक पल को भी जीवित नहीं
बचता".
" हे नीच दानव ! अभी भी समय है, तू मुझे मुक्त कर मेरे
आश्रम पर छोड़ आ, अन्यथा मेरे पतिदेव अपने भाई लक्ष्मण के साथ आकर तेरा सर्वनाश कर
देंगे".
अत्यन्त ही दुःख से आतुर होकर वे बहुत-सी करूणाजनक बातें
कहतीं और छूटने का नाना प्रकार से चेष्टा करती रहीं. लेकिन निशाचर रावण पर कोई असर
नहीं हुआ और वह आकाशमार्ग से समुद्र से उस पार अपनी लंकापुरी की ओर अग्रसर होता
रहा.
रावण के लंका की ओर जाते ही ऐसा लगा मानो सभी प्राणी विलाप
कर रहे हों. सीताजी का जूड़ा खुल गया था और केश वायु में उड़ रहे थे. ललाट पर लगा
सुहाग का सिंदूर लुप्त हो गया था. मुख की कांति छिन गई थी और वे कभी सिसकती हुईं
तो कभी जोरों से विलाप करते हुए " हे राम ! हे लक्ष्मण ! मुझे बचा लो. हे राम
! लंकापति रावण मेरा बलात अपहरण कर लंका लिए जा रहा है, मेरी रक्षा
करो".
०००००
गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी : कहि राम नाम दीन्ह पट डारी.
पर्वत की एक ऊँचे शिखर पर वानरों का एक दल बैठा हुआ था. वे
सभी आश्चर्यचकित होकर आकाश में उड़ रहे विमान को देख रहे थे. सीताजी के लिए यह
उपयुक्त अवसर था. उन्होंने रावण से छिपाकर अपनी रेशमी चादर में कुछ गहने रखकर उसकी
पोटली बनाई और उन वनवासियों के मध्य गिरा दिया. उन्हें विश्वास था कि रामजी उनकी
खोज में वन-वन भटकेंगे और प्रमाण जुटाना चाहेंगे कि सीताजी किस दिशा में गई
होंगी?. निश्चित ही इन वानरों से उनकी कभी न कभी भेंट अवश्य होगी. लंका की ओर बढ़ता
रावण इस समय घबराहट में था, इसलिए वह नहीं
जान पाया कि सीता ने अपने आभूषणॊं की गठरी बनाकर धरती पर फ़ेंक दिया है.
सीताजी को सागर के पार ले जाता हुआ रावण मन ही मन प्रसन्न
हो रहा था कि उसने सफ़लतापूर्वक सीता का अपहरण कर लिया था. शायद वह इस्स बात से
सर्वथा अनभिज्ञ था कि वह सीताजी को नहीं बल्कि अपनी मृत्यु को साथ लिए जा रहा था.
रामजी के शौर्य और सामर्थ्य से भी अनजान
बना हुआ था. वह यह भी नहीं जान पाया था कि उसके सहित संपूर्ण लंका का विध्वंस हो
जाएगा.
स्वयं को रामजी से सर्वश्रेष्ठ मान लेने वाला रावण सदा उनकी
उपेक्षा करता रहा था. सागर पार करने के पश्चात उसने सीताजी को महल के भीतरी कक्षों
में ले गया और उसने भयावह राक्षसिनों को आज्ञा दी -"सीता का उचित ध्यान रखा जाए और बिना
मेरी अनुमति के कोई उसका मुख न देख पाए. उसे सुवर्ण पात्रों में भोजन, वस्त्र और
दिव्य आभूषण दिया जाए और उसकी इच्छा के अनुसार सब कुछ प्रदान किया जाए. किन्तु
मेरी चेतावनी को याद रखना कि उसके प्रति कटु वचन बोलने वाला मेरे हाथों से मारा
जाएगा".
भयानक राक्षसनियों को चेतावनी देकर वह कक्ष के बाहर निकल
आया और उसने आठ शक्तिशाली राक्षसों को बुलाया, जिन्होंने जनस्थान में भयंकर उत्पात
मचाते हुए अनेक ऋषि-मुनियों को निर्ममता के साथ मार डाला था और उनका रक्तपान किया
था, आज्ञा दी कि वे आकाश मार्ग में उड़ते हुए संपूर्ण दण्डकारण्य़ पर अपनी दृष्टि
बनाए रखें कि वह वनवासी राम कहाँ जाता है, क्या करता है?. मुझे उसकी हर गतिविधियों
की सूचना देते रहें".
" उसने मेरे बड़ॆ बलवान खर और दूषण का वध किया है. जब
तक मैं उसे मारकर बदला न ले लूँ, मुझे तनिक भी शान्ति नहीं मिलेगी. तुम सभी निशाचर
सावधानी के साथ वहाँ जाना और राम के वध के लिए सदा प्रयत्न करते रहना".
सभी आठों राक्षसों ने रावण को हाथ जोड़कर कहा-" जैसी आपकी आज्ञा. हम अभी और इसी समय जनस्थान की
ओर प्रस्थान कर रहे हैं . महाबली लंकापति रावण की जय हो....जय हो". ऐसा कहते
हुए वे अदृश्य हो एक साथ ही लंका छोड़कर जनस्थान की ओर प्रस्थित हुये.
००००
अपनी इच्छा के अधीन होकर रावण पुनः सीताजी के कक्ष में आया.
उस समय वे शोक संतप्त होकर आँसूं बहा रही थी. उनकी इच्छा न होने पर भी रावण ने
उन्हें अपने महल में उस कक्ष में ले गया, जहाँ देवताओं के निवास जैसा था. वहाँ
सहस्रों दास-दासियाँ सेवा में रत थे. कक्ष में अनेक पिंजरे थे जिनमें देश-परदेश के
अनेक पक्षियों को रखा गया था. महल की दीवारॊं पर सोने का पालिश चढ़ाया गया था और
फ़र्श पर सुंदर-सुंदर अल्पनाएँ बनाई गयी थीं. अनेक स्वचालित फ़व्वारे चल रहे थे और
कई युवतियाँ वाद्य-यंत्रों पर मनमानव स्वरों को सजाते हुए गीत गा रही थीं. महल की
आन्तरिक सुदरता के सामने इन्द्र का राजभवन भी फ़ीका-सा लग रहा था.
उस विशाल कक्ष की भव्यता को दिखाते हुए रावण ने सीताजी से
कहा-" मेरी लंका में बतीस करोड़ राक्षस निवास करते हैं. इनमें वृद्धों और
शिशुओं की गणना सम्मिलित नहीं है. एक हजार से अधिक अनुचर मेरे सेवा में चौबिसों
प्रहर सेवा के लिए तैनात किए गए हैं. तुम सुंदर होने के साथ-साथ बुद्धिमान भी हो.
तुम मेरी पटरानी बन जाओ और सम्पूर्ण वैभव का उपभोग करो और वन-वन भटकते उस वनवासी
को भूल जाओ".
सीताजी ने अपने मुख को अपने आँचल से ढंक रखा था और वे
चुपचाप आँसू बहा रही थीं. रावण ने पुनः सीता जी से कहा-" हे देवी ! मैं
तुम्हें अपने प्राणॊं से भी अधिक प्रिय हो. मैं तुम्हारे चरण पकड़कर निवेदन करता
हूँ कि तुम मेरी बात मान जाओ. मेरी प्रार्थना को यूंहि नहीं ठुकराओ. मेरे मन में
तुम्हारे प्रति जो आकर्षण उत्पन्न हुआ है, उसे अंगीकार करते हुए मेरा निवेदन
स्वीकार कर लो.और मेरी पटरानी बन जाओ. तुम मेरे लिए एक अनमोल हीरा हो, मैं तुम्हें
हर कीमत पर अपनी बनाना चाहता हूँ. मैं तुम्हारे चरण पकड़कर पुनः निवेदन करता हूँ,
मेरी बात मान जाओ और संपूर्ण लंका पर शासन करो. मैंने कभी अपने जीवन में कभी किसी
स्त्री के समक्ष अपना सिर नहीं झुकाया है".
रावण को लगा कि इस तरह प्रेम का प्रदर्शन कर वह सीताजी को
अपने वश में कर लेगा. किंतु सीताजी ने बिना किसी भय के राक्षसराज रावण से
कहा-" हे लंकापति ! मेरे हृदय में केवल और केवल रामजी वास करते हैं. मैं एक
हंसनी हूँ जो कमल से परिपूर्ण सरोवर में, अपने पति के संग क्रीड़ा करती हूँ. तुम
चाहे मुझे जितना भरमाओं, मैं तुम्हारी बातों में आने वाली नहीं हूँ. केवल इतना
ध्यान रहे कि तुम अपनी इस पापमय घृणित कामुकता के कारण तुम शीघ्र ही मेरे स्वामी
के हाथों मारे जाओगे".
सीताजी के द्वारा तिरस्कृत होकर रावण को क्रोध हो आया. उसने
उन्हें चेतावनी देते हुए कहा-" मैं तुम्हें बारह माह का समय देता हूँ, ताकि
तुम स्वयं होकर मेरे प्रति समर्पित हो जाओ. याद रखो, समयावधि बीत जाने के बाद मैं
तुम्हारे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा".
अशोकवनिकामध्ये मैथिली नीयतामिति ; तत्रेयं रक्ष्यतां गूढं
युष्माभिः परिवारिता.
ऐसा कहते हुए रावण ने अपनी राक्षसिनी दासियों को आज्ञा दी
-" सीता को अशोक वृक्ष की वाटिका में ले जाओ. वहाँ उसका भली-भांति ध्यान रखना
और भांति-भांति के डर उत्पन्न कर उसे मनाने का प्रयास करना. उसे डराओ, धमकाओं,
उसकी चापलूसी करो और भी जो उपक्रम तुम लोग कर सकती हो, करो और उसे वश में
करो".
०००००
शोकाकुल सीताजी अशोक वृक्ष के नीचे बैठी हुई अपने आँसू बहा
रही थीं. उन्हें रह-रह कर इस बात पर पश्चाताप होता कि सुवर्ण मृग को प्राप्त करने
की जिद यदि वे रामजी से नहीं करतीं, तो उन्हें आज विछोह की आग में तिल-तिल कर जलते
हुए नहीं जीना पड़ता.
वे इस बात को लेकर और भी दुःखी हो जाती कि मेरे राम उस
निर्जन वन में, मेरी खोज में न जाने कहाँ-कहाँ भटक रहे होंगे? उन्होंने कुछ
खाया-पिया अथवा नहीं. वे सदैव मेरे साथ बैठकर स्वल्पाहार किया करते थे. निश्चित ही उन्होंने न तो अन्न ग्रहण किया होगा
और न ही जल पिया होगा".
" उन्हें इस बात पर भी पछतावा होता कि उन्होंने देवर
लक्ष्मण को कितना भला-बुरा कहा और उन्हें उस ओर जाने के लिए विवश कर दिया, जिस ओर
रामजी गए हुए थे. यदि वे धीरज से काम लेतीं, लक्ष्मण का कहा मान लेतीं, तो दुष्ट
रावण शायद ही हमारे आश्रम में आ पाता. फ़िर भला बेचारे लक्ष्मण का क्या दोष? मैंने
ही दुर्बुद्धि के चलते उन पर मनगढंत आरोप लगाए, जिनके कारण उन्हें आश्रम छोड़ने पर
विवश होना पड़ा था".
" मैं अपने स्वामी श्रीरामचन्द्रजी और देवर लक्ष्मण के
साथ निर्जन वन में रह कर सुखपूर्वक रह रही थी. न तो मुझे आगत की चिन्ता थी और न ही
विगत की. हंसते-हंसाते हम रह रहे थे. सुवर्ण-मृग पाने की लालसा यदि मैंने मन में
नहीं पाली होती, तो मुझे आज ये दिन नहीं देखने पड़ते". हर छोटी-बड़ी बातों को
याद करते हुए वे विलाप करने लगीं.
उनका मन इस बात को लेकर और भी दुःखी होने लगता कि मेरे
चारों ओर भयानक राक्षसनियाँ हाथ में धारदार हथियार लेकर यत्र-तत्र फ़ैली हुई हैं.
वे बार-बार आकर मुझे धमका जाती हैं, तरह-तरह के डर दिखा जाती हैं. कभी चीखती है,
कभी चिल्लाने लगती हैं, तो कभी जोरों से
भयानक अट्टहास करते हुए पूरे वन प्रान्त को कंपा कर रख देती हैं. पता नहीं कब तक
मुझे इन राक्षसनियों के बीच रहना होगा?.सोचते हुए उनका हृदय कांपने लगता.
शाम घिर आयी थी. अब रात्रि का प्रहर भी शुरु हो चुका
था,लेकिन उन्होंने कुछ खाया-पिया नहीं था, जबकि प्रातःकाल स्वल्पाहार के लिए सोने
की थाल, जो कपड़े से ढंकी हुई थी, और सुवर्ण पात्र में शुद्ध जल दो राक्षसनियों ने
लाकर उनके समक्ष रख दिया था. इसी तरह रात्रि में भी उनके लिए पानी तथा भोजन
पहुँचाया गया था, लेकिन इन्होंने आँख उठाकर भी उन थालों की ओर देखना तक पसंद नहीं
किया.
पल-प्रतिपल अन्धकार गहराता जा रहा था. अन्धकार अब इतना घना
हो उठा था कि हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था. तभी आकाशमार्ग से एक प्रकाश-पुंज
धीरे-धीरे नीचे आता गया और सीताजी के समक्ष उपस्थित हो गया. इस समय तक सभी
पहारेदार राक्षसियां गहरी नींद के आगोश में चली गईं .
प्रकाशपुंज से एक आवाज गूँजी. सीताजी इस समय अर्धनिद्रित
अवस्था में थीं. उन्होंने आवाज सुनकर अपनी आँखें खोलीं. प्रकाश-पुंज से दो हाथ आगे
बढ़े. उनमें खीर से भरा एक दिव्य पात्र था.
" हे देवी !
मैं इन्द्र हूँ. परमपिता ब्रह्माजी के आदेश पर मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ.
यह खीर से भरा पात्र है, जिसे स्वयं होकर उन्होंने आपके लिए भिजवाया है और निवेदन
किया है कि आप इसे ग्रहण करें. उन्हें इस बात का भय है कि कहीं आप रामजी के वियोग
में अपने प्राण ही न त्याग दें. अतः उन्होंने यह दिव्य खीर आपके लिए भिजवायी है.
इस खीर के ग्रहण करने के बाद आपको अनेक वर्षों तक भूख एवं प्यास नहीं लगेगी तथा आप
शारीरिक पीड़ा से भी मुक्त रहेंगी".
सीताजी को संदेह होना स्वभाविक था कि इतनी रात बीते, एक
प्रकाशपुंज उनके समक्ष उपस्थित हुआ है और उसमें से आवाज आ रही है और मुझे खीर भरा
पात्र दिया जा रहा है. निश्चित ही यह रावण के द्वारा रचित कोई मायावी खेल होना
चाहिए.
उन्होंने विनम्रता से कहा-" हे देव ! क्षमा करें.
निश्चित ही यह राक्षसराज रावण द्वारा रचित कोई मायावी खेल है. यदि आप साक्षात
इन्द्र हैं तो फ़िर मेरे समक्ष वास्तविक रूप में प्रकट होइये".
उनके आग्रह करने पर इन्द्र ने अपना वास्तविक रूप धारण किया.
सीताजी ने देखा कि उनके चरण धरती को स्पर्श नहीं कर रहे हैं, तथा उनके हार तथा
वस्त्र मुर्झाये हुए नहीं हैं और धूलरहित हैं. तब जाकर उन्हें विश्वास हुआ कि वे
इन्द्र ही हैं.
उन्होंने इन्द्र का अभिवादन कर उन्हें प्रणाम किया और उस
पात्र को लेना स्वीकार किया.
सबसे पहले उन्होंने उस खीर को अपने स्वामी रामजी को अर्पित
किया. फ़िर उसे ग्रहण किया. उसे खाते ही वे
भूख-प्यास और सभी प्रकार की शारीरिक वेदनाओं से मुक्त हो गईं थीं.
०००००
राक्षसां मृगरूपेण चरन्तं कामरूपोणम : निहत्य रामो मारीचं
तूर्ण पथि म्यवर्तत.(1/सप्तपंचादशः सर्ग:)
मारीच का वध करने के पश्चात श्रीरामजी अपने आश्रम की ओर
लौटने लगे. मार्ग में चलते हुए उनके मन में एक विचार आया-" मैंने
दण्डकारण्य में राक्षसों का बड़ी संख्या में संहार किया है. उसी कड़ी में
मैंने आज मायावी मारीच का वध किया है. निश्चित ही शेष बचे दानव मुझसे प्रतिशोध लेना
चाहेंगे".
" सुवर्ण मृग बना मायावी दानव मारीच मारा तो गया, लेकिन मरने
से पहले उसने एक बार नहीं अपितु तीन-तीन बार " हा लक्ष्मण !" "
हा सीते !" कहकर ऊँची आवाज में चिल्लाया और अपने प्राण
त्याग दिया. उसकी आवाज मेरी आवाज से हुबहू मिलती-जुलती थी. संभव है कि
उस आवाज को सुनकर सीता परेशान हो उठी होगीं और उसने अनुज लक्ष्मण को निश्चित ही
मेरी सहायता के लिए जाने को विवश किया होगा. कहीं ऐसा हुआ होगा, तो निश्चित
ही रावण ने सीता का हरण कर लिया होगा". रामजी के मन में शंका की एक बेल तेजी से फ़ैलती
हुई पूरे शरीर में लिपट गई थी. मन अशांत
होने लगा था और दिल की धड़कने बढ़ने लगी थी.
मार्ग में
चलते हुए उन्होंने सियारों के भयानक करूण क्रन्दन को सुना तो उनके सशंय में वृद्धि
होने लगी. पक्षी तथा
अन्य प्राणी भी भयंकर क्रंदन करते हुए उनके दाहिनी ओर से होकर जाने लगे . इसके
अतिरिक्त उनकी बायीं आँख में ऎंठन होने लगी और बायीं भुजा वेग से फ़ड़कने लगी थी, ऐसे ही अनेक
अपशकुन के चिन्हों का अनुभव करते हुए उन्होंने लक्ष्मण को अपनी ओर आते देखा. वे समझ गए. समझने में
तनिक भी विलंब नहीं हुआ कि सीता के साथ कोई अनहोनी हो गई है.
उन्होंने लक्ष्मण की भर्त्सना करते हुए कहा-" हे
अनुज लक्ष्मण ! तुम यहाँ ? तुमने बिना मेरी अनुमति के आश्रम कैसे छोड़ दिया? क्या तुम
नहीं जानते कि आश्रम में अकेली सीता किसी घोर संकट में पड़ सकती है? तुमने मेरी
आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस कैसे किया? मार्ग में होने वाले अपशकुनों को देखकर मुझे
लगता है कि दुष्ट दानवों ने मेरी सीता को मार डाला है या फ़िर उसका अपहरण कर लिया
है? "हे
लक्ष्मण ! हे मेरे भाई ! ये तुमने
क्या किया? क्यों उसे अकेला छोडकर
मेरे पास चले आए?".
" लक्ष्मण ! यदि उसे कुछ हो गया तो मैं आत्महत्या कर लूँगा. मैं सीता के
बिना जीवित नहीं रह सकता. हे लक्ष्मण ! तुमने मेरे साथ ये कैसा विश्वासघात किया? क्यों उसे
अकेला छोडकर यहाँ चले आए?".
" भैया ! ये क्या कह रहे हैं आप? बिना कुछ
जाने-बूझे आपने
मुझ पर कितना बड़ा आरोप मढ़ दिया? जब भाभी ने आपकी पुकार सुनी, तो सुनते ही
वे विक्षिप्त-सी होने लगी थीं. वे बार-बार मुझसे आपकी सहायता के लिए जाने को विवश
करने लगीं. मैंने उन्हें अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया कि
त्रिलोक में कोई भी ऐसा नहीं है, जो श्रीराम के समक्ष खड़ा हो सके".
" मारीच की आवाज को मैंने पहले भी सुना था. मैंने
उन्हें समझाने की पूरी कोशिश की कि यह आवाज आपकी न होकर, उस दुष्ट
दानव मारीच की आवाज है. लेकिन वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थीं. बस उन्होंने
एक ही रट लगा रखी थी कि मैं शीघ्रता से अपने भाई की रक्षा के लिए जाऊँ. यदि तुम
उनकी सहायतार्थ नहीं गये और मेरे स्वामी को कुछ हो गया, तो मैं
अग्नि में कूदकर अपने प्राण त्याग दूँगी".
"जब मैंने सानुनय उनकी आज्ञा को मानने से मना कर
दिया तो उन्होंने अत्यधिक क्रोधित होते हुए मुझ पर कुछ ऐसे अशोभनीय आरोप लगाए, जिन्हें मैं
आपको नहीं सुना सकता. उनके आरोपो को सुनने से पहले धरती फ़ट जाती और
मैं उसमें समा जाता, तो मुझे इतने कटु शब्द सुनने को नहीं मिलते. एक तरफ़ कुँआ
था और दूसरी ओर खाई थी. एक ओर मैं आपकी आज्ञा का उल्लघंन नहीं कर सकता
था और दूसरी ओर भाभीजी की आज्ञा थी कि मुझे तत्काल ही अपने भ्राता की सहायता के
लिए प्रस्थान कर देना चाहिए. इन दो आज्ञाओं के बीच फ़ंस कर मैंने निर्णय लिया
कि मुझे अपने भ्राता से चाहे जितनी भी भर्त्सना सुनने को मिलेगी, शीश झुकाकर
सुन लूँगा लेकिन मुझ पर यह आरोप न लगे कि लक्ष्मण के कारण भाभीजी को अग्नि-प्रवेश करना
पड़ा".
"इतना ही नहीं उन्होंने मुझ पर भरत का साथ देने का आरोप
लगाया और मुझे आपका शत्रु बताया. यदि मेरे मन में किसी प्रकार की शत्रुता होती
तो मैं आपसे कभी का बदला ले चुका होता. मैं तो केवल आपके श्रीचरणॊं का अनुरागी हूँ. न तो मुझे
किसी राज्य की कामना है और न ही किसी भौतिक सुखों को पाने की अभिलाषा. आपसे क्षण
मात्र भी विलग रहने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता. यदि इन्द्र भी स्वयं आकर मुझे इसके बदले इन्द्रासन भी देना चाहेंगे, तो मैं उसे
ठुकरा दूँगा".
" अपने दुःख में विकल होती हुई भाभीजी मुझ पर
लांझनों की बौझार न लगातीं, तो मैं कदापि उन्हें अकेला छोड़कर नहीं आता. उनके द्वारा
लगाए आरोपों को मिथ्या सिद्ध करने हेतु मैं आपकी सहायता के लिए यहाँ चला आया". लक्ष्मण
जी ने अपने ज्येष्ठ भ्राता को समझाते हुए वास्तविकता से परिचित कराते हुए कहा.
लक्ष्मण की
बातों को सुनकर रामजी ने रोष में आकर उत्तर दिया-" हे लक्ष्मण ! सीता को असुरक्षित छॊड़ आने का कोई कारण नहीं है. तुम्हें भली-भांति ज्ञात
है कि राम अजेय है और राक्षसों तथा अन्य किसी से
मैं स्वयं की सुरक्षा करने के लिए पूर्णरुपेण सक्षम है. तुम्हें
स्त्री के क्रोध से उत्तेजित होकर मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए था. हे तात ! तुमने
अनुचित व्यवहार किया है. तुम ऐसा व्यवहार करोगे, इसकी मैंने
कल्पना तक नहीं की थी. यह तुम्हें शोभा नहीं देता".
व्यर्थ समय
न गंवाते हुए रामजी और लक्ष्मण अपनी कुटिया पर पहुँचे, जहाँ कोई
नहीं था. किसी को
वहाँ न पाकर वे सीताजी को खोजने लगे. उन्हें न पाकर, उनका चेहरा मुरझा गया और शोक से काला पड़ गया. वियोग की
अनुभूति से उत्पन्न विक्षिप्तता से दुःखी रामजी कभी किसी पेड़ से, कभी किसी लता से पूछने लगे-"क्या
तुमने मेरी सीता को यहाँ से अन्यत्र जाते देखा है. उसने पीत वर्ण के रेशमी वस्त्र पहन रखे थे तथा
केशों को पुष्पों से सुसज्जित किया था".
" हे लक्ष्मण ! मैं सीता के बिना दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकता, जो मेरे
प्राणॊं की सहचरी है, देवकन्या के समान सुन्दरी सीता इस समय कहाँ हैं? हे अनुज! मैं सोने के
समान तपाये हुए सोने के समान कान्तिवाली सीता के बिना मैं पृथ्वी का राज्य और
देवताओं का आधिपत्य भी नहीं चाहता. सीता के. यदि वे जीवित नहीं होंगी, तो मैं भी
अपने प्राणों का परित्याग कर दूँगा. तुम अकेले ही अयोध्या लौट जाना".
" भैया ! ये क्या कह रहे हैं आप? आपने यह
कैसे कह दिया कि मैं अकेला अयोध्या लौट जाऊँ? यदि मुझे जाना ही होता तो मैं आपके साथ आता ही
क्यों. मैं तो केवल
और केवल आपके श्रीचरणॊं का अनुरागी हूँ, आपका सेवक हूँ. मैं ऐसी विषम परिस्थिति में आपको अकेला नहीं छोड सकता" लक्ष्मण के लाख समझाने और सांत्वना देने के
पश्चात भी रामजी की हृदय-वेदना कम नहीं हो रही थी.
वे
प्रतिक्षण विक्षितता से ग्रसित हो जाते थे. उनकी पीड़ा ही इतनी सघन थी कि उसे शब्दों में
बांध पाना मुश्किल है. वे जड़ और चेतन से बार-बार पूछते
कि मेरी जानकी कहाँ हैं?"..
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी : तुम्ह देखी सीता मृगनैनी.
"हे पक्षियों ! हे मृगों ! हे भ्रमरपंक्तियों ! तुमने मृग
के नेत्र वाली सीत्ताजी को देखा है? हे खंजन, तोता, मृग, कबूतर, मछली, भ्रमर-समुदाय और प्रवीण कोयल, कुन्दकली, अनार, बिजली, शरदचन्द्र, सर्पिणी, वरुणा के
पाश, काम-धनुष, हंस, हाथी, सिंह क्या
तुमने मेरी प्राणप्रिया सीता को देखा है? यदि तुमने मेरी प्रिया मैथिली को देखा हो तो
निःशंक होकर बता दो, मुझसे तुम्हें कोई भय नहीं होगा".
" हे वरारोहे ! क्या तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती है. अधिक हास-परिहास करने
का तुम्हारा स्वभाव तो नहीं था, फ़िर किसलिए मेरी उपेक्षा करती हो?".
" हे अशोक ! तुम तो शोक को दूर करने वाले हो और इधर मैं शोक
से अपनी चेतना खो बैठा हूँ. मुझे मेरी प्रियतमा के दर्शन करा दो. मुझे शोकहीन
कर दो. हे ताल ! यदि तुमको
मुझ पर दया आती हो तो मुझे उस सुन्दरी के विषय में बतलाओ? हे जामुन ! सुवर्ण के समान कान्तिवाली मेरी प्रिया यदि
तुम्हारी दृष्टि में पड़ी हो तो तो तुम निःशंक मुझसे कह सुनाओ. हे कनेर ! तुम्हारे
सुन्दर पुष्प सीता को बहुत पसंद थे. यदि तुमने उसे कहीं देखा हो तो मुझसे कहो".
इस प्रकार
आम, कदम्ब, विशाल शाल, कटहल, कुरव ( एक पक्षी का
नाम), धव (एक जंगली
पेड़ जिसकी पत्तियाँ अमरुद की पत्तियों जैसी होती है) अनार आदि फ़लों को देखकर श्रीरामचंद्रजी उनके
पास गये और वकुल, पुन्नाग ( सुलतान चम्पा ), चन्दन तथा केवड़े आदि के वृक्षों से भी पूछते
फ़िर रहे थे. इस समय वन में वे किसी पागल की तरह इधर-उधर भटकते
दिखाई दे रहे थे.
" हे अनुज ! मुझे जान पड़ता है कि मांसभक्षी राक्षसों ने
मुझसे बिछुड़ी हुई मेरी भोली-भाली प्रिया को खा लिया है.. रोती-बिलखती हुई
प्रियतमा सीता ,जो चम्पा के समान वर्णवाली कोमल एवं सुन्दर ग्रीवा, जो हार और
हँसली आदि आभूषण पहनने के योग्य थी, निशाचरों का आहार बन गयीं".
अपनी
प्रियतमा की खोज करते हुए वे वे कभी पागलों-सी चेष्टा करने लगते. कभी दौड़-धूप करत्ते
हुए वन प्रांतों में, कभी नदियो, पर्वतों और पहाड़ी झरनों तक जाकर सीताजी की खोज
करते. सीताजी को कहीं
नहीं पाकर वे विलाप करने लगे. वे लक्ष्मण से कहते- मैं सीता के
साथ अयोध्या से निकला था, यदि मैं उसके बिना ही लौटा तो अपने अन्तःपुर
में प्रवेश कैसे कर पाऊँगा? सारा संसार मुझे पराक्रमहीन, और निर्दयी
कहकर पुकारेगा. मिथला नरेश मुझसे कुशल पूछने आएंगे, उस समय मैं
उनकी ओर देखने का भी साहस नहीं कर पाऊँगा. मैं उनसे कैसे कह पाऊँगा कि मैं सीता की समुचित
देख-भाल नहीं कर
पाया".
चारों ओर
खोज-खबर लेने के
बाद भी वे सीताजी को खोज नहीं पाए तो उन्होंने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा-" हे
लक्ष्मण ! तुम अकेले
अयोध्या लौट जाओ. मैं तो अब सीता के बिना किसी भी तरह जीवित नहीं
रह सकता. तुम भरत को
मेरा संदेश कह देना कि तुम सारी पृथ्वी का पालन करो, ऐसी मेरी आज्ञा है और तुम माता कौसल्या, कैकेई तथा
सुमित्राजी को मेरी ओर से प्रणाम निवेदित करते हुए उनकी रक्षा करना और उनकी
आज्ञानुसार चलना. मेरी माता कौसल्या से सीता के बारे में
विस्तारपूर्वक समाचार कह सुनाना". ऐसा कहते हुए वे दीनभाव से विलाप करने लगे.
" भैया ! यह अवसर हताश और निराश होने का नहीं है. अब इस बात
से इनकार नहीं किया जा सकता कि वैदेहीजी हमसे दूर जा चुकी हैं. अब उनके सतत
खोज की आवश्यकता है. अतः मेरा आपके साथ बना रहना नितान्त आवश्यक है. मैं कदापि
अकेला अयोध्या नहीं लौटूँगा. अतः मेरा निवेदन है कि मुझे बार-बार लौट
जाने की आज्ञा नहीं देंगे".
" जहाँ तक अयोध्या की बात है, भैया भरत के
रहते कोई भी अयोध्या की ओर आँख उठाकर भी देखने की हिम्मत नहीं कर सकता. भैया
भरत, नन्दीग्राम में बैठकर राज्य का संचालन कर रहे
हैं. एक छोटे से ग्राम में बैठकर राज्य का संचालन
करने का ऐसा अनुपम उदाहरण आपको अन्यत्र खोजने पर भी नहीं मिलेगा और न ही भविष्य में सुनने को
मिलेगा. उनके रहते सभी प्रजाजन और माताएँ भी सुखपूर्वक रहते होंगे. केवल उन्हें
एक ही दुःख सालता होगा कि आप अयोध्या में नहीं हैं.उन्हें तो बस आपके कुशलतापूर्वक लौट आने की
बेसब्री से प्रतीक्षा होगी".
लक्ष्मण ने
उन्हें पुनः सांत्वना देते हुए कहा-" भैया ! यह हमारे लिए संकट की घड़ी है. ऐसी
परिस्थिति में मैं आपको अकेला छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा. जब तक हम
सीताजी को खोज नहीं लेते, चैन से कैसे बैठ सकते हैं?. भैया ! यह भी संभव है कि वे इन बियाबन वन में कहीं भटक
गयी होंगी. अतः हमें शीघ्रता से उस राह की खोज करनी चाहिए, जिस पथ पर
चलकर वे वापिस आश्रम नहीं लौट पायीं".
" हाँ लक्ष्मण ! हाँ, तुमने सच कहा. अब हमें उस मार्ग की तलाश करनी चाहिए, जिस दिशा से
होकर सीता गयीं होंगी".
थोड़ा और आगे
बढ़े थे कि उन्होंने बिखरे हुए कुछ पुष्प देखे जो रामजी ने सीताजी को दिये थे. कुछ और आगे
चलकर उन्हें सीताजी के पदचिन्ह दिखाई दिये,जिसके आसपास किसी विशालकाय राक्षस के पदचिन्ह
थे. फ़िर कुछ
दूरी पर लक्ष्मण ने एक टूटा हुआ धनुष और विनष्ट हुए रथ के कुछ भाग एवं सीताजी के
कुछ टूटे हुए आभूषण देखे. जब उन्होंने रक्त की कुछ बूँदे दिखाई दीं, तब उन्होंने
अनुमान लगाया कि निश्चित ही राक्षसों ने सीता का वध कर दिया होगा. उस स्थान को
देखते हुए ऐसा प्रतीत होता था कि उस स्थान पर दो नरभक्षियों ने आपस में युद्ध किया
है.
रथ के
पहियों के चिन्हों को देखकर लक्ष्मण ने कहा-" भैया ! इस पथ पर मुझे रथ के पहियों के निशान दिखाई दे
रहे हैं".
रथ के चिन्ह
कुछ दूर जाकर अदृष्य हो गए थे . लक्ष्मण जी ने सहजता से अनुमान लगा लिया था कि इसी स्थान से होकर लंकापति रावण, रथ हांक कर
ले गया होगा. दक्षिण दिशा की ओर बढ़ते हुए उन्हें वीणा के चित्र वाली एक
ध्वजा दिखी, जिसे देखकर उन्होंने सहजता से अंदाजा लगाया कि संभवतः इसी
स्थान पर वृद्ध गिध्रराज जटायु और दुष्ट रावण के बीच युद्ध हुआ होगा. अपने भ्राता
की खोज पर जाने से पहले उन्होंने जटायु से सीताजी की रक्षा करते रहने की प्रार्थना
की थी. निश्चित ही
जटायु सीताजी के सहायतार्थ यहाँ आए होंगे.
आगें परा
गीधपत्ति देखा.
कुछ दूर आगे
जाने पर उन्होंने एक स्थान पर एक टूटा हुआ त्रिशूल और अनेक बाणॊं से युक्त दो
तूनीर पड़े हुए दिखे. फ़िर आगे बढ़कर उन्हें एक कवच दिखाई दिया. थोड़ा और आगे बढ़ने पर उन्हें पवनवेग से उड़ने
वाले घोड़ों और रथ के सारथी की मृत देह दिखाई दी. कुछ ही दूरी पार कर वे एक ऐसे स्थान पर जा
पहुँचे, जहाँ जटायु
घायल अवस्था में पड़े हुए थे और वे " हे राम..हे राम ..हे.राम .... राम नाम का उच्चारण कर रहे थे.
गीधपति
जटायु को मरन्नासन अवस्था में देखकर रामजी अपने आपको रोक नहीं पाए और अश्रु बहाते
हुए उनके शरीर से जाकर
लिपट गए. जटायु के
शरीर से देर तक लिपटे रहने की दशा में देखकर, लक्ष्मण को संदेह हुआ कि भ्राता सम्भवतः
मूर्च्छित तो नहीं हो गये हैं?. उन्होंने पास ही बहते हुए झरने से शीतल जल लाया
और उनके मुँह पर छिड़का. तब जाकर उन्होंने अपने नयन खोले और पुनः अश्रु
बहाते हुए कहने लगे-" कौन पुत्र ऐसे हुए हैं,जिन्होंने
अपने पिता की हत्या की हो. मेरे पिता मेरे विरह में मृत्यु को प्राप्त हो
गये और अब मेरे पितृतुल्य (जटायु) मेरी सहायता के लिए आगे आये और अब प्राणहीन
होकर पड़े हैं. हाय ! मैं पापी, इन दोनों की मृत्यु का कारण बना".
"हे मेरी माता के समान (जटायु) ! मैं मोहग्रस्त होकर मायावी मृग के पीछे दौड़ा
चला गया, उस समय
मैंने तनिक भी विचार नहीं किया की इसका क्या परिणाम होगा? मेरी पत्नी
की विपदा से रक्षा करने के आप आगे आये और अपना कर्तव्य निभाया".
रामजी ने
उद्वेग में भरते हुए घायल जटायु से जानना चाहा-" हे महात्मन ! कृपया मुझे सीता एवं उसके अपहरणकर्ता के विषय
में वह सब कुछ बतायें, जो आप जानते है".
घायल जटायु
ने लड़खड़ाती वाणी से सम्पूर्ण घटना सुनाते हुए कहा-" हे रघुनन्दन ! दुरात्मा राक्षसराज रावण ने विपुल माया का
आश्रय ले, आँधी-पानी की सृष्टि करके सीता का हरण किया हे".
"हे तात! जब मैं उससे लड़ते-लड़ते थक गया, उस अवस्था
में उसने मेरे दोनों पंख काट दिये. हे राम ! वह निशाचर दक्षिण दिशा की ओर गया है".
" हे राम ! रावण सीता को "मन्द" मुहूर्त में उठाकर ले गया है. शायद उसने
हरण से पहले मुहूर्त पर विचार नहीं किया होगा?. इस मुहूर्त में चोरी हो गई चीजे पुनः मिल जाती है. अतः आप उसे
पुनः प्राप्त कर लेंगे".
"प्रिय राम ! सीता के लिए अधिक शोक न करो. क्योंकि
युद्ध में राक्षसों के राजा रावण के मारे जाने के पश्चात आप निश्चित रूप से सीता
को ले लाएंगे." इतना बतलाने के बाद जटायु ने " हे राम ! हे राम ! कहा और
अन्तिम श्वास ली.
