Tuesday 23 October 2012

यात्रा बदरीनाथ धाम की


                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                        यात्रा बद्रीनाथ धाम की                                                                                    

उत्तराखण्ड के गढवाल अंचल में श्री बद्रीनाथ,केदारनाथ,पतित पावनी गंगा, यमुना,अलकनन्दा,भागीरथी,आदि दर्जनों नदियों का उद्गमस्थल, पंच प्रयाग, पंचबद्री, पंच केदार,,उत्तरकाशी,गुप्तकाशी आदि अवस्थित हों,ऐसे विलक्षण क्षेत्र उत्तराखंड का गढवाल मंडल सही अर्थों में यात्रियों का स्वर्ग है.                                                                                                                                                        यहाँ पहुंचने से पहले यात्री को हरिद्वार जाना होता है.यहीं से बद्रीनाथ जाने के लिए बसें-टैक्सी आदि मिल जाती है.  हरिद्वार से यमुनोत्री 246कि.मी, गंगोत्री 273I कि.मी, केदारनाथ 248किमी और बद्रीनाथ 326किमी की दूरी पर अवस्थित है.                                                                                                                                  
मां  भगवती गंगा यहाँ पर्वतीय क्षेत्र छोडकर बहती है. नदी के पावन तट पर मां गंगा का मन्दिर स्थापित है,जहाँ उनकी पूजा-अर्चना अनन्य भाव से की जाती है. मां गंगा की आरती सुबह-शाम को होती है. हजारों की संख्या में भक्तगण उपस्थित होकर अपने आप को धन्य मानते हैं. इसे हर की पौढी भी कहते है. गंगा के तट पर अनेक साधु-महात्मा के दर्शन लाभ भी यात्री को होते हैं. यहाँ अनेक धर्मशालाएं-होटलें हैं, जो सस्ती दर पर आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं.
      कुछ दूरी पर गायत्री संस्थान है,जिसकी आधारशिला आचार्य श्रीराम शर्माजी ने रखी थी. यह स्थान गायत्री परिवार वालों के लिए किसी स्वर्ग से कम नहीं है. हजारों की संख्यां में लोग यहां आते हैं,और दर्शन लाभ कर पुण्य कमाते है. साधक भी यहां बडी संख्यां में आकर जप-तप करते आपको मिल जाएंगे. यहां निशुल्क रहने तथा उत्तम भोजन की व्यवस्था गायत्री संस्थान ने कर रखी है. संस्थान का अपना औषधालय हैं,जहां रोगी अपना इलाज कुशल वैद्दों से करवाकर उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त करते हैं. संस्था का अपना कई एकडॊं में फ़ैला उद्दान है जहाँ दुर्लभ जडी-बूटियों की पैदावार होती है.

           आगे की यात्रा के लिए पर्यटक को ऋषिकेश रात्री विश्राम करना होता है. सुबह गढ्वाल मंडल की बस से बद्रीनाथ के लिए बसें जाती हैं. यात्रियों को चाहिए कि वे अपनी सीटॆ आरक्षित करवा लें,अन्यथा आगे की यात्रा में कठिनाइयां आ सकती हैं. मार्ग काफ़ी संकरा और टेढा-मेढा –घुमावदार है. पहाडॊं की अगम्य उँचाइयों पर जब  बस अपनी गति से चलती है तो उसमें बैठा यात्री भय से कांप उठता है. हजारों फ़ीट पर आपकी बस होती है और अलकन्दा अपनी तीव्रतम गति से शोर मचाती,पहाडॊं पर से छलांग लगाती,उछलती,कूदती आगे बढती है. बस चालक की जरा सी भूल से कभी-कभी भयंकर एक्सीडॆंट भी हो जाते हैं. अतः जितनी सुबह आप अपनी यात्रा जारी कर सकते हैं,कर देना चाहिए.
      ऋषिकेश में गंगा स्नान,किनारे पर बने भव्य मंदिरों में आप भगवान के दर्शन भी कर सकते है. गंगाजी का पाट यहां देखते ही बनता है.
(शिवजी की विशाल मूर्ति तप करते हुए)                           (लक्षमण झूला.)
अनेक मन्दिरों,आश्रमों के अलावा लक्षमण झूला      भी है,जो नदी के दो तटॊं को जोडता है. इस पर से नदी पार करने पर मन में रोमांच तो होता है साथ ही इसकी कारीगरी को देखकर विस्मय भी होता है.