रामजी ने
लक्ष्मण से कहा- हे अनुज ! सीता के अपहरण की घटना से अधिक दुःखी मैं जटायु
जी की मृत्यु से हूँ, जिन्होंने मेरे लिए अपने प्राण की आहुति दे दी. जटायु महायशस्वी राजा दशरथ जी जैसे मेरे माननीय और पूज्य थे, वैसे ही
पक्षिराज जटायु भी हैं".. फ़िर उन्हें सम्बोधित करते हुए बोले-"हे
बलशाली गिद्धराज ! जो व्यक्ति यज्ञादि करते हैं, अग्निहोत्र
करते हैं और जो युद्ध में शत्रुओं को पीठ नहीं दिखाते, निःसंदेह उन्हें उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है. यह जानते
हुए भी कि आपका शरीर थक चुका है, बलशाली रावण से आप किसी भी प्रकार से मुकाबला
नहीं कर सकते थे, फ़िर भी आपने अपना पराक्रम दिखाते हुए दुष्ट रावण के साथ घनघोर युद्ध किया".
" हे सुमित्रानंदन ! तुम जाकर सूखी लकड़ियाँ ले आओ. मैं स्वयं इन पक्षिराज को अपने हाथों चिता पर
चढ़ाऊँगा और इनका दाह-संस्कार करूँगा".
पक्षिराज के
मृत शरीर को उन्होंने चिता पर रखा और अग्नि दी. जटायु के आत्मा की शांति के लिए दोनों भाइयों
ने प्रार्थना की और वैदिक मंत्रों का पाठ किया. तत्पश्चात दोनों ने पवित्र गोदावरी में स्नान
किया. इस प्रकार
अन्तिम संस्कार पूर्ण करने के पश्चात, उन्होंने अपना सारा ध्यान सीताजी की खोज की ओर केन्द्रित किया और
वन में विचरने लगे.
०००००
दक्षिण-पश्चिम की
ओर अग्रसर होते हुए वे एक ऐसी स्थान में पहुंचे,जहाँ उस समय तक शायद ही किसी ने प्रवेश किया हो. दण्डकारण्य
की सीमा को पार कर वे
सघन वन "क्रोंच
वन" में
पहुँचे. एक विशालकाय
गुफ़ा के समक्ष एक राक्षसिनी खड़ी थी, जिसके लंबे-नुकिले दाँत, विशाल उदर एवं कठोर त्वचा वाली थी, आगे बढ़ी और
उसने लक्ष्मण का हाथ पकड़कर कहा-" हे सुन्दर युवक ! तुम कौन हो, मैं नहीं जानती, लेकिन मैं तुम पर मोहित हो गई हूँ. कृपाकर मुझे
अपनी पत्नी बनाकर मेरे साथ इस मनोहर वन का आनंद लो".
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कौंच वन.
"क्रौचारन्य"
जनस्थान और "मतंगाश्रम" के बीच में स्थित था. क्रौंचारण्य़ के निकट
"कौंच" नामक पहाड़ी थी. वर्तमान में बेल्लारी (मैसूर) से छः मील पूर्व की
ओर लोहांचल पर्वत को "कौंच" कहा जाता है.
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उसके उत्तर
में क्रोधित होते हुए लक्ष्मण ने अपनी तलवार निकाली और उसके नाक, कान और स्तन
काट दिये. रक्त बहाती हुई वह राक्षसिनी भाग खड़ी हुई. वे थोड़ा और आगे बढ़े ही थे कि अकस्मात रामजी ने
लक्ष्मण से कहा-" सुमित्रानंदान ! मेरी बायीं भुजा फ़ड़क रही है और न जाने क्यों मन
भी विचलित हो रहा है. मुझे लगता है कि कोई नयी विपत्ति का सामना हमें
करना पड़ सकता है. अतः हमें सावधान रहना चाहिए".
वन में कुछ
दूर जाने के बाद उन्हें तूफ़ान की-सी गर्जना के सामन एक उच्च स्वर की ध्वनि सुनी. दोनों ने
अपनी-अपनी
तलवारें निकल लीं और उस स्त्रोत की ओर सावधानी पूर्वक आगे बढ़े.
उन्होंने
देखा एक विशालकाय राक्षस, जिसके न तो हाथ थे और न ही पैर थे तथा उसके उदर
के मध्य भयंकर मुख स्थित था. उसके शरीर पर चुभने वाले बाल थे, छाती पर दो
अग्निमय नेत्र थे और उसकी भुजाओं का विस्तार मीलों लंबा था, जो उसे
विशाल प्राणियों को सहजतापूर्वक पकड़ कर उनका भक्षण कर लेने के लिए सक्षम बनाती थीं.
उसने अपनी
लंबी भुजाओं को फ़ैलाते हुए दोनॊ भाइयों को जकड़ लिया, जिससे वे असहाय हो गये. उसकी पकड़े
में आकर रामजी विचलित नहीं हुए परन्तु लक्ष्मण निराश होकर बोले-" हे भ्राता ! आप इस राक्षस को अपने जीवन के बदले मेरा बलिदान
दे दें, ताकि आप
सीताजी की खोज पुनः कर सकेंगे".रामजी ने लक्ष्मण को प्रोत्साहित करते हुए
सांत्वना दी कि हमें कुछ नहीं होगा, तुम धीरज धारण करो".
दोनॊं को इस
तरह वार्ता करता देख, उस दानव ने अपना स्वयं का परिचय देते हुए कहा-" मेरा
नाम कबन्ध है. यह मेरे लिए कितने सौभाग्य की बात है कि तुम दोनों मेरे वन
में आए हो. सच कहूँ, मैं कई दिनों से भूखा हूँ और भोजन की तलाश कर
रहा था. विधाता ने
तुम दोनों को मेरा भोजन बना कर भेजा है. अब तुम लोग मेरी पकड़ से छूट नहीं पाओगे".
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कबन्ध-
जिसके न
तो पैर थे और न ही गर्दन लेकिन उसके हाथ मीलों लंबे थे, जिसके
माध्यम से वह जानवरों को पकड़ कर खा जाता था. वह अपने हाथों को जितना चाहे उतना बड़ा कर
सकता था.
कबन्ध नाम का एक गन्धर्व था जो दुर्वासा ऋषि
के श्राप के कारण राक्षस बन गया था. एक अन्य कथा के अनुसार वह "श्री" नामक अप्सरा का पुत्र
था और विश्रावसु नाम का गर्धर्व था. यह अत्यन्त ही बलशाली और इच्छानुसार रूप धारण
करने वाला था. एक अन्य कथा के अनुसार उसका असली नाम "दनु" था, जिसका जन्म गन्धर्व जाति में हुआ था. वह बचपन से ही अत्यधिक
शक्तिशाली व सुंदर था. उसकी सुंदरता के कारण उसके शरीर से एक अलग प्रकार का प्रकाश निकलता था (कबंध रामायण) साथ ही उसे स्वयं
भगवान ब्रह्मा जी से वरदान मिला था कि उसे किसी अस्त्र से नहीं मारा जा सकता. एक अन्य कथा के अनुसार ऋषि स्थूलशिरा ने कबंध
को श्राप दिया था और कहा था कि जब लक्ष्मण के साथ श्रीरामजी अपनी भार्या सीताजी की
खोज के लिए आएंगे, तब वे तुम्हारी भुजाएं काट देंगे, तब तुम श्राप से मुक्त हो सकोगे.
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तब लक्ष्मण
से श्रीरामजी से कहा-" भैया ! हमें शीघ्र ही अपनी तलवारों से इस राक्षस की भुजायें काटकर स्वयं को बचाना
होगा".
यह सुनते ही
वह क्रोधित हो उठा और दोनों को निगल जाने के लिए अपना भयंकर मुँह खोला. वह अपना
मुँह पूरा खोल पाता, इससे पहले श्रीरामजी ने उसकी दाईं तथा लक्ष्मण
ने उसकी बायीं भुजा काट दी. भुजाएँ कटने के दर्द से वह चीत्कार कर उठा. उसकी
चीत्कार से पूरा वन प्रदेश गूंज उठा. फ़िर उसने अत्यन्त ही संतप्त स्वर में पूछा-" आप
दोनों कौन हैं और किस प्रयोजन के लिए इस निर्जन वन में भटक रहे हो".
तब लक्ष्मण
ने कहा-" ये
श्रीराम हैं, जो इक्षवाकु वंश के एक क्षत्रिय हैं. मैं इनका
अनुज लक्ष्मण हूँ. हम यहाँ श्रीरामजी की पत्नी सीताजी की खोज में
आए है, जिन्हें
राक्षराज रावण उठाकर ले गया है".
रामजी का
नाम सुनते ही कबन्ध अत्यन्त ही प्रसन्न हो उठा. तब उसने भाव-विभोर होकर
कहा-" मैं
कितना सौभाग्यशाली हूँ जो आप स्वयं चलकर मुझे श्राप से मुक्त कराने आए हैं. कृपया सुने
कि मुझे ऐसा भयंकर रूप कैसे प्राप्त हुआ?. पिछले जन्म
में मैं धनु का पुत्र था. कठिन तप करके मैंने परमपिता ब्रह्माजी को
प्रसन्न किया और उन्होंने मुझे दीर्घ अवधि के लिए जीवन का वरदान दिया. इस वरदान के
प्राप्त होते ही मुझे अभिमान हो गया और सोचने लगा कि मेरा प्रमुख शत्रु इन्द्र है, जो मुझे अब
किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचा सकता. यह सोचकर मैंने स्वर्ग के अधिपति इन्द्र पर
आक्रमण कर दिया. उन्होंने वेग से मेरे ऊपर वज्रपात कर दिया. उस वज्र के
प्रहार से मेरा सिर और पैर मेरे शरीर में प्रविष्ट हो गए. स्वयं को
दीन-हीन अवस्था
में पाकर मैंने उनसे याचना कि मेरा वध कर दें. किन्तु उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि ऐसा
करने से भगवान ब्रह्माजी के वचन असत्य हो जाएँगे".
"तब मैंने इन्द्र से जानना चाहा कि बिना सिर के मैं कैसे
जीवित रह सकता हूँ, तब उन्होंने मेरा मुख उदर के मध्य में स्थित
करके मेरी भुजाओं को आठ मील लम्बा बना दिया. फ़िर उन्होंने बताया कि "जब
श्रीराम जी एवं लक्ष्मणजी तुम्हारे पास आएँगे तब तुम अपने मौलिक स्वरूप को पुनः
प्राप्त करोगे".
" हे रघुनन्दन ! उस दिन के बाद से मैं अपनी लम्बी भुजाओं से जीवों को पकड़कर अपने मुँह में
डालता रहा हूँ ".
" हे राम ! इन्द्र की बात को सुनकर मुझे पक्का विश्वास हो
गया था कि एक दिन आपका आगमन होगा और मुझे इस विभत्स योनि से छुटकारा मिल जाएगा. एक दिन की
बात है. कोई ऋषि इस ओर आ
रहे थे. भूलवश मैंने
उन्हें श्रीराम समझकर पकड़ लिया. ऋषि ने क्रोधित होते हुए मुझे श्राप दे दिया कि
तुम अनन्तकाल तक विभत्स ही बने रहोगे. मैंने उनसे बहुत प्रार्थना की कि मेरी इस दशा
का कोई तो अंत होगा ?, कृपया बतलायें. तब उन्होंने मुझे बतलाया कि श्रीराम मेरा दाह-संस्कार
करेंगे, तभी मुझे इस
योनि से मुक्ति मिलेगी और मैं अपने वास्तविक स्वरूप में आ सकूँगा".
रामजी को यह
सुनकर प्रसन्नता मिली कि सीताजी का पता शीघ्र ही
प्राप्त होने जा रहा है. अति उत्साहित होते हुए उन्होंने कबन्ध से कहा-" मेरी
पत्नी सीता को राक्षसों का राजा रावण हर कर ले गया है. मैंने केवल
उसका नाम भर सुना है.वह कहाँ रहता है आदि मुझे ज्ञात नहीं है". मैं तुम्हें
एक विशाल गड्ढे में फ़ेंककर तुम्हारा दाह-क्रिया कर दूँगा और तुम मुझे रावण के बारे में
विस्तार से जानकारी दोगे".
" हे दीनानाथ-अब मैं आपके द्वारा मुक्त किया जा चुका हूँ और
अपनी मृत्यु के पश्चात मैं आपको मित्रता करने योग्य एक ऐसे व्यक्ति के विषय में
बतलाऊँगा, जिसने तीनों
लोको का भ्रमण किया है. उससे आपको इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति में बहुत
सहायता मिलेगी".
इतना कहकर
कबन्ध ने प्राण त्याग दिया. रामजी ने लक्ष्मण के सहयोग से उसका दाह-क्रिया की. प्रज्ज्वलित
अग्नि में से कबन्ध सुन्दर वस्त्र धारण किए हुए तथा आभूषणॊं से
सुसज्जित होकर अपने मूल स्वरूप में प्रकट हुआ.
उसने कहा- "हे
प्रभु ! राजनैतिक
संकटॊं को दूर करने के छः उपाय बतलाए गए हैं. पहला- शांति के द्वारा, दूसरा- युद्ध के द्वारा, तीसरा- हिंसा के द्वारा, चौथा- श्रेष्ठ हथियारों द्वारा दुर्ग के निर्माण द्वारा , पांचवा- मतभेद उत्पन्न करके तथा छंटवा- अन्यों की
सहायता के द्वारा. आप इन उपायो के द्वारा अपने इच्छित फ़ल को
प्राप्त कर सकते हैं. आप अभी अपनी पत्नी के वियोग से दुःखी हैं. अतः ऐसी दशा
में एक व्यक्ति की सहायता से आप अपनी पत्नी को ढूँढ पाने में समर्थ हो सकेंगे. वह व्यक्ति
और कोई नहीं वानरराज सुग्रीव हैं, जिसे उसके अग्रज बालि ने, जो इन्द्र का पुत्र है, राज्य से निष्कासित कर
दिया है".
"
हे राम ! आपको सुग्रीव से, जो सूर्य द्वारा ऋक्षराज की पत्नी से उत्पन्न
किया गया है, मित्रता करनी चाहिए. वह पम्पा सरोवर के निकट ऋष्यमूक
पर्वत पर निवास करता है".
" सर्वप्रथम आप पम्पा सरोवर जाइए, वहाँ सुंदर
पक्षियों का निवास है. पक्षियों तथा मछलियों को भोजन खिलाकर आप वहाँ
रहने वाली शबरी नामकी एक तपस्विनी से भेंट करें".
" वह पर्वत प्रदेश सदाबहार पुष्पों से
सुरभित होता रहता है तथा प्रचुर मात्रा में फ़ूल-फ़ल आदि भी वहाँ आसानी से मिल जाते हैं. उस सरोवर के
निकट ही ऋषि मतंग ने अपना शरीर त्याग दिया था. शरीर
त्यागने से पूर्व मतंग ऋषि ने शबरी को आश्वस्थ करते हुए कहा-" मैंने
हजारों साल तक तपस्या की,लेकिन मुझे रामजी के दर्शन प्राप्त नहीं हो पाए. वे निश्चय
ही मेरे आश्रम में पधारेंगे और तुम्हें दर्शन देंगे. अतः तुम इसी आश्रम में रहकर उनकी प्रतीक्षा
करना".
उनके
ब्रह्मलोक गमन के पश्चात वह योगिनी स्त्री शबरी अपने गुरु के अन्य शिष्यों का
ध्यान रखने लगी थीं. स्वर्गलोक सिधारने के पहले वह आपके दर्शन की
प्रतीक्षा में वहाँ निवास करती है".
"
पम्पा सरोवर के निकट ही ऋष्यमूक
पर्वत है, जहाँ
सुग्रीव एक विशाल गुफ़ा में निवास करता है और उसे सदैव बालि के आक्रमण का भय लगा
रहता है. सुग्रीव
विश्वासपात्र, निपुण, उदार, बुद्धिमान, पराक्रमी एवं शक्तिशाली है. उसके साथ
आपको मैत्री करना उचित होगा, क्योंकि राक्षसों के विषय में उसे
सब कुछ ज्ञात है. उसके अनुयायी सारी पृथ्वी पर घूमकर सीताजी की
खोज कर सकते हैं".
ऐसा कहकर
उसने श्रीराम जी को प्रणाम किया और अनुमति लेकर स्वर्गलोक चला गया. कबन्ध के
निर्देशों का पालन करते हुए रामजी तथा लक्ष्मणजी उस ओर बढ़ चले.
पश्चिम दिशा
में अग्रसर होते हुए उन्होंने मार्ग में जामुन, चिरौंजी, कटहल, बड़,पाकड़, तेंदू, आम, नागकेसर, भिलावा, अशोक, लाल चंदन आदि के वृक्षो को देखा. कई वृक्षों
में फ़ल पचूर मात्रा में लदे हुए थे, जिनके भार से डालियाँ झुक आयी थीं. उन्होंने
मधुर फ़लों का स्वाद लिया.
तदनन्तर
सुन्दर पर्वत प्रदेशों,जलाशयों और नदियों के किनारे-किनारे चलते
हुए वे पम्पा नामक पुष्करणी के तट पर पहुँचे. उन्हें आश्चर्य इस बात पर हो रहा था कि सरोवर
के किनारे लंबे, कड़े तथा तेज किनारे वाली घास (सेवार) नाम मात्र को भी नहीं थी और यहाँ की भूमि
बालुका से युक्त थी. जलाशय में विचरने वाले हंस, कारण्डव,कौंच और
कुरंग मधुर आवाज में कूहक रहे हैं. ऋषि-मुनियों की तपस्या के प्रभाव से पेड़ॊ पर लदे रंग-बिरंगे पुष्प कभी कुम्हलाते नही थे और न ही
उनकी पत्तियाँ सूख पाती थीं. पम्पा के तट पर बड़े-बड़े वानर
पानी पीने आते और पानी पीकर तृप्त होकर सांडों के समान गर्जना करते दिखाई दिए. सुन्दर और
मनभावन वनांचल में चलते हुए वे मतंग मुनि के आश्रम के समीप जा पहुँचे.
पम्पा के
पश्चिम तट पर उन्हें एक आश्रम दिखाई दिया. रामजी ने अपनी तर्जनी उठाकर लक्ष्मण को संकेत
किया-" अनुज ! अब हम उस
पावन और पवित्र आश्रम के समीप आ पहुँचे हैं. इस आश्रम में मेरी परम भक्त शबरी निवास करती है. मतंग मुनि
ने स्वर्गारोहन करने से पूर्व अपनी शिष्या को बुलाया. उस का दिन
बड़ा अद्भुत दिन था, जब एक गुरू अपने शिष्य के चरणॊं में प्रणाम
निवेदित कर रहा था. एक त्रिकालज्ञ गुरु का अपनी शिष्या की वन्दना
करता हुआ देखकर, आश्रम के सभी तपस्वियों को विस्मय हो रहा था. बात ही कुछ
ऐसी थी. सभी के मन
में तरह-तरह के
प्रश्न कुलबुलाने लगे थे. शबरी भी स्वयं आश्चर्य चकित थी कि गुरूदेव को
अचानक यह क्या हो गया है? शरीर किसी अज्ञात भय से कांपने लगा था. सोच घनी
होने लगी थी शबरी के मन में. कभी वह अपने गुरू की चरण-वंदना किया
करती थी, आज वे उसके
चरणॊं में प्रणाम कर रहे है. यह उलट रीत कैसे हो रही है?. तरह-तरह के
प्रश्न उसके मन को मथने लगे थे.
"गुरुदेव ! क्यों मुझे पाप के भागीदार बना रहे हैं?. निश्चित ही
मैं नर्क में गिरुँगी. ऐसा करते हुए मुझे लज्जित नहीं करें. कहाँ मैं एक अनपढ़-गवाँर
शिष्या और कहाँ आप त्रिकालज्ञ ?. मुझसे ऐसा कौन-सा अपराध जाने-अनजाने में हो गया, जिसकी इतनी
बड़ी सजा आप मुझे दे रहें है". कहते-कहते भीलनी शबरी जोरों से विलाप करने लगी थी.
" अरे पगली ! मैंने जो कुछ भी किया है, उचित ही
किया है. इसके लिए
तुम्हें तनिक भी दुःखी होने की आवश्यकता नहीं है. पहले मैं तुम्हारा गुरू हुआ करता था, लेकिन सच
माने में तुम मेरी गुरू हो. एक गुरू के चरणॊं में वंदना करके मैंने कोई गलत
काम नहीं किया है. परमात्मा स्वयं चलकर तुम्हें दर्शन देने के आ
रहे हैं, क्या यह कम
सौभाग्य की बात है?".
"तू इतने दिनों से मेरे आश्रम में रह रही है, लेकिन मैं
तुझे पहचान नहीं पाया?. मैं कैसा त्रिकालज्ञ जो तूझे जान नहीं पाया?. अब विलाप
करना बंद करो और ध्यान से सुनो. य़ह ठीक है कि मैंने ईश्वर को पाने के लिए एक लंबी
साधनाएँ की है, बावजूद इसके
मैं ईश्वर का साक्षात्कर नहीं कर पाया. शायद उनसे मिलना मेरे भाग्य में नहीं लिखा था".
" शबरी.!. तुम भाग्यशाली हो शबरी ! कि राम
स्वयं चलकर तुम्हें दर्शन देने शीघ्र ही आने वाले हैं. तुम इसी
आश्रम में रहकर उनकी प्रतीक्षा करो. मैं यह तो नहीं कह सकता कि किस दिन आएँगे, लेकिन उनका
आगमन एक-न-एक दिन
अवश्य होगा. वे तेरी तलाश करते हुए इस आश्रम तक निश्चित ही आने वाले हैं".
ऐसा कहते
हुए उन्होंने गायत्री मंत्र के प्रताप से विशुद्ध हुए अपने पंजर को अग्निदेव को
आमंत्रित किया और उसमें प्रवेश कर अपने को होम कर दिया.
" हे अनुज ! उस दिन के बाद से शबरी सोते-जागते, अर्धमूर्च्छित
अवस्था में रहते हुए,मेरे नाम का सुमिरन करती रहती है और बड़ी बेसब्री से मेरे आगमन
की प्रतीक्षा कर रही है. उसे अपने गुरु जी के कथन पर पूरा-पूरा विश्वास है कि एक न एक दिन मैं उसके आश्रम
पर अवश्य ही आऊँगा. मैं कब आऊँगा ?, किस क्षण आऊँगा ?, किस दिशा से
आऊँगा ?, यह वह पगली
नहीं जानती, लेकिन सतत टकटकी लगाए, चारों दिशाओं में टुकुर-टुकुर निहारती रहती है".
" हे अनुज ! तुम
मार्ग में फ़ूलों को बिछा हुआ देख रहे हो. ये फ़ूल कभी नहीं मुरझाते. तुम
इसका कारण जानना नहीं चाहोगे ". ये
फ़ूल क्यों नहीं मुरझाते इसका कारण मैं तुम्हें बतलाता हूँ".
" ऋषि
मतंग के शिष्य जब जंगली फ़ल-मूल लाने के लिए वन में जाते और प्रचूर मात्रा
में फ़ल-मूल इकठ्ठा
कर लाते, तब उनके भार
से इतना थक जाते कि उनके शरीर से पसीने की जो बूँदे पृथ्वी पर गिरतीं, वे तत्काल
फ़ूल के रूप में परिणत हो जाया करती थी. पसीने से उत्पन्न होने के कारण वे फ़ूल नष्ट
नहीं होते".
मेरी भक्त
शबरी प्रतिदिन फ़ूल चुन कर लाती और उस मार्ग में बिछा देती, जिस मार्ग
से चलकर मैं उसके आश्रम में प्रवेश करुँगा".
" हे सौमित्र ! शबरी जानती है कि वे फ़ूल कभी बासी नहीं होते. वे हर समय
ताजे व सुरभित बने रहते हैं. कभी-कभी तो उसे इतना भी ध्यान ही नहीं रहता कि उसने
अभी-अभी फ़ूलों
को इकठ्ठाकर मार्ग में बिछाया है. वह उन्हें बुहार कर हटा देती है और फ़िर ताजे
फ़ूलों को इकठ्ठा कर बिछाने लगती है".
"
शबरी यह भी
जानती है कि इस स्थान में कंकड़-पत्थर नहीं होते. बलुआ भूमि होने के पश्चात भी उसके मन में एक भय-सा बना रहता
है कि अकस्मात मेरे पैरों में कंकड़ न चुभ जाये. अतः वह प्रतिदिन मार्ग में फ़ूलों को बिछाने का
क्रम वर्षों से करती आ रही है".
" हे अनुज ! देर न करो....मुझे शीघ्रता-शीघ्र उस तपस्विनी के आश्रम में पहुँचना है जो
मेरी बड़ी बेसब्री से, राह में पलकें पांवड़े बिछाये, मेरे आगमन
की प्रतीक्षा में बैठी हुई है"..
" हे अनुज ! पहले तो वह अपने शरीर को जीवित रखने के लिए कुछ
कंद-मूल-फ़ल का भक्षण
कर लिया करती थी, लेकिन विगत कई दिनों से वह निर्जला रहकर, मेरे आगमन
की प्रतीक्षा में, प्रस्तर की प्रतिमा बनी बैठी है. हे अनुज ! शीघ्रता से पग बढ़ाओ".
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शबरी का परिचय.
एक कथा के अनुसार शबरी या श्रमणा अपने पूर्व
जन्म में एक अप्सरा थी, जो देवराज इन्द्र के किसी सभा में उपस्थित थी. उस सभा में भगवान विष्णु का आगमन हुआ. वह विष्णु के प्रति अनुरक्त
होकर उन्हें अपलक दृष्टि से देखती रही. देवराज इन्द्र इस बात से क्षुब्ध हो गए और उसे श्राप दे डाला कि तू मनुष्य योगि में जन्म
लेकर आधम जाति की स्त्री होगी. शबरी ने अपले जन्म में भील समुदाय के भील
राजा के यहाँ जन्म लिया.
भील समुदाय में पशुबलि की परंपरा थी. शबरी किसी भी प्रकार
की हिंसा को पसंद नहीं करती थी. इस कारण शबरी ने अपने विवाह के ठीक एक दिन
पहले अपना घर छोड़ दिया और वन में मातंग ऋषि के आश्रम में जाकर रहने लगी.
2.-एक अन्य कथा के अनुसार शबरी पूर्व जन्म में रानी थी. एक बार प्रयाग में
कुंभ का महापर्व पड़ा. चुंकि शबरी भगवान की परम भक्त थीं. उनके मन में संतों के दर्शन तथा सतसंगति करने
एवं तीर्थाटन करने की बड़ी लालसा थी. उसने अपने मन की बात अपने पति से
कही.
चुंकि वह रानी थी, अतः राजा ने पालकी
तैयार करवायी गयीं. विशाल सेना और अन्य सामग्रियों के साथ रानी कुंभ के मेले
को देखने प्रयागराज गयीं,.
परन्तु राजा की व्यवस्था इतनी चुस्त-दुरुस्त थी की रानी
कुछ नहीं देख सकीं. त्रिवेणी तक दोनों तरफ़ से रानी के स्नान मार्ग को कनात आदि से ढंक दिया गया था, जिससे स्नानार्थ जाते
हुए कोई रानी को न देख सके.
रानी बहुत परेशानी में थीं, वे चाहकर भी संत-महात्माओं के दर्शन
नहीं कर पा रही थीं.
जिस समय रानी ने गंगाजी में डुबकी लगायी तो
रानी ने हर बार की डुबकी में गंगाजी से प्रार्थना किया कि मुझे अगले जन्म में नीच
जाति, नीच कुल में मिले
जिससे मैं स्वछन्दतापूर्वक संत-महात्माओं के दर्शन कर सकूँ. गंगाजी ने रानी की
प्रार्थना स्वीकार कर ली और जब रानी का दूसरा जन्म मिला तो वह नीच कुल में जन्म
लेकर शबरी नाम से विख्यात हुई.
एवमुक्तः स धर्मात्मा शबर्या शबरीमिदम (18-634.वालमीकि रामा. ) शबरी निम्न जाति की
स्त्री नहीं थीं. भील को शबर भी कहा जाता है. कदाचित इसी कारण शबरी को लोग भीलनी भी कहते
थे.
3 इसी क्रम में एक अन्य कथा प्राप्त होती है कि शबरी पहले से मतंग ऋषि के यहाँ न
रहकर जंगल में अन्यत्र रहती थी. बचपन से ही शबरी को हिंसा तथा निर्दोष
पक्षियों की हत्या देखकर दया आती थी. उसका भावी पति बहुत वीर और निशानेवाल था
परन्तु शबरी ने उसकी अनेक प्रशंसाओं को सुनकर भी अपने को इसके लिए तैयार नहीं पायी
और एकान्त में जगत-नियन्ता से प्रार्थना की कि-"हे प्रभो! मेरी रक्षा करो, मुझे बचाओ. प्रार्थना करते-करते रात्रि अत्यधिक
बीत गयी. बिना किसी की परवाह किये वह अनेक नदियों, वनों, तालाबों तथा काँटॊं से युक्त मार्गों के बीच
अनजान गन्तव्य की ओर भागती रही. उसे पकड़ लिए का डर था कि कहीं मैं अपने माँ-बाप के हाथ में फ़िर से
न पड़ जाऊँ.
भागते-भागते हुए वह पम्पासर के पास पहुँच गयी. वहीं पर मतंग ऋषि का
आश्रम था. शबरी वहीं पर रहने लगी.
आश्रम में रहते हुए वह मतंग ऋषि की खूब सेवा
करती थी. जब मतंग ऋषि परमधाम को जाने लगे तो उस समय शबरी ने भी उनके साथ जाने की इच्छा
प्रकट की. मुनि ने उसे श्रीराम जी के दर्शन होने का आशीर्वाद दिया और कहा कि शबरी तुम
मेरे साथ मत जाओ.
तैश्चाहमुक्ता धर्मज्ञैर्महाभागैर्महर्षिभिः
आगमिष्यति ते रामः सुपुण्यमिममाश्रमम (15-634)
अब शीघ्र ही भगवान रामजी, जिनकी प्रतीक्षा अब तक
मुझे थी, वे अब शीघ्र ही यहाँ आने वाले है. ऋषि तो परमधाम चले गए और शबरी रामजी के आगमन
की प्रतीक्षा में वहीं रुकी रही. वह अनवरत रामजी की प्रतीक्षा करते हुये प्रभु
में लीन रहती थी और तब जाकर उसे रामजी के दर्शन हुए
शबरी का रामजी को झूठे बेर खिलाना- शबरी ने श्रीराम जी को
जूठे बेर खिलाए, इस बात का उल्लेख कहीं नहीं मिलता.
इसका उल्लेख न तो वाल्मीकि रामायण में है और
न ही संत तुलसीदास जी कृत रामचरित मानस में पढ़ने को मिलता है. फ़िर यह प्रश्न उपस्थित
होना स्वभाविक है कि शबरी ने उन्हें बेर कैसे खिलाये? जबकि वे
उस स्थान पर पैदा ही नहीं होता था और न ही कोई ऐसी व्यवस्था उस समय विकसित हुई थी
कि अन्यत्र स्थान से उसे बुलवाया जा सकता था.
वालमीकि रामायण में अनेकानेक प्रकार के
वृक्षों के नाम दिये हैं,
उनमें बेर के पेड़ का उल्लेख ही नहीं है.
राम जी तो प्रेम के भूखे हैं. वे भक्ति से उत्पन्न
प्रेमरस का पान करते हैं और प्रसन्न रहते हैं.. उन्हें भोजन में कौन-सा भोज्य पदार्थ
ज्यादा पसंद है, ऐसा भी पढ़ने को नहीं मिलता.
अतः रामजी को जूठे बेर खिलाये, इस भ्रम को तोड़ा जाना
चाहिए. शबरी ने तो उन्हीं फ़लों का चुनाव किया , जो उस स्थान में प्रचूर मात्रा में पैदा होते
रहे होंगे.
एक अन्य कथा के अनुसार-
सबरी को आश्रम सौंपकर महर्षी मतंग जब देवलोक
जाने लगे तब सबरी भी साथ जाने की जिद करने लगी. सबरी की उम्र दस वर्ष थी। वो महर्षि मतंग का हाथ पकड़ रोने लगी.
महर्षि सबरी को रोते देख व्याकुल हो उठे! सबरी को समझाया "पुत्री इस आश्रम में
भगवान आएंगे यहां प्रतीक्षा करो."
अबोध सबरी इतना अवश्य जानती थी कि गुरु का
वाक्य सत्य होकर रहेगा. उसने फिर पूछा "कब आएंगे?.
महर्षि मतंग त्रिकालदर्शी थे वे भूत भविष्य
सब जानते थे वे ब्रह्मर्षि थे. महर्षि सबरी के आगे घुटनों के बल बैठ गए, सबरी को नमन किया
आसपास उपस्थित सभी ऋषिगण असमंजस में डूब गए, ये उलट कैसे हुआ.
गुरु यहां शिष्य को नमन करे. ये कैसे हुआ?. महर्षि के तेज के आगे
कोई बोल न सका.
महर्षि मतंग बोले "पुत्री अभी उनका जन्म नही
हुआ."
अभी दसरथजी का लग्न भी नही हुआ है. उनका कौशल्या से विवाह
होगा. फिर दसरथजी का विवाह
सुमित्रा से होगा . फिर फिर उनका विवाह कैकई से होगा फिर वो जन्म लेंगे! फिर उनका विवाह माता
जानकी से होगा! फिर उन्हें 14
वर्ष वनवास होगा और फिर वनवास के आखिरी वर्ष माता जानकी का
हरण होगा तब उनकी खोज में वे यहां आएंगे. तुम उन्हें कहना "आप सुग्रीव से मित्रता
कीजिये. उसे आतताई बाली के संताप से मुक्त कीजिये. आपका अभिष्ट सिद्ध
होगा और आप रावण पर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे."
सबरी एक
क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई! अबोध सबरी
इतनी लंबी प्रतीक्षा के समय को माप भी नही पाई.
वह फिर
अधीर होकर पूछने लगी "इतनी लम्बी प्रतीक्षा कैसे पूरी होगी गुरुदेव?"
महर्षि
मतंग बोले " वे ईश्वर हैं अवश्य ही आएंगे. यह भावी निश्चित हैं"
लेकिन यदि
उनकी इच्छा हुई तो काल दर्शन के इस विज्ञान को परे रखकर वे कभी भी आ सकते हैं. लेकिन आएंगे अवश्य."
जन्म मरण
से परे उन्हें जब जरूरत हुई तो प्रह्लाद के लिए खम्बे से भी निकल आये थे. इसलिए प्रतीक्षा करना .वे कभी भी आ सकते हैं.
तीनों काल तुम्हारे गुरु के रूप में मुझे याद
रखेंगे. शायद यही मेरे तप का फल हैं .सबरी गुरु के आदेश को मान वहीं आश्रम में रुक गई.
उसे हर दिन प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा रहती
थी . वह जानती थी समय का चक्र उनकी उंगली पर नाचता
हैं वे कभी भी आ सकतें हैं.
वह प्रतिदिन मार्ग में फूल बिछाती और हर क्षण
भगवान राम के आने की प्रतीक्षा करती रही.
तुससीदास कृत रामचरित मानस- कंद मूल
फ़ाल सुरस अति, दिए राम कहुँ आनि ; प्रेम सहित प्रभु खाए, बारंबार बखानि.( दोहा
क्र्मांक
34 अरण्यकांड-) अर्थात -तब उसने अत्यन्त सरल मीठे कन्द-मूल और फ़ल श्रीरामजी को लाकर दिये. प्रभु ने बारंबार उनका बखान करके उनको बड़े प्रेम के साथ
खाया.
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सबरी के आश्रम पगु धारा.
अल्पावधि में श्रीरामजी अपने अनुज लक्ष्मण को साथ लिए शबरी के
आश्रम के निकट जा पहुँचे. आश्रम कुछ ही दूरी पर था. रामजी ने देखा, उस आश्रम तक पहुँचने वाले मार्ग में ताजे पुष्पों की चादर-सी बिछी हुई है. शबरी के इस अनन्य प्रेम और सरलतम भक्ति को देखकर वे अत्यन्त
ही प्रसन्न हुए. लक्ष्मण जी भी कम प्रसन्न नहीं हुए थे. वे मन-ही-मन भक्त शबरी की प्रशंसा कर रहे थे.
उन्होंने अपना बांया पैर फ़ूलों की कालीन पर रखा और वहीं कुछ
देर के लिए, उसी स्थिति में खड़े रह गए. उन्होंने देखा कि इस समय शबरी आश्रम के एक खम्बे से टिककर
बैठी हुई है. उसका शरीर कृशकाय हो चुका था, इसलिए बैठते समय वह गुड़िमुड़ी-सी, गठरी बनी दिखाई दे रही थी. समूचा शरीर झुर्रियां से आवृत्त हो गया था. सिर के बाल सेमल की रूई की तरह वायु में उड़ रहे थे. उसकी खोजी नजरें सतत उस मार्ग का अन्वेषण कर रही थीं.
अकस्मात उसकी नजरें रामजी के श्रीचरण पर पड़ी. नजर पड़ते ही उसका मन प्रसन्नता से खिल उठा. जिस तरह चन्द्रमा को देखकर समुद्र की
लहरों में ज्वार-भाट आता है, ठीक उसी प्रकार उसका मन खुशी के मारे उछाह मारने लगा था.आँखों की चमक द्विगुणित हो उठी थी. अपने आराध्य के स्वागत
में उसने उठने का सायास प्रयास किया भी था,लेकिन जर्जर शरीर ने शायद इसके लिए मना कर दिया था. उठते समय पैर लड़खड़ाने लगे थे. वह धम्म से वहीं बैठ गई थी और वहीं से पुकार कर कहने लगी
थीं-" आ गए मेरे राम..!..राम तुम आ गए..!.आने में कितनी देरी कर दी आपने...आओ..आओ मेरे राम...तुम्हारा इस अभागन की कुटिया में आत्मीय स्वागत...आओ..आओ मेरे राम...तुम्हारी एक झलक देखने को ये आँखे कब-से तरस रही थीं..आओ..आओ मेरे राम.....".
रामजी की नजरों से यह छिपा नहीं रह गया था कि वृद्धावस्था
के चलते वह अपने स्थान से उठ नहीं पा रही हैं. उन्होंने द्रुतगति से दौड़ लगाते हुए, उसे अपनी विशाल भुजाऒं का सहारा दीते हुए उसे आलिंगनबद्ध कर
लिया.
अपने आराध्य का आलिंगन पाकर शबरी के शरीर में रोमांच हो आया
था. आँखों से खुशी के अश्रु-धारा बह निकली थीं, जो रामजी के वक्ष को गीला कर रही थीं. भक्त और भगवान को एकाकार होते देख लक्ष्मण की आँखे भी नम हो
आयी थीं. इस समय न तो शबरी कुछ बोल पा रही थी और न ही
रामजी के मुखारविंद से शब्द निकल पा रहे थे. लक्ष्मण भी अवाक खड़े रह गए थे.
देर तक आलिंगनबद्धता की स्थिति में रहने के बाद रामजी ने
उन्हें उसी चबूतरे पर बिठाया और पास ही बैठते हुए कहा -"
माँ...मैं आ गया. मैं
आ गया.....आपने मेरी राह निहारते हुए अपना पूरा जीवन ही खपा दिया. मैं स्वयं भी तुमसे मिलने के लिए ललायित था. बार-बार मन में प्रश्न उपस्थित होते कि कब मुझे आपके
दिव्य दर्शन होंगे". रामजी ने मुस्कुराते हुए
भीलनी शबरी से कहा.
" क्या कहा राम तुमने ? मुझे माँ कहकर पुकारा ? इतना बड़ा सौभाग्य मुझे मत दो मेरे राम !. आप मेरे आराध्य हैं. मेरे प्राणाधार हैं. मैं आपकी उपासक हूँ. आप मेरे स्वामी हैं और मैं एक दासी?.. मैं तो केवल वन में रहने वाली, नीच जाति में जन्मी एक भीलनी हूँ. मैं
तुम्हारी माँ कहलाने लायक नहीं हूँ राम !. ऐसा कहकर कहीं आप मेरा उपहास तो नहीं कर रहे हैं?".
" राम अपने भक्तो को कभी हास्य का पात्र नहीं बना सकता. तुम्हारा स्थान माँ कौसल्या जितना ही है. उन्होंने मुझे अपने गर्भ में नौ मास पर पाला और आपने सैकड़ों
साल मुझे अपने मन में, अपने मस्तिस्क में, अपने हृद्दय में पाला-पोसा. मुझे
कभी भी, पल भर को भी अपने से स्मृत नहीं होने दिया. अतः मैंने आपको माँ कहकर सम्बोधित किया".
" मैं धन्य हुई मेरे राम...मैं धन्य हुई...आज आपके दर्शन पाकर मुझे अपनी तपस्या की सिद्धि प्राप्त हुई
है. आज मेरा जन्म सफ़ल हुआ और मेरे परमपूज्य गुरूजी
की उत्त्तम पूजा भी सार्थक हो गयी".
"हे देवेश्वर ! हे राम ! आपका सत्कार करते हुए मेरी तपस्या सफ़ल हो गयी और मुझे आपके
दिव्य धाम की भी प्राप्ति हो गयी. आपकी
सौम्य दृष्टि पड़ने से मैं परम पवित्र हो गयी".
"जब आप चित्रकूट पर्वत पर पधारे थे, उसी समय मेरे गुरूजन, जिनकी मैं सेवा किया करती थी, अतुल कान्तिमान विमान पर बैठकर यहाँ से दिव्यलोक में चले
गये. जाते समय उन्होंने मुझसे कहा था कि आप मेरे
आश्रम पर अपने अनुज लक्ष्मनजी के साथ पधारेंगे और मेरे अतिथि होंगे. उन्होंने यह भी कहा था कि मैं आपका यथावत सत्कार करूँ".
शबरी को अपने गुरूजी के कथनों पर पूरा विश्वास था कि एक दिन
रामजी तुझसे मिलने जरुर आएंगे, सो
उसने मिट्टी-गारे से अपनी कुटिया में एक चबुतरा बना रखी थी
कि प्रभु जब भी उसकी कुटिया में आएंगे, वह उन्हें इसी चबुतरे पर सत्कारपूर्वक बैठने का आग्रेह
करेगी और उनके चरण पखारेगी. बरसों पुरानी उसकी साध आज जो पूरी होने जा रही
थी. मन में प्रसन्नता का समुद्र-हिलोरें लेने लगा.
उसने अत्यन्त ही विनम्रता से प्रभु रामजी से कहा-" प्रभु ! मेरी
कुटिया के भीतर चलकर बैठिए".
"जैसा तुम चाहो...मैं तो अपने भक्तों के अधीन रहता हूँ" कहते हुए रामजी ने कुटिया में प्रवेश किया. लक्ष्मण जी भी अपने भ्राता का अनुसरण करते हुए अन्दर
प्रविष्ठ हुए.
सादर जल लै चरन पखारे.
शबरी ने दोनों भाइयों को बैठने का अनुरोध किया. प्रसन्नवदन शबरी ने एक बड़ा-सा पात्र और लोटे में जल भर कर लाया. वे बायें हाथ से चरणॊं पर जल चढ़ाती और दाएं हाथ से चरणॊं को
पखारती जाती थी .ऐसा करते हुए उसकी आँखों से झरते प्रेमाश्रु भी
श्रीचरणॊं पर गिर रहे थे. फ़िर उसने लक्ष्मण जी के भी चरणॊं को धोया और
चरणॊदक का पान कर अपने को धन्य माना.
प्रेम सहित प्रभु खाए : बारम्बार बखानि.
चरण पखारने के बाद उसने रामजी से कहा-" हे प्रभु ! मैंने
आपके लिए पम्पा तट पर उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के जंगली फ़ल-मूलों का संचय किया है." ऐसा कहते हुए उसने फ़लों से भरी डलिया प्रभु रामजी के समक्ष
रख दिया. रामजी एक फ़ल का पूरा स्वाद भी नहीं ले पाते थे
कि वह दूसरा फ़ल उठाकर कहती-" प्रभु...इसे खाइये. यह
उससे भी ज्यादा मीठा है." इसी तरह वह लक्ष्मण से
फ़ल खाने का अनुरोध करती. वे भी एक फ़ल पूरा नहीं खा पाते थे कि वह टोकरी
में से दूसरा फ़ल देते हुए कहती-" यह फ़ल तो
उससे भी ज्यादा मीठा है, भैया....इसे
चखकर तो देखिए कितना स्वादिष्ट है".
शबरी के द्वारा दिए गये मीठे कन्द-मूल और फ़ल खाकर श्रीरामजी और लक्ष्मण उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा करते जाते थे और नाना-प्रकार के फ़लों का स्वाद ले-लेकर खा रहे थे.
फ़लों के खाने के बाद शबरी ने उन्हें शुद्ध शीतल जल पिलाया
और फ़िर हाथ जोड़कर कहा-"प्रभु ! मैं आपकी
स्तुति किस प्रकार करुँ. मैं तो अधम जाति की बड़ी भारी मुर्खा हूँ. प्रभु ! मैं
तो जड़बुद्धि हूँ. नहीं जानती कि किस तरह वेद मंत्रों से आपकी
अभ्यर्चना करूँ? यदि मुझसे जाने-अनजाने में कोई भूल हो गई हो कृपया उसे चित्त में न रखें". कहते हुए उसकी आँखों से अश्रु बह निकले थे.
"भामिनी ! मेरी
बात सुनो. मैं तो केवल एक ही नाता भक्ति का मानता हूँ. जाति-पाँति, कुल, धर्म, प्रतिष्ठा, धन, कुटुम्ब आदि गुण चतुरता सम्पन्न होते हुए भी भक्ति हीन
पुरुष कैसे शोभा पाता है, जैसे कि बिना जल के बादल दृष्टिगोचर होते हैं". रामजी ने शबरी के कथन को सुनने के बाद समझाते हुए कहा था.
" मैं धन्य हुई प्रभु ! मैं धन्य हुई.....आपने यह कहकर मेरे मन का बोझ दूर कर दिया कि मुझ पातक के
हाथों का छुआ हुआ पानी, भोजन आदि स्वीकार किया. सच माने में नारियों के उद्धार में आपसे बढ़कर अग्रगणणीय और
भला कौन कौन हो सकता है?. आपको मेरा प्रणाम...बारम्बार प्रणाम".
"हे भामिनी ! भक्ति नौ प्रकार की होती है. इन नौ भक्तियों में से एक भी जिनके हृदय में होती है, वह स्त्री, पुरुष, चर,अचर कोई भी हो. हे भामिनी ! वही
मुझको अत्यन्त प्यारा है, किन्तु तुझमें तो सब प्रकार की भक्ति है. इसलिए जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गयी है .हे देवी ! मेरे
दर्शनों का अनुपम फ़ल है कि जीव अपने स्वभाविक स्वरूप को पाता है".
" हे भामिनी ! मेरे
प्रति इतनी गहन आस्था, तुम्हारी निश्छल बुद्धि और अविरल प्रेम को
देखकर मैं अत्यन्त ही प्रसन्न हुआ हूँ. तुम तो सभी प्रकार की भक्तियों को अग्रगणनीय हो, तिस पर भी मैं तुम्हें उन नौ भक्तियों के बारे में विस्तार
से बतलाता हूँ, जिसमें संलग्न होते हुए तुम मेरी अभ्यर्चना में
लीन रहती आयी हो. उसे ध्यान लगाकर सुनो".
"
नवधा भक्ति कहौँ तोहि पाहीं
"हे भामिनी ! मैं
नौ प्रकार की भक्ति कहता हूँ, उसे
मन लागाकर सुनो और उसे धारण करो. मेरी
सबसे पहली भक्ति है-सन्तजनों का संग है. दूसरी भक्ति है-मेरी कथा में प्रेम करना और मान रहित होकर गुरु-चरणॊं की सेवा करना,यह तीसरे प्रकार की भक्ति है. कपट त्याग कर मेरे गुण-समूहों का गान करना मेरी चौथी भक्ति है. दृढ़ विश्वास के साथ मेरे मंत्रों का जाप करना पांचवी भक्ति
है. इन्द्रियों का दमन करना, शील स्वभाव, बहुत से कर्मों में विरक्ति और धर्म में तत्परता, यह मेरी छटवीं भक्ति है. समान भाव से संसार को मुझमें व्याप्त देखना और मुझ से भी
अधिक सन्त जनों को समझना, यह
मेरी सातवीं भक्ति है. कुछ भी लाभ हो, उसी में सन्तोष करना तथा इसके अतिरिक्त स्वपन में भी पर-दोष न देखना, यह मेरी आठवीं भक्ति है. सब के साथ सीधा वर्ताव करना, निश्छल व्यवहार, हृदय में मेरा भरोसा और कभी अति हर्षित तथा अति दीन न होना, यह नवीं भक्ति है". रामजी ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा.
" हे भामिनी!.मैंने
कबन्ध के मुख से तुम्हारे गुरुजनों का यथार्थ प्रभाव सुना है. यदि तुम स्वीकार करो तो मैं उनके उस प्रभाव को देखना चाहता
हूँ".
श्री रामजी के मुख से निकले हुए इन वचनों को सुनकर शबरी ने
दोनों भाइयों से कहा-" हे प्रभु ! आपका कथन सुनकर मेरे हृदय में यह शुभ संकल्प उठा था कि आपको
मेघों की घटा के समान श्याम और नाना प्रकार के पशु-पक्षियों से भरे हुए उस वन को अवश्य देखना चाहिए जो "मतंगवन" के नाम से ही विख्यात है, आपको अब पम्पा सरोवर के तट पर
चलना चाहिए".
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पम्पा सरोवर-
पम्पा सरोवर पांच पवित्र झीलों में से एक है. सामूहिक रूप से " पंच-सरोवर" कहलाने वाली यह झील मानसरोवर, बिन्दु सरोवर, नारायण सरोवर, पुष्कर सरोवर और पम्पा सरोवर को मिलकर बनी है. हालांकि इसमें चार अन्य सरोवर मिले हुए हैं, लेकिन इसे "पम्पा सरोवर" के नाम से ही विख्यात है. वर्तमान में "हारपेस्ट" नामक कस्बे में स्थित है.
पंपा सरोवर मैसूर के पास स्थित एक ऐतिहासिक स्थल है. बंगलुरु के पास विजयनगर साम्राज्य की प्राचीन राजधाने के
भग्नावशेषों हम्पी और हारपेश्त से ग्यारह किलोमीटर दूर तुंगभद्रा के पास यह पंपा
सरोवर है. एक मान्यता के अनुसार पंपा सरोवर को कैलाश
पर्वत स्थित मानसरोवर झील के समक्ष माना जाता है.कहा जाता है कि रामायणकाल में वर्णित किष्किंधा यही है. हंपी के निकट बसे ग्राम अनेगुंदी को रामायणकालीन किषिकिंधा
माना जाता है. तुंगभद्रा नदी को पार करने पर अनेगुंदी जाते
समय मुख्य मार्ग से कुछ हटकर बाईं ओर पश्चित दिखा में पंपा सरोवर स्थित है.
पंपा सारोवर के निकट पश्चिम में पर्वत के ऊपर कई जीर्ण-शीर्ण मंदिर दिखाई देते हैं. यहीं पर एक पर्वत है . यहाँ एक गुफ़ा है जिसे शबरी की गुफ़ा कहा जाता है. वेबदुनिया के शोधानुसार माना जाता है कि वास्तव में रामायण
में वर्णित विशाल पम्पा सरोवर यही है, जो आजकल हास्पेस्ट नामक कस्बे में स्थित है.
इस सरोवर का उल्लेख भागवत पुराण में भी मिलता है. हिन्दू पौराणिक कथाओं में पम्पा सरोवर को भगवान शिव की
भक्ति स्थल बताया गया है, जहाँ भगवान तपस्या करते थे. रामायण काल में भक्त शबरी इसी पम्पा सरोवर के निकट रहकर
प्रभु रामजी के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. शबरी का आश्रम माटुंगा पर्वत ( जो हम्पी में है.)
पम्पा सरोवर झील कोप्प्ल जिले में अनेगुंडी मार्ग पर स्थित
है, यह सरोवर पहाड़ियों में स्थित है और श्री
हनुमान जी के मन्दिर से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. झील के आसपास बहुत सारे सुन्दर-सुन्दर कमल के फ़ूल देखने को मिलते है, यहीं पास में एक प्राचीन लक्ष्मी मन्दिर के निकट एक छॊटा
तालाब भी है और तालाब के अन्दर आम का एक पेड भी है और पास ही श्री गणेषजी की
मूर्ति है.
पम्पा सरोवर एक झील है. इसी नाम की एक नदी भी यहाँ प्रवाहित होती है,जिसका नाम पम्पा नदी है.
पम्पा नदी जिसे पम्बा के नाम से भी जाना जाता है वह केरल
राज्य की तीसरी सबसे बड़ी नदी है. पेरियार
भारतपुझा के बाद राज्य में तृतीय स्थान पर आती है. त्रावणकोर रजवाड़े की सबसे लम्बी नदी है. केरल का सबरीमला या सबरिमलय मन्दिर तीर्थ इसी नदी के तट पर
है.
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"हे महातेजस्वी राम ! उस दिव्य और पवित्रतम स्थान में मेरे गुरूजन निवास करते थे. उन्होंने गायत्री मंत्र का जाप करते हुए अपने देह रूपी पंजर
को मंत्रोच्चारण करते हुए अग्नि में होम कर दिया था".
रामजी के दिव्य दर्शनों को पाकर शबरी अब बिना लाठी के सहारे
चलने लगी थी. बिना लाठी का सहारा लिए वह उस स्थान पर रामजी
और लक्ष्मण जी के साथ पहुँची, जहाँ
एक वेदी बनी हुई थी. मतंग ऋषि की तपस्या के प्रभाव से वह वेदी अपने
तेज से संपूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रही थी.
शबरी ने रामजी से इस वेदी को दिखाते हुए बतलाया कि उसके
गुरूजी उपवास आदि करने से इतने दुर्बल हो गए थे कि वे चलने-फ़िरने में असमर्थ हो गए थे. तब चिन्तनमात्र से वहाँ (*) सात समुद्र का जल प्रकट हो गया था. यह सप्तसागर तीर्थ आज भी यहाँ मौजूद है.
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(*)विष्णु पुराण के
अनुसार यह पृथ्वी सात द्वीपों में बंटी
हुई है. ये सातों द्वीप चारों ओर से क्रमशः खारे पानी,
इक्षुरस, मदिरा, घृत,
दधि, दुग्ध और मीठे जल के सात समुद्रों से
घिरे हैं. ये सभी द्वीप एक के बाद एक दूसरे को घेरे हुए बने
हैं और इन्हें घेरे हुए सातों समुद्र हैं. जम्बुद्वीप इन सब
के मध्य में स्थित है
सप्त सागर इस प्रकार से हैं:-(1) खारे पानी का सागर (2) इक्षुरस का सागर (3) मदिरा का सागर (4) घृत का सागर (5) दधि का सागर (6) दुग्ध का सागर (7) मीठे जल का सागर.
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गुरुदेव ने इस सप्तसागर में स्नान करके जो गीले वस्त्रों को
सुखाने के लिए फ़ैला दिये थे,वे आज
पर्यंत तक सूखे नहीं हैं. गुरूदेव ने देवताओं की पूजा करते हुए जो
पुष्पों की मालाएँ बनायी थीं, वे
भी आज तक मुरझायी नहीं हैं.उसने बात को आगे बढ़ाते हुए यह भी बतलाया कि
यहाँ एक नहीं, अनेक प्रकार की आश्चर्यजनक बातें देखी जा सकती
है. इस स्थान के प्रभाव का इतना प्रभाव है कि बाघ
जैसे हिंसक पशु के सामने हिरणों के झुण्ड बिना किसी भय के आते हैं और अपनी प्यास
बुझाते हैं. हाथी कभी किसी पर आक्रमण नहीं करते.
" हे भगवन ! आपने
सारा वन देख लिया है और यहाँ के सम्बन्ध में जो-जो बातें सुनने योग्य थीं, वे आपने सभी सुन ली हैं. अब मैं आपकी आज्ञा लेकर इस देह का परित्याग करना चाहती हूँ. यह वही आश्रम है जहाँ मेरे निवास करते थे और मैं उनके चरणॊं
की दासी रही हूँ. मैं उन्हीं पवित्रात्मा महर्षियों के पास जाना
चाहती हूँ ".
शबरी से अत्यन्त प्रसन्न होकर रामजी ने उसकी इच्छा पूर्ण
करने की स्वीकृति दे दी. इस प्रकार वह तपस्विनी ने अपने कठोर तप के बल
पर अग्नि को प्रकट किया और अपने आपको उसमें समर्पित कर दिया. अगले ही क्षण शबरी दिव्य रत्नों एवं मालाओं से सुसज्जित
होकर स्वर्ग चली गयी.
तत्पश्चात रामजी ने अपने अनुज लक्ष्मण के साथ पम्पा सरोवर में स्नान किया, जिसमें सात सागरों का जल सम्मिश्रित था. तत्पश्चात वे
कबन्ध के बतलाए हुए मार्ग की ओर प्रस्थित हुए.
०००००
आगें चले बहुरि रघुराया * रिष्यमूक पर्वत नियराया.
ऋष्यमूल पर्वत का नाम किसी अनाम ऋषि के नाम से पड़ा होगा, जो मौन रहते हुए तपस्या में लीन रहता है, तभी इसका नाम ऋष्यमूक पड़ा होगा. कहने को तो वह मूक है
( गूंगा ), लेकिन रामजी के आगमन का समाचार पाकर वह वाचाल हो उठा था. उस पर ऊगे पेड़ों ने नए पत्ते पहन लिये थे. नूतन किसलय के साथ-साथ उनकी सभी डालियाँ फ़ूलों के भार से नीचे-नीचे तक झुक आयी थीं. जो पेड़ों अपने स्वादिष्ट फ़लों के लिए जाने जाते थे, फ़लों के भार से उनकी
डालियाँ भी नीचे झुक आयीं थीं.
आकाश परियाँ ( तितलियाँ.) भी
पीछे कहाँ रहने वाली थीं. वे भी अपने रंग-बिरंगे मनभावन रंगो में सज-धज वे वायु में फ़ुदकने लगी थीं. शाखा-मृग भी
प्रसन्न होकर, कभी इस डाल से उस डाल पर, तो कभी इस पेड़ से उस पेड़ पर छलांग लगाते हुए, नए-नए करतब दिखला रहे थे.
नयी-नयी घासों से ढंका हुआ यह स्थान अपनी नीली-पीली आभा के साथ शोभा पा रहा था. मन्द-मन्द
सुखदायिनी हवा प्रवहमान होने लगी थी . वृक्ष वायु के वेग से झूम-झूमकर रमणीय शिलाओं पर फ़ूल बरसा रहे थे, जिससे वहाँ की भूमि फ़ूलों से आच्छादित हो गयी थीं. वायु कभी वृक्षों की शाखाओं को झझकोरती हुई आगे बढ़ती थी, तब विचलित हुए भ्रमरों का दल उसका यशोगान करते हुए उसके
पीछे-पीछे चलने लगता था.
पर्वत की कन्दराओं से विशेष ध्वनि के साथ निकलती हुई वायु
मानों उच्च स्वर से गीत गाती-सी दीखती
थीं. मतवाली कोकिलों के कलनाद की ध्वनि के साथ, वायु के संग
झूमते हुए वृक्षों को मानो नृत्य करने के लिए उकसाती-सी लगती थीं, मलयचन्दन का स्पर्ष करके बहने वाली शीतल वायु शरीर से
लिपटकर अनोखा जादू जगाने में समर्थ थीं. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता था कि रामजी के आगमन को लेकर
वहाँ वसंत अपनी पूरी टोली के साथ, उनके स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछाकर प्रतीक्षा कर रहा था. समूचा वातायण इस समय सुरभित हो उठा था.
झर-झर के स्वर निनादित करते हुए अनेक झरने, सरगम के गीत गाते हुए इठला रहे थे. भांति-भांति की
बोली बोलने वाले पखेरु, निरभ्र आकाश में ऊँची-ऊँची उड़ान भरते हुए ,अपनी कला-बाजियाँ
दिखा-दिखाकर उच्च स्वर में चिंचिंहाने लगे थे.
पम्पा सरोवर के तट पर छाये इस वासन्तिक सौंदर्य को देखकर
रामजी का मन प्रफ़ुल्लित हो उठा था. अपनी प्राण प्रिया सीता के संग की गयीं लीला-विलास की
अनेकानेक स्मृतियों को पुनः जाग्रत कर दिया था. उनका मन शोक-संतप्त होने लगा था. रह-रह कर बीती बातें याद आने लगी थीं.. कभी मन्दाकिनी नदी में गहराई में उतरकर स्नान करना. कमल पुष्पों की खिली-अधकलियों के बीच उनका दमकता चेहरा देख कर, उन्हें इस बात का आभास होता, मानों चन्द्रमा उन कलियों के बीच से उदित हो रहा हो. कभी नदी तट पर बैठकर प्रवाहित होती मन्दाकिनी को जी भर के
निहारना, कलकल-छलछल के स्वर निनादित करती बहती अल्हड़ नदी के पहाड़ी गीतो को
सुनना,उन्हें बहुत सुखकर प्रतीत होता था.
इस समय पर्वत पर छाई ऋतु प्रेम की ऋतु थी, लेकिन सीताजी के बिना यह सब अर्थहीन प्रीत होती थी. उनकी उपस्थिति में, जो दृष्य आनन्द प्रदान करने वाले थे, वे अब उन्हें पीड़ा पहुँचा रहे थे. मधुर स्वर में कूकती कोयल की आवाज सुनकर उन्हें अपनी
प्राणप्रिया की वाणी का स्मरण दिला रहे थे. लहरों के शिखर पर झूलते गुलाबी कमल पुष्पों को देखकर उन्हें
सीताजी के सुंदर नेत्रों की याद हो आती. मन्द-मन्द गति से
बहने वाली सुगन्धित वायु, सीताजी की सुगन्धित श्वास का स्मरण दिलाती.
"हे अनुज ! वियोग के शोक से मैं पीढ़ित तो हूँ ही. यह कामदेव मुझे और भी संताप दे रहा है. कोकिल बड़े हर्ष के साथ कलनाद करता हुआ मानो मुझे ललकार रहा
है. वन के रमणीय झरने के निकट बोलता हुआ जल-कुक्कुट सीता से मिलने की इच्छा से मुझे शोकमग्न किये दे
रहा है".
" पहले मेरी प्रिया जब मेरे साथ आश्रम में रहती थी, उन दिनों वह कोयल के मधुर स्वर को सुनकर आनन्दमग्न हो जाया
करती थी और मुझे निकट बुलाकर आनन्दित कर देती थीं. इस पम्पा के तट पर पक्षियों के झुण्ड-के झुण्ड इकठ्ठा होकर चहक रहे हैं. जल-कुक्कुटॊं की रति सम्बन्धी कूजन तथा नर कोकिलों
के कलनाद मेरी काम की वेदना को उद्दिप्त कर रहे हैं".
" वसन्त ऋतु में वन की शोभा बड़ी मनोहारी हो गयी है. आम्र-मंजरी का
सेवन कर कोकिला का स्वर कितना मधुर हो गया है. वह वन-वन के कोने-अंतरे में जाकर अपनी कूक से वसन्त के आगमन का समाचार सुना
रही है..कोयल की मधुर आवाज को सुनना सीता को अति प्रिय
था. मुझे लगता है कि अनंग-वेदना से उत्पन्न
हुई शोकाग्नि और वसन्त के कारण मेरे मन में उत्पन्न हुई अनंग-वेदना मुझे जला ही
डालेगी".
"सीता की अनुपस्थिति, मेरे शोक में वृद्धि तो कर रही है, वहीं मंथर-गति से प्रवहमान होती मलयानिल भी, मेरे शोक मे द्विगुणित करने से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है. मयुरियों से घिरे हुए मदमत्त मयूर अपने दोनों परों को फ़ैला
कर, अनंग वेदना से संतप्त होकर, मेरी कामपीड़ा में और वृद्धि कर रहे हैं. मुझे लगता है कि यह वसन्त रूपी आग मुझे जलाकर भस्म ही कर
देगी. हे लक्ष्मण ! निष्ठुर वसन्त ऋतु की यह पीड़ा असहनीय है. मैं सीता के बिना एक पल भी जीवित नहीं रह सकता".
"पम्पा तट पर उत्पन्न मालती, माधवी लता,महुआ, मौलसिरी, चम्पा, तिलक,नागकेशर
खिले-खिले से दिखाई देते हैं. यदि साध्वी सीता मिल जाय और हम फ़िर से यहीं रहकर निवास करने
लगेंगे, तब मुझे न तो इन्द्रलोक में जाने की इच्छा होगी
और न ही अयोध्या लौटने की व्यग्रता रहेगी .मैं यहीं रहकर अपनी प्रियतमा के साथ रहकर पुष्पों और
सौगन्धित कमलों की सुगन्ध लेकर, बहने
वाली शीतल और मंद पम्पावन की वायु का सेवन करते हुए यहीं निवास करना चाहूँगा".
यह सब देखकर रामजी के मन का दिव्य लोक अधिक तीव्र हो उठा. वे निरन्तर सीताजी का चिन्तन करते एवं विस्मित होते कि क्या
सीता भी उनके बिना जीवित रह सकती है?. रामजी अत्यन्त मर्मभेदी विलाप करते हुए अपने अनुज लक्ष्मण
से कहने लगे-" हे लक्ष्मण ! चैत्र मास आरंभ हो गया है, एवं इस सरोवर का गहरा नीला जल अत्यन्त सुंदर लग रहा है, पुष्पों से आच्छादित वृक्ष देदीप्यमान हो उठे हैं, उनकी पंखुड़ियाँ धरती पर गिरकर सुंदर कालीन-सी दिखाई देती है. यदि सीता साथ होती, तो मैं उसके संग इस रंग-बिरंगी कालीन पर टहलते हुए आंनदित होता. चुंकि यह ऋतु, प्रेम की ऋतु है, किन्तु सीता के बिना यह सब अर्थहीन प्रतीत हो रहा है. उसकी उपस्थिति में जो दृष्य मुझे आनन्द प्रदान करते थे, वे अब मुझे पीड़ा प्रदान कर रहे हैं".
"लक्ष्मण ! देखो
तो सही, वसन्त ऋतु में वृक्षों के फ़ूलों का यह वैभव तो
देखो. देखो, इन भ्रमरों की टोलियों को भी देखो, ये सभी राग के रंग में रंगकर, किस तरह फ़ूलों के होंठों का रसपान कर रहे हैं. लोभी भ्रमरों की यह टोली कभी पुष्पों में छिप जाती है, तो कभी उड़कर अन्यत्र चली जाती है".
" मतवाले पक्षियों से भरे इस पर्वत के रमणीय शिखर पर यदि मेरी
प्राणप्रिया मिल जाए, तो मैं उसके साथ रहकर इस पम्पा सरोवर के तट पर
सुखद समीर का सेवन करता और उसकी मीठी-मीठी बातों को सुनकर प्रसन्न होता, लेकिन वह मुझसे रुठ कर न जाने कहाँ चली गयीं? "
हे लक्ष्मण ! निष्ठुर वसन्त ऋतु की यह पीड़ा अत्यन्त ही असहनीय है, क्योंकि सीता के बिना अब मुझसे नहीं रहा जाता".
हे अनुज ! सीता
को साथ लिये बिना मैं अयोध्या कैसे लौट पाऊँगा?. सभी माताएँ मुझसे सीता के बारे में जानना चाहेंगी, तो उस समय मैं क्या उत्तर दे पाऊँगा?. इतना ही नहीं अयोध्या की प्रजा भी मुझसे सीता के बारे में
जानना चाहेंगे, तो मैं उन्हें किस तरह समझा पाऊँगा, कि मेरी लापरवाही से उसका हरण हो गया? मुझमें इतना साहस नहीं बचा है कि मैं उन सबके समक्ष पल भर
को भी खड़ा रह सकूँ".
"हे लक्ष्मण ! सत्यवादी
राजा जनक जब मुझसे सीता का समाचार पूछॆंगे, उस समय मैं उन्हें क्या उत्तर दे पाऊँगा?. जो धर्म का आश्रय लेकर मेरे पेछे-पीछे चली आयी, वह मेरी प्राणप्रिया इस समय कहाँ होगी?".
"वैदेही के साथ रहकर मुझे वन में मिलने वाले कष्टों का कभी
आभास तक नहीं हुआ. मैंने इस बात पर कभी नहीं सोचा कि तुम भ्रातृत्व
प्रेम की चलते, उर्मिला को अकेला छोड़कर मेरे साथ वन में चले आए. उस बेचारी की वही स्थिति हो रही होगी, जैसे कोई मछली बिना जल के रह रही हो. वियोग की पीड़ा किस तरह तिल-तिल जलाती है, उसका अनुभव मैं आज कर रहा हूँ. लक्ष्मण ! मेरी
मानो, तुम अयोध्या लौट जाओ. सीता के बिना मेरा अयोध्या लौटना संभव नहीं है. मैं यहीं अकेला रहते हुए, विरहाग्नि में जलते हुए अपने को होम कर दूँगा".
( कुछ नाराज
होते हुए ) " भैया ! क्या कहा आपने कि मैं अयोध्या लौट जाऊँ? आपने यह कैसे कह दिया ?. जबकि आप स्वयं जानते हैं कि आप मेरे प्राणाधार हैं. प्राणहीन लक्ष्मण अयोध्या लौटकर क्या करेगा? यदि मुझे बीच यात्रा से ही लौटकर जाना होता, तो मैं आपके साथ आता ही क्यों?. मैं तो आपके श्रीचरणॊं का दास हूँ. जहाँ आप रहेंगे, आपका यह सेवक वहीं रहेगा. पता नहीं, किस
अपराध की इतनी बड़ी सजा आप मुझे देना चाह रहे हैं? यदि जाने-अनजाने में
मुझसे कोई भूल अथवा कोई अपराध हो गया हो तो मुझे बालक समझकर क्षमा करने की कृपा
करें".
" हे भ्राताश्री! संकट की इस
घड़ी में आपको धैर्य नहीं खोना चाहिए. कहा भी गया है- "विद्या मित्रं प्रवासेष्यु, भार्या मित्रं गृहेषु च, व्याधितस्यौषधं मित्रं, धर्मा मित्र मृत्यस्य." अतः धैर्य
धारण करें. आप यह न सोचें कि सीताजी
अब जीवित नहीं हैं.
रावण स्वर्ग में हो अथवा पृथ्वी पर, सागर में हो या अधोलोक में, हम इसे खोजकर अपना क्रोध
शांत करेंगे.
अतः आप उदासीनता को छोड़कर सीता जी खोज में ध्यान केन्द्रीत
करें. गम्भीरतापूर्वक प्रयत्न करने से ही हमें सफ़लता प्राप्त होगी- न कि विलाप करने से’.
"उत्साहवन्तः पुरुषा नावसीदन्ति कर्मसु-"
"हे भ्राता
! आप ज्ञाणियों में श्रेष्ठ हैं. आपको कोई अतिरिक्त परामर्श देने की आवश्यकता नहीं है. कहा गया है कि जिनके हृदय में उत्साह है वे पुरुष कठिन-से कठिन परिस्थितियों के आ जाने पर भी हिम्मत नहीं हारते. अतः शोक का त्याग कर दीजिए".
.लक्ष्मण के इस प्रकार समझाने से श्रीरामजी ने शोक और मोह का परित्याग कर धैर्य
धारण किया.
पम्पा सरोवर को पीछे छॊड़ते हुए, वे कभी पर्वत की ऊँचाइयों से, तो कभी अत्यधिक ढलान और
घने वनों के बीच से चलते हुए ऋष्यमूक पर्वत की ओर प्रस्थित हुए.
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सुग्रीव और
बाली का परिचय
ऋष्यमूक
पर्वत पर ऋक्षराज नामक एक राक्षस रहता था . इसी
पर्वत के निकट एक तालाब था. ऋक्षराज
इसमे नहाने की इच्छा लेकर उतरा और जब वह तालाब से नहाकर बाहर आया तो वह यह देखकर
आश्चर्य में पड़ गया कि उसकी देह एक सुन्दर स्त्री में परिवर्तित हो गयी है.
ऋक्षराज
हैरान और परेशान होकर पर्वत के शिखर पर बैठा हुआ था. तभी
देवराज इन्द्र आकाश मार्ग से जा रहे थे. तन
उनकी नजर सुन्दर अप्सरा के बालों पर पड़ी. देवराज
इन्द्र के तेज से एक बालक पैदा हुआ जिसका नाम बाली पड़ा.
(२) एक
दिन ऋक्षराज विचारों में उलझा हुआ पूरी रात उसी पर्वत पर बैठा रहा. सूर्योदय
के समय जब सूर्यदेव आकाश मार्ग में उदित हुए तो उनकी दृष्टि अप्सरा के समान सुंदरी
ऋक्षराज पर गई. सूर्यदेव इस अप्सरा पर
मोहित हो गए और उनका तेज ऋक्षराज की ग्रीवा पर गिरा जिससे एक वीर बालक का जन्म हुआ
जिसका नाम सुग्रीव पड़ा
ऋक्षराज
के पास कोई और चारा नहीं था कि वह अपने पुराने रूप में वापस आ सके. इसलिए
उसने बाली और सुग्रीव के लालन-पालन पर ध्यान दिया और
ऋष्यमूक पर्वत पर ही अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया. पौराणिक
कथा के आधार पर ही कहा जाता है कि एक ही मां की संतान होने के बावजूद बाली और
सुग्रीव का जन्म मां के गर्भ से नहीं हुआ. लेकिन किसी घटना को लेकर दोनो एक दूसरे के
शत्रु बन गए.
सुग्रीव
की पत्नी का
नाम रूमा था तो बाली की पत्नी वानर
वैद्यराज सुषेण की पुत्री तारा थी. तारा
एक अप्सरा थी.
(२) एक
अन्य कथा के अनुसार- बालि और सुग्रीव के जन्म
को लेकर एक रोचक प्रसंग प्राप्त होता है. ऐसा
कहा जाता है कि बालि इन्द्र और अरूण का पुत्र था. इन्द्र
देवताओ के राजा थे और अरूण सूर्यनारायण के सारथी थे. ऐसी
मान्यता है कि सूर्य प्रतिदिन सात घोड़ों के रथ में सुबह आते है जिसका संचालन अरूण
करता था.
एक बार किसी ऋषि ने सूर्य को शाप दे दिया कि
वह पृथ्वी के ऊपर प्रकाशमान नहीं होंगे. इसके
पश्चात सूर्यनारायण ने रथ की सवारी बंद कर दी.
अब
अरूण के पास कोई काम नहीं रहा. अरुण
को पहले से ही स्वर्गलोक जाकर अप्सराओं का दिव्य नृत्य देखने की इच्छा रही थी. उसने
इस अवसर का लाभ उठाकर एक युवती का वेष धारण किया और अप्सराओं का नृत्य देखने के
लिए स्वरलोक पहुँच गया. इन्द्र इस समय नृत्य का
आनन्द ले र्हे थे, ने अरुण रुपी युवती कोदेखा
और उस पर मोहित हो गये. दोनों ने समागम किया और
कालांतर में अरूण ने एक बालक को जन्म दिया, जिसके
केश सुंदर होने के कारण बालि नाम रखा गया. फ़िर
उसने एक अन्य बालक को जन्म दिया. उस
बालक की सुंदर ग्रीवा होने के कारण उसका नाम सुग्रीव रखा गया. अरूण
ने अपने पुत्र महर्षि गौतम तथा उनकी पत्नी अहल्या को सौंप दिये और दोनों ने बालि
और सुग्रीव का पालन-पोषण किया. बालि
का विवाह वानर वैद्यराज सुषेण की पुत्री तारा के सथ सम्पन्न हुआ..
एक
अन्य कथा के अनुसार समुद्र मंथन के समय चौदह मणियों में से एक अप्सरा तारा भी थी.बालि
और सुषेण जो समुद्र मंथन में मदद कर रहे थे, तारा
को देखा तो दोनॊ उसे पत्नी बनाना चाहते थे. उस
समय बालि तारा के दाअहिनी ओर तथा सुषेण बायीं ओर खड़े थे. विवाद
सुलझाने के लिए विष्णु जी सामने आए. उन्होंने अपना निर्णय देते हुए कहा कि विवाह के समय
कन्या के दाहिनी ओर उसका होने वाला पति होता है और बायीं ओर खड़ा रहने वाला उसका पिता. इस
निर्णय के अनुसार बालि तारा का पति बना और सुषेण उसका पिता घोषित किये गये.