ऋषिकेश से बद्रीनाथ की यात्रा के दौरान रास्ते में नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग,तथा देवप्रयाग नामक स्थान भी मिलते हैं. इनका अपना ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व है. गंगा अपने उद्गम के बाद 12 धाराओं में विभक्त होकर आलग-अल्ग दिशाओं में बहती है. इन स्थानों पर वे या तो बहकर निकलती है या फ़िर यहां दो नद्दियों का संगम होता है. प्रत्येक स्थान को पास से देखने में समय लगता है, यात्री यहाँ न रुकते हुए सीधे आगे बढ जाता है,क्योंकि उसमे मन में बदरीनाथजी के दर्शन करने की उत्कंठा ज्यादा तीव्र होती है
इन सभी स्थानों का अपना पौराणिक महत्व है. इन्हीं स्थानों पर रामायण ,महाभारत की रचनाएं की गयी थी. राजा युधिष्ठिर अपने भाईयों व द्रौपदी के साथ इन्हीं स्थानों से होकर गुजरे थे और हिमालय की अगम्य चोटी पर जाकर अपने प्राणॊं का त्याग किया था
बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री के मन्दिर केवल छः माह (मई से अक्टूबर) तक खुले रहते हैं.शेष छः मास तक ‍भीषण ठंड पडने,के कारण बंद रहते है. अकटूबर माह में बद्रीविशाल की पूजा-अर्चना करने के उपपरांत घी का विशाल दीप प्रज्जवलित कर बन्द कर दिया जाता है. छः मास बाद जब मन्दिर के पट खोले जाते हैं तो वहाँ पर ताजे पुष्प और दिव्य दीपक जलता हुआ मिलता है. ऐसी मान्यता है कि इस अवधि में नारद  मुनि जो ‍विष्णु के परम भक्त हैं,यहाँ रहकर अपने आराध्य की पूजा-अर्चना करते हैं. पूजा के ताजे पुष्प का मिलना, इस बात का प्रमाण है कि वहाँ पूजा-अर्चना होती रही है. इससे बडा प्रमाण और क्या चाहिए.                                                                                                                                                                                    पर्यटक, सुबह जितनी जल्दी ऋषिकेश से रवाना हो जाए,उतना ही फ़ायदा उसे होता है. शाम का कुहरा गहरा जाने से पूर्व वह बद्रीनाथ जा पहुँचता है. वहां पहुंचकर उसे अपने लिए धर्मशाला-होटल भी तो लेना होता है. इस बीच ठंड भी बढ चुकी होती है.                                                                                                                                                   (बद्रीनाथजी का भव्य मन्दिर)                                                                                                                                                                   
(मंदिर के प्रांगण मे लेखक अपनी पत्नि के साथ)

बद्रीनाथ का मन्दिर अलकनंदा नदी के उस पार अवस्थित है. पुल पारकर आप मन्दिर में दर्शनों के लिए जा सकते हैं. नदी से इसी पार पर धर्मशालाएं,होटले आदि उपलब्ध हो जाती हैं. मन्दिर के पास ही गरम पानी का कुण्ड है,जिसमे यात्री नहा सकता है. इस कुण्ड से जुडी एक कथा है.जब भगवान बद्रीनाथजी इस स्थान पर अवस्थित हो गए तो भगवती लक्ष्मी ने कहा कि आपके भक्त गण कितनी कठिन यात्रा कर केवल आपके दर्शनार्थ आते है, और उन्हें स्नान कर आपकी पूजा-अर्चना करना होता है. लेकिन इस स्थान पर तो बर्फ़ की परत बिछी रहती है और भीषण ठंड भी पडती है. यदि उनके नहाने के लिए कोई व्यवस्था हो जाती तो कितना अच्छा रहता. बद्रीनाथजी ने तत्काल मन्दिर के समीप अपनी बांसुरी को  जमीन पर छुलाया, एक गर्म पानी का कुण्ड वहाँ बन गया. सभी यात्री यहाँ बडे अनन्य भाव से नहाकर अपने आपको तरोताजा कर,पूजा अर्चना करता है.                                                                                                           बद्रीनाथजी की मुर्ति शालग्रामशिला की बनी हुई है. यह चतुर्भुजमुर्ति ,ध्यानमुद्रा में है. एक कथा के अनुसार इस मूर्ति को नारदकुंड से निकालकर स्थापित की गई थी. तब बौद्धमत अपने चरम पर था. इस मुर्ति को भगवान बुद्ध की मुर्ति मानकर पूजा होती रही,. जब शंकराचार्य  इस जगह पर हिन्दू धर्म के प्रचारार्थ पहुंचे तो तिब्बत की ओर भागते हुए बौद्ध इसे नदी में फ़ेंक गए. उन्होने इसे वहां से निकालकर पुनः स्थापित किया. तीसरी बार इसे रामानुजाचार्य ने स्थापित किया .