एक
अन्य कथा के अनुसार बालि को उसके पिता इन्द्र से एक स्वर्ण हार प्राप्त हुआ जिसको
ब्रह्माजी ने अभिमंत्रित करके यह वरदान दिया कि इसको पहनकर जब वह रण भूमि में
दुश्मन का सामना करेगा तो उस्सके दुश्मन की आधी शक्ति क्षीण हो जाएगी और उसे
प्राप्त हो जायेगी. इस कारण से बालि अजेय था.
एक
अन्य प्रसंग के अनुसार एक बार जब बालि संध्यावंदन के लिए जा रहा था, उसी
समय नारद मुनि जा रहे थे. बालि ने उनका अभिवादन किया
तो नारद ने बतलाया कि वह लंका जा रहे है, जहाँ
लंकापति रावण ने देवराज इन्द्र को परास्त करने के उपलक्ष में भोज का आयोजन किया है. चंचल
स्वभाव के नारद, जिन्हें सार्वज्ञान था. उन्होंने
चुटकी लेने की कोशिश की और कहा अब तो पूरे ब्रह्माण्ड में केवल रावण का ही आधिपत्य
है और सारे प्राणी, यहाँ तक कि देवतागण भी उसे
ही शीश नवाते है. बालि ने कहा कि रावण ने
अपने वरदान और अपनी सेना का इस्तेमाल उनको दबाने में किआ है जो निर्बल है लेकिन
मैं उनमें से नहीं हूँ और आप यह बात रावण को स्पष्ट कर दे.
सर्वज्ञानी
नारद ने यही बात रावण को जाकर बताई जिसे सुनकर रावण क्रोधित हो गया और उसाने अपनी
सेना तैआर करने के आदेश दे डाले. तब
नारद ने उससे चुटकी लेते हुए कहा कि एक वानर के लिए यदि आप पूरी सेना लेकर जाएंगे
तो आपके सम्मान के लिए यह उचित नहीं होगा.
रावण
तुरन्त मान गया और अपने पुष्पक विमान में बैठकर बालि के पास पहुँच गया. बालि
उस समय संध्यावंदन कर रहा था. बालि
की स्वर्णमयी कान्ति को देखकर रावण घबरा गया और बालि के पीछे से वार करने की
चेष्टा की. बालि अपनी पूजा-अर्चना
में तल्लीन था लेकिन फ़िर भी उसने उसे अपनी पूँछ से पकड़कर और उसका सिर अपने बगल में दबाकर पूरे
विश्व में घुमाया. उसने ऐसा इसालिए किया कि
संपूर्ण विश्व के प्राणी रावण को इस असहाय अवस्था में देखें और उनके मन से भय निकल
जाये.
इसके पश्चात ने अपनी पराजय स्वीकार की और
बालि की ओर मैत्री का हाथ बढ़ाया जिसे बालि ने स्वीकार कर लिया.
(३)बालि
प्रतिदिन सूर्य को जल चढ़ाने पूर्वी तट से पश्चिम तट और उत्तर से दक्षिण तटॊं में
जाता था.
रास्त्ते में आयी पहाड़ी की चोटियों को वह ऐसे
ऊपर फ़ेंकता था और पुनः पकड़ लेता था मानो वह कोई गेंद हो. इसके
पश्चात भी जब वह सूर्य वन्दना करके लौटता था तो उसे तिल मात्र भी थकावट नहीं होती
थी.
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तौ तु दॄष्ट्वा महात्मानौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ.
ऋष्यमूक पर्वत पर वानरों के राजा सुग्रीव निवास करते थे. पर्वत की अत्यधिक ऊँचाई से उन्होंने दो युवकों को, जिन्होंने अपने कांधों पर धनुष और पीठ पर बाणॊं से सुसज्जित
तूणीर बांध रखा था, अपनी ओर आता देखा. उन्हें अपनी ओर आता देख, सुग्रीव का मन, भय से ग्रसित होने लगा. उसे पूरा विश्वास हो चला था कि हो न हो, उसके दुश्मन भाई बाली ने इन दो युवकों को उसके वध के लिए
निश्चित ही भिजवाया होगा. तब वह अपने साथियों के साथ मतंग ऋषि के आश्रम
में जाकर छिप गया. यह स्थान ऋषि की दिव्य शक्ति द्वारा सुरक्षित
था.
संकट की इस घड़ी में भय से थर-थर कांपते सुग्रीव ने अपने सभासदों को बुला भेजा. भय से ग्रसित सुग्रीव ने अपने साथियों को पर्वत की ऊँचाइयों
से दिखाते हुए बतलाया-" ये दो वीर, जो अपने साथ आयुध लिये हुए इस ओर आ रहे हैं. जिन्होंने चीर वस्त्र धारण किया है, ताकि हम उन्हें पहचान न सके. अपनी पहचान छिपाते हुए वे निश्चित ही मुझे मारने के लिए इस
ओर तेजी से आ रहे हैं. संकट की इस घड़ी में अब हमें क्या करना चाहिए".
सुरक्षित रहने पर भी सुग्रीव इतना व्याकुल और भयभीत हो रहा
था कि वह निरन्तर एक पर्वत शिखर से दूसरे पर, कभी तीसरे पर भटक रहा था. वह क्षणमात्र को भी शांति से बैठ नहीं रहा था. अपने स्वामी को इस तरह विचलित होता देख हनुमान ने उसे सांत्वना
देते हुए कहा-" आपको अपने मन से बालि का
भय त्याग देना चाहिए. अस्थिर चित्त होने के कारण आप किसी भी बात की
गहराई में न जाकर, अन्यत्र सोचने लगते हैं, यह ठीक नहीं है".
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श्री
हनुमान जी का जन्म.
एक कहानी
में ऐसा बताया जाता है कि महाराजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ से प्राप्त हवि अपनी
तीनों रानियों में बांटी थी.इस हवि का
एक टुकड़ा गरूड उठाकर ले गया. वह टुकड़ा
उस स्थान पर गिरा जहाँ अंजनी पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या कर रही थीं. हवि खाते ही अंजनी गर्भवती हो गई और इस तरह हनुमानजी का
जन्म हुआ.
२. ज्योतिषीयों की सटीक गणना के अनुसार हनुमानजी का जन्म 58 हजार 112 वर्ष पहले
त्रेतायुग के आन्तिम चरण में चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्रा नक्षत्र व
मेष लग्न के योग में सुबह 06.03 बजे
झाराखण्ड राज्य के गुमला जिले के आंजन नाम के छोटे से पहाड़ी गाँव की एक गुफ़ा में
हुआ था.
३. मध्यप्रदेश के आदिवासियों का कहना है कि हनुमानजी का जन्म
राँची जिले के गुमला परमंडल के ग्राम अंजन में हुआ था. कर्नाकटवासियों की धारणा है कि उनका जन्म कर्नाटक में हुआ
था. पंपा और किष्किंधा के ध्वंसावशेष अब भी हम्पी में देखे जा सकते हैं. अपनी राम कथा में फ़ादर कामिल बुल्के ने लिखा है कि कुछ
लोगों के अनौसार हनुमानजी वानर-पंथ में
पैदा हुए थे.
४. धार्मिक मान्यता के अनुसार हनुमानजी का जन्म झारखंड राज्य
के गुमला जिले के आंजन गाँव की पहाड़ी नेण स्थित एक गुफ़ा में हुआ था, इसी गाँव में माता अंजनी निवास करती थीं.
५.हनुमानजी को शिवावतार अथवा रुद्रावतार भी माना जाता है. रुद्र आँधी-तूफ़ान के
अधिष्ठाता देवता भी हैं और देवराज इन्द्र के साथी भी. विष्णु पुराण के अनुसार रुद्रों का उद्भव ब्रह्माजी की
मृकुटी से हुआ था. हनुमानजी वायुदेव अथवा मारुति नामक रुद्र के
पुत्र थे.
६. परमेश्वर की सबसे लोकप्रिय अवधारणाओं और भारतीय महाकाव्य
रामायण में सबसे महतपूर्ण व्यक्तियों में श्री हनुमानजी हैं. वे भगवान शिवजी के सभी अवतारों में सबसे बलवान और बुद्धिमान
माने जाते हैं.. रामायण के अनुसार वे जानकी जी के अत्यधिक
प्रिय हैं,.इस धरा पर जिन सात मनीषियों को अमरत्व का
वरदान प्राप्त है, उनमें बजरंगबली भी हैं. हनुमानजी का अवतार भगवान राम की सहायता के लिए हुआ था.
हनुमानजी
के पराक्रम की असंख्य गाथाएँ प्रचलित हैं. इन्होंने
जिस तरह से रामजी के साथ सुग्रीव की मैत्री कराई और फ़िर वानरों की मदद से असुरों
का मर्दन किया, वह अत्यन्त प्रसिद्ध है.इनका शरीर एक वज्र की तरह है. वे पवन-पुत्र के
रूप में जाने जाते हैं. वायु अथवा पवन ( हवा के देवता) ने हनुमान
को पालने में महत्वपूर्ण भुमिका निभाई थी.मारुत
नन्दन ( संस्कृत : मरुत ) का अर्थ हवा है. नन्दन का
अर्थ बेटा है. मारुत नन्दन अर्थात हवा का बेटा हुआ.
इनके जन्म
के पश्चात एक दिन इनकी माता फ़ल लाने के आश्रम इन्हें छोड़कर चली गई. जब शिशु को भूख लगी तो वे उगते हुए सूर्य को फ़ल समझकर उसे पकड़ने आकाश में
उड़ने लगे. उनकी सहायता के लिए पवन भी बहुत तेजी से चला, उधर भगवान सूर्य ने उन्हें आबोध शिशु समझकर अपने तेज से
जलने नहीं दिया,. जिस समय हनुमानजी सूर्य को पकड़ने के लिए लपके, उसी समय राहु सूर्य पर ग्रहण लगाना चाहता था. हनुमानजी ने सूर्य के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया
तो वह भयभीत होकर वहाँ से भागा और उसने देवराज इन्द्र से शिकायत की-" देवराज
! आपने मुझे अपनई क्षुधा शान्त करने के साधन के
रूप में सूर्य और चन्द्र दिये थे. आज
अमावस्या के दिन जब मैं सूर्य को ग्रस्त करने गाया तब देखा कि दूसरा
राहु सूर्य को पकड़ने जा रहा है."
राहु की
बात सुनकर देवराज इन्द्र घबरा गये और उसे साथ लेकर सूर्य की ओर चल पडए. राहु को देखकर हनुमानजी सूर्य को छॊड़ राहु पर झपटे. राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिए पुकारा तो उन्होंने हनुमानजी
पर वज्रायुध से प्रहार किया जिससे वे एक पर्वत पर गिरे और उनकी बायीं ठुड्डी टूट
गई.
हनुमान जी
की यह दशा देखकर वायुदेव को क्रोध आया. उन्होंने
उसी क्षण अपनी गति रोक दी. इससे
संसार का कोई भी प्राणी साँस न ले सके और सब पीड़ा से तड़पने लगे. तब सारे सुर, असुर, यक्ष, किन्नर
आदि ब्रह्माजी की शरण में गये. वे मूर्छत
हनुमानजी को गोद में लिए उदास बैठे थे. जब
ब्रह्माजी ने उन्हें जीवित किया तो वायुदेव ने अपनी गति का संचार करके सभी
प्राणियों की पीड़ा दूर की.
फ़िर
ब्रह्माजी ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए वरदान दिया कि-"
कोई
भी शस्त्र इसके अंग को हानि नहीं पहुँचा सकता. इन्द्र ने वरदान देते हुए कहा- "इसका शरीर वर्ज से भी अधिक कठोर होगा." सूर्यदेव
ने कहा-" वे उसे अपने तेज का शतांश प्रदान करेंगे तथा शास्त्र
मर्मज्ञ होने का आसीर्वाद दिया. वरूण ने
कहा-" मेरे पाश और जल से यह बालक सदा सुरक्षित
रहेगा. यमदेव ने अवध्य और नीरोग रहने का आशीर्वाद
दिया. यक्षराज कुबेर, विश्वकर्मा अदि देवों ने भी अमोध वरदान दिये.
इन्द्र के वज्र से
हनुमानजी की ठुड्डी (संस्कृत में
"हनु") टूट गई थी, इसलिए उनको हनुमान नाम दिया गया. श्री हनुमानजी के एक
सौ आठ नाम हैं, जिनके जाप से अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं. एक सौ आठ नामों में
प्रमुख रूप से 12 नाम विशेष बताये जाते हैं- यथा--बजरंगबली, मारुति, अंजनि पुत्र, पवनपुत्र. संकटमोचन, केसरीनन्दन महावीर, कपीश, शंकर सुवन, कपि श्रेष्ठ. वानर यूथपति,
रामदूत.
हिन्दु
महाकाव्य रामायण के अनुसार हनुमानजी को वानर मे मुख वाले अत्यन्त बलिष्ठ पुरुष के
रूप में दिखाया जाता है. इनका शरीर
अत्यत्न्त मांसल एवं बलशाली है. उनके कंधे
पर जनेऊ लटका रहता है. उन्हें मात्र लंगोट पहने अनावृत शरीर के साथ
दिखाया जाता है. माथे पर स्वर्ण मुकुट एवं शरीर पर स्वर्ण
आभुषण पहने दिखाए जाते हैं. उनकी वानर
के समान लंबी पूँछ है. उनका मुख्य अस्त्र गदा माना जाता है.
"हनुमान"
शब्द
का "ह
" ब्रह्मा का,"
नु " अर्चना का," मा " लक्ष्मी
का और " न
" पराक्रम का द्योतक है. हनुमानजी को सभी देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त था. वे सेवक भी थे और राजदूत, नीतिज्ञ, विद्वान, रक्षक, वक्ता, गायक, नर्तक, बलवान और बुद्धिमान भी थे. शास्त्रीय संगीत के तीन आचार्यों में से एक हनुमानजी भी थे. अन्य दो थे शार्दूल और कहाल. "संगीत पारिजात"
हनुमानजी
केसंगीत- सिद्धांत पर आधारित है.
महाभारत
युद्ध में श्री हनुमानजी सूक्ष्मरूप में अर्जुन के रथ पर सवार हो गए थे. यही कारण था कि पहले भीष्म और बाद में कर्ण के प्रहार से
उनका रथ सुरक्षित रहा, अन्यथा कर्ण ने तो कभी का ही रथ ध्वस्त कर
दिया होता.
1. श्री हनुमानजी की जाति : एक शोध अनुसार आज से 9 लाख वर्ष पूर्व धरती
पर एक ऐसी विलक्षण वानर जाति विद्यमान थी, जो आज से 15 से 12 हजार वर्ष पूर्व लुप्त हो गई. इस जाति का नाम कपि था. श्री हनुमानजी कपि नामक वानर जाति से थे. वानर का शाब्दिक अर्थ होता है " वन में रहने वाला नर " लेकिन मानव से अलग. क्योंकि वन में ऐसे
भी नर रहते थे जिनको पूछ
निकली हुई थी.
2. हनुमानजी के 5 सगे भाई : ब्रह्मांडपुराण में वानरों की वंशावली के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है. इसी में हनुमानजी के सगे भाइयों के बारे में उल्लेख मिलता है. अपने 5 भाइयों के बीच हनुमानजी सबसे बड़े थे. उनके अन्य भाइयों के नाम हैं- मतिमान, श्रुतिमान, केतुमान, गतिमान, धृतिमान.
3.हनुमानजी ने लिखी थी पहली रामायण : दक्षिण भारत की लोकमान्यता के अनुसार
सर्वप्रथम रामकथा हनुमानजी ने लिखी थी और वह भी एक चट्टान पर अपने नाखूनों से लिखी थी. यह रामकथा वाल्मीकिजी की रामायण से भी पहले लिखी गई थी और यह " हनुमद रामायण " के नाम से प्रसिद्ध है. इसे दक्षिण भारत में 'हनुमन्नाटक' कहते
हैं. उन्होंने इसे लिखकर समुद्र में फेंक दिया था. बाद में तुलसीदासजी
को यह मिली थी.
4. हनुमानजी का वाहन :
सभी देवी और देवताओं के वाहन होते हैं लेकिन
हनुमानजी का वाहन अदृश्य
माना गया है. " हनुमत्सहस्त्रनामस्तोत्र " के 72वें श्लोक में उन्हें
"वायुवाहन " कहा गया. तात्पर्य यह कि उनका वाहन
वायु है. वे वायु पर सवार होकर अति प्रबल वेग से एक
स्थान से दूसरे स्थान पर
गमन करते हैं.
5. हनुमानजी के 4 गुरु : कहते हैं कि हनुमानजी के 4 गुरु थे जिनसे उन्होंने शिक्षा और विद्या हासिल की थे. पहले सूर्यदेव, दूसरे नारद तीसरे
पवनदेव और चौथे मतंग ऋषि.
श्री हनुमानजी के एक
सौ आठ नाम हैं, जिनके जाप से अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं.
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"तुम्हारा परामर्श उचित है वीर हनुमान....तुम्हारे जैसे बुद्धिमान मंत्री के रहने के बाद भी न जाने
क्यों उन दोनों योद्धाओं को, जो धनुष और तलवार लिए इस ओर ही आ रहे हैं, मुझे ऐसा लगता है कि हो-न-हो
उन्हें बालि ने ही भेजा होगा. तुम तो जानते ही हो कि बालि धूर्त है और उसके अनेकों मित्र
है.
ये दोनों योद्धा निश्चित ही उसने भेजे होंगे. अतएव मैं चाहता हूँ कि तुम जाकर उनके आने का कारण पता करो. उनकी
वाकशैली और उनके भावों
को सावधानीपूर्वक परखना. यह भी पता करना कि ये दोनों कौन हैं और क्या चाहते हैं? तुम उसने समक्ष किसी प्रयोजन से मेरा गुणगान करोगे, तब यह पता कर सकोगे कि वे मेरे मित्र हैं या
शत्रु".
कपिरुपं परित्यज्य हनुमान मारुतात्मजः : भिक्षुरूपं ततो भेजे शठबुद्धितया कपि
स्वभाव से हनुमान जी का मन भी अन्य वानरों की भांति शंकालु था. अतः उन्होंने अपना वास्तविक रूप छिपा लिया और एक भिक्षु का
रूप धारण कर लिया. तदनन्तर उन्होंने उन दोनों वीरों को प्रणाम किया और प्रिय वाणी में पहले तो उन
दोनों की वीरोचित प्रशंसा की. फ़िर विधिवत आदर करते हुए मधुर वाणी में कहा-" वीरों..!
आप दोनों सत्यपराक्रमी, राजर्षियों और देवता के समान प्रभावशाली जान पड़ते हैं".
आपके शरीर की दिव्यकांति बड़ी सुन्दर है. आप दोनों इस निर्जन और सघन वन में किस प्रयोजन से आए हैं? आपकी सुगठित, शक्तिशाली देह को देखकर लगता है कि आप योद्धा हैं. यद्धपि आपकी वेश-भूषा योगियों के जैसी है".
"हे वीरों.! मेरा नाम हनुमान है और मैं यहाँ से राजा सुग्रीव का मंत्री
हूँ.
हमारे महाराजा को उनके बड़े भाई बालि ने राज्य से निष्कासित
कर दिया है. मैं
पवनपुत्र हूँ और अपनी इच्छानुसार कहीं भी आ-जा सकता हूँ और कोई भी रूप धारण कर सकता हूँ. महाराज सुग्रीवजी ने मुझे यहाँ मित्रता का सम्बन्ध स्थापित
करने तथा आपके स्वागत करने के लिए भेजा है".
वाक्यज्ञो वाक्यकुशलः पुनर्नोवाच किंचन.(24).वाल.
हनुमानजी की बातों को सुनकर श्रीराम जी ने अपने अनुज
लक्ष्मण से कहा- "सुमित्रानन्दन ! ये महामनस्वी वानरराज सुग्रीव के सचिव हैं और
उन्होंने हित की इच्छा से यहाँ मेरे पास आए हैं. तुम स्नेहपूर्वक मीठी वाणी में बात करो".
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः : नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषित्तुम (28)वाल.
हे लक्ष्मण ! जिसे ऋगवेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने
यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान नहीं है, वह इस
प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता. निश्चय ही इन्होंने समूचे व्याकरण का कई बार
स्वाध्याय किया है, क्योंकि बहुत-सी बातें बोल जाने पर भी इनके मुँह से कोई
अशुद्धि नहीं निकली. सम्भाषण के समय इनके मुख, नेत्र,ललाट, भौंह तथा
अन्य सब अंगो से कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा
ज्ञात नहीं होता".
"इन्होंने थोड़े में ही बड़ी स्पष्टता के साथ अपना
अभिप्राय निवेदन किया है. उसे समझने में कहीं कोई संदेह नहीं हुआ है. रुक-रुक कर अथवा
शब्दों या अक्षरों को तोड़-मरोड़कर किसी ऐसे वाक्य का उच्चारण नहीं किया है, जो सुनने
में कर्णकटु हो. इनकी वाणी हृदय में मध्यमारूप में स्थित है और कण्ठ से
बैखरी रूप में प्रकट होती है.
=================================================
वेद में
वाणी या वाक के चार
भेद किए गए है- परा...पश्यंती...मध्यमा और
बैखरी. सायण के अनुसार
जो नादात्मक वाणी मूलाधार से उठती है और
जिसका निरूपण नहीं हो सकता, उसका नाम "परा" है. जिसे केवल
योगी लोग ही जान सकते
है, वह पश्यतीं है. फ़िर जब
वाणी बृद्धिगत होकर बोलने की इच्छा उत्पन्न करती है, तब उसे
मध्यमा कहते हैं. अंत में
जब वाणी मुँह में आकर
उच्चरित होती है, तब इसे
बैखरी या तुरीय कहते हैं.
वेदांतियों ने
प्राणियों की चार अवस्थाएँ मानी हैं- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और
तुरीय. तुरीय / तुरियावस्था मोक्ष
है जिसमें समस्त भेदज्ञान का नाश हो जाता
है और आत्मा अनुपहित चैतन्य या ब्रह्मचैतन्य होती है.
=========================================================
." हे
लक्ष्मण ! यह हनुमान वानरों के राजा सुग्रीव का मंत्री है, जिसकी हम
खोज कर रहे थे. यह बड़ा ही विनीत प्रतीत होता है तथा काव्यात्मक बातें करता
है. उसकी वाणी
में हृदय, स्वर एवं
बुद्धि की परिपक्व समन्वयता प्रदर्शित होती है. एक शत्रु भी इसकी बातों से आकर्षित हो जाएगा. हे लक्ष्मण ! कृपया सारी
घटना हनुमान को बतला दो जिसके कारण हमें यहाँ आना पड़ा है".
अपने भ्राता की बातों को शिरोधार्य करते हुए लक्ष्मण ने
हनुमान जी से कहा-" यह सौभाग्य की बात है कि हमारी भेंट आपसे हुई. हम सुग्रीव
की खोज में आए हैं. हम उसने मित्रता स्थापित करने के अति उत्सुक
हैं".
" हे वीर हनुमान ! (राम की ओर इंगित करते हुए ) ये महाराज
दशरथ के पुत्रा श्रीराम हैं और मैं इनका अनुज लक्ष्मण. पिताजी आपका
राज्याभिषेक करने
वाले थे, लेकिन
राजनीतिक षड़यंत्र के
कारण भैया को वनवास दे दिया गया. दण्डकारण्य़ में हम सुखपूर्वक निवास कर रहे थे. रामजी की
पत्नी सीताजी को इच्छानुसार रूप धारण करने वाले एक राक्षस ने सूने आश्रम से हरण कर
लिया है, वह कौन है
और कहाँ रहता है? इत्यादि बातों का ठीक-ठीक पता
नहीं लग रहा है. दुःख से व्याकुल होकर हम वन में सीताजी की खोज कर रहे हैं".
" वन में इधर-उधर विचरण करते हुए हमारा सामना कबन्ध से हुआ. उसका वध
करके हमने उसे शाप से मुक्त किया. स्वर्ग जाते समय उसने हमें सुग्रीवजी से मित्रता स्थापित करने का सुझाव दिया था. इस समय
हमारे यहाँ आने का यही कारण है. तुम्हारे राजा के हित में जो भी करना आवश्यक
होगा, हम उसके लिए
सहमत हैं." कहते
हुए लक्ष्मण अत्यधिक भावुक हो गए थे और उनके नयन भर आए
अस कही परेउ चरन अकुलाई
लक्ष्मण जी का बस इतना कहना सुनते ही हनुमानजी से श्रीरामजी
को पहचान लिया और वे उनके चरणॊं मे गिर पड़े. ऐसा करते हुए उनका शरीर पुलकायमान हो
उठा. उनके मुँह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे. वे एकटक प्रभु श्रीरामजी के वेष की
रचना को ही देख रहे थे.
फ़िर धैर्ये धारण करते हुए उन्होंने रामजी की स्तुति
की." हे प्रभु ! एक तो मैं मंदबुद्धि हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ और तीसरे
कुटिल हृदय और अज्ञानी हूँ. फ़िर भी हे दीनबन्धु ! आपने भी मुझे भूला दिया?".
===========================================================
एक बार भगवान रामजी के जन्म के बाद, एक दिन
शंकरजी हनुमानजी को ही बंदर रूप में लेकर स्वयं नचाने वाला मदारी बने और बंदर
(हनुमान) के सहित अयोध्या में महाराज दशरथजी के राजमहल में आये. उन्होंने बंदर का
नाम दिखाया. बड़ी विचित्र स्थिति थी, कि नाचने वाला शिव और नचाने वाला भी शिव.रामजी
दोनों को पहचान चुके थे.. मदारी के चले जाने के बाद रामजी रोने लगे तथा उसी बंदर
को मांगने लगे. जो नाच रहा था. खेल दिखा चुकने के बाद उस प्रांगण में न तो शिवजी
थे और न ही हनुमानजी. रामजी ने हट पकड़ लिया कि वही बंदर चाहिए.अनेक बंदर मंगवाये
गये लेकिन रामजी ने किसी को भी स्वीकार नहीं किया.
त्रिकालदर्शी वशिष्ठजी सब कुछ जान चुके थे.
उन्होंने समझ लिया था कि बालक राम मानेगा नहीं तो उन्होंने किष्किन्धा से हनुमान
नामक बंदर को लाने के लिए दूतों तथा अनुचरों को आदेश दिया. हनुमानजी आयेम भक्त और
भगवान का मिलन हुआ. वनवास से पहिले ही विश्वामितजी के साथ जाते समय ही हनुमानजी को
सबा कुछ बताकर, किष्किन्धा को भेज दिया
और जब तक वहीं रहकर प्रतीक्षा करने
को कहा जब तक कि वह स्वयं वहाँ न आयें.
हनुमानजी तभी से अब तक अनवरत रामजी के किष्किन्धा
में प्रतीक्षा कर रहे थे.हनुमानजी के प्रश्न करने और न पहचानने के दो कारण थे.
पहला तो यह कि जिस रूप, जिस अवस्था में उन्होंने रामजी का बाल्यकाल में जिस्स
वेश-भूषा में देखा था, सब बदल चुका था. यही कारण था कि वे रामजी को नहीं पहचान
पाये.
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"हे नाथ ! यद्दपि मुझसे बहुत से अवगुण हैं, तो भी हे
स्वामी ! सेवक को इस तरह भुला नही देना
चाहिये". कहते हुए हनुमानजी बार-बार चरणॊं में गिरते हुए अपनी लघुता का बखान
कर रहे थे.
सुनु कपि मानसि जनु ऊना : तै मम प्रिय लछिमन से दूना.
" हे कपि ! सुनो. मन में ग्लानि न मानना. मुझे तो तुम
लक्ष्मण से भी अधिक प्रिय हो. सब कोई मुझे
समदर्शी कहते हैं, पर मुझे तो केवल और केवल सेवक ही प्यारा है, क्योंकि वह अनन्य
गति वाला होता है.
लक्ष्मण जी रामजी और हनुमानजी की बातों को बड़ी गम्भीरता के
साथ सुन रहे थे. जैसे ही रामजी ने हनुमान को संबोधित करते हुए कहा कि तुम मुझे
लक्ष्मण से भी अधिक प्रिय हो, यह शब्द सुनते ही लक्ष्मण भी सोच में पड़ गये थे कि
अभी-अभी भैया से मिलने आए हनुमान अचानक मुझसे भी अधिक प्रिय कैसे हो गये?. उनका
सोचना एकदम सही था, लेकिन तर्क करने की जगह चुप रहना ही उन्हें श्रेयस्कर लगा था.
लेकिन रामजी तो अन्तर्यामी हैं. समझ गए. समझ गए कि लक्ष्मण को यह बाद चुभ गयी है.
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उचित अवसर पाकर एक दिन लक्ष्मण ने पूछ ही लिया कि आपको
मुझसे कहीं अधिक हनुमानजी प्रिय क्यों
हैं? प्रश्न गंभीर था. अतः राम जी ने उन्हें समझाते हुए कहा-" सुनो लक्ष्मण !
तुम्हारे ही कारण सीता का हरण हुआ, यदि तुम मेरी आज्ञा का अनुपालन करते और सीता को
अकेले छोड़कर न आते तो कदाचित सीता का हरण नहीं होता. मैं जानता हूँ कि हनुमान के माध्यम
से ही मुझे सीता पुनः मिलेगी. विछोह कराने वाले से अधिक श्रेष्ठ, मिलन कराने वाला
होता है इसलिये मैंने हनुमान को तुमसे अधिक प्रिय कहा है..
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लक्ष्मण की बातों को सुनकर हनुमानजी ने कहा-" आप ही
की तरह सुग्रीव भी अपने राज्य एवं अपनी प्रिय पत्नी से वंचित हैं. मुझे
विश्वास है कि वे और उनके अनुचर सीताजी की खोजने के कार्य में अवश्य ही आपकी
सहायता करेंगे. कृपया आप मेरे साथ महाराज सुग्रीव से भेंट करने हेतु चलें, क्योंकि वे
आपके यहाँ आने का कारण जानने के लिए अति उत्सुक हैं." ऐसा
कहते हुए हनुमानजी अपने वास्तविक रूप प्रकट हुए और उन्होंने अपने शरीर को विशाल
बना लिया. फ़िर अपने प्रभु श्रीराम तथा लक्ष्मण जी से विनम्रतापूर्वक उन्होंने कहा-" हे
स्वामी ! कृपया करके आप दोनों मेरे कंधे पर बैठ जाइए, मैं वायु
मार्ग से आप दोनों को सुगमतापूर्वक ले चलूँगा".
वहाँ पहुँचकर वे सबसे पहले अपने राजा सुग्रीव के पास गए और
उन्हें रामजी के मैत्रीपूर्ण उद्देश्य के विषय में सूचित किया. हनुमान जी
की बातों से संतुष्ठ होने के बाद सुग्रीव रामजी और लक्ष्मण जी से मिलने गए. निकट आकर
सुग्रीव ने मित्रता स्थापित करने की पहल करते हुए अपना हाथ बढ़ाया. रामजी ने भी
अत्यन्त प्रसन्न होते हुए अपना हाथ बढ़ाया और उनका आलिंगन किया.
तत्पश्चात औपचारिक रीति को पूर्ण करने लिए पवित्र अग्नि
प्रज्जवलित की गई. आदरपूर्वक उस अग्नि को साक्षी मानते हुए
प्रदक्षिणा की. तत्पश्चात रामजी एवं सुग्रीव ने पुनः हाथ मिलाए और आलिंगन लिया. मित्रता स्थापित हो जाने के पश्चात सुग्रीव ने
रामजी से कहा-" हे राम ! आज से आपके सारे दुःख-सुख मेरे होंगे और उसी प्रकार मेरे समस्त सुख-दुःख आपके होंगे".
सुग्रीव और हनुमान जी ने पुष्पों से सुसज्जित भूमि पर श्रीराम
और लक्ष्मण जी को बैठने के लिए आग्रहपूर्वक निवेदन किया. जब दोनों
बैठ गए तब सुग्रीव ने अत्यन्त ही विनीत भाव से बोलते हुए कहा-" हे राम ! मेरे भाई
बालि से भयभीत होकर मैं इस पर्वत शिखर पर निवास करता हूँ. उसने मेरा
राज्य तथा पत्नी को मुझसे छीन लिया है. मुझे सदैव भय सताता रहता है कि वह मुझ पर
आक्रमण कर मेरे प्राण ले सकता है. इसी भय के चलते मुझे पल भर भी शान्ति नहीं
मिलती".
"हनुमान ने मुझसे आपके वनवास एवं आपकी पत्नी के
अपहरण के विषय में सूचित किया है. एक मित्र होने के नाते मैं उन्हें खोज कर लाने
में आपकी सहायता करने के लिए दृढ़-प्रतीज्ञ हूँ, भले ही वे स्वर्ग में हों, पृथ्वी पर
अथवा निम्न लोकों के कहीं भी हो, हम उन्हें खोज निकालेंगे".
" हे राम ! मैंने शक्तिशाली रावण को आकाश मार्ग से सीताजी को पुष्पक विमान से अपहृत करके ले
जाते हुए देखा है. वे "हे राम" "हे राम" ऐसा कहते हुए विलाप करती जा रही थीं. उन्होंने
मुझे और मेरे अनुचरों को पर्वत शिखर पर बैठा हुआ देखकर अपनी चादर में कुछ आभूषण
लपेट कर नीचे फ़ेंक दिए, जिसे हमने उठा लिया".
सुग्रीव की बात सुनकर रामजी उस पोटली को देखने के लिए
उत्सुक हो उठे,. उन्होंने सुग्रीव से उन सभी वस्तुओं को लाने के लिए कहा. तब सुग्रीव
ने गुफ़ा में सम्हाल कर रखी पोटली को उठाकर रामजी के समक्ष रख दिया, वस्त्रों और
आभूषणॊं को देखते ही श्रीरामजी ने पहचान लिया और शोक से कहने लगे-" हे
प्रिये ! मेरी प्रिये ! "कहते
हुए उनका कंठ अवरुद्ध होने लगा था. वाणी थरथराने लगी थीं और आँखों से अश्रुधारा बह निकली और अब वे विलाप करने लगे थे. विलाप करते-करते अचेत
हो गए.
नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले : नूपुरे
त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात.
जब उन्हें चेत आया, तब उन्होंने लक्ष्मण से कहा-"लक्ष्मण ! देखो, राक्षस के
द्वारा हरी जाती हुई सीता के द्वारा त्यागे गये ये आभूषण सीता ने
चादर और ये गहने अपने शरीर से उतार कर पृथ्वी पर डाल दिये थे. ये आभूषण निश्चय
ही घास वाली भूमि पर गिरे होंगे, क्योंकि इनका स्वरूप ज्यों-का-त्यों दिखाई देता है. ये टूटॆ-फ़ूटे भी नहीं है. क्या तुम इन्हें पहिचानते हो".
तब लक्ष्मण जी ने कहा-" भैया ! मैं न तो इन बाजूबंदों को और न ही कुण्डलों को
पहचान पाता हूँ, परन्तु प्रतिदिन भाभी के चरणॊं में प्रणाम करने के कारण मैं इन नूपुरों को अवश्य
पहचानता हूँ". लक्ष्मण ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए रामजी से कहा.
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( लक्ष्मण के वचनों
को सुनकर आश्चर्य होना स्वभाविक है कि उन्होंने सीताजी को जनकवाटिका में देखा,
रामजी को वरमाला पहनाते हुए देखा, अयोध्या में देखा और वर्षों से वन में रहते हुए
भी देखा. उन्होंने हर स्थान पर सीताजी को देखा. फ़िर यहाँ यह कहते हुए कि मैं तो
केवल नूपुरों को ही पहचानता हूँ. दरअसल वे उच्च कोटि की मर्यादा को यहाँ प्रस्तुत
कर रहे हैं. ऐसी ही मर्यादा और संस्कारों
का बीजारोपण करना रामजी और लक्ष्मण का उद्देश्य रहा है.)
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लक्ष्मण की बातों को सुनकर रामजी ने सुग्रीव से कहा-" मित्र ! तुमने तो
देखा है, वह भयंकर
राक्षस मेरी प्राणप्रिया सीता को किस दिशा की ओर ले गया है, और कहाँ
रहता है यह बताओ. मैं उसके इस अपराध के कारण समस्त राक्षसों का
विनाश कर डालूँगा. निश्चय ही उसने अपने लिए मौत का दरवाजा खोल
दिया है. उस निशाचर
ने मुझे धोखे में डालकर मेरी प्रियतमा का अपहरण किया है. वह मेरा घोर
शत्रु है. तुम उसका
पता बताओ.मैं अभी उसे
यमराज के पास पहुँचाता हूँ". श्रीराम ने शोक में पीढ़ित होते हुए ऐसी बातें
कहीं, उसे सुनकर
सुग्रीव की आँखों में आँसू भर आये.
अवरुद्ध कंठ से उसने रामजी से कहा-" दुर्भाग्य
से मुझे रावण के विषय में अधिक जानकारी नहीं है. किन्तु, आप धैर्य
धारण करें, इसका पता लगाने में मैं आपकी सहायता करूँगा. हे राम ! आपको इस तरह
विलाप नहीं करना चाहिए. शोक करते रहने से व्यक्ति की शक्ति क्षीण हो
जाती है और जीवन संकट में पड़ जाता है. मेरी दशा भी आप ही जैसी है, किन्तु मैं
आप जितना शोक नहीं करता".
सुग्रीव की वचनों को सुनकर उन्हें कुछ राहत मिली. शांत होते हुए उन्होंने सुग्रीव से जानना चाहा
कि तुम दोनों भाइयों के मध्य शत्रुता कैसे उत्पन्न हुई.
सुग्रीव ने कहा-" पिता के निधन के पश्चात बाली किष्किन्धा का
राजा बना और मैं उसकी सेवा में लग गया. इसके पूर्व, माया दानव के पुत्र मायावी ने एक स्त्री के
कारण वालि से शत्रुता मोल ले ली. एक रात जब सभी गहरी निद्रा में सो रहे थे, वह मायावी
राक्षस किष्किन्धा में आया और बालि को युद्ध के
लिए ललकारने लगा. बालि उसकी ललकार को सहन नहीं कर सका और वह अपने
प्रतियोगी से संघर्ष करने के लिए महल से बाहर निकलने लगा. हम सभी ने
उसे रोकने का प्रयास किया, लेकिन वह नहीं रुका. मैं भी अपने
भाई के पीछे-पीछे गया. हमें आता देख वह मायावी पलायन कर गया और एक अंधेरी गुफ़ा में
घुस गया".