पौराणिक मान्यता के अनुसार गंगाजी अपने अवतरण के बाद 12 धाराओं में विभक्त हो जाती है.. अलकनन्दा के नाम से विख्यात नदी के तट श्रीविष्णु को भा गए और वे यहां अवस्थित हो गए..
लोक कथा के अनुसार,नीलकण्ठ पर्वत के समीप श्री विष्णु बालरुप में अवतरित हुए. यह जगह पहले से ही केदारभूमि के नाम से विख्यात थी. श्री विष्णु,तप करने के लिए कोई उपयुक्त स्थान की तलाश में थे. अलकनन्दा के समीप की यह भूमि उन्हें अच्छी लगी और वे यहां तप करने लगे. यह स्थान बद्रीनाथ के नाम से जाना गया.
बद्रीनाथ की कथा के अनुसार भगवान विष्णु योगमुद्रा मे तपस्या कर रहे थे. तब इतना हिमपात हुआ कि सब तरफ़ बर्फ़ जमने लगी. बर्फ़ तपस्यारत विष्णु को भी अपने आगोश में लेने लगी तब माता लक्ष्मी ने बद्री- वृक्ष बनकर भगवानजी के ऊपर छाया करने लगी और उन्हें बर्फ़ से बचाती हुई स्वयं बर्फ़ में ढंक गयीं. भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर उन्हें वर दिया कि वे भी उन्हीं के साथ रहेगी. यह वही स्थान है जहां स्वयं लक्ष्मी बदरी( बेर) का वृक्ष बन कर अवतरित हुईं, बद्रीनाथ के नाम से जगविख्यात हुआ.
मुर्ति के दाहिनि ओर कुबेर, उनके साथ में उद्द्वजी तथा उत्सवमुर्ति है. उत्सवमुर्ति शीतकाल में बर्फ़ जमने पर जोशीमठ ले जायी जातीहै. उद्दवजी के पास ही भगवान की चरणपादुका है. बायीं ओर नर-नारायण की मुर्ति है और इसी के समीप श्रीदेवी और भूदेवी विराजमान है.                                                                        चरणपादुका को लेकर एक पौराणिक कथा है कि द्वापर में जब भगवान श्रीकृष्ण अपनी लीलाओं को समेट रहे थे, तब उनके अनन्य भक्त नारदमुनि ने बडे ही अनन्यभाव से प्रार्थणा करते हुए पूछा था कि भगवन ,अब आपसे अगली भॆंट कब, कहां और किस रुप में होगी?. तो भक्तवत्सल प्रभु ने मुस्कुराते हुए अपनी चरण पादुका उतारकर नारदजी को देते हुए बतलाया कि अमुक स्थान पर मेरी चरणपादुका को स्थापित करते हुए पूजा-अर्चना करते रहें, वे समय आने पर बद्रीनाथ के नाम से धरती पर अवतरित होंगे. श्रीविग्रह के पास रखी चरणपादुका का मिलना और जब मन्दिर के कपाट खोले जाते हैं,तब ताजे खिले हुए सुगंधित पुष्पों का मिलना ,इस बात की पुष्टि करते हैं कि नारद अपने ईष्ट की पूजा-अर्चना आज भी करते हैं. वे किस रुप में वहां आते हैं,यह आज तक कोई नही जान पाया है,लेकिन वे आते जरुर हैं.