" बालि ने मुझे गुफ़ा के प्रवेशद्वार पर पहरा देने
की आज्ञा दी और उस दुष्ट से युद्ध करने के लिए गुफ़ा के अन्दर चला
गया. इस प्रकार
एक वर्ष बीत गया, मैं उस प्रवेश द्वार पर पहरा देता रहा, किन्तु अपने
भाई का कोई संकेत मुझे नहीं मिला. अकस्मात, मैंने गुफ़ा से रक्तस्राव होते देखा एवं दैत्य
के स्वर भी सुने, किन्तु अपने भाई की आवाज नहीं सुनी. अतः मैंने
यह निष्कर्ष
निकाला कि मेरे भाई की हत्या कर दी गई है. मैंने प्रवेश द्वार पर एक विशाल शिला रखकर उसे
बंद कर दिया और लौट कर उसकी आत्मा की शांति के लिए जलार्पण किया और लौट आया".
"बालि मारा गया है, इसका समाचार
पूरी किष्किन्धा
में फ़ैल चुका था. मंत्रियों ने आपस में परामर्श किया और मेरा
राज्याभिषेक कर दिया. इस तरह मैं
न्यायपूर्वक राज्य करने लगा. कुछ समय पाश्चात बालि उस दुष्ट की
हत्या करके वापस लौट आया, जिसे देखकर सभी को आश्चर्य हुआ. मुझे
सिंहासन पर बैठा देख वह क्रोधित हो उठा और तुरन्त ही मेरे मंत्रियों सहित सभी को
बंदी बना लिया. मैंने अपना राजमुकुट उसके चरणों में रखते हुए क्रोधी बालि
को वस्तुस्थिति से अवगत कराना चाहा, किन्तु बालि का क्रोध कम नहीं हुआ. तत्पश्चात
उसने मुझे किष्किन्धा से निष्कासित कर दिया. तब से मैं अपने कुछ निकटस्थ मित्रों के साथ
यहीं निवास कर रहा हूँ".
सुग्रीव की बातों को सुनकर रामजी ने कहा-" मित्र
सुग्रीव ! मुझ पर
भरोसा रखो. मैं वालि का वध करुँगा ताकि तुम्हें अपनी पत्नी और राज्य
पुनः प्राप्त हो सके".
.( इहाँ साप बस आवत
नाहीं.)
रामजी के सान्तवना दिए जाने के बाद भी सुग्रीव के मन में
संदेह था कि रामजी बालि का वध कर पाने में सक्षम भी हैं अथवा नहीं. उसने अपने
ज्येष्ठ भ्राता
बालि के पराक्रम की व्याख्या करते हुए कहा-"मय दानव के दो
पुत्र थे, जिनका नाम मायावी और दुंदुभि था. एक बार दुंदुभि ने समुद्र से युद्ध
किया और उसे पराजित कर दिया. इस पर समुद्र ने उससे हिमालय से युद्ध करने को कहा.
कि यदि तुम अपने को शक्तिशाली समझते हो तो हिमालय से लड़ो. इस पर दुंदुभि हिमालय से भी लड़ा और उसे परास्त कर
दिया. हारने के बाद हिमालय ने भी उससे कहा कि यदि तुम अपने को बहुत अधिक शक्तिशाली
समझते हो, तो जाकर बालि से युद्ध करो, और उसे जीतो. दुंधुभि बालि ने भिड़ने के लिए
किष्किन्धा आया. चार प्रहर तक युद्ध हुआ. अंत में बालि ने एक ऐसा घूँसा मारा कि
दुंदुभि गिर पड़ा. फ़िर बालि ने क्रोधवश दुंदुभि के पैरों को चीर डाला. तथा उसकी
दोनों टाँगों को क्रमशः उत्तर और दक्षिण दिशाओं में फ़ेंक दिया. जिस स्थान पर बालि
ने उसकी दोनों टाँगों को चीरा था, वह रुधिर से रक्त वर्ण (लाल) हो गया. दक्षिण को
फ़ेंकी गई टाँग मतंग ऋषि के आश्रम में गिरी.
यह कार्य बालि का किया हुआ है, यह बात एक
यक्ष के माध्यम से जब मतंग ऋषि को पता चली तो उन्होंने बालि को शाप दिया कि यदि
बालि इस पर्वत पर आएगा तो, उसकी खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे ( सिर फ़ट जाएगा.)
और वह मर जाएगा.
एषोSस्थिनिचयस्तस्य
दुन्दुभेः सम्प्रकाशते ( 66)
बालि ने ऋषि को शांत करने का प्रयास
किया, किन्तु वह असफ़ल रहा और तब से वह इस क्षेत्र में आने से भयभीत है. वहाँ पर उस
विशाल दैत्य की अस्थियाँ देख सकते हैं. आप कल्पना कर सकते हैं कि वह कितना शक्तिशाली
रहा होगा. तब आप बालि को परास्त कैसे कर सकते हैं?
सुग्रीव की बातों को सुनकर लक्ष्मणजी
अपनी हँसी नहीं रोक पाए. उन्होंने
सुग्रीव से कहा-" अच्छा, तो तुम्हें
संदेह है कि भैया बालि को मार नहीं पाएँगे? अब तुम्हीं बताओं कि किस साहसिक कार्य को करने से तुम्हें
उनके पराक्रम पर विश्वास होगा?".
इमे च विपुलाः सालाः सप्त
शाखावलम्बिनः(67)
सुग्रीव ने बताया- "एक बार, इस
स्थान पर बालि ने सात विशाल वृक्षों को सात बाणॊं से बेध दिया. यदि राम एक बाण से
इनमे से एक वृक्ष को चीर दें तथा दुंदुभि के अवशेष को लात मारकर 200 धनुष की लम्बाई की दूरी पर फ़ेंक दें, तब मैं उन्हें बालि के समकक्ष मान
लूँगा".
यह सुनकर रामजी ने
सहजतापूर्वक दुंधुभि के अस्थिपिंजर को पैर के एक अगूँठे से अस्सी मील दूर उछाल
दिया. इतने पर भी सुग्रीव को विश्वास नहीं हो रहा था. उसने रामजी से कहा-" जब
बालि ने दुंदुभि का शरीर फ़ेंका था तब वह मांस एवं रक्त से परिपूर्ण होने के कारण
भारी था. चूंकि अब शव का भार अति क्षीण हो गया है, अतः आप और बालि में कौन अधिक
शक्तिशाली है, यह तय करना असम्भव है".
तब रामजी ने धनुष उठाया और
उससे एक ऐसा शक्तिशाली बाण छोड़ा कि वह सात वृक्षों को बेध कर पृथ्वी के अंदर प्रविष्ट
होकर ब्रह्माण्ड के तल में पहुँचा गया और एक घंटे के पश्चात पुनः लौटकर तरकस में आ
गया.
सुग्रीव के आश्चर्य की सीमा न रही. अब उसने आदरपूर्वक रामजी के चरणॊं की वन्दना
की. तब रामजी ने सुग्रीव का आलिंगन करके कहा-" अब हमें किष्किन्धा चलना
चाहिए. तुम
पहले जाकर बालि को युद्ध के लिए ललकारो, मैं और लक्ष्मण नगर-द्वार
के ठीक बाहर वृक्ष के पीछे से छुपकर देखेंगे".
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सात ताड़ के पेड़-
ऐसी
कथा प्राप्त होती है कि एक बार बालि ने एक फ़लों से लदा वृक्ष देखा. बालि ने उसके
सात फ़ल तोड़े. बालि फ़लों को एक सरोवर के
किनारे रखकर स्वयं स्नान करने के लिए चला गया. तब एक सांप आकर उन फ़लों पर बैठ गया.
जब लौटकर बालि ने सांप को फ़लों पर बैठा देखा तो बालि ने क्रोध से सांप को शाप दे
दिया कि तेरे शरीर के सात ताड़ के वृक्ष निकलें. यह बात जब सपों के सम्राट तक्षक को
पता चली तो उसने उस सांप को बालि द्वारा दिए गए शाप के बदले प्रतिशाप बालि को दे
दिया कि जो व्यक्ति इन सात ताड़ के वृक्षों को एक बाण से छेद देगा वही तेरा मारने
वाला होगा. भगवान रामजी ने इन्हीं सात पेड़ों को एक बाण से छेद डाला था.( यह
व्याख्या पुराणॊं में प्राप्त होती हैं.)
२.
हनुमन्नाटक के अनुसार - रामजी ने जिन सात पेड़ो का भेदन किया था वे पाताल लोक में
शेषनाग के पीठ में लगे हुए थे. इन्हें यदि कोई एक ही बाण से नष्ट कर सकता था तब तो
ठीक था, अन्यथा इन वृक्षों से बाण मारने वालों का ही नाश हो जाता. इस कथा से
वाल्मीकि रामायण की कथा को मिलाने पर सिद्ध होता है कि कदाचित हनुमन्नाटक के कथन
में बल है, क्योंकि वाल्मीकि एवं अध्यात्म रामायण के अनुसार राम का बाण उन वृक्षों
के छेदन के बाद पाताल तक गया है और शेष जी का निवास पाताल में होना इससे प्रतीत
होता है. इससे कथा को भी बल मिलता है जिसमें बालि का सात फ़लों को रखकर स्नानार्थ
जाने, और फ़लों पर एक सांप को बैठा देखकर
उसके शरीर से सात ताल या ताड़ के वृक्ष निकलने का बालि द्वारा शाप दिया जाना
बतलाया गया है.
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किष्किन्धा पहुँचकर सुग्रीव
ने अपने भाई को ललकारते हुए उच्च स्वर में गर्जना करते हुए कहा-" बालि, कहाँ
छिपकर बैठे हो, यदि
हिम्मत हो तो बाहर निकलो और मुझसे युद्ध करो?. मैं सुग्रीव, आज
तुझे यमलोक की यात्रा करवाने आया है. हे डरपोक बालि ! बाहर
निकल. मैं
तुझे युद्ध करने के लिए आमंत्रित कर रहा हूँ".
बालि की गुफ़ा के सामने
निर्भीक सुग्रीव उसे ललकार रहा था. बार-बार
ललकारने के बाद भी बालि बाहर नहीं निकला, तो उसने अत्यन्त तीव्रता से
उच्च स्वर में ललकारते हुए कहा-" हे दुष्ट पापी बालि. अपनी
पत्नी के पल्लु में छिपकर क्यों बैठे हुए हो?, हिम्मत हो तो बाहर आओ?, सुग्रीव
तुम्हें युद्ध के लिए ललकार रहा है. क्या तुम्हें मेरी आवाज
सुनायी नहीं पड़ रही है?".
बालि इस समय अन्तःपुर में
अपनी पत्नी तारा के साथ आमोद-प्रमोद में तल्लीन था. सुग्रीव
के बार-बार
ललकारने की आवाज सुनकर उसे क्रोध हो आया. उसने अपनी गदा उठाया और
सुग्रीव से युद्ध करने के लिए जाने ही वाला था कि उसकी पत्नी तारा ने उसे समझाते
हुए कहा-" नाथ
! जो
सुग्रीव आपकी आवाज सुनकर, किसी चूहे की भांति डरकर बिल में छिप जाया करता
था, आज
वह आपके द्वार पर आकर युद्ध करने के लिए
चुनौती दे रहा है. निश्चित ही उसे किसी पराक्रमी पुरुष का साथ
मिला होगा. तभी
वह इतनी हिम्मत के साथ आपको ललकार रहा है".
" हे स्वामी ! पहले
इस बात का पता लगवा लीजिए कि उसके इस पराक्रम के पीछे किसका हाथ है, जिसका
साथ पाकर वह आपसे युद्ध करने के लिए आया है?. न जाने क्यों किसी आशंका के
चलते मेरा दिल बैठा जा रहा है".
"वानर सुग्रीव स्वभाव से ही
कार्यकुशल हैं और बुद्धिमान भी. वे किसी ऐसे पुरुष के साथ मैत्री नहीं करेंगे, जिसके
बल और पराक्रम को अच्छी तरह से परख न लिया हो. मैंने पहले ही कुमार अंगद के
मुँह से यह बात सुन ली है. अतः मैं आपके हित की बात बतला रही हूँ".
" अंगद अपने गुप्तचरों के साथ
वन में गए थे. उन्होंने
समाचार सुनाया कि अयोध्या के दो शूरवीर श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ वन में
आये हुए हैं, उनसे
युद्ध में जीतना बहुत कठिन है. इन्हीं महावीरों के साथ सुग्रीव ने मित्रता
स्थापित कर ली है. राम के पराक्रम की तो कल्पना ही नहीं की जा
सकती, उनकी
शक्ति स्वयं भगवान विष्णु के समान है. अतः आपको उनके साथ शत्रुता
करके संकट में नहीं पड़ना चाहिए. सुगीव को अपना उत्तराधिकारी बनाकर इस विवाद को
यहीं समाप्त कर दें और इस प्रकार राम के साथ मित्रता का सम्बन्ध स्थापित कर लें".
" हे शूरवीर ! मैं
आपके गुणॊं में दोष नहीं देखना चाहती. अतः आपके लिए जो हितकर है, वही
मैं आपको बतला रही हूँ कि आप युद्ध करने के अलावा कोई अन्य विकल्प पर भी विचार कर
सकते हैं".
" मेरा आपसे पुनः विनम्र आग्रह
है कि कि आप सुग्रीव शीघ्र ही युवराज पद देकर उसका राज्याभिषेक कर दें. वह
आपका छोटा भाई है, उसके साथ युद्ध मत कीजिए. हे
नाथ ! यदि
आपको मेरा प्रिय करना है और मुझे अपना हितकारिणी समझते हो तो मैं आपसे पुनः याचना
करती हूँ कि आप मेरी नेक सलाह मान लीजिए."
तारा ने अनेक प्रकार से बालि
को समझाने का प्रयास किया, लेकिन गर्वीले बालि पर इसका कोई प्रभाव नहीं
पड़ा. उसने
उसे डांटते हुए कहा-" तारा ! सुग्रीव मेरा शत्रु है और वह
मुझे युद्ध के लिए ललकार रहा है. मैं उसे सहन नहीं कर सकता. मैं
कभी परास्त नहीं हुआ और न ही कभी युद्धभूमि में अपनी पीठ दिखाई है. उन
शूरवीरों के लिए शत्रु की ललकार सह लेना मृत्यु से भी बढ़कर दुःखदायी होता है".
" मैं भी तो जाकर देखूं कि इस
चूहे में इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी है?. तुम्हें तनिक भी भयभीत होने
की आवश्यकता नहीं है. क्या तुम्हें मेरी शक्ति पर भरोसा नहीं है?. मेरा
सामना करने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता फ़िर सुग्रीव जैसा डरपोक, मेरे
सामने क्षण भर भी नहीं टिक सकता. तुम निश्चिंत रहो, मुझे
कुछ नहीं होगा".
ऐसा
कहते हुए बालि अपनी गुफ़ा से बाहर निकला.
दोनों ने एक दूसरे को देखा. दोनों
क्रोध में भर उठे और एक दूसरे पर मुष्टियों से प्रहार करने लगे. दोनों
भाइयों में इतनी समानता थी कि रामजी यह भेद नहीं कर पाए कि उन दोनों में बालि कौन
है. अतः
रामजी ने बाण छॊड़ने का विचार त्याग दिया. रामजी को बाण न चलाता देख, सुग्रीव
सोचने लगा कि संभवतः राम उसकी सहायता प्रदान करने के लिए अनिच्छुक हैं. वस्तुतः
युद्ध में सुग्रीव की दशा अत्यन्त ही दयनीय थी और अन्ततः अपने ही रक्त से सना हुआ, अत्यन्त
ही कठिनाई से प्राणॊं की रक्षा करते हुए भाग आया. बालि ने उसका पीछा करते हुए
व्यंग्य किया-"
कायर
! जा
भाग जा...भाग
इसी में तेरी भलाई है. जा.....अपनी
जान बचाकर भाग....इस
बार तुझे मैं क्षमा करता हूँ".
बालि से बुरी तरह हार का
सामना करता हुआ सुग्रीव मतंग ऋषि के आश्रम में लौट आया. उसके
पश्चात राम, लक्ष्मण
और हनुमान वहाँ आए. सुग्रीव ने रामजी को कटु वचन बोलते हुए कहा-" हे
राम ! यदि
आप बालि का वध नहीं करना चाहते थे, तब आपने मुझे उसे ललकारने के
लिए क्यों प्रोत्साहित किया? अच्छा होता कि आप यह कह देते कि बालि को मारने
की मेरी इच्छा नहीं है".
सुग्रीव की बातों को सुनकर
रामजी ने कहा-"
हे
सखा ! तुम
दोनों भाइयों में इतनी समानता है कि दोनों के बीच भेद कर पाना कठिन था. कहीं
धोखे से मेरा बाण तुम्हारे प्राण ले लेता, तो मैं अपने एक मित्र को
यूँहि खो बैठता. अपने
मित्र के भलाई के लिए मैंने बाण नहीं चलाया." फ़िर बात को आगे बढ़ाते हुए
रामजी ने कहा-"
तुम
अपने शरीर पर कोई ऐसा चिन्ह अंकित कर लो, जिससे तुम अपने भाई से भिन्न
दिखाई दो और मैं तुम्हें आसानी से पहचान सकूँ". ऐसा कहते हुए श्रीराम जी
ने सुग्रीव के गले में सुवर्णमाला पहना दी.
सुग्रीव किष्किन्न्धा की ओर चला, तब
उसके साथ राम, लक्ष्मण
और हनुमान भी साथ थे. नगर के बाहर पहुँचने के बाद सुग्रीव ने बालि को
ललकारते हुए गुफ़ा छोड़कर बाहर आने को ललकारा. सभी वृक्षों एवं झाड़ियों के
पीछे छिपकर बालि के बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगे.
जिस समय बालि ने सुग्रीव की
ललकार सुनी, वह
उस समय स्त्रियों के कक्ष में था. ललकार सुनकर क्रोध में भरते हुए वह बाहर निकलने
को हुआ, तभी
व्याकुल होते हुए बालि की पत्नी तारा ने अपने पति से याचना करते हुए कहा-" हे
स्वामी ! आप
क्रोध त्याग दीजिए. आपने पहले ही सुग्रीव को परास्त कर दिया है
तथापि उसका अतिशीघ्र लौटकर विश्वासपूर्वक गरजना संदेहास्पद है".
बालि के प्रारब्ध में मृत्यु
निश्चित थी. अतः
उसने उचित परामर्श को अस्वीकार कर दिया. वह किसी भी कीमत पर अपने भाई
के अभिमान को सहन नहीं कर सकता था. उसे विश्वास था कि राम के
साथ मेरा कोई विरोध नहीं हैं. वे गौरवशाली क्षत्रिय हैं और मुझे इसका भय भी
नहीं है कि वे किसी ऐसे व्यक्ति को कष्ट देंगे, जो उनका शत्रु नहीं है.
ऐसा कहकर बालि क्रोध से
फ़ुफ़कारते हुए नगर के बाहर आया. उसने सुग्रीव का सामना किया. दोनों
के बीच भयंकर युद्ध हुआ. पहले की भांति बालि की विजय निश्चित थी. तब
सुग्रीव ने राम की ओर संकेट किया कि उसकी शक्ति क्षीण हो रही है.
सुग्रीव को पराजित होता देख
रामजी ने अपने धनुष पर एक शक्तिशाली बाण चढ़ाया और लक्ष्य लेकर छोड़ दिया. उस
बाण ने शक्तिशाली बालि की छाती को गम्भीर रूप से बेध दिया. बाली
के शरीर से पानी के समान रक्त की धारा फ़ूटकर बहने लगी. रक्तरंजित
होते हुए वह भूमि पर गिर पड़ा. शक्तिशाली बाण के लगने के बाद भी उसने प्राण
नहीं त्यागे थे, क्योंकि
वह अपने पिता राजा इन्द्र द्वारा दिए गए
स्वर्ण हार को धारण किये हुए था.
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सुग्रीव
के समान ही बालि भी अभिमान का मरीज था. उसमें अभिमान कूट-कूट कर भरा था. रामजी के
पास भी अद्भुत-अद्भुत प्रकार के बाण थे- जैसे-अभिमानी, महाअभिमानी, अधम अभिमानी, अग्नि वर्षक, जलवर्षक, जलावशोषक,
पवनास्त्र, ब्रह्मास्त्र आदि आदि. अभिमान के नाश के लिए उनके तरकश में
"अभिमान" नामक बाण था, जिसे चलाकर बालि का अभिमान मिटाया जा सके. रामजी
ने इसी बाण का प्रयोग करते हुए बालि को मारा था.
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त्वं नराधिपतेः पुत्रः
प्रथितः प्रियदर्शनः
गुप्त स्थान से निक्लकर राम, लक्ष्मण, भूमि
पर रक्तरंजित पड़े बालि के निकट आए. उन्हें देखते ही बालि ने कटु
वचन बोलते हुए रामजी से कहा-" हे रघुनन्दन ! आप राजा दशरथ के सुविख्यात
पुत्र हैं. आपका दर्शन सबको प्रिय है. मैं
आपसे युद्ध करने नहीं आया था. मैं तो सुग्रीव के साथ युद्ध में उलझा हुआ था, ऐसी
अवस्था में आपने मुझे छिपकर मारकर कौन-सा पराक्रम किया है?...किस
महान यश का उपार्जन किया है? मैं तो युद्ध में दूसरे पर अपना रोष प्रकट कर
रहा था, किंतु
आपने मुझे किस कारण मृत्यु के द्वार पर पहुँचा दिया? क्या ऐसा किया जाना आप जैसे
महात्मा को उचित प्रतीत होता है?".
" तारा ने मुझे आपके बारे में
विस्तार से बतलाया भी था. मैंने आपके सभी सदगुणॊं पर विश्वास किया तब तक
मैंने आपको देखा तक नहीं था, तब तक मेरे मन में यही विचार उठता था कि दूसरे
के साथ रोषपूर्वक जुझते हुए आप मुझको
असावधान अवस्था में पाकर, अपने बाणॊं से बेधना उचित नहीं समझेंगे".
"लेकिन मुझे आज आपकी
वास्तविकता मालुम हो गई है कि आप केवल और केवल धर्मध्वजी का दिखावा करने के लिए, धर्म
का चोला पहिने हुए हैं. निश्चित ही आपका इस तरह का आचार-व्यवहार
पापपूर्ण है. आपने
जो साधु पुरुषों-सा वेश धारण कर रखा है, वह
भ्रम में डालने वाला है. लोगों को छलने के लिए आपने धर्म की आड़ ली है".
"न तो मैं कभी आपके राज्य में
आया था और न ही वहाँ कोई उपद्रव ही किया था और न ही आपका तिरस्कार किया था, फ़िर
आपने मुझे निरपराध को क्यों मारा?. मैं तो वन में विचरने वाला, फ़ल-फ़ूल-मूल
का भोजन करने वाला वानर हूँ. मैं आपसे यहाँ युद्ध करने नहीं आया था, मेरी
लड़ाई तो दूसरे के साथ हो रही थी, फ़िर भी आपने मुझे बिना मेरे किसी अपराध के क्यो मारा?".
" हे राम ! आप
एक सम्मानीय नरेश के पुत्र हैं. विश्वास करने योग्य हैं और देखने में भी प्रिय
हैं. क्षत्रिय
कुल में उत्पन्न शास्त्र के ज्ञाता भी हैं. धार्मिक वेश-भूषा
से आच्छन्न होकर भी आपने एक साधारण मनुष्य जैसी क्रूरतापूर्ण कर्म कैसे कर डाला?".
" मुझे ज्ञात है कि साम, दाम,क्षमा, धर्म, सत्य, श्रुति, पराक्रम
और अपराधियों को दण्ड देना राजा के गुण हैं. हम तो इस वनांचल में रहने
वाले शाखा-मृग
हैं, यही
हमारी प्रकृति भी है. मैंने आप पर कोई आक्रमण भी नही किया क्योंकि
आपसे मेरा कोई बैर भी नहीं था, फ़िर भी आपने मुझे इस प्रकार का दण्ड दिया, उसे
सर्वथा उचित नहीं कहा जा सकता?".
" अपने इस कृत्य को धर्मपरायण
व्यक्तियों के समक्ष आप कैसे न्यायोचित सिद्ध करेंगे? यदि
आपने नीति के अनुसार युद्ध किया होता तब यहाँ मेरे स्थान पर आप होते. आपने
मुझे पीछे से मारा, मैं आपसे इस लज्जाजनक कृत्य का उचित कारण जानना
चाहता हूँ?".
रामजी के घातक बाण से
मरनासन्न स्थिति में पहुँच चुका वानरराज बालि
रामजी पर तरह-तरह के आरोप मढ़ रहा था. रामजी
उसके आरोपों को ध्यान से सुन रहे थे. तरह-तरह
के आरोपों को प्रत्यारोपित करते हुए बाली बेदम होकर एक ओर लुढ़क गया.
तब रामजी ने उससे कहा-" सुग्रीव
! तुम्हारे
दोषारोपण को सुनते हुए ऐसा लगता है कि तुम वास्तव में प्रामाणिक नीति विद्या से
अनभिज्ञ हो. वानर
की जाति प्रकृति से अपने अनियंत्रित मन के कारण चंचल होती है. चूंकि
तुम स्वयं एक वानर हो तथा तुम्हारे परामर्शदाता भी वानर हैं, अतः
तुम धर्म को समझ नहीं सकते".
"यह संपूर्ण पृथ्वी अपने पर्वतों, नदियों तथा
वनों के सहित इक्ष्वाकु वंश के अधीन है. सभी व्यक्तियों एवं प्राणियों पर इसी वंश
के राजा का अधिकार है. वे अपनी इच्छा से किसी को भी दण्ड दे सकते हैं अथवा प्रसन्न
होकर पुरस्कृत कर सकते हैं. तुमने ही पाप और लोभ के वशीभूत होकर घृणित कार्य किया
है. तुमने अपने अनुज की पत्नी रुमा को लेकर अपनी पत्नी के समान उसका उपभोग किया
है. पुत्री, पुत्रवधु, बहन, या अनुज की पत्नी के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करने
वाले को दण्डित किया जाना उचित है. यदि एक राजा पापी को दण्ड नहीं देता है, तब वह
स्वयं पापी बन जाता है. इसी कारण मैंने तुम्हें मारा".
" मैंने तुम्हें मारने की प्रतिज्ञा की ताकि सुग्रीव को उसकी
पत्नी और उसका राज्य उसे पुनः प्राप्त हो सके.
प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण मैंने तूझे मारा. इसके अतिरिक्त, ऐसा भी है कि
शिकार करते समय क्षत्रिय गुप्त स्थान से असावधान प्राणियों पर अपना बाण चलाते
हैं,चूंकि तुम एक वानर हो, अतः ऐसा करने में तनिक भी दोष नहीं है".
रामजी उसे समझाते हुए कहा.
"हे राम ! कायर सुग्रीव ने आपसे मित्रता इसलिए स्थापित की कि वह
अपनी पत्नी और राज्य पा सके. उसके इस क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के लिए आपने मुझे
मारा. कृपया बताएँ कि आखिर आपने उससे मित्रता किस आधार पर स्थापित की है.? निश्चित
ही इसमें आपका भी अपना कोई स्वार्थ रहा
होगा?".
" हे वानरराज ! तुमने सही सोचा. दण्डकारण्य़ में
हम सुखपूर्वक निवास कर रहे थे. रावण नाम के एक दुष्ट राक्षस ने धोके से मेरी पत्नी
सीता का हरण कर लिया. उसकी खोज में हम वन-वन भटकते रहे थे. इसी बीच हमारी भेंट
हनुमान से हुई. उसने बताया कि तुमने बलपूर्वक सुग्रीव का राज्य और उसकी पत्नी पर
अपना अधिकार स्थापित कर लिया है. सुग्रीव उसका राज्य और पत्नी पुनः प्राप्त करना
चाहता था और मुझे एक ऐसे मित्र की तलाश थी, जो मेरी पत्नी की खोज करने में मेरा
सहायक हो सके. इसी समानता के आधार पर हमारी मित्रता स्थापित हुई है".
"
हे राम ! बस इतनी सी बात के लिए आपने मेरा वध करना स्वीकार कर लिया? यदि उस कायर
से मित्रता न कर, आप मुझसे मित्रता का हाथ बढ़ाते तो, मैं बिना विलम्ब किए सीताजी
को खोज कर वापिस ले आता और आपको वन-वन नहीं भटकना पड़ता. आप मुझसे उसकी पत्नी और
राज्य वापिस करने को कहते, तो मैं बिना देर किए उसे उसकी पत्नी और राज्य दे
देता". बालि ने कहा.
"
वानरराज बालि ! तुम्हारे और मेरे बीच
मित्रता कभी भी स्थापित नहीं हो सकती. एक अहंकारी और दुराचारी से राम कभी मैत्री
स्थापित नहीं करता. मैं तो वन में विचरते हुए उन सभी अहंकारियों , दुराचारिओं को
खोज कर उनका वध करता हूँ. शोषित-पीड़ित, वंचितजनों की रक्षार्थ ही तो राम वन आया
है. रही बात सीता की खोज की तो ( हँसते हुए.) शायद तुम इस बात को नहीं समझ सकते,
क्योंकि तुम अब भी अहंकार में डूबे हुए हो. सीता मात्र एक सामान्य स्त्री नहीं है,
वह स्त्री के रूप में भक्ति है, भक्ति केवल और केवल उसे ही प्राप्त होती है, जो
तुझ जैसा अहंकारी नहीं हो, जो धर्म के साथ संलग्न हो, जो विनम्र हो, सदाचारी हो,
वही भक्ति पाने का अधिकारी हो सकता है. तुम्हे तो
ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त है. वरदान प्राप्त कर तुम विनम्र होने के स्थान
पर अहंकारी हो गए. उस वरदान से तुम पुण्य़ के काम भी कर सकते थे, लेकिन तुमने उसका
दुरुपयोग करते हुए अन्यान करना शुरु कर दिया. अतः अहंकारी को मारना मेरा दायित्व
बनता है. इसलिए मैंने तुम्हें मारा?".
"
तुम्हारे ही समान राक्षसराज रावण भी है. उसे भी शिवजी से वरदान प्राप्त हुआ है.
वरदान पाकर वह भी अहंकारी हो गया है. वह भी वही सब कुछ कर रहा है, जैसा के तुम अब
तक करते आए हो. उसने भी वही अक्षम्य अपराध किया है, जो तुम कर चुके हो. देर-सबेर
ही सही, उसे (रावण) भी मैं मार गिराऊँगा".
रामजी ने बालि को उत्तर देते हुए कहा.
" प्रभु ! मैं तो वानर हूँ और वानरों की गणना पशुओं में होती
है, तथा पशुओं का इसका ज्ञान नहीं होता कि
किससे मेरा क्या संबंध है. पशु तो अपनी पत्नी क्या अपनी माता और बहन तथा इतर
सम्बन्धियों तक से सन्तानोत्पत्ति करते हैं. यह केवल इसलिए कि उन्हें इसका ज्ञान
नहीं होता. फ़िर आपने मुझे ही क्यों मारा?".
"
हे वानर राज ! सन्तान उत्पत्ति के लिए केवल एक पत्नी की अवश्यकता होती है. लेकिन
यदि तुम अपनी माता, बहन अथवा किसी अन्य सम्बन्धियों को संतानोत्पत्ति के लिए भोग
करो, इसे कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता. तुम्हारा यह आचरण धर्म के विरुद्ध था.
राम इसलिए वन नहीं आया कि वह चौदह वर्ष वन में रहकर वापिस अयोध्या लौट जाए. मेरे
आने का मुख्य उद्देश्य भी यही है कि मैं तुम जैसे लोगों को, जो धर्म के प्रतिकूल
व्यवहार कर रहे हैं, उन्हें उचित दंड दूँ.
. समाज मे किस व्यक्ति का क्या स्थान होना चाहिए, यही समझाने के लिए तो मैं यहाँ आया हूँ".
बालि ने अपने बचाव में एक नहीं कई
तर्क रामजी के समक्ष रखे. लेकिन उन्होंने इसका उत्तर देना उचित नहीं समझा
और कहा-" मैंने तुम्हें इसलिए भी मारा कि तुमने अपनी पत्नी का कहना नहीं
माना. तूझे इतना अभिमान था कि पत्नी के समझाने के बाद भी युद्ध करने के लिए चले
आए".
बाली भी
कम तार्किक नहीं था. उसने कहा-"" प्रभु ! हर जगह, हर समय स्त्री का कहना
नहीं मानना चाहिए. आप स्वयं ही देखें. अयोध्या के चक्रवर्ती महाराज दसरथ ने अपनी
पत्नी कैकेई का कहना माना. फ़लस्वरूप आप वन-वन भटक रहे हैं. पत्नी का कहना मानकर
महाराज दशरथ स्वर्गलोकवासी हो गए. स्वयं आपने भी अपनी पत्नी सीता का कहा माना और
उन्हें वन में ले आए. जिसका परिणाम यह हुआ कि उनका हरण हो गया, क्योंकि उन्हीं के
कहने से आप मायावी मृग का वध करने के लिए मृग के पीछे दौड़े. अस्तु ! हर जगह पर, हर
समय स्त्री का कहना मानना भी ठीक नहीं होता. यदि आपके पिता और स्वयं आपने पत्नी का
कहना न माना होता तो शायद इतना बड़ा अनर्थ न होता. न तो दशरथ जी की मृत्यु होती, और
न ही सीता का हरण होता और फ़िर न ही आप जंगलों में भटकते. इसलिए यदि मैंने अपनी पत्नी का कहना नहीं माना तो ठीक ही
किया है, इसमें गलत क्या हुआ?". बालि
ने रामजी पर व्यंग्य बाण छोड़ते हुए कहा.
रामजी ने उसके इस प्रश्न पर उत्तर देना उचित नहीं समझा.
अपराधी
कभी भी अपने अपराध आसानी से स्वीकर नहीं करता. यदि वह अपराध स्वीकार कर भी ले, तो
बचने के अनेक रास्ते निकालने का प्रयत्न करने लगता है. चूंकि बालि भी अनेक तर्क
प्रस्तुत करते हुए अपने को बचाने का असफ़ल प्रयास करता रहा था. परन्तु भगवान रामजी
से बालि की चातुरी कब तक चलती? उसकी तर्कवाणी सुनकर रामजी ने कहा-" बालि !
मैंने तुम्हें बल दिया था किन्तु तूने उस बल का दुरुपयोग किया और सुग्रीव को मेरे
आश्रय जानकर भी उसे मारना चाहा. इसलिए भी मैंने तूझे मारा".
इस बार
बालि निरुत्तर हो गया, क्योकि उसके पास इसका कोई उत्तर नहीं था. उसने रामजी से
कहा-" हे प्रभु ! आपके हाथों मारे जाने के बाद भी क्या मैं अब भी पापी हूँ?
मुझे आप किस कोटि में रखेंगे? क्या अब आप मुझे पहले जैसा ही समझते
हैं?".
उसने
करबद्ध प्रार्थना करते हुए रामजी से कहा. -" हे प्रभु ! आपने जो कुछ भी कहा
वह निश्चित ही सत्य है. अहंकार एवं अपने पापों के विषय में अनभिज्ञ होने के कारण
मैंने आपको दोष दिया. हे राम ! मैं आपसे
याचना करता हूँ कि कृपया अझानतावश मेरे द्वारा कहे गए कटु वचनों के लिए मुझे क्षमा
कीजिए और तारा के गर्भ से उत्पन्न मेरे एकमात्र पुत्र अंगद को अपनी शरण में लें.
वह मेरी मृत्यु की सूचना पाकर अत्यन्त ही दुःखी हो जाएगा".
बालि की
प्रार्थना को सुनकर रामजी ने बालि को उसी तरह का आदर दिया, जैसा कि उन्होंने
सुग्रीव को दिया था. प्रसन्न होते हुए उन्होंने ने बालि को आश्वासन दिया कि वे
अंगद का विशेष ध्यान रखेंगे.
"
हे किषिकन्धा नरेश ! तुमसे एक बात पूछना तो बाकी रह गया. मुझे यह बतलाओ कि महाराज
दशरथजी से कभी तुम्हारा युद्ध हुआ था. चूंकि तुम्हें ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त
था कि रणक्षेत्र में तुम्हारे सामने जो भी प्रतिद्वंद्वी होगा, उसकी आधी शक्ति
तुम्हें प्राप्त हो जाएगी. इस वरदान के प्रभाव से तुम्हारी विजय हुई और महाराज
दशरथजी की हार हुई. शर्त के अनुसार उन्होंने तुम्हारे पास अपना मुकुट धरोहर के रूप में रख छोड़ा था. मुझे वह मुकुट
वापिस चाहिए. मेरे वन में आने का एक यह भी प्रयोजन था कि मुझे रघुकुल का गौरवशाली
मुकुट तुमसे वापिस लेना है". रामजी ने मुकुट के बारे में मरन्नासन्न बालि से
जानना चाहा.
" हे रघुकुल श्रेष्ठ राम ! जिस मुकुट की आप बात कर रहे हैं, वह
इस समय राक्षसराज रावण की लंका में शोभा बढ़ा रहा है".
" आश्चर्य ! वह मुकुट उस
दुष्ट तक कैसे पहुँचा, मुझे विस्तार से बतलाओ?". रामजी ने जानना चाहा.
"एक अवसर
पर मैंने रावण को बंदी बनाया था. वह किसी तरह भाग निकला और छल से मुकुट लेकर भाग गया. हे प्रभु ! आपका
मुकुट मेरे पास नहीं है, इस वक्त आपके अयोध्या की शान वह मुकुट
लंका में है. हे प्रभु ! आप मेरे पुत्र अंगद को अपनी शरण में ले लें और उसको भी सेवा का अवसर दीजिए. वह अपने प्राणो की बाजी लगाकर भी आपका मुकुट वापिस ले आएगा".
इसी बीच
तारा अपने पुत्र के साथ दौड़ती हुई महल से निकलकर आयीं. उसे बाहर निकलता देख बालि
के डरे हुए मंत्रियों ने तारा से निवेदन करते हुए कहा- हे देवी ! हमारे महाराज
बालि को रामजी ने मार गिराया है. वे बहुत ही क्रोध में भरे हुए हैं, अतः आप बालि
को देखने मत जाओ. अच्छा होगा कि आप अपने इकलौते पुत्र अंगद का राज्याभिषेक करने की
तैयारी करें और महल को सुरक्षा प्रदान करें..
तारा ने विलाप करते हुए उत्तर दिया-"मुझे अब साम्राज्य से कुछ
लेना-देना नहीं है. पति के बिना राज्य और राजोचित वैभव मेर्रे लिए निरर्थक
है".
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हिन्दू महाकाव्य रामायण में तारा वानरराज बालि की पत्नी है. तारा
की बुद्धिमत्ता, प्रत्युत्पन्नमतित्वता, साहस तथा अपने पति के प्रति कर्तव्यनिष्ठा
को सभी पौराणिक्क ग्रन्थों में सराहा गया है. अपने पति बाली की मृत्यु के बाद तारा
ने जीवन ब्रह्मचर्य से बिताया था, ऐसा वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट वर्णन किया गया
है. देव गुरु बृहस्पति की धर्मपत्नी तारा को हिन्दू धर्म ने पंचकन्याओं में से एक
माना है. पौराणिक ग्रन्थों में पंचकन्याओ के विषय में कहा गया है. -"
आहिल्या दौपदी कुन्ती, तारा मन्दोदरी तथा " पंचकन्या स्मरणिंत्यं, महापातक
नाशक"- अर्थात-अहिल्या,द्रौपदी, कुन्ती, तारा तथा मन्दोदरी, इन पाँच कन्याओं
का प्रतिदिन स्मरण करने से सारे पाप धुल जाते है,
हालांकि तारा को मुख्य भूमिका में वाल्मीकि रामायण में केवल तीन
जगह दर्शाया गया है, लेकिन उसके चरित्र ने रामायण कथा को समझने वालों के मन में एक
अमिट छाप छोड़ दी है. जिन तीन जगह तारा का चरित्र मुख्य भूमिका में है, वह इस
प्रकार है (१) सुग्रीव-बालि के द्वितीय द्वंद्व से पहले तारा की बालि को चेतावनी
(२) बालि के वध के पश्चात तारा का विलाप (३) सुग्रीव की राजमाता बनने के पश्चात
क्रोधित लक्ष्मण को शांत करना.
जन्म- कुछ ग्रन्थों के अनुसार वह देवताओं के गुरु बृहस्पति की
पौत्री थी. (२) एक कथा के अनुसार समुद्र मन्थन के दौरान चौदह मणियों में से एक
अप्सराएँ थीं, उन्हीं अप्सराओं में से एक तारा थी.
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रोती छाती पीटते हुए तारा उस ओर गई जहाँ उसका पति बालि भूमि पर लेटे
हुए अपनी अंतिम साँसे गिन रहा था. तारा अपने पति से जा लिपटी. शोक संतप्त बालि की
अन्य पत्नियाँ भी उसे घेर कर खड़ी हो गयीं,. तारा की एकमात्र इच्छा थी वह अपने पति
का अनुगमन करे. तब हनुमानजी से उनके पास जाकार प्रार्थना की-" हे रानी ! शोक
न कीजिए. आपको अपने पति के लिए दाह-संस्कार करना चाहिए और पुत्र अंगद का
राज्याभिषेक करके उसकी सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए".
तब बालि ने कहा-" प्रिय सुग्रीव ! तुम्हारे प्रति मैंने जो
अनुचित कार्य किए हैं, उन सबके लिए मुझे क्षमा करना. अब तुम इस राज्य को स्वीकार
करो और मेरे पुत्र अंगद का ध्यान रखो, वह सदैव तुम्हारा विश्वासपात्र रहेगा."
ऐसा कहते हुए उसने इन्द्र से प्राप्त वह स्वर्ण दिव्य हार अपने पुत्र अंगद को देते
हुए कहा. "पुत्र ! अब मैं जा रहा
हूँ. अतएव तुम सदैव सुग्रीव की आज्ञा का पालन करना. कोई भी कार्य विवेक से करना और
संतुलित चित्त से सुख-दुःख की द्वैत अवस्था को स्वीकार करना. अति राग और द्वेश से
दूर रहना, क्योंकि ये दोनों ही पतन की ओर ले जाते हैं".
" हे पुत्र ! तुम लंका अवश्य जाना और रावण से बलपूर्वक रघुकुल
का गौरव मुकुट वापिस लाकर श्रीराम जी को लाकर देना. इस काम के लिये यदि तुम्हें
अपने प्राणॊं का भी उत्सर्ग करना पड़े, तो भी पीछे मत हटना". ऐसा कहते हुए
बालि ने अपने प्राण त्याग दिए.
बालि के
शव को आलिंगन में लेकर तारा विलाप कर रही थी, तब नील ने आकर बालि की छाती से बाण
निकाला. तारा ने अंगद से अपने पिता के चरणॊं में प्रणाम करने को कहा और रामजी से
विनती करते हुए कहा कि मेरा भी वध कर दीजिए, ताकि मैं उनके पास चली जाऊँ. यह देखकर
सुग्रीव भी उदास हो गए और करूण स्वर में रामजी से कहा-" अपनी इच्छा पूर्ति के
लिए मैंने अपने भ्राता को मरवा दिया. यह मैंने अच्छा नहीं किया. सुखी होने के बदले
अब राज्य और जीवन भी तुच्छ जान पड़ रहा है. मैं भी अपने पाप के प्रायश्चित के लिए
अग्नि में भस्म हो जाऊँगा".
सभी को यथोचित समझाईश देने के बाद रामजी ने लक्ष्मण की सहायता से दाह
संस्कार की व्यवस्था करवायी. दाह संस्कार करने के पश्चात सम्बधीगण तुंगाभद्रा नदी
से जल ले आए और उस वीर वानर राजा की आत्मा
की शांति के लिए उसे जल अर्पण किया.
दाह
संस्कार पूर्ण होने के पश्चात वानर सेना के प्रधान हनुमानजी सहित सभी वानर रामजी
की सेवा में उपस्थित होकर रामजी से प्रार्थना की कि आप सुग्रीव को साथ लेकर किष्किन्धा
की रमणीय पर्वत गुफ़ा में चलें और उनका राज्याभिषेक संपन्न करवाएँ और हमें इस राज्य
का स्वामी बनाकर वानरों का हर्ष बढ़ावें.
किन्तु
रामजी ने मना करते हुए कहा-" हनुमान ! मैं पिताश्री की आज्ञा का पालन कर रहा
हूँ, अतः चौदह वर्षों के पूर्ण होते तक मैं किसी ग्राम या नगर में प्रवेश नहीं
करूँगा"..
नानाधातुसमाकीर्ण
नदीदर्दुरसंयुक्तं (8/कि.712).
मेरी
आज्ञा है कि तुम सुग्रीव के राज्याभिषेक का कार्य भार सम्भाल लो और अंगद को
उत्तरधिकारी के रूप में नियुक्त करो. मेरी दूसरी आज्ञा यह कि वानरों के सभी
यूथपतियों को किष्किन्धा में ही रह कर
प्राथमिकता से उन सभी शोषित, पीढ़ित, वंचित, दलित तथा आदिवासियों को युद्ध कैसे लड़ा
जाता है, इसका प्रशिक्षण देने को कहे. ये बेचारे नहीं जानते कि युद्ध किस तरह से
लड़ा जाता है. ये सभी जनजातियां प्रारंभ से ही शोषण के शिकार रही हैं. गरीबी और
अशिक्षा के अभाव में ये प्रारंभ से ही परतंत्र रहे हैं, दासता के बंधन में जकड़े
रहे हैं. अतः इनके उत्थान के लिए भी भरसक प्रयास इस बीच करते रहना होगा".
हे वीर
! मैं देख रहा हूँ कि यहाँ नाना प्रकार
के धातुओं की खाने हैं और नदी भी पास ही बह रही है. इन खानों से धातुओं का दोहन
करें और उनके अस्त्र -शस्त्र बनाने की प्रक्रिया आरंभ करें और लोगों को अस्त्र और
शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया जाये".
"
हे पवनपुत्र ! रावण ने सीता का अपहरण बलपूर्वक किया है. अतः बल के द्वारा ही उससे
प्रतिशोध लिया जा सकता है. सैन्य बल को किस तरह शस्त्रों से सुसज्जित किया जा सकता
है, इस काम में तुम्हें अतिरिक्त समझाने की आवश्यकता नहीं है. असुरों से किस तरह
युद्ध किया जाता है, वे बेचारे नहीं जानते. अतः यह तुम्हारी जिम्मेदारी बनती है,
कि उन्हें समय से पहले ही इस कौशल में प्रशिक्षित किया जाये".
लक्ष्मण,
हनुमान और उनके बीच चल रही वार्ता को सुनकर लक्ष्मण मन ही मन में विचार कर रहे थे
कि इन वानरों को इकठ्ठा कर वे (रामजी) आखिर करना क्या चाहते हैं?. ये वानर भला एक
बलशाली रावण का सामना कैसे कर पाएंगे?. इससे अच्छा होगा कि अयोध्या से सेना को
बुला लिया जाना चाहिए. ऐसा विचार आते ही उन्होंने अपना मत प्रकट करते हुए रामजी से
कहा-" भैया !..क्यों न हम किसी दूत को अयोध्या भेज कर अपनी सेना को बुला
लें".
"
नहीं लक्ष्मण ! नहीं...हम किसी भी सूरत में अयोध्या से सेना नहीं बुलाएंगे. हमारे
सैनिकों को न तो वन में रहने का अभ्यास है और न ही उन्हें विषम परिस्थितियों में
रहने की आदत. फ़िर हम उनके रहने,खाने आदि का प्रबन्ध नहीं कर सकते, अतः इस विचार को
मन से निकाल दें. इस वन में सदा से ही रहते हुए भालुओं, बन्दरो और वानरों का गहरा
अभ्यास है. वे प्रतिकूल वातावरण में भी सुखपूर्वक रह रहे है".
"
हे वीर ! चूंकि वर्षा ऋतु आने वाली है, अतः सीता की खोज के
लिए यह समय उपयुक्त नहीं है. मैं और तुम पर्वत की गुफ़ा में रहकर अपना समय व्यतीत
करेंगे. शरद ऋतु आते ही हम सब रावण के राज्य का पता लगायेंगे".
सुग्रीव
के किष्किन्धा में प्रवेश करते ही वहाँ के नागरिकों ने उसका स्वागत किया. उसके
राजतिलक का समारोह मैन्दा, द्विविदा व हनुमान जैसे श्रेष्ठ वानरों तथा रीछराज
जाम्बवंत द्वारा सम्पन्न किया गया. सुग्रीव ने अपनी पत्नी को पुनः स्वीकार किया एवं अंगद का राजसिंहासन के उत्तराधिकारी
के रूप में अभिषेक किया गया.
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प्रभु श्रीराम जब सीता माता की खोज करते हुए कर्नाटक के हम्पी जिला
बेल्लारी स्थित ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे तो वहाँ उनकी भेंट हनुमानजी और सुग्रीव से
हुई. उस काल में इस क्षेत्र को किष्किंधा
कहा जाता था. यहीं पर हनुमानजी के गुरू मतंग ऋषि का आश्रम था. श्रीरामजी ने
लंका पर चढ़ाई करने के पहले अपनी सेना का गठन किया था, जिसमें एक वानर सेना भी थी.
वानर सेना का कामकाज सुग्रीव के जिम्मे था.
वानर सेना में सुग्रीव, हनुमान, दधिमुख. (सुग्रीव का मामा) नल, नील, क्राथ, केसरी (हनुमानजी के
पिताश्री) कई महान योद्धा थे, जिसमें मैन्द, द्विविद नामक दो भाई भी यूथपति थे. हर
एक झुंड का एक सेनापति होता था, जिसे यूथपति कहा जाता था.
वानर- इसका शाब्दिक अर्थ होता है - "वन में रहने वाला
नर" यानि जो प्राणी वन में रहते हैं उन्हें वानर कहते हैं.
वर्तमान में कहां हैं--
वानर : दरअसल, आज से 9 लाख वर्ष पूर्व मानवों की एक ऐसी जाति थी, जो मुख और
पूंछ से वानर समान नजर आती थी, लेकिन उस जाति की बुद्धिमत्ता
और शक्ति मानवों से कहीं ज्यादा थी. इस जाति का नाम कपि था. हनुमान का जन्म कपि
नामक वानर जाति में हुआ था.
वर्तमान में कहां हैं वानर जाति : दरअसल, आज से 9 लाख वर्ष पूर्व
मानवों की एक ऐसी जाति थी, जो मुख और पूंछ से वानर समान नजर
आती थी, लेकिन उस जाति की बुद्धिमत्ता और शक्ति मानवों से
कहीं ज्यादा थी. विज्ञान के अनुसार वानर एक प्रजाति है जिसमे बंदर भी शामिल है
जबकि बंदर वानर प्रजाति का एक प्राणी है. हिंदी और संस्कृत साहित्य में ये दोनों
ही पर्यायवाची है.
द्विविद-
हिन्दू
मान्यताओं और पौराणिक महाकाव्य महाभारत के अनुसार एक वानर थे, जो वानरों के राजा सुग्रीव
के मन्त्री थे और मैन्द के भाई थे. द्विविद को भौमासुर का
मित्र भी कहा गया है. ये बहुत ही बलवान और
शक्तिशाली थे,
इनमें
दस हजार हाथियों का बल था. महाभारत सभा पर्व के
अनुसार किष्किन्धा को पर्वत-गुहा कहा गया है और वहाँ वानरराज मैन्द और
द्विविद का निवास स्थान बताया गया है. महाबाहु सहदेव दक्षिणापथ
की ओर गये और लोक विख्यात किष्किन्धा नामक गुफा में जा पहुँचे. वहाँ वानरराज मैन्द और द्विविद के साथ
उन्होंने सात दिनों तक युद्ध किया था.
हनुमान
जी.
केसरी
वानर राज और अंजना (अंजनी) देवी के पुत्र हनुमान थे. अंजना वास्तव में पुन्जिकस्थला नाम की
एक स्वर्ग अप्सरा थी, जो एक शाप के कारण नारी वानर के रूप में धरती पर जन्मी. उस शाप का प्रभाव भगवान शिव के अंश को जन्म देने के बाद ही समाप्त
होने का योग था. अंजना केसरी की पत्नी थीं. केसरी एक शक्तिशाली वानर
थे जिन्होंने एक बार एक भयंकर हाथी को मारा था. उस हाथी ने कई बार असहाय साधु-संतों को
विभिन्न प्रकार से कष्ट पँहुचाया था. तभी से उनका नाम केसरी पड़ गया, "केसरी" का अर्थ होता
है सिंह. केसरी को "कुंजर सुदान"
(हाथी को मारने वाला) के नाम से भी जाना जाता है.
दधिमुख-----हिंदू
मान्यताओं तथा पौराणिक उल्लेखानुसार दधिमुख श्रीराम की सेना का एक वानर था,
जो कि सुग्रीव का मामा था तथा मधुवन की रक्षा
करता था.
नल- नील
पौराणिक मान्याताओं के अनुसार नल और नील भगवान विश्वकर्मा के वानर पुत्र माने
गए हैं . प्रचलित
कथा के मुताबिक इन दोनों को ऋषियों ने श्राप दिया था यही श्राप आगे चलकर इनके लिए
वरदान साबित हुआ .
जामवंत -- जामवंत असल में परम् पिता
ब्रह्मा जी के ही पुत्र है. सप्तऋषि, सनत्कुमार, प्रजापति और नारद भी
ब्रह्मा जी के पुत्र है लेकिन वो सभी उनके मानस
पुत्र है (कल्पना से बनाये गए)
जामवंत के जन्म का स्त्रोत
एक
दिन ध्याम में बैठे बैठे ब्रह्मा जी के आँखों से अश्रुपात
(आंसू गिरने लगे) हो गया, उन्ही आंसुओ से प्रकट हुए थे उनके पुत्र जामवंत. जो की फिर हिमालय पर रहने
लगे. जामवंत ने सागर मंथन में भी वासुकि को
देवताओ की तरफ से खिंचा था और वामन अवतार की परिक्रमा भी की थी.
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पवनपुत्र हनुमानजी को सुग्रीव के राज्याभिषेक का कार्यभार
संभालने और अंगद को उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त कराने की आज्ञा देने के बाद
प्रभु श्रीराम प्रस्त्रवण गिरि पर आए.वहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भुत था.चारों
ओर सघन वन, वन में नाना प्रकार की झाड़ियाँ और लताएँ उस पर्वत को आच्छादित किए हुए
थी. रीछ, वानर, लंगूर आदि जन्तु वहाँ निवास करते थे.वह पर्वत मेघों के समूह-सा जान
पड़ता था.उन्होंने यहाँ एक बहुत बड़ी और विस्तृत गुफ़ा को देखा.
प्राकृतिक गुफ़ा का अवलोकन करते हुए उन्होंने अनुज लक्ष्मण
से कहा- " लक्ष्मण देखो तो सही...यह गुफ़ा कितनी सुन्दर और विशाल है. यहाँ पर
अनेक प्रकार की धातुओं की खान है और पास ही में एक नदी भी बह रही है.पेड़ॊं पर नाना
प्रकार के पक्षी चहक रहे हैं. मालती, शिरीष, कदम्ब, अर्जुन आदि के फ़ूले हुए वृक्ष
इस स्थान की शोभा बढ़ा रहे हैं."
(हाथ का इशारा करते हुए.) देखो तो सही, कुछ ही दूरी पर एक
तालाब दिखाई दे रहा है, जिसमें बहुत सारे कमल-पुष्प खिले हुए हैं. वास्तुशास्त्र
के ज्ञाता होने के कारण उन्होंने लक्ष्मण को परामर्श देते हुए बतलाया कि यह स्थान
ईशान कोण की ओर नीचा है. पश्चिम-दक्षिण कोण की ओर से ऊँचीं यह गुफ़ा हवा और वर्षा
से बचाने के लिये अच्छी होगी. गुफ़ा का द्वार पर समतल शिला है, जो बाहर बैठने के
लिए उपयोगी सिद्ध होगी. क्यों न हम यहीं रहकर वर्षा-काल व्यतीत करें".
" भैया ! आपका सुझाव अति उत्तम है. हम इसी गुफ़ा में
रहकर चार मास व्यतीत करेंगे".
कभी ऊँचाइयों से होकर, तो कभी पर्वत के ढलान से चलते हुए वे
दोनों उस गुफ़ा की ओर प्रस्थित हुए. गुफ़ा दूर से जैसी सुंदर दिखाई देती थी, दरअसल
वह उसस भी बढ़कर थी. रामजी एक शिला पर विराजमान हो गये. लक्ष्मण ने गुफ़ा में प्रवेश
किया. मकड़ियों ने असंख्य जाले बुन डाले थे. लक्ष्मण ने उसकी सफ़ाई आदि की. इतना सब कर लेने के बाद
उन्होंने रामजी को गुफ़ा के अन्दर आने का आग्रह किया. गुफ़ा देखते ही रामजी को
अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव होने लगा था.
बरसात होने लगे, इससे पहले लक्ष्मण ने सूखे हुए पत्तों को
इकठ्ठा किया, ताकि पर्ण-शैया बनाई जा सके. संध्या से पूर्व उन्होंने वन से अनेक
प्रकार के फ़ल-मूल आदि लाकर इकठ्ठा कर लिया था.
माल्यवान पर्वत के पृष्ठभाग में स्थित इस गुफ़ा में विश्राम
करने और सोने के लिए यह उनकी प्रथम रात्रि थी.
प्रातः काल दोनों भाई उठ बैठे. नित्य क्रियाक्रम के बाद
उन्होंने पास के सरोवर में स्नान किया और उदित होते बाल भास्कर को जल अर्पण करते
हुए प्रणाम किया.
रामजी उस विशाल शिला पर विराजमान होकर वन की शोभा देख कर मन
ही मन मुदित हो रहे थे. तभी उन्होंने देखा कि मेघों के झुण्ड आकाश पर छाने लगे
हैं. बादलों को देखकर उन्होंने आकाश की ओर अपनी तर्जनी
से संकेत करते हुए रामजी ने कहा "हे अनुज ! देखो, समूचे आकाशमण्डल में मेघों
ने जगह-जगह अपनी बस्तियाँ बना ली हैं. बादलों की आकृति गजराजों के समान प्रतीत
होते हैं".
अयं स काल सम्प्राप्तः समयोSद्य जलागमः
’: सम्पश्य त्वं नभो मेघेः संवृतं गिरिसंनिभै. (28)
" हे अनुज ! इन श्याम मेघों को देखकर मुझे
सीता की घनी केश-राशि की याद आ रही है. मैं उनके जुड़े में खिले हुए सुगन्धित
पुष्पों की माला बनाकर लगाया करता था. मैं उसे सदैव प्रसन्न रखने का प्रयास करता
रहता था. परन्तु वह आज हमारे साथ नहीं है. पता नहीं किस कठिन परिस्थितियों से होकर
वह गुजर रही होगी?".
घन घमंड नभ गरजत घोरा : प्रिया हीन डरपत मन
मोरा.
"सुमित्रानन्दन ! देखो, मोरगण मेघों को देखकर नृत्य कर रहे हैं..
नृत्य करते मोरगणॊं की प्रसन्नता मेरे शोक को और बढ़ा देते हैं. यदि सीता साथ होती
तो वह भी इनके नृत्य को देखकर कितनी प्रसन्न होती?. गर्व से घोर गर्जना कर करते
मेघों को सुनकर, सीता के बिना मेरा मन डरता है.
मुझे उसकी बहुत याद आ रही है..लो, अब वर्षारानी टप-टप-टिपर-टिपर-टप टप के
स्वर निकालती हुए मधुर गीत गा रही है.. हे अनुज ~ सीता साथ होती तो इन गीतों को
सुनकर उसका आनन्द द्विगुणित हो उठता".
" हे लक्ष्मण ! मैं अपने राज्य से
निष्कासित हो गया हूँ और मेरी पत्नी भी हर
ली गयी है. यही सोचकर मेरा शोक बढ़ गया है. मेरे लिए वर्षा के दिनोंको बिताना
अत्यन्त कठिन हो गया है." सीता जी के वियोगजनित शोक से आँसू बहाते हुए रामजी
अचेत हो गये. जब उन्हें चेत आया तब लक्ष्मण ने अपने भ्राता को निरन्तर शोकमग्न
चिंता करते हुए देखकर विनयपूर्वक कहा-" हे अग्रज ! हे वीर ! इस तरह शोकग्रस्त
होने से कोई लाभ नहीं है. अतः इस शोक को त्याग दीजिए. आप कर्मठ-वीर तथा देवताओं का
समादर करने वाले है. आस्तिक, धर्मात्मा और उद्योगी हैं. यदि आप शोकवश उद्यम छोड़
बैठते हैं तो राक्षसों का वध करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे. अतः आप शोक को जड़ से
उखाड़ फ़ेंकिये और अपने विचारों को सुस्थिर कीजिए. तभी आप राक्षस कुल का विनाश कर
सकते हैं".
" हे भ्राता ! आप तो समुद्र, वन और
पर्वतों के सहित समूची पृथ्वी को भी उलट सकते हैं, फ़िर उस रावण का संहार करना आपके
लिए कौन-सी बड़ी बात है? यह वर्षाकाल आ गया है, अब आप शरद-ऋतु की प्रतीक्षा कीजिये,
फ़िर राज्य और सेना सहित रावण का वध कीजिए".
शरत्प्रतीक्षः क्षमतामिदं भवान : जल प्रपातं
रिपुनिग्रहे धृतः.
" तुम ठीक कहते हो लक्ष्मण. अब मैं मैं
सुग्रीव की प्रसन्नता और नदियों के जल की स्वच्छता चाहता हुआ, शरत्काल की प्रतीक्षा में चुपचाप बैठ कर उस अवसर की प्रतीक्षा
करूँगा". रामजी ने लक्ष्मण से कहा.
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रामजी और लक्ष्मण ने पर्वत की गुफ़ा में व्यतीत
करने लगे. लेकिन सीताजी के वियोग की अनुभूति के कारण वे पर्वतीय क्षेत्र के
प्राकृतिक दृष्यों के सौंदर्य का आनन्द नहीं ले पा रहे थे, जबकि सरोवर में जल में
मछलियाँ सुख से रह रही थीं. उसमें अनेको रंग के कमल खिले हुए थे और भ्रमर मधुर
ध्वनि से गुंजार कर रहे थे. चकवा, चकवी, बगुले आदि पक्षियों के समूह देखते ही बनता
था-उनका वर्णन नहीं किया जा सकता. पक्षियों की वाणी सुहावनी थे,मानो मार्ग के
पथिकों को आंमत्रण दे कर बुला रही हो. सरोवर के तट पर मुनियों ने कुटिया बना ली
थीं, जिसके आसपास चंपा, मौलसिरी, कदम्ब, तमाल, गुलाब, कटहल,ढाक, आम आदि के वृक्ष
फ़ल-फ़ूल रहे थे. अनेक वृक्ष नवीन पत्तों से तथा सुगन्धित फ़ूलों से लद गए थे, जिन पर
भ्रमर-समूह गुंजार रहे थे. स्वभाव से ही शीतल, मन्द, सुगन्धित एवं मनोहर वायु बह
रही थी. इतना मनोहारी दृष्य भी रामजी की व्यथा को कम नहीं कर पा रहे थे. राम दिन
तो दिन रात्रि में भी निरन्तर अश्रुपात करते रहते थे. रात्रि में सुखपूर्वक नहीं
सो पाने के कारण अब वे अनिद्रा का भी
अनुभव करने लगे थे.
लक्ष्मण, राम जी को उत्साहित करने का प्रयास
करते और कहते कि शोकग्रस्त व्यक्ति का ध्येय पूर्ण नहीं होता. किन्तु राम की
लालसा, काले बादल एवं वन को पोषण देने वाली वर्षा को देखकर सीता के लिए और भी
तीव्र हो उठती.
लक्ष्मन जी से यह सब नहीं देखा जा रहा था. वे
कभी उन्हें कभी आखेट के लिए चलने का आग्रह करते. तो कभी भ्रमण करने के लिए
उत्साहित करते. इस तरह दिन तो व्यतीत हो जाता लेकिन रात्रि में फ़िर उन्हें बेचैनी
घेरने लगती थी.लक्ष्मण जी जानते थे कि भैया एक कुशल वक्ता हैं. विषय चाहें जो हों,
उन पर वे अधिकारपूर्वक लंबे समय तक व्याख्यान दे सकते हैं.
कहत अनुज सन कथा अनेका : भगति बिरति नृपनीति
बेबेका.
प्रस्त्रवण गिरि पर बनी प्राकृतिक गुफ़ा किष्किन्धा से बहुत
अधिक दूरी पर नहीं थी और न ही सरोवर के तट पर बनी साधु-संतो और तपस्वियों की
कुटिया. बड़ी संख्या में वे रामजी के पास जा पहुँचते और अनुरोध करते कि वे उन्हें
उत्तम शिक्षा प्रदान करें और कथाएँ सुनायें. अपने भक्तो का अनुरोध रामजी चाहते हुए
भी अस्वीकार नहीं कर पाते और वे वैराग्य, भक्ति,राजनीति और ज्ञान की अनेकों
कथाएँ सुनाते.
इस तरह चार मास किस तरह व्यतीत हो गए, पता ही
नहीं चल पाया और शरद ऋतु आ गयी. ऋतु परिवर्तन हो जाने के बाद आकाश स्वच्छ हो गया
था, लेकिन सुग्रीव रामजी से मिलने तक नहीं आया था. अपना कार्य पूर्ण हो जाने के
पश्चात सुग्रीव निडर होकर युवा स्त्रियों, विशेषकर अपनी पत्नी रूमा और नई संगिनी
तारा के सान्निध्य में आनन्द मना रहा था. वह राज्य के प्रति अपने प्रबन्ध आदि
कर्तव्यों के प्रति भी उदासीन हो गया था.
जब हनुमान जी ने देखा कि सुग्रीव इन्दिय-तृप्ति
के अधीन हो गया है और अपने कर्तव्यों की उपेक्षा कर रहा है, तब उन्होंने अपने राजा
के पास जाकर सुझाव दिया कि उसे अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए रामजी के प्रति
अपने उत्तरदायित्व को पूरा करना चाहिए. हनुमानजी ने यह भी चेताया कि आपके यथोचित
सम्मान नहीं करने के कारण, प्रभु राम इसका
स्मरण करवाने स्वयं यहाँ नहीं आएंगे. किन्तु आपको यह स्मरण रखना चाहिए कि उन्हीं
की कृपा से आपको वैभव प्राप्त हुआ है. अब समय आ गया है कि एक करोड़ से अधिक वानरों को बुलाकर चारों दिशाओं में
माता सीता की खोज शुरू करवायें.
हनुमानजी की बात सुनकर सुग्रीव ने नील को
बुलाकर आज्ञा दी- "मेरी घोषणा का समाचार सभी वानर योद्धाओं को पहुँचा दो.
पन्द्रह दिनों के अंदर सभी यहाँ से प्रस्थान कर दें अन्यथा मृत्यु का सामना करने
के लिए तैयार हो जायें." यह आज्ञा देकर, सुग्रीव पुनः अपने आन्तरिक कक्ष में
चला गया.
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सुग्रीव के मंत्रियों के नाम
मैन्द, गवय,गवाक्ष, गज,
शरभ, विद्धुन्माली, सम्पाति, सूर्याक्ष, हनुमान, वीरबाहू, सुबाहू, कुमुद, सुषेण,
तार जाम्बवान, दधिमुख ,सुपाटल,, सुनेत्र ,नल और नील.( सम्पाति, हनुमान,जाम्बवंत ( ऋक्षपति ) नल और
नील- इनका नाम व काम का उल्लेख ज्यादा हुआ है)
नल और नील का परिचय.
नल और नील भगवान
विश्वकर्मा के वानर पुत्र माने गये है. प्रचलित कथा के अनुसार इन दोनों को ऋषियों
का श्राप था, यही श्राम आगे चलकर इनके लिए वरदान सिद्ध हुआ.
नल और नील जब छोटे थे तो ऋषि-मुनियों
को बहुत परेशान करते थे और अक्सर उनकी चीजों को समुद्र में फ़ेंक देते थे. इन दोनों
बच्चों से परेशान ऋषि-मुनियों ने तंग आकर इन्हें श्राप दे दिया कि
जो भी चीज तुम पानी में फ़ेंकोगे, वह डूबेगी नहीं. ऋषि-मुनियों का यह श्राप, अभिशाप
न होकर वरदान सिद्ध हुआ. इन्हीं दोनों भाइयों ने समुद्र में
सेतु बनाने में श्रीरामजी को सहोयोग प्रदान किया था.
जाम्बवंत- भगवान ब्रहा के पुत्र थे,
जिन्हें हमेशा अमर रहने का वरदान प्राप्त था. एक अन्य कथा के अनुसार उनका जन्म
सतयुग काल में हुआ था. व द्वापर युग के अंत तक वे जीवित रहे थे. जाम्बवंत का जन्म
देवासुर संग्राम में देवताओं की सहायता के लिए अग्नि के पुत्र के रूप में हुआ था.
उनके माता एक गंधर्व कन्या थी. सृष्टि के आदि में प्रस्थम कल्प के युग में सतयुग
में जाम्बवंत उत्पन्न हुए थे. जामवंत ने अपने सामने ही वामन अवतार को देखा था.
जन्म से ही वे अत्यधिक
बुद्धिमान व शक्तिशाली थे. अपनी बुद्धि के बल पर ही उन्होंने अनेक महारथियों को
परास्त कर दिया था. मुख्यतया त्रेता युग में उन्होंने रामजी की बहुत सहायता की थी.
उन्हें अलग-अलाग भाषाओं में कई नामों से जाना जाता है.-जैसे की जामवंत, जाम्बवंत,
जामुवन, जाम्बवान, सम्बुवान इत्यादि.
चूंकि जामवंत भगवान परशुराम व हनुमान की भांति ही अमर
थे इसलिए उनका योगदान भी कई युगों तक रहा. साथ ही उन्होंने भगवान विष्णु के कई
अवतारों को धरती पर जन्म लेते व अपना कार्य करते देखा. उनकी मुख्य भूमिका
त्रेतायुग में भगवान राम के समय रही व छोटी भूमिका द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण
के समय रही.
जब श्रीराम माता सीता की
खोज में वानरराज सुग्रीव से मिले तो जाम्बवंत की सुग्रीव के मंत्री के रूप में भगवान श्रीराम से भेंट
हुई. तब से उन्होंने श्रीराम जी की हर विपत्ति में अपनी बुद्धिमता से सहायता की.
जब वानर सैनिकों का एक दल
दक्षिण दिशा में माता सीता की खोज में निकला तब उसमें हनुमान, जाम्बवंत, अंगद, नल
व नील थे. जब वे समुद्र के किनारे पहुँचे
तब वहां से आगे जाना असंभव था. इस समय केवल हनुमान व जाम्बवंत ही थे जो समुद्र पार
करके उस ओर जा सकते थे. चूंकि जाम्बवंत जी अब बूढ़े हो चुके थे इसलिये वे समुद्र को
लांघने में असमर्थ थे.
उन्होंने हनुमान जी को
उनकी अपनी शक्तियाँ याद दिलाई जिन्हें बचपन में एक श्राप के कारण वे भूल गये थे.
जाम्बवंत के द्वारा ही याद दिलाने पर हनुमानजी को अपनी शक्तियां वापस मिली तथा
माता सीता को खोजने में सफ़ल रहे.
इसके अलावा भी जाम्बवंत
भगवान राम व रावण के युद्ध के समय योजना बनाने, कोई विपत्ति आने पर उसका हल
निकालने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किया करते थे. जाम्बवंत की बुद्धिमत्ता के कारण ही
भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम जी को बहुत सहायता मिली.
पुराणॊं के अध्ययन से पता
चलता है कि वशिष्ठ, अत्रि, विश्वामित्र, दुर्वासा, अश्वस्थामा, राजा बलि, हनुमान,
विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम, मार्कण्डॆय ऋषि, वेदव्यास और जामवन्त सशरीर आज भी
जीवित हैं.
रामायण काल में हमारे देश
में तीन प्रकार की संस्कृतियों का अस्तित्व था. उत्तर भारत में आर्य
संस्कृति
जिसके प्रमुख राजा दशरथ जी थे. दक्षिण भारत में अनार्य संस्कृति जिसका प्रमुख रावण था. और
तीसरी
संस्कृति देश के मध्य में "आरण्यक संस्कृति ( जनजातीय और आदिवासी.)
के रूप में अस्तित्व में थीं, जिनके संराक्षक महर्षि अगस्त्य मुनि थे. अगस्त्य
मुनि वनवासियों के गुरू व मार्ग-दर्शक थे. ऋक्ष और वानर, बालि, सुग्रीव,जाम्बवंत,
हनुमान, नल और नील आदि अगस्त्य मुनि के शिष्य थे.
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शरद ऋतु के सौंदर्य ने रामजी के सीता-वियोग के
दुःख में और वॄद्धि का दी थी. जब उनको लगा कि केवल विषय-सुख के जीवन की ओर आसक्त होते जा रहे हें,तब वे और अधिक निराश हो गये. रामजी का दुःख देखकर लक्ष्मण जी भी उदास हो गये और वे अपने भ्राता को
प्रसन्न रखने का भरसक प्रयास करने लगे.
एक दिन रामजी ने कहा- हे अनुज !
अब शरद ऋतु का आगमन हो चुका है. भूमि सूख गयी
है और सख्त भी हो गयी है. वायु में स्फ़ूर्ति और ठण्डक भी आने
लगी है. युद्ध की तैयारी के लिए सेना का सूत्रपात करने का
यही उपयुक्त समय है. लेकिन दुर्भाग्य से सुग्रीव नहीं आया है.
मुझे ऐसा लगता है कि वह अपने सभी कर्त्तव्यों की उपेक्षा करके,
स्त्रियों के सान्निध्य में आनन्द-मग्न है".
" हे अनुज ! तुम शीघ्रता से किष्किन्धा जाओ और सुग्रीव को मेरी ओर से चेतावनी दो,-"
हे वानरराज ! तुम्हारे समान कार्य करने वाला
व्यक्ति सर्वाधिक तुच्छ है. मैं आश्चर्यचकित हूँ कि तुम्हें
मेरी उपेक्षा करने का तनिक भी भय नहीं लग रहा है. अतः मैं
तुम्हें चेतावनी देता हूँ कि यदि तुम मेरी भार्या सीता को ढूँढने में मेरी सहायता
करने के अपने वचन की उपेक्षा करोगे, तो मैं स्वयं किष्किन्धा
आकर उसी बाण से उसका वध करूँगा, जिस बाण से मैंने बालि को
मारा था. इतना ही
नहीं मैं तुम्हारे सहित, तुम्हारे सभी सगे-संबंधियों का वध कर डालूँगा.
मुझे लगता है कि उस अधम ने राज्य, खजाना,
नगर और स्त्री पाकर उसने मेरी सुधि ही भुला दी है".
अपने
भ्राता को क्रोधित होते हुए लक्ष्मण ने देखा तो उनके भी क्रोध का पारावार बढ़ गया
था. अत्यधिक उत्तेजित होते हुए उन्होंने अपना धनुष उठाते हुए कहा-"
यदि वह नीच सुग्रीव आपकी आज्ञा का पालन करने नहीं आता है, तो आज ही मैं उसका वध कर दूँगा." यह कहते हुए
लक्ष्मण शीघ्र ही जाने के लिए उठे. तब लक्ष्मण के क्रोध को शांत करने का प्रयास
करते हुए उन्होंने कहा-" हे अनुज ! तुम्हें इस तरह क्रोधित नहीं होना चाहिए. सर्वप्रथम
तो तुम सुग्रीव के पास जाकर शांतिपूर्वक वार्ता करना चाहिए, क्योंकि
मुझे विश्वास है कि उसे पुनः स्मरण करवाना ही पर्याप्त होगा".
"जी भैया ! जैसी आपकी आज्ञा" कहते हुए लक्ष्मण, किष्किन्धा की ओर प्रस्थित हुए, लेकिन उनका क्रोध
यथावत था.वे अन्दर ही अन्दर क्रोध में उबल रहे थे. वे मदनोमत्त हाथी की भांति मार्ग में आने वाले सभी वृक्षों को गिराते हुए
सुग्रीव के महल की ओर बढ़ रहे थे. क्रोध में लक्ष्मण के फ़ड़कते
अधर देखकर महल के प्रवेशद्वार पर तैनात प्रहरियों ने उन्हें आते देखा, तो वे सभी तत्काल भाग खड़े हुए.