बद्रीनाथजी के मन्दिर के पृष्टभुमि पर आपको आकाश से बात करता जो पर्वत शिखर दिखालायी देता है,उसकी ऊँचाई 7.138 मीटर है,जिस पर हमेशा बर्फ़ जमी रहती है. बर्फ़ से चमचमाते पर्वत शिखर को देखकर यात्री रोमांचित हो उठता है.             वैसे तो यहां धुंध सी छायी रहती है. यदि आसमान साफ़ रहा तो सूर्य की किरणें परावर्तित होकर                रंगबिरंगी छटा बिखेरती है.                                                                                                          अन्य स्थानॊं की अपेक्षा यहां चढौतरी को लेकर किसी किस्म की परेशानी नहीं होती और भगवान के दर्शन लाभ भी बडी आसानी से हो जाते हैं. कुछ पर्यटक पण्डॊं के चक्कर में न पडते हुए पूजा_पाठ करते पाए जाते हैं.जबकि यहां के पण्डॆ, आपसे न तो जिद करते हैं और न ही कोई मोल भाव. आप अपनी श्रद्धा से जो भी दे दें, स्वीकार कर लेते हैं. अपने जजमान के खाने-पीने-पूजा-पाठ के लिए वे विशेष ध्यान भी देते है,साथ ही गाईड की भी भुमिका निभाते है. वे आपका नाम-पता आदि अपनी बही मे दर्ज कर लेते हैं और जब मन्दिर के कपाट बंद हो जाते हैं,उस अवधि में वे अपने जजमान के यहाँ बद्रीनाथ का प्रसाद-गंगाजल आदि लेकर पहुँचते हैं और प्राप्त धन से अपना जीवनोपार्जन करते हैं.
 हजारों फ़ीट की ऊँचाई पर खडा व्यक्ति ,जब मन्दिर के प्रांगन से, चारों ओर अपनी नजरें घुमाता है, तो प्रकृति का अद्भुत नजारा,             उसे अपने सम्मोहन में बांध लेता है. कल्पनातीत दृष्य देखकर वह रोमांचित हो उठता है.
नर-नारायण के विग्रह- बद्रीनाथजी की पूजा में मुख्यरुप से वनतुलसी की माला, चने की दाल, नारीयल का गोला तथा मिश्री चढाई जाती है,जो उन्हें अत्यन्त ही प्रिय है.                                                                               बद्रीविशाल के मन्दिर से कुछ दूरी पर एक और ऊँचा शिखर दिखलायी देता है,जिसे नीलकंठ के नाम से जाना जाता है. इसकी भव्यता और सुन्दरता को देखते हुए इसे क्विन आफ़ गढवाल भी कहा जाता है. माणागांव भारत का अन्तिम गाँव है, कुछ पर्यटक इस गांव तक भी जाते हैं. करीब 8किमी दूर एक पुल है जिसे भीमपुल भी कहते है ,इस स्थान पर ‌अष्ट वसुओं ने तपस्या की थी. लक्ष्मीवन भी पास ही है. यहीं से एक रास्ता जिसे सतोपंथ के नाम से जाना जाता है. इसी मार्ग से आगे बढते हुए राजा युधिष्ठिर ने अपने भाइयों और भार्या साहित अपनी इहलीला समाप्त की थी. सरस्वती नदी को माणागांव में देखा जा सकता है. भगवान विष्णु की जंघा से उत्पन्न अप्सरा उर्वशी का मन्दिर बामनी गांव में मौजूद है.                          
आप किसी लोककथा-पौराणिक कथा और स्थानीयता के आधार पर बनी दंतकथाओं पर विश्वास करें या न करें,लेकिन जीवन में एक बार इन पवित्र और दिव्य स्थानों के दर्शनार्थ समय निकाल कर अवश्य जाएं. प्रकृति की बेमिसाल सुन्दरता, ऊँची-ऊँची पर्वत मालाएँ, सघन वन,और चारों ओर छाई हरियाली आपकॊ अपने सम्मोहन में बांध लेगी.  प्रकृति का यह सम्मोहित स्वरुप आपमें एक नया जोश, एक नया उत्साह भर देगी. इसी बहाने आप अपने देश, भारत की अन्तिम सीमाऒं पर पहुँच कर आत्मगौरव से भर उठेंगे. शायद इन्हीं विचारों से ओतप्रोत होकर आदिशंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाऒं में पीठॊं की स्थापना की थी. ऐसा उल्लेख हमें अपने पौराणिक ग्रंथॊं मे पढने को मिल जाता है कि भगवान जब भी मनुष्य रुप में इस धरती पर अवतरित होना चाहते हैं तो वे भारतभूमि में ही अवतार लेना पसंद करते है.                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             

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