तारया सहितः कामी सक्तः कपिवृषस्तदा : न
तेषां कपिसिंहानां शुश्राव वचनं तदा (22.एकविशः सर्ग.)
लक्ष्मण के इस प्रकार क्रोधित होकर आने की
सूचना सुग्रीव के मंत्रियों ने दी. उस समय काम के अधीन हुए वानरराज सुग्रीव भोगासक्त हो तारा तथा अपनी पत्नी रूमा के साथ यौन क्रीड़ाओं में मग्न था. सुग्रीव ने मंत्रियों की बातों की
ओर ध्यान नहीं दिया. लक्ष्मण के क्रोध का पारावार बढ़ता देख अंगद ने सुग्रीव के कक्ष में जाकर
उसे लक्ष्मण के आने की सूचना दी, किन्तु मदहोश होकर निद्रा
में लेटा सुग्रीव उठ नहीं पाया. जब अनेक वानर सुग्रीव के पास
खड़े होकर चिल्लाने लगे, तब जाकर वह उठा. लक्ष्मण के भय से उसे अपनी भूल का आभास हुआ. मदमत्त
सुग्रीव को मंत्रियों ने बताया-" क्रोधित लक्ष्मण महल
के द्वार पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं. वे अत्यन्त ही
क्रोधित हैं. अतः हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप तुरन्त
बाहर आयें, उनका यथोचित सत्कार करें, उनका
अभिवादन करें तथा आत्मसमर्पण करें. इससे उनका क्रोध शांत हो
जाएगा".
सुग्रीव की आज्ञा पर अंगद,लक्ष्मण जी
को लेकर महल में आए. सभी वानर जो हथियार लिये हुए थे,
अब हाथ जोड़कर लक्ष्मण का अभिवादन करने के लिए कतारबद्ध खड़े हो गए.
लक्ष्मण जी जब महल के भीतरी कक्ष में पहुँचे, तब
वाद्ध-यंत्रों के साथ गाती हुई स्त्रियों के स्वर सुने.
स्त्रियों के स्वर सुनते ही लक्ष्मण जी ने भीतर जाना उचित नहीं समझा
और वहीं से अपने शक्तिशाली धनुष की टंकार के द्वारा अपने आगमन की घोषणा की.
धनुष की टंकार की ध्वनि सुनते ही सुग्रीव
कांपने लगा. उसे अपनी मृत्यु पास आती देखी. भय से कांपते हुए
उसने तारा से अनुरोध करते हुए कहा-" तारा ! मुझमें इतना साहस नहीं है कि मैं लक्ष्मण के समक्ष एक पल को भी खड़ा रह
सकूँ. उनके क्रोध को शांत करने के लिए पहले तुम्हारा जाना
उचित रहेगा."
तारा लक्ष्मण जी के समक्ष आयीं. उन्होंने
देखा कि लक्ष्मण जी क्रोध शांत नहीं हुआ है, उसने बड़ी आदर और
सम्मान के साथ उनका स्वागत करते हुए कहा-" हे वीर
लक्ष्मण, आपका आत्मीय स्वागत है. कृपया
कक्ष में पधारें और आसन ग्रहण करें. महाराज सुग्रीव शीघ्र ही
आपकी सेवा में उपस्थित हो जाएंगे." ऐसा कहते हुए उसने
अपनी सेविका को आज्ञा दी कि वह शीघ्रता से लक्ष्मण जी के चरण पखारने के लिए कठौता और शीतल जल लेकर आए.
करि विनती मंदिर लै आए : चरण पखारि
पलंग बैठाए.
विनती करते हुए तारा ने लक्ष्मण जी को पलंग पर
विराजने की प्रार्थना की. उनके बैठ जाने के पश्चात तारा ने लक्ष्मण जी के चरण पखारे. चरण पखारने के बाद उनके चरणॊं में सुगंधित पुष्प चढ़ाये और विनम्रता से
कहने लगीं-" आप सुग्रीव को क्षमा करें क्योंकि काम के
प्रभाव से उसकी बुद्धि का नाश हो गया है. जब महानतम ऋषि-मुनियों को भी कभी-कभी इन्द्रिय-तृप्ति की लालसा हो जाती है, तब इस अस्थित चित्त
वाले वानर का क्या कहना?. कृपया यह न सोचें कि सुग्रीव ने
प्रभु श्रीराम जी के प्रति अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा की है. उसने पहले ही लाखों वानरों को यहाँ आने का बुलावा भेजा है, ताकि सीताजी की खोज आरम्भ की जा सके. सम्भवतः एक
सप्ताह के भीतर ही सभी वानर यहाँ पहुँच जाएँगे. कृपया आप
क्रोध का त्याग कर दीजिए".
तं दीप्तमिव कालाग्नि नागेन्द्रमिव कोपितम.
(कि.कांड.द्वात्रिशः सर्ग-31)
(लक्ष्मण शेषावतार थे.)
परदे की ओट में छिपा सुग्रीव, लक्ष्मण और तारा के मध्य हो
रही वार्ता को सुन रहा था. उसे विश्वास हो चला था कि लक्ष्मण
जी का क्रोध अब शांत हो चुका होगा. परदे की ओट से बाहर निकला
और लक्ष्मण जी ने सन्मुख हाथ जोड़े खड़ा हो गया.देखता क्या है,
पलंग पर लक्ष्मण जी नहीं है. वहाँ पलंग पर शेषनाग
लपलपाती जीभ के साथ विराजमान है. पलंग पर विशालकाय सर्प को
देखकर वह विचलित हो उठा था. उसे ऐसा भी लगने लगा था कि अब
शायद ही वह जीवित बच पाएगा. लक्ष्मण के क्रोध से वह पहले से
ही परिचित हो गया था. मृत्यु के भय से वह मुर्च्छित होने लगा
था. तारा ने उसे किसी तरह संभाला. कुछ
देर तक अनमयस्क रहने के बाद उसने अपनी आँखों को अपने उत्तरीय से पोंछकर देखा,
पलंग पर क्रोधित लक्ष्मण जी बैठे हुए है. बिना
समय गवाएँ वह चरणॊं मे गिरकर अपनी भूल के लिए क्षमा याचना करने लगा था.
लक्ष्मण ने उसकी भर्त्सना करते हुए कहा-" धोकेबाज सुग्रीव ! तुम्हें मिथ्या प्रतिज्ञा करते हुए लाज नहीं आयी?. तुमने
यह प्रमाणित कर दिया है कि मित्र के रूप में तुम विश्वास के योग्य नहीं हो.
तुम महा-अधम हो. जो एक
सच्चे मित्र से सहायता लेकर सेवा द्वारा उस ऋण को नहीं चुकाता है, वह निष्ठुर समझा जाता है, तथा बध के योग्य होता है.
एक बार ऐसे कृतघ्न व्यक्ति को देखकर ब्रह्माजी ने कहा था-"
गो-हत्या करने वालों के लिए, मद्धपान करने वाले के लिए, चोर और धार्मिक प्रतिज्ञा
का उल्लंघन करने वालों के लिए प्रायश्चित करने का विधान है, किन्तु
कृतघ्न के लिए किसी भी प्रकार के प्रायश्चित का प्रावधान नहीं है." सुग्रीव मैं तुम्हें चेतावनी देता हूँ, यदि तुम
तत्काल ही रामजी की सहायता का कार्य आरम्भ नहीं करते हो तो आज ही तुम अपने भाई
बालि के पास पहुँचा दिए जाओगे".
लक्ष्मण जी का निर्णय सुनकर तारा घबराने लगी थी. उसने
विनम्रता से हाथ जोड़ये हुए कहा-" हे लक्ष्मण ! सुग्रीव ने न तो असत्य कहा है और न ही वह निष्ठुर है. उसने कभी भी रामजी के उपकार को नहीं भुलाया है. उसकी
केवल एक त्रुटि यही है कि उसने इन्द्रिय-तृप्ति में निमग्न
होने के कारण उसे समय के महत्त्व का आभास नहीं रहा. हमने
सुना है कि रावण की लंका में 1,000,000
करोड़ से अधिक राक्षस हैं. चूँकि उन राक्षसों का वध किए बिना
रावण का विनाश सम्भव नहीं है. अतः सुग्रीव ने सभी दिशाओं में असंख्य वानरों को
बुलावा भेजा है.चूंकि वह उन वानरों की प्रतीक्षा में है. अतएव उसने अभी कार्य आरंभ
नहीं किया है तथा न ही वह रामजी से भेंट करने गया है. सुग्रीव ने पन्द्रह दिनों की
समय-सीमा निश्चित की है. आज ही के दिन, सहत्रों वानर, भालू एवं लंगूर किष्किन्धा
पहुँचने वाले हैं.
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रामभक्त तुलसीदास जी ने
सुन्दरकाण्ड में वानरी सेना के सेनानायकों के प्रमाण का सांकेतिक रूप से उल्लेख
रावण के दूतों के माध्यम से रावण की सभा में कराया है. रावण के दूतों ने वानरों की
सेना की विशालता कें संबंध में रावण को बताया कि-"अस मैं सुना श्रवन दसदंधर :
पदुम अठारह जूथप बंदर." यहाँ पर केवल वानरी सेना के सेनापतियों की संख्या 18 पद्म
होने की बात कही गई है. कुल वानरों की संख्या का अनुमान उल्लेखित नहीं किया गया
है. यह सत्य है कि जब 18 पद्म सेनापतियों की संख्या है, तो
वानरों की संख्या का आकलन लगा पाना तो सम्भव प्रतीत नहीं होता.
फ़िर भी भ्रम का निवारण
वाल्मीकि रामायण तथा विश्राम सागर में वृहद रामायण के प्रमाण के आधार पर वानरी
सेना की संख्या के संबंध में उल्लेख किया गया है-
(1). पारियात पर्वत के गव
गवाक्ष की 80 शंख सात सौ वानर. (2) रेवत पर्वत और कदली वन
के दुर्द्धर और गज नाम के वानरों की संख्या -सात पद्म, 8o करोड़. (3)बलवीर वानर
की 23 लाख 60 हजार एक सौ वानर. (4) धुंदमाल पर्वत के सिखण्डी
नामक 56 करोड़ वानर (5) अर्जुन गिरि के कुमुद वानर
की संख्या चार पद्म 87 लाख.(6) तावगिरि के नील नामक 16 लाख
वानर. (7).बद्री पर्वत के गन्ध मदन 16 लाख वानर.(8).अर्जुन गिरि के ही तारा
बखत की 87
करोड़ 90 लाख दृढ़मति के वानर.(9) सुमेर गिरि के केशरी 10
करोड़ 9 लाख 26
हजार वानर. (10) .कैलाश पर्वत के पुलिंद
और जय-विजय तथा अण्ड नामक 17 शंख 20 करोड़ वानर. (11).विन्ध्याचल पर्वत की बाण
और वसंत नामक 11कओड़ 1 लाख वानर. (12) विजय गिरि के रतिमुख नामक 8 पद्म 981
वानर. (13). कास गिरि के मुदमयंक 1.
पद्म 1. करोड़ वानर. (14). जामवन्त
गिरि पर जाम्बवन्त और उसके भाई धूमकेतु की 8 शंख 5 सौ करोड़ वानर. (15). धौला गिरि से द्विविद
वानरों की संख्या एक करोड़ -25 लाख सेना के
साथ 30 सेना नायक. (16) उदयाचल पर
पनस और सुषेण नामक 7 पद्म 80 करोड़
वानर .
...................................................................................................................................
तारा
की बातों को सुनकर लक्ष्मण का क्रोध शांत हो गया. जब सुग्रीव ने देखा कि अब
लक्ष्मण जी सामान्य अवस्था में आ गए हैं तो उसने डरते-डरते कहा-" हे लक्ष्मण
! रामजी ने मेरे लिए जो कुछ किया है, उस
उपकार के लिए मैं सदैव ऋणी रहूँगा. वे मेरे स्वामी हैं. वे मेरे भगवान हैं. वे
जहाँ भी जाएंगे, मैं उसका अनुसरण करुँगा और जो आज्ञा देंगे, उसका सच्चे मन से पालन
करूँगा. मैं अपना दोष स्वीकार करता हूँ और क्षमा याचना करता हूँ".
सुग्रीव
की बातों को सुनकर लक्ष्मण ने कहा-" हे वानरराज ! मैं क्रोध के आवेश में था
इसके लिए मुझे क्षमा करना. मेरे अनुसार, इस समय ही रामजी से तुम्हारा भेंट करना
उचित रहेगा. तुम्हारी निष्कपटता देखकर उनके उत्साह का वर्धन होगा".
सुग्रीव
ने वीर हनुमान जी को आज्ञा दी-" हिमालय, महेन्द्र, मन्दर और कैलाश पर्वतों के
सभी वानरों को बुलवा लो. उन सभी वानरों को
सचेत करो कि दस दिनों की समय-सीमा के भीतर इस आज्ञा का पालन नहीं करेगा, उसका वध
कर दिया जाएगा".
वीर
हनुमान जी ने सभी दिशाओं में वानर प्रमुखों को भेज दिया. उसी समय लाखों वानर
किष्किन्धा में आने लगे और सुग्रीव के समक्ष उपस्थित हुए. तत्पश्चात लक्ष्मण ने
सुग्रीव से कहा कि अब हम रामजी से भेंट करने चलें.
तत्पश्चात
लक्ष्मण एवं सुग्रीव रामजी के समक्ष करबद्ध खड़े हो गए. रामजी ने अत्यन्त ही प्रसन्न
होते हुए वानर-सेना की ओर देखा. सुग्रीव ने आगे बढ़कर श्रीरामजी के चरण्कमलों में
पूर्णरूप से समर्पित होते हुए उन्हें दण्डवत प्रणाम किया. रामजी ने कृपापूर्वक
सुग्रीव को उठाकर उसका आलिंगन किया. सुग्रीव के प्रति रामजी के मन में क्रोध का
भाव नही था. वे सहज रूप में उसका आलिंगन कर रहे थे.
रामजी
ने उसे आसन प्रदान करने के पश्चात उसे राजा के क्या कर्त्तव्य होने चाहिए के विषय
में बताया-" एक राजा को धर्म, अर्थ एवं काम के लिए उपयुक्त समय की पहचान होनी
चाहिए और तदनुसार जीवन का सुख भोगना चाहिए. राजा को वैदिक नियमों को त्यागकर केवल
अति भोग में निमग्न नहीं होना चाहिए, अन्यथा वह पतित समझा जाता है. हे सुग्रीव !
अब समय आ गया है कि तुम सीता की खोज के लिए प्रयास प्रारंभ करो, जैसा कि तुमने
मुझे वचन दिया था".
श्रीरामजी
ने सुग्रीव ने कहा-" हे राम ! धैर्य धारण कीजिए, मैं तथा यहाँ आए हुए सभी
वानर आपकी सहायता करने के लिए इकठ्ठा हुए हैं. हे स्वामी ! इन वानरों योद्धाओं को
आप अपनी ही सेना समझें. अब आप जैसा उचित समझें, वैसे इन्हें आज्ञा दीजिए".
रामजी
ने कहा-" हमारा प्रथम उद्देश्य यह होगा कि हम रावण के निवास का पता लगायें.
तथा यह भी निश्चित करें कि सीता जीवित भी है या नहीं. प्रिय सुग्रीव ! तुम्हें खोज
करने वाले दलों की व्यवस्था करनी चाहिए. सीता का पता लगने पर मैं उचित आज्ञा
दूँगा".
सुग्रीव
ने तुरन्त ही वानरराज विन्द को बुलाकर आज्ञा दी-" तुम और तुम्हारे सैनिक सात
सागरों एवं सात द्वीपों सहित पूर्व दिशा की ओर जाकर प्रत्येक स्थान की खोज करो.
क्षीर-सागर के पार एक मीठे जल के सागर के पूर्वी तट से तेरह योजन दूर जातरूपशिला
नामक एक पर्वत है, जो स्वर्ण पत्थरों से निर्मित है. वहीं पर भगवान अनन्तशेष का
निवास है, जिनके सहारे यह समूची पृथ्वी अवलम्बित है. यह पूर्वी भाग की बाह्य सीमा
है. इस समूचे क्षेत्र में खोज करने के लिए मैं तुम्हें एक मास का समय देता हूँ. इस
अवधि के उपरान्त आने वाले को राज-आज्ञा की अवहेलना करने के दोष में मृत्यु दण्ड
दिया जाएगा".
इसके
पश्चात सुग्रीव ने अंगद, नील, हनुमान, जाम्बवान, मैन्द्म द्विविद तथा अन्य को बालि
के पुत्र अंगद के नेतृत्व में दक्षिण की ओर जाने की आज्ञा दी.वे प्रस्थान करें,
इससे पूर्व सुग्रीव ने उन्हें समझाते हुए बतलाया-" खारे सागर के उत्तरी तट से
सौ योजन दूर पर एक द्वीप है. मुझे लगता है यही रावण का निवास है. दक्षिण में और आगे,
रसातल की राजधानी भोगवती है, जो वासुकि के अधीन है. ऋषय पर्वत के आगे, जो भू-मंडल
की अधिकतम दूरी की सीमा को निर्धारित करता है, यमराज का निवास है. पितृलोक या उसके
पार मत खोजना, क्योंकि वहाँ पृथ्वी का कोई प्राणी नहीं जा सकता".
इसके
बाद उसने सुषेण एवं उसस्के अनुयायियों को पश्चिम दिशा की ओर जाने की आज्ञा दी. वे
प्रस्थान करें. इससे पूर्व उसने उसे समझाते हुए बतलाया-" खारे सागर के मध्य
में नरकासुर की नगरी, प्रागज्योतिषपुर है और पश्चिमी सीमा वहाँ है, जहाँ सूर्य
अस्त होता है. उसके पार अस्तित्व की कोई सूचना मेरे पास नहीं है, अतः तुम्हें वहाँ
जाने की आवश्यकता नहीं है".
अब
अंत में शतिबलि को उत्तर दिशा की ओर भेजते हुए उसने बतलाया-" तुम पहले
मलेच्छों के देश से होते हुए हिमालय की ओर जाओगे. इन पर्वतों से 800 मील दूरी पर निर्जन स्थल है. इसके पश्चात
कैलाश पर्वत है, जो कुबेर का निवास है. कैलाश पर्वत के पश्चात क्रौंच पर्वत आता है
और फ़िर, उत्तर-कुरु का क्षेत्र आता है, अंत में खारे जलवाला उत्तरी सागर है जिसके
मध्य में सोमगिरी नामक स्वर्ण पर्वत है. वहाँ भगवान विष्णु, ब्रह्मा और शिवजी का
निवास है. उस पर्वत को देखकर तुम लौट आना, क्योंकि उस पार जाना सम्भव नहीं
है".
सुग्रीव हनुमानजी
को सीता जी की खोज करने के लिए सबसे योग्य समझते थे. उनके उत्साहवर्धन के लिए
उन्होंने कहा-" हे वीर हनुमान ! तुम सभी वानरों में विशेष रूप से शक्तिशाली
और पराक्रमी हो,. पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग, और अधोलोक में भी तुम्हारे कार्य में कोई
विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकता है. तुम्हारे भीतर अतिमानवीय साहस, बुद्धि एवं सूझ-बूझ
भी है. अतएव सीताजी की खोज में मुझे विशेषरूप से तुम्हारे सफ़ल होने की पूर्ण आशा
है".
"हे
कपिश्रेष्ठ ! तुम पृथ्वी, अन्तरिक्ष, आकाश, देवलोक अथवा जल में भी तुम्हारी गति
में कोई भी अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकता."
"असुर,
गन्धर्व, नाग, मनुष्य, देवता, समुद्र तथा पर्वतों सहित सम्पूर्ण लोकों का तुम्हें
ज्ञान है."
" हे हनुमान
! तुम अपने महापराक्रमी पिता वायुदेव के समान हो. वे सर्वत्र अबाधित, गति, वेग,तेज
और फ़ुर्ती के लिए जाने जाते हैं. यही गुण तुम में समाहित है. फ़िर इस भूमण्डल में
कोई भी प्राणी तुम्हारे तेज की समानता
करने वाला नहीं है. अतः जिस भी प्रकार से सीताजी की उपलब्धि हो सके, वह उपाय तुम्हीं
सोचो".
" हे वीर !
तुम नीतिशास्त्र के पण्डित हो. एकमात्र तुम्हीं में बल, बुद्धि,पराक्रम, देश-काल
का अनुसरण तथा नीतिपूर्ण वर्ताव एक साथ देखे जा सकते हैं".
रामजी सुग्रीव की
हर छोटी-बड़ी बातों को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे और मन ही मन में मनन भी रहे थे कि
वानरराज सुग्रीव का भौगोलिक ज्ञान कितनी गहनता लिए हुए है. किस दिशा में कितने
सागर है, किस दिशा में कितने पर्वत है,
कहाँ-कहाँ खोज की जानी है, कहाँ जाना उचित है, और कहाँ नहीं जाना उचित नहीं होगा
आदि को बतलाते हुए लगता है मानो पूरा ब्रह्माण्ड का नक्शा उनकी आँखों के सामने,
किसी चित्रपट की तरह खुलता जाता है.
उन्होने इस बात
पर भी गौर किया था कि किस तरह सुग्रीव ने हनुमान की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए
उसके गुण और स्वभाव के बारे में वर्णन किया है.यह सब सुनकर उन्हें पूर्ण विश्वास
हो चला कि इस कार्य के सिद्धि के लिए सारा भार केवल और केवल हनुमान पर ही है.
उन्होंने स्वयं भी यह अनुभव किया कि हनुमान इस कार्य को सफ़ल करने में समर्थ हैं.
उन्हें तो
आश्चर्य इस बात पर भी हो रहा था कि सीताजी की खोज में जाने वाले खोजी दल के किसी
भी सदस्य ने यह जानकारी लेना जरुरी नहीं समझा कि हमने सीताजी को देखा ही नहीं है,
अतः हम कैसे जान पाएंगे कि कौन सीता है और कौन सामान्य महिला ?.
उन्होंने हनुमान
जी की ओर देखा. वे सुग्रीव की हर बात को गंभीरता से सुन रहे थे और गहनता से उस पर
मनन भी कर रहे थे. सुग्रीव जब अपनी बात पूरी कर चुके तब हनुमानजी ने सुग्रीव से न
पूछकर , सीधे श्रीरामजी से विनयपूर्वक जानकारी लेने की इच्छा से पूछा-" भगवन ! क्षमा करें. मैंने सीता माता को नहीं
देखा है. मैं कैसे जान पाऊँगा कि कौन सीताजी हैं. और कौन सामान्य महिला?.यदि मैंने उन्हें खोज भी निकाला तो मैं उन्हें कैसे
विश्वास दिला पाऊँगा कि मैं राम का दूत हूँ और आपकी खोज में किष्किन्धा से चलकर
यहाँ तक आ पहुँचा हूँ?".
" हे वीर
हनुमान ! मुझे आश्चर्य इस बात पर हो रहा
है कि अन्य खोजी दल के किसी सदस्य ने मुझसे यह प्रश्न नहीं किया कि वे सीता की खोज
में जा तो रहे हैं लेकिन उन्हें कैसे पहिचान पाएंगे कि सीता कौन है, देखने में
कैसी लगती है?. मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि तुमने मुझसे ऐसा प्रश्न किया. मैं
तुम्हारी प्रत्युन्मति बुद्धि की मैं भूरि-भूरि प्रशंसा करता हूँ. तुम्हारा इस तरह
सोचना उचित ही है".
" हे वीरवर
! तुम्हारा उद्योग, धैर्य, पराक्रम और सुग्रीव का संदेश- ये सब मुझे इस बात की
सूचना-सी दे रहे हैं कि तुम्हारे द्वारा कार्य की सिद्धि अवश्य होगी".
" हे वीर !
सीता का वर्ण कर्पूरगौर है. वियोग के
अग्नि में उसका सुंदर मुख, डंठल से अलग हुए कमल-पुष्प की तरह म्लान हुआ होगा. उसके
मुख से सदैव रामनाम का ही उच्चारण हो रहा होगा".
उन्हें अब यह
विश्वास हो गया कि हनुमान उनकी प्रिय पत्नी सीताजी का पता अवश्य लगा लेंगे.
उन्होंने अपनी अंगूठी देते हुए सीताजी के बारे में कई जानकारियाँ देते हुए
कहा-" हे वीर हनुमान, मुझे पूरा विश्वास हो चला है कि तुम अपने अभियान में
सफ़ल होकर जरूर लौटोगे".
शत्रुओं को संताप
देने वाले श्रीराम जी ने प्रसन्नतापूर्वक अपने नाम के अक्षरों से सुशोभित एक
अंगूठी हनुमानजी के हाथ में दे दी, जो सीताजी को पहचान के रूप में अर्पण करने के
लिए थी.अंगूठी देकर वे बोले-" हे कपिश्रेष्ठ ! इस चिन्ह के द्वारा जनककिशोरी
सीता को यह विश्वास हो जाएगा कि तुम मेरे दूत हो. इससे वह भय त्यागकर तुम्हारी ओर
देख सकेंगी.
हनुमानजी ने
श्रीराम जी से अंगूठी ले तो ली थी, लेकिन इस सोच में पड़ गए कि आखिर इस बहूमूल्य
अंगूठी को मैं रखूँगा कहाँ ?. सहसा मन में एक विचार आया कि इसे अपने जनेऊ में बांध
लूँगा तो यह सदैव सुरक्षित बनी रहेगी. फ़िर कुछ सोचकर उन्होंने इस विचार तो त्याग
दिया कि जब प्रभु श्रीराम मेरे रोम-रोम में निवास करते हैं और सदैव मेरे मुख से
उनका ही नाम उच्चारित होता है तो क्यों न इस अंगूठी को अपने मुँह में रख
लूँ". ऐसा सोचते हुए उन्होंने उस दिव्य अंगूठी को अपने मुँह में रख लिया. ऐसा
करते हुए वे निश्चिंत हो गए थे.
हनुमानजी ने
श्रीरामजी के चरणॊं मे दण्डवत प्रणाम किया और प्रस्थान करने के लिए आज्ञा मांगी.
हनुमानजी को बिदा देते हुए श्रीरामजी ने उन्हें अपना आशीर्वाद देते हुए
कहा-"अत्यन्त बलशाली कपिश्रेष्ठ ! मैंने तुम्हारे बल का आश्रय लिया है.
पवनकुमार हनुमान ! जिस प्रकार भी जनकनन्दिनी सीता प्राप्त हो सके, तुम अपने महान
बलविक्रम से वैसा ही प्रयत्न करो".
" हे वीर हनुमान ! मुझे तुम पर पूर्ण
विश्वास है कि तुम मेरी ओर से इस महत्वपूर्ण कार्य करने में अवश्य सफ़ल होगे."
रामजी का आशीर्वाद और आज्ञा पाकर वीर हनुमान ने अपने राजा सुग्रीव को भी प्रणाम
किया और अपने अन्य वानर मित्रों के साथ सीताजी की खोज के लिए प्रस्थित हुए.
वानरों के दलों
के चले जाने के पश्चात रामजी ने सुग्रीव से जानना चाहा-" मित्रा सुग्रीव !
तुम्हें पृथ्वी के भूगोल का इतना विस्तृत ज्ञान कैसे है?".
एवं
मया तदा राजन प्रत्यक्षमुपलक्षिततम :पृथ्वीमण्डलं सर्वं गुहामस्म्यागतस्ततः (24.सप्तच्त्वारिशः सर्ग)
तब सुग्रीव ने
उत्तर दिया-" बालि ने किष्किन्धा लौट आने पर और स्वेच्छा से मेरे द्वारा उसे
राज्य समर्पित करने पर भी उसने मुझे राज्य से निष्कासित कर दिया, परन्तु उसका क्रोध
शांत नहीं हुआ तथा वह मेरा पीछा करता रहा और मैं जोर-जोर से भागता गया.पूर्व दिशा
में जाकर मैंने नाना प्रकार के वृक्ष, कन्दराओं के सहित रमणीय पर्वतों और
भाँति-भाँति के सरोवर देखे. नाना प्रकार के धातुओं से मण्डित उदयाचल तथा अप्सराओं
के नित्य निवास स्थान क्षीरोद सागर का भी मैंने दर्शन किया".
"बाली
लगातार मेरा पीछा करता रहा था. दक्षिण दिशा की ओर विन्ध्यपर्वत सहित नाना प्रकार
के वनों को, जिसमें चन्दन वृक्ष के अलावा अन्य प्रजाति के वृक्ष बहुतायत में देखे
जा सकते थे,देखने को मिले".
"बाली अब भी
मेरे पीछे पड़ा हुआ था. भयभीत होकर मैंने दक्षिण दिशा को छोड़कर पश्चिम की ओर भागा.
नाना प्रकार के देशों को देखता हुआ मैं गिरिश्रेष्ठ अस्ताचल तक जा पहुँचा. वहाँ
पहुँचकर मैं पुनः उत्तर दिशा की ओर भागा.उत्तर दिशा में हिमालय, मेरू,उत्तर समुद्र
तक जा पहुँचा. बाली के लगातार पीछा करने के कारण मुझे कहीं शरण नहीं मिली.
"तब परम
बुद्धिमान हनुमान ने मुझको परामर्श देते हुए मंतग ऋषि से बाली को मिले श्राप के
बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए बतलाया कि बाली यदि ऋष्यमूक पर्वत के आश्रम
मण्डल में प्रवेश करेगा तो उसके मस्तक के सैकड़ों टुकड़े हो जाएँगे. इस रहस्य को
जानकर मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि मैं इस आश्रम में रहकर जीवित रह सकूँगा. इस
तरह मैंने मतंग ऋषि के आश्रम में शरण ली.
चारों दिशाओं में भागते रहने के कारण मुझे भौगोलिक स्थिति की जानकारियाँ प्राप्त
हुईं थी".
०००००
दिन
के समय वानरों का दल सीताजी की खोज करने के लिए निर्दिष्ट क्षेत्रों में चले जाते तथा रात्रि के समय विश्राम करने के
लिए पुनः एक जगह एकत्रित हो जाते. एक मास के
व्यतीत होने के पूर्व ही विनत, शतबल और सुषेण अपने-अपने क्षेत्रों में
छान-बीन करके लौट आए. लौटकर उन्होंने अपने महाराज सुग्रीव को सूचित किया कि उन्हें
सीताजी का कोई पता नहीं मिल सका. इसी तरह अन्य खोजी दल भी वापिस लौट-लौट कर आने
लगे. सभी ने अपनी असमर्थता सुग्रीव और रामजी पर प्रकट कर दी. सुग्रीव और रामजी की
आशा के केन्द्र में थे हनुमान. उन्हें पूर्ण
विश्वास था कि हनुमान अपने अभियान में सफ़ल होकर अवश्य लौटेंगे.
अंगद के नेतृत्व वाला दल संपूर्ण विन्ध्यांचल पर्वत
श्रेणी की छान-बीन करने के पश्चात भूख-प्यास से व्याकुल हो उठा था,क्योंकि उस
क्षेत्र में कहीं भी जल उपलब्ध नहीं था और तो और उस वन के वृक्षों के पत्तियाँ तक
नहीं थी, फ़ल और पुष्पों का तो क्या कहना. वह क्षेत्र संपूर्ण रूप से पशु-पक्षी
विहीन हो चुका था. उस वन में किसी समय कन्दु नाम के एक ऋषि रहा करते थे. अल्पायु
में ही उनके पुत्र की मृत्यु हो गयी थी, जिसके कारण उन्होंने क्रोधवश उस समूचे वन
को मनुष्यों सहित पशुओं के निवास हेतु अनुपयुक्त बन जाने का शाप दे दिया था.
उसी
निर्जन वन में घूमते हुए वानरों का सामना एक अत्यन्त ही भयंकर राक्षस से हो गया.
देवताओं से वरदान प्राप्त वह राक्षस निर्भय था. अंगद ने उसे रावण समझा और उसका वध
कर दिया. समूचा क्षेत्र खोज लेने पर भी अंगद के दल को सीताजी के विषय में कुछ भी
पता नहीं चल पाया और वे निराश हो गए.
एक
मास की अवधि लगभग समाप्त होने को थी.भूख-प्यास से संतप्त वानर पेयजल खोजने लगे.
तभी अंगद और तार ने एक गुफ़ा देखी, जहाँ आद्रता थी और बहुत सारे जल-पक्षियों का
समूह दिखाई पड़ा. सभी शीघ्रता से उस ओर चल पड़े.
वह
गुफ़ा अत्यन्त ही गहरी और अंधेरी थी. प्रत्येक ने एक-दूसरे का हाथ पकड़कर
सावधानीपूर्वक उसमें प्रवेश किया. बहुत दूर तक जाने के बाद उन्हें प्रकाश की
किरणें दिखाई दी. और थोड़ा आगे जाने पर उन्हें एक सुनहरे वृक्षों की वाटिका दिखाई
दी. शीघ्र ही वे सुंदर जलाशयों एवं उद्यानों के निकट जा पहुँचे. वहाँ उन्हें काले मॄग की त्वचा धारण
किए हुए एक तपस्विनी को देखा, जिसके मुख पर आध्यात्मिक तेज था.हनुमानजी उसके पास
गए और हाथ जोड़कर बोले-" हे देवी ! आप कौन हैं और यह गुफ़ा किस की है. कृपया
हमें बतायें?. यहाँ सब कुछ स्वर्णिक क्यों प्रतीत हो रहा है? हम सब थके हुए है और
प्यासे हैं. हम दीर्घकाल से जल विहीन क्षेत्रों में विचरण कर रहे हैं".
उस
तपस्विनी ने बताया-" मैं मेरू पर्वत के रक्षक देवता, मेरू-सावर्णि की पुत्री
स्वयंप्रभा हूँ. मैं हेमा नामक अप्सरा की सखी हूँ और यहाँ मैं इस इस कुटिया की
रखवाली करती हूँ. ऋक्षबिल नामक यह गुफ़ा मय दानव
द्वारा निर्मित है. यहाँ तपस्या करने के पश्चात मयदानव को भगवान ब्रह्मा से
वरदान प्राप्त हुआ था किसके कारण उसे शुक्र को ज्ञात सभी दिव्य शक्तियाँ प्राप्त
हो गई. उसके पश्चात मय दानव यहीं निवास करने लगा. जब वह हेमा के प्रति आसक्त हो
गया तब इन्द्र ने अपने वज्र से उसे इस क्षेत्र से भगा दिया. तब ब्रह्माजी ने यह
गुफ़ा हेमा को दे दी. चूंकि हेमा मेरी सखी है, अतः मैं इसकी रखवाली कर रही हूँ.
कृपया आप इसे अपना ही समझें और मुझे अपने आने का कारण बताएँ?".
स्वयंप्रभा
द्वारा सत्कार किए जाने के पश्चात हनुमानजी ने यहाँ तक आने का कारण बतलाते हुए
कहा-" हे देवी ! हम सभी प्रभु श्रीरामजी की आज्ञानुसार माता सीताजी की खोज
में वन-वन भटक रहे हैं. हम नहीं जानते इस समय वे कहाँ होगीं और हमें उनके दर्शन
कैसे होंगे?. हमारे स्वामी वानरराज सुग्रीव ने हमें एक मास का समय दिया था, वह
पहले ही बीत चुका है. अतएव हम सभी निराशा के भंवर में डूबकर निराश हो चले हैं.
क्या आप हमारी सहायता के लिए कोई उपाय कर सकती हैं?".
"
इस गुफ़ा में प्रवेश करने वाले जीवित अवस्था में बाहर नहीं निकल सकते. फ़िर भी मैं
अपनी दिव्य शक्तियों के उपयोग से तुम्हारी सहायता अवश्य करूँगी. किन्तु तुम सबको अपने नेत्र बंद करने होंगे, क्योंकि
खुले नेत्रों से कोई भी यहाँ से कहीं नहीं जा सकता". स्वयंप्रभा ने वानर दल
से कहा.
"जी,
जैसी आपकी आज्ञा" कहते हुए सभी ने अपने-अपने नेत्र बंद कर लिये. अकस्मात
उन्हें लगा कि वे गुफ़ा से बाहर आ चुके हैं. उन्होंने अपने नेत्र खोले और पाया कि
वे सभी गुफ़ा से बाहर निकल आये हैं.
अपने
खुले नेत्रों से वे देख रहे थे कि चारों ओर हरे-भरे वृक्ष दिखाई दे रहे हैं. अब
उन्हें इस बात पर निराशा घेरने लगी थी कि एक मास का समय तो व्यतीत हो चुका है.
निराश और हताश होने के बाद हम लौटें भी तो कैसे?. सभी को अपने प्राणॊं से हाथ धोना
पड़ेगा. इससे अच्छा होगा कि हम सभी को यहाँ बैठकर आमरण उपवास कर लेना चाहिए.
सुग्रीव के द्वारा वध किए जाने की अपेक्षा यही उचित होगा कि हम यहीं अपने प्राण त्याग
दें.
बुद्ध्या
ह्याष्टांया युक्तं चतुर्बलसमन्वितम : चतुर्दशगुणं मेने हनुमान बाविनः सुतम.(२./ पंचाशःसर्ग)
उस
दल का नेतृत्व अंगद कर रहा था, जो मौन बैठा हुआ, मन ही मन सोच रहा था कि अब उसे
क्या करना चाहिए?. तभी हनुमानजी उसके निकट
आए और बोले-" हे राजकुमार ! आप बुद्धिमान हैं. आपको बुद्धि की आठ विशेषताओं
से सम्पन्न हैं. (1) दूसरों
के कथन को सुनने की अभिलाषा (२). उसे
सुनने की क्षमता (३) उसका तात्पर्य समझने की योग्यता (४) तीव्र स्मरणशक्ति (५) उस कथन के पक्ष में तर्क करने
की शक्ति (६) उस कथन के विपक्ष में तर्क करने की शक्ति (७) मर्म जानने की दृष्टि (८) तथा सुबुद्धि. ये सब आप में विद्यमान हैं .हे अंगद ! आप चार प्रकार के राजनीतिक उपायों को प्रयुक्त करने में भी
प्रवीण है-(1) प्रयायन अथवा सुलह (२) उपहार (३) शत्रु में आपस में मतभेद उत्पन्न करना
(४) और आवश्यकता होने पर हिंसा या बल का प्रयोग करना. इसके अलावा आप उन चौदह विशिष्टताओं से भी सम्पन्न है जो
किसी महान व्यक्तित्व को चित्रित करती है.
(१) समय और स्थित का ज्ञान (२) दृढ़ता (३) सभी विषयों का ज्ञान (४)दक्षता (५) पौरुष
(६) रहस्यों को गुप्त रखने की योग्यता.(७)स्थिरता (८) वीरता (९) शत्रु की तुलना
में अपनी शक्ति के आकलन की क्षमता (१०) अन्यों द्वारा की गई सेवा की सराहना (११)
शरणागतों के प्रति करुणा (१२) अधर्म होने पर रोष प्रकट करना (१३) कार्य में
तत्परता. (१४) तथा शारीरिक क्लेशों को सहन करने की शक्ति.
वीर हनुमानजी ने युवराज अंगद
को, उनकी बुद्धि की आठ दिव्य शक्तियों और चार प्रकार की राजनीतिक सूझबूझ की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए प्रथम राजनीतिक
उपाय को प्रयुक्त किया. तब उन्होंने वानरों के मध्य इस विषय पर मतभेद उत्पन्न किया
कि अब उन्हें क्या करना चाहिए. ऐसा करके उन्होंने तीसरे राजनीतिक साधन का उपभोग
किया. अंत में, हनुमानजी ने अंगद की यह कहकर भर्त्सना की-" यदि आप अपनी इस
मूर्खतापूर्ण योजना को अंगीकार करना चाहते हो तो इसी गुफ़ा में रहो, जहाँ शीघ्रता
से विनाश होने वाला है. ऐसी स्थिति में अन्य वानरों से भी विश्वास उठ जाएगा. इसके
अतिरिक्त लक्ष्मण आपका पता लगाकर गुफ़ा
सहित आपका तथा अन्य वानरों का नाश कर देंगे. किन्तु, यदि आप किष्किन्धा जाओगे तो
सुग्रीव अवश्य आपको क्षमा कर देंगे. आप उनके एकमात्र पुत्र हो, जिसे वे भविष्य में
राजसिंहासन सौंपने वाले है".
अंगद को हनुमान की बातें
अच्छी नहीं लगी. उसने हनुमान का विरोध करते हुए कहा-" हनुमान ! तुम सुग्रीव
से कुछ अधिक ही आशा कर रहे हो. लेकिन यह भूल गए हो कि वे अपने अग्रज की पत्नी का
उपभोग कर रहे हैं. सुग्रीव ने जान-बूझ कर श्रीराम जी की सहायता करने के वचन की
अवहेलना की है और लक्ष्मण जी के धमकाए जाने पर ही कार्य आरम्भ किया है. अतएव,
जिनकी इच्छा है, वे घर लौट जाएँ. किन्तु मैं मृत्यु आने तक यहीं भूखा-प्यासा पड़ा
रहूँगा".
ऐसा कहकर अंगद कुश की घास पर
बैठ गए और विलाप करने लगे. अन्य वानर भी उसी प्रकार से प्राण त्याग देने का निर्णय
करके उसे घेरकर खड़े हो गए. तभी जटायु का अग्रज संपाती अपनी गुफ़ा से बाहर निकला और
उसने पर्वत की चोटी पर स्थित एक स्थान से वानरों को देखा.
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सम्पाती-और
जटायु.
सम्पाती और जटायु नाम के दो गिद्ध थे. ये दोनों
ही देव पक्षी अरुण के पुत्र थे. दरअसल, महर्षि कश्यप की पत्नी विनता के दो पुत्र
हुए-गरुड और अरुण. गरुड भगवान विष्णु की
शरण में चले गए और अरुण सूर्य के सारथी बन गए. सम्पाति और जटायु दो गरुड़ बंधु थे.
सम्पाति बड़ा और जटायु छोटा था. ये दोनों विंध्याचल पर्वत की तलहटी में रहने वाले
निशाकर ऋषि की सेवा करते थे और दंडकारण्य़ क्षेत्र में विचरण करते रहते थे.
बचपन
में सम्पाति और जटायु ने सूर्य-मण्डल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लंबी उड़ान
भरी. लेकिन सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु जलने लगे, तब सम्पाति ने
उन्हें अपने पंख के नीचे सुरक्षित कर लिया, लेकिन सूर्य के अत्यधिक निकट पहुँचने
पर सूर्य के ताप से सम्पाति के पंख जल गए और वे समुद्र तट गिरकर चेतनाशून्य हो गए.
चन्द्रमा
नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता में सीताजी की खोज करने
वाले वानरों के दर्शन से पुनः उनके पंख उग जाने का आशीर्वाद दिया था.
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अत्यन्त प्रसन्न होकर उसने ऊँचे स्वर में
अपने आप से कहा-" विधाता की कृपा से दीर्घकाल के पश्चात मुझे आज भोजन प्राप्त
हुआ है. जब ये वानर भूख से तड़प-तड़प कर मर जाएँगे, तब मैंएक-एक करके इनका भक्षण
करुँगा".
यह सुनकर अंगद क्रोधित हो उठा. उसने
हनुमानजी से कहा-" हनुमान ! हमें कैसे दुर्भाग्य का सामना करना पड़ रहा है. यह
सब उस कैकेई की करनी का फ़ल है. सर्वप्रथम वह महात्मा जटायु के विनाश, फ़िर बालि की
मृत्यु और अब हमारी उसी प्रकार से मृत्यु का कारण बनेगी".
पहली बार संपाती ने जटायु की मृत्यु का समाचार सुना. अपने भ्राता की
मृत्यु का समाचार सुनते ही वह विलाप करने लगा था. वह यह नहीं जान पाया कि उसके भाई
की मृत्यु कैसे हुई?".
उसने कहा-" अभी-अभी मैंने ( अंगद की
ओर संकेत करते हुए.) इस व्यक्ति से मैंने अपने अनुज जटायु की मृत्यु का समाचार
सुना है. कृपा कर मुझे इस विषय में कुछ बताने की कृपा करें. आप सबके मुख से जटायु
के नाम का गुणगान सुनकर मुझे अत्यन्त ही प्रसन्नता हुई है. यद्यपि उसकी मृत्यु का
समाचार सुनकर मैं अत्यन्त ही दुःखी हो गया हूँ".
" हे वानरश्रेष्ठ ! मैं आपसे सहायता
की याचना करता हूँ. बहुत पहले, सूर्य की किरणॊं से मेरे पंख जल गए थे और अब मैं उड़
नहीं सकता हूँ. क्या आप इस पर्वत की चोटी से नीचे आने में मेरी सहायता
करेंगे?".
वानरों ने सम्पाती को पर्वत की चोटी से
नीचे उतरने में सहायता की. तत्पश्चात अंगद ने रामजी के वनवास जाने से लेकर जटायु
के वीरतापूर्ण बलिदान की कथा सुनाई. अपने भाई के बलिदान की कथा को सुनकर भावविह्वल
होते हुए वह विलाप करने लगा. फ़िर रूँधे हुए स्वर में अपने विषय में बताया
-"बहुत समय पहले मैंने और जटायु ने अपने पराक्रम का आकलन करने की इच्छा से
स्वर्ग के राजा को ललकारा. आकाश में ऊँचा उड़ते हुए हम स्वर्गलोक तक जा पहुँचे और
हमने उन्हें युद्ध में इन्द्र को पराजित किया. इसी अभिमान में आकर हमने सूर्य के
निकट जाने का निर्णय किया. सूर्य के ताप से जटायु अचेत होने लगा. उसे बचाने के लिए
मैंने अपने दोनों पंख फ़ैलाए. ऐसा करते हुए मेरे पंख जल गए और मैं विन्ध्य पर्वत पर
गिर पड़ा".
सम्पाती की बातों को सुनकर अंगद ने
हस्तक्षेप करते हुए कहा-" हे महाशय ! यदि आप वास्तव में जटायु के अग्रज हैं
और हमारे शुभचिन्तक हैं, तब हमें रावण के निवास के विषय में बतलाएँ".
" हे युवराज अंगद ! मैं अत्यन्त ही
वृद्ध हो चुका हूँ और मेरे पंख भी जल गए है. अतएव मैं श्रीरामजी की सेवा करने में
असमर्थ हूँ. मुझे बताया गया कि रावण एक युवती को बलपूर्वक अपहरण करके ले जा रहा
था. वे "राम ! राम ! चिल्लाते हुए अपने कुछ आभूषण भूमि पर गिराये थे. मैं जानता
हूँ कि रावण राक्षसों का राजा है और उसका राज्य लंका, दक्षिणी तट से सौ योजन दूर
एक द्वीप पर स्थित है".
"
हे अंगद ! भले ही मैं वृद्ध हो चुका हूँ, लेकिन विनता का वंशज होने के कारण
मैं एक सौ योजन से भी अधिक दूर तक देख सकता हूँ.
मेरे प्रिय वानरों ! तुम लंका जाकर, राक्षसियों द्वारा चारों तरफ़ से
घिरी हुई सीता को देख सकते हो.कृपया कर आप
लोग मेरा एक छोटा-सा कार्य कर दो. मुझे सागर के तट तक ले चलो, ताकि मैं अपने मृत
भाई जटायु की आत्मा को जलार्पन कर सकूँ".
वानरों को जब सीताजी के विषय में जानकारी
मिली, तो सभी के निराशा से घिर उठे मन में प्रसन्नता का समुद्र हिलोरे लेने लगा.
खोया हुआ उत्साह पुनः संचरित होने लगा. लेकिन जाम्बवान सम्पाति के उत्तर से
संतुष्ट नहीं हो पा रहे थे. उन्होंने सम्पाति से जानना चाहा-" हे वृद्ध
सम्पाती जी ! आपने स्वयं अपने नेत्रों से रावण को सीता जी का अपहरण ले जाते नहीं
देखा है, फ़िर आप यह कैसे कह सकते हैं कि वह रावण ही था?".
सम्पाति ने कहा-" हे जाम्बवान !
जैसा कि मैंने आपको बतलाया कि मेरे पंखों के जल जाने के बाद मैं विन्ध्य पर्वत पर
गिर गया था, तब मेरा पुत्र सुपार्श्व मेरी सेवा में लग गया और वही मेरे भोजन का
प्रबन्ध करता. एक बार मुझे जोरों की भूख लगी और सुपार्श्व बिना भोजन लिए ही लौट
आया तो मैंने उसकी निंदा की और बिना भोजन लिए लौट आने का कारण जानना चाहा तो उसने
बताया-" आज मैं मांस की खोज में था, तब मैंने आकाश मार्ग से जाते हुए एक
विशाल राक्षस को देखा जो एक युवा स्त्री को लिए जा रहा था. मैं उन दोनों को पकड़कर
भोजन के लिए लाना चाहता था, किन्तु उस राक्षस ने मैत्रीपूर्ण वचन कहे और मुझसे
वहाँ से जाने की अनुमति माँगी. मैं उसके आग्रह को ठुकरा नहीं पाया. उसके पश्चात
मुझे सिद्ध लोक के निवासियों ने आकर बतलाया कि वह रावण ही था. यह तो मेरा सौभाग्य
था कि उसने मेरा वध नहीं किया".
सम्पाती ने देखा कि अब वानरों को उसकी
मित्रता पर विश्वास हो गया है, तो उसने अतिविश्वास के साथ अपने जीवन की कथा आगे
सुनाने लगा-" विन्ध्य पर्वत पर गिर जाने के बाद मैं छः दिनों तक अचेत रहा.
चेतना आने पर मैं निकट ही निवास करने वाले निशाकर नाम के एक महान ऋषि के पास गया,
जिनसे मैं और मेरा भाई जटायु परिचित थे. ऋषि से मिलने पर उन्होंने मुझसे पूछा कि
मेरे पंख कैसे जल गए?, तब मैंने उन्हें सारी घटना बतायी. मैंने उन्हें बताया कि
आकाश से गिरने के बाद मुझे अपने भाई की कोई सूचना नहीं मिली. मैंने सोचा कि वह अब शायद जीवित नहीं है. अतः
मैंने पर्वत शिखर से कूद कर आत्महत्या करने का निश्चय किया. तब निशाकर ऋषि ने मुझसे कहा-" निराश मत होवे, मैं
तुम्हें वरदान देता हूँ -"त्रेतायुग में परब्रह्म शरीर धारण करेंगे, तब
राक्षस राज उनकी पत्नी का हर करेगा. प्रभु उनको ढूंढने दूत भेजेंगे, उनसे मिलने पर
तू पवित्र हो जाएगा और तेरे जले हुए पंख पुनः आ जाएंगे".
" ऐसा वरदान देकर ऋषि निशाकर अपनी
कुटिया में चले गए. मैं शनैः-शनैः सरकता हुआ अपने आश्रय विन्ध्य पर्वत लौट आया. तब
से मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ. 8000 वर्ष व्यतीत होने पर
निशाकर ऋषि ने अपना देह त्याग दिया. उनकी अनुपस्थिति में, मुझे उनके वचन की सत्यता
पर संदेह होने लगा".
सम्पाती द्वारा वानरों से ऐसा कहे जाने
के पश्चात उसके शरीर पर पंख उग आए और उसे लगा कि उसके शरीर में युवा-शक्ति का
संचार होने लगा है. अत्यन्त प्रसन्न होकर उसने वानरों को प्रोत्साहित करते हुए
उसने कहा-" मैं देख पा रहा हूँ , परन्तु तुम नहीं देख सकते, क्योंकि गीध की
अपार दृष्टि होती है. मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है, त्रिकूट पर्वत के ऊपर लंका बनी
हुई है, वहाँ स्वभाव से ही निर्भय रावण रहता है. वहाँ अशोक नाम की वाटिका है, वहीं
सीता जी अशोक वृक्ष की छाया में बैठी हुई है. चूंकि मैं वृद्ध हो चुका हूँ, नहीं
तो तुम्हारी सहायता अवश्य ही करता. उसने सीताजी की खोज जारी रखने की सलाह दी और
आकाश में उड़ गया. तब वानरों का दल अति उत्साहित होकर दक्षिण दिशा की ओर चल
दिया.
काफ़ी दूरी तय करने के पश्चात वानरों का दल समुद्र के तट पर
जा पहुँचा. इस दल ने अब तक केवल छोटे-बड़े जलाशय ही देखे थे. वे इस महासागर को पहली
बार देख रहे थे. देख रहे थे कि इसकी कोई सीमा ही नहीं है. चारों ओर जल ही जल था.
मगर आदि जल-जन्तु भी यहाँ देखे जा सकते थे. समुद्र में उठती लहरें बहुत ऊँचा उठकर
घोर गर्जना कर रही थीं.. वह तिमि नामक बड़े-बड़े मत्स्यों को भी निगल जाने वाले
तिमिंगिलों, मतस्यों तथा मगर आदि से व्यापत था. उसमें नाना प्रकार की आकृति वाले सहस्त्रों जल-जन्तु से भरा हुआ था. विकट आकार
वाले दूसरे-दूसरे घोर डरावने जलचरों तथा
उग्र जल-जन्तुओं के कारण वह दुर्घर्ष बना हुआ है. उसके भीतर बहुत-से कछुए और ग्राह
देखे जा सकते हैं.
सरिताओं का स्वामी यह महासागर उत्तम रत्नों की खान है. वरूण
देव इसमें निवास करते हैं. विशालकाय नागों का यह उत्तम गृह है. यह घोर जल-जन्तुओं
के शब्दों से और भी भयंकर प्रतीत हो रहा है.इसमें भयंकर गर्जना भी हो रही है. इसमे
गहरी भँवरें भी उठ रही है, जो किसी भी प्राणी के लिए भय उत्पन्न करने वाली हैं. तट
पर तीव्र गति से बहने वाली वायु सागर को चंचल किये दे रही है. वह बहुत क्षोभ और
उद्वेग से बहुत ऊँचे तक लहरे उठा रहा था मानो तरंग रुपी हाथों को हिला-हिलाकर
नृत्य कर रहा हो. बड़ी-बडी नदियाँ आपस में होड़ लगाकर इस विस्तृत महासागर में
निरन्तर मिलती रहती है और अपने जल से इसे सदा परिपूर्ण करती रहती है.
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सागरों मे अनेक नाम-
समुद्र, अब्धि, अकूपार,पारावार, सरित्पति, उद्न्वान,
उदधि, सिंधु, सरस्वान, सागर, अर्णव, रत्नाकर, जलनिधि, नदीकांत, नदीश, मकरालय,
नीरधि, नीरनिधि, अंबुधि, आयोधि, निधि, इंदुजनक तिमिकष, क्षीराब्धि, मितद्रु,
वाहिनीपति, जलधि, गंगाधर, तोयानिधि, दारद, तिमि, महाशय, वारिराशि,
शैलशिविर,महीप्राचीर, कंपति, पयोधि, नित्य आदि.
===========================================================घोर-गर्जना करने वाले सागर
के तट पर पहुँचे वानरों के समूह ने जब समुद्र के विस्तार को देखकर प्रायः
सभी के मन में भय उत्पन्न हो गया था. उन्हें ऐसा लगने लगा था कि वे शायद ही इस
विशाल सागर को पार कर लंका जा पाएँगे. उदास होकर सभी उसके तट पर बैठ गए.
अंगद ने देखा कि उसके साथी गहरी उदासी लिए बैठ गए हैं.
उन्हें तो हर हाल में समुद्र को पार करते हुए लंका पहुँचना ही होगा, लेकिन कैसे
पार जा पाएंगे, इस चिंता ने उन्हें परेशान कर दिया था. वानरों के दल को नेतृत्व
प्रदान करने वाले अंगद ने स्वयं प्रोत्साहित होते हुए अपने सहायकों की निराशा को
दूर करते हुए कहा-" हमें इस तरह निराश होने की कतई आवश्यकता नहीं है. निराशा
व्यर्थ है, क्योंकि इससे कभी कोई कार्य फ़लित नहीं होते".
उसने बात आगे बढ़ाते हुए कहा- "तुममें से कोई तो ऐसा
वीर होगा जो सौ योजन तक फ़ैले इस समुद्र को लांघकर उस पार जाकर माता सीता का पता
लगा सकता है?. वह कृपा कर आगे आए, ताकि हम सभी को सुग्रीव के क्रोध से मुक्ति मिल
सके".
प्रायः सभी मौन काढ़े बैठे थे. कोई भी सामने आने की हिम्मत
नहीं जुटा पा रहा था. कोई उत्तर नहीं मिलने पर अंगद प्रत्येक के निकट जाकर
व्यक्तिगत रूप से प्रश्न करने लगे कि कौन कितनी दूरी तक छलांग लगा सकता है. कुछ
वानरों ने 10, 20, 30, 40 या 50 योजन तक की दूरी बतायी. मैन्द ने कहा कि वह 60 योजन
की दूरी तक कूद सकता है. द्विविद ने 70 योजन की दूरी कूदने
की बात कही. सुषेण ने बताया कि वह 80 योजन तक की दूरी सरलता से कूद जाने की क्षमता रखता है. जबकि
जाम्बवान ने कहा-" पहले तो मुझमें
असीमित दूरी तक कूद सकने की क्षमता थी, किन्तु अपने जीवन के अन्तिम समय में अब मैं
90 योजन की दूरी तक ही कूद सकता हूँ. उसने यह भी बतलाया कि
बहुत पहले जब भगवान वामन ने तीन विशाल पग से सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड को अपने अधीन कर
लिया था, तब मैंने उनकी परिक्रमा की थी. दुर्भाग्यवश मैं, सीताजी की रक्षा हेतु
कूदकर लंका जा पाने में असमर्थ हूँ".
अब बारी स्वयं अंगद की थी. उसने कहा-" मैं सम्भवतः 100 योजन की दूरी तक कूद सकता हूँ, किन्तु
मुझे संदेह है कि लौटते समय मैं दूसरी बार इतनी दूरी तक कूद सकूँगा".
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अंगद को समुद्र के पार जाकर आने में संदेह क्यों था.
कुछ विद्वानों के अनुसार अंगद और रावण का पुत्र अक्षयकुमार
साथ-साथ विद्या-अध्ययन करते थे. अध्ययन काल में किसी कारणवश अंगद ने अक्षयकुमार को
एक घूँसा मार दिया जिससे अक्षयकुमार अचेत हो गया था. तब गुरू ने अंगद को शाप दे
दिया कि तुम इसके जीते-जी तुम लंका जाओगे तो तुम्हारी मृत्यु अक्षयकुमार के हाथों
होगी. इसलिए अंगद को लौटने में संदेह था कि मैं अक्षय के हाथों मारा जाऊँगा, तो
वापस कैसे आ पाऊँगा.
(२) दूसरा कारण यह
भी था कि अंगद को शाप था कि जिस जल को वह एक बार लाँघ जायेगा, उसे दुबारा लाँघ
नहीं पाएगा.
(३) तीसरा कारण लोग यह भी बतलाते हैं कि रावण की पत्नी
मंदोदरी अंगद की मौसी थीं.(पंच कन्या होने के नाते- दौपदी, अहिल्या,कुन्ती, तारा
तथा मन्दोदरी) इसलिए अंगद को यह भया था कि कहीं मुझे मेरी मौसी यह कहकर न तोक ले
कि तू राम के पक्ष में मत जा और तू मेरे पक्ष में रहकर हमारी ओर से युद्ध कर.
(४) कहीं -कहीं मंदोदरी को अंगद की सगी माँ होना भी बतलाया
गया है. एक कथा के अनुसार - पांच मुनि जंगल में एक जगह भोजन पका कर स्नान करने चले
गए. वे नहा कर आते उससे पूर्व एक चील, जो मरा हुआ सर्प लेकर जा रही थी उसकी चोंच
से छूट कर भोजन में गिर गया. यह सब होता हुआ एक मेंढकी ने देखा और वह भोजन के
पात्रा में जानबूझ कर कूद पड़ी. मुनियों ने भोजन में मेढ़की को पड़े देखकर भोजन ग्रहण
नहीं किया. जब उन्होंने पात्र को उलट कर देखा तो सर्प के अस्थि-पंजर पड़े हुए थे.
मुनियों ने सहज ही अनुमान लगा लिया कि इस मेढक के कारण हमारे प्राण बच गए. अतः उन्होंने प्रसन्न होकर अपने कमण्डल
का जल अभिशिक्त कर उस मेढक पर फ़ेंका,जिससे एक कन्या उत्पन्न हुई. इस प्रकार
मुनियों के मन में विचार आने से जो उदरी (मेढ़की) कन्या के रूप में उत्पन्न हुई,
उसका नाम मुनियों ने " मंदोदरी " रख दिया .
बड़ी होकर मंदोदरी ऋषियों के आश्रम में रहकर उनकी सेवा में
लग गई. संयोगवश ऋषियों की लंगोटी में पतित
वीर्यांश नदी के जल में बह रहा था, मंदोदरी ने उसे अनजाने में पी लिया,जिससे वह
गर्भवती हो गई. बाद में उन्होंने इसका विवाह रावण के साथ करवा दिया. धीरे-धीरे
मंदोदरी का पेट बड़ा होने लगा. उसे भय था कि रावण उसे मार डालेगा. इसी भय से वह
हमेशा सशंकित रहती थी. कहते हैं कि रावण ने मंदोदरी के अनुरोध पर अपनी गर्जना
किष्किन्धा पर्वत पर जहाँ बालि रहता था,सुनाया. रावण की गर्जना सुनकर बालि अपने
गुफ़ा-महल से बाहर निकला. रावण की गर्जना सुनकर मंदोदरी का गर्भपात एक झाड़ी के आड़
में हो गया. बालि को अपनी ओर आता देख रावण मंदोदरी को रथ में बैठाकर लंका भाग आया.
वहाँ पहुँचने पर बालि को झाड़ी में एक नवजात बालक मिला. बालि ने उसे अपने यहाँ ले
आया और उसका लालन-पालन किया. यही बालक बड़ा होकर " अंगद " कहलाया. इस तरह
मंदोदरी को अंगद की माँ भी कहा गया है.
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अंगद की बातों को सुनकर जाम्बवान ने कहा-" मुझे
विश्वास है कि तुम अपने पराक्रम से 1,000 योजन तक की दूरी कूद सकते हो. किन्तु तुम इस आभियान के कर्णधार हो और यह
उचित नहीं होगा कि तुम स्वयं ऐसा करो. इसलिए इस कार्य को सम्पन्न करने का आदेश तुम
किसी और को दो".
निराशा के भँवर से
उभरते हुए अंगद ने कहा- " दल का प्रमुख होने का महत्व तो नगण्य है. यदि मैं
स्वयं या अन्य कोई लंका नहीं जा पाता है, तब एक ही उपाय शेष बचता है कि हम मृत्यु
आने तक यहीं भूखे-प्यासे पड़े रहें. इस
उफ़नते महासागर में तो कोई नौका भी नहीं चलायी जा सकती, नहीं तो हम किसी तरह उस पार
जा सकते थे. अतः हे जाम्बवान, आप ही कोई ऐसा उपाय सुझायें कि हम सागर पार कर सकें
और सुग्रीव के क्रोध से स्वयं को बचा सकें".
जाम्बवान ने कहा-" हे युवराज ! तुम चिन्ता मत करो. मैं
किसी ऐसे व्यक्ति से निवेदन करूँगा जो निश्चित ही इस दुष्कर कार्य को कर
पाएगा."
ऐसा कहते हुए उन्होंने हनुमान जी की ओर देखा, जो शांत भाव
लिये हुए, अपने संगी-साथियों से दूरी बनाकर एक ओर बैठे हुए थे. शायद वे इस विकट
परिस्थिति से बाहर निकलने का कोई कारगर उपाय खोजने के बारे में गंभीरता से मनन कर
रहे थे.
वृद्ध जाम्बवान अपनी जगह से उठे और अपने दल के सभी साथियों
को लेकर उस ओर प्रस्थित हुए. जहाँ महावीर हनुमानजी अपने आप में खोये हुए थे.
जाम्बवान ने उनकी पीठ पर अपनी हथेली रखी. एक हल्का-सा स्पर्श पाकर उनका ध्यान भंग
हुआ. उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, जाम्बवान शायद उनसे कुछ कहना चाह रहे हैं.
का चुप साधि रहेहु बलवाना.
" हे महावीर ! हे सम्पूर्ण शास्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! हे हनुमान !
तुम भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ के समतुल्य हो. तुम यहाँ एकान्त में चुपचाप क्यों
बैठे हो?. कुछ बोलते क्यों नहीं.? तुमने मौन क्यों साध रखा है".
" हे हनुमान ! तुम तो वानरराज सुग्रीव के समान महान पराक्रमी हो तथा तेज
और बल में श्रीराम और लक्ष्मण के तुल्य हो. पक्षियों में श्रेष्ठ गरुड़ के समान तुम
विख्यात शक्तिसाली एवं तीव्रगामी हो".
" हे वानरशिरोमणि ! तुम्हारा बल, बुद्धि, तेज, धैर्य भी समस्त प्राणियों
में सबसे बढ़कर है. फ़िर तुम क्यों समुद्र
लांघने के लिए तैयार नहीं हो?".
" हे वीर ! मैं तुम्हें तुम्हारे प्रादुर्भाव की कथा सुनाता हूँ. वानरराज
केशरी से विवाह के उपरान्त तुम्हारी माता अन्जना एक पर्वत शिखर पर विचर रही थी.
वायुदेव ने उन्हें देखा और वे कामभाव से आवेशित हो उठे. उन्होंने उसे अपनी दोनों
भुजाओं में भरकर अपने हृदय से लगा लिया. अन्जना घबरा उठीं और बोली-" कौन है,
जो मेरे पातिव्रत का नाश करना चाहता है". तब वायुदेव उनके सामने प्रकट होकर
बोले-" मैं तुम्हारे पातिव्रत्य धर्म का नाश नहीं कर रहा हूँ. मैंने तो
अव्यक्तरुप से तुम्हारा आलिंगन करके मानसिक संकल्प के द्वारा तुम्हारे साथ समागम
किया है. इससे तुम्हें बल और पराक्रम से सम्पन्न एवं बुद्धिमान पुत्र उत्पन्न
होगा. वह महान धैर्यवान, महातेजस्वी, महाबली, महापराक्रमी तथा लाँघने और छलाँग
मारने में मेरे ही समान होगा".
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पुंजिकस्थली माने माता अंजनी
पुंजिकस्थली देवराज इन्द्र की सभा में एक अप्सरा थीं. एक बार जब दुर्वासा ऋषि
इन्द्र की सभा में उपस्थित थे, तब अप्सरा पुंजिकस्थली बार-बार अंदर-बाहर आ-जा रही थीं. इससे गुस्सा होकर ऋषि
दुर्वासा ने उन्हें वानरी हो जाने का
शाप दे दिया. पुंजिकस्थली ने क्षमा मांगी, तो ऋर्षि ने इच्छानुसार रूप धारण करने का वर भी दिया.
कुछ वर्षों बाद पुंजिकस्थली ने वानर श्रेष्ठ विरज की पत्नी
के गर्भ से वानरी रूप में
जन्म लिया. उनका नाम अंजनी रखा गया. विवाह योग्य होने पर पिता ने अपनी सुंदर
पुत्री का विवाह महान पराक्रमी कपि शिरोमणी वानरराज केसरी से कर दिया. इस रूप में पुंजिकस्थली माता अंजनी कहलायीं.
जब वानरराज को दिया
ऋर्षियों ने वर
एक बार घूमते हुए वानरराज केसरी प्रभास तीर्थ के निकट पहुंचे. उन्होंने देखा कि बहुत-से
ऋषि वहाँ आए हुए हैं. कुछ साधु किनारे पर आसन लगाकर पूजा अर्चना कर रहे थे. उसी समय वहां एक विशाल
हाथी आ गया और उसने ऋषियों
को मारना प्रारंभ कर दिया.
ऋषि भारद्वाज आसन पर शांत होकर बैठे थे, वह दुष्ट हाथी उनकी ओर झपटा. पास के पर्वत शिखर से
केसरी ने हाथी को यूं उत्पात मचाते देखा तो उन्होंने बलपूर्वक उसके बड़े-बड़े दांत
उखाड़ दिए और उसे मार डाला.
हाथी के मारे जाने पर प्रसन्न होकर ऋर्षियों ने कहा, " वर मांगो वानरराज ".' केसरी ने वरदान मांगा, " प्रभु , इच्छानुसार रूप धारण करने
वाला,
पवन
के समान पराक्रमी तथा रुद्र के समान पुत्र आप मुझे प्रदान करें". ऋषियों ने 'तथास्तु' कहा और वो चले गए.
मां अंजना का क्रोधित होना
एक दिन माता अंजनी, मानव रूप धारण कर पर्वत के शिखर पर जा रही थीं. वे डूबते हुए सूरज की खूबसूरती को निहार रही थीं. अचानक तेज
हवाएं चलने लगीं. और उनका वस्त्र कुछ उड़-सा गया. उन्होंने चारों तरफ देखा
लेकिन आस-पास के पृक्षों
के पत्ते तक नहीं हिल रहे थे.
उन्होंने विचार किया कि कोई राक्षस अदृश्य होकर धृष्टता कर रहा है. अत: वे जोर से बोलीं, " कौन दुष्ट मुझ पतिपरायण
स्त्री का अपमान करने की चेष्टा करता है?". तभी अचानक पवन देव प्रकट हो गए और बोले, " देवी, क्रोध न करें और मुझे क्षमा करें. मैं तुम्हारे पातिव्रत्य धर्म का नाश नहीं कर रहा हूँ.
मैंने तो अव्यक्तरुप से तुम्हारा आलिंगन करके मानसिक संकल्प के द्वारा तुम्हारे
साथ समागम किया है. इससे तुम्हें बल और पराक्रम से सम्पन्न एवं बुद्धिमान पुत्र
उत्पन्न होगा. वह महान धैर्यवान, महातेजस्वी, महाबली, महापराक्रमी तथा लाँघने और
छलाँग मारने में मेरे ही समान होगा".
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"वायुदेव के ऐसा कहने पर माता अन्जनी प्रसन्न हो गयीं. हे वानरश्रेष्ठ !
उन्होंने तुम्हें एक गुफ़ा में जन्म दिया. बाल्यावस्था में तुमने उदित सूर्य को
देखकर फ़ल समझ लिया और उसे पाने के लिए तुम सहसा आकाश में उछल पड़े. तीन सौ योजन
ऊँचे जाने के बाद भी सूर्य के तेज से आक्रान्त होने पर भी तुम्हारे मन में खेद या
चिन्ता नहीं हुई. अन्तरिक्ष में उड़ते हुए तुम सूर्य के निकट पहुँच गए और उसे निगल
गए. संसार में अन्धेरा छा गया. तब इन्द्र
ने कुपित होकर तुम्हारे ऊपर वज्र का प्रहार कर दिया. वज्र के प्रहार से तुम्हारा
ठोडी का अग्रभाग खण्डित हो गया. ठोडी को हनु भी कहते हैं. अतः तुम्हारा नाम हनुमान
पड़ गया".
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"जुग सहस्त्र जोजन पर भानु।
लील्यो
ताहि मधुर फल जानू।।"
अर्थात- हनुमानजी ने एक
युग सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित भानु यानी सूर्य को मीठा फल
समझकर खा लिया था. एक युग= 12000 वर्ष एक सहस्त्र= 1000 एक योजन= 8 मील युग x सहस्त्र x योजन = पर भानु 12000 x 1000 x 8 मील = 96000000 मील एक मील = 1.6 किमी 96000000 x 1.6 =
153600000 किमी
इस गणित के आधार गोस्वामी तुलसीदास ने प्राचीन समय में ही बता दिया था कि
सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर है.
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"तुम पर प्रहार किया गया है, यह देखकर वायुदेव को बड़ा क्रोध आया और
उन्होंने लोकों में प्रवाहित होना छोड़ दिया. वायु के अवरुद्ध हो जाने से तीनों
लोकों में खलबली मच गयी. सारे देवता घबरा गये. उस समय समस्त देवता कुपित वायुदेव
को मनाने पहुँचें. तब जाकर तुम्हारे पिता का क्रोध शांत हुआ. और उन्होंने अपने
प्रवाह को गतिशील बना दिया".
"ब्रह्मा जी ने तुम्हें वरदान दिया कि तुम समरांगण में किसी भी
अस्त्र-शत्र से मारे नहीं जा सकोगे. त्रिनेत्रधारी इन्द्र ने वर दिया कि मृत्यु
तुम्हारे अधीन रहेगी. तुम जब चाहोगे, तभी मर सकोगे, अन्यथा नहीं. चूंकि तुम
वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि भी उन्हीं के समान हो. वत्स ! तुम
पवन के पुत्र हो, अतः छलांग मारने में भी उन्हीं के तुल्य हो. तुम वानरराज की
भांति ही चातुर्य और पौरुष से भी सम्पन्न हो. हे हनुमंत ! तुम रुद्र के ग्यारहवें
अवतार हो. तुम्हें अपने बारे में कुछ पता नहीं है कि तुम क्या हो? तुम कैसे अपने
पराक्रम को भूल बैठे हो, उसे सुनो. तुम बचपन में बहुत ज्यादा शरारती थे और
तपस्वियों को परेशान किया करते थे. तुम्हारी शरारतों से परेशान होकर अंगिरा और
भॄगुवंश के मुनियों ने श्राप दिया था कि
तुम अपनी शक्तियों को भूल जाओगे. तुम्हें अपनी शक्तियां तभी याद आएंगी, जब कोई
तुम्हें याद दिलाएगा".
कवन
सो काज कठिन जग माहीं * जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं. राम काज लगि तव
अवतारा * सुनतहिं भयौ पर्वताकारा.
" हे वीर हनुमान ! अपनी शक्तियों को पहचानो, तुम
बुद्धिमान, विवेकशील और विज्ञान की खान हो. संसार में ऐसा कौन-सा कठिन काम है, जो
तुम न कर सको. जागो हनुमान. जागो.. अपनी शक्तियों को जगाओ. जाम्बवान जी के याद
दिलाते ही उन्होंने जोरदार गर्जना करते हुए कहा-" जै श्रीराम..जै श्रीराम और
वे उठ खड़े हुए. खड़े होते ही उनका शरीर पर्वताकार हो गया. वे बार-बार सिंह गर्जना
करते हुए बोले-" मैं इस अपार समुद्र को खेल ही खेल में लाँघ जाऊँगा. सहायकों
सहित रावण को मारकर और त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर यहाँ ले आऊँगा".
हनुमानजी शक्ति संपन्न होने के साथ ही साथ बुद्धिमान भी थे.
अक्सर अपरिमित शक्तियों को पाकर कभी-कभी कुछ काम ऐसे भी होते हैं जिन्हें नहीं
करना चाहिए. ताकत के बल पर आदमी क्या कुछ नहीं करता, भले ही उसे बाद में पछताना
पड़े. हनुमानजी नहीं चाहते थे कि उनके हाथ से कोई गलत काम हो जाये. फ़िर भी उन्होंने
जामवन्त जी से पूछा -हे जामवन्त जी ! मैं आपसे पूछता हूँ कि मुझे वहाँ जाकर क्या
करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?. कृपा कर मुझे उचित शिक्षा दीजिए".
हनुमान जी की बातों को सुनकर जामवन्त जी ने कहा-" हे
पवनपुत्र हनुमान ! तुम वहाँ जाकर इतना ही करो कि सीताजी को देखकर चले आओ और उनकी
खबर रामजी से कह सुनाओ. तब कमल-नयन प्रभु
अपनी भुजाऒं के बल से सीताजी को ले आवेंगे तथा कौतुक के लिए हम कपियों की सहायता लेंगे.
जब तुम लौटकर यहाँ आओगे, तब तक हम तुम्हारी प्रतीक्षा में एक पैर से खड़े रहेंगे,
क्योंकि हम सब वानरों का जीवन तुम्हारे अधीन
है.
जामवन्त की बातों को सुनकर उन्होंने उन्हें विनम्रता से
प्रणाम करते हुए कहा-" हे तात ! मैं महेन्द्र पर्वत की चोटी से छलांग लगाऊँगा
क्योंकि इसके लिए मुझे पृथ्वी पर जो भारी दबाव डालना होगा उसको सहन की क्षमता केवल
इसी पर्वत में है". ऐसा कहते हुए हनुमानजी चल दिए और क्षण भर में शक्तिशाली
महेन्द्र पर्वत पर जा पहुँचे, जो उनकी उस गौरवमयी छलांग में सहायक हो सकता था.
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[h1]घ्ह्ह
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